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बतलाकर फिर इसके अधिकारी कौन हो सकते हैं यह भी स्पष्टतया बतलाया गया है। तत्पश्चात् बिना किसी आडम्बरके इस ग्रन्थकी समाप्ति की गई है।
इस बातका निर्णय होना अत्यन्त कठिन है कि सूरिमहाराजने इस ग्रन्थकों कौनसे वर्ष में लिखा है। मुझे ऐसा प्रतीत होता
है कि सूरिमहाराजने उपदेशरत्नाकर ओदि ग्रन्थोंकृतिका समय को बनानेके पश्चात् अपने जीवनके अन्तिम
कालमें अपने स्थअनुभवका रहस्य इस ग्रन्थद्वारा बाहर डाला है आर इस ग्रन्थके सर्व श्लोक एक साथ नहीं, किन्तु समय समय पर जब जब मनमें स्फुरणा हुई होगी तब तब लिखा होगा ऐसा जान पड़ता है। सातवें कषायनिग्रह अधिकारमें क्रोध, मानके स्वरूपमें बीचमें मायाके श्लोक आते हैं, अपितु लोभ त्यागके उपदेशके पश्चात् क्रोध त्यागका स्वरूप आता है। मुनि सुन्दरसूरि महाराज जैसे बड़े लेखकने जब उपदेशरत्नाकरमें ऐकसी शैली द्वारा एक विषयको एक सिरेसे दूसरे सिरे तक नियमपूर्वक लिखा है तब उनके इसप्रकार तितर-वितर सम्बन्ध रहित श्लोकोंके लिखनेका एक ही प्रकारसे खुलासा हो सकता है । इसीप्रकार देवगुरु धर्मशुद्धि अधिकारका विषय बहुधा गुरुशुद्धिपर ही लिखा गया है। इसप्रकार अनुमान किया गया है परन्तु यदि यह सच्चा हो तो इससे ग्रन्थकी किमत बहुत वृद्धि होना सम्भव है । कुदरती तौरसे अवलोकन करने पर हृदयमेंसे जो उद्गार निकलते हैं वे कृत्रिम उद्गारोंसे कई अंशोमें विशेष उपयोगी प्रतीत होते हैं। अपितु उपदेशरत्नाकर ग्रन्थके आदिमें मंगलावरणमें कई श्लोक लिखे गये हैं। परन्तु यहां उनमेंसे एकका भी पत्ता नहीं मिलता,
१ श्रीधन विजयगणिजी भी इस हकीकतका समर्थन करते हैं । ग्रन्थके प्रारम्भमें ' अथ' शब्द पर नोट लिखते हुए कहते हैं कि यह शब्द अन्तरताका सूचक है जिससे यहां यह समझना चाहिये कि यह ग्रन्थ उपदेशरत्नाकर आदि ग्रन्थोंके लिखनेके पश्चात् बनाया गया है । वे इसका कोई कारण नहीं बतलाते हैं, परन्तु मूरिमहाराजके पश्चात् वे हमसे नजदीकके समयमें हुए हैं इससे उनसे कही हुई हकीकत कदाच सम्प्रदायसे उनको मालूम हुई होगी।