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है । अधिकारमें कई अगत्यके विषयोंका भी समा. वेश किया गया है। गुरुपरीक्षामें अत्यन्त विचार करनेकी आवश्यकता बतलाई गई है तथा इस विषयमें क्वचित् स्थानोंपर कर्कश भाषाका भी प्रयोग किया गया है । इस अधिकारमें सम्पत्ति तथा विपत्तिके कारण बतलाये गये हैं उसपर विशेष लक्ष्य देनेकी आवश्यकता है।
तेरहवां अधिकार यतिशिक्षाका है। यति नामसे भूषित संसारत्यागी सर्व महानुभावोंको उद्देशकर लिखे हुए इस अधिकारको
अत्यन्त धैर्यतापूर्वक पढ़नेकी आवश्यकता है । १३ यतिशिक्षा वेशमात्रसे कुछ लाभ नहीं होता, जनरंजनपनकी
कोई किमत नहीं, यतिपनके उच्चश्रेणीके कर्तव्य क्या क्या हैं, व्यर्थ वस्त्रपात्रका परिग्रह भाररूप है, परीषहका क्या स्वरुप है, संयमके कितने भेद हैं, चरणसित्तरी और करण सित्तरीके भेद कौन कौनसे और कितने हैं प्रादि अनेकों उपयोगी हकीकतोंका समावेश इस अधिकारमें किया गया है। यह अधिकार सबसे अधिक विस्तृत है इसकी भाषा शिक्षा देनेयोग्य कठिन शब्दोंमें है परन्तु भव्यजीव उसपर क्रोध न लाकर उसके आन्तरिक स्वरूपको समझनेका प्रयत्न करते हैं। सूरि महाराजने अपने अदा भूत चारित्रगुणमें बाल्यकालसे ही आसक्त होने के कारण बहुत उत्तम रीतिसे हृदयकी भावना द्वारा उपदेश किया है। यह उपदेश साधु और श्रावक आदि सबोंको मान्य करने योग्य है; इस उपदेशमें साधु-धर्मको अत्यन्त विकट समझकर इसकी उपेक्षा न होजानेकी ओर मुख्यतया लक्ष्य रक्खा गया है । यद्यपि इस अधिकारका रहस्य समझना और समझाना अत्यन्त दुर्लभ प्रतीत होता है, तिस पर भी जो प्रयास किया गया है उसके द्वारा किसी व्यक्तिको अथवा समष्टिको किसी भी प्रकारका कष्ट पहुंचानेका बिलकुल धेय्य नहीं है। अपितु ऐसा प्रसंग उपस्थित न होजाय इस भयसे अधिकार मुनिमहाराजाओंको विवेचनके साथ बतला कर उनकी सम्मति लेली गई है। तिसपर भी यदि किसी स्थानपर कोई दूषण रह गया हो तो उसके लिये अन्तःकरणसे क्षमा याचना है। यदि साधुवर्गसे बाहरका कोई पुरुष ऐसे गम्भीर. विषयपर लिखनेका प्रयत्न करे तो उसमें उसकी नादानीका होना स्वाभाविक ही है, अतएव सम्पूर्ण ग्रन्थ के लिये