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इन्द्रियोंके विषयोंमे प्रवृत्ति करनेसे दुःख, उनके दृष्टान्त और इस जीवके वर्तन और उद्देशके बीच में विसंवाद आदि अनेक भिन्न भिन्न विषयोंको लेकर उन पर अत्यन्त प्रभाविक भाषामें प्रकाश डाला गया है । इस प्रकाशका स्वरूप अत्यन्त मनन करने योग्य
। एक प्रसंगपर अजादिकके दृष्टान्त भी अत्यन्त युक्तिपूर्वक दिये गये हैं । जबतक सांसारिक - पौद्गलिक विषयोंपरसे इस जीवका राग नहीं हटता तबतक यह धर्म सन्मुख नहीं हो सकता है ऐसी स्पष्ट हकीकत होनेसे सर्व विषयोंका यहां पृथक्करण और स्पष्टीकरण करनेमें अन्तिम हेतु, उसके परिणाम में होनेवाले दुःखरूप स्वरूपको समझकर उससे दूर रहते हुए, समताको प्राप्त करनेका रक्खा गया है । यह अधिकार भी प्रत्यन्त मनन करने योग्य है । इसके प्रत्येक श्लोकमेंसे एक एक अथवा इससे भी अधिक महान् सत्य द्रष्टिगोचर होते हैं वे ढूंढनेवालेको और साधकको प्राप्त हो सके ऐसा स्पष्टतया बतलाया गया है ।
arrai अधिकार धर्मशुद्धिका हैं । इस कालमें धर्मके सम्बन्धमें लिखना मात्र ही कई जीवोंको अप्रासंगिक जान पड़ता है । बाह्याडम्बरों और पुद्गलमस्त रहनेवाले युगमें ११ धर्म शुद्धि. धर्म शब्दका अभाव जोरशोर से प्रवेश कर रहा था, उसमें अब कुछ फेरफार होता दृष्टिगोचर हो रहा है । अब धर्मकी आवश्यकताको प्रायः सब स्वीकार करते हैं । उस धर्म में किस प्रकारकी शुद्धि होनी चाहिये वह यहाँ बतलाई गई है । धर्म किस किस प्रकार के दोषोंका प्रवेश होता हैं उनकी यथोचित सूचि ( list) देकर स्वगुणप्रशंसा के दुर्गुणों और जनस्तुतिपर विद्वत्तापूर्ण उल्लेख ग्रन्थकर्त्ताने किया है । इस हकीकतपर प्रत्येक पाठकको विशेष ध्यान देना चाहिये । अन्तमें भावशुद्धिका उपदेश किया गया है । भावशुद्धिरहित क्रिया कितना अल्प फल देनेवाली है इसका यहां विस्तारपूर्वक उल्लेख पढ़ने में आयगा । इस अधिकार में लाकस्तुतिपर जो व्यवहारु विवेचन किया गया है वह विशेषतः पढ़ने योग्य हैं ।
बारहवां अधिकार गुरुशुद्धिका है । इस अधिकारमें गुरुमहाराज कैसे होने चाहिये इस विषयपर सूरि महाराजने अत्यन्त विस्तारपूर्वक विवेचन किया
१२ गुरुशुद्धि.