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यह भी साम्यदशाका द्योतक है, और यह दशा वृद्धावस्थामें सविशेष रूपसे प्राप्तव्य है । मेरी मान्यतानुसार यह ग्रन्थ सम्वत् १४७५ से १५०० के लगभग लिखा होगा ऐसा प्रतीत होता है।
इस ग्रन्थकी शली बहुत उत्तम हैं। किसी किसी स्थानपर पुनरावर्तन जान पड़ता है परन्तु उपदेशके ग्रन्थमें पुनरावर्तन दोष
रूप नही है ऐसा उमास्वाति महाराजके कथनसे भाषाशैली . स्पष्ट है (प्रथम श्लोकके विवेचनको पढिये)। जिन
जिन विषयोंको सूरिमहाराजने लिये हैं उन उनको उन्होंने अत्यन्त प्रभावकारक शब्दों में लिखा है। संस्कृत भाषापर उनका पूर्ण अधिकार था इतना ही नहीं किन्तु किसी किसी स्थान पर तो उन्होने अलंकारोंका अत्यन्त उत्तमतया उपयोग किया है। उनके दृष्टान्त और उपनाम अत्यन्त स्पष्ट आर यथोचित हैं तथा उनका वाक्यरचना मार्मिक है। उनकी भाषामें उपदिशकी सर्व प्रकारकी भाषाओंका समावेश हो चुका है । उपदेशकी भाषामें कई बार अति नम्र भाषाका उपयोग किया जाता है । विषयकी मधुरता तथा प्रियता प्राप्त करानेके लिये ऐसी भाषाकी आवश्यकता होती है। कभी आक्षेपक भाषाका उपयोग करना पड़ता है कभी कठोर शब्दोंका भी प्रयोग करना पड़ता है। सूरिमहाराजने भी इस जीवको किसी किसी समय विद्वान् और कभी कभी 'मूढ़' कही है, इसीप्रकार ऊपर लिखे अनुसार सर्व प्रकारको भाषाशैलीका उपयोग किया गया है, जिससे पढ़नेवाले तथा सुननेवालेको अानन्द और विचार होना स्वाभाविक ही है । इसप्रकार सर्व प्रकारकी भाषाशैलीपर अधिकार प्राप्त करना यह एक सामान्य विज्ञानके लिये बड़ी टेढ़ी खीर है। यतिशिक्षा अधिकारमें भी किसी किसी स्थानपर तो उन्होने सामान्य कठोर शब्दोंका उपयोग किया है और कहीं कहीं अत्यन्त कठोर शब्दोंका उपयोग किया है। ऐसा करनेमें चाहे कुछ शैलीदोष हो या न हो परन्तु उनका आशय अतिशय महान् था यह तो इससे स्पष्टतया सिद्ध ही है।
अधिकारोंका चुनाव अत्यन्त विचारने योग्य है । एक एकके पश्चात् दूसरा अधिकार अधिकसे अधिक उपयोगी हकीकत
बतानेवाला लिखा गया है और उसका चुनाव इस ढंगसे किया गया है कि ध्यानपूर्वक पढ़नेवालेको अत्यन्त मानन्द देनेवाला है। प्रत्येक श्लोक
चुनाव