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तत्त्वार्थसूत्र याचने कृतेपि विद्यमानस्याऽविद्यमानस्य वा वस्तुनोऽदानम्, तत्र-यस्य खेल तद्धनं वर्तते स तदधिकारित्वाद् दातुमदातुंवा समर्थोऽस्ति अतएव-कदाचिद्ददाति कदाचिच्च नापि ददाति । तत्रा-इंदाने न कोप्यपरितोपः कर्तव्य: । उक्तश्चोत्तरीऽध्ययने द्वितीयाध्यय ने
परेसु घास मे ले जा, भोयणे परिनिट्टिए । लद्धे डेि अलद्वेवा, नाणु तप्पेज्ज पंडिए |॥३०॥ परेषु ग्राममेषये भोजने परिनिष्ठिते ।
लब्धे पिण्डे -ऽलब्धेवा, नाऽनुनप्येत पण्डितः ॥ इति छाया, पुनरप्युक्त दशवकालिक सूत्रे-पश्चाऽध्ययनत्य द्वितीयोदेशके
चहूं परघडे अस्थि विविह वाहन लाहमं ।
न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छ। दिज्ज परो नवा-॥२९॥ धान नहीं होते। प्रगल्भ (निःसंकोच) श्रमणों शे अवश्य ही याचना करना चाहिए । इस प्रकार याचनापरीषह जय होना है। ____ (१५) याचना करने पर भी, किसी वस्तु का मौजूद रहने या मौजूद न होने से प्राप्त न होना अलाभ कहलाता है। जिपकी वह वस्तु है वह उसका अधिकाकी (स्त्रामी) है, ने या न देने के लिए स्वतंत्र है। वह कदाचित् देता है, कदाचित नहीं श्री देना। अगर न दे तो असन्तोप नहीं मानना चाहिए । उत्ताध्ययन में कहा भी है-साधु का कर्तव्य है कि गृहस्थों ने अपने लिए जो भोजन बनाया हो उसी में से अपने लिये गवेषणा करे, मगर विवेकशील साधु भोजन के लाभ -अलाभ के कारण सन्ताप न करे, अर्थात् चाहे प्राप्ति हो या न हो समभाव धारण करे । दशवकालिक सूत्र में भी कहा है-गृहस्थ के घर में नाना प्रकार का ग्वाद्य स्वाद्य आदि आहार मौजूद है और वह प्रचुर
(૧૫) યાચના કરવા છતાં પણ કઈ વસ્તુ હાજર હોય અથવા હાજર ન હોવાથી મળી ન શકે તે અલાભ કહેવાય છે જેની વસ્તુ છે તે તેનો અધિin (स्वाभी) छे, मावी म२ न आपकी ते भाटे ते स्वतत्र छे... કદાચિત આપે અથવા ન પણ આપે જે ન આપે તે અસંતેષ ન માન જોઈ એ ઉત્તરાધ્યયનમાં કહ્યું પણ છે–સાધુનું કર્તવ્ય છે કે ગૃહરશે એ પિતાના માટે જે ભોજન તૈયાર કર્યું હોય તેમાંથી પોતાના માટે ગષણા કરે, પરંતુ વિવેકશી સાધુ ભે જનના લાભ-અલાભના કારણે સત્તાપ કરે નહી અર્થાત મળે અથવા ન મળે સમભાવ ધારણ કરે દશવૈકાલિકસૂત્રમ પણ કહ્યું છે-ગૃહસ્થના ઘરમાં જુદા જુદા પ્રકારની ખાદ્ય સ્વાદીષ્ટ ભેજન વગેરે