Book Title: Tattvartha Sutra Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 735
________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ सू.६३ दशविधप्रायश्चित्तनिरूपणम् ૨૭૨ उपयुक्तेन गीतार्थेनाऽन्नादिकं प्रथमं गृहीतं पश्वादशुद्धं चेज्ज्ञातं भवति तदातस्य त्यागो विवेकाख्यं प्रायश्चित्तं भवति ३ एवं विशिष्ट उत्सर्गो व्युत्सर्गी काय वाङ्मनो व्यापाराणां प्रणिधान पूर्वको निरोधो व्युत्सर्गप्रायश्चित्तमुच्यते, तथा च नियतकालं कायस्य वाचो मनसश्च व्यापारत्यागो व्युत्सर्गो नाम प्रायश्चित्तम् एतत्कायोत्सर्गश देनाsयुते ५ एवं षड्विधं पूर्वोक्त मनशनाऽयमौदर्यादिकं व तपः खल पोनाम प्रायश्चित्तमुच्यते ६ अथाऽऽभ्यन्तरत पोरूपतया माय वित्तस्य, बाइयतको रूपत्वेनानशनादेव कथं तयोरैक्यं सम्भवति परस्परविरो में होता है । अतएव जिन वस्तुओं के ग्रहण करने पर लोभादिक कषायों की उत्पत्ति होती है, उन सब का त्याग करना विवेक प्रायश्चित है । जैसे किसी उपयोगदान गीतार्थ मुनि ने पहले अन्न आदि को ग्रहण कर लिया, पश्चात् वह दूषित मालूम हुआ तो उसका त्याग कर देना विवेक प्रायश्चित है। (५) व्युत्सर्ग - विशिष्ट प्रकार के उत्सर्ग को व्युत्सर्ग कहते हैं अर्थात् शरीर, वचन और मन के व्यापारों का उपयोग पूर्वक निरोध करना व्युत्सर्ग है । इस प्रकार मर्यादित समय के लिए शरीर के, वचन के और मन के व्यापार का त्याग करना व्युस्सर्ग नामक पायश्चित्त है। इसे 'कायोत्सर्ग' भी कहते हैं । (६) तप - पूर्वोक्त अनशन आदि छह प्रकार का बाह्य तप प्रायचित्त कहलाता है । शंका- प्रायश्चित्त आभ्यन्तर तप है, वह अनशन आदि बाह्य વસ્તુએનું ગ્રહણુ કરવાથી લાભાદિક કષાયેની ઉત્પત્તિ થાય છે આ મધારી ત્યાગ કરવા વિવેક પ્રાયશ્ચિત્ત છે. જેમ કાઈ ઉપયેાગવાન્ ગીતા મુનિએ પ્રથમ અન્ન વગેરે ગ્રહણ કરી લીધા, પછળથી તે દુષિત જણાય તા તેના ત્યાગ કરી દેવે વિવે પ્રાયશ્ચિત્ત છે. (૫) વ્યુત્સ-વિશિષ્ટ પ્રકારના ઉત્સગન વ્યુત્સગ કહે છે અર્થાત્ શરીર, વચન અને મનના વ્યાપારાના ઉપયેગપૂર્વક નિરોધ કરવા શ્રુત્સ છે. આવી રીતે મર્યાદિત સમયને માટે શરીરના, વચનના અને મનના વ્યાપારના ત્યાગ કરવા વ્યુત્સગ નામક પ્રાયશ્ચિત્ત છે. આને ‘કાયાત્સગ’ પણ કહે છે. (६) तय - पूर्वेति अनशन माहि છ પ્રકારના माह्य तप-प्राय चित्त उवा छे. શંકા-પ્રાયશ્ચિત્ત આભ્યન્તર તપ છે, તે અનશન આદિ માહ્ય તપ રૂપ

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