Book Title: Tattvartha Sutra Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/010523/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website. Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility. If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sil (As86560GJGJGGEEJESKOSEBERJEELUGSAJEWESTHA जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज. विरचितया दीपिका-नियुक्त्याख्यया व्याख्याद्वय समलङ्कृतं हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् 16056/05 GOGObaloo SRIGIST GoG KHAYI AAMiralISVALE | স্পী বাতৃসুলুল্লু। GANENT (द्वितीयो भागः) नियोजकः GOGOLOGICO संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः BMWMAU प्रकाशक: GRAXGODOC ANIMAR राजकोटनिवासी-स्व. दोश्युपाह मूलजीभ्रातारात्मज प्रभुलालस्य धर्मपत्नी लाभुवहेनप्रदत्त-द्रव्यलाहाय्येन अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः __ श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट SH ईसवीसन् प्रथमा-आवृत्तिः प्रति १२०० वीर-संवत् विक्रम संवत् २४९९ २०२९ मूल्यम्-रू० २५-०-० १९७३ 685 ANOHA Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું ! म. सा. ३. स्थानवासी જેનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, है. गरेडिया था । श , ( सौराष्ट्र). Published by: Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India. ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥१॥ हरिगीतच्छन्दः फरते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा। है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥ भूख्य: ३. २५%300 પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ૨૪૯૯ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૯ wવીઝન ૧૯૭૩ मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, धीin 3, ममहापा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ श्री तत्त्वार्थसूत्र भाग दूसरे की विषयानुक्रमणिका विषय छट्ठा अध्याय १ आस्रवतत्त्वका निरूपण सू० १ १-११ २ पुण्यपाप के आसत्रों के कारण सू० २ १५-२० ३ संपरायक्रिया के आसवों का निरूपण सू०३ २०-२१ ४ अपायजीव के संसार परिभ्रमण रूप ईर्यापथ आस्रव के कारण होने का निरूपण सू० ४ २५-३१ ५ साम्परायिक कर्मास्रव के भेदों का निरूपण सं०५ ६ सब जीवों के कर्मबन्ध समान होता है या विशेषाधिक सू० ६ ५२-६९ " ७ अधिकरणका स्वरूप सू०७ ६९-७५ ८ जीवाधिकरण के भेदका निरूपण मू० ८ ७६-८७ ९ अजीव के अधिकरणका निरूपण सू० ९ ८७-९८ १० कर्मवन्ध के आस्रव सब आयुवालेका अस्रव होता है सू० १० ९८-१०० ११ देवायु के आसवका निरूपण सू० ११ सातवां अध्याय १२ संवर के स्वरूपका निरूपण सू० १ १०४-१०७ १३ संवर के कारणरूप समिति गुप्ति आदिका निरूपण मू० २ १०७-११५ १४ समिति के भेदों का निरूपण सू० ३ ११६-१२४ १५ गुप्ति के स्वरूप निरूपण ० ४ १२४-१३२ १६ दश प्रकार के श्रमणधर्मका निरूपण सू० ५ १३२-१४८ १७ अनुपेक्षा के स्वरूपका निरूपण मू०६ १४८-१७९ १८ परिषहजय का निरूपण स० ७ १७९-१८५ १९ परीषह के भेदों का निरूपण सू०८ १८४-२१५ २० कौन जीवको कितने परीषह होते है ? मू० ९ २१४-२२१ २१ भगवान् अरिहन्त भगवन्त को बारह परीषह होनेका निरूपण सू० १० २२१-२२५ २२ वादरसम्पराय को सब परीषहका संमत्र का निरूपण सू०११ २२५-२२. २३ ज्ञानावरण कर्म के निमित्त से होने वाले दो परिपहों का निरूपण सू० १२ २३०-२३९ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ दर्शनमनीय अन्य कर्म के उदय से श्रमण में दर्शन और अलाभपरीपदकी उत्पत्तिका निरूपण सू. १३२३२ - २३४ २५ चारित्रमोहनीयकर्म के निमित्त से होनेवाले सात परिषदोंका कथन सू० १४ '२६ वेदनीयकर्म के उदय से होने वाले ग्यारहपरीषदों का कथन सू० १५ २७ एक जीव को एक ही काळ मे होने वाले 1 परीषहों का कथन सू० १६ २४२-२४७ २२-२८ हिंसादि से निवृत्ति आदि व्रतों का निरूपण सू० १७-२४ २४८-२५० २५१-२५७ २९ हिंसा के स्वरूप निरूपण सू० २५ ०/३० मृषावाद का निरूपण ० २६ ६०. ३१ स्तेय का स्वरूप निरूपण ० २७ ३२ मैथुन का निरूपण सू० २८ ३३ परिग्रह का निरूपण ० २९ t ३४ पांच अणुव्रत का निरूपण सू० ३०- ३७ ५०३५ मारणांतिक संलेखना का निरूपण सू० ३८ ア ३६ सम्यग्दृष्टि के पांच अतिचार का निरूपण सू० ४०० २३५-२३८ २३९-२४२ ३७ अणुव्रत एवं दिग्वत के पांच अविचारका निरूपण सू० ४१-४२३१४-३२३ १३८ तीसरे अणुव्रत के स्तेनाहृतादि पांच ५ अविचारों का निरूपण सू० ४३ ३९ चोथे अणुव्रत के पांच अविचार का निरूपण सू० ४४ १८ - ४० पांचवें अणुव्रत के पांच अविचार का निरूपण सू० ४५ '४१ दिग्विरत्यादि सात शिक्षावत के पांच पांच अविचारों का निरूपण ० ४६ ४६ पोपधीपवास के पांच अतिचारों ना निरूपण सू० ५१ ४७ बारहवें व्रत के पाँच अतिचार का निरूपण सू० ५२ S २५७-२६५ २६५-२७१ २७१-२७३ २७३-२८५ २८५-२८७ २८८-२९५ २९६-३१३ ३२४-३३१ ३२३-३३७ ३३८-३४५ ३४६-३५१ ४२ उपभोग परिभोग परिमाणत्रत के अविचारका निरूपण ०४७३५२-३५५ ४३ अनर्थदण्ड विरमणव्रत के अविचार का निरूपण सू० ४८ ४४ सामयिकव्रत के पांच अतिचारों का निरूपण सू० ४९ ४५ देशावकाशिकवत के पांच अतिचारों का निरूपण सू० ५० ३५६-३६४ ३६४-३७० ३७० -३७७ ३७७-३८२ ३८३-३८९ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ मारणांतिक संलेखना के पांच अतिचारों का निरूपण सू०५३ ३८९-३९५ ४९ पांच महावतों का निरूपण सू० ५४-५५ ३९५-३९९ ५० पच्चीस भावनाओं का निरूपण सू० ५६ ४००-४१२ ५१ सामान्य प्रकार से सर्वव्रत की भावनाओं का निरूपण सु०५७ ४१३-४२८ ५२ सब प्राणियों में मैत्रिभावना का निरूपण सू०५८ ४२९-४३६ ५३ चारित्र के भेदका निरूपण सू० ५९ ४३७-४३९ ५४ तप के भेद कथन सू० ६० ४५०-४५२ ५५ वाह्य तप के भेद का निरूपण सु० ६१ ४५३-४६४ ५६ आभ्यन्तर तप के भेद का निरूपण सू० ६२ ४६५-४६९ ५७ दश प्रकार के प्रायश्चित्त का निरूपण सू० ६३ ४६९-४८२ ५८ विनयरूप आभ्यन्तर तप के भेद का निरूपण सु०६४ ४८३-४८९ ५९ वैयावृत्य के भेदों का निरूपण सू० ६५ ४९०-४९५ ६० स्वाध्याय के भेद का निरूपण सू० ६६ ४९५-४९८ ६१ ध्यान के स्वरूप निरूपण सू० ६७ ४९८-५०२ ६२ ध्यान का चतुर्विध भेद का निरूपण सू. ६८ ५०२-५०५ ६३ धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान मोक्ष के कारणरूप का निरूपण सू०६९ ५०५-५०७ ६४ आर्तध्यान के चार भेदों का कथन ०७० ५०८-५१४ ६५ अविरत आदि को आतध्यान होने का प्रतिपादन सू०७१ ५१४-५२१ ६६ रौद्रध्यान के चार भेदों का निरूपण सू० ७२ ५२६-५३७ '६७ धर्मध्यान के चार भेदों का निरूपण मु०७३ ५२६-५३७ ६८ शुक्लध्यान के चार भेदों का निरूपण सू०७४ ५३८-५४५ ६९ शुक्लध्यान के स्वामि आदि का कथन सू० ७५ ५४५-५५१ ७० केवलीको अन्तिम दो शुक्लध्यान होने का कथन मू० ७६ ५५२-५५६ ७१ चार प्रकार के शुक्लध्यान के स्थान विशेषका निरूपण मू० ७७ ५५६-५६० ७२ पहला एवं दूसरा शुक्लध्यान के संबन्ध में विशेष कथन स. ७८ ५६०-५६२ ७३ वितर्क के स्वरूप निरूपण सु०-७९ ५६२-५६७ ७४ पांचवें आभ्यन्तर तप व्युत्सर्ग के द्रव्य भाव के भेद से द्वि प्रकारता का कथन सू० ८० ५६७-५७० Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्याय ७६ निर्जरा के स्वरूप निरूपण सू० १ ५७१-५७३ ७६ निर्जरा के दो भेदों का कथन सु० २ ५७३-५८१ ७७ कर्मक्षयलक्षणा निर्जरा के हेतु कथन मू० ३ ५८१-५८४ ७८ तप के दो प्रकारता का कथन सु०४ ५८४ ७९ अनशन तप के दो भेदों का कथन सु० ५ ५८५-५८७ ८० इत्वरिकतप के अनेकविधत्वका निरूपण सू०६ ५८७-५९१ ८१ अनशन तप के बावस्कथिक के दो प्रकार का कथन सु०७ ५९१-५९५ ८२ पादपोपगमन तप के द्वि प्रकारताका निरूपण सू०८ ५९५-५९८ ८३ भक्तपत्याख्यान के दो प्रकारता का निरूपण स०९ ५९८-६०० ८४ अबमोरिका के स्वरूप निरूपण सु० १० ६००-६०२ ८५ द्रव्यावनोदरिका के दो भेदों का कथन मू० ११ ६०२-६०४ ८६ उपकरण द्रव्यावमोदरिका के विविध प्रकारखाका निरूपण सू० १२६०४-६०७ '८७ भक्तपान द्रव्याचमोदरिका के अनेक विधताका निरूपण सू०१३ ६०७-६१४ ८८ भावावमोदरिकातपका निरूपण सू० १४ ६१४-६१७ ८९ भिक्षाचर्या तप के अनेकविधता का निरूपण मू० १५ ६१७-६३० ९० रसपरित्यागतप का निरूपण मु०१६ ६३१-६३६ ९१ कायक्लेशतष के अनेक विधत्वका निरूपण सु० १७ ६३६-६४४ ९२ मतिसंलीनतातप के चातुर्विध्य का निरूपण मू० १८६४४-६४७ ९३ इन्द्रिय प्रतिसंहीनताप के पंचवियत्त का निरूपण सू० १९६४७-६५२ ९४ कपाय पतिसंलीनतातप का निरूपण सु० २० ६५२-६५७ ९५ योगपतिसंलीनतातंप का निरूपण सू० २१ ६५७-६६१ ९६ विविक्तशय्यासनता का निरूपण सू० २२ ६६२-६६५ ९७ ज्ञानविनयतप का निरूपण सू० २३ ६६५-६६८ ९८ दर्शनविनयतप का निरूपण सू० २४ ६६८-६७१ ९९ शुश्रूषणाविनयतप का निरूपण शू० २५ ६७१-६७६ १०० अनत्याशातना विनयतप के ४५ पैतालीस भेदों का कथन मू० २६ ६७७-६८२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ चारित्रविनयतप का निरूपण सू० २७ ६८२-६८७ १०२ मन, वचन, कायविनयाप का निरूपण सू० २८ ६८७-६९२ १०३ लोकोपचारविनयतप का निरूपण सू० २९ ६९२-६९६ १०४ आभ्यन्तरतप के छठा भेद व्युत्सर्ग का निरूपण मू० ३० ६९७१०५ द्रव्यव्युत्सर्गतप का निरूपण सु० ३१ ६९८-७०० १०६ भावव्युत्सर्गतप का निरूपण स्० ३२ ७०१-७०३ १०७ रुपायव्युन्सर्गतप का निरूपण मू० ३३ ७०३-७०५ १०८ संसारव्युत्सर्गतप का निरूपण सु० ३४ ७०५-७०८ १०९ कर्मव्युत्सर्गतप का निरूपण मु० ३५ ७०८-७१३ ११० निर्जरा सवको समान होती है ? या विशेषाधिक ? सू०३६ ७१३-७२६ १११ मोक्षमार्ग का निरूपण मू० ३७ ७२६-६३५ ११२ सम्यग्दर्शन का निरूपण मू० ३८ ७३५-७३९ ११३ सम्यग्दर्शन की द्वि प्रकारता का निरूपण सू० ३९ ७३९-७४२ ११४ सम्यग्ज्ञान स्वरूप निरूपण मू० ४० ७४२-७४७ ११५ सम्यग्ज्ञान के भेदों का कथन सू० ४१ ৩৪৩-৩৭৩ ११६ मतिश्रुतज्ञान के परोक्षस्व का निरूपण सु० ४२ ७५७-७६० ११७ अवधि, मनःपयंद, केवलज्ञान के प्रत्यक्षत्व का निरूपण सू०४३ ७६०-७६५ ११८ मतिज्ञान के द्वि प्रकारता का कथन सू०४४ ७६५-७६९ ११९ मतिज्ञान के चातुविय॑त्व का निरूपण सू० ४५ ৩৩০-৩৩৩ १२० अवग्रह के दो भेदों का निरूपण सू० ४६ ७७८-७८५ १२१ श्रुतज्ञान के दो भेदों का कथन सू० ४७ ७८६-७९३ १२२ अवधिज्ञान का निरूपण सू० ४८ ७९३-७९९ १२३ मनःपर्यवज्ञान के द्विविधत्व का प्रतिपादन मु० ४९ ७९९-८०८ १२४ पांच प्रकार के शानों में मतिश्रुतज्ञान की विशेषता ८०८-८१३ १२५ अवधिज्ञान विषय का निरूपण ८१३-८१६ १२६ मनापर्यय ज्ञान के वैशिष्य का निरूपण ८१६-८१९ १२७ केवलज्ञान की उत्पत्ति के कारण का निरूपण ८१९-८२२ १२८ केवलज्ञान के लक्षण का निरूपण ८२२-८३१ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नववा अध्याय १२१. मोलतत्व का निरूपण १३० मोक्षावस्था में भावकर्मक्षय का निरूपण १३१ मुक्तात्मा के गति का निरूपण १३२ अकर्मा की गति का निरूपण एवं उस विषय में दृष्टांत १३३ सिद्ध के स्वरूप का निरूपण ८३२-८४३ ८४४-८४९ ८४९-८५२ ८५२-८५५ ८५६-८७८ ॥समाप्त॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ ગ્રંથના પ્રકાશાનાર્થે સહાય કરનાર સગ્રુહસ્થ * 5 = 3 - રાજકેટવાળા સ્વ. શેઠશ્રી પ્રભુદાસભાઈ દોશી તથા તેમના સુપુત્ર Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्री घासीलालवतिविरचितं दीपिका - नियुक्त्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् हिन्दी - गुर्जर भावानुवाद सहितम् ॥ श्री - तत्वार्थ सूत्रम् ॥ ( द्वितीयो भागः ) पष्ठोध्यायः मूलम् - मण-वय-काय जोगाई आसवो ॥१॥ छाया - 'मनोवचः काययोगादिरांस्रवः ॥ १॥ तत्वार्थदीपिका - जीवाजीवाय बंधोय-पुण्णं पावाssसवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो - संतेए तहिया नव ॥१॥ इत्युत्तराध्ययनमुत्रानुसारेण क्रमशो जीवा-जीव-बन्ध- पुण्य-पापानि पच 'तानि पञ्चाsध्यायेषु प्ररूपितानि, सम्पति - क्रमप्राप्तं षष्ठमास्रवतत्त्वं प्ररूपयितुं षष्ठाध्यायं प्रारभते- 'मणवयकाय जोगाई आसवो' इति । मनोवचः काययोगादिः - मनोयोगः १ चचोयोगः २ काययोगः ३ तदादिः तत्मछट्ठा अध्याय का प्रारंभ 'मण - वय - कायजोगा' - इत्यादि । मनोयोग, वचनयोग, काययोग आदिको आस्रव कहते हैं ॥१॥ तत्वार्थदीपिका -जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा 'और मोक्ष, ये नौ हैं।' उत्तराध्ययनसूत्र के इस कथन के अनुसार क्रम से जीव, अजीब, बन्ध, पुण्य और पाप, इन पांच तत्वों का पांच अध्यायों में निरूपण किया गया । अब अनुक्रम से प्राप्त छठे आस्रव तवकी प्ररूपणा करने के लिए छठा अध्याय प्रारम्भ किया जाता हैછઠ્ઠા અધ્યયનના પ્રારંભ 'मण - वय - कायजोगाई आसवो' સૂત્રા ——મનાચે, વચનચૈાગ, કાયયેાગ આદિને આસ્રવ કહે છે ॥૧॥ तत्वार्थट्टीपिङअ – लव, अलव, अन्ध, पुण्य, पाय, आस्रव, संवर, નિજેશ તથા મેક્ષ આ નવ તત્વ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના આ કથન અનુસાર ક્રમથી જીવ, અજીવ, મધ, પુણ્ય આ પાપ, અને પાંચ તત્ત્વાનુ` પાંચ અધ્યાચેામાં નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. હવે ક્રમથી પ્રાપ્ત છઠા આસ્રવતત્વની પ્રરૂપણા કરવાના આશયથી છઠે! અધ્યાય પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. त० १ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rasan - तत्वार्थस्त्र भुतिरास्वव उच्यते। तन्त्र-मनोवा कायानां क्रियारूपं कर्मयोगः आत्मपदेशपरिस्पन्दरूप आख्यायते। तबाऽभ्यन्तरवीर्यान्तराय नो इन्द्रियावरणक्षयोपशमात्मक मनोलब्धिसानिध्ये वाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मनःपरिणामाभिमुखी भूतस्यात्मनः यदेशपरिस्पन्दो मनोयोगः ॥२॥ शरीरनामकर्मादयसम्पादितवाग्वर्गणालम्बने सति वीर्यान्तरायके सतिभाक्षरायावरणक्षयोपशयापादितवाग्लब्धिसमिधाने वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः२, वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सति औदारिकक्रिया-ऽऽहारकादि पञ्चविध शरीरवर्गणान्यतमा-ऽऽलम्बने च सति आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः काययोगा३, स त्रिविधो योगः-आस्रवः कथ्यते । मनोयोग, वचनयोग; और काययोग आदि आस्रव कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि मन, वचन, और कायकी क्रिया से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है, वह योग कहलाता है। जब आभ्यन्तर कारण वीर्यान्तराय कर्म तथा नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशमरूप मनो'लब्धि का सान्निध्य होता है और बाह्य कारण मनोवर्गणा का आलम्बन होता है, तब मन रूप परिणमन की ओर अभिमुख आत्मा के प्रदेशों में जो परिस्पन्दन (हलन-चलन) होता है, वह मनोयोग कहलाता है। शरीर नाम कर्म के उद्य से प्राप्त वचन वर्गणी का आलम्पन होने पर तथा वीर्यान्तराय एवं मति-अक्षरा वरण आदि के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली वचन लब्धिका सन्निधान होने पर वचन रूप परिणाम के अभिमुख आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन वचनयोग कहलाता हे । जब अन्तरंग कारण वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है और | મોગ, વચન અને કાયયેગ આદિ આસ્રવ કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે મન, વચન અને કાયાની ક્રિયાથી આત્માનાં પ્રદેશમાં જે પસ્પિન્દન થાય છે, તે જે ગ કહેવાય છે જયારે આભ્યન્તર કારણ વીતરાયકર્મ તથા નઈન્દ્રિય બાહ્ય કર્મભેદ ક્ષપશમ રૂપ મને લબ્ધિનું સાનિધ્ય થાય છે. અને બાહ્ય કારણ મનેવગણનું આલંબન હોય છે, ત્યારે મન રૂ૫ પરિણમનની તરફ અભિમુખ આત્માનાં પ્રદેશમાં જે પરિસ્પન્દન હલન-ચલન) થાય છે તે માગ કહેવાય છે. • શરીર નામકર્મના ઉદયથી પ્રાંસ વચનવણાનું આલઓન થવાથી તથા વર્યાન્તરાય અને અતિ-અજ્ઞાન બાહ્ય - આદિના ક્ષચે પશમથી પ્રાપ્ત થનારી વચનલબ્ધિના સાનિધ્ય થવાથી વચનરૂપ પરિણામના અભિમુખ આત્માની પ્રદેશના પરિપબ્દનને વચનગ કહેવાય છે. જ્યારે અન્તરંગ ફારણુ વીર્યા Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका न. ६ खू. १ आस्रवतत्वनिरूपणम् आस्रवति - आगच्छति आत्मदेशसमीपस्थोऽपि पुद्गलपरमाणुपुञ्जः कर्मत्वेन परिणमति - अस्मात् क्रियाकलापाद हत्यासत्रः तथाविधः क्रियासमूहः, तथाविध परिणामतो जीवः कर्माणि आदत्ते, । तथाविधपरिणामाभावेतु - कर्मबन्धो न भवति । एवञ्च - सरस सलिकावाहि विचररन्ध्ररूप स्रोतोवद् आस्रवः - आत्मनः परिणामविशेषः कर्मरूपसललस्य प्रवेशे हेतु भवति । कर्माणि - शास्रवन्ति अनेनाऽऽत्मपरिणामविशेषेणाऽऽत्मना सह सम्बध्यन्ते - इत्यास्त्रवः, कर्मागमनद्वारभूत आत्मपरिणामविशेष इत्यर्थः । तथा च- केवलिसमुद्घाते दण्ड- कपाट प्रतर-लोकऔदारिक वर्गणा वैक्रिय वर्गणा, तथा आन्तरिक वर्गणा आदि शरीर वर्गणाओं में से किसी भी एक वर्गणा का आलम्बन होने रूप बाह्य कारण होता है, तब उस के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो परि-स्पन्दन होता है, वह काययोग कहलाता है । तीनों प्रकार का यह योग आस्रव कहा गया है । जिन आकाश प्रदेशों में आत्मा स्थित है, उन्हीं आकाश प्रदेशों में स्थित कार्मण वर्गणा के पुद्गलपरमाणु जिस क्रियाकलाप से कर्म के रूप में परिणत हो जाते हैं, उस क्रियाकलाप को आस्रव कहते हैं, उस प्रकार के परिणाम से जीव कर्मों को ग्रहण करता है, यदि उस प्रकार का परिणाम न हो तो कर्म का बन्ध नहीं होता । इसी प्रकार जैसे जल को प्रवाहित करनेवाले छिद्र के द्वारा खरोबर में जलका आमन होता है वैसे ही आत्मा के परिणाम विशेष से कर्मरूपी जल हो प्रवेश होता है । जिसके द्वारा कर्म आते हैं, वह आस्रव, ऐली आस्रव 1 ન્તરાય કાના ક્ષયાપશમ થાય છે અને ઔદારિકવગ ણા, વૈક્રિયવા તથા આહારકવગ ણા આદિ શરીર વગણુાઓમાંથી કાઈપણ એક વાનુ આલાન થવા રૂપ બાહ્ય કારણુ હાય છે, ત્યારે તે નિમિત્તથી આત્માના પ્રદેશમાં જે પરિક્સ્પન્દન થાય છે, તે કાયયાગ કહેવાય છે. ત્રણે પ્રકારના આ ગ્રેગ આસ્રવ वाया छे. જે આકાશપ્રદેશમાં આત્મા સ્થિત છે, તેજ આકાશપ્રદેશમાં સ્થિત કામવગ ના પુદ્ગલપરમાણુ., જે ક્રિયાકલાપથી કના રૂપમાં પરિત થઈ જાય છે, તે ક્રિયાકલાપને માત્ર કહે છે. તે પ્રકારનાં પરિણામથી જીવ કતિ ધારણ કરે છે, જો તે પ્રકારનું પરિણામ ન થાય તે ક્રમના અન્ય થતા નથી. આવી રીતે જેમ પાણીને પ્રવાહિત કરનારા છિદ્ર દ્વારા સાવરમાં જળનુ આગમન થાય છે, તેવી જ રીતે આત્માના પરિણામ વિશેષથી કમ રૂપી જળના પ્રવેશ થાય છે. જેના દ્વારા ક્રમે આવે છે, તે આસવ, એવી આસ્રવ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. આશય એ છે કે આત્માનું તે પરિણામ, જે Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्र पूरणलक्षणः खलु योगो वर्तते, स योगोऽनास्वरूपोऽप्यस्ति । तत्र-यथाऽऽद्रवस्त्र समन्तात् पवनाऽऽनीतं रजापुञ्ज स्वस्मिन् गृह्णाति, एवम्-कपायजलेनाऽऽद्रीभूतो जीवः कायादि त्रिविधयोगानीतं कर्मपुरलं सर्व प्रदेशैरुपादत्ते यथा वा-तप्ताऽयःपिण्डः पयसि प्रक्षिप्तः समन्ताजनलं गृह्णाति, एवं-क्रोध मायादि कषाय सन्तप्ताऽऽत्मा कायादि त्रिविधयोगानीतं कमपुद्गलं परिगृह्णाति, आदिपदेन-मिथ्यादर्शनाविरति कषाययोगादयो बन्धहेतव आस्रथा उच्यन्ते ॥१॥ शब्द की व्युत्पत्ति है ! अभिप्राय यह है कि आत्मा का वह परिणाम, जो कर्मों के आगमन का द्वार है, आस्रव कहा जाता है। केवलिसमु. रात के समय दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण रूप जो योग रहता है, वह ऐयाथिक के सिवाय अन्य आस्रव का कारण नहीं होता। जैसे गिला वस्त्र वायु द्वारा उडाये हुए रज को सभी ओर से ग्रहण करता है अर्थात् वस्त्र के गीलेपन के कारण उसमें आ-आकर धूल चिपक जाती है वैसे ही क्रोधमान, माया या लोभ कषाय से आई पना आत्मा काययोग आदि तीन प्रकार के योगों द्वारा आकृष्ट कर्म पुदगलों को ग्रहण करता है । अथवा जैसे आग से तपा हुआ लोहेका गोला यदि पानी में डाल दिया जाय तो वह सभी ओर से जल को ग्रहण करता है-आत्मसात् करता है, उसी प्रकार कषाय के ताप से सन्तप्त आत्मा काययोग आदि के द्वारा कर्म पुद्गलों को ग्रहण करताहै। सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से मिथ्यादर्शन, अविरति और કર્મોના આગમનનું દ્વાર છે, આસ્રવ કહેવાય છે. કેવળી સમુદ્રઘાત વેળાએ દડ, કપાટ, પ્રતર અને લેકપૂરણ રૂપ જે વેગ હોય છે તે ઐયપથિક હેવાને કારણે આસવના કારણ હોતા નથી. જેવી રીતે ભીના વસ્ત્ર, વાયુ દ્વરા ઉડાડેલી ધૂળને બધી બાજુએથી ગ્રહણ કરે છે, અર્થાત્ વસ્ત્રની ભીનાશના કારણે તેનામાં આવી આવીને રજા ચાટી જાય છે, તેવી જ રીતે કે ધ, માન, માયા અને લેભ કષાયથી આદ્ર બનેલે આમા કાગ આદિ ત્રણ પ્રકારના ગે દ્વારા આકૃષ્ટ કર્મપુદ્ગલેને ધારણ કરે છે, અથવા જેવી રીતે અગ્નિથી તપેલા લેખંડના ગોળાને જે પાણીમાં નાખવામાં આવે છે તે બધી બાજુએથી પાણીને ગ્રહણ કરે છે. આત્મસાત કરે છે, તેવી જ રીતે કષાયના તાપથી સતત આત્મા કાગ આદિથી કર્મ પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે. સૂત્રમાં પ્રયુકત આદિ શબ્દથી” મિથ્યાત્વ, રતિ, અવિરતિ અને કષાયને, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ सू. १ आनववत्वनिरूपणम् तत्वार्थनियुक्ति-पूर्व तावत्-पञ्चमाध्याये क्रममाप्तं पञ्चमं पापतत्त्वं मरू. पितम् , सम्मति-क्रमप्राप्तमेत्र षष्ठ मास्त्रवत्वं मरूपयितुमाइ-'मणवयकाय जोगाई आसवो' इति । ___मनोवचाकाययोगादिः-मनोयोगो-वचोयोगः-काययोगः इत्येतेषां द्वन्द्र मनोवचः काययोगास्ते-आदि यस्य स मनोवचा काययोगादिः आस्रव उच्यते । तत्र-मनोवचः कायानां क्रियारूपं कर्मयोगः उच्यते । वीर्यान्तराय क्षयोपशमननितेन पर्यायेणाऽऽस्मनः सम्बन्धो योग इत्यर्थः, स च-वीर्यमाणोत्साहपराक्रमचेष्टाशक्ति सामर्थ्यादिशब्दवाच्यो बोध्यः । यद्वायुनक्ति-एनं जीवो-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं पर्यायमिति योगः, स च मनोयोगादिभेदात् त्रिविधः । तत्र-मनोयोग्य पुद्गलात्मप्रदेशपरिणामो मनोकषाय को जो कर्मबन्ध के कारण हैं, समझ लेना चाहिए ॥१॥ तत्वार्थनियुक्ति-पांचवें अध्याय में क्रम प्राप्त पाप नामक पांचवें तत्त्वकी प्ररूपणा की गई है । अथ छठे तत्त्व आस्रव की प्ररूपणा की जाती है मनोयोग, वचनयोग और काययोग आदि को आस्रव कहते हैं। अभिप्राय यह है कि मन वचन और काय क्रिया को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले पर्याय के साथ आस्मा का जो सम्बन्ध होता है, वह योग कहलाता है। उसे वीर्य, प्राण, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति यो सामर्थ्य आदि भी कहा जा सकता है । अथवा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले पर्याय से जीव का युक्त होना योग है । मनोयोग आदि के જે કર્મબંધના કારણે છે, સમજી લેવા જોઈએ ? તત્વાર્થનિર્યુકિત –પાંચમાં અધ્યાયમાં કમપ્રાપ્ત પાપ નામક પાંચમા તત્વની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે. હવે છઠા તત્વ આઅવની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી રહી છે. | મનોગ, વચનગ અને કાયયેગ આદિને આસવ કહે છે, અભિપ્રાય એ છે કે મન, વચન અને કાયાની ક્રિયાને વેગ કહે છે. વર્યાન્તરાય કર્મના ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થનારા પર્યાયની સાથે આત્માનો જે સમ્બન્ધ થાય છે તે પેગ કહેવાય છે. તેને વીર્ય, પ્રાણ, ઉત્સાહ, પરાક્રમ ચેષ્ટા, શક્તિ અથવા સામર્થ્ય આદિ પણ કહી શકાય છે, અથવા વીતરાય, કર્મના ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થનારા પર્યાયથી જીવનું ચુકત થવું તે ગ કહેવાય છે. મનાયેગ આદિના ભેદથી તે ત્રણ પ્રકારનું છે. મને વર્ગણાના Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यार्थ सूत्रे 悬 3 - योग : १, भाषायोग्य पुद्गलात्ममदेशपरिणामो बचोयोग: २, गमनादि क्रिया हेतुः शरीरात्ममदेशपरिणामः काययोगः ३ । तत्रात्मनो निवासस्थानभूतः पुद्गलद्रव्यघटितः शरीररूपः कायः, वृद्धस्य - दुर्बलस्य वा गमनादौ, आलम्बनयष्टयादिवत् विषमेषु-उपग्राहको भवति तद्योगाजीवस्य वीर्यपरिणामः शक्तिः - सामर्थ्य काययोगः । यथा - वह्निसंयोगात् घटस्य रक्ततापरिणामो भवति, एवं खलु - आत्मनः काय - करण संवन्धाद् वीर्यपरिणामो बोध्यः । एवमात्मयुक्तकायाधीना वाग्वगणायोग्य पुद्गलस्कन्धाः भेद से वह तीन प्रकार का है । मनोवर्गणा के पुद्गलों के निमित्तं से आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होना मनोयोग है । भाषा के योग्य पुद्गलों अर्थात् भाषावर्गणा के पुद्गलों के निमित्त से आत्मप्रदेशों में स्पन्दन होना वचनयोग है और गमन आदि क्रियाओं से आत्मा के प्रदेशों में जो परिस्पन्द होता है, वह काययोग है। आत्मा के रहने का स्थान, पुद्गल द्रव्यों से बना हुआ यह शरीर काय कहलाता है, जैसे वृद्ध या दुर्बल पुरुष के चलने-फिरने में लाठी सहायक होती है, ऊपडखावड मार्ग में उससे सहायता मिलती है, उसी प्रकार आत्मा के लिए शरीर सहायक है । इस शरीर के निमित्त से जीवका जो वीर्यपरिणमन होता है, वह काययोग कहलाता है। जैसे अग्नि के संयोग से घट में रक्तता (लालिमा) परिणाम उत्पन्न होता है, उसी प्रकार काय रूप करण के निमित्त से आत्मा में वीर्य परिणाम उत्पन्न होता है वही काययोग है। इसी प्रकार जीव वचन वर्गणा के પુદ્ગલેાના નિમિત્તથી આત્મપ્રદેશામાં પરિસ્પન્દન થવુ' મનાયેાગ છે ભાષાને ચૈાગ્ય પુદ્દગલા અર્થાત્ ભાષાવગણાનાં પુદ્ગલેાના નિમિત્તથી આત્મપ્રદેશેામાં સ્પન્જીન થવું વચનયેાગ છે અને ગમન આદિ ક્રિયાએથી આત્માના પ્રદેશેમાં જે પરિસ્પન્દન થાય છે તે કાયયેાગ છે. આત્માને રહેવાનું સ્થાન, પુદ્ગલદ્રવ્યેથી મનેલું આ શરીર કાય કહેવાય છે. જેમ વૃદ્ધ અથવા દુખળ પુરૂષને ચાલવા-ફરવા માટે લાકડી સહાયક બને છે. ખાડા-ટેકરાવાળા રસ્તામાં તેનાથી સહાયતા મળે છે, તેવી જ રીતે આત્મા માટે શરીર સહાયક છે. આ શરીરના નિમિત્તથી જીવતું જે વી - પરિણમન થાય છે, તે કાયયેાગ કહેવાય છે. જેમ અગ્નિના સચૈાગથી ઘડામાં રકતતા (લાલિમા) પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે, તેવી જ રીતે કાય રૂપ કરણના નિમિત્તથી આત્મામાં વીય-પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે તે જ કાયયેાગ છે. એવી જ રીતે જીત્ર વચનવણાના પુદ્ગલાને ગ્રહણ કરીને ત્યાગે છે તેના Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६१.१ आस्रवतत्वनिरूपणम् विसरमानाः पाक कृतकरणता मासादयन्ति, अनेन च बाकरणेन सम्बन्धोदी रेमनो वीर्योत्थानं भाषणशक्ति:- वाग्योगः । स च-सत्यादि भेदाच्चतुर्विधा; (एवम्-कायवताऽऽत्मना सर्व प्रदेशै गृहीता मनोवर्गणा योग्य पुद्गलस्कन्धाः शुभादि चिन्तनार्थ करणभावमाषचन्ते, तत्सम्बन्धाच्चात्मनः पराक्रमविशेषो मनोयोगा; सोऽपि-सत्यादि भेदाच्चतुर्विधः। तत्र-यधपि वाग्वर्गणायोग्यपुद्गलस्कन्धामनोवर्गणायोग्य पुद्गलस्कन्धा वा, न परमार्थतः सत्यादिव्यपदेशयोग्याः सन्ति। शानस्यैव सत्यादि भेदसद्भावात् स्थापि-सत्यादिज्ञाने-आत्मनो वळाधान साधक तमत्वात् नो इन्द्रियावरणक्षयोपशमसमुद्भूतमनोविज्ञान परिणामे आत्मनों मुद्गलों को ग्रहण करके त्यागता है। उनके निमित्त से या वचन रूपे करण से आत्मवीर्य का जो उत्थान होता है, उसे वचनयोग समझना चाहिए । सत्यवचनयोग आदि के भेद से उसके चार भेद हैं। इसी भांति कायवान् आत्मा के द्वारा समस्त प्रदेशों से ग्रहण किये हुए मनो वर्गणा के योग्य पुद्गलस्कन्ध शुभाशुभ चिन्तन में करण होते हैं। उनके संबंध से आत्मा का जो पराक्रम-विशेष उत्पन्न होता है, उसे मनोयोग कहते हैं । सत्य आदि के भेद से वह भी चार प्रकार का है। ___ यद्यपि वचन वर्गणा के योग्य पुद्गलस्कन्ध अथवा मनो वर्गणा के योग्य पुद्गलस्कन्ध वास्तव में सत्य था असत्य शब्द से कहने के योग्य नहीं हैं, क्योंकि सत्य असत्य आदिका भेद ज्ञान में ही हो सकता है, तथापि सत्य या असत्य ज्ञान में वे आत्मा के सामर्थ्य को उत्पन्न करते हैं तथा नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले मनो. નિમિત્તથી અથવા વચનરૂપ કરણથી આત્મવીર્યનું જે ઉત્થાન થાય છે તેને વચનગ કહે છે. સત્યવચન આદિના ભેદથી તેના ચાર ભેદ છે. આ રીતે કાયવાન્ આત્મા દ્વારા સમસ્ત પ્રદેશોથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલા મને વર્ગણાને પુદ્ગલકંધ શુભાશુભ ચિન્તનમાં કરણ થાય છે. તેમના સંબંધથી આત્માનું જે પરાક્રમ વિશેષ ઉત્પન્ન થાય છે તેને મને વેગ કહે છે સત્ય આદિના ભેદથી તે પણ ચાર પ્રકાર છે. જો કે વચનવર્ગને યોગ્ય પગલકંધ અથવા મને વર્ગણાને ગ્ય પંગલકંધ વાસ્તવમાં સત્ય અથવા અસત્ય શબ્દથી કહેવાને ગ્ય નથી. કારણ કે સત્ય અસત્ય આદિને ભેદ જ્ઞાનમાં જ થઈ શકે છે, તે પણું સત્ય અથવા અસત્ય જ્ઞાનની અન્દર તે આત્માના સામર્થ્યને ઉત્પન્ન કરે છે, તથા ઈન્દ્રિય (મન) બાહ્ય કર્મના ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થનારા મને વિજ્ઞાન રૂ૫ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wre तत्वार्थसूत्र पलाधानकारित्वाच्चात्म सहचरितत्वादुपचारत:-तद्वर्गणायोग्यपुद्गलस्कन्धाना: मपि सत्यादि ध्यपदेशो बोधः। एवञ्च-कायिकवाचिकमानस भेदात् त्रिविध कर्मयोगः, ताम्माधिष्ठिताः कायादयः समुदिताः एककाच क्रियाहेतवो भवन्ति, कायिकादि त्रिविधं कर्म कभू स्यात्मनः कायैकत्व परिणत्याऽभिन्नं करणं भवति, वीर्य निर्वर्तनीयेतु-परस्परानुगमनपरिणायात् द्रव्यरूपाः कायादि योगाः भाषयोग वीर्य निर्वतयन्ति, यथा खलु-कर्तुरात्मनः शरीरस्यागमने निर्वत्र्येऽपि आदौ अभिन्न कारणमेकत्वात् एवमेतेऽपि त्रयो योगा भवन्ति, तस्मादेष एव कायात्म: पदेशपिण्डः पतिविशिष्ट क्रियाकारित्वावच्छिन्न त्रिविधो योग उच्यते । पर विज्ञान रूप परिणाम में आत्मा के सहायक बनते हैं, इस कारण से तथा आत्मा से सहचरित होने के कारण उपचार से उन पुद्गलस्कन्धों को भी सस्य या असत्य आदि शब्दों से कहा जाता है। इस प्रकार कायिक, वाचिक और मानसिक के भेद से तीन प्रकार का कर्मयोग कहलाता है। आस्मा से अधिष्ठित काय आदि सब मिलकर और अकेले-अकेले भी क्रिया के हेतु होते हैं । क्रिया चाहे कायिक हो या वाचिक अथवा मानसिक, तथापि उसका कर्ता तो आत्मा ही है। वह सब क्रियाओंका अभिन्न कारण है। द्रव्यरूप काययोग आदि आपस में मिलकर भावयोग रूप वीर्य को उत्पन्न करते हैं । जैसे आत्मा कर्त्ता के शरीर के आगमन और उत्पाद आदि में एक प्रथम अभिन्न कारण है, इसी प्रकार ये तीनों योग भी होते हैं। इस प्रकार शरीर और आत्मा के प्रदेशों का पिण्ड विभिन्न क्रियाओं को करने के कारण तीन प्रकार का योग कहलाता है। પરિણામમાં આત્માના સહાયક બને છે, એ કારણથી તેમજ આત્માથી સહચરિત હેવાના કારણે ઉપચારથી તે પુદ્ગલકોને પણ સત્ય અથવા અસત્ય આદિ શબ્દથી કહેવામાં આવે છે. આવી રીતે કાયિક વાચિક અને માનસિકના ભેદથી પણ ત્રણ પ્રકારના કર્મગ કહેવાય છે. આત્માથી અધિષ્ઠિત કાય આદિ બધાં મળીને અને એક્લા એકલા પણ ક્રિયાના હેતુ હોય છે. ક્રિયા ભલે કાયિક હોય અથવા વાચિક અથવા માનસિક તે પણ તેને કતાં તે એક આત્મા જ છે. તે બધી ક્રિયાઓનું અભિન કારણ છે. દ્રવ્યરૂપ કાયચિંગ વગેરે અંદરે અંદરે મળીને ભાવગ રૂપ વીર્યને ઉત્પન્ન કરે છે જેમ આત્મા કર્તાના શરીરના આગમન અને ઉત્પાદ એક પહેલું અભિન્ન કારણ છે, એવી જ રીતે ત્રણે રોગ પણ હોય છે. આવી રીતે શરીર અને આત્માના પ્રદેશના પિણ્ડ વિભિન્ન ક્રિયાઓને કરવાના કારણે ત્રણ પ્રકારનાગ કહેવાય છે, Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ६ स. १ आस्रवतत्व निरूपणम् ' मार्थतस्तु - औदारिककार्मण वैक्रियकाययोग - मिश्रकाययोगभेदेन काययोगः सप्तविधः । वाग्योगश्चतुर्विधः, सत्यादि भेदात् सत्योऽसत्यः सत्यानृतो ऽसस्था नृतश्चेति । तत्र - पापादेर्विरतव्यमिति सत्यवाग्योगः, पापं नास्ति किञ्चिदिति-असत्यो वाग्योगः, इमा गावश्वरन्ति इति सत्यानृतो योगः पुंसामपि गोपदेन ग्रहणात् । 'चैत्र - १ ग्राम आगतः' इति असत्यानृतो वाग्योगः । एवं मनोयोगोऽपि सत्यादि भेदाच्चतुर्विधः, इति पञ्चदशकायादियोगाः - अवसेयाः । स च कायादियोगः प्रत्येकं द्विविधो भवति, शुभश्वा-शुभश्च तथा च- काययोगः - वस्तुतः काययोग सात प्रकार का है - ( १ ) औदारिक काययोग (२) औदारिक मिश्रकाययोग (३) वैक्रियकाययोग (४) वैक्रियमिश्रकाययोग ५ ) ) आहारक काययोग (६) आहारक मिश्र काययोग और (७) कार्मण काययोग | वचनयोग चार प्रकोर का है - ( १ ) सत्यवचनयोग (२) असत्यवचनयोग (३) सत्यासत्य - उभय- वचनयोग और (४) अनुभवचनयोग | 'पाप से विरत होना चाहिए' सत्य वचन योग है । पाप कुछ भी नहीं है यह यह असत्यवचन योग है । 'ये गायें चल रही हैं, यह सत्यासत्यवचनयोग है, क्योंकि यहां 'गो' शब्द से पुरुषों को भी ग्रहण किया गया है । 'चैत्र ! गांव से आया' यह असत्या मृषा - अनुभवचनयोग है। इसी प्रकार मनोयोग भी सत्य आदि के भेद से चार प्रकार का है । सब मिलकर योग के पन्द्रह भेद होते हैं । काययोग आदि में से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं- शुभ और अशुभ इस कारण काययोय भी शुभ-अशुभ के भेद ये दो प्रकार का है । वस्तुतः ४.यये'ग सात अधरना है. - (१) सोहारि अययोग (२) गौहाરિક મિશ્રકાયયેાગ (૩) વૈક્રિય કાયયેાગ (૪) વૈક્રિયમિશ્ર કાયયેાગ (૫) આહારક કાયસેગ (૬) આહારક મિશ્રકાયયેાગ અને (૬) કાણુ કાયયોગ વચનયેાગ यार अठान्ना छे-(1) सत्य वयनयोग (२) असत्य वयनयोग ( 3 ) सत्यासत्य_ उभय-वयनयोग भने (४) अनुलय वयनयोग - पायथी - विरत थवु જોઈએ આ સત્ય વચનયેાગ છે.–પાપ કશું' જ નથી આ અસત્ય વચનાગ છે. આ ગાચે ચાલી રહી છે” આ સત્યાસત્ય વચનચેાગ છે કારણ કે અહીં ‘ગે’શબ્દથી પુરૂષોને પણ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. ‘ચૈત્ર' ગામ આવ્યે’ આ અસત્યા મૃષા-અનુભય વચનયાગ છે. આવી જ રીતે મનેાયેાગ પણ સત્ય આદિના ભેદથી ચાર પ્રકારના છે. બધા મળીને ચાગના પંદર ભેદ હાય છે. કાચાગ આદિમાંથી પ્રત્યેકના બે-બે ભેદ છે-શુભ અને અશુભ આથી કાયયેાગ પણ શુભ-અશુભના ભેદ્દથી એ પ્રકારના છે, વચનયાગ અને મના तु० २ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A2 तत्वार्थस्त्र शुभो-ऽशुभश्च । एवं-बचोयोगो-मनोयोगधाऽपि शुभोऽशुभश्च। तत्र-शुभं पुण्यं सातादि सकलकर्मक्षयो वा.राद्धेतुल्वात् शुभः, अशुभं पुनः पापरूपं नारकादि जन्यफलं संसारानुवन्धि तद्धेतुत्वादशुमो योग उच्यते । तत्रा-ऽशुभः काययोगोहि हिंसाऽस्तेया-ऽब्रह्मचर्यादीनि, तत्र-कायिकयोगः केवलोऽसंज्ञि पृथिभ्यादिषु मसिद्धः । मनोव्यापाररहितो जीवानां माणघातको यः खल योगत्रयभाक् पाणी भवति तस्याऽप्युपसर्जनीभूत मनोवाग्व्यापारस्य कायिकयोग एव घातकत्वेनोदृशूतशक्तिवाद् विधक्षितः, अन्यत्र गचित्तस्या- ऽन्यविषयां वाचञ्च भाषमाणस्य प्रमादिनः । वचनयोग और मनोयोग के भी यही दो-दो भेद हैं। शुभ का अर्थ है पुण्य या सातवेिदनीय आदि समस्त कर्मों का क्षय । जो योग इसका कारण होता है, अत: शुभ कहलाता है। अशुभयोग पापरूप होता है । नरक आदि में जन्म होना उसका फल है। संसार की परम्परा को पढाने के कारण यह अशुभयोग कहलाता है। हिंसा करना, चोरी करना, अब्रह्मचर्यका सेवन करना आदि अशुभ झाययोग है। केवल कोयोग असंज्ञी एवं बचनलब्धि से रहित पृथ्वी छान आदि एकेन्द्रिय जीवों में ही पाया जाता है। तीनों योगों से युक्त भी जो प्राणी मानसिक व्यापार से रहित होकर जीव का घात करता है, उसका कायिक योग ही माना जाता है, क्योंकि उस समय उलके मन और वचन का व्यापार गौण होता है । उसका मन कहीं ગના પણ આજ પ્રકારના બે-બે ભેદ છે. શુભને અર્થ છે પુણ્ય અથવા સાતા વેદનીય આદિ સમસ્ત કર્મોને ક્ષય, જે વેગ આનું કારણ હોય છે તેથી શુભ કહેવાય છે. અશુભગ ૫.પરૂપ હોય છે. નરક આદિમાં ઉત્પન્ન થવું એ તેનું ફળ છે. સંસારની પરમ્પરાને વધારવાના કારણ રૂપ હોવાથી તે અશુભાગ કહેવાય છે હિંસા કરવી, ચેરી કરવી, અબ્રહ્મચર્યનું સેવન કરવું આદિ અશુભ કાય છે. કેવળ કાયવેગ અસંજ્ઞી અને વચન લબ્ધિથી રહિત પૃથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિય જીવોમાં જ જોવામાં આવે છે. ત્રણે રોગોથી યુક્ત પણ જે પ્રાણું માનસિક વ્યાપારથી રહિત થઈને જીવને ઘાત કરે છે તેને કાયિકાગ જ માનવામાં આવે છે. કારણ કે તે સમયે તેના મન અને વચનના વ્યાપાર ૌણ હોય છે. તેનું મન બીજે કશેક હોય છે અને વચન વળી કોઈ બીજી: Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ इ. १ आस्त्रवतत्वनिरूपणम् एवं परोऽचिन्तितार्थेन वायोगेन इन्ति, अन्यः पुनर्मनोव्यापारेणैव कायः पाक क्रियानिरपेक्षः सन् हिंसां विदधाति, अन्यस्तु-काय-पाङ्-मनोव्यापारवान् जीवान पीडयति, इत्येवं तेषु-यः केवलः कायव्यापारः स विवक्ष्यते । एवंपरपरिगृहीतरया-ऽनिसृष्टस्य तृणादेरपि चाऽऽदानं स्तेयम् , तदपि स्तेयं पश्येक योगवति-समुदायवर्ति चेति द्विविधम् । तत्र-केवलं कायव्यापाररूपमत्र बोध्यम् । अब्रह्मचर्यमपि-संजातवे होदयस्य विषयसेवनम्-स्वावयवनोदनजनितं सार्शमुखञ्चा-ऽवगन्तव्यम् । प्रकृते च केवलझायव्यापाररूरी बोध्या, आकाक्षामोहसद्भावात् , पृथिव्यादिपु-आहारमयमैथुनपरिग्रहसंज्ञासम्भवात् । एवम् दहनच्छेदना अन्यत्र होता है और वचन कोइ अन्य बात कहता है, ऐसे प्रमादी पुरुष का कायिक व्यापार काययोग ही समझना चाहिए। इस्ली प्रकार दूसरा कोई अचिन्तित अर्थवाले वचनयोग से घात करता है, कोई काय एवं वचन की क्रिया से निरपेक्ष होकर केवल मानसिक व्यापार से ही हिंसा करता है और कोई काय, वचन तथा मन-तीनों के व्यापार से युक्त होकर जीवों को पीड़ा पहुंचाता है। इन में ले केवल काययोग की ही विशक्षा की जाती हैं । हली प्रकार दूसरे के हारा गृहीत एवं अदत्त तग आदि को भी ग्रहण करना स्तेय (चोरी) है। यह स्तेय भी दो प्रकार का है-किसी भी एक योग से होनेवाला और तीनों योगों से होनेवाला । यहां केवल कायव्यापार रूप ही समझना चाहिए । वेद के उदय से विषय का सेवन करना या अपने अवधन विशेष की प्रेरणा से स्पर्शसुख का अनुभव करना अब्रह्मचर्य है। यहां कायिक व्यापार रूप अब्रह्मचर्य ही समझना चाहिए। आकांक्षामोहनीय જ વાત કહે છે આવા પ્રમાદી પુરૂષના કાયિક વ્યાપાર કાયમ જ સમજવા જોઈએ એવી જ રીતે બીજા કેઈ અચિન્તીત અર્થવાળા વચનોગથી હિંસા કરે છે, કઈ કાય અને વચનની ક્રિયાથી નિરપેક્ષ થઈને માત્ર માનસિક વ્યાપારથી જ હિંસા કરે છે અને કઈ કાય, વચન તથા મન-ત્રણેના વ્યાપારથી યુકત થઈને જીવોને પીડા પહોંચાડે છે. આમાંથી પ્રાપ્ત કાયયેગીની જ વિવક્ષા કરવામાં આવી રહી છે. આવી જ રીતે બીજા દ્વારા ગ્રહીત અને અદત્ત તૃણ આદિને પણ ગ્રહણ કરવું એ સ્તય (ચેરી) છે. આ સ્તેય પણ બે પ્રકારનું છે-કોઈપણ એક રોગથી થનારી તેમજ ત્રણે રોગથી થનારી અત્રે ફક્ત કાય વ્યાપાર રૂપ જ સમજવું જોઈએ. વેદના ઉદયથી વિષયનું સેવન કરવું અથવા પિતાના અવયવ વિશેષની પ્રેરણાથી સ્પર્શ સુખને અનુભવ કરે અબ્રહ્મચર્ય છે. અહીં કાયિક વ્યાપારરૂપ અબ્રહ્મચર્ય જ સમજવું Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 句 तत्वार्थ सूत्रे ssलेखन हास्य धावत चलान लङ्घना - वरोहणा - Ssस्फोटन प्रभृति कर्मविशेषाः कायिकोऽशुभ योगः १ साऽवद्य तृतरूपपिशुनादीनि वाचिको प्रयोगः २ सत्यमपि - वचः सावद्यं वाचिकं कर्माऽशुमवाचिको योग:, यथा-' इन्यन्तां चौराः ' 'व्यापाद्यन्ai हिंस्राः'। अनृतं पुन - रयथार्थमेव, यथा- 'चौर' चौरङ्कारमाक्रोशयहि'। पुरुष ं तावद-निष्ठुर स्नेहवर्जितं वचनम्, यथा- 'धिग्नाभ्म १ मूर्खस्त्वं पापाचार -१' इति । पिशुनं सत्यमपि प्रीतिराहित्यापादनान्यदस्य परोक्षस्य सतो दोषसूचकं वचः एवम् असत्य च्छलशतं दम्मोल्लुण्ठिका कटुक सन्दिग्धका समाव होने से पृथ्वीकाय आदि में आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह संज्ञा विद्यमान रहती है। जलाना, छेदन - भेदन करना, आलेखन करना, हंसना, दौडना, कूदना, लांघना, चढना-उतरना, पछाड़ना आदि-आदि कर्म अशुभ काययोग कहलाते हैं। सावध भाषा बोलना, असत्य बोलना, कठोर वचन कहना, चुगली खाना आदि अशुभ वचनयोग है । वचन भले सत्य हो तथापि वह यदि सावध है तो अशुभ वचनयोग ही समझना चाहिए। जैसे- चौरों का हनन करों, हिंसक प्राणियों को मार डालो, इत्यादि । अनृन अयथार्थ ही होता है, जैसे जो चोर नहीं है, उसे चोर कहना । निष्ठुर या स्नेह से हीन वचनों का प्रयोग 'परुष' कहलाता है, जैसे-भरे जालिम ! तू मूर्ख है, तू पापी है। पीठ पीछे किसी के विद्यमान भी दोषों को प्रकट करनेवाले वचन को पिशुन कहते हैं । इस प्रकार असत्य, छल से भरे हुए, दंभपूर्ण असभ्य, कटुक, संदिग्ध જોઈએ. આકાંક્ષા સે હનીયના સદ્ભાવ થવાથી પૃથ્વીકાય આદિમાં આહાર, ભય, મૈથુન અને પરિગ્રહ સંજ્ઞા વિદ્યમાન રહે છે. हवं, सणगाववु छेहन-लेहन ४२, मासेन ४२वु', सर्वु, होडवु', લાંધવુ, ચઢવું–ઉતરવું, પછાડવુ' આદિ-આદિ કમ અશુભ કાયયેાગ કહેવાય છે. સાવદ્ય ભાષા વદવી અસત્ય ભાષણ કરવું, કઠાર વચન કહેવા, ચાડી ખાવી આદિ અશુભ વચનચેાગ છે વચન ભલે સત્ય હાય પણ જો તે અસાવદ્ય હાય તે અશુભ વચનચૈાગ જ સમજવા જોઇએ. દા ત ચારાને હણી નાખે હિંસક પ્રાણીઓને મારી નાખેા' ઈત્યાદિ અનૃત અયથા જ હોય છે, જેમ કે જે ચાર નથી તેને ચાર કહેવે। નિષ્ઠુર અથવા સ્નેહથી હીન વચનનેાના પ્રયાગ ५३ष (१४२) देवाय छे. प्रेम है- अरे लुहमी तु भूर्ख छे, तू पायी छे, पीड પાછળ કૈાઈના વિદ્યમાન પણુ દોષને પ્રકટ કરવાવાળુ' વચન પશુન કહેવાય छे. आ प्रकारे मसत्य छपटथी लरेला, हलपूर्णा, असल्य, उदुई, सहिग्ध Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ सू. १ आस्त्रवतत्वनिरूपणम् मितविकथिताश्रितः प्रवचनविरोधी सर्बो वाचिको योगो ग्राह्य । अभिध्याव्यापादेयोऽसू यादीनि मानसो योगोऽसुर, तत्र-सर्वदा प्राणिष्वभिद्रोहानुध्यानम् अभिध्या, यथा-'अस्मिन् मृते सति सुखं वसामः-' इति । सापाय:-उत्पादनाऽऽरम्भो व्यापारो भवति, यथा-'ऽस्त्यस्य संशतः कोऽपि शत्रु स्तमेव कोपयामि यथा स एनं हन्यात्' इति । परगुणोत्कर्षासहिष्णुता-ईष्या, गुणेषु दोषाविष्करणम्-अमुया। अभिमानहर्षशोकदैन्यादयोऽपि-अशुभ मानसयोगा बोध्या:, वद्भिन्नाः शुमाः कायिक वाचिक मानसयोगा अवगन्तव्याः इति भावः ॥ अंटसंद जितने भी वचन हैं अथवा प्रवचन से विरुद्ध जो वचन है, उन सब को अशुभ वचनयोग समझ लेना चाहिए। अभिध्या हिंसा, ईर्ष्या, डाह आदि जितने भी अप्रशस्त मानसिक व्यापार हैं, वे अशुभ मनोयोग में परिगणित होते हैं। सदैव प्राणियों के द्रोह-अनिष्ट का चिन्तम करना अभिध्या है, जैसे यह सोचनो जि-अमुक मर जाय तो हम सुख से रहें।' इसका शत्रु अमुक पुरुष है, उसे कुपित कर दें जिससे वह इसे मार डाले इस प्रकार का चिन्तन सापाघ-चिन्तन कह लाता है। दूसरे के गुणों के उत्कर्ष को सहन न कर सकना ईया है। पराये गुणों को भी दोष के रूप में प्रकट करना अस्था है। अभिमान, हर्ष, शोक, दैन्य आदि भी अशुभ मनोयोग ही समझना चाहिए । ___ उल्लिखित अशुभ कायिक, वाचिक और मानसिक योग से विपरीत जो योग हैं, वे शुभ हैं। અને એલફેલ જેટલાં પણ વચન છે અથવા પ્રવચનથી વિરૂદ્ધ જે વચન છે. તે સઘળાને અશુભ વચનગ સમજી લેવા જોઈએ. અભિધ્યા હિંસા, ઈર્ષા, દ્રોડુ આદિ જેટલાં પણ અપ્રશસ્ત માનસિક વ્યાપાર છે તે મને યોગમાં પરિણત થાય છે. સદૈવ પ્રાણિઓના દ્રોહ-અનિષ્ટનું ચિન્તન કરવું તે અભિધ્યા છે. જેમ કે એવું વિચારવું કે-અમુક મરી જાય તે અમે સુખે રહીએ આને શત્રુ અમુક પુરૂષ છે તેને ગુસમ્રામાં લાવી દઈએ જેથી તે પેલાને મારી નાખે “આ પ્રકારનું ચિન્તન સાપાય ચિન્તન કહેવાય છે બીજાનાં ગુણોના ઉત્કર્ષને સહન ન કરી શકવા તે ઈર્ષ્યા છે. બીજાનાં ગુણેને પણ દેષના રૂપમાં પ્રગટ કરવા એ અસૂયા છે. અભિમાન, હર્ષ, શેક, ગરીબાઈ, આદિ પણ અશુભ મગ જ સમજવા જોઈએ. ઉલિખિત અશુભ કાયિક વાચિક અને માનસિક રોગથી વિપરીત જે યેગ છે તે શુભ છે. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • तत्वार्थसूत्रे उक्तश्च-समवायाऐ५-समवाये-'पंच आसवदारा पणत्ता, तं जहामिच्छत्तं, अविरई, पमाया, कलाया, जोगा' इति । पञ्चा-ऽऽस्र द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-मिथ यात्वम्-अविरति:-प्रमादा:-कपाया:-योगाः, इति । व्या. ख्यामज्ञप्ती भगवतीसूत्रे-१६ शतके १ उद्देशके ५६४ सूत्रे चोक्तम्-'तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा-मणजोए, वइजोए, कायजोए' इति । त्रिविधो योगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मनोयोगः-वचोयोग:-काययोगः' इति । तथाचा-ऽऽदिशब्देन मिथ्यादर्शना-ऽविरति प्रमाद-कपाय-प्रभृतयो गृह्यन्ते, एवञ्च-मनोयोग-वचोयोगकाययोग-मिथ्यादर्शना-ऽविरति-प्रमाद-कषायाः-आस्रवा इति फलितम् यथासरः सलिलावाहिविवरद्वार सलिलावकारणत्वादास्रव उच्यते, एवम्-योगमिथ्यात्वा-ऽविरति-प्रमाद-कषाय प्रणालिकया-ऽऽत्मनः कर्मा-ऽऽस्त्र वतीति योगादय आस्रवा व्यपदिश्यन्ते ॥१॥ समवायांगसूत्र में कहा है-आस्त्रबद्वार पांच हैं, यथा-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद कषाय और योग । भगवतीमूत्र के सोलहवें शतक के उद्देशक प्रथम, सूत्र ५६४ में कहा है-'योग तीन प्रकार का कहा है, मनोयोग, वचनयोग और काययोग।' ___ सूत्र में ग्रहण किये हुए 'आदि' शब्द से मिथ्यादर्शन, अविरति प्रमाद, कषाय, योग का ग्रहण होता है। इससे फलित यह हुआ कि मनोयोग, वचनयोग, कापयोग, मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमोद, कषाय, और योग ये सब आस्रव हैं । जैसे तालाब में पानी के आने का जो द्वार-छिद्र आदि होता है, वह आस्रव कहलाता है, उसी प्रकार योग, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय योग रूपी नाली में आत्मा में, जो कर्म आते हैं, उन्हें भी आस्रव कहते हैं ॥१॥ સમવામાંગસૂત્રમાં કહ્યું છે–આસવાર પાંચ છે-યથા-મિથ્યાત્વ, અવિરતિ પ્રમાદ, કષાય અને ચાગ ભગવતી સૂત્રના સાળમાં શતકના ઉદ્દેશક પ્રથમ સૂત્ર પ૬૪માં કહ્યું છે–ગ ત્રણ પ્રકારનાં કહેવામાં આવ્યા છે, મને યોગ, વચનગ અને કાયમ સૂત્રમાં ગ્રહણ કરવામાં આવેલ–આદિ શબદથી મિથ્યાત્વ વિરતિ, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય યોગનું ગ્રહણ થાય છે. આનાથી લિત એ થયું કે મનેગ, વચનયોગ કાયયોગ, મિથ્યાત્વ વિરતિ, અવિરતિ પ્રમાદ, કષાય અને યોગ આ બધાં આસ્રવ છે જેમ તળાવમાં પાણીના આવવાનું જે દ્વાર છિદ્ર વગેરે છે તે આસ્રવ કહેવાય છે, તે જ રીતે ચેગ મિથ્યાત્વ, અવિરતિ પ્રમાદ, કષાયયોગ રૂપી ગરનાળાથી આત્મામાં જે કર્મ આવે છે તેમને પણ આસવ કહેવામાં આવે છે. ૧૫ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ, ६ सू. २ पुण्यपापयोः आस्वकारणतिरूपणम् १५ मामयसमाल मूलम्-पुण्णपावाणं सुभासुभा जोगा ॥२॥ छाया-'पुण्य-पापयोः शुभाऽशुभी योगौं' ॥२॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वं तावद् आस्रवस्वरूपं निरूपितम् , सम्पति-पुण्यपाफ्यो। शुभाऽशुभौ योगी-आस्रवौ प्ररूपयितुमाह-'पुण्णपावाणं सुभासुभा जोगा' इति । कर्म तावत् द्विविधं पुण्यं-पापञ्च, तत्र-पुण्यकर्मण:-आयवहे तुः शुभयोगापापकर्मणश्चाऽऽस्रबहेतुरशुभयोगः। तत्र-प्राणातिपात, स्तेय, मैथुनादिरशुभकाय योगः, अनृतभाषण, परुषाऽसभ्याऽ लीळाचनादि शुभो वाग्योगः, प्राणिवध चिन्तनेया-ऽनुयादिरशुमो मनोयोगः, सद्-विपरीत-शुभः कायादियोगः इति ॥२॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व खलु द्विविधो योगः प्रतिपादितः शुभश्चाशुमश्च, तत्र 'पुण्णपावाणं' इत्यादिसूत्रार्थ-शुभयोग पुण्य का और अशुभयोग पापका कारण है ॥२॥ तत्वार्थदीपिका-पहले आस्त्र व के स्वरूप का निरूपण किया गया है, अब यह बतलाते हैं कि पुण्य और पापका आस्रव किस कारण से होता है ? ___ कर्म के दो भेद हैं-पुण्यकर्म और पापकर्म । इन में से पुण्यकर्म के आस्रव का कारण शुभयोग और पाप कर्म के आरव का कारण अशुभ कर्म है। प्राणातिपात, चोरी, मैथुन आदि अशुभ काययोग है। असत्य, कठोर, असभ्य या अश्लील वचन बोलना अशुभ बचनयोग है। हिंसा का विचार करना, ईपर्श करना, डाह करना, आदि अशुभ मनोयोग है । इनसे विपरीत जो योग हैं, उन्हें शुभ काययोग आदि समझना चाहिए ॥२॥ तत्वार्थनियुक्ति-पहले योग के दो प्रकार प्रतिपादित किए गए हैं:'पुणपावाणं सुभासुभा जोगा' સૂવાથ–શુભયોગ પુણ્યનું અને અશુભયોગ પાપનું કારણ છે મારા તત્વાર્થદીપિકા–પહેલા આસવ સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે એ દર્શાવીએ છીએ કે પુણ્ય અને પાપને આસ્રવ કયા કારણથી થાય છે ? કર્મના બે ભેદ છે–પુણ્યકર્મ અને પાપકર્મ આમાંથી પુણ્યકર્મના આસવન કારણ શુભાગ અને પાપકર્મના આત્સવનું કારણ અશુભ કર્મ છે પ્રાણાતિपात, यारी, गैथुन मासिशुभ यया छ. असत्य, १२, असल्य. અથવા અલીલ વચન બેલવા અશુભ વચનગ છે હિંસાને વિચાર કર.. ઈર્ષા કરવી, દ્રોહકર આદિ અશુભ માગ છે. આનાથી જે ગ છે તેમને શુભ કાયયાગ વગેરે સમજવા જઈએ ૨ તત્વાર્થનિર્યુક્તિ-અગાઉ યોગના બે પ્રકાર પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યા છે Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १६ तत्वार्थसत्रे यः शुभः कायादियोगः स किं सर्वस्यैव कर्मणोऽविशेषेणाऽऽस्रवो भवति ? आहोस्वित् कस्यचिदेव कर्मणः शत्रवः १ एवम् - अशुषोऽपि कायादियोगः किं सर्वस्यैव कर्मण आसव भवति ? उताहो कस्यचिदेव कर्मणः ? इत्याशङ्काया निरासार्थमाह - 'पुण्णपाचाणं सुभासु मा जोगा' इति । पुण्य-पापयोः पुण्य कर्म पाप कर्मणोः शुभाशुभ योगी - आस भवतः । तत्रः - पुण्यं तावद - द्विचत्वारिशद विधं कर्म चतुर्थाध्याये तृतीयमुत्रे प्रतिपादितम् । तस्य खलु एवंविधस्य पुण्य कर्मणः शुभः कायादियोग आस्रवो भवति । अशुश्च कायादियोगः - पापकर्मण आस्रवो भवति, पापकर्म - तावद् द्वयशीतिविधं पञ्चमाध्याये प्ररूपितम् । तत्र - प्राणातिपातादि निवृत्यादयः सत्यादयोऽपरिग्रहता धर्मध्यानादयश्व शुभो योगः पुण्यस्यैव कर्मण अस्त्रत्रो बोध्यः । न तु पापकर्मणः, प्राणातिपातादिलक्षण त्रिशुभ और अशुभ | इन में से शुभ काययोग आदि क्या सामान्य रूप से सभी कर्मों के कारण होते हैं अथवा किसी विशिष्ट कर्म के कारण होते हैं ? इस आशंका का निराकरण करने के लिए कहते हैं पुण्यकर्म के आस्रव का कारण शुभयोग है और पाप कर्म के आस्रव का कारण अशुभयोग है । पुण्य (शुभकर्म) के बयालीस भेद हैं उनका प्रतिपादन चौथे अध्याय के तृतीय सूत्र में किया जा चुका है । इस पुण्यकर्म के आस्रव का कारण शुभयोग है । इससे विपरीत पापकर्म के आस्रव का हेतु अशुभयोग है । पाप कर्म के क्यासी भेदों का निरूपण पांचवें अध्याय में किया गया है। प्राणातिपात आदि से विरति सत्य आदि! अपरिग्रहता एवं धर्मध्यान आदि शुभयोग हैं और इन में पुण्यकर्म का ही आस्रव होता है। શુભ અને અશુભ આમાંથી શુભ કાયયોગ આદિ શુ' સામાન્ય રૂપથી બધા કર્મોના કારણ હાય છે, અથવા કાઈ વિશેષ કના કારણુ હાય છે ? આ શકાના નિવારણ અર્થે કહીએ છીએ પુણ્યકના આસવનું કારણ શુભયોગ છે અને પાપકમના આસ્રવનું કારણુ અશુભયોગ છે. પુણ્ય (શુભકર્મ) ના ખેંતાલીસ ભેદ છે તેમનુ પ્રતિપાદન ચાથા અધ્યાયના ત્રીજા સૂત્રમાં કરી દેવામાં આવ્યું છે. આ પુણ્યકર્માંના અ સ્ત્રનેા હેતુ અશુભયોગ છે. આનાથી વિપરીત પાપકના આસવના હેતુ અશુભ ચૈાગ છે. પાપકમના ખ્યાંશી ભેદોનુ નિરૂપણુ પાંચમાં અધ્યાયમાં કરવામાં આવ્યુ છે પ્રાણાતિપાત આદિથી વિત્તિ, સત્ય આદિ, અપરિગ્રહ તથા પ્રેમ ધ્યાન શ્માદિ શુભ યોગ છે અને એનાથી પુણ્યક'ના જ આસ્રવ થાય છે, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ, ६ २.२ पुण्यपापयोः आसवकारणनिरूपणम् १७ विधोऽपि-अशुभः कायादियोगः पापस्य द्वयशीतिभेदभिन्नस्य कर्मण आस्रवो भवति । एवञ्च-तथाविधाशुभो योगः पुण्यस्यैव कर्मण आस्रवो न तु-पापस्येति रीत्या-एक्कारेण-पापकर्मण एव निवृत्ति रुच्यते, न तु तस्य शुभयोगस्य कर्म निर्जराहेतुत्वनिषेधः क्रियते। तथा च-शुभो योगः पुण्यस्य-निर्जरायाश्च हेतु र्भवति, अशुभो योगश्च-पापस्यैव कर्मणो हेतु भवति, कदाचित् पुण्यस्य कर्मण इति. भावः। तत्रा-ऽविधे ज्ञानावरणीयादि मूळकर्मणि द्वाचत्वारिंशत् पुण्यमकृतयः तथाहि-सातावेदनीयम्-देव-मनुष्य-तियंगाषि, उच्चैर्गोत्रम् । नामकर्म सप्तत्रिंशद् विधम् , तथाहि-देवगतिः१ देवगत्यानुपूर्वी२-मनुष्यगतिः३-मनुष्य. प्राणातिपात आदि तीनों प्रकार के अशुभ काययोग आदि से वयासी प्रकार के कर्म का आस्रव होता है । इस प्रकार पूर्वोक्त शुभ योग पुण्यका ही आस्रव है, पाप का नहीं यहां जो 'एव' शब्दका प्रयोग किया गया है, उससे यह समझना चाहिये कि शुभयोग पाप कर्म के आस्रव का कारण नहीं होता, मगर ऐसा नहीं समझना चाहिए कि शुभयोग कमनिर्जरा का कारण नहीं है । इस प्रकार शुभयोग पुण्य का भी कारण है और निर्जरा का भी। और अशुभ योग पाप का ही कारण होता है, मगर कदाचित् पुण्यकर्म का भी कारण हो जाता है। ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों की क्यालीस उत्तर प्रकृ. तियां पुण्यप्रकृतियां है। वे इस प्रकार हैं-सातावेदनीय, देवायु, मनु. व्यायु, तिथंचायु, उच्चगोत्र तथा संतीस नाम कम की निम्नलिखित प्रकृतियाँ-(१) देवगति (२) देवगत्यानुपूर्वी (३) मनुष्यगति (४) मनुष्य પ્રાણાતિપાત આદિ ત્રણે પ્રકારના અશુભ કાયાગ આદિથી ખાંશી પ્રકારનાં કમેનો આસ્રવ થાય છે. આવી રીતે પૂર્વોકત શુભગ પુણ્યને જ આશ્રવ છે. પાપને નહીં અહીં જે “ઘ” શબ્દ પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે, તેનાથી એવું સમજવાનું છે કે શુભગ પાપકર્મના આશ્વવનું કારણ હતું નથી, પરંતુ એવું ન સમજવું. જોઈએ કે શુભગ કર્મનિજેરાનું કારણ નથી. આવી રીતે શુભગ પુણ્યનું પણ કારણ છે અને નિર્જરાનું પણ અને અશુભગ પાપનું જ કારણ હોય છે પરંતુ કદાચીત પુણ્યકર્મનું પણ કારણ બની જાય છે. જ્ઞાનાવરણીય અદિ સાત પ્રકારના કર્મોની બેંતાલીશ ઉત્તર પ્રવૃતિઓ પુણ્યપ્રકૃતિઓ છે. તે આ રીતે છે-સાતા વેદનીય, દેવાયુ મનુષ્યાયુ, તિર્યંચા, ઉચ્ચગેત્ર તથા સાડત્રીસ નામકર્મની નિમ્નલિખિત પ્રકૃતિએ-(૧) દેવગતિ त०३ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसत्रे गत्यानुपूर्वी४-पञ्चेन्द्रियजाति५-औदारिकादीनि पञ्चशरीराणि१०-औदारिकादि पारीरत्रयस्याऽङ्गोपाङ्गानि१३-घथमं संहननम् १४-प्रथमं संस्थानम् १५-चत्वारि मंशस्त-वर्ण-गन्ध-रस-रुपर्शानि१९-सादिदशकम्-तथाहि-त्रस-चादर पर्यायभत्येकशरीर-स्थिर-शुन-सुभग-मुस्वरा-ऽऽदेय-यशः कीर्तिनामानिर:-अगुरुलध्वाष्टकम् तथाहि-अगुरु लघुनामो-च्छासा-ऽऽतपोद्योत-प्रशस्तविहायोगतिएराघात-तीर्थकर-निर्माणनामचेत्यष्टौ । सर्वसङ्कलनया सप्तत्रिंशद्विधं नामकर्म भवति। ३७। सातावेदनीयादयः पञ्चेत्येवं मिलित्वा द्विचत्वारिंशद्विधाः पुण्यपकृत्यो भवन्तीति। गत्यानुपूर्वी (५) पंचेन्द्रियजाति (६-१०) औदारिक आदि पांच शरीर (११-१३) औदारिक आदि तीन शरीरों के अंगोपांग (१४) प्रथम संहनन-वर्षभनाराच संहनन (१५) प्रथम संस्थान-समचतुरस्र (१६) प्रशस्त वर्ण (१७) प्रशस्त गंध (१८) प्रशस्त रस (१९) प्रशस्तस्पर्श (२०. . २९) सदशक अर्थात् त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशः कीर्ति नाम कर्म (३०-३७) अगुरु लघु अष्टक में से सात अर्थात् अगुरुलघु नाम कर्म, उच्छ्वास नाम कर्म, आतपनाम कर्म, उद्योत नाम कर्म, प्रशस्तविहायोगति नाम कर्म, परा. घात नामकम, तीर्थकर नाम कर्म और निर्माण नाम कर्म । इस प्रकार सब को जोडने से नाम कर्म के सैंतीस भेद होते हैं । इन में साता. वेदनीय आदि पूर्वोकर पांच भेद सम्मिलित कर देने पर बयालीस भेद हो जाते हैं । यही वयालीस पुण्य प्रकृतियां हैं। (२) वसत्यानुपूवी (3) मनुष्यगति (४) भनुत्यानुनी (५) ५येन्द्रिय જાતિ (૬-૧૦) દારિક આદિ પાંચ શરીર (૧૧-૧૩) દારિક આદિ ત્રણ શરીરે.ના અંગે પાંગ (૧૪) પ્રથમ સંહનન વર્ષભનારાચ સંહનન (૧૫) પ્રથમ સંસ્થાન-સમચતુરસ્ત્ર (૧૬) પ્રશરત વર્ણ (૧૭) પ્રશસ્ત ગંધ (૧૮) પ્રશસ્ત २स (१८) प्रश२४ २५श' (२०-२८) उस दृश: अर्थात त्रस, मा२, पर्याप्त, प्रत्ये: शरी२, शुभ, सुख, सुर३२, Auथ मने यश: प्रीत्ति नाम (30૩૭) અગુરૂ લઘુ અષ્ટકમાથી સાત અર્થાત્ અગુરુલઘુનામ કર્મ, ઉચ્છવાસનામ કર્મ, આતપનામ કમ, ઉદ્યતનામ કર્મ, પ્રશસ્ત વિહાગતિનામકર્મ, પરાઘાતનામ કર્મ, તીર્થંકરનામ કર્મ અને નિર્માણન મ કર્મ આ રીતે બધાને સરવાળે કરવાથી નામકર્મને સાડત્રીસ ભેદ થાય છે. આમાંથી સાતવેદનીય આદિ પૂર્વોકત પાંચ ભેદ ઉમેરવાથી બેંતાલીસ ભેદ થઈ જાય છે આજ બેંતા ત્રીસ પુયપ્રકૃત્તિઓ છે. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ६ रू. २ पुण्यपापयोः आसबकारणनिरूपणाडू १९ . द्वयधिकाशीतिविधं पापकर्म, तत्र-पश्चज्ञानवरणानि-५ नन दर्शनापरणी. यानि-१४ असातावेदनीयम्-१५, पविशतिविधं मोहनीयम्-४१ अष्टाविंशतिविधेषु मोहनीयेषु सम्यक्त्व-सम्पमिथ्यात्व प्रकृतिद्वयस्य पापकर्मस्वं न सम्भाति, • यतोऽनयोर्वन्धो नाल्ति, केवलं मिथ्यात्वमेवैकं बद्धं सत् पापशनतया परिणमते । एवं-नरकायुष्पम् ४२-गामक्रम चतुस्त्रिंशद् विधम् तथाहि-नरक गति१-नरकामपूर्वी २-तिर्यग्गति ३-तिर्यगानुपूर्वी ४-रकेन्द्रियजाति चतुष्टयम् ८-दशसंहननसंस्थानानि १८-अप्रशस्तवर्णादि चतुष्टयम् २२-स्थावरनामदशविधम्, तथाहिस्थावर १-सूक्ष्मा २-ऽपर्याप्त ३-साधारण शरीरा ४-ऽस्थरा ५-ऽशुभ ६ पाप कर्म वयासी प्रकार का है, यथा-(१-५) पांच ज्ञानावरण (६-१४) नौ दर्शनावरण (१५) आसातावेदनीय (१६-४१) छबीन मोहनीयकर्म की प्रकृतिमा-मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय नामक दो प्रकृतियां पापकर्म प्रकृतियों में परिगणित नहीं है क्योंकि उनका बन्ध नहीं होता, केवल मिथ्यात्व प्रकृति का वध होता है और वह पाप कर्म के रूप में परिणत हो जाती है (४२) नरकायु (४३-७६) चौंतील प्रकार का नाम कर्म, यथा--(१) नरकगति (२) नरकानुपूर्वी (३) तिथंचगति (४) तियं चानुपूर्वी (५-८) एकेन्द्रिय आदि चार जातियां अर्थात् एकेन्द्रिय जाति, दीन्द्रियजाति, ब्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति (९-१८) पांच संहनन और पांच संस्थान (१९.२२) अप्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्शनाम. कर्म (२३-३२) स्थावरदशक, घथा-(१) स्थाचर (२) (सक्षम (३) अपर्याप्त ___ या५: ज्या ५४२ना छ,-(१-५) पांय ज्ञाना१२५ -१४) न१ દર્શનાવરણ (૧૫) અશતાવેદનીય (૧૬-૪૧) છવ્વીસ મેહનીય કર્મની પ્રકૃતિઓ મોહનીય કર્મની અઠ્ઠાવીસ પ્રકૃતિઓમાંથી સમ્યકત્વ મેહનીય અને મિશ્ર મેહનય એ પ્રકૃતિએ પાપકર્મ પ્રવૃતિઓમાં પરિગણિત નથી કારણ કે તેમનો બન્ધ થતું નથી, માત્ર મિથ્યાવપ્રકૃતિને બધ થાય છે અને તે પાપકર્મના રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે (૪૨) નરકાયુ (૪૩-૭૬) ચૈત્રીસ પ્રકારના નામ ४ यथा-(१) न२४गति (२) नाति भानुभूती (3) तिय गति (४)तिय" અપૂવી (પ-૮) એકેન્દ્રિય આદિ ચાર જાતિઓ અર્થાત્ એકેન્દ્રિય જાતિ, બે ઈન્દ્રિય જાતિ, તેઈન્દ્રિય જાતિ, ચતુરીન્દ્રીય જાતિ (૯-૧૮) પાંચ સંહનન અને याय संस्थान (१८-२२) मप्रशस्तवर्ण, 'ध, २४, २५श नम भ. (२३-३२) स्था१६२३४ यथा-(१) स्था१२, (२) सूक्ष्म (3) मपात (४) साधारण Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थस्त्र दुर्भग ७-दुस्वश ८-उनादेया ९-ऽयशः कीर्तिनामानि ३२-इति, उपघातनामा ३३-ऽशुपविहायो गनिः ३४ । (७६) नोचैर्गोत्रम् ७७ -पञ्चविधमन्तरायम्-८२ तदेवं पुण्यपापकर्मणोः शुभाऽशुभौ योगी-आस्रवो भवतः ।। उक्तश्चोत्तराध्ययने २८अध्ययने १४-गाथायाम्-'पुण्णपावासवो तहाइति। पुण्य-पापास्त्रवस्तथा ॥२॥ मूलम्-सकसायस्स जोगो संपरायकिरियाए ॥३॥ छाया-'सकपायस्य योगः सम्परायक्रियायाः-॥३॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व पुण्यपापकर्मणोः शुभाऽशुभयोगौ आस्रवरूपौ प्ररूपितो, सम्प्रति-सम्परायक्रियाया आखवं प्ररूपयितुमाह-'सकसायस्स जोगो संपराय (४) साधारण शरीर (५) अस्थिर (६) अशुभ (७) दुर्भग (८) दुःस्वर (९) अनादेय (१०) अयशाकीर्ति (३३) उपघातनामकर्म (३४) अशुभ विहायोगलिनामकर्म (७७) नीचगोत्र (७७-८२) पांच अन्तराय । इस प्रकार शुभयोग और अशुभयोग पुण्य और पाप के कारण होते हैं। . उत्तराध्ययनसत्र के २८ वें अध्ययन की चौदहवीं गाथा में कहा है-'पुण्णपावासवो तहा' अर्थात् पुण्य का और पाप का आस्रव होता है ।।२॥ सूत्रार्थ 'सकसायस्स जोगो' इत्यादि । कषाययुक्त जीव का योग सम्परायक्रिया के आस्रव का कारण होता है ॥३॥ - तत्वार्थदीपिका-पहले बतलाया गया है कि शुभ योग पुण्य के और अशुभ योग पोप के आस्रव का कारण है । अब साम्परायिक क्रिया के (५) मस्थि२ (6) अशुम (७) हुम (८) १२ (6) अनाय (१०) अयश: प्रीति (33) पाघातनाम ४ (३४) भशुभविडायोतिनाम ४ (७७) નીચગવ્ય (૭૮-૨) પાંચ અન્તરાય આવી રીતે શુભયોગ અને અશુભયોગ પુણ્ય અને પાપના કારણ હોય છે. ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રનાં ૨૮માં અધ્યયનની ચૌદમી ગાથામાં કહ્યું છે'पुण्णपावासबो तहा' अर्थात पुश्यने। अने पापन। सासव थाय छे. ॥२॥ 'सकायस्स जोगो संपरायकिरियाए' સૂવાથ–કષાયયુક્ત જીવને એગ સમ્પરાયક્રિયાના આસ્રવનું કારણ हाय छे. તત્વાર્થદીપિકા પહેલા બતાવવામાં આવ્યું કે શુભયોગ પુણ્યના અને અશુભ યોગ પાપના આમ્રવના કારણે છે. હવે સમ્પરાંયિક ક્રિયાના આસ્રવની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ ल.३ संपरायक्रियायाः आस्रवनिरूपणम् २१ किरियाए-' इति । समपायल्य-कषायेण क्रोधमानमायालोमरूपेण सहितस्या ऽऽत्मनः योगो-मनोवाक्कायरूः आत्मपरिणतिविशेषः सम्पराशक्रियाया:संसारपर्यटनकारकक्रियायाः भवभ्रमणजनककर्मण आवो भवति । तथा चमनो वचः काययोगादिलक्षणः पूर्वोक्तस्वरूपाऽस्रवः सर्वसंसारिणां न समानफलारभ्भहेतुर्भवति, अपितु-सकषायस्यात्मनः कायादियोगरूप आखकः संसाररूप सम्परायजनककर्मणो हेतुर्भवति, अपायस्यात्मनस्तथाविध आस्रवन्तु-ईर्यापथ कर्मणः संसारापरिभ्रमणस्य हेतुर्भवतीति बोध्यम् । तत्र-कपति-आत्मानं हिनस्ति दुर्गतिं प्रापयतीति कपायः, यद्वा-कपायो न्यग्रोधत्वक् विभीतक-हरीतक्यादिकम्, आस्रव की प्ररूपणा करते हैं। जो जीव क्रोध, मान, माया, और लोभ रूप कषाय से युक्त है उसका योग अर्थात् आत्मपरिणति रूप मन वचन काय का व्यापार सम्पराय क्रिया का अर्थात् संसार में भ्रमण कराने वाली क्रिया का आस्रव होता है । तात्पर्य यह है कि मनोयोग वचनयोग और काययोग से होने वाला पूर्वोक्त आम्रप सब संसारी जीवों को समान फलप्रद नहीं होता, वरन् कषाययुक्त जीव को आस्रव होता है वह साम्परायिक आस्रव कहलाता है, जिसके कारण उसे संसार-परिभ्रमण करना पड़ता है। किन्तु जो जीव कपाय से मुक्त हो जाते हैं, उन्हें ईर्यापथ आम्रव होता है । वह संसार परिभ्रमण का कारण नहीं होता। जो आत्मा कर्षे-हने अर्थात् दुर्गति में ले जाय, वह कषाय कहलाता है अथवा जैसे बटकी छाल, वहेडा और हरड आदि कषाय, वस्त्र જે જીવ ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ રૂપ કષાયથી યુકત છે તેને યોગ અર્થાત્ આત્મપરિણતિ રૂપ મન વચન કાયને વ્યાપાર સમ્પરાય કિયાને અર્થાત્ સંસારમાં ભ્રમણ કરવાવાળી કિયાને આસ્રવ થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે મનોયોગ, વચનયોગ અને કાયયોગથી થનારે પૂર્વોકત આસ્રવ બધાં સંસારી અને એકસરખો ફળદાયી નીવડત નથી, નહીતર કયુકત જીવને જે આસ્રવ થાય છે તે સા૫ાયિક આસ્રવ કહેવાય છે, જેના કારણે તેને સંસાર-પરિભ્રમણ કરવું પડે છે, પરંતુ જે જીવ કપાયથી મુકત થઈ જાય છે. તેમને ઈર્યાપધ આસ્રવ થાય છે અને તે સંસાર પરિભ્રમણનું કારણ બનતું નથી. જે આત્માને ક–હણે અર્થાત્ દુર્ગતિમાં લઈ જાય તે કષાય કહેવાય છે અથવા જેમ વડની છાલ, બહેડા અને હરડ-આદિ કષાય વસ્ત્ર વગેરેમાં રાગનાકારણ હોય છે તેવી જ રીતે ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ રૂપ કષાય Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ a तत्वार्थसूत्रे यथा-वस्त्रादौ रागश्लेप हेतु स्तथा-क्रोधमानमाकालोमलक्षणः कपाया कपाय इवात्मनः कर्मश्लेषहेतुर्भवति, तेन-झपायेण सह वर्तते इति सकषायः तस्व-सकषायस्यात्मनो मिथ्शादृष्टयादेः कायादि योगवशादानीतस्य स्थित्यनुमागवन्धकारक साम्परायिकस्य कर्मण आखत्रो भवकारणं भवति । तत्र-सम्परायस्तावत-संसम्यकू, उत्कृष्टः, अयो गति:-पर्यटनं माणिनो यत्र भवति, स सम्परायः, संप्तार उच्यते, संसारपर्यटनकारकं कर्म साम्परायिकम्, तस्य-साम्परायिकस्य कर्मणो हेतु: खल्लु-सपायस्यात्मनो मिथ्यादृष्टे कायादियोगरूप आस्रवो भवति ।।३।। ___ तत्वार्थनियुक्ति:-अथ-कायिक-वाचिक-मानसयोगादिलक्षण आत्रक किं आदि में राग के कारण होते हैं, उसी प्रकार क्रोध मान माया और लोभ रूप कषाय आत्मा के लिए कर्म बन्ध के कारण होते हैं। ऐसे कषाय से युक्त जीव को सकषाय कहते हैं । सकषाय मिथ्यादृष्टि आदि जीव को फायओग आदि के द्वारा जिन कर्मों का आस्रव होता है, उनमें स्थिति बन्ध और अनुभोग बन्ध भी पडता है । अतएव वह पन्ध साम्रायिक बन्ध कहलाता है । 'साम्पराय' शब्द का अर्थ इस प्रकार है-सम् अर्थात् सम्धक, पर अर्थात् उत्कृष्ट, अथ अर्थात् गति या पर्यटन, तात्पर्य यह है कि प्राणियों का जहां परिभ्रमण होता है, उस संसार को साम्पराय कहते हैं और संसार-परिभ्रमण के कारणभूत कर्म को साम्पराधिक कहते हैं। साम्परायिक कर्म के कारण कषाय. वान् जीव का योग है। सारांश यह है कि सकषाय जीव के योग से जो कर्मबंध होता है, वह साम्परायिक बन्ध कहलाता है और उसमें स्थिति एवं अनुभाग भी पडते हैं ॥३॥ तत्वार्थनियुक्ति-कायिक, वाचिक और मानसिक योग रूप आस्रव क्या આત્માને માટે કર્મ બન્ધના કારણ હોય છે. આવા કષાયથી યુકત જીવને સકષાય કહે છે. સકષાય મિથ્યાદષ્ટિ આદિ જીવને કાયયોગ આદિ દ્વારા જે કમેને આસવ થાય છે તેમાં સ્થિતિબન્ધ અને અનુભાગબન્ધ પણ પડે છે. આથી તે અન્ય સામ્પરાકિબન્ધ કહેવાય છે. “સમ્પરાય શદને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે–સમ અર્થાત્ સમ્યક્ પર અર્થાત્ ઉત્કૃષ્ટ, અય અર્થાત્ ગતિ અથવા પર્યટન, તાત્પર્ય એ છે કે પ્રાણિઓનું જ્યાં પરિભ્રમણ થાય છે તે સંસારને સમ્પરાય કહે છે અને સંસાર પરિભ્રમણના કારણભૂત કને સામ્પરાયિક કહે છે સા૫રાયિક કર્મનું કારણ કષાયવાન જીવનયોગ છે. સારાંશ એ છે કે સકાય જીવના યોગથી જે કર્મ બંધાય છે તે સામ્પરાયિક બન્ધ કહેવાય છે અને તેમાં સ્થિતિ તેમજ અનુભાગ પણ પડે છે ? તત્વાર્થનિયુક્તિ-કાયિક, વાચિક અને માનસિક્યોગ રૂપ આસ્રવ શું બધાં Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ६ सू.३ संपरायक्रियायाः आस्रवनिरूपणम् ... २३. ‘सर्वेषां समारिणां समानफलारम्भहेतुर्भवति ? उनाहो-अन्यस्या-ऽन्यादृशः अन्यस्या इन्यावा? इत्याकाङ्क्षायां कश्चिद्विशेष प्रतिपादयितुमाह-'सकसायरस जोगो संपरायकिरियाए-' इति । सकपायस्य-कपायैः क्रोधमान-माया-लोभैः सह वर्तते इति सकपायः, कपा-कर्म, तस्या-ऽऽयो लाभः प्राप्तिः-कायः क्रोधमान ।। माया लोभः कर्महेतुः भवहेतुर्वा भवति, तै कपाय:-क्रोधादिभिः सहितस्य सकपायस्या-ऽऽत्यनो मिथ्यादृष्टेः कायादियोगरूपः आस्वतः संपराय क्रयाया:संपरैति-आत्मा-ऽस्मिन् इति सम्परायः-निरय-देव-मनुष्य-निर्यगतिलक्षणवतु. गतिकः संसार स्तस्य-संपारपरिभ्रमणस्य हेतुभूता-कर्मरूपा क्रिया-संपरायक्रिया सस्य हेतुर्भवति । तथा च-त्रिविधोऽपि मनो वाक् काययोगा शुभाऽशुभभेदः सभी संसारी जीवों को समान फलदायक होता है अथवा उसके फल में विसदृशता होती हैं ? इस आशंका का निवारण करने के लिए विशेष प्रतिपादन करते हैं जो क्रोध, मान, माया और लोभ से युक्त होता है, वह सकषाय कहलोता है । कष अर्थात् कर्म का आघ अर्थात् लाभ होना कषाय है ! क्रोध, मान, माया और लोभ कर्मके अथवा संसार के कारण हैं। क्रोध आदि कषायों से युक्त जीव को कायोग आदि साम्परायिक क्रिया के कारण होते हैं। नरकगति, देवाति, मनुष्यगति और तिर्य चगति रूप संसार सम्पराय कहलाता है, उस सम्पराय अर्थात् संसार में परिभ्रमण के कारण जो क्रिया है, वह साम्पराधिक क्रिया कहलाती है । तात्पर्य यह है कि मनोयोग वचनयोन और काययोग शुभ और अशुभ के भेद से दो-दो प्रकार का है । यह योग चाहे समस्त हो या व्यस्त, जय સંસારી જીવોને સરખાં ફળદાયક હોય છે ? અથવા તેના ફળમાં વિદેશતા डाय छ ? मा शना निवारए मथे विशेष प्रतिपान श, छोरी- . જે ફોધ માન માયા અને લેભથી યુક્ત હોય છે, તે સકષાય કહેવાય છે. કષ અર્થાત કર્મનું આપવું અર્થાત્ લાભ થે કષાય છે કોધ, માન, માયા અને લોભ કર્મના અથવા સંસારના કારણે છે. કે ધ આદિ કષાયોથી યુકત જીવના કાયયોગ આદિ સામ્પાયિક કિયાના કારણ હોય છે. નરકગતિ. દેવગતિ, મનુષ્યગતિ અને તિર્યંચગતિ રૂપ સંસાર સમ્પરાય કહેવાય છે મેં સમ્પરાય અર્થાત સંસારમાં પરિભ્રમણના કારણ રૂપ જે ક્રિયા છે તે સામ્પરા યિક ક્રિયા કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે મને યોગ, વચનયોગ, અને કાયયોગ શુભ અને અશુભના ભેદથી બે-બે પ્રકારના છે, આ યોગ ભલે સમસ્ત હોય Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..तत्वार्थस्त्र समस्तो व्यस्तो वा सकषायस्य कर्तुरात्मनः साम्परायिकस्य संसारपरिभ्रमणहेतु भूलस्य कर्मण धात्रवो भवति । उक्तञ्च व्याल्यामशती भगवती सूत्रे ७-शतके १-उद्देशके १६७-सूत्रे-'जस्स फोहमाणमायालोमा अयोच्छिन्ना भवंति, तस्स णं संपरायकिरिया मज्जह नो ईरियावहिया' इति। यस्य-क्रोध मान माया लोमा अव्युच्छिमा भवन्ति, तस्य-खल्लु साम्रायक्रिया क्रियते नो ईपिथिकी क्रिया-' इति ॥३॥ मूलम्-अकसायस्स जोगो ईरियावहिया किरियाए ॥४॥ . छाया-अकषायस्य योग:-ऐपिथिकक्रियाया:-॥४॥ कषाय युक्त आत्मा का होता है तो उससे साम्परायिक आस्रव होता है और वह संसार-परिभ्रमण को कारण बनता है। फलितार्थ यह है कि चार प्रकार के बन्धों में से स्थितियन्ध और अनुभागवन्ध कषाय के निमित्त होते हैं और प्रकृतिबन्ध तथा प्रदेश बन्ध योग के निमित्त से होते हैं। जो जीव कषाययुक्त होता है, उसके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध अवश्य होते हैं और इस कारण यह बन्ध संसारभ्रमण का कारण होता है । भगवतीमत्र के सातवें शतक के प्रथम उद्देशक के सूत्र १६७ वें में कहा है-जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ विच्छिन्न नहीं होते, उसे साम्पराधिक क्रिया होती है, ईर्यापथ क्रिया नहीं होती है॥३। सूत्रार्थ--'अकसायस्स जोगो' इत्यादि । कषाय से रहित जीव का योग ऐपिथिक क्रियाका कारण કે વ્યસ્ત, જ્યારે કષાયયુક્ત આત્માને થાય છે, ત્યારે તેનાથી સામ્પરાયિક આસવ થાય છે અને તે સંસાર પરિભ્રમણનું કારણ બને છે. ફલિતાર્થ એ છે કે ચાર પ્રકારના બધેમાંથી સ્થિતિબન્ધ અને અનુભાગનન્ય કષાયના નિમિત્તથી થાય છે અને પ્રકૃતિ બન્યા તથા પ્રદેશ બન્ય ગના નિમિત્તથી થાય છે. જે જીવ કષાયયુકત હોય છે તેના રિતિબન્ય અને અનુભાગનન્ય અવશ્ય થાય છે અને આ કારણથી જ આ બન્ધ સંસાર ભ્રમણનું કારણ બને છે. ભગવતીસૂત્રમાં સાતમાં શતકના પ્રથમ ઉદ્દેશકના સૂત્ર ૧૬૭માં કહ્યું છે જે જીવના ક્રોધ, માન, માયા અને લાભ વિછિન થતાં નથી તેને સામ્પરાયિક ક્રિયા થાય છે. ઈર્યાપથક્રિયા થતી નથી. ૩ 'अकसायरस जोगो ईरियावदिया किरियाए' સૂત્રાર્થ–કપાયથી રહિત જીવનેગ અર્યાપથિકક્રિયાનું કારણ હોય છે. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ १.४ अ. का. भवभ्रमणक्रियायाः आस्त्रवत्वम् २५ • तस्वार्थदीपिका---पूर्वमूत्रे-क्रोधादिकपाययुक्तस्यात्मनः कायिकादियोगः संसारपरिभ्रमणरूपसम्पायझियाया शास्त्रको भवतीति प्रतिपादितम्, सम्पतिकपायरहितस्य कायादियोगा संसाराऽपरिभ्रमणरूपर्यापथिकक्रियाया आस्वंयो भवतीति प्रतिपादयितुमाह-'अकसायरस जोगो ईरिया पहिया किरियाए' इति। • अपायस्थ-न विद्यते क्रोधादिकपायो यस्य सोऽझपायस्तस्य नोधादिकषाय रहितस्याऽऽत्मन उपशान्तकपायादेः कायिक-वाचिक-मानसयोगः-ऐपिथिक क्रियाया:- ईपिथकर्मणः संसारपरिभ्रमणकारणस्याऽऽस्रबो भवति। ऐपिथिक शब्दार्थस्तु-ईर+गतो'-इत्यस्माद् भावे ण्यति-ईया-ईरणम्, योगो गतिः योगप्रवृत्तिः काय-वाड्-मनो व्यापारः काय-वाङ्-मनो वर्गणालम्बी-आत्मपदेश होता है॥४॥ ___ तत्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि क्रोध आदि कषायों से युक्त आस्मा का फाययोग आदि संसार भ्रमण के कारण साम्परायिक आस्रव का कारण होता हैं, इस सूत्र में यह बतलाया जा रहा है कि जो जीव कषाय से रहित है, उसका योग केवल ईपिथभास्रव का कारण होता है जो कि संसार परिभ्रमण का कारण नहीं होता है___ क्रोध आदि समस्त कषायों से रहित आत्मा फा-उपशान्तकषाय या क्षीणकपाय आला का-जो काधिक बाचिक अथवा मानसिक योग होता है, उसले फेवल ईपिथ्य-भानही होता है। ईर घात गति अर्थ में है। उसमे भोर के अर्थ में प्रत्यय करने र ईयो शब्द बनला जिसका अर्थ है गति था योग की प्रवृत्ति, अथवा मन, वचन काय તત્યાથદીપિકા-પૂર્વસૂત્રમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે ક્રોધ આદિ કષાયથી યુકત આત્માને કાગ આદિ સંસારભ્રમણના કારણથી સાપાયિક આસવનું કારણ બને છે, પ્રસ્તુત સૂત્રમાં એ દર્શાવાઈ રહ્યું છે કે જે જીવ કષાયથી મુકત હોય છે, તેને ચેડગ માત્ર ઈર્યાપથ આસવનું કારણ હોય છે કે જે સંસાર પરિભ્રમણનું કારણ બનતું નથી. કે આદિ સમસ્ત કષથી રહિત આત્માને-ઉપશાન્ત–5ષાય અથવા ક્ષીણકષાય આત્માને-જે કાયિક, વાચિક અથવા માનસિકયોગ થાય છે, તેનાથી ५४ ध्या५५-मानव थाय छे. 'ई' धातु गति मथ मा छे, तथा भावना અર્થમાં ઈયનું પ્રત્યય લગાડવાથી દૃર્થી શબ્દ બને છે, જેને અર્થ થાય છે ગતિ અથવા યોગની પ્રવૃત્તિ, અથવા મન, વચન કાચના નિમિત્તથી થનારાં त०४ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसत्र परिस्पन्दो जीदप्रदेशचलनम्, 'ई' ति व्यपदिश्यते, ईर्स एव पथो मागों यस्य तत्-ईपिथ शुच्यते, ईपिथमेंब-ऐपिथकम् तद्रूपा क्रिया-ऐपिथिकी किया ऐयापथिककर्म-इति । तथा चाऽकषायस्यो-पशान्त-कपायादे रात्मनः कायादियोगवशादुपात्तस्य कर्मणः कषायामाचाहन्धाऽभावे सति कुड्य पतित शुष्कलोष्ठवच-अनन्तरसमये निवर्तमानस्य ऐपिशिकस्य कर्मण आस्रवो न चन्धकारणं भवति, किन्तु-सकपायस्य खल्वात्मनो मिथ्यादृष्टयादेः कायादियोगादानीतस्य स्थिस्यनुभागवन्धकारक साम्परायिकस्य कर्मण आस्रवस्तु-भवकारणं भक्तीति पूर्वमुक्तमेवेति। एवञ्चाऽपायस्यो-पशान्त कषायादेरात्मनः कायिका'दियोगः ऐयोपथिकस्यैव-एकसमयस्थितिकस्य कर्मण आस्रवो भवति' न तुसाम्परायिकस्य कर्मण इति भावः ॥४॥ के निमित्त से होने वाला आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन । ईया ही जिलका पध-मार्ग है, वह ईर्यापथ अधया ऐपिथिक कहलाता है। आशय यह है कि ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में जब कषाय का उद्य नहीं रह जाता, तब स्थितिबन्ध नहीं होता क्योंकि 'स्थितिबन्ध का कारण कषाय हैं, मगर योग विद्यमान होने से प्रवृति और प्रदेश बन्ध होते हैं। उस समय योग के कारण कर्मका आस्रव तो होता है परंतु कषाय के अभाव के कारण वह ठहरता नहीं है । जैसे दिवाल पर फेंका हुआ सूखा मिट्टी का ढेला दीवार को स्पर्श करके नीचे गिर जाता है, दीवाल पर ठहरता नहीं है, उसी प्रकार निष्कषाय आत्मा में कर्मका जो आस्रव होता है, यह ठहरता नहीं है। प्रथम समय में कर्म आता है, दूसरे समय में उसका वेदन होता है और तीसरे समय આત્માના પ્રદેશનું પરિસ્પદ ઈર્યા જ જેને પથ–માર્ગ છે તે ઈર્યાપથ અથવા પથિક કહેવાય છે. આશય એ છે કે અગીયારમાં બારમાં અને તેમાં ગુણસ્થાનમાં જ્યારે કષાયને ઉદય હોતો નથી ત્યારે સ્થિતિબન્ધ થતો નથી, ક રણ કે સ્થિતિબન્ધનું કારણ કષાય છે, પરતુ ચુંગ વિદ્યમાન હોવાથી પ્રકૃતિ અને પ્રદેશ બન્ધ થાય છે. તે સમયે ચંગના કારણે કમને આસ્રવ તો થાય છે, પરંતુ કષાયના અભાવના કારણે તે રોકાતો નથીજેવી રીતે ભીંત ઉપર ફેંકવામાં આવેલ માટીને સૂકે દે દીવાલને સ્પર્શ કરીને નીચે પડી જાય છે, દીવાલ ઉપર ટકી શકતા નથી, તેવી જ રીતે નિષ્કષાય આત્મામાં કમને જે આસવ થાય છે તે રકાત નથી પ્રથમ સમયમાં કર્મનું આગમન થાય છે, બીજા સમયમાં તેનું વેદના થાય છે અને ત્રીજા સમયમાં તેની નિર્જર Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ रु.४ अ. का. भवभ्रम गक्रियायाः आस्नवत्वम् २१ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-सकपाकस्याऽऽत्मनः कायादियोगः साम्परायिक कर्मणो भवभ्रमणजनकस्याऽऽत्रको भवतीति प्ररूपितम्, सम्प्रति-अकषायस्योपशान्तापायादेरात्मनः कायादियोगः संसारा-ऽगरिभ्रमणहेतुकस्य-ऐयोपथिक कर्मण आस्रवो भवतीति प्ररूपयितुमाह-'अकषायस्य-क्रोधादिकषायरहितस्योपशान्तमोहरूषायादेरात्मनः कायादियोगः ऐर्यापधिक क्रियायाः ईर्यापथकर्मणः -संसाराऽपरिभ्रमण हे तुकस्या-ऽऽसबो भवति । तत्र-ईरण मीर्या गति रागानु. सारिणी सति-प्रयोजने पुरस्ताद् युग मात्रदृष्टिः स्थावरजङ्गमाभिभूतानि परिमें उसकी निर्जरा हो जाती है । किन्तु कषाययुक्त जीव को स्थितिबन्ध होता है और अनुभागवन्धक भी होता है. अतएव उसके संसारभ्रमण करना पड़ता है। __ इस मकार उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय आत्मा को ऐयोपथिक आस्रव ही होता है जो दो समय की स्थितिवाला होता है और संहार परिभ्रमण का कारण नहीं होता ॥४॥ ____तत्वार्थनियुक्ति-पहले कथन किया जा चुका है कि सकषाय जीव का योग साम्परायिक आस्रव का कारण होता है, अब यह प्रतिपादन किया जाता है कि उपशान्त-क्षीणकषाय आत्मा का जो काययोग आदि है, वह संसारभ्रमण के हेतु कर्मका कारण नहीं होता कषाय से रहित जीव का योग ऐयाँपथिकक्रिया का कारण होता है, जो संसारभ्रमण का कारण नहीं होता । प्रयोजन होने पर आगम के अनुसार चार हाथ सामने की भूमि पर दृष्टि रखते हुए और उस થઈ જાય છે. પરંતુ કષાયયુક્ત જીવને સ્થિતિબન્ધ થાય છે અને અતૃભાગ બન્ધ પણ થાય છે આથી તેને સંસાર–પરિભ્રમણ કરે પડે છે. આવી રીતે ઉપશાત કષાય અને ક્ષણિકષાય આત્માને અપર્થિક આસ્રવ જ થાય છે, જે બે સમયની સ્થિતિવાળા હોય છે તેમજ સંસારપરિભ્રમણનું કારણ બનતું નથી ૪ તત્કાનિચતિ–પહેલાં કહી દેવામાં આવ્યું છે કે સકષાય જીવનમાં સામ્પરાયિક આસ્રવનું કારણ હોય છે. હવે એ પ્રતિપાદન કરવામાં આવી રહ્યું છે કે ઉપશાન્ત-ક્ષીણ કષાય આત્માના જે કાયાગ વગેરે છે, તે સંસાર ભ્રમણના હેતુ કર્મનું કારણ હોતું નથી કષાયથી રહિત જીવનેચોગ અર્યાપથિક ક્રિયાનું કારણ હોય છે, જે સંસારભ્રમણનું કારણ હતું નથી. પ્રજન થવાથી આગમ મુજબ ચાર હાથ પોતાની સામેની ભૂમિ પર દષ્ટિ રાખતા થકા અને ત્રાસ તેમ જ સ્થાવર Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसने वजयन् अप्रमत्तः शनैर्यायात् तपस्वी त्येवंविधा गतिः पन्थः-मार्गः प्रवेशो यस्य कर्मण स्तव-ईपिथल्, ईपिथमेव एयोपथिकी तद्पा क्रिया, ऐयापयिकी क्रियोच्यते । सत्र-कायादियोगमात्रप्रत्ययत्वात् गच्छत स्तिष्ठतो वा त्रिसमय स्थितिको वन्धो-ऽकपायस्य भवति । अपायस्तावत्-मयमं द्विविधो भवति, चीतराग:-सरागथ, । सत्र-बीराम त्रिविधः, उपशान्तमोहकपाय:-क्षीणमोहकपाय:-केवली च । तत्र-क्षीणमोहापाय-केवलिनी कात्स्न्ये न समूळघातोपहत कसैकदम्बौ भवतः । सरागस्तु-संज्वलनपाययुक्तोऽप्यविधमानोदयस्वादकषाय एवावगन्तव्यः तस्य-झपायावनौ मन्दानुभावत्वात् उक्तश्चएवं स्थावर जीवों की रक्षा करते हुए, धीरे-धीरे अप्रमत्त होकर मुनि का ईनण-गलन-करना ईविध कहलाता है ? उसे ऐयापथिक की क्रिया भी कहते हैं। अभिप्राय यह है कि योग मात्र के निमित्त से गमल करते या खडे हुए कषायरहित मुनि को दो समय की स्थितिवाला जो बन्ध होता है, वह ईर्यापथ बन्ध है। कषायरहित के मूलतः दो भेद हैं-चीतशा और लराग। वीतराग तीन प्रकार के होते हैं-उपशान्तमोह (ग्यारहवें गुणवानवती) क्षीणमोह छदूरवस्थ और क्षीणमोह केवली । क्षीणमोह छरस्थ और केवली में मोहनीय कर्म का ससूल क्षय हो जाने से कषाय की सत्ता नहीं होती, उपशान्तमोह जीव में कषाय की मत्ता रहती है किन्तु उद्य नहीं होता जिसको संज्वलन ऋषाय विद्यमान है किन्तु उसका उदय नहीं है, उस सरोग को भी अकषाय ही समझना चाहिए। कहा भी हैજીવોની રક્ષા કરતાં થકા હળવે હળવે અપ્રમત્ત થઈને મુનિનું ઈરણ-ગમન કરવાની ક્રિયાને ઈર્યાપથ કહેવાય છે તેને પથિકની ક્રિયા પણ કહે છે, અભિપ્રાય એ છે કે એગ માત્રના નિમિત્તથી ગમન કરતાં અથવા ઉભા રહેલાં કષાયસહિત મુનિને બે સમયની રિથતિવાળે જે બન્ધ થાય છે, તે ઈર્યાપથ બન્ધ છે. કષાયરહિતના અસલમાં બે ભેદ છે–વીતરાગ અને સરાગ વિતરાગ ત્રણ પ્રકારના હોય છે-ઉપશાનનમેહ-(અગીયારમાં ગુણસ્થાનવત્ત) ક્ષીણમેહ છદ્યસ્થ અને ક્ષીણમેહ કેવળી, ક્ષીણમેહ ઇશ્વસ્થ અને કેવળીમાં મોહનીય કર્મને સમૂળગે ક્ષય થઈ જવાના કારણે કષાયની સત્તા હોતી નથી, ઉપશાન્ત મહ જીવમાં કપાયની સત્તા રહે છે, પરંતુ ઉદય થતો નથી. જેમના સંજવલન ક્યાય વિદ્યમાન છે, પરંતુ તેને ઉદય થતો નથી, તે સરાગને પણ અકષાય જ સમજવા જોઈએ. વળી કહ્યું પણ છે Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ सू.१ अ.का.भवभ्रमणक्रियायाः'आम्नवत्वम् २६ 'उच्चालियम्मि पाए, इरियासपियरस संकमट्ठाए । बावज्जेज्ज कुलिंगी, मरेज्ज तं जोश मासज्ज ॥१॥ 'न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहुगो वि देसिओ समए। सुद्धस्स उ संपत्ती अफला वुत्ता जिनवरहि ॥२॥ 'उच्चलिते णदे इर्यासमितस्य संक्रमार्यम् । व्यापद्येत कुलिङ्गी म्रियते तं योगमालाच ॥१॥ अत्र-कुलिङ्गि शब्देन कुन्थु प्रभृति क्षुद्रजन्तुः परिगृह्यते ॥ 'न च तस्य तन्निमित्तो वन्धः सूक्ष्मोपि देशितः समये । शुद्धस्य तु सम्पत्तिः अफलोक्ता गिनवरैः इति ।।२।। एवञ्चा-पायल्यो-पशान्तापायादेः कायाहियोग ईपियस्यैव संसाराs. परिभ्रमण कारणस्य कर्मण एकसमयावस्थानकल्या- ऽऽस्रो भवति । तत्राऽऽयो दन्धरमयः-देशमानकमसभयो मध्यमः २-ल एव स्थितिकालः, तृतीयः 'उच्चालियसिम पाए' इत्यादि ईलिमितिले सम्पन्न संयमी ने जलन करने के लिए पांच ऊंचा उठाया हो और उसका निमिल पाझर कदाचित् कोई बेन्द्रिय आदि जीप मृत्यु को प्राप्त हो जाय तो भी उहालंयमी को उसके कारण सूक्ष्म पन्ध भी नहीं कहा गया है। जिनेन्द्र भगवान् ने शुद्ध पुरुष की क्रिया को पाप-फलप्रदायिनी नहीं कहा है। ___ इस प्रकार जे। उपशान्त कषाय आदि कपाय रहित है, उसके काय. योग के निमित्त से ईर्षापय कर्म का ही बाब होता है और संहारपरिभ्रमण का कारण नहीं होता। उल कर्म की स्थिति सिर्फ एक समय की. होती है, अर्कात् प्रयन समय में फर्म का होता है. दूसरे समय में 'उच्चालियम्मि पाए' त्या यसमितिथी सम्पन्न सयभीमें गति वा માટે પગ ઉંચો કર્યો હોય અને તેનું નિમિત્ત પામીને કદાચિત્ કઈ બેઇન્દ્રિય આદિ જીવ મૃત્યુને શરણ થઈ જાય તો પણ તે સંયમીને તેના કારણે સુમ બન્યું પણ કહેવામાં આવ્યું નથી. જિનેન્દ્ર ભગવાને શુદ્ધ પુરૂષની ક્રિયાને પાપફળ આપનારી કહેલી નથી. - આ રીતે જે ઉપશાન્ત કષાય આદિ કષાય રહિત છે તેના કાયાગના નિમિત્તથી ઈર્યાપથ કર્મને જ બન્ધ થાય છે તેમજ સંસારપરિભ્રમણનું કારણ બનતું નથી, તે કર્મની સ્થિતિ માત્ર એક સમયની હોય છે, અર્થાત પ્રથમ સમયમાં કર્મ બંધાય છે, બીજા સમયમાં તેનું વદન થાય છે અને આ વેદન Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसत्रे परिशाटसमयः इति । उक्तश्च='पढमे समए बद्धपुट्ठा, बितीए समए वेदिता तइए समए णिज्जिपणा। सेआले अकम्मं वा वि भवति' इति । प्रथमे समये बन्धः स्पर्शन-द्वितीये समये वेदनं तृतीये निजरणम्, एष्यकाळेऽकर्म भवति इति । अत्रेदं बोध्यम्-यस्य यावान् कायादियोगः सम्भवति-तस्य तावान् एव योगा साम्परायिककर्मणः-ईपिथकर्मणो वा-भवतीति । तत्रै-केन्द्रियाणां तावत् असंज्ञ काययोगा, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियाणां काय-वाग्योगों, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणांमनोवाक् काययोगाः, अपायस्थ संज्वलनकषायवर्तिनउपशान्तकषायक्षीणकषायमोहयोश्च मनोवाकाययोगाः, केवलिनश्च-वाकाययोगी चेति, । उक्तश्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवतीसूत्रे ७-शतके १-उद्देशके २६७-सूत्रे-'जस्स णं कोहमाण उसका वेदन होता है और यह वेदनकाल ही उसका स्थितिकाल समझना चाहिए। तीसरे समय में उस कर्म की निर्जरा हो जाती है। कहा भी है-'प्रथम समय में बन्ध हुआ, दूसरे समय में वेदन हुआ और तीसरे समय में निर्जरा हो गई, निर्जरा हो जाने के पश्चात् वह कर्म अकर्म रूप में परिणत हो जाता है। ____यहां इतना समझ लेना चाहिए-जिस जीव के जितने योग होते हैं, उसके उतने योगों से ही साम्परायिक अथवा ऐपिधिक कर्म का आस्रव होता है । एकेन्द्रिय जीवों में सिर्फ काययोग ही पाया जाता है, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय में काययोग तथा वचन योग होते हैं, संजीपंचेन्द्रिय जीवों में तीनों योग होते हैं। अकषाय या संज्वलन कषाय वालों में मनोयोग, वचनयोग और काययोग-तीनों होते हैं और केवली में काययोग और वचनयोगही કાળ જ તેને સ્થિતિકાળ સમજવું જોઈએ. ત્રીજા સમયમાં તે કર્મની નિર્જરા થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે–પ્રથમ સમયમાં બધૂ કે, બીજા સમયમાં વેદન થયું, અને ત્રીજા સમયમાં નિર્જરા થઈ ગઈ નિર્જરા થઈ ગયા બાદ તે કમ અકર્મ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. અહીં એટલું સમજી લેવાની જરૂર છે-જે જીવના જેટલા એગ હોય છે તેને તેટલા પેગોથી જ સામ્પરાયિક અથવા અપથિક કર્મને આસ્રવ થાય છે. એકેન્દ્રિય જીવમાં માત્ર કાગ જ જોવામાં આવે છે ઈન્દ્રિય, તેઈન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય તથા અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયમાં કાયગ તથા વચનગ હોય છે, સંજ્ઞીપંચેન્દ્રિય જીમાં ત્રણે રોગ હોય છે અકષાય અથવા સંજવલન કષાયવાળા જીવમાં મગ, વચનગ અને કાયગ-ત્રણે દેય છે અને કેવળીમાં કાગ તથા વચનગ જ જોવા મળે છે. ભગવતીસૂત્રના સાતમાં Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका नियुक्ति टीका अ. ६ ए. ५ साम्परायिककर्मा स्त्रवभेदनिरूपणम् ३१ माया लोभा वोच्छिन्ना भवति, तस्स णं-ईरियावहिया किरिया कउजड़े नो सांपराइया किरिया कज्जह, जस्स णं कोहमाण मायालोमा अवो भवति तस्स णं संपरायकिरिया कज्जइ नो ईरिया वहिया' इति । यस्य खलु क्रोध मान माया लोभाः व्युच्छिन्ना भवन्ति तस्य खल- ऐयाँafrat क्रिया क्रियते नो साम्परायिकी क्रिया क्रियते । यस्य खल-क्रोध मान मान माया लोभाः अव्युच्छिक्षा भवन्ति, तस्य खलु साम्परायिकीं क्रिया क्रियते नो ऐयपथिकी, इति |४| 152 मूलम् - इंदियकसाया सुभोगाव्यकिरिया भेदओ संपराइय कम्मासवा वायालीसविहा ॥५॥ छाया - 'इन्द्रिय कपाया शुभयोगाऽवतक्रियाभेदतः साम्परायिककर्मास्रवाः - द्विचत्वारिंशद्विधाः ॥५॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्व तावत् - साम्परायिकस्य - ऐर्यापथिकस्य च कर्मणो द्विविधः प्ररूपितः सम्प्रति साम्परायिककर्मास्रवभेदान मरूपयितुमाह पाये जाते हैं । भगवनीसूत्र के सातवें शतक के प्रथम उद्देशक के २६७ वें सूत्र में कहा है-जिस जीव का क्रोध, मान, माया और लोभ का विच्छेद हो जाता है, उसे ऐर्यापथिकी क्रिया होती है साम्परायिक क्रिया नहीं होती और जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ का विच्छेद नहीं शेता, उसके साम्परायिक क्रिया होती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं | -४ ॥ 'इंदियकसाया सुभओगा' इत्यादि । इन्द्रिय, कषाय, शुभयोग अव्रत और क्रिया के भेद से साम्पराfre कर्मा के बयालीस भेद हैं ||५|| तत्वार्थदीपिका -- साम्परायिक और ऐर्यापथिक के भेद से आव के दो भेद कहे जा चुके हैं, अय साम्परायिक कर्मास्रव के भेदों का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं શતકના પ્રથમ ઉદ્દેશકના ૨૬માં સૂત્રમાં કહ્યું છે-જે જીવેાના ક્રોધ, માન, માયા અને લેભના વિચ્છેદ થઇ જાય છે તેની ઐપિાર્થિક ક્રિયા જ હોય છે, સામ્પરાયિક ક્રિયા હાતી નથી અને જે જીવાના ક્રોધ મન, માયા, તથા લાભના નાશ થતા નથી તેની સામ્પરાયિક ક્રિયા હૈાય છે, એં/પથિક'ક્રિયા होता नथी. !!४!! 'इंदियकसाया सुभजोगा' इत्याहि सुत्रार्थ – इन्द्रिय, उषाय, शुलयोग, अव्रत भने डियाना लेहथी साभ्यરાયિક ક્રમ્મસવના ખેંતાળીસ ભેદ છે. તત્વાર્થદીપિકા—સામ્પરાયિક અને અય્યપથિકના ભેથી આસ્રવના એ ભેદ કહેવામાં આવી ગયા છે, હૅવે સામ્પાયિક કર્મોત્સવના ભેદોનુ' પ્રતિપાદ્દન ફરવા માટે કહીએ છીએ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र इदिय कलाया सुभयोगासव' इत्यादि । इन्द्रिय कपाया शुभयोगायतक्रिया भेदत:-इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्र भेदेन पञ्चविधानि, कपाया:-क्रोध मांन माया लोगभेदेन चतुविधा, अशुभयोगा मनोवाकायभेदेन विविधाः, अंततानि-हिंसा-नृत-रतेय-मैथुन-परिग्रह भेदेन पञ्चविधानि, शिगाव-कायि फ्यादि भेदेन पञ्चविंशविविधाः, इत्येवं रीत्या-इन्द्रिय कपाया-ऽव्रतक्रियाणाम्एकोनचत्वारिंशद् भेदार साम्पायिककर्मास्त्रवाः-संसारपरिमणकारणभूतस्य साम्परायिककर्मणो हेतुरूपा मास्ना एकोनचत्वारिंशदुविधाः भवन्ति । तत्रेन्द्रिय कषाया-ऽन्नतानां भेदाः प्रदर्शिताः एव- क्रियाः पञ्चविंशतिविधा:-पथा कायिकी, कायेन निवृत्ता-कायिकी काय व्यापारः-१ आधिकरणिकी, अधिक्रियते -आत्मा नरकादिषु येन-तदधिकरणम्, इह खजादिकं वस्तु विवक्षितम्। तत्र भवा..', स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र के भेदों से पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद ले चार प्रकार के कषाय, मन, वचन और काय के भेद से तीन प्रकार के योग, हिंसा, अमत्य, चौर्य अब्रह्मचर्य और परिग्रह के खेद से पांच प्रकार के अनन, कायिकी आदि के भेद से पच्चीस प्रकार की क्रिया, ये सब साम्पराधिक कर्म के कारण होते हैं, जो भवभ्रमण के कारण होते हैं। इन में से इन्द्रियों, कषायों और अव्रतों के भेद निरूपित किये जा चुके हैं, क्रियाएं पच्चीस इस प्रकार है (१) कायिकी-काया लेसिया जाने वाला व्यापार । (२) आधिकरणकी-जिसके कारण मारमा नरक भादि का अधिकारी बने । अधिकरण का अर्थ है खड्ग आदि हिला के साधन, उन से होने वाली क्रिया। २५शन, २सना, प्रा, यक्षु मने त्रिना मेथी पांय इन्द्रयो, ध, માન, માયા અને લેભના ચાર પ્રકારના કષાય, મન, વચન અને કાયના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના રોગ, હિંસા, અસત્ય, ચર્ય, અબ્રહ્મચર્ય અને પરિગ્રહના ભેદથી પાંચ પ્રકારના અવ્રત, કાયિકી આદિના ભેદથી પચ્ચીસ પ્રકારની કિયા, આ બધાં સામ્પરાયિક કર્મના કારણે હોય છે, જે ભવભ્રમણના પણ કારણે છે. આમાંથી ઇન્દ્રિયો, કષાય અને અગ્રતના ભેદનું નિરૂપણ કરી દેવામાં આંધ્યું છે પચ્ચીસ ક્રિયાઓ આ પ્રકારે છે.a (1) यिश्री-याथी ४२१ामा मात। व्यापा२. (૨) આધિકરણિકી–જેના કારણે આત્મા નરક આદિને અધિકારી બને અધિકરણને અર્થ છે ખડૂગ આદિ હિંસાના સાધન, તેનાથી થનારી ફિયા Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका स. ६ लू. ५ साम्परायिककर्मास्त्रवभेदनिरूपणम् ३३... sऽधिकरणिकी-२ प्रापिकी, मद्वेषेण निवृत्ता-प्राद्वेषिकी-३ पारितापनिकी, परिसाएन-ताडनापि दुःखविशेषरूपं, तेन निवृत्ता-परितापनिकी-४ प्राणातिपातिकी। यद्वा प्राणानिपातेन-माणारिपाताऽपसायेन यःमाणातिपातः क्रियते, सामाणातिपातिकी-५ माणातिपाताध्यबसायेन जायमाना ताडनादिरूपा क्रियाऽपि माण वियोजनाऽमावेऽपिमाणातिपातद्रियैर वोध्या। तथा-ऽप्रत्याख्यानिकी, अप्रत्या ख्यानम्-अविरति सानिमित्ता करवन्धरूपा या क्रियाशो-अपत्याख्यानिकी-६ आरस्मिकी, भारम्भे भवा-ऽऽरस्मिकी-७ पारिग्राहिकी परिग्रहे भवा-पारिअहिकी-८ लायाश्ययिकी, माया प्रत्ययो यस्याः क्रियायाः सा तथा-९ मायाहेतुक कर्मबन्धक्रियेत्यर्थः। तथा-मिथ्यादर्शनपत्ययिकी, मिथ्यादर्शनं-विवाद, प्रत्यया कारण यस्याः सा-मिथ्यादर्शनपत्ययिकी-१० दार्शनिकी, दर्शनादयः (३) प्रादेषिकी-देश ले होने वाली क्रिया। (४) पारितापनिकी-ताडन आदि परितापले होने वाली किया। (५) प्राणातिपातिकी-मागियों के प्राणों का वियोग करना अधक्षा प्राणोतिणत के अध्यवसाय से प्राणातिपाल्ड करना। प्राणातिपात के विचार से की जाने वाली ताडन आदि रूप किया प्राणों का वियोग न होने पर भी प्रागातिपातिकी क्रिया ही समझनी चाहिए। (६) अप्रत्याख्यानिकी-अविरति के कारण होने वाली कर्म बन्ध रूप किया। , (७) आरंचिका-आरंभ से होने वाली क्रियो। ' (८) पारिहिंदी-परिग्रह के होने वाली किया। (२) मायामयिकी-मायणाचार से होने वाला कर्मबन्ध । (१०) मिथ्यादर्शन प्रत्पत्रिकी-मिथ्यात्म के कारण होने वाली क्रिया। (3) साली -द्वेषयी थनारी या. (४) पारितापनिधी-ताउन गाह परितापथी थनारी या. (૫) પ્રાણાતિપાતકી–પ્રાણીઓના પ્રાણને વિગ કરે અથવા પ્રાણાતિપાતના અધ્યવસાયથી પ્રાણાતિપાત કર. પ્રાણાતિપાતના આશયથી કરવામાં આવતી તાડન આદિ રૂપ ક્રિયા-પ્રાણાના વિરોગ ન થવા છતાં પણ પ્રાણાતિપાતની ક્રિયા જ સમજવી જોઈએ. (૯) અપ્રત્યાખ્યાનિકી -અવિરતિના કારણે થનારી કર્મબન્ધ રૂપ કિયા. (७) मा मि - Aथी थनारी लिया. (८) परिक्षिी -परियडयी थनारी या. (6) मायाप्रत्यय: - मायायारथी थना ४५मधन, (૧૦) મિથ્યાદર્શન પ્રત્યયિકી–મિથ્યાત્વના કારણે થનારી કિયા, त० ५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रे कर्मबन्धरूपो व्यापारः सा दार्शनिकी -११ स्पर्शिकी, स्पृशतीति स्पर्शः सावद्य स्पर्श जनितो व्यापारः स एव - स्पर्शिकी-१२, प्रातीतिकी, वाह्यवस्तु प्रतीत्याऽऽश्रिस्य या क्रिया भवति सा प्रातीतिकी - १३, सामन्तोपनिपातिकी, समन्ताद- सर्वयः, उपनिपातः - लोकानां सम्मेलनम्, तत्र भवा सामन्तोपनिपातिकी - १४ स्वाहस्तिकी, स्वहस्तेन निवृत्ता - स्वास्तिकी - १५ नैसृष्टिकी, निसर्जनं निसृष्टं क्षेपणमित्यर्थः तच भया - नैसृष्टिकी - १६, आज्ञापनिकी, आज्ञापनम् - आदेश स्वस्येयम् - आज्ञापनिकी - १७, तज्जनितः कर्म बन्ध इत्यर्थः । तथा विदारणस्येयं वैदारणिकी - १८ अनाभोगप्रत्ययिकी, अनाभोगो-ज्ञानं प्रत्ययः - कारणं यस्याः साडनाभोगप्रत्ययिकी - १९ अनवकाङ्क्षा प्रत्ययिकी, अनवकाइक्षा - स्वशरीराद्यनपेक्षत्वं, 9 (११) दृष्टिजा (दार्शनिकी) - किसी वस्तु को रागपूर्वक देखने से होनेवाली क्रिया । (१२) स्पर्शिका - सावध स्पर्श जनित व्यापार । (१३) प्रातीतिको बाह्य वस्तु के निमित्त से जो क्रिया हो । (१४) सामन्तोपनिपातिकी - बहुत लोगोंके सम्मिलन से होने वाली । (१५) स्वास्तिकी - अपने हाथ से की जाने वाली क्रिया । (१६) नैसृष्टिकी - किसी वस्तु को गिराने वाली क्रिया । (१७) आज्ञापतिकी - दूसरे को आदेश देने से होने वाली क्रिया । (१९) अनाभोग प्रत्ययिकी - उपयोग शुन्यता के कारण होने बाली क्रिया । (२०) अनवकांक्षा प्रत्ययिकी - अपने और दूसरे के शरीर के प्रति (११) हृष्टिल - अर्ध वस्तुने राजपूर्व लेवाथी थनारी डिया. (१२) स्पर्शिअ-सावद्य स्पर्शभनित व्यापार (१३) प्रतीतिडी- माह्य वस्तुना निभित्तथी ने दिया थाय. (૧૪) સામન્તાપનિપાતિકી ઘણા લેાકના ભેગા થવાથી થતી ક્રિયા (१५) स्वास्तिडी - पोताना हाथथी ४२वामां आवती ड्डिया . (૧૬) નૈષ્ટિકી-કાઇ વસ્તુને પાડી નાખવાથી થનારી ક્રિયા. (१७) आज्ञायतिड्डी - मीलने महेश आायवाथी थनारी डिया. (१८) वैहारथिडी - विहारयु ४२वार्थी थनारी डिया. (૧૯) અનાભાગપ્રત્યયિકી–ઉપયેાગ શૂન્યતાના કારણે થનારી ક્રિયા. (૨૦) અનવકાંક્ષાપ્રત્યયિકી-પેાતાના તથા બીજાના શરીર તરફ બેદરકારી Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ६ सू. ५ साम्परायिककर्मास्रवभेदनिरूपणम् ३५ सैव प्रत्ययो यस्याः सा - नवकाङ्क्षा प्रत्ययिकी - २० प्रेम प्रत्ययिकी, मेमोरागः मायालोभरूपः स प्रत्ययः कारणं यस्याः सा - प्रेमप्रत्ययिकी - २१ द्वेष प्रत्ययिकी, द्वेषः - क्रोधमानरूपः स मत्ययः कारणं यस्याः सा द्वेष प्रत्ययिकी २२ प्रायोगिकी, मनो वाक्कायप्रयोगपूर्वकं जायमाना क्रिया-प्रायोगिकी - २३, सामुदानिकी, यथा-मनोवाक्कायप्रयोगगृहीतं कर्म समुदायावस्थं सत् स्थित्यनुभाव प्रदेशरूपतया व्यवस्थाप्यते सा - सामुदानिकी - क्रिया- २४ ऐर्यापथिकी, इरणम्ईर्यागमनं तद्विशिष्टस्तत्प्रधानो वा पन्थाः ईर्यापथस्तत्र भवा - ऐर्यापथिकी- २५ व्युत्पत्तिमात्रमिदं प्रदर्शितम् । प्रवृत्तिनिमित्तं तु यत् - उपशान्तमोहस्य, क्षीणमोहस्य सयोगिकेवलिनश्च सातावेदनीय कर्मतयाऽजीवस्य पुग्दलराशेर्भवन, सालापरवाही करने से होनेवाली क्रिया । (२१) प्रेमप्रत्ययिकी - माया और लोभ के कारण होनेवाली क्रिया । (२२) द्वेषप्रत्ययिकी - क्रोध या मान से होनेवाली क्रिया । (२३) प्रायोगिकी - मन वचन काय के व्यापार पूर्वक होनेवाली क्रिया (२४) सामुदानिकी - मन वचन और कायके द्वारा गृहीत कर्म जिस क्रिया के द्वारा समुदाय अवस्था में होते हुए स्थिति, अनुभाग, और प्रदेशरूप में परिणित किये जाएं। (२५) ऐर्यापथिकी- चलने-फिरने से लगने वाली क्रिया । यह अर्थ सिर्फ व्युत्पत्तिनिमित्त से किया गया है, इसका प्रवृत्तिनिमित्तक आशय यह है - उपशान्नमोह, क्षीणमोह और सयोग केवली को योग के निमित्त से सातावेदनीय कर्म का जिससे बन्ध होता है, वह ऐर्यापथिकी 'क्रिया है । इन उपशान्तमोह आदि में प्रमाद और कषाय का उदय રાખવાથી ચવાવાળી ક્રિયા, (२१) प्रेमप्रत्ययिडी - भाया भने बोलना र थनारी डिया. (२२) द्वेषप्रत्ययिडी - डोध, भने भानथी थनारी डिया (२३) प्रयोगिड्डी - मन, वचन, अया द्वारा गृहीत उभे के डियानी દ્વારા સમુદાય અવસ્થામાં થતાં થકા સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ રૂપમાં પરિણત કરવામાં આવે. (૨૫) અય્યપથિકી-હાલવા ચાલવાથી લાગવાવાળી ક્રિયા, આ અમાત્ર વ્યુત્પત્તિ નિમિત્તથી કરવામાં આવ્યા છે. આને પ્રવૃત્તિ નિમિત્તક આશય આ પ્રમાણે છે-ઉપશાન્ત માહ, ક્ષીણમેહ અને સર્ચાળ કેવળીના ચેાગના નિમિત્તથી સાતાવેદનીય કમનેા જેનાથી અન્ય થાય છે તે અર્થાપિથકી ક્રિયા છે. આ ઉપશાન્ત મેહ આદિમાં પ્રમાદ અને કષાયને ઉદય થતા નથી, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थस्त्र भयोगो-ऽभिलापकरणं कामभोगाशंसाप्रयोगः, रुचिरविषयस्पृहयालतेत्यर्थः ५ इत्येते पञ्चजीविताशंसादयो मारणान्तिकसंलेखना जोपणाया अतिचारा घोध्या। एवञ्च-पञ्चाणुव्रतेषु त्रिगुणव्रतेषु चतुःशिक्षाबतेषु मारणान्तिकसंलेखनाजोपणासु च सर्व सम्मिलितत्रयोदशवतेषु प्रत्येकं पञ्च-पञ्चातिचारैः पञ्चपष्टिरविचारा: पूर्वोत्तरीत्या प्रपिताः, ते च-सर्वेऽतिचाराः सर्वथाऽणुव्रतशीलवतधारिभिः परिहर्तव्याः। यद्यपि-सम्यक्त्वस्याऽप्यतिचार पञ्चकस्य सद्भावेन सप्तति संख्यकाः सर्वेऽतिचारा भवन्ति, न तु-पञ्चपष्टि संख्यका एच, तथापि- मूलप्रासाद पीठ रचनाचन सम्यक्त्वव्रतम् अणुव्रतादीनामाधारो वर्तते, तस्माद-तस्या-ऽऽधारत्वा व्रतशीलेषु न तदतिचारग्रहणं भवति । एवञ्च-उक्तरीत्या वदपायदर्शनात्काम कहलाते हैं और स्पर्शन, रसना तथा घाण इन्द्रियों के विषय अर्थात् गंध, रस और स्पर्श भोग कहलाते हैं । इन काम और भोग की इच्छा करना कामभोगाशंसाप्रयोग है। तात्पर्य यह है कि मनोज्ञ विषयों की कामना करना कामभोगाशंसाप्रयोग है। इस प्रकार पांच अणुव्रतों के, तीन गुणवतों के चार शिक्षाव्रतों के तथा मारणान्तिकसंलेखनाजोपणा के, सय मिलकर तेरह व्रतों के पांच-पांच अतिचार होने से १३४५-६५ अतिचार हुए । इन सब की प्ररूपण किया जा चुका। इन सब का अणुव्रतधारी एवं सप्त शीलधारी आवक को परिहार करना चाहिए । यद्यपि सम्यक्त्व के भी पांच अतिचार हैं, इस कारण अतिचारों की संख्या पैंसठ नहीं सत्तर होती है, तथापि सम्यक्त्व, महल की नींव की तरह सव व्रतों का आधार है। अतएव व्रतों के अतिचारों के साथ उसके अतिचारों की गणना કહેવાય છે અને સ્પર્શન, રસના (જીભ) તથા ઘાણ ઇન્દ્રિયના વિષય અર્થાત ગંધ, રસ અને સ્પર્શ ભેગ કહેવાય છે. આ કામ અને ભેગની ઈચ્છા કરવી કામોગાશંસાપ્રગ છે. તાત્પર્ય એ છે કે મને જ્ઞ વિષની કામના કરવી "मलेगा साप्रय छे. આ રીતે પાંચ અણુવ્રતના ત્રણ ગુણવ્રતના, ચાર શિક્ષાત્રતાના તથા મારણતિકસંલેખના જોષણુના” બધાં મળીને તેર વ્રતના પાંચ-પાંચ અતિચાર કહેવાથી ૧૩૪૫૬૫ અતિચાર થયા આ બધાનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું આ બધાને અણુવ્રતધારી અને સસશીલધારી શ્રાવકે ત્યાગ કરે જોઈએ. જો કે- સમ્યક્ત્વનાં પણ પાંચ અતિચાર છે. આથી અતિચારોની સંખ્યા પાંસઠ નહીં સીત્તેર થાય છે, તે પણ સમ્યકત્વ, મહેલના પાયાની જેમ બધા ઘતાને આધાર છે. આથી વ્રતના અતિચારની સાથે તેના અતિચારના Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 { 7 दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ सू.५५ पञ्चमहाव्रतनिरूपणम् ३५ एतेषु सम्यक्त्वतशीलव्यतिक्रमस्थानेषु पञ्चषष्ट्यविचारस्थानेषु व्रतशीलैः श्रावके : प्रमादो न कर्तव्यः, अपितु अममादो न्याय्यः || ५३॥ मूलम् - एएसिं विप्पजहणाओ वयसुद्धी ॥ ५४ ॥ छाया - एतेषां विमहानादूतशुद्धिः ||५४ || मूलम् - पाणाइवायाइहिंतो सङ्घओ वेरमणं पंच महवया । ५५ । छाया - प्राणातिपातादिभ्यः सर्वतो विरमणं पञ्चमहाव्रतानि ॥५५॥ तत्वार्थदीपिका - तदेव मुक्तान्यगारिणो द्वादशत्रवानि साविचाराणि अतिचा रवर्जनाद् व्रतशुद्धिरित्युक्तम्, सम्मति - पूर्वं यदुक्तं- 'सन्बओ महं' सर्वतोमह नहीं की गई है । इस प्रकार अनेक प्रकार की हानियां होने से सम्यक्त्व के तथा व्रत और शीलों के पैंसठ अतिचारों के विषय में श्रावकों को प्रमाद नहीं करना चाहिए, बल्कि अप्रमाद ही न्यायसंगत है ॥ ५३॥ 'एएसि विष्वजहणाओ' इत्यादि । सूत्रार्थ - इन पूर्वोक्त अतिचारों का त्याग करने से व्रत की शुद्धि होती है ॥५४॥ 'पाणावायाइहितो' इत्यादि । सूत्रार्थ - प्राणातिपात आदि से सर्वथा विरत होना पांच महाव्रत हैं ॥ ५५ ॥ तत्त्वार्थदीपिका - इस प्रकार गृहस्थ के बारह व्रतों का अतिचार कथन किया गया और यह भी बतला दिया गया कि अतिघोरों का ગણતરી કરવામાં આવી નથી. આ રીતે અનેક પ્રકારની ક્ષતિએ હાવાથી સમ્યક્ત્વના તથા વ્રતેા અને શીલાના પાંસઠ અતિચારાના વિષયમાં શ્રાવકે પ્રમાદ કરવા જોઇએ નહીં, મલ્ટિ અપ્રમાદ જ ન્યાયસગત છે. ાપા 'एएसिं विपजहणाओं वयसुद्धी' इत्याहि સૂત્રા-આ પૂર્વોક્ત અતિચારાના ત્યાગ કરવાથી વ્રતની શુદ્ધિ થાય છે. !૫૪૫ 'पाणाइवायाइति सव्वओ वेरमणं' इत्याहि સૂત્રા-પ્રાણાતિપાદ આદિથી સથા જિત થવુ' પાંચ મહાબત છે. યાા તત્ત્વાર્થદીપિકામા રીતે ગ્રહસ્થના માર વ્રતાનું અતિચાર સહિત થન કરવામાં આવ્યુ. અને એ પણ ખતાવી દેવામાં આવ્યુ કે અતિચારાના A Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे दिति, सर्वतो यत्र विरतिभवति-तानि महावतानि कथ्यन्ते' इत्यत्र पञ्चमहावतानि पदश्यन्ते-'पाणाइवायाइहितो' इत्यादि । प्राणातिपातादिभ्यः सर्वतो विरमणं महाव्रतानि, तानि पञ्च, माणातिपातः १ आदिशब्देन-मृपावादा २ ऽदत्तादाना३ ऽब्रह्मचर्य ४ परिग्रहाणां ५ ग्रहणं भवति तेभ्यः सर्वतो विरमणं महावतानिउच्यन्ते । तानि पञ्च, तत्र-प्राणातिपातः प्राणिवधः, मृपावादोऽसत्यभापणम् , अदत्तादानं-स्तेयम् , अब्रह्मचर्य मैथुनम् , परिग्रहो मूर्छा, एतेभ्यः सर्वतः सर्वप्रकारेण त्रिकरण-त्रियोगविरमण-विरतिनित्तिरिति भावः ॥१५॥ तत्वार्थनियुक्ति:--पूर्व द्वादशवतानि सातिचाराणि प्रदर्शितानि, द्वादश व्रतीच तदनन्तरं पञ्च महाव्रतीभवितु महतीति तत्पस्तावात्-मोक्षहेतुभूतानि स्याग करने से ही व्रत की शुद्धि होती है। अब पहले जो कहा था'सव्वओ महे' अर्थात् हिला आदि का पूर्ण रूपेण जो त्याग किया जाता है उसे महावत कहते हैं, सो अव सहाव्रतों का कथन किया जाता है माणातिपात आदि से पूर्ण रूप से निवृत्त होना महावत हैं । महाव्रत पांच हैं-(१) प्राणातिपात (२) कृषावाद (३) अदत्तादान (४) अब्रह्मचर्य और (५) परिग्रहले लर्वथा विरल होना । प्राणातिपात का अर्थ प्राणी फी हिस्सा, कृषायाद का अर्थ मैथुन और परिग्रह का अर्थ मूछा है । इनले सर्वथा अर्थात् तीन करण और तीन योग से विरत होना महावत कहलाता है ॥५५॥ तस्वार्थनियुक्ति-इल पूर्व अतिचारो सहित बारह व्रतों का निरूपण किया गया। बारहवतों का धारक श्रावक भी बाद में महाત્યાગ કરવાથી જ વતની શુદ્ધિ થાય છે. હવે પહેલા જે કહ્યું હતું'सव्व ओ महं' अर्थात् डिसा माहिन पू ३५थी २ त्या ४२वाभा मावे છે તેને મહાવ્રત કહે છે જેથી હવે મહાવ્રતનું કથન કરવામાં આવે છે પ્રાણાતિપાત આદિથી પૂર્ણ રૂપથી નિવૃત્ત થઈ જવું મહાવ્રત છે. भाबत पाय छे-(१) प्रातिपात (२) भृषावा (3) महत्तहान (४) અબ્રહ્મચર્ય અને (૫) પરિગ્રહથી સર્વથા વિરત થવું. પ્રાણાતિપાતને અર્થ પ્રાણની હિંસા મૃષાવાદને અર્થ અસત્ય ભાષણ, અદત્તાદાનને અર્થ ચેરી, અબ્રહ્મચર્યનો અર્થ મૈથુન અને પરિગ્રહનો અર્થ મૂછ છે. આ બધાંથી સર્વથા અર્થાત્ ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથી વિરત થવું મહાવ્રત કહેવાય છે. પપ તત્ત્વાર્થનિર્યુકિત–આની અગાઉ અતિચા સહિત બાર તેનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. બારવ્રતને ધારક શ્રાવક પણ પાછળથી મહાવ્રતી Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ५५ पञ्चमहाव्रतनिरूपणम् ३९७ पञ्च महाव्रतान्याह-'पाणाइवायाह हितो सवओवेरमण महन्वया, ते पंच' इति । प्राणातिपातः १ आदिशब्देन-मृषावादा २ ऽदत्तादाना ३ ऽब्रह्मचर्य ४ परिग्रहाः ५ गृह्यन्ते, तेभ्यः सर्वत:-सर्वा शेन द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावेन त्रिकरणे स्त्रियोगैः सर्वथा विरति-निवृत्तिः पञ्च महाव्रतान्युच्यन्ते । तत्र-माणातिपातः कपायादि प्रमादपरिणाम परिणतेना-ऽऽत्मना कर्ता मनोवाकायादिरूपयोगव्यापाराव् करणकारणाऽनुमोदन रूप कायव्यापारेण द्रव्य-भावभेदेन द्विविधेन माणिमाणव्यपरोपणरूपः १ मृषाबादस्तावत्-अलत्यभाषणम् अनृतवचनम्-अलीकाभिभाषणम् २ अदत्तादानश्च-अदत्तस्य स्व-स्वत्वनिवृति पूर्वक मवितीर्णस्या व्रती हो सकता है, इस संबंध से मोक्ष के कारणभूम पांच महाव्रतों का कथन किया जाता है प्राणातिपात, कृपावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से सर्वाश से-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से, तीनों करणों और तीनों योगों से सर्वथा निवृत्त होना महान हैं। ___ कषाय आदि प्रमाद रूप परिणाम ले युक्त कर्ती आत्मा के द्वारा, मन वचन और काप आदि योग के व्यापार ले, द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार से करण (स्वयं करना), कारण (करवाना) और अनुमोदन रूप काचव्यापार से प्राणी के प्राणों का व्यपरोपण करना प्राणालिपात है। असत्य भाषण करना, अनृत वचन बोलना, अलीक भाषण करना कृषावाद कहलाता है । दत्त का अर्थ है स्वामी का अपने स्वस्थ को हटा लेना । जो दत्त न हो वह अदत्त कहलाता है। उस अदत्त को થઈ શકે છે આ સંબંધથી મેક્ષના કારણભૂત પાંચ મહાવ્રતોનું કથન કરવામાં આવે છે– પ્રાણાતિપાત, મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, અબ્રહ્મચર્ય અને પરિગ્રહથી સવશે–દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભાવથી, ત્રણે કારણે અને ત્રણે ગેથી સર્વથા निवृत्त थयु महावत छे. કષાય આદિ પ્રમાદરૂપ પરિણામથી યુક્ત ર્તા આત્મા દ્વારા, મન વચન અને કાયા વગેરે રોગના વ્યાપારથી દ્રવ્ય અને ભાવ બંને પ્રકારના કરણ (જાતે કરવું), કારણ (કરાવવું) અને અનુમોદન રૂપ કાયવ્યાપારથી પ્રાણીનાં પ્રાણેની હિંસા કરવી પ્રાણાતિપાત છે. અસત્ય ભાષણ કરવું, અવૃત (જ) વચન બોલવું, અલીક ભાષણ કરવું મૃષાવાદ કહેવાય છે. દત્તને અર્થ થાય છે માલિકનું–પિતાનું આધિપત્ય જતું કરવું. જે દત્ત ન હોય તે અદા કહેવાય છે. તે અદત્તને ગ્રહણ કરવું અદત્તાદાન કહેવાય છે. સ્ત્રીસંચાગ Asti Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वायसूत्र . ऽऽदानमुच्यते ३ अन्नह्मवर्य-स्त्रीसंयोगः, मैथुन मितियावत् ४ परिग्रहस्तु-मी; सचित्ताऽचिमिश्रेषु .शास्त्र नुमतिरहितेषु द्रव्यादिपु ममत्वरूपः ५ एतेभ्यः पाणाऽविपानादिभ्यः सर्वत:-सर्वात्मना त्रिकरणे स्त्रियोगैमनोवाक्काय विरमणंनिवृत्तिः पञ्च महाव्रतान्यवोयानि । प्राणिवधादितो निवृत्तित मुच्यते, तत्र स्थितो हिंसादिलक्षणं क्रियाकलापं नाऽनुतिष्ठति, अपितु-अहिंसादिलक्षणमेव क्रियाकलापमनुतिष्ठनीति फलति । माणातिपातादिभ्यो निवृत्तस्य शास्त्रविहित क्रियाऽनुष्ठानात् सदसत्प्रवृत्तिनिवृत्तिक्रियासाध्यं कर्मक्षपणं भवति, कर्मक्षपणाच्च -मोक्षाऽत्राप्तिरिति भावः । अत्रेदं वाध्यम्-माणातिपातस्तावत्-प्राणवियोजनम्, ग्रहण करना अदत्तादान है । स्त्री संयोग या मैथुन अब्रह्मचर्य कहलाता है । मूछी अर्थात् शास्त्र की अनुमति जिनके लिए नहीं है ऐसे सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य आदि में ममत्वधारण करना परिग्रह है। इन प्राणातिपात आदि से पूर्ण रूपेण तीन करण और तीन योग से मन बचन काम से निवृत्त होना पांच महावन हैं । हिंसा आदि से निवृत्त होना व्रत कहलाता है, व्रत में स्थित पुरुष हिंसा रूप क्रियाकलाप नहीं करता है । इससे यह फलित हुआ कि वह अहिंसा रूप क्रियाकलाप ही करता है । भावार्थ यह है कि जो प्राणातिपात आदि से विरत होता है वह शास्त्रोक्त क्रियाओं का अनुष्ठान करता है, अतएव सत्प्रवृत्ति और असनिवृत्ति रूप क्रियाओं द्वारा होने वाला कर्मक्षय करता है और कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ___ यहां यह समझ लेना चाहिए-प्राणातिपात का अर्थ है-प्राणवि. અથવા મિથુન અબ્રહ્મચર્ય કહેવાય છે. મૂછ અર્થાત જેના માટે શાસ્ત્રની અનુમતિ નથી એવા સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્ર દ્રવ્ય આદિમાં મમત્વ धा२९५ ४२ परिग्रह छे. આ પ્રતિપાત આદિથી પૂર્ણતયા, ત્રણ કરણ અને ત્રણ રોગથીમન વચન કાયાથી નિવૃત્ત થવું પાંચ મહાવ્રત છે. હિંસા આદિથી નિવૃત્ત થવું વ્રત કહેવાય છે. વ્રતમાં રહેલે પુરૂષ હિંસારૂપ ક્રિયાકાન્ડ કરતો નથી. આનાથી એવું સાબિત થયું કે તે અહિંસારૂપ કિયાકલાપ જ કરે છે. ભાવાર્થ એ છે કે જે પ્રાણાતિપાદ આદિથી વિરત થાય છે તે શાસ્ત્રોક્ત ક્રિયાઓન અનુષ્ઠાન કરે છે આથી સત્પવૃત્તિ અને અસનિવૃત્તિ રૂ૫ ક્રિયા દ્વારા થનારાં કર્મ ક્ષય કરે છે અને કમેને ક્ષય કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી લે છે. અહીં એક બાબત સમજી લેવાની જરૂર છે-પ્રાણાતિપાતને અર્થ છે Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका- नियुक्ति टीका अ.७ सू. ५५ पञ्चमहाव्रतनिरूपणम् " प्राणाचेन्द्रियादयः तत्सम्बन्धात्पाणिनो जीवाः पृथिवीकायाछे केन्द्रियद्वीन्द्रियश्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय- पञ्चेन्द्रियास्तान - जीवान् विज्ञाय श्रद्धया प्रतिपद्य भावतस्वस्याsकरणं ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं चारित्रमुच्यते तच्च - सदसत्मवृत्तिनिवृत्तिक्रियालक्षणं चारित्रं मनोवाक् कायकृतकारिताऽनुमोदित भेदेनाऽनेकविधं बोध्यम् । उक्तश्च स्थानाङ्गे पञ्चमस्थाने प्रथमोदेश के पंच मन्यथा पता तं जहासव्वाओ पाणाइवायाओ, जाव सन्चओ परिग्गहाओ वेरमणं' इति, । पञ्च महाव्रतानि मज्ञप्तानि तद्यथा- प्राणातिपाताद्विरमणम्, यावद - सर्वस्मात् परिग्रहाद विरमणम् - इति, आवश्यके दशवैकालिकेऽप्युक्तम् ॥५५॥ - ३९९ योजन । प्राण इन्द्रिय आदि दस हैं । उन्हीं के संबंध से जीव प्राणी कहलाते हैं । पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, ये सब प्राणी हैं । इन जीवों को जानकर एवं इन पर श्राद्धा करके भाव से प्राणातिपात न करना ज्ञान- श्रद्धान- पूर्वक चारित्र कहलाता है। सत् अनुष्ठान में प्रवृत्ति और असत् अनुष्ठान से निवृत्ति उसका लक्षण है । मन, वचन, काय, कृत, कारित और अनुमोदन आदि के भेद से चारित्र अनेक प्रकार का है । स्थानांगसूत्र के पंचम स्थान के प्रथम उद्देशक में कहा है- 'पांच महाव्रत कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं- समस्त प्राणातिपात से विरत होना, जाव अर्थात् समस्त मृषावाद से विरत होना, समस्त अदत्तादान से विरत होना, समस्त मथुन से विरत होना और समस्त परिग्रह से विरत होना ।' आवश्यक और दशवेकालिक सूत्र में भी ऐसा ही कहा है ॥५५॥ પ્રાણવિચેાજન પ્રાણ ઇન્દ્રિય આદિ દસ છે તેમના જ સંબંધથી જીવ પ્રાણી કહેવાય છે. પૃથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિય, દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય, આ બધાં પ્રાણી છે. આ જીવાને જાણીને અને એમનામાં શ્રદ્ધા કરીને ભાવથી પ્રાણાતિપાત ન કરવા જ્ઞાન-શ્રદ્ધાનપૂર્વક ચારિત્ર કહેવાય છે. સત્ અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્તિ અને અસત્ અનુષ્ઠાનથી નિવૃત્ત તેનુ લક્ષણ છે. મન, વચન, કાયા, કૃત, કારિત અને અનુમાઇન આદિના ભેદથી ચારિત્ર અનેક પ્રકારના છે સ્થાનાંગસૂત્રના પૉંચમ સ્થાનના પ્રથમ ઉદ્દેશકમાં કહ્યુ` છેપાંચ મહાવ્રત કહેવામાં આવ્યા છે તે આ મુજબ છે–સમસ્ત પ્રાણાતિપાતથી વિત થવું, સમસ્ત મૃષાવાદથી વિત થવું, સમસ્ત અદત્તાદાનથી વિત થવું, સમસ્તમૈથુનથી વિત થવું અને સમસ્ત પરિગ્રહથી વિત થવું આવશ્યક તેમજ દશવૈકાલિક સૂત્રમાં પણ આ પ્રમાણે જ કહેવામાં આવ્યું છે. પપ્પા " A Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसूत्रे - - -- मूलम्-तत्थेजष्टुं ईरियाझ्या पणवीसं भावणाओ॥५६॥ - छाया-'तत्स्थैर्यार्थम्-ईयाँदिकाः पञ्चविंशति विनाः ॥५६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व देशतो हिंसादिविरविलक्षण पञ्चाणुव्रतादिस्वरूप प्ररूपितम्, सम्पति-तेषां व्रतानां स्थिरता सम्पादनार्थ तावद् ईर्यादिकाः पञ्चविंशतिविनाः प्ररूपयितुमाह-तत्थेज्जटुं' इत्यादि । तत्स्थैर्यार्थम्-तेषां पूर्वोक्तानां व्रतानां स्थूल प्राणातिपातविरमणादिलक्षणानां स्थिरताकरणार्थ दृढीकरणार्थम् ईयर्यादिका:-ईयादिलक्षणाः पञ्चविंशतिना भवन्ति । तत्र-ईईरणं यतनया गमनस् १ आदिपदेन-मनः पाशस्त्य २ का प्राशस्त्यै ३ पणा ४ ऽऽदाननिक्षेपरूपाः५ पञ्च प्रथममहाव्रतस्य भावनाः१ अलोच्य सम्भाषणम् १ क्रोध 'तत्थेज्जलु ईरियाझ्या इत्यादि ।।५६।। स्मार्थ-व्रनों की स्थिरता के लिए ईर्यादिक पच्चीस मावनाएं हैं।५६। तत्वार्थदीपिका-पहले एक देश से हिंसादिले विरति रूप पांच अणुव्रत आदि का लक्षण कहा गया है, अब उन व्रतों में स्थिरता लाने के लिए ईथी आदि पच्चीस भावनाओं का प्ररूपण करते हैं-पूर्वोक्त स्थूल प्राणालिपात विरमण आदि व्रतों की स्थिरता के लिए अर्थात् उन्हें दृढ करने के लिए ईर्या आदि पच्चीस भावनाएं कही गई है। वे इस प्रकार है। (१) ईर्या अर्थात् यतनापूर्वक गमन करना (२) मन की प्रशस्तता (३) वचन की प्रशस्तता (४) एषणा (५) आदाननिक्षेप, यह पांच प्रथम व्रत की भावनाएं हैं। (१) सोच-विचार कर भाषण करना (२) क्रोत्याग (३) लोभ'तत्थेजर्ट ईरियाझ्या पणवीस भावणाओ' સૂત્રાર્થ–તેની સ્થિરતા માટે ઈર્યાદિક પચ્ચીસ ભાવનાઓ છે પદા તત્વાર્થદીપિકા–અગાઉ એકદેશથી હિંસાદિથી વિરતિરૂપ પાંચ અણુવ્રત આદિના લક્ષણ કહેવામાં આવ્યા છે હવે તે વ્રતોમાં સ્થિરતા લાવવાના આશયથી ઈર્યા વગેરે પચ્ચીસ ભાવનાઓનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ પૂત શૂલપ્રાણાતિપાત વિરમણ વગેરે વ્રતોની સ્થિરતા માટે અર્થાત્ તેમને દ્રઢ કરવા માટે ઈર્યા વગેરે પશ્ચીસ ભાવને કહેવામાં આવી છે. તે આ પ્રમાણે છે-(૧) ઈર્યા અર્થાત્ યતના પૂર્વક નમન કરવું (૨) મનની પ્રશસ્તતા (૩) વચનની પ્રશસ્તતા (૪) એષણ (૫) આદાન નિક્ષેપ આ પાંચ પ્રથમ વતની ભાવના છે. (१) सभक पियारीन मालवु (२) ओष त्यास (3) नया (४) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ . ५६ पञ्चविंशतिर्भावनाया निरूपणम् ४०१ २ लोभ ३ सय ४ हास्येषु ५ अनृतविवर्जनश्चेति पञ्च द्वितीय महाव्रतस्य भावनाः २ अष्टादशविध विशुद्धवसतेर्याचनापूर्वकं सेवनम् १ प्रतिदिनमवग्रहं याचित्वा तृणकाष्ठादिग्रहणम् २ पीठफलकाद्यर्थमपि वृक्षादीनां छेदनम् ३ साधारण पिण्डस्याऽधिकत न सेवनम् ४ साधुवृत्यकरणश्चे ५ ति प्रश्व तृतीय महाव्रतस्य भावनाः ३ । स्त्रीपशुपण्ड करहितमतिसेवन १ स्त्रीकथावर्जनम् २ स्पङ्गोपाङ्गाऽनवलोकनम् ३ पूर्व कुनपुरतरतेरस्मरणम् ४ प्रतिदिनं भोजनपरित्यागचे ५ ति पञ्च चतुर्थ भावनाः ४ प्रशस्ताऽप्रशस्दशन्द १ रूप २ रस ३ गन्ध ४ त्याग (४) भवत्याग और (५) हास्यस्पाव यह द्वितीव्रत की पांच भावनाएं है । (१) अठारह प्रकार से विशुद्ध वलति का याचना पूर्वक सेवन करना (२) प्रतिदिन अवध की याचना करके तृण काष्ठ आदि को ग्रहण करना (३) पाद आदि के लिए भी वृक्ष आदि का छेदन न करना (४) साधारण पिण्ड का अधिक सेवन न करना अर्थात् अनेक साधुओं का जो सम्मिलित आहार हो उसमें से अपने उचित भाग से अधिक न देना और (५) साधुओं का वैयावृत्य करना, यह aataa की पांच भावनाएं हैं। (१) स्त्री, पशु और पण्डक से रहित वसति का सेवन करना (२) स्त्रीever न करना (३) स्त्री के अंगोपांगों का अवलोकन नहीं करना (8) पूर्व भुक्त भोगों का स्मरण न करना और (५) प्रतिदिन गरिष्ठ भोजन का परित्याग करना, यह चौथे व्रत की पांच भावनाएं हैं । ભયત્યાગ અને (૫) હાસ્યત્યાગ, આ ખીજાવ્રતની પાંચ ભાવના છે. (૧) અઢાર પ્રકારથી વિશુદ્ધ વસ્તીનું યાચનાપૂર્વક સેવન કરવું (ર) દરરાજ અવગ્રહની યાચના કરીને તૃણુ કાષ્ઠ વગેરેને ગ્રહણ કરવા (૩) પાટ વગેરે માટે પણ વૃક્ષ વગેરેનું છેદન ન કરવું (૪) સાધારણ પિણ્ડનુ અધિક સેવન ન કરવું અર્થાત્ અનેક સાધુએ માટેને જે લેગેા કરેલા આહાર હાય તેમાંથી પેાતાના ભાગે હાય તેનાથી વધુ ન લેવું અને (૫) સાધુએની વૈયાવચ્ચ (સેવા) કરવી આ ત્રીજા વ્રતની પાંચ ભાવનાએ છે. (१) स्त्री, पशु मने नपुंस वगरनी वसतीभां वास १२खे। (२) સ્ત્રીકથા ન કરવી (૩) સ્ત્રીના અંગોપાંગેાનું અવલેાકન ન કરવુ' (૪) પૂ ભાગવેલા ભાગે!નું સ્મરણ ન કરવું અને (પ) દરરેજ સ્વાદિષ્ટ ભેાજનના પરિત્યાગ કરવા, આ ચેથા વ્રતની પાંચ ભાવના છે. त० ५१ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ तत्त्वार्थसूत्र स्पर्शेषु ५ रागद्वेषार्जनं शब्दादिभेदात् पञ्च पञ्चमम्हात्रतस्येति मिलिताः पश्चविंशतिविना कर्तव्याः ॥२५॥५६॥ . 'तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व सर्वपाणातिपातविरमणादिलक्षणानि पञ्चमहावतानि प्ररूपितानि, सम्मति-तेषां व्रतानां दाढाथ मैकैकस्य महाव्रतस्य पञ्च पञ्चभावनाः प्ररूपयितुमाह-तत्थेज्ज8 ईशियाहया पणवीस भावणानो' इति । तत्स्थैर्याथम्-इयाँदिकाः पञ्चविंशतिर्भावना भावनीयाः, तेषां पूर्वोक्तस्वरूपाणां सर्वत, । (१) प्रशस्तरूप (२) रस (३) गंध (४) स्पर्श और (५) शब्द में राग और अप्रशस्त रूपादि में द्वेष धारण न करना, यह पांच पंचमव्रत की भावनाएं है । सब मिलकर पच्चील भावनाएं होती हैं ॥५६॥ तत्यार्थनियुक्त-पहले सम्पूर्ण प्राणातिपातविरमण आदि पांच महावतों की प्ररूपणा की गई, अब उन व्रतों की दृढता के लिए-एकएक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएं कहते हैं। उन व्रतों की स्थिरता के लिए ई आदि पच्चीस भावनाओं का सेवन करना चाहिए अर्थात् सम्पूर्ण प्राणातिपातविरमण आदि पांच महाव्रतों का तथा स्थूलप्राणातिपात विरमण आदि पांच अणुव्रतों को दृढ करने के लिए पच्चीस भावनाएं कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं(१) ईर्यासमिति (२) मनोगुप्ति (३) वचनगुप्ति (४) एषणा (५) आदा. ननिक्षेपणा (६) आलोच्य संभाषण-सोच-विचार करके बोलना (७) क्रोध का त्याग (८) लोभ का त्याग (९) भय का त्याग (१०) हास्य (१) प्रशस्त ३५ (२) २स (3) 14 (४) २५श म२ (५) शमा રાગ તથા અપ્રશસ્ત રૂપાદિમાં દ્વેષ ધારણ ન કરે એ પાંચ પાંચમાવતની ભાવનાઓ છે. બધી મળીને પચ્ચીસ ભાવનાઓ થાય છે કે ૫૬ છે તવાર્થનિર્યુક્તિ-અગાઉ સપૂર્ણ પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ મહાવ્રતની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી હવે આ વ્રતોની દ્રઢતાને માટે એક એક મહાવ્રતની પાંચે પાંચ ભાવનાએ કહીએ છીએ તે વ્રતોની થિરતા માટે ઈય આદિ પચ્ચીસ પ્રકારની ભાવનાઓનું સેવન કરવું જોઈએ અથત સંપૂર્ણ પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ અણુવ્રત ને દઢ કરવા માટે પચીસ ભાવનાઓ કહેવામાં આવી છે જે આ પ્રમાણે छ- (१) ध्यासामति (२) भने।शुति (3) qयनशुक्षि (४) मेष (५) माहान નિક્ષેપણુ (૬) આલય સંભાષણ- સમઝી વિચારીને બેવું (૭) કોઈને क्या (८) बोलना या (6) भयनी त्यास (१०) डायन। त्याग (११) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.५६ पञ्चविंशतिर्भावनाया निरूपणम् ४०३ प्राणातिपातविरमणादि लक्षणानां पञ्च महाव्रतानां देशतः माणातिपातादिविरतिलक्षणाऽणुव्रतानाश्च स्थैर्यार्थ दृढतासम्पादनार्थम् ईर्यासमितिः १ आदिपदेनमनोगुप्तिः २ वचोगुप्ति३ एषणा : आदाननिक्षेपणा आलोच्य सम्भाषणम्६ क्रोध प्रत्याख्यानम् ७ लोभपत्याख्यानम् ८ सयपत्याख्यानम् ९ हास्य प्रत्याख्यानम् १० अष्टादशविधविशुद्धवसते-चनापूर्वकं सेवनम् ११ प्रतिदिनमवग्रहं याचित्वा तृणकाष्ठादिग्रहणम् १२ पीठ फलकाघथमपि वृक्षादीना पच्छेदनम् १३ साधारणपिण्डस्याऽधिकतो न सेवनस् १४ साधु वैयाकृत्यकरणञ्च १५ स्त्रीपशुनपुंसक संसक्तशयनाऽऽसनवर्जनम् १६ रागयुक्तस्त्रीकथा वर्जनम् १७ स्त्रीणां मनोहरेन्द्रियवर्जनम् १८ पूर्वरतानुस्मरणवर्जनम् १९ प्रतिदिनं भोजनपरित्यागश्च २० मनोज्ञाऽमनोज्ञस्पर्श २१ रस २२ गन्ध २३ वर्ण २४ शब्दानां २५ रागद्वेषवर्जनश्चे -त्येवं पञ्चविंशतिर्भावनाः । तत्र प्रथमा पञ्च भावना: ईसिमितेः (माणातिका त्याग (११) अठारह प्रकार से विशुद्ध वसति का याचनापूर्वक सेवन (१२) प्रतिदिन अवग्रह की याचना करके तृण काष्ठ आदि को ग्रहण करना (१३) पीठ फलक आदि के लिए भी वृक्ष आदि को न काटना (१४) माधारण पिण्ड का अपने समुचित भाग से अधिक सेवन न करना (१५) साधुओं का वैयावृत्य करना (१६) स्त्री, पशु और नपु. सक के संसर्गवाले शयया एवं आमन के सेवन से बचना (१७) राग. युक्त स्त्री कथा का त्याग (१८) स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों को न देखना (१९) पहले भोगे भोगों का स्मरण न करना (२०) प्रतिदिन सरस भोजन का त्याग करना-कभी-कभी उपचार आदि करना (२१-२५) मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द पर राग-द्वेष न करना, ये पच्चीस भावनाएं हैं। અઢાર પકારથી વિશુદ્ધ વસતીનું યાચનાપૂર્વક સેવન કરવું (૧૨) દરરોજ અવગ્રહની યાચના કરીને તૃણુ કાષ્ઠ વગેરેનું શ્રણ કરવું (૧૩) પીઠ-પાઢ વગેરે માટે પણ વૃક્ષ વગેરે ન કાપવા (૧૪) સાધારણ પિણ્ડનું પોતાના ભાગથી पधारे सेवन न ४२ (१५) साधुआनी वयावया (शुश्रूषा) ४२वी (१६) श्री पशु અને નપુંસકના સંસર્ગવાળી પથારી અને આસનના સેવનથી દૂર રહેવું (૧૭) રાગયુક્ત સ્ત્રીકથાને ત્યાગ (૧૮) સ્ત્રીઓની માહિર ઈન્દ્રિયેને ન જેવી ૧ી પૂર્વે ભગવેલા ભેગેનું સ્મરણ ન કરવું (૨૦) દરરોજ સ્વાદ ભોજ નો ત્યાગ કરે-કયારેક કયારેક ઉપવાસ વગેરે કરવા (૨૧-૨૫) મનેz અને અમનોજ્ઞ સ્પર્શ રસ, ગંધ, રૂપ તથા શબ્દ પર રાગ-દ્વેષ ન કર. આ પચ્ચીસ ભાવનાઓ છે. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ तत्त्वार्थस्त्र पातविरते) द्वितीयाः पञ्च भावना:-असत्यविरतेः, तृतीयाः पञ्चभावनाः स्तेयविरते, चतुर्थ्यः पञ्च भावना:-ब्रह्मचर्यस्य, पश्चन्यः पञ्च भावनाः परिग्रहविरते रवगन्तव्याः तत्र तावत्-ईरणं गमनम्-ईर्या, तस्यां समितिः-सङ्गतिः श्रुतुरूपेणाsत्मनः परिणतिः, तदुपयोगेन पुरस्तान युगमात्रया दृष्टया स्थावरजङ्गमानिभूतानि परित्यजन् अप्रमत्तः सन् गच्छेत्-इत्यादिरूपो विधिः ईर्यासमिति रुच्यते १ मनोगुप्तिश्व-मनसो रक्षणम्, भातरौद्रध्यानाऽपचार:-धर्मध्याने उपयोगश्वर वचो. गुप्तिश्च-एघणासमिविरूपा ३ एपणा च-त्रिविधा, गवेषण १ ग्रहण २ ग्रास ३ भेदात् । तस्यामेषणायामसमितस्य षण्णामपि कायाना मुपधानापत्तिः स्यादतस्त. संरक्षणार्थ सकलेन्द्रियोपयोगलक्षणा-एषणासमितिः कर्तव्या ४ आदाननिक्षेपणा -- इनमें से प्रारंभ की पांच भावनाएं प्राणालिपान वित्मणवत की, दूसरी पांच असत्यविरति की, तीसरी पांच स्तेपचिरति की, चौथी पांच ब्रह्मचर्यव्रत की और पांचवीं साबनाएं परिग्रहपिरति की है। इन भावनाओं का अर्थ इस प्रकार है-गमन करने में यतना रखना ईर्यासमिति है अर्थात् चार हाथ आगे की भूमि देखकर स्थावर' और नल जीवों की रक्षा करते हुए, अप्रमत्त भाव ले गमन करना प्रथम भावना है । मनोगुप्ति का अर्थ है आतध्यान और रोद्रध्यान से बच कर धर्मध्यान में लीन होना । बचन को गोपन करना अर्थात् मौन धारण करना बचनगुप्ति है । एषणा के तील भेद हैं-गवेषणा, ग्रहणैषणा और ग्रासषगा । जो एषणा समिति से रहित होता है, वह छहों कायों का विराधक होता है, अतएव जीवों की रक्षा के लिए - આમાંથી પ્રારંભની પાંચ ભાવનાઓ પ્રાણાતિપાત વિરમણ વ્રતની બીજી પાંચ અસત્યવિરતિની ત્રીજી પંચ સ્ટેયવિરતિની, ચારથી પાંચ બ્રહાચર્ય વતની અને પાંચમી પાંચ ભાવનાઓ પરિગ્રહ વિરતિની છે. આ ભાવનાઓને અર્થ આ પ્રમાણે છે. ચાલવામાં જતના રાખવી ઈર્ષા સમિતિ છે. અર્થાત્ ચાર હાથ આગળની જમીનનું બારીકાઈથી નિરીક્ષણ કરીને સ્થાવર તેમજ ત્રસ જીવેની રક્ષા કરતા થકા અપ્રમત્ત ભાવથી ગમન કરવું એ પ્રથમ ભાવના છે. મને ગુપ્તિને અર્થ છે. આર્તધ્યાન તથા રૌદ્ર ઇવાનથી અળગા રહીને ધર્મધ્યાનમાં લીન થવું, વચનને ગેપવું અર્થાત્ મૌનવ્રત ધારણ કરવું વચનગુપ્તિ છે. એષણાના ત્રણ ભેદ છે-ગવેષણ, બહષણ અને પ્રારૈષણ જેઓ એષણ સમિતિથી રહિત હોય છે તે છએ કાને વિરાધક હોય છે. આથી જીવોની રક્ષા માટે એષણ સમિતિનું પાલન કરવું Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. सू.५६ पञ्चविंशतिर्भावनायाः निरूपणम् ४०५ समितिस्तु-औधिक-औपग्रहिकभेदेन द्विविधस्योपधेग्रहण-स्थापनलक्षणयोरादान निक्षेपण योरागमनानुसारेण प्रत्यवेक्षण-प्रमार्जनरूपा समिति रुच्यते ५ आलोकिल, पानभोजनन्तु-प्रतिगृहे पात्रमध्यपतितपिण्डस्य चक्षुराधुपयोगेन तत्समुत्थाऽऽगन्तुकसत्त्वसंरक्षणार्थ प्रत्यवेक्षणं कर्तव्यम् उपाश्रयमागत्य च पुनरपि प्रकाशयुक्ते. प्रदेशे स्थित्वा पानभोजनं सुपत्यवेक्षितं कृत्वा प्रकाशमदेशाऽवस्थितेन वल्गनं कर्तव्य मिति बोध्यम् इत्येवं रीत्या-एताः पञ्चभावनाः पुनः पुनर्भावयन् वासयन बाहुल्येन सम्पादयन् समस्वास् प्राणातिपातलक्षणामहिंसां पातुं समर्थों भवतीति भावः । अथाऽनृतविरविलक्षण सत्यवचनस्य दाढीर्थ पूर्वोक्त पञ्च भावनासु प्रथम तावत्-अनुवीचिभाषणमुच्यते, अनुवीचिशब्दो देशीयः-आलोचनार्थकः । तथा च एषणासमिति का पालन करना चाहिए। औधिक और औपग्रहिक के भेद से दोनों प्रकार की उपधि के धरने-उठाने में, आगम के अनुसार प्रमार्जन एवं प्रतिलेखन का ध्यान रखना आदाननिक्षेपणा समिति है। पात्र में पडे हुए या रक्खे हुए आहार को चक्षु आदि का उपयोग लगा कर, उसमें उत्पन्न हुए अथवा बाहर से आए जीवों की रक्षा के लिए देखना चाहिए । उपाश्रय में आकर पुनः प्रकाशयुक्त प्रदेश में स्थित होकर आहार-पानी को भली-भांति देखकर प्रकाशपूर्ण स्थान में हो उसे खाना चाहिए। यह आलोकितपानभोजन भावना है। इन पांच भावनाओं से सम्पन्न श्रमण पूर्णरूपेण प्राणातिपातविरमण व्रत का पालन करने में समर्थ होता है। मृषावादविरमणत्रता की दृढता के लिए इन पांच भावनाओं का सेवन करना चाहिए-'अनुचोचिभाषण' यहां 'अनुबीचि शब्द देशीय જોઈએ, ઔઘિક અને ઔપગ્રાહિકના ભેદથી બંને પ્રકારની ઉપધિને ઉપાડવા તથા મૂકવામાં આગમ અનુસાર પ્રમાજન તથા પડિલેહણનું ધ્યાન રાખવું આદાનનિક્ષેપણુ સમિતિ છે. પાત્રમાં પડેલા અથવા રાખેલા આહારને ચક્ષુ વગેરેને ઉપગ લગાવીને, તેમાં ઉત્પન થયેલા અથવા બહારથી આવેલા જીની રક્ષા માટે અવકન કરવું જોઈએ. ઉપાશ્રયમાં આવીને ફરી એકવાર પ્રકાશવાળી જગ્યાએ બેસીને આહાર–પાણીને સારી પેઠે જોઈ તપાસીને અજવાળું હોય એવી જગ્યાએ જ તેનો ઉપભેગા કરવા જોઈએ. આ છે આલેક્તિપાન ભજન ભાવના આ પાંચ ભાવનાઓથી સંપન સાધુ સંપૂર્ણતયા પ્રાણાતિપાત વિર - મણવ્રતનું પાલન કરવામાં સમર્થ થાય છે. - મૃષાવાદ વિરમણવ્રતની દઢતા કાજે આ પાંચ ભાવનાઓનું સેવન કરવું Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ - तत्त्वार्थस्त्रे -समीक्ष्याऽऽलोच्य बचनप्रवर्तनम् अनुवीचिभाषणं बोध्यम्, अनालोचितवक्ता कदाचिामृपा मपि चूयात् ततश्चाऽऽत्मनोलाघव-वैर-पीडाः खलु-ऐहिकानिफलानि स्युः, परमाणोपधातश्चाऽवश्यंभावी, अतः-समीक्ष्योदाहरणेनाऽऽत्मानं भावयन् न मृपाभाषण जनितपापेन सम्पृक्तो भवति १ क्रोधस्य कपायविशेषस्य मोहर्मोदयनिष्पन्नमद्वेषपायस्याऽप्रीतिलक्षणस्य प्रत्याख्यान-निवृत्तिरनुत्तिर्वा, तेन क्रोधपत्याख्यानेन सततमात्मानं भावयेत्, तथा भावयन्-वासयंञ्च सत्यादिभ्यो न व्यभिचरतीतिर एवं-लोभप्रत्याख्यानं तावत् तृष्णालक्षणस्य लोभस्य प्रत्याख्यान-परित्यागः, तेनाऽप्यात्मानं भावयन् न विथमापीभवति ३ एवं-भयशीहै और उसका अर्थ है 'विचार करना । अशय यह हुआ कि सोचसमझ कर बोलना 'अनुवीचिभाषण' कहलाता है। विना विचारे बोलने बाला कदाचिद् मिथ्या भाषण भी करता है। इससे आत्मा की लघुना, वैर और पीडा आदि इस लोक संबंधी फलों की प्राप्ति होती है और दूसरे के प्राणों का घात होता है। अतएव जो सोच-विचार कर भाषण करता है वह कभी मिथ्या भाषण के पापसे लिप्त नहीं होता। मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले द्वेष रूप एवं अप्रीति लक्षणवाले क्रोध का त्याग करना चाहिए। क्रोध प्रत्याख्यान से आत्मा की निरन्तर भावना करनी चाहिए । जो ऐसी भावना करता है वह असत्य आदि से बच जाता है। तृष्णा रूप लोभ का भी परित्याग करना चाहिए । जो लोभ प्रत्याख्यान से आत्मा को भावित करता है वह मिथाभाषी नहीं होता। इसी प्रकार जो भय या भीरुता का જોઈએ-“અનુવાચિસ ષણ” અહીં “અનુવીચિ શબ્દ દેશીય છે અને તેને અર્થ થાય છે વિચાર કર તાત્પર્ય એ થયું કે સમઝી વિચારીને બોલવું “અનુવિચિભાષણ” કહેવાય છે વગર વિચાર્યું બોલનાર કવચિત્ મિથ્યાભાષણ પણ કરતા હોય છે. આથી આત્માની લઘુતા વેર અને પીડા વગેરે આલેક સંબંધી - ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે અને બીજાના પ્રાણેની હિંસા થાય છે. આથી જે સમઝી } -વિચારીને બોલે છે તે ક્યારેય પણ મિથ્યાભાષણના પાપથી ખેર નથી. } મેહનીયકર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થનારા દેષરૂપ તે લક્ષણ વાળા કોધને ત્યાગ કરે જોઈએ ક્રોધ પ્રત્યાખ્યાનથી . " ઉત્તર ભાવના કરવી જોઈએ જે આવી ભાવના ભાવે છે તે આ બચી જાય છે. તૃષ્ણ રૂપી લેભને પણ પરિત્યાગ કરે ' , ખ્યાનથી આત્માને ભાવિત કરે છે તે મિથ્યાભાષી છે असत्य मानावना करनी करना चाहि Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ५६ पञ्चविंशतिविनायाः निरूपणम् ४०७ लस्य भीरुत्वस्य प्रत्याख्यानेनाऽपि-आत्मानं भावयन् नाऽनृतं कदाचिद् वदति भयशीलो जनः कदाचित् वितथमपि भाषते चौरोऽथपिशाचो वा मया रात्री दृष्ट इति, तस्माद्-निर्भय वासनाध्यान मात्मनि भावयेत् ४ एवं-सोहोद्भवपरिहासलक्षणहास्य परिणतः आत्मपरिहासं कुर्वन् परेण सह वितथमपि मापेत, तस्मात्-तस्य प्रत्याख्यानेनाऽऽत्मानं भावयन् सत्यव्रतपालनक्षमो भवति १० एवं-खलु-अनुवीचि. अवग्रहयाचनं तावत्-आलोच्याऽवग्रहयाचनरूपं बोध्यम् ११ अवग्रहथ-देवेन्द्रराजगृहपति शय्यावरसाधर्मिक भेदेल पञ्चविधः, तर-यो यत्र स्वामी स एव याचनीयः, अस्वामियाचने दोषाधिक्यं स्यात् । तस्मात्-'आलोच्याऽवग्रहो याच्या,' इत्येव प्रत्याख्यन करता है, वह कभी अलस्य भाषण नहीं करता डरपोक होता है वह मिथ्या भाषण भी करता है, जैसे-आज रात्रि में मुझे चोर अथवा पिशाच दिखाई दिया था इत्यादि । अतः अपने आपको निर्भय बनना चाहिए । मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न एवं परिहाल लक्षण वाला हास्य जो करता है वह अपनी हंसी करता हुआ दुसरे के प्रति मिथ्या भाषण भी करता है । अतएच हास्य के प्रत्याख्यान से आत्मा को भावित करने वाला सत्य व्रत का पालन करने में समर्थ होता है। अस्तेयव्रत की पांच भावनाएं-लोच-विचार कर अवग्रह की याचना करना चाहिए । अवग्रह पांच प्रकार का है-(१) इन्द्र (२) राजा (३) गृहपति (४) शरयातर और (५) साधर्मिक का अवग्रह । जहां जो स्वामी हो वहां उसी से याचना करना चाहिए । जो स्वामी नहीं है રીતે ભય અથવા કાયરતાનું પ્રત્યાખ્યાન કરે છે તે કદી પણ અસત્ય બોલતે નથી. જે ડરપોક હોય છે તે મિથ્યાભાષણ પણ કરતો હોય છે જેમ કે આજે રાતે મને ચાર અથવા પિશાચ દેખાયા હતા. વગેરે આથી દરેકે પિતાની જાતને નિર્ભય બનાવવી જોઈએ મેહનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન એ લક્ષણવાળું હાસ્ય જે કરે છે તે પોતાની મશ્કરી કરતો થકો બીજાની ખેચ્યાભાષણ પણ કરે છે. આથી હાસ્યના પ્રત્યાખ્યાનથી આત્માને પ્રભારનાર સત્યવ્રતનું પાલન કરવા સમર્થ બને છે. તેયવ્રતની પાંચ ભાવન એ-સમજી વિચારીને અવગ્રહની યાચના ., . सवड न छ-(१) छन्द्र (२) २१1 (3) गृहपति જીર અને ( ન અવગ્રહ જ્યાં જે માલિક હોય ત્યાં \ યાચના કરે, જે માલિક નથી તેની પાસે યાચના Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार थिकोतितत्वम्२५ ऐपिथिकी किया यद्यपि-जीव व्यापाररूपा, तथाऽप्यजीवरमएएगलराशेः प्रधान विवक्षयाऽजीवक्रियेयमभिहिता एवमेवाः पविषतिः क्रिया: साम्परायिककर्महेतवो भवन्ति उक्त स्थानाङ्गेर स्थाने १ उद्देशके ६० सत्रे-पंकि दिया-पण्णता, चत्तारि कसाया पण्णसा, पंच अविरया पण्णत्ता, पंच.. बीसा किरिया पणत्ता' इति । पश्चेन्द्रियाणि प्राप्तानि, चत्वारः कपापा पहप्ता-पश्चाऽनतानि प्रज्ञतानि, पञ्चविंशतिः क्रियाः प्रताः, इति । नवता पकरणगाथाया मुक्तम्-'इंदिय१ कसाय२ अन्वय३ जोगा९पंच १ चऊ पंच३ तिमि कसाया किरियाओ पणवीसइमाओ अणुकमसो इति । इन्द्रिय कषाया-प्रत-योगाः पञ्चचत्वार:-पश्च-त्रयः कषायाः क्रियाः पञ्चविंशतिः, धमा अनुक्रमशः, इति तथाऽऽस्नवस्य मिथ्यात्वाऽव्रतर प्रमाद३ कषाया४ मा जिसमें और कषाय का लेश भी न हो, जिसके कारण दो समय की स्थिति वाले कर्म का यन्ध होता है। यद्यपि यह क्रिया जीव का व्यापार ही है तथापि अजीव शरीर या वचन की प्रधानताकी विषक्षा होने से अजीव क्रिया कही गई है। इस प्रकार इन पच्चीस क्रियाओं में से चौवीस साम्परापिक भानव का कारण होती हैं और ऐपिथिकी क्रिया ईयोपथ-आस्रवका कारण होती है, स्थानांगसूत्र के दसरे स्थानक के प्रथम उद्देशक के. सत्र में कहा है-'पांच इन्द्रिया, चार कषोय, पांच अवत और पच्चीस कियाएं कही गई है। नवतस्व प्रकरण में भी कहा है-इन्द्रिय पांच, कषाय चार, भात -पांच, योग तीन और क्रियाएं पच्चीस आस्रव का कारण कही गई है। तथा (१) मिथ्यात्व (२) अव्रत (३) प्रमाद (४) कषाय (५) अशुभ જેમાં પ્રમાદ અને કષાય લેશમાત્ર ન હોય, જેના કારણે બે સમયની સ્થિતિ વાળા કર્મ બંધાય છે. જો કે તે કિયા જીવને વ્યાપાર જ છે તે પણ અછત શરીર અથવા વચનની પ્રધાનતાથી વિવક્ષા થવાથી અજીવક્રિયા કહેવાય » આવી રીતે આ પચ્ચીસ ક્રિયાઓમાંથી ચોવીસ સામ્પરાયિક આસ્રવના કારરૂપ હોય છે અને એયપથિકી ક્રિયા ઈયપથ આશ્વવનું કારણ હોય છે. માનાંગસૂત્રના બીજા સ્થાનકના પ્રથમ ઉદેશકના ૬૦માં સૂત્રમાં કહ્યું છે પાંચ ઈનિએ, ચાર કષાય, પાંચ અવ્રત અને પચ્ચીસ ક્રિયાઓ કહેવામાં આવી છે. નવતત્વ પ્રકરણમાં પણ કહ્યું છે “ઈન્દ્રિઓ પાંચ, કષાય ચાર, અત્રત પગ, ચાર ત્રણ અને ક્રિયાઓ પચીસ આસવના કારણ કહેવામાં આવેલ છે 64) (1) मि (२) भनत (3) प्रभात (४) ४ाय (५) . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.६ स. जी. कर्म. समानव विशेषाधिकोवेति २ योग५माणातिपात ६ मृपावादा ७ ऽदत्तादान ८ मैथुन ९ परिग्रह १० श्रोत्रा घोण रसन स्पर्शनरूप पश्चन्द्रिय १५ मनोवाकाया ऽशुमल्यापाराणि १८ माण्डोष. करणानामयतनया निक्षेपणं ग्रहणं च १९ सूचीकुशाग्रमावस्याऽप्ययतनया निक्षेपर्ण पाहणं चेति सामान्यतया विंशतिर्भदा भवन्ति । तथा पूर्वोक्तेषु द्विचत्वारिंशदायर मेदेषु पञ्चदशयोगानां संमेलनेन सप्त पश्चाशदप्यास्रवाः भवन्तीति बृद्विवेकः ।। .. मूलम्-तिव्व मंदादि भाव विरियाहिगरणविसेसेहितों आसवविसेसो ॥६॥ . या-'तीव्र-मन्दादि भाववीर्याऽधिकरण विशेषेभ्यः पावविशेष:।। तत्वार्थदीपिका-अथ-कर्मबन्ध हेतुभूताऽवं प्रति कायादि योगत्रयादेः कारण योग (६) प्राणातिपात (७) मृषावाद (८) अदत्सादान (९) मैथुन (१०) परिग्रह (११) श्रोत्रेन्द्रिय (१२) चक्षुहन्द्रिय (१३) घाणेन्द्रिय (१४) रसनेन्द्रिय (१५) स्पर्शनेन्द्रिय (१६) मनोयोग (१७) वचनयोग (१८) काययोग (१९) भाण्डोपकरण का अयतना से निक्षेपण या ग्रहण करना और (२०) सूची-कुशाग्रका भी अयतना से निक्षेपण ग्रहण, यह बीस प्रकार का आस्रव कहा गया है। तथा पहले कहे गये आस्रव के बयालीस भेदों में पन्द्रह प्रकार के योगों को मिलाने से मात्रघ के सत्तावन भेद भी होते हैं। यह आस्रव संबन्धी विस्तार समझना चाहिए ।।५।। तिव्व मंदादिभाव' इत्यादि। सूत्रार्थ-तीव्रभाव, मंदभाव आदि वीर्य और अधिकरण की विशेषता के कारण आस्रव में भी विशेषता हो जाती है ॥६॥ तस्वार्थदीपिका-काययोग आदि आस्रव के कारण सभी जीवों में यो (E) प्रातिपात (७) भूषापा (८) महत्ताान () भैथुन (१०) परिश (११) श्रीन्द्रिय (१२) क्षुधन्द्रिय (13) घान्द्रय (१४) २सनेन्द्रिय (१५) शन्द्रिय (१६) मनाया (१७) क्यनयोग (१८) ४ाययोग (16) एडी, પકરણનું અયત્નાથી નિક્ષેપણુ અથવા ગ્રહણ કરવું અને (૨૦) સૂચીકુશાશનું પણ અયતનાથી નિક્ષેપણુ-ગ્રહણ, આ વીસ પ્રકારના આસવ કહેવામાં આવ્યા છે. તથા અગાઉ કહેવામાં આવેલા આસ્ટિવના બેંતાલીસ ભેદમાં પંદર પ્રકારના ગેને ઉમેરવાથી આસવના સત્તાવન ભેદ પણ થાય છે. આ આસ્રવ સંબંધી વિસ્તાર સમજ જોઈએ. યા 'तिव्व मंदादिभाव' त्याल સૂવાથં–તીવ્રભાવ, મંદભાવ, વીર્ય અને અધિકરણની વિશેષતાના - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । Sa Barfठी घED .NF RAF .Infeी तत्वार्थी magar स्य सर्वात्मकार्यत्वात सप्तासांसारिणा साधारणतयाः तस्मात् कर्मपन्धः फार्म जमवनम्प्रति अविशेष: स्यादित्यानां समाधातुं कायिकादियोगंत्रयस्यामस्यासशसम्भवे सत्यपि अचेत हेभयो परिणामविशेषेभ्यः कमबन्धफळानुमबमवियोग सम्भवतीत्या दिव्य मंदाहि भाव सीरिग्राहिगरपावि से सेहितों मांविसे मो इति। तीन मन्दादिभावकीर्याधिकरण विशेष यतीव मन्दादिमान भावार मन्दावार आदिपन शातामातभावप्रणम्, तेन जातभावोजातभावः बाविशेषोऽधिकरविशेषश्चत्येतेपी द्वन्द्वे सति तीव्र मन्दादि भाव वीर्याऽषि करणविशेषास्तेभ्यः-तदपेक्षया खलु आस्रवविशेषः साम्परायिकाऽसर्व विशेषों भवति तत्रावागायनतरकारणोंदीरणवशादुदिक्ता उत्कृष्ट आत्माध्यवसायविशेष परिAस्तीत्राइत्युच्यते त्तद्विपरीत परिणामों मन्द इत्युच्यते, अनुत्कट'आत्माध्यवसामान्य हाये सपा संसारी जीवों में समान रूप से पाये जाताह तीव:कमबन्ध भी सभी में समान होना चाहिए और उसकी कल सभी को समान प्राप्त होना चाहिए। किन्तु ऐसा होता नहीं है, जसका कारण जीव के परिणामों में रहा हुआ भेद है जो अनेक प्रकार का होता है, यह बतलाने के लिए कहा गया है। I NT(07) तीव्रभाव, मन्दभाव और आदि' शब्द से ज्ञातभाव, अज्ञातभषि सीयविशेष और अधिकरण विशेष से साम्पायक आस्रव में विशेषता विषमता-भिन्नता) होती है पोह्य एवं आभ्यन्तर कारण मिलने पर आत्मा में जो उत्कृष्ट अध्यवसाय उत्पन्न होता है। उसे तीव्रभाव कहते हैं- मन्दभाव इससे विपरीत होता है अर्थाताजी अध्यवसाय उत्कृष्ट ना हो वह सन्द कहलाता। यहि शत्रु हनन करने योग्य हम PAR मालपार पधु- विशेषता य ह હાલારીપિકાએ આફ્રિજાસૂવાના કારણે બધજીમાં સોષ્યિ POSARSHApari समान)३५ लामोथी (50 HERR अने, (पशु) हरेने શ રે ૪તુઓમણે બનતું નથી, એનું પરિણજીવનપરિણમેશાં isayerimeTTES HAIR मामा भाच्या MEENApsarasays AIRAYAIdals FASALGAIRecावि અને અધિકરણ વિશેષથી સામ્પરાયિક આસવમાં વિશેષતા (ષિમf=શિત) ધાર્યું છે. બાહ્ય તથા આત્યંતર કરણે મળવાથી આત્મામાં જે ઉત્સાહ અધ્યવસાય ઉત્પન્ન થાય છે તેને તીવ્રભાવ કહે છે. મન્દ્રભાલઆનાથી વિપરીત હોય છે, અડદ છે અને બિનય છે ફાલ છે. સુહેવા રહેલ ભેટ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - पिका-नियुक्ति टीका अ.६ २.६ जी. कर्म. समानैवविशेषाधिकोवेति ५३ सायाविशेषण परिणाममन्द इत्यर्थः । अयं शत्रुहन्तव्या, हनिष्याम्येतं पुमांसनिविभावाप्रवर्तन ज्ञात मित्युच्यते, मदात् प्रमादाद्वा, एतं पुमासं इनिष्यामि, हस्पन बुध्यमवृत्तिः अज्ञाता मित्युच्यते, मावस्तु आत्मनोभवनं परिणामविशेषो मोध्या मावशब्दस्या प्रत्येकमभिसम्बन्धात तीव्रभावमन्दभावज्ञातभावानात भाव इत्यर्थः । वीर्यश्च जीवस्य क्षायोपशमिका , क्षायिको वो मात्र इत्युच्यते, मन्यस्य स्वयक्तिविशेषों वा वीर्यम्। अधिकरणं पुनरधिक्रियन्तेऽ , अस्मिन्निति पत्याधिकरपं. द्रव्यमित्युच्यते, विशेषपदस्य चोभयत्राऽभिसम्बन्धात् वीर्यविगो द्रव्यस्य पुरुषादे निजशक्तिविशेषलक्षणः खड्गाधिकरणविशेषञ्चति यते तथा च तीव्र भाव, मन्दसावज्ञातभावाऽज्ञातभाव वीर्यावशेषाधिकरण विशेभ्यता घोतकोनचत्वारिंशत्साम्परायिकाऽऽस्वविशेषोः भवति । एक इसका हनना करूंगा मइस प्रकार जान बूझकर प्रवृत्ति करना ज्ञातभाव कहलाता है। अनजान में प्रमाद से प्रवृत्ति होना अज्ञातभाव है भावकी अर्थ आत्माको अध्यावसाय अथवा परिणाम प्रत्येक के साथ उसका सम्बन्ध है, जैसे तीव्र भाव, मन्दभाव ज्ञातभाव और अज्ञातभाव जीव को क्षायोपर्शमिक या क्षायिक भाव वीर्य कहलाता है अथवा द्रव्यकी अपनी जो विशिष्ट शक्ति है उसे वीर्य कहते हैं । अधिकरण वह द्रव्य या साधन जिसके द्वारा कोई क्रिया हो जाती है और जिसे लोकभाषा में औजार कहते हैं 'विशेष, पद का दोनों अर्थात् वीर्य और अधिकरण के साथ सम्बन्ध है इस प्रकार जीव की शक्ति की विशेषता को वीर्य विशेष और तलवार आदि की शक्ति की विशेषता को अधिकरणविशेष कहते हैं । इस प्रकार तीव्र आव, मन्दभाव, ज्ञातभाव अज्ञातभाव वीर्यविशेषा और अधिकरण विशेष; से साम्बरायिक आस्रव में विशेषता अर्थात तरतमता उत्पन्न हो जाती है । { }},57_11) the घाय" मन test Na पूर्व प्रवृत्त इश्वी सनी ઉંધા છેઅહિંસા અથવા પ્રમાદધી પ્રવૃત્તિ થવી આફતભા છે.ભાવ. wી મા અધ્યાય અથવું પરિણામ પ્રત્યેની સાથે તેને બંધ HEPATHAमाव; महा शतिभावाना TANA. ભિક થા ક્ષવિભાધિ “વા કહેવાય છે અથવા દૂધની આવી છે मक्षाशात बाय":"AMPARAN ઇજીમાડે કિંઈ કિયાં કરવામાં આવે અને જેને લેહમાં પર विशेष अर्थात वाया ना साथ समाधा, જીર્થે જીવવીશકિતવિશેષતાને હાથ વિશેષ અને સરર્વરની શકિતની 7 HINDI Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - L तत्वायर पीवभावात् मन्दभावात् ज्ञातभावात् अज्ञातभावात् वीर्यविशेषात् बाधिकरण विशेषाच्चाऽऽत्मपरिणतिविशेषात् पूर्वोक्तानामेकोनचत्वारिंशत्साम्परायिकाऽऽ. वाणां विशेषः तीव्र स्तीव्रतर स्तीव्रतमो, मन्दो मन्दतरो मन्दतमो, लघुघुतरो रघुतमश्च परिणामविशेषो भवति, तद्विशेषाच्च कर्मवन्धविशेषो भवति, स्माण फलभोगविशेषः इतिफलितम् ॥६॥ _अभिप्राय यह है कि एक जीव किसी कार्यको तीघ्रभाव से करता है, दसरा जीव उसी कार्य को मन्द परिणाम से करता है इसी प्रकार कोई जीव किसी क्रिया में जान बूझकर प्रवृत्ति करता है और किसी जीच की उसी क्रिया में अनजान में प्रवृत्ति हो जाती है तो उनके मानव में भी भेद होता है। प्रत्येक अवस्था में आस्रव समान ही हो, ऐसा नहीं जैसे ज्ञातभाव और अज्ञातभाव के कारण आस्रव में अन्तर पड जाता है, उसी प्रकार वीर्य और अधिकरण की भिन्नता से भी आस्रव में भिन्नता हो जाती है। यही कारण है कि कोई जीव ती आस्रव का भागी होता है तो कोई तीव्रतर और तीव्रतम आस्रवका इसी प्रकार किसी को मन्द आस्रव होता है तो किसी को मन्दतर या मन्दतम आस्रव होता है। जब आस्रव में अन्तर पडता हैं तो बन्ध भी अंतर पडे विना नहीं रह सकता और कर्मबन्ध में अन्तर पड़ने से उसके अन्तर पडना अनिवार्य है।६॥ વિશેષતાને અધિકરણ વિશેષ કહે છે. આમ તીવ્રભાવ, મન્દભાવ, જ્ઞાતભાવ, અજ્ઞાતભાવ, વીર્યવિશેષ અને અધિકરણ વિશેષથી સામ્પરાયિક આસવમાં વિશેષતા અર્થાત્ તરતમતા ઉત્પન્ન થાય છે. અભિપ્રાય એ છે કે એક જીવ કોઈ કાર્યને તીવ્રભાવથી કરે છે. 1 - અને બીજે જીવ તેજ કાર્યને મદ પરિણામથી કરે છે, એવી જ રીતે કોઈ જીવ કોઈ ક્રિયામાં જાણી–બૂઝીને પ્રવૃત્ત થાય છે અને કોઈ જીવની તેજ ક્રિયામાં અજાણતાં જ પ્રવૃત્તિ થઈ જાય છે ત્યારે તેમના આશ્વવમાં પણ ભેદ માય છેપ્રત્યેક અવસ્થામાં આસવ સમાન જ હોય એ નિયમ નથી જેમ કે જ્ઞાતભાવ અને અજ્ઞાતભાવને કારણે આસવમાં અન્ડર પડી જાય છે તેવી જ રીતે વીર્ય અને અધિકરણની ભિન્નતાથી પણ આસવમાં ભિન્નતા થઈ જાય છે. આ જ કારણ છે કે કેઈ જીવ તીવ્ર આસવને ભાગી થાય છે તે કોઈ જીવ તીવ્રતર અને તીવ્રતમ આસવને, એવી જ રીતે કોઈ જીવને મન્દ આસ્રવ હોય છે. તે કેઈને મન્દતર અથવા મંદતમ આસ્રવ હોય છે. જ્યારે આઅવમાં અન્ડર પડે છે તે બધમાં પણ અત્તર પડયા વગર રહેતું નથી અને કર્મબન્યમાં અન્તર પડવાથી તેનામાં અન્તર પડવું અનિવાર્ય છે દા -- - - - - Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ सू.६ जी. कर्म. समानव विशेषाधिकोवेति ५५ तत्वार्थनियुक्तिः-अथ पूर्वोक्तेन्द्रियकषायाऽव्रतक्रियाहे तुकं भवम्रमणकारक साम्परायिककर्मबन्धं कुर्वतां जीवानां किं सर्वेषां समान एव कर्मवन्धो भवति ? उसो इन्द्रियादिमत्वे सति साम्परायिककर्मबन्धमाजां परस्परं कर्मबन्ध वैषम्यमयुक्तो विशेषो भवति ? इत्याशङ्कां समाधातुं परिणामभेदात कर्मबन्धः भेदो भवतीति प्रतिपादयति-'तिब्वमंदादिभाव वीरियाहिगरणविसेसे. हितो आसविसेसो' इति तीव्रमन्दादिभावेभ्यः तीब्रभाव, मन्दभाव; हातभावाऽज्ञातभावेभ्या, वीर्याधिकरणविशेषेभ्यः वीर्यविशेषाधिकरणविशेषेस्ययाऽऽसाविशेष: साम्परायिककर्मास्रवतारतम्यं भवति, तद्विशेषाच्च कर्मबन्धविशेषो भवति, तद्विशेषाच्च फलभोगविशेषः। तत्र तीव्रः प्रकृष्ट उत्कृष्टो भावः-आत्मपरिणति विशेषः, स च तीव्रात्मपरिणामोऽध्यवसा: तत्वार्थ नियुक्ति-पूर्वोक्त इन्द्रिय कषाय, अव्रत आदि के कारण जो जीव भवभ्रमणजनक साम्परायिक कर्म बन्धकर रहे हैं, उन सबको क्या समान ही बन्ध होता है ? अथवा उक्त कारणों से होनेवाले पन्ध में कुछ अन्तर भी होता है ? इस आशङ्का का समाधान करने के लिए यह प्रतिपादन करते हैं कि परिणाम के भेद से कर्मबन्ध में भी भिमता हो जाती है तोत्रभाष, मंदभाव, ज्ञातभाव, वीयकी विशेषता और अधिकरण की विशेषता के कारण साम्परायिक कर्म आस्रव में भी भिन्नता हो जाती है, आस्रव में भेद होने से बन्ध में और यन्ध में विशेषता होने के कारण उसके फल में विशेषता आ जाती है। उत्कृष्ट प्रकृष्ट या उग्र भाव तीव्रभाव कहलाता है। भाव का अर्थ है अध्यवसाय या आस्मा की विशिष्ट परिणति । वही भाव जब તત્વાર્થનિયુકિત–પૂર્વોક્ત ઇન્દ્રિય, કષાય, અવ્રત આદિના કારણે જે જવા ભવભ્રમણ જનક સામ્પરાયિક કર્મબન્ધ કરી રહ્યાં છે, તે બધાને શું સરખે જ બધે થાય છે? અથવા ઉક્ત કારણથી થનારા બધમાં થોડું અતર પણ હોય છે? આ શંકાનું સમાધાન કરવા માટે એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ કે પરિણામના ભેદથી કમબન્યમાં પણ ભિન્નતા થઈ જાય છે તીવ્રભાવ, મદભાવ, જ્ઞાતભાવ, વિયેની વિશેષતા અને અધિકરણની વિશેષતાના કારણે સામ્પરાયિક કર્મ–આસવમાં પણ ભિન્નતા થઈ જાય છે. આસવમાં ભેદ થવાથી બજમાં અને બન્ધમાં વિશેષતા થવાના કારણે તેના મળમાં પણ વિશેષતા આવી જાય છે. હકષ્ટ, પ્રકષ્ટ અથવા ઉગ્ર ભાવ તે તીવ્રભાવ કહેવાય છે. ભાવને અથ' છે અથવસાય અથવા આત્માની વિશેષ પરિકૃતિ તેજભાવ જ્યારે અધિક Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ५६ को 12 vain k aran यविशेषः सातिशयो भवति तीवस्तीनतर :स्तीवतमश्च तद्विशेषाच्च बन्धः विशेषो भवति, कारणभेदश्च कार्यभेदानुविधायी भवति, कार्यभेदश्च वारणादा मनगमयति; तस्मात् परिणाम विशेष मात्रापेक्षयाऽऽमा कर्मवन्धको भत्रति शीप भावविपरीतो मन्दभात्री भवति, तस्माच्चाऽऽत्मपरिणतिविशेषाद् अनुस्खा मन्दभावात् कर्मबन्धभेदो भवति । स्वल्प एवान्तरः परिणामो यदा मन्दो भवति तदा कर्मवन्धोऽपि स्वल्पपरिणामापेक्षत्वा मन्द एवोपजायते-न तु कदाचित स्पान्तरपरिणामलक्षण मन्दभाबाद् अनुस्कटात्तीवभावतुल्या कर्मयधा सम्भवति सचाऽपि तीब्रो मात्र आत्मपरिणतिविशेष कदाचिदधिमात्रः कदाचिदधिमात्रमा कदाचिदधिमात्र मृदुः कदाचिन्मध्याधिमात्रा कदाचिन्मध्यमः, 'कदाचिन्मध्यमृदा अधिक तीव्र होता है तो तीव्रतर कहलाता है और जब भत्यधिक तीन होता है तो तीव्रतम कहलाता है। भाव में जितनी तीव्रता होती है, बंध में भी उतनी ही तीव्रता होती हैं और उसके अनुसार उसके फल में भी उतनी ही तीव्रता आ जाती है। कारणों के भेद होने से कार्य में भी भेद होता है और कार्य में भेद देखकर कारणों में भेद का अनुमान किया जाता है। इस नियम के अनुसार आत्मा की परिणति के भेद से बन्ध में भेद होना स्वाभाविक है और वन्ध के भेद से आत्माकी परिणति की विषमता का मान किया जा सकता है . : . . . तीव्रभाव से जो विपरीत हो वह मन्दभाव कहलाता है। मन्त्रा जो कर्मयध होता है वह स्वल्प होता है, उत्कट नहीं होता.जसमें तीन भाव से होने वाले बन्ध के समान उत्कंटता नहीं होती। મિત્ર છે તે તીવ્રતરક્કહેવાય છે અને જ્યારે અહિં અધિકહતી હોય છે તે તીવ્રતમ કહેવાય છે ભાવમાં જેટલી તીવ્રતા હોય છે, તેટલી ભ્રમમાં પણ તીવ્રતા કોંય છે અને તદનુસાર તેના ફળમાં પણ તેટલી જ ઉંત્રિત High य C ontin . fuc cit કારમાં ભેદ હોવાથી કાર્યમાં પણ ભેદ થાય છે, અનેં કભદ્માવત જોઈને. કારમાં ભેદનું અનુમાન કરવામાં આવે છે. આ નિયમ અનુસાર આત્માની પરિણતિના ભેદથી બન્ધમાં ભેદ થવો સ્વાભાવિક છે અને ભાવિ बीमाभानी परियतिनी; qषमतानु: अनुभात,NTAs4 छ: US તીવ્રભાવથી જે વિપરીત હોય તે મદભાવ કહેવાયા . મમભાવ કેમ બન્યા હોય છે તે સવ" કહે છે, ઉત્કૃષ્ટ હેતેથી તેમાં ખાતીબ્રિભાવથી RiRe irur: आ माता सती थी 12519 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका निर्युक्ति टीका अ. ६ . ६ जी. कर्म, समानैष विशेषाधिकोवेति ५७ " , कदाचिन्मृद्वधिमात्रः कदाचिन्मृदुमध्यः कदाचिन्मृदुः इत्येवं विविधाऽध्यवसाया star नानारूपो भवति । एवम् ज्ञातस्य ज्ञानादुपयुक्तस्याऽऽत्मनो भावः परिणाम विशेषो ज्ञातभावोऽभिसन्धि कृत्वा माणातिपातादौ प्रवृत्तिः, यथा 'ऽयं शत्रुमाणी इन्तव्यः' इनिष्याम्येतं पुमांसमिति ज्ञास्वा प्रवर्तनं ज्ञातम् तद्विपरीत मज्ञातम् अज्ञातस्य ज्ञानादनुपयुक्तस्य भावः परिणामविशेषोऽज्ञातभावः, अनभिसन्धाय प्राणातिपातादौ प्रवृत्तिः मदात्ममादाद्वाऽनवबुध्यमाणातिपातादौ भवर्तनमित्यर्थः । सारम्याच्च ज्ञातभावाऽज्ञातभावाभ्यां पूर्ववदेव कर्मबन्धविशेषोऽदगन्तव्यः । यः तीव्रभाव में भी तारतम्य के भेद से अनेक उच्च-नीच श्रेणियां होती हैं । कोई तीव्रभाव अघिमात्र होता है, कोई अधिमात्र मध्य होता है, कोई अधिमात्र मृदु होता है, कोई मध्ये अधिमात्र होता है, कोई मध्यम, कोई मध्य मृदु, कोई मृदु अधिमात्र कोई मृदु होता है । इस प्रकार अपेक्षा भेद से नाना प्रकार के अध्यवसाय होते हैं । इसी प्रकार उपयोग से उपयुक्त आत्मा का परिणाम ज्ञातभाव कहलाता है, जिसका आशय है समझ-बूझकर, संकल्प पूर्वक हिंसा आदि कार्यों में प्रवृत्त होना, जैसे इस शत्रु का हनन करना योग्य है, मैं इस पुरुष का हनन करूंगा, इस प्रकार विचार कर घात करना । अज्ञातभाव इससे विपरीत होता है । वह उपयोग शून्य आत्मा का परिणाम हैं, जैसे विना संकल्प के अकस्मात् हिंसा आदि में प्रवृत्ति हो जाना -मद् या प्रसाद से अनजान में हिंसा आदि हो जाना। इस ज्ञान भाव और अज्ञानभाव से कर्मबन्ध में विशेषता हो जाती है । उदाह તીવ્રભાવમાં પણ તારતમ્યના ભેદથી અનેક ઉચ્ચ-નીચ શ્રેણિએ હાય છે. કાઈ તીવ્રભાવ અધિમાત્ર હાય છે, કૈાઇ અધિમાત્ર મધ્ય હોય છે, ફાઈ અધિમાત્ર મૃદુ હોય છે, ક્રાઇ મધ્ય અધિમાત્ર હાય છે, કાઈ મધ્યમ, કાઈ મધ્ય મૃદુ, કઇ મૃત્યુ-અધિમાત્ર કાઈ મૃમધ્ય અને કાઇ મૃદુ હાય છે, આ રીતે અપેક્ષા ભેદથી જુદા જુદા પ્રકારનાં અધ્યવસાય હાય છે. એવી જ રીતે ઉપયાગથી ઉપર્યુકત આત્માનુ પરિણામ જ્ઞાતભાવ કહેવાય છે, જેને આશય છે–જાણી-બૂઝીને, સંકલ્પપૂર્વક હિંસા આદિ કર્મીમાં પ્રવૃત્ત થવું જેમ કે—આ શત્રુ હણવા ચેાગ્ય છે, હું આ પુરૂષને હણીશ' એ રીતના વિચાર કરી ઘાત કરવા. અજ્ઞાતભાવ આનાથી વિપરીત હૈાય છે. તે ઉપયેગ શૂન્ય આત્માનુ પરિણામ છે જેમ ગર સ’કલ્પનાં અકસ્માત, હિંસા દિમાં પ્રવૃત્ત થઇ જેવુ—માઁ અથ્યા પ્રમાદથી અજાણતા હિંસા સાદિ થ त० ६ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ खलु-हरिणक्षेचाऽपि सन्धाय 'हनिम' इति वाणं प्रक्षिपनि यस्तु-स्थाणुं विध्यामि इत्येवमभिसन्धाय पाणममुञ्चत विनिपातितश्च मागन्तिरालय: मृगः कपोतो वा शेन-दाणेन सत्र समानमाणातिपातक्रिययोरप्यनपोर्घातकयो निमित्तविशेषाद कर्मवन्धविशेषो सबसि । तत्र पूर्वस्य घातकस्याधिका कर्मवन्धो भवति, परस्य च सावकारय माणाविपातापभिसन्धिरहितस्य पायादि प्रमादवशवर्तिनः पूर्वाऽल्पा एहमवन्धो भवति, यखोहि राग-द्वेष विना वाणस्य प्रक्षेपो न सम्भवति । रागमः पाहो - सोध्या, तथाहि-अज्ञानसन्देह मिथ्याज्ञानरागद्वेष स्मृत्यनवस्थान धर्मास्नादर योग दुष्प्रणिधान भेदादष्टविधः प्रमादः उत्कट कपायलेश्यावळाधान हवार्थ-एक मनुष्य हिरण को मारने के विचार से याण फेकताहै और उसले हिरण विध जाता है दूसरा मनुष्य किसी टुंठ को वेधने हे उद्देश्य से थापा छोडता है किन्तु बीचमें कोई मृग या कबूतर उससे विध जाला है। यधपि इन दोनों घातकों की प्राणातिपात क्रिया ऊपरी दृष्टि ले सम्मान प्रतीत होती है, किन्तु आन्तरिक अध्यवसाय में भेद होने के कारण उनके कर्मबन्ध में भेद होता है। पहले घातक को कर्म फा बन्ध अधिक एवं तीव्र होता है जब कि दूसरे घातक को, जो हिंसा धारने का इरादा नहीं रखता, किन्तु प्रमाद और कषाय के वशीभूत है, अल्प कर्मबन्ध होता है, क्योंकि राग-द्वेषके विना वाण का प्रक्षेपण नहीं हो सकता और राग-द्वेष भी एक प्रकार का प्रमाद ही है। प्रमाद् के आठ भेद कहे गये हैं-(१) अज्ञान (२) नन्देह (३) मिथ्याज्ञान (४) જવી. આ જ્ઞાતભાવ અને અજ્ઞાતભાવથી કર્મબન્ધમાં વિશેષતા થઈ જાય છે. ઉદાહરણર્થ–એક માણસ હરણને મારવાના ઈરાદાથી બાણ ફેંકે છે, તેનાથી હરણ વિધાઈ જાય છે. બીજો માણસ કઈ થડને વિંધવાના આશયથી બાણ ફેંકે છે, પરંતું વચમાં કોઈ મૃગ અથવા કબૂતર તેનાથી વિંધાઈ જાય છે. જો કે આ બંને ઘાતકની પ્રાણાતિપાત ક્રિયા ઉપર છલેથી એક સરખી પ્રતીત થાય છે, પરન્તુ આન્તરિક અધ્યવસાયમાં ભેદ હોવાના કારણે તેમના કમબન્ધમાં ભેદ હોય છે. પહેલા ઘાતકને કમને અન્ય અધિક અને તીવ્ર હોય છે, જ્યારે બીજા ઘાતકને કે જે હિંસા કરવાને ઈરાદે રાખતું નથી, પરન્તુ પ્રમાદ અને કષાયને વશીભૂત છે, અ૫ કર્મબન્ધ થાય છે, કારણ કે રાગદ્વેષ વગર બાણ ફેંકી શકાતું નથી અને રાગદ્વેષ એ પણ એક પ્રકારને प्रभा । छे. भन भाइ ले ४ामां माया छ-(१) अज्ञान (२) सन्स (3) मियाज्ञान (४) २ (५) देष (6) मृत्यनवस्थात-भूति न Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ सू.६ जी. कर्म. समानैव विशेषाधिकोवे.ते ५९ ज्ञानोत्पन्नः पौरुषेयपरिणामसमुत्थानः कटुविपाको नरकपाताऽहितसंस्कारः तीनाहिंसातिशयो मध्यकपाबलेश्योदयवलाधानो मध्य मध्यतरादि भेदः प्रतनु कपायलेश्यापरिणामप्रमादवलाऽधिष्ठानवासनावासितत्वात् मन्दमन्दतरादिभेदः। एवं-वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपश प्रजन्या लब्धिः वीर्यम्, आत्मनः शक्ति सामर्थ्यम्, तच्च वीर्यम् वज्रपभनाराचसंहननापेक्षमेव त्रिपृष्ठादीनां संरब्ध सिंहपाटनादिलक्षणम् सिंहादीनाञ्च मदजलावसिक्तगण्डस्थलमुखदिग्गजादिकुम्भराग (५) द्वेष (६) स्मृत्वनचस्थान-स्मृति न रहना (७) धर्म के प्रति आदर अर्थात् जागरूकता न होना और (८) योगों की अप्रशस्त प्रवृत्ति होना। तीव्र कषाय, लेश्या और ज्ञान से उत्पन्न पौरुषेय परिणाम द्वारा जनित, कटुक फल देने वाला एवं नरकपात आदि का कारण हिजो हो वह तीव्र हिंसाभाव कहलाता है। मध्यम कषाय एवं लेश्या के निमित्त से होने वाला मध्यम हिंसाभाव कहलाता है और जो पतलेहल्के कषाय एवं लेश्यापरिणाम से तथा प्रमाद के याग से युक्त हो वह मन्द या भन्दतर हिसाभाव कहलाता है। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाली लब्धि वीर्य कहलाती है। वीर्य आत्मा का सामर्थ्य-विशेष है। वनऋषभनराचसंहनन की सहायता पाकर उसके द्वारा सिंह आदि का भी विदारण રહેવી (૭) ધર્મ પ્રત્યે આદર અર્થાત્ જાગૃતિ ન હેવી અને (૮) રોગોની અપ્રશસ્ત પ્રવૃત્તિ થવી. તીવ્ર કષાય, લેશ્યા અને જ્ઞાનથી ઉત્પન્ન, પૌરૂષય પરિણામ દ્વારા જનિત, કડવાં ફળ આપનાર તથા નરકપાત આદિના કારણરૂપ જે હોય તે તીવ્ર હિંસા ભાવ કહેવાય છે. મધ્યમ કષાય તથા વેશ્યાના નિમિત્તથી થનાર મધ્યમ હિંસા ભાવ કહેવાય છે. અને જે પાતળા કષાય અને લેશ્યા પરિણામથી તથા પ્રમાદન ગથી યુક્ત હોય તે મન્દ અથવા મન્દતર હિંસાભાવ કહેવાય છે. વર્યાન્તરાય કર્મના ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થનારી લબ્ધિ વીર્ય કહેવાય છે. વીર્ય આત્માનું સામર્થ્ય–વિશેષ છે. વાઇષભ નારાચસંહનની મદદ મેળવીને તેના દ્વારા સિંહ આદિનું પણ વિદારકું કરી શકાય છે, જેમ ત્રિપૃષ્ણે કર્યું હતું. સિંહ મન્મત્ત હાથિઓનાં કુંભસ્થળનું વિદ્યારણ કરવામાં સમર્થ હોય છે તે પણ વીર્યના જ પ્રભાવથી આ પ્રકારના વીર્યની Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे विदारणाऽभि.क्त भगति, तथाविध स्वीर्यस्य विशेषाद् अतिशयारकर्मबन्ध विशेषो भवति । विर्यविशेषोऽपि कदाचिदधिमात्रः कदाचिदधिमात्रमध्यः कदाचिदधियारमृदुरित्यादि पूक्तिस्वरूपो बोध्यः। मन्दमाणस्य जीवस्य कुच्छेण धृतोऽपि न तथाविधोत्कर्षविशेषो भवति यादृशो महामाणस्य भवति तस्माद-वीर्यालिमायः कर्मवन्यविशेषप्रतिहेतु भवति । एवम्-अधिक्रिपते-आत्मा दुर्गतिप्रस्थानस्पति येन तद् अधिकरणं द्रव्यं खड्गादिकम्, तच्चाऽधिकरणरूपं द्रव्यं निर्वतैना संयोजनादिरूपस, तस्य-खलु अधिकरणद्रव्यस्य विशेषात् अतिशयात् कर्मकिया जा सकता है, जैसे त्रिपृष्ठ ने किया था सिंह मदोन्मत्त हाथियों के कुलस्थल के विदारण में समर्थ होता है, वह वीर्य के ही प्रसाध ले। इस प्रकार के वीर्य की विशेषता से कर्मबन्ध में विशेषता होती है। यह वीर्यविशेष भी कदाचित् अधिकमात्र होता है, कदाचित् अधिकमात्र मध्य होता है कदाचित् अधिकमात्र मृदु होता है, इत्यादि पूर्ववत् समझ लेना चाहिए । जो प्राणी मन्द प्राण होता है उस में वीर्य का वेला उत्कर्ष नहीं होता जैसा कि महाप्राण में पाया जाता है। इस प्रकार बीर्य की तरतमता भी कर्मबन्ध में विशेषता उत्पन्न करती है। जिसके कारण आत्मा दुर्गति का अधिकारी बनता है वह स्वड्ग आदि द्रव्य अधिकरण कहलाते हैं। अधिकरण के दो भेद हैंनिर्वर्तनाधिकरण अर्थात् हिंसा कारक साधनों का नये सिरे से निर्माण करना और संयोजनाधिकरण अर्थात् उनके अवयदों को जोडकर उन्हें आरम्भ-समारम्भ के योग्य बनाना । इस अधिकरण द्रव्य के વિશેષતાથી કમબન્ધમાં, વિશેષતા થાય છે. આ વીર્યવિશેષ પણ કદાચિત અધિમાત્ર હોય છે, કદાચિત અધિમાત્ર મધ્ય હોય છે કદાચિત અધિમાત્ર મૃદુ હોય છે ઈત્યાદિ પૂર્વવત્ સમજી લેવું જોઈએ. જે પ્રાણ મંદ પ્રાણ હોય છે તેનામાં વિર્ય એ ઉત્કર્ષ થતો નથી, જેમ કે-મહાપ્રાણમાં જોવામાં આવે છે. આવી રીતે વીર્યની તરતમતા પણ કર્મબન્ધમાં વિશેષતા ઉત્પન્ન કરે છે. જેના કારણે આત્મા દુર્ગતિને અધિકારી બને છે, તે તલવાર આદિ દ્રવ્ય અધિકરણ કહેવાય છે. અધિકરણના બે ભેદ છે-નિર્વત્તાધિકરણ અર્થાત્ હિંસાકારક સાધનનું નવેસરથી નિર્માણ કરવું અને સાંજનાધિકરણ અર્થાત્ તેમના ભાગને જોડીને તેમને આરંભ-સમારંભને લાયક બનાવવા આ અધિ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ६ खू.६ जी. कर्म. समानैव विशेषाधिकोवेति ६१ विशेषो भवति, प्रतिदिनमेत्र ख निर्घृणमानता निर्दया निर्भयाः सन्दः प्राणिवधाय सृपास्तेयादिकृत्कु टेलश्रुतीः सृजन्ति । ते खल्वधिकरणद्रव्यविशेषाः क्लेशोपादानं प्रति प्रकृष्टा सन्तः कूटगलयन्त्र रात्रपाशादेवाधिकरण विशेषाच्च कर्मधारयं भवति । एवञ्च पूर्वोक्तानामेकचत्वारिंशत्साम्परायिककर्मासवाणां तीव्रभावात् सन्दभावात् ज्ञात मात्रात् अज्ञावभावात् विर्यविशेषात् अधिकरणविशेषाच्च विशेषस्तारतम्यरूपो भवति । स च साम्परायिककर्माविशेषः तीव्र स्तीव्रतर स्वीव्रतमः मन्दो मन्दतरो मन्दतमः, मध्यमो मध्यमतरो मध्यमतमो वोध्यः तथाविधाssस्रवविशेषाच्च कर्मबन्धविशेषो भवति । एवञ्च क्रोधरागद्वेषभेद से भी कर्मबन्ध में भेद होता है । जिन का मन घृणा से शून्य हैं, जो निर्दय हैं, पाप से नहीं डरते हैं, वे प्राणिव के लिए मृषावाद एवं स्तेय (चोरी) आदि को उत्तेजना देनेवाली श्रुतियों का निर्माण करते हैं । वें अधिकरण द्रव्य क्लेश के उत्कट कारण होते हैं। ऐसे फांसी जाल आदि अधिकरणों की विशेषता से कर्मबन्ध में भी विशेषता उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार पूर्वोक्त उनचालीस प्रकार के कर्मास्रवों में तीव्रता, मन्दता, ज्ञातभाव, अज्ञात भाव, वीर्यविशेष और अधिकरणविशेष होता है और उस विशेषता के कारण कर्म के आस्रव में भी विशेषता उत्पन्न हो जाती है। वह साम्पराधिक कर्मास्रव तीव्र, तीव्रतर तीव्रतम, मन्द मन्दतर, मन्दतम, मध्यम, मध्यतर और मध्यतम समझना चाहिये । इस प्रकार की आसव संबन्धी विशेषता कर्मबन्ध में भी विशेषता होती है । કરણ દ્રવ્યના ભેદથી પણ કમ બન્ધમાં ભેદ થાય છે. જેમનુ મન ઘૃણાથી શૂન્ય છે, જે નિય છે, પાપથી ડરતાં નથી,તે પ્રાણિવધ કારે મૃષાવાદ અને સ્તેય (ચારી) વગેરેને પ્રત્સાહન આપનારી શ્રુતિનું નિર્માણ કરે છે. આ અધિકરણ દ્રવ્ય કલહના ઉત્કટ કારણે હાય છે. આવા ફાંસી જાળ આદિ અધિકરણેાની વિશેષતાથી કમઅન્યમાં પણ વિશેષતા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. આ રીતે પૂર્વકિત એગણુચાળીસ પ્રકારનાં કર્માંસવેામાં તીવ્રતા મન્ત્રતા, જ્ઞાતભાવ, અજ્ઞાતભાવ, વીયવિશેષ અને અધિકરણ વિશેષ થાય છે અને વિશેષના કારણે કર્યંના આત્સવમાં પણ વિશેષતા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે साम्परायिङ उभस्त्रिव तीव्र, तीव्रतर तीव्रतम, भन्छ, भन्हतर, भन्हतभ, મધ્યમ, મધ્યમતર અને મધ્યમતમ સમજવા જોઇએ. આ પ્રકારની સંખ'ધી વિશેષતાથી કર બન્યમાં પણ વિશેષતા થાય છે, સ્રવ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . तत्त्वार्थक्षत्र विशिष्टमाणिसंयोगाद् देशकालादिविविधवाह्य कारणवशाच्चेन्द्रियकपायाऽवतुक्रियाणां कुत्रचिदात्मनि तीवो भावो भवति सबलः परिणामविशेपो मवेत्तस्य वीवास्रबो भवति । तासामेवेन्द्रियकपायाऽवतक्रियाणां क्रोधाद्याभ्यन्तर कारण शाद् देशकालाधने वाह्यकारणवशाच्च कुत्रचिद् आत्मनि मन्दो भावो भवति निर्वल: खल्लु तत्रात्मनः परिणामविशेषो भवति । तस्य च मन्दासबो जायते, इन्द्रियरुपायाऽत्रत क्रिया प्रवृत्तस्य कस्यचिद् आत्मनो ज्ञातत्वं भवति, ज्ञातभावस्य खल्छ महानात्रवः स्यात् । एवं खल्लु इन्द्रिय कपायोऽवतक्रियाप्रवृत्तस्य कस्यचिदात्मनोऽज्ञातत्वं भवति, तस्याऽल्पाऽऽस्रवो भवति । एवं वीर्यविशेषे च इस प्रकार क्रोध, राग द्वेष से युक्त प्राणी के संयोग से और देश पाल आदि बाह्य कारणों के वश से इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियाओं का किसी आत्मा में तीव्रभाव होता है खपल परिणामविशेष होता है । ऐले जीव को तीव्र आस्रव होता है । उन्हीं इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियाओं का क्रोध आदि आन्तरिक कारणों से तथा देश काल आदि अनेक बाह्य कारणों से किसी आत्मा में मन्दभाव होता है अर्थात् आत्मा का निर्बल परिणाम होता है । ऐसे जीव को मन्द आस्रव होता है । इन्द्रिय, कषाय, अव्रत एवं क्रिया में प्रवृत्त किसी आत्मा का ज्ञातभाव होता है अर्थात् कोई जीष जान बूझकर किसी कार्य में प्रवृत्ति करता है। उसे महान् आस्रव होता है इसी प्रकार इन्द्रिय, कपाय, अत्रत तथा क्रियाओं में प्रवृत्त किसी आत्मा का अज्ञातभाव होता है अर्थात् किसी जीव के द्वारा अनजान में कोई प्रवृत्ति हो આમ, ક્રોધ, રાગ તેમજ શ્રેષથી યુક્ત પ્રાણીના સંગથી અને દેશકાળ આદિ બહ્ય કારણેના વશથી, ઈન્દ્રિય, કષાય, અવત, અને ક્રિયાઓને કોઈ આત્મામાં તીવ્રભાવ હોય છે–“સબળ પરિણામ વિશેષ થાય છે. આવા જીવોને તીવ્ર આઅવ થાય છે તે જ ઇન્દ્રિય, કષાય, અવ્રત અને ક્રિયાઓને ક્રોધ આદિ આન્તરિક કારણોથી તથા દેશ-કાળ આદિ અનેક બાહ્યા કારણેથી કઈ કેઈ આત્મામાં મન્દભાવ થાય છે, અર્થાત્ આત્માનું નિર્બળ પરિણામ હેયે છે. આવા જીને મન્દ આસ્રવ થાય છે. ઈન્દ્રિય, કષાય અવ્રત અને ક્રિયામાં પ્રવૃત્ત કે આત્માને જ્ઞાતભાવ થાય છે અર્થાત્ કે ઇ જીવ જાણી-સમજીને કેઈ કાર્યમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે તેને મહાન આસ્રવ થાય છે, એવી જ રીતે ઈનિદ્રય, કષાય, અત્રત તથા ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્ત કેઈ આત્માને અજ્ઞાતભાવ થાય છે અર્થાત્ કઈ જીવ દ્વારા અજાણતા જ કઈ પ્રવૃત્તિ થઈ જાય છે, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका नियुक्ति टीका अ.६ १.६ जी. कर्म. समानव विशेषाधिकोवेति ६३ रजर्षभनाराचसंहननमण्डितपुरुषेन्द्रियादेश पारे महानास स्यात् अन्य संहननसंयुक्तपुरुषस्य पापकरणेऽल्पाऽऽसवो भवति अल्पादपि अल्पतर आस्रवी बीर्यविशेषाद् भवति, एवमधिकरणविशेषे सति प्रावविशेषो भवति । यथा पस्यचिम्मोदकस्याऽनुभागो रसोऽतिमधुरः स्वल्पमधुरो वा भवति । कस्यचिद् वस्तुनः स्वादोऽति कटुकोवा, कस्यचित्पुनातिमधुरो नाऽप्यति टुको भवति भसादे गुणीकरणादीना च स एव मन्दमन्दतरमन्दतमत्वादि पदेशं च लभते। एवं कर्मणामपि शुभेऽशुमाऽऽत्मकानां तीव्र तीव्रतर तीवतम, मन्द मन्दतर मन्दतमत्वादिभेदभिन्नो धन्धो भवति । तत्र शुभकर्मणा मनुभागो रसो द्राक्षेक्षुक्षीरमाक्षिजाती है, उसे अल्प आस्रव होना है। इसी प्रकार वज्र-ऋषभनाच संहनन वाले पुरुष की इन्द्रिय आदि की जो प्रवृत्ति होती है, उससे महान् आस्रव होता है । अन्य संहननवाले पुरुष को पाप करने में अल्प आस्रव होता है। किसी अल्पतर वीर्यवाले को अल्पतर आस्रव होता है। इसी प्रकार अधिकरण की विशेषता से भी आस्रव में विशेषता होती है। जैसे किसी लड्ड का रस अतिमधुर होता है और किसी का स्वल्प मधुर होता है, किसी वस्तु का स्वाद अत्यन्त कटुक होता है, किसी का न अति मधुर और न अति कटु होता है, और उस अल्पता आदि में मन्दता, मन्दतरता, मन्दतमता आदि की अनेक श्रेणियां होती हैं, इसी प्रकार शुभ और अशुभ कमों का भी तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम मन्द, मन्दतर और मन्दतम आदि अनेक भेदों वाला बन्ध होता है। इन में તેને અલ્પ આઅવ થાય છે. આવી જ રીતે વજ–ત્રાષભ રાચસંહનનવાળા પુરૂષની ઈન્દ્રિય આદિની જે પ્રવૃત્તિ થાય છે તેથી મહાન આસ્રવ થાય છે. અન્ય સંહાનવાળા પુરૂષને પાપ કરવામાં અલપ આસવ થાય છે. કોઈ અલપતર વયવાળાને અહપતર આસ્રવ થાય છે. આ રીતે અધિકરણની વિશેષતાથી પણ આસવમાં વિશેષતા થાય છે. જેમ કે.ઈ લાડવાને રસ અતિ મધુર હોય છે અને કોઈને સ્વ મધુર હોય છે, કેઈ વસ્તુને સ્વાદ અત્યન્ત કડ હોય છે કેઈને ન અતિ મધુર અથવા ન અતિ કડવો હોય અને તે અલ્પતા આદિમાં મન્દતા. મદતરતા, મન્દતમતા આદિ અનેક શ્રેણિઓ હોય છે, એવી જ રીતે શુભ અને અશુભ કમેને પણ તીવ્ર, તીવ્રતર, તીવ્રતમ, મન્દ, મન્દતર, અને મન્દતમ આદિ અનેકભેદેવાળે બન્ધ થાય છે. આમાંથી શુભકમેને રસ(અનુભાગ) દ્રાક્ષ, શેરડી, દૂધ અથવા મધ જેવો મીઠો હોય છે જેના અનુભવથી Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ सूत्रे अतिमधुरो भवति यदनुभवेन जीवः सान्द्राऽऽनन्दसन्दोह तुन्दियन्तः परणो जायते । अशुभकर्मणां रसस्य निम्बकिरातविक्तादिवद् अतितरां तितो भवति यद्दतुभचेन जीवोsवर्णनीय व्याकुळतां भजते । तत्र तीव्र तीव्रतरस्वादि वोधनार्थ व हान्यो यथा इक्षुनिम्बयोरन्यतरस्य चतुः शेटकपरिमितो रसःकामाविरसो वर्तते तत्र वहितापद्वारोस्कालित उत्काथितो यथा शेटक चतु screen des franात्रोऽवशिष्यते तदाऽसौं 'तीव्र' इत्युच्यते, पुनरुकाल नेन शेटक द्विसयमानोऽवशिष्यते तदा 'तीव्रतर इत्यभिधीयते पुनरुत्कालनेनtreetsofशष्टे 'तीव्रतम' इति कथ्यते एवम् इक्ष निम्बयोरेव शेटकैकमात्री रसः earnferrer add as शेटकै जलमेलनेन 'मन्दरसः' इति व्यपदिश्यते, हे शुभ कर्मों का रस- (अनुभोग) द्राक्षा, इक्षु, दूध या मधु के समान मधुर होता है जिसके अनुभव से जीव को अत्यन्त आनन्द की प्राप्ति होती है । अशुभ कर्मों का रस नीम या चिरायते आदि के समान फड़वा होता है, जिसके अनुभव से जीव अवर्णनीय व्याकुलता का भागी होता है । कर्मफल के तीव्रता और तीव्रतरता आदि को समझाने के लिए यह उदाहरण दिया जाता है-ईख या नीम का चार सेर रस स्वभाविक रल है । इस रस को आग पर तपाया जाय और उबाला जाय जिससे कि वह चार सेर के स्थान पर तीन सेर रह जाय तो वह रस 'तीव्ररस' कहलाएगा | अगर उसे फिर उबाला जाय और वह दो सेर रह जाय तो तीननर' कहा जाएगा उसे फिर उबाला जाय और वह यदि एक सेर ही शेष रह जाय तो 'तीव्रतम' कहा जायगा । इसी प्रकार ईख या नीम का एक-एक सेर रस स्वाभाविक रस है ! उसमें एक-एक सेर पानी मिला देने पर मन्द रस कहा जायगा । ६क्ष " જીવને અત્યન્ત આનન્દની પ્રાપ્તિ થાય છે. અશુભ કર્મોને! રસ લીમડા અથવા કરીયાતા આદિની માફક કડવે! હાય છે જેના અનુવ્સથી જીવ અવણુ નીય વ્યાકુળતાને ભાગી થાય છે કમ ફળની તીવ્રતા અને તીવ્રતરતા વગેરેને સમજાવવા માટે આ ઉદાહરણ આપવામાં આવે છે-શેરડી અથવા લીમડાના ચાર શેર રસ સ્વાભાવિક રસ છે. આ રસને અગ્નિ ઉપર ગરમ કરામાં આવે અને ઉકાળવામાં આવે કે જેથી તે ચાર, શેરની જગ્યાએ ત્રણ શેર જ રહી જાય તા તે રસ ‘તીવ્રરસ’ કહેવાશે અગર આ રસને ક્ીવાર ઉકાળામાં આવે અને તે જે એક શેર જ ખાકી રહી જાય તા તીવ્રતમ’ કહેવાશે. આવી જ રીતે શેરડી અથવા ત્રીમડાને એક એક શેર રસ સ્વાભાવિક રસ છે. તેમાં એક શેર પાણી ભેળવવામાં આવે તે તે મન્દરસ કહેવાશે. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ सू.६ जी. कर्म. समानैव विशेषाधिकोवेति ६५ दिशेटकजलसंपोजनेन पुनः 'मन्दत्तरी रस इति व्यपदेशो भवति शेटकमयपरिमितजलमेलनेन भन्दतमो रस' इति व्यवहारो भवति, । एवं कर्मणां शुभा. , ऽशुभाना खल्वात्मपरिणतिविशेषात् तीव्र तीव्रतरत्वादितारतम्यं भवतीति भावः। 'उक्तश्च सूत्रकृताओं २ श्रुस्कन्धे ५ अध्ययने ६-७ गाथायाम्--- जे केइ खुद्दका पाणा अदुवा संति महालया। सरिसं तेहिं वेति असरिसंति व णो वए॥१॥ 'एएहिं दोहि ठाणेहि वयहारो ण विज्जह । एएहि दोहि ठाणेहि अणाघारंतु जाणए ॥२॥ इति । ये केऽपि क्षुद्रका प्राणा अथवा सन्ति महालया। सदृशं ते (रमिति असमिति या नो वदेत् ॥१॥ 'एताभ्यां द्वाभ्यां रथानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । एतागं हास्यां स्थानाभ्याम् । अनाचारन्तु जानीयात् ॥२॥ इति । अयमाशय:-ये केचन क्षुद्रकाः अल्पका समाः पाणिनः एकेन्द्रियद्वीन्द्रि__ यादयः पञ्चन्द्रिया वा सन्ति, अथवा महालपाः महाकायाः सन्ति, हस्तिप्रभृतयः प्राणिनः तेषाञ्च क्षुद्रकाणा मल्पकायानां कुन्थ्यादीनां महानालयः शरीररूपः उस में दो लेर जल मिला दिया जाय तो मन्दतर रस कहलाएगा। अगर तीन लेर जल मिला दिशा जाय तो वह इस सन्दतम हो जाएगा इसी प्रकार शुभ और अशुभ कमों के रस में आत्मा के परिणामों के भेद से तीव्रता, तीव्रतरता आदि होती हैं। सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के पांचवें अध्ययन की गाथा ६-७ में कहा है कोई-कोई एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि क्षुद प्राणी होते हैं और कोई. कोई होथी आदि महाकाय प्राणी होते हैं। उन क्षुद्र अर्थात् अल्पकाय कुंथ आदि प्राणियों का घात करने पर और हाथी आदि महाकाय તેમાં બશેરપાણે ઉમેરવામાં આવે તે તે મન્દર રસ કહેવાશે અને જે ત્રણ શેરપાણી ઉમેરવામાં આવે તે તે રસ મન્દતમ થઈ જાશે બરોબર આવી જ રીતે શુભ અને અશુભ કર્મોના રસમાં આત્માના પરિણામના ભેદથી તીવ્રતા, તીવ્રતરતા આદિ થાય છે. સૂત્રકૃતાંગ સૂત્રના દ્વિતીય શ્રતસ્કંધના પાંચમા અધ્યયનની ગાથા ૬-૭ માં કહ્યું છે કેઈ—કોઈ એકેન્દ્રિય, દ્વિન્દ્રીય આદિ ક્ષુદ્ર પ્રણે ય છે અને કેકેઈ હાથી આદિ વિશાળકાય પ્રાણી હોય છે તે ક્ષુદ્ર અછત અપકાય કંથવા આદિ પ્રાણી હિંસા કરવાથી અને હાથી આદિ મહાકાય પ્રાણીઓને ઘાત त०९ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाचे आभयो थेषां ते महालया हस्ति प्रभृतयः लेपाञ्च हनने सदृशं रमिति, बजकर्म विरोधलक्षणं चा वैरै तत्सदृशं समान भवतीति सर्व जातूना मल्पप्रदेशत्वाद् इत्येक कान्तेन नो यदेत् । एवं तेषां खलु अल्पकायमहाकायानां व्यापादनेऽसदृश विसः शे कर्मवन्धी विरोधो वा भवति, इन्द्रियकायनिज्ञानानां विसरशत्वात्, सत्यापि देशापरले विवाह र मित्येवमपि नो वदेत् । यदि हि वध्यापेक्ष एवं कर्मबन्धः स्यात् तदा तबदएकायस्वमहामारा साध्य वैपन्याकर्मबन्धस्यापि सादृश्य भमाश्थं वा वस्तुं शक्येत । किन्तु नहि क्षेत्रलं तदशादेव कर्मवन्धो भवति, अपितु ध्यापादनस्यात्मनोऽवसायविशेषवशादपि कर्मवन्धः । तथा च तीबाध्यवसायिनो ध्यापादकस्याऽऽत्मनोऽल्पकायसत्वव्यापादनेऽपि महद्वैरं महाकर्मबन्धो भवति, अवकायस्य पुनरमध्यवसायिन आत्मनो महाशायसव्यापादनेऽपि स्वल्पं वैरम् प्राणियों का घात करने पर समान ही वैर अर्थात् कर्मयन्ध या विरोध होता है, क्योंकि इसी आत्मा समान रूप ले असंख्योत प्रदेशी हैकिसी भी जीया के प्रदेशों से न्यूनाधितो नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। इसके विपरीत अल्पशाय और महाकाय जीदों का घात करने पर दिलश ही हर्म गन्ध होता है, क्योंकि उसके इन्द्रियादि माणों में न्यूनाधिकता होती है, सच प्राणियों के प्राण लमान संख्यक नहीं होते और सच की चेतना एक-ली व्यक्त नहीं होती ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। तार्य यह है कि अल्पकाब और महाकाय जीवों की हिंसा से सम्मान ही मन होता है या अलमान ही शर्मन्ध होता है, यह दोनों एकान्त समीचीन नहीं हैं। नेश कारतम्घ एकान्ततः बध्य जीवों की अपेक्षा से नहीं होता, किन्तु घातक जीव के अध्यवसायकी तीव्रता और मन्दना को भी उल में अपेक्षा रहती है। कोई जीव भले ही કરવાથી સરખાં જ વર અર્થાત્, કમબન્મ અથવા વિરોધ થાય છે, કારણ કે બધાં જ આમાથી સમાન રૂપથી અસંખ્યાત પ્રદેશ છે–કઈ પણ જીવની પ્રદેશોમાં નાધિ તા નથી, એવું કહેવું ન જોઈએ. જેનાથી વિપરીત અપકાય અને મહાકાય જીવોની હિંસા કરવાથી—વિસદૃશ જ કર્મબન્ધ થાય છે કારણે કે તેમના ઈન્દ્રિયદિ પ્રાણામાં ન્યુનાધિકતા હોય છે, બધાં પ્રાણિઓના પ્રાણ સમાન સંખ્યક હોતાં નથી અને બધાની ચેતના એકસરખી વ્યકત થતી નથી એમ પણ ન કહેવું જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે અલ કાય અને મહાકાય જીવોની હિંસાથી સરખી રીતે જ કર્મ બંધાય છે. આ બંને એકાન્ત સમીચીન નથી કર્મબન્ધનું તારતમ્ય એકાત્તત વધ્ય જીવોની અપેક્ષાથી હતું થી, પરંતુ ઘાતક જીવના અધ્યવસાયની તીવ્રતા અને મન્દતાનું પણ તેમાં Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ६ रू. ६ जी. कर्म. समानैव विशेषाधिकोवेति readers fत भावः । अत एवाऽऽभ्या मनन्तरोक्ताभ्यां स्थानाभ्या मल्पकार्यत्व महाकायत्वाभ्या मनयोग स्थानयोरल्पकायमहाकार्यव्यापादनापादितकर्मबन्धस्य सत्वविदशत्वपोव्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकत्वान्न युज्यते । तथाहि न वध्यस्य सत्वचि सदृशस्वश्चैवमेव कर्मवन्धस्य कारणम्, अपितु घातकस्य तीव्रभावो भावो ज्ञात मावोऽज्ञातभावो महावीर्यव मलवीर्यत्वमधिकरणत्वञ्च कर्मबन्ध सत्वाऽसात्वयोः प्रयोजकमिति तदेवं वध्यघातको विशेषात्कर्मवन्ध तारतम्यं भवतीत्येवं व्यवस्थिते केवलं वयमेवापेक्ष्य कर्मबन्ध अल्पकाघ और अल्पप्राण हो किन्तु घातक जीव यदि अत्यन्त तीव्र कषाय परिणाम से उसका हरून करता है तो महान् कर्मबन्ध होता है । इसके विपरीत भले ही कोई जीव महाकाय हो, अगर घातक अनिच्छापूर्वक या मन्दकषायपूर्वक उसका घात करता है तो उसे अल्प कर्म बन्ध होता है । अतएव पूर्णेक दोनों एकान्तमय नवन लम्बीचीन नहीं हैं, अर्थात् अल्पकाय और महाकाय जीवों की हिंसा से कर्मबंध लबान ही होता है अथवा असमान ही होता है, यह कथन युक्तिसंगत नहीं है । + अभिप्राय यह है कि मात्र वध्य जीव की सहयता और विसह शता ही कर्मन्ध का कारण नहीं है किन्तु घातक जीव का तीव्र भाव, मन्दभाव ज्ञातभाव और अज्ञातभाव, महावीर्यत्व एवं अल्पवीर्यत्व तथा अधिकरणों की असमानता भी कर्मबन्ध के तारतम्य का कारण है। इस स्पष्टीकरण से यह निर्विवाद है कि कर्मबन्ध में जो न्यूनाधिकता होती है, वह वध्य और घातक दोनों की विशेषता पर निर्भर करती है, ऐसी स्थिति में केवल बध्य जीव की अपेक्षा से ही कर्मबन्ध में અપેક્ષા રહે છે કેાઈ જીવ ભલે અલ્પકાય અને અલ્પપ્રાણ હાય પરન્તુ ઘાતક જીત્ર જો અત્યન્ત તીવ્ર કષાય પરિણામથી તેના ઘાત કરે છે ત્યારે તેને મહાન્ કમ બન્ધ થાય છે. આનાથી વિપરીત ભલે કેઈ જીવ મહાકાય હાય અગર ઘાતક અનિચ્છાપૂર્વક અથવા મન્ત્રષાયપૂર્વક તેના ઘાત કરે છે ત્યારે તેને અલ્પ ક અન્ય થાય છે. આથી પૂર્વાંકત અને એકાન્તમય વચન સમીચીન નથી, અર્થાત્ અપકાય અને મહાકાય જીવેાની હિ'સાથી કમન્ય સરખાં જ થાય છે અથવા અસમાન જ હાય છે આ વિધાન યુકિત સંગત નથી. અભિપ્રાય એ છે કે એક માત્ર વધ્યું જીવની સદૃશતા અને વિસદૃશતા જ કર્મ બન્યમાં કાણું નથી પરન્તુ ઘાતક જીવના તીવ્રભાવ અન્તભાવ જ્ઞાતભાવ, અને અજ્ઞાતભાવ મહાવીય ત્ર અને અપવીત્વ તથા અધિકરણેાની અસમાનતા પણુ ક બન્યના તારતમ્યતા કારણેા છે. આ સ્વષ્ટીકરણથી એ નિવિવાદ છે કે Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ तत्वार्थ सदृशत्वाऽसहशत्व व्यवहारो न युक्त इति । एक मनयोरेन स्थानयोः प्रवृत्तस्याऽना. चारं विजानीयात् । तथाहि-यद् जोवसाम्यात्कम वधसदृशत्न मुच्यते, तन्न युक्तम् किन्तु तीव्रादिसाय सव्यपेक्षस्यैव वधस्य कर्मवन्धेऽभ्युपेतुं युक्तः। यथाहि, आगममध्यपेक्षस्य सध्या क्रियां कुर्वतोऽपि यद्यपि आतुरविपत्तिर्भवति । तथा च सत्र न वैद्यस्य वैरानुषङ्गो भवति, भावदोषाऽभावात् अन्यस्य पुनः सर्पबुद्धया रज्जुमपि तो कर्मबन्धो भवति भाददोषसभावात् भावदोषरहितस्य तु न समानता घा अलमानता मानना और कहना उचित नहीं है । जो इन, दोनों एकान्त स्थानों में प्रवृत्ति करता है अर्थात् कर्मबन्ध को एकान्ततः लमान या अलमान ही कहता है, वह अनाचार में प्रवृत्ति करता है। सब जीवों को एकान्हरूप से स्वमाल मानकर उनकी हिंसा से समान ही कर्मबन्ध मानना योग्य नहीं है किन्तु तीव्र भाव मन्दभाव आदि की विशेषता से भी निक्षन्ध में विशेषता मानना चाहिए। . कोई चिशिल्लक आयुर्वेद शास्त्र के अनुकूल समीचीन शल्यक्रिया था अन्य चिकित्सा कर रहा हो फिर भी रोगी की मृत्यु हो जाय तो वैद्य उसके निमित्तले हिला का भागी नहीं होता, क्योंकि उसकी भावना में दोष नहीं है दूसरा कोई पुरुष सर्प लमझ कर रज्जु पर प्रहार करता है और उसके दो खंड कर देना है तो लपला घात न होने કર્મબન્યમાં જે ન્યૂનાધિકતા હોય છે તે વધ્ય અને ઘાતક બંનેની વિશેષતા પર નિર્ભર રહે છે, તેવી સ્થિતિમાં કેવળ વધ્યજીવની અપેક્ષાથી જ કર્મબન્ધમાં સમાનતા અથવા અસમાનતા માનવી અગર કહેવી એ ગ્ય નથી જે આ બંને એકાન્ત સ્થાનમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે. અર્થાત્ કર્મબન્ધને એકાન્તતા , સમાન અથવા અસમાન જ કહે છે તે અનાચારમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે. બધા ને એકાન્ત રૂપથી સરખા ગણીને તેમની હિંસાથી સરખાં જ કર્મબન્ધ માનવા યે ગ્ય નથી કિન્તુ તીવ્રભાવ મન્દભાવ આદિની વિશેષતાથી પણ કર્મબન્ધમાં વિશેષતા સ્વીકારવી જોઈએ. કઈ ચિકિત્સક આયુર્વેદશાસ્ત્રને અનુકૂળ સમીચીન શસ્ત્રક્રિયા અથવા અન્ય ચિકિત્સા કરી રહ્યો હોય, તો પણ રેગીનું મરણ થઈ જાય તે વૈદ્ય તેને નિમિત્તથી હિંસાનો ભાગી બનતું નથી કારણ કે તેની ભાવનામાં દેષ નથી બીજો કે ઈ પુરૂષ સાપ માનીને દેરડાં ઉપર પ્રહાર કરે છે અને તેના બે ટૂકડા કરી નાખે છે. આ પ્રસંગમાં સાપની હિંસા ન થવા છતાં પણ તે હિંસાને પાપને ભાગી થાય છે. કારણ કે તેના ભાવમાં દેષ વિદ્યમાન છે. ભાવ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ६ सू. ७ अधिकरणस्वरूपम् ६ कर्म इति । ख्यानकं चचापिनि पाए' इत्यदि तण्डुल मत्स्यासुपनीतमेन वदेदिध वध्य- धानकमत्वाऽपेक्षया सदृशमिति, अन्यथा - पुनरनाचारः स्यादिति भावः ||६| " मूलम् - जीवाजीवा आसवाहिगरणं ॥ ७॥ छाया - 'जीवाऽजीवा आस्रवाधिकरणम् -' ७|| तत्त्वार्थदीपिका - पूर्ववत्रे-आसनविशेष हेतुत्वेनाऽधिकरणमुक्तम्, सम्पतिभेदमतिपादनपूर्वकमधिकरणरू ज्ञानार्थमाह 'जीवाजीवा आसवाहि पर भी वह हिंसा के पाप का भागी होता है, क्योंकि उसके भावों में दोष दिन हैं। भाव दोष से जो सर्वेश रहित है, उसे कर्मबन्ध नहीं होता । आनन में कहा है कोई मुनि ईर्ष्या समिति से गमन कर रहा हो और उसने पैर ऊपर उठाया हो, इसी बीच अकस्मात् कोई वेईन्द्रिय आदि प्राणी वहां आ जाय और पैर के नीचे दब जाय तो भी उस मुनि को तनिमिक हिंसा का दोष नहीं लगता। इसके विपरीत तंडुल मत्स्य का दृष्टान्त भी प्रसिद्ध है। अतएव वध्यजीव और घातक जीव दोनों की अपेक्षा से कर्म बन्धकी न्यूनाधिकता मानना चाहिए । एकान्त मानने पर अनाचार होता है | ६ | सूत्रार्थ - 'जीवाऽजीवा आसवा' इत्यादि । जीव और अजीब आस्रव के अभिकरण हैं ||७|| तत्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि अधिकरण आस्रव की विशेषता का कारण है । अब उसके भेदों का દોષથી જે સથા રહિત છે તેને ક્રન્ધ થતા નથી આગમમાં કહ્યુ` છેકાઇ ક્રુતિ ઈર્ષ્યાસમિતિથી જઈ રહ્યા હાય અને તેમણે પત્ર ઉપર લીધા હાય એ અરસામાં અકસ્માત કઈ એઈન્દ્રિય આદિ પ્રાણી ત્યાં આવી ચઢે અને તેમના પગ તળે કચડાઈ જાય તેા પણ તે મુનિરાજને તે નિમિત્તે હિંસાના દોષ લાગતા નથી. આનાથી વિપરીત તે'દુલ મત્સ્યનુ દૃષ્ટાંત પણ પ્રસિદ્ધ છે. આથી વયજીવ અને ઘાતકજીવ-ખનેની અપેક્ષ થી અન્યની ન્યૂનાધિકતા સમજવી–માનવી જોઈએ. એકાન્ત માનાથી અનાચાર થાય છે પ્રા 'जीवाऽजीवा आसवाहिगरणं' छत्याहि સૂત્રા—જીવ અને અજીવ આસત્રના અધિકરણ છે. ાણા તત્ત્વાર્થદીપિકા—પૂર્વ સૂત્રમાં એ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ કે અધિ કરણુ એ આસવની વિશેષતાનુ કારણ છે. હવે તેના ભેદનુ નિરૂપણુ કરીને Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्रे ' इति । जीना अजीवाश्थ पूर्वोक्तस्वरूपा माखवाधिकरणं भवन्ति तत्राऽधि foodsस्मिन्नर्था इत्यधिकरणं द्रव्य सुच्यते । तच्च द्रव्यं वििधम्, धर्मास्तिकायाsधर्माsस्तिकायाऽऽकाशास्तिकाय- कालः पुद्गलास्तिकाय - जीवास्तिकाय भे दात् । एवञ्च यद् द्रव्यमाश्रित्याऽऽस्रव उत्पद्यते, तद् द्रव्यमधिकरण मित्युच्यते, यद्यपि सर्वोऽवि शुभाशुभकाया दियोगलक्षण आस्रव आत्मनो जीवस्यैव रुञ्जायते तथापि यमान मुख्यभूतो जीव उत्पादयति तस्याssवस्याऽधिकरणमाश्रयो जीवद्रव्यं भवति । यः पुनरास्रवोऽजीव द्रव्यमाश्रित्य जीवस्योत्पद्यते, तस्याऽऽस्रवEastuकरणमाश्रयोऽजीव द्रव्य शुच्यते । अत एवात्राssवस्याऽधिकरणं जीवा S विरूपण कर के स्वरूप का कथन करते हैं जीब और अजीब, जिनका स्वरूप पहले कहा जा चुका है, अब के अधिकरण होते हैं । जिल में अर्थ अधिकृत किये जाएं उस द्रव्य को अधिकरण कहते हैं । द्रव्य के छह भेद है - (१) वर्मास्ति काय (२) अधर्मास्तिकाय (३) आकाशास्ति काय (४) पुद्गलास्तिकाय (५) जीवास्तिकाय और (६) काल | इस प्रकार जिस द्रव्य के आश्रय से आस्रव उत्पन्न होता है उसे अधिकरण कहते हैं । यद्यपि समस्त शुभाशुभ काययोग आदि रूप अस्तर जीव को ही होते है, तथापि जिल आस्रव को जीव प्रधान होकर उत्पन्न करता है, उस आस्रव का अधिकरण जीव द्रव्य होता है और जो आसव अजीव द्रव्य के आश्रय से जीव को उत्पन्न होता है, उस आस्रव का अधिकरण अजीव द्रव्य कहा जाता है । इसी कारण यहां जीव और अजीव दोनों को आस्रव का अधिकरण कहा है। किसी न किसी पर्याय સ્વરૂપનું કથન કરીએ છીએ જીવ અને અજીવ, જેમનું રવરૂપ પહેલા કહેવાઈ ગયુ છે, આવના અધિકરણ હાય છે જેમાં ૠ અધિકૃત કરી શકાય તે દ્રવ્યને અધિકરણ छे. द्रव्यनाले छे - ( १ ) धर्मास्तिय (२) अधर्मास्तिय ( 3 ) भाईशास्तिाय (४) आज (4) वास्तिङाय भने (१) युङ्‌गवास्तिङय आा शेते જે દ્રવ્યના આશ્રયથી આસવ ઉત્પન્ન થાય છે તેને અધિક્રરણ કહે છે. જો કે સમસ્ત શુભાશુભ કાયાગ આદિ રૂપે આસવ જીવને જ થાય છે તે પણુ જે આસ્રવને જીવ પ્રધાન થઈને ઉત્પન્ન કરે છે તે આસ્રવનુ અધિકરણુ જીવદ્રવ્ય હાય છે અને જે આસવ અજીવદ્રવ્યના આશ્રયથી જીવને ઉત્ત્પન્ન થાય છે, તે આશ્રવનુ અધિકરણ અજીવદ્રવ્ય કહેવાય છે. આ કારણથી જ મહી જીવ તથા અજીવ એ મનેને આસ્રવના અધિકરણ કહેવામાં આવ્યા Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ सू.७ अधिकरणस्वरूपम् अजीवा इत्युक्तम् । तत्र येन केनचिल् पर्यायेण विशिष्ट द्रव्य मास्त्रस्याऽधिकरणं भवति न तु सामान्य मिति बयितुं पर्यायाणा मालशाधिकरणत्व ज्ञापनाय सूत्रे 'जीवा अजीधा-इति बहुवचनं कृतमिति भावः। ॥७॥ तवार्थनियुक्ति:-पूर्व सूत्रे साम्परायिक कर्मासबविशेष हेतुत्वेन तीन मन्दादयो भाषा:-धीर्याधिकरण विशेषाश्च पतिपातिता, तत्र-तीनमन्दादयो भासः प्रकर्षाप्रकर्षादिलक्षणा लोकपसिद्धत्वात्स्तु प्रतीता, वीर्यञ्च-जोदस्य वीर्यान्तराय कर्मणः क्षयोपशमायोजनः क्षयप्रयोजनो या भावः क्षायोपशमिकः क्षायिकश्च पूर्वमुक्तमायएवेति, अथ किन्तावदधिकरणस्वरूप-३ कतिविधश्च तत् खल्वधिकरण? से युक्त होकर ही द्रव्य आस्रव का अधिकरण होता है, सामान्य द्रव्य नहीं। (क्योंकि पर्याय विहीन सामान्य द्रव्य का अस्तित्व ही संभव नहीं है) इस तथ्य को सूचित करने के किए, पर्याप आनव के अधिकरण हैं, यह प्रक्षा करने के लिए सम्म 'जीवाजीचा' इस प्रकार बहुवचन का प्रयोग किया गया है |७|| तत्यार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में बतलाया गया है कि तीव्रभाव, मन्दभाव आदि, तथा वीर्य विशेष और अधिकरण विशेष साम्प. रायिक आत्र में विशेषता उत्पन्न करने के हेतु हैं । इन में से तीव्रभाव, मन्दभाध आदि प्रबर्ष एवं अपहर्ष रूप होते है और लोक में प्रसिद्ध होने के कारण स्तुप्रतीत है। बीर्यान्तराम कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाला क्षायोपशमिक वीर्य और क्षय से उत्पन्न होनेवाला क्षायिक वीर्य प्रायः पहले ही कहा जा चुका है। किन्तु अधिकरण क्या है उसके कितने भेद हैं ? इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर कहते हैंછે. કેઈ ન કેઈ પર્યાયથી ચુકત થઈને જ દ્રવ્ય આસવનું અધિકરણ થાય છે સામાન્ય દ્રવ્ય નહીં. (કારણ કે પર્યાવિહીન સામાન્ય દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ જે શકય નથી). આ તથ્યને સૂચિત કરવાના આશયેપર્યાય આસ્ત્રના અધિકરણ છે, એ પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રમાં “જીવાજીવા એ મુજબ બહુવચનને પ્રયોગ કરવામાં અાવ્યું છે કેવા તત્ત્વાનિયુક્તિ-પૂર્વસૂત્રમાં બતાવવામાં આવ્યું કે તીવ્રભાવ, મન્દભાવ આદિ તથા વીર્યવિશેષ તથા અધિકરણ વિશેષ સામ્પરાયિક આસ્સવમાં વિશેષતા ઉત્પન્ન કરવાના કારણરૂપ હોય છે. આમાંથી તીવ્રભાવ, મન્દભાવ આદિ પ્રકર્ષ અને અપકર્ષરૂપ હોય છે તેમજ લેકમાં પ્રસિદ્ધ હોવાના કારણે સુપ્રતીત છે વીતરાયકર્મના ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થનારા ક્ષાપશમિક વીર્ય અને ક્ષયથી ઉત્પન્ન થનારું ક્ષાયિક વીર્ય પાયા પહેલા જ કહેવાઈ ગયા છે પરત Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ मित्याकांक्षायामाह-'जीवा अजीवा मालवाहिरण' इति । जीवा जीशायालयाधिकरणं भवति, त्राऽधिनियतेऽस्मिन्नर्थी इत्यधिकरणं द्रमः मित्युच्यते, तच्च न्यं पश्धि धर्माहितज्ञायाऽधारितकायाऽऽकाशास्तिकायक्षुधलास्तिकाय-जीवास्तिकाय फालभेदात् । तन्न यद् द्रव्य मानिस्यास्रव उत्पचते, साव्यमधिरण शुच्यते, यापि-सर्वोऽपि शुभाशुभलक्षण आस्रव आत्मनो जीवहक संबायरो-तथापि-प आसको मुख्यभूतेन जीवेनोत्पद्यते, तस्यास्त्रवस्गऽ.. धिकरण माश्यो जीव द्रव्यं भवति । यः पुनराखवोऽजीव द्रव्य माश्रित्य जीवस्यो त्पते, लस्याखवस्याधिकरण माश्रयोऽजीव द्रव्य मुच्यते, तथाच-ते खल जीचा अजीवा वा तीव्रमन्दादिभावेन परिणममानस्यात्मनो विषयमुपेताः सन्तः पूर्वोक्तानां द्विचत्वारिंशत्साम्परायिककर्मास्वविशेषाणां हेतवो भवन्तीति जीवानां . जीव और अजीच आस्रव के अधिकरण हैं। जिस में अर्थ अधिकृत किये जाएं वह द्रव्य अधिकरण कहलाता है द्रव्य के छह भेद हैं-(१) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय (३) आकाशस्तिकाय (४) पुद्गलाहितकाय (५) जीवास्तिकाय और (६) काल । इनमें से जिस द्रव्य को आश्रित करके आस्त्रव की उत्पत्ति होती है, वह द्रव्य अधिकरण कहलाता है। यद्यपि सभी प्रकार का आनछ, चाहे वह शुभ हो या अशुभ, जीण को ही उत्पन्न होता है, किन्तु जो मानव जीव की मुख्यता ले उत्पन्न होता है, उसका अधिक्षरण जीव कहलाता है और जो आस्त्रय अजीव द्रव्य की मुख्यता से उत्पन्न होता है उसका अधिकरण अजीव द्रव्य सहलाता है। तीन था सन्द आदि भावों के रूप में परिणत होनेवाले आत्मा के विषय बनने वाले वे जीव या अजीव पूर्वोक्त बयालील प्रकार के साम्परायिक आस्रव के અધિકરણ શું છે અને તેના કેટલાં ભેદ છે? આ પ્રકારની જિજ્ઞાસા થવાથી ४हीसे छीमे જીવ અને અજીવ આસવના અધિકરણ છે. જેમાં અર્થ અધિકૃત કરવામાં આવે તે દ્રવ્ય અધિકરણ કહેવાય છે. દ્રવ્યના છ ભેદ છે-(૧) ધમાંस्तिय (२) मधमास्तिय (3) साहिताय (४) ४ (५) वास्तिप्राय અને (૬) પુદ્ગલ સ્તિકાય આમાંથી જે દ્રવ્યને આશ્રિત કરીને અશ્વિની ઉત્પત્તિ થાય છે, તે દ્રવ્ય અધિકરણ કહેવાય છે. જો કે બધાં પ્રકારને આશ્વર પછી ભલે તે શુભ હોય અથવા અશુભ જીવને જ ઉત્પન્ન થાય છે, પરંતુ જે અ સ્ત્રવ જીવની મુખ્યતાથી ઉત્પન્ન થાય છે તેનું અધિકરણ છવદ્રવ્ય કહેવાય છે, તીવ્ર અગર મન્દ આદિ ભાવના રૂપમાં પરિણત થનારા આત્માના Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ स.७ अधिकरणस्वरूपम् दुर्गतिगमननिमित्तत्वादधिकरणशब्दवाच्या अरगन्तव्याः। आत्मपरिणतिरूपस्याऽऽसवस्य प्रयोगलक्षणस्य वाह्यश्चेतनोऽचेतनो वा पदार्थः उत्पत्ती निमित भववीति हिंसादिपरिणामो जीवाधिकरणमजीवाधिकरणश्च भवति, तत्र जीवपर्यायाणामजीवपर्यायाणां चास्त्राधिकरणत्व ज्ञापयितु येन केनचित्पर्यायेण विशिष्ट द्रव्य मानवाधिकरणं भवति-नतु-सामान्यं द्रव्य मित्यतः सूत्रे 'जीवाजीया' इत्येवं बहुवचनमुक्तम् । तत्राधिकरणं द्विविधम्, द्रव्याधिकरणं-भावाधिकरणञ्च । तत्र जीवविषयम् अजीवविषयञ्चतद् द्वयं द्रव्याधिकरण-भावाधिकरणञ्च बोध्यम् तंत्र-द्रवपमेवाधिकरण द्रव्याधिकरणम्, एवं-भाव एकाधिकरणं भादाधिकरण कारण होते हैं। अतएव जीवों के दुर्गतिगमन के निमित्त होने के कारण 'अधिकरण' शब्द द्वारा कहे जाते हैं। आत्मा की परिणति रूप एवं प्रयोग लक्षण वाले आस्रव को उत्पत्ति में बाहरी चेतन अथवा अचेतन पदार्थ निमित्त पनते हैं । इस कारण हिंसा आदि परिणाम जीवाधिकरण और अजीयाधिकरण होता है । जीवद्रव्य या अजीव द्रव्य किसी न किसी पर्याय से युक्त होकर ही आस्रव के अधिकरण बनते हैं, पर्याय से रहिल द्रव्य सामान्य अधिकरण नहीं बन सकता, यह सूचित करने के लिए सूत्र में 'जीवाजीया' इस प्रकार बहुवचन का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक अधिकरण के दो-दो भेद हैं-द्रव्याधिकरण और भायाधि. करण । द्रव्यरूप अधिकरण द्रव्याधिकरण कहलाता है औ भावरूप 'વિષય બનનારા તે જીવ અથવા અજીવ પૂર્વોકત બેંતાળીસ પ્રકારના સામ્પરાયિક આસવના કારણે હોય છે આથી જીના દુર્ગતિગમનના નિમિત્ત હોવાથી તેને “અધિકરણ શબ્દ દ્વારા કહેવામાં આવે છે. આત્માની પરિણતિરૂપ અને પ્રયોગ લક્ષણવાળા આસવની ઉત્પત્તિમાં બ હ ચેતન અથવા અચેતન અથવા પદાર્થ નિમિત્ત બને છે. આથી હિંસા વગેરે પરિણામ જીવાધિકરણ અને અછવાધિકરણ હેય છે જીવદ્રવ્ય અથવા અછવદ્રવ્ય કેઈન કેઈ પર્યાયથી ચુકત થઈને જ આસવના અધિકારણ બને છે, પર્યાયથી રહિત દ્રવ્ય સામાન્ય અધિકારણ બની શકતું નથી એવું સૂચિત કરવા માટે સૂત્રમાં “જીવા જીવા” એ રીતે બહુવચનને પ્રયોગ કરાચે છે. - प्रत्येः मधि४२ना - लेह छ-द्रव्याधि४२६५ मन मावाधि. કરણ દ્રવ્યરૂપ અધિકારણું દ્રવ્યાધિકરણ કહેવાય છે. અને ભાવરૂપ અધિકરણને ભાવાધિકરણ કહે છે. છેદન-ભેદન વિગેરેનું કારણું શાસ્ત્ર દિવ્યરૂપ આસ્રવાધિકરણ છે. તેના દશ ભેદ છે. જે રસી, વાંસળે અથવા त० १० Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वास मुल्यते। तुम रूपमा राधिकरणं छेदन-भेदनादिसाधन मृतं प्रखं दसविधम्, छियते थेन परशुगली व्यघनादिना तत्-छेदनम्, एवं-भियते ये दरादिना तद्-भेदनम्, एवं-नेटन, विशसनो-द्वन्धन, यात्राभिघाताहिक भर सेयम् । द्रव्य शस्त्रं दशविधमेय, परश्वध-दहन-विष लवन स्नेह धाराऽग्लानि अनुपयुक्तस्य च मनोकायाखया, एतेन खलु दयाधिकरणेन जीवाजीक विपरीकृत्य सापरायिक कर्म बध्यते । तदाहि-पाणिपादशिरोऽधरादीनां परमर धादिना छेदः, सचेतनाला सग्निना दहनम्, विषेण हननम्, लवणेन-पृथिवीकाया: धुपघाता, स्लेहेन धृव तैलादिना चोपघातस्तेषाम्, क्षारेण सकल त्वङमांस मजा अधिकरण को साक्षाधिकरण कहते हैं। छेदन-भेदन आदि का कारण शास्त्र द्रव्यरूप आमचाधिकरण है। उसके दशः भेद हैं। फरसा, दहला या घन आदि के द्वारा किली चीज को छेदा जाय उसे छेदन पाहते हैं। और मुद्गर आदि के द्वारा भेदन किया जाय उसे भेदन कहते हैं । इली प्रकार प्रोटन-जिसके द्वारा तोडा जाय, विशसनजिल्लले नष्ट किया जाय, उन्धन-जिसे फांसी लगाई जाय या घांधा जाय तथा यंत्राभिघात-यंत्र के द्वारा आघात करना आदि भी समझ लेना चाहिए। द्रव्यशन के दश भेद हैं-परशु, दहन (आग) विष, लवण स्नेह (घी-तेल आदि चिकने पदार्थ) क्षार अम्ल, (खटाई) और उपयोगशून्य जीप के मन, बचन तथा कोथ। इस द्रव्याधिकरण से जीव और मजी को विषय करके साम्परायिक कर्म का बन्ध होता है । जैसे हाथ, पैर, निर, अधर (होठ) आदि को परश आदि से काटना-छेदन फरना, सचेतनों को आग से जलाना, विष से हनन करना, लवण હડા વગેરેની મદદથી કોઈ ચીજને છેરવામાં આવે તેને છેદન કહે છે અને મુગર આદિ દ્વારા લોદન કરવામાં આવે તેને ભેદન કહે છે. આવી જ રીતે ત્રટન-જેના વડે તેડવામાં આવે, વિશસન–જેના વડે નાશ કરાય ઉદ્બન જેનાથી ફેંકી લગાવવામાં આવે અથવા બાંધવામાં આવે તથા યંત્રાભિઘાત યંત્ર વડે આપઘાત કરે વગેરે પણ સમજી લેવા જોઈએ. द्रव्यशन श से छे-५२१, हलन (भाग), विष, सवय,. २ने (धी-तेरा वगैरे थिए। पहा.), क्षार, अब (IN) भने 6५याग શુન્ય જીવના મન વચન તથા કાય. આ દ્રવ્યાધિકરણથી જીવ અને અજીવને વિષય બનાવીને સામ્પરાયિક કર્મબંધાય છે. જેમ કે-હાથ, પગ, માથું હોઠ આદિને ફરસી વગેરેથી કાપવા-દેવા સચેતનને અગ્નિ વડે સળગાવવા, ઝેર આપીને અન્ન આણ, લવણથી પૃથ્વીકાય આદિને ઉપઘાત કર, ઘી Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका- नियुक्ति टीका अ. ६ सू. ७ अधिकरणस्वरूपम् दिकर्तनम्, अम्लेन चाप्पार नालादिना पृथिवी का विकाघुरघातः, अनुपयुक्तस्य च कायवाङ्मनांसियां चेष्टा मभिनिर्वर्तयन्ति तथाभूतया चेष्टया साम्परायिक कर्म प्रध्यते । भावरूपमात्र नाधिकरणं पुनरष्टोत्तरशतविधं वर्तते, भादस्तावदात्मन स्वीवादिपरिणामः तच्चाष्टोत्तरशतं भावाधिकरण मग्रिम सूत्रे वक्ष्यते । तथा च साम्परायिककर्मा विशेषाधिकरणं जीवा अजीवाचेति बोध्यम् । उक्तश्चव्याख्यामज्ञप्ती भगवतीसूत्रे १६ शतके १ उद्देशके 'जीवे अधिकरणं' इति जीवोsधिकरणम्, इति । स्थानाङ्गे २ स्थाने १ उद्देशके ६० सूत्रे चोक्तस् एवं अजीवमवि' एवम् अजीवोऽपि इति ॥७॥ से पृथ्वीकाय आदि का उपघात करना, घी-तेल : आदि चिकनाई से किसी जीव का घात करना, क्षार से सारी चमडी मांस मज्जा आदि को काटना, कांजी आदि की खटाई से पृथ्वीकाय आदि का उपघात करना, और उपयोग रहित प्राणी की मन, वचन और काय की विविध प्रकार की प्रवृत्तियां होना, इन सब कारणों से साम्बरायिक कर्म का बन्ध होता है । भोवाधिकरण के एक सौ आठ भेद हैं। आत्मा का जो तीव्र या मन्द परिणाम होता है वह भावाधिकरण है । उसके एक सौ आठ भेदों का कथन अगले सूत्र में किया जाएगा । इस प्रकार जीव और अजीव सोम्पराधिक कर्म के आस्रव के अधिकरण होते हैं । भगवतीसूत्र के सोलहवें शतक के प्रथम उद्देशक में कहा है- 'जीव अधिकरण है ।' स्थानांगसूत्र के द्वितीय स्थान के प्रथम उद्देशक के ६० वे सूत्र में भी कहा है- 'इसी प्रकार अजीव भी ।।७તેલ આદિ ચિકાશથી કાઈ જીવની હિં'સા કરી નાખથી ક્ષારથી આખી ચામડી, માંસ, મજ્જા આદિને કાપવા, કાંજી આદિની ખટાશથી પૃથ્વીકાય આદિના ઉપપાત કરવા અને ઉપયૈાગ રહિત પ્રાણીની મન વચન અને યાયની વિવિધ પ્રકારની પ્રવૃત્તિએ કરવી, આ મધાં કારણેાથી સામ્પરાયિક ક ધાય છે ભાવાધિકરણના એકસેઆઠ ભેદ છે. માને જે તીવ્ર અથવા અન્ય પરિણામ થાય છે તે ભાવાધિકરણ છે, તેના એકસાઆઠ ભેદનું કથન હવે પછીના સૂત્રમાં કરવામાં આવશે. આવી રીતે જીવ અને અજીવ સામ્પરાયિક કર્મના આસવના અધિકરણ હાય છે. ભગવતીસૂત્રના સેાળમાં શતકના પ્રથમ ઉદ્દેશકમાં કહેવામાં આવ્યુ છે-‘જીવ અધિકરણ છે.' સ્થાનાંગ સૂત્રના દ્વિતીય સ્થાનના પ્રથમ ઉદ્દેશકના ૬૦માં સૂત્રમાં પશુ કહ્યુ` છે-‘આવી જ રીતે અજીવ પણુ' un Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ... __ तत्वार्थसूत्र मूलम् - पढम रंभाइ बिलेतेहिं तेरसविहं ॥८॥ छाया--'मथम संरस्मादि विशेपै स्त्रयोदशविधम् ॥८॥ लावार्थदीपिका-पूर्व तावत्साम्परायिककर्मास्रबहेतुतया जीवाधिकरपम् अजीवाधिकरणश्च प्रतिपादितम्, तत्र जीवाधिकरणभेदप्रतिपादनार्थमाहपढ लरंभाइ विलेलेह तेरखविहं' इवि प्रथम तावत्-साम्परायिककर्मासव तुभूतं जीवाधिकरणं संरम्भादिविशेपैः-संरम्भ, समारम्माऽऽम्भयोगकृतकारिता. सुमतकषायविशेषैत्रयोदशविधं भवति । लन-संरम्भ, समारम्भा, ऽऽरम्मास्त्रया योगास्त्रयः कृतकारितानुसतास्त्रयः क्रोध मान माया लोभाख्याश्चत्वारः कषाया श्वेति सर्वयेलनेन त्रयोदशविधैः संरम्भादिभिः जीवाधिकरणं त्रयोदशविधं भवति । सूत्रार्थ --'एहसं लंरंभाइ' इत्यादि पहला जीवाधिकरण संरम्भ आदि के भेद से तेरह प्रकार का है। तरवार्थदीपिका-पहले प्रतिपादन किया गया है कि साम्पराधिक फर्म ने शास्त्र के कारण होने से अधिकरण के दो भेद हैं-जीवाधिफरण और अजीचाधिकरण । अब जीवाधिकरण के भेदों का निरूपण करते हैं लाम्पथिक कर्म के आस्रव का कारण जीवाधिकरण संरंभ, समाः रंभ, आरंभ, योग, कृत, कारित, अनुमत तथा कषाय के भेद से तेरह प्रकार का है। संरंभ, समारंभ और आरंम-ये तीन, तीन योग एवं कृत, झारित और अनुमत-ये तीन, क्रोध मान माया लोभ ये चार कषाय मिलकर तेरह होते हैं। यही जीवाधिकरण के तेरह भेद हैं। हिंसा 'पढन संरभाइविसेसेहि' इत्यादि સૂવાથ–પકેલું જીવાધિકરણ, સંરમ્ભક આદિના ભેદથી તેર પ્રકારનું છે તત્વાર્થદીપિકા–પહેલાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવી ગયું કે સામ્પરાયિક કર્મના આમ્રવના કારણ હેવાથી અધિકરણના બે ભેદ છે-જીવાધિકરણ અને અછવાધિકરણ હવે જીવાધિકરણના ભેદનું નિરૂપણ કરીએ છીએ સામ્પર યિક કર્મના આર્સવના કારણ છવાધિકરણ સંરભ સમારંભ, આરંભ, રોગ, કૃત, કારિત, અનુમાન તથા કષ યના ભેદથી તેર પ્રકારના છે. સંરંભ, સમારંભ અને આરંભએ ત્રણ, કુત, કારિત અને અનુમત એ ત્રણ તથા ત્રણ ગ, અને ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ એ ચાર કષાય, મળીને તેર થાય છે. આજ છવાધિકરણના તેર ભેદ છે હિંસા આદિમાં પ્રયત્નની શરૂઆત Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ रु. ८ जीयाधिकरणभेदनिरूपणम् तत्र प्राणातिपातादिषु प्रयत्ना वेशः - सरस्सा साधन समास्यासकरण समारमा भारम्नस्तु प्रक्रमः प्राणातिपातनिष्पत्ति हन्यते । उक्तश्च भगरवीसने ३ मारा के ३ उद्देशके १५३ सूत्रे वृत्तौ । संकप्पो संरंगो परितापको सो समारंभो। आरंभो उद्दचओ लवनयाणं विलुद्धाणं ॥१।। इति, 'सङ्कल्पः संस्मः परितापको भवेत्समारम्भः। भारम्भउपद्रवः सर्वनयानां विशुद्धानाम् ॥१॥ इति । योगाश्च-मनोयोग वाचोयोग काययोगाश्च त्रयः, स्वातन्य प्रतिपय कृत ग्रहणं वोध्यम् । कारिताभिधानश्च परप्रयोगापेक्षम्, अनुमतशब्दश्च प्रयोजकस्य आदि में प्रयत्न की शुरुआत करना संरंभ कहलाता है, उसके लिए साधन जुटाना समारंभ कहलाता है और हिला करना आरंभ कहलाता है। भगवतीसूत्र के तीसरे शतक के तीसरे उद्देशक में कहा है-हिंसा आदि करने का संकल्प होना संरंस है, परिताप उत्पन्न करने वाला समारंभ है । और उपद्रव (घात) हो जाला आरंभ है। यह सभी विशुद्ध नयों का अभिप्राय है ॥१॥ योग तीन प्रकार के होते हैं मनोयोग, वचनयोग और काययोग क्रिया में स्वतंत्रता सूचित करने के लिए 'कृ' शब्द का ग्रहण किया है अर्थात् स्वयं कोई क्रिया करना 'कृन' है। दूसरे से क्रिया करवाना 'कारित है। 'अनुमत' शब्द प्रयोजन के मानल परिणाम का सूचक है, अर्थात् दुसरा कोई हिंसा आदि क्रिया करता है, तो उसका अनुमोदन करना अनुमत कहलाता है। क्रोध, मान, माधा और लोभ, ये चार कषाय हैं। इन सब के भेद से जीवाधिकरण के तेरह भेद होते हैं। કરવી સંરંભ કહેવાય છે, તેના માટે સાધન લગાડવું સમારંભ કહેવાય છે. અને હિંસા કરવી આરંભ કહેવાય છે. ભગવતી સૂત્રના ત્રીજા શતકના ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં કહેવામાં આવ્યું છે–હિંસા આદિ કરવાનો સંકલ્પ થ સંરંભ છે, પરિતાપ ઉત્પન કરનાર સમારંભ છે અને ઉપદ્રવ (ઘાત) થઈ જાય આરંભ છે આ બધાં વિશુદ્ધ અને અભિપ્રાય છે ? ન ગ ત્રણ પ્રકારના હોય છે–મનેયેગ, વચન,ગ અને કાયયેગ, ક્રિયામાં સ્વતંત્રતા સૂચિત કરવા માટે કૃત” શબ્દને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે અર્થાત્ સ્વયં કોઈ ‘કિયા કરવી “કૃત” છે. બીજા પાસે કિયા કરાવવી “કાતિ છે “અનુમત” શબ્દ પ્રયોજકને માનસ પરિણામનું સૂચક છે અર્થાત્ બીજો કે હિંસા આદિ ક્રિયા કરતો હોય તો તેનું અનુમોદન કરવું “અનુમતે કહેવાય છે ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ કષાય છે. આ બધાંના ભેદથી જીવાધિકરણના તેર ભેદ થાય છે. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - . . . 'तत्त्वार्थसर्व मानसपरिणामप्रदर्शनार्थः, कषायाश्च क्रोध मान माया लोमा तेषां विशेष निर्जीवाधिकरणं त्रयोदशविधं भवति । तत्र क्रोधकृतमनोयोगसंरम्भा, मानकृत मनोयोग संरम्भः, मायाकृत मनोयोगसंरम्भा, लोभकृतमनोयोग संरम्भश्च । एवं क्रोध कारिवमनोयोग संरम्भ मानकारित मनोयोग संरम्मः मायाकारित मनोयोगसंरम्मा लोभकारितमनोयोगसंरम्भः, क्रोधानुमतमनोयोगसंरम्भः, मानानु. मतमनोयोगसंरम्भः, पायानुमतमनोयोगसंरम्भा, लोभानुमतमनोयोग संरम्भश्चेल्येवं द्वादशविधो मनोयोगसंरम्भः। एवम्-वग्योग संहम्मः, काययोगसंरम्भवाऽपि प्रत्येकं द्वादश द्वादश-भेदेन पत्रिंशभेदाः संरम्भा भवन्ति । एवं-समा. एम्मा पारम्भाश्चाऽपि प्रत्येकं षत्रिंशभेदा भवन्ति सर्वे च सम्मिलिता जीवा धिकरणास्त्रबविशेपा अष्टोत्तरशतसंख्पकाः भवन्ति । एवमनन्तानुवन्ध्यमत्या. ख्यानसंज्वलनकपायभेदकृताऽत्रान्तरभेदा बहवो भवन्ति ॥८॥ ' क्रोधकमा मनोयोगसंरंभ, मानकुनमनोयोगसंरंभ मायाकृनमनोयोग संरंभ, लोभनमनोयोग सरंभ, इसी प्रकार क्रोधकारितमनोयोगसंरंभ, मानकारितलनोशेगसंरंभ, मायाकारितमनोयोगसंरंभ, लोभकारितमनोयोगसंरंभ क्रोधानुमतमनोयोगसंरंभ मानानुमतमनोयोगसंरंभ, मायानुमतमनोयोगसंरंभ, लोभानुमतमनोयोगसंरभ, इस प्रकार बारह प्रकार का संरभ है। इसी प्रकार वचनयोगसंरंभ और काययोगसंरंभ के भी घारह-बारह भेद होने से संरभ के छत्तीस भेद हो जाते है जैसे संरंभ के छत्तीस भेद बताये गये हैं उसी प्रकार समारंभ और आरम्भ के भी छत्तीस-छत्तीस भेद जानने चाहिए। तीनों के छत्तीस-छत्तीस भेद मिलकर एक सौ आठ (१०८) जीवाधिकरण के भेद होते हैं। अगर इन भेदों में अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण 1 ક્રોધકૃતમને સંરભ, માનકૃતમનેગસંરંભ, માયાકૃતમને ગમંર ભ, લેકૃતમનેગસંરંભ, એવી જ રીતે ક્રોધકારિતમોગસંરંભ, માનકારિતમને સંભ, માયાકારિતમને ગસંરંભ, લેભકારિતમાનસંરંભ, ક્રોધાનુમત માગસંરંભ માનાનુમત માગસંરંભ માયાનુમતમોગસંરંભ, લેભાનુમતમને સંભ, આ રીતે બાર પ્રકારના સંરંભ છે આજ પ્રમાણે વચનયોગસંરંભ અને કાયમસંરંભના પણ બાર–બાર ભેદ હોવાથી સંરંભના છત્રીશ ભેદ થઈ જાય છે. જેવી રીતે સંરંભના છત્રીશ ભેદ દર્શાવવામાં આવ્યા છે તેવી રીતે સમારંભ તથા આરંભના પણ છત્રીશછત્રીશ ભેદ જાણવા જોઈએ. ત્રણેના છત્રીસ-છત્રીસ ભેદે મળીને એક18 (१०८) वाधि४२ना से थाय छे. અગર આ ભેદમાં અનન્તાનુબંધી, અપ્રત્યાખ્યાન, પ્રત્યાખ્યાનાવરણ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिका-नियुक्ति टोका अ.६ सु.८ जीवाधिकरणभेदनिरूपणम् : तवानियुक्ति:-पूर्वसूत्रे साम्पराविककर्मनन्वहेतुभूतानन्त्र विशेष पनकतया वीव्रभाव मन्दभावादयो बीविशेषाधिकरणविशेषाय प्रतिपादिशा माधिकरणशब्देन जीरूपाधिकरणम् अणीवरूपाधिकरणञ्च गृह्यते, तत्र अधर्म: वायद जीवाऽधिकरणभेदं प्रतिपादयितुमाह-'पढमं संरंगाइविसेसेहि हिरण विह' इति ! मथमन्तायद् नीवाधिकरणं संरम्भादिविशेपैः संरम्भ, समा स्माऽऽरभ्भमनोगादियोग काकारितामा क्रोधानमावालोगरूप काय विशेष स्त्रयोदशविध भवति । तत्र गमवावद संक्षेपतो. जीव रूप मानाधिकरण विविधं भवति संरम्भसमारम्भाऽऽरम्भ भेदात् । तत्र माणातिपानादि सङ्कल्पासंज्वलन के भेद से क्रोध आदि के भेदों की गणना की जाय तो बहुत से अवान्तर भेद होते हैं । ८॥ . । तत्यार्थनियुक्ति-पूर्वहन में साम्पराविक शर्मबन्ध के कारणभूत भास्त्रव में विशेषता उत्पन्न करने वाले तीव्र भाय, मन्दभाव वीर्य: विशेष और अधिकरण का प्रतिपादन किया गया। यहां अधिकरण शब्द से जीवाधिकरण और अजीबाधिकरण का ग्रहण होता है। इन में से यहां जीवाधिकरण के भेदों का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं प्रथम अर्थात् जीवाधिकरण संरंभ आदि के भेद थे लेरह प्रकार का हैं, यथा-संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ, मनोयोग, वचनयोग, काययोग कृत (स्वयं करना) कारित (दूसरे से रवाना) और अनुमत (दूसरे. के किये का अनुमोदन करना) क्रोध मान, माया और लोभ। .. , संक्षेप से जीवाधिकरण के तीन भेद है संरस्म, समारम्भ और સંજવલર આદિના ભેદથી ક્રોધ આદિના ભેદની ગણતરી કરવામાં આવે તે ઘણાબધાં અવાક્તર ભેદે થાય છે ૮ . * તસ્વાર્થનિયંતિ–પૂર્વસૂત્રમાં સામ્પરાયિક કર્મબંધના કારણભૂત સવમાં વિશેષતા ઉત્પન કરવાવાળા તીવ્રભાવ, મદભાવ, વીર્યવિશેષ તથા અધિકરણનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું અત્રે અધિકરણ શબ્દથી જીવાધિકરણ અને અછવાધિકરણ સમજવાના છે. આમાંથી અહીં જીવાધિકરણના ભેદનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહીએ છીએ પ્રથમ અર્થાત જીવાધિકરણ, સંરંભ આદિના ભેદથી તેર પ્રકારના છે. म :-स२, समारभ, मास, मनाया, क्यनयान, ययो, zi (જાતે કરવું) કારિત (બીજા પાસે કરાવવું) તથા અનુમત (બીજા દ્વારા કરાતોને मनुभावन मा५), अध, भान, माया भने बाल. * સંક્ષેપથી જીવાધિકરણના ત્રણ ભેદ છે-સંરંભ સમારંભ, અને આરંભ. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mA तस्वार्थस देश संभा, प्राणालिपालादि साधनसन्निपाराजनितपरितापनादिलक्षण: असारमा, माणातिषाचाहि किया निर्बुसि रामश्रोच्यते, एतत् त्रिविधमपि मीचाधिकरणं प्रत्येक मनोवाशाययोगविशेषात् विविध भवति । मनोयोगसंरम्भाषित कारण १ वारयोरयाधिः रणम् २ एवं काययोग संरंम्भाधिकरणम् ३ एवं'मनोयोगसमारमाधिकरणम् १ बचनयोगसमारम्भाधिकरणम् २, काययोगसमा रख्याधिकरणस् ३ एवं-सनोयोगारम्भाधिकरणम् १ वाग्योगारम्माधिकरणम् २ सायोपारम्माधिकरणञ्चति रीत्या नवविधं भवति, एतन्नवविधमपि जीवरूपं तापशायिका कर्माखाधिकरणं पुनः कृत-कारिताऽनुमतविशेषात् प्रत्येक अविध्य यापलं सद साविंशतिविध भवति । तथाहि-कृतमनः संरम्माधिकरणम् कारितनःसंरम्भाधिकरणम्, अनुमतमनःसंरम्भाधिकरणम्, कृतवाक्संम्मा. भारम्भ। हिला आदि करने का संकल्प उत्पन होना संरम्भ कहलाता है, हिंसा आदि के साधनों को जुटाना समारम्भ है और प्राणानिपात निया फारना आरम्ल है। ___यह तीनों प्रकार का जीवाधिकरण मनयोग, वचनयोग और काययोग के भेद से तीन-तीन प्रकार का है-मनोयोगसंरम्भाधिकरण . पचनयोगसंरम्भाधिकरण और फाययोग संरम्भाधिकरण । इसी प्रकार मनोयोगसमारम्भाधिकरण बचनयोगसमारम्भाधिकरण और काय योगसमारंभाधिकरण, मनोयोगभारंभाधिकरण, वचनयोगआरंभाषिफरण और काययोगआरंभाधिकरण इस प्रकार सब मिलकर नौ भेद होते हैं। यह नौ प्रकार का अधिकरण कृत कारित और अनुमत के खेद से तीन-तीन प्रकार का होने से सत्ताईस प्रकार का हो जाता हैं। जैसे-कृनमन:संरंभाधिकरण, कारितमनः संरभाधिकरण, अनुमतमनः હિંસા આદિ કરવાનો સંકલ્પ ઉત્પન્ન થ સંરંભ કહેવાય છે. હિંસા આદિના સાધનને ઉપયોગ કરો સમારંભ છે અને પ્રાણાતિપાત ક્રિયા કરવી આરંભ છે. ., આ ત્રણે પ્રકારના જીવાધિકરણ મને ગ વચનગ તથા કાગના દથી ત્રણ-ત્રણ પ્રકારના હોય છે–મને ચોગસંરંભાધિકરણ, વચન સંરભાધિકરણ અને કાગસંરંભાધિકરણ, આવી જ રીતે મને સમાન રંભાધિકરણ, વચનગસમારંભાધિકરણ અને કાયાગસમારંભાધિકરણ મ ગઆરંભાધિકરણ, વચનચાગ-આરંભાધિકરણ કાયાગ-આરંભાધિકરણ આ રીતે બધાં મળીને નવ ભેદ થાય છે. આ નવ પ્રકારના અધિકરણ કૃત, કારિત અને અનુમતાના ભેદથી ત્રણ-ત્રણ પ્રકારના હોય છે આથી સત્તાવીશ પ્રકારના થઈ જાય છે જેમ કે-કમનઃ સંરંભાધિકરણ, કારિતમાનઃ સંરંભાકિરણ . અનુમતના સંરંભાધિકરણ, કૃતવચનસંરંભાધિકરણ, કારિતવચન Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mens दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ सू. ८ जीवाधिकरणभेदनिरूपणम् ॥ धिकरणम्, कारितवाकसंरम्माधिकरणम्, अनुमवचारसरम्भाधिकरणम् कृतकाय মাখি, কাহিৰাহঃমাঘিমু গলাযহাফিজু इत्येवं संराजीनाधिकरणं नवविधर, एवं-समारभेऽपि नवविधा, आरम्भे च मवविधमसेयम् । तत्र-कृतवचनं स्वरमा फर्तप्रतिपादनार्थ मुक्तम्, शारिता. भिधानञ्च प्रयोज्यपरतन्त्रता प्रदर्शनार्थ सुक्तम्, अनुमतबचनन्तु-प्रयोजकस्य खानसपरिणामप्रदर्शनार्थमवसेयम् । एवञ्च-मनसा, वचसा, कायेन च प्राणातिपाताबर्थ संरम्भं करोति-संरम्भ कारयति-संत मनुमोदते च, एवं-समारम्भ करोति-कारयति-कुर्वन्तमनुमोदते च, एवम्- आरम्भं करोति-कारयति-कुर्वन्तसंरभाधिकरण, कृतवचनरंभाधिकरण, कारिलचनसंरंभाधिकरण, अनुमतवचनतरंभाधिकरण, कृनकायसंरं प्राधिकरण, कारिलकाय. संरंभाधिकरण अनुमतकायसंमाधिकरण। हल प्रकार संरंभजीमाधिकरण नौ प्रकार का है, आरंभाधिकरण भी नौ प्रकार का है। ___ यहां कृत शब्द स्वतन्त्र कर्ता का प्रतिपादन करने के लिए है, कारित शब्द प्रयोज्य की परतंत्रता प्रकट करने के लिए है और अनु. मत शब्द प्रयोजनके मानसिक परिणामको प्रदर्शित करने के लिए है। इस प्रकार सन ले, बचन से और फाय ले प्राणातिपात आदि के संरंभ करता है और संस्म करवाता है और संरभ का अनुमोदन करता है । इली प्रकार हमारा करता है, लमान करवाता है और समारंभ का अनुमोदन करता है। इसी प्रकार आरंभ करतो. સંરંભાધિકરણ, અનુમતવચનસંરંભાધિકરણ, કૃતકાયસંરંભાધિકરણ કારિતકાયસંરંભાધિકરણ, અનુમતકાયસંરંભાધિકરણ આવી રીતે સંરંભ જીવાધિકરણ નવ પ્રકારના છે. સમારંભાધિકરણ પણ નવ પ્રકારના છે અને આરંભાધિકરણ पशु नारना छे. અહીં કૃત શબ્દ સ્વતંત્ર કર્તાનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહેલ છે, કારિત શબ્દ પ્રયોજનની પરતંત્રતા પ્રગટ કરવા માટે છે અને અનુમત્ત શબ્દ પ્રયોજકના માનસિક પરિણામને પ્રદર્શિત કરવા માટે છે. આવી રીતે નથી, વચનથી અને કાયથી પ્રાણાતિપાત આદિ માટે સંરંભ કરે છે. સંતા કરાવે છે અને સંરંભને રૂડું જાણે છે. આવી જ રીતે સમારંભ કરે છે, સમારંભ કરાવે છે અને સમારંભનું અનુમોદન કરે છે, આરંભ કરે છે, આરંભ કરાવે છે અને આરંભની અનુમોદના કરે છે. त०११ IRMARTPHITHHTHHA PRIYHIKAR Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे मनुमोदते चेत्येवं विशति विधं जीवाधिकरणं भवति । सच्चापि-सप्तविंशति विधजीपाधिकरणं क्रोध, मान, माया, लोम रूए सपायचतुष्टयभेदात् प्रत्येक "चतुर्विध भवतीति सर्वसम्मेललेलाऽष्टोत्तरशतं जीवरूपं साम्पराविककर्मास्ववा. विसरणं भवति । तद्यथा-क्रोध तमनःसंरस्मा यानकृतमनः संरम्भः मायाकृत भनरक्षः लोअकुतमनारमा ४ एवं-क्रोधकारितमना संरम्भः मानभारितमनः संहा मायाकारित मनालमा लोमकारितमनः संरम्भः-८ शोध लुगोदित मनः संरक्षण मानानुमोदितमनः संरस्मा मायानुमोदित मन: संरशः लोमानुमोदिनसनः संरस्मश्च १२ एवं क्रोधकृतवाक् संरम्भः मानकृत पास रस्सः मायाकृतवाक्संरम्भः लोभकृतवासरस्मः १६ क्रोधकारितवाक् आरंभ करवाता है और आरंभ की अनुमोदन करता है। यह मसाईल प्रकार का जीवाधिकार ण हुआ इस सत्ताईस प्रकार के जीमाधिकरण में रहे प्रत्येक के क्रोध, साना गाया और लोभ रूप चार कपायों के लेद से चार-चार भेद होते है। इन समस्त भेदों को सम्मिलित करने पर जीवाधिकरण के एक ही आठ भेद होते हैं। एक सौ साठ भेदों का ब्यौरा इस प्रकार हैक्रोधकृतमनासंरंभ, मानकृतमनारंभ. माथाकृतम् नारंभ लोस्कृतान सरंभ, (४) इसी प्रकार शोधारितमान सरंभ, खानकारितमनार भ, मायाकारितमाम संभा, लोभकारितालावरम (८) शोधालुमोदितननःसंरंभ मानानुमोदितबारंभ मायालुमोदितनारंभ और लोभानुमोदिनमाल ल (१२) इसी कार क्रोधकृतवचनसंरंभ, मानकृतवचन स, मायालयाचनलारा, लोभकृतवचना (१६) शोधकारितઆ સત્તાવીશ પ્રકારનું જીવાધિકરણ થયું. આ સત્તાવીશ પ્રકારના જીવાધિકરણમાથી પ્રત્યેકના ક્રોધ, માન, માયા અને લાલ રૂપ ચાર કષાના ભેદથી ચાર-ચાર ભેદ થાય છે. આ સઘળા ભેદનો સરવાળો કરીએ તે જીવાધિકરણના એક આઠ ભેદ થાય છે. એકસો આઠ ભેદોનું વિવરણ આ પ્રકારે છે–ફોધકૃતમનઃસંરંભ માનકૃતમનઃ स, सायनसनःसन, मतमन:सल (४) मावी ४ शोध रितમનઃસંરંભ, માનકારિતમાનસંરંભ, સાયકરિતમનઃસંરંભ, લાભકારિત મન: સંરંભ (૮) ક્રોધાદિતમનઃસંરંભ, માનાનુદિતમનઃસંરંભ, માયાનુદિત મનસંરંભ, અને લેભાનુદિતમનઃસંરંભ (૧૨) એવી જ રીતે કોપકૃતવચનસંરંભ, માનકૃતવચનસંરંભ માયાકૃતવચનસંરંભ, અને લેભકૃતવચનસંરંભ (૧૬) ફોધાકારિતવચનસંરંભ, માસ્ક રિતવચનસંરંભ, માયાકારિતવચનસંરંભ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ जू. ८ जीवाधिकरणदनिरूपणम् संरम्भः मानकारित वासरमा मायाकारितवाससम्म लोसकारियाक्संरम्भः २० क्रोधानुमख वाक्संरम्मः मानानुमतवाक्संरम्भः मायानुमतवाक्संरभ्भ:लोभानुमतवाक्क्संरम्मः २४ एवं-क्रोधकृतकायसंरम्भः मानकुतझायसंरकमा मायाकृतकायसारम्भः लोमचनकायसरमा २८ क्रोधकारितकायसंरकमा मानकारितकायसंरम्भः मायाकारितकायसंरम्मः लोभकारितकायसंरकमः ३२ क्रोधनुमतकायसंरम्भः पालानुमोदितकायसंरूमा मायानुमोदितकारसंरम्भः लोभानुमोदितकाय संररू.३६ इत्येवं पट्त्रिंशद्विध जीवाधिकरणं भवति। एवं समारम्भाऽऽरम्पयोरपि प्रत्येक पत्रिंशत् पत्रिंदैत्ष्टोत्तरशतं जीवरुपं साम्परायिककर्मास्रवविशेषाधिकरणं बोध्यम् । तत्र पशिल्मकारक संस्माधिकरणं षत्रिंशत्यकारक समारमाधिकरणं पवित्प्रकारकमारम्भाधिकरणवाऽन सेयम् । वचनसंरंभ मालकारितवचनसंरभ मायाकारितवचनसंर, लोलकारित वचसंरंभ (२०) क्रोधानुमतपचनसंभ, मानादुम्सलवाचनहरल, माधा. नुमतवचन रन, लोमागुमनामचनतर म (२४) ऋधिकृत्वज्ञायतरंभ, मानकायसंरभ भाचोकृतमाचलरस, लोमकृतक्षायरिंग, (२८) क्रोधकारितकायरल, सानारिलायररंभ, लामाकारितारंच, लोभकारितकायसंरंभ (३२) क्रोधानुमतमाघसरल, बालाजुमलाय. संरंभ, मायानुमोदित्व काय रंग, लोभानुमोदितकावरंभ (३६) इत प्रकार जीवाधिकरण के रंभ की अपेक्षा ले छत्तील भेद हैं । लमारंभ और आरंभ के भी हसी प्रकार छन्तीस-छतील लेदों की गणना करने पर ३६+३६+३६=१०८ भेद जीवाधिकरण के होते हैं। यहां নী মাহ কা লাহু, হ্নী সাহ দো জুষিদ্ধ અને લેભકારિતવચનસંરંભ (૨૦) કો ધાતુમતવચનસંરંભ સાનાનુમતવચનસંરભ,માયાનુમતવચનસંરંભ, લેભાનુમતવચનસંરંભ (૨૪) ક્રોધકૃતકાયસંરંભ માનકૃતકાયસંરંભ માયાકૃતકાયસંરંભ અને લેભકૃતકાયસંરંભ (૨૮) કોકારિતકાયસંરભ, માનકારિતકાયસંરંભ, માયાકારિતકાયસંરંભ અને લેભકારિતકાયસંરંભ (૩૨) ક્રોધાનુમતકાયસંરંભ, માતાનુમતકાયસંરંભ, માયાનુમતકાયસંરંભ, લોભાનુમતકાયસંરંભ (૩૬) આ રીતે જ રાધિકરણના સંરંભની અપેક્ષાથી છત્રીસ ભેદ છે. સમારંભ તથા આરંભના પણ આ જ પ્રકારે છત્રીશ– છત્રીશ महोनी शुतही ४२वाथी ३६+38+3=१०८ ले धि४२ना हाय छे. અહીં છત્રીશ પ્રકારના સંરંભાધિકરણ, છત્રીશપ્રકારના સમારંભાધિકરણ અને છત્રીસ પ્રકારના આરંભાધિકરણ છે. આમાંથી મનોગના સંરંભના બાર ભેદ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRESEN LAINEKHAfsanita-marima तत्वार्थसंत्र समाऽपि-नोयोगेन संरकमेण द्वादश, बायोगेन संरम्भेण द्वादश, काशयोगेन संरलोण द्वादश, कृतकारिताऽनुमतभेदेन, क्रोधमानमायालोभरूप कपायचतुष्टयभेदेन चलल्यन्ते, इति द्वादशत्रिकं पत्रिंशद्विधं भवति । एवं समारम्भेणापि मनोयोगेन छादश, बायोगेन द्वादश, काययोगेन द्वादश, कृतकारितानुमतभेदेन, क्रोधमान मायालोमरू पायचतुष्ट र भेदेन च लस्यन्ते, इत्यत्रापि द्वादशत्रिकं पशिद्विधं भवति। एदम्-अरम्भेणापि मलोयोगेन द्वादश, वाग्योगेन द्वादश काययोगेन च द्वादश ककागितानुमतभेदेन क्रोधमानमायालोमरूप कषायचतुष्टयभेदेन च लम्पते। इत्येतद् द्वादशत्रिकमपि षट्त्रिंशद्धिं भवतीति सर्वमष्टोत्तरशतं और छत्तील मन्नार का आरंभाविकरण है। इन में भी मनोयोग से खरंभ के कारह भेद है, वचनयोग से संरंभ के बारह भेद हैं, काययोग ले रंग के पारह भेद हैं । ये बारह भेद कृत, झारित और अनुमत के भेद तथा क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय के भेद से धनते हैं । बारह तिथा मिलकर छत्तीस होते हैं । इसी प्रकार समारंभ के मनोयोग ले बारह, वचनयोग से बारह, काययोग से बारह भेद हैं जो कृत कारित और अनुमा के भेद ले तथा क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों के भेद ले बनते हैं। यहां भी वारह त्रिक (लिया) मिलकर छन्तील हो जाते हैं । इसी प्रकार आरंभ के भी मनोयोग से यारह, वचनयोग ले बारह कायद्योग ले बारह भेद हैं जो कृत, कारित और अनुमोदना के भेद से तथा क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों से भेद से होते हैं। ये बारह त्रिक मिलकर भी छत्तील हो जाते हैं। सब मिलकर जीवरूप साम्पशयिक कर्मास्रवा છે, વચનગના સંરંભના પણ ૧૨ બાર ભેદ છે. તથા કાયોગના સંરંભના બાર ભેદ છે. આ બાર ભેદ કૃતકારિત અને અનુમતના ભેદથી તથા બાર ભેદ ક્રોધ માન માયા અને લેભ રૂપ કષાયના ભેદથી થાય છે. બાર ગુણ્યા ત્રણ બરાબર છત્રીશ થાય છે. એવી જ રીતે સમારંભના મ ગથી બાર, વચન ગથી બાર, કાયાગથી બાર ભેદ છે જે કુતકારિત અને અનુમતના ભેદથી તથા ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ રૂપ ચાર કપના ભેદથી થાય છેઅહીં પણ બાર ત્રિક (૧૨૪૩) મળીને છત્રીશ થઈ જાય છે. એવી જ રીતે આરંભના પણ મનેયોગથી બાર વચનયોગથી બાર, કાયયોગથી બાર ભેદ છે જે કૃત કારિત અને અનુમતના ભેદથી તથા ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ રૂપ ચાર કષાયના ભેદથી થાય છે. આ બાર ત્રિક મળીને પણ છત્રીશ થઈ જાય છે. બધાં મળીને જીવ રૂપ સામ્પરાયિક કમસૂત્રાધિકરણના એકસે આઠ ભેદ સમજવા જોઈએ. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ६ . ८ जीवाधिकरणमेदनिरूपणम् जीप साशविक काल माविकरणममन्तव्यम् । अनन्तामध्य-पत्याख्यान प्रत्याख्यानसंज्वलनकषायसेदकृताऽमान्तरभेद बहुविध खलु सामरायिक कर्मास्त्रवाणां जीवाधिकरणं भवतीति बोध्यम् । तथा च क्रोधादिकपाया ऽञ्जनरशीनाशक स्वयं करणपरिणतो सत्यां कारिताऽनुमतिपरिणामद्वारा च पाणातिपातादि सङ्कल्पपरितापला व्यापत्त्यः साम्परायिकरूपसंसारपरिभ्रमणकारक कर्मबन्ध हेतवो भवन्ति तयाचोक्तम् । -- सङ्कल्पः संरम्भः परितापना भवेत्समाररूमः । पाणिवध स्वारस्म स्त्रिविधी योगल्ततो ज्ञेयः ॥१॥ इति, कपाशादियोगाश्च व्यस्ताः समस्ताश्च कर्मबन्धहरायो द्रष्टव्याः। तत्रधिधारण के एक लो आठ खेद जाने चाहिए। इन एकलौ आठ लेदों में क्रोध मान, माया और लोभ की सामान्य रूप एक एक भेद् सी विवक्षा की गई है। इसके बदले यदि अनन्तानुरंधी क्रोध, अप्रत्याख्यानी क्र.क्ष, प्रत्याख्यानावरण क्रोध और संज्वलन क्रेध, हली प्रकार लान आदि के अथान्तर भेदों की शिक्षा की जाय तो जीवाविवरण के अन्य भी बालाले भेद हो सकते हैं। यह सभी पाय वापराविक फर्ष पन्ध के कारण हैं और संरंभ, समारम्भ लथा आरस्थ आदि सभी कोटियां उन में घटित होती हैं। कहा भी है जीव के विराधन का संकल्प करना संरंभ है, जीव को परिताप पहुंचाना समारंभ है और विराधना करना आरंभ है । ये तीनों, तीनों योगों से होते है આ એક આઠ ભેદમાં ક્રોધ, માન, મ યા અને લેભના સામાન્ય રૂપથી એક–એક ભેદની વિવથા કરવામાં આવી છે. આના બદલે જે અનન્તાનબન્ધીકોપ, અપ્રત્યાખ્યાનીકો પ્રત્યાખ્યાનાવરણક્રોધ અને સંજવલનોધ એવી જ રીતે માન વગેરેના અવાન્તર ભેદની વિવક્ષા કરવામાં આવે તે જવાધિકરણના બીજા પણ ઘણાં ભેદ થઈ શકે છે. આ બધાં કષાય સામ્પરાયિક કર્મબન્ધના કારણ છે અને સંરંભ-સમારંભ તથા આરંભ આદિ બધી કેટિ તેમાં ઘટિત થાય છે. વળી કહ્યું પણ છે – જીવની વિરાધનાનો સંકલ્પ કરે સંરંભ છે, જીવને પરિતાપ પહોંચવો સમારંભ છે અને વિરાધના કરવી એ આરંભ છે. આ ત્રણે–ત્રણ થી થાય છે ? Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रे समस्ताः पुनः प्रधानोपसर्जनभावन बन्धनमो भवतीति भावनीया । उक्तञ्चउत्तराध्ययले २४ अध्ययने २१ माथाया कृतकारिताऽनुमत कोष्ठका कपाय-पाय कृतकारिता. सनो- समष्टया कषाय ऽनुमत वाचकाच १०८ आहो ४ ४ ४ १२ १२ १२ तरशतम् ३६ ३६३६ रंभासमारंभ, ओरलेय तहेव च इलि । संरम्भ समारस्म आरम्भश्च तथैव चेति । दशवकालिके ४ अध्याये चोक्तम्-लिविहं लिविहेणं मणेणं बाधाए हाएणं न करेनि। नकार वैमि करतं वि अन्न न समणुजाणामि' इति । त्रिविधं त्रिविधेन मनसा-वचसा-कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमपि अन्यं न समनुजानामि, इति ॥ व्याख्यामज्ञतों अगवतीने ७ शतके १ उद्देशके १८सने चोक्तम्-'जहाणं लोहमाणलायालोमा सरवोच्छिन्ना भवति, तस्क संपराया किरिया आज नो ईरिक्षावाहिया' इति । शेकषाय यो आदि पृथक-पृथक् भीमबन्ध के क्षारण होते हैं और मिलकर भी। जा मिले हुए कारण होते हैं तो प्रधान एवं गौण रूप से कारण होते हैं । उत्तराध्ययन के २४ में अध्ययन झी २१ वीं गाथा में कहा है-सरंभ, समारंभ और आरंभ। दशवैज्ञालिकलून के चौथे अध्ययन में कहा है-तीन क्षरण और तीन योग खे अर्थात मान ले, बचन ले और कायाले न स्वयं हंगा, न दूसरे से करवाऊंगा न करते हुए का अनुमोदन भा। भगवती स्तून शतक ७ उद्देशक १ झूध १८ में कहा है-जिस जीव આ કષાય વેગ આદિ પૃથ-પૃથક્ પણ કર્મબન્ધના કારણ હોઈ શકે છે અને સંયુક્ત રીતે પણ જ્યારે સંયુકત કારણ હોય છે તે પ્રધાન તથા ગૌણ રૂપથી કારણ છે.ય છે. ઉત્તરાધ્યયનના ૨૪માં અધ્યયનની ૨૧મી માથામાં युछे-सयम, ससार म मा . દશવૈકાલિકસૂત્રના ચેથા અધ્યયનમાં કહ્યું છે-ત્રણ કરણ અને ત્રણ યોગથી અર્થાત્ મનથી, વચનથી તથા કાયાથી હું જાતે કરીશ નહીં બીજા પાસે કરાવીશ નહીં તેમજ અન્ય કઈ કરતું હશે તેને અનુમોદન આપીશ નહીં, ભગવતીસૂત્રના શતક ૭ ઉદ્દેશક-૧ સૂત્ર ૧૮માં કહ્યું છે જે જીવના Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ स. ९ अजीवाधिकरणनिरूपणम् यस्य खल्लु क्रोध-सान-माया-लोभा भव्युच्छिन्ना भवन्ति, तस्य खलु-साम्परागिकी नियाकिरते एयोपविली, इति । - मूलम्-अंतिमिन्नत्तणणिकखेबसंजोयनिसरह उविहं ॥९॥ - छाया-अन्तिम निर्वतन-निक्षेप-संयोग-निसगैश्चतुर्विधम् ॥९॥ . - तरक्षार्थदीपिका-पूर्व तावर सापरायिककर्मास्यराणां हेतुभूतेषु तीवभाव मन्दभादादि वीर्याधिकरणविशेषेषु जीवाजीवदेन विविधाधिकरणे प्रथम जीवरूपमधिकरणं सविशदं शरुपिकम् , सम्मति-द्वितीय जीवरूपमधिकरण मरूपयितुमाह-अंतिम णिवत्तगणिक्वेवसंजोयनिलम्गेहि चविही इति । अन्तिम द्वितीयाजोवरूपं साम्परायिक कर्मास्त्रबाधिकरणं निर्वर्तन-निक्षेपसंयोग-निसर्गश्चतुर्विधं भवति । तत्र-नियंते शिपायते यत्, तह निर्वर्तनंके क्रोध, माल, माधा और लोभ कषाय का शिच्छेद होता उसको साम्पराधिक क्रिया होती है ऐयापथिकी क्रिया नहीं होती॥८॥ 'अंतिम णिव्यतणणि' इत्यादि । सत्रार्थ-अन्तिम अर्थात् अजीजाधिकरण चार प्रकार का हैनिर्तन, निक्षेप, लंयोग और निलगे । ९॥ तरवार्थदीपिका-परले लापराधिक कर्मों के आसन में विशेषता उत्पन्न करने वाले तीन माध, मन्दान आदि एवं वीर्य और अधिक रण का निरूपण किया गया था। उनमें से अधिकरण के दो भेद कह कर जीवाधिकरण की प्ररूपणा की । अब दूहारे अजीवाधिकरण की प्ररूपणा करने के लिए चाहते हैं दा लाम्पमायिक कर्यास्त्रचाधिकरण अर्थात् अजीचाधिकरण चार प्रकार का है-निबर्तन निक्षेप, संयोग और निसर्ग। ક્રોધ, માન, માયા તથા લેભ કષાયને વિચછેદ થતું નથી, તેને સામ્પરાયિક કિયા થાય છે, એયપથિી કિયા થતી નથી. ૫૮ ‘अंतिम णिव्वत्तण णिक्रक्षेत्र' त्यादि સૂત્રાર્થ—અન્તિમ અર્થાત્ અછવાધિકરણ ચાર પ્રકારનું છે–નિર્વત્તન નિક્ષેપ, સંગ અને નિસર્ગ. પાલા તત્તવાથદીપિકા–પહેલાં સામાયિક કર્માના આસવમાં વિશેષતા ઉત્પન્ન કરવાવાળા તીવ્રભાવ, મન્દભાવ આદિ તથા વીર્ય અ અધિકરણનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે બીજા અજીવાધિકરણની પ્રરૂપણ કરવા માટે કહીએ છીએ બીજ' સામ્પરાયિક કર્માસ્ત્રવાધિકરણ અર્થાત્ અછવાધિકરણ ચાર પ્રકા૨નું છે-નિર્વર્તન નિક્ષેપ, સંગ અને નિસર્ગ. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वार्थसूत्र निष्पादनम् , निक्षिप्यते-स्थाप्यते इति निक्षेप:-स्थापनम् , संयुज्यते-मिश्री. जियते इति संयोग:-मित्रन , मिश्रणम् , निसज्यते--प्रवस्यते इति निसर्ग:-- घर्तनम् । सम-नितिनाधिकरणं द्विविधा, मूलगुणनिर्विवाधिकरणम्-उत्तरशुणनिवर्तनाधिकरणक्षति। निक्षेपाधिकरणं चतुर्विधम् , दुष्मभ्युपेक्षितविक्षेपा. धिकरणम् १ हुप्रमार्जित निक्षेपाधिकरण २ लहला निक्षेपाधिकरणम् ३ अना भोगनिक्षेपाधिकरण ४ चेति । संयोगाधिकरणं द्विविधस्, सतपानसंयोगाधिफरणम्-उपसरणसंयोगाधिकरणञ्चेति । निसर्गाधिकरणं पुननिविधम् , मनोनिसर्गाधिकरणम् १ वाटिनलगाधिकरणम् २ कायनिसर्माधिकरम् ३ चेति सर्व सम्मेलनेनाऽजीवरूपं सारूपरायिककर्मानवाधिकरमेकादशाविधं भवति । तत्राऽपि- जो उत्थन किया जाय उरले नितिन करते हैं। जिले निक्षिप्त किया जाथ-स्थापित किया जाय उले निक्षेप कहते हैं। जो संयुक्त किया जाय अर्थात् मिश्रित किया जाय उले संयोग कहते हैं । जो प्रवृत्त किया जाय उले प्रवर्तन या निसर्ग कहते हैं। - निर्वसन अधिकरण के दो भेद हैं-मूलगुण निवर्तनाधिकरण और उत्तरगुणनितिनाधिकरण । निक्षेपाधिकरण चार प्रकार का है-(१) दुष्प्रत्युपेक्षितविक्षेषाधिकरण (२) दुष्प्रमाणितनिक्षेपाधिकरण (३) सहलानिक्षेपाधिकरण और (४) नामोनिक्षेधिकारका लियोपाधिकरण के दो भेद है-लस्तपावलंयोगाधिकरण और उपकरण संयोगा. धिकरण । निर्माधिकरण के हीच भेद है-(१) पदोनिसर्माधिकरण (२) बचननिर्माधिकरण और (३) झायनिसमाधिकरण । જે ઉત્પન્ન કરી શકાય તેને નિર્વર્તન કહે છે. જેને વિક્ષિપ્ત કરી શકાય-સ્થાપિત કરી શકાય તેને નિક્ષેપ કહે છે જે સંયુક્ત કરી શકાય અર્થાત્ ભેળવી શકાય તેને સંગ કહે છે જે પ્રવૃત્ત કરી શકાય તેને પ્રવર્તન અથવા निस छे. - નિર્તન અધિકરણને બે ભેદ-મૂળગુણનિર્વત્તાધિકરણ અને ઉત્તરગુણનિર્વનાધિકરણ. નિલેષાધિકરણ ચાર પ્રકારના છે. (૧) દુપ્રત્યુપેક્ષિત નિપાધિકરણ (૨) દુvસર્જિતનિધિકરણ (૩) સહસાનિક્ષેપોષિકરણ અને (૪) અનાગનિક્ષેપાધિકરણ સગાધિકરણના બે ભેદ છે- ભક્તપાન સીગાધિકરણ અને ઉપકરણસંચોગાધિકરણ. નિસર્વાધિકરણના ત્રણ ભેદ છે(१) भनानिसमाधि४२५ (२) क्यानिधि४२५ मन (3) आयनिसमाधि:२४: Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANY दीपिका-नियुक्ति टीका अ, ६२, ९ ४.जीवाधिकरणनिरूपणम् मूळगुणनिर्वर्तना औदारिकादीनिपञ्च शरीराणि मनोवाक्काय प्रणापानाक्षेति । उत्तरगुणनिवर्तनश्चा-ऽनेकविधं भवति, काष्ठपाषाण-पुस्त-चित्रकर्मादिनिष्पादन जीवकृतिनिष्पादन लेखनादि भेदात् इति ॥९॥ तापायनियुक्ति:-पूर्व तावत् साम्परायिककर्मास्त्रवहेतुतया प्रतिपादितेषु तीव्रमावादि वीर्याधिकरणविशेषेषु जीवाजीवभेदेन द्विविधाधिकरणे प्रथम जीवरूपाधिकरणं प्ररूपितम् , सम्पति-द्वितीयम् अजीवरूपं साम्परायिककर्मास्रवाधिकरणं मरूपयितुमाह-'अंतिम निव्वत्तण णिक्खेव संजोय निसग्गेहि चउनिह' इति । अन्तिम-द्वितीयम् अजीवरूपं साम्परायिककर्मास्रव हेतुभूतम धिकरणं निर्वर्तन-निक्षेप-संयोग-निसर्गेश्चतुर्विधं भवति । तत्र-निर्वर्तननिक्षेप इन सब भेदों को सम्मिलित करने पर अजीवाधिकरण ग्यारह प्रकार का होता है। इन में से औदारिक आदि पांच शरीर, मन, वचन, काय तथा प्राणापान, ये मूलगुणनिर्वर्तन हैं । उत्तरगुणनिर्वतन के अनेक भेद है-काष्ठ, पाषाण पुस्त, चित्र आदि बनाना, जीव की आकृति बनाना, लेखन आदि-आदि ॥९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले बतलाया गया था कि तीव्रभाव, मन्दभाव आदि तथा वीर्य और अधिकरण सम्परायिक आस्रव में विशेषता उत्पन्न करते हैं । इनमें से अधिकरण के दो भेदों का प्रतिपादन करके जीवाधिकरण का नरूपण किया गया, अब दूसरे अजीबाधिकरण का निरूपण करने के लिए कहते हैं दसरा साम्परायिक आस्रवका अधिकरण अर्थात् अजीवाधिकरण निवर्तन, निक्षेप, संयोग और निमर्ग के भेद से चार प्रकार का है। આ બધાં ભેદોને સરવાળો કરવાથી અછવાધિકરણ અગીયાર પ્રકારના થાય છે. આમાંથી ઔદરિક આદિ પાંચ શરીર, મન, વચન કાય તથા પ્રાણાપાન એ મૂળગુણનિર્વત્તન છે. ઉત્તરગુનિવૃત્તનના અનેક ભેદ છે. કાઠ, પાષાણ. પુસ્ત, ચિત્ર આદિ બનાવવું, જીવની આકૃતિ બનાવવી, લેખન વગેરે પા તત્ત્વાર્થનિયુકિત-પહેલા બતાવવામાં આવ્યું હતું કે તીવભાવ, મન્દભાવ આદિ તથા વીર્ય અને અધિકારણે સામ્પરાયિક આસવમાં વિશેષતા ઉત્પન કરે છે. આમાંથી અધિકરણના બે ભેદનું પ્રતિપાદન કરીને જીવાધિકરણનું નિરૂપણ કરવા માટે કહીએ છીએ બીજુ સામ્પરાધિક આસ્ત્રનું અધિકરણ અર્થાત અછવાધિકરણ નિર્વન, નિક્ષેપ સંગ અને નિસર્ગનભેદથી ચાર પ્રફારના છે. આશય કહે. तक १२ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to a संयोग - निसर्गान् कुर्दन राग-द्वेष युक्त आत्मा साम्परायिक कर्मको भवति । - निर्वनिपाते इति निर्वर्त्तनम्, माणातिपाता निर्यर्त्यमान खड्डादिमजीवद्रव्यं निर्वर्तनमिति व्यपदिश्यते । तच्च - निर्वर्तन द्विविधम्, मूळोत्तरगुणभेदात् १ निक्षिप्यते - स्थाप्यतेऽसाविति निक्षेपः स्थापनीयः कचिदजीव एव स च निक्षेपश्चतुर्विधः, चक्ष्यमाण - दुष्प्रत्युपेक्षादिभेदतः २ संयुज्यते - मिश्री क्रियतेऽलाविति संयोगः - मिश्रणस्, स द्विविधः- आहारोपकरणभेदात् ३ निसृउप-प्रत्रस्ते इति निसर्गः घवर्तनं त्यागः उज्झनम्, स च निसर्गस्त्रित्रिविध:कायिकवाचिकमान लिकभेदात् । तत्र जीवरूपं साम्परायिककर्मासत्रस्याऽन्तर इमधिकरणम्, अजीवरूपाधिकरणन्तु तथाविधासवस्य वहि कारणं वर्तते, अतएवानन्तरङ्गत्वात् जीवाधिकरणं प्रथममुक्तम्, अजीवाधिकरणं पुनः पश्चात् तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष से युक्त जीव निर्वत्र्तन, निक्षेप, संयोग और निसर्ग करता हुआ लाम्पराधिक कर्मका बन्ध करता है । -- जिलका निष्पादन किया जाय वह निर्वर्तन हैं जैसे भाणातिपात करने के लिए बनाये जाने वाले खड्ग आदि को अजीवद्रव्यनिर्वतन कहते हैं । निर्वर्तन के दो भेद हैं मूलगुण निर्वर्त्तन और उत्तरगुणनिर्वर्तन | जो विक्षिप्त कियो जाय, स्थापित किया जाय या करवा या जाय उसे निक्षेप कहते हैं उसके चार भेद आगे कहे जाएंगे। जो संयुक्त किया जाय - मिश्रित किया जाय, वह संयोगाधिकरण है । इसके दो भेद है- आहारसंयोग और उपकरणसंयोग । निसर्ग का अर्थ है नाग या निकाल देना । कायिक, वाचिक और मानटिक भेदले निसर्ग तीन प्रकारका है। 1 माम्परोधिक आय का अन्तरंग कारण जीवाधिकरण है और વાના એ છે કે રાગદ્વેષથી યુકત જીવ નિન્તન નિક્ષેપ સ ંચાગ અને નિસગ કરતે થકે સામ્પરાયિક કર્મનું અન્યન કરે છે. જેનુ નિષ્પાદન કરી શકાય તે નિવત્તન છે જેમ કે પ્રાણાતિપાત કરવા માટે તૈયાર કરવામાં આવતી તલવાર વગેરેને અજીવદ્રવ્યનિ ત્તેન કહે છે. નિવત્તના બે ભેદ છે—મૂળગુણુનિવત્તન અને ઉત્તરગુણનિવત્તન જેને નિક્ષિક્ષ કરી શકાય, સ્થાપિત કરી શકાય અથવા કરાવી શકાય તેને નિક્ષેપ કહે છે, તેના ચાર ભેદ આગળ ઉપર કહેવામાં આવશે. જે સયુક્ત કરી શકાયમિશ્રિત કરી શકાય તે સચાગાધિકરણ છે. એના બે ભેદ છે આહાર સંચે ગ અને ઉપકરણસ’ચેગ નિસર્ગના અથ છે પ્રવર્ત્તન, ભાગ અથવા કાઢીમુકવું. ફ્રાયિક, વાચિક અને માનસિક ભેદથી નિસર્ગ ત્રણ પ્રકારના છે. સામ્પરાયિક આસવનું અંતરંગ કારણ જીવાધિકારણ છે અને માહ્ય w Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ रु. ९ अजीवाधिकरणनिरूपण अन्यथा-निर्वनिक्षे गदीनामपि आत्मपरिणतिसद्धानात् संस्मादिवत् तेषामपि जीचाधिकरणेऽन्तर्भाव एक स्वात् इतिभावः । तथाच-तथाविधकमवन्धास्त्रवश्य जीवपरिणामोऽन्तरबो बोध्यः, कर्मवन्धस्य तद्धीनत्वात् जीवाधिकरणस्य-सारूपरायिककर्मवन्धं प्रतिप्रधानत्वादन्तरङ्गलात् प्रथममुपादानम् । अनीबाधिकरणस्यतु-तथाविधकर्मवन्धं प्रतिनिमित्तत्वादमधानत्वं बहिरङ्गर वोध्यस् , अतएव-- पश्चात् तदुपादानं कृतम् । अथवा-मायोमिकावैनसावा निर्वर्तनादयोऽनमन्तव्या, बाह्य कारण अजीयाधिकरण है । इली ले पहले आतरङ्ग कारण सीधाমিতা না থল ফিতা চা জ জ ৫ অাহ হ সীজাधिकरण का अन्धमा निर्वतन एवं निक्षेप आदि भी आल्ला जी तथा विध परिणति के बिना नहीं होते, अतः बरस आदि के सम्मान उन का भी जीवाधिकरण में समावेश किया जाता । इस प्रकार सारपसयिक कर्म का आस्त्र और बन्ध जीव सो अनार परिणाम है, ऐला समझना चाहिए, क्योंकि कर्मबन्ध उ परिणाम के अधीन है। इल प्रकार साम्पराधिक कर्म के बन्ध जीवाधिकरण प्रधान या अन्तरङ्ग होने से पहले ग्रहण किया गया है । अनीबाधिकरण सामायिक कर्मबंध में निमित्त मात्र होता है, अतएव वह पर प्रधान का बहिरङ्ग कारण है। इसी ले उसको बाद में ग्रहण किया गया है। अथवा निर्वतना आदि प्रायोगिक (पुरुष के प्रथम सत्पन्न) और वैनलिक (स्वाभाविक) जानने चाहिये। पहला जीचाधिकरण કારણ અજવાધિકરણ છે આથી જ પહેલા અંતરંગ કારણ છવાધિકરણનું. કથન કરવામાં આવ્યું છે અને પછીથી બાહ્યકારણ અજીવાધિકરણત અન્યથા નિર્વર્તન અને નિક્ષેપ આદિ પણ આત્માની તથવિધ પરિણુતિ રહિત હતાં નથી આથી સંરંભ આદિની માફક તેમને પણ જીવાધિકરણમાં સમાવેશ કરવામાં આવત. આમ સામ્પરાયિક કર્મના આસ્રવ અને અન્ય જીવના અંતરંગ પરિણામ છે એવું સમજવાનું છે કારણ કે કર્મબન્ધ તે પરિણામને આધીન છે આ રીતે સામ્પરાયિક કર્મના બન્યમાં રાધિકરણ પ્રધાન અથવા અંતરંગ હોવાથી પ્રથમ લેવામાં આવ્યું છે. અછવાધિકરણ સામ્પરાયિક કર્મ બન્ધમાં નિમિત્ત માત્ર હોય છે આથી તે ગૌણ અથવા બહિરંગ કારણ છે, આથી જ તેને પછી લેવામાં આવેલ છે. અથવા નિર્વત્તના આદિ પ્રાયોગિક (પુરૂષના પ્રયત્નથી ઉત્પન્ન) તથા પૈસસિક (સ્વાભાવિક) જાણવા જોઈએ. પહેલું જીવાધિકરણ જીવવિષયક હેવાથી Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वार्थको प्रथमं खलु जीवविषयत्वात्-तथाविधानस्य भावाधिकरणं मुख्यतया कर्मवन्धहेतुभबति । अजीवविषयत्याद द्वितीयं द्रव्याधिकरणं निमित्तमात्रत्वादमुख्यतया कर्मपन्धहेतुर्भवतीति पश्चात्तदुपादानमितिभावः। तत्र-निर्बतनरूपाऽजीवाधिकरणं द्विविधम् , मूलगुणनितिनाधिकरणम् १ उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणश्च २ । तत्रगुलगुणनिर्वनाधिकरणम् औदारिकादि पञ्चशरीराणि वाङ्मनःमाणापानाश्च । उत्तरगुणनिवर्तनाधिकरण काष्ठपाषाणादिषु चित्रकर्मादीनि, तत्र-मूलं चाऽसौ. गुणश्चेति मूलगुणः, मूलमायं प्रतिष्ठा संस्थाभिधानो गुणो मूलगुणः, स एवं निर्वर्तनाधिकरणं मूलगुणनिवर्तनाधिकरणम् । स खल मूलगुणो निर्वृतः सन् कर्मवन्धस्याऽधिकरण भवति । एवम्-अङ्गोपाङ्ग संस्थान द्वादि तीक्ष्णस्वादिरुत्तरगुणः, सोऽपि-निवृतः सन् कर्मवन्धाधिकरणं भवति, उत्तरगुण एव जीवविषयक होने से भावाधिकरण एवं कर्मबन्ध का प्रधान हेतु है। दूसरा अजीव विषयक होने से द्रव्याधिकरण है, वह निमित्त मात्र होने ले फर्मबन्ध का अप्रधान (गौण) कारण है। इस कारण उसे बोद में ग्रहण किया गया है। लिर्वर्तनरूप अजीवाधिकरण दो प्रकार का है-मूलगुगनिर्वर्तनाधिकरण और उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण । औदारिक आदि पांचों शरीर और प्राणापान वचन तथा मन ये मूलगुणनिर्वतन हैं। काष्ठ एवं पाषाण आदि पर चित्र अंकित करना आदि उत्तरगुणनिर्वतन है। मूलभूत अर्थात् आद्य, प्रतिष्ठा या संस्था रूप गुण मूलगुण कहलाता है । वही मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरण कहलाता है। यह मूलगुण उत्पन्न होकर कर्मः बंध का कारण अधिकरण होता है। अंगोपांग संस्थान,मृदुता, तीक्ष्णता आदि उत्तरगुण हैं । वह भी उत्पन्न होकर कर्मबन्ध के अधिकरण होते ભાવાધિકરણ અને કર્મબંધનું પ્રધાન કારણ છે, બીજું અજીવ વિષયક હેવાથી દ્રવ્યાધિકરણ છે તે નિમિત્ત માત્ર હોવાથી કર્મબન્ધનું અપ્રધાન (ગૌણ) કારણે છે. આથી તેને પાછળ લેવામાં આવેલ છે. નિર્વનરૂપ અછવાધિકરણ બે પ્રકારનું છે-મૂળગુણનિર્વત્તાધિકરણ અને ઉત્તરગુણનિર્વસનાધિકરણ. ઔદારિક આદિ પાંચે શરીર અને પ્રાણાપાન વચન તથા મન અ મૂળગુણનિર્વત્તન છે. કઠ તથા પાષાણ આદિ પર ચિત્ર દેરવું આદિ ઉત્તરગુણનિર્વત્તન છે મૂળભૂત અર્થાત્ આઘ, પ્રતિષ્ઠા અથવા સંસ્થા રૂપ ગુણ મૂળગુણ કહેવાય છે. તે જ મૂળગુણનિર્વત્તાધિકરણ કહેવાય છે, તે મૂળગુણ ઉત્પન્ન થઈને કર્મબંધ અધિકરણ થાય છે, અંગોપાંગ, સંસ્થાન, મૃદુતા, તીક્ષણતા આદિ ઉત્તર ગુણ છે તે પણ ઉત્પન Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ . ९ अजीवाधिकरणनिरूपणम् निर्वर्तनाधिकरणम्-उत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरणम्, तत्रैौदारिकशरीर दर्गणाप्रायोग्य द्रव्यैर्निमपि मौदारिकशरीर संस्थान' प्रथमसमयादारभ्याऽऽत्वनो मूलगुण- निर्वर्तनाधिकरणं भवति, कर्मबन्धनिमित्तत्वात् । औदारिकशरीरस्याऽङ्गोपाङ्गमार्जन कर्णदेधाऽवयवसंस्थानादिकम् आत्मन उत्तरगुणभिर्वर्तनाधिकरणं भवति, तस्यापि - कर्मबन्धनिमित्तत्वात् । वैक्रियस्यापि शरीरस्य स्ववर्गणामायोग्यद्रव्ये निर्मापित संस्थानं प्रथमसमयादारभ्य मूलगुण निर्वर्तनाधिकरणं भवति, वैक्रियस्य शरीरस्याऽङ्गोपाङ्ग - केशदन्तनखादिकमुत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरणं भवति । आहारकशरीरस्यापि स्ववर्गणापायोग्य पुद्गलद्रव्यरचितं संस्थानं मूलगुण निर्वर्तनाधिकरणम्, तस्याङ्गोपाङ्गादिकं पुनरुत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरणम् भवति । एवंहैं । उत्तरगुण रूप निर्वर्त्तनाधिकरण को उत्तरगुगविर्वर्त्तनाधिकरण कहा गया है । औदारिक शरीर वर्गणा के द्रव्यों से बना हुआ औदारिक शरीर संस्थान प्रथम समय से लेकर आत्मा का सूलगुणनिईर्तनाधिकरण है, क्योंकि वह कर्मबन्ध का कारण है । औदारिकशरीर के अंगोपांग-मार्जन कर्णवेध अवयवों का संस्थान आदि आत्मा का उत्तरगुणनिर्वर्त्तनाधिकरण है, क्योंकि वह भी कर्मबन्ध का कारण है । इसी प्रकार वैक्रिय शरीर का वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों से बना हुआ संस्थान प्रथमसमय से लेकर मूलगुणनिवर्त्तनाधिकरण है और वैक्रिय शरीर के अंगोपांग, केश, दांन, नख, आदि उत्तरगुणनिर्वर्त्तनाधिकरण हैं । आहारकशरीर के योग्य वर्गणा के पुद्गलों से बना हुआ संस्थान मूलगुणनिवर्त्तनाधिकरण है और उसके अंगोपांग आदि उत्तरगुणं થઈ તે કબન્ધના અધિકરણ થાય છે ઉત્તરગુણુ રૂપ નિવત્તનાધિકરણને ઉત્તર ગુણનિવત્તનાધિકરણ કહેવામાં આવેલ છે. ઔદારિક શરીર ગણુાના દ્રન્યાથી અનેલુ' ઔદારિક શરીર સસ્થાન પ્રથમ સમયથી લઈને આત્માનું મૂળગુણુનિ ત્તનાધિકારણ છે કારણ કે તે કમ બન્ધનું કારણ છે. ઔદારિક શરીરના અંગાપાંગ-માન, કર્ણવેધ અવયવનુ સ્થાન દિ-અત્મિાના ઉત્તરગુણુનિવૃત્તનાધિકરણ છે કારણ કે તે ક્રબન્ધના કારણુ છે એવી જ રીતે વૈક્રિયશરીરનુ` વૈક્રિયલ ણાના પુદગલેથી ખનેલું સ્થાન પ્રથમ સમયથી લઈને મૂળગુણુનિવત્તનાધિક ણુ છે અને વૈક્રિય શરીરના આગોપાંગ, વાળ, દાંત નખ વગેરે ઉત્તરગુણનિવત્તનાધિકરણ છે. આહારક શરીરને ચાગ્ય વ ણુાનાપગલાથી બનેલુ સંસ્થાન મૂળગુણુનિવત્તનાધિકરણ છે અને તેના અને પાંગ આદિ ઉત્તર ગુણુનિન્તનાધિકરણ છે. એવી જ રીતે કાઁના સમૂહ રૂપ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mutntansliterracemannmamananmmmmmmmm-- तत्त्वार्थसूचे कर्मसंघातलक्षणस्य कार्मणशारीरस्याऽपि स्योग्रद्रयरचितसंस्थान मूलगुणनिर्वतनाधिकरणम् , तस्योत्तरगुणनिवनाधिकरणन्तु नास्त्येव, तेजतस्यापि शरीरस्यो ष्णलक्षणस्य मुक्तपीतानलशक्तिशालिनो लब्धिमत्ययस्य च परानुग्रह-निग्रहकारकस्य स्ववर्गणा रचितसंस्थान मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणम् , तस्याऽप्युत्तरगुणानिर्वत - नाधिकरणं नाऽस्त्येव । ए-बाङ बनायाणापानाच मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणम् , तत्र-वाङ्मनोगणापायोग्य द्रव्यरचितौ वाङ्मन संस्थानविशेपो मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणम् । एवं प्राणापानवर्गणाधायोग्यरचिती उच्छवास-निश्वासाकारों मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणं भवतः, एतेषामपि-चतुर्णा खलु उत्तरगुणनिर्वर्तना नैव सम्भवति, काष्ठ-पापाण-पुस्त-चित्रकर्मादीनि चोनरगुणनिर्वर्तनाधिकरणम् निवर्तनाधिकरण हैं इस्ली प्रकार कर्मों के समूह वा कामण शरीर के योग्य द्रव्यों के द्वारा रचित संस्थान मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरण है। इसका उत्तरगुणनितिनाधिकरण नहीं होता । उष्णता लक्षण वाले एवं खाये-पीये आहार को पचाने की शक्ति बाले तेजल शरीर का तथा निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ लब्धि जनिल तैजल शरीर का अपने योग्य पुदूगलों के द्वारा निर्मित आहार मूलगुणनितना है। इस शरीर की भी उत्तर गुणनितना नहीं होती । इसी प्रकार मन, वचन और प्राणापान मूलगुणनिवर्सनाधिशारण हैं। वचन और मल के योग्य द्रव्यों द्वारा रचित बचन एवं मन के संस्थान मूलगुनर्वतमाधिकरण है। इसी प्रकार प्राणापानवर्गणा के द्वारा रचित उच्छ्वास और निश्वास 'के संस्थान मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरण हैं । इन चारों की भी उत्तरगुणકાર્મણ શરીરને ચગ્ય દ્રવ્યો દ્વારા રચિત સંરથાન મૂળગુણનિર્વનાધિકરણ છે. આનું ઉત્તરગુણનિર્વત્તાધિકરણ હોતું નથી. ઉષ્ણતા લક્ષણવાળા અને ખાધેલ–પીધેલા આહારને પચાવાની શકિતવાળા તૈક્સ શરીરનું તથા નિગ્રહ અને અનુગ્રહ કરવા માટે સમર્થ લક્વિજનિત તેજસ શરીરનું પિતાને અનુરૂપ પુદ્ગલ દ્વારા નિર્મિત આકાર મૂળગુણનિર્વત્તના છે આ શરીરની પણ ઉત્તરગુણનિર્વત્તના હોતી નથી એવી જ રીતે વચન, મન અને પ્રાણપાન મૂળગુણનિર્વત્તને ધિકરણ છે. વચન અને મનના યોગ્ય. દ્રારા રચિત વચન અને મનને સંસ્થાન મૂળગુનિવર્સધિનાકરણ છે. એવી જ રીતે પ્રાણપાનવર્ગ દ્વારા રચિતલવાસ અને નિશ્વાસના સંસ્થાન મૂળગુણનિર્વત્તને ધિકરણ છે આ ચારેની પણ ઉત્તરગુણ નિર્વસ્તૃના હેતી નથી કાક, પુસ્ત, ચિત્રકામ આદિ ઉત્તરગુનિર્વર્સનાધિકરણ છે. લાકડી અથવા પાષાણુની પુતળી Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ६ . ९ अजीवाधिकरणनिरूपणम् - 9 भवन्ति । तत्र - काष्ठर्य, पाषाणकर्स च काष्ठपुत्रिका कुट्टिमपुरुरादीनां कृतरूपं भवति, अतएवोत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरणं दुरुपते, एवं - प्रसिद्धपुरुषाधाकृतेः प्रति विम्वनिर्वर्तनादेव पुस्त - चित्रकर्मणी अपि वक्तव्ये । तत्र पुस्तकर्म सूत्रचीरकादि प्रथित कृत्रिमपुत्रकादिकं बोध्यम्, चित्रकर्मपसिद्धम्, आदिपदेन लेख्प पत्रच्छेद्य जलकर्म भूकर्मपरिग्रहः । शस्त्रमपि कृपाणादिक यनेकाकारयव सेयम् । वधस्थानस्वं मूळ गुणनिर्वर्तनाधिकरणम् तीक्ष्ण नज्ज्वलादिकमुत्तर गुण निर्वर्तनाऽधिकरणं बोध्यम् निक्षेपणाधिकरणं चतुर्विधम्, दुष्प्रत्युपेक्षित निक्षेपणाधिकरणम्- दुष्ममा जिवनिक्षेपाधिकरणम् - सहसा निक्षेपाधिकरणम्-अनाभोगनिक्षेपाधिकरणञ्चेति । दुष्प्रत्युपेक्षिते चक्षुनिरीक्षिते भूदेशे निक्षेपणीयस्य मात्रादेःस्थापनं दुष्प्रत्युनिर्वर्तना नहीं हो सकती । काष्ठ पुस्त, चित्रकर्म आदि उत्तरगुणनिवर्त्तनाधिकरण हैं । लकडी या पाषाण की पुनली कुट्टिम पुरुष आदि की कृति है, अतएव उसे उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण कहते हैं । इसी प्रकार प्रसिद्ध पुरुष आदि की आकृति को बनाने से पुस्तधर्म और चित्रकर्म बनते हैं । लूत और बन्न आदि को गूंथ कर गुडिया आदि तत्र- नाना पुस्तक कहलाता है । चित्रकर्म प्रसिद्ध ही है | आदि शब्द से लेख्य पत्रच्छेद्य, जल कर्म और भूमिकर्म का ग्रहण करना चाहिए। कृपाण आदि शस्त्र अनेक आकार के होते हैं । वधस्थानत्व मूलगुणकिरण है और तीक्ष्णता तथा उज्ज्वलता आदि उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण है। निक्षेपणाधिकरण के चार भेद हैं- दुष्प्रत्युपेक्षित निक्षेपणाधिकरण दुष्प्रमार्जित निक्षेपणाधिकरण, सहसानिक्षेपणाधिकरण और अनाभोगनिक्षेपणाधिकरण (१) ठीक तरह आंखों से देखे बिना भूमि पर मलકુટ્ટિમ પુરૂષ માહિની કૃતિ છે આથી તેને ઉત્તરગુણુનિવત્તનાધિકરણ કહે છે. એવી જ રીતે પ્રસિદ્ધ પુરૂષ સ્પાદિની આકૃતિનું સર્જન કરવાથી પુસ્તકમ અને ચિત્ર બને છે સૂતર અને વસ્ત્ર આદિને ગુથને ઢીંગલી આદિ ખનાવવી પુસ્તકમ કહેવાય છે. ચિત્રકમ પ્રસિદ્ધ જ છે આદિ' શબ્દથી લખાણ પત્રòઘ, જળકમ મને ભૂમિકસને ગ્રહણ કરવાના છે. કિરપાણુ આદિ શસ્ત્ર અનેક પ્રકારના-આકારના હાય છે. વધસ્થાનવ મૂળગુણનિવત્ત નાધિકરણ છે અને તીક્ષ્ણતા તથા ઉજજવળતા આદિ ઉત્તરગુણનિવત્તનાધિકરણ છે, નિક્ષેપાધિકરણના ચાર ભેડ છે-ટ્રુપ્રત્યુપેક્ષિત નિક્ષેપણાધિકરણ, પ્રમાર્જિત નિશ્ચેષણાધિકરણ, સહસાનિક્ષેપણાધિકરણ અને અનાલે ગનિક્ષેપણાધિકરણ, (૧) સારી પેઠે માંખેાથી જોયા વગર જમીન ઉપર મળ-મૂત્ર આદિને ઢાળવા Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्यार्थसूत्रे २मितनिक्षेपाधिकरणम् १, एवं प्रत्युपेक्षितेऽपि सूपदेशे दुष्प्रमाणिते रजोहरणापिनामसाजिले वा निक्षेप्यस्य पानादे: स्थापनं दुष्यमार्जित निक्षेत्राधिकरणम् ताला, शत्तय साक्षात घेतरतोऽपि-अप्रत्युपेक्षित दुष्पमार्जितभूपदेशे निक्षेप्यस्य रमाएन सहसा निक्षेपाधिकरणम् ३, अनाभोगोऽत्यन्तविस्मृतिः तेन-तथाविधस्य विस्तस्य निक्षेप्यस्याऽधिकरणम् , अनामोगनिक्षेषाधिकरणम् यत्र न खल स सरति यत् मत्युपेक्षिते-झुपमाणिते च देशे निक्षेपणीयम् ४ इति । संयोगाधि. हरणं विविधम् , भक्तपानसंयोजनाधिकरणम् उपकरणसंयोजनाधिकरणश्चेति । म-सक्तं वायद त्रिविधम् , अशन-खाद्य-स्वाद्य भेदात् , तस्य-पात्रे-मुखे वा पसन-गुड-फह-शामादिभिः सह संयोजनम् , । एवं-द्राक्षा दाडिम पानक कृष्ट आदि का निक्षेपण करना दुष्प्रत्युपेक्षितनिक्षेपाधिकरण है। (२) भूमि को हेला लेने पर भी रजोहरण आदि से पूजे विना पात्र आदि रखता दुष्प्रमार्जितनिक्षेपाधिकरण कहलाता है। सहसा (एकदम) शक्ति के अभाव ले विना प्रतिलेखन किये और विना पूजे भूमि पर किसी वस्तु को रखना सहसा निक्षेाधिकरण है। (४) बिलकुल भूल जाने को अनाभोग कहते हैं। किसी भूली हुई वस्तु को रख देना अनाभोगनिक्षेपाधिकरण है या बिना उपयोग के अन्यमनस्क होकर किसी वस्तु तो कहीं रखना अनाभोगनिक्षेपाधिकरण है। संघोगाधिकरण के दो भेद हैं-अक्तपानसंयोजनाधिकरण और उपकरणलंयोजनाधिकरण । इन में भक्त (आहार) तीन प्रकार का है-अशन, खाद्य और स्वाद्य । उसका पात्र या मुख में व्यंजन, गुड, फल या शाक आदि के साथ स योग करना अर्थात् अधिक અથવા ફેંકવા દુપ્રયુક્ષિતાધિકરણ છે. (૨) ભૂમિને જોઈ લીધા છતાં પણ રહર આદિથી પૂંજ્યા વગર પાત્ર વગેરે મુકવાં પ્રમાજિતનિક્ષેપાધિકરણ કહેવાય છે. (૩) સહસા શકિતના અભાવથી પડિલેહન કર્યા વગર તેમ જ વગર પૂજે જમીન ઉપર કઈ વસ્તુને રાખવી સહસાનિક્ષેપિિધકરણ છે (૪) તદ્દન ભુલી જવું તેને અનાભોગ કરે છે. કેઈ વિસરાઈ ગયેલી વસ્તુને રાખી લેવી અને ભોગનિક્ષેપાધિકરણ છે અથવા વગર ઉપયોગની અન્યમનસક થઈને કે ઈ વસ્તુને કયાંય રાખવી અનાગનિશેષાધિકરણ છે. સંગાધિકરણના બે ભેદ છે–ભગ્નપાન સંજનાધિકરણ અને ઉપકરણ સંજનાધિકરણ આમાં ભત્ત (આહાર) ત્રણ પ્રકારનાં છે-અશન, ખાદ્ય અને સ્વાઇ. તેના પાત્રમાં અથવા મોઢામાં વ્યંજન, ગે ળ, ફળ અથવા શાક આદિની સાથે સંગ કરીને અર્થાત્ સ્વાદિષ્ટ બનાવવા માટે એક ખાદ્ય પદાર્થને બીજા Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ स्. ९ अजीवाधिकरणनिरूपणम् ९७ स्य. मामुकजलारनालादिकस्य च खण्ड-शर्करा-मरीचादिभिः सह पात्रे-मुखे वा संयोजनं भक्तपानसंयोजनाधिकरणम् । उपकरणस्य-उपधेर्वस्त्रादिनस्याऽन्यैर्वस्त्रा: दिकः सह संयोजनम् उपकरणसंगोजनाधिकरणम् । लिसनाधिकरणं पुनस्त्रिविधम् , कायनिसर्गाधिकरणम् -बानिसर्गाधिकरणम्--मनोनिसाधिकरणञ्चति । तम-कायस्य औदारिकादि शरीरस्य विधिना स्वच्छन्दन शस्त्रच्छेदनाऽग्निजल प्रवेशोन्दन्धनादिना निसर्जनम्-उज्झन-कायनिसमाधिकरणम् । बाचोनिसर्जनं३ शाखोपदेशं विना प्रेरणं बानिसमधिकरणम् । मनसश्च-निसर्जनं शास्त्रोपदेशाद स्वादिष्ट बनाने के लिए एक खाद्य पदार्थ को दूसरे खाद्य पदार्थ के साथ मिलाना भक्तसंगरोजनाधिकरण है। इसी प्रकार द्राक्षा, दाडिम आदि के रस को या प्रास्सुक जल एवं कांजी आदि के पानी को खांड, शक्कर, कालीमिर्च आदि के साथ पात्र में या सुख मिलाना पानसंयोजनाधिकरण है। तात्पर्य यह है कि भोजन अध्यन्ना पेय पदार्थों को सुस्वादु बनाने के विचार से आपस में मिलाना मक्तपान संयोजना. धिकरण है। उपकरण-उअधि-वस्त्र आदि को भय बन्न आदि से मिलाना उपकरण संयोजनाधिकरण है। निसर्गाधिकरण तीन प्रकार का है-झायनिसर्गाधिकरण वचननिसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण औदारिकादि शरीरका स्व. च्छन्द विधि से शस्त्र द्वारा छेदन करके आग में प्रवेश करके जल में प्रवेश करके या फांसी लगाकर त्याग करना कानिहाधिकरण है। शास्त्रोपदेश के विना प्रेरणा करना वचननिसर्गाधिकरण है और ખાદ્ય પદાર્થની સાથે ભેળવ ભત્તસંજનાધિકરણ છે એવી જ રીતે દ્રાક્ષ, દાડમ આદિના રસને અથવા પ્રાસુક જળ અને કાંજી આદિના પાણીને ખાંડ, સાકર, મરીયા વગેરેની સાથે પાત્રમાં અથવા મુખમાં ભેળવવું પન સંચજનધિકરણ છે. તાત્પર્ય એ છે કે ભેજન અથવા પેય પદાર્થોને સુસ્વાદ બનાવવાના વિચારથી આપસમાં ભેગા કરવા લાગ્નપાન સંજનાધિકરણ છે. ઉપકરણ-ઉપધિ–વસ આદિને અન્ય વસ્ત્ર આદિથી ભેગા કરવા ઉપકરણ સંજનાધિકરણ છે નિસર્વાધિકરણ ત્રણ પ્રકારનાં છે-કાયનિસર્વાધિકરણ, વચનનિસર્ગાધિકરણ અને મને નિસગ ધકરણ ઔકારિક આદિ શરીરનું શવષ્ણુન્દ વિધિથી શાસ્ત્ર દ્વારા છેદન કરીને, અગ્નિમાં પ્રવેશ કરીને, જળમાં પ્રવેશ કરીને અથવા ફાંસી ઉપર ચઢીને ત્યાગ કરે કાયનિધિકરણ છે. શાસ્ત્રોપદેશ વગર પ્રેરણા કરવી વચન નિસર્વાધિકરણ છે અને શાત્રે પદેશ વગેરે કર મનોનિસર્વાધિકરણ છે. त० १३ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ ते प्रेरणं मनोनिसर्गाधिकरणम् उच्यते । अत्र बहिव्यापारापेक्षया शरीरादीनाम् अजीवनिसर्गाधिकरणत्वयुक्तम् , जीवाधिकरणे चात्मनः परिस्पन्दोऽन्तःपरिणाम रूपो बोध्यः । मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणेऽस्थान मात्रमेतेपामबसेयमितिविशेषो. ऽवगन्तव्यः । उक्तञ्च स्थानाङ्गे २ स्थाने ६० सूत्रे-णिव्यत्तणाधिकरणिया चेव, संजोयणाधिकरणिया चेच' इति । निवर्तनाधिकरणिकी चैव-संयोजना धिकरणिकी चैत्र, इति । उत्तराध्ययने २५ अध्ययने १४ गायायाञ्चोक्तम्-'आइए निविश्वचज्जा' इति, आदिके निक्षिपेत्-इति । दतवादी उत्तराध्ययने २४ अध्ययने २१-२३ गाथामु चोक्तम्-'पवत्तमाणं-' इति, वर्तमानमिति ॥९॥ मूलमू-सहारंभ परिगह-मारप्पारंभ परिरगासहावमा वित्तं नारय-तिरिय -सणुल्साणं ॥१०॥ . छाया-सहारम्म परिग्रह माया-इल्पारम्भपरिग्रह स्वभावमार्दवत्वं नारकतिर्यग्मनुष्याणाम् ॥१०॥ शास्त्रोपदेश के विना प्रेरणा करना मनोनिलधिकरण है। - यहां शरीर आदि न्याय मागर की अपेक्षा से अजीवाधिकरण कहो गया है । और आत्मा का परिस्पन्द जो आन्तरिक परिणाम है, जीवाधिकारणा, परिगणित है । मूलगुणनिर्वसनाधिशरण में इनकी अवस्थिति मात्र ही अभिप्रेत है । सूत्र के द्वितीय स्थान के ६० वें सूत्र में कहा है-' निनाधिकरनिजी और संयोजनाधिः करणिकी ।' उत्तराध्यापन के २२ अयन की गाथा १४ में कहीं है-'आइए निविखदेना तथा उत्तरायननत्र के २४ वें अध्ययन में शाया.२१-२३ में कहा है-'पत्तनाण' अर्थात् प्रवर्त्तमान ॥९॥ । सूत्रार्थ-महारम्भपरि रगह' इत्यादि। महारंभ, महापरिन, खाया अल्पा-परिग्रह और स्वभाव की અહીં શરીર આદિના બાહ્ય વ્યાપારની અપેક્ષાથી અજીવાધિકરણ કહેવામાં આવ્યું છે અને આત્માના પરિસ્પદ જે આન્તરિક પરિણામ છે, જીવાધિકરણમાં પરિણત છે. મૂળગુણનિર્વત્તાધિકરણમાં એમની અવસ્થિતિ માત્ર જ અભિપ્રેત છે. સ્થાનાંગભત્રના દ્વિતીય રથ નના ૬૦માં સૂત્રમાં કહ્યું છે-નિર્વત્તાધિકરણુકી અને સંજનાધિકરણિકી “ઉત્તરાધ્યયનના રૂપમાં અધ્યયનની ગાથા ૧૪ માં ४थु छ-'आइए' निक्खिवेज्जा' तथा उत्तराध्यानसूत्रना २४ मा अध्ययनमा गाथा '२१-२मां द्यु -'पवत्तमाणं' अर्थात प्रवत्त मान Inel - 'महारम्भ परिग्गह' त्यादि . सूत्राथ-सा, भलायरियर माया, भाभ-परिण : अन Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका नियुक्ति टीका अ. ६ ८.१० कर्मवन्धानव. सर्वायुषामानवत्वम् ९९ • तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् साम्रायिककर्मास्त्र हेतुत्वेन जीवाधिकरणमजीवाधिकरणच प्ररूपितम् , सम्प्रति-कर्मबन्धास्त्रवस्तावत्-सीयुषामात्रंवं प्रतिपादयितुमाह-महारंभ इत्यादि । महात्म्मो नैयिकायुष-स्तिर्यगायुषो । मनुष्यायुषश्च बन्ध हेतुभूत आस्रवो भवतीति, तत्र-भोगभूमिजातागं शीलवतविहीनत्वमपि सौधर्मशानपर्यन्तदेवायुषो बन्धकं भवतीति, एवं-केचिदल्पारम्भपरिग्रहा अपि-सत्यदुपचारसहिता नारकादिति प्राप्नुवन्ति ॥१०॥ ___ तत्वार्थनियुक्ति!-पूर्व तावत् साम्परायिकामामहेतुत्वेन जीगंधिकरणम्-अजीवाधिक रणञ्च समपञ्च प्ररूपितम् , सम्मति धर्मवन्धास्त्रवस्तावत् मृदुता नरकायु, तिर्यचायु और मनुष्यायु के कारण है ॥१०॥ तत्त्वार्थदीपिका--पहले काहा जा चुका है कि साम्पराधिक आत्रव का कारण जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण है, अब विभिन्न आयुष्यों के आस्रव के कारणों का प्रतिपादन करते हैं... महारम्भ नरकायुक्ला, तिर्यंचायु का और मनुष्यायुका आत्रत्र अर्थात् बन्ध का कारण है । भोगभूमि में उत्पन्न मनुष्यों और तिर्यंचों की अपेक्षा शील-व्रतविहीनता भी सौधर्म और ऐशान देवलोक तक देवायु का कारण होती है। अर्थात् भोगभूमि के जीव शील या व्रतका पालन न करके भी देवायु का बन्ध करते हैं, मगर प्रारम्भ के दो देवलोकों में ही उत्पन्न होते हैं। कोई-कोई अल्वारस्ली और अल्पपरिग्रही होते हुए भी अन्य कारणों रहे नरकगति आदि को प्राप्त करते हैं ॥१०॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--लाम्पराधिक कर्म के आलय के कारण जीवाधिસ્વભાવની મૃદુતા, નરકાયુ, તિર્યંચાયુ અને મનુષ્યા યુના કારણ છે ૧૦ તત્ત્વાર્થદીપિકા–પહેલા કહેવામાં આવી ગયું કે સાપરાયિક આસવનું કારણ છવાધિકરણ અને અછવાધિકરણ છે, હવે વિભિન્ન આયુષ્યના આસવિના કારણેનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ - મહાર ભ નરકા યુને, તિર્યંચાયુને અને મનુષ્પાયુના આસવ અર્થાત બન્ધનું કારણ છે. ભેગભૂમિમાં ઉત્પન મનુષ્ય અને તિય ચે ની અપેક્ષા શીલ-વત વિહીનતા પણ સૌધર્મ અને ઈશાન દેવલેક સુધી દેવાનું કારણ છે અર્થાત્ ભેગભૂમિના જીવ શીલ અથવા વ્રતનું પાલન નહી કરીને પણ દેવાયનો બધ કરે છે પરંતુ પ્રારંભના બે દેવકમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે કઈ-કઈ અલ્પારંભી અને અપરિગ્રહી હોવા છતાં પણ અન્ય કારણોથી નરકગતિ આદિને પ્રાપ્ત કરે છે. ૧૦ તત્વાર્થનિર્યુકિત –સામ્પરાયિક આમ્રવના કારણે જીવાધિકરણ અને Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्रे ૦૦ सर्वायुषामासवं प्रतिपादयितुमाह- 'महारम्भ परिग्गहमायप्पारंभपरिगह सहायमद्दत्तं नारयतिरियमणुस्साणं' इति । महारम्भ परिग्रहमायाऽल्पारम्भपरिग्रहस्वभावमार्दवस्वं नारकतिर्यङ्मनुष्याणाम्, तत्र - महारम्भो यन्त्रादिरूपः महापरिग्रहः- बहुक्षेत्र वास्तुधनधान्यहिरण्पादिरूपो नारकायुषो वन्धहेतुभूत अस्रत्रो भवति, तथा माया कपटरूरा, तिर्यग्योनिकाऽऽयुषो बन्ध हेतुभूत आस्रवमवति एवम् - अल्पारम्मा - ऽल्पपरिग्रहः स्वभावमार्दवञ्च मनुव्यायुबन्धहेतुभूत आवो भवतीति संक्षे |ः ॥ १० ॥ मूलम् - सरागमंजन, संजमा जमाईणि देवस्स ॥११॥ छाया - सरागसंयम संगमा संयमादीनि देवस्य ॥११॥ करण और अजीवाधिषरण का विस्तार पूर्वक प्ररूपण किया जा चुका है। अब सभी आयुष्यों के आसव का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं महारम्भ - परिग्रह, माया, अल्पारम्भ-परिग्रह और स्वभाव की मृदुता नरकायु, तिचा और मनुष्यायु के आस्रव का कारण है । बडे-बडे यन्त्र, कारखाने आदि चलाना नहारम्न कहलाता है । क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य हिरण्य आदि की पहुतायत होना महापरिग्रह है । ये दोनों नरकायु के आह्न अर्थात् पन्ध के कारण है । माया अर्थात् कपट तिर्यंचायु के बन्ध का कारण है। अल्पारम्भ अल्पपरिग्रह और स्वभाव की मृता मनुष्यायु के बन्ध का कारण है ॥१०॥ सूत्रार्थ - 'साग संजम संजमाह' इत्यादि । सरागसंयम तथा संघमासंयम आदि देवायु के आस्रव के हेतु हैं । અજીવાધિકરણનું વિસ્તારપૂર્વક પ્રરૂપણુ કરવામાં આવી ગયું છે. હવે બધાં આયુષ્યના આત્મત્રનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહે છે महार'ल-परियड भाया, अपारंल पस्थिद्ध भने स्वलावनी भृहुती, નરકાયું, તિય ચાક્ષુ અને મનુષ્યાયુના સત્રના કારણુ છે. મેટા મેટા ચત્રા, કારખાના વગેરે ચલાવવા મહ ર ભ કહેવાય છે. ક્ષેત્ર વાસ્તુ ધન, ધાન્ય હિરણ્ય આદિની ત્રિપૂલના હેવી મડુપરિગ્રહ છે. આ અને નરકાયુ આસન અર્થાત્ અન્યના કારણ છે. માયા અર્થાત્ કપટ તિર્યંચાયુના મન્ધના કારણ છે, અલ્પારભ, અલ્પપરિગ્રહ અને સ્વભાવની મૃદુતા મનુષ્યાયુના અન્યના કારણુ છે ૫૧૦ 'खराग संजम संजमा संजमाई' इत्यादि સુત્રા—સરાગસયમ તથા સયમાસયમ સ્માદિ દેવાયુના માઆવના ।।११।। हेतु छे. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ६ रु. ११ देवायुमानवनिरूपणम् - तत्वार्थदीपिका-पूर्व भत्रे नारकयुष कर्मबन्धहेतुभूता महारम्ममहापरिग्रहादय आत्रमा प्रतिपादिताः सम्पति देवायुष आसवान् प्रतिपादयिहमाह'सरागसंजम संजनास जमाईणि देवाल' इति । सरागः संज्वलन कपाय स्तेन सहितः सराग स्तस्य संयमः, सम्यग्ज्ञानपूर्विका विरतिः संयमापंयमो देश विरतिरू आदिपदात्-अकामनिर्जराबालतपसोहणम् एतानि पूर्वोक्तानि देवस्य-देवसम्बायुष आस्रवा भवन्ति इति भावः । ११॥ " तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व मूत्रे नारकाचायुषां कर्मवन्धहेतुभूता महारम्भ-परि प्रहादय आस्रवाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं-देवायुषः आस्रवान् प्रतिपादयितुमाह तत्यार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में नरकायु आदि के बन्ध के कारण महारम्भ महापरिग्रह आदि वर्णित किये गये हैं। अब देशयु के मात्रवों का प्रतिपादन करते हैं. सरागसंयम तथा संयमासंयम (देशसंयम) आदि देवायु के आस्रव अर्थात् बाध के कारण हैं। यहां राग का अर्थ है संज्वलन कषाय, उससे युक्त संघम सरागसंयम कहलाता है। सम्यग्ज्ञान पूर्वक पाप से निवृत्त रोना संयम है। देशविरति को संयमासंयम कहते हैं। 'आदि' शब्द से अकामनिर्जरा और बालतपका ग्रहण करना चाहिए ये सब देवायु के आस्रव हैं अर्थात् बन्ध के कारण हैं । ११॥ .. ___तत्वार्थनियुक्ति--पूर्वसत्र में नरक आदि आयुष्यों के बन्ध के कारणों-आस्रवों का प्रतिपाइन किया गया अर्थात् यह बताया गया है कि महारम्भ आदि नरकायु मादिक बारग हैं, अब देवायु के आसवों को प्रतिपादन करते हैं -- તવ દીપિકા-પૂર્વસૂત્રમાં નરક યુ આદિના બન્ધના કારણે મહારંભ મહાપરિગ્રહ આદિનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. હવે દેવાયુના આ નું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ સરાગ યમ તથા સંયમસંયમ (દેશસંયમ) આદિ દેવાયુના અસ્તવ અર્થાત બન્ધના કારણ છે અહીં રાગને અર્થ છે સંજવલન-કષાય, તેનાથી યુક્ત સંયમ સરોગસંયમ કહેવાય છે સમ્યફશ નપૂર્વક પાપથી નિવૃત્ત થવું સંયમ છે. દેશવિરતિને સંયમસંયમ કહે છે –આદિ શબ્દથી અકામનિજર અને બાલતપ લેવા જોઇએ આ બધાં દેવાયુના અમર છે અર્થાત્ બધિના કારણ છે ૧૧ તસ્વાર્થનિર્યુકિત-પૂર્વસૂત્રમાં નરક આદિ આયુષ્યોના કારણે આ નું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું અર્થાત્ એ બતાવાયું કે મહારંભ આહિ નરકાયુ આદિના કારણ છે, હવે દેવાયુના આસનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ तत्त्वार्थ 'सरागसंजम संजनासंजमाईणि देवत' इति ! सरागसंयम-संयमासंयमादीनि देवस्य तत्र-रामः संज्दलनकपामा तेन सहितः-तत्सहवर्तीवा सरागः तस्य संयमः, संवरन-संयम, सम्यग्ज्ञानपूर्विका विरतिः हिंसाऽनृतादिभ्यः पञ्चभ्यो नि चिरिति यावत् , संख्यासंयमो देशविरतिरूप-अणुव्रत मित्यर्थः । आदिशब्दाद-अनामनिर्जरा-बालतपप्लोग्रहणम् , तत्रा- ऽकामनिर्जरानाम-काम: इच्छा, निर्जराकर्मपद्यानामात्मप्रदेशतः परिशटनम्-पृथग्मवनम् , कामेन इच्छया तदोपयोगपूर्वक स्वेच्छया या निर्जरा-सा कामनिर्जरा, न कामनिर्जरा-कामनिर्जरा, इयश्च पराधीनतमा-स्याऽप्यनुरोधेन वाऽकुशलस्थानाभित्याऽऽहारादि•. • सरागसंयम और संघमासंघम आदि देवायु के बंध के कारण है। यहां राग का अर्थ संचलन कषाय है । उसले युक्त या उसके साथ जो संयम हो वह सरागलंयम है। संयम का आशय है सम्यग्ज्ञानपूर्वक विति-निवृत्ति अर्थात् हिला असत्य आदि पापों का साग । संयमा संयम देशविरति या अणुव्रतरूप है। सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द + से अकामनिर्जरा और बालतप का ग्रहण होता है। ... काम अर्थात् इच्छा, निर्जरा अर्थात् कर्मपुदगलों का आत्मप्रदेशों से खिरना-पृथक् होना । इच्छापूर्वक, उपयोग के साथ जो निर्जरा की जानी है, वह कालनिर्जरा कहलाती हैं। जो कामनिर्जरा न हो वह आकामनिर्जरा । यह अकामनिर्जरा पराधीनतापूर्वक अथवा किसी के आग्रह से अशुभ स्थान से निवृत्त होने चा आहार आदिका निरोध होने से होती है। - સરાગસંયમ અને સંયમસંયમ આદિ દેવ યુના બન્ધના કારણ છે અત્રે રામને અર્થ સંજવલન ઇષય છે તેનાથી યુકત અથવા તેની સાથે જે સંયમ થાય તે સરાગસંયમ સંયમને આશય છે–સમ્યગાનપૂર્વક વિરતિનિવૃત્તિ, અર્થાત્ હિંસા અસત્ય આદિ પાપે ને ત્યાગ યમસંયમ દેશ વિરતિ અથવા અણુવ્રત રૂપ છે સૂત્રમાં પ્રયુકત આદિ શબદથી અકામનિર્જરા અને બાલતા સમજવા કામ અર્થાત્ ઈચ્છા નિર્જરા અર્થાત્ કર્મ પુદ્ગલેનું આમ પ્રદેશથી ખરી પડવું–જુદા પડવું ઈચ્છાપૂર્વક, ઉપયેગાની સાથે જે નિર્જરા કરવામાં આવે છે તે કામનિ કહેવાય છે. જે કામનિર્જરા ન હોય તે અકામ-નિર્જરા આ અકામનિર્જરા પરાધીનતાપૂર્વક અથવા કેઈના આગ્રહથી અશુભ - થાનથી નિવૃત્ત થવાથી અથવા આહાર આદિને નિરોધ કરવાથી થાય છે. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका -निर्युक्ति टीका अ. ६ सू. ११ देवायुमास्त्रवनिरूपणम् १०३ निरोधेन च भवति । वालस्य- मूढस्यादये वचाऽभिनिवेशमवृत्तस्य तपः भृगुपातजलमवेशाऽग्निमवेशादि बालतपः सरागस्य, एतानि पूर्वोदितानि देवस्य देवसम्ब मध्यायुषो देवायुर्निग्धस्याssसदा भवन्ति, एतैर्देवायुर्वग्धो भवतीति भावः ॥ ११ ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगदुद्दल्लम-मसिद्धवाचक- पश्चदशभाषाकलितळलितकलापाळापकमविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनाचार्य ' पदभूषित - कोल्लापुर राजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री बालिलालवतिविरचितस्या श्री दीपिका - नियुक्तिव्याख्योपेतस्य "तत्वार्थ सूत्रस्य" पण्ठोऽध्यायः - समातः | ६ || बाल वाल अर्थात् मूढ जीव का कहलाता है । तात्पर्य यह है कि कुत्व को तत्त्व समझने वाला कोई अज्ञानी पुरुष ऊपर से गिरता है, जलसमाधि या अग्निसमाधि लेता है, उसका यह कृत्य बालतप कहलाता है | ये सच देवायु के आसार हैं अर्थात् बन्धके कारण है ॥११॥ जैनाचार्य जैनधर्गदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत"वार्थ" की दीपिका - नियुक्ति व्याख्या का छहा अध्याय समाप्त || ६ || B ખાલ અર્થાત મુઢ જીવનું તપ ખાલતપ કહેવાય છે. તાપય એ છે કે કુતત્ત્વને તત્ત્વ સમજનાર કેાઇ અજ્ઞાની પુરૂષ ઉપરથી નીચે પછડાય છે, જળસમાધિ અથવા અગ્નિસ્નાન કરે છે તેનું આવું કૃત્ત્વ ખાલપ કહેવાય છે આ બધાં દેવાયુના આસ્રવ છે અર્થાત્ ખન્યના કારણ છે ।।૧૧। જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર શ્રી પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘તત્ત્વાર્થસૂત્ર’ ની દીપિકા-નિયુકિત વ્યાખ્યાને છઠ્ઠો અધ્યાય સમાપ્તuft फ्र Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०॥ · तत्वार्थस्त्र अथ सप्तमोऽध्यायः ..', मूलम्-आलवनिरोहो संवरो ॥१॥ छाया-'आस्ववनिरोधः संवरः ॥१॥ तस्वार्थदीपिका-षष्ठाऽध्याये तापद् __ 'जीवाऽजीवा य थंधो य पुण्णं पावासहो तहा। __ संवरो जिन्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव' ? इत्युतराध्ययनसूत्रोक्त जीवादि नवतत्त्वेषु क्रममाप्तस्य षष्ठस्य आखवतत्तस्य प्ररू. पणं कृतम् , सम्पति-क्रममाप्तं सप्तमंसंबर तत्त्वं प्ररूपयितुं सप्तमाध्यायं मारममाणाः पथमं संबर तत्वस्य लक्षणमाह-'आलबनिरोशे संचरो' इति । आश्रवनिरोधःपाश्रवस्य मिथ्यात्वाद्यमिनत्र कर्मादान हेतुभूतस्य निरोधः संवरणं संवर उच्यते । ल व संवरो द्विविधा, द्रव्यसंवरो-भावसंवरश्च, द्रव्यसंवरस्तथाविधद्रव्येण मसूणमृतिकादिना सलिलोपरि तरन्नौकादेः सात प्रविशन्नीरार्णा निरोधनं द्रव्यसंवरः, .. सातवां अध्याय (संवर तत्व का विवेचन) सूत्रार्थ--'आसव निरोहो संवरों' इत्यादि । आस्रव का निरोध होना संबर है ॥१॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व सूत्र में क्रम प्राप्त छठे आस्रव तत्त्व का छठे अध्याय में निरूपण किया गया। अब सातवें तत्त्व संवर का विवेचन करने के लिये सातवें अध्याय को प्रारम्भ करते हुए सर्व प्रथम संवर का, लक्षण कहते हैं-मिथ्यातत्वादि नवीन कमों के आगमन के कारण भूत आसत्र का निरोध हो जाना संबर कहलाता है। संबर दो प्रकार का है-द्रव्यसंसर और भावसंबर । किसी चिकनी मिट्टी आदि द्रव्य के द्वारा जल पर तैरती हुई नौका आदि में निरन्तर सात। अध्याय [ स१२ तत्पनु वियन] 'आसवनिरोहो संवरों' त्या સુવાથ– આસવને નિરોધ થવે સંવર છે ૧૫ તત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં ક્રમપ્રાપ્ત છઠાં અધ્યાયમાં આસવ તત્વનું વિવેચન કરવામાં આવ્યું હવે સાતમું તત્વ સંવરનું વિવેચન કરવા માટે સાતમાં અધ્યાયની શરૂઆત કરવાની સાથે સર્વ પ્રથમ સંવરનું લક્ષણ કહીએ છીએ-મિથ્યાત્વાદિ નવીન કર્મોના આગમનના કારણભૂત આસવનું અટકી જવું સંવર કહેવાય છે સંવર બે પ્રકારનાં છે-દ્રવ્યસંવર અને ભાવસંવર કેઈ ચિકણ માટી આદિ દ્રવ્ય દ્વારા, ૫ ણીની સપાટી ઉપર તરતી નૌકા આદિમાં Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ ८.१ संघरस्वरूपनिरूपणम् . . १९५ भावतः-सम्यक्त्वसमिति गुप्ति प्रभृतिभिरात्मरूएनौकायां प्रविशत्कलिलाना निरोधनं भावसंबरः स च सम्यक्त्वादि भेदैविशतिविधः, समिलिगुप्यादिभेदैः सप्तपञ्चाशद्विधः इति संझनया साहसप्तलिदियो भादसबरो भवतीति, सच शशितादिभेदैः सत्यति इति । तथा चोलम्बाको अनहेतु: स्यात्संको मोक्षकारणम् । इतीयमाहती सृष्टि रन्यदस्याः भएञ्च म्' इति ॥ १॥ : तस्वार्थनियुक्ति:-पूर्व जीवादि षट् तथा निरूपिता, सम्पनि सप्तमं संबर तत्वं प्ररूपयितुमाह-'आलबनिरोहो संब' इति अलमनिरोधः-आश्रयन्ति शानावरणादिकमष्टविधं कर्म औरते-बाश्रवाः, वारंग प्रवेशः तेषां संवरणं स्थगनं संवर उच्यते स विधि देशतः सतय, तम देशनः संग सम्यग्दृष्टि प्रवेश करने वाले जल को रोकना हम संबर हैं। और सम्यक्त्व समिति गुप्ति आदि द्वारा आत्मा रूपी नौका में प्रविष्ट होते हुए कर्म रूपी जलका निरोध करनो भादसंबर है यह भावलंधर सम्यत्व आदि के भेदों से सत्तावन प्रकार का होता है इस प्रकार लश मिलो. कर भावसंबर के लतहत्तर (७७) भेद होते हैं ॥१॥ .. तत्त्वार्थनियुक्ति--पूर्व सूत्र में छठे अाय लक अनुम्काम से जीव आदि छह तत्वों की प्ररूपणा की गई । अझ आनव निरोध रूप संवर तत्व की प्ररूपणा करने के लिए कहते है जिनके द्वारा ज्ञानाधरण आदि आठ प्रकार के कामों का आश्रवण-आपसन्द होना है, जो कमों के प्रवेश के मार्ग है इनका निरोध हो जाना अर्थात् इनकी प्रवृत्ति रुक जाना संबर है। तात्पर्य यह है कि आत्मा के परिणाम से कर्मों के उपादान (ग्रहण-आगमन) का अांध होता है उस आत्म નિરન્તર પ્રવેશ કરવાવાળા જળને રોકવું દ્રવ્ય સંગર છે અને સભ્યત્વ સમિતિ ગુમ આદિ દ્વારા આત્મારૂપી નૌકામાં પ્રવિષ્ટ થતાં કર્મરૂપી જળને નિરોધ કર ભાવસંવર છે. આ ભાવસંવર સમ્યક્ત્વ આદિ ભેદથી વાસ પ્રકારના હોય છે તથા સમિતિ ગુપ્તિ આદિના ભેદથી સત્તાવન પ્રકારના હોય છે આ રીતે બધાં મળીને ભાવસંવરના સીતેર ભેદ થાય છે ,, - તત્વાર્થનિયુકિત-પૂર્વસૂત્રમાં છઠા અધ્યાય સુધી અનુક્રમથી જીવ આદિ છ તનું વિવેચન કરવામાં આવ્યું. હવે આસવ-નિરોધરૂપ સંવર તત્વની પ્રરૂપણ કરવા માટે કહીએ છીએ-જેમના દ્વારા જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોનું આસ્રવણ-આગમન થાય છે, જે કર્મોને પ્રવેશ માર્ગ છે. એને નિરાધ થઈ જ અર્થાત એમની પ્રવૃત્તિ બંધ થઈ જવી એ સંવર છે તાણે એ છે કે આત્માના જે પરિણામથી કર્મોના ઉપાદાન (ગ્રહણ-આગમેન) ને त०१५ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ETRPAN तस्थाने नामावतिनां च भवति । सर्वतः संवरस्तु महाबतिनां भवतीति । पुनश्च संवरी द्विविधः द्रव्यसंवरः भावसंबरश्च । तत्र द्रव्यसंवरः नौकादौ प्रविशजलनिरोधार्य खच्छिद्स्य महणमृत्तिकादिना संघरणम् , भादसंवरश्च-आत्मनि प्रविशत्कर्मणा सम्यक्त्वादिभिः संवरणं निरोधनं भावसंवर उच्यते । स च-सम्यक्त्वादिभेदै. विशतिविधः समिति गुप्त्यादिभेदैः सप्तपञ्चाशद्विध इति संमील्य भावसंबर .सप्तसप्ततिविधो भवति, तथाहि-सम्यक्त्वम् १ व्रतप्रत्याख्यानम् २, अपमाद ३, अकषाय ४, योगनिरोधः ५, प्राणातिपातादि पञ्चविरक्षणम् श्रोत्रेन्द्रियादि पञ्चेपरिणाम को संवर कहते हैं। पूर्वोक्त संवर दो प्रकार का है देशसंवर और सर्वसंवर, देशसंवर सम्यग्दृष्टि जीव को तथा अणुव्रतधारी श्रावकको होता है सर्वसंवर पांच महाव्रतधारी मुनिराजको होता है। फिर भी संवर दो प्रकारका होता है-द्रव्यसंवा और भावसंबर । द्रव्य संबर यह होता है जो नौका आदि में आते हुए पानी को रोकने के लिए उसके छिद्र को चिकनी मिट्टी आदि द्वारा रोका जाता है। और आत्मा में प्रवेश करते हुए कमों को सम्पप आदि से रोकना भाव संघर है। वह भाव संघर सम्यक्त्वादि भेदों से बीस प्रकारका, आठ ममिति गुप्ति आदि के भेद से सत्तावन प्रकार का है, इस प्रकार सब मिलाकर भाव संवर के सतहत्तर भेद हो जाते हैं । वे भेद इस प्रकार हैं-सम्यक्त्व १, व्रत प्रत्याख्यान २, प्रगदका अभाव ३ कषायोंका अभाव ४ योग निरोध ५, प्राणातिपात आदि पांचो से विरमण होना અભાવ થાય છે તે આત્મપરિણમનને સંવર કહે છે. પૂર્વોકત સંવરે બે પ્રકાર ના છે-દેશસંવર અને સર્વસંવર, દેશસંવર સામ્યગ્દષ્ટિ જીવને તથા અણુવ્રતધારી શ્રાવકને હોય છે. સર્વ સંવર પંચમહ વ્રતધારી મુનિરાજને હાય છે તે પણ સંવર બે પ્રકારના હોય છે દ્રવ્યસંવર અને ભાવસંવર દ્રવ્ય સંવર તે હેય છે જે નૌકા આદિમાં આવતા પાણુને શેકવાને માટે તેના છિદ્રને ચિકણી માટી આદિ દ્વારા રોકવામાં આવે છે અને આત્મામાં પ્રવેશ કરતાં કર્મોને સમ્યક્ત્વ આદિથી રોકવા તે ભાવ સંવર છે. આ ભાવસંવર સમ્યક્ત્વાદિ ભેદથી વીસ પ્રકારને, આઠ સમિતિ ગુપ્તિ આદિના ભેદથી સત્તાવન પ્રકારને, એવી રીતે બધાં મળીને ભાવ સંવરના સિતેર ભેદ થઈ જાય છે. આ ભેદ આ પ્રમાણે છે-(૧) વ્રત प्रत्याभ्यान (२) प्रभाहना मना (3) पायानी मन. (४) योगनिरोध (૫) પ્રાણાતિપાત આદિ પાંચે વ્રતોથી વિરમવું (૧૦) શ્રોત્ર આદિ પાંચ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ १.१ संवरस्वरूपनिरूपणम् न्द्रियनिग्रहणम् १५, मनोवाकायानां वशित्वम् १८, भण्डोपकरणादीनां यतनया.' ऽऽदानं निक्षेपणं च १९ सूवी कुशाग्रमात्र वस्तुनामपि यतनया ग्रहणं स्थापन२०, चेति विंशति २० । पञ्चसमिति ५ त्रिगुति ८ सुधादिद्वाविंशति परिषह सहन ३०, दशविध श्रमणधर्म ४० द्वादशभावना ५२ सामायिकादि पञ्चचारित्र ५७ सप्त. पञ्चाशत् एवं सर्वसंकलनया भावसंवर, सप्तसप्ततिविधो भवतीति ।।० १॥ मूलम्-तस्स हेउणो समिइ-गुत्ति-धम्मानुपेहा परीसहजया।।' छाया--तस्य हेतवः समिति-गुप्ति-धर्माऽनुप्रेक्षा-परीपहजयाः ॥२॥ तत्त्वार्थदीपिका:-पूर्वसूत्रे शुमाऽशुभकर्मागमन मार्गलक्षणाऽऽस्रवनिरोध १० श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों का निग्रह करना १५, मनवचन और काया को वश में रखना १८ भाण्डोरकरण आदिको यतना से उठाना' और यतना से ही रखना १९, सूई तथा कुश-दर्भ के अग्रभागमात्र भी किसी वस्तु को यातना से रखना और यतना से ही उठाना २०, ये बीस तथा पांच समिति ५ तीन गुप्ति ८ क्षुधा आदि बाईम परीषहों को सहना ३० दश प्रकार का श्रमण धर्म ४० बारह भावना ५२, . और सामायिक आदि ५ पांच चारित्र ५७, इस प्रकार सत्तावन ५७, ऐसे सब मिलाकर भाव संवर के सतहत्तर ७७ भेद होते है ॥१॥ सूत्रार्थ--'तस्स हे उणो समिइ' इत्यादि । समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषहजय, संवर के कारण हैं तत्वार्थदीपिका--पूर्वसत्र में शुभाशुभ कमों के आगमन के मार्ग ઈન્દ્રિયોનો નિગ્રહ કર (૧૫) મન, વચન અને કાયાને વશમાં રાખવા (૧૮) ભાણોપકરણ આદિને યતના પૂર્વક ઉપાડવા અને જતનાપૂર્વક જ રાખવા (૧૯) સેય તથા કુશ-દર્ભના અગ્રભાગ જેટલી કઈ પણ વસ્તુને યતના પૂર્વક રાખવી અને યતનાથી જ ઉપાડવી (૨૦) આ વિસ, તથા પાંચ સમિતિ (५) र शुसि (८) क्षुधा ALE यावीस परीषाने सन ४२१! (30) ६श પ્રકારને શ્રમણધર્મ (૪૦) બાર પ્રકારની ભાવના (૫૨) અને સામાયિક વગેરે પાંચ ચારિત્ર (૫૭) આવી રીતે સત્તાવન, આ બધાં મળીને ભાવ સંવરના સિત્તેર (૭૭) ભેદ થાય છે. ના 'तस्स हेउणो समिइ' या સૂત્રાર્થ–સમિતિ, ગુપ્તિ, ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા અને પરિષહ સંવરના કારણ છે મારા તત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં શુભાશુભ આગમનના ભાગ રૂપ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ तत्त्वार्थसूत्र रूपसंदरस्य प्रतिपादितत्वेन, सम्पति- तहेतुभूतानि समिति-गुफ्यादि तपः पर्यन्तानि प्रतिपादयितुमाह-तम्ल हेउणो' इत्यादि । तद्धेतन:-तस्य पूर्वोक्तास्रवनिरोधलक्षणस्य संपरस्य देवा-उपायाः खलु-समिति, गुप्ति, धर्माऽनुपेक्षा रीषह जय-चारिभाषिक तपश्वेते भान्ति । तत्र-प्रणयन प्राणिपीडा परिहारार्थ वर्तन-प्रवृतिः समितिः ईया-भापै-पणाऽऽऽक्षेपणा-परिष्ठापना रूपापञ्चविधा, सरकारणादात्मनो गोपन-रक्षणं गुप्तिः मनोवाकूकायरूपा, भवार्णवादृद्ध ग देवे द्रनरेन्द्रसूर्यचन्द्रादिवन्दिते पदे-स्थाने-आत्मानं धारयति-स्थापयति धर्मः, शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनरूवाऽनुप्रेक्षा, क्षुत्पादि- वेदनोत्पत्तौ सत्यां पूर्वोपार्जित कर्मनिरणार्थ परितः-समन्तात् सहनं रूप. प्रास्त्रब के निशेध र वरूप वाले संघर का प्रतिपादन किया गया, अय संबर के.कारण समिनि गुप्ति आदि का प्रतिपादन करते है-- - समिलि, गुति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजघ, चारित्र और तप संचर के कारण है सम्यकू प्रकार से अर्थात् प्राणियों को पीड़ा न उपजे, इस प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति के पांच प्रकार हैं-(१) ईर्या (२) भाषा (३) एषणा (४) आदाननिक्षेपण और (५) परिष्ठापना । आत्मा को संसार के कारणों के गोपना-बचाना गुप्ति है। इसके तीन भेद है मनोगुप्ति, वचनप्ति और कायगुप्ति । जो लंसार समुद्र से पार करके देवेन्द्रों नरेन्द्रों एवं चन्द्र-स्मृयों द्वारा बन्दनीय पद पर आत्मा को धारण करे वह धर्म है। बा-बार शरीर आदि के स्वभाव का चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । क्षुधा तृषा आदि पेदना उलन होने पर पूर्वकृत આસવના નિરોધ સ્વરૂપવાળા સંવરનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું, હવે સંવરના કારણે સમિતિ ગુપ્તિ આદિનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ સમિતિ, ગુપ્તિ, ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા, પરિષહ જ્ય, ચારિત્ર અને તપ સંવરના કારણ છે. સમ્યફ પ્રકારથી અર્થાત્ પ્રાણિઓને પીડા ન ઉપજે એ પ્રકારે प्रवृत्ति ४५वी समिति छ. समितिना पांय २४-(१) या (.) लाषा (3) मेष (४) माहाननिय मने (५) प२ि०४।५ना मामाने संसारना કારણેથી ગોપ-બચાવ ગુપ્તિ છે એના ત્રણ ભેટ છે–મને ગુપ્તિ, વચન ગુપ્તિ અને કાયગુપ્તિ જે સંસાર-સમુદ્રની પાર જઈને દેવન્દ્રો, નરેન્દ્રો તથા ચન્દ્ર-સૂર્ય દ્વારા વન્દનીય પદ પર આત્માને ધારણ કરે તે ધર્મ છે-વારંવાર શરીર આદિના સ્વભાવનું ચિન્તન કરવું અનુપ્રેક્ષા છે શુષા, તૃષા આદિની વેદના ઉત્પન્ન થવાથી પૂર્વકૃત કર્મોની નિર્જરા માટે તેમને સમભાવથી સહન Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ रु. २ संवर हेतुभूतसमितिगुप्त्यादिनि० १०५ परीषह स्वस्य जयः परीषहजच उच्यते, चरणं चारित्रम्, चर्य तेऽनेनेति वा चाहि. त्रम्, तपश्च-तपश्चर्या इत्ये ने-आस्रा निरोध लक्षणस्य संवरस्य हेतवः सन्ति ॥२॥ • तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावद् आस्रवनिरोधलक्षणस्य संवरस्योक्तत्वेन, सम्पति तदुपायान् समितिगुभावीन प्रतिपादयितुमाह-'तस्स हेउणों इत्यादि। तद्धेतवः-तस्य पूर्वोक्तास्त्र निरोधलक्षणस्य संवरस्य कर्मासच्छिद्रसंचरणस्य हेतवा -उपायः समिति-गुति-धाऽिनुप्रेक्षा परीपहजय-चारित्राणि, तपश्च भवन्ति । तत्र-समितिः सम्यगायनं सर्वज्ञपणी तज्ञानानुसारिण्यश्चेप्टा, ईर्या भाषादिरूपाः पञ्चविधा, सम्यक क्रिया रूपमति हेतुत्वात्संदरमादधते । गुप्यते-भत्रकारणात कायादियोगलक्षणव्यापारात्संरक्ष्यते-आत्माऽनया, इति शुनित, नोवाकायभेदेन.. कों की निर्जरा के लिए उन्हें समभाव से सहना परीषहजय है। सत् आचरण को था जिसके द्वारा सत् आचाण किया जाय उसे चारित्र कहते हैं तपश्चर्या को तप कहते हैं। ये सब आस्रवनिरोधः रूप संदर के कारण हैं ॥२॥ , तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में संवर के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है अतएव अब हलके कारणों का प्ररूपण करते हैं.-- .. समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप ये संबर के हेतु या उपाय है। इस में सर्वज्ञो द्वारा प्रणीत ज्ञान के अनु. सार गमन भाषण आदि प्रवृत्ति करना समिति है । समिति के पांच भेद है। ये समितियां सम्यक पतला रूप प्रवृत्ति होने के कारण संबर को उत्पन्न करती है। जिसके कारण आत्मा का संसार के हेतुभून काययोग आदि કરવા પરિષહ જ્ય છે. સત્ આચરણને અથવા જેના દ્વારા સતત આચરણ કરવામાં આવે તેને ચરિત્ર કહે છે. તપશ્ચર્યાને તપ કહે છે. આ બધાં આસવ નિરોધરૂપ સંવરના કારણ છેરા તવાર્થનિયુકિત–પૂર્વસૂત્રમાં સંવરના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું આથી હવે તેના કારણેનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ સમિતિ, ગુપ્તિ, ધર્મ, અપેક્ષા, પરીષહજય ચારિત્ર અને તપ એ સંવરના હેતુ અથવા ઉપાય છે. આમાંથી સર્વજ્ઞ દ્વારા પ્રણીત જ્ઞાન અનુસાર ગમન ભાષણ આદિ પ્રવૃત્તિ કરવી સમિતિ છે. સમિતિના પાંચ ભેદ છે. ' આ સમિતિઓ સમ્યફ યતનારૂપ પ્રવૃત્તિ હોવાના કારણે સંવરને ઉત્પન્ન કરે છે જેના કારણે આત્માને સંસારના હેતુભૂત કાયવેગ આદિ વ્યાપીરથી Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे त्रिविधाः कर्मास्त्रवं संवृण्वतः पुरुषस्य गुप्त्यादयः कारणानि भवन्ति । नरकादिगति प्रपातधारणात् क्षमादिदशलक्षणो धर्म उच्यते । अनुप्रेक्षणम्-अनुचिन्तनम् अनुप्रेक्षाऽनया संवरः मुमाध्यो भवति । एवं-परितः समन्तत आपतिताः क्षुत्पिासादयः सह्यन्ते इति परीपहाः देवतिर्यक् मनुष्यादिकृता स्तेषां जयः सम्यक् सहनरूपः परीपहजयः। चर्यते-इति चारित्रम्, चरणंवा चारित्रम्, अष्टविध ज्ञानावरणादिकम चयरिक्तीकरणात् चारित्रम्, सामायिकादि पञ्चविधम् । तप्यते इति तपः, तपति चा कर्तारमिति तपः, द्वादशविधमनशनादिकम् इत्येते सप्तव्यापार से गोपन-रक्षण हो, वह गुप्ति है। उसके तीन भेद हैं-मनो. गुति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति, । कर्म के आरव को रोकनेवाले पुरुष के लिए गुप्ति आदि कारण हैं । नरक आदि दुर्गति में गिरते हुए जीव को.जो धारण करे-बचावे, वह धर्म है। उसके क्षमा आदि दस भेद हैं। बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। इससे भी संवर की साधना में सरलता होती है । इसी प्रकार भूख प्यास आदि को. समभाव से सहन करना परीषह है। यह परीषह कभी स्वयं उत्पन्न होते हैं और कभी-कभी देव मनुष्य-अथवा तिर्यंच मारा उत्पन्न किये जाते है। उनका जय अर्थात् सम्यक् प्रकार से सहन करना परीषहजय है। आचरण करना था जिसका आचरण किया जाय घह चारित्र कहलाता है। ज्ञानावरपीय आदि आठ प्रकार के कर्मों के चय (समूह) को रिक्त करने के कारण उसे चारित्र कहते हैं। वह सामायिक आदि के भेद से पांच प्रकार का है। जो तपा जाय सो तप ગેપન-રક્ષણ થાય તે ગુપ્તિ છે તેના ત્રણ ભેદ છે-મને ગુપ્તિ, વચનગુણિ, કાયગુપ્તિ કર્મને આસ્રવને શેકાવાળા પુરૂષ માટે ગુપ્તિ આદિ કારણ છે. નરક વગેરે દુર્ગતિમાં પડતાં થકા જીવને જે ધારણ કરે-બચાવે તે ધર્મ છે તેના ક્ષમા વગેરે દશ ભેદે છે. સતત ચિતન કરવું તે અનુપ્રેક્ષા છે. એમાં પણ સંવરની સાધનામાં સરળતા થાય છે એવી જ રીતે ભૂખ તરસ વગેરેને સમજાવથી સહન કરવા તે પરીષહ છે. આ પરીષહ કેઈવાર જાતે ઉત્પન્ન થાય છે, જયારે કદી, કદી, દેવ મનુષ્ય અથવા તિર્યંચ દ્વારા ઉત્પન્ન કરવામાં આવે છે. તેમને જય અર્થાત્ સભ્યપ્રકારથી સહન કરવું એ પરીષહજ્ય છે. આચરણ કરવું અથવા જેનું આચરણ કરવામાં આવે એ ચારિત્ર કહેવાય છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મોના ચય (સમૂહ) ને ખાલી કરવાના કારણ તેને ચારિત્ર કહે છે. તે સામાયિક આદિના ભેદથી પાંચ પ્રકારનું છે, - Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.२ संलर हेतुभूतसमितिगुपन्यादिनिक आस्रवनिरोधलक्षणस्य संवरस्य हेतवो भवन्ति । तत्र-इर्यादयः पश्चप्तमितयः, त्रिविधयोग निरोधकरूपा गुप्तथ स्तिस्रो मनोगुप्त्यादयः, क्षमा-मार्दवादयो दशविधो यतिधर्मः, अनित्यादि द्वादश भावनारूपाऽनुप्रेक्षा, क्षुत्पिपासादि द्वाविंशति परीपहाणां द्वादशविधो जयः, सामायिफसंयमादिश्वविधं चारित्रम्, अनशनादि. बाह्य-प्रायश्चित्तादि पडाभ्यन्तरभेदेन द्वादशविधं तपोऽवगन्तव्यम्, सर्वेचैते समिविपभृति तपः पर्यन्ताः संवरोपाया यथाक्रमं स्वरूप-भेदो-पभेदैरग्रेऽभिधास्यन्ते । ___ अथ समित्यादय स्तावत्कथं संवरस्याऽऽस्त्र निरोधलक्षणस्य कारणरूपाः सम्भवन्ति १ इति चेत्-अत्रोच्यते-रागद्वेष परिणतिविशेषरूपाऽऽशैद्राध्यया जो कर्ता को तपावे सो तप वह अनशन आदि के भेद से वारह प्रकार का है। ये सातों आस्रव निरोध रूप संवर के कारण हैं। " ईर्षा आदि पांच समितियां हैं, तीन योगों का निरोध रूप तीन गुप्तियां हैं, क्षमा मार्दव आदि दस प्रकार के धर्म हैं, अनित्य आदि बारह भावनाएं-अनुपक्षाएं हैं क्षुधा पिपासा आदि वाईस परीषहों का विजय है, सामायिक आदि पांच प्रकार का चारित्र है छह अनशन आदि बाह्य और छह प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर यों वारह प्रकार का तप हैं । समिति से प्रारंभ करके तपश्चरण पर्यन्त सभी संवर के उपायों का अनुक्रम से स्वरूप भेद और उपभेद बतलाते हुए आगे कथन करेंगे। शंका-ये समिति आदि आत्रपनिरोध रूप संवर के कारण किस प्रकार होते हैं ? જે તપાવી શકાય તે તપ અથવા જે કત્તને તપાવે તે તપ તે અનશન આદિના ભેદથી બાર પ્રકારનું છે. આ સાતે આસવ નિરોધ રૂપ સંવરના કારણ છે. ઈર્યા આદિ પાંચ સમિતિઓ છે, ત્રણ ગાના નિધ રૂપ ત્રણ ગુણિએ છે, ક્ષમામાર્દવ આદિ દશ પ્રકારના ધર્મ છે, અનિત્ય આદિ બાર ભાવનાઓ અનુપ્રેક્ષાઓ છે, ક્ષુધા, પિપાસા આદિ બાવીસ પરીષહેનો વિ છે, સામાયિક સંયમ આદિ પાંચ પ્રકારના ચારિત્ર છે, છ અનશન આદિ બાહ્ય અને છ પ્રાયશ્ચિત આદિ આત્યંતર, એમ બાર પ્રકારના તપે છે. સમિતિથી પ્રારંભ કરીને તપશ્ચરણ પર્યત બધા સંવરના ઉપને અનકમથી २१३५, हमने अपने वितु थडे ४थन पछीथी शशु. : . શંકા–આ સમિતિ આદિ આસવનિરોધ રૂપ સંવરના કારણે કેવા પ્રકારના હોય છે? Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्याने वसायाल मनोनिवयं-ऐहिकामुमिक विपयामिलापावितस्य पुरुषस्य मनोगुप्तत्वा देव न रागद्वेषादिमूलकं कर्म जनिष्यते । एवं वाग्व्यापार विस्तस्य यथा विहित वाग्भाषिणः खलु वाचाऽपि गुप्तत्वादेव वाचिकमपि-अभियवचनादिहेतुकं कर्म असंवतस्याऽसत्मलापिन इव नोत्पत्स्यते । एवं-कायोत्सर्ग मानः परित्यक्त .. प्राणातिपातादिदोषविषयकं क्रियाकलापस्य सामायिक क्रियाकलापःऽनुष्ठायिनः पुरुषस्य कायगुप्तत्वादेव धावन-वल्गना प्रत्युपेक्षिता ममाजिताऽवनिप्रदेश परिभ्रमणद्रव्यान्तरग्रहणनिक्षेपणादिहेतुकं कायिकमपि कर्म नाश्लिष्टं भवति, इत्येवं सम्यङ् मनोयोगादित्रयनिरोधलक्षणासिस्रो गुप्रयः संवरस्व करणानि ... समाधान-जिल्ला पुरुष ले दाग-द्वेष की परिणति रूप धार्तध्यान और रौद्रध्यान से अपने मन को हटा लिया है और जो इह-परलोक संबंधी विषयों की अभिलाषा से रहित है, व मनोगुप्त होने के कारण राग-द्वेष मुलक कर्म का बन्ध नहीं परता। इसी प्रकार जो वचन संबन्धी व्यवहार से निवृत्त हो गया है या शास्त्रविहित वचनों का ही प्रयोग करता है और इस प्रकार पचन से गुप्त है, वह अप्रिय असत्य वचन के कारण बंधने वाले काम का बन्ध नहीं करता। इसी प्रकार जो कायोत्सर्ग की स्थिति में है, जिसने प्राणातिपात आदि विषयक क्रियाओं का त्याग कर दिया है, जो सामायिक क्रिया के अनुष्ठान में तत्पर है, वह कामगुप्त होने के कारण दौडने भागने, विनी देखी और बिना पूंजी जमीन में पलने, दूसरी वस्तुओं के धरने संठाने आदि मायिक व्यापारों से बंधनेवाले कर्मों से भी युक्त नहीं સમાધાન–જે પુરૂષે રાગ-દ્વેષની પરિણતિ રૂપ આર્તધ્યાન અને રિદ્રધ્યાનથી પિતાના મનને હટાવી લીધું છે અને જે આ લેક પર્લોક સંબંધી વિષયેની અભિલાષાથી રહિત છે તે મનોગુપ્ત હોવાના કારણે રાગષ મૂળક કર્મને અન્ય કરતાં નથી એવી જ રીતે જે વચન સંબંધી વ્યવહારથી નિવૃત્ત થઈ ગયા છે અથવા શાસ્ત્ર-વિહિત વચનો જ પ્રયોગ કરે છે અને એવી રીતે વચનથી ગુમ છે, તે અપ્રિય અસત્ય વચનના કારણે બંધાનારા કર્મને બંધ કરતાં નથી. એવી જ રીતે જે કાર્યોત્સર્ગની સ્થિતિમાં છે, જેણે પ્રાણાતિપાત આદિ વિષયક ક્રિયાઓનો ત્યાગ કરી દીધું છે, જે 'સામાયિક ક્રિયાને અનુષ્ઠાનમાં તત્પર છે તે કાયગુપ્ત હોવાના કારણે દેડવાના. ભાગવાના, વગર જેએ અને વગર પૂજેલી જમીનમાં ચાલવાના, પારકી વસ્તુઓને રાખવા-ઉપાડવા આદિ કાયિક વ્યાપારોથી બંધાનારા કર્મોથી ૫ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टोका अ.७ स्.२ संवर हेतुभूतसमितिगुप्त्यादिनि० । "भवन्ति । एवम्-ईया-म.पै घणाऽऽदान-परिष्ठ'पलक्षणाः पश्च समितयः कार्यव्यापारानुविधायिन्यः, एताः पञ्च समितये ऽपि गुठि सहचरितत्वाद तामिरपि संवरो भवत्येव इति ताः अपि पश्च समतयः संरकारणानि भवन्ति । “एवं-क्षमा, मार्दवा, ऽऽर्जब, शौचानां यतिधर्माणां खलु-अनन्ताऽनुबध्यादिभेदसहित क्रोध-मान-माया-लोभ कपायाण निग्रहकरणेन संघरोत्पादकत्वं भवति सत्य-त्यागाऽविश्वनत्व- ब्रह्मचर्याणाश्च यतिधर्माणां चारित्रवर्द्धकतया संवर. काणस्वं बोध्यम् । संयमस्य च सप्तदशविधस्य कस्यचित् प्रशमन वान्तःपातित्वेन कस्यचित्पुनरुत्तरगुणान्तभूतत्वेन संबरकरणत्वं भवति। अनित्याऽशरणादिहोता। इस प्रकार सम्यक् प्रकार से योग का निरोध रूप जो तीन गुप्तियां हैं, वे संवर का कारण होती हैं। - इसी प्रकार मिमिति, एषणासमिति, आदानसमिति और परिष्ठापनसमिति, जो कायिक व्यापार से ग्रस्बन्ध रखती है, तीन गुसियों से सहचरित होने के कारण संवर का कारण होती हैं। इसी प्रकार क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति-निलो भता (शौच) ये चार धर्म क्रमशः क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों का निग्रह करनेवाले हैं, अतएव संबर के जनक है तथा लत्य, त्याग, अकिंच नत्व और ब्रह्मचर्य धर्म चारित्र के उईक हैं अगए। वे भी संवर के कारण होते हैं, संयम धर्म के सत्रह भेद हैं। उन में से कोई प्रथम ब्रत के अनर्गन है और कोई उत्ता गुणों अन्तर्भून है। अतएव वह भी संवर का कारण होता है। अनित्यन्ध, अशरणत्व યુકત હેતો નથી આવી રીતે સમ્યપ્રકારથી યે ગના નિરોધરૂપ જે ત્રણ ગુખ છે તે સંવરના કારણરૂપ હોય છે એવી જ રીતે ઈમમિતિ, ભાષાસમિતિ, એષણાનિતિ આદાન નિક્ષેપસમિતિ અને પરિષ્ઠાપન સમિતિ, જે કાયિક વ્યાપારથી સંબંધ રાખે છે, ત્રણ ગુપ્તિઓથી સહચરિત હોવાના કારણે સંવરના કારણ હોય છે. . આવી જ રીતે ક્ષમા, માવ, આર્જવ અને મુકિત શોચ-નિલેતા આ ચાર ધર્મ કમશ: ફોધ માન, માયા અને લેભ 5ષોના નિગ્રહ કરનારો છે આથી સંવરના પિતા છે તથા સત્ય ત્યાગ, અકિચનત્વ અને બ્રહ્મચર્ય ધર્મ ચારિત્રના વર્ધક છે આથી તેઓ પણ સંવરના કારણ છે. સંયમધર્મના સત્તર ભેટ છે. તેમાંથી કઈ ભેદ પ્રથમ વ્રતની અતર્ગત છે અને કોઈ ઉત્તર ગુણેમાં અન્તભૂત છે, આથી તે પણ સંવરનું કારણ ગણુ. અનિત્યત્વ, અશરણવ આદિ અનુપ્રેક્ષાઓ પણ સંવરના કારણ છે અને तक १५ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ११४ तस्यार्थसूत्रे . भावनारूपानुपेक्षाया अपि संदरहेतुत्वम् - उत्तरगुणानुविधायित्वञ्च भवति । एवंक्षुत्पिपासादि द्वाविंशति परीपहाणां विजयोऽपि संवरकारणं भवति । एवं द्वादश विधं तपोऽपि - उत्तरगुणान्तःपातितया संवरमाविष्करोति । एवं प्राणातिपात . मृषावादादचादान-मैथुन - परिग्रह - रात्रिभोजनानि संश्लेप विशेपादित कालु.. वयस्य पुरुषस्य कर्मास्रवकारणानि भवन्ति तेभ्यो विरमणेन कर्मावनिरोधो - भवति, तस्मात् पश्चाणुव्रताना मपि संचरकरणत्वं वर्तते, आधाकर्मादि परिभोगहेतुकं कर्मास्रवणं भवति । तत्परित्यागे तु न सम्भवति कर्माणम्, तस्मात् समित्यादि तपःपर्यन्तं सर्वमेत्र शङ्खादि दोपजालरहितसम्यग्दर्शनपीठ प्रतिबन्धं वर्तते, अत स्वार्थश्रद्धानळक्षणे सम्यक्त्वे सति न खलु मिथ्याआदि अनुप्रेक्षाएं भी तंवर का कारण हैं और उत्तरगुण रूप हैं । क्षुधा पिपासा आदि बाईस परीषहों को जितना भी संवर का कारण है । बारह प्रकार का तप भी उत्तर गुणों में सम्मिलित होने से संवर को प्रकट करता है । इसी प्रकार प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन चित्त को कलुषता वाले पुरुष को कर्म के आस्रव के कारण होते हैं और इन पापों से विरक्त होने से आस्रव का निरोध होता है इस कारण पांचों व्रत भी संवर . के कारण हैं । आधा कर्म आदि दोषों वाले आहार आदि का - सेवन करने से कर्म का आस्रव होना है । उसका त्याग कर दिया 'जाय तो आस्रव नहीं होना अर्थात् संवर हो जाता है । इस प्रकार समिति गुप्ति आदि पूर्वोक्त सभी सवर के कारण तभी होते हैं जब कि सम्यग्दर्शन विमान हो और सम्यग्दर्शन होने पर मिथ्या < ઉત્તરગુણરૂપ છે. ક્ષુધા પિપાસા વગેરે મ વીશ પરીષહેાને જીતવા એ પણ સંવરના કારણુ છે. ખાર પ્રકારના તપ પણ ઉત્તરગુણેમાં સમ્મિલિત હાવાથી સવરને પ્રકટ કરે છે. એવી જ રીતે પ્રાણાતિપાત, મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મૈથુન, પરિગ્રહ અને રાત્રિèજન ચિત્તની ષતાવાળા પુરૂષને કર્મોના આસવના કારણુ હાય છે અને આ પાપેાથી વિત થવાથી આસવના નિરાધ થાય છે. આથી પાંચે વ્રત પણ સવરના કારણુ છે. આધકમ આદિ દોષા વાળા આહાર આદિનું સેવન કરવાથી ક્રમના આસ્રવ થાય છે. તેને ત્યાગ કરી દેવામાં આવે તે આસત્ર થતા નથી અર્થાત્ સવર થઈ જાય છે. આવી રીતે સમિતિ ગુપ્ત આદિ પૂકિત બધાં સવના કારણુ છે. આ ખાં સ’વરનાં કારણ ત્યારે જ હાય છે જ્યારે સમ્યકૂદન વિદ્યમાન હોય અને સમ્યક્દન Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ . २ संघर हेतुभूत समितिगुप्त्यादिनि० ११५ दर्शनहेतुका बासिको भवतीति समित्यादयः संवरस्याऽभ्युपायाः अभ्युपगन्तव्याः। एवमेवाऽनशनप्रायश्चित्तध्यानादितपोयुक्तः खलु नूनमेवाऽऽस्रवद्वारं संवृणोतीति भावः। तथाचै-तानि समिति-गुप्ति-धर्माऽनुप्रेक्षा-परीपहजय चारित्र-तांसि कर्मास्रवनिरोधलक्षण संघरकारणानि भवन्ति । उक्तञ्चस्थानाङ्गे प्रथमवृत्तिस्थाने-'समई गुत्ती धम्मो' अणुपेहपरीसहा चरित्तं च । सत्तावन्नं भेया' पणतिग भेयाई संवरणे-॥९॥ इति, समिति-१ गुप्ति२ धर्मों ३ ऽनुप्रेक्षा-४ परीपहा-५ चारित्र-६ च । सप्नपञ्चाशभेदा: पश्चत्रिंशभेदाः संचरणे ॥१॥ इति । 'उत्तराध्ययने निदिध्ययने षष्ठगाथाया' श्वोक्तम्-एवं तु संजयस्तावि पाचक्रम्मनिरालवे। भदकोडीसंचियं कम्मं तवसा निज्जासह ॥३॥ इति एवञ्च संस्तस्यापि पापकर्मनिरास्त्रवः । भवकोटी सश्चितं कर्म तपसा निर्जरिष्यति'-इति ॥२॥ दर्शन हेतु वर्मका आत्र त्र रुक जाने से भी संकर होता है। . तात्पर्य यह है कि अनशन प्रायश्चित्त ध्यान आदि तपों से जो युक्त होता है, वह निश्चय ही आस्रवद्वारों का निरोध करता है। इस कारण ये समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप, कर्मों के आस्रव के निरोध रूप संवर को उत्पन्न करते हैं । स्थानांगसूत्र के प्रथम वृत्तिस्थान में कहा है-समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा और चारिन ये संदर के सत्तावन भेद होते हैं ॥१॥ उत्तराध्ययन के तीसवें अध्ययन की छठी गाथा में भी कहा है'इस प्रकार संघमवान पुरुष पाप कर्मों के आस्रव से रहित हो जाता है और तपश्चरण के द्वारा कोटि-कोटि भवों में उपार्जित कर्मों की निर्जरा हो जाती है ॥२॥ હોવાથી મિથ્યાદર્શને હેતુક કમને આસ્રવ શેકાઈ જવાથી પણ સંવર થાય છે. કહેવાનું એ છે કે અનશન પ્રાયશ્ચિત્ત ધ્યાન આદિ તપથી જે યુક્ત હોય છે તે નિશ્ચયપણે જ આસ્રવારોને નિરોધ કરે છે. આ કારણથી આ સમિતિ, ગતિ, ધર્મ, અનુપ્રેસા, પરીષહજ્ય, ચારિત્ર અને તપ કર્મોના આમ્રવના અટકાવ રૂપ સંવરને ઉન કરે છે સ્થાનાંગસૂત્રના પ્રથમ વૃત્તિ સ્થાનમાં કહેવામાં આવ્યું છે-સમિતિગુ , ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા અને ચારિત્ર આ સંવરના સત્તાવન ભેદ થાય છે તેના ઉત્તરાધ્યાયનના ત્રીસમા અધ્યયનની છઠી ગાથામાં પણ કહ્યું છે–આ પ્રકારે સંયમવાન્ પુરૂષ પાપકર્મોના આશ્વવથી રહિત થઈ જાય છે અને તપશ્ચર્યા દ્વારા કટિ-કેટિ ભામાં ઉપાજિત કર્મોની નિર્જરા થઈ જાય છે ! Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्ते .. - मूलम्--समिओ पंच, ईरिया-भासा-एसणा-आयाणनिक्खेवणा परिट्रावणिया श्रेयओ ॥३॥ *." छाया-'समिन्यः पञ्च, ईश-भाषणाऽऽदाननिक्षेपणापरिष्ठापनिका भेदतः ।। .. तस्वार्थदीपिका-पूर्व मुत्रे तारद्-आत्रपनिरोधलक्षणसंवरस्य हेतुरूपाणि ममिति-गुप्ति-धर्माऽनुपेक्षा-परीपहजग-दारित्रतगसि प्रोक्तानि, सम्पतितत्र प्रथमोपात्तायाः समितेः स्वरूपं प्ररूपविताह 'समिईओ पंच, ईरिया भासा एसा आयाणनिस्खे कणा-परिट्ठावणिया भेयओ' इति, समितयः-माणिपीडापरहारार्थ सम्यगायनरूपाः पञ्च भवन्ति, ईर्या-१ भाषा-२ एपणा-३ आदाननिक्षेपण।-४ परिष्ठापनिका-५ चेत्येताः पञ्च समितयो ज्ञाततत्वस्य श्रमणस्य माणिपोडापरिहाराऽयुपाया आगन्तव्याः पुरतो जीव. रक्षार्थ युग्यमानभूशा निरीक्ष्य गमनम्-ई- समितिः-१ सावधपरिहार. 'समिईओ पंच ईरिया' इत्यादि । सूत्रार्थ-ईर्शा, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और परिष्ठापनका के भेद से समितियां पांच हैं ॥३॥ - तत्वार्थदीपिका-पूर्वस्त्र में समिति, गुप्ति, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप को आनवनिरोष रूप संवर का कारण कहा है। अय इन में सब प्रथम गिनाई समिति के स्वरूप का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं--- । समितियां पांच हैं-(१) ईचौसमिनि (२) भाषासमिति (३) एषणा समिति (४) आदाननिक्षेपणासमिति और (५) परिठापनिकासमिति ये समितियां लरथ के ज्ञाता श्रमण के लिए प्राणियों की पीडा को 'समिइमो पच ईरिया' त्याह સૂત્રાર્થ–ઈર્ષા, ભાષા એષણ નિક્ષેપણું અને પરિષ્ઠાપનિકાના ભેદથી સમિતિઓ પાંચ છે ? . तत्वार्थही ५-पूर्व सूत्रमा समिति गुति, ५, मनुप्रेक्षा, पशेषજ્ય ચરિત્ર અને તપને આ સ્ત્રવનિરોધરૂપ “સંવરના કારણ કહ્યાં છે. હવે એ પૈકી પ્રથમ ગણાવેલી સમિતિના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહીએ છીએ। समितिमा in -(१) समिति (२) Nषा समिति (3) मेष! સમિતિ (૪) આદાન નિક્ષેપણાસમિતિ અને (૫) પરિષ્ઠાપનિકાસમિતિ આ સમિતિઓ તત્વના જ્ઞાતાશ્રમણ માટે પ્રાણિઓની પીડાને બચાવવા માટે Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %ES दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७. ३ समितिभेदनिरूपणम् . पूर्वकं निरवद्यभाषाभाषणम्-भाषासमितिः २ गवेषणा पूर्वक द्वाचत्वारिंशदोषान् वर्जयिस्वाऽऽहारादिग्रहणम् एपणासमितिः ३ वस्त्र पात्राद्युपकरणानां सुपतिलेखित- सुप्रमार्जितादि क्रमेणाऽऽदाननिक्षेषणम्-आदाननिक्षेपणा समिति:- ४.. उच्चार-प्रस्रवणादीनां स्थण्डिलदोपपरिहारपूर्वकं परिष्ठापनम्-परिष्ठापनिकाः समितिः-५ अगं भार:-भज्छतः श्रमणस्य चतुर्हस्तमात्रमार्गनिरीक्षणपूर्वकं: सावहितदृष्टे शान्तचित्तस्य सम्यक्तया विज्ञावजीवस्थानस्वरूपस्य-ईयों समितिरवगन्तव्या-१ हितगरिमिनुस् असन्दिग्धं सत्यम्-अमयावर्जितम्-पियं सन्देहवनितं - क्रोधादिकपायानुत्पादकम्-दु-धर्माविरोधि - देशकालाधुचितं: बचाने का उपाय है। (१) जीवों की रक्षा के लिए सामने चार हाथ भूमि देखकर चलना ईममिति है। (२) सावध वचनों का त्याग करके निरवद्य भाषा बोलना भाषा समिति है । (३) बयालीस दोष टालकर गवेषणा पूर्वक आहार आदि को ग्रहण करना एषणासमिति है। (१) वस्त्र पात्र आदि उपा.रणों को भली भांति देखकर और पूंज-कर ग्रहणकरना और रखना आदाननिक्षेपणासमिति है । मल-मूत्र आदि को निर्जीव भूमि पर देख-भाल कर त्यागना परिष्ठापनिका समिति है। .. .. तात्पर्य यह है-(१) लाधु जय गबन करे तो चार हाथ रास्तादेखकर, उपयोग पूर्ण सृष्टि काला, एवं शान्तचित्त होकर जीवस्थानों के स्वरूप को लम्यक् प्रकार से जानकर चले, यह ईर्यासमिति है। .. (२) हितजनक, परिमित, असंदिग्ध, हत्य, ईर्षारहित, प्रिय, सन्देहरहित , क्रोध आदि व.पायों को न उत्पन्न करने बोले, कोमल ઉપાય છે (૧) જીવોની રક્ષા કાજે નજર સામેની ચાર હાથે જમીનનું પડિ. લેહન કરીને ચાલવું ઈસમિતિ છે. (૨) સાવદ્ય વચનને ત્યાગ કરીને નિરવઘ ભાષા બેલવી ભાષાસમિતિ છે. ૩ બે તાલીશ દોષ ટાળીને ગષણાપૂર્વક આહાર અદિને ગ્રહણ કરવા એષણ સમિતિ છે (૪) વસ્ત્ર પાત્ર આદિ ઉપ કરણેને સારી પેઠે જઈને અને પૂજ્યા બાદ લેવા તથા મુકવા આદાન નિક્ષેપણા સમિતિ છે મળ-મૂત્ર આદિને નિર્જીવ ભૂમિ ઉપર બારીકાઈથી જઈ તપાસી ત્યાગ કરે (નાખવા) પરિઠા પનિકાસમિતિ છે. તાત્પર્ય એ છે કે-(૧) સાધુ જ્યારે ગમન કરે ત્યારે ચાર હાથ રસ્તે જોઈને, ઉપગપૂર્ણ દૃષ્ટિવાળા તથા શાન્તચિત્ત થઈને જીવ સ્થાનના સ્વરૂપને સમ્યફૂપકારથી જાણીને ચાલે, એ ઇયસમિતિ છે (૨) હિતજનક, પરિમિત, અસ દિગ્ધ, સત્ય, ઈર્ષારહિત, પ્રિય, સંદેહ રહિત ધ આહિ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे हास्यादिरहितं वचोऽभिधानम् - भापासमिति रुच्यते-२ उद्गमोत्पादनादि दोषरहितम् -परार्थनिष्पादितं समुचितकाले आहारग्रहणम्-एपणासमिति रुच्यते-३ धर्मोपकरणग्रहणे सम्यग् विलोक्र रजोहरणादिना प्रतिलिख्य ग्रहणस्थापनम् आदाननिक्षेपणाममितिः-४ प्राणिना मविरोधेनाऽङ्गमलत्यागः शरीरस्य स्थापनश्च परिप्ठापनिकासमिति रुच्यते-५ इत्येताः पञ्च समितयः माणिपीडा परिहारस्याऽभ्युपाया अवगन्तव्याः ॥३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:--'पूर्व तावत्-संबरकारणभूतानि समित्यादीनि मोक्तानि, तत्सेवनादेव सवरसिदिः पतिपादिता, सम्पति-धर्मासनिरोध धर्म से अविरुद्ध, देश-काल के अनुकूल तथा हास्यादि से रहित वचन बोलना भाषा समिति है । (३) उद्गाम और उत्पादन सम्बन्धी दोषों से रहित, दूसरों के निमित्त पनाये हुए आहार को उचित काल आने पर ग्रहण करना एषणा समिति है। (४) धर्मोपकरणों को ग्रहण करते समय सम्यक् प्रकार से अवलोकन करके और रजोहरण आदि से पूंज कर ग्रहण करनो और इनी विवि से रखना आदाननिक्षेरणा समिति है । (५) किसी भी प्रागी को किसी प्रकार की पीडा उत्पन्न न हो, इस प्रकार शरीर के मल का उत्सर्ग करना परिष्ठापनिकासमिति कहलाती है। यह पांव समिनियाँ प्राणियों को पीडा से बचाने के लिए उपाय हैं ॥३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति इससे पूर्व समिति आदि संवर के कारण कहे गए हैं और यह भी लाया गया कि मनके सेवन से ही संबर की કષાને ઉત્પન્ન ન કરન ૨, કોમળ, ધર્મથી અવિરૂદ્ધ દેશકાળને અકૂળ તથા હાસ્યાદિથી રહિત વચન બોલવા ભાષા સમિતિ છે (૩) ઉદ્ગમ અને ઉત્પાદન સંબંધી દેથી રહિત બીજાને બતાવેલા આહારને યોગ્ય સમય થવાથી ગ્રહણ કરે એષણ સમિતિ છે, ધર્મ ઉપકરણને ગ્રહણ કરતી વખતે સમ્યક્ પ્રકારથી અવલોકન કરીને અને રજોહરણ આદિથી પંજીને લેવા અને આવી જ વિધિથી પાછા મુવા આદાન નિક્ષેપણ સમિતિ છે. (૫) કોઈ પણ પ્રાણીને કઈ રીતે પીડા ન ઉદ્ભવે એ રીતે શરીરના મળનો ત્યાગ કર પરિષ્ઠાપનિકાસમિતિ કહેવાય છે આ પાંચ સમિતિઓ પ્રાણિ એને પીડાથી બચાવવાના ઉપાય છે ? તત્વાર્થનિયુક્તિ-આની અગાઉ સમિતિ આદિ સંવરના કારણે કહે, વામાં આવ્યા અને એ પણ સાબિત કરવામાં આવ્યું કે તેમના સેવ થી જ i - OAD. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७ . ३ समितिभेदनिरूपणम् 1 लक्षणसंवर सिद्धयर्थं पूर्वं तद्गत समितिस्वरूपं परूपयितुमाह- समिईओ पंच ईरिया - भासा - एसणा- आयाणनिक्खेवणा परिद्वावणिया भेयओ' इति । समितयः - सम्यगयनरूपाः पञ्च भवन्ति । ईर्ष्या - भाषैषणाऽऽदाननिक्षेपणपरिष्ठापनका भेदतः । तथा च ईर्यासमितिः भाषासमितिः, एषणासमिति', आदाननिक्षेपणासमितिः पारिष्ठ पनिका समितिवेश्येवं पञ्च समितयः - अवगन्तव्याः । तत्र - आगमानुसारेण ईरण मीर्या गविपरिणामः सम्यगागमानुसारिणी गतिः ईर्यासमितिरुच्यते-१ एवम् एषणासमितिः खद- सम्यग्र आगमानुसारेणाऽऽहारादे रत्वेषणं गवेषणरूपा बोध्या- २ एवम् सम्यग् आगमानुसारेणाऽऽदानं ग्रहणं, निक्षेपः-स्थापनम् तयोः समितिः प्रवचनोक्तेन विधिना Sनुगताऽऽदाननिक्षेपणा समितिः - ४ एवम् आहारोपधिशय्योच्चारादेरागमातुसारेण परिष्ठापनम् परिष्ठापनिका समिति रुच्यते-५ 'उक्तव' - सिद्धि होती है । अथ कर्मों के सत्र के निरोध रूप संचर की सिद्धि के लिए उन में से सर्वप्रथम समितियों के स्वरूप की प्ररूपणा करते हैं प्र समितियां पांच है- (१) ईर्यासमिति (२) भाषासमिति (३) एषणा समिति (४) आदाननिक्षेपणासमिति और (५) परिष्ठापनिकाममिति । इनमें से (१) शास्त्र तिपादित विधि से गमन करना ईसमिति है (२) प्रयोजन होने पर शास्त्रानुकूल वचनों का प्रयोग करना भाषासमिति है । (३) आगम के अनुसार आहार आदि की गवेषणा करना एषणा समिति है (४) आगम के अनुकूल विधि से किसी वस्तु को रखना और उठाना आदाननिक्षेपणा समिति है । (५) अचित्तभूमि देख-भाल कर मल-मूत्र आदि का त्याग करना परिष्ठापनिका समिति है कहा भी हैસવરની સિદ્ધિ થાય છે. હવે કર્માંના આસવના નિધ રૂપ સંવરની સિદ્ધિ માટે તેમાંથી સવપ્રથમ સમિતિએના સ્વરૂપની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ. समितिगे। यांय छे-(१) र्यासमिति (२) भाषासमिति ( 3 ) 'शेषणा સમિતિ (૪) આદાનનિÀપણાસમિતિ અને (૫) પરિષ્ઠાપનિસમિતિ શ્મામાંથી (૧) શાસ્ત્રપ્રતિપાદિત વિધિથી ગમન કરવું ધૈર્યાં.તિ છે. (૨) પ્રયોજન થવાથી શાસ્ત્રાનુકૂળ વચનાના પ્રયાગ કરવા ભાષાસિિત છે (૩) આગમ અનુસાર આહ ર વગેરેની ગવેષણા કરવી એષણાસમિતિ છે (૪) આગમન અનુકૂળ વિધિથી કઈ વસ્તુને મુકવી-ઉપાડવી આદાન નિક્ષેપણુ સમિતિ છે. (૫) અચેતભૂમિ જોઇ-તપાસીને મળ-મૂત્ર વગેરેને પરઢવા પષ્ઠિા પનિકા समिति छे, छु याशु - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " तस्यायसूत्र . . 'तद्गुण परिशुद्धयर्थ-मिक्षोगुतीजगादति सोईन् । ... 'चेष्टितुकामस्य पुनः-समितीः प्राजिज्ञप्त् पश्च ।।१।। इति - दशवकालिके पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशके तृतीय-चतुर्थसूत्रे चोक्तम्---- : : 'पुरओ जुगमायाए पेहमाणो महिंचरे । ....... धज्जितो पीथहरियाई पाणेश दगट्टियं ॥१॥ ओचाय धिसम खाणु विज्जलं परिवज्जए। संकमेण नच्छिमा विज्ञमाणे परक्कमे ॥२॥ इति । " 'चारित्रगुण की विशुद्धि के लिए अर्हन्त भगवान् ने साधु के लिए तीन गुप्तियों का प्रतिपादन किया है, किन्तु जब किसी प्रकार की प्रवृत्ति करनी हो तब उसके लिए पांच समितियों का कथन किया है ।। दशवकालिकसूत्र पंचम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की गाथा तीसरी और चौथी में कहा है-- ", : 'सामने चार हाथ-युगपरिमित-भूमि का निरीक्षण करता हुआ और बीज तथा हरितकाय की रक्षा करता हुआ तथा द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों को, सचिन जल एवं मृत्त का को बचाता हुआ चले।१॥ 1. 'गडहा उबडखादड, ढूंठ और कीचड से बचे। दूसरा मर्ग हो तो संक्रम-मार्ग से गमल न करे अर्थात् देले मार्ग से न जावे जिसे पार करने के लिए पत्थर, इंट, या लक्कड आदि रक्खा हो और उस पर पांव रखकर गमन करना पडे ॥२॥ . ચારિત્રગુણની વિશુદ્ધિ કાજે અહંત ભગવાને સાધુ માટે ત્રણ ગુપ્તિઓનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. પરંતુ જ્યારે કે ઈ પ્રઠારની પ્રવૃત્તિ કરવી હોય ત્યારે તેના માટે પાંચ સમિતિઓ કહેવામાં આવી છે જેના દશવૈકાલિક સૂત્રના પાંચમા અધ્યયનના પ્રથમ ઉદ્દેશકની ગાથા ત્રીજી અને ચોથીમાં કહ્યું છે – સામે ચાર હાથ-યુગ પરિખિત-ભૂમિનું નિરક્ષણ કરતે થક, અને બીજ તથા લીલેરીની રક્ષા કરતો થકે તથા શ્રીનિદ્રય આદિ પ્રાણિઓની, સચેત પાણી તથા સચેત. માટીનું રક્ષણ કરતે કરતે ચાલે છે - - 1.डी, मास ४२१, भने यी ५ये. भीन्न माग डाय तो Aist માર્ગથી ગમન ન કરે અર્થાત એવા માર્ગથી ન જાય કે જેને પાર કરવા માટે પથ્થર, ઇટ અથવા લાકડા વગેરે રાખવામાં આવ્યા હોય અને તેના ઉપર પગ મુકીને ચાલવું પડે ારા Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ स. ३ समितिभेदनिरूपणम् 'पुरतो युगमात्रया भेक्षमाणो महीचरेत्वर्जयन् बीजहरितानि प्राणिन श्वोदक-मृत्तिकाम् ॥१॥ अवपातं विपमं स्थाणु विजलं (सकर्दम-) परिवर्जयेत् । 'संक्रमण-(अस्थि रेण) न गच्छेद् विद्यमाने पराक्रमे-(स्थिरे-) ॥२॥ इति। पुनरपि दशकालिके सप्तमाध्ययने द्वितीयोद्देश के द्वितीयसूत्रे चोक्तम् 'जा च सच्चा अवत्तवा-सच्चा गोसाय जा सुसा । जा यं बुद्धेहिं नाइण्णा-न तं भासिज्ज पणवं-॥१॥ या च सत्याऽनक्तव्या सत्या मृषा च या सृषा। या च बुद्धरनाचीर्णा न ता भाषेन प्रज्ञावान् ।।१॥ इति, 'ईर्यासमितिस्वरूपं खल्वन्यत्रापि मोक्तस्'उपयोगोधोतालम्बनमार्गविशुद्धिमियते श्वरतः। सूत्रोदितेन विधिना भवतीर्या समितिरनवधा । १॥ इति, त्यक्ताऽनृतादिदोषं सत्ययसत्यानृतं च निरवद्यम्। । सूत्रानुयायिवदतो भापासमिति भवति साधोः ॥२॥ इति, दशवकालिकसूत्र में ही सातवें अध्ययन के दूसरे उद्देशक के दूसरे सूत्र में कहा है बुद्धिमान साधु ऐसी भाषा का प्रयोग न करे जो सत्य होने पर भी बोलने योग्य न हो, जो सत्याभूषा (मि) हो, जोषिथ्या हो और ज्ञानी जनों ने जिसका प्रयोग न किया हो ॥१॥ ___ अन्यत्र भी ईर्यासमिति का स्वरूप कहा गया है-जो मुनि प्रकाश युक्त मार्ग में, उपयोगपूर्वक, शास्त्रोक्त विधि से चलता है उसके ईर्यासमिति होती है ॥१॥ भाषासमिति के विषय में कहा है-अनृत आदि दोषों से बच દેશવેકાલિક સૂત્રમાં સાતમાં અધ્યયનના બીજા ઉદ્દેશકના બીજા સૂત્રમાં કહ્યું છે– [, બુદ્ધિમાન સાધુ એવી ભાષાનો પ્રયાગ ન કરે છે સ ય હોવા છતાં પણ બોલવા યોગ્ય ન હોય જે સત્યાસત્ય (મિશ્ર) હોય જે મિશ્યા હોય તેમજ જ્ઞાની પુરૂએ જેને પ્રાગ ન કર્યો હોય ? ' અન્યત્ર પણ ઈર્યાસમિતિનું સ્વરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે–જે સુનિ પ્રકાશ ચુત રસ્તામાં, ઉપગપૂર્વક, શાસ્ત્રોકત વિધિથી ગમન કરે છે તેની ઈય સમિતિ હોય છે ભાષા સમિતિના વિષયમાં કહ્યું છે-“અમૃત આદિ દેથિી બચીને त०१६ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - .' तरवासन एवञ्चाऽऽत्रश्यकार्थमेव संयमाय सप्तदश विधाय सर्वतो युगमात्रनिरीक्षाऽऽयुः क्तस्य शनैः शनैः स्थापितपदागति रीर्यासमितिः। हितमिताऽसन्दिग्धाऽनवद्याऽर्थनियतभाषणं भाषासमितिः। अभ-पान-रजोहरणो-पधि-वस्त्र-पात्रादीनां धर्मसाधनानां शरणायाञ्चो-दमोत्पादनेषणा दोषर्जन मेपणासमितिरिति । उक्तञ्च.... "उत्पादनो-दमैषण-धूमाऽङ्गार-प्रमाण-कारणतः। संयोजनाच पिण्डं शोधयता मेषणासमिति॥१॥ इति । रजोधरणपात्रचीवरादीना-पीठफलकादीनाश्चाऽऽवश्यकार्थम् - उदयकाले विलोक्य, प्रमृज्य च ग्रहण-स्थापनरूपाऽऽहाननिक्षेपणाममिति रुच्यते उक्तश्चकर निरवंद्य एवं प्रायमानुकूल लत्य तथा असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा बोलने वाले साधु की भाषालधिति होती है ॥२॥ इस प्रकार आवश्यक कार्य के लिए, सत्तरह प्रकार के संयम के लिए सामने चार हाथ प्रमाण भूमिका निरीक्षण करते हुए उपयोग पूर्वक धीरे-धीरे गमन करना ईममिति है। हित, मित, असंदिग्ध अनघध और निथल अर्थवाली भाषा का प्रयोग करना भाषासमिति है। अन्न, पानी, रजोहरण आदि उपधि, वस्त्र, पात्र आदि मौंपकरणों में उद्गम, उत्पादन एवं एषणा के दोषों से बचना एषणासमिति है। कहा भी है-'जो मुनि उत्पादना, उगम, एषम, धूम, अंगार, प्रमाण कारणा, संयोजना आदि दोषों से विशुद्ध दिण्ड ग्रहण करता है, वह एषणा समितिले सम्पन्न होता है । १॥ - रजोहरण. पात्र, पात्र, तीर, पाटा आदिको अबश्यक प्रयोजन के लिए उदयकाल में अजनीकन कार के एवं प्रमान करके ग्रहण करना નિરવદ્ય તથા આગમ–અનુકુળ સત્ય તથા અસત્ય મૃના (વ્યવહાર) ભાષા -- બોલનારા સાધુની ભાષા સમિતિ છે પર * આવી રીતે આવશ્યક કર્મને માટે, સત્તર પ્રકારના સંયમ માટે સામેની ચાર હાથનું પ્રમાણ ભૂમિનું નિરીક્ષણ કરતા થકા, ઉપગ પૂર્વક ધીમે-ધીમે ગમન કરવું ઈસમિતિ છે, હિત, મિન, અસંદિગ્ધ, અનવદ્ય એને નિયે અર્થવાળી ભાષાને પ્રવેગ કરે ભાષામિનિ છે. અન્નપાણી ૨હરણ આદિ ઉપધિ, વસ્ત્ર, પાત્ર આદિ ધમપકરણોમાં તથા ઉપાશ્રયમાં ઉદ્ગમ ઉત્પાદન તથા એષણના દેશી બચવું એષણસમિતિ છે કહ્યું પણ છે–જે મુનિ ઉત્પાદનો, ઉદ્દગમ, એષણાધૂમ, અંગાર પ્રમાણ કારણ સંજના આદિ દેથી વિશુદ્ધ વિર્ડ ગ્રહણ કરે છે તે એષણાસમિતિની સન્ન હોય છે. ૨જોહરણ, પાત્ર, વસત્ર પીઠ પાટ વગેરેને આવશ્યક પ્રયોજન માટે ઉદયકાળમાં અવકન કરીને અને પ્રમાર્જન કરીને તે તથા મુકે આદાન Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ . ३ समितिभेदनिरूपणम् 'न्यासाधिकरण दोषान् परिहृत्य दयापरस्य निक्षिपतः । 'न्यासे समिति रथादाने च - उथैशददानस्य ॥१॥ इति, एवं - स्थण्डिले नसल्यावर पाणिरहिते विलोक्य प्रमृज्य च मूत्रपुरीषादीनां परिष्ठापनं - परिष्ठापनिकासमिति रुच्यते । तथा चोक्टस् - 'न्यासादानसमित्या व्युत्सर्गे चापि वर्णिता समितिः सूक्तेन च विधिना व्युत्सृजतोऽर्थं प्रतिष्ठाप्यम् ॥ १ ॥ ' एवं साधी नित्यं यतमानस्वाऽघमत्तयोगस्य । मिथ्यात्वा विरति प्रत्ययं निरुद्धं भवति कर्म - ॥२॥ इति ! या रखना आदाननिक्षेपणा समिति है । कहा भी है- जो बाधु धरनेउठाने सम्बन्धी दोषों का परिहार करके, दयापरायण होकर अपने उपकरणों को धरता या उठाता है, वह आदाननिक्षेपण समितिः से सम्पन्न कहलाता है ॥१॥ १२३ - इसी प्रकार बस और स्थावर जीवों से रहित भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके मलमूत्र आदि का त्याग करना परिष्ठापनिको समिति हैं। कहा भी है रखने ठाने में तथा मल-मूत्र आदि का त्याग करने में भी समिति - यतनापूर्वक प्रवृत्ति का उपदेश किया गया है। परिष्ठापनीय पदार्थ को जो शास्त्रोक्त विधि से पढता है, वह इस समिति से युक्त कहलाता है ॥ १ ॥ नापूर इस प्रकार यता पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले और प्रमादयोग से रहित साधु के मिथ्यात्व और अविरति के निमित्त से आने वाले कर्मों का निशेष हो जाता है || २ || નિક્ષેપણુસમિતિ છે. કહ્યું પણ છે જે સાધુ મુકવા ઉપાડવા સબંધી રાષાના ત્યાગ કરીને, દયાપરાયણ થઇને પેાતાના ઉપકરશે કે અથવા ઉપાડે, તે આદાન નિક્ષેપણુસચિતિથી સમ્પન્ન કહેવાય છે ૧૫ એવી જ રીતે ત્રસ અને સ્થાવર જીવા વહેણી જમીનનુ પડિલેહન તેમજ પ્રમા ન કરીને વડીનીતિ-નીતિ વગેરેને ત્યાગ કરવા. (પરઠવવા) પષ્ઠિપનિકાસમિતિ છે. કહ્યુ' પણ છે લેવા-મુકવામાં મળ-મૂત્ર વગેરેના ત્યાગ કરવામાં પણ સમિતિ-યતમા પૂર્વક પ્રવૃત્તિ-ના ઉપદેશ આપવામાં આવ્યા છે. પરિષ્ઠાપનીય પદાર્થને જે શાશ્ત્રાકત વિધિથી પરહે છે તે આ સમિતિથી સમ્પન કહેવાય છે, ૫૧ આ મુજબ જતનાપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરનારા અને પ્રમાદાગ રહિત સાધુના મિથ્યાત્વ અને અવિરતિના નિમિત્તથી માવનારા કર્મોના નિધ થઈ જાય છે, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરક GES तत्वार्थसूत्रे उक्तञ्च समवायाङ्गे ५-समवाये-'पंच समिईओ पपणत्ताओं तं जहा ईरिया समिई, भानासमिई, एसणाममिई, आयाणभंडामत्तनिक्खे. छणासमिई, उच्चारपाणखेलसिंघाणजल्लपरिट्ठावणिया समिई' इति पश्च समितयः यज्ञप्ताः, तद्यथा-ईसमितिः, भाषासमितिः, एषणासमितिः, आदानभाण्डाऽमत्र निक्षेपणासमितिः, उच्चारमस्रवणश्लेष्मसिंघाणजलपरिष्ठापनिकासमितिः ति ॥३॥ मूलम्-असुहजोगनिरगहेणं अत्तरल गोवणं गुत्ती ॥४॥ छाया--अशुपयोगनिग्रहेणाऽऽत्मनो गोपनं गुमिः-१४ तत्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे-कर्मासानिरोधलक्षणस्य संरस्य कारणभूतेषु पञ्चऽपथमः समितिरूपः उपायः मरूपितः, सम्पति-तस्यैव द्वितीय कारणभूताया गुप्तेः स्वरूपं प्रल्पयितुमाह-'अनुभजोगनिम्गहेणं अत्तस्स गोवणं गुत्ती' समवायांगसूत्र के पांचवें समवाय में कहा है-समितियां पांच कहीं गई हैं, वे इस प्रकार है-ईसिपिलि, भाषासमिति, एषणासमिति आदानभाण्डामन निक्षेपमालमिति, उच्चार प्रस्रवण श्लेष्मसिंघाण जल्लपरिष्ठापनिका समिति । ३॥ ... . 'असुहजोगनिगहेणं' इत्यादि। . सूत्रार्थ-अशुभ योग का निरोध करके आत्मा का गोपन करना गुप्ति कहलाता है ।।४। तत्वार्थदीपिका-- पूर्व सूत्र में कर्मों के आस्रव निरोध लक्षण वाले संबर के पांच कारणों में से प्रथम कारण समिति का प्ररूपण किया गया अब दूसरे कारण गुप्ति के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैंअशुभ योग का अर्थात् मन बचन और काय के अप्रशस्त સમવાયાંગસૂત્રના પાંચમાં સમવાયમાં કહ્યું છે–સમિતિઓ પાંચ કહેવામાં આવી છે તે આ મુજબ આદાન ભાડામત્ર નિક્ષેપણસમિતિ ઉચ્ચાર પ્રસ્ત્રવણ મશિંઘાણજલપરિપન સમિતિ કા 'असुहजोगनिगहेण' त्यहि આ સૂત્રાર્થ-અશુભ ગને નિરોધ કરીને આત્માનું ગાન કરવું (રક્ષણ) शुति ४३वाय छे. તાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં કર્મોના આશ્વવના નિરોધ લક્ષણવાળા સંવરના પાંચ કારણોથી પ્રથમ કારણ સમિતિની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી હવે બીજા કારણે ગુપ્તિના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ અશુભાગને અર્થાત્ મન વચન અને કાયના અપ્રશસ્ત વ્યાપારના - - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीषिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४ गुप्तिस्वरूपनिरूपणम् इति, अशुभयोगस्य कायिक३- वाचिक-२ मानसिक ३ कर्मलक्षणस्य योगनिग्रहो निरोधो-निवृत्तिः अशुभयोगनिग्रहः विषयसुखभोगाऽभिलापार्थ प्रवृत्तिनिषेधा, तेनाऽऽत्मनो गोपनं संरक्षणं गुपित, अशुभ मानसिकादि योगनिग्रहे सरि-आई. रौद्रध्यानलक्ष गसंक्लेशस्य प्रादुर्भावो न भवतीति भावः, तस्मिश्च-उथाविध संक्लेश प्रादुर्भाशमाचे सति कर्मास्र द्वारसंगरणं भवति, तेनाऽऽत्मनो गोपनं संरक्षणं गुप्ति रित्युच्यते । सा च गुप्तिस्वधा मनोगुप्तिः-वचनगुप्तिः कायगुप्ति थेति तत्र-विषयसुखामिलापार्यप्रवृत्तिनिषेधाय सम्यगिति विशेषणं बोध्यम् । एवञ्च-वचोगुप्ति श्चतुर्विधा सत्या-१ मृषा-२ सत्यामवा ३ असत्यामृषा-४ चेति, तत्र सत्पदार्थ कथनरू वचोयोग विषया सत्याधचोगुप्तिः १ तद् विपरीतव्यापार के निरोध से आत्मा को गोपन रक्षण करना शुप्ति कहलाता है। तात्पर्य यह है कि मन आदि के व्यापार का निग्रह करने से आर्तध्यान और रौद्रध्यान रूप सक्लेश के उत्पन्न होने से कर्मों के आस्रव का द्वोर रुक जाता है, इस कारण अशुभ योग से आत्मा का गोपन करना गुप्ति है और वह संघर का कारण है। __गुप्ति तीन प्रकार की है-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्त। विषय सुख की अभिलाषा से मनोयोग आदि के व्यापार को रोकना गुप्ति समझी जाय, अतएव यहां 'सम्घकू' विशेषणे और समझ लेना चाहिए। वचनगुप्ति चार प्रकार की है-(१) सत्या (२) मृषा (३) सत्यामृषा और (४) असत्यापा। सत्पदार्थ का कथन रूप वचनों का निग्रह करना सत्यवचन गुप्ति है । उस से विपरीत वचनयोग विषयक मृषा નિધથી આત્માનું ગોપન (રક્ષણ) કરવું શુદ્ધિ કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે મન વગેરેના વ્યાપારને નિગ્રહ કરવાથી આ ર્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન રૂપ સંકલેશ ઉત્પન્ન થતું નથી. સંકલેશના ઉત્પન્ન નહીં થવાથી કર્મોના આસવનું આગમન શેકાઈ જાય છે. આથી અશુભ.ગથી આત્માનું છે પન કરવું–રક્ષણે કરવું–ગુપ્તિ છે અને તે સંવરનું કે ૨ણ છે. ગુમિ ત્રણ પ્રકારની છે-- મણિ , વચનગુપ્તિ અને કાયસિ વિષય સુખની અભિલાષાથી મનેયેગ અાદિના વ્યાપારને રોકવાને ગુપ્ત સમજવી જોઈએ આથી અહીં-સમ્યક્ વિશેષણ સમજવું જોઈએ. पयनशुति यार प्रानी है-(१) सत्या (२) भूषा (3) सत्याभूषा भने (૪) અસત્યાગ્રુષા સત્યપદાર્થને કથનરૂપ વચનેને નિગ્રહ કરે સત્યવચન ગતિ છે એનાથી વિપરીત વચનગ વિષયક મૃષા વચનગુપ્તિ છે. સત્યાસત્ય Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस बचोयोग विपया मृपा २ उभयात्मक वचोयोगविपया सत्यामृषा ३, उभयस्वभावरहित वचोव्यापाररूा वचोयोगविषयाऽसत् मृपा वचोगुप्तिः ४ एवं-मनोगुप्तिरपि, संत्या-मृपा सत्यामृपा असत्यामृपा चिन्तनरूपभेदेन चतुविधा। कायगुप्तिरपि सत्यादिभेदेन चतुर्विधा कायव्यापाररूप काययोगविषया-सन्या, मृपा, सस्यामृया, ऽसत्या मृषा भावेन कायव्यापारः कारगुतिः इयमनेकधा-रथान निपदन स्वग्नतिनो ल्लंघनप्रलंघनेन्द्रिययोजनसंम्मसभारमनप्रवृत्तिनिवृत्तिभेदात् । एतान् भेदाना. श्रित्याऽऽत्मनः सम्य कूतया संरक्षण रूपा त्रिविधा गुप्ति रुच्यते । तथा चोक्तम्वचन गुप्त है ! सत्यासत्य वचनो का निरोध सत्यापृषा वचनगुप्ति है और जिन्हें सत्य भी न कह सके और असत्य भी न कह सके ऐसे व्यावहारिक वचनयोग का निरोध होना असत्याना वचनगुप्ति है। : मनोगुप्ति के भी चार भेद हैं-सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्याभूषा । वचनगुप्ति में वचन के प्रयोग का निषेध होता है और मनोगुप्ति में सत्य आदि के चिन्तन का। कायगुप्ति भी पूर्वोक्त प्रकार से सत्य आदि के भेद से चार प्रकार की है अथवा इसके अनेक भेद हैं, खडा होना, बैठना, लेटना, लांघना, कूदना, इन्द्रिययोजन, संरम्भ समारम्भ सम्बन्धी प्रवृत्तिको रोकना, यह सव कायगुप्ति है। ..इन सब भेदों की अपेक्षा से आमाका लभ्या प्रकार से संरक्षण करना तीन प्रकार की गुप्ति है। कहा भी है-'समस्त कल्पनाओं के વચનને નિરે ધ સત્યામૃષા વચનગુણિ છે અને જેને સત્ય પણ ન કહી શકાય અને અસત્ય પણ ન કહી શકાય એવા વ્યવહારિક વચનગને વિરોધ થ અસત્યામૃષા વચન ગુપ્તિ છે. : - મોગુપ્તિના પણ ચાર ભેદ છે-સત્યા, મૃષા, સત્યામૃષા અને અસત્યા મૃષા વચનગુપ્તિમાં વચનના પ્રયોગને નિષેધ હોય છે અને મને ગુપ્તિમાં સત્ય આદિના ચિન્તનનો. - કાયગુપ્તિ પણ પૂર્વોકત પ્રકારથી–સત્ય આદિના ભેદથી ચાર પ્રકારની છે અથવા એના અનેક ભેદ છે. ઉભા થવું બેસવું સુવું, ભૂખ્યા રહેવું, કૂદવું ઈન્દ્રિયજન, સંરંભ, સમારંભ સંબંધી પ્રવૃત્તિઓને રેડવી આ બધું 'यति ' छे. કે આ તમામ ભેદની અપેક્ષાથી આત્માનું સમ્યક્ પ્રકારથી સંરક્ષણ કરવું Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ७२.४ गुप्तिस्वरूपनिरूपणम् १२७ 'विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।। आत्मारामं मनस्तज्झै मनो गुप्ति रुदाहता ॥१॥ उपसर्गप्रसङ्गेपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभाव शरीरस्य कायशुप्ति निगयते ॥२॥ शयनाऽऽसननिक्षेपाऽऽदानसंक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु सा परा ॥३॥ - अकुशल मनो वाक्-कायव्यापारान निरुध्य कुशलानां मनोवाकू काय व्या. पाराणा मुदीरणं मनोवाकायगुपितरित्यर्थः ॥४॥ , तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावद् आस्वरनिरोधलक्षणवरस्य समित्यादिषु पञ्चसु हेतुषु प्रथमः समितिरूपो हेतुः प्रतिपादिवः, सम्पति- संवरस्य द्वितीयो. समूह से रहित, समभाव में प्रतिष्ठित और आत्मा में रमण करने वाले मन को मनोगुप्ति कहो है ॥१॥ 'उपसर्ग उपस्थित होने पर भी चुनि कागेत्सर्ग से युक्त होकर अपने शरीर को स्थिर रखता है, यह उसकी कारगुति है ॥२॥ - 'शयन' आसन, रखने, उठाने चलने-फिरने या स्थिर रहने में शारीरिक चेष्टाओं का नियमन करना कायगुप्ति है ॥३॥ आशय यह है कि अकुशल (अशुभ) मन, वचन और काय के व्यापारों को रोक कर मन वचन काय के कुशल नापार करना गुप्ति कहलाता हैं ॥४॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--संबर के समिति आदि जो पांच कारण तलाएं गए हैं, उन में से समिति के स्वरूप का प्रतिपादन किया जा चुका, ત્રણ પ્રકારની ગુપ્ત છે. કહ્યું પણ છે-“સમસ્ત કલ્પનાઓના સમૂહથી રહિત સમભાવમાં પ્રતિષ્ઠિત અને આત્મામાં રમણ કરવાવાળા મનને મને ગુપ્તિ કહેલ છે ? ઉપસર્ગ આવી પડયા છતાં પણ મુનિ કાર્યોત્સર્ગથી યુકત થઈને પિતાના શરીરને સ્થિર રાખે છે, આ તેની કાયગુપ્તિ છે. મારા ___. शयन, मासन, देवा-भुनामा, यासका १२१ मथवा २५ 31 २७१। भाट શારીરિક ચેષ્ટાઓનું નિયમન કરવું કયગુપ્તિ છે જરા ' કહેવાનું એ છે કે અકુશળ (અશુભ) મન, વચન અને કાયાના વ્યાપારને રેકીને મનવચન કાયાને કુશળ વ્યાપાર કર ગુપ્તિ કહેવાય છે. ૪ તત્વાર્થનિયુકિત-સંવરના સમિતિ આદિ જે પાંચ કારણ બત વવામાં આવ્યા છે, તેમાંથી સમિતિના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવી Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१२८ तस्वार्थ पायभूनां गुप्ति प्ररूपयितुमाह-'असुहजोगनिग्गहेणं अस्स गोवणं गुत्ती' इति। अशुभयोगनिग्रहोऽशुम कायादियोगनिरोधः, तेनाऽऽश्मनो गोपन-संरक्षणं गुप्तिः, भवार्णवाद् आत्मसंरक्षणरूपोच्यते । मनोव्यापारो वाग. प्यापार:-कायव्यापारम्च योगा स्तेषां खल्बशुमानां मनो वाकाययोगानां निग्रहो नियापारता गुप्तिरित्युच्यते, न तु प्रत्यग्रापराधस्यापि स्तेनस्येव गाढपन्धनबद्धस्याऽत्यन्तपीडि चित्तप्रदेशस्य पराधीनात्मनोऽनिच्छतो योगनिग्रह इष्यते । एसञ्च-सावध सङ्कलपादिभवभिन्न मनोयोगम् १ सत्यामृपादि भेदभिन्न पाग्योगम्-२ औदारिक-वक्रियाऽऽहारक-तैजसकार्मणभेदभिन्नं काययोग-३ ब. घशल-सवेग-निर्वेदाऽऽस्तिक्याऽनुकम्पाऽभिव्यक्तिलक्षणसम्यग्दर्शन पूर्वक अथ दूसरे कारण गुप्ति का प्रतिपादन करते हैं• अशुभ काययोग आदि से आत्मा की रक्षा करना गुप्ति है। मन, बचन और काय का व्यापार योग कहलाता है । इन मन, वचन और काय के अशुभ व्यापार को रोक देना गुप्ति है। तीन अपराध करनेवाले, गाढे बन्धनों से यद्ध, अत्यन्त पीडित चित्तवाले, पराधीन चोर के योगों का भी निग्रह किया जाता है, किन्तु उसे गुप्ति नहीं समझना चाहिए । कर्मों की निर्जरा के उद्देश्य से स्वेच्छा पूर्वक योगों का जो निग्रह किया जाता है, वही सम्घकू गुप्ति कहलाती है। इस प्रकार सावध संकल्प आदि के भेदों वाले मनोयोग को, सत्यामृषा आदि भेदों वाले वचनयोग को, औदारिक काययोग, वैक्रियकाययोग आहारककाययोग, कार्मणकाश्योग आदि भेदों पाले काययोग को प्रशम, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्य और अनुकम्पा की अभिव्यक्ति लक्षण ગયું હવે બીજા કારણે ગુપ્તિનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ* . અશ્રુભ કાયયોગ આદિથી આત્માની રક્ષા કરવી ગુપ્તિ છે. મન, વચન અને RAM SAIRAT કાયાને ય પાર યોગ કહેવાય છે. આ મન, વચન અને કાયાના અશુભ વ્યાપા ને રોકવા ગુપ્તિ છે ભયંકર અપરાધ કરવાવાળે, ગાઢા બન્ધનેથી બંધાયેલા અત્યન્તપંડિત ચિત્તવાળ, પરાધીન ચોરના ગેનો પણ નિગ્રેડ કરી શકાય, છે પરંતુ તેને ગુપ્તિ સમજવાની ભૂલ કરવી ન જોઈએ. કર્મોની નિર્જરાના ઉદ્દેશથી સ્વેચ્છાપૂર્વક ને જે નિગ્રહ કરવામાં આવે છે તેજ સમ્યગુપ્તિ કહેવાય છે. આ રીતે સાવદ્ય સંકલપ વગેરેના ભેદેવાળા મને ચે.ગને, સત્યા, भूषा माहि मोवास क्यनये गने मोहारिया , वैष्ठिय ४ायये, भाडाરક કાયાગ, કામણકાગ આદિ ભેદેવાળા કાયયોગને પ્રશમ, સંવેગ, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४ गुप्तिस्वरूपनिरूपणम् . . . १२५ ययावदवगम्य भाषतः खलु' एबमेंते योगाः कर्म न्याय परिणता सन्ति, अता. कर्मनिर्जरायै तेषां योगानां कर्मबन्धाय परिणतानां त्रिविधान मूलभेदानामुत्तर भेदानाञ्च योगानां निग्रहः स्ववशे व्यवस्थाएनं स्वास्छन्धपतिषेधेन-मोक्ष. मार्गानुकूल परिणति गुप्ति:, अत्यन्त भयजनकसंसार कर्मबन्धन रूप घातक: शत्रुत:-आत्मनः संरक्षण मितिभावः । सा च गुप्ति त्रिधा भवति मनोगुतिः-- वाग्गुप्तिः-कायगुप्तिश्च, तत्र मनोगुप्चि स्तार मनोगुप्तिः, ऊमार्ग विचार: णाद् आत्मनः स्वरक्षणम् संरक्षितं खल्ल मनो नात्मान र पहन्ति । एवं- बचोगुप्तिा कायगुप्तिरपि तथा च-मन गुप्तिः सावद्यस्य सङ्कल्पस्य महिताऽऽत- रौद्रध्यान पाले सम्यग्दर्शन पूर्वक समीचीन रूप ले जान कर और यह समझ करके कि इन योगों का परिणमन कर्मषध का कारण है, अतएवं कर्मों की निर्जरा के लिए मूल एवं उत्तर भेदों वाले इन योगों का निग्रह करना ही श्रेयस्कर है, इनकी प्रवृत्ति कर्मरन्ध का कारण है, इनको स्वाधीन करना, इनकी स्वच्छन्द प्रवृत्ति न होने देना और उन्हें मोक्षमार्ग की ओर प्रवताना गुप्ति है । लापर्य यह है कि अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाले, संसार एवं कर्मबन्धन रूप घातक शत्रु ले आत्मा का संरक्षण करना गुप्ति कहलाता है । गुप्ति तीन प्रकार की है-मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और कारगुप्त । मनका गोपन करन। अर्थात् उसे उन्मार्ग में जाने से रोककर आत्मा की रक्षा करना मनोगुप्ति है । गोपन किया हुआ मन आत्मा का हनन नहीं करता । वचनगुप्ति और कायगुप्त भी इसी प्रभार समझ लेना चाहिए । નિવેદ, આસ્તિકાય અને અનુ પાની અભિવ્યક્તિ લક્ષણવાળા સમ્યક્દર્શન પૂર્વક સમીચીન રૂપથી જાણીને અને એવું સમજીને કે આ ગેનું પરિણમને કર્મબન્ધનું કારણ છે, આથી કમેની નિર્જરા કરવા માટે મૂળ તથા ઉત્તર ભેદેવાળા આ રોગને નિગ્રહ કરે એ જ શ્રેયકર છે, એની પ્રવૃત્તિ કર્મબન્ધનું કારણ છે, એમને સ્વાધીન કરવા એમની સ્વછંદ પ્રવૃત્તિ ન થા દેવી અને એમને મોક્ષમ ગની દિશા તરફ વાળવા એ ગુપ્તિ છે , તાપ એ છે કે અત્યત ભય ઉત્પન્ન કરવાવાળા સંસાર તેમજ કર્મબન્ધ રૂપ ઘાતક શત્રુથી આત્માનું રક્ષણ કરવું ગુપ્તિ કહેવાય છે. ; ગુપ્તિ ત્રણ પ્રકારની છે મને ગુતિ, વચનગુપ્તિ, અને કાયયુનિ. મનન ગેપન કરવું અર્થાત તેને ઉમાર્ગ તરફ જતું રેકીને આત્માની રક્ષા કરવી મને ગુક્તિ છે. ગોપવામાં આવેલું મન આત્માને ઘ ત કરતું નથી. વચન ગુપ્તિ અને કાયમુતિ પણ આ રીતે જ સમજવાના છે Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ रूपस्य, पापयुक्तकमपरिचिन्धनस्य वा निरोधः करणे प्रवृत्तिवर्जनं, सरागसंयमादिलक्षणकुशल संकल्पानुष्ठान वा मनोगुप्तिः, येन का संकल्पेन धर्मोऽनुरुध्यते शाचांचाऽध्यवसायः कर्वोच्छेदाय भवति । तथाविध कुशलसंकल्पो या मनोगुप्तिभवति । यद्वा-सरागसंयमादौ कुशलेऽपि न प्रवृत्तिः नापि-अंकुशले संपार हनी प्रवृत्तिा मनोगुप्तिः, योगनिरोधावस्थायां कुशलाकुशलसंकल्पनिरोधात् सवस्थायां ध्यानसम्मन सकलकर्मक्षयार्थ एव हि-आत्मनः परिणामो भवतीतिमाः । एवं-वाग्गुप्ति खलु याचना पुन्छा प्रश्न व्याक्रियादिषु वानियपन साबध अर्थात् पापमय लंकल्प का अर्थात् निन्दित आध्यान और शैद्रध्यान का अथवा पापयुक्त कर्म के चिन्तन का निरोध कर देना ऐसा करने में होनेवाली प्रवृत्ति को त्याग देना अथवा सरांग संयम आदि रूप शुभ सङ्कल्प को अनुष्ठान करना मनोगुप्ति है। जिस सङ्कल्प से धर्म का अनुबन्ध होता है और जो अध्यवसाय को के उच्छेद का कारण होता है, कैका शुभ सङ्कल्प करना मनोगुप्ति है। अथवा नतो खरा संचम अदि शुभ अनुष्ठान में प्रवृत्त करना और न संसार के कारणभूत अशुभ कर्म में प्रवृत्ति करना मनोगुप्ति है क्योंकि जय योग का निरोध हो जाता है उस अवस्था में न शुम सङ्कल्प रहता है और न अशुभ सङ्कल्प ही शेष रहता है ! उन अनस्था में आत्मा का जो परिणाम होता है, वह कल कर्म के क्षय के लिए ही होता है। याचना, पूछना और उत्तर देना आदि वाचनिक क्रियाओं में સાવઘ અર્થાત્ પાપમય સંકલ્પનું અર્થાત નિશ્વિત આર્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યનનું અથયા પાપયુકત કર્મના ચિતનને નિરોધ કરવો, આમ કરવા માટે થતી પ્રવૃત્તિઓને ત્યાગ કરે અથવા સરાગ સંયમ આદિ રૂ૫ શુભ સંકલ્પનું અનુષ્ઠાન કરવું મનગુપ્તિ છે. જે સંકલપથી ધર્મનો અનુબંધ થાય છે અને જે અધ્યવસાય કર્મોના ઉછેદનું કારણ હોય છે, એ શુભ સંક૯પ કરે મનગુપ્તિ છે. અથવા ન તે સરાગ સંયમ આદિ શુભ અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્તિ કરવી અથવા ન સંસારના કારણભૂત અશુભ કર્મમાં પ્રવૃત્તિ કરવી મને ગુપ્તિ છે. કારણ કે જ્યારે વેગને નિરોધ થઈ જાય છે તે અવસ્થામાં નથી શુભ સંકલ્પ રહેતો અથવા ન તો અશુભ સંકલ્પ પણ બાકી રહે છે. એ અવસ્થામાં આત્માનું જે પરિણામ થાય છે, તે સકળ કર્મોના ક્ષય માટે જ થાય છે. માગવુ, પૂછવું અને જવાબ દે–વગેરે વાચનિક ક્રિયાઓમાં વચનનું Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ४ गुप्तिस्वरूपनिरूपणम् रूपा, मौनवा-वाग्गुप्ति रुच्यते । तत्र-याचनं तावत् भोजनो-पधि-मय्यादीना मन्यतो गृहस्थादेः प्रार्थनम्, तस्मिन् विषये वा नियमने सति सदोरक मुख वत्रिकाबद्धमुखभागस्य प्रवचनविहित वाक्यभुद्धिमनुसृत्य भाषणं कुर्वाणस्य वाग्गुप्तिभाति, एवं-मार्ग गमनादिविषयं प्रच्छनं कुर्वतः आगमविध्यनुसारिणो वानियमनेन वाग्गुप्तिः, एवं-'धर्मसुपदिशे' ति केनचित्-श्रावकेण पृष्टः सन् सम्यगुपयुक्तः आगमोक्तरीत्या चक्षत, अन्यद्वा सा सा छमन धंवा पृष्टः सन् लोकागमाविरोधेन समाधाय वाकुर्षीत, तथाविधः प्रछनादिविषयो वार नियमो वाग्गुप्ति रुच्यते । एवं-नौनेवाऽभाषण रूपे बचोगुप्ति भति तथा चेक्तम्___'अनृतादिनिवृत्तिा मौनं वा अति वारगुप्तिः' इति । मूलभेदत त्रिविधेश्वशुभेषु योगेषु निगृहीतव्येषु काययोगनिग्रहरूपा कारगुप्तिः खलुवचन का नियमल करना या सर्वथा मौन धारण कर लेना वचनगुप्ति है। इनमें से याचना का अर्थ है-गृहस्थ आदि किसी दूसरे से भोजन, उपधि एवं उपाश्रय आदि की प्रार्थना-मांग-करना । उस विषय में वचन का नियमन होने पर मुख पर डोरा सहित मुखवस्त्रिका बांधने वाले एवं शास्त्रोक्त वचनशुद्धि का अनुसरण करके भाषण करने वाले साधु की वचन गुप्ति होती है। इसी प्रकार आगम की विधि का अनुसरण करने वाले एवं मार्गगमन संबंधी पृच्छा करने वाले पुरुष की वचन के नियमन से बचन गुप्ति होती है। मौन धारण करने से भी वचनगुप्ति होती है। कहा भी है-'अलत्य आदि वचन का त्याग करना अथवा मौन धारण करना बचनगुप्ति है।' मूल भेदों की अपेक्षा तीनों प्रकार के अशुभ योग निग्रह करने નિયમન કરવું અથવા સર્વથા મૌનવ્રત ધારણ કરી લેવું વચનગુપ્તિ છે. આથી માગવાનો અર્થ છે-ગૃહસ્થ આદિ કોઈ બીજા પાસે ભોજન ઉપાધિ તથા ઉપાશ્રય આદિની યાચના માંગણી કરવી કરવી તે વિષયમાં વચનનું નિયમન હોવાથી મુખ પર દેરા સહિત મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાવાળા અને શાસ્ત્રો કત વચનશુદ્ધિનું અનુસરણ કરીને ભાષણ કરનારા સ ધુની વચનગુપ્તિ હોય છે. આવી જ રીતે આગમની વિધિનું અનુસરણ કરવાવાળા તથા માર્ગગમન સંબંધી પૃચ્છા કરવાવાળા પુરૂષની વચનના નિયમનથી વચગુપ્તિ હેય છે. મૌન ધારણ કરવાથી પણ વચનગુપ્તિ થાય છે. કહ્યું પણ છે-“અસત્ય આદિ વચનને ત્યાગ કરે અથવા મૌન ધારણ કરવું વચનગુપ્તિ છે. * મૂળ લેની અપેક્ષા ત્રણ પ્રકારને અશુભગ નિગ્રહ કરવાને ગ્ય - Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे शयनाऽऽसनादाननिक्षेप-स्थानसंचरणेपु विषयेषु कायकृत चेष्टारूपकायिक व्यापारस्य नियममरम्-‘एवं वर्तम् एवं न तव्यम्' इत्येवं व्यवस्थारूपो बोध्यः । तथा चोक्तम्---- : कायलिया निवृत्तिः कायोत्सर्ग शरीरगुप्तः स्यात् । दोषेयो का हिना-दिभ्यो विरतिस्तयोगुप्तिः ॥ इति । उक्तीचराध्ययने २४-मध्य बने पविशति गायायाम् -'गुत्ती नियसणे वुत्ता, असु. भत्थेलु १वलो नि, गुप नियन्त्रणे-उक्ता, अशुपस्थेषु सर्वशः इति ।४. ... मूलम्-द विहे समणधम्ले, खंति-मुक्ति-अज्जवं-मद्दवलाधव-रूच्च-जस-तव-चियाय--बंभचेरवालभेया ॥५॥ - छाया-'दशविधः श्रनणधर्मः, क्षान्ति-मुक्त्या-र्जन-मार्दव-लाघव-सत्यसंयम-तप-स्त्याग-ब्रह्म नयवासभेदात्-१५ के योग्य हैं, उनमें से काययोग का निग्रह करना कायगुसि है अर्थात् शयन, आसन, ग्रहण, निक्षेपण, खडा होना, चलना-फिरना, इत्यादि शारीरिक चेष्टा रूप कायिक व्यापार का नियमन करना एवं 'ऐसा करना चाहिए और ऐसा न करना चाहिए, इस प्रकार की व्यवस्था कायगुस है । कहा भी है' 'योत्सर्ग में शारीरिक क्रिया की निवृत्ति को अथवा हिंसा आदि दोषों से विरति को कायगुप्ति करते हैं।' ... उत्तराध्ययन स्त्र के चौबीसवें अध्ययन की २६ वी गाथा में कहा है-'अशुभ विषयों में पूर्ण रूपेण व्यापार को रोक देना गुप्ति हैं ॥४॥ 'दसबिहे समणधम्म' इत्यादि । स्त्रार्थ-पतिधर्म दम्य प्रकार का है-(१) क्षमा (२) सुक्ति (३) છે તેમાંથી કાગને નિગ્રહ કરે કયગુપ્ત છે અર્થાત્ શયન, આસન, ગ્રહણ, નિક્ષેપણું, ઉભા થવું હલન-ચલન ઈત્યાદિ શારીરિક ચેષ્ટારૂપ કાયિક વ્યાપારનું નિયમન કરવું અને “આમ કરવું જોઈએ અને આમ ન કરવું જોઈએ એ પ્રકારની વ્યવસ્થા કાયગુપ્તિ છે. કહ્યું પણ છે કાયોત્સર્ગમાં શારીરિક ક્રિયાની નિવૃત્તિને અથવા હિંસા આદિ દેથી વિરતિને કાયગુપ્તિ કહે છે. : ઉત્તરાધ્યાયન સૂત્રના ચોવીસમાં અધ્યયનની ૨૬મી ગાથામાં કહ્યું છેઅશુભ વિષમાં પૂર્ણ રૂપથી વ્યાપારને રેક ગુપ્તિ છે. જા . 'दस दिहे समणधग्मे' या सूत्राय-यतिधश प्रा२ना छ-(क्षा) (२) भुरित (3) मा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ, ७ सू.५ दशविध श्रमणधर्मनिरुपणम् १३३ तत्वार्थदीपिका-दशविधः खलु मूलोत्तर गुणयोगात् प्रकृष्टः श्रमण धर्मोऽनगारधर्मों वर्तते, क्षान्ति-मुक्त्या -जंत्र-मादेव-लाघर-पत्य-संयम-तप स्त्याग ब्रह्मचर्यवासभेदात् । तत्र-शरीरस्थिति निर्वाहायाऽऽहारादि याचनार्थ परगृहमुपगच्छनः श्रमण दुष्टजनाऽऽकोश-प्रहसनाऽपमान-ताडनादि सत्वेऽपि तत्तत्सहनम्, कानुष्योत्पादाभावः शान्तिः व्यपदिश्यते १ मरवुद्धिराहित्य-- मुक्तिः, उपात्तेप्वपि शरीरादिषु संस्काराऽऽशक्तिनिरासाय 'ममेदम्' इत्येवं ममत्वबुद्धि निवृत्ति रूपा-इतियावर २ मृदुस्वभारः कायादियोगस्याऽकुटिलता आर्जव (४) मार्दछ (५) लाघव (६) सत्य (७) संयम (८) तय (९) त्याग और (१०) ब्रह्मचर्य ॥५॥ : तत्त्वार्थदीपिका-सूल-उत्तर गुणों के योग से श्रमणधर्म दस प्रकार का है-(१) क्षान्ति (२) मुक्ति (३) आर्जव (४) मार्दव (५) लाधव (६) सत्य (७) संयम (८) तप (९) त्याग और (१०) ब्रह्मचर्य । इनका स्वरूप निम्न प्रकार है , (१) क्षमा-शरीरयात्रा का निर्वाह करने के लिए आहार आदि की याचना करने के लिए पराये घर जाने वाले साधु को दुष्ट जनों को आक्रोश (डाट-डपट', प्रहसन (उपहास), अपमान, ताडन आदि होने पर भी उसे सहन कर लेना और चित्स में कलुषता उत्पन्न न होने देना क्षमा धर्म है। - (२) मुक्ति-ममत्वभाव न हो मुक्ति है। अर्थात् प्राप्त अथवा गृहीत शरीर आदि के प्रति आपकिन को दूर करने के लिए 'ममेदम् (४) मा (५) ६५३ (१) सत्य (७) सयम (८) त५ () त्या अने (१०) प्रायः ॥५ · તત્વાર્થદીપિકા–-સુળ-ઉત્તર ગુના ચોગથી શ્રમણધર્મ દશ પ્રકારને छे-(१) क्षान्ति (२) भुडित (3) मा १ (४) भा १ (५) साध१ (6) सत्य (७) अयम (८) d५ (८) त्या आने (१०) ब्रह्मयय समनु २१३५ नीय મુજબ છે. (૧) ક્ષમા શરીર યાત્રાના નિર્વાહ માટે ભેજન વગેરેની યાચના કરવા માટે પારકા ઘરે જનારા સાધુને દુષ્ટ જેને આકોશ (ધાક-ધમકી) પ્રહસન, (અશ્કરી) અપમાન તાડન આદિ થવા છતાં પણ તેને સહન કરી લેવું અને ચિત્તમાં કલુરતા ઉત્પન્ન ન થવા દેવી ક્ષમાધર્મ છે. .. (२) भुति-भभापमानव सुमित छ. अर्थात् पास सेवा Pीत शरीर माहिती यातिने २ ४२वाने माटे-ममेदम्-२ मा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसत्रे सरला ऽऽनस् ३ जातिकुलादिमदाऽहङ्कारादभिमानाऽभावो मार्दवम् ४ अत्यन्तलोमान्निवृत्ति लाघवम् ५ सन्तः पाणिनः, पदार्थावा-मुनयोवा, तेभ्यो हित सत्यम्, उत्तमनने पु सत्सु समीचीनं यद्वचनं तत्सत्यम् उच्यते, प्रजितेषु श्रमणेषु संकेषु च धर्मो बृहणार्थ साधु सत्यं ज्ञानचारित्रादिकं वह्वपि कर्तव्य मित्येव मनुज्ञावचनं सत्य युच्यने ६ ईसिमित्यादिषु वर्तमानस्य प्राणातिपात पञ्चन्द्रिय नो इन्द्रिय विषयपरित्यागः संयमः । सावधयोगात् सम्यगुपरमण वा संयमः। -यह मेरा है' इस प्रकार ममताभाव को स्याग देना मुक्ति है। ' । (३) आर्जन-स्वभाव की सरलता अर्थात् काययोग आदि की कुटिलता का अभाव आर्जव धर्म है। (४) मार्दव-जानिमद, कुलमद, बलमद, अहंकार एवं अभिमान का त्याग करना मार्दव है। : (५) लाधव-लोभ का सर्वथा त्याग । . (६) सत्य-सत् अर्थात् प्राणियों, पदाथों या मुनियों के लिए जो हितकर हो वह सत्य । उत्तम जनों में समीचीन वचन सत्य कहलाता है, श्रमणों में और उनके भक्तों में धर्म की वृद्धि के लिए 'ज्ञान चारित्र आदि खूब करना चाहिए' इस प्रकार का अनुज्ञावचन सत्य है। . ... (७) संघम-ईसमिति आदि में प्रवतमान साधु का पांचों इन्द्रियों के और मन के विषय का स्थाग कर देना संयम है। अथवा सावद्ययोग से सम्यक् प्रकार से विरत होना संयम है । अथवा जिसके છે એ પ્રકારે મમત ભાવનો ત્યાગ કરે મુક્તિ છે * (૩) આર્જવ–સ્વભાવની સરળતા અર્થાત્ કાયયોગ આદિની કુટિલતાને म. म. ध छ. , (४) माई-तिमह, मह, मह, मा२ तथा भलिभानना ત્યાગ કરે માર્દવ છે. ... (५) साधन-सामने। सर्वथा त्यास. (6) सत्य-सत अर्थात् प्रवियो, पहा भयवा मुनिराले माटे २ હિતકર હોય તે સત્ય, ઉત્તમ જનેમાં સમીચીન વચન સત્ય કહેવાય છે, શ્રમમાં અને તેમના ભક્તોમાં ધર્મની વૃદ્ધિ માટે “તીવ્ર ચારિત્ર આદિ ખૂબ કરવા જોઈએ આ પ્રકારનું અનુજ્ઞા વચન સત્ય છે. (૭) સંયમ-ઈર્યાસમિતિ આદિમાં પ્રવર્તમાન અધુનું પાંચે ઈદ્રિયોના તથા મનના વિષયને ત્યાગ કરી દેવો સંયમ છે. અથવા સાવદ્ય રોગથી સમ્યક પ્રકારથી વિરત થવું સંયમ છે. અથવા જેના દ્વારા અમા પાપ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका प.७९.५ दशविध श्रमणधर्मनिरूपणम् यद्वा-संपम्यते नित्य ते नियमतः पापसमारम्भा दात्माऽनेनेति संयमः । स व पृथिवीकाय, संयमादि भेदेन सप्तदशविधः । सविस्तर मेंतस्य व्याख्यानं दशथैकालिकमूत्रे प्रथमाध्ययनस्य प्रथम सूत्रे मत्कृतायाम् 'आधारमणिमंजूष ऽऽख्यायों व्याख्ययां दिलोकनीयम् ७ तपति-दहति, सापयत्तियाऽष्टविधं कर्मति तपः ८ स्यजनं त्यागः संविग्नैकसाम्भोगिकानां भक्तादिदानं त्यागः, स च द्विविधा द्रव्यत्यागो भावत्यागश्च । तत्राऽऽहारोपधिशय्यानाम् अमायोग्याणां परित्याग मायोग्यानां यतिजनेभ्यो दानं द्रव्यत्यागः १ क्रोधादीनां त्यागः ज्ञानादीनां यति. जने वितरणम् भावत्यागः २।९४ अनुभूत वनितास्मरणकथाश्रवणवीसंसक्तद्वारा आत्मा पापलमारंभ से संयत-निवृत्त किया जाय वह संयम है। पृथ्वीकायसंयम आदि के भेद से संयम सत्तरह प्रकार का है। इसका विस्तारपूर्ण विवेचन दशवकालिकत के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा की मेरे द्वारा रचिन 'आचारसणिमंजूषा' नामक टोका में देख लेना चाहिए। (८) तप-जिसके द्वारा आठ प्रकार का कर्म भस्म हो जाय वह तप है। (९) त्याग-संवेग से सम्पन्न संजोगी श्रमणों को आहार आदि देना त्याग कहलाता है । त्याग के दो भेद हैं-द्रव्यत्याग और भावत्याग । अयोग्य आहार, उपधि एवं उपाश्रय का त्याग करना और योग्य आहार आदि साधुजनों को देना द्रवर त्याग है और क्रोध आदि का वर्जन करना तथा साधुओं को ज्ञानादि देना भावत्याग है। સમારંભથી સયત–નિવૃત્ત કરી શકાય તે સંયમ છે પૃથ્વીકાય સંયમ આદિના ભેદથી સંયમ સત્તર પ્રકાર છે. આનું વિગતવાર વિવેચન દશવૈકાલિક. સૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનની પ્રથમ ગાથાની મારા વડે રચાયેલી “આચારમણિ મંજૂષા' નામની ટીકામાં જોઈ લેવા ભલામણ છે. | (૮) તપ– જેના વડે આઠ પ્રકારના કર્મો ભસ્મ થઈ જાય તે તપ છે. . (૯) ત્યાગ–સંવેગથી સમ્પન્ન સંજોગી શ્રમણને આહાર આદિ આપો ત્યાગ કહેવાય છે. ત્યાગના બે ભેદ છે, દ્રવ્યત્યાગ અને ભાવત્યાગ અગ્ય આહાર, ઉપધિ તથા ઉપાશ્રયને ત્યાગ કરે અને યોગ્ય આહાર આદિ સાધુજનને આપવા તે દ્રવ્યત્યાગ છે અને ક્રોધ આદિને ત્યાગ કરે. તથા સાધુઓને જ્ઞાનાદિ આપવું ભાવત્યાગ છે. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रे शयनाऽऽमनादिवजनं, मैथुनवर्जनश्च ब्रह्मचर्य तत्र चासो बसने ब्रह्मचर्यवास १० तान्येतानि खलु धर्म व्यपदेश्यानि भाव्यमानानि कर्मानवनिरोधलक्षणसंवरकारणानि भवन्ति ॥५॥ तवार्थनियुक्ति:-पूर्व लावत्-पञ्चपमितित्रिगुप्तीनां संवरहेतुन्वं प्रतिपादितम्, सम्पति दशविधस्य श्रमणधर्मस्य संवरहेतुत्वं प्रतिपादयितुमाह-'दस विहे समाधम्ने खंति मुत्ति अजय सद्दव लाघव सच्चसयम तय विधाय घभरधामभेया' इति । दशविधा श्रमणधर्मः श्रमणस्य संवरापादनसामर्थ्यहेतुभूतधर्मविशेषो मूलोत्तरगुणप्रकर्षयुक्तः खलु यतिधर्मों वर्तते एते दश क्षान्त्यादयः संवरं धारयन्ती त्यतो धर्मशब्देन व्यपदिश्यते ! अत्र (१०) पूर्वभुक्त वनिता के स्मरण, कथा श्रवा एवं स्त्री के संसर्ग चाले शयन आसन आदि का त्याग करना और मैथुन का त्याग करना ब्रह्मचर्य या ब्रह्मचर्यचास कहलाता है। . इन दस प्रकार के धर्मों का परिपालन करने से कर्मास्रव का निरोध रूप संवर उत्पन्न होता है ॥५॥ .. तत्वार्थनियुक्ति-इलले पहले समिति और गुप्ति को संबर का करण बतलायागया था, यहां दस प्रकार के श्रमणधर्म को उसका कारणा कहते हैं श्रमण का संबर को उत्पन्न करने में समर्थ तथा मूलगुणों एवं उत्तर गुणों के प्रकर्ष से युक्त धर्म दस प्रकार का है। ये क्षान्ति आदि दस मंवर को धारण करने के कारण धर्म कहलाता हैं। क्षान्ति आदि को 'श्रमणधर्म' शब्द से कहा गया है, अतः उनमें मूल और उत्तर (१०) पू लगवेसी अनु. १०२५. ४था श्रवण तथा स्त्रीन। सस વાળી પથારી આસન આદિને ત્યાગ કરવો અને મૈથુનને ત્યાગ કરેબ્રહ્મચર્ય' અથવા બ્રહ્મ સર્યવાસ કહેવાય છે. આ દશ પ્રકારના ધર્મોનું પરિપાલન કરવાથી કસવના નિરોધ રૂપે સંવર ઉત્પન્ન થાય છે પાપા તત્ત્વાર્થનિયુકિત-આનાથી પહેલા સમિતિ અને ગુણિને સંવરના કાર તરીકે બતાવવામાં આવ્યા છે. અહીં હવે દશ પ્રકારના શ્રમધર્મને સંવરના કારણ તરીકે કહેવામાં આવે છે. શ્રમણને, સંવરને ઉત્પન કરવામાં સમર્થ તથા મૂલશે અને ઉત્તરગુના પ્રકર્ષથી યુક્ત, ધર્મ દશ પ્રકાર છે. આ ક્ષત્તિ વગેરે દેસ સંવરને ધારણું કરવાના કારણે ધર્મ કહેવાય છે. ક્ષાન્તિ આદિને શ્રમણ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ५ दशविध श्रमणधर्मनिरूपणम् १३७ क्षान्त्यादीनां श्रमणधर्मत्वकथनेन तेषु मूलोत्तगुणविशिष्टत्वलामात् अगारिषु तव्यावृत्ति रुच्यते, मूळोत्तरगुणयुक्ताः खलु शान्त्यादयो गृहस्थेषु नोपलभ्यन्ते यया सर्वावरथासु अनगाराः श्रमणाः क्षमाणाः सकलभदस्थाननिग्रहकारिणः सुवर्णादिधनरहिताः सन्तः सर्वथैव ब्रह्मदर्य धारयन्ति न तथाऽगारिणः प्रकृष्ट शान्यादिशालिनो भवन्ति तत्र शक्तिशालिनः खल्वात्मनाक्षमणं सहनपरिणाम: शान्तिः क्षमा । अशक तस्य प्रतीकाराऽननुष्ठानं तितिक्षारूपाः क्षमा सहनशीलता क्रोधोदय निरोधः उदित क्रोधस्य का विवेकवलेन विफलताऽऽपादानम्, तत्रान्यैः प्रयुक्तस्य क्रोधहेतुभूतस्य दोपादेः सद्भावासद्भावपरिचिन्तनात् क्षमा कर्तव्या। गुणों की विशिष्टता का लाभ होने ले गृहस्यों से उनका अभाव कहा गया है। अर्थात् मूलगुणों और उत्तर गुणों से युक्त क्षमा आदि दस धर्म गृहस्थों में नहीं पाये जाते । जैले अनगार अमण क्षमाप्राण होते हैं, मद के ललकार स्थानों का निग्रह करते हैं, स्वर्ण आदि धन से रहित होते हैं और पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वैले गृहस्थ उत्कृष्ट क्षमा आदि के धारक नहीं होते। (१) क्षान्ति---प्रतीकार की शक्ति ले युक्त होने पर श्री क्षमा कर देना अर्थात् आत्मा में सहन करने का परिणाम होगा शान्ति है। अशक्त का प्रतीकार न करता तितिक्षा रूप क्षमा, सहनशीलता, क्रोध के उदय का निरोध या उत्पन्न हुए क्रोध को विवेक के बल से निष्फल कर देना क्षान्ति है। जब कोई अपने में किली दोष का आरोप करे ધર્મ શબ્દથી કહેવામાં આવે છે આથી તેમાં મૂળ અને ઉત્તરગુની વિશિષ્ટતાને લાભ હેવાથી ગૃહસ્થામાં તેમની ગેરહાજરી ગણવામાં આવી છે. અર્થાત્ મૂળગુ અને ઉત્તરગુણેથી યુક્ત ક્ષમા આદિ દશ ધર્મ ગૃહસ્થામાં જોવામાં આવતાં નથી. જેવી રીતે અનગાર શ્રમણ ક્ષમાપ્રાણ હોય છે, મદના તમામ સ્થાને નિગ્રહ કરે છે, સુવર્ણ આદિ ધનથી રહિત હોય છે અને પૂર્ણ રૂપથી બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરે છે, તેવી રીતે ગૃહસ્થ ઉત્કૃષ્ટ ક્ષમા આદિના ધારક હતા નથી. (१) शान्ति:-प्रतिनी शतिथी युक्त है। छतi ५४ भादी આપવી અર્થાત્ આત્મામાં સહન કરવાનું પરિણામ હે ક્ષાન્તિ છે. અશક્તને પ્રતિકાર ન કરવ તિતિક્ષારૂપ ક્ષમા, સહનશીલતા ક્રોધના ઉદયને નિરોધ અથવા ઉત્પન્ન થયેલા ક્રોધને વિવેકના બળથી નિષ્ફળ કરી દે ક્ષાન્તિ છે. જ્યારે કેઈ પિતાનામાં કઈ દોષનું આરોપણ કરે અને તેથી ક્રોધ ઉત્પન્ન त० १८ की तशी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वार्थसूत्रे तत्र-दोषादि सद्भावचिन्तनं यया-लन्त्येव एते मयि दोषाः न किम प्याली ऋषा बदती'-त्येवं क्षन्तव्यम् । एवं-दोषादीनामसभावचिन्तनं यथा नैव खलु अधि वर्तते-एले दोषाः' यानज्ञानादिनाऽसौ बदतीति क्षन्तव्यम् । एवम्-क्रोध दोष परिचिन्तनादपि क्षन्तव्यम् तथाहि-क्रुद्धस्य जनस्य विद्वेषाऽऽ. सादनस्मृतिभ्रंश व्रतलौपादयो दोषा भवन्ति, क्रोधरूपायपरिणतो जीवो विद्वेषी सन् कर्म बध्नाति-अन्यं वा निहन्ति, तेन-प्राणातिपातविरतिव्रतलोपो भवेत् और उसले क्रोध उत्पन्न होने की संभावना हो तो अपने में उस दोष का सर्वाच्य है अथवा नहों, ऐला विचार कर क्षमा करना चाहिए। यदि हारतच दोष का समाव हो तो लोचनी चाहिए-'ये दोष मेरे अन्दर हैं ही, अदछ श्री विश्था नहीं कह रहा है। यदि दोष न हो तो विचार करना चाहिए-अज्ञान के कारण यह जिन दोषों का होना कहता है, वे मुझमही है ऐसा विचार करके उसे क्षमा कर देना चाहिए। क्रोध ने सत्पन्न होने वाले दोषों को विचार करके भी क्षमाभाव धारण करना चाहिए, जैसे-जो मनुष्य क्रोध के वशीभूत हो जाता है, उसके चित्त में विद्वेष का भाव उत्पन्न होता है, वह हिंसा पर उतारू हो जाता है, उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है और उसके व्रतों का विलोप हो जाता है । क्रोध कषाय के अधीन हुआ जीव द्वेष से युक्त होकर कर्म का बन्ध करता है या दूसरे की हत्या कर डालता है जिससे उसके प्राणातिपातविरमण व्रत का नाश हो जाता है। वह થવાની શકયતા ઉભી થાય તે પિતાનામાં તે દોષને સદ્ભાવ છે કે નહીં એવું વિચારીને ક્ષમા પ્રદાન કરવી જોઈએ. જે હકીકતમાં પિતાના દેષને સદૂભાવ હોય તે વિચારવું જોઈએ-“આ દેષ મારામાં તો છે જ, આ કશું જ ખોટું કહેતો નથી જે દોષ ન હોય તો આ પ્રમાણે વિચારવું જોઈએ–“અજ્ઞાનના કારણે આ જે દે હોવાનું કહે છે, તે મારામાં નથી એ મુજબ વિચાર કરીને તેને માફી બક્ષવી જોઈએ. ક્રોધથી ઉત્પન્ન થનારા દેનો વિચાર કરીને પણ ક્ષમાભાવ ધારણ કર જોઈએ, જેમકે-જે મનુષ્ય ક્રોધને વશીભૂત થઈ જાય છે, તેના ચિત્તમાં વિષને ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તે હિંસા પર સવાર થઈ જાય છે, તેની મૃતિ નાશ પામે છે તેમજ તેના વ્રતને વિક્ષેપ થઈ જાય છે. ક્રોધ કષાયને તાબે થયેલો જીવ થી યુક્ત થઈને કર્મો બાંધે છે, અથવા બીજાની હત્યા કરી નાખે છે કે જેથી તેના પ્રાણાતિપાત વિરમણ વ્રતને નાશ થઈ જાય છે.. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ५ दशविध श्रमणधर्मनिरूपणम् १३९ गुरूनपि माता-पित्रादीन् आसादयेत अधिक्षिपेत क्रुद्धः खलु भ्रष्टस्मृतिको भूत्वा मृषापि वदत् विरमृत प्रवज्या प्रतिपत्तिः परेणाऽदत्तमपि गृह्णीयात् एवमप्रद्वेषरागातू-मैथुनमपि आसेवेत, एवं-प्रद्वेषशायुक्तः लहान बुद्धयाऽविरतेषु गृहस्थेषु तद्योगोपकरणेषु च सू मपि विध्यात् तेल परिग्रहदोपोऽध्यापधेत, एवं क्रुद्धः सन् उत्तरगुणभङ्गमपि कुर्यात् । उक्तश्च-कुद्धो हयाद्गुरुनधि इति एवं-मूढस्वभापर्शिचन्तनाच्च क्षन्तव्यम् तथाहि रोक्षाऽपरोक्षाऽऽकोश ताडन हनन धर्मभ्रशाना सुत्तरोत्तररक्षार्थ क्षमा कर्तव्या, परोक्षमाकोशति सति भृढे क्षमाकरणेन प्रत्यक्षाकोशनं रक्षितं भवति । एन मुत्तरोत्तरनापि बोध्यम् । एवं अपने माता-पिता आदि गुरुजनों पर भी आक्षेप करने से नहीं चकता। स्मृति शून्य होकर मिथ्या भाषण भी करता है। वह भूल जाता है कि मैंने दीक्षा अंगीकार की है और अदत्त को भी ग्रहण कर लेता है। राग-द्वेष के वशीभूत हो मैथुन का भी सेवन करता है। इसी प्रकार राग-द्वेष से युक्त होकर गृहस्थों को अपना सहायक समझ कर उन पर या उनके उपकरणों पर मूर्छा भी धारण करता है, इस कारण परिग्रह के पाप का भी भागी होता है। इसी प्रकार क्रोधी पुरुष उत्तर गुणों को भी भंग करता है । कहा भी है-'क्रुत्र हुआ जीव गुरुजनों का भी घात कर डालता है।' इसी प्रकार मूढ-स्वभाव का विचार कर ले क्षमा धारण परना चाहिए और-परोक्ष, अपरोक्ष, आक्रोश, ताडमा, हनन और धर्मभ्रंश .की उत्तरोतर रक्षा का विचार करके क्षमा करना चाहिए । जेहो कोई मूढ पुरुप धदि परोक्ष में आक्रोश करता है तो होना चाहिए कि वह તે પિતાના મા-બાપ વગેરે વડીલ લેક પર પણ આક્ષેપ કરવાની હદ સુધી જાય છે. ઋતિશન્ય ઘઈને સિચ્યાભાષણે પણ કરે છે. પોતે દીક્ષા અંગીકાર કરી છે એ વાત પણ ભૂલી જઈને નહીં આપેલી વસ્તુને પણ સ્વીકાર કરી લે છે. રાગ-દ્વેષને વશીભૂત થઈને મૈથુન પણ સેવતા હોય છે. એવી જ રીતે રાગ-દ્વેષથી યુક્ત થઈને ગૃહસ્થને પિતાના મદદગાર સમજીને તેમનામાં અથવા તેમના ઉપર પરત્વે મેહ પણ ધારણ કરે છે. આ કારણે પરિ. બ્રહના પાપને પણ ભાગીદાર બને છે. વળી આવી જ રીતે કોધી પુરૂષ ઉત્તરગુણને પણ ભંગ કરે છે. કહ્યું પણ છે-ક્રોધી થયેલે જીવ વડીલજનોની પણ હત્યા કરી નાખે છે. એવી જ રીતે મૂહ-સ્વભાવને વિચાર કરીને ક્ષમા ધારણ કરવી જોઈએ અને પરોક્ષ અપક્ષ, આક્રોશ, તાડન, હત્યા અને ધર્મભ્રંશની ઉત્તરોત્તર રક્ષાનો વિચાર કરીને ક્ષમા આપવી જોઈએ જેમ કઈ મૂઢ-પુરૂષ કદાચ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० तत्वार्थसूत्रे भाग्येन मां परोक्षमाक्रोशति न प्रत्यक्षम् ' इत्येवं लाभमत्वा क्षन्तव्यम्' एवम् प्रत्यक्षमाक्रोशत्यपि न मां ताडयति इति क्षन्तव्यमेव, इत्यादिरीत्या क्षमितव्यम् एवम् ताडनं कुर्वत्यपि वाले मूढे क्षन्तव्यम्, एवं स्वभावाः खलु मूढा भवन्तीति मत्वा क्षमा कर्तव्याः भाग्येन मृढोऽयं ताडयत्येव न प्राणैर्वियोजयतीति भावः । एवं प्राणैर्वियोजयत्यपि मूढे क्षन्तव्यम्, भाग्येन खलु मूढोऽयं माणैरेव वियोजयति न मां धर्माद् भ्रंशयति इति मत्वा क्षन्तव्यम् । एवं-जन्मान्तरोपार्जि : प्रत्यक्ष में आक्रोश नहीं करता, यह मेरा लाभ ही है, ऐसा सोच कर क्षमा करना चाहिए । आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिए । अगर कोई प्रत्यक्ष में आक्रोश करे तो सोचना चाहिए- 'यह आक्रोश करके ही रह जाता है, मेरा ताडन नहीं कर रहा हैं और इस लाभ का - विचार कर के क्षमा करना चाहिए। अगर ताडना करने वाले पर भी क्षमाभाव धारण करना उचित है । उस समय सोचना चाहिए कि मृढ जनों का स्वभाव ही ऐसा होता है । यह मूढ भाग्य से ताडना करके ही रह जाता है, प्राणों से रहित तो नहीं करता, यही गनीमत है, ऐसा विचार कर उस मूढ को क्षमा कर देना चाहिए। कदाचित् कोई अज्ञानी प्राण लेने पर उतारू हो जाय तो विचार करना चाहिए - " सद्भाग्य से यह लूढ प्राणी मुझे प्राणों से ही रहित कर रहा है, धर्म से भ्रष्ट नहीं कर रहा, और ऐसा विचार करके क्षमा भाव . धारण करना चाहिए। અજાણતા આક્રોશ કરે તે વિચારવુ જોઇએ કે તે પ્રત્યક્ષમાં આક્રોશ કરતા નથી. એ જ મારા ફાયદામાં છે એવું સમજીને ક્ષમા આપવી જોઇએ. આગળ પણુ આ મુજખ જ સમજવાનું છે. અગર જો કોઈ પ્રત્યક્ષમાં આકોશ કર તા વિચારવુ' જોઈએ-આ ક્રોધ કરીને જ રહી જાય છે, મને મારા નથી’ અને આ લાભના વિચાર કરીને ક્ષમા માપવી જોઈ એ. અગર મારનારને પણ ક્ષમા આપવી જોઈએ તે ઉચિત ગણાય. તે સમયે એમ વિચારવું કે મૂઢ માણુસેાના સ્વભાવ જ એવા હોય છે. મા મૂઢ મારા સારા નસીએ માર મારીને જ સતેાષ માને છે પણ મને જીવથી તે મારતા નથી એટલુ જ સારૂ છે. એવા વિચાર કરીને તે મૂઢને ક્ષમા આપી દેવી જોઈ એ કદાચિત્ કાઈ અજ્ઞાની પ્રાણ હશુવા સુધીની હ્રદે આવી જાય તે વિચાર કરવા જોઈ એ-‘સદ્ભાગ્યે આ મૂઢ પ્રાણી મને પ્રાણૈાથી જ રહિત કરી રહ્યો છે, ધમથી ભ્રષ્ટ કરતા નથી' અને આવી ભાવના ભાવીને ક્ષમાભાવ ધારણ કરવા જોઈએ. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू.५ दशविध श्रमगध मनिडपणम् १४१ तस्य कर्मणः खल्वयं विपाको मम वर्तते यदयं प्रत्यक्षं परोक्षं वाऽऽक्रोशति मां .ताडयतिवा, मम पूर्वभवकृतकर्मोदयस्य निमित्तमात्रमयं वर्तते यतो द्रव्यक्षेत्र काल भावानुसारेणैव कर्मणा सुइयो भवतीति मत्वा स्वकृतकर्मफलाभ्यागमोऽयं मम वर्तते निमित्तमात्रं पर इति क्षन्तव्यम्, क्षमारूषो धर्मः संवरहेतुतयाऽवगन्तव्याः १ ममत्ववुद्धिराहित्यं मुक्तिः सा च उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्काराऽऽसक्ति निरासाय 'ममेदम्' इत्येवं ममत्वबुद्धिनित्तिरूपा २ एवम् ऋजोर्भाव: कर्म वाऽऽर्जवम् सारल्यम् भावविशुद्धिः कायवाङ्मानसमावानां कुटिलता राहित्यम् शठताविरहितत्वं च, भावदोष माया छलकपटादि विश्र्जनम् आर्जवम् । . इसी प्रकार मुनि को सोचना चाहिए कि-'यह पूर्वजन्म में उपार्जित मेरे कर्मों का ही फल है कि यह प्रत्यक्ष में था परोक्ष में मेरे ताडना का रहा है अथवा मुझ पर आक्रोश करता है। यह वेचारा मेरे कर्मों का निमित्त मात्र बन रहा है, क्यों कि कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार ही फल देना है। इस प्रकार यह तो वास्तव में मेरे कर्म का ही फल है, दूसरा तो इसमें निमित्त मात्र है, ऐसा विचार करके क्षमा करना चाहिए । क्षमाधर्म लंबर का कारण होता है। (२) मुक्ति-ममत्वबुद्धि से रहित होना मुक्ति धर्म है। प्राप्त या गृहीत शरीर आदि पर-पदार्थों में संस्कार एवं आसक्ति का निवारण करने के लिए 'यह मेरा है' इस प्रकार की समस्व बुद्धि का न होना मुक्ति का लक्षण है। આવી જ રીતે મુનિએ વિચારવું જોઈએ કે-“આ પૂર્વજન્મ ઉપાજિત મારા જ કર્મોનું ફળ છે કે આ પ્રત્યક્ષમાં અથવા પરોક્ષમાં મને તાડન કરે છે અથવા મારા ઉપર ક્રોધ કરે છે. આ બાપડે મારા કર્મોનું નિમિત્ત માત્ર બની રહ્યો છે, કારણ કે કર્મ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવ અનુસાર જ ફળ પ્રદાન કરે છે. આમ આ બધું હકીકતમાં તે મારા કર્મો જ વિપાક છે, બીજો તે આમાં નિમિત્ત માત્ર છે. એવું વિચારીને ક્ષમા કરવી જોઈએ આ ક્ષમાધર્મ સંવરનું કારણ હોય છે. (૨) મુક્તિા–મમત્વ બુદ્ધિથી રહિત થવું મુક્તિ ધર્મ છે. પ્રાપ્ત અથવા ગૃહીત શરીર આદિ પર-પદાર્થોમાં સરકાર તથા આસક્તિનું નિવારણ કરવા માટે “આ મારૂં છે એ પ્રકારની મમત્વબુદ્ધિનું ન લેવું મુક્તિનું લક્ષણ છે. (૩) આજવ–આજુતા, સરળતા ભાવવિશુદ્ધિ, કાયા વચન અને મનની કુટિલતા ન હોવી શઠતા-લુચ્ચાઈનો અભાવ અથવા ભાવ દેષરૂપ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARARIA १४२ तत्त्वार्थ भावदोपयुक्तो जनो निकृत्युिक्तः सन् इहा मुनाऽशुभफल जनकमकुशलं कोप चिनोति, अनुशलकोपवितश्वोपदिश्यमानं श्रेयोऽपि मोक्षसाधनं सम्यग्दर्शनादिकं न श्रदधाति तस्मात्-आर्जवधर्मः कर्मास बनिरोधलक्षणसंवरहेतु भवति-३ "एवम्-मृदो कोमलस्य भावः-कर्म वा मार्दवम्, विनम्रमा गर्वराहित्यञ्च जाति 'कुलसम्पदादिमदनिग्रहः मानविघातश्च भवति मदेन, अभ्युत्थानाऽऽसनदा. नज लग्रह यथायोग्यविस्यकरणरूपविनम्रमादेन चित्तपरिणामनिशेषोत्सेकरूप गर्वराहिल्येन च जाति-कुलादिमदनाशो सति जातिकुलरूपैयविज्ञानश्रुत (३) आर्जब- ऋजुता, लरतता, भावविशुद्धि, काय बचन और 'मन को कुटिलना न होना, शठता-धूर्तता का अभाव या भावदोष रूप माया, छल, कप आदि का वजन आर्जवधर्म है। भावदोष से युक्त जन मायाचार से युक्त हो कर इस लोक और पर लोक में अशुभ फल उत्पन्न करने वाले अकुशल श्रमों का उपचच करता है। अकुशल का का जपचय करने वाला श्रेयस्कर एवं मोक्ष के साधन सम्यग्दर्शन आदि पर भी श्रद्धा नहीं करता। यह आर्जव कर्मास्त्रव के निरोध रूप संबर का कारण होता है। ___ () मार्दव-मृदु अर्थात् कोमल का भाव था कर्म मार्दव है। धिनम्रता, गर्व ले रहित होना, जाति कुल सम्पत्ति आदि के मद का निग्रह करना यह सब मार्दव है। मद करने से मान का विघात होता है। गुरुजनों के आने पर उठ कर खड़ा हो जाना, उन्हें आसन प्रदान करना, हाथ जोडना, यथायोग्क्ष विनय करना तथा चित्त में अहंकार न उत्पन्न होने देना, इन लव ले जतिमद एवं कुलमद आदि का માયા, છળ, કપટ આદિને ત્યાગ આર્જવ ધર્મ છે. ભાવદષથી યુક્ત મનુષ્ય માયાચારથી યુક્ત થઈને આ લેક અને પરલેકમાં અશુભ ફળ ઉત્પન્ન કરવાવાળા અકુશળ કર્મોને ઉપચય કરે છે. અકુશળ કર્મોનો ઉપચય કરનાર શ્રેયસ્કર તથા મેક્ષના સાધન સમ્યક્દર્શન આદિ પર પણ શ્રદ્ધા રાખતા નથી. આ આર્જવ ધર્મ કર્માસ્ત્રના નિરોધ રૂપ સંવરનું કારણ હોય છે. (४) भाई-भृड अर्थात् मन मा अथवा भ भाई छ. વિનમ્રતા ગર્વથી રહિત થવું, જાતિ, કુળ સમ્પત્તિ વગેરેના મદને નિગ્રહ કરે. આ બધું માર્દવ કહેવાય છે, મદ કરવાથી માનને નાશ થાય છે. વડીલજના આગમન પ્રસંગે ઊભા થઈ જવું, તેમને આસન આપવું, હાથ જોડવા, યથાયોગ્ય વિનય કરે તથા ચિત્તમાં અહંકાર ઉત્પન ન થવા દેવે આ બધાંથી જાતિમા અને કુલમદ આદિને વિનાશ થાય છે. જે પુરૂષ જાતિના Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७ सू.५ दशविध श्रमणधर्मनिरूपणम् १५३ लाभवीर्यरूप मदान्ध-ऐश्वर्यमदान्ध-विज्ञानमदान्ध-श्रुतमदान्ध-लाभमदान्ध वीर्यमदान्धाः खलु पुरुषाः बहुकर्मालबान उत्पादयन्ति, तस्मात्-तथाविध मादेवधर्मसेननेन जातिकुलादि मदमानविनाशनद्वारा कनिबनिरोधलक्षण संवर उत्पद्यते, सार्दवभावे किल-जाति कुल्लरूपैश्चर्यादिभिरष्टभिर्मदस्थान मत्तो भूत्वा परनिन्दा-स्वमशंसाभिरुचिः तीत्राहकारोपहर बुद्धिः खलु पुरुषोऽशुभफलदायकमकुशलं कर्म संचिनोति, श्रेयः खल्लु-मुक्तिसाधन भूतं सम्यम् दर्शनादिक सुपदिश्यमानमपि न श्रद्दधते, तरसाल- एतेषां खलु जात्यादि मद मानस्थानानां समूलघातोपघाताय मार्दवरूपो धर्मः संवरहेतुरवगन्तव्यः-४ एवम्-अलोभलक्षणं लाघवम् लघुभावोऽपि संवर हेतु भवति, अन्यथा-लोभविनाश होता है। जो पुरुष जाति , कुल के रूप के ऐश्वर्य के, ज्ञान के, श्रुत के लाभ के अथवा बीर्थ के बदले अंधे होले, वे बहुत कमों का बन्ध करते हैं। अतएच लावधर्म के सेवन से जातिपद कुलमद आदि का विनाश होकर लंबर की उत्पत्ति होती है। ___ मार्दव के अभाव में जानिमद, कुललद, रूपमद, ऐश्वर्यमद आदि आठ मदस्थानों से उन्मत्त होकर पुरुष परनिन्दा और आत्मप्रशंसा की रुचिवाला, तीन अहंकार से उपहत वुद्धि वाला होकर अशुभ फल देने वाले अकुशल कलों का संचयश करता है। श्रेयस्कर और मोक्ष के साधन सस्थग्दर्शन आदि का उपदेश सुनकर भी उन पर श्रद्धा नहीं करता । अथएव जातिमद आदि का मूल विनाश करने के लिए मार्दव धर्म का आवेदन करना चाहिए । ___ (५) लाघव- लोन का त्याग था अघुना को लाघव धर्म कहते કુળના, રૂપના, મીલ્કતના, જ્ઞાનના, શ્રતના લાભના અથવા વીર્યના મદથી આંધળા થઈ જાય છે, તે ઘણું બધાં કર્મો બાંધતા હોય છે આથી માઈવધર્મના સેવનથી જાતિમદ, કુળમદ આદિને વિનાશ થઈને સંવરની ઉત્પત્તિ થાય છે. માર્દવના અભાવમાં જાતિમદ, કુળમદ રૂપમદ, એશ્વર્યમદ આદિ આઠ મદસ્થાનેથી ઉત્પન્ન થઈને, પુરૂષ પારકી નિન્દા અને આત્મપ્રશંસાની રૂચિવાળ, તીવ્ર અહકારથી ઉપહન બુદ્ધિવાળો થઈને અશુભ ફળ આપનાર અકુશળ કમેને સંચય કરે છે. શ્રેયસ્કર અને મોક્ષના સાધન સમ્યક્દર્શન આદિને ઉપદેશ સાંભળીને પણ તેમનામાં શ્રદ્ધા રાખતા નથી આથી જાતિ મદ આદિને સમૂળ વિનાશ કરવા માટે માર્દવધર્મનું આસેવન કરવું જોઈએ. . (૫) લાઘવ–ભને ત્યાગ અથવા લઘુતાને લાઘવધર્મ કહે છે. આ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বন্যার दोपात् क्रोधमानसाया प्राणातिपात मृपावादस्तेथ मैथुन परिग्रहरूप गौरवोप चयोपचितः खल्वात्मा भावलाघारहितवाद् गुरुभवति, भावगौरवयुक्त आत्मा इहामुत्राऽशुभ फलदाय कमकुशलमव योपचिनोति, अश,मकर्मोपचितश्च निःश्रेयस साधनमपि सम्यग्दर्शनादिकमुपदिश्यमानमपि नो श्रदधाति, तस्मात् ममता परित्यागनिस्सगत्वरूपमावलाय-द्रव्यलाघवञ्च खबर हेर्भवति-५ सति-प्रशस्तेऽर्थे भवं सत्यम्, दिगादित्वात् यन् प्रत्ययः, यथावस्थितार्थप्रतीति. जनकं वचः सत्यम्, सद्स्यो जीवेभ्यो वा हितं सत्यम्, तत् खल्लु-बचोहैं। यह भी संवर का कारण है। लावधर्म के अभाव में लोभ रूप दोष के कारण क्रोध, शान, माया, प्राणातिपात, सृपावाद, चोरी, मैथुन एवं परिग्रहण रूप गौरव (भारीपन) से युक्त शुधा शात्मा भाव -लाघव से रहित होने के कारण गुरू बन जाता है। भाक्षगौरव से युक्त आत्मा इस लोक में और परलोक में अशुभ फल देने वाले, अकुशल पाप कमों का संचय करता है और जिसने अकुशल कमों का संचय किया है वह जीव मोक्ष के साधन म्यग्दर्शन आदि का उपदेश सुन. कर भी उन पर श्रद्धा नहीं करता। अतएच ममतापरित्याग रूप भावलाघव और नि:संगता रूप द्रव्यलाघव संवर का कारण है। (६) सत्य-जो सत् या प्रशस्त अर्थ में हो वह सत्य है । दिक आदि में पाठ होने से 'यत्' प्रत्यय होकर 'सत् से 'सत्य' शब्द निष्पन्न हुआ है । तात्पर्य यह है कि यथार्थ पदार्थ की प्रतीति उत्पन्न करने वाला वचन सत्य कहलाता है। वह लत्य वचन परुष (कठोर) પશુ સંવરનું કારણ છે. લાઘવધર્મના અભાવમાં લોભ રૂપ દોષના કારણ ક્રોધ, માન, માયા, પ્રાણાતિપાત, મૃષાવાદ, ચેરી, મિથુન અને પરિગ્રહ રૂપ ગૌરવ (ભારેપણું)થી યુક્ત થયેલ આત્મા, ભાવ-લાઘવથી રહિત હોવાના કારણે ગુરૂ બની જાય છે. ભાવગૌરવથી યુક્ત આમા આ લેકમાં તેમજ પરાકમાં અશુભ ફળ આપનારા, અકુશળ પાપકર્મોનો સંચય કરે છે, અને જે અકુશળ પાપકર્મોને સંચય કર્યો છે તે જીવ મેક્ષના સાધન સમ્યક્દર્શન આદિને ઉપદેશ સાંભળીને પણ તેમનામાં શ્રદ્ધા રાખતા નથી. આથી મમતા પરિત્યાગ રૂપ ભાવલાઘવ અને નિઃસંગતા રૂપ દ્રવ્યલ ઘવ સંવરના કારણ છે. (૬) સત્ય–જે સત અથવા પ્રશસ્ત અર્થમાં હોય તે સત્ય છે દિ આદિમાં પાઠ હોવાથી “ય” પ્રત્યય થઈને “સતથી સત્ય શબ્દ નિષ્પન્ન થયેલ છે. તાત્પર્ય એ છે કે યથાર્થ પદાર્થની પ્રતીતિ ઉત્પન્ન કરનારું વચન સત્ય કહેવાય છે, આ સત્ય વચન પુરૂષ (કઠેર) ન હોવું જોઈએ, નિષ્ફર Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ स्. ५ दशविध श्रमणधर्मनिरूपणम् १४५ अपरुषम् अनिष्ठुरम्-परपीडावजेकम्-अपिशुनम्-प्रतीतिकारकम्-चापल्यरहितम् अनाविलम-कषाय कालुष्यवर्जितम्-विच्छेदरहितम्-निरन्तरोच्चरितम् अविरलम् असम्भ्रान्तम् त्वरोदोषरहितम् स्पष्टम् मधुरम् श्रुतिसुखावहम् अभिजातम् सविनयम् असन्दिग्धम् औदार्ययुक्त औद्धत्यवर्जित अमात्यम् विद्वज्जन मनोऽनुरञ्जनसमर्थम् आत्मश्लाघावर्जितम् प्रस्तुतार्थाभिधायि माया लोम क्रोध मान कपायचतुष्टयरहितं सेव्यम् । एवं गणधरमत्येक वुद्धविरचित सूत्रमार्गानुसारमवृत्तार्थम् अर्थनीयम् अथिपुरुषभावग्रहणसमर्थ स्वपरार्थानुग्रहकारकं निरुपधि निश्छलम् देशकालानुपसारि-अनवयम् जनशासनाशस्तं एसयुक्तम् मितं याचननहीं होना चाहिए, निष्ठुर नहीं होना चाहिए, पर शो पीड़ा पहुचाने वाला न होना चाहिए, चुगली रूप अश्वा अप्रतीतिकार नहीं होना चाहिए । वह चपलता से रहित हो, कषाश की कलुषता से रहित हो, अटक-अटक कर न बोला जाय-लगातार उच्चरित हो, अविरल हो, अभ्रान्त हो, जल्दबाजी से रहित हो, स्पष्ट अधुर और श्रुति सुखद हो, अभिजात हो विनययुक्त हो, असंदिग्ध, उदारतायुक्त, उधतता से रहित, गंवारू न हो-विद्वान् जनो का अनुरंजन करने में समर्थ हो, आत्मप्रशंसा से रहित हो, प्रस्तुत अर्थ का प्रतिपादन करनेवाला हो, क्रोध मान माया और लोभ कषाय ले रहित हो, सेयनीय हो, तथा गणधरों प्रत्येक बुद्धों और स्थपिरों द्वारा रचित सूत्रमार्ग के अनुकूल 'अर्थ वाला हो, उपधि एवं छल से रहित हो, देश-काल के अनुकूल हो, निरवद्य हो, जैन शासन द्वारा प्रशस्त हो, यम-नियम से युक्त ન લેવું જોઈએ, બીજાને પીડા પહોંચાડે એવું ન હોવું જોઈએ, ચાડી રૂપ અથવા અપ્રતીતિકારક ન હોવું જોઈએ, તે ચપળતાથી રહિત હોય, કષાયની કલષતાથી રહિત હોય, અટકી–અટકીને ન બોલવામાં આવે–સતત–એકધારું * ઉચ્ચારણ હોય, અવિરલ હોય, અભ્રાન્ત હોય, છેતરપીંડીથી રહિત હોય, સ્પષ્ટ મધર અને સાંભળવું ગમે એવું હોય, અભિજાત હોય, વિનયચુકત હોય, અસંદિગ્ધ, ઉદારતાયુક્ત, ઉદ્ધતતાથી રહિત, ગામડિયું ન હોય-વિદ્વાનજનનું અનરંજન કરવા માટે સમર્થ હેય આત્મપ્રશંસાથી રહિત હોય પ્રસ્તુત અર્થનું પ્રતિપાદન કરનારું હાય, ક્રોધ માન માયા અને લોભ કષાય યુક્ત , હાય સેવન કરવા ગ્ય તથા ગણધરે પ્રત્યેક બુદ્ધો તથા સ્થવિરો દ્વારા , રચિત સૂત્રમાર્ગ અનુકૂળ અર્થવાળું હોય અર્થનીય (વાંછનીય) હાય – પરને અનુગ્રહ કરનારું હોય, ઉપધિ તથા છળ-કપટ વગરનું હોય, દેશકાળને અનુકૂળ હોય, નિરવ હય, જૈનશાસન દ્વારા પ્રશસ્ત હોય, યમ त० १९ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तत्त्वा प्रच्छन्ने प्रश्नोत्तररूपं सत्यं धर्मः संवरस्य हेतुर्भवति ६ एवं कायादियोगनिग्रा. लक्षणः संयमः सप्तदशविधो धर्मः कर्मासवनिरोधलक्षणसंवरहेतुर्भवति ७ तपश्च संयतस्याऽऽत्मनो विशोधनार्थ बाह्याभ्यन्तरतपनरूपं बोध्यम्, शरीरेन्द्रिय तापनात् कर्मनिर्दहनाच्च तपो व्यपदिश्यते, तच्च तपो द्वादशविधम्, तत्रे षट्क बाह्य मनशनादिकम् आतापनादिरश्च कायक्लेशरूपम्, आभ्यन्तरश्च प्रायश्चिचादिकं षट्कम्, । चतुर्थषष्ठाऽष्टमभक्तादिरूपं वा, अथवा तपो यवमत्यादि भैदेनाऽनेकविधम्, द्वादशभिक्षुप्रतिमारूपं वा तपः संवरस्य हेतुर्भवतीति ८ हो, मित हो, एसा प्रश्नोत्तर रूप वचन सत्य कहलाता है। यह सरप भी संघर का कारण है। (७) संयम-काययोग आदि का निग्रह लक्षण वाला संयमधर्म है। संयम सतरह प्रकार का है और वह आस्रव का निरोध करके संबर का कारण होता है। (८) तप संयमी आत्मा की विशुद्धि के लिए पाह्य और आभ्यन्तर जो तपन है, उसे तप कहते हैं। शरीर को और इन्द्रियों को तप्त कर देने तथा कमों को दग्ध करने के कारण उसे तप कहते हैं। तप के बारह भेद हैं, जिनमें छह अनशत आदि तथा कायक्लेश रूप आता. पना आदि हैं। प्रायश्चित्त आदि छह आभ्यन्तर तप हैं। उपवास, वेला, तेला आदि के भेद से अथवा यवमध्य आदि के भेद से अथवा द्वादश भिक्षुपतिमारूप से तप के अनेक भेद-प्रभेद हैं। उनका वर्णन अन्यत्र देख लेना चहिए । यह तप भी अस्रवनिरोधरूप संवर का कारण है। નિયમથી યુક્ત હેય, કે હેય—એવું પ્રશ્નોત્તર રૂપ વચન સત્ય કહેવાય છે. આ પણ સત્ય સંવરનું કારણ છે. (૭) સંયમ-કાયાગ આદિના નિગ્રહ લક્ષણવાળે સંયમ ધર્મ છે. સંયમ સત્તર પ્રકાર છે અને તે આસ્તવને નિરોધ કરીને સંવરનું કારણ બને છે, [, (૮) તપ–સંયમી આત્માની વિશુદ્ધિ માટે ખાદા તથા આત્યંતર છે તપશ્ચર્યા છે તેને તપ કહે છે. શરીર તથા ઈન્દ્રિયોને તસ કરનાર તથા કોને ભસ્મ કરવાના કારણને તપ કહે છે. તપના બાર ભેદ છે જેમાં છ અનશન આદિ તથા કાયકલેશ રૂપ આતાપના આદિ છે. પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ આત્યંતર તપ છે. ઉપવાસ, છઠ, અદમ, આદિના ભેદથી અથવા મધ્ય આદિના દથી અથવા બાર શિક્ષપ્રતિમા રૂપથી તપના અનેક ભેદ-પ્રભેદ છે. એમંનું વર્ણન અન્યત્ર જોઈ લેવું. આ તપ પણ આસવનિર્ધ રૂપ સંવરનું કારણ છે. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७ सू. ५ दर्शविध श्रमणधर्मनिरूपणम् d i त्यागस्तावत् वाह्यानां रजोहरणपात्राद्युपधिशरीरानपानादीनाम् आभ्यन्तराणांच ! दुष्टानो वा कायव्यापार क्रोधादीनां मूर्च्छालक्षणभावदोषपरित्याग - रूपः संवरस्य हेतुर्भवति । 'संयम साधनश्वाद् रजोहरणादिकं धारयति न तु रागादियुक्तः श्रोभाद्यर्थम्, तथा च वाह्याभ्यन्तरोपकरणादि विषयकपरिग्रहरूपं भावदोषस्य सर्वथा त्यागोहि आस्रवद्वारं संवृणोति । एवं शरीरधर्मोपकरणादिषु Hreate रूपमा परित्यागेन ममत्वराहित्यं त्यागो वोध्यः तथचोक्तरीत्या | भावदोषत्यागं कृत्वा वाह्योपकरणं रजोहरणपात्रादिकमुपभुञ्जानोऽपि स्याग्येव मवति, तथाविधत्यागोऽपि कर्मास्रवनिरोधलक्षणसंवरस्य हेतुर्भवति ९ एवम् सर्वथा (९) स्याग - रजोहरण, पात्र उपधि, शरीर, अन्न-पानी आदि बाह्य पदार्थो का तथा मन वचन काय के दूषित व्यापार एवं क्रोध आदि आन्तरिक दोषों का परिहार करना स्यांग है । यह त्याग संवर का कारण होता है। त्यागी पुरुष संयम के साधन होने के कारण रजोहरण आदि को धारण करता है, एगादि से युक्त होकर शोभा के लिए नहीं । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर उपकरण आदि विषयक परिग्रह रूप भावदोष का सर्वथा त्योग अस्रवद्वार को रोक देता है । इस प्रकार शरीर तथा धर्मोपकरण आदि में भाव दोष रूप आलक्ति का परित्याग करके ममत्व से रहित होना त्याग समझना चाहिए | उक्त प्रकार से भावदोष का त्याग करके रजोहरण पात्र आदि बाह्य उपकरणों का उपभोग करता हुआ भी त्यागी ही कहलाता है । यह स्याग भी कर्मो के आस्रव-निरोध रूप संवर का कारण होता है । (८) त्याग –रनेरखायु, पात्र, (अधि, शरीर, अन्न-पाणी, माहि બાહ્ય પદાર્થોના તથા મન વચન કાયાના કૃષિત વ્યાપાર અને ક્રોધ વગેરે આંતરિક દોષાના પરિહાર કરવા ત્યાગ છે. આ ત્યાગ સવરનું કારણ અને છે. ત્યાગી પુરૂષ, સયમના કારણુ હાવાને લીધે, રજોહરણુ વગેરે ધારણ કરે છે, રાગાદ્ધિથી યુક્ત થઇને માત્ર શાલા ખાતર નહી. આ પ્રકારે ખાહ્ય અને આભ્યંતર ઉપકરણ આદિ વિષયક પરિગ્રહ રૂપ ભાવદોષને સર્વથા ત્યાગ આસ્રવ દ્વારને બંધ કરી દે છે. આ રીતે શરીર તથા ધમ્મપકરણ આદિમાં ભાવદોષ રૂપ આસક્તિને પરિત્યાગ કરીને મમત્વથી રહિત થઈ જવું ત્યાગ સમજવા ઘટે. ઉક્ત પ્રકારથી ભાવદોષના ત્યાંગ કરીને રજોહરણુ પાત્ર આદિ માતા ઉપકરણેાના ઉપભાગ કરતા થકા પણ તે ત્યાગી જ ગણાય છે, આ ત્યાગ પણ કર્માંસ-નિરોધ રૂપ સંવરનું કારણ હાય છે. भा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तत्वास मैथुनपरिवर्जनरूपब्रह्मचर्य परिपालनमपि तथाविधसंवरस्य हेतुर्भवति १० तथा चैते क्षान्त्यादयो दश श्रमणधर्माः कर्मास्त्रवनिरोधलक्षणसंवरहेतवो भवन्तीति वोध्यम् । उक्तञ्च-समवायाङ्गे १० समवाये 'दसविहे समण धम्मे' तं जहाखती १ मुत्ती २ अज्जवे ३ महवे ४ लाघवे ५ सच्चे ६ संजमे ७ तवे ८ चियाए ९ बंभचेरघासे १० इति, दविधः श्रमपाधर्मः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-शान्तिः मुक्ति आर्जवम् मार्दवम् लापत्रम्-सत्यम्-संयमः-तपः-त्यागः-ब्रह्मचर्यवासः ॥५॥ मूलम्-अणुप्पेहा अणिच्चाइ वारस भावणारूवा ॥६॥ छाया-'अनुभेक्षाऽनित्यादि द्वादश भावनारूपा-1॥६॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत्-कर्मासरनिरोधलक्षणसंवरस्य सप्तमत्त्वस्य हेतुभूतेषु समिति गुप्तिधर्माऽनुप्रेक्षा-परीपहजय-चारिशेषु सप्तसु क्रमशः समिति (१०) ब्रह्मचर्य-सर्वथा मैथुन-त्याग रूप ब्रह्मचर्य का पालन भी संघर का कारण है)। इस प्रकार क्षान्ति आदि दश असणधर्म संघर के कारण होते हैं। समवायांगसूत्र के दसवें समवाय में कहा है 'श्रमणधर्म दस प्रकार का कहा गया है, यथा-(१) क्षान्ति (२) मुक्ति (३) आर्जव (४) मार्दव (५) लाघव (६) सत्य (७) संयम (८) सप (९) स्याण और (१०) ब्रह्मचर्यवान ||५|| 'अणुप्पेहाअणिच्चाई इत्यादि। मूत्रार्थ-अनित्य आदि बारह प्रकार की भावनाएं अनुप्रेक्षा कहलाती हैं ॥६॥ तत्वार्थदीपिका-इससे पूर्व कर्म के आरव के निधि स्वरूपवाले सातवें वरष संघर के जो कारण समिति, गुप्ति धर्म, अनुप्रेक्षा, परी (૧૦) બ્રહ્મચર્ય–સર્વથા મૈથુન-ત્યાગરૂપ બ્રહ્મચર્યનું પાલન પણ સંવરનું કારણ છે. આ રીતે ક્ષાન્તિ આદિ દશ શ્રમણ ધર્મ સંવરના કારણે હોય છે. સમવાયાંગસૂત્રના દશમાં સમવાયમાં કહ્યું છે-શ્રમણધર્મ દસ પ્રકારને કહેવામાં भाव्य छ भिडे-(१) क्षान्ति (२) भुति (3) मा04 (४) मा (५) (६) सत्य (७) सयभ (८) त५ (6) त्या मने (१०) ब्रह्मय पास ॥५॥ . 'अणुप्पेहा अणिच्चाइ बारस भावणारूवा' त्यादि સૂત્રાર્થ-અનિત્ય આદિ બાર પ્રકારની ભાવના અનુપ્રેક્ષા કહેવાય છે. દા તાર્થદીપિકા–આની પહેલા કર્મના આશ્વવના નિરોધ સ્વરૂપવાળા સાતમાં તવ સંવરના જે કારણે સમિતિ, ગુપ્તિ ધર્મ અનુપ્રેક્ષા Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् We गुप्तिधर्मा इत्येते त्रयो भेदा लक्षणतः प्ररूपिताः सम्मति क्रमप्राप्ता मनुप्रेक्षां संवर हेतुभूतां परूपयितुमाह- 'अणुप्पेहा अणिच्चाइ वारसभावणा रूपा' इति अनुप्रेक्षाऽनित्यादि द्वादशभावनारूपा, अनित्यस्य १ आदिना अशरणस्य २ संसारस्य ३ एकत्वस्य ४ अन्यत्वस्य ५ अशुचित्वस्य ६ आस्रवस्य ७ संवरस्य ८ निर्जरायाः ९ लोकस्य १० बोधिदुर्लभस्य ११ धर्मसाधकाश्वस्य १२ इत्येवं द्वादशानां भावनाऽनुचिन्तनम्, तद्रूपा अनुप्रेक्षा व्यपदिश्यते । एवञ्चाऽनित्यता Sनुप्रेक्षा व्यशरणानुमेक्षा संसारानुप्रेक्षा एकत्वानुप्रेक्षाऽन्यत्वानुप्रेक्षाऽशुचित्वानुप्रेक्षा Ssस्तत्रानुप्रेक्षा संवरानुप्रेक्षा निर्जरानुप्रेक्षा लोकानुरक्षा बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा धर्मसाधकात्वा तुप्रेक्षाः इत्येवं द्वादशविधातुभेक्षा संवरस्य taat भवन्ति । पहजय और चारित्र कहे गये थे, उनमें से समिति गुप्ति और धर्म का निरूपण किया गया, अब अनुक्रम से प्राप्त अनुप्रेक्षा का प्ररूपण किया जाता है " अनित्य आदि arre भावनाएं अनुप्रेक्षा हैं। सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से अशरण, संसार, एकरब, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मसाधकाहित्य का ग्रहण होता है। इन बारह भावनाओं का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। इस प्रकार (१) अनित्यत्वानुप्रेक्षा (२) अशरणत्वानुप्रेक्षा (३) संसारानु प्रेक्षा (४) एकत्वानुपेक्षा (५) अन्यत्वातुप्रेक्षा (६) अशुचित्वानुपेक्षा (७) आस्त्रवानुमक्षा (८) संवरानुपेक्षा (९) निर्जरानुप्रेक्षा (१०) लोकानुप्रेक्षा (११) बोधिदुर्लभत्वानुपेक्षा और (१२) धर्मसाधकाहित्यानुप्रेक्षा, ये बारह अनुप्रेक्षाएं संवर का कारण हैं । इन अनुप्रेक्षाओं को પરીષહુજય અને ચારિત્ર કહેવામાં આવ્યા હતા તેમાંથી સમિતિ, ગુપ્તિ અને ધનું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયુ, હવે કમ પ્રાપ્ત અનુપ્રેક્ષાનુ... વિવેચન કરવામાં આવી રહ્યું છે. અનિત્ય આદિ ખાર ભાવનાએ અનુપ્રેક્ષા છે. સૂત્રમાં પ્રયુક્ત આદિ शहथी अशरष्षु, संसार व अन्यत्व, अशुयित्व, आसव, सौंवर, निर्मा લાભ, આધિઠ્ઠલ ભ અને ધર્મ સાધકત્વનું ગ્રહણ થાય છે. આ ખારેનું વારવાર चिन्तन अनुप्रेक्षा हे भावी रीते (१) अनित्यत्वानुप्रेक्षा (२) अशरत्वानुप्रेक्षा (3) संसारानुप्रेक्षा (४) मेवानुप्रेक्षा (4) अन्यत्वानुप्रेक्षा (६) अशुयित्वानुप्रेक्षा (७) मासत्रानुप्रेक्षा (८) स्वरानुभेक्षा (८) निरानुप्रेक्षा (१०) सोअनुप्रेक्षा (११) मोधिटुर्स भत्वानुप्रेक्षा भने (१२) धर्मसाधा વાનુંપ્રેક્ષા આ ખાર અનુપ્રેક્ષાએ સવરના કારણેા છે. આ અનુપ્રેક્ષાઓનું Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलाको तंत्राऽऽत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावाद अन्यन्न किश्चित् समुदित वस्तु ध्रुवमस्ति, इमानि खलु शरीरेन्द्रियविषयशब्दरूपगन्धरसस्पर्शवनिताधुपभोगारिमोग द्रव्याणि समुदायरूपाणि जल वुवुदवदनवस्थितस्वभाषा निवर्तन्ते, मोहषित्र मादत्राज्ञो जनो नित्यत्वं मन्यते इत्येवं खल्वनुचिन्तनम् अनित्यानुप्रेक्षा वोध्या एवं खल्ल चिन्तयतः शरीरादिषु ममत्वलक्षणाभिष्वङ्गाभावात् मुक्तोनित गन्ध माल्यादिधिव वियोगकालेऽपि विवेकभ्रशलक्षणो विनिपातो नोपपते १ एवं परणकाले मित्रवान्धवपुत्रकलत्रादयोऽपि परित्रातुं न समर्थाः धर्म एवं केवलमेकशरणं नाऽन्यत्, इत्येवं भावना अशरणानुप्रेक्षा, एवं खलु भावयतों स्वरूप निम्नलिखित है__(१) अनित्यत्वानुप्रेक्षा- ज्ञानदर्शनरूप उपयोग स्वभाववाले आस्मा के अतिरिक्त कोई भी अन्य समुदित वस्तु स्थायी नहीं है। यह शरीर एवं इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श, वनिता आदि जो भी उपभोग-परिभोग के साधन हैं, सभी जल के धुल घुले के समान विनाशशील हैं। अपनी मूढता :एवं विभ्रम के कारण ही अज्ञानी जन इन्हें नित्य मानते हैं, ऐसा चिन्तन करना अनित्यत्वान प्रेक्षा है। इस प्रकार के चिन्तन से शरीर आदि संबंधी ममता और आसक्ति का अभाव हो जाता है और जैसे भोग कर फेकी हुई माला आदि के वियोग से दुःख नहीं होता, उसी प्रकार शरीर आदि के वियोग के समय भी दुःख नहीं होता। (२) अशरणत्वानुमेक्षा-मनुष्य के मस्तक पर जव मृत्युमंडराती है तब मित्र, बान्धव, पुत्र, कलत्र आदि कोई भी त्राण करने में समर्थ ક્ષયરૂપ નીચે જણાવ્યા મુજબનું છે – (૧) અનિત્યવાનુપ્રેક્ષા-જ્ઞાન-દર્શન રૂપ ઉપગ વભાવવાળા આત્મા સિવાય કોઈપણ અન્ય સમૃદિત વસ્તુ કાયમી નથી. આ શરીર અને ઇન્દ્રિચિના વિષય શબ્દ રૂપ, ગંધ, રસ, સ્પર્શ, સ્ત્રી વગેરે જેટલા પણ ઉપભેગપરિભેગના સાધન છે, એ બધાં જ પાણીના પરપોટાની જેમ ક્ષણભંગુર છે. પોતાની મૂઢતા તથા વિશ્વમના કારણે જ અજ્ઞાની પુરૂષ અને નિત્ય માને છે, આવી જાતનું ચિન્તન કરવું તે અનિત્યાનુપ્રેક્ષા છે. આ પ્રકારના ચિત્તનથી શરીર આદિ સંબંધી મમતા અને આસક્તિને અભાવ થઈ જાય છે અને જેમ એકવાર વાપરીને ફેંકી દીધેલી માળા વગેરેના વિગથી જેમ દુખ થતું નથી તેવી જ રીતે શરીર આદિના વિયેાગના સમયે પણ દુઃખ થતું નથી. (૨) અશરણવાનુપ્રેક્ષા–મનુષ્યના માથા ઉપર જ્યારે મૃત્યુ ઓકિયું Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ.७ सू. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् नित्यमहमशरणोऽस्मीति भृशमुदिग्नस्य संसारिकभावेषु निर्ममत्व मुपजारते 'अईत्मणीतमेव मार्ग प्रतिपद्यते २ एवं पूर्वोपार्जितकर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसार उच्यते तस्मिन् संसारे जीवो नट इव रङ्गभूमी मातृपितृभ्रातृदासस्वामित्व नानाविधभूमिकामासाध जन्ममरणयन्त्रणा मनु भवन भवाद्भवान्तर परिभ्रमति, किमधिकेन स्वयमप्यात्मनः पुत्रो भवति इत्येवं संसार स्वभावानुचिन्तनं संसारानुप्रेक्षाः । उक्तश्चोत्तराध्ययने ऊनविंशत्यध्ययने नहीं होते। उस अवसर पर एक मात्र धर्म ही शरणभूत होता है, अन्य कोई भी नहीं, इस प्रकार का चिन्तन करना अशरणत्वानुप्रक्षा है। जो इस प्रकार का चिन्तन करता रहता है वह 'मैं शरणहीन है। ऐसा सोच कर अत्यन्त विरक्त हो जाता है और सांसारिक पदार्थों के विषय में उसका ममत्व नहीं रहता। वह अहेन्त भगवान द्वारा प्रतिपादित मार्ग का ही अवलम्बन लेता है। . (३) संसारानुपेक्षा--पूर्वोपार्जित कर्मविपाक के अनुसार भवान्तर की प्राप्ति को संसार कहते हैं। संसारी जीव इस संसार में, रंगभूमि में नट के समान माता, पिता, भ्राता, दास, स्वामी आदि की विविध प्रकार की भूमिकाएं (पार्ट) प्राप्त करता हुआ जन्म-मरण की यंत्रणाएं भुगत रहा हैं। एक भव का त्याग करके दूसरे भव में जाता है। अधिक क्या कहा जाय, वह आप ही अपना पुत्र बन जाता है। इस परमार के स्वभाव का विचार करना संसारानुप्रेक्षा है। उत्तरा. ध्ययनसूत्र के उन्नीसवें अध्ययन की बारहवीं गाथा में कहा है। કરે છે ત્યારે મિત્ર, ભાઈ, પુત્ર, પત્ની વગેરે કોઈ પણ તેને બચાવવા સમર્થ થતાં નથી. આ અવસરે એકમાત્ર ધર્મ જ તેના રક્ષણાર્થે આવીને ઉભો રહે જ જ નહી, આ જાતની ભાવના કેળવવી અશરણવાનુપ્રેક્ષા છે જે આ પ્રકારનું ચિન્તન કરતા રહે છે તે હું શરણ વગરનો છું' એમ વિચારીને અત્યન્ત વિરક્ત થઈ જાય છે અને સાંસારિક પુદ્ગલેના વિષયમાં તેનું મમવા વાત નથી. તે અહંત ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત માગને જ આશરો લે છે. (3) ससानुप्रेक्षा-पूवाति म वि अनुसार भवान्तानी પ્રાતિને સંસાર કહે છે. સંસારી જીવ આ સંસારમાં રંગભૂમિના નટની भा माता, पिता, माता, वास, स्वामी महिनी दी ही भूमिमा (पाट) પ્રાપ્ત કરતે થકો જન્મ-મરણથી વિટંબણાઓ ભેગવી રહ્યો છે. એક ભવનો ત્યાગ કરીને બીજા ભવમાં જાય છે. વધારે શું કહેવું ? તે પોતે જ પોતાનો પન્ન બની જાય છે. આ રીતે સંસારના સ્વભાવને વિચાર કરે સંસારના છે. ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રના એગણીસમાં અધ્યયનની બારમી ગાથામાં કહ્યું છે Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ तत्त्वार्थसंचे द्वादशगाथासु 'इमं सरीरं अणिच्चं, असुई, असुइसंभवं। असासया वासमिणं, दुक्खकेलाणभायणं' (छाया) इदं शरीर मनित्यम्, अशुचि, अशुचिसम्भवम् , अशाश्वतावासमिदं दुःखक्लेशानां भाजनम्, इति अन्यत्राप्युक्तम् धी संखारो जमिनय, जुवाणो परमरूवविधओ। मरिउण जायइ किमी, तल्थेव कडेवरे नियए ॥१॥ धिक संसारो यस्मिश्च युवकः परमरूपगवितः । मृण्वा जायते कृमिः तत्रैव कलेवरे निजके ॥१॥ इति, एवं भावयतः संसारभयाद् उद्विग्नस्य वैराग्यमुत्पद्यते, संसाराद् विरक्तश्व तदुःखप्रहाणा प्रयतते ३ एवं जन्मजरामरणपरम्परानुत्तिजन्यमहापीडानुभवम् एकाक्यहमेत्र कतुं शक्नोमि, न तदर्थ कश्चिदन्यो मे स्यो वा परो वा सहायो __ 'यह शरीर अनित्य है, अशुचि है और अशुचि पदार्थो से-रज -धीर्य आदि से, इसकी उत्पत्ति हुई है। यह अस्थायी आवास है-थोडे दिन इसमें टिक कर चल देना है ? यह दुखों और क्लेशों का भाजन है अर्थात् विविध प्रकार के कष्ट इस शरीर की बदौलत ही इस जीव को भोगने पड़ते हैं। __अन्यत्र भी कहा है-'इस संसार को धिक्कार है जिल में अपने रूप सौन्दर्य से गर्विष्ट बना हुआ पुरुष युवावस्था में ही मरण को प्राप्त होकर उसी अपने कलेवर में कीडे के रूप में पैदा हो जाता है। ऐसी भावना करनेवाला पुरुष संसार के भय से उद्विग्न हो जाता है और संसार से विरक्त होकर :संसारिक दुःखों का अन्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है। . (४) एकत्व-जन्म, जग और सरण के प्रवाह में सत्पन्न होने આ શરીર અનિત્ય છે, અપવિત્ર છે અને મલીન પદાથેથી રજ–વીય વગેરેથી, એનું સર્જન થયું છે. આ કામચલાઉ આવાસ છે–થોડા દિવસે સુધી એમાં રહીને નિકળી જવાનું છે. આ શરીર દુઃખ તથા કલેશોનું પાત્ર છે અર્થાત્ વિવિધ પ્રકારનાં કષ્ટ આ શરીરને લીધે જ બીચારા જીવને ભેગવવા પડે છે. , , અન્યત્ર પણ કહ્યું છે–ધિકાર છે આ સંસારને કે જેમાં પોતાના રૂપ સૌન્દર્યથી ગર્વિષ્ઠ બનેલો પુરૂષ યુવાવસ્થામાં જ મરણને પ્રાપ્ત થઈને તે જ પિતાના કલેવરમાં કીડા સ્વરૂપે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. આ જાતની ભાવના કરનાર પુરૂષ સંસારની માયાજાળથી ઉદ્વિગ્ન થઈ જાય છે. અને સંસારથી વિરક્ત થઈને સાંસારિક દુઃખને અંત કરવા માટે પ્રયત્નશીલ બને છે. -. () એકત્વ-જન્મ જરા અને મરણના પ્રવાહમાં ઉત્પન્ન થનારી ઘેર Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् १५३ वर्तते, एकाकी एवाहं जातः एक एव निये च, न कश्चित्स्वजनः परजनोवाऽऽधिव्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहर्तुं मम समर्थः, सुहृद्वान्धवादयोऽपि श्मशानभूमिपर्यन्तमेव गच्छन्ति केवलं धर्म एव मे सहायोऽनपायो वर्तते, एवं चिन्तनमेकत्वानुमेक्षा। उक्तश्च 'एगोहं नस्थि मे कोइ नाहमन्नस्स कस्स वि। एवं अदीण मणसा अप्पाण मणुलासए ॥१॥ (छाया)-एकोऽहं नास्ति मे कोऽपि-नाह मन्यस्य कस्यचित् । " एवम्-अदीनमनसा-आत्मान मनुशासयेत् ॥१॥ पुनरप्युक्तम् 'द्रव्यश्च भूमो, पशवश्च गोष्ठयां भार्या गृहद्वारि जनो श्मशाने। देह श्चितायां परलोकवासे-धर्माऽनुगो गच्छति जीव एकः ॥१॥ इति वाली घोर पीडा का अनुभव मुझे अकेले को ही करना पड़ता है। उसमें कोई भी अपना-पराया सहायक नहीं होता। मैं अकेला ही जन्मा हूं, अकेला ही मरूंगा, कोई स्त्रजन अथवा परिजन मेरे आधि, व्याधि, जरा मरण आदि दुःखों को दूर करने में समर्थ नहीं है । मित्र और बन्धु-बान्धव भी अधिक से अधिक श्मशान भूमि तक ही साथ जाते हैं । एक मात्र धर्म ही सच्चा सहायक-साथी है। ऐसा चिन्तन करना एकस्वानुप्रेक्षा है । कहा भी हैं- . 'मैं एकाकी हूँ। मेरा कोई नहीं है और न मैं किसी का हूं इस प्रकार दैन्य हीन मन से अपनी आत्मा पर अनुशासन करे।' ___ और भी कहा है-'जय जीव मृत्यु के चंगुल में पड़ता है तब धन-दौलत धरती में दयी रह जाती हैं, पशु वाडे में बंद रह जाते है, પીડાને અનુભવ મારે એકલાને જ કરે પડે છે. તેમાં કઈ પણ પિતાના કે પારકા સહાયક બનતાં નથી હું એક જ જન્મે છું, એકલે જ મરણ પામીશ કેઈ સ્વજન અથવા પરજન મારા આધિ, વ્યાધિ જરા (ઘડપણ) મરણ વગેરે દરખાને દૂર કરવા માટે સમર્થ નથી. મિત્ર તથા ભાઈ–નેહીઓ પણું બહુ–બહે તે સ્મશાનભૂમિ સુધી જ સાથે આવે છે. એક માત્ર ધર્મ જ સાચે સહાયક-મિત્ર છે. આ જાતનું ચિન્તન કરવું એકવાનુપ્રેક્ષા છે-કહ્યું પણ છે-હું એકાકી છું. મારું કોઈ નથી અને હું કોઈને નથી. આ રીતે દૈ હીન મનથી પિતાના આત્મા પર અનુશાસન કરવું. આગળ પણ કહી છે-જ્યારે જીવ મૃત્યુની પકડમાં આવે છે ત્યારે ધન-દોલત જમીનમાં દાટેલો જ રહી જાય છે, પશુ વાડામાં બાંધેલા જ રહી જાય છે. પત્ની ઘરના દ્વારા સુધી અને સ્વજન મશાન સુધી સહારે આપે છે. શરીર ચિતા સુધી સાથે त० २० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस १५४ एवं खलु भावयतः स्वजन कुटुम्ब परिवारादिषु प्रीत्यनुबन्धो ममत्वञ्च नोत्पद्यते, परजनेषु द्वेषानुबन्धश्व न जायते, ततोहि - निःसङ्गता मभ्युपगच्छन् मोक्षायैव चेष्टते -8 एवं - शरीरेन्द्रियादिभ्य आत्मनोऽन्यत्व चिन्तनम् अन्यस्वानुपेक्षा - उच्यते, पौदगलिकशरीरादहं चेतनोऽन्य एवं शरीरमनित्यम्, अहं तु नित्यः, अज्ञ शरीरम्, अहन्तु ज्ञोऽस्मि, शरीरं सादिनिधनम्, अहं पुनरनादिरनिधनः बहूनि मे शरीराणि व्यतीतानि संसारकान्तारं परिभ्रमतः । एवं मिन्द्रियादि पत्नी घर के द्वार तक और स्वजन श्मशान तक साथ देते हैं । देह चिता तक साथ देती है। परलोक की ओर प्रयाण करते समय इनमें से कोई साथी नहीं बनता। एक मात्र धर्म ही उस समय साथ जाता है ।' इस प्रकार विचार करने से स्वजनों तथा कुटुम्ब - परिवार आदि के प्रति प्रीति नहीं उत्पन्न होती - ममता हट जाती है और पर-जनों पर द्वेष नहीं होता । इस कारण ऐसा विचार करने वाला निःसंगता को अंगीकार करके मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है । (५) अन्यत्वानुप्रेक्षा - शरीर और इन्द्रियों आदि से आत्मा की भिन्नता को चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है । शरीर अचेतन है, मैं वेतन हूं। शरीर अनित्य है मैं नित्य हूं, शरीर अज्ञानमय है, में ज्ञानमयहूं, शरीर की आदि है-अन्त है, मैं अनादि अनिधन हूं। इस संसार -अटवी में भ्रमण करते करते मैंने बहुतेरे शरीर धारण करके त्यागे हैं ! इसी प्रकार हन पुद्गलमय और अनित्य इन्द्रियों से भी मैं भिन्न આપે છે. પરલેાકની યાત્રા તરફ પ્રયાણ કરતા સમયે આમાંનું કાઈ સાથી અનતું નથી. એક માત્ર ધર્મ જ સાથે જાય છે. આવી રીતે વિચાર રવાથી સ્વજના તથા કુટુ'બ-પરિવાર આદિ તરફ પ્રીતિ ઉત્પન્ન થતી નથી-મમતા ચાલી જાય છે અને અન્ય માણુસા તરફ દ્વેષભાવ થતા નથી. આા જાતના વિચાર કરનારા નિઃસ`ગતાને ધારણ કરીને માક્ષ પ્રાપ્તિ માટે જ પ્રયત્ન કરે છે. (૫) અન્યત્લાનુપ્રેક્ષા-શરીર અને ઇન્દ્રિયે આદિથી આત્માની ભિન્નતાનું ચિન્તન કરવુ. અન્યત્યાનુપ્રેક્ષા છે, શરીર અચેતન છે, હું ચેતન છું, શરીરૃ અનિત્ય છે, હું નિત્ય છુ, શરીર અજ્ઞાનમય છે, હુ જ્ઞાનવતા છું, શરીરની આદિ છે અન્ત છે, હું' અનાદિ અનન્ત છુ, આ સ’સાર-અટવીમાં ભ્રમણ કરતા કરતા મેં ઘણી જાતના શરીરા ધારણ કર્યા છે અને ત્યાગ પણ કર્યો છે એ જ રીતે આ પુદ્ગલમય અને અનિત્ય ઇન્દ્રિયથી પણ હું નાખા છું. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७५.६ भनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् , भ्योऽपि पौद्गलिकेभ्योऽनित्यादिभ्यः खल्वहं भिन्न एवास्मि, यदा च-स्वंशरी. रादिभ्योऽपि मेऽन्यत्वं वर्तते-तदा किमुत वक्तव्यम् वाह्यपरिग्रहेभ्य:-३ इत्येवं - भावयतः खलु मनः समादधतः शरीरादिषु स्पृहा नोपजायते, ततश्चात्मज्ञान भावनापूर्वकनिर्वेदमकर्षे सति आत्यन्तिकमोक्षसुखमाप्तिस्तस्य भवति ५ एवं-- शरीरमिदमत्यन्ताशुचिस्यानं वर्तते। शुक्रशोणितसमुभूतत्वात्-सूत्रपुरीषादि युक्तत्वाच्च स्नानानुलेपनादि भिरप्यस्याप्यशुचित्वं नापह। शल्यते सम्यग्दशनादिकं पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकी बुद्धिमाविर्भावात, ' इस्य तत्त्वतो विचारणम्-अशुचित्वानुमेक्षा, एवं संस्मरणं कुर्वतः शरीरादिध्वसङ्गता. हूँ। जब अपने शरीर आदि से भी मेरी भिन्नता है तो वाय वस्तुओं का तो कहना हो क्या है ! शारीर ही मेरा नहीं तो अन्य पदार्थ मेरे कैसे हो सकते हैं ! ऐसी भावना करने वाले और मन का समाधान करने वाले पुरुष को शरीर आदि में स्पृहा नहीं रहती। ऐसी स्थिति में आत्मज्ञान की भावना उत्पन्न होकर बैराग्य की वृद्धि होती है और तब जीव मोक्ष के आत्यन्तिक सुख को प्राप्त करता है। ___(६) अशुचित्वानुपेक्षा-यह शरीर अत्यन्त ही अशुचि का स्थान है। रज और वीर्य से उत्पन्न होने के कारण नथा मल-मूत्र आदि गंदी वस्तुओं से युक्त होने के कारण, कितना ही स्लान और विले. पन क्यों न किया जाय मगर इसकी गंदगी दूर नहीं हो सकती। सम्यग्दर्शन आदि की भावना की जाय तो जीव की आत्यन्तिक शुद्धि उत्पन्न होती है। इस प्रकार चिन्तन करना अशुचिस्वभावना જ્યારે મારા શરીર આદિથી પણ મારી ભિન્નતા છે તે પછી બાહ્ય વસ્તુને એનું તે કહેવું જ શું ? જે શરીર મારું પિતાનું નથી તે અન્ય પદાર્થો મારા કેવી રીતે હેઈ શકે ? એવી ભાવના ભાવનાર અને મનનું સમાધાન કરનારા પુરૂષને શરીર આદિમાં પૃહી રહેતી નથી. આવી સ્થિતિમાં આત્મજ્ઞાનની ભાવના ઉત્પન્ન થવાથી વૈરાગ્યની વૃદ્ધિ થાય છે ત્યારે જીવ મોક્ષના આત્યંતિક સુખને પ્રાપ્ત કરે છે. (6) मशुयित्वानुमा-२L AN२ ४०४७१ मा स्थान छ. २४ तया વીર્યથી ઉત્પન્ન થવાથી તથા મળ-મૂત્ર વગેરે ગંદી વસ્તુઓથી યુક્ત હોવાના લીધે, કેટલી વાર નાન તથા વિલેપન કરીએ તે પણ આ શરીરની ગંદકી દૂર થતી નથી-થઈ શકતી નથી-સમ્યદર્શન વગેરેની ભાવના કરવામાં આવે તે જીવની આત્યંતિક શુદ્ધિ ઉત્પન થાય છે. આવું ચિન્તન કરવું અશર Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । तत्त्वार्थस्त्र ऽऽविर्भवति, विरक्तश्च-भवार्णवोत्तरणाय समाहितचित्तो भवति ६ इन्द्रियकषाय क्रोधमानमायालोभमाणातिपातादयः कास्रवकारणरूपाः सन्ति, स्पर्शना. दीनि-इन्द्रियाणि पतङ्गमातङ्गकुरङ्गभृङ्गमीनादीन् माणिनो बन्धव्यसनार्णवे पातयन्ति, कषायादयोऽपि वधबन्धपरिक्लेशादीन् उत्पादयन्ति " नरकादिगतिषु च नानाविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्ति, इत्येवमास्रवदोषानुचिन्तन मास्रवानुप्रेक्षा-उच्यते, एवं भावादयः क्षमादिषु श्रेयस्त्वभावो न प्रच्युतो भवति, सर्वएते-मास्रवदोषाः कूर्मवत् संवृतात्मनो न सम्भवन्ति-७ एवं-संवरगुणा है। जो ऐसा चिन्तन करता है, वह शरीर आदि के प्रति ममत्वहीन बन जाता है और विरक्त होकर संसार-सागर से पार होने के लिए उद्यत हो जाता है। . (७) आस्रषानुप्रेक्षा-इन्द्रियां, क्रोध मान माया लोभ रूप कषाय और प्राणातिपात आदि कर्म के आस्रव के कारण हैं। ये स्पर्शन आदि इन्द्रियां पतंग, मातंग (हाथी) कुरंग (हिरण), भृग (भ्रमर) और मीन आदि प्राणियों को बन्धन के दुःख सागर में पट कती है। कषाय आदि भी वध, बन्धन आदि के क्लेशों को उत्पन्न करते हैं और नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नरक आदि गतियों में परिभ्रमण कराते हैं । इस प्रकार आस्रव के दोषों का विचार करना भावानुपेक्षा है । जो इस प्रकार विचार करता है उसके चित्त में से क्षमा आदि प्रति श्रेयस्करता का भाव च्युत नहीं होता। जो अपने आपको कूर्म के समान संवृत (संवर युक्त) कर लेता है, उसमें ચિત્વભાવના છે. જે આ જાતનું ચિત્તવન કરે છે તે શરીર વગેરે પ્રતિ મમવહીન બની જાય છે અને વિરક્ત થઈને સંસાર-સાગર તરી જવા માટે तत्५२ थई नय छे.. () આશ્વવાનુપ્રેક્ષા-ઈન્દ્રિ, ક્રોધ માન માયા લેભ રૂપ કષાય અને પ્રાણાતિપાત આદિ, કર્મના આમ્રવના કારણ છે. આ સ્પર્શન વગેરે ઇન્દ્રિ पत (५तायु) भात (डाथी) २ (२४), मृग (समारे।) अने भीन (માછલી) વગેરે પ્રાણીઓને બન્ધનના દુઃખસાગરમાં ફેકે છે. કષાય આદિ પણ વધ, બન આદિના કલેશને ઉત્પન્ન કરે છે અને જુદા જુદા પ્રકારના ખેથી પ્રજવલિત નરક આદિ ગતિઓમાં પરિભ્રમણ કરે છે. આ રીતે આજવા દેને વિચાર કરે આઢવાનુપ્રેક્ષા છે. જે આ રીતે વિચાર કરે છે તેના મનમાંથી ક્ષમા આદિ પ્રત્યે શ્રેયસ્કરતાની ભાવનામાં ઓટ, આવતો નથી. જે પિત–પિતાને કાચબાની માફક સંવૃત (સંવરયુક્ત). કરી Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ७ स. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् गुणानुचिन्तन-संसरानुपेक्षा, यथा-समुद्रे नावो विवरपिधानाभावे क्रमशो विव. रतः प्रविष्टजलाभिप्लवे सति नावारूढानामवश्यं विनाशो भवेत् विवरपिधानेतुनिरुपद्रवमिष्टदेशान्तरमाप्तिः एवं कर्मागमास्रवद्वारसंवरणे सति श्रेयः-प्रतिबन्धो न भवति । उक्तश्चो-त्तराध्ययने-'जा उ अस्साविणी नावा न सा पारस्स गामिणी जो य निस्सविणीनावा सा उ पारस्स गामिणी ॥७१॥ (अध्ययने-२३) या तु-आसाविणी नौका न सा पारस्य गामिणी । या च निःस्राविणो नौका सातु पारस्य गामिनी ॥१॥ इति, एवं भावयतः संवरे कर्मास्रव. पूर्वोक्त आनवदोष का संभव नहीं होते। (८) संवरोनुप्रेक्षा--संवर के गुणों का चिन्तन करना संवरानुः प्रेक्षा है। समुद्र में कोई छिद्रोंवाली .नौका हो और उसके छिद्रों को अगर बंद न कर दिया जाय तो छिद्रों द्वारा उसमें जल का प्रवेश होता है और उस पर सवार लोग अवश्य ही विनाश को प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत यदि छिद्र बंद कर दिये जाए तो विना किसी उपद्रव के इष्ट मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। इसी प्रकार कमों के आगमनद्वार-आस्रव को यदि रोक दिया जाय तो श्रेयस् की प्राप्ति में किसी प्रकार की रुकावट नहीं होती । उत्तराध्ययन में कहा है- . 'जो नौका छिद्रों वाली होती है वह पारगामिनी नहीं होती। किन्तु जो नौका छिद्ररहित होती है वह पार पर्यन्त पहुंचने वाली होती है । (अध्ययन २३) जो इस प्रकार की भावना करता है वह सदैव संवर में परायण લે છે, તેનામાં પૂર્વોક્ત આસ્રવ દેષની શક્યતા રહેતી નથી. (८) स नुप्रेक्षा-१२ गुथे।नु थिन्तन. ४२७ सपरानुप्रेक्षा छे. સમદ્રમાં કેઇ છિદ્રોવાળી નૌકા હેાય અને તેના છિદ્રોને જે પુરી ન દેવામાં આવે તે છિદ્રો દ્વારા તેમાં જળને પ્રવેશ થાય છે અને તેમાં બેઠેલાં પ્રવાસીઓ અવશ્ય વિનાશને પ્રાપ્ત થાય છે. આથી ઉલટું, જે છિદ્ર પુરી નાખવામાં આવે તે કઈ પ્રકારના ઉપદ્રવ વગર નિશ્ચિત સ્થાન સુધી પહોંચી શકાય છે. એવી જ રીતે કર્મોના આગમનદ્વાર આસવને જે રેકી દેવામાં આવે તે શ્રેયસની પ્રાપ્તિમાં કઈ પ્રકારને અવરોધ આવતો નથી. ઉત્તરાધ્યયનમાં કહ્યું છે–જે નૌકા છિદ્રોવાળી હોય છે તે પારગ મિની હોતી નથી પરંતુ જે નૌકા છિદ્રરહિત હોય છે, તે કાંઠા સુધી પહોંચવાવાળી હોય છે, (અધ્યયન ૨૩) જે આ પ્રકારની ભાવના ભાવે છે તે હંમેશાં સંવરમાં રત Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફેટ तत्वार्थद निरोधलक्षणे सततोद्युक्तता भवति निःश्रेयसपदप्राप्ति श्रेति ८ एवं - निर्जरायाः गुणदोषभावनं निर्जरानुप्रेक्षा निर्जरा च कर्मफल- विपाकजन्या द्विविधा अबुद्धिं पूर्वी, कुशलमूलाच, तत्र - नरकादिगतिषु कर्मफलविपाकजन्याऽबुद्धि पूर्वी अकुशल कर्मानुबन्धा, परीषहजये कृते तु - कुशलपूला - शुभानुबन्धा, निरनुबन्धा वेश्येवं चिन्तयतः कर्मनिर्जराये प्रवृत्ति भवति - ९ समन्तादनन्तस्याऽलोकाकाशस्थ बहुमध्यदेशभागवर्तिनो लोकस्य स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा, एवं भावयतस्तत्त. ज्ञानविशुद्धि र्भवति १० संसारेऽस्मिन् मनुष्यभवो दुर्लभः, तत्रापि समाधिं दुखावः सति तस्मिन् बोधिलाभः फलवान् भवति इत्येवं चिन्तनं बोधिकामारहता है । और निश्रेयस को प्राप्त करता है । (९) निर्जरानुप्रेक्षा -- निर्जरा के गुणों का विचार करना निर्जरामुप्रेक्षा कहलाता है । कर्मफलविपाक निर्जरा दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वी और कुशलमूला । नरक आदि गतियों में कर्म के फल को भोग लेने के पश्चात् उसकी जो निर्जरा होती है, वह अबुद्धिपूर्वा निर्जरा कहलाती हैं। वह अकुशल कर्मो के अनुबंध का कारण है। परीष पर विजय प्राप्त करने पर जो निर्जरा होती है वह कुशलमूला शुभानुबन्धा या निरनुबन्धा कहलाती है। जो इस प्रकार विचार करता है उसकी कर्मनिर्जरा में प्रवृत्ति होती है । (१०) लोकानुपेक्षा -- सभी ओर अनन्त अलोकाकाश के मध्य में अवस्थित लोक के स्वभाव का चिन्तन करने से ज्ञान की विशुद्धि होती है । રહે છે અને નકકી શ્રેયસને પ્રાપ્ત કરે છે. (૯) નિજ રાનુપ્રેક્ષા—નિરાના ગુણ્ણાના વિચાર કરવા નિજાનુપ્રેક્ષા કહેવાય છે. કમ ફળ વિપાક નિર્જરા એ પ્રકારની છે—અક્ષુદ્ધિપૂર્વાં અને કૂશળમૂલા. નરક આદિ ગતિએમાં કર્મીના ને ભેાગવી લીધા બાદ તેની જે નિરા થાય છે તે અબુદ્ધિપૂર્વી નિરા કહેવાય છે. તે અકુશળ કર્મોના અનુખ ધનુ કારણ છે પરીષહા પર વિજય પ્રાપ્ત કરવાથી જે નિર્જરા થાય છે તે કુશલમૂલા, શુભાનુખન્ય અથવા નિરનુમન્ત્ય કહેવાય છે. જે આ રીતે વિચાર કરે છે તેની કનિર્જરામાં પ્રવૃત્તિ થાય છે. (૧૦) લેાકાનુપ્રેક્ષા-ચારે તરફ અનન્ત અલેાકાકાશની મધ્યે અવસ્થિત લેાકના સ્વભાવનું ચિન્તન કરવું લેાકાનુપ્રેક્ષા છે. લેાકનું ચિન્તન કરવાથી જ્ઞાનની વિશુદ્ધિ થાય છે. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७ सू. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् १५९ उप्रेक्षा, तथा चिन्तयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न कदाचिदपि भवति ११ एवंधर्मोपदेष्टाऽर्हन्, तदुपदिष्टो धर्मोऽहिंसादिलक्षणो विनयमूलः क्षमावलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानो निष्परिग्रहिताळम्बनो वर्तते, तल्लाभान्मोक्षप्राप्तिर्भवतीति चिन्तनं धर्म साधकानुप्रेक्षा, एवं चिन्तयतः खलु धर्मानुरागा त्सततं तदाराधने मनपरी भवतीति भावः तथा चा-नया खलु द्वादशविधयाऽनुप्रेक्षया कर्मास्रवनिरोधरूपसंवरो भवतीति बोध्यम् १२|| - इन्द्रियकषाय क्रोध - मान - माया - लोभमाणाविपातादयः कर्मासवकारणरूपाः सन्ति स्पर्शनादीनि इन्द्रियाणि पतङ्गमातङ्गकुरङ्गभृगमीनादीन् प्राणिनो बन्धव्यसनार्णवे पातयन्ति । कपायादयोऽपि धवन्धपरिक्लेशादीन् उत्पादयन्ति नरकादि गतिषु च नानाविधदुःखमज्वलितासु परिभ्रमयन्ति इत्येवमात्रवदोषानुचिन्तनमात्रवानुप्रेक्षा उच्यते एवं भावादेवः क्षमादिषु श्रेयस्त्वभावो न मच्युतो भवति, सर्व एते आस्रवदोषाः कूर्मवत् संवृतात्मनो न सम्भवन्ति ७ एवं - संवरगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा, यथा-समुद्रे नावो विवरपिधानाभावे क्रमशो विवरतः प्रविष्टजलाभिप्लवे सति नावारूढानामवश्यं विनाशो भवेत् विवरपिधाने तु निरुपद्रवाभिष्ट देशान्तरप्राप्तिः, एवं - कर्मागमा स्रवद्वार संवरणे सति श्रेयः प्रतिबन्धो न भवति । उक्तञ्चोत्तराध्ययने त्रयोविंशस्यध्ययने एकसप्ततिगाथायाम् - 'जा उ अस्साचिणी नावा-न सा पारस्ख गामिणी । जाय निस्साविणीनावा-सो उ पारस्स ग्रामिणी ॥१॥ या तु आस्राविणी नौका- न सा पारस्य गामिणी । याच निःस्राविणी नौका-सा तु पारस्य गामिनी ॥ १ ॥ (११) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा- इस संसार में प्रथम तो मनुष्यभव की प्राप्ति दुर्लभ है । कदाचित् पुण्ययोग से वह प्राप्त हो जाय तो समाधि प्राप्त करका कठिन है। उसके होने पर बोधिलाभ सफल होता है । ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है । जो ऐसा चिन्तन करता है वह बोधि को प्राप्त करके कदापि प्रमाद नहीं करता । (૧૧) આધિન્નુલ ભાનુપ્રેક્ષા સ`સારમાં પ્રથમ તા મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ દુર્લોભ છે. કદાચિત્ પુણ્યયેગથી તે પ્રાપ્ત થઈ જાય તે સમાધિ પ્રાપ્ત કરવી કઠણુ છે. તેના અસ્તિત્વથી જ મેાધિલાભ સફળ થાય છે એવા વિચાર’કરવે એશ્વિઠ્ઠલ ભાનુપ્રેક્ષા છે. જે આવું ચિન્તન કરે છે તે આધિને પ્રાપ્ત કરીને ક્યારેય પણ પ્રમાદ સેવતા નથી. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१६० भावयतः संवरे निर्जरायाः गुणा कुशलमूलाच । तर . . . . . . तत्त्वार्य इत्येवं भावयतः संवरे कर्मास्रवनिरोधलक्षणे सततोयुक्तता भवति निःश्रेयसपदमाप्तिश्चेति ८ एवं-निर्जरायाः गुणदोषभावनं-निजरानुमेक्षा, निर्जरा च कर्मफलविपाकजन्या द्विविधा अबुद्धिपूर्वा-कुशलमूलाच । तत्रनारकादि गतिषु कर्मफलविपाकजन्याऽधुद्धि पूर्वा १ अकुशलकर्मानुबन्धा परीषहजये कृते तु कुशलमूला शुभानुवन्धा निरनुबन्धाचेत्येवं चिन्तयतः कर्म निजरायै प्रवृत्ति भवति ९ समन्तादनन्तस्याऽलोकांकाशस्य बहुमध्यदेश भागवर्तिनो लोकस्य स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा, एवं भावयत स्ततत्व ज्ञानविशुद्धिभवति १० संसारेऽस्मिन् मनुष्यभवो दुर्लभः तत्रापि-समाधिदुरवाया, सति तस्मिन् बोधि लाभः फलवान् भवतीत्येवं चिन्तनं वोधिलामानुपेक्षा तथा चिन्तयतो बोधि प्राप्त प्रमादो न कदाचिदपि भवति ११ एवं-धर्मोपदेष्टाऽर्डन् तदुपदिष्टो धर्मों हिंसादिलक्षणो विनयमला क्षमावलो ब्रह्मचर्य गुप्तः उपशमप्रधानो निष्परिग्रहिताऽऽलम्बनो वर्तते तल्लाभान्मोक्ष माप्तिभवतीति चिन्तनं धर्म साधकाइत्वानुपेक्षा, एवं चिन्तयतः खलु धर्मानुरागात् सततं तदाराधने यत्नपरो भवतीति भावः, तथा चाऽनया खल्ल द्वादश विधयाऽनुप्रेक्षया कर्मास्रवंनिरोध रूपसंवरो भवतीति बोध्यम् ॥६॥ (१२) धर्मसाधकात्त्विानुप्रेक्षा-धर्म के मूल उपदेशक अर्हन्त भगवान हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट अहिंसामय धर्म विनयमूलक है, क्षमा उसका बल है, वह ब्रह्मचर्य से गुप्त है, उपशम की प्रधानतावाला है और निष्परिग्रहिता उसका आधार है। ऐसे धर्म के लाभ से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार विचार करना धर्मसाधकानुप्रेक्षा है। जो इस भावना का चिन्तन करता है, उसमें धर्म के प्रति अनुराग जागृत होता है और वह धर्म की आराधना करने में निरन्तर तत्पर रहता है। . - इस प्रकार इन द्वादशविध अनुप्रेक्षाओं से आस्रवनिरोध रूप संबर की प्राप्ति होती है ॥६॥ (१२) धर्म साधवानुप्रेक्षा-मना भूण पश४ मत समपान, છે. તેમના દ્વારા ઉપદિષ્ટ અહિંસામય ધર્મ વિનયમૂળક છે, ક્ષમા તેનું બળ છે, તે બ્રહ્મચર્યથી ગુપ્ત છે. ઉપશમની પ્રધાનતાવાળે છે અને નિષ્પરિગ્રહિતા . તેને આધાર છે. આવા ધર્મના લાભથી મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ પ્રમાણે વિચાર કર ધર્મસાધકાહવાનુપ્રેક્ષા છે. જે આ ભાવનાનું ચિન્તન કરે છે. તેને ધર્મની તરફ અનુરાગ જાગૃત થાય છે તેમજ તિ, ધર્મની આરાધના કરવામાં લગાતાર તત્પર રહે છે. આવી રીતે આ બાર અનુપ્રેક્ષાઓથી આસવનિરોધ રૂપ સંવરની प्राप्ति थाय छे. ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ स. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् १६२ . - तत्वार्थनियुक्तिः-पूर्व तावद् गुप्तिसमितिधर्मानुपेक्षा परीपहजय चारिप्राणि संवरहेतुतया प्रतिपादितानि, तत्र क्रमशः समिति-गुप्तिधर्माः सभेदार मतिपादिताः सम्पति क्रमप्राप्ता मनुप्रेक्षा मरूपयितुमाह-'अणुप्पेहा अणि. उचाइ वारस भावणा रूवा इति, अनित्यादि द्वादश भावनानां भावना. ऽनुचिन्तनम् तत्राऽनित्यस्याऽनुचिन्तनम्, आदिनाऽशरणस्यात्रुचिन्तनम् , संसारस्याऽनुचिन्तनम् , एकत्वस्यानुचिन्तनम् , 'अन्यत्वस्यानुचिन्तनम् , अशुचित्वस्यानुचिन्तनम् , आस्रवस्थानुचिन्तनम् , संवरस्यानुचिन्तनम् , निर्जराया अनुचिन्तनम्, कोकस्यानुचिन्तनम् बोधिदुर्लभस्यानुचिन्तनम्, धर्म साधकात्वि. स्यानुचिन्तनम्, इत्येवं द्वादश भावनाः इति द्वादशानुपेक्षा उच्यन्ते । तत्रानुभक्षण प्रेक्षा अनुक्षयन्तेऽनुचिन्त्यन्ते इति वाऽनुपेक्षाः अनित्यत्वानुचिन्तनरूपा तत्त्वार्थनियुक्ति--पहले प्रतिपादन किया गया था कि गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपह जय और चारित्र संघर के साधन हैं। इनमें से समिति, गुप्ति और धर्म का भेद प्रदर्शन पूर्वक पतिपादन किया गया, अब क्रम से प्राप्त अनुप्रेक्षा का प्ररूपण करते हैअनित्यत्व आदि बारह भावनाएं अनुप्रेक्षारूप हैं । अर्थात् अनित्यता का अनुचिन्तन करना, अशरणता को अनुचिन्तन करना, संसार का अनुचिन्तन करला, एकत्व का अनुचिन्तन करना, अन्यत्व का अनुचिन्तन करना, अशुचिता का अनुचिन्तन करना, आस्रव का असुचिन्तन करना, संवर का अनुचिन्तन करना, निर्जरा का अनुचिन्तन करना, लोक का अनुचिन्तन करना, बोधि की दुर्लभता का अनुचिन्तन करना और धर्मसाधकाहित्व का अनुचिन्तन करना, यह बारह भावनाएं द्वादशानुप्रेक्षाएं कहलाती है। તત્વાર્થનિર્યુક્તિ—અગાઉ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હતું કે ગુપ્તિ સમિતિ, ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા, પરીષહજય અને ચારિત્ર સંવરના સાધન છે. આમાંથી સમિતિ, ગુપ્તિ અને ધર્મના ભેદ પ્રદર્શનપૂર્વક પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યા હવે કમથી પ્રાપ્ત અનુપ્રેક્ષાનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ અનિત્યત્વે આદિ બાર ભાવનાએ અનુપ્રેક્ષા રૂપ છે અર્થાત્ અનિત્યતાનું અનુચિન્તન કરવું, અશરણુતાનું અનુચિન્તન કરવું, સંસારનું અનુચિન્તન કરવું, એકવનું અનુચિન્તન કરવું, અન્યત્વનું અનુચિન્તન કરવું. અશુચિતાનું અનુચિન્તન કરવું, આસવનું અનુચિન્તન કરવું, સંવરનું અનુચિન્તન કરવું, નિર્જરાનું અનુચિન્તન કરવું, લેકનું અનુચિન્તન કરવું, બોધિની દુર્લભતાનું અનુચિત્તન કરવું, અને ધર્મસાધકાéવનું અનુચિન્તન કરવું, આ બાર ભાવનાઓ દ્વાદશાનુપ્રેક્ષાઓ કહેવાય છે, त०२१ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्वार्थ भाषनाऽनित्यानुप्रेक्षा, यथा-वाहानि शय्यासनवस्त्रो-धिका-पग्रहिकोपषि रजोहरणपानदण्डादि द्रव्याणि। आश्यन्तरं-शरीरद्रव्यम् जीवैयप्तिस्वात् तः सर्वैः सह संयोगाश्चाऽनित्याः सन्ति इत्येव मनुचिन्तयेत् । तत्र प्रतिदिनं गृह्यमाण झुपयुज्यमाञ्च वस्त्रपात्रादिकम् औधिकोपधिरुच्यते, वर्षादिकारणे कालविशेषे समुपविधते सति अनियतकालार्थ पीठफलकादीनां संयमाय ग्रहणम् औपाहिकोपधिरुच्यते । उप-आत्मनः समीपे कारणे सति संयमयात्रा निहाय रतुनी ग्रहणम् उपमहः स प्रयोजनमस्ये त्यौपग्राहिका, सुणकाष्ठपीठफळ. - अनुप्रेक्षण करना था जिसका अनुरक्षण किया जाय, वह अनु. प्रेक्षा कहलाती है। इनका स्वरूप इस प्रकार है। (१) अनित्यत्वालुप्रेक्षा--अनित्यता का चिन्तन करना अनित्यस्वानुप्रेक्षा है। शय्या, आशन, वस्त्र, औधिक या औपग्रहिक उपधि, रजोहरण, पात्र, दंड आदि याह्य द्रव्य कहलाते हैं। शरीर आभ्यन्तर द्रव्य कहलाता है, क्योंकि वह जीवों से व्याप्त होता है। इन सब के साथ जो भी संयोग हैं, वे मघ अनित्य हैं, ऐसाविचार करना चाहिए। ___जो बस पात्र आदि प्रतिदिन ग्रहण किये जाते और काम में लाये जाते हैं, उन्हें औधिक उपधि चाहते हैं। वर्षा आदि कारण उपस्थित होने पर, विशेष अवसर पर अनियत काल के लिए संयम के धास्ते जो पीढा या पाट आदि ग्रहण किये जाते हैं, उनको औप. ग्रहिक उपथि कहते हैं । उप अर्थात् आत्मा के समीप, कारण होने पर संशययात्रा के निर्वाह के लिए वस्तु का ग्रहण करना 'उपग्रह' અનુપ્રેક્ષણ કરવું અને જેની અનુપ્રેક્ષણા કરી શકાય તે અનુપ્રેક્ષા કહેવાય છે. એમનું સ્વરૂપ આ પ્રકારે છે (૧) અનિત્યવાનુપ્રેક્ષા–અનિત્યતાનું ચિન્તન કરવું અનિત્યસ્વાનુપ્રેક્ષા छ. शया, मासन, वस, मौधि अथवा सोय उपधि, रन्डन, पात्र, દંડ આદિ બાહ્ય દ્રવ્ય કહેવાય છે. શરીર આભ્યન્તર દ્રવ્ય કહેવાય છે કારણ કે તે જીવથી વ્યાપ્ત હોય છે આ બધાની સાથે જે સંગ છે તે તમામ અનિત્ય છે, એ વિચાર કરે જોઈએ. જે વસ્ત્ર, પાત્ર આદિ દરરોજ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે અને ઉપગમાં લેવાય છે તેમને ઔદિક ઉપધિ કહેવામાં આવે છે. વરસાદ વગેરે કારણે આવી પડવાને લીધે, વિષ અવસરે અનિશ્ચિત સમય માટે સંયમ કાજે જે પીઠ અથવા પાટ વગેરે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, તેને પટ્ટાહિક ઉપધિ કહે છે, “ઉપર” અર્થાત્ આત્માની નજીક કારણ આવી પડવાથી, સંયમ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ लू. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् १६३ कादि । तत्र शरीरं तावत् जन्मनु आरभ्य पूर्व स्वरूपं प्रतिक्षणं परित्यजद् उत्तरा वस्थां प्रतिपयते, प्रतिपलञ्चाऽन्यथाऽन्यथा भवद् जराजर्जरितसर्वावयवं पुद्गलचयविरचनामात्रं पर्यवसाने त्यक्तनिवेशविशेष विशीर्यते इति परिणामानित्यतयाऽनित्यमेव शरीरमिति एवं चिन्तयत स्तत्र स्नेहबन्धरूपामिष्वङ्गो न भवति, ततश्च-स्नेहास्यानोवर्तनमर्दनस्नानवियूवादिषु निस्पृहस्य धर्मध्यानादिषु रुचिरुत्पद्यते । तथाचागमेऽप्युक्तम्-'जं पि य इमं सरीर इंट, कंतं पियं, मणुण्णं, सणामं, धिज्ज, बेलारिय, लम्पयं, अणुषथं, डकारंडासमाणं, रथणकरंडगभूध, माणं, लीयं, माण, उण्हं, माणं, तुझा, मा णं पिवासा, माणं वाला, खाणं चोरा, बाणं दला, भाणं मागा, ५ माणं वाइय पित्तिप-संभिय-संलिपाइय विविहा रोगार्थका, परीसहो. बसग्गा फासा फुसंतु, एयं पिय मे न लाणाए का सारणाए वा अवा-' कहलाता है। उपग्रह जिल्लका प्रयोजन हो वह औपग्रहिक है जैसे घास, काष्ट का पीढा, पाट आदि । शरीर जन्म से लेकर क्षण-क्षण में अपने पूर्व स्वरूप का त्याग करता रहता है और नवीन-नवीन अवस्थाओं को धारण करता रहता है। वह प्रतिपल अन्ध-अन्य रूप धारण करता हुआ जरा ले जर्जरित हो जाता है और अन्त में पुगलों की यह शरीर रूप आकृति भी नष्ट हो जाती है । इस प्रकार निरन्तर परिणबन करने के कारण शरीर अनित्य है । जो इस कार का चिन्तन करता है, उसे शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रहती और वह तैल, उबटन, मर्दन, स्नान और विभूषा आदि करने में निस्पृह हो जाता है । धर्मध्वान आदि में उसकी रुचि उत्पन्न हो जाती है । आगन में भी कहा है। યાત્રાના નિર્વાહ માટે વસ્તુનું ગ્રહણ કરવું “ઉપગ્રહ’ કહેવાય છે, ઉપગ્રહ જેનું પ્રયોજન હોય તે ઔપગ્રહિક છે. દા. ત. ઘાસ લાકડાનું પીઠ, પાટ વગેરે. શરીર, જન્મથી લઈને ક્ષણ-ક્ષણમાં, પિતાના પૂર્વ વરૂપને ત્યાગ કરતું રહે છે અને નવી-નવી અવસ્થાઓને ધારણ કરતું રહે છે. તે પ્રત્યેક પળે જુદા જુદા રૂપ ધારણ કરતું થયું ઘડપણથી જર્જરિત થઈ જાય છે અને છેવટે પુગલની આ શરીર રૂપ આકૃતિ પણ નષ્ટ થઈ જાય છે. આ રીતે નિરન્તર પરિણમન કરવાના કારણે શરીર અનિત્ય છે. જે આ રીતન ચિત્તન કરે છે, તેને શરીરની પ્રતિ આસકિત રહેતી નથી અને તે તેલમાલિશ, ઉવટન, મર્દન, જ્ઞાન અને વિભૂષા વગેરે કરવામાં નિસ્પૃહ થઈ જાય છે. ધર્મધ્યાન આદિમાં તેની રૂચિ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, આગમમાં પણ કહ્યું છે– Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મ तत्वार्थ सूत्रे छाया - यदपि च से इदं शरीरम् इष्टं कान्तं मियं मनोज्ञ मनआमं धैर्य वैश्वासिकं सम्मतं बहुमतं श्राण्डकरण्डकसमानं रत्नकरण्डभूतं मा इदम् उष्ण, मा इदं घी, मा इदं क्षुधा, मा इदं पिपासा, या इदं व्याला, मा इदं चौराः मा इदं दंशाः या इदं शकाः सा इदं वातिक- पैत्तिक श्लैष्णिक - सान्निपातिका विविधा रोगावङ्का परीषहोपसर्गाः स्पर्शाः स्पृशन्तु । एवं रीत्या रक्षितं एतदपि च मे न प्राणाय वा न शरणाय भवति, इति । एवं शध्या तावत् प्रतिश्रयः संस्तारफलकपट्टकादिः प्रतिदिनं रजोधूलिमि विपरिणतं सत् सर्वथा स्वसन्निवेशं रचनाकारं परित्यज्य ' और यह जो शरीर हृष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज, मनाम (अत्यन्त मनोज्ञ) धैर्यरूप, विश्वासपात्र, सम्मत, अनुमत, उत्तम भाण्ड- सामान के करंडक के समान एवं रत्नों के करंडिये के समान है और जिसके विषय में यह लावघानी रक्खी जाती है कि कहीं इले ठंड न लग जाय, गर्मी न लग जाय, भूख या प्यास की पीडा न हो, कहीं सर्प न डंस ले, चोर न चुरा ले जाएं, डांस और मच्छर न सताएं, वात पित्त कफ या सन्निपात संबंधी रोग उत्पन्न न हो जाएं, परीषह और उपसर्ग से फष्ट न पहुंचे, उसे कोई अनिष्ट संयोग न हो, ऐसा यह शरीर भी मेरे लिए त्राण कारण या शरणदाता नहीं है । इसी प्रकार शय्या अर्थात् उपाश्रय (स्थानक ), विस्तर, पीडा, पह आदि, घास आदि के बने हुए आसन तथा चोल पट्ट आदि वस्त्र प्रतिदिन रज एवं धूल से पलटते रहते हैं और अन्त में इतने जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं कि उनका पहले का आकार भी नष्ट हो जाता है । मा ? शरीर ईष्ट, अन्त, प्रिय, मनोज्ञ, भनास (अत्यन्तु मनोज्ञ), धैर्यय, विश्वासपात्र, सभ्भत, अनुभत, उत्तम, लान्ड नेवु, सामानना કરડિયા જેવુ, અને રત્નાના કરડિયા જેવું છે અને જેના માટે એવી તકેદારી રાખવામાં આવે છે કે કયાંય આને ઠંડી ન લાગી लय, ગી ન લાગી જાય, ભૂખ તથા તરસની પીડા ન થાય, કાંય સર્પ ન ઢસે, ચાર ચારી ન જાપ, ડાંસ અને મચ્છર સતાવે નહી, વાત, ક, અથવા સનેપાત સમધી રોગ ઉત્પન્ન ન થાય પરીષહ અને ઉપસર્ગથી કષ્ટ ન પડેાંચે તેને કોઇ અનિષ્ટ સજોગ ન આવી પડે; આવુ. આ મારૂં શરીર મને પાર ઉતારનારૂ અથવા શરણદાતા નથી. આજ પ્રમાણે શય્યા અર્થાત્ ઉપાશ્રય (સ્થાનક) પથારી પીઠ-પાટ આદિ, ઘાસ વગેરેના અનેલા માસન તથા ચેાલવ* આદિ વસ્ર દરરાજ રોટી અને ધૂળથી ખરડાતાં હોય છે અને છેવટે એટલા જીણુ-શીણું થઇ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निक्ति टोका भ. ७ हू. ६ माघनिहार जीगतां मतिपय ने 'सयोगा वियोगान्ताः इति यायात् यापनो मम संयोगा: बाहयाभ्यन्तरशयमा शरीरादिमिद्रव्यैः संबद्धाः सम्बन्धा वर्तन्ते सर्व एव तेऽ. काण्डे क्षणभङ्गुराः सन्ति, 'अवश्यमेव चाऽऽदिनता संयोगेन विप्रयोगान्तेन भवितव्यम्' एतेषां खा शरीरशय यादि बाह्याभ्यन्तरद्रव्याणां विनश्वरस्वस्वभाव खलु वर्तते' इत्येव मनुचिन्तने न तेष्वासक्तिक्षणाभिष्वङ्गो न भवति, तैः खल्ल बाह्य भ्यन्तरशरीरादिद्रव्यैः संयोगवियोगे सति शारीरं-मानसं वा दुःखं नोत्पद्यते इत्यतोऽनित्यानुप्रेक्षा परमावश्यकी भवति १ अशरणानुचिन्तनरूपा -ऽशरणानुपेक्षा, यथा-जनशून्ये निराश्रये घनविपिने बलवता बुभुक्षितेन मांसा. 'संयोगों का अन्तिम परिणाम वियोग है' इस उक्ति के अनुसार बाह्य या आभ्यन्तर शरया एवं शरीर आदि के साथ मेरे जो भी संबंध हैं, वे सब अभालविनश्वर या क्षणभंगुर हैं, क्यों कि जिस संयोग की आदि है उसका अन्त अवश्यंभावी है। क्या यह शरीर और क्या शय्या आदि बाह्य द्रव्य, सभी विनाशशील हैं। इस प्रकार का चिन्तन करने से शरीर आदि में आसक्ति नहीं होती और शरीर आदि बाह्याभ्यन्तर द्रव्यों के साथ संयोग अथवा वियोग होने पर शारीरिक या मानसिक दुःख उत्पन्न नहीं होता। इस कारण यह अनित्य भावना अत्यन्त आवश्यक है। , (२) अशरणानुप्रेक्षा-अशरणता का चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है । जैसे सुनसान आश्रधविहीन सघन वन में बलवान् भूखे और જાય છે કે તેમને પ્રથમને આકાર (આકૃતિ) પણ નષ્ટ થઈ જાય છે સંગેનું અન્તિમ પરિણામ વિયેગ છે.” આ ઉક્તિ અનુસાર બાહ્ય અથવા આભ્યન્તર શય્યા અને શરીર વગેરેની સાથેના મારા જે પણ સંબંધ છે તે બધાં અકાલવિનશ્વર અથવા ક્ષણભંગુર છે કારણ કે જે સંયોગની આદિ છે તેને અન્ત અવસ્થંભાવી છે. શું આ શરીર અથવા પથારી આદિ બાહ્યદ્રવ્ય, છેવટે તે બધાં જ નાશવત છે. આ પ્રકારનું ચિન્તન કરવાથી શરીર આદિમાં આસકિત રહેતી નથી અને શરીર વગેરે બાહ્યાભ્યન્તર દ્રવ્યની સાથે સંયોગ અથવા વિગ થવાથી શારીરિક અથવા માનસિક દુઃખ ઉત્પન્ન થતાં નથી આથી આ અનિત્યભાવના અત્યન્ત આવશ્યક છે. . (२) मशरणानुप्रेक्षा:-मशरणतार्नु चिन्तन ४२९ अश२यानुप्रेक्षा छ. જેમ સુનસાન આશય વગરના ગાઢ જંગલમાં બળવાન ભૂખ્યા અને માંસ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्रे હવ शिना व्याघ्रेणाक्रान्तस्याऽभिभूतस्य मृगशावकस्य किञ्चिदपि शरणं न भवति, एवं - जन्मजरामरणाऽऽधिव्याधि विप्रयोगाऽप्रियसंयोगाऽनिष्ट प्राप्तीष्टानवाप्ति दारिद्रय दौर्भाग्य दौर्मनस्यादि जन्येन दुःखेनाऽभिभूतस्य प्राणिनः संसारेऽस्मिन् न किमपि शरणं विद्यते 'धर्मविना' इत्येवमनुचिन्तयतो जीवस्य 'नित्यमहमशरणोऽस्मि' इति सर्वथोद्विग्नस्य मांसारिकेषु मनुन - देवसम्बन्धिसुखेषु हिरण्यरत्नसुवर्णादिषु हस्त्यश्वदिषु च नाभिषङ्गो भवति अपितु तीर्थकुदुक्तागमविहित ज्ञानदर्शनचरणादिषु नित्यं वर्तते यतो हि जन्मजरामरणभयविविधव्याधि परिक्लेशपरिष्वक्तस्य जीवस्य ज्ञानदर्शनचरणमेव परमशरणम् 'इत्यमांसभक्षी व्याघ्र के द्वारा आक्रमण करने पर हिरण के बच्चे के लिए कोई भी शरण नहीं होता, इसी प्रकार जन्म, मरण, आधि, व्याधि, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, अनिष्ट प्राप्ति, इष्ट की अमाप्ति, दरिव्रता, दुर्भाग्य एवं दुर्मना आदि से उत्पन्न होने वाले दुःखों से सताये हुए प्राणी के लिए इस संसार में धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई भी शरण नहीं है । इस प्रकार चिन्तन करने वाले जीव को ऐसा मान हो जाता है कि मैं सदैव शरण विहीन हूं ऐसा प्यान होने पर वह विरक्त हो जाता है और मनुष्य तथा देव संबंधी संसारिक सुखों के प्रति तथा उन सुखों के साधन स्वर्ण आदि और हाथी घोडा महलमकान आदि के प्रति निरीह घन जाता है। इतना ही नहीं, वह तीर्थकर भगवान् द्वारा प्रतिपादित ज्ञान दर्शन चारित्र आदि में सदा प्रवृत्ति करता है, क्योंकि ભક્ષી કાઈ વાઘ દ્વારા આર્કમણુ થાય ત્યારે હરણના ખચ્ચા માટે કાઈ પણ શરણુ રહેતુ નથી, એવી જ રીતે જન્મ, જરા, મરણ આધિ વ્યાધિ, ઈષ્ટવિયેાગ, અનિષ્ટસયેાગ, અનિષ્ટપ્રાપ્તિ ઇષ્ટની અપ્રાપ્તિ દરિદ્રતા દુર્ભાગ્ય અને દુનસ્કતા આદિથી ઉત્પન્ન થનારા દુ:ખાથી સતાવવામાં આવેલ પ્રાણીને માટે આ સ'સારમાં ધમ શિવાય ખીજું કોઇ જ શરણ નથી. આ રીતનુ' ચિન્તન કરનારા છત્રને એ જાતનું ભાન થઇ જાય છેૢ કે હુ અશરણુ છું અને આવી પ્રતીતિ થઈ જવાથી તે વિરકત થઈ જાય છે અને મનુષ્ય તથા દેવ સબધી સૌંસારિક સુખા તરફ તથા તે સુખાના સાધન સુવણુ આદિ અને હાથી, ઘેડા, મહલ મકાન પ્રત્યે નિસ્પૃહ અની જાય છે એટલુ જ નહી' તે તીર્થંકર ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત જ્ઞાન, દર્શીન, ચારિત્ર આદિમાં હમેશાં પ્રવૃત્ત રહે છે, કારણ કે જન્મ જરા, મરણુ, ભય, વિવિધ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ स. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् १६५ शरणानुपेक्षा' २ अथ संसारानुचिन्तनरूपा-संसारानुमेक्षा, यथा-इसारे खड संसारे घोरकान्तारेषु नरक-तिर्यग्-मनुष्य-देव भवग्रहणेषु चक्रवत् परिचमन्त सर्व एव माणिनः पिव-माव-भाव- स्वस-पति-पत्नी-पुत्रादि भावेन यदासम्बन्ध मनुभवन्ति, अन्वभूवन् , अनुभविष्यन्ति च सदा-स्वजनशब्देन व्यपदिइयन्ते । यदा तु-तथाभावेन सम्बन्धं नाऽनुभवन्ति, नान्वभून् , नानुभविष्यन्ति था, तदा-परजनशब्देन व्यपदिश्यन्ते । किन्तु-न नियमतः खजनपरजनयो। कापि व्यवस्था दृश्यते, तथाहि-पितापि भूत्वा भवान्तरे भ्राता-पुत्र:-पौत्रामपौत्रश्च भवतीत्यादि, एवं रीत्या-खलु चतुरशीतिलक्षपरिमितयोनिषु राग-द्वेष-- जन्म, जरा, मरण, भय, विविध प्रकार की व्याधियों एवं क्लेशों से ग्रस्त जीव के लिए ज्ञान, दर्शा और चारित्र ही उत्तम शरण हैं। यह अशरणानुपेक्षा है। (३) संसारानुप्रेक्षा-संसार के स्वरूप का विचार करना संसारानु. प्रेक्षा है। जैसे-इस निस्सार संसार में, घोर कान्तार के समान नरक, तियेच, मनुष्य और देवगतियों में चक्र के समान भ्रमण करते हए सभी प्राणी पिता, माता, भ्राता, भागिनी, पति, पत्नी, पुत्र आदि के रूप में जब सम्बन्धी बनते हैं तब वे स्वजन कहलाने लगते हैं, और जब किंचित् काल के पश्चात् वह संम्बन्ध नष्ट हो जाता है तो वही स्वजन पर-जन बन जाते हैं। इस प्रकार नियत रूप से न कोई स्वजन है, न परिजन है, यह सब अज्ञानजनित कल्पना का खेल है। किसी को स्वजन और किसी को परजन समझना ज्ञानियों की दृष्टि में मूढ जनों की विवेकहीन चेष्टा है । जो आज पिता है वही दूसरे किसी भव में પ્રકારની વ્યાધિઓ તથા કલેશોથી પીડીત જીવન માટે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર એ જ ઉત્તમ શરણું છે. આ અશરણાનુપ્રેક્ષા છે. (૩) સંસારાનુપ્રેક્ષા–સંસારના સ્વરૂપને વિચાર કરે સંસારાનપેક્ષા છે. જેમકે આ અસાર સંસારમાં, ઘેર કાન્તારની માફક નરક, તિર્યચ. મનુષ્ય અને દેવગતિઓમાં ચકની માફક ભ્રમણ કરતા બધાં પ્રાણી, પિતા, માતા ભ્રાતા, ભગિની, પતિ, પત્ની, પુત્ર આદિના રૂપમાં જ્યારે સમ્બન્ધી બને છે ત્યારે તેઓ સ્વજન કહેવાય છે અને જ્યારે થોડા સમય પછી તે સમ્બન્ધ નષ્ટ થઈ જાય ત્યારે તે જ વજન પર–જન બની જાય છે. આ રીતે નિયત રૂપથી નથી કેઈ સ્વજન કે નથી પરિજન આ બધું જ્ઞાન જનિત કલ્પનાને ખેલ છે. કેઈને સ્વજન અને કોઈને પરજન સમજવા એ જ્ઞાનિઓની દષ્ટિએ મૂઢ માણસની વિવેકશૂન્ય ચેષ્ટા છે. જે આજે પિતા છે તે બીજા કોઈ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तत्त्वार्थसूत्रे मोहामिभूता प्राणिना स्पर्शरसादि विषयभोगतृष्णा व्यापृताः परस्परभक्षणउनलताडनबन्धमासनाऽऽक्रोशादिजन्य दुःसह नितान्त तीनदुःखानि प्राप्नु. पन्ति इत्यही अत्यन्त कष्टमयः खल्लु संसारो वर्तते इत्येवमनुचिन्तयतो जन्मघरणभयोद्विग्नस्य विवेशिनो वैराग्यमुपजायते विरक्तश्च-सांसारिक दुःखजिहातथा संसारपरित्यागाय-चेष्टते-पवर्तते चेति । संसारानुपेक्षाऽवसेया ३ एवम्समानुचिन्तनरूपा-एकत्यानुमक्षा, यथा-एकाकी एचाहं जाता, एकक एवं परिष्यामि च लतु-ससहायो जातः मरिष्यामिवा, एवं-मम नानाविधाऽऽधि. माला, पुन, पौत्र या प्रपौत्र बन जाता है। चौराली लाख योनियों वाले इस संसार में राग द्वेष और मोह ले ग्रस्त प्राणी पर्श रस आदि विषयों के भोग की तृष्णा में फंस कर परस्पर एक दूसरे का भक्षण करते हैं तथा हनन, ताडन, बन्धन, भलन और आक्रोश आदि से उत्पन्न अत्यन्त तीव्र दुःखों को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार यह संसार अतीव कष्टमय है! ऐसा चिन्तन करने वाले, जन्म जरा मरण के भय से उद्विग्न, विवेकी पुरुष को वैराग्य उत्पन्न होता है और विरक्त हो कर वह लालारिक दुःखों से बचने के लिए संसार के परित्याग का प्रयत्न करता है और उसके लिए चेष्टा भी करता है। यह संसारानुप्रेक्षा है। (४) एकत्वानुप्रेक्षा-एकत्व का पुनः-पुनः चिन्तन करना एकस्वभावना है । यथा-मैं अकेला ही जनमा था और अकेला ही मरूंगा। ભવમાં ભ્રાતા, પુત્ર, પૌત્ર અથવા પ્રપૌત્ર બની જાય છે રાશી લાખ જીવનિઓવાળા આ સંસારમાં રાગદ્વેષ અને મેહથી પીડાતાં પ્રાણિ સ્પર્શ, રસ, આદિ વિષયોના ભેગની તૃષ્ણામાં ફસાઈને પરસ્પર એકબીજાનું ભક્ષણ કરે છે; તથા હનન, તાડન, બન, ભટ્સન અને આક્રોશ આદિથી ઉત્પન્ન અત્યન્ત તીવ્ર દુખેને પ્રાપ્ત થાય છે. આમ આ સંસાર ઘણે જ દુઃખદાયક છે. આવું ચિતન કરવાવાળા જન્મ–જરા મૃત્યુના ભયથી ઉદ્વિગ્ન વિવેકી પુરૂષને વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થાય છે અને તે વિરકત થઈ સાંસારિક દુખેથી બચવા માટે સંસારને પરિત્યાગ કરવાનો પ્રયત્ન કરે છે અને તે માટેની ચેષ્ટા પણ કરે છે. આ જ સંસારાનુપ્રેક્ષા છે. (૪) એકવાનુપ્રેક્ષા–એકત્વનું વારંવાર ચિન્તવન કરવું એકત્વભાવના છે જેમ કે-હું એકલો જ જન્મ્યા હતા અને એકલે મરીશ. જ્યારે હું Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ,७ सू. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् व्याधि जन्मजरामरणादि जन्यदुःखानि कदाचिदपि कश्चिद् नापहरति-अंशहारको वा दुःखानां न कश्चिद्भवति, न वा-मदीयदुःखानुभवे कश्चित् सहायो भवति, अन्ततः सहजन्मानः सहमरणाश्च निगोदजीवा अपि 'एकक एवाहं जाये-नियेच इत्येवं निरम नोल्लयन्ति एकक एवाहं स्वकृत कर्मफलमनुभवामि' इत्थेवभावयतः स्वजनेषु स्नेहानुरागवन्धो न भवति न वा-परजनेषु द्वेषानुबन्धो भवति ततश्च-निस्सङ्गता भविगतो मोक्षायैव यतते इत्येकत्वानुप्रेक्षा ४ अथा-ऽन्यत्वानु. चिन्तनरूपा-ऽन्यत्वानुपेक्षा-यथा औदारिकादि शरीरात्-पौद्गकिकाद्-ऐन्द्रिय जब मैं विविध प्रकार की आधि, व्याधि एवं-जन्म-जरामरण के दुःखों से पीडित होता हूं तो अकेले ही उन्हें भोगन पडता है। न तो कोई उन दुःखों को ले सकता है और न उनमें हिस्सा बंटा सकता है। मेरी दुखानुभूति में कोई सहायक नहीं होता। औरों को तो कथा ही क्या, साथ-साथ जन्मने वाले और साथ-साथ मरने वाले निगोद के जीव भी अकेले-अकेले ही अपने जन्म-मरण के दुःख का अनुभव करते हैं । इस नियम का उल्लंघन वे भी नहीं कर सकते। जब मनुष्य यह सोचता है कि मैं अकेला ही अपने किये कर्म का फल भोगा करता हूं, तो स्वजन कहलानेवालों के प्रति उसके चित्त में अनुराग-बन्ध नहीं रह जाता और पर कहलानेवाले जीवों के प्रति वेषानुबन्ध नहीं होता। ऐसी अवस्था में निःसंगता की स्थिति में पहुंचा हुआ जीव मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है। यह एकत्यानुप्रेक्षा है। 'વિવિધ પ્રકારના આધિ, વ્યાધિ અને જન્મ-જરા મૃત્યુના દુખથી રીબાઉ છું ત્યારે મારે એકલાને જ તે ભેગવવા પડે છે. ન તે તે એને કઈ લઈ શકે છે અથવા તેને અમુક ભાગ પણ કોઈને વહેંચી શકાતું નથી. મારી દુખની અનુભૂતિમાં કોઈ સહાયક થતું નથી. બીજાઓની તે વાત જ કળ્યાં કરવાની રહી ? સાથે-સાથે મરનાર નિગદનાં પણ એકલા-એકલા જ પિતાના જન્મ-મરણના દુઃખાને અનુભવ કરે છે. આ નિયમનું ઉલ્લંઘન તેઓ પણ કરી શકતાં નથી. - જ્યારે મનુષ્ય એ વિચારે છે કે-હું એકલે જ મારા કરેલા કર્મોના કળ ભોગવે છે ત્યારે સ્વજન કહેવડાવનારા પ્રતિ તેના ચિત્તમાં અનુરાગ બન્ધ રહી જતું નથી અને પર કહેવાતાં છ તરફ શ્રેષાનુબ થતું નથી. આવા સંજોગોમાં નિઃસંગતાની રિથતિમાં પહોચેલે જીવ મોક્ષના માટે જ પ્રયત્ન કરે છે. આ એકવાનુપ્રેક્ષા છે, त० २२ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० - तस्वार्थको फाच्चा-ऽनित्याच्चा-ऽहं खलु चेतनो नित्योऽपौगलिको-ऽतीन्द्रियश्चान्योऽस्मिक शरीरं खलु-चक्षुशादीन्द्रिश्नाचं भवति' अहन्त्वात्मा जीवो न चारादीन्द्रियग्राह्योऽरिम शरीरस्येन्दिर मावस्यात्-आत्मनः इन्द्रियग्राह्यत्वाऽभावाद । एवं खल्लु शरीरमनित्यम्-महन्तु-नित्यः, शरीरमझम्-अहं पुनर्णोऽस्मि, शरीरं दिलबर -सादिनिधन, अहन्तु-अनाधनिधनो-जन्ममरणरहितोऽस्मि, शरीर स्योत्पादविनाशिस्वगत् , आपनधोत्पादविनाशरहितश्वात्, वहूनि मे संसारे परि:: नमता शरीराणि व्यतीखानि, नहि प्राक्तनजन्मशरीराणि-अधुनातनजन्मशरीराणि सम्भवन्ति-असम्भवात् । अहन्तु-स एबाऽस्मि येन प्राक्तनजन्मशरीराणि पूर्व - (५) अन्य स्थानुप्रेक्षा---अन्यत्व अर्थात भिन्नता का विचार करना अन्यत्यानुपेक्षा है। यथा- औदारिक आदि पांचों शरीर पुद्गल के पिंड है, जड हैं और अनित्य हैं, मैं चैतन्यस्वरूप, नित्य, अपौद्गलिक और अतीन्द्रिय हूं। यह औदारिक शरीर चक्षुरिन्द्रिय आदि से ग्राह्य है जिन्तु मैं-आत्मा-जीच, इन्द्रियों से अगोचर हूं। शरीर इन्द्रियः गोचर है, आत्मा इन्द्रियअगोचर है। फिर यह शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूं। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञ हूं। शरीर सादिनिधन है-उसकी आदि और अन्त है, मैं अनादि निधन हूं, जन्म-मरण से अतीत हूं, शरीर उत्पाद-विनाशशील है, मैं उत्पाद और विनाश से रहित, हूं। इस संसार में अनादि काल ले भ्रमण करते हुए मैंने अनन्तअनन्त शरीर ग्रहण किये और त्यागे हैं। पूर्वजन्म के शरीर इस जन्म के शरीर नहीं बनते-ऐसा होना संभव नहीं कि पूर्वजन्म का (૫) અન્યાનુપ્રેક્ષા-અન્યત્વ અથવા ભિન્નતાને વિચાર કરે અન્ય ત્યાનુપ્રેક્ષા છે જેમ કે-દારિક વગેરે પાંચે શરીર પુગલના પિણ્ડ છે; જડ છે અને અનિત્ય છે, હું ચૈતન્યસ્વરૂપ, નિત્ય અપૌગલિક અને અતીન્દ્રિય છું. આ ઔદારિક શરીર ચક્ષુરિંદ્રિય આદિથી ગ્રાહ્ય છે પરંતુ હું–આત્મા प, छन्द्रियाथी मगाय२ छे. पणी मी श६१२ मनित्य छ, हू नित्य : શરીર અજ્ઞ છે. હું જ્ઞ છું. શરીર સાદિનિધન છે–તેને આદિ અને અત્તવાળું है, हुम न छु, ४.भ-भ२५थी मतीत छु, शरीर अत्याह-विनाशશીલ છે, હું ઉત્પાદ અને વિનાશથી રહિત છું. આ સંસારમાં અનાદિકાળથી ભ્રમણ કરતા મેં અનન્ત-અનન્ત શરીર ધારણ કર્યા અને ત્યાગ્યા છે. પૂર્વજન્મનું શરીર આ જન્મનું શરીર બનતું નથી. એવું બનવું સંભવિત પણ નથી કે પૂર્વજન્મનું શરીર આ જન્મમાં કામ આવી શકે પરંતુ હું તે Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ रु. ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् १७६ मुपभुक्तानि सन्ति, सत्माद-शरीरेभ्यः खलु-औदारिकादिभ्यः पौगलिकेभ्योंमिन्नोऽस्म्यहम् , इत्येवं विभावयतः शरीरममत्वरादित्यं भवति विच्छिन्न शरीरममस्वश्च निःश्रेयसायैव यततेऽनिशम् इति अन्यत्वानुपेक्षा ५ अथा-ऽशुचित्वानुचिन्तनरूपाऽशुचित्यानुप्रेक्षा, यथा-शरीरमिदमत्यन्तमशुचिते- अत्यन्ताशुचिमलमूत्राशययुक्तत्वात्, शरीरस्य मूलकारणीभूताऽत्यन्ताधि शुक्रशोणितरहितत्वात , मातृक्षो-उत्पद्यमानो जीव स्तेजस-कामणशरीरी सन् प्रथमं शुक्रशोणितं खलु-औदारिकसरीरतया परिणमयति, ततश्च-कलल-वुदबुद-पेशी-धनशरीर इस जन्म में काम आ सके । किन्तु बैं तो वही का वही हूँ जिसने पूर्व जन्लों उन शरीरों का उपयोग किया है। अतएच में पौद्गलिक औदारिफ आदि शरीरों से भिन्न हूं। जो ऐल्ला विचार करता है वह शरीर की ममता से रहित हो जाता है और शारीरिक ममता से रहित होकर मुक्ति के लिए ही निरन्तर प्रयत्नशील बनला है। यह अन्यत्यानुप्रेक्षा है। (६) अशुचित्वनावना-अशुचिता (अपवित्रता) चिन्तन करना अशुचित्वानुपेक्षा है । यथा-यह शरीर अत्यन्त अशुचि है, क्योंकि अत्यन्त अशुचि बल मूत्र आदि की थैली है और शुक्र शोणित जैसे अत्यन्त अशुचि पदार्थ इसके मूल कारण हैं । जय यह जीव माता की कुक्षि में जन्म लेता है तो तैजस और कार्यण शारीर के साथ उत्पन्न होता है । उस समय यह सर्वप्रथम शुक्र और शोणित को ही औदा. रिकशरीर का निर्माण करने के लिए ग्रहण करता है। उनको कलल; ત્યાંને ત્યાં જ છું જેણે પૂર્વજન્મમાં તે શરીરને ઉપગ કર્યો છે. જે આ વિચાર કરે છે તે શરીરની મમતાથી પર થઈ જાય છે અને શારીરિક મમતાથી રહિત થઈને મુક્તિને માટે જ નિરન્તર પ્રયત્નશીલ રહે છે. આ અન્યત્યાનુપ્રેક્ષા છે. (६) मशुथित्वमाना-शुथित। (अपवित्रता)नु यितन ४२७ मशुચિત્વાનપ્રેક્ષા છે. જેમ કે–આ શરીર અત્યત અપવિત્ર છે કારણ કે અત્યન્ત અશુચિ મળ-મૂત્ર આદિની કેથળી છે અને શુક-શેણિત જેવાં અત્યન્ત અશુચિ પદાર્થ એના મૂળ કારણ છે. જ્યારે આ જીવ માતાની કુખે જન્મ લે છે ત્યારે તૈજસ અને કાર્મણ શરીર સાથે ઉત્પન્ન થાય છે. તે સમયે આ સર્વપ્રથમ શુક્ર અને શેણિતને જ ઔદારિક શરીરનું નિર્માણ કરવા માટે ધારણ 3 . मन सस, मुद्दयुद्ध पेशी, धनहाथ, ५० वगेरे मनोयin शोणित, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----- तत्वार्थसूत्रे हस्तपादाङ्गोपाङ्ग शोणितमासास्थिमज्जाकेशश्मश्रुनखशिराधमनीरोमादिना परि. णमयति मातृभक्षितादाररसश्च रसहारिण्या पररपरपतिवद्धनालिकया (नाडया) ऽस्यहरति, इत्येवं रीत्या मूलकारणो-तरकारणयोरशुचित्वात्-अशुभपरिणामः पाळानुसन्धाच्याऽत्यन्तमशुचि खलु शरीरं भवति । तद्यथा-भुक्तः-आहारोहि *लेष्माशयमासाद्य श्लेष्मणा स्निग्धीकृतः सम्बत्यन्ताऽशुचिर्भवति, ततश्च-पिताशयं प्राप्य पच्यमानो मलत्वमापन्नोऽशुचिरेव भवति, ततो वाताशयं प्राप्य वातेन विभज्यमानः खलरसरूपेग परिणतो भवति, तत्र खलांशाद् मूत्रपुरीपदृषिका सिंघाणस्वेदलालादयो मला प्रादुर्भवन्ति । ते चा-ऽशुचिभूतैव, रसांशाच्चबुदबुद, पेशी, धन, हाथ, पैर आदि अंगोपांग, शोणित, मांस, अस्थि, मज्जा, केश, श्मश्रु, नख, शिरा, धमनी, रोम आदि के रूप में परिणत करता है। माता द्वारा खाए हुए आहार के रस को दोनों के साथ जुडी हुई रलहारिणी नाडी के द्वारा आहार करता है । इस प्रकार शरीर का मूल कारण और उत्तर कारण दोनों ही अशुचि हैं। अशुचि रूप में ही उनका परिणमन होता है, अतएव यह शरीर अशुचि है। इस शरीर के अंदर गया हुआ उत्तम से उत्तम आहार भी कफाशय में पहुंच कर और श्लेष्म से चिकना होकर अत्यन्त गंदा बन जाता है । तत्पश्चात् पित्ताशय में पहुंच कर वहां पचता है और मल रूप में परिणत होकर अशुचि बन जाता है। उसके बाद वाताशय में प्राप्त होकर वायु से विभक्त होकर खल भाग और रस भाग के रूप में परिणत होता है । उस खल भाग से मूत्र, मल; दृपिका रेट, पसीना एवं लोट आदि मलों का प्रायुर्भाव होता है । ये માંસ, અસ્થિ, મજજા, કેશ, નખ, શિરા, ધમણ વગેરેના રૂપમાં પરિણુત કરે છે. માતા દ્વારા ખાધેલા આહારના રસને બંનેની સાથે જોડાયેલી રસ હારિણે નાડી દ્વારા આહાર કરે છે. આ રીતે શરીરનું મૂળ કારણ તેમજ ઉત્તર કારણ બને જ અશુચિ છે અશુચિ રૂપમાં જ તેનું પરિણમન થાય છે. આથી આ શરીર અશુચિ છે આ શરીરની અંદર ગયેલે ઉત્તમમાં ઉત્તમ આહાર પણ કાશયમાં પહોંચીને અને ગળફાથી શિક થઈને અત્યન્ત ગંદ થઈ જાય છે ત્યારબાદ પિત્તાશયમાં જઈને ત્યાં પરિપકવ થાય છે અને મળ રૂપે પરિણત થઈને અશચિ બની જાય છે. ત્યાર પછી વાતાશયમાં પ્રાપ્ત થઈને વાયુથી વિભક્ત થઈને ખલ ભાગ અને રસભાગના રૂપમાં પરિણતી થાય છે. તે ખલભાગથી મૂત્ર, મળ, દૂષિકા, લીંટ, પરસેવો તથા લાળ વગેરે મળીને પ્રાર્દશાાવ થાય છે આ તમામ અશુચિ જ છે. ૨સભાગથી Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ . ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् १७३ शोणितमांसमज्जामेदोऽधिशुकाणि संजायन्ते सर्वश्चेतत्-कामादिशुक्रान्तमशुचिः भूतमे वर्तते, एवमशुचि मलमूत्रफ पत्तादीनामाश्रयत्वादपि शरीरमशुचिवर्तते, इत्येवं भावयतः शरीरे निदो जायते, निविणश्व-शारीरिकजन्मप्रहाणाय मवर्तते इत्यशुचित्वानुमेक्षा ६ अथास्त्रमानुचिन्तनरूपा-आस्रानुप्रेक्षा, यथा-इन्द्रियकषा. यादीन् आस्रवान् अशुपापरूपाकुशलकर्मागमद्वारपुण्यरूपदशविधधर्मनिर्गमद्वारभूवान् बहुविधोषयुक्तान् अत्यन्ततीव्रवेगशालियो जीवस्याऽवधकारकान् अनुचिन्तयेत् । तत्र स्पर्शनेन्द्रियवशीकवा बहनो जीवा परस्त्रीलम्पटाः सन्तः सघ अशुचि ही हैं। रस भोग से रुधिर, मांस, मज्जा, भेद, अस्थि और शुक्र (वीर्य) की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार कफ से लगाकर शुक्र पर्यन्त सब अशुचि ही हैं। इन अशुचि मल मूत्र कफ पित्त आदि का आधार होने से भी शरीर अशुचि है। - इस प्रकार विचार करने से शरीर के प्रति विरक्ति भाव की उत्पत्ति होती है और शरीर के प्रति पिरक्ति होने पर मनुष्य शरीर की उत्पत्ति को ही रोक देने में प्रवृत होता है अर्थात् सदा के लिए अशरीर (युक्त) घनने का प्रयत्न करता है । यह अशुचित्व अनुप्रेक्षा है । (७) आत्रवानुप्रेक्षा-आस्रव का चिन्तन करना आनधानुप्रेक्षा है। यथा-ये इन्द्रिय और कषाय आदि आस्त्रच पाप रूप अकुशल कर्मों के आगमन के द्वार हैं। ये अनेक प्रकार के दोषों से युक्त हैं, इस प्रकार का विचार करना चाहिए । स्पर्शनेन्द्रिय के वशीसोडी, मांस, Harm. मेह, मयि मने शु (वीय)नी उत्पत्ति थाय छे. આમ કફથી માંડીને શુક્ર સુધી બધું અશુચિ જ છે. આ અશુચિ મળ, મૂત્ર, કફ, પિત્ત આદિને આધાર હોવાથી પણ શરીર અશુચિ છે. આ રીતે વિચારવાથી શરીર પ્રતિ વિરતિની ઉત્પત્તિ થાય છે અને શરીર પર વિરકિતભાવ જાગવાથી મનુષ્ય શરીરની ઉત્પત્તિને જ અટકાવી દેવામાં પ્રવૃત્ત થાય છે અર્થાત્ સદા માટે અશરીર (મુક્ત) બનવા પ્રયત્ન કરે છે. આ અશુચિત્વ અનુપ્રેક્ષા છે. (७) मावानुप्रेक्षा-या सत्रनु यिन्तन ४२ पासवानुप्रेक्षा छे. યથા– આ ઈન્દ્રિય અને કષાય આદિ આસવ પાપ રૂપ અકુશળ કર્મોના આગમનના દ્વાર છે. તેઓ અનેક પ્રકારના દેથી યુક્ત છે અને અત્યંત તીવ્ર વેગશાલી જીવને પાપ ઉત્પન્ન કરનારા છે, એ જાતને વિચાર કરે Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APAMORMATHArtneracameowwresOM स्वजीवनमपि विनाशयन्ति, एवं-मदोन्मत्ता दिाजा अपि स्पर्शनेन्द्रियवशीभूता एवं निगृहीता भवन्ति, एवं-रसनेन्द्रियनशीभूताः माणिनोवडिशाऽऽगत मांसलौभग्रस्तमत्स्यादिवत् नियन्ते, घ्राणेन्द्रियवशीभूताः पाणिनः पङ्कजकिचल्कलोलुपभ्रमरादिवत् बद्धा भवन्ति प्राणैनियुक्ताश्च भवन्ति, चक्षुरिन्द्रियवशीभूता जीवाः स्त्रीरूपादि दर्शनाभिलापिणो दीपालोकन लोलुपपतङ्गादिवत् विनाशं प्राप्नु बन्ति श्रोत्रेन्द्रियपसक्ताः खलु जीवा मृगवत् संगीतकादि शब्दश्रवणलोलुपार लन्तो वध्यन्ते-नियन्ते च, एवं-कवायादीनां क्रोधमानमायालोभानां भावनेन, भूत हुए बहुतेरे जीव परस्त्रीलम्पट होकर अपने जीवन को भी विनष्ट कर देते हैं । पदोन्मत्त हाथी भी स्पर्शनेन्द्रिय के अधीन होकर कैद में पड़ते हैं। जो लोग रसनेन्द्रिय के वशीभूत हो जाते हैं वे बडिशामछली पकड़ने के साधनविशेष में लगे हुए मांस के लोभ में पड़े हुए मत्स्य आदि के समान मृत्यु को प्राप्त होते हैं। घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत हुए प्राणी कमल के किंजल्क के लोभी भ्रमर आदि के समान बन्धन को प्राप्त होते हैं और प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। चक्षु-इन्द्रिय के वश में पडे हुए प्राणी स्त्री के रूप के दर्शन के अभिलाषी होकर, दीपक को देखने के लोलुप पतंग आदि के समान विनाश को प्राप्त होते हैं । श्रोनेन्द्रिय के विषय में आसक्त जीव संगीत आदि के मधुर शब्दों के श्रवण में लेोला होकर मृग की भांति पन्धन और वध को प्राप्त होते है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों द्वारा होने. જોઈએ. સ્પર્શનેન્દ્રિયને તાબે થયેલા ઘણા બધાં જીવ પરસ્ત્રીલમ્મટ થઈને પિતાના જીવનને પણ નાશ કરી દે છે. મદેન્મત્ત હાથી પણ સ્પશનેન્દ્રિયને આધીન થઈને કેદમાં પડે છે. જે લેકે રસનેન્દ્રિયને વશીભૂત થઈ જાય છે તેઓ વિડિશા–માછલી પકડવાના સાધનવિશેષમાં લગાડેલા માંસના લાભમાં પડેલાં મત્સ્ય વગેરેની જેમ મરણને શરણ થાય છે. ધ્રાણેન્દ્રિયને વશીભૂત થયેલા પ્રાણિ કમળના કિંજલ્કના લેમી ભમરા આદિની માફક બન્ધનને પ્રાપ્ત થાય છે અને પોતાના પ્રાણે ગુમાવી બેસે છે. ચક્ષુ ઇન્દ્રિયના વીમા પડેલાં પ્રાણી સ્ત્રીના રૂપના દર્શનના અભિલાષી થઈને, દીવાને જોવા માટે લાલચુ પતંગીયા વગેરેની માફક, વિનાશને કરે છે. શ્રોત્રેનિદ્રયના વિષયમાં આસકત જીવ સંગીત આદિના મધુર શબ્દોના શ્રવણમાં લુપ થઈને હેરશની જેમ મન અને વધને પ્રાપ્ત થાય છે. આવી જ રીતે ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ રૂ૫ કષા દ્વારા થનારો Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७९.६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् इत्येवं भावयतः कर्मास्वनिरोधाय प्रवृत्ति भवति इत्यासानुप्रेक्षा ७ संवरान चिन्तनरूपा-संबरानुक्षा, यथा-शास्त्रबद्वाराणां पिधानम्-आस्रवदोषपरिवर्जन च संघरगुणत उपकारकरया समिति-गुतिधर्मानुपेक्षा परीपहादिपरिपालनद्वारा ऽनुचिन्तयेत् सर्वे खल पूर्वोक्तास्रवदोषाः संवृतात्मनो न भवन्ति, एवं-भावयता खलु संवरायैव भावना जागति इति संवरानुपेक्षा ८ अथ निर्जरानुचिन्तनरूपानिर्जरानुप्रेक्षा, यथा-कर्मपुद्गलानामुदयावलिका प्रवेशेनाऽनुभूतरसानामुत्तरकाले. परीषहसनरूपा कर्मनिर्जराकृतकर्मफळविपाको भवति, स च दिपाको द्विविधा भवृद्धिपूर्व:-कुशलमूलश्च । तत्र-नरकादिषु कृतकर्म फलभोगरूपो विपाकोदयोड: वाले अपायों का चिन्तन करना चाहिए। ऐसा चिन्तन करने से कमों, के आस्रव का निरोध करने में प्रवृत्ति होती है । यह आस्रवभावना का स्वरूप है। ' (८) संवरानुप्रेक्षा-संवर का विचार करना संपरानुप्रेक्षा है। जैसे, -धर्म के आस्रवद्वारों को ढंकना-आत्रवदोषों से बचना संबर है। समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र का पालन करने से संवर होता है । जो संवृतात्मा होते हैं, उनमें आस्रवदोष नहीं होते। ऐसी भावना करने से संबर के लिए ही प्रयत्न होता है। यह संवर भावना है। (९) निर्जरालुप्रेक्षा--निर्जरा का चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। यथा-कर्मपुद्गल जब उदयावलिका में प्रवेश करते हैं और उनके रस का अनुभव जीव कर लेता है तो उसके पश्चात् वे झड जाते हैं। कर्म विपाक दो प्रकार का है-अवुद्धिपूर्व और कुशलमूल । नरके અપાનું ચિન્તન કરવું જોઈએ. આ પ્રકારનું ચિન્તન કરવાથી કમેના આસ્રવને નિરોધ કરવામાં પ્રવૃત્તિ થાય છે. આ આસ્રવ ભાવનાનું સ્વરૂપ છે. (८) संपरानुप्रेक्षा-स१२ने। विया२ ४२वो सनुप्रेक्षा छ. म है કર્મના અસવ દ્વારને ઢાંકવા-આસવ દેથી બચવું સંવર છે. સમિતિ, ગુપ્તિ, ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા પરીષહજય અને ચારિત્રનું પાલન કરવાથી સંવર થાય છે. જેઓ સંવૃતામાં હોય છે, તેમનામાં આઅવ દેષ હતાં નથી, એવી ભાવના કરવાથી સંવર માટે જ પ્રયત્ન થાય છે. આ સંવર ભાવના છે. (૯) નિજેરાનુપ્રેક્ષા–નિજરનું ચિન્તન કરવું નિજાનુપ્રેક્ષા છે. યથા– કર્મપુદગલ જ્યારે ઉદયાલિકામાં પ્રવેશ કરે છે અને તેમના રસને અનુભવ જીવ કરી લે છે, ત્યાર બાદ તે એંટી જાય છે કર્મવિપાક બે પ્રકારનાં છે. અબુદ્ધિપૂર્વ અકુશળમૂલ નરક આદિ ગતિએમાં કરેલાં કર્મો ભોગવવાં - -- Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र हुद्धिपूर्वका १ अकुशलानुवन्धश्च वर्तते २ इत्येवमवयं भावयतः परिचिन्तयेत् । शतसूलो विपाशच लपसा द्वादशविधेन परीषहजयेन वा कृतो वर्तते शुभा बन्धो-निश्नुबन्धो या सझलकर्मक्षयलक्षणः साक्षात् मोक्षायैव हेतुर्भवतीति तुंगभावन परिचिन्तयेत् , तथा भावयतः खलु कर्मनिर्जरायै-एव मतिः प्रवर्तते, प्रतिनिर्जरायुप्रेक्षा-९ अथ लोकानुचिन्तनरूपा-लोकानुप्रेक्षा, यथा-पश्चास्तिः एसायात्मको धर्माऽधर्माऽऽकाशे-फुगल-जीवरूपो विविधपरिणामयुक्तः उत्पत्ति मादि गतियों में कृत्त कर्म के फल का जो भोग होता है, वह अधुद्धिपूर्व शिषाकोदया है, वह अकुशलानुबन्ध है, ऐसा अंवद्यरूप से चिन्तन, जरना चाहिए । कुशल मूल विपाक बारह प्रकार की तपश्चर्या करनें. है और परीषहों को जीतने से होता है। वह शुभानुबन्ध वाला या अनुबन्ध ले रहित होता है, सकल कर्मों का क्षय उसका लक्षण है। वह मोक्ष का कारण है, इस प्रकार गुण रूप से उसका चिन्तन करना पाहिए। ऐसा चिन्तन करने से बमों की निर्जरा के लिए ही मति उत्पन्न होती है। यह निर्जराभावना है। (१०) लोकानुप्रेक्षा-लोक के रूप का विचार करना लोकानुप्रेक्षा है, यथा-यह लोह पंचास्तिकायमय है अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मा. स्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलारित काय और जीवास्तिकाय रूप है। यह लोक विविध प्रकार के परिणामों से युक्त है, उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यरूप है, विभिन्न स्वभाव वाला है। इस प्रकार लोक का પડે છે તે અબુદ્ધિપૂર્વ વિપાકેદય છે, તે અકુશલાનુબન્ધ છે એવું અવદ્ય રૂપથી ચિન્તન કરવું જોઈએ કુશલ મૂલ વિપાક બાર પ્રકારની તપશ્ચર્યા કરવાથી તથા પરીષહ ઉપર વિજય મેળવવાથી થાય છે. તે શુભાનુબન્ધવાળે અથવા અનુકન્યથી રહિત હોય છે. સકળ કર્મો ક્ષય તેનું લક્ષણ છે તે મેક્ષનું કારણ છે, આ રીતે ગુણ રૂપથી તેનું ચિન્તન કરવું જોઈએ. આવું ચિન્તન કરવાથી કર્મોની નિર્જરા માટે જ મતિ ઉત્પન્ન થાય છે. આ નિર્જરાભાવના છે. * (૧૦) લોકાનુપ્રેક્ષા-લોકના સ્વરૂપને વિચાર કરે કાનુપ્રેક્ષા છે યથા–આ લોક પંઅસ્તિકાયમય છે અર્થાત્ ધર્મારિતકાય, અધમતિકાય, આકાશારિતકાય, પુદ્ગલારિતકાય અને જીવારિતકાય રૂ૫ છે. આ લેક વિવિધ પ્રકારના પરિણામોથી યુક્ત છે, ઉત્પાદ, વિનાશ અને ધ્રવ્ય રૂપ છે, વિચિત્ર Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ६ अनुप्नेक्षास्वरूपनिरूपणम् १७७ स्थिति-विनाशयुक्तो विचित्रस्वभावो वर्तते इत्येवं लोकं परिचिन्तयतः तत्र जानात्मविशुद्ध भवतीति लोकानुपेक्षा-१० अथ वोधिदुर्लभस्वस्थानुचिन्तन पा-बोधिदूलमत्वानुपेक्षा, यथा-अनादौ खल्लु संसारे नरक-तिर्यङ्मनुष्यदेव भवग्रहणेषु पौन: पुन्येन चक्रवत् परिभ्रमतो जीवस्य मानायकारक शारीरिक मानस-दुःखल्याप्तस्य तत्वार्थाऽश्रद्धानाऽविरति-प्रमाद कपाय प्रभृति दोपो. पहतबुद्धः ज्ञानावरणादि घातिककर्मचतुष्टयाऽभिभूतस्य सभ्या दर्शनादि विशुद्धो बोधिदुर्लभो भवतीति चिन्तयतो वोधि प्राप्त्या प्रमादो न भवति चोधि दुर्लभत्वानुपेक्षा बोध्या-११ अथ-धर्मदेशकाहत्वानुचिन्तन रूपोऽनुप्रेक्षा, यथा चिन्तन करने वाले जीव का तत्वज्ञान और आत्मा विशुद्ध होता है, यह लोकानुप्रेक्षा है। ' (११) बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा--बोधि अर्थात् सम्यक्त्व की दुर्लभता का विचार करना घोधिदुर्लभत्यानुप्रेक्षा है । जैसे-इस अनादि संसार में नरक, तिर्यंच मनुष्य और देव गतियों में चार-चार चक्र की भांति घूमने वाले, नाना प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों से युक्तं, तत्त्वार्थ के अश्रद्धान अविरति प्रमाद एवं कषाय आदि दोषों के कारण उपहत बुद्धि वाले तथा ज्ञानावरणीय आदि चार घालिया कर्मों से पीडित जीव को सम्यग्दर्शन से शुद्ध बोधि की प्राप्ति होना बहुतं कठिन है । जो ऐसा विचार करता है वह बोधि प्राप्ति करके उसमें 'प्रमाद नहीं करता। यह घोधिदुर्लभैत्वानुप्रेक्षा है। . (१२) धर्मदेशकाहत्त्वानुप्रेक्षा--धर्मदेशकाहत्त्व का चिन्तन करना, સ્વભાવવાળે છે. આમ લેકનું ચિન્તન કરનાર જીવનું તત્ત્વજ્ઞાન અને આમા વિશુદ્ધ હોય છે, આ લોકાનુપ્રેક્ષા છે. - (૧૧) બધિદુર્લભવાનુપ્રેક્ષા-બાધિ અર્થાત્ સમ્યક્ત્વની દુર્લભતાને વિચાર કરે બેધિદુર્લભત્વાનુપ્રેક્ષા છે જેમ કે–આ અનાદિ સંસારમાં નરક, તિયચ, મનુષ્ય અને દેવ ગતિઓમાં વારંવાર ચકની જેમ ફરનારે, જુદા જુદા પ્રકારના શારીરિક અને માનસિક દુઃખોથી યુક્ત તવાર્થને અશ્રદ્ધાન, અવિરતિ પ્રમાદ અને કષાય આદિ દેના કારણે ઉપહત બુદ્ધિવાળા તથા જ્ઞાનાવરણીય આદિ ચાર ઘાતી કર્મોથી પીડિત જીવને સમ્યક્દર્શનથી શબ્દ બાધિની પ્રાપ્તિ થવી અતિ મુશ્કેલ છે. જે આ વિચાર કરે છે. તે બેધિ પ્રાપ્ત કરીને તેમાં પ્રમાદ કરતો નથી આ બેધિદુર્લભત્યાનુપ્રેક્ષા છે. (૧૨) ધર્મદેશકાર્ડવાનુપ્રેક્ષા-ધર્મદેશકાર્હત્વનું ચિન્તન કરવું જેમ કેत०२३ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ - प्रदेशकोऽर्हन इति वत् प्रतिपादितः खल रवाध्यायचरणतपर्ण सामाि यदि लक्षणो धर्मः सम्यदग्दर्शनद्वारः समस्तं मूलोत्तरगुण पथ महा साधनः- आचारादि दृष्टिवादपर्यन्तद्वादशाङ्गोपदिष्टस्वरूपः चरणकरणलक्षणः अमिति-गुति परिपालन विशुद्ध स्वरूपावस्थानो नरकादि गति चतुष्टय रूप संसार निस्तारको निःश्रेयसमापको वर्तते इत्येवं धर्म देशका स्वानुचिन्तनेव वरणकरण धर्मानुष्ठानेन सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शन- सम्यक् चारित्र सम्यक्षो लक्षणरत्न वतृष्टथशुक्तिमार्गाच्यदनेन च व्यवस्थानं भवतीति धर्मदेशका ईस्वालु पेक्षा - १२ उक्तश्च मुत्रकृताङ्गे २ श्रुतरकन्धे १ - अध्ययने १३ सूत्रे - 'अन्ने खलु यथा- अर्हन्त भगवान् धर्म के आद्य उपदेशक हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म स्वाध्याय चारित्र तपश्चर्या एवं सामायिक आदि लक्षणों वाला है, सम्यग्दर्शन उस में प्रवेश करने का द्वार है, समस्त -· सूलगुण, उत्तरगुण एवं पांच महाव्रत उसके साधन हैं, आचारांग से :लगाकर दृष्टिवाद पर्यत चारह अंगों में उसका उपदेश दिया गया है, चह चरण-करण लक्षण वाला है, समिति एवं गुप्ति के परिपालन से विशुद्ध स्वरूप- अवस्थान वाला है, नरक आदि चार गति रूप संसार से तारने वाला है और मोक्ष का लाभ कराने वाला है । इस प्रकार • धर्मदेशफाहत्व की चिन्तन करने से चरण-करण धर्म का अनुष्ठान होता है, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यकृतप रूप रत्नचतुष्टय से, जो मोक्ष के मार्ग हैं, च्यवन नहीं होता । यह धर्मदेशका हैत्यानुप्रेक्षा है | मग में, द्वितीय ७८ · M स्कंध के प्रथम अध्ययन के १३ वें અર્જુન્ત ભગવત્ ધર્મના આદ્ય ઉપદેશક છે. તેમના દ્વારા ઉપદ્રિષ્ટ ધમસ્વાધ્યાય, ચાત્રિ, તÅર્યાં અને સામાયિક આદિ લક્ષણાવાળા છે, સમ્યકૂ દર્શીન તેમાં પ્રવેશવા માટેનું દ્વાર છે સસ્ત મૂ,ગુણ, ઉત્તગુણ અને પાંચ મહાવ્રત- તેના સાધન છે, આચારાંગથી લઈને દૃષ્ટિવાદ પન્ત ખાર અગામાં તેના ઉપદેશ આપવામાં આવ્યા છે, તે ચરણ-કરણ લક્ષણવાળા છે, સમિતિ તથા ગુપ્તિના પરિપાલનથી વિશુદ્ધ સ્વરૂપ- અવસ્થાનવાળા છે. નરક આદિ ચાર “ગતિ રૂપ સંસારથી તારનાર છે અને મેાક્ષના લાભ કરાવનાર છે. આ રીતે ધ દેશકા‰નું ચિન્તન કરવાથી ચરણ-કાણુ ધ'નુ' અનુષ્ઠન થાય છે, સભ્ય જ્ઞાન, સમ્યક્દર્શન, સમ્યક્ચારિત્ર અને સયકુ તપ રૂપ રત્ન ચતુષ્ટયથી, જે મેાક્ષના માર્ગ છે, તેનાથી ચ્યવન થતા નથી. આ ધ દેશકાર્ડ વાનુપ્રેક્ષા છે. સૂત્રકૃત્તાંગસૂત્રમાં દ્વિતીયશ્રુતકધના પ્રથમ અધ્યયનના ૧૩માં સૂત્રમાં Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ खू. ६ अनुप्रेक्षाख पनि पगम् . १७६ णाति संजोगा-अन्नो अहसि' इति, अन्ये खलु शातिसंयोगा:-अन्योऽइ. मस्मीति, सूत्रकृताङ्गे प्रथमश्रुतस्क-धे द्वितीयाध्ययने प्रथममायायाञ्चोक्तम्'बीहिदुल्लहाणुप्पेहा-११ 'संवुज्ज्ञह किं न बुज्झह संयोही खलु पेच्च दुल्लहा। " णो हूवणभंलि राइओ-नो सुलभ पुणराधिजीवियं ॥१॥ इति, 'संयुध्यस्व किं न बुध्यस्व-संबोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा। .. नो हु उपनमन्ति रात्रयः-नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥१॥ इति ॥६॥ मूलम्-संबर सरगच्चरण णिजस्ट्रं परिलोढवा परीलहा ॥७॥ छाया-संबर मार्गाऽच्यवन-निर्जरार्थ परिषोढव्याः परीपहाः ॥७ . तत्यार्थदीपिका-पूर्व तावद् आस्रवनिरोधलक्षगसंवरहेतुतया समितिगुप्ति-धर्माऽनुपेक्षा-परीपहजय चारित्राणि प्रतिपादितानि, तेषु च-समितिसूत्र में कहा है-'ज्ञाति संबंधी संयोग भिन्न है और मैं भिन्न हूं'। सूत्रकृत्तांग के प्रथम श्रुतस्कंध के द्वितीय अध्ययन की प्रथम गाथा में कहा है-'बोधिधुल लानुप्रेक्षा । समझो बूझो, अरे समझते क्यों नहीं हो! परभव में बोधि दुर्लभ है । व्यतीत हुभा समय वापिस नहीं लौटता और पुनः मानवजीवन मिलना सुलभ नहीं है, अतएव समझो-बोध करी ॥६॥ _ 'संवरमरगच्चवण' इत्यादि। " संवर के मार्ग से च्युन न होने के लिए और निर्जरा के लिए परीषहों को सहन करना चाहिए ॥७॥ .. : तत्त्वार्थदीपिका-पहले कहा गया था कि समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा परीषह जप और चारित्र, ये आस्रवनिरोध लक्षण बाले संवर કહ્યું છે–જ્ઞાતિ સંબંધી સંગ ભિન્ન છે અને હું ભિન્ન છું. સૂત્રકૃતાંગના પ્રથમ શ્રતસ્કંધના દ્વિતીય અધ્યયનની પ્રથમ ગાથામાં કહ્યું છે--બેધિદુર્લભાप्रेक्षा समन्न-पूजे, मरे, भ सभा नथी ? ५२सवमा माधि हुन छ. વીતી ગયેલે સમય ક્યારે પણ પાછા આવતું નથી અને ફરીવાર મનુષ્યદેહ મળ સહેલે નથી આથી સમજે–બેધ કરે. દા 'संवरमगच्चवणणिज्जरटुं' त्यात - સૂવાથ–સંવરના માર્ગથી મૃત ન હોવા માટે તથા નિજાને માટે પરિષહેને સહન કરવા જોઈએ. છા આ તત્વાર્થદીપિકા–પહેલા કહેવામાં આવ્યું કે સમિતિ, ગુપ્તિ, ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા, પરીષહ જવ અને ચારિત્ર-આ આસવનિધ લક્ષણવાળા સંવરના Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શૂટ. स्वार्थ मुतिधर्मातुप्रेक्षाः स्वरूपतो- विभागतो-लक्षणतश्च यथाक्रमं प्ररूपिताः सम्प्रतिक्रममाप्तस्य परीषद्दजयस्य प्ररूपणं कर्तुमाह- 'संवरमग-' इत्यादि संवर मार्गावन निर्जरार्थम् - संवरमार्गाच्यवनार्थ - निर्जरार्थश्च वक्ष्यमाणाः क्षुत्पिपा सादयो द्वात्रिंशतिः परीपहाः क्षुधादिवेदनोत्पत्तौ सत्यां पूर्वोपार्जितकर्मनिर्जरपार्थं परितः समन्तात् सहनरूपाः क्षुत्पिपासादयः परीपहाः परिपोढव्या भवन्ति क्षुत्पिपासादीनां सहनं कर्तव्यम् । तत्र कर्मासवनिरोधलक्षणस्य जिनोपदिष्टात्मार्गात् सम्यग्दर्शनादे मोक्ष मार्गात् अच्यवनार्थम् - अपरिभ्रंशार्थम्, ततोऽपनयनार्थं तस्य निश्चलतार्थमितिभावः, कृतकर्मणो निर्जराश्च आत्मनः पृथग्भावेन परिशटके कारण हैं। इनमें से समिति गुप्ति, धर्म और अनुप्रेक्षा का स्वरूप, भेद और लक्षण अनुक्रम से कह चुके हैं। अब क्रमप्राप्त परीपह जय की प्ररूपणा करते हैं संवर मार्ग से च्युन न होने के लिए और निर्जरा के लिए आगे कहे जाने वाली क्षुधा पिपासा आदि वाईस परीषह सहना चाहिए । क्षुधा आदि की वेदना उत्पन्न होने पर पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जत करने के लिए 'परित' अर्थात् सब प्रकार से जिन्हें सहन किया जाय, उन क्षुधा पिपासा आदि को परीषद कहते हैं । - तात्पर्य यह है कि कर्मो के आस्रव के निरोध रूप संबर के जिनोपदिष्ट मार्ग से - अर्थात् सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग से, च्युत न होने के लिए या उसमें निश्चलता उत्पन्न करने के लिए तथा कृन कर्म की निर्जरा के लिए अर्थात् उन्हें आत्मा से पृथक् करने के लिए કારણુ છે. આમાંથી સમિતિ, ગુપ્તિ, ધર્મ અને અનુપ્રેક્ષાનું સ્વરૂપ ભેદ અને ભ્રક્ષણ અનુક્રમથી કહેવામાં આવ્યા છે હવે ક્રમપ્રાપ્ત પરીષહજયની પ્રરૂપણા रीसे छीन्थे mandy સવર~માથી શ્વેત ન થવાય તે માટે અને નિર્જરા માટે હવે પછી કહેવામાં આવનારા ક્ષુધા-પિપાસા થ્યાદિ બાવીશ પરીષહુ સહન કરવા જોઈએ. ' ક્ષુધા આદિની વેદના થવા પર પૂર્વાંપાર્જિત કર્મોની નિર્જરા કરવા માટે પતિ:' અર્થાત્ ભધી રીતે જેને સહન કરી શકાય, તે ક્ષુધા ર્પાિસા. આદિને પરીષહ કહે છે. તાપ એ છે કે કમેૌના આસત્રની નિધિ રૂપ સવરના જિનેપષ્ટિ. માથી અર્થાત્ સમ્યક્દનાદિ માક્ષ માથી ચુત ન થવા માટે અથવા તેમાં નિશ્ચલતા ઉત્પન્ન કરવા માટે તથા કરેલાં કર્મોની નિર્જા માટે અર્થાત્ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ रु.७ परीवहस्वरूपनिरूपणम् नार्थश्चति यावत् क्षुत्पिपासादीनां परोषहाणां सहने कर्तव्यमितिभावः जिनोपदि. ष्ट कर्मा गनिरोधमार्गाव-पुल्यादर्शनरूपादच्यामानाः सन्त स्तन्मार्गपरिक्रमणपरिचयेन कांगारूप:स्राद्वारे संवा:-औपक्रमिकं कर्मफ मनु मवन्तः क्रमेण निर्गकर्मणः ख मोक्षमासादयन्तीति भावः ॥७॥ ___तत्वार्थनियुक्तिः-पूर्वमूत्रे-संजरहेतुभूतां क्रमप्राप्ता मनुपेक्षा द्वादश विधां सविशदं प्रारूपयन् सम्पति-क्रमामा परीपहजयं प्ररूपयितुमाह-संवरमग्ग चवणनिज्जरलैं परिलोढव्या परीलहा' इति, संवरमामाच्यवननिर्जरार्थम् संवरस्य पूर्वोक्तस्वरूपस्य कर्मागमनिरोधलक्षणस्य मार्गात् तीर्थ कत्मदर्शित क्षुधा पिपाला आदि परीषहों को लहन करना चाहिए। अभिप्राय यह है कि जिन भावात् द्रारी उपदिष्ट कमो के आगमन के निरोध के मार्ग से अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि से जो च्युत नहीं होते हैं और उसी मार्ग पर चलते हैं, वे आसय द्वार का निरोध करते हुए-औप. क्रमिक कर्मफल का अनुभव करते हुए, अनुक्रम से कमों की निर्जरा करते हुए मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ॥७॥ तत्वार्थनियुक्ति-पूर्व सूत्र में संवर के कारण बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का विशद रूप से वर्णन किया गया। अब क्रम प्राप्त परीषहजय की प्ररूपणा करते हैं___ पूर्वोक्त स्वरूप वाले अर्थात् कर्मों के आगमन के निरोध लक्षण वाले संवर के मार्ग से या सम्यग्दर्शन आदि मोक्षमार्ग से च्यात न होने के लिए तथा पूर्वाजित कों की निर्जरा के लिए अर्थात् उन्हें તેમને આત્માથી પૃથફ કરવા માટે સુધા પિપાસા આદિ પરીષહેને સહન કરવા જોઈએ. કહેવાનું એ છે કે જિનેશ્વર ભગવાન દ્વારા ઉપદિષ્ટ કર્મના આગમનના નિરોધના માર્ગથી અર્થાત સમ્યક્દર્શન આદિથી જે મૃત થતાં નથી અને જે તે જ માર્ગ પર ચાલે છે, તેઓ આસ્રરદ્વારને નિરોધ કરતા થક, અનુક્રમથી કર્મોની નિર્જરા કરતાં થકાં મેક્ષ પ્રાપ્ત કરી લે છે. પણ - તવાર્થનિર્યુકિત–પૂર્વ સૂત્રમાં સંવરના કારણ રૂપ બાર પ્રકારની અનુપ્રેક્ષાઓનું વિશદ રૂપથી વર્ણન કરવામાં આવ્યું. હવે કેમપ્રાપ્ત પરીષહજયની પ્રરૂપણું કરીએ છીએ – પક્તિ સ્વરૂપવાળા અર્થાત્ કર્મોના આગમનના નિરોધ લક્ષણવાળા સંવરના માર્ગથી અથવા સમ્યક્દર્શન આદિ ક્ષમાર્ગથી ન ડરવા માટે પ્રજિત કર્મોની નિર્જરા માટે અર્થાત્ તેમને આત્મપ્રદેશથી જુદાં કસ્યા Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . , ..... ... . ..तत्वामी लन्यग्दर्शनादि मोक्षमार्गाल-अच्यवनम्-अपरिभ्र शनम् अपरिपतनम् तदर्थ मूविजार्थ कृतकर्मणो निर्जराणार्थञ्चाऽऽप्रदेशेभ्यः पृथामावेन परिशटनार्थश्चति प्रायः अय शब्दस्योभयत्र सम्वन्धान परिपोढव्याः परितः-समन्तात् से ढव्या वक्ष्यमाण द्वाविंशति क्षुत्पिपासादयः परीपहाः व्धपदिश्यन्ते, क्षुत्तपादिवेदनो संपत्ती सत्यां कृत कमनिर्जरणार्थ क्षुत्पिपासादयः परितः सह्यन्ते इति भावः । एच-क्षु पासादि परीपहाधिसहने मोक्षमार्गाच्यवनं-कृतकर्मनिर्जरणश्च पयोजनं वर्तते, अतएव परीपहजयः परमावश्यका, कदाचित्-क्लिष्टचित्तः खलु क्लीवत्या क्षुत्पिपासादिसहनाप्समर्थः सन् मोक्षमार्गात् सम्यग्दर्शनादितः प्रच्युतोऽपि स्यात् अतस्तेन तत्सहने श्रद्वारूप आदरस्तु कर्तव्य एष, तस्य क्षुस्पिपासादिकं सम्पाधि पहमानस्य गिरेरिव निश्चलचित्तस्य निराकुल ध्यानकतानस्य कुतकर्मनिर्जरणं भवति । तथा च-तत्वार्थश्रद्धानादिलक्षण सम्यग्दर्श आत्मप्रदेशों से पृथक करने के लिए क्षुधा पिपासा आदि आगे कहे जाने वाले बाईस परीषह सहन करना चाहिए । इस प्रकार क्षुधा और पिपासा आदि परीषहों को सहन करने का प्रयोजन है मोक्षमार्ग से च्यवन न होना और पूर्व बद्ध कर्मों की निर्जरा होना। इस कारण परीषहों को जीतना परमावश्यक है। कदाचित् कोई संश्लेशयुक्त चित्तवाली दुर्बल होने के कारण भूख-प्यास आदि को सहन करने में असमर्थ होकर सम्यग्दर्शन आदि मोक्षमार्ग से च्युत भी हो जाय, तो भी उसे उनके सहन करने में श्रद्धारूप आदर तो करना ही चाहिए । जो क्षुधा पिपासा आदि को सम्यक् प्रकार से सहन करता है, जिसका चित्त पर्वत के जैसा अडिग होता है और जो निराकुल ध्यान में मग्न होता है, उसके पूर्योपार्जित कर्मों की निर्जरा होती है। માટે સુધા પિપાસા આદિ આગ ઉપર કહેવામાં આવનારા બાવીશ પરીષહ સહન કરવા જોઈએ. આ રીતે ક્ષુધા અને પિપાસા આદિ પરીષહેને સહન કરવાનું પ્રજન છે મોક્ષમાર્ગથી ચ્યવન ન થવું અને પૂર્વે બાંધેલા કર્મોની નિર્જરા થવી. આ કારણે પરીષાને જીતવા પરમાવશ્યક છે. કદાચિત કોઈ સંકલેશ યુક્ત ચિત્તવાળ, દુર્બળ હોવાના કારણે ભૂખ-તરસ આદિને સહન કરવા માટે અસમર્થ થઈને સમ્યક્દર્શન આદિ મોક્ષમાર્ગથી લપસી પણ પડે તે પણ તેણે આ સહન કરવામાં શ્રદ્ધારૂપ આદર તે કરવું જ જોઈએ, જે કૃધા. પિપાસા આદિને સમ્યક પ્રકારથી સહન કરે છે, જેનું ચિત્ત પર્વતના જેમ અડગ હોય છે અને જે નિરાકલ ધ્યાનમાં મગ્ન હોય છે તેના પૂર્વોપાર્જિત કર્મોની નિર્જરા થાય છે. આ રીતે તત્રશ્રદ્ધાની આદિ લક્ષણવાળા Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७ सू.७ परीषहस्वरूपनिरूपणम् मादिमोक्षमार्गात्-प्रच्यवन मा भूत्' इति भावनया क्षुत्पिपासादयः परिता सायन्ते इति परीषहार, एवं-ज्ञानावरणीयकर्मक्षपणार्थञ्च सोढव्या परीपहार सिद्धिमाप्तिहेतुभूतसंवरविघ्नकारकाः क्षुत्पिपासादयः. परिषोडव्याः परीपहा इति व्युत्पत्तिः, परित:-समन्ताद, आपतन्तः क्षुत्पिपासादयो द्रव्य-क्षेत्र-काल भावापेक्षया सोढव्याः ये भवन्ति ते परीषहा इति ध्यपदिश्यन्ते क्षुत्पिपासादय इति भावः कर्मणि ध प्रत्यय: बाहुलकात् पूर्वपदस्य दीर्घः । उक्तश्चोत्तराध्ययने.२ अध्ययने प्रथमसूत्रे 'इह खलु यावीस परीसहा-जे भिक्खु सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरिया परिव्ययंतो पुट्टो नो विनिहन्नेज्जा' छाया-इह खलु - द्वाविंशतिः परीषहा-यान् भिक्षुः श्रुत्वा-ज्ञात्वा-जित्वा इस प्रकार तत्वार्थश्रद्धान आदि लक्षण बाछे सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष मार्ग से च्यवन न हो जाय, इस प्रकार की भावना से जो क्षघा पिपासा आदि सहन किये जाते हैं, उन्हें परीषह कहते हैं। इसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय करने के लिए परीषहों को सहन करना चाहिए । सोक्ष की प्राप्ति के कारण भूत संवर में विघ्न उपस्थित 'करनेवाले क्षुधा पिपाला आदि जो सहन करने योग्य हैं, वे परीषह हैं, ऐसी परीषद शब्द की व्युत्पत्ति है । 'परितः' अर्थात् सब प्रकार से सब तरफ से, आये हुए क्षुधा पिपासा आदि को द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा ले जो सहन करने योग्य हों वे परीषह कहलाते हैं। यहां कर्म में 'छ' प्रत्यय हुभा है, और बाहुलक से पूर्वपद दीर्घ हो गया है। उत्तराध्ययन के द्वितीय अध्ययन के प्रथम सूत्र में कहा गया है'इस निर्ग्रन्थ प्रवचन बाईस परीषह कहे गए हैं, जिन्हें श्रवण कर, સમ્યક્દર્શન આદિ મોક્ષમાર્ગથી ચ્યવન ન થઈ જાય, એવી ભાવનાથી જે ક્ષધા પિપાસા આદિ સહન કરવામાં આવે છે તેમને પરીષહ કહેવામાં આવે છે. આજ રીતે જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોને ક્ષય કરવા માટે પરીષહોને સહન કરવા જોઈએ, મોક્ષની પ્રાપ્તિ કારણભૂત સંવરમાં વિદન ઉપસ્થિત કરવાવાળા ક્ષુધા પિપાસા વગેરે જે સહન કરવા ગ્ય છે, તે પરીષહ છે, એ પ્રમાણે પરીષહ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. “પરિત અર્થાત્ બધી રીતે બધી બાજુથી આવેલા સુધા પિપાસા આદિને દ્રવ્ય ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાથી જે સહન કરવા ગ્ય છે તે પરીષહ કહેવાય છે. અહીં કર્મોમાં-ઘ પ્રત્યય થો છે અને બહુલતાથી પૂર્વપદ દીર્ઘ થઈ ગયું છે. * ઉત્તરાધ્યયનના દ્વિતીય અધ્યયનના પ્રથમ સૂત્રમાં કહ્યું છે–આ નિન્ય પ્રવચનમાં બાવીશ પરીષહ કહેવામાં આવ્યા છે, જેને સાંભળીને, જાણીને, જીતીને Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHETATE तरवार्थ (a) भविभूम भिक्षाचर्याय परिव मन् (तैः) स्पृष्टः नो विनिहन्यात (तैराहतोमा क) इति । स्थानाङ्गे ५-स्थाने १-उद्देशके ४०९ सूत्रे चोक्तम्-'पंचहि ठाणेहि विपरीलोना स सहेज्जा-मम धणं सम्म सहमाणस्स अहिपाषाणहा कि मन्ने कज्जइ ? एगंतसो मे निज्जरा कजा. छालापति स्थान रुदीर्णान् परीषहोपसर्गान सहेत-मम सर माय थावत्-अध्यवश्यत: किं मन्ये क्रियते-? एकान्तशो में निर्जत पर इति ॥७॥ .. भूलरले भावीसविहा, छहा पिवासाइ भेयओ ॥८॥ खाशाद्वाविंशतिविधाः क्षुधा-पिपासादि भेदता-८॥ परवा दीपिका-पूर्वसूत्रे-संवरस्य हेतुभूतपरीषहस्वरूपं प्ररूपितम् - ने पार, जीत कर, एवं अभिभूत करके भिक्षाचर्या के लिए अटन war आभिक्षु, उनसे स्पृष्ट होकर आघात को प्राप्त नहीं होता। स्थालांगसूत्र के पांचवें स्थान के प्रथम उद्देशक के ४०९ वें सूत्र पांच कारणों से उदय में आए परीषहों उपहगों को सम्यक् प्रकार सहन धारना चाहिए-मै अगर सम्यक् प्रकार से सहन करूंगा यावत् अध्यासन करूंगा तो मुझे किस फल की प्राप्ति होगी ? मुझे एकान्ततः निर्जरा की प्राप्ति होगी ॥७॥ 'ते बावीसविहा छुहा पिपासाई' इत्यादि। सूत्रार्थ-क्षुधा पिपासा आदि के भेद से परीषह वाईस है ॥८॥ लत्वार्थदीपिका-पूर्वमन्त्र में संवर के कारणभूत परीषद के स्वरूप અને અભિભૂત કરીને ભિક્ષાચર્યો માટે અટન કરતે થકે ભિક્ષુ, તેમનાથી પૃષ્ટ થઈને આઘાતને પ્રાપ્ત થતું નથી. સ્થાનાંગસૂત્રના પાંચમા સ્થાનના પ્રથમ ઉદ્દેશકના ૪૦૯માં સૂત્રમાં પણ छे. પાંચ કારણેથી ઉદયમાં આવેલા પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સમ્યક્ પ્રકારથી સહન કરવા જોઈએ-હું જે સમ્યફ પ્રકારથી સહન કરીશ, અધ્યવસાન કરીશ તે મને કયા ફળની પ્રાપ્તિ થશે ? મને એકાન્તતઃ નિર્જરાની પ્રાપ્તિ થશે. પછા 'ते बावीसविहा, छहा पिपासा' त्यादि . સૂત્રાર્થ-સુધા પિપાસા આદિના ભેદથી પરષહ બાવીસ છે. પદયા તત્વાર્થદીપિકા-પૂર્વ સૂત્રમાં સંવરના કારણભૂત પરીષહના સ્વરૂપનું પ્રતિ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीषिका-नियुक्ति टीका अ. ७ स. ८ परीषहमेदनिरूपणम् सम्प्रति-तस्य भेदान् मरूपयितुमाह-'ते घावीलविहा' इत्यादि, पूर्व सूत्रोक्ताः परीषहाः द्वाविंशतिविधाः सन्ति तद्यथा-क्षुधापरीषहः १ पिपासापरीषा-२ आदिना-शीतपरीषहः-३ उष्ण परीपहः-४ दंशमशकपरीषहः-५ अचेलपरीषहः १६ अरतिपरीषहः-७ स्त्रीपरीषहः-८. चर्यापरीषहः-९ निषधापरीषहः-१० भरयापरीपहः-११ आक्रोशपरीषहः-१२ वधपरीषहः-१३ याचनापरीषहः-१,४ अलामपरीषदः १५ रोगपरीषहः-१६ तृणस्पर्शपरीषहः-१७ जल्लमल्लपरीषदः-१८ सरकारपुरस्कारपरीषहः-१९ प्रज्ञापरीषहः-२० अज्ञानपरीषहा-२१ दर्शनप. रोषहा-२२ इत्येवं भेदात्-द्वारिंशतिविधाः परीपहा भवन्ति । तथा च-क्षुत्पिा 'पासादीनां द्वाविंशतिपरीपहाणां सहनं मोक्षार्थिभिरवश्यं कर्तव्यम्, तत्र-निरवया का प्रतिपादन किया गया, अब परीषह के भेदों की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं- . - पूर्वसूत्र में कथित परीषह वाईल प्रकार के हैं। वे प्रकार ये हैं (१) क्षुधा परीषह (२) पिपासा परीषह (३) शीतपरीषह (४) उष्ण परी'षह (५) दंशमशकपरीषह (६) अचेलपरीषह (७) अरतिपरीषह (८) स्त्रीपरीषह (९) चर्यापरीषह (१०) निषधापरीषह (११) शय्यापरीषह — (१२) आक्रोशपरीषह (१३) वधपरीषह (१४) याचनापरीषह (१५) अलाभपरीषह (१६) रोगपरीषह (१७) तृणस्पर्शपरीषह (१८) जल्ल• मलपरीषह (१९) सत्कार पुरस्कारपरीषह (२०) प्रज्ञापरीषह (२१) अज्ञानपरीषह और (२२) दर्शनपरीषह । मोक्षाभिलाषी पुरुषों को · क्षुधा पिपासा आदि वाईस परीषहों को अवश्य ही सहन करना . चाहिए । इन परीषहों का स्वरूप इस प्रकार है (१) क्षुधापरीषह--जो साधु निर्दोष आहार की गवेषणा करने પાદન કરવામાં આવ્યું હવે પરીષહનાં ભેદની પ્રરૂપણ કરવા માટે કહીએ છીએ. પૂર્વ સૂત્રમાં કથિત પરીષહ બાવીશ પ્રકારના છે. આ પ્રમાણે છે-(૧) . क्षुधापशषड (२) पिपासापरीष (3) शीतपरीष,(४) ५५Nषा (4) शमशरीष (6) मन्यसपशेष (७) मतिष (८) स्त्रीपरीष ) निषधापरीष (१०) यर्यापशष8 (११) शय्या५रीष९ (१२) परीष (१४) यायनापरीष (१५) मसापरीष (१६) रोगपरीष (१७) तपशપરીષહ (૧૮) કમલપરીષહ (૧૯) સત્કારપુરરકાર પરીષહ (૨૦) પ્રજ્ઞાપરીષહ (२१) मज्ञानपशेष (२२) शनयशष. भाक्षामिताषी Yषे.न्य क्षुधा पिपासा આદિ બાવીશ પરીષહેને અવશ્ય જ સહન કરવા જોઈએ. આ પરીષહોનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (१) क्षुधापरीष-२ साधु :निष माहारनी गवेषण १२नार थे, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ arraries • हरिवेषिणः श्रमणस्य घाशुकाहारालाभे, किञ्चिन्मात्रलाभे वाऽनिवृत वेदनं स्याsकालेऽदेशे च भिक्षार्थं प्रति निराकाparव स्वाध्याय - ध्यानाचावश्यक परिहाणि किश्चिदप्य सहमानस्य स्वाध्याय - ध्यानैकतानस्याऽनेकवारं स्वकृत परकृताशनाचमोदर्यस्याइरसविरसाहारिणः सन्तप्ततितकतिपयजलविन्दुव सहसैच परिशुष्कपानस्योदीर्णक्षुद्वेदनस्यापि भिक्षाला भाषेक्षया तदलाभसेनाऽधिक गुणक मन्चानस्य लुत्पीडाम्प्रति चिन्ताराहित्यं त्परीपहजयो इयपदिश्यते - १ जलस्नान परिहारिणः पक्षिवद-अनियतासनावासस्याविलबाला है । प्रासु आहार का लाभ न होने पर या धोडा-सा लाभ होने पर जिसकी भूख की वेदना नहीं मिटी है, जो अकाल और प्रदेश में भिक्षा करने के लिए इच्छुक नहीं है, जो स्वाध्याय ध्यान यदि आवश्यक क्रियाओं की तनिक भी हानि को सहन नहीं करता, स्वाध्याय और ध्यान में लीन रहता है, जिसने अनेक चार अनशन और मोदी तपस्या की है, जो अरस और विरस आहार करने वाला है, गर्म वस्तु पर गिरे हुए थोडे-से जल के बूंदों के समान लहता ही जिस का पान (पानी) सूख गया है, जो भूख से पीडित हो रहा है और जो भिक्षा के लाभ की अपेक्षा अलाभ को अधिक गुणकारक समझता है, का क्षुधा की पीडा की ओर से निश्चिन्त होना क्षुधापरीपह जय कहलाता है । (२) पिपासा परीषह - - जो जल स्नान का त्यागी है, पक्षी के जैसे अनियत आसन और निवास वाला है अर्थात् जिस के ठहरने પ્રાસુ આહારને લાભ ન થવાથી અથવા થોડા લાભ થવાથી જેની ભૂખની વેદના મટી નથી જે અકળ અને અદેશમાં ભિક્ષા કરવા માટે ઈચ્છુક નથી, જે સ્વાધ્યાય યાન આદિ આવશ્યક ક્રિયાઓની થાડી પણ હાનિને સહન કરતા નથી, સ્વાધ્યાય અને ધ્યાનમાં લીન રહે છે, જેમણે અનેકવાર અનશન અને ઉગ્રેાદરી તપસ્યા કરી છે, જે અરસ અને વિરસ આહાર पुरनार छे, ગરમ વસ્તુ પર પડેલા પાણીના ટીપાની જેમ એકાએક જ જેનુ પાણી સુકાઈ ગયુ' છે, જે ભૂખથી પીડાતા હોય અને જે ભિક્ષાના લાલની અપેક્ષા અલાભને વધુ ગુણકારક સમજે છે, તેનું ક્ષુધાથી નિશ્ચિંત થવું ક્ષુધાપરીષજય उपाय छे. (२) पिपासापरीपड - मे ४ - स्नाननो त्यागी छे, पक्षीनी भाई અનિયલ આસન અને નિવાસવાળે છે સ્પર્થાત્ જેને શકાવાનું કેઈ નિશ્ચિત Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ८ परीपहमेदनिरूपणम् १८७ वणाऽस्निग्ध-रूक्ष-विरु द्राहारग्रीष्मातपपित्तवराऽनशनादिभिरुदीर्णा शरीरेन्द्रियपरितापिनी वेदनां प्रति मतीकारं कर्तुं मध्यवसायरहितस्य पिपासायहिज्वाला धयकुम्मपूर्गशीलाचारसुरमिसमाधिमुसलाधारपयसा प्रशमयतः पिपासासहनं पिपासापरीषहजयः-२ शीतपरीषहजयः पुनः प्रच्छादनवस्त्ररहितस्य विहगादिवत्-अनिश्चिताश्रयस्य तरुमूलशिलातलादिषु तुपारपातशीतलपवन समीरणे सति तत्प्रतीकारं कर्तुं निरीहस्य पूर्वानुभूतशीलमतीकारहेतुभूत वस्तु स्मरणमकुर्वतो ज्ञानभावनालये धैर्योष्णवस्त्राच्छन्नस्य सुखं वसतः शीतवेदना का कोई नियत ठिकाना नहीं है, अत्यन्त नमकीन, रूखे एवं विरुद्ध आहार, ग्रीष्मकाल को धूप, पित्तज्वर या अनशन आदि कारणों से उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियों में व्यापी हुई वेदना का प्रतीकार करने के संकल्प से जो रहित है, और जो पिपासा रूपी अग्नि की ज्वाला को, धैर्य रूपी घट में भरे हुए, शीलाचार के सौरभ से युक्त एवं समाधि रूपी मूसल-धार जल से शान्त करता है, ऐसे मुनि का प्यास को सहन करना पिपासा परीषह जय कहलाता है। (३) शीतपरीषह--जो मुनि प्रच्छादन पर अर्थात् ओढने के वस्त्र से रहित है, पक्षी के समान जिसका कोई निश्चित स्थान नहीं है, जो वृक्ष के नीचे या शिलातल के जार तुषारपात अर्थात् वर्फ गिरने से अथवा शीतल पवन चलने से लगने वाली ठंड का प्रतीकार करने का इच्छुक नहीं है, पूर्व अवस्था में अनुभूत शीतनिवारण के कारण સ્થાન નથી, અત્યન્ત નમકીન, રૂક્ષ તેમજ વિરૂદ્ધ આહાર, ઉનાળાને તડકે, પિત્તજ્વર અથવા અનશન આદિ કારણેથી ઉત્પન થયેલી તથા શરીર અને ઇન્દ્રિમાં વ્યાપેલી વેદનાને પ્રતિકાર કરવાના સંક૯પથી જે રહિત છે અને પિપાસા રૂપી અગ્નિની જવાલાને વૈર્ય રૂપી ઘડામાં ભરેલા, શીલાચારના સૌરભથી યુક્ત અને સમાધિરૂપ મૂશળધાર જળથી શાન્ત કરે છે, આવા મુનિનું તરસને સહન કરવું પિપાસાંપરીષહજય કહેવાય છે. . (૩) શીતપરીષહ –જે મુનિ પ્રચ્છાદનપટ અર્થાત્ ઓઢવાના વસ્ત્રથી રહિત છે, પક્ષીની માફક જેનું કોઈ નિશ્ચિત રહેઠાણ નથી, જે વૃક્ષની નીચે અથવા શીલાતળની ઉપર તુષારયાત અર્થાત્ હીમ પડવાથી અથવા શીતળ યવન, વાવાથી લાગનારી ટાઢને પ્રતિકાર કરવા ઈચ્છુક નથી, પૂર્વ અવસ્થામાં, અનુભૂત શીતનિવારણની કારણભૂત વસ્તુઓને જે યાદ પણ કરતે Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LABEL 5 तस्वार्थ सहनरूपी नोभ्यः-३ उष्णपरीपहजयश्च-समीरसंचारशून्ये निर्जले ग्रीष्मातप परिशुष्कपतितपत्ररहितनिश्छायवृक्षाटवीमध्ये यथाकामचारोपातगतस्याऽऽहारा श्यन्तर साधनामावप्रयुक्तोपत्रदाहस्थ दावाग्निज्यालामाकनवालजटिलपरुषवाखातरजनित का शोषयाऽनुभूव तत्पतीकारहेतु चिन्तन मविदधतः प्राणिपीडा. परिहारपरायणाय चारित्ररूपोष्णसहनरूपः-४ दशमशकपरीपहजयस्तु दंशमश. भूत वस्तुओं का जो स्मरण भी नहीं करता, जो ज्ञान-भावना रूपी महल में, धैर्य रूपी गर्म वस्त्रों से युक्त होकर सुख-पूर्वक रहता है, ऐले मुनि का शीत वेदन को सहन करना शीतपरीषह जय कहलाता है। (४) उष्णपरीषह--वायु के संचार से शुन्य, जलहीन, ग्रीष्मकाल की धूप ले लूखे हुए और नीचे गिरे हुए पत्तों से रहित, छायाविहीन वृक्षों वाली अटची के मध्य में, स्वेछा पूर्वक विचरण करते हुए, आहार रूप श्रीतरी कारणों के अभाव से जिसे दाह उत्पन्न हुआ है, दावानल की ज्यालाओं के समूह से व्याप्त निष्ठुर पवन के आतप से जिसका कंठ लूख गया है, पूर्व अवस्था में गर्मी के प्रतीकार के जिन साधनों का अनुभव किया था, उनका चिन्तन भी जो नहीं करता और जो प्राणियों को होने वाली पीडा का परिहार करने में तत्पर है, ऐसा मुनि गर्मी का जो कष्ट सहन करता है, उसे उष्ण परीषह जप कहते हैं। . (५) दंशमशकपरीषह-दंशमशक मत्कूण,माखी चींटी कीडे वृश्चिक (वींच्छु) आदि के द्वारा कृन पीडाको विना प्रतिकार सहलेना मनः 'નથી, જે જ્ઞાન–ભાવના રૂપી મહેલમાં, ધૈર્યરૂપી ગરમ વસ્ત્રોથી યુક્ત થઈને સુખશાતામાં રહે છે, એવા મુનિરાજની શીતવેદનાને સહન કરવાને શીતપરીષહજય કહેવાય છે. (૪) ઉણપરીષહ-વાયુના સંચારથી શૂન્ય, પાણી વગરના, ગ્રીષ્મકાળના તડકાથી સૂકાઈ ગયેલા અને નીચે પડેલા પાંદડાઓથી રહિત, છાંયડા વગરના વૃવાળા જંગલની મધ્યમાં છાપૂર્વક વિચરતા થકા આહાર રૂપ આત્યંતર કારના અભાવથી જેને દાહ ઉત્પન થયે છે, દાવાનળની જવાલાઓના સમૂહથી વ્યાપ્ત નિષ્ફર, પવનના આતપથી જેનું ગળું સુકાઈ ગયું છે, પૂર્વ અવસ્થામાં ગરમીના પ્રતિકારના જે સાધનને અનુભવ કર્યો હતો તેનું લેશમાત્ર ચિન્તન કરતું નથી અને જે પ્રાણીઓને થનારી પીડાને પરિહાર કરવામાં તત્પર છે, એવા મુનિ ગરમીનું જે કષ્ટ સહન કરે છે તેને ઉણપરીષહજય કહે છે. (५) शमश४५रीप-स, भ२७२, Hiss, भास, 31, पीछी विशेष દ્વારા કરવામાં આવેલ પીડાને કંઈ પણ પ્રતિકાર કર્યા વિના સહન કરવી. અને Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ७ खू. ८ परीपहभेदनिरूपणम् कमक्षिकामत्कुणकीटपिपीलिकावृश्चिकादि कृतां प्रतीकाररहितां पीडा सहमानस्य मनोवाकायकृतां तद्वाधामकुगिस्य मोक्षप्राप्तिमात्रकृतसङ्कल्पप्रावरणस्य दशम: शकादिवेदनासहनरूपोऽवसेयः-५ अचेल परीषहजयस्तु-मनोविकारविरहितत्वात स्त्रीरूपाणि-अत्यन्ताशुचि कुगारूपेग भावयतोऽ वण्डब्रह्मवर्यव्रत धारयतोऽल्पः वस्त्रधारणव वरूपोऽनत्रयोऽवसे या-६ अरतिपरीषहजयस्तावत्-इन्द्रियाभीष्टविषय प्राप्तिम्पति-अनुत्कण्ठिस्य संयतस्य गीतनृत्यादि विरहितेषु एकान्तध्यानसमाधिगृहेषु स्वाध्यायध्यानभावनारति सेवमानस्य दृष्टश्रुताऽनुभूत वचन एवं कारद्वारा उन की बाधा न पहुंचावे, एवं मोक्ष मार्ग की प्राप्ति में निश्चित वुद्धिवाले होकर दंशमशकादि द्वारा कृत वेदनाको सहलेना दंशमशकपदीषह जय कहलाता है। (६) अचेलपरीपह--जो साधु मानसिक विकार से रहित है, जो स्त्री के रूप को अत्यन्त अपावन माल के लोथडे के समान समझती है और जो अखण्ड ब्रह्मचर्यतन का धारक है, ऐसे मुनि का अल्प वस्त्रों को धारण करना अचेलपरीषह जप कहा जाता है। (७) अरतिपरीषह-जिस लाधु के चित्त में इन्द्रियों के अभीष्ट विषयों की प्राप्ति के लिए उत्कंठा नहीं है, जो गीत नृत्य आदि से रहित एकान्त ध्यान-समाधिगृहों में स्वाध्याय, ध्यान और भावना का अभ्यास करती है, जो पहले देखी हुई, सुनी हुई या अनुभव की हुई काम-कथा का स्मरण और श्रवण नहीं करता, जिसके हृदय में काम के वाण प्रवेश नहीं करते और जिसके हृदय में सदैव दया का उदय મન, વચન અને કાયાથી તેમને બાધા ન પહોંચાડવી તથા મોક્ષમાર્ગની પ્રાપ્તિમાં નિશ્ચલ મતિવાળા બનીને દશમશકાદીએ કરેલ પીડાને સહુન કરવી તે દંશમશકાય પરીષહેજય કહેવાય છે. (૬) અચલપરીષહ-જે સાધુ માનસિક વિકારથી રહિત છે. જે સ્ત્રીના રૂપને અત્યન્ત અપવિત્ર માંસના લોચા જેવું સમજે છે અને જે અખંડ બ્રહાચર્યવ્રતને ધારક છે, એવા મુનિનું અપવસ્ત્રોનું ધારણ કરવું અચેલપરીષહજય કહેવાય છે. (૭) અરતિપરીષહજે સાધુના ચિત્તમાં ઈન્દ્રિયને અનિષ્ટ વિષની પ્રાપ્તિ માટે ઉત્કંઠા નથી જે ગીત, નૃત્ય આદિથી રહિત એકાત ધ્યાનસમાધિગૃહમાં સ્વાધ્યાય, ધ્યાન અને ભાવનાને અભ્યાસ કરે છે, જે પહેલા જોએલી, સાંભળેલી અથવા અનુભવેલી કામ-કથાનું શ્રવણ અને સ્મરણ કરતા નથી, જેના હૃદયમાં કામના બાણ પ્રવેશ કરતા નથી, જેના હૃદયમાં સર્વદા Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cameramananewanamumar - - www तेस्वार्थस्त्र १८ सनरूपी बोध्या-३ उष्णपरीषह जयश्च-समीरसंचारशून्ये निजले ग्रीष्मातप परिशुष्कपतितपनरहितनिश्छारवृक्षाटनीमध्ये यथाकामचारोपात गतस्याऽऽहारा, सन्तर साधनामावप्रयुक्तोत्पन्नाहरूष दामाग्निज्मालामालनवालजटिलपरुषबाबातमननित का शोषस्याऽनुभूत तत्पतीकारहेतु चिन्तन मविदधतः प्राणिपीडा. परिहारपरायणस्य चारित्ररूपोष्णसहनरूपः-४ दशमशकपरीपहजयस्तु दंशमश. मृत वस्तुओं का जो स्मरण भी नहीं करता, जो ज्ञान-भावना रूपी महल में, धैर्य रूपी गर्म पत्रों ले युक्त होकर सुख-पूर्वक रहता है, ऐले मुनि का शीतवेदन को सहन करना शीतपरीषह जय कहलाता है। (४) उष्णपरीषह--धायु के संचार ले शुन्य, जलहीन, ग्रीष्मकाल की धूपले स्लूखे हुए और नीचे गिरे हुए पत्तों से रहित, छायाविहीन वृक्षों बाली अटवी के मध्य में, स्वेछा पूर्वक विचरण करते हुए, आहार रूप भीतरी कारणों के अभावले जिले दाह उत्पन्न हुआ है, दावानल की जबालाओं के समूह ले व्यापक निष्ठुर पवन के आतप से जिसका कंठ सुख नया है, पूर्व अवस्था में गर्मी के प्रतीकार के जिन साधनों का अनुभव किया था, उनका चिन्तन ली जो नहीं करता और जो प्राणियों को होने वाली पीडा का परिहार करने में तत्पर है, ऐसा मुनि गर्मी का जो कष्ट सहन करता है, उसे उष्ण परीषह जय कहते हैं। (५) दंशमशहपरीषह-देशमशक मत्कूण, माखी चींटी कीडे वृश्चिक (वींच्छु) आदि के द्वारा कृन पीडाको विना प्रतिकार सहलेना मन. 'નથી, જે જ્ઞાન-ભાવના રૂપી મહેલમાં, ધૈર્યરૂપી ગરમ વસ્ત્રોથી યુક્ત થઈને સુખશાતામાં રહે છે, એવા મુનિરાજની શીતવેદનાને સહન કરવાને શીતપરીષહજય કહેવાય છે. (૪) ઉષ્ણપરીષહ-વાયુના સંચારથી શૂન્ય, પાણી વગરના, ગ્રીષ્મકાળના તડકાથી સૂકાઈ ગયેલા અને નીચે પડેલા પાંદડાઓથી રહિત, છાંયડા વગરના વૃક્ષવાળા જંગલની મધ્યમાં છાપૂર્વક વિચરતા થકા આહાર રૂપ આત્યંતર કારના અભાવથી જેને દાહ, ઉત્પન થયે છે. દાવાનળની વાલાઓના સમૂહથી વ્યાપ્ત નિષ્ફર પવનના આતપથી જેનું ગળું સુકાઈ ગયું છે, પૂર્વ અવસ્થામાં ગરમીના પ્રતિકારના જે સાધનેને અનુભવ કર્યો હેતે તેનું લેશમાત્ર ચિતન કરતું નથી અને જે પ્રાણીઓને થનારી પીડાને પરિહાર કરવામાં તત્પર છે, એવા મુનિ ગરમીનું જે કષ્ટ સહન કરે છે તેને ઉણપરીષહજય કહે છે. ' (५) शमश४५५४-डांस, भ२७२, मां, भाभडी, वीछी विशेष દ્વારા કરવામાં આવેલ પીડાને કંઈ પણ પ્રતિકાર કર્યા વિના સહન કરવી. અને या आदि के द्वारा देशमशक माह जय कहते हानि गर्मी का Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म. ७ ए. ८ परीपहनिरुपणम् कमक्षिकामत्कुगकीटपिपीलिहावृश्चिकादि का प्रतीकाररहिवां पीडा सहमानस्य मनोवाकायकृतां तद्वाधामकुमार मोक्षमाप्तिमात्रकृतसङ्कल्पप्रावरणस्य दंशन शकादिवेदनासहनरूपोऽव सेयः-५ अचेल परीषहजयस्तु-मनोविकारविरहितत्वात स्त्रीरूपाणि-अत्यन्ताशुचि कुगारूपेग भावयतोऽ वण्डब्रह्म यत्रतं धारयतोऽल्प वस्त्रधारणव तरूपोऽनत्रयोऽवसे २१-६ अरतिपरीपहजयस्तावत्-इन्द्रियाभीष्टविषय प्राप्तिम्प्रति-अनुत्कण्ठि नस्य संयतस्य गीतनृत्यादि विरहितेषु एकान्तध्यानसमाधिगृहेषु स्वाध्यायध्यानभावनारति सेवमानस्य दृष्टश्रुताऽनुभूत वचन एवं कारद्वारा उन की बाधा न पहुंचावे, एवं मोक्ष मार्ग की प्राप्ति में निश्चित बुद्धिवाले होकर दंशमशकादि द्वारा कृत वेदनाको सहलेना दंशमशकपरीषह जय कहलाता है। (६) अचेलपरीपह--जो लाधु मानसिक विकार से रहित है, जो स्त्री के रूप को अत्यन्त अपावन माल के लोथडे के समान समझती है और जो अखण्ड ब्रह्मचर्यचन का धारक है, ऐसे मुनि का अल्प वस्त्रों को धारण करना अचेलपरीपह जब कहा जाता है। (७) अरतिपरीषह-जिस लाधु के चित्त में इन्द्रियों के अभीष्ट विषयों की प्राप्ति के लिए उत्कंठा नहीं है, जो गीत नृत्य आदि से रहित एकान्त ध्यान-समाधिगृहों में स्वाध्याय, ध्यान और भावना का अभ्यास करता है, जो पहले देखी हुई, सुनी हुई या अनुभव की हुई काम-कथा का स्मरण और श्रवण नहीं करता, जिसके हृदय में काम के वाण प्रवेश नहीं करते और जिसके हृदय में सदैव दया का उदय મન, વચન અને કાયાથી તેમને બાધા ન પહોંચાડવી તથા મોક્ષમાર્ગની પ્રાપ્તિમાં નિશ્ચલ મતિવાળા બનીને દશમશાદીએ કરેલ પીડા સહન કરવી તે દંશમશકાય પરીષહજય કહેવાય છે. (E) अयसपशेषः-२ साधु मानसि विधारथी २हित छ, रे सीना રૂપને અત્યન્ત અપવિત્ર માંસના લોચા જેવું સમજે છે અને જે અખંહ બ્રહ્મચર્યવ્રતનો ધારક છે, એવા મુનિનું અપવસ્ત્રોનું ધારણ કરવું અચેલપરીષહજય કહેવાય છે. () અરતિપરીષહ:-જે સાધુના ચિત્તમાં ઈન્દ્રિયેના અનિષ્ટ વિષયની પ્રાપ્તિ માટે ઉત્કંઠા નથી જે ગીત, નૃત્ય આદિથી રહિત એકાન્ત ધ્યાનસમાધિગ્રહોમાં સ્વાધ્યાય, ધ્યાન અને ભાવનાને અભ્યાસ કરે છે, જે પહેલા જોએલી. સાંભળેલી અથવા અનુભવેલી કામ-કથાનું શ્રવણ અને સ્મરણ કરતે નથી, જેના હૃદયમાં કામના બાણ પ્રવેશ કરતા નથી, જેના હૃદયમાં સવ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E -ma head तत्त्वार्थमा कामरतिकथा स्मरण श्रवगमदनबाण मवेशविवाहितहदयस्य सदोदितदयः या सति सहनरूपो बोध्यः-७ स्त्री रोहन पातु-रसान्तारामभवनादिषु हत्यौवनमद विध्रप्रविलास मदिराप्तवसेवनोन्मतकलनासु बाबमानासु सतीप्पषि कूलिय' संहतेन्द्रिय मान परिकार ललिगस्मितमधुरालापविलासः । टाक्षवीक्षण प्रहसन मदमन्दगमन कामशरल्यापारविफ कीकरण पार्थस्य कामिनी. वाधासहनरूपो वोध्या-८ चर्यापरीपहजयस्तावत् -अधिगतबन्धमोक्षतत्वस्या. . ऽत्वन्ततीक्ष्मकण्टक शर्करादि व्यघनक्षतजातपादव्यथस्याऽपि पूर्वानुभूतयोग्यसत्ता है, उस साधु का अरति को लहन कर लेना अरतिपरीषद जय है। • (८) स्त्रीपरीपह-एकान्त उद्यान या भवन आदि स्थान में नव यौवन के कारण चंचल मनबाली, नाना प्रकार के भ्रांगारिक हावभाव प्रदर्शित करने वाली एवं अदिश के लेपन ले उन्मत्त बनी हुई कोई स्त्री साधु को संयम से विचलित करना चाहे तो साधु कछुवे के जैसा अपने अंगों अर्थात् इन्द्रियों और मन के विकार को रोके, और उसकी ललित सुस्कराहट को, मधुर आलाप को, विलासपूर्ण कटाक्षयुक्त अश्लोकन को, हास्य को, मद युक्त मन्द गति को एवं काम के वाणों के पापार को विफल करदे । ऐसा करने में समर्थ मुनि कामिनी जनित बाधा को जो सहन कर लेता है, उसका वह स्त्रीपरीषह जय कहलाता है। ' (९) चर्यापरीषह-जिसने बन्ध और मोक्ष तत्व को भलीभांति जान लिया है, जिसके पांवों में अत्यन्त तीखे कांटे या कंकर आदि चुमने દયાને ઉદય થાય છે, તે સાધુનું અરતિને સહન કરી લેવું-અરતિપરીષ જય उपाय छे. (८) श्री ५शष-मेन्त धान अथवा सन माह स्थानमा न4. યૌવનને લીધે નખરાવાળી, વિવિધ પ્રકારના શૃંગારિકર હાવ ભવ પ્રદર્શિત કરનારી અને મદિરાના સેવનથી ઉન્મત્ત બનેલી, કેઈ સ્ત્રી, સાધુને સંયમથી વિચલિત કરવા ઇચ્છે ત્યારે સાધુ કાચબાની માફક પિતાના અંગે અર્થાત ઈન્દ્રિયે તથા મનના વિકારને રેકે અને તેની લલિત મુસ્કુરાહટ (હાસ્ય)ને, મધુર આલાપને, વિલાસપૂર્ણ કટાક્ષયુક્ત અવલોકનને, હાસ્યને, મદભરેલી મન્દ ચાલને અને કામબાણના વ્યાપારને નિષ્ફળ બનાવી દે. આમ કરવામાં સમર્થ મુનિ કામિની જનિત મુશ્કેલીને જે સહન કરી લે છે, તેને આ પરીષહજય કહેવાય છે. , (૯) ચર્યાપરીષહજેણે બન્ધ અને મોક્ષતત્વને સારી પેઠે જાણી લીધા છે, જેના પગમાં અત્યન્ત તીક્ષણ કાંટા અથવા કાંકરા વગેરે વાગવાથી વ્યથા Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ ६.८ परीपहभेदनिरूपणम् . . १९१ पानवाहनधारोहणगमनरमरणम कुर्वतो यथाकालमावश्यकादि परिहाणि मविधा अर्या सहनरूपोऽवगन्तव्यः-९ निषधापरीपहजयस्तावह मकाशितपदेशे कृतनिध क्रियस्य मनुष्यतिर्यग्देवादिकृतेष्टानिष्टोपसर्गसहनामोक्षमार्गाऽच्युतस्य पीससनाथविचलितशरीरस्य तत्कृतवाधासहनरूपो बोध्या-१० शय्यापरीषदजय स्तावद्-अध्वश्रमस्वाध्यायध्यानपरिश्रान्तस्य निम्नोन्नततीक्ष्णशर्करादि सङ्क कातिशीतोष्ण भूमितलेषु निद्रालभमानस्य कृतच्यन्तरादि विविधोपसगादपि अविचलितशरीरस्याऽनियतकालिकतत्कृतवाधासइनरूपो वोध्या-११ आक्रोश से व्यथा उत्पन्न हो रही है और जो पूर्व भुक्त योग्य यान, वाहन पर सवार होकर गमन करने का स्मरण भी नहीं करता है, जो नियत समय पर किये जाने वाले आवश्यक आदि क्रियाकलापों की हानि को सहन नहीं करता, ऐसा सुनि चर्यापरीषह पर विजय प्राप्त करता है। (१०) निषद्यापरीषह--प्रकाशयुक्त प्रदेश में नित्य क्रिया करने वाले, मनुष्य देव या तिथंच के द्वारा उत्पन्न किये हुए इष्ट या अनिष्ट उपसर्गों को सहन करने से जो मोक्षमार्ग से च्युत नहीं होता, जिसका शरीर वीरासन आदि से विचलित नहीं होता, उस मुनि का निषद्याकृत याधा को सहन कर लेना निषद्यापरीषह जय कहलाता है। (११) शय्यापरीषह-राह चलने के श्रम से और स्वाध्याय तथा ध्यान करने से थके हुए, नीचे, ऊंचे, तीखे कंकर आदि से युक्त अत्यन्त शीत यश उष्ण भूमितल पर जिसे नींद नहीं आ रही है एवं ઉત્પન્ન થઈ રહી છે અને જે પૂર્વે ભેગવેલા ચગ્ય યાન, વાહન પર સવાર થઈને ગમન કરવાનું સ્મરણ પણ કરતા નથી, જે નક્કી કરેલા સમયે કરવામાં આવતી આવશ્યક આદિ કિયાકલાપની શીથીલતાને સહન કરતો નથી, એવા મુનિ ચર્યાપરીષહ પર વિજય પ્રાપ્ત કરે છે.. (१०) निषधापशप-शयुत प्रदेशमा नित्यडिया ४२वापाणा, મનુષ્ય દેવ અથવા તિર્યંચ દ્વારા ઉત્પન્ન કરવામાં આવેલા ઇષ્ટ અથવા અનિષ્ટ ઉપસર્ગોને સહન કરવા છતાં જે મેક્ષમાર્ગથી ખસતું નથી, જેનું શરીર વીરાસન આદિથી વિચલિત થતું નથી, તે મુનિની નિષદ્યાકૃત સુશ્કેલીએને સહન કરી લેવી નિષદ્યાપરીષહજય કહેવાય છે. (૧૧) શય્યાપરીષહ-રસ્તે ચાલવાના શ્રમથી અને સ્વાધ્યાય તથા ધ્યાન કરવાથી થાકી ગયેલા નીચી ઉંચી તીક્ષણ કાંકરા આદિથી યુકત અત્યત ટાઢી અથવા ગરમ ભૂમિ અગર સપાટી પર જેને ઉંઘ આવતી નથી તેમજ વ્યર Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * দ্বাধ্য দি গ্ৰাধ প্ৰৰ জাৰতা . . तवार्थम पोपहजय सावद-मिथ्यादर्शनो सामर्पठोरावना निन्दाऽसभ्यवचनानि शोधाग्निबालाजटिलानि असन्तुहानि शृण्वतोऽपि. विवेकिन स्तदुपेक्षां कुर्वतः .....कर्मविषाकममिचिन्ततः श्रपणाम तपश्चरणभावनापरायणस्य क्रोधमान माया लोसादि पायदिपलेशमानस्यापि प्रवेशरहितं स्वहृदयं विदधत:भाकोशसहनरूपो बोध्यः-१२ वधपरीपहजयस्तावद्-अतितीक्ष्णधारखातुरुय-सुन्दरादि पहरणाघातवाडनपीडनादिभिहन्यमानशरीरस्य घातके REETर शादि देवों द्वारा विविध प्रकार ते उपसर्ग उत्पन्न करने पर १.सी जिल्लका शारीर विचलित नहीं होता, ऐसा मुनि अनियत कॉल मामाको जो झएन्द जरता है, वह शरयापरीपह जय कहलाता है। (१२) अकोशायरीषहनियादर्शन के उद्य से भडके हुए क्रोष के कारण फोह, अवज्ञापूर्ण, निन्दामय असभ्य वचनों को, क्रोध रूपी जिन्न की जमला ले व्याप्त बनन डाठ फटकार के वचनों को श्रवण - मारके भी जो विवेकशील होने के कारण उनकी उपेक्षा करता है, जो अपने पापकर्म के विपास का चिन्तन करता है, जो तपश्चरण की वाचना में परायण है, जो क्रोध मान माया लोभ आदि कषायों के विष के लेश मान को भी हृदय में प्रवेश नहीं होने देता, ऐसे मुनि का आक्रोश-वचनों को सह लेना आक्रोशपरीषह जय कहलाता है। ... (१३) बधपरीषह-अत्यन्त तीक्षा धार वाली तलवार मूसल या छुशार आदि शस्त्रों के आघात, ताडन, पीडन आदि के द्वारा जिसका આદિ દેવે દ્વારા વિવિધ પ્રકારના ઉપસર્ગો ઉત્પન્ન કરવામાં આવ્યા છતાં પણ જેનું શરીર વિચલિત થતું નથી, એવા મુનિરાજ અનિયત કાળ સુધી તે વિપત્તિને જે સહન કરે છે, તે શાપરીષહજય કહેવાય છે. (૧૨) આક્રોશપરીષહ-મિથ્યાદર્શનના ઉદયથી અગ્નિ જેવા ક્રોધના કારણે કઠેર, અવજ્ઞાપૂર્ણ, નિન્દામય અસભ્ય વચનને, કે ધ રૂપી અગ્નિની , વાલાએથી વ્યાપ્ત ધાકધમકીના વચનેને સાંભળવા છતાં પણ જે વિવેકશીલ રહેવાથી તેમની ઉપેક્ષા કરે છે, જે પિતાના પાપકર્મના ફળનું ચિન્તન કરે છે, જે તપશ્ચર્યાની ભાવનામાં પ્રવૃત્ત છે, જે ક્રોધ, માન માયા લોભ આદિ કષાના વિષને લેશમાત્ર પણ હૃદયમાં પ્રવેશવા દેતા નથી, એવા મુનિરાજના આક્રોશ-વચનેને સહન કરી લેવાની વૃત્તિને આક્રોશપરીષહ કહેવાય છે. (१३) १५५Nष-मत्यन्त तीक्ष्णु-धा२पाणी तपा२, भुशण अथवा | મુદુગર વગેરે શસ્ત્રોના આઘાત, તાડન, પીડન આદિના વડે જેનું શરીરની સાથે Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ New , जलघुदाललिई वो मम न दीपिका-नियुक्ति दीका अ. ७ सू.८ परीषहनिरूपणम् १९३ किश्चिदपि मनोविकारम कुर्वतः 'पुराकृत दुष्कर्मफलमिदं चलते नस्वेतेषा बराकाणां कश्चिदोषः, जलघुदगुदवत् क्षणभङ्गुरं सम्यग् ज्ञानदर्शनचारित्राणि मम न केनचिदुपहन्तुं शक्यन्ते इति भावयतोवाऽसीताक्षण चन्दनानुलेपनसमपशिनो वधपीडासहनरूपो बोध्या-१३ याचना परीषहजयस्तावद-बालाभ्यन्तर तपोऽनुष्ठानपरायणस्य त्वगस्थिशिराधमनीजालमानशरीरयन्जस्य पाणचिरहे सत्यपि आहारसति प्रभृतीनि दीनाभिधानसुखवण्याऽऽदिरयाचयानस्य शरीर आहत हो रहा है, जो घातक पुरुष्य के प्रति किचित् भी मनो. विकार उत्पन्न नहीं होने देता, और जो ऐला लोचता है कि-यह सब मेरे पूर्वकृत दुष्कर्मों का फल है, इन बेचारों का दोष नहीं है, शरीर जल के वुलवुले के समान क्षणधिनश्वर है और मेरे सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र का कोई घात नहीं कर सकता' तथा जो. वझले के द्वारा चमडी के छीले जाने को और चन्दन के लेपन को समान 'समझता है, उस मुनि का वध जनित पीडा को सहन कर लेना बधपरीषह जय कहलाता है। (१४) याचनापरीषह जो बाह्य और आभ्यन्तर तपस्या के अनुपान में तत्पर है, तीव्र तपश्चरण के कारण जिस के शरीर का समस्त रुधिर और मांस शुष्क हो गया है, केवल त्वचा, हड्डी, शिरा, धमनी मात्र ही शेष रह गए हैं, प्राणों के चले जाने पर भी जो आहार, उपाश्रय आदि की दीनतापूर्ण शब्दों द्वारा या चेहरे पर दीनता धारण करके याचना પીડાઈ રહ્યું છે જે ઘાતક પુરૂષની પ્રત્યે કિંચિત્ પણ મનોવિકાર ઉત્પનન થવા દેતા નથી અને જે એવું વિચારે છે કે-આ બધું મારા પૂર્વકૃત દુષ્કર્મોનું ફળ છે, આ બિચારાઓને કેઈ દોષ નથી, શરીર પાણીના પરપોટાની માફક ક્ષણભંગુર છે અને મારા સમ્યદર્શન, સમ્યજ્ઞાન, અને ચારિત્રનું કઈ જ હનન કરી શકતું નથી તથા જે વાંસલા વડે ચામડીને છેલવાને અને ચંદનલેપન બંનેને સરખાં ગણે છે, તે મુનિરાજની વધજનિત પીડાને સહન કરવાની ક્ષમતાને વધારીષહજય કહે છે (૧૪) યાચનાપરીષહ-જે બાહ્ય અને આણંતર તપસ્યાના અનુષ્ઠાનમાં તત્પર છે, તીવ્ર તપશ્ચર્યાના કારણે જેના શરીરનું સમસ્ત લોહી અને માંસ સુકાઈ ગયા છે, માત્ર ચામડી, હાડકાં, શિરા, ધમણી માત્ર બાકી રહી ગયા છે, પ્રાણેના ચાલ્યા જવા છતાં પણ જે આહાર ઉપાશ્રય માટે લાચારીપૂર્વકના શબ્દો દ્વારા અથવા ચેહરા ઉપર દીનતા પ્રકટ કરીને યાચના કરતા त० २५ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षाकालेऽदि उपस्थितेऽन्यरियन भितुके स्वस्य झटित्यनपशरीरस्य तमोर पशरणक्षक्षणो याचनासपनरूपऽगन्तव्यः-१४ अलाभपरीपदानय स्तापदपायुचद असज्ञाद्-अनेकदेशसंचरणशीलरय बासस्य बदुस्थलेषु मिक्षा शनवायाऽपि अचिलचित्तस्य दावविशेषपरीक्षानिमुकस्य लामादर्शन मालामं परमं तपो मन्यमानस्य सन्तुष्टरूप-कामसहनरूपो योश्यः-१५ रोग परीपालयस्तु-शरीरे सशुचिनिधानला दादरसंस्कारास्था रहितस्याऽनमान्ततुच्छाऽरस-विसापाहारमभ्युपगच्छतो युगएदेकध्याधिप्रकोपे सत्यमि वही जरला और मिला ले लमय अगर दमरा कोई भिक्षुक उपस्थित दिखाई दे तो वहां से हट जाता वा अदृश्य हो जाता है, ऐसे मुनि का याचना को वहन क्षर लेना पाचना परीपह जय कहलाता है। (१५) अलाखपरीषह-वायु के समान निस्संग होने के कारण जो अनेक देशा-देशान्तरो विचरण करता है, मौन व्रती है, पहुत से स्थानों में जाने पर भी शिक्षा का लाभ न होने पर भी जिसके चिस में लंक्लेश उत्पन्न नहीं होता, जो दानाविशेष की परीक्षा करने में उत्लुक नहीं है, जो लाल को लाभ से भी अच्छा समझता है और जो सन्तोषशील होता है, ऐसा साधु अलाभपरीपह जय करता है। . (१६) रोगपीपह-सब प्रकार की अशुचि का भंडार होने के कारण शरीर के प्रति जो आदर, संस्कार था आस्था से रहित है, जो अन्त, प्रान्त, तुच्छ, अरस और विरस आहार का स्वीकार करता है, एक, નથી અને શિક્ષાળાએ જે બીજો કોઈ ભિક્ષક હાજર દેખાય છે તે સ્થળેથી ચાલ્યો જાય છે, એવી મુનિરાજની યાચનને સહન કરી લેવાની વૃત્તિ યાચનાપરીષહજય કહેવાય છે. (૧૫) અલાભપરીષહવાયુની માફક નિઃસંગ હેવાના કારણે જે અનેક દેશ-દેશાન્તમાં વિચરણ કરે છે, મૌનવૃત્તિમાં વિચરે છે, ઘણા સ્થાનમાં જવા છનપણુ-શિક્ષાને લાભ ન થવા છતાં પણ જેના ચિત્તમાં ઉગ ઉત્પન્ન થત નથી જે દાતાવિશેષની પ્રતીક્ષા કરવામાં પણ ઉત્સુક નથી જે અલાભને લાભ કરતાં પણ સારું સમજે છે અને જે સંતોષશીલ હોય છે, એવા સાધુ અલાભપરીષહજય કરે છે. (૧૬) રોગપરીષહ-બધાં પ્રકારની અશુચિનો ભંડાર હેવાના કારણે શરીર પવે જે આદર, સંસ્કાર અથવા આસ્થાથી રહિત છે, જે અન્ત, * પ્રાન્ત, તુચ્છ, અરસ અને વિરસ આહારને રવીકાર કરે છે, એકી સાથે એક Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ लू. ८ परीपहभेदनिरुपणा' तदधीनतां परित्यजतः तो विशेषद्वियोगे सत्यपि शरीरनिःस्पृहत्वात् तस्मतीकारम कुर्वतो रोगसहनरूपो बोध्यः-१६ तृणरुपर्शपरीषहस्तावत्-शुष्क तृणकठोरतरशर्करामस्तखण्डकण्टक शूलादि व्यघनकृतक्षतशरीराघातवेदना प्राप्तौ सत्यामपि तत्र माणिहितचित्तस्य चर्या शय्यानिष यासु प्राणि बोधापरिहारे सततं दत्तचित्तस्य तृणादिस्पर्शसघनरूपो योध्यः-१७ जल्ल मलपरीपहजयस्तावद्-अप्काय प्राणिपीडापरिहाराय मरणपर्यन्तं स्नानवजनव्रतधारिणः श्रमणस्य तीव्र रविकिरणप्रतापजनित्यस्वेदापवनानीत धूलि. साथ एक के साथ एक (अनेक) व्याधियों का प्रकोप होने पर भी जो उनके अधीन नहीं होता, विशिष्ट ऋद्धि प्राप्त होने पर भी जो शरीर के प्रति निस्पृह होने के कारण जो व्याधि का प्रतीकार नहीं करता, ऐसे मुनि का समभाव पूर्वक रोगों को सहलेनारोगपरीपह जय कहलाता है। - (१७) तृणस्पर्शपरीषह--सूखे घाल, अत्यन्त कठोर कंकर, पाषाण खण्ड, कंटक-शूल आदि चुमने ले उत्पन्न होने वाले शरीरघात की वेदना उत्पन्न होने पर भी उसका विचार न करने वाले, एवं चर्या, शय्या और निषद्या में प्राणियों की बाधा का परिहार करने में सदैव दत्तचित्त साधु का तृणस्पर्शपरीषह का लहन कहलाता है। __ (१८) जल्लमलपरीषह-जल्ल मल अर्थात् पसीने से जमा हुआ मैल को दूर करने के लिये परिहार करने के लिए अजीवन स्नानत्यागवत को धारण करने वाले, सूर्य की तीव्र किरणों के प्रताप से उत्पन्न हुए पसीने से शरीर गीला हो जाने के कारण पवन से उडाई એક (અનેક) વ્યાધિઓને હુમલે થવા છતાં પણ જે તેમને તાબે થતું નથી, વિશિષ્ટ વ્યક્તિ પ્રાપ્ત થવા છતાં પણ જે શરીરની પ્રત્યે નિસ્પૃહ હોવાના કારણે જે વ્યાધિઓની પ્રતીકાર કરતા નથી, એવા મુનિરાજનું સમભાવપૂર્વક રેગોને સહન કરી લેવું-રાગપરીષહજય કહેવાય છે. (१७) ४५२५श परीष-सुधास. अत्यन्त ४.२ ४४२॥ ५४०२॥ टु४, કાંટા-શલ વગેરે વાગવાથી ઉત્પન્ન થનારી શારીરાઘાતની વેદના ઉત્પન્ન થવા છતાં પણ તેને વિચાર નહીં કરનારા અને ચર્યા, શય્યા અને નિષદ્યામાં પ્રાણિઓની મુશ્કેલીઓને દૂર કરવામાં હંમેશાં દત્તચિત્ત સાધુનું તૃણસ્પર્શ પરીષહનું સહન કરવું એમ કહેવાય છે. (૧૮) જલમલપરીષહ-જલમલ અર્થાત્ પરસેવાથી જામેલા મેલને દર કરવા માટે આજીવન નાનત્યાગવતને ધારણ કરનાર, સૂર્યના પ્રચંડ કિર. જેના પ્રતાપથી ઉત્પન્ન થયેલા પરસેવાથી શરીર ભીનું થઈ જવાના કારણે Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RADHOPawanloadaana m संस्थापक निषषस्य दह-कच्छू-ख दीर्णकण्हत्यां समुत्पन्नायामपि कण्डयन-विमर्दनसंघटनाऽव्याकुलीकृतचित्तस्य रवशरीरवृत्तिमलोपचयः परशरीरवृत्ति नर्मल्ययो। सापरहितमानसस्य सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूप विमलजलप्रक्षालनेन कर्मललपङ्कचयापारणाय सत्तोपतयुद्धेः- खलु मलसहनरूपोऽवगन्तव्यः-१८ सत्कारपुरस्कारपरीपहजयस्तावत्-प्रशंसात्मकसत्कारे क्रियात्म्मादिषु सर्वात देक्षयाऽग्रतः करणरूपे, आमन्त्रणेवा-पुरस्कारेचाऽनादरो मम विधीयते । चिरकाल सेक्तिब्रह्मर्यस्य महातपस्विनो मम प्रणाम-भक्ति सम्भ्रमा-सन प्रदामादीनि न कोषि विदधाति, मिथ्यादृष्टयः खलु-अतीव भक्तिमन्तो न किश्चि हुई रेल-धूल से जिलका शरीर व्याप्त हो गया है, दाद, खाज और मच्छ पैदा हो जाने के कारण खुजली उत्पन्न होने पर भी खुजलाने, मर्दन करने या रगडने के लिए जिलका चित्त ब्याकुल नहीं है, अपने शरीर पर जमे हुए मैल और परकीय शरीर की निर्मलता का संकल्प भी जिलके मानल में उत्पन्न नहीं होता, जो सम्यगू ज्ञान-दर्शनचारित्र रूपी निर्मल ललिल से प्रक्षालन करके कर्म-मल रूपी कीचड के समूह को हटाने में ही सदा उचत रहता है, वह साधु जल्लमलपरीषह का विजेता कहलाता है। (११) लत्कार पुरस्कारपरीषह-'ये लोग मेरा प्रशंसात्मक सत्कार नहीं करते ! काम-काज में मुझे सब से आगे नहीं करते । आमंत्रण एवं पुरस्कार नहीं करते । मैं चिरकाल से ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा हूं, घोर तपस्वी हूं, फिर भी कोई मुझे प्रणाम नही, करता। मेरी પવનથી ઉડેલી રેતી-રજકણેથી જેનું શરીર વ્યાપ્ત થઈ ગયું છે, દાદર, ખસ અને કછુ ઉત્પન્ન થવાના કારણે ખજવાળ ઉત્પન્ન થવા છતાં પણ ખજવાળવા, મર્દન કરવા અથવા મસળવા માટે જેનું ચિત્ત વ્યાકુળ નથી, પિતાના શરીર પર જામેલા મેલ અને પારકાના શરીરની નિર્મળતાનો સંકલ્પ પણ જેના માનસમાં ઉત્પન્ન થતું નથી, જે સમ્યજ્ઞાન-દર્શન–ચારિત્રરૂપી નિર્મળ પાણીથી પ્રક્ષાલન કરીને કર્મમળ રૂપી કાદવના સમૂહને હડસેલવામાં જ સદા તત્પર રહે છે, તે સાધુ જલલમલપરીષહના વિજેતા કહેવાય છે. (૧૯) સકારપુરસ્કાર પરીષહ-આ લેકે મારા પ્રશંસાત્મક સત્કાર કરતાં નથી ! કામ-કાજમાં મને બધાથી આગળ કરતાં નથી ! આમંત્રણ અને પુરસ્કાર જેવું પણ કંઈ ગોઠવતાં નથી ! હું ચિરકાળથી બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરી રહ્યો છું, ઉગ્ર તપસ્વી છું તે પણ કોઈ મને પ્રણામ કરતું નથી મારી ભક્તિ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ camera NAMAAREIGNOR दीपिका-नियुक्ति टीका भ.७ ६.८ परीपहलेदनिरुपणस् १९७ ज्जानन्तमपि सर्वशसम्भावनया संमान्य स्वसमयमभावनां कुर्वन्ति, कथनन्यथा तथाविधानामस्मादृशामपि सेवां नाचरन्ति, इत्येचं दुष्पणिधानजितचित्तस्य सत्कारपुरस्कार सहनरूपो बोध : - १९ प्रज्ञापरीपहजयस्तावत्-मम चतुर्दश पूर्वधरस्य तथाऽऽचाराङ्गाद्यङ्गोपाङ्गविशारदस्याऽग्रे खल्मन्ये रविप्रभाभिभूत खद्योतोद्योतवत्' प्रतिभाविधीनाः प्रतिमासन्ते, इत्येवं विज्ञानमदस्य तथा-- स्वस्य मति-बुद्धयल्पत्वे सति परं कश्चिद् बुद्धिमन्तं दृष्ट्वा मानसखिन्नतायाथ जनरूपोऽवगन्तव्यः-२० अज्ञानपरीपहजयस्तु-'अज्ञोऽयं खलु पशु सदृशो भक्ति नहीं करता ! सत्कार और आलन-प्रदान नहीं करता ! ये भोक करने वाले लोग मिथ्याष्टि है । जिसले जो कुछ भी नहीं जानता, उसे सर्वज्ञ मानकर अपने शासन की प्रलाधना करते हैं । ये मियादृष्टि-नूह न होते तो मेरे जैलों की सेवा क्यों न करते?' इस प्रकार का अप्रशस्त विचार जिलके चित्त में प्रवेश भी नहीं करता वह सत्कार पुरस्कार परीषह का विजेता कहलाता है। _ (२०) प्रज्ञापरीषह--'में चौदह पूवों का धारक हूँ, आचार आदि अंगों और उपांगों का ज्ञाता हूं, मेरे सामने दूसरे लोग उसी प्रकार प्रतिभाविहीन हैं जैसे सूर्य की प्रभाके सामने जुगनू निष्प्रभ होता है, इस प्रकार अपनी प्रज्ञा के अभिमान को त्यागना और अपने आपको अल्पबुद्धि समझ कर तथा दूसरे को बुद्धि शाली देख कर मन में खिन्नता न लाना प्रज्ञापरीषह जय कहलाता है। (२१) अज्ञानपरीषह-'यह अनजान है, जानवर के समान है, कुछ કરતું નથી! સત્કાર અને આસન પ્રદાન કરતા નથી, આ ભક્તિ કરનારાઓ મિથ્યાષ્ટિ છે જે કશે પણ જાણતા નથી તેને સર્વજ્ઞ માનીને પોતાના શાસનની પ્રભાવના કરે છે. આ મિથ્યાષ્ટિ-મૂઢ ન હોત તે મારા જેવાએની સેવા કેમ ન કરત? આ પ્રકારને અપ્રશસ્ત વિચાર જેના મનમાં પ્રવેશ પણ કરતા નથી, તે સાધુ સકારપુરસ્કા૨પરીષહને વિજયી કહેવાય છે. (२०) प्रज्ञापशषड-ई यो पूर्वाना धा२४ छु, माया२ महिमा અને ઉપાંગોને જ્ઞાતા છું, મારી આગળ બીજા લેકો એવી રીતે પ્રતિભાવિહેણ છે જેમ સૂર્યની પ્રભા આગળ આગીય નિસ્તેજ થઈ જાય છે, આ રીતે પોતાની પ્રજ્ઞાના અભિમાનને ત્યાગ કરવો અને પિતાને અલ્પબદ્રિ સમજીને તથા બીજાને બુદ્ધિશાળી જોઈને મનમાં ખિન્નતા ન લાવવી પ્રજ્ઞાપરીષહજય કહેવાય છે. (२१) अज्ञानपरीष8-'- मज्ञानी छे, ना१२ २३ छ, शुस Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ नकिश्चिदपि जानाति' इत्येवं स्वम्मति पोच्यमानमधिक्षेपवचनं सहमानस्य संदा प्रमादरहितचेतसः परमश्चरसपोऽनुष्ठानं विदधतो में नाद्यापि विज्ञा. मातिशयः लमुत्पद्यते' इत्येवमभिसन्धानमकुर्वतः खलु-अज्ञानसहनरूपोऽव. सेयः-२१ दर्शनपरीपहजय:-दर्शनस्य सम्यक्त्वस्य परिरक्षणे यः परीपहः क्लेशों जायते खस्य जयः, यथा-विदितसकलपदार्थतत्त्वस्य परमनिर्देदभावनाविशुद्रः पतसः खल्लु चिरकाल जितस्यापि मम नाद्यापि ज्ञानातिशयः समुत्पद्यते महोपवासाचनुष्ठानवतां प्रातिहार्यविशेषाः प्रादुर्भूताः इतितु प्रलापमानं वचः निष्फलं खल्ल सपरिपालनम् विफलेयं पत्रज्या, अतो दर्शनमिदं मम परंभारायैव, भी नहीं समझता इस प्रकार के अपने लिए कहे जाने वाले आक्षेप पंचनों को जो सहन कर लेना है, जिसका चित्त सदैव प्रमाद से रहित होता है जो अत्यन्त दुश्चर तप करता है, 'अव तक भी मुझे ज्ञान का अतिशय प्राप्त नहीं हो रहा हैं। इस प्रकार का विचार जो नहीं करता, ऐसे पुरुष का अपने अज्ञान को लमभाव से सहन करलेना अज्ञानपरीषद जय कहलाता है। .. (२२) दर्शनपरीषह--सम्यग्दर्शन की रक्षा करने में जो कष्ट उत्पन्न होता है, उसे समतापूर्वक लहलेला दर्शनपरीषह जय कहलाती है । जैसे-'मैंने समस्त पदार्थों के मर्म को समझ लिया है, मेरो चित्त उत्कृष्ट वैराग्यभावना से विशुद्ध है, और में दीर्घकाल से दीक्षा का पालन कर रहा हू', फिर भी मुझे ज्ञानातिशय (विशिष्ट ज्ञान) का लाभ नहीं हो रहा है ! लोग कहते हैं और पोथियों में लिखा है कि महान् સમજ નથી એવી જાતના પિતાના માટે કહેવામાં આવેલા આક્ષેપવચનેને જે સહન કરી લે છે, જેનું ચિત્ત સદા પ્રમાદથી રહિત હોય છે, જે અત્યન્ત દુષ્કર તપશ્ચર્યા કરે છે, હજુ સુધી પણ મને જ્ઞાનની વિપુલતા પ્રાપ્ત થતી નથી,એ જાતનો વિચાર જે કરતે નથી, એવા પુરૂષનું અજ્ઞાનને સમભાવથી સહન કરી લેવું અજ્ઞાનપરીષહજય કહેવાય છે. (૨૨) દર્શનપરીષહ-સમ્યગુદર્શનની રક્ષા કરવામાં જે કષ્ટ ઉત્પન્ન થાય છે તેને સમતાપૂર્વક સહન કરી લેવા દર્શનપરીષહજય કહેવાય છે જેમ કે-મેં બધાં પદાર્થોના મર્મને સમજી લીધો છે, મારૂં ચિત્ત ઉત્કૃષ્ટ વૈરાગ્યભાવનાથી વિશુદ્ધ છે અને હું દીર્ઘકાળથી દીક્ષાનું પાલન કરી રહ્યો છું, તે પણ મને જ્ઞાનાતિશય (વિશિષ્ટજ્ઞાન)ને લાભ થતું નથી ! લોકવાયકા છે અને શાસ્ત્રોમાં લખેલું છે કે મહાન ઉપવાસ આદિ અનુષ્ઠન કરનારાઓને Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ रु. ८ परीषहमेदनिरूपणम् १९९ किन्तु-नासनस्त्राणाय भवती त्येवं सन्देहस्य जयरूपो बोध्यः यद्धा-साधो दर्शन सन्देह समये दर्शनाच्यायितुं कोऽपि देव स्तद्वस्तु पदर्य मनोभयति तत्पलो मादरणे यतमानमः शारीरिकच परीषहो भवति तस्य जयरूपो बोध्यः ।।२२।। ... तत्वार्थनियुक्ति:--पूर्व तावर कवि निरोधलक्षणसंरहेतुतया मतिपादितानां समितिगुप्तिधर्माऽनुपेक्षापरीपहचारिमाणां मध्ये क्रम मान्द परीपास्वरूपं निरूपितम्, सम्प्रति-तेषां मैदान मरूपयितुमाह-'ते बावीसविहा परीसहा- छुड़ा-पिवासाइ भेदओ इति, द्वाविंशति विधाः परीपहा अवगन्तव्या क्षुत्पिपासादिभेदतः क्षुत्परीपहा-१ पिपासापरीपहः-२ यादिना-शीतपरीषहा-३ उपवास आदि अनुष्ठान करने वालों को विशिष्ट प्रकार के मातिहार्य माप्त हो जाते हैं, मगर यह कहना प्रलापमान है। वनों का पालन करना निष्फल है। यह दीक्षा भी निरर्थक है। अतः यह दर्शन मेरे लिए भारस्वरूप है। इससे आत्मा का नाण नहीं होता, इस प्रकार के संदेह पर विजय प्राप्त करना दर्शनपरीषहजय है । अथवा साधु के दर्शन संबंधी सन्देह के समय कोई देव किसी वस्तु को दिखलाकर लु भावे तो उस लोभ का अनादर करने में जो मानसिक और शारीरिक परीषह उत्पन्न होता है, उसे जीतना दर्शनपरीषह जय कहा जाता है ॥८॥ . तत्वार्थ नियुक्ति--पहले प्रतिपादन किया गया था कि समिति, गुसे, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र आस्रवनिरोध रूप संघर के कारण हैं। इनमें से क्रमप्राप्त परीषद के स्वरूप का निरूपण किया गया है, अब उनके भेदों की प्ररूपणा करते हैंવિશિષ્ટ પ્રકારના પ્રાતિહાર્ય પ્રાપ્ત થઈ જાય છે, પણ આવું કહેવું પ્રલાપ માત્ર છે. વ્રતનું પાલન કરવું નિષ્ફળ છે ! આ દીક્ષા પણ નિરર્થક છે ! આથી આ દર્શન મારા માટે ભારસ્વરૂપ છે. આનાથી આત્માનું રક્ષણ થઈ શકે નહી. આ પ્રકારની શંકા પર વિજય પ્રાપ્ત કરો દર્શનપરીષહજય છે અથવા સાધુના દર્શન સંબંધી સદેહના સમયે કોઈ દેવ કઈ વસ્તુને બતાવીને લોભાવે તે તે લોભને અનાદર કરવા માટે જે માનસિક અને શારીરિક પરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે તેને જીતવું, દર્શનપરીષહુજય કહેવાય છે. દા તત્ત્વાર્થનિયુકિત-પહેલાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હતું કે સમિતિ. ગુપ્તિ, ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા, પરીષહજય અને ચારિત્ર આસવનિરોધ રૂપ સંવરના કારણે છે. આ પૈકી ક્રમ પ્રાપ્ત પરીષહના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે તેના ભેદની પ્રરૂપણું કરીએ છીએ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थस २०१० परीपर-४ दशमशरूपरीपह-५ पचेलपरीपहः-६ अरतिपरीपहः-७ हरीपदा-८ पर्यापरीपहा-१ निषधापरीपहा-१० च्यापरीपह-११ आक्रोश परीप-१२ बधपरीप:-१३ याचनापरीपह:-१४ अलामपरीपहः-१५ रोषारोपहः-१६ समस्पर्शपरीपह:-१७ जल्लमलारीपहः-१८ सत्कारपुरस्कार पीपहर-१९ प्रज्ञापारीपहा-२० अज्ञालपरीपहा-२१ दर्शनपरीपहः-२२ इत्येवें हाशतिविधा परीपहा भवन्ति । तत्रातिशायि समुदीर्णक्षुद्वेदनासहनं हरवल्या दुर्वको बाउराऽनविदाहिनी क्षुधा मागमोक्तविधिना सहमानस्याइलेषणीयाऽऽहारादिकं परिहरतः ला श्रमणस्य क्षुधापरीपहजयो भवति । श्तेपणीयाहारादिनयोतु-हुधापरीपहजयो न सरुभवति, तस्मात-एषणीयाहारादि - क्षुधा पिकाला आदि के भेद से परीषह वाईस है। वे इस प्रकार E-(१) क्षुधापरीषद (२) पिपालापरीषह (३) शीतपरीषह (४) उष्णपरीक्षा (५) दंशमशापरीषह (६) अचेलपरीषह (७) अरतिपरीषह (८) सीपरीषद (९) च पीकह (१०) निषधापरीषह (११) शय्यापरीषह (१२) आक्रोशपरीषह (१३) वधपरीषह (१४) याचनापरीषह (१५) बलालपरीषह (१६) रोगपरीषह (१७) तृणस्पर्शपरीषह (१८) जल्ल. लपरीषह (१९) सत्कार पुरस्कारएरीषह (२०) प्रज्ञापरीषह (२१) अज्ञानपरीषह और (२२) दर्शनपरीषह । (१) जो श्रामण तीव्र भूख ही वेदना को सहन करता है, उदर की आंतों को जलाने वाली क्षुधा को आगमोक्त विधि के अनुसार सहता है और अनेषणीय आहार आदि का परिहार करता है, वह धापरीषह का विजेता कहलाता है। अनेषणीय आहार आदि को ક્ષુધા-પિપાસા આદિના ભેદથી પરીષહ બાવીસ છે. તે આ પ્રકારે છે(१) क्षुधाशप (२) पिपासापरीष8 (3) शीतपरीष (४) परीष (५) शमश४५शेषह (6) अयसपशेष (७) भरतियषि (८) श्रीपरीषड (6) र्यापरीयड (१०) निषा ५२५९ (११) शय्या५शेष (१२) माशी46 (१३) १५५५९ (१४) यायना५रीष (१५) मलामशेष (16) on. પરીષહ (૧૭) તૃણસ્પર્શ પરીષહ (૧૮) જલ્લમલપરીષહ (૧૯) સત્કાર પુરસ્કાર परीष (२०) प्रज्ञा५५९ (२१) अज्ञानपरीष भने (२२) शन५५९. (૧) જે શ્રમણ તીવ્ર ભૂખની વેદનાને સહન કરે છે, પેટના આંતરડાને સળગાવે એવી સુધાને આગોકત વિધિ અનુસાર સહન કરે છે અને અનેષબ્રીય આહાર આદિનો ત્યાગ કરે છે, તે સુધાપરીષહને વિજેતા કહેવાય છે, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-मियुक्ति टीका अ. ७ स. ८ परीषहमेदनिरूपणम् संहावे खल पाणिदया भावनग समस्त मनेषणीयं परिहरन् शरीरनिवाड - ड्यात्-१ एवं-पिपासापरीपहजयोऽपि, उक्तरीत्यैवाऽवगन्तव्यः-२ शीवपरीषद . जयस्तावत्-अत्यधिकेऽपि शीते पनि सति तथा विध शीतत्राणाय ना-ऽकल्प्यानि वखाणि गृह्णाति, अपितु-जीर्ण वसनमेव दधानः शीतपरित्र णव्यापारवर्तित एर तिष्ठति, आगमतविधिना-एपणीयस्यैव पच्छाशशरणस्नादेगवेषणं कुर्यात् परिभुञ्जीत बा, नापि शीतातः सन् स्वयं वह्नि प्रधालयेत-अन्य मज्वालित स्य वा व्ढे सेवनं कुर्यात् इत्येव मनुतिष्ठन् शीतपरीप हं जपति इति शीतवाधा-. सहनरूप: शीतपरीपहजयोऽवगन्तव्य:-३ एवमेव- उष्णतायसन्तप्तापि श्रमण: ग्रहण करने पर क्षुधापरीपद का जय संभव नहीं है । अतएच सय प्रकार के अनपणीय आहार का त्याग करते हुए शरीर मा निर्वाह करना चाहिए। । (२) पिपासापरीषहजय ली पूर्वोक्त प्रभार से ही समझ लेना चाहिए। __(३) बहुत तीन सदी पडने पर भी उसके निवारण के लिए अकल्पनीय वस्त्रों को ग्रहण न करना, किन्तु जीर्ण बस्त्रों को हो धारण करते हुए शीत ले बचने के लिए कोई प्रयत्न न करना, आगमप्रतिपादित विधि के अनुसार ही पहनने - ओढले के वस्त्र आदि की गवेषण करना और उसका परि भोग करना, शीरले पीडित होकर स्वयं अग्नि न जलाना, दूसरे द्वारा जलाई हुई अग्नि का सेवन न करना, यह सष शीतलपरीषा को जीतना कहलाता है। इस प्रकार शांत की बाधा को हल करना शीत परीष है। અનેષણય આહાર વગેરેને ગ્રહણ કરવાથી ક્ષુધાપરીષહનો વિજય શકય નથી આંથી બધા પ્રકારના અષણીય આહારને ત્યાગ કરતા થકા શરીરનું નિર્વાહ २ से. (૨) પિપાસાપરીષહજય પણ પૂર્વોક્ત પ્રકારથી જ સમજ ઘટે. (૩) ઘણી સખત ઠંડી પડવા છતાં પણ તેના નિવારણના માટે અકલ્પનીય વસ્ત્રોને ગ્રહણ ન કરવા પરન્તુ જીર્ણ વસ્ત્રોને જ ધ રણ કરીને ઠંડીથી બચવા માટે કોઈ પ્રયત્ન ન કરે, આગમપ્રતિપાદિત વિધિ અનુસાર જે પહેરવા-ઓઢવાના વસ્ત્ર આદિની ગવેષણ કરવી અને તેને પરિભેગ ક, ઠંડીથી પીડિત થઈને જાતે અગ્નિ ન પેટાવ, અન્ય દ્વારા પેટાવવામાં આવેલી અગ્નિની આતાપના ન લેવી, બધું શીતપરીષહને જીત્યા એમ કહેવાય આ પ્રકારે ઠંડીથી પડતી મુશ્કેલીને સહન કરવી શીતપર પહજય છે. त० Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तस्वार्थ सूत्रे २०२. स्नान- व्यजन पवनादिकं न सेवयते नापि केनचिदमिधारितच्छायादिकं बा निषेवते । अपितु समापविमुष्णं सम्यक्तया परिषहते, न हि खलु उष्णता निवारणाय छत्रादिकं गृह्णाति इत्येव मुष्णता सहनेन- उष्णपरीपदजयो भवति= ४ : एवं दंशमशक मत्कुण वृश्चिकादिभि र्दश्यमानपि स्वाधिष्ठित स्थानान्न विचलेत्-" ततोऽपगच्छेद् वा, नापि हस्तादिना धूमादिना वा तदपनयनं कुर्यात्, नो वा व्यजनादिना तन्निवारणं विदध्यात् इत्येवं रीत्या करणेन दंशमशकपरीषहजयोः भवति ५ एत्र भागमोक्तविधिना शरीरनिर्वाहार्थ मल्पवस्त्रादिग्रहणेना-ऽचेल ラ (२) गर्मी के ताप से सन्तप्त होकर भी श्रमण स्नान नहीं करता, पंखा नहीं चलाता और न किसी के द्वारा अभि धारित छाया आदि का सेवन करता है, अपितु पडती हुई गर्मी को सम्पक प्रकार से सहन करता है । गर्मी का निवारण करने के लिए छत्र आदि ग्रहण नहीं करता । इस प्रकार उष्णता को सहन करने से उष्णपरीषद जय होता है । (५) इसी प्रकार डांस, मच्चर, खटमल और विच्छु आदि के डंसने पर भी, जिला स्थान पर आसीन हो वहां से चलायमान न हो, अन्य स्थान पर न जावे, हाथ आदि से या धुंआ आदि करके उनको न हटावे, न पंखा आदि के द्वारा उन्हें हटावे । ऐसा करने से दंशनशकपरीषह जय होता है । (६) आगमोक्तविधि के अनुसार शरीर के निर्वाह के लिए अल्प. वस्त्र आदि ग्रहण करने से अचेलपीबह जब होता है । दिगम्बरों के (૪) ગમી”ના તાપથી અકળાઈ ને પણ શ્રમણુ રનાન કરતા નથી, પંખે હલાવતા નથી અથવા કાઇ દ્વારા છાંયડા કરાવર વી તેનુ સેવન કરતા નથી, પરન્તુ પડતી ગર્ભને સમ્યક્ પ્રકારથી સહન કરે છે. ગરમીનું નિવારણુ - કરવા માટે છત્રી વગેરે ધારણ કરતે નથી. આ રીતે તે ઉષ્ણુતાને સહુનકરવાથીઉષ્ણુપરીષહે જય થાય છે. - (૫) આવી જ રીતે ડાંસ, મચ્છર માંકણુ અને વીંછી વગેરેના કરડવા છતાં પણ, જે સ્થાને બેઠે હૈય ત્યાંથી ચલાયમાન ન થાય, ખીજા સ્થાને ન જાપ હાથ વગેરેથી અથવા ખાડા વગેરે કરીને તેમને ભગાડે નહીં, અથવા પ’ખા વગેરે દ્વારા તેમને ભગાડે નહીં, આ પ્રમાણે કરવાથી દ’શમકપરીષહજય થાય છે (૬) આગમેાક્ત વિધિ અનુષ્ઠાર શરીરના નિર્વાહ માટે અપવ માદિ ગ્રતુણુ કરવાથી અચેલપરીષહય થાય છે. દિગખરેના કથન અનુસાર - Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-न युक्ति टोका अ. ७ जू. ८ परीपहभेदनिरूपणम् २०३ परीषहजयो भवति, न-दिगम्बरोक्तरीत्या सर्वया प्रावरणादि रहितत्वमचेलत्वम्, आगमे खलु-द्विविधः कल्पः प्रज्ञप्तः, जिनकाल्प:-स्थविरकल्पश्च- तंत्रस्थविरकल्पे परिनिष्पन्नः क्रमेण धर्म श्रणानन्तरं प्रव्रज्या प्रतिपद्यते, ततो द्वादश वर्षाणि सूत्रग्रहणम् , ततो द्वादश वर्षाणि-मर्थग्रहणं करोति, ततश्च-द्वादश वर्षाणि-अनियतरूपेण बसन् देशदर्शनं करोति, देशदर्शनञ्च कुर्वन्नेव शिष्यान् निष्पादयति, शिष्य निष्पत्यनन्तरञ्चाऽभ्युद्यतविहारं प्रतिपद्यते । जिनकल्पस्तु'त्रिविधः प्रालितः शुद्धपरिहार-यथालन्दभेदाद, तत्र-जिनप्रतिपत्तियोग्यश्च जिनकल्पं प्रतितुमिच्छन् प्रथमं तावत्-तपः सत्त्वादिभावनाशिरात्मानं भावयति, कथनानुसार वस्त्रों से सर्वधा रहित होना अचेलस्व नहीं है । आगम में दो प्रकार के कल्प घतलाये गये हैं-जिन कल्प और स्थविरकल्प । स्थविर कल्प में परिनिष्पन्न पुरुष्प क्रम से धर्मश्रक्षण करने के पश्चात् मुनिदीक्षा अंगीकार करता है। तत्पश्चात् बारह वर्षों तक सूत्रों का अध्ययन करता है, फिर पारह वर्षों तक स्मों का अर्थ सीखता है, तदनन्तर घारह वर्ष तक अनियत रूप से निवास करता हुआ अनेक देशों का दर्शन करता है अर्थात् देश देशान्तर में परिभ्रमण करता है, देशाटन करता हुआ शिष्य बनाता है और शिष्य बनाने के बाद अभ्युद्यात विहार करता है। जिनकल्प तीन प्रकार का है-प्रकल्पित, शुद्धपरिहार और यथालन्द । जो जिनकलर को ग्रहण करने के योग्य है और जिनकल्प को अंगीकार करना चाहता है वह पहले -पहल तए-हय आदि की भावना से अपनी आत्मा को भावित करता है और आत्मा को साबित कर चुकने के पश्चात् दो प्रकार के વસ્ત્રોથી સર્વથા હત થવું અચેલ નથી. આગમમાં બે પ્રકારના કલ્પ કહેવામાં આવ્યા છે-જિનકલ્પ અને સ્થવિરક૫ ૨થવિરક૯પમાં પરિનિષ્પન્ન પુરૂષ ક્રમથી ધ વણ કર્યા બાદ મુનિ દીક્ષા અંગિકાર કરે છે, ત્યાર બાદ બાર વર્ષો સુધી ત્રોનું અધ્યયન કરે છે, પછી બાર વર્ષ સુધી સૂત્રોના અર્થ શીખે છે, ત્યારબાદ બાર વર્ષ સુધી અનિયત રૂપથી નિવાસ કરતા થક અનેક દેશે દર્શન કરે છે અર્થાત્ દેશદેશાન્તરમાં પરિભ્રમણ કરે છે, દેશાટન કરતે કરતે શિષ્ય બનાવે છે અને શિષ્ય બનાવ્યા બાદ અલ્પત વિહાર કરે છે. જિનકલા ત્રણ પ્રકારના છે–પ્રકલિપત, શુદ્ધ પરિવાર અને યથાલન્દ ! જે જિનકલ્પને ધારણ કરવા માટે ચગ્ય છે અને જિનકલ્પને અંગિકાર કરવા ઇરછે છે તે પહેલામાં પહેલું તપ–સવ આદિની ભાવનાથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરે છે અને આ માને ભાવિત કરી દીધા પછી બે Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्रे ૨૦૪ भावितात्माच - द्विविधेऽपि परिकर्मणि प्रवृतो भवति, तत्र यदि - पाणिपात्र लब्धि भवति तदा तदनुरूपमेव परिकर्माssfagते । पाणिपात्रलब्ध्यभावेतु प्ररिग्रह धारित्वपरिकर्माऽनुतिष्ठने । कल्पग्रहणात् - त्रिविधः चतुर्विधः पञ्चविधो वाउपधिर्भवति, परिग्रहपारकस्य तु अवश्यमेव नवविधः खन्पधिरागमे प्रतिपादित कल्पग्रहणात दर्शविधः- एकादशविधो- द्वादशविधो वा वोध्यः इत्येवं विधं खलअचेलत्वं प्रकृतेऽवमन्तव्यम् - ६ एवं सूत्रोपदेशेन विहरत स्तिष्ठतो वा श्रमणस्य कदाचिदतिः समुत्पद्यते तत्रत्वन्नाडरतेरपि श्रमणस्य सम्यग्धर्मारामरतत्वेनैव भवितव्यम् तथा रुत्वाऽरतिपरीपदजयः सम्भवति ७ ए-कामिनीनां मुखाच परिकर्म में प्रवृत्त होता है । अगर वह पाणिपात्र लब्धि वाला हो तो 'उसके अनुरूप ही परिकर्म करता है । अगर पाणिपात्र लब्धि न हो तो प्रतिग्रहधारित्व अर्थात् पात्र धारीपन का परिकर्म करता है। कल्प ग्रहण से उसकी उपधि तीन प्रकार की, चार प्रकार की या पांच प्रकार की होती है। जो पारी होता है उसकी अवश्य ही नौ प्रकार की उपधि आगम में कही गई है । कल्प ग्रहण से दश प्रकार की, ग्यारह प्रकार की और बारह प्रकार की उपधि समझनी चाहिए । इस प्रकरण में इतनी उपधि रखने वाले को 'अचेल समझना चाहिए। 1 (७) शास्त्र के उपदेश के अनुसार बिहार करते हुए या रहते हुए श्रमण के मन में कदाचित् अरति उत्पन्न हो जाती है, तो अरति -- उत्पन्न हो जाने पर भी माधु को सम्यक मचार से धर्म रूपी आराम (उद्यान) में ही रहना चाहिए। ऐसा होने पर ही अरतिपरीषह जय हो सकता है। પ્રકારના પરિક માં પ્રવૃત્ત થાય છે. જો તે પાણિપાત્ર લબ્ધિવાળા હાય તા તે મુજબ જ કિમ કરે છે. પાણિપાત્ર લબ્ધિ ન હોય તે પ્રતિગ્રહ. ધારિવ અથવા પાત્રધ રીપણાનું પશ્ચિમ કરે છે. કલ્પગ્રહથી તેની ઉપધિ ત્રણ પ્રકારની ચાર પ્રકારની અથવા પાંચ પ્રકારની ઉપધિ હાય છે, જે પાત્રધારી હાય છે તેની ચાક પણે જ નવ પ્રકારની ઉપધિ આગમમાં કહેવામાં આવી છે. કલ્પ ગ્રહણથી દશ પ્રકારની, અગીયાર પ્રકારની અને ખાર પ્રકારની ઉપધિ સમજવી જોઇએ. આ પ્રકરણમાં આટલી રાખનારને ‘અચેલક' સમજવા જોઇએ. (૭) શાસ્ત્રના ઉપદેશ અનુસાર વિહાર કરતી વખતે અથત્રા રહેતી વખતે શ્રમના મનમાં કદાચિત્ અતિ ઉત્પન્ન થઈ જવા છતા પણ સાધુએ સમ્યક્ प्रारथी धर्म ३५ी आराम (उद्यान) मां ४ २त (सीन) रहेवु लेएखे मास થાય તે જ અતિપરીષહેજય સ ભી શકે છે. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ स. ८ परीपहभेदनिरूपणम् प्रत्यङ्ग संस्थानमधुरालाप कलितललितस्मितविभ्रमविलासादि हावभावचेष्टां न कदाचिदपि चिन्तयेत् नापि मोक्षमार्गस्याऽर्गलामु तासु कामधिया नयनोपनिपातं कुर्यात् तथा करणे सति स्त्रीपरीपहजयो भवति- ८ एवं-निरलसो भूत्वा नगरप्रामकुलादिषु ममत्व राहित्ये नाऽनियतरूपेण कृतवसतिः श्रमणः प्रतिमासं विचरणरूप चर्या मातिप्ठेव तथाकृते सति चर्यापरीपहजयः सम्भवति-९ एवं-निपया तावत्-निषीदन्त्यस्यामिति व्युत्पत्त्या-संज्ञा समज निपत निषद-इति सूत्रेणाऽधिकरणे कश्यन्तेन निपातितेन निषचा शब्देन पीठफलकादि स्थानमुच्यते, तत्र खलु-स्त्री पशुपण्ड कविवजिते स्थाने इष्टानिष्टोपसर्ग (८) कामिनियों के सुख आदि अंगोपांगो की बनावट का, मधुर आलापसहित मुस्कराहट का, विनम-विलास, हाव-भाव से युक्त चेष्टाओं का कदापि चिन्तन न करे। उन्हें मोक्ष मार्ग में बाधक समझ कर कामवुद्धि से उनकी ओर दृष्टि निपात भी न करे । ऐसा करने पर स्त्रीपरीषह जय होता है। (९) आलन्धरहित होकर नगर ग्राम गृह आदि में ममत्व से रहित होकर अनियन रूप से निवास करने वाला श्रमण प्रतिमास. विहार-चर्या करे । ऐसा करने ले चर्शपीपह जय होता है। (१८) पीठ फलक आदि बैठने के स्थान को निषद्या कहते हैं। जिसमें निषीदन दिया जाय वह विषया। 'संज्ञायां समज नपत-निषद' -इस सत्र से अधिकरण अर्थ में क्यचन्तनिपात हो कर निषधा शब्द बनता है ! निषया में अर्थात् स्त्री पशु और पंडक (हीजडे) (૯) સ્ત્ર ના મુખ આદિ અ ગેપગેની બનાવટને, મધુર આલાપ સહિત મુસ્કરાહટને, વિશ્વમ-વિલાસ, હાવ ભાવપૂર્ણ ચેઓને કદાપી વિચાર ન કરે. આ સઘળને મોક્ષમાર્ગ માટે અવરોધરૂપ સમજીને કામબુદ્ધિથી તેમની તરફ દષ્ટિપાત પણ ન કરે, આમ કરવાથી સ્ત્રી પરીષહજય થાય છે. (૯) આળસ ખંખેરી નાખીને નગર, ગામ ઘર આદિમાં મમત્વથી રહિત થઈને અનિયત રૂપથી નિવાસ કરનાર શ્રમ પ્રતિમાસ વિહાર-ચય કરે આમ કરવાથી ચપરષહજય થાય છે. (૧૦) પઠ ફલક વગેરે બેસવાના સાધનને નિષદ્યા કહે છે. જેમાં निषाहन ४२वामां मावे ते निषधा संज्ञायां समजनिपत-निषद्--21 सूत्रथी અધિકરણ અર્થમાં નિપાત થઈને નિષદ્યા શબ્દ બને છે. નિષદ્યામાં અર્થાત્ સ્ત્રી, પશુ તથા પંડક (વ્યંઢળ) વગરના સ્થાનમાં અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २०६ तत्त्वार्थस्त्र जयं कुर्वन् अनुद्विग्नः सन् तिष्ठन् निपधापरीपहजयं यतुं शक्नोति-१० एवं-शरा तावत्-संहारः, पीठ-फलकादिर्वा, कठोर-कोमलादिभेदेन उच्चावचो "निम्नोन्नतः प्रतियोवा, धूलिपुञ्जधूसरितो बहुप्रकारको वा-उच्यते, तत्रतिष्ठन् न कदाचिद् द्विग्नो भवेद, इत्येवं रीत्याऽनुद्वेगे सति शय्यापरीपहजयः सम्भवति-११ आक्रोश स्ता द्-अभियवचनम्-अनिष्टवचनं चा, उच्यते तत्खल्व"प्रियवचनं सत्वं वर्तते तदा-तत्र क्रोधकरणं नोचिवम्, अयं खल्वप्रियं ब्रुवन-मां शिक्षयति मातः परमहनेवं करिष्यामि' इत्येवं भतिजानीतः, यदितु-तद्वचन सत्यमेव वर्तते तर्हि तत्र वचने वक्तरि वा सुनरां क्रोधो न कर्तव्यः यधयं सत्यमेव से रहित स्थान में अनुकूल और प्रतिकूल उपलगों को जीतने में जो -घबराता नहीं है, वह निषद्यापरीषह जय करने में समर्थ होता है। . . (११) शय्या अर्थात् विस्तर अथवा पीठ-फलक आदि या कोमल तथा कठोर होने में अच्छा-बुरा, ऊंचा-नीचा उपाश्रय (स्थानक) जिसमें धूल के पटल के पटल जमे हों ऐसी शय्या में ठहरा हुआ मुनि कदापि अधिग्न न हो इस प्रकार उद्वेग न होने पर शय्यापरीषहः विजय होता है। (१२) आक्रोश का अर्थ है अप्रियवचन, अनिष्ट वचन, डाट-फट. कार से भरे हुए वचन । अप्रिय घचन अगर सत्य हों तो उन्हें सुनकर क्रोध काना उचित नहीं, उलटा ऐसा सोचना चाहिए कि अप्रिय वचन कह कर यह मुझे शिक्षा दे रहा है, इसके बाद मैं ऐसा नहीं करूंगा। और यदि उसका वचन असत्य हो तो भी उस वचन पर या एका पर क्रोध वरना ही नहीं चाहिए । सोचना चाहिए कि अगर ઉપસર્ગોને જીતવા માટે જે ગભરાતું નથી, તેજ નિષદ્યાપરીષડજ્ય પ્રાપ્ત કરવા માટે સમર્થ થાય છે. (૧૧) શય્યા અર્થાત્ પથારી અથવા પીઢ-ફલક આદિ અથવા કુમળા તથા ખરબચડાં હોવાથી સારા-નરવા, ઉચા-નીચા સ્થાનક (ઉપાશ્રય) જેમાં ધૂળના થરના થર બાઝેલાં હોય એવી પથારીમાં સૂતેલાં મુનિએ દદાપિ ઉદ્વિગ્ન ‘થાવું નહી. આ પ્રકારે ઉદ્વેગ ન થવાથી શય્યાપરીષહવિજય થાય છે. (૧૨) આક્રોશનો અર્થ છે અપ્રિયવચન, અનિષ્ટવચન, ધાક-ધમકીથી ભરેલાં વચન તે અપ્રિય વચન જે સત્ય હોય તો તેને સાંભળીને ક્રોધ કરે વાજબી નથી બલકે એવું વિચારવું જોઈએ કે અપ્રિય વચન કહીને આ મને ઉપદેશ આપી રહ્યો છે. “આ પછી હું આવું કરીશ નહીં. અને જે તેનું વચન અસત્ય હોય તે પણ તે વચન ઉપર અથવા વકતા ઉપર કોધ કરવો જ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७. ८ परीपद्दभेद निरूपणम् २०७ - क्ति तत्र कोsस्य दोषः इत्येवं रीत्याऽऽक्रोशपरीषदजयः सम्भवति - १२ एवं वध" स्तावद - वाडनम् हस्त-पाद-लगुड - कशादिमिराघातरूपम् तदपि शरीरस्य विशरारुतां मत्वा सम्वया सोढव्यम् पुद्गलसंघावरूपं खल शरीरमिदम्) आत्मनो मित्रमेव वर्तते । आत्मा पुन र्नित्योऽस्ति न कदाचिदू विध्वस्वो भवति तस्मात् - स्वकृतकर्मणः फलमिद सुपनतं ममास्ति, इत्येवं रीत्या वाडनादिकं सहमानस्य श्रमणस्य वधपरीपहजयो भवति - १३ एवं - याचनं तावद् खपाचाअन्न-पान - प्रतिश्रयादेः प्रार्थनम्, श्रमणस्य परतो लब्धव्यमेव सर्वं सर्वात, किन्तु श्रमणानां सङ्कोचतया याचनां प्रतिनादरो भवति श्रमणैः ख प्रागल्भ्यवद्ध रवश्यमेव याचनं कर्तव्यम्, इत्येवं याचनापरीपहायो विधातव्यः- १४ अलाभस्तुयह असत्य भाषण करता है तो मुझे क्रोध करने की क्या आवश्यकता है ! ऐसा विचार करने से आक्रोशपरीषद जय होता है । (१३) ताड़न करना अर्थात् हाथ, पैर, लाठी या चावुक आदि से आघात करना | शरीर को नाशशील समझ कर उसे समभाव से सहन करना चाहिए। यह शरीर पुद्गलों का पिण्ड है और आत्मा से भिन्न ही है । आत्मा नित्य है, उसका कभी विध्वंस नहीं होता। अतएव यह मेरे किये कर्म का ही फल प्राप्त हुआ है । ऐसा सोच कर ताडन आदि सहन करने वाला साधु बधपरोषह का विजेता होता है । 1 (१४) वस्त्र, पात्र, अन्न, पान, उपाश्रय आदि की प्रार्थना को याचना कहते हैं | श्रमण को सभी कुछ दूसरों से ही प्राप्त करना पडता है । संकोचशील होने के कारण श्रमण याचना में आदरशील પશુ જોઇએ. વિચારતુ ોઇએ કે જે આ અસત્ય ભાષણ કરે છે તે મારે ક્રોધ કરવાની શી જરૂર છે ? આવા વિચાર કરવાથી આક્રોશપરીષહજય થાય છે. (13) भार भारव। अर्थात् हाथ, यण, साडी अथवा या वगेरेथा:આઘાત કરવે. શરીરને નાશવત સમજીને તેને સમભાવથી સહન કરવુ જ જોઈ એ આ શરીર પુદ્ગલેાનુ પિડ છે. અને આત્માથી ભિન્ન જ છે. આત્મા નિત્ય છે, તેનેા કદી નાશ થતા નથી. આથી આ મારા કરેલા કર્માનું જ ફળ પ્રાપ્ત થયુ છે. એવું વિચારીને તાડન વગેરે સહન કરનાર સાધુ વધપરીષહુના વિજેતા બને છે. -> च (१४) वस्त्र यात्र, भान्न, पान, उपाश्रय याहिनी आर्थनाने याथना કહે છે. શ્રમણે બધુ જ બીજાએ પાસેથી જ મેળવવુ પડે છે. સ કાચશીલ હાવાના કારણે શ્રમણ, યાચનામાં આદરવાન હાતા નથી પ્રગલ્ભ (નિસ કાચ) શ્રમણાએ અવશ્ય જ યાચના કરવી જોઇએ. આ રીતે કરવાથી- યાચના परीषन्य थाय छे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ तत्त्वार्थसूत्र याचने कृतेपि विद्यमानस्याऽविद्यमानस्य वा वस्तुनोऽदानम्, तत्र-यस्य खेल तद्धनं वर्तते स तदधिकारित्वाद् दातुमदातुंवा समर्थोऽस्ति अतएव-कदाचिद्ददाति कदाचिच्च नापि ददाति । तत्रा-इंदाने न कोप्यपरितोपः कर्तव्य: । उक्तश्चोत्तरीऽध्ययने द्वितीयाध्यय ने परेसु घास मे ले जा, भोयणे परिनिट्टिए । लद्धे डेि अलद्वेवा, नाणु तप्पेज्ज पंडिए |॥३०॥ परेषु ग्राममेषये भोजने परिनिष्ठिते । लब्धे पिण्डे -ऽलब्धेवा, नाऽनुनप्येत पण्डितः ॥ इति छाया, पुनरप्युक्त दशवकालिक सूत्रे-पश्चाऽध्ययनत्य द्वितीयोदेशके चहूं परघडे अस्थि विविह वाहन लाहमं । न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छ। दिज्ज परो नवा-॥२९॥ धान नहीं होते। प्रगल्भ (निःसंकोच) श्रमणों शे अवश्य ही याचना करना चाहिए । इस प्रकार याचनापरीषह जय होना है। ____ (१५) याचना करने पर भी, किसी वस्तु का मौजूद रहने या मौजूद न होने से प्राप्त न होना अलाभ कहलाता है। जिपकी वह वस्तु है वह उसका अधिकाकी (स्त्रामी) है, ने या न देने के लिए स्वतंत्र है। वह कदाचित् देता है, कदाचित नहीं श्री देना। अगर न दे तो असन्तोप नहीं मानना चाहिए । उत्ताध्ययन में कहा भी है-साधु का कर्तव्य है कि गृहस्थों ने अपने लिए जो भोजन बनाया हो उसी में से अपने लिये गवेषणा करे, मगर विवेकशील साधु भोजन के लाभ -अलाभ के कारण सन्ताप न करे, अर्थात् चाहे प्राप्ति हो या न हो समभाव धारण करे । दशवकालिक सूत्र में भी कहा है-गृहस्थ के घर में नाना प्रकार का ग्वाद्य स्वाद्य आदि आहार मौजूद है और वह प्रचुर (૧૫) યાચના કરવા છતાં પણ કઈ વસ્તુ હાજર હોય અથવા હાજર ન હોવાથી મળી ન શકે તે અલાભ કહેવાય છે જેની વસ્તુ છે તે તેનો અધિin (स्वाभी) छे, मावी म२ न आपकी ते भाटे ते स्वतत्र छे... કદાચિત આપે અથવા ન પણ આપે જે ન આપે તે અસંતેષ ન માન જોઈ એ ઉત્તરાધ્યયનમાં કહ્યું પણ છે–સાધુનું કર્તવ્ય છે કે ગૃહરશે એ પિતાના માટે જે ભોજન તૈયાર કર્યું હોય તેમાંથી પોતાના માટે ગષણા કરે, પરંતુ વિવેકશી સાધુ ભે જનના લાભ-અલાભના કારણે સત્તાપ કરે નહી અર્થાત મળે અથવા ન મળે સમભાવ ધારણ કરે દશવૈકાલિકસૂત્રમ પણ કહ્યું છે-ગૃહસ્થના ઘરમાં જુદા જુદા પ્રકારની ખાદ્ય સ્વાદીષ્ટ ભેજન વગેરે Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ १.८ परीषदभेदनिरूपणम् बहु परगृहेऽ स्त विविधं खाद्य स्वायम् । न तत्र पण्डितः कुप्येत्. इच्छा दद्यात् परो न वा ॥ इति । . गया-तदलाभेऽप्यविकृतचेतसैन श्रपणेन भवितव्यम् इत्यलाभपरीषहजयः सम्भवति-१५ एवम् राऽतिसार-कास-श्वासादि रोगस्य सत्यपि मादुर्भायें गच्छनिर्गताः जिनकल्पिकादयः श्रमणा स्तत्तचिकित्सायां न पवनन्त गच्छयासि नस्तु-अस्प बहुत्वालोचनया तथाविध रोग वेदनां सम्यक्तया सहन्ते आगमोक्त. विधिना वा तस्मतिक्रि समाचरन्ति, इत्येवं रोगपरीषहजयः सम्भवति१६ एवम्गडवासिनो गच्छनिर्गतानाञ्च श्रमणानां कृतेऽशुपिरतणस्य दर्मादेः परिभोगो मात्रा में है, किन्तु देला या न देना उसकी इच्छा पर निर्भर है । अगर न दे तो विवेकी साधु को क्रोध नहीं करना चाहिए। (पंचम अध्ययन, द्वितीय उद्देशक, गाथा २९) इस प्रकार आहार आदि का लाभ न होने पर भी साधु के चित्त में विकार उत्पन्न नहीं होना चाहिए । यह आलाभपरीषह विजय है। (१६) ज्वर, अतिसार, खांसी, श्वास आदि रोग उत्पन्न होने पर भी गच्छ से पाहर निकले हुए जिनकल्पी आदि साधु उसकी चिकित्सा कराने में प्रवृत्त नहीं होते । गच्छवासी साधु अल्पत्व बहुत्व की आलो. पना करके रोग की वेदना को सम्यक् प्रकार से सहन करते हैं या आगमोक्त विधि के अनुसार उसकी चिकित्सा कर वाले हैं । इस प्रकार रोग उत्पन्न होने पर समभाव धारण करने से रोगरीषह जय होता है। (१७) गच्छवासी और गच्छनिर्गन साधु षों के लिए बिना छिद्र હાજર છે અને તે સારા એવા જથ્થામાં છે. પરંતુ આપવું ન આપવું એ સ્વામીની ઇચ્છા પર આધારીત છે. જે ન આપે તે વિવેકી સાધુએ ક્રોધ ४२वा न हये. (५'यम अध्ययन, द्वितीय देश: ॥। २८) मारीत. આહાર વગેરેનો લાભ ન થવાથી સાધુના ચિત્તમાં વિકાર ઉદ્ભવ ને જોઈએ. આ અલાભપરીષહવિજય છે. - (१६) ताव, मनिसा२, ६.स, श्वास माग 6५न्न थ। छतi પણ ગચ્છથી બહાર નિકળેલા જિનકલ્પી આદિ સાધુ તેની સારવાર કરાવવા માટે પ્રવૃત્ત થતાં નથી. ગચ્છવાસી સાધુ અલ્પ-બહત્ત્વની આલેચના કરીને પગની વેદનાને સમ્યક્ પ્રકારથી સહન કરે છે અથવા આગમોકત વિધિ અનુસાર તેની સારવાર કરાવે છે આવી રીતે રોગ ઉત્પન્ન થવા પર સમભાવ ધારણ કરવાથી રોગપરીષહજ ય થાય છે. (૧૭) ગચ્છવાસી અને ગચ્છનિર્ગત સાધુઓ માટે છિદ્રનગરના ઘાસ तं० २७ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- समा भागमेऽनुज्ञातो वर्तते, तत्र-येषां शयन मनुज्ञातम् ते खलु रात्रौ तान्दर्भान भ्रमावास्तीय संस्तारकोत्तरपट्टकोच दीपरि कृत्वा शेरते, स्तेनापतोपकरणः स्वल्पसंस्तारकपको वा ऽत्यन्तजीर्णत्वात् तं कठोरदर्भादि तृणस्पर्श या श्रमणः सम्यक्तयाऽधिसहते तस्य दणस्पर्श परीपहजयो भवति-१७ एवम् रजोधूलिकम परीगरूपमलः प्रस्वेदजलसम्पर्कजन्यधनीभूतः शरीरे स्थैर्य मापन्नो नीमों म-सम्पातजनित धर्मजलार्द्रतां गतोऽत्यन्तोद्वेगं जनयति, किन्तु-न तदपनोदायकदाचिदपि स्नानाभिलाषं विदधाति-इत्येवं मलपरीवहजयो भवति-१८ परतो. के घास डाम आदि के उपयोग की आगल में अनुमति दी गई है। जिन साधुओं को शयन की अनुज्ञा दी गई है, वे रात्रि में उस घासडाभ को भूमि पर पिछा कर और उसके ऊपर संस्तारक या उत्तर: पट्टक करके सोते हैं। अगर किसी साधु के उपकरण चोर चुरा ले जाय या किसी के पास बिछाने का वस्त्र स्वल्प हो तो अत्यन्त जीर्ण होने के कारण उस कठोर दर्भ आदि के स्पर्श को जो साधु सम्बकू :प्रकार से संहता है, वह तृणस्पर्शपरीषह का विजेता कहलाता है। - (१८) रेत और धूल के कण पसीना आने के कारण शरीर के साथ चिपट गए हों और शरीर में स्थिर हो गए हों। वह मल ग्रीष्मऋतु की गर्मी पड़ने के कारण उत्पन्न होने वाले पसीने से गीला हो गया हो जाता है और चित्त में उद्वेग उत्पन्न करता है मगर उस उद्वेग को दूर करने के लिए साधु स्नान की कंदापि अभिलाषा नहीं करता । इस प्रकार मलपरीषह जीता जाता है। દલે આદિના ઉપગની આગમમાં અનુમતિ આપવામાં આવી છે. જે સાધુઓને શયનની રજા આપવામાં આવી છે તેઓ રાત્રે તે ઘાસ-દોભને જમીન ઉપર પાથરીને તેની ઉપર સંસ્કારક અથવા ઉત્તરપટ્ટક કરીને સુ છે. જો કે સાધુના ઉપકરણ ચાર ચેરી જાય અથવા કોઈની પાસે પાથરવાના વસ્ત્ર અલ્પ હોય તે અત્યન્ત જીણું હોવાને લીધે તે કઠેર ભરો. આદિના સ્પર્શને જે સાધુ સમ્યક્ પ્રકારથી સહન કરે છે, તે તૃણસ્પર્શ પરીષને વિજેતા કહેવાય છે. '' (૧૮) રેતી ધૂળના કણે પરસેવાના કારણે શરીર સાથે ચૂંટી ગયા હોય અને શરીર ઉપર જામી ગઇ હોય આ થર ગ્રીષ્માતની ગમી -૫ વાના કારણે ઉત્પન્ન થતા પરસેવાથી ભીનું થઈ ગયું હોય અથવા ચાય અને મનમાં ઉઠે ઉત્પન્ન કરે છે પરંતુ તે ઉદ્દેગને દૂર કરવા માટે સાધુ નાનની કદાપિ અભિલાષા રાખતું નથી. આવી રીતે મલપરીષહ જીતી શકાય છે. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ .८ परीपहभेदनिरूपणम् भक्तपानवसपात्रादिना सहकारः खलु सत्कारः, पुरस्कारस्तु-सद्भूतगुगोत्कीर्तनम्। वन्दनाऽभ्युस्थानाऽऽपन मदानादि सद्भाव श्वेच्यते, तत्रा-सत्कृतपुरस्कृतो वा न द्वेपं करोति, नापि-परं दुषयति नाऽऽप्यात्मानं मनोविकारेण इत्येवं सत्या सस्कारपरीपहजयो भवति-१९ अतिशयबुद्धिरूपपज्ञायां प्राप्तायामपि गर्वाभावादर: णमेव महापरीपहजयो भवति-२० तथाविध प्रज्ञा-विपर्ययेणाऽज्ञानपरीषहो भवति तत्राहं न किञ्चिजमाने सर्वथा मूखौऽस्म्यह वित्येवं परितापं कुर्वतो ऽज्ञानपरीषहाँ भवति किन्तु-तदकरणात् कर्मफलविपाकोऽयं दतैले, इत्येवं परिचिन्तयतो ऽज्ञानपरीपहनयो भवति २१ चतुर्दशपूर्वाणि द्वादशाङ्गानि ज्ञानमुच्यते, एच का(१९) आहार, पानी, वस्त्र, पान आदि का दिया जाना सत्कार कहलाता है और सद्भूत गुणों का कीर्तन, वन्दन, उत्थान, आसन. प्रदान आदि सझाव पुरस्कार कहलाता है। यह सत्कार अथवा पुरस्कार न- पाकर देव न करे, दूसरे को दोष न दे और न मन में विकार लाकर आत्मा को दूषित बनावे । ऐसा करने से सत्कार-पुर स्कार परीषह जीता जाता है। ' (२०) अतिशय बुद्धि वैभव रूप प्रज्ञा के प्राप्त होने पर भी गर्व न करना प्रज्ञा परीषहजय है। .. (९१) पूर्वोक्त प्रज्ञा की विपरीतता से अज्ञान परीषह होता है। मैं कुछ भी नहीं जानता, मैं सर्वथा सूर्ख हूँ इस प्रकार परिताप करने वाले को अज्ञान का परीषह होता है किन्तु ऐसा परिताप न करके 'यह मेरे पूर्वकृत कर्म का विपाक हैं इस प्रकार लोचने वाला अज्ञानपरीषहजय करता है। (१८) माडा२, tell, , पात्र मानि प्रदान सा२ उपाय छ અને સદ્ભૂત ગુણેનું કર્તાન, વન્દન, ઉત્થાન, પ્રદાન આદિ સદ્ભાવ પુરસ્કાર કહેવાય છે. આ સત્કાર અથવા પુરસ્કાર ન મળે તે દ્વેષ ન કરે, બીજાને દેષ ન દે, તેમજ મનમાં વિકાર લાવીને આત્માને દૂષિત ન બનાવે આ પ્રેમાણે કરવાથી સકાર–પુરસ્કાર પરીષહ જીતી શકાય છે. .: (૨૦) અતિશય બુદ્ધિવૈભવ રૂપ પ્રજ્ઞા પ્રાપ્ત થવા છતા પણ અભિમાન ન કરવું પ્રજ્ઞા પરીષહજય છે. - * (૨૧) પૂર્વોક્ત પ્રજ્ઞાની વિપરીતતાથી અજ્ઞાનપરિષહ થાય છે. “હું કશું જ જાણતા નથી, હું સર્વથા મૂર્ખ છું’ આ રીતે પરિતાપ કરનારને અજ્ઞાનને પરીષહ થાય છે પરન્તુ આ પરિતાપ નહી કરતા આ મારા પૂર્વકૃત કર્મોનું ફળ છે એમ વિચારનાર સાધુ અજ્ઞાનપરીષડજય પ્રાપ્ત કરે છે. - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थस्त्र ज्ञानविरोधिनाऽपि-अज्ञानेनाऽऽगमराहित्येन परीपदो भवति, झानावरणक्षयो पशमोदयविलसितमे त्-इवि स्वकृतकमफलपरिमोगा द्विध्वंसमेति तपोऽनु. प्ठानेन च्येत्येत्र विचारयताऽज्ञान परीपहजयो भवति-२१ दर्शनपरीषहरतुसर्वाऽवयस्थानेभ्यो विरतः प्रकृत तपोऽनुष्ठ न कर्ता निःसङ्गाशाहमस्मि, किन्तु तथासत्त्वेऽपि धर्माऽवर्माऽऽत्म-देव-नारकादि भावान् न प्रेक्षे, । तस्मात्-समस्त मेनन्मृषा, अतो दर्शनमिद यात्मनः केवलं भाररूपमेव नतु-तत् त्राणाय भवतीति दर्शनभ्रंशरूपः परीपहो बोध्यः । तत्रैवपालोच येव-धर्माऽधभौं पुण्यपापात्मको आत्माच ऽरूपी ततो नैते दृष्टिगोचरा भवितु महति देवाश्चा- ऽत्यन्तरतिमुखा सक्तवाद-दुष्पमाऽनुभावाच्च नागच्छन्ति नारकाः पुनस्तीनवेदनार्ताः पूर्ववत चौदह पूर्वो सहित द्वादशांग को ज्ञान कहते हैं । इस प्रकार ज्ञान के विरोधी अज्ञान ले-भागम की रहितता से परीपह होता है। यह तो ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम और उदय का फल है, अपने किये कर्म-का फल तप से भोगने से उसका विनाश होता है, इस प्रकार विचार करने से अज्ञान परीषहजय होता है । ... (२२) 'मैं समस्त पापस्थानों से निवृन हो चुका ह', तपस्या का अनुष्ठान करता हूं और नि:संग हूं, फिर भी धर्म, अधर्म, आत्मा, देव, नारक आदि भावों का साक्षात्कार नहीं कर सकता, अतएव यह सय मिथ्या हैं । यह दर्शन आत्मा के लिए भाररूप है, यह त्राण कारक नहीं है' ऐसा सोचना दर्शनभ्रंश परीषह है । सोचना यों चाहिए-धर्म और अधर्म द्रव्य अरूपी है, आत्मा भी अरूपी है, इस कारण ये चक्षुगोचर नहीं हो सकते। देव अत्यन्त रति-सुख में आसक्त रहने के - ચૌદ પૂર્વો સહિત બાર અંગેનું જ્ઞાન કહે છે. આ રીતે જ્ઞાનના 'વિરોધી અજ્ઞાનથી–આગમની રહિતતાથી પરીષહ થાય છે આ તે જ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષપશમ તથા ઉપનું ફળ છે, પિતાના કરેલા કર્મના ફળ તપથી ભોગવવાથી તેને વિનાશ થાય છે એમ વિચારવાથી અજ્ઞાનપરીષહજય થાય છે, (૨૨) “હું સમસ્ત પાપસ્થાનેથી નિવૃત્ત થઈ ચૂક્યું છું તે પણ ધર્મ, અધમ, આત્મા દેવ નારક આદિ ભવને સાક્ષાત્કાર કરી શકતા નથી આથી આ બધું મિશ્યા છે. આ દર્શન માત્માને માટે ભારરૂપ છે, આ ત્રાણુકારક નથી” એમ વિચારવું દર્શનભ્રંશપરીષહ છે. ખરી રીતે તે આ પ્રમાણે વિચારવું જોઈએ-ધર્મ અને અધર્મ દ્રવ્ય અરૂપી છે, આત્મા પણ અરૂપી છે એ કારણે તેઓ દષ્ટિગોચર થઈ શકતાં નથી. દેવ અત્યન્ત Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ स्.८ परीषहभेदनिरूपणम् २१३ कर्मोदया निगडवन्धनवशीकृतत्वात् परतन्त्राः मन्तो नैमा गच्छन्तीति पर्या कोचनतो दर्शन परीषहजयो भवति । अथवा-तत्रैव मालोचयेत् पुण्प-पापात्मको खलु धर्माऽधमौं यदि कर्मरूपौ-पुद्गलात्मको वर्तेते तदा-तयोः कार्य दर्शनादनुमातव्यत्वं वर्तते, यदि पुनः क्षमा क्रोधादिको धर्माऽधर्मोंस्तः तदा-स्वानुभवत्वात् आत्मपरिणति स्वरूपत्वात प्रत्यक्षविरोधः, देवश्वाऽत्यन्तरतिसुग्वासक्त वाद-दुष्पभानुभावाच्च न दृष्टिगोचरा भवन्ति नारकाः पुन स्तीव्र वेदनातीः पूर्वकृतकर्मोदयनिगडबन्धनवशीकृतत्वात् परतन्त्राः सन्तो नैका गमिष्यन्तीति कारण तथा दुष्षम काल के प्रभाव के कारण यहां आते नहीं हैं । नारक जीव तीव्र वेदना से पीडित रहते हैं, पूर्वकृत कर्म रूपी वेडी के बन्धन में पडे होने के कारण पराधीन हैं, इस कारण वे यहां आ नहीं सक्ते' इस प्रकार का विचार करने से दर्शनपरीषहजय होता है। ___ अथवा ऐसा विचार करना चाहिए-पुण्य और पाप रूप धर्म और अधर्म जब कर्म रूप हैं-पुद्गलात्मक हैं, तो उनके कार्य का दर्शन होता है, अतएव उनका अनुमान किया जा सकता है। अगर धर्म और अधर्म का अभिप्राय क्षमा और क्रोध आदि माना जाय तो स्वानुभव होने से, आत्म परिणति रूप होने से प्रत्यक्षविरोध है । देव रति-सुख में अत्यन्त लीन रहने से तथा दुष्षमकाल के प्रभाव से दृष्टिगोचर नहीं होते, नारक जीव तव्र वेदना से पीडि र रहते हैं, वे पूर्वकृत कर्म रूपी घेडी के बन्धन में पडे रहने के कारण परतन्त्र हैं, इस कारण वे यहां आ રતિ-સુખમાં આસકત રહેવાના કારણે તથા દુષમકાળના પ્રભાવથી અહીં આવતા નથી. નારકીના છ તીવ્ર વેદનાથી પીડિત રહે છે, પૂર્વકૃત કર્મરૂપી જંજિરના બજૂનમાં જકડાયેલા હોવાને લીધે પરાધીન છે, આ કારણથી અહીં આવી શકતા નથી આ પ્રકારને વિચાર કરવાથી દર્શનપરીષહજય થાય છે. અથવા આ પ્રમાણે વિચારવું જોઈએ-પુણ્ય અને પાપ રૂપ ધર્મ અને અધમ જ્યારે કર્મરૂપ છે- પુદ્ગલાત્મક છે–ત્યારે તેમના કાર્યનું દર્શન થાય છે આથી તેમનું અનુમાન કરી શકાય છે. જે ધર્મ અને અધર્મને અર્થ ક્ષમ અને ક્રોધ વગેરે માનવામાં આવે તે સ્વાનુભવ હેવાથી, આત્મપરિણતિ રૂપ હોવાથી પ્રત્યક્ષ વિરોધ છે ! દેવ રતિ-સુખમાં અત્યન્ત લીન રહેવાથી તથા દુષમકાળના પ્રભાવથી દષ્ટિગોચર થતાં નથી, નારક તીવ્ર વેદનાથી પીડિત હોય છે, તેઓ પૂર્વકૃત કર્મ રૂપી બેડીના બન્ધનમાં પડ્યા હોવાથી Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस समालोचयतः खलु दर्शनपरीषहजयो भवति । इति, तथा चैतान् द्वाविप्रति विधान्- परीपहान् सहमानस्याऽसंक्लिष्टचित्तस्य रागादि परिणामासानिरोधात् संवरो भवतीतिभावः ॥८॥ - मूलम्-तत्थ च उस परिसहा सुहुमसंपराय छउमस्थः वीतरागाणं-॥९॥ छाया-तत्र चतुर्दशपरीपहाः सूक्षप्रसम्रराय-छमस्थवीतरागयोः-॥९-. तत्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे-सुत्पिपासादयो द्वाविंशतिः परीषहाः प्ररूपिता, सम्प्रति-तेषु केषां जीवानां कियन्तः परीपहाः सम्भवन्तीति प्ररूपयितुमाह-तत्य चउद्दल परीसहा-' इत्यादि, तब-पूर्वोक्तस्वरूपेषु द्वाविंशति विधेषु, क्षुपिपानहीं सकते, ऐमा विचार करनेवाला दर्शनपरीषह विजय करता है। ___ इस प्रकार जो वाईस परीषहों को सहन करता है, जिसके चित्त में संक्लेश-नहीं होता, वह रागादि परिणाम रूप आस्रव का निरोध करके संवर प्राप्त करता है.॥८॥ . . . 'तत्य चउद्दसपरीसहा' इत्यादि। . --सूत्रार्थ--पूर्वोक्त वाईस परीषहों में से सूक्ष्मसम्पराय और छम स्थवीतराग को चौदह परीषह होते हैं ॥९॥ - तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्र में क्षुधा पिपासा आदि वाईस परीषहों को पापणा की गई, अब यह प्ररूपणा करते हैं कि उनमें से किन 'जीवों को कितने परीपह होते हैं जिनका स्वरूप पहले कहा जा चुका है, उन क्षुधा पिपासा आदि પરતંત્ર છે, આ કારણે તેઓ અત્રે આવી શકતાં નથી, આ પ્રમાણે વિચાર કરનાર દર્શનપરીષહ વિજય પ્રાપ્ત કરે છે. છે. આવી રીતે જે બાવીસ પરીષહોને સહન કરે છે, જેના ચિત્તમાં અંકલેશ થતો નથી, તે રાગાદિપરિણામ રૂપ આસવને નિરોધ કરીને સંવર પ્રાપ્ત કરે છે. ૮ - 'तत्थ चउद्दसपरीसहा' या વાર્થ–પૂર્વોક્ત બાવીસ પરીષહેમથી સૂમસામ્પરાય અને છઘરથ વીતરાગને ચૌદ પરીષહ હોય છે. ૧૯ તવાર્થદીપિકા-પૂર્વસૂત્રમાં સુધા પિપાસા વગેરે બાવીસ પરષોની પ્રરૂપ કરવામાં આવી હવે એ પ્રરૂપણ કરીએ છીએ કે તેમાંથી કયા જીને કેટલાં પરીષહ હોય છે– " જેમનું રવરૂપ અગાઉ કહેવામાં આવી ગયું છે તે સુધા પિપાસા આદિ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ ० ९ जीवानां कतिपरीषदसम्प्रवः सादि परीषहेषु चतुर्दशमकाराः परीषहाः सूक्ष्मसम्परायास्थवीतरागयो। सम्भवन्ति । सूक्ष्मसम्परायो लोमाख्यः कषायो यस्यासौ सूक्ष्मसम्परायः) सूक्ष्मलोभपरमाणुसमात्रात् न- वीतरागत्वं प्राप्तो दशमगुणस्थानवर्ती शमीक्षपकोवा संवतो मूलोत्तरगुणसम्पन्नः सूक्ष्यसम्परायः, छद्मनि ज्ञानावरणीयादि घांति कर्मचतुष्टये तिष्ठतिती छद्मस्थः सचासौ वीतरागथेति छद्मस्थवीतरागी, अन्तर्मुहूर्तेन समुत्पद्यमान केवलज्ञानः क्षीणकषायः क्रमेण - एकादशे - द्वादशे गुण स्थाने वर्तमानः भ्रमणः छद्मस्थवीतरागो व्यपदिश्यते । तथा च- सूक्ष्मसंम्प रायस्य शमकस्य-क्षपकस्य वा द्विविधस्यैकादश-द्वादशगुणस्थानवर्तिनः छद्मस्थ वाईस परीषहों में से चौदह परीषह सूक्ष्मसाम्पराय और छद्मस्थवीतराग में पाये जाते हैं। जिस जीव में सम्पराय अर्थात् लोभ कंपार्थ का सूक्ष्म अंश ही शेष रह जाता है, वह दशम गुणस्थानवर्ती उपशमके अथवा क्षपक मुनि सूक्ष्म सम्पराय कहलाता है। जो छद्म में अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि चार घातिक कर्मों में स्थित हो, वह छद्मस्थः कहलाता है । छद्मस्थ होते हुए भी जो वीतराग हो चुका हो अर्थात् Err घातक कर्मों में से मोहनीय कर्म का जिसने पूर्णरूप से उपशम अथवा क्षय कर दिया हो, वह छद्मस्थवीतराग कहलाता है । तात्पर्ययह है कि ग्यारहवें और बारह वे गुणस्थान वाले मुनि को उद्मस्थवीतराग कहते हैं । ग्यारहवें गुणस्थान में उपशमश्रेणी करने वाला ही जाता है । मोहनीय कर्म का पूर्ण उपशम हो जाने से, देश मात्र भी उदय न रहने से, वह उपशान्त मोह वीतराग कहलाता है । क्षपक ખાવીસ પરીષહેામાંથી ચૌદ પરીષહ સુક્ષ્મસમ્પરાય અને છદ્મસ્થ વીતરાગમાં જોવા મળે છે. જે જીવમાં સમ્પરાય અર્થાત્ લાભકષાયના સૂક્ષ્મ અર્થાંશ જ ખાકી રહી જાય છે, તે દશમાશુચુસ્થાનવત્તી' ઉપશમક અથવા ક્ષેપક ક્રુતિ સૂક્ષ્મસમ્પરાય કહેવાય છે. જે છદ્મમાં અર્થાત્ જ્ઞાનાવરણીય આદિ ચાર ઘાતી કર્મોમાં સ્થિત છે તે છદ્મસ્થ કહેવાય છે છદ્મસ્થ હોવા છતાં પણ જે વીત-રાગ થઈ ચૂકયા હાય અર્થાત્ ચાર ઘાતી કર્મોંમાંથી માહનીય કમ ના જેણે પૂર્ણ રૂપથી ઉપશમ અથવા ક્ષય કર્યાં હાય, તે છદ્મસ્થ વીતરાગ કહેવાય, છે. તાપય એ છે કે 'અગીયારમાં અને - ખારમાં ગુણુસ્થાનવાળા મુનિને છદ્મસ્થ વીતર ગ કહે છે. અગીયારમાં ગુણસ્થાનમાં ઉપમ શ્રેણી કરનાર જ જાય છે. મેાહનીય કર્મોના પૂર્ણ ઉપશમ થઈ જવાથી, લેશમાત્ર પણ ઉય ન રહેવાથી, તે ઉપશાન્ત માહ વીતરાગ કહેવાય છે. ક્ષપકન્નેશી - - - રાખ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र धीतरागस्य च क्षुत्पिपासाशीतोष्णदशमशकचर्या प्रज्ञाऽज्ञाना-ऽलाभ' शय्या वध रोग तृणस्पर्श मलरूपा श्चतुर्दशपरीपहाः सम्भवन्ति । अथ-उमस्थ वीतरागस्य मोहनीयाभावेना-ऽचेलरति सी निषघाऽऽक्रोशयाचनासत्कारपुरस्कार दर्शन रूपाष्ट परीषहाभावात् उपयुक्त चतुर्दश परीपहनियमवचनस्य सद्भावेऽपि सक्षममाम्परायिकस्य मोहनीयसद्भावा दचेलादि परीपहाणामपि सम्मवेन चतुर्दथे तिनियमो नोपपद्यते इतिचेद-? अत्रोच्यते-सूक्ष्मसाम्पराये केवललोभसंज्वलन श्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान से सीधा बारह वें गुणस्थान में पहुंचता है, उस समय मोह का सर्वधा क्षय हो जाने से वह क्षीणकषाय वीतराग होता है। मगर इन दोनों गुणस्थानों में ज्ञानावरण आदि तीन घातिक कर्म विद्यमान रहते हैं, अतएव केवल ज्ञानदर्शन की प्राप्ति नहीं होती, इस कारण वह छद्मस्थ कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जो महामुनि दसवें, ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थान में विद्यमान होते हैं, उनको चौदह परीषह हो सकते हैं। वे चौदह परीषह ये हैं-(१) क्षुधो (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (६) दंशमशक (६) चर्या (७) प्रज्ञा (८) अज्ञान (९) अलाभ (१०) शय्या (११) वध (१२) रोग (१३) तृणस्पर्श (१४) मल। __ शंका-छद्मस्धवीतराग में मोहनीय कर्म का अभाव होने से अचेल, अति, स्त्री, निषद्या, भाकोश, याचना, सत्कार पुरस्कार और दर्शन परीषह ये आठ परीषह नहीं होते, इस कारण चौदह परीषहों જૈવ દશમાં ગુણસ્થાનથી સીધે બરમાં ગુણસ્થાનમાં પહોંચે છે, તે સમયે મોહને સર્વથા ક્ષય થઈ જવાથી તે ક્ષીણષાય વીતરાગ હોય છે, પરંતુ, આ બને ગુણસ્થાનેમાં જ્ઞાનાવરણ આદિ ત્રણ ઘનઘાતિ કર્મ વિદ્યમાન રહે છે આથી કેવળદર્શનની પ્રાપ્તિ થતી નથી, એ કારણે તે છદ્મસ્થ કહેવાય છે. * તાત્પર્ય એ છે કે જે મહામુનિ દસમાં, અગીયારમાં અને બારમાં ગુરુસ્થાનમાં વિદ્યમાન હોય છે, તેમને ચૌદ પરીષહ હેઈ શકે છે. આ ચોદ ५शेष मा प्रमाणे छे-(१) क्षुधा (२) पिपासा (3) टा. (४) त? (५) शमश: (९) यर्या (७) प्रज्ञा (८) अज्ञान (0) असम (१०) शय्या (11) qध (१२) २ (१३) तृ५५श (१४) मत શંકા-ઇવસ્થ વીતરાગમાં મેહનીય કર્મનો અભાવ હોવાથી અચેલ, અરવિ શ્રી, નિષદ, આક્રોશ, યાચના, સર પુરસ્કાર અને દર્શનપરીષહ એ આંઠ પરીષહ લેતા નથી એ કારણે ચૌદ પરીષહે હેવાનો નિયમ બરાબર Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका नियुक्ति टीका अ.७ सू. ९ जीवानां कतिपरीषहसम्भवः नाकातपराषहसम्भव: २१७ कपायोदयस्याऽतिसूक्ष्मस्य सन्मात्रत्वात्-तस्यापि वीतराग छद्गस्थ तुल्यत्वात् उपर्युक्त चतुर्दश परीषह स्तत्रापि सन्तीति 'चतुर्दश' इति नियमरतत्राप्युपपद्यते । अथैवमपि-मोहोदयसहायाभावात्-मन्दोदयत्वाच्च क्षुत्पिपासादि वेदनाभावात् तत्सहनकतपरीषह व्यपदेशो न युज्यते इति चेन्मैवम्-३ सर्वार्थसिद्ध देवस्याऽधः के होने का नियम ठीक है, किन्तु मूक्ष्म सम्पराम मोहनीय कर्म का सद्भाव रहता है, अतः उसमें अचेल आदि परीषह का भी संभव है। ऐसी स्थिति में वहां चौदह होने का नियम किस प्रकार बन सकता है? समाधान-सूक्षम साराय में केवल संज्वलनलोभ कषाय काही सद्भाव रहता है और वह भी अत्यन्त सूक्ष्म होता है, इस कारण वह भी वीतरागछद्मस्थ के ही समान है। अभिप्राय यह है कि पूर्वोक्त अचेल आदि आठ परीषह मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं, यह सत्य है और यह भी सत्य है कि दसवें गुणस्थान में लोहनीय कर्म का उद्य रहता है, मगर स्मरण रखना चाहिए कि वहां उदित रहने वाला मोह अत्यन्त सूक्ष्म होता है और सक्षम होने के कारण इतना असमर्थ हो जाता है कि परीषहों को उत्पन्न करने में वह समर्थ नहीं रह जाता। इस कारण वहाँ चौदह परीषहों का जो विधान किया गाया है, वह उचित ही है। છે, પરંતુ સૂમસરાયમાં મોહનીય કર્મનો સદ્ભાવ હોય છે, આથી તેમાં અચેલ આદિ પરીષહ પણ સંભવીત છે. આવી સ્થિતિ ત્યાં ચૌદ પરીષહ હવાનો નિયમ કઈ રીતે હોઈ શકે ? સમાધાન-સૂમસમ્પરાયમાં કેવળ સંજવલન લેભ કષાયને જ સદુભાવ રહે છે અને તે પણ અત્યન્ત સૂક્ષ્મ હોય છે, આથી તે પણ વીતરાગ છદ્મસ્થની સમાન જ છે. સારાંશ એ છે કે પૂર્વોક્ત અચેલ આદિ આઠ પરીષહ મોહનીય કર્મના ઉદયથી થાય છે. આ સત્ય છે અને એ પણ એટલું જ સત્ય છે કે દેશમાં ગુરુસ્થાનમાં મેહનીય કમનો ઉદય રહે છે, પરન્ત યાદ રાખવું ઘટે કે ત્યાં ઉદિત રહેતો મોહ અ યન્ત સૂક્ષમ હોય છે અને સૂમ હોવાના ક ર એટલે અસમર્થ થઈ જાય છે કે પરીષહાને ઉત્પન્ન કરવામાં તેની શક્તિ રહેતી નથી આથી ત્યાં ચૌદ પરીષહેનું જે વિધાન કરવામાં આવ્યું છે તે યથાર્થ જ છે. . 1-240 स्वीn a त ५५] माह मना यिनी सहायता न મળવાથી અને મદ ઉદય હોવાના કારણે બુધ-પિપાસા આદિ ની વેદના ન त २४ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत् छद्मस्थ वीतरागादीनामपि क्षुत्पिपासादि सहनशक्तिमात्रस्य पदर्शितत्वादिति दिकू ॥९॥ . .सस्वार्थनियुक्ति:--पूर्व तावत्-संवरदे तुतया प्रतिपादिताना परीपहाणां क्षुत्पिपासादीनां स्वरूपं-भेदाश्च रूपिताः, सम्पति-काखलु परीपहः ? कस्य केषु च गुणस्थानेषु सम्भवतीति क्रमशः प्ररूपयितुमाह-'तत्य चउपस परीसहा -सुहमसंपराय छ उमक्ष वीतरागाणं-' इति, तत्र-पूर्वोक्त स्वरूपेषु क्षुपिया सादिषु द्वाविंशति प्रकारेषु परीपहेपू मध्ये चतुर्दशपरीपहाः क्षुत्पिपासा शीतोष्ण दंशमशक चर्यामज्ञाऽपज्ञालाभशयावधरोगतृणस्पर्शमलरूपाः सूक्ष्मसाम्पराय ; शंका-यह मान लिया जाय तो भी मोह कर्म के उदय की सम. -यता न मिलने के कारण और मन्द उदय होने के कारण क्षुधा विपासा आदि की वेदना न होने से क्षुधा पिपासा आदि से होने वाले परीपह कैसे कहेजा सकते हैं ? समाधान- ऐसा न कहो, जैसे सर्वार्थसिद्ध विमान के देव में सप्तम पृथ्वी तक गमन करने का सामर्थ्य कहा जाता है, उसी प्रकार छमस्थवीतराग आदि में क्षुधा-पिपासा आदि के उत्पन्न होने की शक्ति मात्र प्रदर्शित की गई है ॥९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले परीषजय को संवर का हेतु बतलाया गया था, अतएव क्षुधा पिपासा आदि परीषहों के स्वरूप और उनके भेदों का निरूपण किया गया। अब अनुक्रम से यह प्रतिपादन करते है कि कौनसा परीषह, किन गुणस्थानों में किस जीव को, होना है ? पूर्वोक्त क्षुधा पिपासा आदि वाईस परीषहों में से चौदह परीषह अर्थात )१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उषण (५) दंशमशक રહેવાથી ક્ષુધા પિપાસા આદિથી થનારા પરીષહ કઈ રીતે કહી શકાય છે - : સમાધાન-આમ કહેવું ઠીક નથી, જેમ સર્વાર્થ સિદ્ધ વિમાનના દેવમાં સાતમી પૃથ્વી સુધી ગમન કરવાનું સામર્થ્ય કહેવામાં આવે છે, તે જ રીતે ક્ષુધા- પિપાસા આદિના ઉત્પન્ન થવાની શક્તિ માત્ર પ્રદર્શિત કરવામાં આવી છે. લા તત્ત્વાર્થનિર્યુકિત-આ પહેલા પરીષહજયને સંવરનું કારણ બતાવવામાં આવ્યું હતું આથી સુધા પિપાસા આદિ પરીષહના સ્વરૂપ તથા તેના ભેદનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે અનુક્રમથી એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ કે કયા પરીષહ, કયા ગુણસથાનમાં, કયા જીવને થાય છે? પૂર્વોક્ત સુધા પિપાસા આદિ બાવીસ પરીષહેમાંથી ચૌદ પરીષહ અર્થાત *(१) क्षुधा (२) पिपासा (3) ८८ (४) । (५) शमश: (१) र्या (७) प्रज्ञा (८) महान (6) मसास (१०) शय्या (११) १५ (१२) माग Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -33 दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ २. ९ जीवानां कतिपरीषहसम्भवः छद्मस्व वीतरागयोः सम्भवन्ति । तत्र-क्षुत्पिपासादीनां चतुर्दशानामपि परीपहाणां हेतुभूतस्य लोभाख्य कषायरूपसम्परायस्य बादराणि खण्डानि. नवमे गुणस्याने परिशाटितानि भवन्ति । किन्तु-दशमे गुणस्थाने तद्धेतुभूतसूक्ष्मलोभकषायपरमाणवो वेद्यन्ते तस्मात्-सूक्ष्मसम्परायसंयते, छद्मस्थवीत- . रागासंयते चोपयुक्ताश्चतुर्दशपरीपहा भवन्ति । तत्र-सूक्ष्मसम्परायो लोभ । कपायो यस्य. स सूक्ष्मसम्परायः, ज्ञानावरणीयादि घातिकर्मचतुष्टयरूपम्। तस्मिन् स्थित श्छमस्थः वीतो-व्यपगतो रागो दर्शन- मोह, चारित्र-मोहेरूप , (६) चर्या (७) प्रज्ञा (८) अज्ञान (९) अलाभ (१०) शय्या (११) वध'', (१२) रोग (१३) तृणस्पर्श और मल परीषह सूक्ष्मसाम्पराय और.. छमस्थवीनराग में होते हैं । क्षुधा पिपासा आदि चौदह परीषहों काकारण मोहनीय कर्म है । मोहनीय कर्म का अनुक्रम से क्षय या उपशम करता हुआ जीव जब नौवे अनिवृत्तिकरण नामक गुणस्थान में पहु . चता है तो वहाँ शेष रहे हुए संज्वलन कषाय के लोभ रूप मोहनीय . कर्म के बादराखंडों का क्षय या उपशम कर देता है। दशम गुणस्थान" में वक्ष्म लोभ कषाय मात्र का ही वेदन होता है। ऐसी स्थिति में - मोहनीय कर्म के द्वारा उत्पन्न होने वाले आठ परीषह वहीं संभव नहीं - होते, अतएव सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में पूर्वोक्त चौदहः । परीषह ही होते हैं। जिस जीव में या जीव की जिस अवस्था में सूक्ष्म ही सम्पराय अर्थात् कषाय शेष रह जाता है, उसे सूक्ष्मसम्पराय कहते हैं। ज्ञाना (13) तृj२५२ मते (१४) भरपरीष सूक्ष्भसा-५२राय अने छनस्थ वातરાગમાં હોય છે. યુવા-પિપાસા આદિ ચૌદ પરીષહેનું કારણ મોહનીય કર્મ છે. મોહનીય કમનો અનુકમથી ક્ષય અથવા ઉપશમ કરતો થકે જીવ જ્યારે નવમાં અનિવૃત્તિકરણ નામના ગુણસ્થાનમાં પહોંચે છે તે ત્યાં બાકી રહેલા સંજવલન કષાયના લેભ રૂપ મેહનીય કર્મના બાદર ખાને ક્ષય અથવા ઉપશમ કરી નાખે છે. દશમા ગુરુસ્થાનમાં સૂક્ષણ લેભકષાય માત્રનું જ વેદન થાય છે. આવી સ્થિતિમાં મોહનીય કમ દ્વારા ઉત્પન્ન થનારા આઠ પરીષહ ત્યાં સંભવી શકતા નથી આથી સૂમસામ્પરય નામના દશમાં ગુણસ્થાનમાં અને ઇધસ્થ વીતરાગ નામના અગીયાર ગુણસ્થાનમાં પૂર્વોક્ત દ.પરીષહ જ હોય છે. , જે જીવમાં અથવા જીવની જે અવસ્થામાં સૂકમ જ સમ્પરાય અથત કષાય શેષ રહી જાય છે. તેને સૂમસમ્પરાય કહે છે તે જ્ઞાનાવરણ આદિ - - - - Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थो सकलमोहोपशमात् तथाविध समस्त मोहक्षयाच्च यस्य स वीतरागः क्रमश: एकादशगुणस्थानवर्ती द्वादशस्थानवी च सं तिः श्रमणः परिग्राम:, छास्थ .. श्वाऽसौ वीतरागश्चेति छमस्थवीतरागः तयोः खलु-क्षमसम्पराय छनस्थवीत. रागयोः श्रमणयो रुपयुक्ताः क्षुत्पिपासादय चर्दिश परीषहाः सम्भवन्ति नत्व चेलारति स्त्रीनिषद्याऽऽक्रोश याचनासत्कारपुरस्कारदर्शनरूपा अष्टौ परीषहाः, . छद्मस्थवीतरागस्य मोहनीयाभावात्-मक्ष्मसाम्परायमोहोदय सद्भावेऽपि केवलं. ' लोभसंजालनकपायोदयस्याऽति मृतस्यैव सत्त्वेन तस्यापि छद्मस्थवीतराग, तुल्यत्वात् । परमार्थतस्तु-तदुभयोरेव क्षुत्पिपासादि चन्देश परीपइसहनशक्ति धरणं आदि कर्म 'छद्म' कहलाते हैं, उनमें जो स्थित हो वह 'छमस्य' ' कहा जाता है। जिसका राग अर्थात् दर्शनमोह और चारित्रमोहन मोह-उपशान्त या क्षीण हो चुका हो-वीत गया हो, वह वीतराग कह लाता है । ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में स्थित श्रमण छद्मस्थः वीतराग कहलाता है, क्योंकि ज्ञानावरणीय आदि तीन घाति कर्म उसके विद्यमान होते हैं, अत: वह छद्मस्थ है और मोहनीय कर्म का उदय न होने से वीतराग कहलाता है। इन सूक्ष्मसम्पराय और छमस्थ . धीतराग मुनियों में क्षु वा पिपासा आदि चौदह परीषह का संभव होते हैं। इनमें अचेल, पति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार पुरस्कार और दर्शन, ये आठ पीषह नहीं होते, क्यों कि छद्मस्थ वीतराग जीव मोहनीय कर्म के उदय से रहित होता है और सूक्ष्म मम्पराप में यद्यपि मोह का उदय रहता है किन्तु केवल सूक्ष्म संज्वलन કર્મ “છઘ' કહેવાય છે, તેમાં જે સ્થિત છે તે જ કહેવાય છે. જેના રાગ ' અર્થાત્ દર્શન અને ચારિત્રમેહ રૂપ મોહ ઉપશાન્ત અથવા ક્ષીણ થઈ ગયા હોય-વીતી ગયા હોય તે વીતરાગ કહેવાય છે. અગીયારમાં અને બારમાં ગુણરથાનમાં સ્થિત શ્રમણ છદ્મસ્થ વીતરાગ કહેવાય છે કારણ કે જ્ઞાનાવરણીય - આદિ ત્રણ ઘાતિ કર્મ તેના વિદ્યમાન હોય છે. આથી તે છદ્મસ્થ છે અને મેહનીય કર્મને ઉદય ન થવાથી વીતરાગ કહેવાય છે. આ સૂમસમ્પરાય અને છથ વીતરાગ મુનિયામાં સુધા પિપાસા આદિ ચૌદ પરીષહ હાઈ श, छे. मामा मये, मति, स्त्री, पद्या माश, यायना, सा२: પુરસ્કાર અને દર્શન એ આઠ પરીષહ હોતાં નથી કારણ કે છશ્વસ્થ વીતરાગ જીવ મેહનીય કર્મના ઉદયથી રહિત થાય છે અને સૂક્ષ્મસમ્પરાયમાં જે કે મહિને ઉદય રહે છેઆથી તે પરીષહોને ઉત્પન્ન કરવામાં સમર્થ થતું નથી આથી સૂમસમ્પરાય જીવ પણ છદ્મસ્થ વીતરાગ જે જ ગણાય, Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका नियुक्ति टोका अं.. सू. १० भगवतोऽहंत्येकादशपरीषहाः २२१ मात्रस्यैव प्रदर्शने तात्पर्य वर्तते, ननु तथाविधपरीषहसह ने सर्वार्थ सिद्ध देवस्याधः . सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यवर्णनवत्, इतिभावः। उक्तश्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवधी सूत्रे ८-शतके ८-उद्देशके ३४३ सूत्र-'एकविह बंधगस्स णं भंते ! वीयराग.. छउमस्थस्स कतिपरीसहा पण्णत्ता ? गोयमा! चोदम परीसहाँ । पगत्ता-' इति एकविधवन्धकस्य खल्लु भदन्त ! बोतराग छद्मस्थस्य कतिपरीपहा: प्रज्ञता ? गौतम ! चतुर्दश परीपहा: प्रज्ञप्ताः इति ॥९॥ मूलम्-अरिहंते एगारस परीसहा ॥१०॥ छाया--'अति-एकादश परीपहा:-॥१० तत्वार्थदीपिका-- पूर्वमुत्रे सूक्ष्वसम्परायस्य शमकस्य-क्षपकस्य वा संपत' लोभ का ही उदय रहता है, अतएव यह परीषदों को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता। इस कारण सूक्ष्ममम्पराय जीव भी छद्मस्थवीतराग के ही समान है। तथ्य तो यह है की सूक्ष्मपराय और छद्मस्थवीतराग मुनि में जो चौदा परोषहों का सद्भाव कहा गया है, वह योग्यता मात्र की अपेक्षा से ही समझना चाहिए, जैसे सर्वार्थ सिद्ध विमान के देव में । नीचे सातवीं पृथ्वी तक गमन करने की योग्यता का वर्णन किया । जाता है । व्याख्या प्रज्ञप्तिमूत्र के आठवें शतक के आठवें उद्देशक मैं कहा है- एक प्रकार की कर्म-प्रकृति का अर्थात् सिर्फ वेदनी र कर्मको पाँध करने वाले में, भगवन् ! कितने परीषह होते हैं? - उत्तर-हे गौतम ! चौदह परीषह कहे गए हैं ॥१॥ अरिहते एगारसपरीसहा' सूत्रार्थ – अन्त में ग्यारह परीषह होते हैं ॥१०॥ સત્ય તે એ છે કે સૂમસમ્પરાય અને સ્વસ્થ વીતરાગ મુનિમાં જે ચૌદ પરીષહેને સદ્ભાવ કહેવામાં આવ્યું છે. તે ચોગ્યતા માત્રની અપેક્ષાએ જ સમજવું જોઈએ, જેવી રીતે સર્વાય સિદ્ધ વિમાનના દેવમાં નીચે સાતમી પૃથ્વી સુધી ગમન કરવાની તેનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રના આઠમાં શતકના આઠમાં ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે–એક પ્રકારની કર્મપ્રકૃતિનું અર્થાત માત્ર વેદનીય કર્મનું કરનારામાં, ભગવન કેટલા પરીષહ હોય છે? ઉત્તર-હે ગૌતમ ! ચૌદ પરીષહ કહેવામાં આવ્યા છે 'अरिहते एगारसपरीसहा त्यात સૂવાથ—અહંતમાં અગીયાર પરીષહ હોય છે. ૧૦ -- - - - - Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३. तार्थ सर्व छद्मस्थवीराजस्य च संयतस्य क्षुत्पिपासादय चतुर्दशपरीपहाः सम्भवन्तीति । प्ररूपितम् सम्प्रति भगवतोऽर्हतो जिनस्य एकादश परीषा भवन्तीति प्ररूपविर तुमाह-अहि ते एगारस परीसहा - इति, अर्हति भगवति जिनेश्वरे वीतरागे निरस्त कर्मचतुष्टये केवलज्ञ। निनि वेदनीयकर्मसद्भावात् तदाश्रवाःः क्षुत्पिपासाशीतोष्ण दंशमशकचर्या शय्यावघरोगतृणस्पर्श मलरूपा एकादश परी पहाः सम्भवन्ति । तथा च भवस्थकेवलिनः केवलं वेदनीयकर्म सद्भावाद - शेत्र कर्मकारणाभावाच्च वेदनीयकर्म मूलका एवोपयुक्ताः क्षुपिपासादयो एकादश परीषदा भवन्ति त्रयोदश- चतुर्दशगुण स्थानयोरेव जिनत्व सम्भवात् ॥१० f * तत्वार्थदीपिका - उपशमश्रेणी वाले और क्षपकश्रेणीवाले सूक्ष्मसम्पराय संपत में तथा छद्मस्थवीतराग संयत में चौदह परीषद प्र सकते हैं, यह पहले कहा जा चुका है, अब अर्हन् अर्थात् जिन भगवानः में ग्यारह परीषह होते हैं, यह प्ररूपणा करते हैं समस्त घाति कर्मों का क्षत्र कर देने वाले, केवलज्ञानी भईन्त भगवान् जिनेश्वर में वेदनीय कर्म का सदभाव होने से तज्जनितः ग्यारह परीषह होते हैं, जो इस प्रकार हैं- (१) क्षुधा (२) पिपासा (३): शीन (४) उग (५) दंशमशक (६) चर्या (७) शय्या (८) वध (९) रोग: (१०) तृणस्पर्श और (११) मल | 7 इस प्रकार भवस्थ केवली में वेदनीय कर्म का सद्भाव होने से और परीषहजनक शेष कर्म विद्यामान न होने से, वेदनीय कर्मजनितः તત્વાથ દીપિકા-ઉપશમશ્રેણીવાળા અને ક્ષપકશ્રેણીવાળા સૂમસમ્પરાય સયતમાં તથા છદ્મસ્થ વીતરાગ સયતમાં ચૌદ પરીષહ હાઇ શકે છે એ પહેલા કહેવાઈ ગયું છે હવે અન અર્થાત્ જિન ભગવાનમાં અગીયાર પરીષહુ હાય છે, અની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ--- સમરત ઘાતિ કર્મના ક્ષય કરવાવાળા, કેવળજ્ઞાની અર્જુન્ત ભગવાન્ જિનેશ્વરમાં વેદનીય કર્માંના સદ્ભાવ હાવ થી તજજ્જનિત અગીયાર પરીષહુ હાય ४. वे या मुल्य छे- (१) क्षुधा (२) पिपासा ( 3 ) शीत (४) उष्य (च) : शमश (१) यर्या (७), शय्या (८) १६ (८) रोग (१०) तृणुस्पर्श भने (११) भस.આ રીતે ભવસ્થ કેવળીમાં વેદનીય કર્મના સદ્ભાવ હૈાવાથી અને પરીષહજનક શેષ કમ વિદ્યમાન ન હેાવાથી, વેદનીય ક્રમ જનિત અગીયાર પરીષહુ જ હાઈ શકે છે. તેરમાં અને ચૌદમાં ગુરુસ્થાનવી સા સદા અને અનન્ત-ચતુષ્ટ થી સમ્પન્ન અર્હન્ત જ હકીકતમાં-જિન છે. ૧૦ના Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ रु. १० भगवतोऽहत्येकादशपरीषहाः ४२२३ ___ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत् संवरहेतुतया प्रतिपादितेषु क्षुत्पिपासादि बांविंशति विधेषु परीपहेषु सुक्ष्म साम्परायस्य शमक-क्षपका-ऽन्यतर संयंतस्ये, छमस्थवीतरागसंयतस्य च क्षुत्पिपासादय श्चतुर्दश परीपहा-सम्पति मरूपिताभगवतोऽहंतो जिनेन्द्रस्य एकादशपरी पहाः सम्भवन्तीति प्ररूपयितुमाह-'अरिइंते एगारस परीसहा' इति, अर्हति-भगवति तीर्थकृति-भवस्थ केवलिनि वेदनीय कर्मसभावात् तनिमित्ताः क्षुत्पिपासा शीतोष्णदंशमशकचर्याशय्या विध रोग तणस्पर्श मलरूपा एकादशविधाः परीषहाः सम्मवन्ति । पूर्वोक्तेषु चतु. दशविधेषु प्रज्ञाऽज्ञानऽलामरूपान त्रीन् परीषहान् विहाय क्षुत्पिपासादय एकादश परीपहा भवन्तीतिभावः । ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीयान्तरायेष्वात्यन्तिक ग्यारह परीषह ही हो सकते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवती सर्वज्ञ सर्वदशी एवं अनन्त चतुष्टय से सम्पन्न अर्हन्त ही वस्तुत: जिन हैं ॥१०॥.. . . तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले क्षुधा-पिपासा आदि वाईस परीषहों के जय को संवर का कारण प्रतिपादन किया गाया था । अत: उपशमक एवं क्षपक सूक्ष्मसम्पराय संयत के तथा छदूमस्थ वीतराग.संयंत के क्षुधा पिपासा आदि चौदह परीषहों का सद्भाव बतलाया गया। । अब यह प्ररूपण करते हैं कि अर्हन्त भगवान् जिन में ग्यारह परीषहों की सत्ता होती है'. भवस्थकेवली भगवान् अर्हन्त में वेदनीय कर्म का सद्भाव होने से उसके निमित्त से उत्पन्न होने वाले ग्यारह परीषह हो सकते हैं। पहले जो चौदह परीषहों के नामों का उल्लेख किया गया है, उनमें से प्रज्ञा, अज्ञान और अलाभ, इन तीन परीषहों को छोडकर क्षुधा पिपासा आदि ग्यारह परीषम होते हैं। તત્વાર્થનિર્ચકિત- પહેલા ક્ષુધા-પિપાસા આદિ બાવીસ પરીષહેના વિજયેને સંવરના કારણ તરીકે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલું છે આથી ઉપશમક અને ક્ષેપક સૂમસમ્પરાય સંયતના તથા છઘરથ વીતરાગ સંતના ક્ષુધા પિપાસા આદિ ચૌદ પરીષાને સદભાવ બતાવવામાં આવ્યો હવે એ પ્રરૂપણ કરીએ છીએ કે અહંત ભગવાન જિનેશ્વરમાં અગીયાર "५रीपानी सत्ता हाय छ ભવસ્થ કેવળી ભગવાન્ અર્હતમાં વેદનીય કમને સદ્ભાવ હોવાથી, તેના નિમિત્તથી ઉત્પન્ન થનારાં અગીયાર પરીષહ હોઈ શકે છે. પહેલા જે ચૌદ પરીષહેના નામે ને ઉલલેખ કરવામાં આવે છે, તેમાંથી પ્રજ્ઞા, અજ્ઞાન અને અલાભ, આ ત્રણ પરીષાને છેડીને, સુધા પિપાસા આદિ અગીયારે ५रीष राय है. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ तखात्रे भयमु गतेषु घातिककर्मसु समुत्पन्न सकल ज्ञेयपदार्था मासि केवलज्ञानातिशयो जिनः खलु केवलीतित्यपदिश्यते तथा च त्रयोदश चतुर्दश गुणस्थानयोः खलु जिनस्वप्नुपपद्यते । उक्तञ्च, व्याख्यामज्ञप्तौ भगवतीमत्रे, ८-शतके ८-उद्देशके ३४३ सूत्रे-'एगविहयंधगस्स णं भंते ! सजोगि भवस्थकेवलिस्ल कति परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा! एक्कारस परीसहा पण्णता, नव पुणवेदेइ, सेसं जहा छब्वियंधगस्स, अयंधगम्स णं भंते ! अजोगि भवस्य केवलिस्प्न कति परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा! एक्कारस परीप्तहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेव, जं समयं सीयपरीमहं वेदेह नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेह, रेवादो नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ, जे समयं चरियापरीसह वेदेह नो तं समयं सेज्जा परिसहं वेदेश जं समयं सेना परिसइं वेदेह नो तं समयं चरियापरीसहं वेदेह-' इति एकविध बन्धकस्य खल भदन्त- सयोगि भवस्य केवलिनः वति परीषहाः प्रताः, गौतम ! एकादशपरीपहाः प्रज्ञप्ता नव पुनर्वेदयति शेष यथा पविधवन्धकस्य, अबन्धकस्य खलु मदन्त-! अयोगि भवस्थ केवलिनः कति परीपहाः प्रज्ञप्ताः-१ गौतम ! एका ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातिया कर्मों का क्षय हो जाने पर जिले समस्त पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञान का अतिशय प्राप्त हो जाता है, वह जिन केवली कह लाता है । तेरहवे और चौदहवें गुणस्थानवती ही केवली जिन कहा लाते हैं। भगवतीसूत्र शतक ८, उद्देशक ८ में कहा है- ' ' 'भगवन् ! सयोगी भवस्थकेवली को कितने परीषह कहे हैं ? ' , - 'गौतम ! ग्यारह परीषह कहे हैं, उनमें से नौ का वेदन होता है, शेष कथन उमी प्रकार समझना चाहिए जैसे छह प्रकार का कम बांधने वाले को विषय में कहा है। ज्ञाना१२३], शानापर, माडनीय भने अन्तराय, मे यार 'पाति કર્મોને ક્ષય થઈ જવાથી, જેને સમસ્ત પદાર્થોને જાણનાર એવા કેવળજ્ઞાનને અતિશય પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. તે જિ.—કેવળી કહેવાય છે. તેમાં અને ચૌદમાં ગુણસ્થાનવત્તી જ કેવળી જિન કહેવાય છે. ભગવતીસૂત્ર શતક ૮, ઉદેશક ૮મા કહ્યું છે “ભગવન્! સગી ભવરથ કેવળીના કેટલા પરીષહ કહ્યાં છે. , “ૌતમ ! અગીયાર પરીષહ કહેવામાં આવ્યા છે એમાંથી નવનું વેદન થાય છે, શેષ કથન તે જ રીતે સમજવાનું છે, જે છ પ્રકારનાં કર્મ બંધ નારાઓના વિષયમાં કહેવામાં આવ્યું છે Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ रु. ११ बादरसंपराये सर्वपरीषहसद्भावः २३५ . दश परीषहाः प्रज्ञप्ता, नव पुनवेदयति यं समयं शीतपरी हं वेदयति नो त समयम् उष्णपरीषई वेदयति, यं लमयं उष्णपरीषहं वेदयति नो से समयं शीतपरी पह वेदयति, यं समयं चर्या पर पहं वेदयति नो तं समयं शरया परीषहं घेदयति, यं समयं शय्या परीषद वेदयति, नो तं समयं चर्यापरीषहं वेदयति इति ॥१०॥ मूलम्-सव्ने परीला बादरसंपराए ॥११॥ छाया-'सर्वे परीपहाः बादर सम्पमाये ॥११॥ 'भगवन् ! धर्म बंध ले रहिन अयोगी अवस्थोवली को कितने , परीषह कहे गए हैं ? 'गौतम ! ग्यारह परीपद कहे गए हैं, उन्नों में एक साथ नौ कावेदन करता है, क्योंकि जिस समय शीत को देना होती है इस समय उष्णवेदना नहीं होती जिस समय उष्ण वेदना होती है उस . समय शीतवेदना नहीं हो सकती । इसी प्रकार जिस समय चर्श परीषह का वेदन करता है उन्ह समय शय्यापरीबह सा वैदन नहीं करता. और जिस समय शय्या परीषह का वेदन करता है उस समय चर्या - परीषद का नहीं करता। इस प्रकार ग्यारह परीषहों से, एक ही समय में एक साथ नौ परीषहों का ही वेदन हो सकता है ॥१०॥ 'सव्वे परीसहाचादर' इत्यादि । सूत्रार्थ-चादर साम्पराध को सभी परीषद होते हैं ॥११॥ ભગવાન ! કર્મબન્ધનથી રહિત અયોગી ભવસ્થ કેવળીને-કેટલા પરીષહ उडेपामा भाव्या छ? ગૌતમ ! અગીયાર પરીષહ કહેવામાં આવ્યા છે, તેમાંથી એકી સાથે ननु वहन थाय छे. ४२ , यारे नी वहना थाय छ त्यारे Gogવેદના થતી નથી, જ્યારે ઉષ્ણવેદના થાય છે ત્યારે શીતવેદના થઈ શકતી નથી. એવી જ રીતે જ્યારે ચર્ચા પરીષહની વેદના અનુભવે છે તે સમયે શય્યા પરીષહનું વદન થતું નથી અને જ્યારે શા પરીષહનું વેદન કરે છે ત્યારે ચર્ચાપરીષહ હોતો નથી, આ રીતે અગીયાર પરીષહામાંથી, એક જ સમયમાં એકી સાથે નવ પરીષહનું જ વેદના થઈ શકે છે ૧૦ 'सव्वे परीसहा बादरसंपराए । સૂત્રાર્થ–બાદર સાપરાયને બધાં પરીષહ હોય છે. ૧૧ त०२९ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ तत्त्वाचे तत्त्वार्थदीपिका पूर्वसूचे-तीर्थबारे भवस्थ केवलज्ञानिनि ज्ञानावरणदर्शनाघरण-मोहनीया-ऽन्तरायरूपघातिकर्मचतुष्टयस्य निरस्ततया केवलं वेदनीयकर्मसद्भावात् तन्निमित्तका क्षुत्पिपासादयः एकादश परीपहा मरूपिताः, एवं-मक्ष्मसाम्परायादिषु व्यस्तरूपेण क्षुत्पिपासादयः परीपहाः यथायथं क्वचिच्चतुर्दशक्यचिदेकादश, इत्येवं रीत्या मरूपिताश्च सम्पति-समरतरूपेण तान द्वाविंशति विधान् परीपहान् एकत्रैव वर्तमानान् प्ररूपयितुमाह-'लम्ने परीसहा संपराये-' इति । बादरसम्पराये-पादर:-स्थूलः, सम्परायः-ऋपायः क्रोध मान माया लोमादिरूपो यस्मिन् गुणस्थाने तद्-वादर सम्परायम्, घोगात्-श्रमणोऽपि वादरसम्पराय शब्देन व्यपदिश्यते, तसिन् खल्ल बादरसम्पराये स्थूल क्रोधादिकपायसहित संयते मुनौ सर्वे-समस्त: क्षुत्पिपसादयो द्वाविंशति संख्ययाः परीपहा भवन्ति । तत्त्वार्थदीपिका-भवस्थ केवल ज्ञानी अर्हन्त भगवान् में ज्ञानाचरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातिक कमों' को अभाव हो जाने के कारण सिर्फ वेदनीय कर्म के निमित्त से उत्पम होने वाले क्षुधा पिपासा आदि ग्यारह परीषह ही होते हैं । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्पराय आदि पृथक्-पृथक रूप से क्षुधा पिपासा आदि परीवह यथायोग्य कहीं चौदह और कहीं ग्यारह होते हैं, यह पूर्वत्रसूत्रों में प्रतिपादन किया जा चुका है, अघ वादर कपायवाले श्रमणों में सभी परीषह हो सकते हैं, यह प्रतिपादन करते हैं जिसमें चादर कषाय विद्यमान हो उसे चादरसम्पराय कहते हैं। इस प्रकार जिन श्रमणों में स्थूल क्रोध आदि कषाय विद्यमान हैं, ऐसे संयतों को क्षुधा पिपासा आदि सभी अर्थात् वाईस ही परीषह हो सकते हैं। यहां 'चादरसम्पराय' शब्द से केवल नौ वें गुणस्थान का તત્તવાથદીપિકા–ભવસ્થ કેવળજ્ઞાની અહંન્ત ભગવાનમાં જ્ઞાનાવરણું, દર્શનાવરણે મોહનીય અને અન્તરાય, એ ચાર ઘાતિક કર્મોને અભાવ થઈ જવાના કારણે માત્ર વેદનીય કર્મના નિમિત્તથી ઉત્પન્ન થનારા સુધા-પિપાસા આદિ અગીયાર પરીષહ જ હોય છે એવી જ રીતે સૂક્ષ્મસામ્પરાય આદિમાં પૃથ–પૃથક્ રૂપથી સુધા પિપાસા આદિ પરીષહ યથાગ્ય કોઈ ઠેકાણે ચોદ તે કઈ ઠેક ણે-અગીયાર હોય છે એવી પ્રરૂપણે પૂર્વસૂત્રમાં થઈ ગઈ છે. હવે બાદર કષાયવાળા શ્રમમાં બધાં પરીષહો હોઈ શકે છે એવું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ જેમાં બાદર કષાય વિદ્યમાન છે, તેને બાદર સમ્પરાય કહે છે આ રીતે જે શ્રમણામાં સ્થળ ક્રોધ આદિ કષય વિદ્યમાન છે એવા સંયતેને સુધા પિપાસા આદિ બધાં જ અર્થાત્ બાવીસ બાવીસ પરીષહ હોઈ શકે છે. અહી બાહરસમ્પરાય શબ્દથી કેવળ નવમાં ગુણસ્થાનને જ ગ્રહણ કરવું જોઈએ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ पू. ११ बोदरसंपराये सर्वपरीषहसद्भावः २२७ तत्र-बादरसम्पराग्रहणेन न केवलं नवममेव गुणस्थानं ग्रहीतव्यम्, अपितुअर्थनिर्देशसामर्थ्यात् प्रमत्तसंयताऽपमत्तसंयतापूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणगुणस्थान: चतुष्टयं संग्राह्यम् । तथा च-प्रमत्तसंपतादिषु अजीर्ण क्रोधादि कषाय दोषत्वात् क्षुत्पिपासादयः सर्वे परीषहाः सम्भवन्ति । एवञ्च-सामायिक च्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धि संययेषु खच चारित्रलक्षणेषु प्रत्येकं सर्वेषामपि क्षुत् पिपासादीनां सम्भवोऽवगन्तव्यः ॥११॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तारत्-यथायथं सक्षमसाम्परायेषु व्यस्ता क्षुत्पि पासादयः परीपहाः प्रतिपादिताः सम्पति-बाद रसम्परायेषु स्थूल क्रोधादि कषाययुक्तेषु प्रमत्तसंयतादिषु एकत्रैव समस्तरूपेण द्वाविंशतिविधान तान् परीषहान् मरूपयितुमाह-सव्वे परीलहा वाद संपराए' इति । बादरसम्पराये बादरः-स्थूल: सम्परायः क्रोधमानमायादि कषायोदयो यस्य तस्मिन्-बादर' ही ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु अर्थ निर्देश के अनुसार प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्व फरण और अनिवृत्तिभरण नामक चार गुणस्थान पाले संयतो का ग्रहण करना चाहिए । इन चारों गुणस्थानों में बादर संज्वलन कषाय का साथ रहता है । अतएव उनको क्षुधा पिपासा आदि सभी परीषह हो सकते हैं। इस प्रकार सामायिक, छेदोपस्थापन और परिहार विशुद्धि चारित्र वालों में सभी परीषहों का सद्भाव समझना चाहिए ॥११॥ ____ तत्वार्थनियुक्ति-पहले सूक्ष्मलम्पराध आदि में क्षुधा पिपासा आदि असमस्न परीषहों का प्रतिपादन किया गया, अब बादर सम्पराय अर्थात् स्थूल क्रोध आदि दाषायों से युक्त प्रमत्तसंयत आदि में सभी-चाईसों-पलीबहों का विधान करते हैंનહીં પરંતુ અર્થનિદેશ અનુસાર પ્રમત્તસંયત, અપ્રમત્તસંવત, અપૂર્વકરણઅને અનિવૃત્તિકરણ નામના ચાર ગુણસ્થાનવાળા સંયતોનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. આ ચારે ગુણસ્થાનમાં બાદર સંજવલન કષ યને સદ્ભાવ રહે છે આથી તેમને ક્ષુધા પિપાસા આદિ બધાં જ પરીષહ થઈ શકે છે. આથી સામાયિક દેપસ્થાપન અને પરિહાર વિશુદ્ધિ ચારિત્રવાળાઓમાં બધાં પરીષાને સદ્ભાવ સમજે. ૧૧ - તત્ત્વાર્થનિયુક્તિ–પહેલાસૂમસમ્પરાય આદિમાં સુધા પિપાસા આદિ અસમસ્ત પરીષહેનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું, હવે બાદર સમ્પરાય અર્થાત્ સ્થૂળ કોધ આદિ કષાયથી યુક્ત પ્રમસયત આદિમાં બધાં બાવીસ પરીષહનું વિધાન કરીએ છીએ= Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२८ तत्त्रास्त्र सम्पराये न केवल लवमगुणस्थानके, अपितु प्रयत्तसंयता-ऽममत्तसंयताऽपूर्वकरणा-ऽनिवृत्तिकरणगुणस्थानचदृष्टयतिनि स्थूलक्रोधादिकपाययुक्ते मुनौ-अक्षीणकपायदोषयात् सर्वे क्षुत्पिपासा शीतोष्णदेशमशकाऽचेलाऽरति स्त्रीचर्या निषवा शरमा-ऽऽक्रोश वध याचनाऽलाम रोग-तृण स्पर्शमलसत्कार पुरस्कारप्रज्ञा-ऽज्ञानदर्शनरूपा द्वाविंशतिपरीपहाः सम्भवन्ति । तत्र-बादर सम्परायः खलु स्थूलक्रोधादिकपायसहितः कभित् संपतो मोहनीयकर्म पकती रुपशमयतीति उपशमको भवति, पुनश्च कश्चित् तथाविध मोहमकती क्षपयतीति क्षपको भवति, तेषु खल वादनसम्परायेषु प्रमत्तसं पतादिषु सर्वेषामेव परीषह जिल में चादर सम्पराय अर्थात् स्थूल रूपाय विद्यमान है, उसको सभी परीषह होते हैं। यहां चादर सम्परार' शब्द से नौ वांगुणस्थान ही अभीष्ट नहीं है किन्तु प्रमत्तसंयत, अपूर्व-करण और अनिवृत्ति करण नामक चार गुणास्थानवाले मुनि ग्रहण किये गये हैं, क्यों कि उन सभी में धादर संज्वलन झापाय विद्यमान रहता है । इन मुनियों के बादर कषाय का क्षय या उपशम न होने से लभी-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंगनाशक, अचेल, अरति, नी, चर्या, निपद्या, शय्या, . आक्रोश, वध, वाचला, अलाभ, रोग, तृगस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और दर्शन, परीपह हो सकते हैं। बादर कपाय वाला कोई संयत मोहनीय कर्म ही कृतियों का उपशम करता है। वह उपशमक कहलाता है। कोई लयत उन मोहनीय प्रतानियों का क्षय करता है। उसे क्षषक कहते है। इन प्रमत्तसंप्रत आदि चादर कषाय वालों में જેમાં બાદર સમ્પરાય અર્થાત્ સ્થૂળ કષાય વિદ્યમાન છે, તેને બધાં જ પરીષહ હોય છે. અહીં “બાદરસમ્પરાય’ શબ્દથી નવમું ગુણસ્થાન જ અભિપ્રેત નથી, પરંતુ પ્રમત્તસંયત, અપ્રમત્તસંયત, અપૂર્વકરણ અને અનિ- વૃત્તિકરણ નામના ચાર ગુણસ્થાનવાળા મુનિ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે, કારણ કે તે બધામાં બ દર સંજવલન કષાય વિદ્યમાન રહે છે. આ મુનિઓના બાદર કષાયના ક્ષય અથવા ઉપશમ ન હોવાથી બધા–ક્ષુધા, પિપાસા, શીત, ઉષણ, शमश:, अन्येस, मति, श्री, व्यर्या, निपधा, शय्या, माटोश, वध, यायना, ARTH, २२, तृणु१५, मस, २४५२-५२२४६२, प्रज्ञा, असान भने शन પરીષહ હોઈ શકે છે. બાદર કષાયવાળે કેઈ સંયત મોહનીય કર્મની પ્રકૃતિઓને ઉપશમ કરે છે તે ઉપશમક કહેવાય છે. કેઈ સંયત તે મોહનીય પ્રકૃતિ એને ક્ષય કરે છે તેને સપક કહે છે આ પ્રમત્ત સંયત વગેરે બાદર કષાય Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ ३२. ११ बोदरसंपराये सर्वपरीषहसद्भाव: २२६ कारणानां ज्ञानावरणाघन्तरायपर्यन्तकर्मणास्-उदय सम्भवात् तेषु प्रत्येकं सर्वेषां द्वाविंशति क्षुत्पिपासादि परीपहाणां सद्भावसंभावना बोध्याः।। उक्तश्च व्याख्याप्रज्ञप्ती भगवतीमत्रे ८-शतके ८-उद्देशके ३४३-सूत्रे 'सत्तविहवंधशस्त भंते ! कति परीसहा पत्ता -गोयबा- बाबीसं परीसहा पण्णत्ता' ! बीसं पुण वेदेव, जं समयं सीय. परीसह वेदेइ-जो तं सप्लयं बलिण परीसह वेदेह, जं समय उसिणपरीसहं वेदेह-जो तं समयं सीध परीसह चेदेइ, जं समयं चरिया परीसहदेह-जोत समय निसीहिया परीसह वेदेइ, जं समयं निसीहिया पतीसह वेदेह-लोतंलमयं चरिया परीसह वेदेह, अढविध बंधगस्त णं भंते कति परीसहा पण्णत्ता-गोषमा-बावीसं परीसहा पण्णत्ता सतविध बन्धकस्य खलु भदन्त-! कति परीषहाः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्वाविंशतिः परीपहा: प्रज्ञप्ता: शिति पुनर्वेदयति, यं समयम् शोहपरीष है वेदथति-सो त समयम् उष्णपरीषहं वेदयति, यं समयम् उष्मपरीहं वेदयति-नो तं समय शीतपरीषहं वेदयति यं समयं चर्यापरीपहं वेदति-नो तं समयं ज्ञानावरण से लेकर अंसरायकर्म तक सभी परीषहों के कारण विद्यमान होते हैं, अतएव उनमें ले प्रत्येक के बाईसों परीषह हो सकते हैं। भगमतीसूत्र के शतक ८, उद्देश ८, में कहा है-'भगवन् ! सात कर्मप्रकृतियों का प्राय करने वाले को किनने परीषह कहे गए हैं?" ___शोनम ! दाईल परीपह कई गए हैं । ऊन से एक साथ बीस का वेदन हो सकता है, क्योंकि जिस समय शीतपरीषह वेदा जाता है, उस समय उनपरीक्षा नहीं देदा जा सकता और जिस समय उष्णपरीष वेदा जाता है उस समय शीतपशीलह नहीं वेदा जा सकना । इसी प्रकार जिल्ला समय चयी परीकह का बेदन होता है उस વાળાઓમાં, જ્ઞાનાવરણથી લઈને અન્તરાય ક સુધી બધા પરીષહના કારણ હાજર હોય છે આથી તેમનામાંથી પ્રત્યેકના બાવીસ પરીષહ હોઈ શકે છે, ભગવતીસૂત્રના શતક ૮, ઉદ્દેશક ૮, માં કહ્યું છે–ભગવદ્ ! સાત કમપ્રકૃતિઓ બાંધનારાના કેટલા પરીષહ કહેવામાં આવ્યા છે ? ઉત્તરગૌતમ ! બાવીસ પરીષહ કહેવામાં આવ્યા છે–તેમાંથી એકી સાથે વીસનું વેદન થઈ શકે છે, કારણ કે જે સમયે શીતપરીષહ અનુભવાય છે તે સમયે ઉણપરીષહ અનુભવી શકાતું નથી અને જ્યારે ઉણપરીષહ અનુભવાય છે ત્યારે શીતપરીષહ અનુભવી શકાતું નથી. આવી જ રીતે જ્યારે ચર્ચાપરીષહ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० तत्त्वार्थ निषद्यापरीपहं वेदयति, यं समयं निषधा परीपहं वेदयति-नो तं समयं चर्या परीषहं वेदयति, गौतम ! द्वाविंशति परीपहा प्रशा: १ ॥११॥ मूलम्-नाणावरणिज्जोदए पपणा अण्णाण परीसहा ॥१२॥ छाया-ज्ञानावरणीयोदये प्रज्ञा-ज्ञानपरीपही-॥१२ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावत्-बादरसम्पराये स्थूलक्रोधादिकपाययुक्ते प्रमत्तसंयतादौ खलु क्षुत्पिपासादयो द्वाविंशतिः परीपहा भवन्तीति प्रतिपादितम् सम्पति-ज्ञानावरणयुक्ते संयते मज्ञापरीपहा-ऽज्ञानपरीपहो भवत इति प्रतिपाद समय निषद्या परीषह का वेदन नहीं हो सकता और जिस समय निषद्यापरीषह का वेदन होता है उस समय चर्यापरीपंह का वेदन नहीं हो सकता। __ 'भगवन् ! आठों कर्मप्रकृतियों का वध करने वाले को कितने परीषह कहे गए हैं ?' 'गौतन ! वाईस परीषद कहे गए हैं। ॥११॥ . 'माणावरणिचोदए पपणा' इत्यादि । सूत्रार्थ-ज्ञानावरणीय कर्म के होने पर प्रज्ञा और अज्ञान परीपह होते हैं ॥१२॥ तत्वार्थदीपिका-पहले यतलाया जा चुका है कि यादर कषायवाले प्रमत्तसंयत आदि में क्षुवा पिपासा आदि वाईसों पीषह होते हैं। अप कौन सा परीषह किस कर्म के निमित्त से होता है, यह प्रति હોય ત્યારે નિષદ્ય પરીષડ હેઈ શકે નહીં એવી જ રીતે નિષદ્યાપરીષહ અનુભવાય ત્યારે ચર્ચાપરીષહની ગેરહાજરી હોય છે. . “ભગવાન ! આઠે કર્મ પ્રકૃતિઓ બાંધનારને કેટલા પરીષહ કહેવામાં આવ્યા છે? ગૌતમ! બાવીસ પરીષહ કહેવામાં આવ્યા છે ૧૧ 'णणावरणिज्जोदए' त्यादि સૂત્રાર્થ જ્ઞાનાવરણ કર્મ હેય ત્યારે પ્રજ્ઞા અને અજ્ઞાનપરીષહ હેાય છે ૧૨ા તત્વાર્થદીપિકા–આની અગાઉ કહેવાઈ ગયું છે કે બાદર કષાયવાળા પ્રમત્તસંવત આદિમાં ક્ષુધા પિપાસા વગેરે બાવીસ-બાવીસ પરીષહ હોય છે. હવે ક પરીષહ ક્યા કર્મના નિમિત્તથી થાય છે, એ પ્રતિપાદન કરતા થકા સર્વપ્રથમ જ્ઞાનાવરણ કર્મના નિમિત્તથી થનારા પરીષહેનું વર્ણન કરીએ છીએ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REC3D दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ खू. १२ शानावरणवति द्वौ परिषहत्वम् २३१ यितुमाह-'णाणावरणिज्जोदए पण्णा-अण्णाण परीनहा-' इति, ज्ञानावरणीयोदये ज्ञानावरणीये कर्मणि सति मुनेः प्रज्ञाऽज्ञानपरीषहौ भवतः ॥१२॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व खलु-स्थूल क्रोधादिकषाययुक्ते बादरसम्पराये प्रमत्तसंयतादौ क्षुत्पिपासादयो द्वाविंशतिः परीपहा भवन्तीति प्रतिपादितम्, सम्पति-ज्ञानावरणविशिष्टे मुनौ प्रज्ञा-ऽज्ञानपरीषहौ भवत इति प्रतिपादयितुमाह-'नाणावरणिज्जोदए पण्णा-अण्णाण परीसहा-' इति, ज्ञानावर णोदये-ज्ञानस्या-ऽऽवरणं ज्ञानावरणम् तस्योदये ज्ञानावरणीये कर्मणि सति प्रज्ञाऽज्ञानपरीषहौ, प्रज्ञापरीपहो-ऽज्ञान परीपहश्च सम्भवतः एवश्व-ज्ञानावरणीय कर्मोदये सति प्रज्ञाऽज्ञानपरोपही भवतः । तथा चोक्तम्-व्याख्याप्रज्ञप्तौ श्री. पादन करते हुए सर्व प्रथम ज्ञानावरण धर्म के निमित्त से होने वाले परीषहों का वर्णन करते हैं ज्ञानावरणीय कर्म के निमित्त से प्रज्ञा और अज्ञान परीह उत्पन्न होते हैं अर्थात् ज्ञानावरण कर्म की सत्ता होने पर मुनि को. उक्त दो परीषह होते हैं ॥१२॥ ____सत्त्वार्थनियुक्ति-पहले यह प्रतिपादन किया गया है कि बादर सम्पराय अर्थात् स्थूल कपायवाले प्रमत्तसंयत आदि में क्षुधा पिपासा मादि वाईस परीपह होते हैं, अब किस कर्म के निमित्त से कौन-कौन से परीषह होते हैं, यह बतलाते हैं और अनुक्रम में सर्व प्रथम ज्ञाना. वरण कर्म जनित परीषहों का उल्लेख करते हैं___ ज्ञानावरणीय कर्म के निमित्त से प्रज्ञा और अज्ञान परीपह उत्पन्न होते हैं । ज्ञान के आवरण को ज्ञानावरण कहते हैं, उस की विद्यमानता में अर्थात् ज्ञानावरण के होने पर प्रज्ञा और अज्ञान परी જ્ઞાનાવરણીય કર્મના નિમિત્તથી પ્રજ્ઞા અને અજ્ઞાનપરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે, અર્થાત્ જ્ઞાનાવરણ કમને પ્રભાવ હેવાથી મુનિને ઉક્ત બે પરીષહ હોય છે. ૧રા તત્વાર્થનિયુકિત-પહેલા એ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે બાદર સમ્પરાય અર્થાત્ સ્થૂળ કષાયવાળા પ્રમત્તસંવત વગેરેમાં સુધા પિપાસા વગેરે બાવીસ પરીષહ હોય છે, હવે ક્યાં કર્મના નિમિત્તથી કયા-કયા પરીષહ થાય છે એ બતાવીએ છીએ અને અનુક્રમમાં સર્વપ્રથમ જ્ઞાનાવરણ કમ જનિત પરીષહેને ઉલ્લેખ કરીએ છીએ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના નિમિત્તથી પ્રજ્ઞા અને અજ્ઞાન પરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે. જ્ઞાનના આવરણને જ્ઞાનાવરણ કહે છે, તેની વિદ્યમાનતામાં અથાત્ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ . तस्वायसवें भगवतीसत्रे शतके ८-उद्देश के-'नाणाणिज्जे णं भंते ? 4.म्मे करपरिसहा समोरलि-? गोरमा-! दो पीलही समोयरति, तं जहापन्नापरीसहे नाणपतीलहे य-इति. ज्ञानावरणीये खलु भदन्त- कर्मणि कति परीपहाः समुदीर्यन्ते-? गौतम । द्वौ परीषदौ समुहीयेते, तद्यथा-प्रज्ञापरीपदोज्ञानपरोपहश्चेति । अयमेनाऽज्ञानएरीपरत्वेन सर्वत्र व्यपहियते ॥१२॥ मूलम्-दसणलोहणिजालामंतराएसु दलणालामा परीसहा।१३। छाया-दर्शन मोहनीयलामन्तराययो दर्शनालामौ परीपही ॥१॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वमने ज्ञानावरणयुक्ते छुनों प्रज्ञाऽज्ञानपरीषहौ प्ररूपिता सम्पति-दर्शनमोहनीयान्तरायपति संय ते श्रवणे-दर्शनालामपरीपही मरूपयितुमाह-दसणमोहणिज लामंतराएप्सु दंझणालायएरीलहा-'इति, दर्शन मोहनीय लाभान्तराययोः-दर्शनमोहनीय कर्ममि. लाभान्तरायकर्मणि च यथा षद होते हैं। श्रीभगवतीसूत्र के आठवें शतक के उद्देशक आठवें में कहा है प्रश्न-भगवन् ! ज्ञानाबरा कर्म के होने पर क्षितने परीपह होते हैं ? उत्तर-गौतम! दो परीषह होते हैं-प्रज्ञापरीपक्ष और ज्ञानपरीपह। यह ज्ञान परीपद ही अन्यत्र अज्ञानपरीषह कहलाता है ॥१२॥ 'दसणा मोहणिज्ज' इत्यादि । दर्शन मोहनीय और लाभान्तराध कर्म के निमित्त से दर्शन परीषह और अलाभ परीष ह उत्पन्न होते हैं ॥१३॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व सूत्र में ज्ञानावरण के उदय से संयमी मुनि में प्रज्ञा और अज्ञान नामक दो परीषहों का प्ररूपण किया गया, अष दर्शनमोह और अन्तराय कर्म के उदय से श्रमण में दर्शन और જ્ઞાનાવરણ હોવાથી પ્રજ્ઞા અને અજ્ઞાનપરીષહ થાય છે. ભગવતીસૂત્રના આઠમાં શતકના આઠમાં ઉદ્દેશકમાં કહેવામાં આવ્યું છે શ્ન–ભગવાન ! જ્ઞાનાવરણ કર્મ હોય ત્યારે કેટલા પરીષહ હોય છે ? ઉત્તર–બે પરીષ હોય છે. પ્રજ્ઞ પરીષહ અને જ્ઞાન પરીષહ આ જ્ઞાનપરીષહ જ અચત્ર અજ્ઞાનપરીષહ કહેવાય છે. ૧૬ 'दमण मोहणिज्जा' इत्यादि સૂત્રાર્થ–દર્શનમોહનય અને લાભાન્તરાય કર્મના નિમિત્તથી દર્શન પરીષડ અને અલાભપરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે. ૧૩ તત્વાર્થદીપિકા-પૂર્વસૂત્રમાં જ્ઞ નારણના ઉદયથી સંયમી મુનિમાં ---. પ્રજ્ઞા અને અજ્ઞાન નામના બે પરીષહનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે દર્શનમોહ અને અનંતરાય કર્મના ઉદયથી શ્રમણમાં દર્શન તેમજ લાભ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७ . १३ दर्शनालाभपरीषहोत्पत्तिनिरूपणम् २३३ संख्यं दर्शनालाभपरीपही दर्शनपरी पहा - अलाभपरीषश्च भवतः । तत्र दर्शन मोहनीय कर्मवति संयते मुनौ दर्शनपरीषदः सेोढव्यो अति । एवश्व-दर्शनमोहनीय कर्मप्रकृतेः - लाभान्तराय कर्मकृतेश्व क्रमश दर्शनपरीषदः अलाभपरी पहा कार्योऽवगन्तव्यः । एतावता - दर्शनमोहनीय कर्मणा दर्शश्रीपहः, लाभान्त राय कर्मणाचाला मपरीप हो जन्यते इति फलितम् ||१३|| सत्यार्थनियुक्ति - पूर्व ताद् ज्ञानावरणीयकर्मणा मज्ञाऽज्ञानपरीपद द्वयं जन्यते इति प्रतिपादितम्, सम्मति दर्शनमोहनीय कर्मणा लाभान्वरायकर्मणा अलाभ परीहषों के होने की प्ररूपणा करते हैं दर्शनमोहनीय और लाभाय कर्म के निमित्त से दर्शन और अलाभ परीषद होते है अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म के होने पर यथाक्रम दर्शन और अलाभ परीषद्र होते हैं। तात्पर्य यह है कि दर्शनमोहनीय कर्म वाले संगत को दर्शनपरिषद और लाभान्तरापकर्मवाले श्रमण को अलाभपरीषह होता है । इस प्रकार दर्शrrive दर्शनोहनीय का कार्य है और अलामपीषह लाभान्तरा का कार्य है | फलितार्थ यह है कि दर्शन मोड़ पर्म से दर्शनपरीषह और लाभान्तरा फर्म से अलाभ परीषद की उत्पत्ति होती हैं ॥१३॥ 1 तत्वार्थ नियुक्ति-- पहले प्रतिवादन किया गया है कि ज्ञानावरण कर्म के निमित्त से प्रज्ञा और अज्ञान परीषहों की उत्पत्ति होती है, अय दर्शनमोहनीय कर्म से और लाभान्तराय कर्म से क्रमशः दर्शनपरीषह और अलाभपरीषद उत्पन्न होते हैं, यह प्रतिपादन करते हैं પરીષા હેાવાનુ પ્રરૂપણ કરીએ છીએ દનમેહનીય અને લાભાન્તરાય કમ ના નિમિત્તથી દશન અને અલાલપરીષદ્ધ થાય છે અર્થાત્ દનમાહનીય કમ અને અન્તરાય કર્મીની હાજરી હાવાથી યથાક્રમ દર્શન અને અલાલ પરીષહ હાય છે તાપય એ છે કે દનમાહનીય ક્રમવાળા સયતને દન પરીષહ અને લાભાન્તરાય કમ વાળા શ્રમણને અલાભ પોષડુ હાય છે. આ રતે દનપરીષહ દન માહનીયતું કાર્યું છે અને અલાભપરીષહ લાભ ન્તરાયનુ ક છે. સારાંશ એ છે કે, દનમેાહ કમ થી દશનપરીષહ અને લાલ ન્તરાય કર્માંથી અલાભપરીષહની ઉત્પત્તિ થાય છે. ૧૩ના તત્ત્વાથ નિયુક્તિ અગાઉ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ` કે જ્ઞાનાવશ્ કમના નિમિત્તપી પ્રજ્ઞા અને અજ્ઞ નપરીષહેાની ઉત્પત્તિ થાય છે, હવે નમેહનીયા થી અને લાભ ન્તરાય કમથી ક્રમશઃ દર્શનપર ષહું અને અલાભપરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે-એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ त० ३० Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वास... व क्रमशो-दर्शनपरीपहोऽलामपरीपहथ मन्यते इति प्रतिपादस्तुिमाह-'दंसण. मोहणिज्ज लामंतराएलु दलणालामा परीलहा' इति दर्शनमोहनीयलान्तराययो दर्शनमोहनीय कर्मणि लाभान्तरायकर्मणि च यथाक्रम-दर्शनपरीपहोऽलाभपरीपहन संजायते । तथा च-दर्शनमोहनीयकोदये सति दर्शन परीपहो भवति, लाभान्तरायक मोदये चाऽलाभपरीपहो भवतीति भावः । उक्तश्च ज्याख्यामज्ञतौ श्रीभगवती सूत्रे ८-शतके ८-उद्देशके-'दसण मोहणिज्जेणं भंते.! कम्मे कह परीसहा ललोयरंति-? गोशमा-! एगे दसणपरीसहे समोयरह, अंतरापर्ण भंते ! छम्मे कह परीलहा समोयरंति-३ गोयमा- एगे अलाभपरीमहे लमोयर' इति । दर्शनमोहनीय खलु भदन्त ! कर्मणिकति परीपहाः समुदीर्यन्हे ? गौतम-! एको दर्शनपरीपहः समुदीयते, अन्तराये खलु भदन्त ! कति परीपहा: समुदीयन्ते ? गौतम ! एकोऽलाभपरीपहः समुदीर्यते, इति । एवञ्च-दर्शनमोहनीय कर्मववि संयते मुनौं दर्शनपरीषहः . सोढव्यो भवति, लान्तरायकर्मवति च संयतेऽलाभपरीपहः सोढव्यः ॥१३॥ . दर्शनमोहनीय धर्म और लाभान्तराय कर्म के होने पर अनुकम से दर्शनपरीषह और अलाभपरीषह होते हैं, इन प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म का उदय होने पर दर्शनपरीषह होता है और लाभान्तराय कर्म का उदय होने पर अलाभपोषह होता है। श्री भगवतीसूत्र के आठवें शतक के आठवें उद्देशन में कहा है प्रश्न-दर्शनमोहनीय कर्म के होने पर भगवन् ! कितने परी. षह होते हैं ? उत्तर-गौतम! एक दर्शनपरी पह उत्पन्न होता है। प्रश्न-भगवन् ! अन्तराध कर्म के होने पर कितने परीषह होते हैं? उत्तर-गौतम ! एक अलाभपरीषह उत्पन्न होता है। ' દર્શનમોહનીય કર્મ અને લાભાન્તરાય કર્મ હોય, ત્યારે અનુક્રમથી દર્શનપરીષહ અને અલાભપરીષહ થાય છે, આવી રીતે દર્શનમોહનીય કર્મને ઉદય થવાથી અલાભપરીષહ થાય છે. શ્રી ભગવતીસૂત્રના આઠમાં શતકના આઠમાં ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે પ્રશ્ન—દર્શનમોહનીય કર્મ હોવાથી, ભગવન્! કેટલા પરીષહ હોય છે? ઉત્તર–ગૌતમ ! એક દર્શનપરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે. अ~मन् ! अन्तशय ४भ डाय त्यारे ४८मा परीष हाय १ . ઉત્તર–ગૌતમ ! એક અલાભપરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. १४ चारित्रमोहनीये सप्तारीपहाः २३५ मूळम्-चरितमोहणिजे सत्त परीक्षहा, अचल अरइआई भेयओ ॥१४॥ . छाया-चारित्रमोहनीये सप्तपरीपहा,अचेला रत्यादि भेदतः ॥१४॥ तत्वार्थदीपिका-'दर्शनमोहनीयकर्मणि लाभन्तरायकर्मणि च क्रमशो दर्शनपरीषहः, अलाभपरीपहश्च मरूपितः सम्पति-चारित्रमोहनीय कर्मणि-अचेला रत्यादीन्' सप्तपरीपहान् प्रणयितुमाह-'चरितमोहणिज्जे सत्त परीसहा अचेल-अरइयाइ भेयओ' इति चारित्रमोहनीये कर्मणि चारित्रमोहनीय कर्मोदये सप्त संख्यकाः परीपहा भवन्ति, तद्यथा-अचेलअरत्यादि भेदतः अचेल: अरतिः-२ आदिना-स्त्री-३ निषधा-४ आक्रोशः-५ याचना ६ सत्कार पुरस्कार इस प्रकार दर्शनमोह कर्म से युक्त बुनि को दर्शनपरीषह. और लाभान्तराय कर्म वाले मुनि को अलाभ परीषह सहना पडता है।१३। 'चरितमोहणिज्जे' इत्यादि सूत्रार्थ--चारित्रमोहनीय कर्म के उद्य से अचेल, अरति आदि सात परीषह उत्पन्न होता है ॥१४॥ __ तत्वार्थदीपिका--पूर्व स्त्र में प्रतिपादन किया गया है कि दर्शनमोहनीय और लाभान्तराय कर्म के निमित्त से दर्शन परीषह और अलाभपरीषह उत्पन्न होते है, अब चारिन्नमोहनीय कर्म के निमित्त से होनेवाले अचेल, अति आदि लाल परीपहों की प्ररूपणा करते हैं___ चारित्रघोहनीय कर्म के लदा र अचेल अरति आदि सात परीपह होते हैं, जो इस प्रकार हैं-(१) अचेल (२) अरति (३) स्त्री આ રીતે દર્શનમોહ કર્મથી યુકત મુનિને દર્શનપરીષહ અને લાભાન્તરાય કર્માવાળા મુનિને અલાભપરીષહ સહન કરવો પડે છે. ૧૩ 'चरितमोहणिज्जे सत्तपरीसहा' त्यादि સૂત્રાર્થ–ચારિત્ર મેહનીય કર્મના ઉદયથી અચેલ, અરતિ આદિ સાત પરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે. ૧૪ તત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે દર્શન મેહનીય અને લાભાન્તરાય કર્મને નિમિત્તથી દર્શનપરીષડુ અને અલાભપરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે, હવે ચારિત્ર મેહનીય કર્મના નિમિત્તથી થનારા અચેલ, અરતિ આદિ સાત પરીષહની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ ચારિત્ર મેહનીય કર્મના ઉદયથી અચેલ, અરતિ આદિ સાત પરીષહ थाय छ २ मा प्रभारी छे-(१) गयेस (२) मति (3) सी (४) निषधा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩ तत्वार्थ सूत्रे - व ७ त्येवं सप्तपरीपहा अवगन्तव्या तथा च चरित्रमोहनीयकर्मोदयेन अचेलपरीपद: अरतिपरिषदः स्त्रीपरीषदः, निपयापरीपदः आक्रोशपरीषहः याचनापरिपहः सत्कारपुरस्कारपरीपदश्च संजायते अथ पुंवेदोदयादिहेतुकत्वात् अचेलार - तिस्त्रयाक्रोश याचना सरकार पुरस्काराणां मोहोदय हेतुकत्वेऽपि निपधायाः कथं मोहोदय हेतुमविवेद - ? अत्रोच्यते चारित्रमोहोदये सति प्राणिपीडा परिणामस्व संजायमानतया प्राणिपीडा परिहार्थत्वेन निपद्यायाः अपि मोहनीय निमित्तत्वं सम्भवति । तथा च निषीदन्ति - उपविशन्ति यस्यां सा निषद्याउपवेशनादिभूमि रिति रीत्या चारित्रमोहनीय कर्मोदये सति भयोदयात्तरस्थाना विश्वरूपो निपद्यापरीपो भवति ||१४|| (४) निषधा (५) आक्रोश (६) याचना (७) सरकार पुरस्कार | इस प्रकार चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से अचेलपरीषह, अरतिपरीषह, स्त्री परीपर, निषद्यापरीषह, आक्रोशपरीषह, याचनापरीषह, और सरकार पुरस्कारपरीषद उत्पन्न होते हैं । शंका- अचेल, अति, स्त्री, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार पुरुपवेद आदि के उदय से होते हैं, इस कारण उन्हें मोहोदय हेतुक कहा जा सकता है, मगर निषद्यापरीपर को मोहोदय हेतुक कैसे कह सकते है ? समाधान- चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से प्राणियों को पीडा पहुंचाने का परिणाम उत्पन्न होता है और निषद्या प्राणिपीड़ा का परिहार करने के लिए है, उसे निमित्त कह सहते हैं। जिसमें निपीड़न-उपवेशन अर्थात् ठहरना-बैठना आदि किया जाय वह निषेद्या कहलाती है | चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने पर भय के (4) भाडोश (१) यायना (७) सत्र पुरस्कार मानीते यारित्र मोहनीय કના ઉદયથી અચેલપરીષહ, અરતિપરીષહ, શ્રીપરીષહ નિષદ્યાપરીષહ, આક્રોશપરીષહ, યાચનાપરીષદ્ધ અને સત્કાર પુરસ્કાર પરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે. शंभ- भयेस, भरति, सी, माझेश, यायना भने सत्कार पुरस्ार પુરૂષવેદ આદિના ઉદયથી થાય છે આથી તેમને મેહેદય હેતુક કહી શકાય છે, પરન્તુ નિષદ્યાપરીષદ્ધને મેહેાદયહેતુક કેવી રીતે કહી શકાય ? સમાધાન–ચારિત્ર મે હનીય કર્માંના ઉદયથી પ્રાણિએને દુઃખ પહેાંચાઢવાનુ પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે અને નિષદ્યા પ્રાણિપીડાના પરિહાર કરવા માટે છે, આથી તેને મેાહુ નિમિત્તક કહી શકીએ છીઅ, જેમાં નિષદન ઉપવેશન અર્થાત્ રાકાનું એકવું વગેરે કરવામાં આવે તે નિષદ્યા કહેવાય Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. १४ चारित्रमोहनीये सप्तपरीपहाः २३७ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावद्-दर्शनमोहनीय लाभान्तराये कर्मणि च । उदिते सति क्रमशः दर्शनपरीपहः, अठाभपरीषहथ भवतीति प्रतिपादितम्, सम्मति चारित्रमोहनीयकोदये सति सप्तरीपहा भवन्तीति तान परीषहान् प्रतिपादयितुमाह-'चरित्तमोहणिज्जे सत्त परीसहा अचेलारड्याइ भेयो-'इति, चारित्रमोहनीये चारित्रमोहनीय कर्मोदये सति सप्तपरीपहा भवन्ति । तद्यथा अचे कारत्यादिभेदतः-अचेलो-१ ऽरति-२ आदिना-स्त्री-३ निश्चा-४ ऽऽक्रोशो-५ याचना-६ सत्कारपुरस्कारश्चे-७ स्येते सप्तपरीषहा भवन्ति । तत्र-दर्शनमोहनोयभिन्नं चारित्रमोहनीयं कर्म, चारित्रं तावद् मूलो. घरगुणसम्पन्नत्वम् तस्य मोहनात्-पराङ्मुखत्वात् चारित्रमोहनीयमुच्यते, तथाविध चारित्रमोहनीयोदये सति-अरत्यादयः सप्तपरीषहा भवन्ति । तत्र जुगुउदय से उस स्थान का सेवन किया जाता है, अतएव निषद्यापरीषह मोहहेतुक है ॥१४॥ __तत्वार्थनियुक्ति-पहले बतलाया गया है कि दर्शनमोहनीय और लाभान्तराप कर्म का उदय होने पर क्रम से दर्शनपरीपह और अलाम. परीषह होते हैं, अब चारित्र मोहनीय कर्म से सात परीषह होते हैं, अतएव उनका.प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं___ चारित्रमोहनीय पार्म का उद्घ शेने पर सात परीषह होते हैं । वे इस प्रकार हैं-(१) अचेल (२) अरति (३) स्त्री (४) निषद्या (५) आक्रोश (६) याचना और (७) सत्कार पुरस्कार । चारित्रमोहनीयम दर्शन मोहनीष ले भिन्न है । सूलगुणों और उत्तरगुगों से सम्पन्नता होना चारित्र कहलाता है, उसका निरोध करने वाला कर्म चारित्रमोहनीय છે. ચારિત્ર મોહનીય કર્મના-ઉદય ભાના ઉદયથી તે સ્થાનનું સેવન કરવામાં આવે છે આથી નિષદ્યાપષિ મહહેતુક છે ૧૪ - તવાર્થનિયુકિત-પહેલા બતાવવામાં આવ્યું છે કે દર્શનમોહનીય અને લાભાન્તરાય કર્મને ઉદય થવાથી ક્રમથી દર્શનપરીષહ અને અલાભપરીષ થાય છે હવે ચારિત્ર મોહનીય કર્મના ઉદયથી સતત પરીષહ થાય છે, આથી તેમનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહીએ છીએ ચારિત્ર મોહનીય કર્મનો ઉદય થવાથી સ ત પરીષહ થાય છે તે આ પ્રમાણે छ:-(१) भये (२) अति (3) स्त्री (४) निषधा (५) माडोश (6) यायना (૭) સત્કારપુરસ્કાર ચારિત્રમોહનીય કર્મ દર્શનમોહનીયથી ભિન્ન છે મૂળ અને ઉત્તરગુથી સંપન્નતા હેવી ચારિત્ર કહેવાય છે, તેને નિરોધ - કરનાર કર્મ ચરિત્રમેહનીય છે. આ ચારિત્રમોહનીય કર્મને ઉદય થવાથી Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ . तत्त्वार्थो सोदयादचे सपापहः, अरत्युदयादरविपरीषहः उच्यते, स्त्रीवेदोदयात्-स्त्रीपरीपहः भयोदयात्स्थानाऽसे वित्वलक्षणो निषद्यापरीषहः क्रोधोयाद्-आक्रोशपरीषदः, मानोदयाद्-याश्चाएरीपहः लोमोदयात्-सत्कापुरपरीषहः सम्भवति । तथाचोक्त व्याख्यापज्ञप्तौ भगवतीमत्रे ८-शतके ८-उद्देशके-'चरित्त मोहणिज्जेणं भंते ! कम्मे कइ परिसहा समोधरंति ? गोयमा ! लत्तपरीसहा समोयरंति तं जहा-अरती अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अकोसे सकार पुरकारे चरित्तमोहमि सत्तेते ॥१॥ इति, चारित्रमोहनीये खलु मदन्त! कर्मणि कति परीपहाः समवतरन्ति ? गौतम ! सप्तपरीषहाः समवतरन्ति, तद्यथा अरति, रचेल स्त्री, निषद्या, याचना, च-आक्रोशः सत्कार पुरस्कार श्चारित्रमोहे सप्तते । १।। इति ॥१४॥ है। इस चारित्रमोहनीय कर्म के उदय ले अरति आदि सात परीषह होते हैं । जुगुहा मोह कर्म के उदय से अचेल परीषह होता है, अरति कर्म के उदय से अरतिपरीषह होता है, पुरुषवेद के उदय से . स्त्रीपरीषह होता है, भय के उदय से स्थान का सेवन रूप निषधापरी पह होता है, क्रोध के लय से आक्रोशपरीषद होता है, मान के उदय से याचनापरीषह होता है और लोभ के उदय से सत्कार पुरस्कार परी पंह उत्पन्न होता है। भगवतीसूत्र के शनक ८ के उद्देशक ८ में कहा है-'भगवन् ! चारित्रमोहनीय कर्म के उदद ले कितने परीषद होते हैं ? उत्तर-गौतम ! लात परीषह उपन्न होते हैं, वे यह है(१) अरति, अचेल, स्त्री, निषद्या, याचना और आक्रोश । चारित्रमोहनीय कर्म के होने पर ये सान परीषत होते हैं ॥१४॥ અરતિ વગેરે સાત પરીવાડ થાય છે. જુગુપ્સા મે હ કર્મના ઉદયથી અલ પરીષહ થાય છે, અરતિકર્મના ઉદયથી અરતિપરીષહ થાય છે, પુરૂષદના ઉદયથી સ્ત્રી પરીષ થાય છે, ક્રોધના ઉદયથી આક્રોશપરીષહ થાય છે, માનના ઉદયથી વાચનાપરીષ ડ થ ય છે અને તેમના ઉદયથી સક પુરસ્કા૨પરીવહુ ઉત્પન્ન થાય છે. ભગવતીસૂત્રના શતક ૮ના ઉદ્દેશક ૮માં કહ્યું છે–“ભગવાન ! ચારિત્રમહનીય કર્મના ઉદયથી કેટલા પરીષહ હોય છે? -गौतम ! सात ५५ अत्यन्न थाय छ, त म शत-(१) भति (२) अन्येस, (3) श्री (४) निषा (५) यायना (6) मोश भने (૭) સત્કાર પુરસ્કાર ચારિત્ર મોહનીય કર્મનો ઉદય થવાથી આ સાત પરીષહ થાય છે, ૧૧૪ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नयुक्ति टोका अ. ७ रु. १५ वेदनीयकर्मोदये एकादश रोषहाः २३९ मूलम्-वेयणिजे सेसा एक्कारस पलिहा ॥१५॥ __छाया-'वेदनीये शेषा एकादश परीपहा:- ॥१५॥ तस्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्रे-चारित्रमोहनीय कर्मोदयेनाऽचेल ऽरतिस्त्रीनिषद्यादि सप्तपरीपहा भवन्तीति मरूपितम्, सम्पति-वेदनीयकौंदयेन शेषा- . एकादश परीषहा भवन्तीति धरूपयितुमाह-'वेयणिज्जे लेला एक्कारस परीसहा' . इति । वेदनीये वेदनीयकर्मोदये सति शेपा एकादश परीपहा भवन्ति, आनुपूा . क्षुत्पिपासा शीतोष्णदंशमशक परीपहाः चर्याशय्यावधोरोगस्तृणस्पर्शों सल इत्येवं .. षट्, संकलनया-एकादशपरीपहा भवन्ति । तथा च वेदनीयकर्मोदयेल क्षुत्पिपासा-शीतोष्णदंशमशकचर्या-शय्या वध-रोगतृण--स्पर्श-मलपरीपहा: सम्मवन्तीति भावः ॥१५॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व ताबद्-ज्ञानावरणीय दर्शनसोहनीयचारित्रमोह. " नीयकर्मोदयेन क्रमश:-प्रज्ञाऽज्ञानद्वयम्, दर्शनालाभद्वय, अचेलारत्यादयः 'वेणिज्जे सेसा एक्कारस' इत्यादि। सूत्रार्थ-शेष ग्यारह परीषह वेदनीयकर्म के उदय से होते हैं ॥१५॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से अचे, अति, स्त्री, लिपया आदि सात परीषह होते हैं अब वेदनीय कर्म के उदय से होने वाले ग्यारह परीषहों का प्रतिपादन करते हैं शेष ग्यारह परीपह वेदनीय कर्म का उदय होने पर उत्पन्न होते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्णा (५) दंशमशक (६) चर्या (७) शय्या (८) वध (९) रोष (१०) तृणस्पर्श और मल परीषद ॥१५॥ 'वेयणिज्जे सेसा एक्कारसपरीसहा' સૂત્રાર્થ–શેષ અગીયાર વેદનીય કર્મના ઉદયથી થાય છે. આપા તત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે ચારિત્ર મોહનીય કર્મના ઉદયથી અચેલ, અરતિ, સ્ત્રી, નિષદ્યા આદિ સાત પરીષહ થાય છે, હવે વેદનીય કર્મના ઉદયથી થનારા અગીયાર પરીષહાનું प्रतिपाहन ४ छाय શેષ અગીયાર પરીષહ વેદનીય કર્મને ઉદય થવાથી ઉત્પન્ન થાય છે. ते 24 प्रमाणे 2-(१) क्षुधा (२) पि५ सा (3) शीत (४) GLY (). (५) शमश (६) या (७) ॥ (८) १५ (१०) तृ२५ भने .. ११) भरपरीषड. ॥१५॥ . Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEROrce २४० तत्त्वार्यसूत्रे सप्तचेत्ये कादश परीषहाः प्ररूपिताः सम्पति-वेदनीयकर्मोदयेन प्रज्ञाऽज्ञाना. घेकादशपरीपहा अवशिष्टाः तानेकादश क्षुत्पिपासादीन् परीपहान् प्ररूपयितु. "माह-वेयणिज्जे सेसा एक्कारसपरीमहा-' इति, वेदनीये-वेदनीयकर्मोदये सति शेषा एकादश परीपहाः भवन्ति, तद्यथा-आनुपूर्व्या-क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण दंशमशकाखा: पञ्चपरीपहाः, चर्या-शय्या-वध-रोग-तृणस्पर्शमलाख्याः पट्, इत्येवं रीत्या-एकादशपरीषहा भवन्ति । एवश्व-पूर्वोक्तेभ्यः प्रऽज्ञाऽज्ञानदर्शना. ऽलाभाऽचेलाऽरति स्त्रीनिषधाऽऽक्रोश-याचना-सत्कार पुरस्कारेभ्य एकादश परीषहेकोऽवशिष्टाः क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंशमशक-चर्या-शय्या-वध रोग तत्वार्थनियुक्ति-पहले ज्ञानावरणीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय और अन्तराय कर्म के निमित्त ले होने वाले प्रज्ञा, अज्ञान, दर्शन, अलाभ, अचेल, अरति आदि ग्यारह परीपह कहे गए हैं, अब घेदनीय कर्म के उदय से होने वाले अवशिष्ट क्षुधा पिपाप्ता आदि. परीषहों की प्ररूपणा करते हैं वेदनीय कर्म का उदय होने पर शेष ग्यारह परीपह होते हैं। वे अनुक्रम से इस प्रकार है-क्षुधा, पिपाला, शीत, उष्ण, दंशमशक, ये -पांच तथा चर्या, शय्या, बंध, रोग, तृणस्पर्श और मल, ये छह, इस प्रकार ग्यारह परीषह होते है । इस प्रकार पूषोंक्त प्रज्ञा, अज्ञान, दर्शन, अलाभ, अचेल, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार, इन ग्यारह परीषहों से शेष बचे हुए क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श तत्वा नियुति-पडेan शाना१२९५, शनिमानीय, यात्रिमा . નીય અને અન્તરાય કર્મના નિમિત્તથી થનારા પ્રજ્ઞા, અજ્ઞાન, દર્શન અલાભ,.. અચેલ, અરતિ આદિ અગીયાર પરીષહેનું વિવેચન કરવામાં આવ્યું છે હવે વેદનીય કર્મના ઉદયથી થનારા અવશિષ્ટ ક્ષુધા પિપ સા આદિ પરીષહાની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ વેદનીય કર્મને ઉદય થવાથી બાકીના અગીયાર પરીષહ થાય છે તે 41 प्रभारी है-मनुभथा क्षुधा, विपासा, शीत, B, शमश से यांय, તથા ચર્યા, શય્યા, વધ, રોગ, તૃણસ્પર્શ અને મલ એ છ–આ પ્રમાણે અગીયાર પરીષહ થાય છેઆ રીતે પૂર્વોકત પ્રજ્ઞા, અજ્ઞન, દર્શન અલાભ, અચેલ, અરતિ, સ્ત્રી, નિષદ, આક્રેશ, યાચના અને સત્કારપુરરકાર આ मशीया२ पश५माथी माही २७ गयेला-क्षुधा, पिपासा, शीत, Sury, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. १५ वेदनीयकदियेएकादशपरीपहाः २४१ तृणस्पर्शमलरूपा एकादशपरीपहाः वेदनीयकर्मोदयेन सम्भवन्ति । एष एव क्षुत्पिपासादय एकादश परीपहा भगवति-तीर्थकृति-केवलिन्यषि सम्वन्ति तस्य खलु जिनप घातिमेचतुष्टयविनाशे केवलं वेदनीयकोदयस्यैव सम्भवात् इति पूर्व निरूपितम् । तथा च-वेदनीयकोदये सति क्षुत्पिपासावय एकादश परीपछा भवन्ति । उक्तश्च व्याख्यामा मृगवती सूत्रे ८-शसके ८ बुढेशके वेथणिज्जे ण ते कसे काइ परीवहा समोथति ? गोशमा । एजारस परीलामोधरति तं जहर पंचेच आणुपुच्ची, चरिशा मा सय रोगेश । तार जाल मेघव, एज्ञारल वेदणिज्जति ॥१॥ इति वेदनीये खल भदन्त ! कर्मणि पाति परीपहाः समवतरन्ति ? गौतम ! एकादश परीपहा: समचतरन्ति, तघया-पञ्चैबाऽऽनुकूा , चर्या-शय्या-वधश्च रोगश्च । तृणरूपों और मल, ये स्यारह पदीषह वेदनीय कर्म के उदय से होते है। यही उधार परीषा नीर्थक सामान बेदली भी होते शोकि क्षेवली नावाद चार घातिक गर्मी की सत्ता नहीं रहती, सिर्फ चार अघातिक कर्म ही रहते हैं। उनमें वेदनीश कर्म के उदय से उक्त ग्यारह पीपह होते हैं, यह पहले क्षहा जा चुका है। इस प्रकार वेदनीय जन का उदय होने पर ग्यारह परीषा होते है । मावलीसूत्र के शतक ८, उद्देशक में कहा है प्रश्न- भगवन् ! वेदनीय हर्म के उदय ले फितले परीपाठ होते हैं ? उत्तर--हे गौतम ! ग्यारह परीणह उत्पन्न होते हैं, वे इस प्रकार है-पांच लुक्रम में प्रारंभ के तथा चर्या, शय्या, बध, रोग, तुणस्पर्श, और बल परीषह, थे छह मिलकर ग्यारह परीपह वेदनीय कले के उदय से उत्पन्न होते हैं। દંશમશક, ચર્યા, શય્યા, વધ, રોગ, તૃણસ્પર્શ અને મલ આ અગીયાર પરીષહ વેદનીય કર્મના ઉદયથી થાય છે. આ જ અગીયાર પરીષહ તીર્થકર ભગવાન કેવળીમાં પણ હોય છે, કારણ કે કેવળી ભગવાનમાં ચાર ઘાતિ કમેને પ્રભાવ રહેતો નથી, ફકત ચાર અઘાતિ કર્મ જ રહે છે. તેમાંથી વેદનીય કર્મના ઉદયથી ઉકત અગીયાર પરીષહ થાય છે એ તો અગાઉ કહેવામાં આવ્યું છે. આ રીતે વેદનીય કર્મને ઉદય થવાથી અગીયાર પરીષહ હોય છે. ભગવતીસૂત્રમાં શતક ૮ ઉદ્દેશક ૮માં કહ્યું છે પ્રશ્ન–ભગવનવેદનીય કર્મના ઉદયથી કેટલા પરીષહ થાય છે? ઉત્તર-ગૌતમ! અગીયાર પરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે. તે આ રીતે પાંચ અનુક્રમથી શરૂઆતના તથા ચર્ચા, શય્યા, વધ, રોગ, તૃણસ્પર્શ અને મલ પરીષહ એ બધાં મળીને અગીયાર પરીષહ વેદનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે. त० ३१ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ तत्त्वार्थ सूत्रे मल एच, एकादश वेदनीये -' इति ॥ १॥ एवञ्च ज्ञानावरणीयदर्शनमोहनीय चारित्रमोहनी रूप घाति चतुष्टयोदये मज्ञाऽज्ञानादय एकादशपरीषदा, भवन्ति, वेदनीय कर्मोदये तु क्षुत्पिपासाक्ष्य एकादश परीपहा अवगन्तव्याः ||१५|| मूलम् - एक्कम्मि जीव जुगवं एगादि जाब एगूणवीसा परीसहा | १६ | छाया - ~ 'एक स्मिन् जीवे युगपत् एकादियावदेकोनविंशतिः परीपहाः | १६ | वार्थदीपिका - पूर्व तावद - व्यस्त समस्तरूपेण क्षुत्पिपासादयो द्वाविं शतिः परीपहा यथायोग्यं क्वचिच्चतुर्दश क्वचिदेकादश क्वचिद् द्वौ, क्वचित्सप्त, क्वचित्तु - द्वाविंशतिरपि परीपहा भवन्तीति प्ररूपितम्, सम्प्रत्येकात्मनि युगपत् , इस प्रकार ज्ञानावरणीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय और अन्तराय रूप चार घाति कर्मों के उदय से प्रज्ञा, अज्ञान आदि ग्यारह परीषह होते हैं और वेदनीय कर्म के उदय से क्षुधा पिपासा आदि ग्यारह परीषह होते हैं ।। १५ । 'इक्कग्मि जीव जुगवं एगादि' इत्यादि । सूत्रार्थ -- एक जीव में एक साथ, एक से लेकर उन्नीस परीवह तक हो सकते हैं ॥१६॥ BONEY तत्त्वार्थदीपिका - पहले प्रतिपादन किया गया है कि व्यस्त और समस्त रूप से क्षुधा पिपासा आदि वाईस परीषद यथायोग्य कहीं चौदह, कहीं ग्यारह, कहीं दो, कहीं सात और कहीं वाईसों होते हैं, अब यह प्रतिपादन करते हैं कि एक जीव में, एक ही काल में, एक से लेकर उन्नीस परीषद तक हो सकते हैं આ રીતે જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનમેાહનીય, ચારિત્રમેહનીય અને અન્તરાય રૂપ ચાર ઘન ઘાતી કર્માંના ઉદયથી પ્રજ્ઞા, અજ્ઞાન, આદિ અગીયાર પરીષહે થાય છે અને વેદનીય કર્માંના ઉદયથી ક્ષુધા પિપાસા આદિ અગીયાર પરીષહ थाय है. ॥१५॥ 'इक्कम्मि जीव जुगवं एगादि' इत्यादि સૂત્રા—એક જીવમાં, એકી સાથે, એથી લઈ ને ઓગણીસ પરીષહે સુધી હાઈ શકે છે. ૫૧૬ા તત્ત્વાથ દીપિકા—પહેલા પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે વ્યસ્ત અને સમસ્ત રૂપથી ક્ષુધા પિપાસા વગેરે બાવીસ પરીષહ યથાચેાગ્ય કોઈ સ્થળે ચૌદ કેાઈ જગાએ અગીયાર કયાંક સાત અને કેાઈ સ્થળે બાવીસે-માવીસ હાય છે, હવે એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ કે એક જીવમાં એક જ સમયે, એકથી માંડીને ઓગણીશ પરીષહું હાઇ શકે છે む Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. १६ एकस्मिन् जीवे कतिपरीषसंभवः २४३ खलु एकत आरभ्य एकोनविंशतिपर्यन्तं परीषहाः सम्भवन्तीति प्ररूपयितुमाह'एक्कम्मि जीवे जुगवं' इत्यादि । एकस्मिन् जीवे युगपत्-एकदा एकादियाबदेकोनविंशतिः कदाचित्-क्षुत्पिपासादिषु कश्चिदेका, कदाचिद् द्वौ, कदाचित्त्रया, इत्येवं रीत्या-कदाचित् क्वचिद् एकोनविंशतिः परीपहाः सम्भवन्ति किन्तुशीतोष्णपरीषहयोः परस्परविरुद्धत्वात् एकदैकात्मनि कश्चिदेक एच परीपहो भवेत्, एवं शय्या, निषद्या, चर्याणां मध्येऽपि एक एव परीषहा एकदैकात्मनिस्यात् तासामपि तिसृणां परस्परं विरुद्धत्वात् । तथाचतेषु पञ्चतु द्वयोरेव कयोचिदेकात्मनि एकदा सम्भवेन तदन्येषां सप्तदशानां च क्षुत्पिपासादीनां मेलनेन ____ एक जीव में एक साथ एक से लेकर अधिक से अधिक उन्नीस परीषह तक हो सकते हैं । कदाचित् क्षुधा पिपाला आदि में से कोई एक ही होता है, कभी दो उत्पन्न हो जाते हैं, कभी तीन, इस प्रकार कभी अधिक ले अधिक उनीख तक हो सकते हैं। एक साथ वाईसों परीषह किसी में नहीं हो सकते, क्यों कि परस्पर विरोधी परीषहों का एक साथ होना संभव नहीं है । जैसे-शीत और उष्ण परीषह परस्पर विरुद्ध हैं-जष शीतवेदना होती है तब उष्णवेदना नहीं हो सकती और जब उष्णवेदना होती है तो शीतवेदना नहीं हो सकती। इन दोनों में से कोई एक ही परीषह होता है। इसी प्रकार शय्या, निषद्या और चर्या, इन तीन में से एक ही परीषह हो सकता है, क्योंकि ये भी परस्पर विरोधी है । इस प्रकार इन पांच परीषहों में से एक आत्मा में एक साथ कोई दो परीषह ही होते हैं। इन दोनों में शेष सतरह परीषह मिला देने से अधिक से એક જીવમાં એકી સાથે એકથી લઈને વધુમાં વધુ ઓગણીસ પરીષહ સુધી હોઈ શકે છે. કદાચિત સુધા પિપાસા આદિમાંથી કઈ એક જ હોય છે, ક્યારેક બે ઉત્પન્ન થાય છે તે ક્યારેક ત્રણ, આવી રીતે ક્યારેક વધુમાં વધુ ઓગણીસ સુધી હોઈ શકે છે. એકી સાથે બાવીસ-બાવીસ પરીષહ કેઈમાં પણ હોઈ શકતાં નથી કેમકે વિરોધી પરીષહોનું એકી સાથે રહેવું શકય નથી–જ્યારે શીતવેદના થાય છે. ત્યારે ઉણવેદના થઈ શકે નહીં. આ બંનેમાંથી કોઈ એક જ પરીષહુ હોય છે, આવી જ રીતે શય્યા નિષદ્યા અને ચર્ચા આ ત્રણમાંથી એક જ પરીષ હૈિઈ શકે છે કારણ કે આ પણ પરસ્પર વિરોધી છે. આ રીતે આ પાંચ પરીષહેમાંથી એક આત્મામાં એકી સાથે કઈ બે પરીષહ જ હોય છે. આ બનેમાં શેષ સત્તર પરીષો ઉમેરી દેવાથી વધુમાં વધુ ઓગણેશ પરીષહું Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ सूत्रे एकादित एकोनविंशति पर्यन्तम् एकात्मनि एकदा परीपहाः सम्भवन्तीति एकोन विंशतिः क्षुत्पिपासादीनां परीपहाणां विकल्या अवगन्तव्याः । शीतोष्णपरीपहयोरेकस्य शय्या निपद्या चर्या परीपहाणाञ्च मध्ये द्वयो र्यपगमेन मिलिया त्रयाणां परीपहाणामेकदा एकात्मनि व्यपगमात् । अथैवम् प्रज्ञाऽज्ञान परीपहयोरपि परस्परविरुद्धत्या त्तयोरेकस्यैव परीपहस्थ एकात्मनि एकदा सम्भवः इति चेत् ३ अत्रोच्यते श्रुतज्ञानाऽपेक्षा मज्ञापरीपहस्य, अवधिज्ञानाऽपेक्षयाऽज्ञानपरीपहस्य चेकदै कात्मनि सम्भवेन तयोः परस्परविरुदत्वामावाद विरोधो नास्तीतिभावः।१८) तत्यार्थनियुक्ति:--पूर्व तावत्-क्षुत्पिपासादीनां द्वाविंशति परीपहाणां मध्ये सनसम्पराय छमस्थ वीतरागयो श्चतुर्दशपरीपहार, भगवति जिने-एकादशपरीपहा इत्यादि, एवं रीत्या व्यस्तसमस्तरूपेण यथायथं प्रतिपादितम्, अधिक उन्नील परीषह एक साथ एक आत्मा में होते हैं-अर्थात् किसी को एक, किसी को दो, किसी को तीन, इस प्रकार उन्नीस परी. यह तक होना संभव है। शंका---प्रज्ञा और अज्ञान परीषह भी परस्पर विरोधी हैं, अतएव इन दोनों ने ले ली एक साथ एक आत्मा में एक ही होना चाहिए । समाधान--प्रज्ञापरीषह श्रुतज्ञान की अपेक्षा और अज्ञान परीषह अवधिज्ञान की अपेक्षा से समझना चाहिए । थे दोनों परीषह एक आत्मा में एक साथ हो सकते हैं, अतः परस्पर विरोध नहीं हैं ॥१६॥ लानियुक्ति-क्षुधा पिपासा आदि वाईस पीपह में ले सूक्ष्मसाम्पाय और छमस्थवीतराग में चौदह परीपह होते हैं, केवली अर्हन्त भावान् में ग्यारह परीषह पाये जा सकते हैं, इत्यादि व्यस्त और लमस्ता रूप में प्रतिपादन किया गया है, अब यह प्रतिपादन करते એક સાથે એક આત્મામાં હોય છે અર્થાત્ કેઈને એક, કોઈને બે, કેઈને ત્રણ, એ રીતે એગણીશ પરીષહ સુધી હોવું સંભવિત છે. શંકાપ્રજ્ઞા અને અજ્ઞાન પરીષહુ પણ પરસ્પર વિરોધી છે, આથી આ બંનેમાંથી એકી સાથે એક આભામાં એક જ હોવું જોઈએ ? , સમાધન-પ્રજ્ઞાપરીષહ થતજ્ઞાનની અપેક્ષા અને અજ્ઞાનપરીષહ અવધિજ્ઞાનની અપેક્ષાથી સમજવાના છે. આ બંને પરીષ એક આત્મામાં એક સમયે હોઈ શકે છે આથી પરસ્પર વિરોધી નથી. ૧૬ તવાથનિર્યુકિત-યા પિપાસા આદિ બાવીસ પરીષહેમાંથી સૂફમસમ્પરાય અને છદ્મસ્થ વીતરાગમાં ચૌદ પરીષહ હોય છે. કેવળી અહંત ભગવાનમાં અગીયાર પરીષહ જોવામાં આવે છે ઈત્યાદિ વ્યસ્ત અને સમસ્ત રૂપમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. હવે એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ કે Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ स्लू. १६ एकस्मिन्जीके कतिपरीपहसंभवः २४५ सम्प्रति-एकात्मन्यैकदैकत आरभ्य एकोनविंशति पर्यन्तं परीपहाः सम्भवन्तीति प्रतिपादयितुमाह-'एकस्मि जीवे जुगढ़ एगादि जाब एग्रणबीला परीसहा' इति । एकस्मिन् कस्मिश्विज्जीवे युगपत् एकदा एकादि यावत् एकोनविंशतिः, तत्र -कदाचित्क मचिकात्मनि एकदा क्षुत्पिपासादिषु कश्चिदेका परीपहः, कदाचिदे. कदा क्वचिदेकात्मनि द्वौ परीपही, कदाचिल्दवचिदेशात्मनि त्रयः परीषहा, इत्यवं रीत्या यावत् कदाचित्वाविष्कदैकात्मन्यैकोनविंशतिः परीपहाः सम्मवन्तीति भावः किन्तु एकदैकानि शीतोष्णपरीषहौ समकं न सम्भवतः तयो परस्पर मन्यन्तविरुद्धत्वात् एवं चर्या शय्या निषधालु द्वौ परीषडौ, अवशिष्टाः सप्तदश हैं कि एक आत्मा में, एक ही साल में एक ले लेकर अधिक से अधिक उन्नीस परीषह तक पाये जा सकते हैं एक जीव में एक साथ एक से लेकर उन्नील परीषह तक हो सकते हैं । अर्थात् किसी आत्मा में फिल्ली समय क्षुधा आदि बाईल परीपही में से कोई एक ही परीणह होता है, कदाचित् दो परीषह होते हैं, कदाचित् तीन एक साथ हो जाते हैं, इसी प्रकार कभी कहीं किसी आत्मा में अधिक से अधिक उन्नीस परीष तक होना संभव है। ___ एक ही काल में एक ही जीव में शीत और उष्ण दोनों परीषह साथ-साथ नहीं होते, क्योंकि ये दोनों परस्पर में अत्यन्त विरोधी हैं। इसी प्रकार चर्या, शय्या और लिषया परीषों में से भी कोई एक परीषह का ही संभव है, तीनों का संबध नहीं, हैं क्यों कि ये भी परस्पर विरोधी हैं। इस प्रकार शीन और उष्ण में ले कोई एक तथा चर्या, એક આત્મામાં, એક જ સમયમાં, એકથી લઈને વધારેમાં વધારે ૧૯ ઓગઈસ પરીષહ સુધી જોવામાં આવે છે. એક જીવમાં એક સાથે એકથી લઇએ એગણેશ પરીષહ સુધી હોઈ શકે છે અર્થાત્ કઈ આત્મામાં કેઈ સમયે સુધા આદિ બાવીશ પરીષહોમાંથી કોઈ એક જ પરીષહ હોય છે, કદાચિત્ બે પરીષહ હોય છે, કદાચિત્ ત્રણ એક સાથે થઈ જાય છે, આવી રીતે ક્યારેક કોઈ આત્મામાં અધિકથી અધિક ગણેશ પરીષહ સુધી હોઈ શકે છે. એક જ કાળમાં, એક જ જીવમાં શીત અને ઉષ્ણ બંને પરીષહ સાથેસાથે હતાં નથી, કારણ કે એ બંને પરસ્પરમાં અત્યન્ત વિરોધી છે. આવી જ રીતે ચર્યા, શય્યા અને નિષદ્યા પરીષહેમાંથી કેઈ એક પરીષહ જ હોઈ શકે છે, ત્રણે નહીં, કારણ કે એ પણ પરસ્પર વિરોધી છે. આ રીતે શીત અને ઉષ્ણમાંથી કોઈ એક તથા ચય નિષદ્યા અને શય્યા પરીષહમાંથી કઈ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र परीपहाश्च क्षुपिपासादय एकदा एकात्मनि सम्मवन्तीति एकत आरभ्यैकोनविंशति पर्यन्तं विकल्पाः सम्भवन्ति । तत्र-कस्यचिदात्मन एकदा कश्चिदेका परीपहः, कस्यचिदात्मन एकदा द्वौ परीपहौ, करयाचदात्मन एकदा त्रयः परीषहाः, कस्यचिदात्मनः एकचत्वारः, इत्येवं तावत्-यावदेकोनविंशतिः परीपहाः कस्य चिदात्मन एकदाऽविरोधात् संजायन्ने । शीतोष्णपरीपहयोः शय्या निपधा चर्या परीपहाणाश्च परस्परविरुद्धवाद नै कदैकात्मनो विंशतिः एकविंशतिः द्वाविंशतिपिरीपहाः सम्भवन्ति । तत्र शीतोष्णयोरसहाऽवस्थानलक्षणो विरोधः परस्परपरिहारेणैव तयोः स्थितिः सम्भवति, एवम् शय्या निषद्या चर्याणामेकस्य परी. निषद्या और शरणा परीषद में से कोई एक परीषह होता है । शेष जो लत्ताह परीषह हैं वे भी एक जीव में एक साथ हो सकते हैं। इस प्रकार कुल उन्नीस परीपर एक साथ एक जीव में होना संभव है। किली आत्मा में किसी समय एक ही परीपह पाया जाता है, किली में एक साथ दो हो सकते है, किसी में तीन और किसी में चार का संभव है। इस प्रकार उन्नील परीषह तक एक साथ एक आत्मा में हो सकते हैं। बील, इक्कील या वाईसों परीषह किसी आत्मा में एक साथ नहीं हो सकते । इसका कारण पहले ही बतलाया जा चुका है कि शीन और उष्ण में से एक तथा शय्या निषया और चर्या में से कोई एक ही परीषह होता है। इस प्रकार वाईस में से तीन परीषह कम हो जाते हैं। शीन और उक्षण में सहानवस्थान का (एक साथ न रह सकना) चिरोध है । चे एक दूसरे का परिहार करके ही रह सकते हैं। એક જીવમાં એક સાથે થઈ શકે છે બાકીના જે સત્તર પરીષહે છે તે બધા જ એક જીવમાં એકી સાથે હોઈ શકે છે. આ રીતે કુલ ઓગણીસ પરીષહ એકી સાથે, એક જીવમાં સંભવી શકે છે. કઈ આત્મામાં કઈ સમયે એક જ પરીષહ જોવામાં આવે છે, કઈમાં એકી સાથે બે હેઈ શકે છે, કેઈમાં ત્રણ અને કઈમાં ચાર સંભવી શકે છે. આ રીતે ઓગણીસ પરીષહ સુધી એકી સાથે એક આત્મામાં હાઈ શકે છે. વીસ, એકવીસ અગર બાવીસે-બાવીસ પરીષહ કોઈ આત્મામાં એકી, સાથે હાઇ શકતાં નથી, એનું કારણ પહેલાં જ પતાવી દેવામાં આવ્યું છે કે શીત અને ઉષ્ણુમાંથી એક તથા શમ્યા, નિષદ્યા અને ચર્ચામાંથી કોઈ એક જ પરીષહ હોય છે. આ રીતે બાવીસમાંથી ત્રણ પરીષહ એ છાં થઈ જાય છે. શીત ઉજ્ઞમાં સહાનવસ્થાન (એકી સાથે ન રહી શકવું) વિરોધ છે. તેઓ એકબીજાને પરિહાર કરીને જ રહી શકે છે. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ तु. १६ एकस्मिन्जीवे कतिपरीषहसंभवः २४७ पहस्य सम्भवे द्वयोरभावः शय्यापरीपहे सति निपया चर्शपरीपहयोरसद्भावः, निषद्यापरीपहे सति शय्या चर्या परीषहयोरभावः, चर्यापरीपहे सखि तु शथ्या निषद्यापरीषयोरसद्भाव एव तिष्ठति, अतएव अयाणां वर्जनं कृतम् । अथैव प्रज्ञाऽज्ञानपरीषहयोरपि सहाऽनवस्थानलक्षणविरोधात् तयोरेकस्यैव परीपहस्य एकात्मनि एकदा सम्भव इति चेत् ३ उच्यते श्रुतज्ञानाऽपेक्षया प्रज्ञापरी पहल्या, ऽवधिज्ञानाऽपेक्षया चाऽज्ञानहरी पडल्य एकदैकात्मनि सम्भवेन विरोधो नास्ति । तथा च क्षुत्पिपासादीनां द्वाविंशतिपरीपाणां मध्ये एकादयो यावद् आ एकोनविंशतिः परीपहा युगपदे कात्मनि भजनीयाः, नतु कदाचिद् एकात्मनि विंशतिः एकविंशति द्वाविंशविळ, उक्तयुक्तेः ॥१६॥ इसी प्रकार शर, निषद्या और चर्चा में से हिली एक का लद्भाव होने पर दो का अखाव होता है। अगर शय्यापरीषह होगा तो निषद्या और चर्या परीषह नहीं होंगे, निषद्या परीषह के होने पर शय्या और चर्या परीषह नहीं हो सकते और चर्या परीपक्ष के होने पर शय्या और निषद्या परीषह नहीं हो लाते। शंका-प्रज्ञा और अज्ञान परीषह में भी सहाऽनयस्थान का विरोध है, अतएव इन दोनों में से भी एक आत्मा में एक साथ एक ही परीषह होना चाहिए। समाधान--प्रज्ञोपरीषह श्रुनज्ञान की अपेक्षा से है और अज्ञान परीषह अवधिज्ञान की अपेक्षा ले । अतएव इन दोनों में पारस्परिक विरोध नहीं है और जब विरोध नहीं है तो दोनों एक साथ हो सकते हैं। इस प्रकार बाईस परीषहों में से एक रहे लेकर उन्नील परीषह આ રીતે શયા, નિષદ્યા અને ચર્ચામાંથી કોઈ એકને સદ્ભાવ હોવાથી બંનેને અભાવ થઈ જાય છે. અગર શય્યા પરીષહ હશે તે નિષદ્યા અને ચર્થી પરીષહ હોઈ શકે નહીં અને જ્યારે ચર્ચાપરીષહ હોય ત્યારે શય્યા અને નિષદ્યા પરીષહ હોઈ શકતા નથી. શંકા–પ્રજ્ઞા અને અજ્ઞાન પરીષહમાં સહાનવસ્થાન ને વિરોધ છે આથી બંનેમાંથી પણ એક આત્મામાં એક સાથે એક જ પરીષહ હોવો જોઈએ. સમાધાન-પ્રજ્ઞા પરીષહ શ્રજ્ઞાનની અપેક્ષાથી છે અને અજ્ઞાનપરીષહ અવધિજ્ઞાનની અપેક્ષાથી આથી આ બંનેમાં પારસ્પરિક વિરોધ નથી અને જે વિરોધ નથી તે બંને એકી સાથે હોઈ શકે છે, આ રીતે બાવીસ પરીષહોમાંથી એકથી લઈને ઓગણીસ પરીષહ સુધી Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रे पूर्वमहारम्भ महापरिग्रहादयो नारक तिर्थङ्मयुष्यायुपा भावना प्रतिपादित: तन्त्र-स्वभावभादवेन मनुष्याचप आस्त्रको भवतीति तदासनिवारणार्थ व्रतादि परिपालनीयम् यद्वा एते द्वाविंशतिः परीपहा व्रतेश्चेव भवन्तील्यतोऽन व्रताधिकारमाह व्रतश्च सम्यक्त्व मन्तरेण न सम्भवतीति पूर्व सम्यक्त्वस्वल्पमाह मूलम्-जिण वयणलदहणं ॥१७॥ छाया-जिनवचनश्रद्धानं रास्यक्त्वम् । १७ मूलम्-हिंलाईहितो विसईचायं ॥१८॥ तक एक आत्मा में एक साथ नजानीया है। एक ही आत्मा एक ही काल में पीला, इझीस अथवा बाईल वरीषह संभव नहीं है। इस विषच थुक्ति पहले फही जा चुकी है ॥१६॥ पहले महारंभ महापरिग्रह आदि नरकायु. तिथंचायु और मनुव्यायु के कारणों का प्रतिपादन किया गया था, वहां यह निरूपण किया गया था कि स्वभाव की मृदुता से मनुष्धायु का आस्रव होता है। इन आयुओं के आस्रव को रोकने के लिये व्रतों का पालन करना चाहिये । अथवा व्रतों के बदलाव में ही यह परीषह होते हैं। अतएव व्रतों का अधिकार करते हैं। किन्तु सम्यक्त्व के व्रत नहीं हो सकते इस कारण सर्वप्रथल लास्वादन का स्वरूप बतलाते हैं 'जिणवधण सहहणं लम्मत' ॥१७॥ सूत्रार्थ--जिन वचनों का श्रद्धान् (श्रद्धाकरला) सम्यक्त्व है ॥१७॥ એક આત્મામાં એકી સાથે હોઈ શકે છે એક જ આત્મામાં, એક જ કાળમાં વીસ, એકવીસ અથવા બાવીસ પરીષહ હોઈ શકતાં નથી આ વિષયમમાં યુક્તિ અગાઉ કહેવામાં આવી ગઈ છે. ૧૬ આ પહેલાં મહારંભ, મહાપરિગ્રહ આદિ નરકાયુ, તિર્યંચાયુ અને મનુષ્પાયુના કારણેનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હતું, ત્યાં એ પણ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હતું કે સ્વભાવની મૃદુતાથી મનુષ્યાયુને આસવ થાય છે. આ આયુઓના આસ્રવને રોકવા માટે વ્રતનું અનુષ્ઠાન કરવું જોઈએ અથવા ત્રના સભાવમાં જ આ પરીષહ હોય છે આથી વતને અધિકાર રહીએ છીએ પરંતુ સમ્યક્ત્વ વગર વ્રત થઈ શકે નહીં આથી સર્વપ્રથમ સમ્યક્ત્વનું સ્વરૂપ બતાવીએ છીએ– भूलम्-जिणवयणसहणं सम्मत्त' ॥१७॥ - સૂત્રાર્થ-જિનવચમાં શ્રદ્ધા રાખવી સમ્યક્રવ છે. ૧ળા Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ - 17 - छाया हिंसादिभ्यो विरति व्रतम् | १८/B-AGN . १८-२४ विस्त्यदिव्रतनिरूपणम् -1 x N - मूल्य - तं लमओ देसओ मह अ " F छाया - तत् सर्वतो देशती, भद - च । १९ -धूप-सबओ अणगाररस, ते पंच दलओ, अगर ते है औ बारस ||२०|| 1971 छाया - सर्वतोऽनगारस्य, तानि पञ्च, देशवोऽवारिणः तिघरा । २० मूलम् - ताई बारस, अणुव्वय गुणव्वय- सिक्खायय क्षेत्रा छाया— तानि द्वादश पनि 'अणुत्र गुणव्रत- शिक्षा सलग १ 'हिंसाई हितो चिरई ॥१ ARE YOU BF 2073/2 - हिंसादिपापों से निवृतः ॥ १८ ॥ 'तं सन्देओ यहं अणू' ॥१९॥ सूर्य-चिरति दो प्रकार की सर्व पिरति । सर्वविरति को ही कहते हैं, देश विरति को अनाहते है है । 'लब्बभो अणगारस्त्र, ते पंच, देखभी आगरिस्ट) से चैक h सूत्रार्थ--सर्वविरति अनगार-साधु के होते है प देशविरति रूप ब्रन गृहस्थ श्रावक के होते हैं। वे बाहेर 'लाई वा अय, गुणव्यय-सिक्खाय ॥२१॥ समार्थ--अणुवन, गुणन और शिक्षायों के मे से के व्रत बारह प्रकार का है ॥२॥ 3 १७ इसे " मूलमू- हिंलाई हितो विरई वय १८ -E સૂત્રીય હિંસા આદિ પાપાથી નિવૃત્ત થવુ વ્રત કહેવાય છે 'आई ,,, मूलम् - तं सङ्घबओ देसओ सह अणूय S 18. सुत्रार्थी - विश्ति से अधारनी है-सृर्व विरति भने हेरा विरति सर्व विरतिने મહાવ્રત કહે છે, દેશવિરતિને અણુવ્રત કહે છે. ૧૯ વરી હોય '''',,': मूलसू+, खबाओ, अणगाररस ते पंच, देखओ आगुरिस्ट, वे वारस ॥२०॥ સૂત્રા-સવિરતિ અણુગાર સાધુને હાય છે તે પાંચ છે દેશવિરતિ षि व्रत ग्रहस्था श्रवने होय. छे. ते बार होय २० # STUD मूलम् - ताई बारस, अणुव्ववय, गुणव्व- सिखावयभेया ॥२ सूत्रार्थ-भभुवंता, गुरुताने शिक्षाप्रत नागरथी श्रीवामा व्रत मार પ્રકારના છે. ા૨૧૫ त० ३२ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे ३५० __यूलम्-तस्थ अणुव्वयाई पंच, थूल-हिंसा-मुसावायतेणिक मेहुण-परिग्गहविरमणभेया ॥२२॥ छाया-ताणुव्रतानि पञ्च, स्थूलहिंसा मृपावाद-स्तैन्य मैथुन-परिग्रहविर प्रणभेदात् ॥२२॥ मूलम्-गुणवयाई तिन्नि, दिसिव्वय-उवभोगपरिभोगपरिलाण अणटूदंडविरमणभेया ॥२३॥ छाया-गुणघ्रतानि त्रीणि, दिग्नतो-पभोगपरिभोगपरिमाणानर्थदण्डविरमण. भेदाम् ॥२३॥ ___ मूलय--सिक्खावयाई चत्तारि, सामाइय-देसावगासियपोलहोववास-अतिहिसंविभागभेया ॥२४॥ तस्थ अणुध्वयाई पंच थूल हिंसा मुसावाय-तेणिक मेहुण-परिगानिश्मणभेया' ॥२२॥ स्त्रार्थ--अणुव्रत पांच है-(१) स्थूल हिंसाविरमण (२) स्थूल मृषाबादविरमण (३) स्थूल स्तेयविरमण (४) स्थूल मैथुन विरमण और स्थूल परिग्रह विरमण ॥२२॥ 'गुणव्वयाई तिन्नि, दिसिन्वय उवभोगपरिभोगपरिमाणअणट्ठ दंडविरमणभेया ॥२३॥ सूत्रार्थ--गुणव्रत तीन हैं-दिशाव्रत, उपभोग परिभोग परिमाण और अनर्थदण्ड विरमण ॥२३॥ ' 'सिक्खावयाई चत्तारि, सामाइय-देसावगासिय-पोसहोववास अतिहिसंविभागभेया ॥२४॥ मूलमू-तत्थ अणुव्वयाई पंच थूल-हिंसा-मुसावाय-तेणिक-मेहुणपरिगहविरमणभेया ॥२२॥ सूत्रा-माव्रत पाय छ-(१) स्थूहिसा विरभY (२) स्थूभृषावाह विरम (3) स्थूरतय विरभ (४) स्थूणभैथुन वि२भए मन (५) २थूजપરિગ્રહ વિરમણ. .રરા मूलम्-गुणव्वयाई तिन्नि, दिसिव्वय-उवभोग परिभोग परिमाण अणटुदंड विरमणभेया २३ સૂત્રાર્થ-ગુણવ્રત ત્રણ છે-દિશાવ્રત, ઉવગ પરિભેગ પરિમાણ અને અનર્થદન્ડ વિરમણ. ર૩ ___ मूलम्-सिक्खावयाइं चत्तारी, सामाइय-देसावगामिय-पोसहोववासमतिदिसंविभागभेया २४ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. २५ हिंसास्वरूपनिरूपणम् छाया-शिक्षात्रतानि चत्वारि, सामायिक देशावकाशिक-पोषधोपवासा-तिथि संविभागभेदात् ।२४ मूलम्-पमत्तजोगा पाणाइवायो हिंसा ॥२५॥ छाया-प्रमत्तयोगाव-माणातिपातो हिंसा २५ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत्-महारम्भ महापरिग्रहादयो नारक-तियङ्. मनुष्यायुषा मात्र वो भवतीति प्रतिपादितम्, तत्र-महारम्भ महापरिग्रहादी हिंसाऽवश्य भाविनीति हिंसास्वरूपमाह-पमत्तजोगा' इत्यादि। प्रमत्तयोगात्माणातिपातोहिंसा, तत्र प्रमत्तयोगात् प्रमाद्यति, इति प्रमत्तः प्रमादपरिणत आत्मा, प्रमादश्च -कषायनिमित्तक आत्मपरिणामः । कषायत्वं वा प्रमादः कषायाणां प्रमादहेतुत्वात् सूत्रार्थ--शिक्षाबतचार हैं-सामायिक, देशावकाशिक पोषधोपवास और अतिथिसंविभाग ॥२४॥ 'पमत्तजोगा पाणाइवाया हिंसा ॥२५॥ सूत्रार्थ--प्रमाद युक्त योग से प्राणों का अतिपात करना हिंसा है ॥२५॥ 5. • तत्त्वार्थदीपिका--पहले प्रतिपादन किया गया था कि महारंभ 'और महापरिग्रह आदि नरकायु, तियेचायु और मनुष्यायु के आस्रव हैं। महारंभ और महापरिग्रह आदि में हिंसा अवश्य होती है, अतएव हिंसा का स्वरूप कहते हैं प्रमत्त योग से प्राणों का अतिपात करना हिंसा है। प्रमाद से युक्त आस्मा प्रमत्त कहलाता है । कषाय के निमित्त से होने वाला आत्मा का परिणामविशेष प्रमाद कहा जाता है । अथवा कषाय ही સૂત્રાર્થ-શિક્ષાવ્રત ચાર છે-સામાયિક, દેશાવકાશિક, પૌષધેપવાસ અને અતિથિસંવિભાગ. પારકા मूलम्-पमत्तजोगा पाणाइवाया हिंसा ॥२५॥ સૂત્રાર્થ–પ્રમાદયુક્ત યેગથી પ્રાણને અતિપાત કર હિંસા છે. ૨પા તત્વાર્થદીપિકા–પહેલા પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હતું કે મહારંભ અને મહાપરિગ્રહ આદિ નરકાયુ તિર્યંચાયુ અને મનુષ્યાયુના આસવ છે. મહારંભ અને મહાપરિગ્રહ આદિમાં હિંસા અવશ્ય હોય છે આથી અમે હિંસાનું સ્વરૂપ કહીએ છીએ પ્રમત્ત એગથી પ્રણેને અતિપાત કર હિંસા છે. પ્રમાદથી યુક્ત આત્મા પ્રમત્ત કહેવાય છે. કષાયના નિમિત્તથી થનારા આત્માને પરિણામ વિશેષને પ્રમાદ કહેવામાં આવે છે, અથવા કષાય જ પ્રમાદ છે કારણ કે તે Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ तित्वार्धसूत्र, तहान ममत्तः पश्यते । यद्वा-इन्द्रियाणां प्रचारमबंधार्याऽपरामश्या ऽविचामिक 'तमान अस्मिाँ ममत्तः । यद्वा अर्द्ध कपायोदय प्रतिष्टः भाणातिपातस्य हेतु स्थितोऽपि योऽहिंसागं शाठयेन कपटेन, दम्भेन यत्नं . विधत्ते नेतु परमार्थेन से प्रमत्त उच्यते ! अथवा निम्नोक्त पञ्च प्रभादोपेतत्वात्ममत्ता, पञ्च प्रमादा यथा मजं विलयकेसायां निंदाधिकहाय पंचमी भणिया। का एएपंच पनाया जीव पाडे तिलसारे ॥१॥ समिपयकपायाः निद्राविकथा च पञ्चमी भणिताने , -की । एसे एञ्च प्रमादा जीव भासयन्ति संसारेगाशा : 2 इति समवस्याऽऽत्मनाभ्योग मनोवाक्कायक्रियारूपः ममत्तयोगात इन्द्रि यादीनां दशाणानां यथासम्भवमतिपातो व्यपरोपणं, वियोजन हिंसा ॥२५॥ प्रमोद क्यों विवाह मंसाद को कारण है । जो प्रमाद-वाला हो वह या बिना विवेक के-अनसमझे, अनसोचे प्रवृत्ति करने वालों आरमी प्रमत्त है । अथवा जिसके तीन कपाय का उद्घ हो और जो हिंसा के कारणों में स्थित होकर भी धूर्तता कपट-या-दंभ से यतना करता हो, पारमार्थिक रूप से नहीं, उसे प्रमत्त कहते हैं । अथवा जो पांच प्रकार के प्रसार आयुक्त हो वह प्रमत्त कहलाता है। पांच प्रमाद इस प्रकार हैं लय इन्द्रियों के विषय क्रोधादि कषाय, निद्रा और विकथा, ये चमारजीन को- संसार में अर्थात जन्म-मरण के चक्र में गिराने वाले हैं। समान अश्मा का योग- अर्थात् मन-वचन काघ का व्यापार प्रमत्त. योगमहलाता है। प्रमत्त योग से इन्द्रिय दस-प्राणों का यथा-संभवः वियाग करना हिला है ॥२५॥ . . . . . . . .--- - - પ્રમાદનું કારણ છે. જે પ્રમાદી હોય તે અથવા વિવેક વગર, વગર સમયેવગેર વિચચે પ્રવૃત્તિ કરનારી આત્મ પ્રમત્ત છે અથવા જેને તીવ્ર કષાયને ઉદય થાય તેમજ જે હિંસાના કારણોમાં સ્થિત થઇને પણ ધૂતા- કપટ અથવા દંભથી ભૂતના કરતા હોય, પારમાર્થિક રૂપથી નહી તેને પ્રેમ કહે અથવા ચિ પ્રકારની પ્રમાદેથી યુક્ત હોય તે પ્રમત્ત કહેવાય છે. पायामाई गई प्रमाण ----- - - "न्द्रियामा विषय, धादिपाय, निद्रा भने विश्था, 'मी पाय પ્રદ સંસારમાં અર્થાત્ જન્મ-મરણ ચવામાં પડનાર કહ્યાં છે. પ્રમત્ત આત્માને ચાગ અર્થાત્ મન વચન કાયાને પાર પ્રમત્તયાગે કહેવાય છેપ્રેમગથી ઈધિ આદિ દેશ પ્રણેનો યથાસંભવ વિયોગ ४२१ डिसा imum t...' Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D : --- -. .. दीपिका-नियुक्ति टीका म. ७ सू. २५ हिंसास्वरूपनिरूपणम् तत्वार्थनियुक्तिः पूर्वमूत्रे महारम्भमहापरिग्रहादयो नारतिय मनुष्यायुषामानवो भवतीति प्रतिपादितम्,लहारम्भ महापरिग्रहादौ हिंसाऽवश्यम्भाविनीति हिंसास्वरूपमाह-'फसत जोगा पाणावायो हिला': इति । प्रमचयोगात्-मद्यविषयादिभिः पञ्चभिः समादेः प्रमाचतीति प्रमत्तः आत्मा तन-ममादाः पञ्च,यथा-- -- 'मज्जं विलयकलाथा निहादिकाय पंचमी भणिया। . ... ... एए.पंच पक्षाया-जीवं पाति संसारे ॥१॥..- मध विषयकषाया निद्रा विकथा च पञ्चमी भणिता। . . , एते पञ्च प्रमादा जीवं पातयन्ति संसारे ॥१॥ इति, - तत्र मध शीध्वादिकं प्रसिद्धं तच्च-ममायहेतुत्वान्मधं प्रमादः १ विषयाः पञ्च स्पर्शनादि पञ्चेन्द्रियजन्यत्वात् ५ कपाया क्रोधादयश्चत्वारः ४ निद्रा, निद्रा निद्रादि...सत्यार्थनियुक्ति--पूर्व मूत्र में बतलाया गया था कि महारंभ, महा परिग्रह आदि शब्दले पञ्चेन्द्रिय बध, मद्यमांस का सेवन करना नारक, तिर्यंच और मनुष्यगति आदि के कारण हैं, महारंभ और महापरिग्रह आदि में हिला - का होना अनिवार्य है, इस कारण यहां हिला का स्वरूप कहते हैं - - . . . . . . . ... : -... --~-- .. प्रमत्तयोग से प्राणों का अतिपात्र · करना हिंसा है। प्रमत्सयोग अर्थात् मद्य विषय आदि जांच प्रभादों से युक्त आत्मा के व्यापार से प्राणों का जो वियोग होता है, उसे हिला कहते हैं। प्रमाद पांच हैं, यथा 'मच, विषय, कषाय, निद्रा:-और- विश्था, ये पांच-प्रमाद जीव को संसार में परिभ्रमण कराते हैं-॥१॥. . . . . ., " सीधु आदि मदिरा को अद्य कहते हैं । यह लोक में प्रसिद्ध है । मद्य .. તન્નાથ નિર્યુકિત –પૂર્વસૂત્રમાં બતાવવામાં આવ્યું હતું કે મહારંભ મહાપરિગ્રહ ઠ આદિ શબદથી પંચેન્દ્રિયવધ, દરે માંસનું સેવન કરવું–નારક તિયચ અને, મનુષ્યગતિ આદિનાં કારણે છે. મહારંભ અને મહાપસ્થિ આદિમાં હિંસાનું દેવું અનિવાર્ય છે, આથી અહીં હિંસાનું સ્વરૂપ કહીએ છીએ1. ૯ પ્રસન્ન રોગથી પ્રાણેનેવિગ ઉર હિંસા છે પ્રમતગ અર્થાત્ દારૂ વિષય આદિ પાંચ પ્રમાદેશી વ્યક્ત આત્માનું વ્યાપારથી પ્રાણને જે વિગ થાય છે તેને હિંસાનું કહે છે. પ્રસાદ પાંચ છે જેવા કે-- - : " ___भ विषय, उपाय, निम-विथा, "An पाय प्रमाः वने ससारम, परिश्रमाय ४२शवनास 'छे. ॥१॥ ' : - साधु. नि :मध छ । २ मा प्रसिद्ध 2. २५शन, - - Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ManestheadlivoramataindestruaMaNMIUMeraaaaamwada Milindime तत्वार्थ २५४ भेदात्पञ्चविधा ५ विकथा स्त्री, भक्त, देश, राजभेदाच्चतुर्विधा४ इत्येवमेकोनविशतिभेदभिन्नाः प्रमादाः पश्च, तद्वारको रागद्वेपा तत्परिणत आत्मा प्रमत्त उच्यते, प्रमत्तस्य योगो व्यापारश्चेष्टा, प्रमत्तस्यात्मनः कपायादिचेष्टा, तस्मात् प्रमत्तयोगात् प्रमत्तव्यापारेण प्राणातिपातः प्राणव्यपरोपणं हिंसा प्रमत्तयोगमासाद्य प्राणातिपातं कुन्नात्मा हिंसां निष्पादयति । प्राणाः पञ्चेन्द्रियाणि मनोबाकायाः माणापान मायुश्चेति दश विधाः द्रव्यपरिणामलक्षणः पृथिव्यादि. को प्रमाद का कारण होने से प्रमाद कहा है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियों के विषय स्पर्श ओदि पांच हैं । क्रोध आदि कषाय चार हैं । निद्रा पांच प्रकार की है-निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्थानधि । स्त्री कथा भक्तकथा,। (भोजनकथा) देशकथा और राजकथा के भेद से विकथा के चार भेद हैं। इस प्रकार प्रमाद के उन्नीस भेद हैं । इनके कारण आत्मा में राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है। जो आत्मा प्रसाद युक्त होता है वह प्रमत्त कहलाता है। प्रमत्त के योग अर्थात् व्यापार या चेष्टा को प्रमत्तयोग कहते हैं। प्रमत्त आत्मा की चेष्टा से प्राणों का वियोग होना हिंसा है। प्रमत्तयोग को प्राप्त होकर प्राणातिपोत करता हुआ आत्मा हिंसा को उत्पन्न करता है। प्राण दस है-पांच इन्द्रियां, मन, वचन, काय प्राणापान और आयु, ये द्रध्य प्राण कहलाते है और पृथ्वीकाय आदि में यथा योग्य रूप से पाये जाते हैं, अर्थात् एकेन्द्रियों में चार, द्वीन्द्रिय में छह, રસના વ્રણ, ચક્ષુ અને શ્રેત્ર ઇન્દ્રિયના વિષય સ્પર્શ આદિ પાંચ છે. ક્રોધ माहि षाय या२ छ. निद्रा पांय ४:२नी छ-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रया, પ્રચલાપ્રચલા અને ત્યાનધિ સ્ત્રીકથા, ભત્તકથા (જન સંબંધી કથા) દેશકથા અને રાજસ્થાના ભેદથી વિકથાના ચાર ભેદ છે. આ રીતે પ્રમાદના ઓગણીસ ભેદ છે. આના કારણે આત્મામાં રાગદ્વેષની ઉત્પત્તિ થાય છે. જે આમ પ્રમાદયુક્ત હોય છે તે પ્રમત્ત કહેવાય છે. પ્રમત્તના ગ અર્થાત્ વ્યાપાર અથવા ચેષ્ટાને પ્રમત્તયેગ કહે છે. પ્રમત્ત આત્માની ચેષ્ટાથી પ્રાણેનો વિગ થે હિંસા છે. પ્રમત્તયોગને પ્રાપ્ત થઈ ને પ્રાણાતિપાત કરતે થકે આમાં હિંસાને ઉત્પન્ન કરે છે. પ્રાણ દશ છે–પાંચ ઈન્દ્રિ, મન, વચન, કાયા, પ્રાણુ પાન અને આયુ આ દ્રવ્યપ્રાણ કહેવાય છે અને પૃશ્વિકીય આદિમાં યથાગ રૂપથી જોવામાં Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. २५ हिंसास्वरूपनिरूपणम् २५५ कायेषु यथायोग्य मवस्थिता स्तेपा मतिपातो व्यपरोपणम् अपनयन मात्मनो वियोजनं पृथक्करणं हिंसा । उक्तञ्च 'पञ्चेन्द्रियाणि ५ त्रिविधं वलञ्च ३ उच्छवास निश्वास १ मथान्यदायुः। प्राणदशैते भगवद्भिरुक्ता स्तेषां वियोगीकरणन्तु हिंसा ॥१॥ ___ अथवा-ययाऽऽत्मपरिणतिक्रियया प्राणव्य परोपणं भवति, सा क्रिया वर्त समवेता हिंसा उच्यते, तत्र-प्रमत्त एव हिंसको भवति नाऽप्रमत्तः । स खलुप्रमत्त आप्त पुरुषोक्तागमनिरपेक्षो दूरीकृताऽऽर्षसूत्रोपद्देशः स्वच्छन्दतया प्रभावित कायादिवृत्तिः अज्ञानपूर्णः माणिप्राणाऽपहरणमवश्यङ्करोति । सा खलु हिंसा श्रीन्द्रिय में सात, चतुरिन्द्रिय में आठ, असंज्ञी पंचेन्द्रिय में नौ और संज्ञी पचेन्द्रिय में दस प्राण होते हैं । कहा भी है___ 'पांच इन्द्रियां तीन बल (मनोवल, वचनबल, कायबल), उच्छ्वास निश्वास और आयु, ये दस प्राण भगवान ने कहे हैं । इनमें से किसी का भी वियोग करना हिंसा है' ॥१॥ ____अथवा आत्मा के जिस परिणाम (अध्यवसाय) से प्राणों का व्यपरोपण होता है. उसे हिमा कहते हैं। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि प्रमत्त जीय ही हिंसक होता है, जो प्रमाद से रहित है वह हिंसक नहीं होता। प्रमादी पुरुष आप्त जनों द्वारा प्रणीत आगम की परवाह नहीं करता, ऋषि प्रणीत आगम से प्रतिकूल व्यवहार करता है, काय आदि का स्वच्छन्द रूप से व्यापार करता है एवं अज्ञान से परिपूर्ण होता है। वह अवश्य ही प्राणियों के प्राणों का प्रणाश करता है। આવે છે, અર્થાત એકેન્દ્રિમાં ચાર, દ્વીન્દ્રિમાં છે, તેઈન્દ્રિયમાં સાત ચતુરિદ્રિયમાં આઠ, અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયમાં નવ અને સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયમાં દશ પ્રાણ હોય છે કહ્યું પણ છે પાંચ ઈન્દ્રિયે, ત્રણ બળ (મનેબલ, વચન બળ કાયબલ) ઉચ્છવાસ નિશ્વાસ અને આયુ આ દશ પ્રાણ, ભગવાને કહ્યા છે. આમાંથી કેઈને પણ વિચાગ કર હિંસા છે. ના અથવા આત્માના જે પરિણામ (અધ્યવસાય)થી પ્રાણને નાશ થાય છે તેને હિંસા કહે છે. એ વાત ધ્યાનમાં રાખવા ગ્ય છે તે પ્રમત્ત જીવ જ હિંસક હોય છે, જે પ્રમાદથી રહિત છે તે હિંસક હતા નથી. પ્રમાદી પુરૂષ આપ્તજને દ્વારા પ્રણીત આગમની પરવા કરતું નથી, છષિપ્રણીત આગમથી પ્રતિકૂળ વ્યવહાર કરે છે, કાયા આદિને સ્વચ્છન્દ રૂપથી વ્યાપાર કરે છે અને અજ્ઞાનથી પરિપૂર્ણ હોય છે, તે અમિત પ્રાણીઓના પ્રાણના , વિનાશ કરે છે. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द . . . " ' . . : ... ... " : द्विविधा, द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्यतः पाणिनां प्राणव्यारोपणं भावत आत्मनो मलिन परिणामः । तत्र प्राणातिपातविरतस्य सोपयोग विहरतो मुनेर्या पादन्यासेन माणिरक्षा प्रवृत्तस्यापि कश्चित् माणिमणव्य परोपणरूपा हिंसा. भवेत् सा भावहिंसा, तथाहि क्रोधादि व पाशदि प्रमादाधीनस्य व्याधस्याऽऽकृष्टचापस्य द्रव्य हिंसा, न तु भावतः इति । संहपुनः भोवतः प्राणातिपातो. भवति सा भावहिंसा, तथा हि-क्रोधादि, कषायादि प्रमादाधीनस्य व्याधरयाकृष्टचापस्य वाणविषयवतिने हरिण बुद्दिश्य प्रक्षिप्तबाणस्य बाणपतनकालात्मागेल. तद्देशा दपसने हरिणेऽशुद्धचित्तत्वादेव घाणातिपाताऽकरणेऽपि द्रव्यतोऽपि नष्टेपि - हिला दो प्रकार ही है-देव्यतिमा और भारहिला प्राणी के प्राणों का विशेग करना द्रव्याहिंक्षा है और आत्मा का मलिन परिणाम होना आवहिता है। जो मुनि पाणातिपात, से निवृत्त हो चुका है, यतना पूर्व विचरण कर रहा है और जीवों की रक्षा में सावधानी वर्त रहा है, उसके पांच रखने हे. यदि मिली जी का घात हो जाय तो वह केवल द्रव्याहिस्सा है, भावना नहीं। अध्यवसायपूर्वक जो प्राणातिपात किया जाता है, वह भाहिला है। कोई ध्याध क्रोध आदि कषाय के अधीन हो रहा है, उसने हिरण को करने के लिए वाण खींचा और उले छोडा, मंगर इस बीच हिरण एक स्थान से दूसरे स्थान पर चला गया और उसे वाण नहीं लग पाया। इस प्रकार प्राणातिपात ही नहीं हुआ-द्रव्यप्राणों का धरोपण नहीं हुआ, और इस कारण द्रव्धहिंसा नहीं हुई, फिर श्री व्याध का' चित्तं अशुद्ध * * હિંસા બે પ્રકારની છે-હિંસા અને ભાવહિંસા પ્રષ્ટિને માણને વિગ કરવો દ્રવ્યહિંસા છે અને આત્માનું મલીન પરિણામ હોવું ભાવહિસા છે જે મુનિ પ્રાણાતિપાતથી નિવૃત્ત થઈ ગયા છે, યતનાપૂર્વક વિચરણ કરી રહ્યા હોય અને જેની રક્ષામાં સાવધાનીવાળા રહે છે, તેમના પગ મુકવાથી જે કઈ જીવને ઘાત થઈ જાય તે તે કેવળ દ્રવ્યહિંસા છે, ભાવહિંસા નહીં. અધ્યવસાયપૂર્વક જે પ્રાણાતિપાત કરવામાં આવે છે તે ભાવહિંસા છે. કેઈશિકારી ક્રોધ આદિ કષાયને તાબે થઈ રહ્યો હોય, તેણે હેરણને મારવા માટે શરસંધાન કર્યું હોય અને બાણ છોડયું હોય પરંતુ આ દરમ્યાન હરણ એક જગાએથી અન્ય સ્થળે દેડી, ગયું અને પેલું બાણ તેને વાગ્યું હોય તો પણ આ રીતે પ્રાણાતિપાત ન થયે કથાનું પર પણ થયું નહીં અને આથી દ્રવ્યહિંસા થઈ નહી તે છતાં શિકરીનું ચિત્ત અશુદ્ધ અર્થાત્ હિંસામય હોવાથી તેને હિંસાનું પાપ તો जर । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. २६ मृषावादरवरूपनिरूपणम् २५७ माणिनि लगत्येव हिंसा याणविक्षेपकस्य, हिंमर त्वरूपेणाऽऽ मपरिणतिसवात् स्वकृत सुकृति दृढा युककर्मपात् मृगस्य तस्थानात्वला ने, स्वप्रयासे विफ. लोऽपि हन्तुश्चित्तं घातकमेव भवति, मनसः क्लिष्टत्वात् । एवं तस्याऽविशुद्धमावस्य जिघांसोरुक्तान्त पाणिप्राणसमुदायस्थले भावतो हिंसा, या वादृश परिस्थिती मृगो म्रियते तदा तत्रोभाभ्यां द्वाभ्यामपि द्रव्यमाभ्यां समुदिताभ्यां मवेत् । ततस्तस्य प्रमत्तयोगातू प्राणातिपातरूपा हिंसा भवतीतिभावः ॥२५॥ मूलम्-असच्चाभिहागं मुसावाओ ॥३६॥ छाया-'असत्याऽभिधान मृषावादः ॥२६॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व तावत् प्रपत्तयोगा प्राणातिपातलक्षणं हिंसा स्वरूपं पाणातिपातादिविनिवृत्ति लक्षगत्रतविरोधितया प्रतिपादिनम्, सम्पति-तद्विरो. अर्थात् हिंसामय होने से उसे हिंसा का पाप लगता ही है । व्याध की आत्मा की परिणति हिंसारूप है, अतएव आयु का प्रगाढ बन्ध होने से हिरण उस जगह से भग गया और व्याध का प्रयास सफल नहीं हुआ, फिर भी उसका चित्त तो हिंसक ही है । कदाचित् व्याध के द्वारा छोडा हुआ वाण लक्ष्य पर लग जाय और मृग का वध हो जाय तो ऐसी परिस्थिति में द्रव्य और भाव- दोनों प्रकार की हिंसा होती है। इस प्रकार प्रमत्तयोग से उस व्याध को प्राणातिपात रूप हिंसा होती है ॥२५॥ 'असच्चाभिहाणं मुसावाओ।' सूत्रार्थ-असत्य कहना मृषावाद है ॥२६॥ तत्वार्थदीपिका-पहले प्रमत्तयोग से प्राणों का अतिपात करना हिंसा है, इस प्रकार हिंसा के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, जो લાગે જ છે. શિકારીના આત્માની પરિણતિ હિંસ રૂ૫ છે, આથી આયુષ્યનું પ્રગાઢ બન્શન હોવાથી હરણ તે સ્થળેથી નાસી ગયું અને શિકારીનો પ્રયત્ન સફળ થયો નહીં તે પણ તેનું ચિત્ત તે હિંસક જ છે. કદાચિત શિકારી દ્વારા છેડાયેલું તીર લક્ષ્ય પર વાગી જાય અને હરણને વધ થઈ જાય–આવી પરિસ્થિતિમાં દ્રવ્ય અને ભાવ–બંને પ્રકારની હિંસા થાય છે. આ રીતે પ્રમત્ત એગથી તે શિકારીની પ્રાણાતિપાત રૂપ હિ સા હ ય છે. રક્ષા 'असच्चाभिहाणं मुसावायो। સૂત્રાર્થ—અસત્ય કહેવું મૃષાવાદ છે પરદો - તવાથદીપિકા-ચા પહેલા પ્રમત્ત રોગથી પ્રાણોને અતિપાત કરે હિંસા છે, આ રીતે હિંસાના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું, જે त ३३ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवास ६५९ धितया प्रमप्राप्तस्य द्वितीयस्य मृपावादस्याऽनृतस्य स्वरूपं निरूपयितुमा 'असच्चालिहाणं सुसाबाओ' इति । असत्याऽभिधानम् -सच्छन्दस्व प्रशंसा: रूपोऽर्थः न सद्-असद् अप्रशस्तम्, असधुक्तम् असत्यम् अतृतम्, ऋतं सत्यम्, ल ऋतम् अन्टनम् प्राशस्त्यरहितं प्रमत्तयोगाद् यदभिधानं वचनं स मृपावाद उच्यते । तथा च-अमतोऽप्रशस्तस्य विद्यमानार्थस्थाऽविद्यमानस्य वा पाणिपीडाकारकस्य वचनस्य यदभिधान-कथनं तदनुरूपो मृपावादः, प्रमत्तयोगाद्यदुच्यते सद नृतं भवति । एवञ्च-रद् हिंसात्म वचनं तदन्तमिति बोध्यम् यद्-वचनं फर्णकर्कशं कर्णशूल प्रायं हृदयनिष्ठुरं मनः पीडाकरं विमलापमाय विरुद्धपळापकल्पं विरुद्धश्चर्न प्राणिवध बन्धनादि जनक वैरकारक कलहादिकरम् उस्त्रास. प्राणातिपात विषण ब्राझा विरोधी है, अब दूसरे वनविरोधी मृषाबाद रूप अलस्थ का स्वरूप कहते हैं. अलत्य भाषण करना वृषावाद कहलाता है। 'सत्' शब्द का प्रशंसा रूप अर्थ है । जो 'सत्' न हो वह 'अमत्' अर्थात् अप्रशस्त । 'असत्' ले जो युक्त हो उसे असत्य कहते हैं अर्थात् अनृत । ऋत का अर्थ है मस्थ, जो ऋन न हो सो अन्न्न अर्थात् प्रशस्तता से रहित । प्रमत्तयोग से असत्य कहना सृषा शाद है । इस प्रकार अप्रशस्त वचन का तथा विद्यमानार्थक या अविद्यमानार्थक पीडाकारी वचन का कथन करना मृषावाद है। तात्पर्य यह है कि जो वचन हिंसात्मक है वह असत्य है । जो वचन कानों को कठोर लगता है, कानों में कांटे की तरह चुमता है, हृदय को निष्ठुर प्रतीष होता है, मन में पीडा उपजाता है जो विलाप जैसा है-विरुद्ध पलाप जैसा है, विरुद्व है, प्राणी પ્રાણાતિપાત વિરમણવ્રતનું વિરોધી છે. હવે બીજા વ્રતવિરોધી મૃષાવાદ રૂપ અસત્યનું સ્વરૂપ કહીએ છીએ અસત્ય ભાષણ કરવું મૃષાવાદ કહેવાય છે. “સત્ ” શબ્દને પ્રશંસા રૂપ અર્થ છે. જે “સ” ન હોય તે “અસ” અર્થાત અપ્રશસ્ત અસથી જે યુક્ત હોય તેને અસત્ય કહે છે અર્થાત્ અમૃત તને અર્થ છે સત્ય, વાત ન હોય તે અતૃત અર્થાત પ્રશસ્તતાથી રહિત પ્રમત્ત રોગથી અસત્ય કહેવું મૃષાવાદ છે. આ રીતે અપ્રશસ્ત વચનનું કથન કરવું મૃષાવાદ છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે વચન હિંસાત્મક છે તે અસત્ય છે. જે વચન કાને કર્કશ લાગે છે, મનમાં કાંટાની જેમ ખુંચે છે, હૃદયને નિષ્ઠુર ભાસે છે, મનમાં દુઃખ ઉપજાવે છે, જે વિલાપ જેવું છે-વિરૂદ્ધ પ્રલા૫ જેવું છે, વિરૂદ્ધ છે, પ્રાણીના વધ અથવા મધનને પિતા છે, વૈરવૃત્તિવાળું છે, કલહ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. २६ मृपावादस्वरूपनिरूपणम् करम् आचार्योपाध्याय गुर्वाधवज्ञाकरं भवति, तत्सर्वमन्त मुच्यते । अनृतस्य विवक्षाऽपि अनृतवचनोपायचिन्तनमपि प्रभत्तयोगादनृतं बोध्यम् ॥२६॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्वसूत्रे-हिंसादि विरदिलक्षणवतघटकतयोपात्तानां हिंसाऽनृतस्तेयमैथुनपरिग्रहाणां मध्ये प्रयमं हिंसायाः स्वरूपं निरूपितम्, सम्प्रति-क्रममाप्तस्य द्वितीयस्य मृपावादस्य स्वरूपं निरूपयितुमाह-'असच्चाभिहाणं मुसाधाओ' इति । असत्याऽभिधानम्-प्रमत्तयोगात् असदभिधानम्, सच्छन्दः प्रशंसाबाची सतः प्रशस्तस्य भावः सत्यम् न सत्यम्-असत्यम्, अपशस्तम् अभिधानं-वचनं मृषावाद उच्यते, अभिधानशब्दो भावप्ताधना-करणसाधनो वा बोध्यः । तथा च प्रमत्तः कायवाङ्मनोयोगर्यदसदभिधानं प्रयुके, तदनृतके वध या बन्धन का जनक है, बैर कारक है, कलह आदि को उत्पन्न करता है, त्रसोत्पादक है, आचार्य उपाध्याय अथवा गुरु आदि की अवज्ञा करने वाला होता है, वह सम अन कहलाता है। अनृत भाषण की इच्छा करना और अन्न बोलने का उपाय सोचना भी प्रमत्तयोग के कारण अन्न ही है, ऐसा समझना चाहिए ॥२६॥ . तत्त्वार्थनियुक्ति--हिंसा विरति आदि व्रतों के विरोधी हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रह में से हिंसा का स्वरूप पहले कहा जा चुका है । अब कम प्राप्त दूसरे मृषावाद का स्वरूप कहते हैं प्रमाद के योग से असत्य भाषण करना भूषामाद है । सत् शब्द प्रशंसावाचक है।सत अर्थात् प्रशस्त का साथ सत्य कहलाता है। जो सत्य न हो वह असल्य या अप्रशस्त, ऐसा वचन मृषावाद। . - 'अविधान' शब्द मानसाधन अथवा करण साधन समझना વગેરેને ઉત્પન્ન કરે છે, ત્રાત્પાદક છે, આચાર્ય ઉપાધ્યાય અથવા ગુરૂ વગેરેની અવજ્ઞા કરનાર હોય છે. આ બધું અમૃત કહેવાય છે. અમૃત ભાષગુની ઈચ્છા કરવી તેમજ અનુત બેલાને ઉપાય શોધ એ પણ પ્રમત્ત ગના કારણે અમૃત જ છે, એમ સમજવું જોઈએ પરદો તસ્વાથનિયંતિ–હિંસાવિરતિ આદિ વ્રતના વિરોધી હિંસા, અસત્ય, તેય. મૈથ પરિગ્રહમાંથી હિંસાનું સ્વરૂપ પહેલા કહેવાઈ થયું છે હવે કૃમપ્રાપ્ત બીજા મૃષાવાદનું સ્વરૂપ કહીએ છીએ પ્રમાદના રોગથી અસત્ય ભાષણ કરવું મૃષાવાદ છે. સત્ શબ્દ પ્રશંસાવાચક છે. સત્ અર્થાત્ પ્રશસ્ત ભાવ સત્ય કહેવાય છે જે સત્ય નથી તે અસત્ય અથવા અપ્રશસ્ત, આવું વચન મૃષાવાદી છે. मलियान' श सापसाधन मा ३२साधन सभा मे, Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० तस्वार्थस्त्र ध्रुच्यते, तदेवाऽतृतं मृपाबाद उच्यते, मृगावदनं-मृपाबादः, अभिधानं वचनं वाग्योग विषयः, अभिनिविष्टचेतमः प्रमनस्यात्मनः कर्तुरभिप्रेतप्रतिपादने साधकतमत्वात, कायेन कर-चरणनयनोष्ठाधयक्रियाभिरलीकाभिः परं मतारयति वाचाऽप्य सद बीति मनसाऽपि परिचिन्तयति यद् एवं खलु पर वञ्चनीयः इति । तथा चाऽऽAपुरुष प्रणीतागये निन्दितं निपद्धंवा यदभिधानं तत्-असदभिधानं खलु-मृपावाद इति फलितम् । तच्चाऽप्रत्याभिधानं द्विविधम्, भूतन्द्रिः अभूनोभावनश्च । तत्र भूतस्य विधमानस्य बस्तुनो निनोऽपलापो भूतनिहा, यथा-'नास्ति आत्मा' नास्ति परलोशः' इत्यादि । अत्र विद्यमानस्येवात्मनः शुभाऽशु मकर्मणां फल. चाहिए अभिप्राय यह है कि प्रमादयुक्त पुरुष काययोग वचनयोग और मनोयोग से जो अलत् पचनों का प्रयोग करता है, वह अन्त कह. लाता है। अन्न को मृषावाद भी कहते हैं। जिप्त के चित्त में आवेश उत्पन्न हुभा है ऐसा प्रमादी पुरुष अपने इष्ट अभिप्राय को व्यक्त करने के लिए अगर हाथों पैरों नेत्रों एवं होठों आदि अवयवों की मिथ्या देष्टाओं मारा दूसरे को ठगता है, वचन से असत्य भाषण करता है, मन से भी ऐसा ही सोचता है कि दूसरे को कैसे ठगा जाय, यह लघ असत्य है । फलित यह हुआ कि निन्दित या निषिद्ध वचन अस निधान या नृपावाद कहलाता है। ' 'मृषावाद दो प्रकार का है-भूननिहनव और अभूतोद्भावन । जो वस्तु विद्यमान है उसका अपलाप करना भूननिहनव है, जैसे-आस्मा नहीं है, परलोक नहीं है, इत्यादि कहना । कोई-कोई शुभ और अशुभ સારાશ એ છે કે પ્રમાદયુક્ત પુરૂષ કાળ વચનગ અને મગથી જે અસત્ વચનેથી પ્રયોગ કરે છે તે અમૃત કહેવાય છે. અમૃતને મૃષાવાદ પણ કહે છે. જેના ચિત્તમા આવેશ ઉત્પન્ન થયે હોય એ પ્રમાદી પુરૂષ પિતાને ગમતા અભિપ્રાયને વ્યક્ત કરવા માટે અથવા હાથ, પગ, આંખે અને હોઠ આદિ અવયવોની મિથ્યા ચેષ્ટાઓ દ્વારા બીજાને છેતરે છે, વચનથી અસત્ય ભાષણ કરે છે, મનથી પણ એવું જ વિચારે છે કે બીજાને કેવી રીતે છેતરી શકાય, આ બધું અસત્ય છે. ફલિત એ થયું કે નિશ્વિત અથવા નિષિદ્ધ વચન અસદભિધાન અથવા મૃષાવાદ કહેવાય છે. મૃષાવાદ બે પ્રકારના છે-ભૂતનિહૂનવ અને અભૂદુભાવન જે વસ્તુ વિદ્યમાન છે તેને આ લાપ કરે ભૂતનિહૂનવ છે, જેમ કે- આત્મા નથી, પરલેક નથી વગેરે કહેવું. કોઈ કૈઈ શુભ અને અશુભ કર્મોના ફળ ભેગ. Crnama Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. २६ मृषावादस्वरूपनिरूपणम् २६१ मोक्तुः अनुभवितुः स्परणकर्तुंश्च नास्तित्व केचनाऽज्ञानमोहमुग्धाः जनाः कल्पयन्ति । एवं जीवानां स्व-स्वकृत कर्मानुसारेण सुखदुःखनियामा तया पुण्य पापरूपधर्माऽधर्मयोरपि आप्तागमममाणसिद्वमस्तित्व केचन नास्तिका मोहानाऽनुमन्यन्ते । एवम् अभूतस्य सदसद्भावप्रतिषेधस्योद्भावन मभूतोद्भावनं बोध्यम् अभूतस्याऽविद्यमानस्य वा असद्वस्तु स्वरूपस्योद् भावनम् अभूतोद्भावन मुच्यते । तथाहि-यथाऽवस्थिताऽऽत्मसद्भावनम् असंख्येय प्रदेशपरिमाणम् पुद्गल चयोपचयतारतम्य प्रयुक्तशरीर विशेशाश्रयवशात् सङ्कोचविकासशालिने रूप-रसगन्धस्पर्शरहितम् अनेकविधक्रियायुक्त तिरस्कृत्याऽभूनमेवारम तस्त्र कर्मों का फल भोगने वाले और स्मरण करने वाले आत्मा का, जो वास्तव में विद्यमान है, निषेध करते हैं। ऐसे लोग अज्ञान और मोह के कारण मूढ हैं । जीवों को अपने-अपने किये कर्म के अनुमार जो सुख या दुःख प्राप्त होता है, उसके नियामक धर्म-अधर्म हैं जिन्हें पुण्य और पाप कहते हैं। ये दोनों तत्त्व आप्न प्रणीत आगम से सिद्ध हैं। फिर भी कोई-कोई नास्तिक अज्ञान के कारण उनका अस्तित्व स्वीकार नहीं करते । यह भूत निहूनव असत्य है । इसी प्रकार जो वस्तु नहीं है, उसका सद्भाव कहना अभूनोदभावन असत्य समझना चाहिए । अभून अर्थात् अविद्यमान वस्तु को भूत या विद्यमान कहला अभूतोदूभावन है । जैसे कोई-कोई अज्ञानी असंख्यातप्रदेशी, पुद्गलों के चय-उपचय की तरतमता के अनुसार निर्मित शरीर में रहने के कारण संकोच विकासशील, रूप-रस-गंध વનારા અને સ્મરણ કરનારા આત્મા ને જે હકીકતમાં વિદ્યમાન છે. નિષેધ કરે છે. આવા લેકે અજ્ઞાન અને મે હના કારણે મૂઢ છે. જેને પિતાપિતાના કરેલા કર્મ અનુસાર જે સુખ અથવા દુઃખ પ્રાપ્ત થાય છે તેના નિયામક ધર્મ-અધર્મ છે જેમને પુણ્ય અને પાપ કહે છે આ બંને તરત આસપ્રણત આગમથી પ્રામાણિત છે તેમ છતાં કઈ-કઈ નાસ્તિક અજ્ઞાનના ક રણે તેમનું અસ્તિત્વ સ્વીકારતા નથી. આ ભૂતનિધ્રુવ અસત્ય છે. આવી જ રીતે જે વસ્તુ છે જ નહીં તેને રાદુભાવ કહે એ અભૂતભાવન અસત્ય સમજવું જોઈએ. અભૂત અર્થાત્ અવિદ્યમાન વસ્તુને ભૂત અથવા વિદ્યમાન કહેવું અભૂતે દુભાવન છે જેવી રીતે કે. ઈ-કઈ અજ્ઞાની અસંખ્યાતપ્રદેશી, પુગલે ના ચય-ઉપચયની તરતમતા અનુસાર નિમિત શરીરમાં રહેવાને કારણે સંકેચ વિકાસશીલ રૂપ-રસગંધ-સ્પર્શ રહિત Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्त्वार्थम समुहमा यन्ति केचन शानिनः यथा पामारतण्डक प्रमाणमात्रोऽयमात्मा वर्तने आष्ट पर्वमात्रोऽमामा, सूसदशवर्णः, निष्क्रिय त्यादि । निष्क्रियत्वनाSS- सर्वगत्वेन लिथुत्वात् गमनागमनवीक्षणभोजनादि क्रियायाः कायवाङ्मनः करणनिताया अमावस्यगन्तव्यम्, तदप्यसद दर्शनम् आत्मनो विभूत्वे प्रमाणाभावेन वंगतत्वाऽसम्भवाद सर्वगतस्मान्मनः सर्वत्र सर्वोपधिप्रसाश्च अथ योपभोगोपन्ध्यधिष्ठानं शरीरं निधने तत्रैवोपरब्धिः स्यान्नाऽन्यत्र स्पर्श से रहित और अनेक प्रकार की क्रियाओं से युक आत्मा को स्वीकार न घर के अभून आत्मतत्व फा कथन करते हैं। जैसे-कोई साते तिआत्मा घामाक (मामा) के चावल के यमयर, कोई करते हैं अंगूठे के पर्व के पराबर है, सूर्य के समान वर्णवाला है, क्रियाहीन है। क्रियाहीन होने का कारण आत्मा की विभुना अर्थात् व्याप. पाता है । माहोने के कारण आत्मा में गमन, आगमन, अवलोकन, मोजल आदि क्रियाओं का जो मन वचन और काय से उत्पन्न होती है, अभाप है। ऐसा माना लत्य नहीं है, क्यों कि अस्मा के व्यापक होने में कोई प्रमाण नहीं है, अतएव उसका व्यापक होना असंभव है। अगर आत्मा न व्यापक होती तो उसकी सर्वत्र उपलब्धि होनी चाहिए। अगर कहा जाय कि सुग्न दुःख के उपभोग को आयतन शरीर जहां नियमान होना है, वहीं आत्मा की उपलब्धि होती है, जहां शरीरबहोता वह आत्मा की लो उपलब्धि नहीं होतो इसका અને અનેક પ્રકારની ક્રિયાથી યુક્ત અમાને સ્વીકાર નહી કરીને અભૂત આત્મતત્રનું કથન કરે છે. જેમ કે-કઈ કહે છે કે આત્મા શ્યામાક (કામ)ના ચોખા જેવું છે, કોઈ કહે છે-અ ગૂઠાના ટેચ બરાષ્ટ્ર છે, સૂર્યના જેવા વર્ણવાળે છે, દિયાહીન છે. ક્રિયાહીન હોવાનું કારણ આત્માની વિભુતા અર્થાતુ વ્યાપકતા છે. વ્યાપક હોવાને લીધે, આત્મામાં ગન, આગમન, અવલોકન, ભેજન આદિ ક્રિયાઓનો જે મન વચન અને કાયાથી ઉત્પન થાય છે–અભાવ છે એ પ્રમાણે કહેવું સત્ય નથી કારણ કે આત્માના વ્યાપક હોવા માટેનું કઈ પ્રમાણ નથી માટે તેનું વ્યાપક હવું શક્ય નથી. જે આમ સર્વવ્યાપી હોત તે બધે જ તેની ઉપલબ્ધિ પણ હોવી જોઈએ અ૫૨ એમ કહી શકાય કે સુખદુઃખના ઉપભેગનું આયતન શરીર જ્યાં વિદ્યમાન હોય છે ત્યાં જ આત્માની ઉપલપિ હોય છે. જ્યાં શરીર ન હોય ત્યાં આત્મા પણ ન હોઈ શકે, આનુ સમાધાન એ છે કે અન્યત્ર પણ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. २६ मृपावादस्वरूपनिरूपणम् २:३ सदभावात् । इति चेत् ! अत्रोच्यते अन्यत्राऽपे बहूनां शरीराणां सवात् । अथ स्वधर्माऽधर्मरूपाऽदृष्टोत्पादितशरीरावच्छे ऐनकोप गोपलब्धिः स्यासन तथाविधाऽन्यशरीरावच्छेदेनेलि चे ! मैस, आत्मनो निष्क्रियायेन तथाविध कल्पनाऽसम्भवात् । निष्क्रयस्यात्मनस्तावेव धर्माऽध निजी वर्तेते इति वक्तुम शक्यत्वात्, निष्क्रियत्य संसारमुक्ति त्याग प्राप्त्युपायाऽनुष्ठाना सम्भवात् निष्क्रि यत्व मात्मनो न कथमपि युक्तं सम्भवति एव मात्मनाक्षपरिनश्वरत्व विज्ञान मात्रतोद्भावनं रूपादि पञ्चस्कन्धमात्रतोद्भावन मनिर्वचनीयत्वोभावनच सर्वमनृतम्, एव मर्थान्तरंच मावोऽश्वं ब्रवीति 'अश्वश्च मां वकील' अचौरश्च समाधान यह है कि अन्यत्र भी बहुत-ले शरीर संभव है। कदाचित कहो कि अपने ही धर्म-अधर्म रूक्ष अष्ट से उत्पन्न हुए शरीर के अन्दर ही सुख-दुःख का उपयोग होता है, दूसरे के शरीर से दूसरी आत्मा उपभोग नहीं करती, किन्तु ऐला कहना भी ठीक नहीं है, क्यों कि निष्क्रिय होने के कारण आत्मा में उपभोग क्रिया घटना नहीं हो सकती । इसके अतिरिक्त आत्मा जब व्यापक है तो अनुम धर्मअधर्म निजी हैं, अमुक नहीं, इस प्रकार का व्यवहार हो ही नहीं सकता । क्रियाशुभ आत्मा मुक्ति की प्राप्ति आदि के लिए नुष्ठान भी नहीं कर सकती। इस प्रकार आरमा को निष्क्रिय माना किसी भी प्रकार संगत नहीं है। इसी प्रकार आत्मा को क्षण विनश्वर मानना, विज्ञान मात्र कहला अथवा रूप आदि पांच स्कंध रूप कहना था एकान्ततः अनिर्वचनीय मानना, यह सब असत्य है। इसी प्रकार अन्य वस्तुओं के विषय में ઘણું શરીર હોઈ શકે કદાચિત કહી શકાય કે પિતાના જ ધર્મ-અધર્મ રૂપ અદષ્ટથી ઉત્પન્ન થયેલા શરીરની અન્દર જ સુખદુઃખને ઉપભે ગ થાય છે બીજાના શરીરમાં બીજો આત્મા ઉપભોગ કરતું નથી પરંતુ આમ કહેવું પણ ગ્ય નથી કારણ કે નિષ્ક્રીય હોવાના કારણે આત્મામાં ઉપભેગ કિયા ઘટિત થઈ શકતી નથી. આ સિવાય આત્મા જે વ્યાપક છે તે અમુક ધર્મ– અધમ પિતાના છે, અમુક નહીં, એ જાતને વ્યવહાર થઈ શકતો જ નથી. ક્રિયાશૂન્ય આત્મા મુક્તિની પ્રાપ્તિ આદિ માટે અનુષ્ઠાન પણ કરી શકતો નથી. આવી રીતે આત્માને નિષ્ક્રીય માનવે કઈ પણ રીતે સુરા ગત નથી. આવી જ રીતે આત્માને લાભંગુર માન, વિજ્ઞાન માત્ર કહે, અથવા રૂપ આદિ પાંચ સ્કંધ રૂપ કહે અથવા એકતિતઃ અનિર્વચનીય માન, આ બધું અસત્ય છે. આ જ રીતે અન્યત્ર વસ્તુઓના વિષયમાં Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ तत्त्वावर चौरं ब्रवीति, एवं हिंसायुक्त पारुण्य पैशुन्य शाठय दम्मच्छलकपटादियुक्तञ्च वचनं सत्यमपि गहितमेव, साऽद्यस्वाद, उक्तं दशवैज्ञालिके ७ अध्ययने २ उद्देशके 'जाय सच्चा अवत्तव्या-सच्चा मोसाय जा मुसा। 'जाय पुढेहि गाइण्णा- तं भाटिन पण्णवं ॥१॥ इति । 'याच सत्या अवक्तव्या सत्या मृषा च या मृपा । या च बुरिनाचीर्णा ननां भापेन प्रज्ञावान् ॥१॥ इति अन्धादप्युक्तम् -- यदागरोगश्छाक्यं तत्वादन्यत्र धर्तते । सारा वापि यत्सत्यं तत्सर्वमननं विदुः ॥१॥ एवमन्यत्राऽयुक्तम् अनृतमसवचनं स्थाच्चतुर्विधमसंच जिनवरैदृष्टम्। सद्भून प्रतिषेधोऽसद्भूतोदभावनं च तथा ॥१॥ इति अलक्ष लमझ लेना चाहिए, जैसे-गाय को अश्व कहना, अश्व को गाय कहना, अचौर को चोर कहना आदि । इसी प्रकार जो वचन हिंसा से युक्त है, कठोर है, पैशुन्य, शठता, दंभ, छल कपट आदि से युक्त है, वह सत्य होने पर भी गर्हित है, क्यों कि वह सावध है। दशकालिक सूत्र के सात वें अध्ययन में कहा हैं-'विवेकवान् श्रमण ऐसी भाषा का प्रयोग न करे जो लत्य होने पर भी बोलने के योग्य न हो, जो सत्यमृषा (सच्ची-झूठीमिश्र भाषा) हो, मृषा हो या ज्ञानी जनों ने जिसका आचरण न किया हो ॥१॥ - अन्यत्र भी भी कहा है-'जो वचन रागरूपी रोग से युक्त हो, जो तत्व से दूर अर्थात् वास्तविकता से रहित हो अथवा सावध हो उस सष को ज्ञानी पुरुष असत्य कहते हैं ॥१॥ . અસત્ય સમજી લેવું જોઈએ જેમ કે ગાયને ઘેડો કહે, ઘેડાને ગાય કહેવી, ચેર ન હોય તેને ચેર કહેવો વગેરે આવી જ રીતે જે વચન साथी युक्त है, २ छ, पैशुन्य, Nal, म ७१-४५८या सरेबु छ તે વચન સત્ય હોવા છતા પણ વર્જય છે કારણ કે તે સાવદ્ય છે. દશકાલિક સૂત્રને સાતમાં અધ્યયન માં કહ્યું છે વિવેકવાન શ્રમણ એવી ભાષાનો પ્રાગ ન કરે જે સત્ય હોય તે પણ બોલવા માટે એગ્ય ન હોય, જે સત્યામૃષા (સાચી-જુઠી મિશ્ર ભાષા) હોય, મૃષા હોય અથવા જ્ઞાની પુરૂષોએ જેનું આચરણ ન કર્યું હોય. ના અન્યત્ર પણ કહ્યું છે-જે વચન રાગરૂપી રેગથી યુક્ત હય, જે તથી દૂર અર્થાત્ વાસ્તવિકતા વગરનું હેય અથવા સાવદ્ય હોય તે બધાંને જ્ઞાની અસત્ય કહે છે. ૧ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ . २६ मृषावादस्वरूपनिरूपणम् २६९ ____ यथा 'नास्ति घटः' इति, शाशगङ्गामरिक्त इति, माहिमच्चनम् असत् सतो. ऽपिवाऽन्यथावाचनं यस्माइ, चहितघाताहि. अन्याय गौरश्व इति वचनं वेति, सर्वमनृतवचनम्, उस्मात् प्रमतयोबाइपाइ भिधानं हा इति व्यवस्थितम् । तच्चाऽदभिधानरूपयनृतं संक्षेपेण चतुः स्थानसंग्रहोतं सर्व द्रव्यविषय मसेयम्, द्रव्याणि च लोकालोकायच्छिन्नानि बोध्यानि, कालः खल-रात्रिन्दिव लक्षणः, भावतो राग-द्वप-मोहपरिणत आत्मा भवति ।१३ । २६० मूलम्-अदिण्णादाणं तेणिकं ॥२७॥ छाया--'अदत्तादानं स्तेयम् २७ । दूसरे स्थल में भी कहा है-'अलत् वचन अन्नन कहलाता है। जिनेन्द्र भगवान् ने असल वचन चार प्रकार के कहे हैं, जिन में से सद्भूत का प्रतिषेध और असद्भुत का उदभावन भी है ॥१॥ जैसे घट नहीं है खरगोश का लींग है आदि। गति बचन असव होता है अथवा सत् को भी अन्यथा कहना ॥हित है। इस प्रकार के सय वचन अन्त हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रमत्तयोग से असत् भाषण करना मृषावाद कहलाना है। असत्यभाषण संक्षेप से चार प्रकार का है और सभी द्रव्य उसके विषय होते हैं । द्रव्य लोकालोकावच्छिन्न हैं, काल रात्रि दिवस रूप है, राग, द्वेष और मोहरूप में परिणत आत्मा समझना चाहिए ॥२६॥ 'अदिणादाणं तेणिक्कं । . सूत्रार्थ-अदत्तादान स्तेय कहलाता है ॥२७॥ , બીજે પણ આવું જ કહ્યું છે.-અસત્ વચન અમૃત કહેવાય છે જિનેન્દ્ર ભગવાને અસતુ વચન ચાર પ્રકારના કહેલા છે, જેમાંથી સદૂભૂતને પ્રતિષેધ અને અસતુભૂતનું ઉદુભાવન પણ છે. પેલા દા ત. ધડ નથી. સસલાનું શીગડું છે. વગેરે ગહિત વચન અસત્ કહેવાય છે અથવા સને પણ અન્યથા કહેવું વજય છે આ પ્રકારના બધાં વચન અમૃત છે. આ ઉપરથી એ સાબિત થવું કે પ્રમત્તયેગથી અસત્ ભાષણ કરવું મૃાવાદ કહેવાય છે. અસત્ય ભાષણ સંક્ષેપથી ચાર પ્રકારના છે અને બધા જ દ્રવ્ય એના વિષય હેય છે દ્રવ્ય લોક કાવચ્છિન્ન છે. કાલરાત્રિ-દિવસ રૂપ છે, ભાવથી રાગદ્વેષ અને મેહ રૂપમાં પરિણત આત્મા સમજવો જોઈએ. રજા __'अदिण्णादाणं तेणिक साथ-महत्तहान रतेय उपाय छे. ॥२७॥ त. ३४ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ तस्यायो . तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् प्राणातिपाताऽजतातेयमथुग्परिग्रहेषु पंचम अनतेषु प्राणातिपाताऽन तस्वरूपं सविशदं निरूपितम् सम्पति क्रमप्राप्तं तेयं प्रतिपादयितुमाह-'पादिणादाण तेणिक कं' इति । अदनादानम् अदमस्य वस्तु स्वामिनाऽममर्पितस्य वरतुना आदान प्रमत्त योगाद् ग्रहण स्तेयं-चौथ मुच्यते। तथाच- यल्लोकः स्वीकृतं सर्वलोकमवृत्तिगोचरं यद्वस्तु स्वामिनाऽदत्तं तस्य वस्तुनो ग्रहणं ममत्तयोगाद् निधृक्षावा, ग्रहणोपाय परिचिन्तनं वा स्तेय मुच्यते सेन-कर्म नो कर्म ग्रहणस्याऽन्येनाऽदत्तस्याऽपि स्तेयत्वं न भवति तद्ग्रहणे आत्मपरिणामादन्यस्य दायकस्याऽभावाद् त्रिभुवनभृत तद्योग्यःणुवर्गणानामस्वामिकत्वात् तत्र-स्तेयव्यवहारो न भवति. तथा च-दानादाने यत्र सम्भवत सत्र तत्वार्थदीपिका-हिला, अलस्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रह, इन पांच अव्रतों में ले प्राणोतिपात और अन्न का विशद स्वरूप बतलाया जा चुका है। अब क्रमप्राप्त स्तेय का स्वरूप कहते हैं____ प्रमाद के योग ले स्वामी के द्वारा अप्रदत्त वस्तु को ग्रहण करना स्तेय कहलाता है । इली को अदत्तादान या चौर्य कहते हैं । जो लोगों द्वारा स्वीकृत हो, सय की प्रवृत्ति का गोचर हो किन्तु जिसे उसके स्वामीने प्रदान न किया हो, उस वस्तु को प्रमादयोग से ग्रहण करना, ग्रहण करने की इच्छा करना अथवा ग्रहण करने के उपाय का चिन्तन करना स्तेय कहलाता है । अतएव दूसरे के द्वारा अदत्त होने पर भी कर्मों और नो कर्मों को ग्रहण करना स्तेय नहीं कहलाता, क्योंकि आत्मा के परिणाम के सिवाय उनका कोई दाता नहीं है । तीन लोक में भरी हुई अणुओंकी वर्गणाओं का कोई स्वामी नहीं है, अतः उनके 'तत्याहीप-सा, सत्य, स्य, भैथुन भने परियड मा પાંચ અદ્યતેમાંથી પ્રાણાતિપાત અને અવનનું વિશદ સ્વરૂપ બતાવવામાં આવ્યું છે હવે કેમ પ્રાપ્ત તેમનું સ્વરૂપ કહીએ છીએ પ્રમાદના યોગથી સ્વામી દ્વારા નહીં આપવામાં આવેલી વસ્તુને ગ્રહણ કરવી તેય કહેવાય છે. આને જ અદત્તાદાન અથવા ચૌર્ય કહે છે. જે કે દ્વારા સ્વીકૃત હોય, બધાની પ્રવૃતિનું ગોચર હોય પરંતુ જેને તેના માલિકે આપેલું ન હોય, તે વસ્તુને પ્રમાદગથી સ્વીકાર કરે, સ્વીકારવાની ઈચ્છા કરવી અથવા સ્વીકારવાને ઉપાય વિચારે તે કહેવાય છે આથી બીજા વડે અદત્ત હોવા છતાં પણ કર્મો અને અકર્મોનું ગ્રહણ કરવું, તેય કહેવાતું નથી કારણ કે આત્માના પરિણામ સિવાય તેમને કોઈ દાતા નથી. ત્રણ લોકમાં ભરેલા આશુઓની વર્ગણાઓને કોઈ માલિક નથી આથી Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. २७ स्तेयस्वरूपनिरूपणम् स्तेयव्यवहारो भवति, अदत्तपदोपादानसामर्थ्यात् अथै वमपि-श्रमणस्य मिक्षोग्राम नगरादिषु गोचरीग्रहणा) भ्रमणकाले रथ्याद्वारादि प्रवेशाददत्तादान यसक्तिरिति चेत् ! अत्रोच्यते-सामान्येनोद्धाटितत्वात् तत्र प्रवेशोऽप्यदत्तादानमसङ्गो न भवति तथाहि-अयं मिक्षुः पिहितद्वारादिपु न प्रविशति, अनुदाटितत्वात् । यद्वा-प्रमत्त योगादित्यम्याऽत्रापि सम्बन्धात् प्रमत्तयोमा ददत्ताऽऽडानस्यैव स्तेयत्वं भवति केवलं रथ्याद्वारादिषु प्रविशतो भिक्षोः प्रमत्तयोगाभावेनाऽदत्तादानप्रसङ्गो न ग्रहण में चोरी का व्यवहार नहीं होता । जहां देने और लेने का व्यवहार संभव हो वहीं स्तेय का व्यवहार होता है, क्यों कि सूत्र में 'अदत्त' पद का प्रयोग किया गया है। ___ शंका--अनगार भिक्षुभिक्षा के लिए ग्राम, नगर आदि में भ्रमण करता है तब वह मार्ग में तथा द्वार आदि में प्रवेश करता है। उसे भी अदत्तादान का दोष होना चाहिए। समाधान--मार्ग और द्वार सभी के लिए खुले रहते हैं, अतः उनका उपयोग करने में अदत्तादान का प्रसंग नहीं होता। हां, साधु बन्द द्वार को खोल कर उसके भीतर प्रवेश नहीं करता, क्यों कि वह उघाडा नहीं होता अथवा 'प्रमत्त योगात् अर्थात् 'प्रसाद युक्त पुरुष के योग से' इस पद का यहां भी अध्याहार होता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रमत्तयोग ले अदन्त का आदान ही स्लेय है, केवल गली या द्वार में प्रवेश करने वाला भिक्षु प्रमत्तयोग वाला नहीं होता, अत. તેમને ગ્રહણ કરવામાં ચોરીને વ્યવહાર થતો નથી, જ્યાં આપ-લે ને વ્યવહાર સંભવ હોય ત્યાં જ તેમને વ્યવહાર થાય છે કારણ કે સૂત્રમાં “અદત્ત પદને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યા છે. શંકા-અણગાર ભિક્ષા અર્થે ગામ, નગર આદિમાં ભ્રમણ કરે છે ત્યારે તે રસ્તામાં થા દ્વાર આદિમાં પ્રવેશ કરે છે તેને પણ અદત્ત દાનને છેષ લાગ જોઈ એ. સમાધાન- રસ્તો તથા દ્વાર બધાને માટે ખુલા હોય છે, આથી તેમને ઉપયોગ કરવામાં અદત્તાદાનનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થતો નથી. એટલું ખરું કે સાધુ બંધ કારને ઉઘાડીને તેની અંદર પ્રવેશ કરતા નથી, કારણ કે તે उधाई हात नथी. अथवा 'प्रमत्तयोगात्' अर्थात् प्रभाह युटत ३षन। ગથી “આ પદને અહીં પણ અધ્યાહાર હોય છે. આનું તાત્પર્ય એ થયું કે પ્રમત્તગથી અદત્તનું આદાન એ જ તૈય છે, માત્ર ગલી અથવા હેરમાં પ્રવેશ કરનારે ભિક્ષુ પ્રમાગવાળ હેત નથી, આથી તેને અદત્તા Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ सम्भवति, तथा च-यत्राऽऽत्सनः संक्लेश परिणामेनाऽदत्ताहणार्थ प्रवृत्ति स्तोत्र बाह्यवरतुनो ग्रहणेऽाद में कारतेयं भवतीति भावः । अदत्तच-पत्रविध भवति, देवादत्तम् १ गुदन २ रामाद ना ३ गाथापत्यदत्तम् ४ साधर्म्यदत्तम् ५ ॥२६॥ तत्त्वार्थनियुक्षिा- पूर्वमुत्र-दिसादि लक्षण पश्चात्र तेषु हिंसास्वरूप निरूप णानन्तरं मृपागदसतरूपतिरूपणं कृतम, सम्पनिदि गय क्रमं स्तेयस्वरूपं निरूपयितुमाह-'अदिप गाहाणं लेणि कं' इति । अदत्त दानम् - अदत्तस्य स्वामिना ऽवितीर्णस्य वस्तुन आदान-प्रमत्तयोगाग्राणं स्तेय मुम्पते । तथा च-दीयतेस्मयत् बदत्तम्, धर्मणि ता, कर्म च चेवनाऽचे वनं वस्तु तुरीप्सिततमं भवति, एव उसे अदत्तादान का प्रसंग भी नहीं होगा। आशय यह है कि जहां आत्मा की संस्लेश भाव से अदत्त को ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है, वहीं बाह्य वस्तु का ग्रहण हो या न हो, फिर भी स्तेय कहलाता है । अदत्त पांच प्रकार का है-(१) देवादत्त (२) गुरुप्रदत्त (३) राजादत्त (४) गाथापति-अदत्त और (५) साधर्मिक अदत्त ॥२७॥ तत्वार्थनियुक्ति--हिंसा आदि पांच अवतों में से पहले हिंसा के स्वरूप का निरूपण किया गया, तदनन्तर मृपावाद के स्वरूप का कथन भी किया गया, अप क्रमप्राप्त स्तेय के स्वरूप का निरूपण करने के लिए कहते हैं___स्वामी के द्वारा अप्रदत्त वस्तु का प्रमत्तयोग से ग्रहण करना अदत्तादान या स्तेय कहलाता है । जो दिया गया हो वह 'दत्त' कहलाता है। यहां कर्म के अर्थ में 'क्त' प्रत्यय हुआ है । कर्ता को जो । દાનને પ્રસંગ પણ આવતો નથી. કહેવાનો ભાવાર્થ એ છે કે જ્યાં આગળ આત્માની સંકલેશભાવથી મલિકે નહીં આપેલી વાત સ્વીકારવામાં પ્રવૃત્તિ હોય છે તે જ બાહ્ય વસ્તુનું ગ્રહણ થાય કે ન થાય તો પણ તેય કહેવાય छ. महत पां५ प्रा२ना छ-(१) वाहत (२) ४३महत्त (3) RIME1 (४) ગાથાપતિ-અદત્ત અને (૫) સાધાર્મિક અદસ પરછા - તત્કાનિતિ–હિંસા આદિ પાંચ અવ્રતમાંથી પહેલા હિંસાના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, ત્યારબ દ મૃષાવાદના સ્વરૂપનું કથન પણ કરવામાં આવ્યું. હવે કમ પ્રાપ્ત તેમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવા માટે કહીએ છી માલિક દ્વારા અપ્રદત્ત વસ્તુનું પ્રમત્ત રોગથી ગ્રહણ કરવું અદત્તાદાન, અથવા તેય કહેવાય છે જે આપવામાં આવ્યું હોય તે “દત્ત કહેવાય છે. અહીં કર્મને અર્થમાં “કત" પ્રત્યય થ છે, કર્તાને જે કરવા માટે પ્રિય હાથ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ शु. २७ स्तेयस्वरूपनिरूपणम् २६९ ममेद मित्येवं परिगृहीतं बस्नु परियादिनि यस्मे-कस्वैचिद् यद्दोय ने तहत्तमित्युच्यते । यत्पुनर्वस्तु देवेन्द्रादिभिः परिगृहोतमेव नतु-दत्तस्, तस्याऽऽदानं ग्रहणं स्वेच्छया धारणं ठेन-बलात्कारेण या, समक्षमेव-धौर्येण का, दत्-स्तेयम् । यद्यपि-देवे द्राभिः परिगृहीतभिर्वीरमानमपि किश्चित्-शराहारपानपात्र स्त्रो. पधिपु-अनेषणीयादिकं तीर्थकता नाऽनुज्ञात मागमे, तदधि-स्तेय मेवाऽवशेयम् । एवञ्चाऽनेषणीयादेः परिगृहीतरयाति परैर्दानेपि तद्ग्रहणेऽदत्तादानबिरहेऽपि स्तेयं भवत्येव, शास्त्रेणाऽनेषगीयादेः प्रतिषिद्धत्वेन शास्त्र पतिषेधस्य बलवस्त्रात् तत्प्र. करने के लिए इष्ट हो वह कर्म कहलाता है । 'यह मेरी है' इस रूप में ग्रहण की हुई वस्तु देव आदि पांच में से किसी के द्वारा जिस किसी को दी जाती है वह दत्त कहलाती है। किन्तु जो वस्तु देवेन्द्र आदि के द्वारा परिगृहीत है मगर दत्त नहीं है, उसको ग्रहण करना, स्वेच्छा से धारण करना, हठ ले या बलात्कार से उसके सामने या चोरी से ले लेना स्तेय है। देवेन्द्र आदि के द्वारा परिगृहीत और दी जाने वाली भी कोई शय्या, आहार, पानी, पात्र वस्त्र आदि उपधि अनेषणीय हो और तीर्थकर भगवान ने आगम में उसकी अनुमति म दी हो तो उसे ग्रहण करना भी स्लेव है । इस प्रकार दूसरे के द्वारा परिगृहीत भी अनेपणीय वस्तु अगर वह देता हो तो अदत्तादान न होने पर भी उसे ग्रहण करना स्तेय ही समझना चाहिए। क्यों कि शास्त्र में अनेषणीय आदि को ग्रहण करने का निषेध किया गया है, તે કર્મ કહેવાય છે, “આ મારી છે આ સ્વરૂપે ગ્રહણ કરવામાં આવેલી વસ્તુ દેવ આદિ પાંચમાંથી કઈ વડે જે કઈને આપવામાં આવે છે તે દત્ત કહેવાય છે. પરંતુ જે વરતુ દેવેન્દ્ર આદિ દ્વારા પરિગૃહીત છે પણ દત્ત નથી, તેનો હવાલે લે, વેચ્છાથી ધારણ કરવું, દુરાગ્રહ અથવા બળાકારથી તેની સામે અથવા ચેરીથી લઈ લેવું એ તેય છે. દેવેન્દ્ર આદિ દ્વારા પરિગૃહીત અને આપવામાં આવતી હોય તેવી શધ્યા ભજન, પાણી, પાત્ર, વસ્ત્ર આદિ ઉપાધિ અનેષણય છે અને તીર્થકર ભગવાને આગમમાં તેની આજ્ઞા ન આપી હોય તે તેને ગ્રહણ કરવું એ પણ રહે છે. આ રીતે બીજાના દ્વારા પરિગૃહીત પણ અનેષણીય વરતુ જે તે આપતો હોય તે–અદત્તાદાન ન હોવા છતાં પણ તેને ગ્રહણ કરવું તેય જ ગણાય કારણ કે શાસ્ત્રમાં અનેષણીય આદિનું ગ્રહણ કરવાને નિષેધ કરવામાં આવે છે. શાસ્ત્રને તે પ્રતિષેધ બળવાન છે, આથી જે શાસ્ત્રનિષિદ્ધ છે તેનું ગ્રહણ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० तत्त्वार्थस्त्रे तिपिद्धम्य ग्रहणे हतेयं मत्येवेति भावः । शास्त्रमपि ज्ञानात्मकम्-आत्मनः परिणामविशेष एव, सोऽपि-शास्त्ररू। ज्ञानपरिणामविशेषः परिणामिनि-आत्मनि अभेदेनोपवयमाणः परशदेन ग्रहीतुं शक्यो भवति तेन च शास्त्ररूपेण परेणात्मना. ऽहत्तत्वा तद्ग्रहणेऽदत्तादानं सवत्येवेति भावः । एत्र मन्यक्षणे महतघाति कर्मयो अगवत उपदेशात् सञ्जात मात्श्रुतपरिणामा गणधरप्रत्येकवुद्धस्थविरा अपि अनेप. णीयादिकं प्रतिषेधयन्ति, तच्चाऽदत्तादानं चतुर्विधम्. द्रव्यक्षेत्रकाल-मावभेदात् । तत्र-यदा तणादेरपि द्रव्यस्य परैः परिगृहीतस्याऽपरिगृहीस्य वाऽदत्तादानं स्वयं भवति तदा किस्रनाम वक्तव्यं सुवर्ण-रत्नमरकतपद्मराग मण्यादेः आदानन्तु-गृह्यशास्त्र का वह प्रतिषेध बलवान् है, अतएव शास्त्रनिपिद्ध के ग्रहण में स्तेय होता है। शास्त्र भी ज्ञानात्मक है आत्माका परिणामविशेष ही है। शास्त्ररूप ज्ञानपरिणाम का परिणामी आत्मा से अभेद का उपचार शिया जाता है, अतएव 'पर' शब्द से उसका ग्रहण किया जाना शक्य है। आशय यह हुआ कि शास्त्ररूप पर-आत्मा के द्वारा अदत्त को अहण करना अदत्ताद नही है । घातिया कर्मों का क्षय कर देने वाले भगवान के उपदेश ले भावशून रूप परिणाम जिनमें उत्पन्न हुआ है, ऐले गणधर तथा प्रत्येक वुद्ध स्थविर भी अनेषणीय आदि का निषेध करते हैं। भदत्तादान , क्षेत्र काल और भाव के भेद से चार प्रकारका है। जब तण आदि जैले द्रव्यों का भी जिन्हें दुसरों ने ग्रहण कर रखा हो थान कर रखा हो दिना दिये ग्रहण करना स्तेय है, तो स्वर्णरत्न, मरकत और पाग अणि आदि का तो कहना ही क्या है, ग्रह्यमाण કરવું તેય છે. શાસ્ત્ર પણ જ્ઞાનાત્મક છે. આત્માનું પરિણામ વિશેષ જ છે. તે શાસ્ત્ર રૂપ જ્ઞાનપરિણામનું પરિણામી આત્માથી અભેદને ઉપચાર કરવામાં આવે છે આથી “પર” શબ્દથી તેનું ગ્રહણ કરવું શક્ય છે આશય–સારાંશ એ થયો કે શ સ્ર રૂપ પર-આત્મા દ્વારા અદત્તને ગ્રહણ કરવું અદત્તાદાન જ છે. ઘનઘાત કર્મોનો ક્ષય કરી નાખનારા ભગવાનના ઉપદેશથી ભાવકૃત રૂપ પરિણામ જેનામાં ઉત્પન થયું છે, એવા ગણધર તથા પ્રત્યેક બુદ્ધ સ્થવિર પણ અષણીય આદિનો નિષેધ ફરમાવે છે. અદત્ત દાન દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ તથા ભાવના ભેદથી ચાર પ્રકારના છે. જ્યારે તણખલા જેવા દ્રવ્યોને પણ કે જેને બીજાઓએ ગ્રહણ કરી રાખ્યા હોય અથવા ગ્રહણ કરી રાખ્યા ન હય, વગર આપે ગ્રહણ કરવા–સ્તેય છે તે પછી સુવર્ણરતનમણિ અને પારાગ મણિ વગેરેની તે વાત જ શું કરવી? Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ७ सू. २८ मैथुनस्वरूपनिरूपणम् माण,धार्यमाण द्रव्य विषयत्वात् द्रव्यैकदेशविषयमवसे यम् ,नतु समस्तद्रप्रविषयम् । ग्रहणधारणे पुनः साक्षात् पुद्गल द्रव्यस्य शरीराणाञ्च, जीवानान्तु-पुद्गल द्रव्य. द्वारेणैव ग्रहणधारणे अवगन्तव्ये, नतु साक्षादितिभावः उक्तश्च प्रश्नव्याकरणे ३ आस्रवे-'अदत्तं तेणिक्को' इति, अदत्तं स्तेनकम् । उक्तञ्चाऽन्यत्राऽपि परैरनतिसृष्टं यत् यच्च शास्त्रे विगर्हितम् । तत्सर्व न ग्रहीतव्यं दन्तविस्फाटनायपि १।।१४॥ इति ॥२७॥ मूलम्-अवंभचेरं-मेहुणं ॥२८॥ छाया--अब्रह्मचर्य-मैथुनम्-' ॥१५ ॥२८ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे-हिंसादिलक्षणेऽव्रतेषु यथाक्रमं हिंसामृषावाद और धार्यमाण द्रव्यों का ही आदान होता है, अतएव उसे द्रव्य के एकदेशविषयक ही समझना चाहिए, समस्त द्रविषयक नहीं लमझना चाहिए । भाव यह है कि ग्रहण और धारण साक्षात् रूप से पुद्गलद्रव्य और शरीरों का होता है, जीवों का जो ग्रहण होता है वह पुद्गलद्रव्य के द्वारा ही होता है, साक्षात् रूप से नहीं। प्रश्नव्याकरणक्षत्र के तीसरे आस्रवद्वार में कहा है-अदत्त का अर्थ रतेश है। ___ अन्यत्र भी कहा है-जो वस्तु दूसरों द्वारा प्रदान न की गई हो और जो शास्त्र में विहित (निषिद्ध) हो, उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए, चाहे वह दांत खुजलाने का तिनका ही क्यों न हो ॥२७॥ 'अयंभचे मेहुणं' ॥२८॥ सूत्रार्थ-ब्रह्मचर्य का पालन न करना मैथुन है ॥२८॥ સ્થમાણું અને ધાર્યમાણુ દ્રવ્યે જ આપી શકાય છે આથી તેને દ્રવ્યના એક દેશવિષયક જ સમજવા જોઈએ સમરત દ્રવ્ય વિષયક સમજવા જોઈએ નહીં. ભાવાર્થ એ છે કે ગ્રહણ અને ધારણ સ લ – રૂપથી પુદ્ગલ દ્રવ્ય ને અને શરીરનું હોય છે, જેનું જે ગ્રહણ થાય છે તે પુદ્ગલ દ્રવ્ય દ્વારા - જ થાય છે, સાક્ષાત્ રૂપથી નહીં. પ્રફન વ્યાકરણ સૂત્રના ત્રીજા આઅવદ્વારમાં धु ठे-'महत्तन। म स्तेय थाय छे. અન્યત્ર પણ કહ્યું છે- જે વસ્તુ બીજા દ્વારા આપવામાં આવેલી ન હોય તેમજ શાસ્ત્રમાં જેનો નિષેધ કર્યો હોય, તેનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ નહીં. પછી ભલેને તે દાંત બતવાની સળી જ કેમ ન હોય.” પર 'अबंभचेरं मेहण ॥२८॥ . सुत्राथ'-प्रझययनु पालन न ४२९. भैथुन छे. ॥२८॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ तत्वार्थ सूत्र निरुपणानन्तरं स्तेयस्वरूपं प्रहपितम्, सम्मति-क्रमाप्तं चतुर्थ मैथुनरूपम्वतं परूपयितुमाह-'अचमचे मेहुण' इति। अब्रह्म वर्यम्-ब्रह्मचर्यभङ्गः अहिंसादयो धर्षा यस्मिन् परिपाल्यमाने सति हन्ति-वृद्धि प्राप्नुवन्ति तद्ब्रह्म, तब्रह्म चर्य ते सेव्य ते येन तद्ब्रह्मचर्यम्, न ब्रह्मचर्षस् यस्मिन् तद्-अब्रह्मचर्य मैथुनं व्यपदिश्यते ॥१५॥ ॥२८॥ लावनियुक्ति:--पूर्व तावत्-घाणातिपातादिलक्षणेषु पञ्चावतेषु क्रमशः प्राणाविपात-पावाद स्तेय स्वरूपाणि निरूपितानि, सम्प्रति क्रमप्राप्तं मैथुनस्वरूप प्ररूपयितुपाह-अवचे मेहुण' इति । अब्रह्मचर्यम् ब्रह्मवर्या भावः, अविद्यमानं ब्रह्मचर्य यत्र तदब्रह्मचर्यम् । तत्राऽसंख्यकोशांकाश प्रदेश तत्वार्थदीपिका--हिंसा आदि में ले पूर्वस्त्रों में अनुक्रम से हिंसा और मृषाबाद के निरूपण के पश्चात् स्तेय के स्वरूप का निरूपण किया गया, अब चौथे भैथुन अव्रत की प्रपणा करते हैं जिलका पालन करने पर अहिंसा आदि धर्म वृद्धि को प्राप्त होते है, वह ब्रह्म कहलाता है । जिसके द्वारा ब्रह्म का आचरण किया जाय वह ब्रह्मचर्य । जिसमें ब्रह्मचर्य न हो वच अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन कहा जाना है ॥२८॥ तत्वार्थनियुक्ति--पहले प्राणातिपात आदि अव्रतों में से क्रम से हिंसा, मृषावाद और स्तेय के स्वरूप का निरूपण किया गया, अष क्रम प्राप्त मैथुन के स्वरूप का प्ररूपण करते हैं ब्रह्मचर्य के अभाव को अब्रह्मचर्य कहते हैं । आत्मा लोकाकाश के असंख्यान प्रदेशों के बराबर होने से बृहत्-बडा है, अतएव उसे તત્વાર્થદીપિકા–હિંસા આદિ અત્રમાંથી પૂર્વસૂત્રમાં અનુક્રમથી હિંસા, અને મૃષાવાદના નિરૂપણ પછી તેમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં અ વ્યું. હવે ચોથા મિથુન અવ્રતની પ્રરૂપણું કરીએ છીએ જેનું પાલન કરવાથી અહિંસા આદિ ધર્મ વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થાય છે તે બ્રહ્મ કહેવાય છે જેના વડે બ્રહ્મનું આચરણ કરવામાં આવે તે બ્રહ્મચર્ય જેમાં બ્રહ્મચર્ય ન હોય તે બ્રહ્મચર્ય અર્થાત્ મૈથુન કહેવાય છે ૨૮ તત્વાર્થનિયુક્તિ પહેલા પ્રાણાતિપાત આદિ પ ચ અવતેમાંથી કમથી હિંસા, મૃષાવાદ અને તેના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે કમપ્રાપ્ત મૈથુનના સ્વરૂપનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ બ્રહ્મચર્યના અભાવને અબ્રહ્મચર્ય કહે છે. અને ભાલકાકાશના અસંખ્યાત પ્રદેશની બરાબર હોવાથી બૃહત્-વિશાળ છે, આથી તેને બ્રહ્મ કહે Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. २८ मैथुनस्वरुपनिरूपणम् __ २७ परिमाण वृहत्वादात्मा ब्रह्म, स एव चाणं वयं ब्रह्मग बात्मना सेवनम्, आत्मनि मरणपर्यन्तं न रूगदि विषयम्, बहिर्मुखचित्तवृत्ति ब्रह्मवर्य मुच्यते । तस्मात्-कृतकारिताऽनुपतिसहितैः कायाङ्जनोयोगैः सर्व कामिनी विषयैः परिहारो ब्रह्म पर्यम्. संतेन्द्रियद्वारत्वात्-यात्मन्येव वृत्तित्वात्-प्रतिष्ठितत्वाच, तद्विपरीतमब्रह्म पर्यम् । तच्च विवे किनो विवेकवल'दुपशान्तरागादि रजोमला: सर्वथा खलु परित्यजन्तीति भावः । उक्तञ्च प्रश्नपाकरणे ४ आसनद्वारे 'अयंभ मेहुणं' इति, अब्रह्म मैथुनमिति ॥१५॥ ॥२८॥ मलम्-मुच्छापरिगहो ॥२९॥ छाया-'मी परिग्रहः ॥२९॥ ब्रह्म कहते हैं, उसका चरण अर्थात् सेवन करना ब्रह्मचर्य है। मृत्यु पर्यन्त स्त्री आदि का सेवन न करना, चित्त की बहिर्मुख वृत्ति न होना ब्रह्मचर्य है । अतएव कृत, कारित और अनुमोदन, इन तीनों करणों सहित मन वचन का प्रयोग से कामिनीविषय का त्याग करना ब्रह्मचर्य कहलाता है। उससे इन्द्रिय द्वार का संवरण आत्मा में ही वृत्ति होती है और प्रतिष्ठिन होता है । जो ब्रह्मचर्य से विपरीत हो यह अब्रह्मचर्य। जो पुरुष विवेकशाली हैं और विवेक के बल ले जिनके राग आदि विकार उपशान हो चुके हैं, वे अब्रह्मचर्य का सर्वथा ही त्याप कर देते हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र के चौथे आस्रव द्वार में कहा है-अब्रह्मचर्य मैथुन कहलाना ॥२८ 'मुच्छा परिगहों ॥२९॥ . सूत्रार्थ--मूर्छाभाव परिग्रह है ॥२९॥ છે, તેનું ચરણ અર્થાત્ સેવન કરવું બ્રહ્મચર્ય છે. મૃત્યુ સુધી સ્ત્રી આદિનું સેવન ન કરવું, ચિત્તની બહિર્મુખ વૃત્તિ ન હાવી બ્રહ્મચર્ય છે, આથી કત. કારિત અને અનુમોદન એ ત્રણ કારણે સહિત મન, વચન અને કાયાના ગથી-કામિની વિષયને ત્યાગ કરે બ્રહ્મચર્ય કહેવાય છે. એનાથી ઇન્દ્રિયદ્વારનું સંવર થાય છે, આત્મામાં જ વૃત્તિ થાય છે, તેમજ પ્રતિષ્ઠિત થાય છે. જે બ્રહ્મચર્યથી વિપરીત છે તે અબ્રહ્મચર્ય જે પુરૂષ વિવેકશાળી છે અને વિવેકના બળથી જેના રાગ વગેરે વિકાર શાન્ત થઈ ગયા છે, તે અબ્રહ્મચયના સંર્વથા જ ત્યાગ કરી દે છે પ્રશનવ્યાકરણ સૂત્રના ચોથા આસવદ્વારમાં કહ્યું છે–અબ્રહ્મચર્ય મૈથુન કહેવાય છે. ૨૮ 'मुच्छा परिग्गहो' ॥२८'! સૂત્ર ર્થ–મૂછભાવ પરિગ્રહ છે. ૨૯ त०३५ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तस्वाक्षर . तत्वार्थदीपिका-पूर्वमुत्रे हिंसादिलक्षणपञ्चविधानतेषु यथाक्रमं हिंसाऽवतः स्वेयसैथुनस्वरूपं निरूपितम्, सम्पति पञ्चमं परिग्रहस्वरूपमव्रतं मरूपयितुमार: 'नुच्छा परिगाहो' इति ममेदमिति ममतालक्षणा रागादि मनोऽभिलापरूपापाखानां गोमहिषगजाऽश्वमणिरत्नादीनां चेतनाऽचेतनानां रागादीनाम् उपधीनाश्च संरक्षणाऽर्जनसंस्कादिलक्षणा समत्वरूपाऽऽसक्तिः अभिष्वङ्गः परिग्रह मुध्यते । तथा च शास्त्रमर्यादोक्त धर्मोपकरणाऽतिरिक्त वस्तुनि ममत्वमपि मूळ रूपः परिग्रहः । उक्तञ्च याय अन्य विहीना-दरिद्रमनुजाः स्वपापतः सन्ति । पुनरभ्यन्तर लङ्ग त्यागी लोकेषु दुर्लभो जीवः ।।१॥ इति स्तत्वार्थदीपिका--हिला आदि पांच अव्रतों में से पहले अलुम्हप से हिला, असत्य, स्तेय और मैथुन के स्वरूप का निरूपण शिया गया, अब पांचवें अव्रत परिग्रह के स्वरूप का प्ररूपण करते हैं मूछी परिग्रह है, अर्थात् 'यह मेरा है' इस प्रकार ममता जिसका लक्षण है, जो मन की अभिलापा रूप है, गाय, भैस, बकरी, अश्व मणि और रत्न आदि चेतन एवं अचेतन पदार्थों का, रागादि का तथा उपधियों का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि जिसका लक्षण है, ऐसी ममता रूप आसक्ति या वृद्धि को परिग्रह कहते हैं, इस प्रकार शास्त्रोक्त धोंपकरणों के सिवाय दुसरी वस्तुओं का संग्रह करना मूछी है । शास्त्रोक्त वस्तुओं में भी यदि ममत्व हो तो वह भी मूी परिग्रह है। कहा भी है__ अपने पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से चाह्य परिग्रह से विहीन તત્ત્વાર્થદીપિકા–હિંસા આદિ પાંચ અવ્રતમાંથી પહેલા અનુક્રમથી હિંસા, અસત્ય, તેય અને મૈથુનને સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. પાંચમાં અત્રત પરિગ્રહના સ્વરૂપનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ : મૂછ પરિગ્રહ છે અર્થાત “આ મારૂં છે. એ રીતે મમતા જેનું લક્ષણ छ, भननी मलिशाषा ३५ छ, गाय, स, ५४३, घोडा, भय भने રત્ન આદિ ચેતન અને અચેતન પદાર્થો, રાગાદિના તથા ઉપધિઓનું સંરક્ષણ, અર્જન અને સંસ્કાર વગેરે જેના લક્ષણ છે. એવી મમતારૂપ આસકિત અથવા લેભને પરિગ્રહ કહે છે. આ રીતે શાàક્ત ધર્મોપકરણસિવાય બીજી વસ્તુઓને સંગ્રહ કર મૂછ છે–શાક્ત વસ્તુઓમાં પણ જે મમત્વ હોય છે તે પણ મૂળરૂપ પરિગ્રહ છે. કહ્યું પણ છે પિતાના પૂર્વોપાર્જિત પાપકર્મના ઉદયથી બાહ્ય પરિગ્રહથી વિહીન Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ दीपिका-निर्युक्ति टोका अ.७ सृ. २९ परिग्रहस्वरूपनिरूपणम् तथा च मोहसामान्यार्थक मूर्छधातोः प्रकृतेऽभिष्वगात्मक ममत्वरूप विशेषार्थों गृह्यते, परिग्रहप्रकरणवशात् । अथैवन्तर्हि बाह्यस्य परिग्रहत्वं न स्यात् आध्यास्मिकस्यैव परिग्रहस्योक्तरीत्या संग्रहणादिति चेत्, ? सत्यम् मधानत्वादस्यन्तरस्यैव परिग्रहस्य संजिक्षितत्वात् वाह्य परिग्रहेऽसत्यपि ममेद मित्येवं सङ्कल्पवान् सपरिग्रहो भवतीति भावः, अथैवं तर्हि बाह्यः परिग्रहो न भवत्येवेति चेत्, ? मैवम्, मूच्छीलक्षण ममत्वहेतुत्या वाह्यस्याऽपि परिग्रहत्वस्य सद्भावात अथ यदि ममेदमिति सङ्कल्पः परिग्रह स्तदा ज्ञानाद्यपि परिग्रहः स्यात्, तदपिदरिद्र जनलोक में बहुतेरे हैं मगर आभ्यन्तर परिग्रह अर्थात् ममत्व का स्यागी जीव दुर्लभ है ॥१॥ मोह के समानार्थक 'मूर्छ' धातु से इस प्रकरण में अभिष्वंगरूप ममत्व अर्थ लिया जाता है, क्योंकि परिग्रह का प्रकरण है। आशंका हो सकती है कि ऐसा अर्थ करने ले तो बाह्य वस्तु परिग्रह ही नहीं कहलाएगी, उक्त प्रकार से आभ्यन्तर परिग्रह का ही ग्रहण हो सकती है। इसका समाधान यह है कि आभ्यन्तर परिग्रह ही प्रधान है और उसी को यहां मुख्य रूप से ग्रहण किया गया है । बाह्य वस्तु के न होने पर भी किसी में ममता भाव विद्यमान है तो वह परिग्रही ही है। . शंका-तो क्या बाह्य परिग्रह नहीं है ? - समाधान-ऐसा मत कहो । ममता का कारण होने से पाह्य वस्तु भी परिग्रह ही है। દરિદ્ર માણસો આ લેકમાં ઘણું સંખ્યામાં છે, પરંતુ, આભ્યન્તર પરિગ્રહ અર્થાત્ મમત્વના ત્યાગી જીવ દુર્લભ છે. ના મોહને સમાનાર્થક “મૂર્ણ ધાતુથી આ પ્રકરણમાં અભિવંગ રૂપ મમત્વ અર્થ લેવામાં આવે છે કારણ કે પરિગ્રહનું પ્રકરણ છે. આશંકા થઈ શકે કે આ અર્થ કરવાથી તે બાહ્ય વસ્તુ પરિગ્રહ જ કહેવાશે નહીં, ઉપર જણાવેલા પ્રકારથી આ ન્તર પરિગ્રહનું જ ગ્રહણ થઈ શકે છે. આનું સમાધાન એ છે કે આય તર પરિગ્રહ જ મુખ્ય છે અને તેને જ અહીં મુખ્ય રૂપથી ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. બાહ્ય વસ્તુનું ન હોવા છતાં પણ જો કેઈનામાં મમતાભાવ વિદ્યમાન છે તે તે પરિગ્રહી જ છે. - શંકા–તે શું બાહ્ય પરિગ્રહ એ પરિગ્રહ નથી ? સમાધાન–આમ કહેવું ઠીક નથી. મમતાનું કારણ હેવ થી બાહ્ય તું પણ પરિગ્રહ જ છે. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ तत्त्वार्थ रागादि परिणामवत् मोदमिति सङ्कलप्यते इति चेत्. ? उच्यते, अत्रापि प्रमत्त योगात्' इत्यनुत्या दोपाभावात् । तथा च ज्ञानदर्शन चारित्रवतोऽप्रमचस्य मोहाभावान्मू. नास्तीति निप्परिग्रहत्वं सिद्धम् । अपि च तेषां ज्ञानदर्शन चारित्राणा महेयवादाम स्वभावत्वादपरिग्रहावं बोध्यम् । रागादयस्तु कोदय परत तयाऽऽत्मस्वभावत्वाभावाद् हेया मवंति, तस्मात् रागादिषु सल्पः परिग्रहः उच्यते, ममत्वलक्षणपरिग्रह मूलवाः खलु सर्वे दोपा भवन्ति । तथाहि ममेद शंका-अगर 'यह मेरा है। इस प्रकार के संकल्प को परिग्रह कहा जाय तो ज्ञान आदि भी परिग्रह कहलाएंगे क्यों कि रागादि परिणाम के समान जन में भी 'यह मेरा है' ऐसा संकल्प किया जाता है। समाधान-यहां भी 'प्रमत्तयोगात्' (प्रमत्तयोग से) इस पद की अनुवृत्ति है, अलए दोष नहीं आता। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्पन्न अप्रमादी मुनि में मोह का अभाव होने से लू नहीं होती, अतएव उसकी निष्परिग्रहता सिद्ध है । इसके अतिरिक्त ज्ञान, दर्शन और चारित्र हेय नहीं हैं, वे आत्मा के स्वभाव है, इस कारण परिग्रह नहीं है। इसके विपरीत रागादि कर्म के उदय के अधीन हैं, वे आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, अत एष हेय हैं। इस कारण रागादि में जो संकल्प हे वह परिग्रह कहलाता है। . समस्त दोषों का मूल ममत्व रूप परिग्रह ही है। 'यह मेरा है' इस प्रकार संकल्प जम उत्पन्न होता है तव उन वस्नुभों का संरक्षण, શંકા- જે “આ મારૂં છે એ જાતના સંકલ્પને પરિગ્રહ કહેવામાં આવે તે જ્ઞાન આદિ પણ પરિગ્રહ કહેવાશે કારણ કે રાગાદિ પરિણામની જેમ તેમનામાં પણ “આ મારૂં છે એ સંકલ્પ કરવામાં આવે છે. समाधान-साडी ५ 'प्रमत्तयोगात्' (प्रभत्तयोगथी) मा पहनी અનુવૃત્તિ છે આથી દેષ આવતું નથી. આ રીતે જ્ઞાન, દર્શન તેમજ ચારિત્રથી રામ્પન્ન અપ્રમાદી મુનિમાં મેહને અભાવ હોવાથી મૂછ હોતી નથી આથી તેની નિષ્પરિગ્રહતા સિદ્ધ છે. આ સિવાય જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રણેય નથી તેઓ આત્માના સ્વભાવ છે આથી પરિગ્રહ નથી આનાથી ઉલટું, રાગાદિ કર્મના ઉદયને અધીન છે, તેઓ આત્માના સ્વભાવ નથી આથી હેય છે. આથી રાગાદિમાં જે સંકલ્પ છે તે પરિગ્રહ કહેવાય છે. સમસ્ત દેનું મૂળ મમવરૂપ પરિગ્રહ જ છે. “આ મારૂં છે એ જાતને સંકલ્પ જ્યારે ઉત્પન્ન થાય છે ત્યારે તે વસ્તુઓનું સંરક્ષણ, ઉપા CAL Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ७ . २९ परिग्रहस्वरूपनिरूपणन्द्र २७७ मिति सङ्कल्पे सति संरक्षणार्जनसंस्कारादयो जायन्ते तचावश्यमेव हिसा भवेद्भवति भविष्यति च तदर्थं मृषा वदति स्तेयं समाचरति, मैथुने कर्मणि च प्रयतते दुदुमाः खलु नरकादिषु दुःखपरम्परा भवतीति भावः ॥ २९ ॥ तत्वार्थनियुक्तिः- पूर्व तावत् अतेषु हिंसादिलक्षणेषु यथाक्रमं हिंसा मृपावादस्वरूपं परूपेतम्, सम्पति पञ्चमं परिग्रहरूपमव्रतं प्ररूपयितुमाह- 'मुच्छापरिगो' इति मूर्च्छाप्रयोगात् सूर्छते आत्माऽनयेति मूर्च्छा, लोभारिणतिरूपा ममत्वबुद्धि: अभिव्यङ्गलक्षण असक्तिः परिग्रहः तथा खल्लु लोभ परिणतिरूपया मूच्र्छ याss मा मोहमुपनीयते विवेकात्याच्याव्यते विवेकात्मच्युतात्मा प्रतिविशि लोभकषायोपरागा अनुचितमतिप्रवणस्सन् कर्तव्यमकर्तव्यं वा किमपि न चेत उपार्जन या संस्कार आदि किया जाता है और ऐसा करने में अवश्य ही हिंसा होती है और होगी भी । उनके लिए मनुष्य मृषो भाषण करता है, चोरी करता है और मैथुनक्रिया में प्रवृत्त करता है और फिर इन पापों के फलस्वरूप नरक आदि में दुःखो की परम्परा उत्पन्न होती है || २९ ॥ - तचार्थनियुक्ति--हिंसा आदि अननों में से क्रमानुसार हिंसा, मृषावाद, स्तेय, और मैथुन के स्वरूप की प्ररूपणा पहले की जा चुकी हैं। अब पांचवें अव्रत परिग्रह की प्ररूपणा करते हैं मूर्छा परिग्रह है। प्रमाद के योग से जिसके कारण आत्मा मूर्च्छित हो जो यह मूर्छा । उसे लोन की परिणति, ममत्व बुद्धि, अभिन्बंग, आसक्ति आदि कहते हैं । इस लोभपरिणति रूप मूर्छा से आत्मा मूढ बन जाता है, विवेक से भ्रष्ट हो जाता है । विवेक से भ्रष्ट आत्मा विशिष्ट જૅન અથવા સ ંસ્કાર આદિ કરવામા આવે છે અને એમ કરવાથી અવશ્ય જ હિંસા થાય છે અને થશે પણ આ માટે માણસ મૃષા ભાષણ કરે છે, ચારી કરે છે અને મૈથુત ક્રિયામાં પ્રવૃત્તિ કરે છે અને પછી એ પાના ફળ સ્વરૂપ નરક આદિમાં દુખાની હારમાળા ઉત્પન્ન થાય છે. ારા તત્ત્વા નિયુકિત—હિંસા આદિ અત્રતેમાંથી ક્રમાનુસાર હિંસા, મૃષાવ ઇ, સ્તેય, અને મૈથુનના સ્વરૂપ ની પ્રરૂપશુા કરવામાં આવી ગઈ હવે પચમાં અત્ર1 પરિગ્રહની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ- મૂર્છા પરિગ્રહ છે. પ્રમાદના ચેાગથી જેના કારણે મ મા ભૂતિ યઈ જાય તે મૂર્છા તેને લેાભી પરિણતિ, મમત્વબુદ્ધિ, અભિવ્ગ, આસકિત વગેરે કહે છે. આ લેાભ પરિણતિરૂપ મૂર્છાથી આત્મા મૂઢ બની જાય છે, વિવેકથી ભ્રષ્ટ થઇ જાય છે વિવેકભ્રષ્ટ આત્મા વિશિષ્ટ લેલને વશીભૂત Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र यते, मूढधीश्च तृष्णावशीकृत चित्तवृत्तिरनालोचित गुणदोषोऽन्ध वधिरादिरिव चेष्टते करोति । यद्वा-मूर्छा घोह सपुच्छ्राययो रित्यनुशासनात् समुच्छ्रायरूपा-मूर्ग, तथा च समुन्छोयतेऽवृक्षण मुपचीयते हिंसादि दोपै लो मोपरागबलानुरचितोऽय. मात्मेति समुच्छ्रायः- सकलदोपाग्रणीलोमा, सधश्च-लोभाऽभिभूतो जनो हिंसा नृतप्तेयादिपु निश्शङ्क प्रवर्तते । लोभवशीभूतः सन् पुत्रः पितरमपि, हन्ति, सोदरं सोदरो भ्रातापितास्व तनयं पतिम्, पत्नी पतिहिन स्त्येव प्रेयसीमपि किं त्रुवे ॥१॥ लोय के वशीभूत होकर अनुचित प्रवृत्ति करने लगता है और कर्तव्य: अकर्तवश के विचार से रहित हो जाता है। उसकी बुद्धि मूढ बन जानी है, चित्तवृत्ति तृष्णा के वशीभूत हो जाती है । वह गुण अवगुण का विचार नहीं करता और अंधे एवं यहरे के समान चेष्टा करता है। ___ अक्षमा-'लन्छी मोहतमुड्राययोः' इस व्याकरण के विधान के अनुसार सूर्ची का अर्थ समुच्छ्राय है, जिसका आशय यह है कि लोभ के वशीभूत हुमा आत्मा जिसके कारण हिंसा आदि दोषों को समूह पन जाता है, वह मूी है । लोभ सय दोषों में प्रधान है । लोभी अनुष्य हिंसा, झूठ, चोरी आदि सभी पापों में नि:शंक होकर प्रवृत्ति करता है । लोल के अधीन होकर पुत्र पिता का भी घान कर डालता है, लाई माई का खून कर देता है, पिता पुत्र के प्राण हरण कर लेता है, पत्नी पति के प्राणों के ग्राहक बन जाती है और पति पत्नी की जान ले लेना है अधिक क्या कहा जाय ? થઈને અનુચિત વૃત્તિ કરવા માંડે છે અને કર્તવ્ય-અકર્તવ્યના વિચાચ્છી શૂન્ય થઈ જાય છે. તેની બુદ્ધિ બહેર બની જાય છે, ચિત્તવૃત્તિ તૃષ્ણાને તો બે થઈ જાય છે. તે ગુણ-અવગુણનો વિચાર કરતો નથી અને આંધળા તથા બહેરાના જેવી ચેષ્ટા કરે છે मथ -'मूर्छा मोहस मुच्छ ययोः' व्या४२९ मा म विधान अनुसार મૂછનો અર્થ સમુહૂય છે જેને આશય એ છે કે લે મને વશીભૂત થયેલ આત્મા જેના કારણે-હિંસા વગેરે દેને સમૂડ બની જાય છે, તે મૂછ છે. બધાં દોષમાં લાભ મુખ્ય છે. લેભી માય હિંસા, અસત્ય, ચેરી વગેરે સઘળાં પાપમાં નિઃશંક થઈને પ્રવૃત્તિ કરે છે લેભને તાબે થઈને દિકરો બાપને પણ વધ કરી નાખે છે, સગો ભાઈ, ભાઈનું ખુન કરી નાખે છે, પિતા પુત્રના પ્રાણ હરે છે, પત્ની પતિના માગો હરી લે છે અને પતિ પનીનો જીવ લઈ લે છે, વિશેષ શું કહી શકાય ? Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ स्. २९ परिग्रहस्वरूपनिरूपणम् एवम्- जननी-स्वस पभृतयोऽपि लोभाभिभूतत्वाद् महान्त मनर्थ भावहन्तिक कुर्वन्ति, लोभाऽमिभूतत्वादेव-कुटसाक्षित्वदायीन उत्कोचं गृहीत्वा बहनृतभाषण कुरुते, लोभवलपकर्षादेव-मार्ग लुण्टकः पथिकान् लुण्यति, स्तेनश्च-राजपाकार: कुडयादिकमपि खनित्या लोभादेव सर्वमप्यपहरति, संस्था खल्नु न कश्चन तथाविधो भावो यहिरन्तः स्थितो वा निकटस्थ दूरस्थो वा प्रियदर्शनो वर्तते यमयं लब्धो भावतः परित्यजेत्, लोभभुजङ्गश्च मानवानां प्रचुरतरानिष्ट सम्पादनेन बहूनिदुश्चरितानि उपनयति, किं बहूना 'पतङ्ग-मातङ्ग-कुरङ्ग-भृङ्ग मीनास्तियश्च एते. ऽपि लोभाभिभूतत्वादेव एकैक चक्षुः स्पर्शन-श्रोत्र घ्राण-रसनेन्द्रिय करण. इसी प्रकार माता, भगिनी आदि भी लोभ से अभिभूत होकर घोर अनर्थ कर डालती हैं । लोभग्रस्त होकर लोग झूठी लाक्षी देते हैं, घूस लेकर मिथ्या भाषण करते हैं । लोभ के आधिक्य से ही लुटेरे मार्ग में पथिकों को लूट लेते हैं चोर राजप्रासाद, प्राकार, दिवार आदि खोद कर सर्वस्व हरण करते हैं। ऐसा कोई बाहर या भीतर स्थित, निकटवत्ती दर वर्षी या प्रियदर्शन भाव नहीं है, जिसे लोभी मनुष्य स्वेच्छापूर्वक छोड दे ! ___लोभ भुजंग के समान है । इसकी बदौलत मनुष्यों को अत्यन्त अनिष्ट की प्राप्ति होती है । यह अनेक प्रकार के दुराचारों में फंसाता है अधिक तो क्या कहा जाध, पतंग, मातंग (हाथी), कुरंग (हिरण) भृग (भ्रमर) और मीन तिर्यंच हैं, किन्तु ये भी लोभ से ग्रस्त होकर एक एक चक्षु, स्पर्शन, श्रोत्र, घाण और रसना इन्द्रिय की प्रबलता के એવી જ રીતે માતા, બહેન વગેરે પણ લોભને વશ થઈને ઘર અનર્થ કરી બેસે છે. લેભગ્રસ્ત થઈને લોકે બેટી સાક્ષી આપે છે. લેભને ૯ઈને મિથા ભાષણ કરે છે લેભની વિશેષત ના કારણે જ લુંટારા માર્ગમાં પથિકને લૂંટી લે છે ચોર લેકે રાજાને મહેલ, પ્રાકાર, દિવાલ વગેરે એ દીને બધું જ- તૂટી જાય છે. સંસારમાં એ કઈ ભાવ, બહાર કે અંદર રહેલ, કે નજીક હોય, દૂર હોય અથવા પ્રિયદર્શન, ભાવ નથી કે જેને લેભી માણસ છાપૂર્વક છોડી દે! લભ સર્પ જેવું છે. આનાથી મનુષ્યને અત્યન્ત અનિષ્ટની પ્રાપ્તિ થાય છે. તે અનેક પ્રકારના દુરાચારપાં ફસાય છે. વધુ તે શું કહી શકાય? પતંગીયું, હાથી, હરણ, ભમરે અને માછલી તિર્યંચ આ બધાં પણ લેભથી પ્રસ્ત થઈને એક એક ચક્ષુ, પુન, શબ્દ, ગઇ અને રસની , Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૦ तत्वार्थ सूत्रे मावल्येन रूप - शब्द- गन्ध-रसलोभ तृष्णया वध्यन्ते म्रियन्ते च पञ्चेन्द्रियैः पञ्चत्रिषयोपयोगिनां मानवानान्तु लोभाभिभूतानां वन्धनादौ कथेवका ? | तथा चोक्तम् 'पतन्न - मारुन कुन - भृङ्ग-मीनाहताः पञ्चभिरेव पञ्च । - कुरङ्ग - एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेव्यते पञ्चभिरेव पञ्च ॥ १ ॥ इति एवञ्च विषयगान विवेकिनोऽपि सन्मार्गात्परिखलन्ति, इस्यो विचित्रता लोमरूप इति लोपलक्षणमूच्र्छापरिग्रहो व्यपदिश्यते । सा खल- कोभरूपा मूर्च्छान्तरविपयालम्बना वहिर्विपयालम्बना च भवति । तत्राभ्यन्तरो विषय तुर्दशविधो वर्तते राग द्वेप - क्रोध-मान- माया-लोभ मिथ्यादर्शनहास्यरस्यरतिकारण रूप, स्पर्श, शव, गंध और रस की तृष्णा से पीडिन होकर पन्त को प्राप्त होते हैं और मारे जाते हैं। जय एक-एक इन्द्रिय कें वशीभूत होने वालों की यह दशा होती हैं तो पांचों इन्द्रियों के भोग भोगने वाले लोभग्रस्त मनुष्यों का क्या कहना हैं। कहा भी है 1 पतंग, मातंग कुरङ्गभृङ्ग और बीन ये पांचों प्रकार के जीव एक-' एक इन्द्रिय के विषय के कारण मारे जाते हैं, तो जो प्रमादी पुरुष पांचों इन्द्रियों के अधीन हो जाता है, उसका हनन कैसे नहीं होगा | १| इस प्रकार विषयों में गृद्ध होकर विवेकवान् जन भी सन्मार्ग से च्युत हो जाते हैं, यह लोभ की विचित्रता है । यह लोभ रूप मूर्च्छा ही परिग्रह कहलाती है । मूच्र्छा दो प्रकार की होती है - आभ्यन्तर विषयों में तथा बाह्य विषयों में आभ्यन्तर विषय चौदह प्रकार का हैराग-द्वेष-क्रोध- मान-माया - लोभ-मिवादर्शन, हास्य, रति, अरति તૃણુાથી દુખી થઈ ને અન્ધનને પ્રાપ્ત થાય છે અને માર્યો જાય છે, જો એક-એક ઇન્દ્રિયને વશ થનારાની આવી દશા થાય છે તે પાંચ ઇન્દ્રિયાના ભેગ ભગવનારા લે।ભગ્રસ્ત મનુષ્યાનું શું કહેવું? કહ્યુ. પણ છે पतंग (पतंगीथु) भातंग (हाथी) रंग (डर) भृंग (लभरेरो) અને મીન (માછલી) આ પાંચે પ્રકારના જીવ એક-એક ઇન્દ્રિયના વિષયના કારણે માર્યો જાય છે તે જે પ્રમાદી પુરૂષ પાંચ ઇન્દ્રિયેાને વશ થઈ જાય છે તેને નાશ કેમ નહી થાય ? ॥૧॥ આ રીતે વિચૈામાં લલચાઈ ને વિવેકી પુરૂષા પણ સન્માથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે એ લેાભની વિચિત્રતા છે. ‘આ લાભરૂપ સૂર્યું જ પરિગ્રહ કહેવાય છે. મૂર્છા એ પ્રકારની હાય છે-આભ્યન્તર વિષયેામાં તથા ખા विषयोभां भवन्तर विषय यह अारना छे, -राग-द्वेष-ध, भान-भायासोभ-भिथ्या दर्शन-हास्य-रति-रति-भय-शो नुगुप्सा भने वेह भावी Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ लू. २९ परिग्रहस्वरूप निरूपणम् २८१ भयशोक जुगुप्तावेद भेदात् । तत्राभ्यन्तर परिग्रहश्चतुर्दश विधः फलितः, बाह्यविषयश्च वास्तु-क्षेत्रधनधान्यशरगाऽऽमनयानकृष्पद्वित्रिचतुष्पाद भाण्डभेदादनेक. विधो भवति, चेतः परिणावरूया मूर्छाश एतावान् खलु विषयो वर्तते, एते खलु रागद्वेषादयोऽऽस्यतरविषणः परिग्रहनिमित्तत्वात् मूछत्वेिन ध्यपदिश्यन्ते । वास्तु क्षेत्रादयश्च बाविषया 'ममेवे' त्येवमशागद् मम पविषयी कृताः सन्तः कालुष्यवता चेतसाऽऽनो नानाविध जन्मग्रन्थिपरम्परा पुढीकरणायाऽनालो. चितपूर्वापरभावेन परिग्रहत्वेन व्यवहियन्ले, परिगृह्य ते लोभानुरक्तचित्तवृत्याऽभ्युपगम्यते-स्वीक्रियते इति परिग्रहः, लभ-कपायरूपात्मपरिणामविशेषः, सा चोक्तरूपा मच्छी परिग्रह मद भाव परिणामादात्मनः प्राणातिपातयत् ममत्तयो. भय, शोक, जुगुप्ता और वेद । इम प्रकार आन्तर परिग्रह भी चौदह प्रकार का फलित होता है। बाह्यविषय अनेक प्रकार का है जैसे वास्तु (मकान दुकान) आदि, क्षेत्र (खेत), धन, धान्य, शय्या, आसन, यान, कुप्य, द्विपद, त्रिपद, चतुष्पद भाण्ड आदि । ये सब चित्त के परिणमन रूप मूी के विषय हैं। फार राग हेप आदि जो आभ्यन्तर विषय कहे गए हैं, वे परिग्रह के कारण होने से पूछी कहलाते है। वास्तु क्षेत्र आदि जो बाह्य विषय हैं, अज्ञान के कारण उनमें ममत्वभाव धारण किया जाता है, अगएचवे कलुषित चित्त आल्मा की जन्म-मरण परम्परा को सुदृढ करते हैं। हा कारण उन्हे भी परिग्रह कहा गया है। लोभयुक्त चित्तवृत्तिले जिस्मा परिग्रह किया जाय-स्वीकार किया जाय वह परिग्रह । वास्तव में वह आत्मा का लोभ कपायरूप परिणाम है। जैसे हिंसा प्रमत्तयोग के सद्बा के कारण आत्मा में રીતે અભ્યત્તર પરિગ્રહ પણ ઔદ પ્રકારને સાબિત થાય છે. બાહ્ય વિષય भने ५४ान छ-रेम, पास्तु (मान, हुन माहि.) क्षेत्र (जेल२), धन, धान्य, शय्या, मासन, यान, य मे५॥ १५, या२५, पास વગેરે આ બધા ચિત્તના પરિણમન રૂપ મૂના વિષય છે. ઉપર રાગ દ્વેષ આદિ જે આન્સર વિષય કહેવામાં આવ્યા છે તે પરિગ્રહના કારણો હોવાથી મૂછ કહેવાય છે. વાસ્તુ ક્ષેત્ર આદિ જે બાહ્ય વિષય છે અજ્ઞાનને કારણે તેમનામાં મમત્વભાવ ધારણ કરવામાં આવે છે. આથી તેઓ કલુષિત ચિત્ત આત્માની જન્મ-મરણની પરંપરાને સુદઢ કરે છે. આથી તેમને પરિગ્રહડહેલાં છે. - લોભયુક્ત ચિત્તવૃત્તિથી જેનું પરિગ્રહણ કરવામાં અાવે સ્વીકાર કરવામાં આવે તે પરિગ્રહ હકીકતમાં તે આત્માનું લેભ કષાય રૂપ પરિણામ છે. જેવી રીતે હિંસા પ્રમત્તગના સદૂભાવના કારણે આત્મામાં રાગ-દ્વેષ મેહ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्यसूत्रे १८२ जानुवृत्ति सामर्थात् अन्ततो राग-द्वेष-मोहमूला भवति । परिग्रह परिणामविरहिखस्य पुनरप्रमत्तकायबाङ्मनोव्यापारस्य संयमोपकारकेपु वस्त्र युपधिशय्याहार शरीरादिषु-आगमानुज्ञातेषु » न सरूभवति तथात्रोक्त दशवकालिके ६ अध्ययने १८ सूत्र 'नं पिवयं का पाय था-कंपलं पायपुछण। तंपि संजाल जहा धारंति परिहरति छ ॥१॥ 'यपि वस्त्र या पाच वा-कन्दलं पादनोच्छनम् । तदपि संयमलबाथै-धारयन्ति परिहरन्ति च ॥१॥ इति, , । तथा च-योग्योपकरणकलापं बिना-उद्देश्य सिद्धि न भवतीति निर्ग्रन्थानामपि संयमोपकारितया वचपात्राघुरकरण शरयादेः आगमानुज्ञातस्त्र प्राणे परिग्रहदोषो राग-द्वेष लोह उत्पन्न करती है, उसी प्रकार मूळ भी राग-द्वेष-मोह का हारण बनती है। किन्तु जो पुरुष परिग्रह की भावना से सर्वथा रहित हो चुका है, और जिला के लल बचन काय का व्यापार प्रमाद से रहित है, उसे संयम के उपकारक बन आदि उपधि, शय्या, आहार, शरीर आदि में जिनकी अनुमति आगम में दीगई है, मूळ नहीं होती दशकालिक सूत्र के छठे अध्ययन अठारहवी गाथा में कहा है साधुजन जो भी बच पान, कंपल और पादरोंछन धारण करते या काम में लेते-परिहार करते हैं, सच संबड एवं लज्जा के लिए ही समझना चाहिए ॥१॥ योग्य उपकरणों के अभाव में उद्देश्य सिद्ध नहीं होता, अतएव निर्ग्रन्थ भी यदि शास्त्र विहित संबध्द के उपकारक वस्त्र पात्र आदि ઉત્પન્ન કરે છે તેવી જ રીતે મૂછ પણ રાગ-દ્વેષ મેહના કારણે ઉત્પન થાય છે પરંતુ જે પુરૂષ પરિગ્રહની ભાવનાથી સદા રહિત થઈ ચૂકી છે તેમજ જેના મન વચન કાયાને વ્યાપાર પ્રમાદ વગરનો છે તેને સંયમના ઉપકારક વસ્ત્ર આદિ ઉપધિ, શય્યા, આહાર, શરીર આદિમાં જેની અનુમતિ આગમમાં આપવામાં આવી છે, મૂછી થતી નથી. દશવૈકાલિકસૂત્રના છ8 અધ્યયનની અઢારમી ગાથામાં કહ્યું છે– સાધુજન જે પણ વસ્ત્ર, પાત્ર, કામળે અને પગલૂછણયા ધારણ કરે છે, અથવા કામમાં લે છે, તે બધાં સંયમ તથા લજજાના હેતુસર જ સમજવા જોઈએ. ગ્ય ઉપકરણોની અનુપસ્થિતિમાં ઉદેશ્ય સિદ્ધ થતું નથી, આથી નિન્ય પણ જે શાસ્ત્રવિહિત, સંયમના ઉપકારક વસ્ત્ર પાત્ર આદિ ઉપકરણ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. २९ परिग्रहस्वरूपनिरूपणम् ૨૮ न भवति । एवञ्च येऽपि केचनादिवेदिन आगमानुज्ञातमपि वस्त्रपात्राद्युपकरणे मोक्षसाधनमा हिंसादिव्रतपरिपालनसमर्थश्च न परिगृह्णन्ति किन्तु तेऽपि आहारशरीरशिष्यादींश्च तु गृहन्त्येव । एतान् ते कि सन्यन्ते किं एवे न परिग्रहाः सन्ति ? तेषां मान्यताऽनुमारेण तु तेऽपि परिग्रहा एव सन्ति । अथाऽल्पबहुत्वकृतो विशेषः परिग्रहे सम्भवतीति चेत् अत्रोच्यते, तथा सति - दरिद्रस्याऽल्पं धनं, महर्द्धिकस्य च श्रेष्ठिनः पुष्कलं द्रविणं भवतीति नैतावताऽपरिग्रह एव दरिद्रः । महर्द्धिकच सपरिग्रहो व्यपदिश्यते, तस्मात् सूर्च्छा लक्षण एवं परिग्रहः सर्वैरकामेनाऽपि प्रतिपत्तव्यः । स च मृच्छलक्षणः परिग्रहः खल चेतनेषु - एक द्वित्रिउपकरण तथा शय्या आदि का ग्रहण करते हैं तो परिग्रह का दोष नहीं होता । वस्त्र पात्र आदि उपकरण मोक्ष के साधन हैं, अहिंसा आदि व्रतों का पालन करने में समर्थ हैं, आगम में उनकी आज्ञो दी गई है, फिर भी जो विवेकहीन जन उनको ग्रहण नहीं करते किन्तु वे भी आहार शरीर और शिष्य आदि को ग्रहण तो करते ही है । उन्हें वे क्या मानते है ? क्या ये परिग्रहण नहीं है ? उनकी मान्यता के अनु सार ये भी परिग्रह ही हैं । शंका-क्या परिग्रह में अल्प- बहुत्वकृत विशेषता का संभव है ? समाधान - ऐसा माना जाय तो दरिद्र के पास अल्प धन होता है और महान् सम्पत्तिशाली सेठ के पास बहुत धन होता है, इतने मात्र से दरिद्र को अपरिग्रही और महान् सम्पत्तिशाली को परिग्रही नहीं कह सकते । अतएव इच्छा न होने पर भी सब को यही स्वीकार करना તથા જ્ગ્યા આદિ ગ્રહણ કરે તે તેમાં પરિભ્રહના દેષ લાગતા નથી. ધ પાત્ર આઢિ ઉપકરણુ એ ક્ષનાં સાધન છે, અહિંસા આદિ તાનુ પાલન કરવામાં સમર્થ છે, આગમમાં તેમની આજ્ઞા ફરમાવવામાં પણ વિવેકહીન માણસા તેમનું ગ્રહણુ કરતાં નથી પરતુ તે શરીર અને શિષ્ય વગેતુ ગ્રહણ તેા કરે જ છે તેમને તેએ શુ` માને છે ? શું એ પરિગ્રહણ નથી ? તેમની માન્યતા અનુસાર તેઓ પણ પરિગ્રહી છે. શ'કા-થ્રુ પરિગ્રહમાં અલ્પ-મહુત્વકૃત વિશેષતા સભવત છે ? આવેલી છે તેા પણ આહાર, સમાધાન--એવું માની લઈએ તે। દરિદ્રની પાસે થાડુ' ધન હાય છે અને મહાન સમ્પત્તિશાળી શેઠની પાસે અઢળક દ્રવ્ય દાય છે, આથી દર દ્રને અપરિગ્રહી અને મહાન્ સમ્પત્તિશાળીને પરિગ્રહું' કહી શકાય નહીં, આથી ઇચ્છા ન હેાવા છતાં પણ ખધાંએ એવુ જ સ્વીકારવુ જોઈ એ કે Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . तत्त्वार्थसूत्रे चतुः पञ्चेन्द्रियेषु, अचानेषु च वास्तहरिण्यादिषु रागादिषु चाऽऽत्मपरिणामेषु बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्ये घूप नाय ते, तच्च द्रव्यं क्वचित् केवलं पुद्गलद्रव्यमेव भवति । वचित् आत्मप्रदेशसंयुक्त सवति । स च-परिग्रहो द्रव्य ग्रहणाच्चतुर्विधो भवति, द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् । तन्त्र-द्रव्यतो वास्तु क्षेत्रादिपियः क्षेत्रतस्तु-ग्राम नग राचवच्छिन्न द्रव्यविपरः कालतः पुना रात्रिदिव्यच्छिन्न द्रव्यविषयः, भावतस्तु प्रतिविशिष्ट वस्तूपासने-उत्कृष्टे सति उत्कृष्टा मूर्छा संजायेत, तथाविधवस्तू पलम्सने मध्यमे सति ४ मा, ! जयन्येतु-जघन्या मूच्र्छा भवतीति भावः, सा खल मूर्छा-इच्छा-मार्थना-कामोऽभिलाषः कांक्षा-गाध्य-लोभः, इत्यादिपर्यायान्तररमिधीयते । तत्रेच्छा-यथाचाहिए कि मूळ ही परिग्रह है। वह मूल रूप परिग्रह चेतन एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पदार्थों में अचेतन वास्तु तथा हिरण्य आदि में राम आदि आत्मिक परिणामों तथा बाह्य और आभ्यन्तर द्रव्यों में उत्पन्न होता है। यह द्रव्य कहीं केवल पुद्गल द्रव्य ही होता है और नहीं आत्म प्रदेशों से युक्त होता है। द्रव्य के ग्रहण से वह परिग्रह चार प्रकार का है द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से । द्रव्य ले वास्तु-क्षेत्र आदि विषशक होता है, क्षेत्र से ग्रामनगर आदि से अच्छिन्न द्रव्य विषयक होता है, काल से रात्रि-दिवस आदि से व्यवच्छिन्न हन्धविषयक होता है और भाव से विशिष्ट वस्तु की उपलब्धि में होता हैं । अगर उत्कृष्ट उपलं मन हो तो उत्कृष्ट मूी होती है, तथाविध वस्तु का उपलं मन यदि मध्यम हो मध्यम मूर्दा होती है और जघन्ध में जघन्य मूर्छा होती है । इस मृग के अनेक पर्यायवाचक नाम है, जैसे-इच्छा, प्रार्थना, कान, अभिलाषा, कांक्षा, મૂછ જ પરિગ્રહ છે. તે મૂછોરૂપ પરિગ્રહ ચેતન એકેન્દ્રિય, બેઈન્દ્રિય, તે ન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય પદાર્થોમાં, અચેતન વાસ્તુ તથા હીરાઝવેરાતમાં, રાગ વગેરે આત્મિક પરિણામે તથા બાહ્ય અને આભ્યન્તર દ્રોમાં ઉત્પન્ન થાય છે આ દ્રવ્ય કઈ જગાએ માત્ર પુદગલ દ્રવ્ય જ હોય છે જ્યારે કયાંક આમપ્રદેશોથી યુક્ત હોય છે. દ્રવ્યના ગ્રહણથી તે પરિગ્રહ ચાર પ્રકારનો છે–દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવના ભેદથી દ્રવ્યથી વાસ્તુ-ક્ષેત્ર આદિ વિષયક થાય છે, ક્ષેત્રથી ગામ નગર વગેરેથી અવચ્છિન્ન દ્રવ્ય વિષયક થાય છે, કાલથી રાત્રિ-દિવસ આદિથી વ્યવરિચ્છન્ન દ્રવ્ય વિષયક થાય છે અને વિશિષ્ટ વરતુની ઉપલબ્ધિમાં થાય છે. જે ઉત્કૃષ્ટ ઉપલંભના હોય તે ઉત્કૃષ્ટ મૂછી થાય છે, તથાવિધ વરતનું ઉપલંભન જે મધ્યમ હોય તે મધ્યમ મૂછી થાય છે અને જઘન્યમાં જઘન્ય મૂછ થાય છે. આ + Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७ सू. ३०-३७ पंञ्चाणुव्रतनिरूपणम् 'निःस्वष्टि शतं शती दशशतं लक्षं सहस्राधिपो लक्षेशः क्षितिपालवां, क्षितिपतिश्चक्रेशां वाञ्छति । चक्रेशः सुरराजतां सुरपतिर्ब्रह्मास्पदं वाञ्छति ब्रह्माविष्णुपदं हरिः शिवपदं तृष्णाऽवधि को गतः । १ । " इति उक्तांच दर्शवेकालिके ६ - अध्ययने २१ गाथायां मूच्छा 'परिग्गहो वृत्तो' इति ॥२९॥ मूलम् - एएहिंतो देसओ वेरमणं पंच अणुव्वया ॥ ३०॥ छाया - 'पुतेभ्यो देशतो विरमणं पञ्चाऽणुव्रतानि ||३०|| ૨૮ गार्ध्य लोभ आदि । इनमें से इच्छा का स्वरूप यह है - 'निर्धन पुरुष सौ की कामना करता है, जिसके पास सौ हैं उसे दस सौ - 1 - हजार की इच्छा होती है, हजार पति लाख की अभिलाषा करता है, लक्षाधिपति राजा बनना चाहता है, राजा चकवर्ती होने का मनोरथ रखना है, चक्रवर्ती इन्द्र पद पाने की कामना करता है, इन्द्र ब्रह्मलोक प्राप्त करने की आकांक्षा करता है, ब्रह्मा विष्णु का पद पाना चाहता है, विष्णु शिव - महादेव बनना चाहता है। इस तृष्णा का कहीं अन्त नहीं ॥१॥ दर्शकालिक सूत्र के छठे अध्ययन की २१ वीं गाथा में कहा है'मूर्छा को परिग्रह कहा है ||२९|| 'एएहितो देसओ' इत्यादि । इन हिंसा आदि अव्रतों से एकदेश से निवृत्त होना पांच अणु व्रत है ॥ ३० ॥ મૂર્છાના અનેક પર્યાયવાચક નામ છે જેમ કે-ઇચ્છા, પ્રાથના, કામ, અભિभाषा, अक्षा, गार्ड, सोल वगेरे समांथी छानुं स्व३५ मा अमाये - નિધન પુરૂષ સેા રૂપીઆની કામના કરે છે, જેની પાસે સેા છે તેને હજાર– હજારપતિ લાખની અભિલાષા કરે છે, લક્ષાધિપતિ રાજા બનવા ચાહે છે, રાજા ચક્રવતી બનવાના મનેાથ સેવે છે, ચક્રવતી ઇન્દ્રપદ પામવાની કામના રાખે છે, ઇન્દ્ર બ્રહ્મલેક પ્રાપ્ત કરવાની આકાક્ષા સેવે છે, બ્રહ્મા વિષ્ણુનું પદ મળે એવું ઇચ્છે છે તે વિષ્ણુ શિવ-મહાદેવ બનવાને મનસુખ સેવે છે. આ तृष्णात हेड! ४ नथी, ' ॥१॥ દશવૈકાલિકસૂત્રના છઠ્ઠાં અધ્યયનની ૨૧મી ગાથામાં કહ્યુ` છે-મૂર્છાને પરિગ્રહ કહેલ છે’ પા 'एएहितो देसओ' इत्यादि સૂત્રાર્થ આ હિંસા આદિ અન્નતાથી એકદેશથી નિવૃત્ત શ્યુ‘ પાંચ અણુમન છે. ૫૩૦! ト 1 ↑ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वायसूत्र मूलम्-दिसि मज्जायकरणं दिसिवयं ॥३१॥ छाया--'दिङ्मर्यादाकरणं दिग्वतम् ॥३१॥ मूलमू-उपभोगपरिमोगपरिमाणकरणं उवभोगपरिभोगपरिमाणवयं ॥३२॥ छाया-उपभोगपरिभोगपरिमाणकरणम्-उपभोगपरिभोगपरिमाणवतम् ।३२। मूलम्-णीहेउय पाणिपीडा करणओ वेरमणं अणटुदंडबेरमणं ॥३३॥ छाया-निर्हेतुक माणिपीडाकरणतो विरमणम्-अनर्थदण्डविरमणम् ॥३३॥ . सूलन-सम्रजीचेसु लरभावो लामाइयं ॥३४॥ - छाया-सर्वजीधेषु समभाव सामायिकम् ॥३४। दिलिमज्जायकरणं दिलिवयं' इत्यादि। - स्त्रार्थ-दिशाओं की मर्यादा करना दिगवत है ॥३१॥ .. 'उपभोग परिभोग' इत्यादि । लन्नार्थ-उपभोग और परिभोग की वस्तुओं का परिमाण करना उपभोग परिभोगपरिमाणवत कहलाता है ॥३२॥ ‘णीहेउय पाणि पीडा' इत्यादि ।। एखूत्रार्थ-निरर्थक प्राणी-पीडा उत्पन्न करने से विरत हो जाना अनर्थदण्डविरमणव्रत कहलाता है ।।३३।। 'सबजीयेसु स्लम भाचो लामाइयं' इत्यादि । स्त्रार्थ-सब जीवों पर सलमाव रखना सामायिकवत है ॥३४॥ 'दिसिमज्जायकरणं दिसिवय' त्यादि સૂત્રાર્થ–દિશાઓની મર્યાદા કરવી દિગુવ્રત છે. ૩૧ 'उवभ गपरिभोग' या સૂત્રાર્થ–ઉપભોગ અને પરિભોગની વસ્તુઓનું પરિમાણ કરવું ઉપભેગ ચરિભેગ પરિમાણુવ્રત કહેવાય છે. કેરા 'ण हे उय पाणिपीडा' इत्यादि સૂત્રાર્થ-નિરર્થક પ્રાણી-પીડા ઉત્પન્ન કરવામાં વિરત થઈ જવું અનર્થઇન્ડવિરમણ વ્રત કહેવાય છે. ૩૩ 'सव्वजीवेसु समभावो सामाइयं' या સૂત્રાર્થ-બધાં જીવો ઉપર સમભાવ રાખવે સામાયિક વ્રત છે. ૩૪ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ ६. ३०-३७ पञ्चाणुवतनिरूपणम् २८५ मूलम्--दिसिवयसकोओ देसावगालियं ॥३५॥ छाया-दिग्व्रतसंकोचो देशावकाशिकम् ॥३५।' मूलम्-धम्मपुटीए वसणं पोलहोववालो ॥३६॥ छाया-धर्मपुष्टय वसनं पौषधोपवासः ॥३६॥ मूलम्-समणाणं एसणिज्जाहार सम्प्पणंअतिहिसंविभागो।३७। छाया-श्रमणेभ्य एपणीयाहारसमर्पगम्-अतिथिसंविभागः ॥३७॥ . मलम्-मारणंतिय संलेहणा जोसिओय ॥३८॥ 'दिसिवय संकोओ देसायगालिय' इत्यादि । सूत्रार्थ-दिशावत को (परिमित समय के लिए) संकुचित करना देशावकाशिकव्रत कहलाता है ॥३५॥ .. 'धम्मपुट्टीए वसणं पोसहोववालो' इत्यादि। सूत्रार्थ-धर्म की पुष्टि के लिए वास करना पौषधोपवाल है ॥३६।। 'समणाणं एसणिज्जा' इत्यादि। सूत्रार्थ-साधुओं को एषणीय आहार का दान करना अतिथि संविभागवत है ॥३७॥ 'मारणतिय संलेहणा जोसिओय' इत्यादि । . सूत्रार्थ-व्रती पुरुष मारणान्तिक संलेखना का भी खेवी होता है ।३८। . 'दिसिवयसकोओ देसावगासिय' या સૂત્રાર્થ દિશાવતને (મર્યાદિત સમય માટે) સંકુચિત કરવું દેશાવકાશિક ત્રિત કહેવાય છે. ૩પા 'धम्मपुट्ठीए वसणं पोसहोववासो' त्या - સૂત્રાર્થ– ધર્મની પુષ્ટિને માટે વાસ કરે પૌપવાસ છે. કદા 'समणाणं एसणिज्जा' त्या સૂત્રાર્થ–સાધુઓને એષણીય આહારનું દાન આપવું અતિથિવિભાગવ્રત છે. ૩] 'मारणंतिय संलेहणा जोसिओय' त्या સૂત્રાર્થ-બૂતી પુરૂષ મારણાન્તિક સહસ્સાનું પણ સેવન કરે છે, ૩૮ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्यार्थसत्रे छाया - मरणान्तिक संलेखनाजोवित ||३८|| तत्रार्थदीपिका - पूर्वसूनेगारीभावको द्वादशव्रत विशिष्टवतीभवतीत्युक्तम्, सम्पति- स खलु श्री श्रावको शरणान्तिक संलेखनाया आराधकवाऽपि भवतीति प्रतिपादयितुमाह- 'मारणंतिघ संलेहणाओसिओय' इति स तावनी- अगारी पञ्चाणुत्र विशिष्टत्त्रात् त्रिगुणवत- चतुः शिक्षात्रवरूपं सप्तनवविशिष्टत्वाच्च मारणान्तिकसं लेखनाजोषितः भवच्छेदकर- काय कपाय कृशीकरणरूप संलेखनाऽऽराधकथ भवति । तत्र -स्थात्मपरिणामोपात्ताना मायुरिन्द्रियवलानां संक्षयो मरणम्देवान्तो मारणान्तः स प्रयोजनमस्या इति मारणान्तिकी, सा चासौ तत्वार्थदीपिका - गृहस्थ श्रावक वार व्रतों से सम्पन्न होने के कारण देश व्रती कहलाता है, यह बात पूर्वसूत्र में कही जा चुकी है। अब यह प्रतिपादन करते हैं कि वह व्रती श्रावक मारणांतिक संलेखना का भी आराधक होता है देशवनी श्रावक पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों से सम्पन्न होने के कारण मारणान्तिक संलेखना का भी आराधक होता है अर्थात् भव का अन्त करने वाली, काय तथा कषाय को कृश करने रूप संलेखना का सेवन करता है । अपनी आत्मा के परिणाम के अनुसार उपार्जित आयु, इन्द्रियों एवं बलों का क्षय होना मरण कहलाता है । मरण रूप अन्त को मरणान्त कहते हैं । मरणान्त जिसका प्रयोजन हो उसे मारणान्तिकी कहते हैं, ऐसी संलेखना मारणान्तिक संलेखना है। सम् अर्थात् सम्पक प्रकार से देखना अर्थात् તત્વાથ દીપિકા ગૃહસ્થ શ્રાવક ખારવત્તાથી સમ્પન હાવાના કારણે દેશની કહેવાય છે એ હકીકત પૂર્વસૂત્રમાં કહેવામાં આવી છે. હવે એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ કે તે વ્રતી શ્રાવક મારાન્તિક સ ́લેહણાના પણ આરાધક હાય છે VMMO દેશવતી શ્રાવક પાંચ અણુવ્રત, ત્રણ ગુણુવ્રતા અને ચાર શિક્ષાવ્રતાથી સમ્પન્ન હોવાના કારણે મારણાન્તિક સલેહણાના પણ આરાધક હાય છે. અર્થાત્ ભવને અન્ત કરનાર, કાયા તથા કષાયને કૃશ કરવા રૂપ સ’લેહણાનુ’ સેવન કરે છે. પેાતાના આત્માના પરિણામ અનુસાર ઉપાર્જિત આયુ, ઇન્દ્રિયા અને ખળાના ક્ષય થવે મરણ કહેવાય છે. મરણુ રૂપ અન્તને મરણાન્ત કહે છે. મરણાન્ત જેનું પ્રચાજન છે તેને મારણાન્તિકી કહે છે, 'આવી સલેહણા Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नयुक्ति टोका अ. ७१.३८ मारणांतिकसंलेखनास्वरूपनिरूपणम् ३८९, संलेखना चेति मारणान्तिक संलेखना सं-सम्यक् लेखना-कुशीकरणं संलेखना। तत्र-कायस्योपवासादिना कुशीकरणं बाह्य संलेखना १ क्रोधादिषायाणाश्च- तपः संयमादिन तनूकरण मन्तरसंलेखना २ तथा च कायस्य कपायाणाञ्च सम्यक् लेखना कृशीकरण-तनूकरणं संलेखना तस्याः खलु-मारणान्तिकसंलेखनायाजोषितः प्रीत्यासेविता च पुमान् व्रती-अगारी। चकारात मरणान्तिसंलेखनाजोषिता चाऽपि भवतीति वध्यम् । अत्राऽन्तग्रहणेन तवमरणं परिगृह्य ते, अथैवं तर्हि-मारणान्तिक संलेखनासेवितुः अगारिणः आत्मवधदोषापत्तिः स्यात स्वाऽभिसन्धिपूर्वकमेव तस्य स्वाऽऽयुरिन्द्रियबलसंक्षयाय कायादि संशोषणादौ कृश करना संलेखना है । उपवास आदि के द्वारा काया कुश करना बाह्य संलेखना है और तप एवं संयम के द्वारा कोच आदि कषायों को कृश करना आन्तरिक लंलेखना है । इस प्रकार काय और कषायों को सम्यक् प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना संलेखना है । व्रती श्रावक इस मारणान्तिक संलेखना का भी प्रीति पूर्वक सेवन करता है। सूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द से ऐसा समझना चाहिए कि वह मारणान्तिक मलेखना का भी आराधक होता है यहां 'अन्त' शब्द के ग्रहण से तद्भवमरण ग्रहण किया जाता है। शंका-मारणान्तिक संलेखना का सेवन करने वाला गृहस्थ आत्म. हत्या के दोष का भागी होना चाहिए, क्योंकि वह स्वेच्छा पूर्वक ही अपनी आयु, इन्द्रिय और पल का विनाश करने के लिए काय आदि का शोषण करने में प्रवृन होता है। મારણાનિક સલેહણા છે. અર્થાત સમ્યક્ પ્રકારથી લેહન કરવું અથવા કૃશ કરવું સંલેહગા છે. ઉપવ સ વગેરે દ્વારા કાયાને કૃશ કરવી બાહ્ય સંલેહણા છે અને તપ તથા સંયમ દ્વારા ક્રોધ આદિ કષાયોને પાતળા પાડવા આતરિક સંલેહણા છે. આ રીતે કાયા તથા કષ એને સમ્યક્ પ્રકારે લેહન કરવું અથવા કૃશ કરવું સંડલેહણા છે. વ્રતી શ્રાવક આ મારણાન્તિક સલેહણનુ પણ પ્રેમપૂર્વક સેવન કરે છે. સૂત્રમાં પ્રયુક્ત “ચ” શબ્દથી એમ સમજવાનું છે કે તે મારાન્તિક સંલેહણાના પણ આરાધક હોય છે. અહીં અત” શબ્દ ગ્રહણથી તદ્દભવમરણ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. શંકા–માણતિક સંલેહણાનું સેવન કરનાર ગ્રહસ્થ આત્મહત્યાના દેષ ભાગી જોઈએ, કારણ કે તે રપૂર્વક જ પિતાના આયુષ્ય, ઇન્દ્રિય તેમજ બળને વિનાશ કરવા માટે કાયા વગેરેનું શોષણ કરવામાં प्रवृत्त थाय छे. त० ३७ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थसूत्र मत्तस्वात-इति चेन्न-१ अगारिणो वतिनोऽप्रत्तस्पेन कागादि कृशादिकरणे वृत्तत्वेऽपि आत्मघातकत्वदोषाऽभावात्, मसत्तयोगाह माणव्यपरोपणस्यैव हिसा. पदार्थत्वात् अस्य खलु वतिनोऽगारिणो रागद्वेषमोक्षामिलिवेशाऽभावेन प्रमाद. योगाऽभावात् । यस्तु पुरुषो रागद्वेषम हारिभिरा विष्टः सन् विपशस्त्रगलपाशाs. निवेश कूप तडागादि निमज्ज भृगुपात उसना खण्डनादि प्रयोगेणाऽऽस्मान हिनस्ति स आत्मघाती सपति, तस्मात् संलेखनां मतिपन्नस्य न्नतिनो राग-द्वे. पाघमावेनाऽऽत्मघातपाप न भवति । उक्तञ्च 'शादीण मणुप्पाये अहिलनलिभाखियं समये । तेलि चेनुपपत्ती हिसेलिजिणेहि मिट्टिा ॥१॥ इति, रागादीनामनुत्पादे अहिंसकहतियापित समये । तेपाञ्चदुत्पत्ति-हिति जिननिर्दिष्टा ॥१॥ इति, समाधान-ऐसा नहीं है। व्रती गृहस्न अप्रमत्त होने के कारण काय आदि को कृश करने में प्रवृत्त होने पर भी आघात के पाप का भागी नहीं होता। हिंसापद का अर्थ प्रमत्त योगले माणों का व्यप रोपण करना है, किन्तु बनवान् श्रावक राम द्वेप और भोह के अभि निवेश ले रहित होता है, अतएव उसमें प्रमादशा योग नहीं होता। जो पुरुष राग, द्वेष और मोह रहे आविष्ट होकर विष, शस्त्र, फांसी, अग्नि प्रवेश कूपपोत, मडाग निमज्जन, भृगुपात, रखना खण्डन आदि का प्रयोग करके आत्मघात करता है, बही घामक होता है। इस प्रकार संलेखना को अंगीकार करने वाले व्रती पुरुष को, राग-द्वेष आदि का अभाव नहीं होने के कारण आत्मघात का पाप नहीं लगना । कहा भी है। 'जिल के सागादि की उत्पत्ति नहीं होती, वह आगम में अहिंसक સમાધાન–આ પ્રમાણે નથી. વતી ગ્રહસ્થ અપ્રમત્ત હોવાના કારણે કાયા વગેરેને કૃશ કરવામાં પ્રવૃત્ત હોવા છતાં પણું આત્મઘાતના પાપને ભાગીદાર થતો નથી. હિંસાપદને અર્થ પ્રમત્તયાગથી પ્રાથોને નાશ કરે એમ થાય છે, પરંતુ વ્રતધારી શ્રાવક રાગ દ્વેષ અને મોહના અભિનિવેશથી રહિત હોય છે, આથી તેનામાં પ્રમાદને વેગ થતું નથી. જે પુરૂષ રાગ, દ્વેષ અને મેહથી આવિષ્ટ દઈને ઝેર, શસ્ત્ર, ફાંસ, અગ્નિસ્નાન, કૂવામાં પડવું. તળાવમાં ડૂબી જઈને જીભ કચરીને–એવા પ્રાગે કરીને આત્મહત્યા કરે છે તે જ અ.મઘાતક કહેવાય છે. આવી રીતે સંલેહણને અંગિકાર કરનારા વ્રતી પુરૂષને રાગ-દ્વેષ આદિને અભાવ નહીં હોવાના કારણે આત્મઘાતનું ५१५ गतु नथी. ४यु पात्र है જેને રાગાદિની ઉત્પત્તિ થતી નથી તેને આગમમાં અહિંસક કહેવામાં Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७.३८ मारणांतिकलेखनास्वरूपनिरूपणम् २९५ अपिचाऽग्निदाहादिना बहुमूल्य रत्नादिविमिष्टनाशे समुपस्थिते तदुपशमाय कृतयत्नोऽपि-असफलश्चेद् अन्ततोरस्नादिकं संरक्षितुं पुरुषो यतते । एवं-युगपत् कायविनाशे समुपस्थिते व्रती श्रादको व्रत-शीलादिगुणानां संरक्षणार्थ यतमानो नाऽऽत्मधारका सम्भवतीतिभावः ॥३८॥ तत्वार्थनियुक्ति:- पूर्व ताबद्-द्वादशवतधरोऽगारी श्रावकः शीलसम्पदा विशिष्टो भवनीत्युक्तम्, सम्पति-तथाविधः रूलु श्रावको भवच्छेदकरकायकषाय संलेखनाऽऽराधको भरतीति प्रतिपादयितुमाह-कारणतिय संखहणाजोसि. कहा गया है । समादि की उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। घर में आग लगने पर जब सर्व स्व के विनाश का अवसर उपस्थित होता है तब मनुष्य उस आग बुझाने का प्रयत्न करता है। किन्तु जब उसे बुझाने में सफल नहीं होता तो अन्ततः वस्न आदि खूल्यवान पदार्थों की ही रक्षा करने का प्रयत्न करता है, इसी प्रकार एक साथ काय का विनाश उपस्थित होने पर व्रती श्रावक बन शील आदि गुणों की रक्षा करना हुमा आत्मघातक नहीं कहा जा सकता ॥३८ __ तत्वार्थनियुक्ति-पहले कहा गया है कि द्वादश व्रतधारी गृहस्थ श्रावक शील सम्पदा से सम्पन्न होता है, अन या प्रतिपादन करते हैं कि पूर्वोक्त श्रावक सबका अन्त करने वाली काय-कषाय संलेखना का भी आराधका होता। આવ્યું છે. રાગાદિની ઉત્પત્તિ જ હિંસા છે એમ જિતેન્દ્ર ભગવાને ભાખેલું છે.' ઘરમાં આગ લાગવાથી જ્યારે સર્વસ્વના વિનાશનો અવસર ઉપસ્થિત થાય છે, ત્યારે તે ઘરને માલિક તે આગને ઓલવવાનો પ્રયત્ન કરે છે, પરંતુ જ્યારે તેને હલવવામાં તે સફળ થતો નથી, ત્યારે રત્ન આદિ મૂલ્યવાન પદાર્થોની જ રક્ષા કરવા પ્રયત્ન કરે છે, એવી જ રીતે એકી સાથે કાયાને વિનાશ ઉપસ્થિત થવાથી વતી શ્રાવક વ્રત શીલ આદિ ગુણોનું રક્ષણ કરતે થકે આત્મઘાતક કહી શકાતું નથી. ૩૮ તવાનિયુક્તિ–પહેલા કહેવામાં આવ્યું કે બાર વ્રતધારી ગ્રહસ્થ શ્રાવક શીલ સંપત્તિથી સમ્પન્ન હોય છે હવે એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ કે પૂર્વોક્ત શ્રાવક ભવનો અન્ન કરનારી કાયા-કષાય સલેહણાને પણ આરાધક હોય છેes Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ - तत्त्वार्थसूत्र ओय-इति, स तावत्-पूर्वोक्त द्वादशत्रतविशिष्टोऽकारी मारणान्तिक संलेखनाजोपिता भवच्छेदकरकायकपायकृशीकरणरूपसंलेखनायाः प्रीत्यासेविताऽऽ. रायसवाऽपि भवति । चकारेग-द्वादशजवसम्पन्नश्च:ऽपि मारणान्तिक संलेखना जोपिता भवतीति बोध्यम् । अत्र मरणं तारत-सर्वायुषः क्षयरूपं वोध्यम्, नतु प्रतिक्षणमाधीचिकमरण ग्राह्यम्, मरणमेव मरणान्त:--मरणकालः, प्रत्यासन्नं तन्मरणमित्यर्थः अन्वपदेन-तद्भवमरणश्य ग्रहणात् तथा च-बद्भवमरणरूपो मरणान्तः प्रयोजनमस्या इति मारणान्तिकी सा चाऽसौ संलेखना चेति मारणान्तिक यह पूर्वोक्त बारह जनों का धारक गृहस्व मारणान्तिक संलेखना का भी प्रीति पूर्वक सेवन करने वाला होता है । 'च' शब्द के प्रयोग से ऐसा समझना चाहिए कि द्वादश वनों से सम्पन्न होने पर भी श्रावक मारणालित संलेखना का आराधक होता है। - यहां मरण का अर्थ है-लम्पूर्ण आयु का क्षय होना। यहां क्षणक्षण में होनेवाले अवीचिमरण को ग्रहण नहीं करना चाहिए । 'अन्त पद से तभवरण समझना चाहिए । मरण को ही मरणान्त कहते हैं अर्थात् मरणकाल या मृत्यु का निकट आना । इस प्रकार तद्भवरूप धरणात जिसका प्रयोजन हो उसे मारणान्तिक कहते हैं । ऐसी संले. खना मारणान्तिक संलेखना है । जिसके द्वारा काय और कषाय आदि का संलेखन किया जाय-कृश किया जाय उसे संलेखना कहते हैं। तात्पर्य यह है कि काय और कषाय को कृश करनेवाला तपश्चरण આ પૂર્વોક્ત બ ૨ વ્રતધારી ગ્રહસ્થ મારણતિક સંલેહણનું પણ પ્રીતિપૂર્વક સેવન કરનારે હોય છે. “ચ” શબ્દના પ્રયોગથી એવું સમજવું જોઈએ કે બારવ્રતથી સમ્પન હોવા છતાં પણ શ્રાવક મારણતિક સલેહણાને આરાધક હોય છે. અહીં મરણને અર્થ છે–સપૂર્ણ આયુનો ક્ષય થ અહીં ક્ષણે-ક્ષણે થનારા આવી ચિમરણને ગ્રહણ કરવું જોઈએ નહીં. “અન્ત પદથી તદુભવમરણ સમજવું ઘટે. મરણને જ મરણન કહે છે, અર્થાત્ મૃત્યુકાળ અથવા મોતનું પાસે આવવું. આવી રીતે તદ્દભવ રૂપ મરણતિક સંખના છે. જેના વડે કાયા તથા કષાય વગેરેનું સંલેહન કરાય-કૃશ કરાય તેને સલેહણ કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે કાયા તો કાષાયને પાતળા પાડનાત તપશ્ચર્યા સલેહણા કહેવાય છે. આમાં પણ કાયાને કૃશ કરનારી તપશ્ચર્યા બાઢા Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू.३८ मारगांतिकसलेखनास्वरूपनिरूपणम् ३९३ संलेखना, संलेख्यते-कृशीक्रियते कायकायादिक मनया-इति संलेखना काय कायतनूकरणतपो विशेषरूपा। तत्र-कायकृशकरणतपो विशेपेभ्योऽभ्यन्तर संलेखना-२ तथाचोक्तम्- चत्तारि विचित्ताइ-विगई निज्जू हिताई पत्तारि। एमंतरमायाम-अविगिह विगिट्ट कोडिक ॥१॥ इति चत्वारि (वर्षाणि) विचित्राणि (तपांसि) विकृतिनि— ढानि चत्वारि । एकान्तरमाचाम्लम् (द्वे) अविकृष्टम् (एकम्) विकृष्टम् एकम् कोटया-(एकम्) इति । संलेखनाकालश्च उत्कृप्टेन द्वादश वर्षाणि, तदनु पुनः स्वशक्त्यपेक्षया मासार्ध मासपरिमाणतया, आगमोक्त्या द्वादशवर्ष व्यवस्थयैव संलेखना कालोऽगन्तव्यः सा चेयं संलेखनाऽवश्यमेव समाधि मरणपर्यन्तं श्रमण-श्रावकाभ्यां कतव्या । तया च-दुषमारूपकालदोषात्- वभनारावादि संहनन दौवल्यदोषात् दिव्यसंलेखना कहलता है । इसमें भी काय को कृश कार ने बाला तपश्चरण बाह्य संलेखना है क्रोध आदि कषायों को कृश करने वाला तप आभ्यन्तर संखना है । कहा भी है चार वर्ष तक विचिन्न तप करे, चार वर्ष तक विषयों का त्याग कर के तप करे, दो वर्ष तक एकान्तर आयंबिल करे, एक वर्ष अघिकृष्ट और एक वर्ष तक विकृष्ट तप करे। इस प्रकार संलेखनी का उत्कृष्ट काल वारह वर्ष का कहा गया है । लत्पश्चात् अपनी शक्ति के अनुसार मास या अर्धमास परिमाण वाली, आगमोक्त बारह वर्ष की व्यवस्था से ही संलेखना काल समझना चाहिए। साधु और श्रावक को यह संलेखना मरणपर्यन्त अवश्य ही करना चाहिए । इस दुषम काल के दोष से, संहनन की दुर्बलता के दोष से સંલેહણું છે જ્યારે કોઇ વગેરે કષાયોને કૃશ કરનારનું તપ આભ્યન્તર सहए। छे. यु ५ है ચાર વર્ષ સુધી વિચિત્ર તપ કરે. ચાર વર્ષ સુધી વિગાયને ત્યાગ કરીને તપ કરે, બે વર્ષ સુધી એકાંતર આયાંબિલ કરે, એક વર્ષ અવિષ્ટ અને એક વર્ષ સુધી વિકૃષ્ટ તપ કરે આ રીતે સંકેહણાને ઉત્કૃષ્ટ કાળ બાર વર્ષને કહેવામાં આવ્યા છે ત્યાર પછી પિતાની શક્તિ મુજબ માસ અથવા અડધા માસ પરિમાણવાળી આગમોકત બાર વર્ષની વ્યવસ્થાથી જ સલેહણને કાળ સમજવાને છે. સાધુ તથા શ્રાવકે આ સ લેહણા મરણપર્યત અવશ્ય જ કરવી જોઈએ. આ દુષમકાળના દોષથી, સંહનનની દુર્બળતાના દેષથી તથા દેવતા મનુષ્ય Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થયું तत्त्वार्थसूत्रे मातृव तिर्यक्ाऽऽत्मसमुत्थोपसर्गदोषात् तथा दशविधधर्मविषयक श्रमणाश्यक कर्तव्य प्रत्युपेक्षणादिकस्य परिहाणिम्-अगारिणश्च श्रमणवैयावृत्यपौषधी पवासपतिपत्यादिकस्य परिहाणिञ्च चिज्ञायाङगारीवती मरणंवा मत्यासन्नमत्र बुध्य कुक्कुटाण्डकममाणद्वात्रिंशत्कापलाहार उदनाकरणरूपाऽवमौदर्य चतुर्थ पष्ठामास क्षपणादिभिरात्मानं संलिख्य - कुशीकृत्य विरुक्ष्य रुधिरमेदोमसापचयं विधाय क्रोधादिरुपायांच निरस्य सर्वसारययोगविरतिलक्षणं पञ्च महातञ्च मतिपद्य महात्र सम्पन्नो भूत्वा चतुर्विधमशनपान-खाद्य-खाद्यरूपमाहारं मनना - वसा-कायेन त्रिविधेन योगेन प्रत्याख्याय यथा समाधि यावज्जीवं भावानुप्रेक्षातत्परः मविज्ञात महानादि स्मृतिसमाधिबहुलः सन् तथा देवों मनुष्यों एवं तिर्यचों द्वारा जनित और अपने आपसे उत्पन्न होने वाले उपसर्गो के दोष से तथा दसप्रकार के धर्मविषयक श्रमण के आवश्यक कप एवं प्रत्युपेक्षग आदि की हानि को देखकर और श्रमणों की वैयावृत्य एवं पौषधोपवाल आदि गृहस्थ के कर्तव्यों की हाfन देखकर व्रती गृहस्थ मृत्यु को सन्निकट आया जानकर मुर्गी के अंडे के बराबर बत्तीस कवल के आहार में कमी करने रूप अव नौदर्य, उपवास, वेला, तेला, अर्धमासखमग आदि से शरीर को कृश करके रुधिर-मांस आदि का अपचय करके, क्रोध आदि कषायों को दूर करके, सर्वसाद्य विरति रूप पांच महाव्रतों को अंगीकार कर के, महात्रों से सम्पन्न होकर, अशन पान, खादिम और स्वादिम आहार को मन वचन काय रूप तीनों योगों से त्याग करके, समाधि के अनुसर जीवनपर्यन्त भावानुपेक्षा में तत्पर रहकर, अंगीकार किये हुए તથા તિયાઁચા દ્વાર જનિત તથા પેાત નાથી જ ઉત્પન્ન થનારા ઉપસગે ના દેષથી તથા દશ પ્રકારના ધર્મવિષયક શ્રમણુના આવસ્યક વ્ય અને હ્યુક્ષણુ વગેરેના હાસને જોઈ ને અને શ્રમણેાની વૈયાવચ્યા અને પૌષધેાપવાસ વગેરે ગૃહસ્થના કર્તવ્યેાની એટ જોઈ ને, વ્રતી ગૃહસ્થ મૃત્યુને ટુ' આવેલું જાણીને, મરઘીના ઈંડા ખરામર ખત્રીસ ઢાળીયાના આહારમાં કયારેક કરવા ચેાગ્ય અવમૌદ, ઉપવાસ, છઠ્ઠ, અટ્ટમ, અમાસ ખણુ આદિથી શરીરને કૃશ કરીને, લેાહી-માંસ આદિના અપચય કરીને ક્રોધ આદિ ષાચાને દેશઘટા આપીને, સસાવદ્યવિતિ રૂપ પાંચ મહાવ્રતાને અંગીકાર કરીને, મહાતેથી સમ્પન્ન થઈને અનદાન, અશનપાન, ખાદ્ય તથા સ્વાદિષ્ટ આહારને મન, વચન કાયા રૂપ ત્રણે ચૈાગયી ત્યાગ કરીને, સમાધિ અનુસાર જીવનપર્યંત ભાવાનુપ્રેક્ષામાં તપર રહીને, અંગિકાર કરેલા મહાવ્રત આદિની Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.३८ मारणांतिकसलेखनास्वरूपनिरूपणा २९५ आतरौद्रध्यानरहितो मारणान्तिसंलेखनासेविता परमपुरुषार्थस्त्रयस्य मोक्षस्याऽऽराधको भवति । अथैवं तहि-भारणान्तिकसंलेखना का स्वानि सन्धि पूर्व काऽऽयुगदि विनाशनतयाऽऽत्मघात दोषयुक्तः स्यात् इति चेन्न अस्य संलेखकस्या ऽममत्तत्वेनाऽऽ:मघावदोषाभावात्, प्रमत्तयोगात्राणव्यपरोपमस्थ हिंसात्वात् अस्य प्रमादयोगाऽमावो वर्तते, रागद्वेषमोहाभिनिवेशरहितत्वात, ब्रतादि गुणानां संरक्षणार्थमेव तथा कर्तुप्रवृत्तस्वात् । उक्तेश्चौपपातिके-५७ सूत्रे 'अपच्छिमा मरणतिया संहना जू पणा राहणा' इति अपश्चिमा मारणान्तिको संलेखना जोषणाऽऽराधना इति । ३८॥ महाव्रन आदि की स्मृति समाधि की बहुलमा बाला होशर, वार्तध्यान और रौद्रध्यान से युक्त-अहित होकर जो मारणान्तिश संलेखनासा सेवन करता है, वह परम पुरुषार्थ मोक्ष का आराधक होता है। शंका-अगर ऐसा है तो मारणान्तिक संलेख ना करने वाला अपनी इच्छा से ही अपनी आयु आदि का विनाश करता है, इस कारण आत्मघात के पाप के भागी होना चाहिए। समाधान-संलेखन कर्ता प्रमादहीन होने के कारण मात्मघात के पाप का भागी नहीं होता । राग द्वेष और मोह के अभिनिवेश से रहित होने के कारण उल में प्रसाद के योग का अभाव है। वह तो बनादि गुणों की रक्षा करने के लिए ही वैक्षा करता है। औपपातिक सूत्र के ५७ वें सूत्र में कहा है-'अपश्चिम भारणान्तिक संलेखनाजोखण आराणा ॥३८॥ સ્મૃતિ રૂપ સમાધિની બહલતાવાળો થઈને આત્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાનથી મુક્ત થઈને જેઓ મારણાનિક સંલેહણાનું સેવન કરે છે, તે પરમ પુરૂષાર્થ મેક્ષને આરાધક હોય છે. શંકા-જે આ પ્રમાણે જ હોય તે મારાન્તિક સંલેહણ કરનાર પિતાની રાજીખુશીથી જ પિતાના આયુષ્ય વગેરેને વિનાશ કરે છે અ થી આત્મહત્યાના પાપનો ભાગીદાર ગણું જોઈએ. સમાધાન-સંલેહણા કરનાર પ્રમાદહીન હોવાના કારણે આત્મઘ તના પાપને ભાગી થતો નથી રાષ તથા મેહના અભિનિવેશથી મુક્ત હોવાના કારણે તેનામાં પ્રમાદના વેગને અભાવ છે તે તે વ્રતાદિ ગુણોના રક્ષણ કાજે જ આ પ્રમાણેનું અનુષ્ઠાન કરે છે પપાતિકસૂત્રના પછમાં સત્રમાં * ४धु'-'अपच्छिममारणान्तिक संलेखनाजोसणा-आराहणा' ॥३८॥ - - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ तत्त्वार्थ चूलम्-बारलाई-अगारी ॥३९॥ छाया-द्वादशवती गारी ॥३९॥ तरार्थदीपिशा--पूर्वोक्त सम्यक्त्वस हनद्वादशत्रमयुक्ताऽगारी श्रावको भवति नाऽन्यः ।।३९॥ धूलम्-सत्तरला संकाइया पंत्र अड्यारा ॥४०॥ छाया-सम्यक्त्वस्य शङ्कादिकाः पञ्चातिचाराः ॥४०॥ तस्वार्थदीपिका -पूर्व ताकद द्वादश वधार्यगारी श्रावको भवति, श्राव. फत्वस्य व्रतविशिष्टत्वात्, तत्र-यो व्रती सोऽवश्न येव सम्यग्दर्शनविशिष्टो भवति शङ्कादि दोपपितमनसो सुलोत्तरगुणाधारकत्वश्रद्धानम्य नियमत एव अतित्वं न सम्मति, बतित्वस्य सम्पग्दर्शनमूळत्वाद, जो खल-नियमं सम्यक्त्ववान 'पारलबई आगारी' इत्यादि । सूनार्थ-गृहस्थ बारह ब्रनों का धारक होता हैं । तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त सम्यक्त्व सहित बारह व्रतों से जो युक्त होता है वही गृहस्थ श्रावक कहलाता है, ॥३१॥ 'संमत्तल संशाच्या' इत्यादि । सूत्रार्थ-सम्यक्त्व के शंका आदि अतिचार हैं ॥४०॥ तत्वार्थदीपिका-पहले बताया गया है कि बारह व्रतों का धारक गृहस्थ श्रावक कहलाता है, क्यों कि श्रावकत्व व्रतसम्पन्नता से ही होता है और जो व्रती होता है वह सम्यग्दर्शन से सम्पन्न अा होना है । मूल और उत्तरगुणों के आधारभूत तत्व श्रद्धान के अभाव में जिप्तका मन शंका आदि दोषों से दूषित है, સૂત્ર ઈ–ગૃહસ્થ બારવ્રતોને ધારક હોય છે. તાત્પર્ય એ છે કે પૂર્વોક્ત સમ્યક્ત્વસહિત બાર વ્રતોથી જે યુક્ત હોય છે તે જ ગૃહસ્થ “શ્રાવક वाय छे. ॥3॥ 'सम्मत्तस्स संकाइया पंचअइयारा' या સૂત્રાર્થ–સમ્યક્ત્વના શંકા વગેરે પાંચ અતિચાર છે. u૪૦ તત્ત્વાર્થદીપિકા–પહેલા બતાવવામાં આવ્યું કે બાર વનને ધારક ગૃહસ્થ શ્રાવક કહેવાય છે કારણ કે શ્રાવકવ વ્રતસમ્પન્નતાથી જ થાય છે અને જે વ્રતી હોય છે તે અવશ્ય સમ્યક્દર્શનથી સમ્પન હોય છે મૂળ તથા ઉત્તરગુણેના આધારભૂત તતશ્રદ્ધાના અભાવમાં જેનું મન શંકા વગેરે દેથી દૂષિત છે, તે ચેકસપણે વ્રતધારી થઈ શકતું નથી, ત્રાપણું Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७१.४० सम्यग्दृष्टे: पञ्चातिचारनिरूपणम् २९७ भवति मम्यक्त्वे शुद्धेच ब्रशुद्धिर्भवति, सम्यक्त्वे निरति चारे सत्थेब ब्रीमद तीति सम्यक्त्वस्याऽतिचारान् प्रतिपादयितुमाह-संमत्तल संकाइया पंच अइयारा' इति, सम्यक्त्वस्य-सभ्यग्दर्शनस्य शङ्कादिकाः-शङ्का, ऽऽदिपदेन कांक्षा विचिकित्सापरपाषण्ड पशंसापरपापण्डसंस्तवश्चेत्येते पश्चाऽतिचाराः मोह, नीयकर्मणो वैचित्र्या दास्मनः परिणतिविशेषा मालिन्यतारूपा दोषा भवन्ति । तथा च निःशङ्कितत्वादिभिः सम्यग्दर्शनविशुद्धिर्भवति, शङ्काकांक्षा विचिकि सादिभिश्च सम्यग्दर्शनस्याऽविशुद्धिः । तत्र-शङ्का अहंदुपदिष्टेषु तत्त्येषु सर्वतो देशतो वात्सल्यतया संशयकरणम्, सम्यक्त्वेहि कांचिदपि शङ्का न कृत्वा निःशंकतया तद्रक्षगीपम् । काङ्क्षा-संवतो देशश्च मिथ्यादर्शनस्याऽभिलाषः । है, वह निश्चय ही व्रती नहीं हो सकता बनीपन सम्यगदर्शन मूलक है। व्रती निश्चितरूप से सम्यक्त्ववान ही होता है । सम्यक्त्व के शुद्ध होने पर ही ब्रनों की शुद्धि होती है। निरतिचार सम्यक्त्व के होने पर ही व्रती होता है, अतएव सम्यक्त्व के अतिचारों का प्रतिपादन करते हैं___सम्यक्त्व के शंका आदि पांच अतिचार है 'आदि पद से कांक्षा विचिकित्सा, परपाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड संस्तव अतिचारों का ग्रहण होता है । मोहनीय कर्म की विचित्रता से आत्मपरिणति विशेष मलीनता रूप दोष होते हैं, अतः निःशंकितत्व आदि ले सम्यगदर्शन की विशुद्धि होती है और शंका, काँक्षा, विचिकित्सा आद सम्यग्द. र्शन की अशुद्धि होती है । ____ अर्हन्त भगवान द्वारा उपदिष्ट तत्वों में बर्बदेश से था एकदेश से संशय करना शंका है । माक्स्व में कुछ आशंका न कर के, निः. સમ્યક્દર્શન મૂળક છે વતી નિશ્ચિતપણે શ્રદ્ધાવાન જ હોય છે. સમ્યક્ત્વ શુદ્ધિ હોય તે જ વ્રતની શુદ્ધિ થાય છે નિરતિચાર સકૃત્વ હોય ત્યારે જ વતી થઈ શકાય છે આથી સમ્યક્ વના અતિચારોનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ સમ્યક્ત્વના શંકા વગેરે પાંચ અતિચાર છે. “આદિ પદથી કાંક્ષા, વિચિકિત્સા, પરપાષડ પ્રશંસા અને પરપાવંડ સંતવ અતિચારોનું ઘડણ થાય છે. મેહનીય કર્મની વિચિત્રતાથી આત્મપરિણતિ વિશેષ મલીનતા રૂપ દેષ ઉત્પન્ન થાય છે આથી નિ શંકિતવ આદિથી સમ્યક્દર્શનની વિશુદ્ધિ થાય છે અને શંકા કક્ષા વિચિકિત્સા વગેરેથી સમ્યક્દર્શનની અશુદ્ધિ થાય છે અહંત ભગવાન દ્વારા ઉપદિષ્ટ તત્તમાં સર્વદેશથી અથવા એક દેશથી સંશય કરે એ શંકા કહેવાય છે, સમ્યફવમાં કઈ પણ પ્રકારની Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ . সাখ। विचिहिस्साहु अस्य महतस्तशेदानादिप्रयासस्य फलं भविष्यति- नवा ? इत्यादिरूप संशयकरणम् । परापण्डप्रशंसातु सर्वज्ञःऽनुपदिष्टस्य धर्मस्य गुणोद्मावनरूपा । परपापण्डसंस्तवा-सर्वज्ञ'ऽनुपविष्टस्य धर्मस्य-मिथ्याण्टेवा परिचयः । पुनस्तयो भूताश्रूतगुणोदभावनश्चनरूषो बा । इस्तुतरतु-सम्यग्दे ष्टौ-अविचाराः सन्ति छन-त्रयाणायतिचाराणां परपापण्डपशंमा-संस्तयोरेवान्तरित्वात् पञ्चवाऽती. पाराः सम्यग्सष्टेरित्युक्तम् । तत्र ते खलु जयोऽन्येऽविचाराः दोपाऽनुपगृहनाऽ. स्थिरीकरणाऽवात्सल्यरूपाऽरलेयाः । तेषां खलु-प्रशंमासंह व योरन्तर्भावः, यया शंक होकर सम्यक्त्व की रक्षा करनी चाहिए । ए देश से मिथ्यादर्शन की अभिलाषा करना काक्षा दोष है । इस महान तपश्चरण एवं दान आदि का कुछ फल होगा कि नहीं, इल प्रकार धर्मक्रिया के फल में संशय करना चिचिकिला है। जो धर्म दरवन के द्वारा उपदिष्ट नहीं है, उस में गुणों को प्रकट करना परपाषण्ड प्रशंसा है। सर्वज्ञ द्वारा अनुपदिष्ट धर्म का या मिथ्याष्टिा परिचय करना परपापण्ड संस्तव है या उनके लछूत एवं असद्भुत गुणों को प्रकट करने वाला वचन परपाषण्ड संस्तव है। वास्तव में तो सम्यग्दर्शन के अतिचार आठ हैं, जिन्तु तीन अतिचारों का परपाषंड प्रशंसा और परमाण्ड संस्तव में ही समावेश हो जाता है, इस कारण लम्यक्त्व के पांच अतिचार कहे गए हैं। इन में अन्तर्गत होने वाले तीन अतिचार थे हैं-दोषानुपगूदना, अस्थिरीकरण શંકા નહીં કરતા, નિઃશંક થઈને સમ્યક્ત્વની રક્ષા કરવી જોઈએ. એકદેશથી અથવા સર્વદેશથી મિથ્યાદર્શનની અભિલાષા કરવી કાંક્ષા દોષ છે. આ મહાન તપશ્ચર્યા તથા દાન વગેરેનું કેઈ ફળ મળશે કે નહીં, એ રીતે ધર્મકરણીના ફળને સંશય કરે વિચિકિમ છે, જે ધર્મ સર્વજ્ઞ દ્વારા ઉપદિષ્ટ નથી તેમાં ગુણોનું આરોપણ કરવું પરપાખંડ પ્રશંસા છે. સર્વજ્ઞ દ્વારા અનુપદિષ્ટ ધર્મને અથવા મિથ્યાદષ્ટિને પરિચય કરે પરપાખંડસંસ્તય છે અથવા તેમના સદ્દભૂત અને અસભૂત ગુણેને પ્રકટ કરનારૂં વચન પરપષડસંતવ છે. વાસ્તવમાં તે સમ્યક્દર્શનમાં અતિચાર આઠ છે, પરંતુ ત્રણ અતિચારેને પરપાવંડ, પ્રશસા અને પરપાષડ સંતવમાં જ સમાવેશ થઈ જાય છે, આથી સમ્યકત્વના પાંચ અતિચાર કહેવામાં આવ્યા છે. આમાં સમાયેલા ત્રણ અતિચાર આ પ્રમાણે છે-દેષનુપમૂહના, અસ્થિરીકરણ અને અવ સત્ય Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका नियुक्ति टीका अ.७ सू. ४० सम्यग्दृष्टे पञ्चातिचारनिरूपणम् २९९ यः पुरुषो मिथ्यादृष्टीनां मनसा प्रशंसां करोति स तावन्मूढमतिः सम्यग्ज्ञान दर्शनचारित्रतपोरूप रत्नचतुष्टयभूषितानां प्रमाहाज्ञानकारणोद्भवं दोषं नो पगृहति, तेषां सम्यग्दर्शनादौ स्थिरीकरणञ्च न विदधाति वात्सल्यं पुनरे आस्ताम् स शासनमभावनामपि कथं कुर्यात् ? तस्मात्-परपाषण्डप्रशंसासंस्तवयो मध्येऽनुपग्रहनादयो दोषाः अन्तर्भूता भवन्ति । व्रतानां चाग्रे पञ्च-पञ्चातिचारा वक्ष्यन्ते तदनुरोधेनापि वशमा-संस्तयोश्विर न त्रीनविचारान् अन्तर्भाव्य पश्चैवातिचाराः प्रतिपादिताः॥४०॥ __ तत्वार्थनियुक्तिः--पूर्व खलु-द्वादशव्रतधारीऽगारी ती भवती त्युक्तम्, तत्र मियादर्शनस्य शल्यतया सम्यग्दृष्टिरेज व्रती-अभारी भवति । तत्र कस्यअवात्सल्य इनका प्रशंला और संस्तव में समावेश हो जाता है । जो पुरुष मन से मिथ्याटिओं की प्रशंसा करता है, वह खूढमति सम्थग्ज्ञान-दर्शन-चारिष्ट एवं तप रूप रस्लचतुष्टय से विभूषित पुरुषों के प्रमाद तथा अज्ञान से उत्पन्न होने वाले दोष का उपगूहन नहीं करता उसे ढंकना नहीं है, सम्यग्दर्शन आदि में उनशा स्थिरिकरण नहीं करता, वात्सल्य तो दूर रहा वह शालन की साधना भी कैसे करेगा इस प्रकार परपाषंड प्रशंसा और परपाषण्ड संस्ताव में अनुपशूदन आदि दोष अंतर्गत हो जाते हैं। आगे वनों के पाँच पांच अतिचार कहे जाएंगे, इस अनुबोध से भी प्रशंसा और संस्तव में ही तीन अतिचार को अंतर्गत करके सम्यक्त्व के पांच अतिचार ही कहे हैं ॥४०॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पहले का हो गया था कि वार व्रतों का धारक આમને પ્રશંસા અને સંતમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. જે પુરૂષ મનથી મિથ્યાષ્ટિઓની પ્રશંસા કરે છે તે મૂઢમતિ સમ્યકજ્ઞાન-દર્શન–ચારિત્ર તથા તપ રૂપ રત્નચતુષ્ટયથી વિભૂષિત પુરૂષના પ્રમાદ તથા અજ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થનારા દેનું ઉપગ્રહન કરતો નથી-તેના ઉપર ઢાંકપીછોડે કરતો નથી, સમ્યક્દર્શન વગેરેમાં તેમનું સ્થિરીકરણ કરતું નથી, વાત્સલ્ય તો એક બાજુએ રહ્યું, તે શાસનની પ્રભાવના પણ કેવી રીતે કરશે ? આવી રીતે– પરપાષડપ્રશંસા અને પરપાવંડ સંસ્તવમાં અનુપગૂઠન વગેરે દોષે અન્તર્ગત થઈ જાય છે. આગળ ઉપર વાનાં પાંચ-પાંચ અતિચાર કહેવામાં આવશે, એવા અનુરોધથી પણ પ્રશંસા અને સંસ્તવમાં જ ત્રણ અતિચારોને સમાવેશ કરીને સમ્યક્ત્વના પાંચ અતિચાર જ કહેવામાં આવ્યા છે અને તત્વાર્થનિયુકિત–પડેલા કહેવામાં આવ્યું હતું કે બાર વ્રત ધારક Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रे चिन्मोहनीयावस्थाविशेषात् सम्यग्दृप्टेः पञ्चातिचारान् प्रतिपादयितुमाह'संमत्तल संशाच्या पंच अश्यारा' इति । सम्यक्त्वस्य सम्यदर्शनस्य शंका. दयः शंका आदिपदेन कांक्षा विचिकित्सा परपाषण्ड प्रशंसा-परपाषण्डसंस्तवश्वेस्येते पञ्चातिचारा भवन्तीति, तत्र तिचारो व्यतीक्रमः, मोहनीयकर्मणो वैचि. व्यात् आत्मनः परिगति विशेषरूको ध्यः । तथा च शंका कांक्षा विचि. कित्सापरपापण्डप्रशंसा-परपापण्डसंस्तनः इत्येते पञ्च सम्यग् दृष्टेरविचारा भवन्ति । तत्र शंका तावद् आगमगस्येषु तीर्थकृते मोक्तेषु जीवादिषु-अर्थेष्वत्यन्त मूक्ष्मेषु अतीन्द्रिये च परमाण्यादिषु अधिगतजीवाजीवादि तत्वस्य भगवतः गृहरूम ही श्रावक-व्रती होता है । मिथ्यदर्शन शल्य है, इस कारण छ म्यष्टि ही बी गृहस्थ होता है । किसी को मोहनीय कर्म की विशिष्ट अवस्था से सख्यत्व में पांच अतिचार होते हैं, उनकी प्ररूपणा करते हैं लम्बरम के शंका आदि पांच अतिचार होते हैं । 'आदि' शब्द ले कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव नामक अतिचारों को ग्रहण करना चाहिए। अतिचार का अर्थ है उल्लंघन-मर्यादा भंग । मोहनीय कर्म की विचित्रता ले उत्पन्न होने वाली आत्मा की परिणति अतिचार कहलाती है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन के पांच अतिचार हैं-शंका, कांक्षा, विचि. कित्सा, पर पाषण्ड प्रशंसा और परपापण्ड संस्तव । आगम में प्रतिपादित, तीर्थकर भगवान के द्वारा कथित जीवादि तत्वों में, अत्यन्त सूक्ष्म, अतीन्द्रिय परमाणु आदि पदार्थों में, जीव-अजीव आदि तत्वों ગૃહસ્થ જ શ્રાવકવતી હોય છે. મિથ્યાદર્શન શય છે આ કારણે સમ્યગુદષ્ટિ જ વતી ગ્રહસ્થ હોય છે. કેઈન મે હનીય કર્મની વિશિષ્ટ અવસ્થાથી સમ્યકૃત્વમાં પાચ અતિયાર હોય છે તેમની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ સમ્યત્વના શંકા વગેરે પાંચ અતિચાર હોય છે. આદિ શબ્દથી કાંક્ષા, વિચિકિત્સા, પરપાવંડ પ્રશંસા અને પરપષ સંસ્તવ નામના અતિચારોને ગ્રહણ કરવા જોઈએ. અતિચારને અર્થ છે--ઉલંઘન-મર્યાદાભંગ મોહનીય કર્મની વિચિત્રતાથી ઉત્પન થનાર આત્માની પરિણતિ અતિચાર કહેવાય છે. આ રીતે સમ્યકૃદર્શનના પાંચ અતિચાર છે-શંકા, કાંક્ષા, વિચિકિત્સા, પરપાવંડ પ્રશંસા અને પરપાવંડસંતવ, આગમમાં પ્રતિપાદિત, તીર્થ કર ભગવાન દ્વારા કથિત જીવાદિ તમાં, જીવ-અજીવ આદિ તરના જ્ઞાતા, ભાવપૂર્વક ભગવાનના Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ लू. ४० सम्यग्दृष्टे पञ्चातिचारनिरूपण र ३०१ शासनं भावतः प्रतिपन्नस्याऽपि-अहमणीततत्पश्रद्धस्य सम्यग्दष्टेः एवं स्यादसंख्येषप्रदेश आत्मा, अथ निष्प्रदेशोनिरक्यवत्वान्नै स्यात्' इत्यादि रूपः संशय उच्यते । तथाचोक्तमावश्यके 'संलयकरणं संका' संशयकरण शंकेति । कांक्षा-परदर्शनवाञ्छा २ विचिकित्सा-फलं प्रतिसन्देहः३ मि. गदर्शनं त्रिविधं भवति अभिगृहीता १ ऽनभिगृहीत र संशय ३ भेदात् । उक्तञ्च--- 'पयलक्खरंच एपि-जो नरोएति लुत्तनिधि । सेसं रोयंतीवि-हुमिच्छट्टिी मुणेयो । १॥ 'पदमक्षरं चैकमपि-यो न रोचते सूत्रनिर्दिष्टम् । शेष रोचमानोऽपि-खलु मिथ्याष्टि तिव्यः ॥१॥ इति के ज्ञाता, भाव पूर्वक भगवान के शासन को अंगीकार करने वाले, अर्हन्त-कथित तत्त्व के श्रद्धायुक्त सम्पष्टिको भी ऐला संशय उत्पन्न हो जाता है कि-'आरमा असंख्यातप्रदेशी है अथवा निरवधच होने से अप्रदेशी है !' यह शंका अतिचार है । आवश्यक में कहा है-'संशय करना शंका है।' परकीय दर्शन की इच्छा करना कांक्षा अतिचार है। धर्मक्रिया के फल में सन्देह करना विचिकित्सा अतिचार है। मिथ्यादर्शन तीन प्रकार का है-अभिगृहीत, अनभिगृहीत और संशय मिपादर्शन । कहा भी है___ जो जीव सूत्रोक्त एक पद या अक्षर पर भी अरुचि करता है, वह . भले ही शेष लव पर रुचि रखता हो, फिर भी उले मिथ्याष्टिही समझना चाहिए ॥१॥ ___ इसी प्रकार-सूत्र में कहै हुए एक अक्षर पर भी अचि करने શાસનને અંગીકાર કરનારે, અહત કથિત તત્વમાં શ્રદ્ધાળુ સમ્યક દષ્ટિને પણ એ સંશય ઉજન થઈ જાય છે કે–આત્મા, અસંખ્યાતપ્રદેશી છે અથવા નિરવયવ હેવાથી અપ્રદેશી છે!” આ શંકા અતિચાર છે. આવકમાં કહ્યું છે-“સંશય કર શંકા છે” પરકીય દર્શનની ઈરછા કરવી કાંક્ષા અતિચાર છે. ધર્મ કિયાના ફેમાં સંદેહ રાખવા વિચિકિત્સા અતિચાર છે. મિથ્યાદર્શન ત્રણ પ્રકારનું છે–અભિગૃહીત, અનભિગૃહીત અને સંશય મિથ્યાદર્શન કર્યું પણ છે જે જીવ સૂત્રોક્ત એક પદ અથવા અક્ષર પ્રત્યે પણ અરૂચિ કરે છે, તે ભલે બાકીના બધાં ઉપર રૂચિ રાખતા હોય, તે પણ તેને મિથ્યાદષ્ટિ જ ગણુ જોઈએ ના એવી જ રીતે સૂત્રમાં કહેલાં એક અક્ષર પર પણ અરૂચિ રાખવાથી Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . S १०. तत्त्वार्थसूचे "एवम्'-सूत्रोक्तस्यैकस्या- एरोचनादक्षरस्य भवति नरः । मिथ्याष्टिः सूत्रंहि-न प्रमाण जिनाज्ञाच ॥१॥ एकस्मिन्मप्यर्थे-सन्दिग्धे प्रत्ययोऽर्हति हि नष्टः । मिथ्यै र दर्शन तत्-सचादिहेतु भवगतीनाम् ।।२।। इति, तरमा मुमुक्षुणा जनेन शङ्कारहितेन जिनवचनं सर्वथा सत्यमेव प्रतिपत्तव्यम्, सर्वज्ञवीतरागामिहितत्वात् । उक्तञ्च-'तमेव मच्च नीसंक, जं जिणेहिं पवे इयं तदेव सत्य निश्शङ्क यज्जिनः प्रवेदितम्, इति छाया। ज्ञानदौल्येन्द्रिया पाटवादि दोपारखल्लु साकल्येन छद्मस्थस्य सकलपदार्थस्वरूपाऽवधारणाया अप्लम्भवात् । कांक्षापदार्थस्तु-ऐहलौकिक-पारलौकिकविषयेषु शब्दादिष्वाशंसा. हले मनुष्य मियादृष्टि हो जाता है। मूत्र और जिनाज्ञा प्रमाण नहीं है, ऐला वह समझता है ॥१॥ एक भी पदार्थ में सन्देह हो तो अहन्त भगवान के प्रति विश्वास का विनाश हो जाता है, अतएव सन्देह करने वाला पुरुष मिथ्यादृष्टि है। वह भव भवतियों का आदि हेतु है ।२।। ___अतएव सुमुक्षु जल को शंका से रहित होकर जिन बचन सर्वथा हत्य ही है, ऐसा समझना चाहिए, क्यों कि वह सर्वज्ञ और वीतराग के द्वारा कथित है। कहा है-'यही सत्य और असंदिग्ध है जो जिनेन्द्रों ने कहा है।' छनस्थ जीव का ज्ञान दुर्बल होता है, उसकी इन्द्रियां कुशल नहीं होती, इन दोषों के कारण वह लमस्त पदार्थों के स्वरूप या निश्च नहीं कर सकता। इस लोक और परलोक संबंधो शा आदि विषयों की इच्छा મનુષ્ય મિથ્યાદષ્ટિ થઈ જાય છે સૂત્ર તેમજ જિનાજ્ઞા પ્રમાણ નથી એવું તે સમજે છે. ૧ એક પણ પદાર્થમાં સ દેહ હોય તો અહંત ભગવાન તરફ વિશ્વાસને વિનાશ થઈ જાય છે, આથી શકતશીલ પુરૂષ મિથ્યાદષ્ટિ છે. તે ભવગતિએને મૂળ હેતુ છે મારા આથી મુમુક્ષુ પુરૂષે શંકારહિત થઈને જિનવચન સર્વથા સત્ય જ છે એવું સમજવું જોઈએ કારણ કે તે સર્વજ્ઞ અને વીતરાગ દ્વારા કહેવાયું છે. કહ્યું પણ છે- તે જ સત્ય અને અસંદિગ્ધ છે જે જિનેન્દ્રોએ કહ્યું છે. છવાસ્થ જીવનું જ્ઞાન નબળું હોય છે, તેની ઈન્દ્રિય સતેજ હોતી નથી આ દેને લીધે તે બધાં પદાર્થોના સ્વરૂપ ને નિશ્ચય કરી શકતા નથી. આ લેક તેમજ પરલેક સંબંધી શબ્દ આદિ વિષયોની ઈછા કરવી Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ रु. ४० सम्यग्दष्टे: पञ्चातिचारनिरूपणम् ३०३ - रूपः प्रीतिपर्यायोऽभिलापः थथा-'सुगतोहि भिक्षुगां-स्नानाऽनपानाऽऽच्छा. दन-शयनीयादि सुखाऽनुमद्वारा क्लेशरहित धर्ममुपदिष्टवान् एव मन्येऽपि-- सांसारिकविषयभोगसुखार्थमेव धर्मोपदेशं कृतवन्तः, एत्रम्-स्वर्गराज्यमुग्य माप्त्यर्थं दिव्य-रूपरलगन्धशब्दस्पर्शादि विषयकोपदेश दरवन्तः । एउम्ऐहलौकिक-पारलौक्षिक शब्दादीनां प्राप्त्यभिलाषरूपा कक्षा सम्मादृष्टेर तिचाशे भवति । वस्तुतस्तु-अन्य शासनदर्शवतत्वामिलापः काङ्क्षा, ताहशा कक्षावान् खल्वविचारितगुणदोषः सांसारिकसुखमभिलपति ऐहलौशिकं पारलौकिक वा विनश्वरमवसानकटुझं दुःख संमिश्रितं सर्व चैतद् उद्धृतरूपाय कलुषितत्वात् करना कांक्षा पद का अर्थ है । जैसे-बुछ ने भिक्षुओं को स्नान, अन्न, पान, आच्छादन एवं शरमा आदि का सुख भोगते हुए क्लेश रहित धर्म का उपदेश दिया है । दूसरों ने भी सांसारिक विषय भोगों संबंधी सुख के लिए ही धर्म का उपदेश दिया है तथा स्वर्ग एवं राज्य सुख की प्राप्ति के लिए दिव्य रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श आदि विषयक उपदेश दिया है ! क्यों न बुद्धशासन को अंगीकार कर लिय्या जाय ! इस प्रकार इह-परलोक संबंधी शब्द आदि विषयों की प्राप्ति की अभिलाषा करना कांक्षा अनिचार है। ___वास्तव में तो अन्य शासन, दर्शन एवं तत्व की इच्छा करना कांक्षा है । जो ऐसी आकांक्षा करता है यह गुण-दोषो का विचार किये विना ही सांसारिक सुख की अभिलाषा करता है । किन्तु ऐह लौकिक और पारलौक्षिक सुख दिनाशशील है, उनका अन्न व टुक કાંક્ષા પદને અર્થ થાય છે જેમ કે-બુદ્ધ ભિક્ષુઓને નાન, અનાજ, પાણી, આચ્છાદન તથા શય્યા વગેરેનું સુખ ભોગવતા થકા કલેશરહિત ધર્મનો ઉપદેશ આપ્યો છે. બીજાઓએ પણ સાંસારિક વિષયોગ સંબંધી સુખ કાજે જ ધર્મનો ઉપદેશ આપ્યો છે તથા સ્વર્ગ અને રાજ્ય સુખની પ્રાપ્તિ અર્થે દિવ્યરૂપ, રસ, ગંધ, શબ્દ અને સ્પર્શ આદિ વિષક ઉપદેશ આપ્યો છે ચાલો ત્યારે બુદ્ધશાસનને જ સ્વીકાર કરી લઈએ ! આ રીતે આ લેક અથવા પરલોક સંબંધી શબ્દ આદિ વિષયની પ્રાપ્તિની અભિલાષા કરવી કાંક્ષા અતિચાર છે. વારતવમાં તે અન્ય શાસન, દર્શન તથા તત્વની ઈચ્છા કરવી કક્ષા છે, જે આવી આકાંક્ષા કરે છે તે ગુણ-દોષને વિચાર કર્યા વગર જ સાંસારિક સુખની અભિલાષા કરે છે. પરંતુ આ લેક સંબંધી અથવા પારલૌકિક સુખ નાશવત છે, તેને અન્ત કર્યું છે, તે દુઃખથી મિશ્રિત હોય છે, આથી Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० সাথষ্ট संसारातुन्धित्वाच्य भगवतोहता प्रतिपिद्धम् प्रतिषिद्धानुष्ठानं च भावतः सम्यक्त्वं दुषयति सिद्धान्तोल्लंघनात् । उक्तञ्च-कंखा अण्णण दंसणग्गाहो' कक्षाऽन्याऽन्यदर्शनग्राहः, इति । आहत सिद्धान्तस्तु-दशवैकालिके नवम अध्ययने चतुर्थीहेश के 'जो इहलोयाए' इत्यादिना कथितः नेहलोकार्थम्, अपितु-केवलं फर्मनिर्जरणाथैव धर्माधुपदेशादौ प्रवृत्तिः । तस्मात् खल्लु-ऐकान्तिकाऽऽत्यन्तिकाऽव्यायाधमुख हेतुः, एतावान् प्रयासः इत्यन्यदर्शनादौ निराकाङ्क्षेण श्रमणेन है, वह दुःखों से मिश्रित होता है, इल करण कषायों से कलुषित होने के कारण तथा भवपरम्परा का वर्धक होने के कारण अर्हन्त भावान ने उनका निषेश किया है । निषिद्ध अनुष्ठान यदि भावपूर्वक फिया जाय तो वह सिद्धान्त के उल्लंघन के कारण सम्यक्त्व को राषित करता है। कहा भी है-'अन्य-अन्य दर्शन को ग्रहण करना कांक्षा है ।' अर्हन्त भगवान के सिद्धान्त का तो दशवकालिकसूत्र के नौ में अध्ययन के चौथे उद्देशक में प्रतिपादन किया गया है-'नो इहलोयष्याए' इत्यादि वाक्यों में कहा है, जिसका तात्पर्य यह है कि स्वाध्यायनपश्चरण आदि कोई भी धर्मानुष्ठान इस लोक संबंधी लाभ के लिए न करे, पारलौकिक लाभ (स्वर्ग प्राप्ति आदि) के लिए न करे और यश-कीर्ति आदि के लिए भी न करे, केवल कर्मक्षय के ही उद्देश्य से करे। कर्मनिर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी लाभ के लिए धर्माचरण नहीं करना चाहिए, तभी एकान्तिक, आत्यन्तिक કાયથી કલુષિત હોવાના કારણે તથા ભવપરમ્પરાને-વધારનાર હોવાથી અહં ભગગને તેની મનાઈ ફરમાવેલ છે નિષિદ્ધ અનુષ્ઠાન જે ભાવપૂર્વક કરવામાં આવે તે તે-સિદ્ધાંતના ઉલ્લંઘનના કારણે સમ્યકત્વને દૂષિત કરે छ, ४यु पर छ-'मन्य-मान्य शनानु अड ४२ ४ial ,' मन्त al વાનના સિદ્ધાંતને તે દશવૈકાલિકસૂત્રના નવમાં અધ્યયનના ચોથા ઉદ્દેશકમાં प्रतिपादन ४२वामा भायु है-'नो इहलोयदाए' वगेरे वाध्यामा કહ્યું છે, જેને સારાંશ એ છે કે સ્વાધ્યાય, તપશ્ચર્યા વગેરે કે ઈ પણ ધર્માનુષ્ઠાન આ લેક સંબધી લાભ ખાતર કરવા ન જોઈએ, પારલૌકિક લાભ (સ્વર્ગ પ્રાપ્તિ આદિ) માટે ન કરવા તેમજ યશ-કીર્તિ વગેરે મેળવવા માટે પણ ન કરવા, માત્ર કર્મોને ખપાવવાના હેતુથી કરવા જોઈએ. કર્મનિર્જરા શિવાય અન્ય કોઈ પણ લાભની આશાથી ધર્માચરણ કરવું જોઈએ નહીં, જે આમ થાય તે જ એકતિક, આત્યંતિક અને અવ્યાબાધ સુખની પ્રાપ્તિ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ७ सू. ४० सम्यग्दष्टे पञ्चातिचारा: ३०५- - भवितव्यमिति भावः । विचिकित्सा ताबद्-मतिविभ्रमरूपाऽवसेया, तथाहि युक्तागमोपपन्नेऽप्यर्थे पति पति यथा-महतः खल्वस्य तपः क्लेशस्य सिकताकण कवलवनिःस्वादस्य-लोचादेवाऽऽयत्यां का फल सम्पदावित्री ? अथ च-क्लेश मात्रमेवेदं निर्जराफलविकलर ३ इति । उभचथा खल्लु लोके क्रिया दृश्यन्ते, फलवत्यो निष्फलाश्च कृषकाणां कर्पणादिक्रिया कदाचित्फलनती कदाचिनिष्फला चेति । तस्मात्-'इदशस्ति इदलयास्ति' इति क्रियासामान्यस्यो-भयथादृष्टस्वान्मतिविभ्रमो जायते, अथ शङ्कारूपैव विचिकित्सा न ततोऽतिरिक्तेति तभी एकाल्लिक खात्यस्तिक और अव्यायाध सुख की प्राप्ति होती है ऐसा विचार कर साधु या श्रावक को अन्यदर्शन की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। विचिकिरला एक प्रकार का मतिविभ्रम है। कभी-कभी युक्तिआगम संगत अर्थ में भी बुद्धि भ्रान्त हो जाती है, जै-चालू के कदल के समान नियाद इस लपश्चरण का तथा लोच आदि का न जाने भविष्य में झुछ फल प्राप्त होगा या नहीं? यह कहीं कोरा कष्ट ही तो नहीं है, जिससे निर्जर-फल की प्राप्ति न हो! संसार में दोनों प्रकार की क्रियाएं देखी जाती हैं-कोई सफल होती है, कोई निष्फल । किसान खेती करता है तो कभी वह सफल होता है, कभी लिष्फल होता है। इस प्रकार सामान्य रूप से दोनों प्रकार की क्रियाएं देखी जाती हैं, अतः बुद्धि में भ्रमणा उत्पन्न हो जाती है। . यहां ऐसी अशंका नहीं करनी चाहिए कि विचिकित्सा भी एक થાય છે. આવું વિચારીને સાધુ અથવા શ્રાવકે અન્ય દર્શનની આકાંક્ષા કરવી જોઈએ નહીં. વિચિકિત્સા એક પ્રકારને મતિવિભ્રમ છે. કઈ-કઈ યુક્તિ આગમસંગત અર્થમાં પણ બુદ્ધિ બ્રાન્ત થઈ જાય છે. જેમ કે રેતીના કળીયા જેવું સ્વાદ વગરનું આ તપશ્ચર્યાનું તથા લેચ આદિનું ન જાણે ભવિષ્યમાં કોઈ ફળ પ્રાપ્ત થશે કે કેમ ! આ માત્ર નિષ્ફળ કષ્ટ તો નથી જેનાથી નિજેરા-ફળની પ્રાપ્તિ ન થાય સંસારમાં બંને પ્રકારની ક્રિયાઓ જેવામાં આવે છે—કોઈ સફળ થાય છે, કેઈ નિષ્ફળ ખેડૂત ખેતી કરે છે તે કદી તે સફળ થાય છે, ક્યારે નિષ્ફળ પણ નીવડે છે. આ રીતે સામાન્ય રૂપથી બંને પ્રકારની ક્રિયાઓ લેવામાં આવે છે આથી બુદ્ધિમાં ભ્રમણ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. त० ३९ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे नाशकनीयम् ? शङ्कायाः सकलाऽसमतपदार्थभाक्तेन द्रव्यगुणविषयत्वात विचिकित्सायाश्च फलसन्देहविषयत्वात, इत्थं परस्पर मुभयोमिन्नस्वमिति । स्थाहि-विचिकित्सायां सत्या मति मिथ्यात्वपुरलानुविद्धा सती भ्रमति सर्व भवचनेऽन्वतिष्ठमानाऽनस्थिता भवति । तथा-सः खल्वेते शङ्का कांक्षा विचिकित्सादयो सियादर्शनभेदाः केनचिहिशेषेण जायमानाः सम्यक्त्वस्याऽतिचारतां प्रतिप चन्ते। एरपापाड प्रशंसा-संस्तयौ लावद अच्छासनव्यतिरिक्तयाऽभिगृहीताऽनभिगृहीत भेदेन द्विविधया मिथ्यादृष्टया युक्तानी क्रियावादिनाम्क्रियावादिनाम, अज्ञानिकवादिलाम्-चैनयिकवादिनां च स्तुतिरूप प्रशंसनप्रकार की शंका ही है, क्षांशा से अलग नहीं है, क्यों कि शंका और विचिकित्सा के विषय अलग-अलग होते है। शंका सम्पूर्ण या किसी एक पदार्थ में होती है, अतएव उल्लकाविषय द्रव्य-गुण है, विचिकित्सा फलले सन्देह धारने से होती है। इस प्लादण दोनों में भेद है । विचिकित्सा होने पर मिथ्यात्व के पुद्गलों से अनुविद्ध मति भ्रमण झरती है-सर्व प्रवचन में स्थिर न होकर अस्थिर हो जाती है। इस प्रकार ये शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि मियादर्शन के ही रूप हैं फिर भी इन में कुछ-कुछ पार्थक्य है । इसी ले ये सब सम्पत्व के अतिचार कहे गए हैं। परपाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड संस्तव अहन्त भगवान् के शासन से भिन्न, अभिगृहीत और अनभिगृहील के भेद से दो प्रकार की पिश्चादृष्टि ले युक्त क्रियाधादियों, अक्रियाधादियों, अज्ञानवादियों અત્રે એવી આશંકા ન કરવી જોઈએ કે વિચિકિત્સા પણ એક પ્રકારની શંકા જ છે, શંકાથી જુદું નથી. કારણ કે શંકા અને વિચિકિત્સાના વિષય જુદા જુદા હોય છે. શંકા સપૂર્ણ અથવા કેઈ એક પદાર્થમાં થાય છે આથી તેને વિષય દ્રવ્ય-ગુણ છે, વિચિકિત્સા ફળમાં સદેહ કરવાથી થાય છે આ કારણે બંનેમાં ભેદ છે. વિચિકિત્સા થવાથી મિથ્યાત્વના પુદ્ગલથી અનુવિદ્ધ મતિ ભ્રમણ કરે છે–સર્વપ્રવચનમાં સ્થિર ન હોઈને અસ્થિર થઈ જાય છે. આ રીતે આ શંકા, કાંક્ષા, વિચિકિત્સા આદિ મિથ્યાદર્શનના જ રૂપ છે તે પણ આમાંથી કેઈ-કઈ પાર્થય છે. આથી જ આ બધાં સમ્યક્ત્વના અતિચાર કહેવાયા છે. પરપાવંડ પ્રશંસા અને પરપાઉંડસંતવ. અહંન્ત ભગવાનના શાસનથી બિન, અભિગૃહીત અને અનભિગૃહીતના ભેદથી બે પ્રકરના મિથ્યાદડિટથી યુક્ત ક્રિયાવાદિઓ, અક્રિયાવાદિઓ, અજ્ઞાનવાદિઓ અને વિનયવાદિઓની Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीषिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. १० सम्यग्दृष्टेः पञ्चातिचाराः - ३०७ परिचयात्मको वोध्यौ, तावपि सम्यग्दृष्टेरविचारो भवतः तत्र-भावतोऽन्यात्मगुणप्रकर्पोद्भावनरूपा प्रशंसा सोपधिकनिरुपधिकं च गुणवचनं संस्तवः । अभिगृहीतमिथ्याष्टिस्तावत् अभिमुखं गृहीताऽभिगृहीतादृष्टिः, यथा-'इमेव तत्वम्' इति सौगवादिवचनम्, अनेकापि-अभिमुख्येन गृहीताष्टिः सर्व प्रवचनष्वेव स समीचीनदृष्टिः अनभिग्रहीत मिथ्याष्टि रुच्यते, मिथ्यादर्शनं खल नानाप्रकारकं सचायते, मोहनीयकर्मवैचित्र्याद नयाना-सानन्त्यात् । तत्रकेचित क्रियावादिनः सन्ति, क्रिया कधीना कारं विना नोपचते, इत्यात्माऽधिष्ठितशरीरसलवायि क्रियावादिन आत्माऽरितत्वादि प्रतिपचारस्तेऽशीत्यधिक और विनयवादियों की प्रशंसा रूप और परिचय रूप है अर्थात् मिथ्याष्टियों की प्रशंसा करना पर पापण्ड प्रशंसा और उनके साथ परिचय करना परमाण्ड संस्तव है । ये दोनों भी सध्यदर्शन के अतिचार है। सावपूर्वक दूसरे के अथवा अपने गुणों का प्रकर्ष प्रकट करना प्रशला कहलाता है और लोपधिक या निरूपधिक गुणवचन को संस्तव कहते है। अनिमुख गृहीत दृष्टि अभिगृहीता दृष्टि है, जैसे यही तस्व है। इस प्रकार लौगत आदि के वचन सभी प्रवचनों को समीचीन समझना अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि कहलाती है। . मोहनीय कर्म की विचिन्नता के कारण तथा नयों अनन्त होने के कारण मिथ्यादर्शन अनेक प्रकार का होता है। कोई कोई नियामादी होते हैं। क्रिया कर्ता के अधीन है, कर्ता के बिना यह हो नहीं सकती। इसे प्रकार आत्माले अधिष्ठित शरीर ले ललकाय संबंध ले क्रिया रहती પ્રશંસા રૂપ અને પરિચય રૂપ છે, અર્થાત્ મિથ્યાષ્ટિઓની પ્રશંસા કરવી પરપાવંડ પ્રશંસા છે અને તેમની સાથે પરિચય કરો પરપાવંડસંતવ છે. આ બંને પણ સમ્પ્રદર્શનના અતિચાર છે. ભાવપૂર્વક બીજાના અથવા પોતાના ગુણોને પ્રકર્ષ પ્રકટ કરવાને-પ્રશંસા કહે છે અને સોપધિક અથવા નિરૂપધિક ગુણવચનને સંસ્તવ કહે છે. અભિમુખપૃહીત દષ્ટિ અભિગૃહીતા દૃષ્ટિ છે જેમ કે-આ જ તત્વ છે એ જાતના સૌગત આદિના વચન બધા પ્રવચનેને સમીચીન સમજવું અનભિગ્રહીત મિથ્યાદષ્ટિ કહેવાય છે. મેહનીયકર્મની વિચિત્રતાના કારણે તથા નયે અનન્ત હોવાથી મિશ્યાદર્શન અનેક પ્રકારના હેય છે. કઈ-કઈ ક્રિયાવાદી હોય છે કિયા કર્તાને અધીને છે, કર્યા વગર તે થઈ શકતી નથી. આ રીતે આત્માથી અધિષ્ટિત શરીરમાં ! Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रे ૦૯ I शतसंख्यक्रा बोध्याः । तद्यथा - जीवाजीवबन्धपुण्य पापाऽऽस्रव-संवर निर्जरामोक्षरूप नवपदार्थानां मध्ये एकैकं प्रति 'अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः' - इत्यादिरीत्या लब्धानां विंशति विकल्पानां नवभिर्गुणनेऽशीत्यधिकशतसंख्या लभ्यन्त इति भावः । एवं - चतुरशीतिर्विकल्पाः प्रत्येकं नास्तिकानामित्यादि'त्यांऽभिगृहीतमिथ्यादृष्टीनां सर्वं संख्यया त्रिषष्यधिकानि त्रीणि शतानि - अवगन्तव्यानि । तत्रात्मक्रियास्तित्ववादिनोऽशीत्यधिकशतसंख्यकाः, आत्मनास्तित्वाक्रियावादिनश्चतुरशीति संख्यकाः, अज्ञानिकवादिनः सप्तषष्टिसंख्यकाः, वैनायिकवादिनो द्वात्रिंशत्संख्यकाः सन्ति । तत्राऽऽत्मनास्तित्ववादिमते विकल्पा स्वावद् 'नास्ति जीवः स्वः कालतः' एवम् -'नास्ति जीवः परतः कालतः ' है, ऐसा स्वीकार करनेवाले और आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करने वाले वादी किया वादी कहलाते हैं । उनके एक सौ अस्सी . (१८०) भेद है । ये भेद इस प्रकार निष्पन्न होते हैं - (१) जीव (२) अजीव (३) बन्ध (४) पुण्य (५) पाप (६) आस्रव (७) संवर (८) निर्जरा (९- मोक्ष, इन नौ पदार्थों में से प्रत्येक के साथ 'जीव है, स्वतः नित्य काल से' इत्यादि रूप से बनने वाले बीस भेदों का नौ पदार्थों के साथ गुणाकार करने से एक सौ अस्ली संख्या हो जाती है। अक्रियावादी नास्तिकों के अस्सी (८०) भेद हैं । इत्यादि चारों के मिलाकर अभिगृहीत मिथ्यादृष्टियों के कुल तीन सौ श्रेष्ठ (३६३) भेद होते हैं। इन में आत्मा का अस्तित्व नहीं स्वीकार करने वाले अक्रियावादी अस्सी हैं, अज्ञानवादियों के ases (६७) भेद हैं और वैनयिकों के बत्तीस भेद है । अक्रियावादियों के भेद સમવાય સ`ખ ધથી ક્રિયા રહે છે. એવું સ્વીકારનાર અને થ્યાત્માના અસ્તિત્વના સ્વીકાર કરનારા ક્રિયાવાદી કહેવાય છે. તેમના એકસે એંશી (૧૮૦) ભેદ छे. या लेड मा रीते निष्यन्न थाय हे - (१) व (२) अन्र्ণ(3) अन्ध (४) युएय (4) पाथ (१) भासत्र (७) सौंदर (८) निर्भरा (ङ) भोक्ष भा નવ પદાર્થોમાંથી પ્રત્યેકની સાથે જીવ છે, સ્વતઃ નિત્યકાળથી ઇત્યાદિ રૂપથી મનનારા વીસ ભેદોના નવ પદાની સાથે ગુણાકાર કરવાથી એકસે એશીની સંખ્યા થઈ જાય છે. અક્રિયાવાદિ નાસ્તિકેાના એંશી ભેદ છે. ઇત્યાદિ ચારે મળીને અભિગૃહીત મિથ્યાર્દષ્ટિએના કુલ ત્રણસેા ત્રેસઠ (૩૬૩) ભેદુ હાય છે. આમાં આત્માનું અસ્તિત્વ નહી સ્વીકારનારા અક્રિયાવાદી એંશી (૮૦) છે, જ્ઞાનવાતિના સડસઠ (૬૭) ભેદ છે અને વૈયિકાના છત્રીસ લેઇ છે. Cov Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ रु.४० सम्यग्दष्टे: पञ्चातिवारा: ३०९ इत्येवरूपभेदेन द्वादश विकल्पा जीवं प्रति भवन्ति । एवम्-अजीवादिष्वपि षट्सु प्रत्येकं द्वादश-द्वादश विकल्पा भवन्ति । तेषां मते-पुण्यपापयोरसद्हावेन सप्तानामेव जीवानामेकैकं प्रति द्वादश द्वादश भेदेन चतुरशीति भेना भवन्ति । आत्माऽस्तित्वयादिनां मते तु-पुण्यपापसहितानां नदतत्वानां सद्भावेनैकैकं प्रविनिम्न रीत्या विंशति विकल्प तत्वेनाऽशीत्यधिकशतभेदा भवन्ति । तथाहि-'जीवोऽस्ति स्वतो नित्यः कालनः । कालवादिनः खल्लु विद्यतेऽय लामा स्वेन रूपेण नित्यश्चति । एवर-ईश्वरवादिनोऽपि द्वितीयो विकल्प: । आत्मवादिन स्तृतीयो विकल्पस्तु-'पुरुष एवेदं सरम्' इत्यादि । नियतिरूपाऽदृष्टवादिनचतुर्थों विकल्पः इस प्रकार होते हैं-'जीच नहीं है स्वतः काल से और जीव नहीं हैं, परतः काल से इस प्रकार जीव को लेकर बारह भेद होते हैं। इसी प्रकार अजीव आदि छह पदार्थों के भी बारह-धारह भेद समझ लेना चाहिए उनके मत मैं पुण्य और पाप का सद्भाव नहीं है, अतएव सात पदार्थों के ही बारह-बारह भेद होने से चौरासी भेद हो जाते हैं। किन्तु जो आत्मा का अस्तित्व मानते हैं उनके मत में पुण्य और पाप की भी सत्ता होने से नौ पदार्थ है और प्रत्येक को लेकर बीसवीस भेद होते हैं, अतः उनके एक सौ अस्ली भेद हैं, जैसे-जीव है स्वतः नित्य काल से । कालवादियों का कथन कि-आत्मा स्वरूप से नित्य है काल रहे। इसी भोलि ईश्वरवादियो का दूसरा विकल्प समझ लेना चाहिए । तीसरा विकल्प आरमवादियों का है। उनका कथन है कि 'यह सब जो जगत् में दृष्टिगोचर होता है, पुरुषस्वरूप ही है। અકિયાવાદિઓના ભેદ આ રીતે થાય છે-“જીવ નથી સ્વતઃ કાળથી ” અને જીવ નથી પરત કાળથી આ રીતે જીત્રને લઈને બાર ભેદ થાય છે. આ રીતે અજીવ આદિ છ પદાર્થોના પણ બાર-બાર ભેદ સમજી લેવા જોઈએ. તેમના મતે પુણ્ય અને પાપને સદ્ભાવ નથી; આથી સાત પદાર્થોના જ આર-બાર ભેદ હોવાથી ચોર્યાસી (૮૪) ભેદ થઈ જાય છે. પરંતુ જેઓ આત્માનું અસ્તિત્વ સર્વકારે છે. તેમના મતે પુણ્ય અને પાપની પણ સત્તા હોવાથી નવ પદાર્થ છે અને પ્રત્યેકને લઈને વીસ-વીય ભેદ થાય છે આથી, તેમના એક એશી ભેદ છે જેમ કે-“જીવ વતઃ નિત્યકાળથી” કાલવાદિએનું કહેવું છે કે આત્મા સ્વરૂપથી નિત્ય છે કાળથી નહીં. એવી જ રીતે ઈશ્વરવાદિઓને બીજો વિકલ્પ સમજી લેવો જોઈએ. ત્રીજો વિકલ્પ આત્મવાદિઓને છે. તેમનું કથન છે કે “આ બધું, જે જગતમાં દૃષ્ટિગોચર થાય છે, પુરૂષ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे स्वभाववादिनः पञ्चमविकल्पः स्वतएच, इत्येवं स्वत इत्यनेन पञ्चविकल्पाः । परत इत्यनेनाऽपि पश्चविकल्पा अवन्ति, नित्यत्वसहितेन दशविकल्पाः, अनित्यत्वसहितेन च दशविरला भवन्ति, इत्येवं विशति विकल्पा जीवतत्वेन सह भवन्ति । ए-शेपरजीवादिभिरष्टतन्वैरपि प्रत्येकं विशति विंशति भेदेनाऽशीत्यधिक शत संख्पका विकल्पा भवन्ति । अज्ञानिकानां पुनरचिन्त्य कृतकर्मवन्धवैफल्यवादिनां मले-जोवादीनि नवतल्यानि संस्थाप्य-सत्व-१ ग्यसत्व२ सदसत्व ३ मवाच्यवं४ सवाच्यत्वम् ५ असवाच्यत्वं ६ सदसवाच्यत्तस् ७ इत्येवमेकैकस्य जीवादेः सप्त-मप्त विकल्पा भवन्ति, एने नत्र समझा स्पिष्टिः । उत्पत्तेचाऽऽद्याश्चत्वारो नियति को मानने वालों का चौथा विकल्प है। पांचवें स्वभाववादि है। इल प्रकार स्वत:' शब्द से पांच विकल्प होते हैं । 'परतः' शब्द से भी यहीं पाँच लेद होते है। इन दसों की 'लित्य' और 'अनित्य के साथ योजना करने पर जीव तत्व को लेकर बीस भेद लिष्पन्न होते हैं। इली प्रकार शेष अजीप आदि आठ पदार्थों को लेकर गैस-वीस भेद होने से लय मिलाकर एक लौ अस्ती सेद हो जाते हैं। विना सोचे समझे कृत कर्मबन्ध को निष्फल मानने वाले अज्ञानखादियों के मल में, जीव आदि नौ तत्वों को अनुक्रम से स्थापित किया जाता है और प्रत्येक के नीचे (१) लत्व, (२) असत्व (३) सद्सत्व (४) अशाच्यत्व (५) लदवाच्यत्व (६) अहवाच्यत्व और (७) सदसवाच्यत्व, ये लात मंग स्थापित किये जाते है। इस प्रकार एक एक तत्व को लेकर सात-सात भिकल्प होने से ९४७=१३ विकल्प सिद्ध વરૂપ જ છે. નિયતિને માનનારાઓને ચેાથે વિકલ્પ છે. પાંચમા સ્વભાવपाहि छे. २मा शत '२५त:' शपथी पांय विs६५ थाय छे. '५२त:' शपथी પણ આ જ પાંચ ભેદ થાય છે. આ દશેની “નિત્ય” અને “અનિત્યની સાથે જના કરવાથી જીવ તત્વને લઈને વીસ ભેદ નિપન્ન થાય છે. એવી જ રીતે શેષ અજીવ આદિ આઠ પદાર્થોને લઈને વીસ-વીસ ભેદ હોવાથી બધાં મળીને એકસો એંશી ભેદ થઈ જાય છે. વગર વિચાર્યું અને સમજીને કરેલા કર્મબન્ધને નિષ્ફળ માનનારા અજ્ઞાનવાદિઓના મતે, જીવ આદિ નવ તને અનુક્રમથી સ્થાપિત કરવામાં भाव छ भने प्रत्येनी नाये (१) सत्व) (२) मसरन (3) सहसव (४) અવાચ્ય (૫) વાવ (૬) અસદવાઓત્વ (૭) સદસદવાયત્વ એ સાત ભંગ સ્થાપિત કરવામાં આવે છે આ રીતે એક-એક તત્તનને લઈને સાતસાત વિક૯પ હોવાથી ૯*૭=૬૩ વિકલ્પ સિદ્ધ થાય છે. આ ત્રેસઠ વિકપમાં Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४० सम्यग्दृष्टे: पञ्चातिचारा: ३११ विकल्पा भवन्ति, सद्यथा सल्बम् १ असत्वम् २ सदसत्वम् ३ अवाच्याचं चेति, इति रीत्या सप्तष्टिदिशल्पा भवन्ति । तद्यथा-'जीवः स्खल्लितिको जानिति ? एवम-जीवोऽसन्नित्यपि को जानाति' इत्यादि । एवम्-सतः १ असत:-२ सदसतो३ जाच्यस्य४ वा सिम् उत्पत्ति नीति को जानाति, इत्यादि बैनयिकानां मते द्वाविंशद्विकल्पाः, यथा-'कायेन-चचसा-मनसा-दानेन चेत्येभि श्चतुभिः पकारैः सुर-१ नृपत्ति २ शुनि-३ ज्ञानि ४ स्थविरा ५ ऽधम ६, मात ७ पितृषु ८ अष्टसु बिनय यात्याधानाः सन्तो चैनयिकाः तेषां सपर्या कुर्वन्ति, इत्येन मप्टानां चतुर्मिणितत्वे द्वात्रिंशभेदा अनन्ति अनधिगृहीताः पुनः सांसारिक वैषयिकभोगसुख पराणां पुरुषाणां निश्रेषससुखं व्यर्थम्, प्रकृष्टैर्य सम्पत्तिहोते है। इन सठ विकल्पों में उतात्ति के चार शिशल्य सया, अर सदसत्य और अवाच्यत्व-और जोड देने ले लड से हो जाते हैं। जैसे-जीव सत् है, यह कौन जानता है ? जीप अलत है, यह कौन जाने ? इत्यादि। इसी प्रकार कौन जानता है कि साल की उत्पत्ति होती है, असत् की उत्पत्ति होती है, बदलत् की उत्पत्ति होती है अथवा अवाच्य की उत्पत्ति होती है ? वनयिकों के बत्तील भेद हैं। उनकी मान्यता है कि हाथ से, वचन से, मन से और दान से, इस प्रकार चार प्रकार से (१) सुर (२) नृपति (३) मुनि (४) ज्ञानि (५) स्थचिर-वृद्ध (६) अषम (७) माता और (८) पिता, इन आठ का पिना-यावृत्य करना चाहिए। वे लोग इनकी पूजा करते हैं । इस प्रकार आठ का चार के साथ गुणाकार करने पर (३२) बत्तीह मेद होते हैं। ઉત્પત્તિના ચાર વિકલપ સત્વ, અસત્વ, સદસત્વ અને અવાચ્યત્વને ઉમેરી દેવાથી સડસઠ ભેદ થઈ જાય છે જેમ કે-જીવ સત્ છે એ કણ જાણે છે, જીવ અસતુ છે કે શું જાણે છે! વગેરે એવી જ રીતે કોણ જાણે છે કે સતની ઉત્પત્તિ થાય છે, અસત્ની ઉત્પત્તિ થાય છે, સદસની ઉત્પત્તિ થાય છે અથવા અવાચ્યની ઉત્પત્તિ થાય છે? વનયિકોના બત્રીસ ભેદ છે. તેમની માન્યતા એવી છે કે કાયાથી, વચનથી. મનથી અને દાનથી એ રીતે ચાર પ્રકારથી (૧) સુર (૨) નૃપતિ (3) मुनि (४) शानि (4) स्थविर-वृद्ध (6) अधम (७) माता मन (८) पिता આ આઠેની વિનયવૈયાવૃત્ય કરવા જોઈએ. તે લોકે એમની પૂજા કરે છે. આ રીતે આઠને ચાર સાથે ગુણાકાર કરવાથી (૩૨) બત્રીસ ભેદ થાય છે. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्रे परिपूर्णाऽभिजनादिपु-आरोग्यतायुक्त जन्मसम्पन्नमित्येवं पर्याप्तम्, इति भावनया सर्व देवतासु-सर्वपाखण्डिपु च तुल्यत्व-मदासीनत्वं च भावयति इत्येवं रूपो बोध्यः । एतेषाश्चाऽऽत्माऽस्तित्व क्रियावादिनाऽस्तित्वाऽक्रियावादिना माज्ञानिकानाञ्च प्रशंसा, यथा-पुण्यशालिनः खल्वे ते सत्यसन्धानाः सन्मार्गदर्शन निपुणाः सन्ति, यथा-'एतेषां जन्मसफलम्' इत्यादि । संस्तवश्च-तैः सहकत्रया सात परस्पराऽऽलाप संलापादिजातः परिचयः, एकत्र संचासे तेषां प्रक्रियाश्रवणात् क्रिमादिदर्शनाच्चाऽमहार्यमतेरपि जनस्य दृष्टिविचार भेदो भवति । अनभिगृहीत भिमादृष्टि ऐसी माना करते है कि-संसार सम्बन्धी विषय लोग के सुख तत्पर पुरुषों के लिए मोक्ष हा सुख व्यर्थ है । उत्तम ऐश्वर्य एवं सम्पत्ति से परिपूर्ण अभिजनों में आरोग्यता से युक्त जन्म मिल जाना ही पर्याप्त है। इस प्रकार की भावना के कारण वे सभी देवताओं और न ही बनधारियों में समान भाव एवं उदासीनता रखते हैं। इस प्रकार आत्मा का अस्तित्व मानने वाले क्रियावादियों की, आम्मा का अस्तित्व नहीं मानने वाले अक्रियाशादियों की लथा अज्ञान पादियों की प्रशंसा करना परपापण्ड प्रशंला.है, जैल्ले-'ये पुण्यशाली हैं, ये सत्यप्रतिजा है, ये सन्मार्ग दिखलाने में निपुण हैं, इनका जन्म सार्थक हैं, इत्यादि । उनके साथ-साथ एक स्थान पर निवास करने से तथा परस्पर में वार्तालाप करने से होने वाला परिचय संनद कहलाता है। एक साथ અનભિગૃહીત મિથ્યાદષ્ટિ એવી ભાવના ભાવે છે કે-સંસાર સમ્બન્ધી વિષયભેગના સુખમાં રચ્યાપચ્યા રહેનાર પુરૂષો માટે મોક્ષનું સુખ વ્યર્થ છે. ઉત્તમ આશ્વર્ય અને સમ્પત્તિથી પરિપૂર્ણ અભિજનોમાં આરોગ્યતાથી યુક્ત જન્મ પ્રાપ્ત થાય એટલું જ પુરતું છે. આ પ્રકારની ભાવનાના કારણે તે સઘળાં દેવતાઓ અને બધાં વ્રતધારીઓમાં સમાન ભાવ અને ઉદાસીનતા રાખે છે. આવી રીતે આત્માનું અસ્તિત્વ માનનારા કિયાવાદિઓની આત્માનું અસ્તિત્વ નહીં માનનારા અકિયાદિઓની તથા અજ્ઞાનવાદિઓની પ્રશંસા કરવી પરપાષડપ્રશંસા છે, જેમ કે- આ પુણ્યશાળી છે, આ સત્યપ્રતિજ્ઞ છે આ સન્માર્ગ બતાવવામાં પ્રવીણ છે, એમને જન્મ સાર્થક છે વગેરે. તેમની સાથે-સાથે એક સ્થાને નિવાસ કરવાથી તથા પરસ્પરમાં વાર્તાલાપ કરવાથી થનારો પરિચય સંસ્તવ કહેવાય છે. એક સાથે નિવાસ કરવાથી Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४० सम्यग्दृष्टेः पञ्चातिचारा: १३ संहार्यमतेस्तु कथैका ? तम्मात् तीर्थकृभिर्भगवद्भिः दास्थादि यथाछन्दि कैरपि सह सहवासो निषिद्धः, तैः स है करात्रमप्येकत्र वासेन सम्यग्दृष्टः परि. स्यागो भवति, अतएव-कुतीथिकानां प्रशंसा-संस्तत्रौ सम्यग्दृप्टेर्भालिन्य हेतु स्वात्-भ्रंशहेतुत्वाद्वाऽतिचारौ बोधयो । उक्तश्चोपासकदशाङ्गे-१ अध्ययने-- 'सम्मत्तस्स पंच अध्यारा पेशाला जणियब्वा न समायरियध्या' तं जहा. संका-कंखा-वितिगिच्छा, परपासंडपलंसा, परपासंडसंथवो' इति । सम्यक्तास्य पञ्चातिचाराः प्रधाना ज्ञ तव्याः न समाचरितव्याः, तद्यथा-शङ्का-१ काङ्क्षा-२ विचिकित्सा-३ परपापण्डप्रशंसा४ परपाषण्डसंस्तवः५ इति ॥४०॥ निवास करने से, उनकी प्रक्रि ग को सुनने से और क्रिया को देखने से अविचल बुद्धि काले जन को दृष्टि और विचार में भेद उत्पन्न हो जाता है। जिनकी बुद्धि अस्थिर है उनका तो कहना ही क्या है ? इसी कारण भगवान् तीर्थकर ने पार्श्वस्थों (शिथिलाचारियों) और स्वच्छन्दा चारियों के साथ सहवास का निषेध किया है। ऐमों के साथ एक रात्रि भी निवास करने से सम्यग्दृष्टि का परित्याग हो जाता है। अतएव कुनीर्थिकों की प्रशंशा करना और उनके साथ परिचय करना सम्यग्दर्शन की मलीनता का कारण है-भ्रष्टता का कारण है, इसी से इन दोनों को अतिचार कहा है । उपासकदशांग सूत्र में प्रथम अध्ययन में कहा है-'सम्यक्त्व के पांच प्रधान अतिचार जानने चाहिए किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे यो है शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषण्ड प्रशंमा और परपाषण्ड संस्तव ॥४०॥ તથા પરસ્પરમાં વાર્તાલાપ કરવાથી થનારે પરિચય સંતવ કહેવાય છે. એક સાથે નિવાસ કરવાથી, તેમની પ્રકિય એને સાંભળવાથી અને ક્રિયાઓને જેવાથી અવિચલ બુદ્ધિવાળા પુરૂષની દૃષ્ટિ તેમજ વિચારમાં ભેદ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. જેમની બુદ્ધિ અસ્થિર છે તેમનું તે કહેવું જશું ? આ કારણે જ ભગવાન તીર્થંકર પાશ્વ (શિથિલાચારિઓ) તેમજ સ્વછન્દાચારિઓની સાથેના સહવાસને નિષેધ કર્યો છે. એવાની સાથે એક રાત્રિ પણ સહવાસ કરવાથી સમ્યકષ્ટિ ચાલી જાય છેઆથી કુતીવિકેની પ્રશંસા કરવી અને તેમની સાથે પરિચય કરે સમ્યગદર્શનની મલીનતાનું કારણ છે-ભ્રષ્ટતાનું કારગ છે આ માટે જ એ બંનેને અતિચાર કહેવામાં આવ્યા છે ઉપાસકદશાંગસૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે-“સમ્યક્ત્વના પાંચ મુખ્ય અતિચ ૨ नया नये. तसा भुकम छ-२४, ४iक्षा, विलिसा, ५२पाष३५शस। सने ५२१ पसरत. ॥४१॥ त० ४० Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तस्वार्थ मूलम्-पढमस्ल अणुव्वयस्ल बंध-वह-छविच्छेयाइया पंच अइयारा ॥४१॥ छाया-प्रथमस्याऽणुव्रतस्य बन्ध वध- छविच्छेदादिकाः पश्चाविचाराः ॥४॥ तस्वार्थदीपिका-पूर्व तावस् तम्यक्त्वस्य शङ्का-काङ्क्षा-विचिकित्सा-परपापण्डपशंसा संस्तव रूप पश्चातिचारस्वरूपं निरूपितम्, सम्पति-अतिचारमस्तावात् एश्वाणुव्रतानां दिग्वानां चाऽतिचारान् क्रमशः पञ्च-प प्ररूपयितुमाट-'पढलस्स०' इत्यादि । प्रथमस्या-हिंसालक्षणश्याऽणुव्रतस्य शतः स्थूल पाणातिपातविरमणरूपस्य बन्ध-वध छविच्छेदादिकाः तत्र-बन्धः स्वाभिमत देशगतिनिरोधरूप: गाढवन्धनं वा१ वध:-कशादण्ड वेत्रादिभिः माणिनामभिधात 'पढमस्त अणुव्वयस्' इत्यादि । सूत्रार्थ-प्रक्षम अणुवन के पंध, वध, छविच्छेद आदि पांच अतिचार है ॥४॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व में सम्यक्त्व के शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषण्डप्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव, इन पांच अनिचारों का स्वरूप निरूपण किया गया अतिचार का प्रकरण होने से पांच अणुव्रतों तथा दिगवत आदि मान शिक्ष चनों के पांच-पांच अतिचारों का क्रमशः प्ररूपण करते हैं अहिंसा जिसका लक्षण है और स्थूल प्राणातिपात विरमण जिसका स्वरूप है, ऐसे प्रथम व्रत के पांच अतिचार हैं-बन्ध, वध, छविच्छेद आदि । इष्ट देश में गमन का निरोध या गाढा बन्धन बन्ध कहलाता है। कोडा, दंड, वेत आदि से प्राणियों को आघात करना 'पढमस्स अणुव्वयस्स बंध-वहच्छविछेयाइया पंच अइयारा' या સૂત્રાર્થ–પ્રથમ અણુવ્રતના બંધ, વધ, છવિદ આદિ પાંચ અતિચાર છે. ૪૧ तत्याहीप-पूर्व सूत्रमा सभ्य-पना At, ziक्षा, वियित्सा, પરપાખંડ પ્રશંસા અને પરપાખંડસંતવ એ પાંચ અતિચારોના સ્વરૂપનું નિરૂ પણ કરવામાં આવ્યું હવે અતિચારનું પ્રકરણ હોવાથી પાંચ અણુવ્રત તથા દિગને આદ ૭ (સાત) શિક્ષાવ્રતનાં પાંચ-પાંચ અતિચારનું ક્રમશઃ પ્રરૂપણ કરીએ છીએ અહિંસા જેનું લક્ષણ છે અને શૂળપ્રાણાતિપાત વિરમણ જેનું સ્વરૂપ છે એવા પ્રથમ વખતના પંચ અતિચાર છે-બન્ધ, વધ, છવિકેદ આદિ ઈન્ટ દેશમાં ગમનને નિરોધ અથવા ગાઢ બન્ધન “બન્ધ” કહેવાય છે ચાબૂક, લાકડી, સેટી વગેરેથી પ્રાણિઓને આઘાત કરો વધ છે-પ્રાણેને નાશ નહીં, Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७३.४१ अणुव्रतानां दिग्नतानां पञ्चातिचारा: ३१५ रूपः, नतु-प्राणव्यपरोपणम्, तस्मात् पूर्वमेवाऽणुव्रतिनो निवृत्तत्वाद २ । छवि. च्छेदः-नासिकाग्र-कर्णाग्रादिरूपावयवानां छेदनेन शरीरसौन्दर्यविशेषापनयन रूपः-३ आदिपदेनाऽतिमारः ४ भक्त पानव्य ,च्छे:-५ अनयोग्रहणम्, तत्रातिभारः न्यायोचितवाहनबहनयोग्यभारातिरिक्त भारारोपणरूपः (४) भक्त पान व्यवच्छेदश्च-गोमहिषादि पशुप्रभृति पाणिनां क्षुत्पिपासा जन्यबाधा सम्पादनरूप: (५) इत्येते पश्चातिचारा अहिंसा लक्षण प्रथशाणुव्रतस्य भ्रशहेतवो भवन्ति । ४१॥ ___तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्वसूत्रे खलु-शङ्का कांक्षा विचिकित्सा परपापण्डप्रशंसा संस्तवरूपाः पञ्च सम्यक्त्वयाऽतिचाराः प्रदर्शिताः, सम्प्रति तावत् अतिचार वध है-प्राणों का नाश करना नहीं, क्योंकि अणुवती उससे पहले ही निवृत्त हो जाता है । (प्राणातिपात से व्रत का सर्वथा भंग हो जाता है और सर्वथा भंग हो जाना अतिचार नहीं किन्तु अनाचार है।) नाक या कान का अग्र भाग या अन्य किसी अवयव का छेदन करके शरीर की सुन्दरता नष्ट करना छविच्छेद है । 'आदि' शब्द से अतिभारारोपण और भक्तपानव्यवच्छेद ग्रहण करना चाहिए । जो जितना भार वहन करने में समर्थ है, उस पर उससे अधिक भार लाद देना अतिभारारोपण कहलाता है । गाय, भैंस आदि प्राणियों को यथो. चित अन्न-पानी न दे कर उन्हें भूख-प्यास का कष्ट पहुंचाना भक्तपानव्यवच्छेद कहलाता है। यह अहिंसा लक्षण प्रथम अणुवन के पांच अतिचार हैं । इनके सेवन से अहिंसाणुव्रत आंशिक रूप से खंडित हो जाता है ॥४१॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्व स्मृन्त्र में सम्यकश्य के शंका, कांक्षा, विचि. કારણ કે અણુવતી આની પહેલા જ નિવૃત્ત થઈ જાય છે (પ્રાણાતિપાતથી વતને સર્વથા ભંગ થઈ જાય છે અને સર્વથા ભંગ થઈ જ અતિચાર નહીં પણ અનાચાર છે) નાક અથવા કાનનો અગ્રભાગ અથવા અન્ય કઈ અવયવનું છેદન કરીને શરીરના સૌન્દર્યને નષ્ટ કરવું છવિ છેદ છે. “આદિ શબ્દથી અતિભ રારોપણ અને ભક્તપાન વ્યવચછેદ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. જે જેટલે ભાર વહન કરવા માટે સમર્થ છે તેમની ઉપર તેથી અધિક ભાર લાદી દે અતિભારાપણ કહેવાય છે. ગાય, ભેંસ આદિ પ્રાણિઓને યોગ્ય પ્રમાણમાં અનાજ પાણી નહીં આપીને તેમને ભૂખ-તરસનું કષ્ટ પહોંચાડવું ભક્તપાનવ્યવહેદ કહેવાય છે આ અહિંસા લક્ષણ પ્રથમ અણુવ્રતનાં પાંચ અતિચાર છે. એમના સેવનથી અહિંસાવ્રત આંશિક રૂપથી ખંડિત થઈ જાય છે. ૪૧ તત્વાર્થનિર્યુકિત-પૂર્વસૂત્રમાં સમ્યક્ત્વના શંકા, કાંક્ષા, વિચિકિત્સા, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रे प्रस्तावात् स्थूल प्राणातियाताद विरमणलक्ष गपश्चाणुव्र नेषु-दिग्वतादिलक्षणसप्तशिक्षात्रतेषु च पञ्च-पञ्चातिचारान् क्रमशः प्ररूपयितु प्रथम देशतो हिंसालक्षणस्य प्रथमस्याऽणुव्रतस्य पञ्चातिचारान् प्ररूपयति-पढमस्स अणुव्वयस्स बंध वह छविच्छेयाइया पंच अइयारा' इति । प्रथमस्य स्थूल माणातिपातविरमण लक्षणस्याऽणुव्रतस्य बन्ध वध छविच्छेदादिकाः तत्र-बन्धः रज्जुमभृतिभिर्वन्धनम, बधा-कशायष्टिप्रभृतिभिरभिघात स्ताडनम्, छविछेदः-छवेः शरीरकान्ति सौदर्यनाशाथै नासिका कर्णादीनां शरीरावयवानां छेदनम्, आदिनाऽतिभारारोपण सक्तपानव्यवच्छेदश्च परिगृह्यते, इत्येते पञ्च स्थूळमाणातिपातविरमणलक्षणस्य प्रथमाणुव्रतस्याऽतिचारा अंशहेनवो भवन्तीति वोध्यम् । उक्तश्वोपासकदशाङ्गे प्रथमाऽध्ययने-'थूलस्त पाणाइयायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइ. किस्सा, परपाषण्डप्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव अतिचार प्रतिपादन किये गये हैं। अतिचार का प्रकरण होने से अब स्थूल प्राणातिपात आदि के ला दिग्बन आदि के पांच-पांच अतिवारी की प्ररूपणा करते हैं। सर्व प्रथम एकदेश अहिंसारूप प्रम अणुव्रत के पांच अतिचार कहते हैं प्रथम अणुव्रत के बंध, वध, छविच्छेद आदि पांच अतिचार हैं। उन ले रहली आदि से बांधना बन्ध कहलाता है । चावुक, लकडी आदि से पीटता वध कहलाता है और शरीर की सुन्दरता को नष्ट करने के लिए नाक कान आदि शरीर के अवयवों का छेदन करना छविच्छेद कहलाता है । 'आदि' शब्द से अतिभारारोपण और भक्त. पानव्यवच्छेद का ग्रहण होता है। ये पांच स्थूल प्राणातिपात विरमण नामक प्रथम अणुव्रत के अतिचार हैं और उसके एक देश भंग के कारण होते हैं। પરપાખંડ પ્રશંસા અને પરપાવંડ સંસ્તવ અતિચાર પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યા. અતિચારનું આ પ્રકરણ હોવાથી હવે રસ્થૂળપ્રાણાતિપાત વગેરેના તથા દિગવ્રત આદિના ૫ ચ-પાંચ અતિચારોની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ. સર્વપ્રથમ એક દેશ અહિં સારૂપ પ્રથમ અણુવ્રતના પાંચ અતિચાર કહીએ છીએ પ્રથમ અણુવ્રતના બે ધ, વધ, છવિચ્છેદ આદિ પાંચ અતિચાર છે. તેમાંથી દોરડા વગેરેથી બ ધવું બન્ધ કહેવાય છે ચાબૂક, લાકડી વગેરેથી મારવું વધ કહેવાય છે અને શરીરની સુન્દરતાને નાશ કરવા માટે નાક કાન આદિ શરીરના અવયનું છેદન કરવું છવિદેદ કહેવાય છે. “આદિ શબ્દથી અતિભ રાપણ અને ભક્તપાનવ્યવરછેદનું ગ્રહણ થાય છે. આ પાંચ સ્થળપ્રાણાતિપાત વિરમણ નામને પ્રથમ અણુવ્રતના અતિચાર છે અને તેના એક દેશભંગના કારણ હોય છે. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-निर्युक्ति टीका म. ७ . ४१ अणुव्रतानां दिखतानां पञ्चातिचाराः ३१७ यारा पेयाला जाणियन्त्रा न समायरियन्वा तं जंहा बंधे बहेच्छदिच्छें ए अहमारे भक्तपाणवोच्छेए' इति स्थूलस्य प्राणातिपातविरमणस्य श्रमणोपासकेन पञ्चातिचाराः प्रधानाः ज्ञातव्याः, तद्यथा-वन्धोवध छविच्छेदः अति भारः, भक्तपानव्युच्छेदः इति । ॥ ४१ ॥ मूलम् - बीयरस अणुवयस्स सहसभक्खाणाइया पंच अइयारा ॥४२॥ - छाया - द्वितीयस्याऽणुव्रतस्य सहसा भ्याख्याना दिकाः पश्चाविचाराः ॥ ४२ ॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्रे - स्थूलपाणातिपातविरतिलक्षण प्रथमाणुत्रवस्य बन्ध वधच्छ विच्छेदातिभारभ कपानन्युच्छेदरूपाः पञ्चाविचाराः प्ररूपिताः, उपासक दशांग के प्रथम अध्ययन में कहा है-श्रमणोपासक को स्थूल प्राणातिपात विरमणव्रत के पांच प्रधान अतिचार जानने चाहिए, किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे अतिचार ये हैं-बन्ध, वध, छविच्छेद, अंतिभार और भक्तपान बिच्छेद | किसी के ऊपर उसकी शक्ति से अधिक भार लाद देना अतिभार या अति भारारोपण नामक अतिचार है और अपने अधीन जीव को समय पर भोजन - पानी न देना भक्तपानविच्छेद्द अतिचार है ॥४१॥ 'बीयस्स अणुव्वयस्स' इत्यादि । सूत्रार्थ - दूसरे अणु के सहसाभ्याख्यान आदि पांच अतिचार है । ४२ । तत्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्र में स्थूल प्राणातिपात विरतिरूप प्रथम अणुवन के बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिसार और भक्तपान चिच्छेद, ये पांच अतिचार प्रतिपादन किये गए, अब दूसरे अणुव्रत के सहसा ઉપાસકદશાંગના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે-શ્રમણાપાસકે સ્થૂળપ્રાણાતિ પાત વિરમણના પાંચ મુખ્ય અતિચાર જાણવા જોઇ એ પરન્તુ તેનું આચરણ કરવું જોઈએ નહી. આ અતિચાર આ પ્રમાણે છે-અન્ધ, વધ, છવિચ્છેદ, અતિભાર અને ભક્તપાનવિંદ કેાઇની ઉપર તેની શક્તિથી વધારે ખાજો લાદવા અતિભાર અથવા અતિભારારાપન્નુ નામક અતિચાર છે અને પેાત ના તાખા હેઠળના જીવને વખત થયે ભેાજન-પાણી ન આપવા ભક્તાનવિચ્છેદ અતિચાર છે. ૫૪૧૫ 'बीयरस अणुव्वयस्स सइस्वन्भक्खाणाइया पंच अइयारा ' त्यहि સૂત્ર –બીજા અણુવ્રતના સહસાભ્ય ખ્યાન આદિ પાંચ અતિચાર છે ।।૪૨ા તા દીપિકા-પૂર્વ સૂત્રમાં સ્થૂળપ્રાણાતિપાત વિરતિ રૂપ અણુવ્રતના अन्ध, वध, छविरडे, अतिलर भने अपानविरच्छेद से पांच व्यतियानु Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थमा सम्मति-द्वितीयस्याऽणुव्रतस्य सहसाभ्याख्यानादि पश्चाविचारान् प्रतिपादयितु माह-'बीयत अणुव्वयस्स सहसम्मक्खाणाइया पंच अइयारा' इति । द्वितीयस्याऽणुव्रवस्य सहसायाख्यानादिकाः पञ्चातिचारा:-स्थूलमृपावादविरतिवक्षणस्य द्वितीयाणुव्रतस्य सहपाल्याख्यानादिकाः पञ्चातिचारा भवन्ति, आदिशब्देनरहस्यास्यान-स्वदारमन्त्रभेद-भूपेोपदेश- कूटलेखकरणानां ग्रहणं भवति । तत्रसहसा राख्यानम् - अटित्यावेशवशाद्विचारमकृत्वा-कस्यचिदुपरि मिथ्यादोषारोएणम्, यथा-'त्वं चौर:- इयं डाकिनी' इत्यादिरूपकम्-१ रहस्याभ्याख्यानम्रहसि-एकान्वे भवं रहस्यं तस्मिन्नभ्याख्यान-मिथ्याभियोगो रहस्याभ्याख्यानम् -२ स्त्रदारमन्त्रभेदः-स्वस्य दारा: पत्नीस्वदारास्तेपो मन्त्रो विसम्मभापणं तस्य भेदः परस्मै कयनम् ३ मृषोपदेशः-तृषा-मिथ्यात्वस्य य उपदेशः ऐहिकामुष्मिका. भ्याख्यान आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैं-स्थूलमृयावाद विरमण नामक दूभरे अणुवन के सहसाभ्याख्यान आदि पांच अतिचार होते हैं । 'आदि' शब्द ले रहस्याभ्याख्यान, स्वदारमंत्र भेद, मृषोपदेश और कूटलेख करण नामक अतिचारों को ग्रहण करना चाहिए। ___आवेश के वशीभूत होकर विचार किये बिना ही झटपट किसी के उपर मिथ्यादोषारोपण कर देना सहसाभ्याख्यान कहा लाता है, जैले-तू चोर है, यह डाकिनी है, इत्यादि । रहसू अर्थात एकान्त में जो हो वह रहस्य कहलाता है। उसमें मिया अभियोग करला रहस्यावाख्यान है । अपनी पत्नी ने विश्वास करके जो कहा हो उसे दूसरे पर प्रार कर देना स्वदारमंत्र भेद है। मिथ्या उपदेश પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે બીજા અણુવ્રતના સહસાભ્યાખ્યાન આદિ પાંચ અતિચારેની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ સ્થળમૃષાર વિરમણ નામક બીજા અણુવ્રતના સહસાવ્યાખ્ય ન આદિ પાંચ અતિચાર હોય છે “આદિ શબ્દથી રહય લ્યાખ્યાન, સ્વદારમંત્રભેદ, મ્રપદેશ અને ફૂટપકરણ નામના અવિચારોનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. આવેશને વશીભૂત થઈને વગર વિચાર કર્યો જ એકદમ કેઈની ઉપર મિાટે વારે પણ કરી નાખવું સહસ જ્યાખ્ય ન કહેવાય છે જેમ કે- તું ચેર છે, આ ડાકણ છે વગેરે રહસ્ અર્થાત્ એકાન્તમાં જે થાય તે રહસ્ય કહેવાય છે તેમાં મિથ્યા અભિગ કરે રહસ્યાભ્યાખ્યાન છે. પિતાની પત્નીએ વિશ્વાસ રાખીને જે કહ્યું હોય તે અન્ય ૫સે જાહેર કરી દેવું વદારમંત્રભેદ કહેવાય છે મિસ્યાઉપદેશ આપે મૃપદેશ છે અર્થાત્ આ લેક Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.४२ अणुव्रतानां दिग्वतानां पञ्चातिचारा: ३१९ भ्युदयनिःश्रेयसविषये सन्दिहानजनपृष्टेन तत्मार्थमजानताहिमादिसम्पृक्तम्, विपरीतोपदेशदानं-मृयोपदेशः ४ कूटलेखकरणम् कूटम् असद्भूतं वस्तु तस्य लेख: तद्रूया क्रिया कूटले वक्रिया- परवञ्चनार्थ मन्यदीयमुद्राङ्कित लिपेग्लुकृत्य लेखनम् ५ न्यासापहारलेखनं च । इत्येते सहसाभ्याख्यानादिकाः पञ्च धूल मृपावादविरमणलक्षण द्वितीयाणुव्रतस्याऽतिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः ॥४२॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व ताबद्-देशतोऽहिंसालक्षणमथमाणुव्रतस्य बन्धवधादयः पञ्चाविचाराः परूपिताः, सम्पति-क्रममाप्तस्य स्थूरमृपावादविरमण लक्षण द्वितीयाणुव्रतस्य सहसाभ्याख्यानादीन् पञ्चातिचारान् परूपयितुमाहदेना मृषोपदेश है अर्थात् हम लोक संबंधी अभ्युदय या परलोक संबंधी मोक्ष आदि के विषय में सन्देहशील किसी पुरुष के पूछने पर, तत्त्वार्थ को जानते हुए भी हिंसायुक्त विपरीत उपदेश देना ऋषोपदेश है। असद्भन तथ्य का लेखन करना अर्थात् दूसरों को धोखा देने के लिए अन्य मोहर आदि से युक्त लीपिका अनुकरण करना या झुठे दस्तावेज वहीखाते आदि लिखना कूः लेखकरण कह लाता है ! किसी की धरोहर का अपहरण कर लेना न्यालापहार है। यह सहसाभ्याख्यान आदि स्थूल मृषावाद विरमणा के पांच अतिचार जानने चाहिए पर इनका आचरण नहीं करना चाहिए ॥४२॥ ___ तत्त्वार्थनियुक्ति-एकदेश हिंसात्याग रूप प्रश्म अणुव्रत के पांच अतिचारों का प्ररूपण पहले किया गया है। अब कम प्राप्त स्थूल मृषावाद विरमण नोमक दुसरे अणुव्र । के स्वहाख्यान आदि સંબંધી અભ્યદય અથવા પરલેક સંબંધી મેક્ષ વગેરેના વિષયમાં શ કાશીલ કઈ પુરૂષના પૂછવાથી, તત્ત્વાર્થને ન જાણતા હેવા છતાં પણ હિંસાયુક્ત વિપરીત ઉપદેશ આપે એ મૃષપદેશ છે. અસદુભૂત સત્યનું લેખન કરવું અર્થાત બીજાને છેતરવા માટે બીજાની મેહર વગેરેથી યુક્ત લીપિનું અનુકરણ કરવું અથવા ખોટા દસ્તાવેજ ખાતાવહી વગેરે લખવા ફલેખકરણ કહેવાય છે કેઈની થાપણ ઓળવવી ન્યાસાપહાર છે. સહસાભ્યાખ્યાન આદિ સ્થૂળ મૃષાવાદ વિરમણ વ્રતના આ પાંચ અતિચાર જાણવ ચે.ગ્ય છે પરંતુ આચરવા યોગ્ય નથી. ૫૪રા તત્વાર્થનિયુક્તિ–એકદેશ હિંસાત્યાગ રૂપે પ્રથમ અણુવ્રતના પાંચ અતિચારેનું પરૂપણ પહેલા કરવામાં આવ્યું છે. હવે કપ પ્રાપ્ત રધૂળમૃષ વાદ વિરમણ નામના બીજા અણુવ્રતના સહસાભ્યાખ્યાન આદિ પંચ અતિચારોની Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨૦ 1 naries 'पीस अणुवास सहखाणाश्या पंच अश्यारा' इति । द्विवीयस्य मृगवादविरतिलक्षणस्याऽणुत्र नस्य सहसाभ्याख्यानादिका:- मृत्रोपदेशऽसदुपदेशः परेणान्यस्थ छलनस्, स्वयं वाऽल्पस्य छलनम्, अतिसन्धानम् ततो विरति लक्षणाणुत्रस्य सहमाभ्याख्यानम् विचारमकुर्वाणः सहसा वेश्वशात्वस्य चिदुपरे मिथ्यादोषारोपणम् १ आदिना - रहस्याभ्याख्यानम्, रहस्येकान्ते भवं रहस्यम् - तस्याभ्याख्यानम् अमितः प्रकाशनम्, रहस्येवाऽभ्याख्यानम्, असदध्यारोपणम् १ रवदारमन्त्रभेदः स्वस्य दाराः पत्नी तेपां मन्त्रो विश्रम्भालापः तस्य भेदः परस्थस् ३ मृषोपदेशथ - नानाविधः सम्भवति, यथा- प्रमत्तस्य परपीडा जननवचनम्, वाद्यन्तं खरोष्ट्राः हन्यन्तां दग्युचौराः इत्यादि, अयथार्थी पदेशवचनम् - यथा-सन्देहान्नेन केनचिद - जीवादितत्वस्वरूपं पृष्टः सन् पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैं , दूसरे अणुवन के सहताभ्याख्यान आदि पांच अतिचार है । मृषो देश अर्थात् अलस्य उपदेश, पर के द्वारा दूसरे को छलना या स्वयं दूसरों को छलना । पोपदेश से विरत होना जिसका लक्षण है, ऐसे द्वितीय अणुव्रत के सहलाभ्याख्यान आदि पांच अतिचार है । विचार किये बिना ही, आवेश के अधीन होकर एकदम किसी पर मिरादोषारोपण कर देना सहसाभ्याख्यान कहलाता है। किसी के रहस्य को अर्थात् गुप्त बात को प्रकाशित कर देना रहस्याभ्याख्यान है | अपनी पत्नी की विश्वास पूर्वक कही हुई गुप्त बात को दूसरों को जाहिर कर देना स्वदारमन्त्र भेद है । मृषोपदेश अनेक प्रकार का हो सकता है, जैसे किसी ने संदेह के वशीभूत होकर પ્રરૂપણા કરીએ છીએ- બીજા અણુવ્રતના સહુસાભ્યાખ્યાન આદિ પાંચ અતિચાર છે. સૃષપદેશ અર્થાત્ અસત્ય ઉપદેશ બીજા દ્વારા ટાઇને છેતરવા અથવા જાતે જ ખીજાને છેતરવેા ભૃષપદેશથી વિરતા થવુ' જેવુ લક્ષણુ છે એવા ખીજા અણુવ્રતના સહુસાભ્યાખ્યન આદિ પાંચ અતિચાર છે. વિચાર કર્યાં વગર જ, આવેશને તાબે થઈ ને એકદમ કોઈ ઉપર મિથ્યાદષારોપણ કરી નાખવું સહસાભ્યાખ્યાન કહેવાય છે કે ઇના રહસ્યને અર્થાત્ છાની વાતને જાહેર કરી દેવું હસ્યાભ્યાખ્યાન છે. પાતાની પત્નીની વિશ્વાસપૂર્વક કહેવામાં આવેલી ગુપ્ત વતને બીજા આગળ જાહેર કરી દેવી સ્વદારમત્રભેદ કહેવાય છે. મૃષપદેશ અનેક પ્રકારના હાઇ શકે છે જેમ કેફાઇએ સંદેહને વશ ભૂત થઈને કઈ જીવાદિના વિષયમાં પ્રશ્ન કર્યાં, પરંતુ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका- नियुक्ति टीका अ. ७ ० ४२ अणुव्रतानां दिग्वतानां पञ्चातिचारा: ३२१ कचिन्नयथार्थतया प्रतिपादयति, अपितु - अयथार्थतयैवेति तद्वचनमपि मृषो पदेशः १ एवं विवादरूपकलहे सति तत्राऽन्यत्र वाऽन्यतरस्य छलनोपदेशवचनं मृषोपदेशः १ पर्व - द्यूतादि विषयकच्छलनवचनाद्यपि पृषोपदेशग्रहणेन ग्रहीतव्यम् ४ कूटलेखकरणम् - कूटलेखक्रिया कूटस्याऽसद्भूतस्य ठेखकरणम् अन्य मुद्राक्षराकारस्वरूप ले खकरणम् न्यासापहार लेखनं च तत्र - न्यासापहारः न्यस्य ते स्थाप्यते पुनग्रहणायेति न्यासः स्थापितयकथनादिः तस्य पुनरादानाय स्थापि तस्य रूप्यकादेरपलापकं वचनं न्यासापहारः येन वचनेन करणभूतेन व्यासोऽपहियतेऽपलप्यते तद्वचनं न्यासापहार इत्यर्थः अधिकतया स्थापितद्रव्यस्य न्यूनतया किसी से जीवादि के विषय में प्रश्न किया, मगर वह यथार्थ उत्तर नहीं होता, वरन् अयधार्थ उत्तर देना है तो उसका वचन मृषोपदेश है । इसी प्रकार विवाद रूप कलह होने पर वहीं या अन्यन्त्र, किसी एक को छलने का उपदेश मृषोपदेश है । इसी प्रकर जुआ आदि संबंधी छलना के वचन मृत्रोपदेश में अन्तर्गत होते हैं । झूठा लेख लिखना कूटलेखक्रिया है । दूसरे को मुद्रा अथवा हस्ताक्षर स्वरूप लेख लिख लेना, झूठा दस्तावेज या बहीखाता लिखना आदि सब कूटलेखक्रिया में अन्तर्गत है । वापिस लेने के लिए जो धरोहर रक्खी जाती है, उसे न्यास कहते हैं । धरोहर के रूप में रक्खे हुए धन या रूपया आदि का अपलाप करना - उससे मुकर जाना न्यासापहार है । तात्पर्य यह है कि जिस वचन के द्वारा न्याम - धरोहर का अहरण किया जाना है वह वचन તેના યથા ઉત્તર આપને નથી પરન્તુ અયથા ઉત્તર આપે છે તેા તેનુ વચન મૃષાપદેશ છે. એવી જ રીતે વિવાદરૂપ કલહુ હાવાથી ત્યાં જ અથા અન્યત્ર કેાઈ એકને છેતરવાના ઉપદેશ આપવા એ પણુ મૃષાદેશ છે. આવી રીતે જુગાર આદિ સંબધી કપટ યુક્ત વન પણ મૃષાપદેશમા સમ વિષ્ટ થાય છે ખાટા લેખ લખવા ફૂટલેખક્રિયા છે. ખીજાની મુદ્રા અથવા હરતાક્ષર સ્વરૂપ લેખ લખી લેવા, ખેટે દસ્તાવેજ અથવા ખાતાવહી લખન વગેરે બધાના ફૂલેખન ક્રિયામાં સમાવેશ થઈ જાય છે પાછી લેવા માટે જે થાપણ રાખવામાં આવે છે, તેને ન્યાસ કહે છે. થાપણરૂપે રાખવા આવેલા ધન અથવા રેકડ આદિ છીનવીલેવા-તે આપવામાં ઇન્કાર કરવા ન્યાસાપહાર છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે વચન દ્વારા ન્યાસ થાપણું-નું અપહરણ કરવામાં આવે છે તે વચન ન્યાસાપહાર કહેવાય છે. વધારે રાખેલી થાપણને આછા રવરૂપે પરત કરવા સ'બ'ધીનું વચન ન્યાસાહાર त० ४१ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % DED ३२३ तस्वार्य प्रत्यर्पणवचनं न्यासापहारः ५ तथाचे-ये सहसाभ्याख्यानादयः स्थूल मृपावाद. विरमणलक्षणस्य णुव्रतस्याऽतिचारा आत्मनः परिणति विशेषा भवन्ति । एतेऽतिचारा ज्ञातव्या एवं किन्तु वाभङ्गहेतुकत्वेन न समाचरणीया 'पंच अइयारा जाणेयाबाद स्लमायरेषा ' इति भगवदाज्ञा सदाबात् । इस्थ मत्र संग्रहगाथा: अन च पञ्चालिचा उच्चन्त लक्ष्य लक्षणोपेताः । सहलायाख्यानं तथा, अभ्याख्यानं रहस्यस्य ॥१॥ 'निजदारमन्त्र भेदो मृषोपदेशश्च कूटलेखश्च । एतेषां पञ्चानां क्रमशो रूपं मण्यतेऽग्रे ॥२॥ 'अविचारं यो मिश्या दोषारोपः परत्र त्वं चौरः । त्वं नीच इत्येवं सहावारूपान भागमे उक्तम् ॥३॥ न्यासापहार कहलाता है। अधिक रक्खी हुई धरोहर को अल्प रूप में वापिस्त लौटाने का वचन यासापहार है। इस प्रकार से सहसाभ्याख्यान आदि स्थूल मृपावाद विरमण न के अतिचार हैं जो आत्मा का विशिष्ट परिणतिरूप हैं। ये पांच अतिचार सिर्फ जानने योग्य है किन्तु बनभंग के कारण होने से आचरणीय नहीं हैं, क्यों कि भावान् की ऐसी आज्ञा है: कि-'पांच अतिचार जानने चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। __यहां यह संग्रह गाथा है। यहां लक्ष्य और लक्षण से युक्त पांच अतिचार कहे जाते हैं 'सहसाभ्याख्यान, स्याम्पारपान, स्वदारमन्त्र भेद, मृषोपदेश - और कूटलेख, ये पांच अतिचारों के नाम हैं। इन पांचों का स्वरूप आगे कहा जाता है છે આવી રીતે સહસાવ્યાખ્યાન આદિ ધૂળમૃષાવાદ વિરમણ વ્રતના અતિચાર છે. જે આત્માની વિશિષ્ટ પરિણતિ રૂપ છે. આ પાંચ અતિચાર માત્ર જાણવા ગ્ય છે પરંતુ વ્રતભંગના કારણ હોવાથી આચરણીય નથી. કારણ કે ભગવાનની એવી આજ્ઞા છે કે-પાંચ અતિચાર જાણવા જોઈએ, તેમનું આચરણ કરવું જોઈએ નહીં.' - અહીં આ સંગ્રહગાથા છે. અત્રે લય અને લક્ષણથી યુક્ત પાંચ અતિચાર કહેવામાં આવે છે 'सडसाल्याच्यान, २त्याच्याश्यान, पहारभत्रमेह, भूषापहेश मन લેખ, આ પાંચ અતિચારોના નામ છે. આ પાંચેનું સ્વરૂપ હવે પછી કહેવામાં આવે છે Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 दीपिका -निर्युक्ति टीका अ. ७ . ४२ अणुव्रतानां दिव्रतानां पञ्चातिचाराः ३२३ 'एकान्ते मित्र गुह्यं, यत्किमपि मन्त्रयत्सु मिथ्यादोषारोपोऽभ्याख्यानं रहस्यमाख्यातम् ॥४ ॥ 'निजत्री मित्रादीनां संभेदो ह्यमन्त्रप्रभृतेः - निजदारमन्त्रभेदो ज्ञातव्योऽथ मृषोपदेशः सः ॥५॥ यदभ्युदये निःश्रेयसे च सन्देहग्रस्त चित्तेन । पृष्टो मियोपदिशति तत्वार्थस्यापरिज्ञानात् ॥६॥ हरतादि कौशलेनानुकरणं यत्पराक्षरादीनाम् । परवश्चबुद्धया विज्ञेषा कूटलेखक्रिया सा ||७|| इति (१) विचार किये बिना ही दूसरे पर मिथ्या दोषारोपण करना सहसाम्याख्यान अतिचार है, जैसे- तू चोर है, तू नी है इत्यादि । (२) एकान्त में मित्रों ने कुछ गुप्त मन्त्रणा की है, ऐसा मिथ्या दोषारोप करना रहस्याभ्याख्यान कहलाता है । (३) अपनी स्त्री या मित्र आदि की गुप्त बात को प्रकाशित कर देना स्वदारमन्त्रभेद है । (४) अभ्युदय या निश्रेयस् के विषय में सन्देहवान् किसी पुरुष के द्वारा प्रश्न करने पर, वास्तविक बात को नहीं जानते हुए मिथ्या उत्तर देना मिोपदेश कहलाता है । (५) दूसरे को ठगने के अभिप्राय से, हाथ, की सफाई से दूसरे के हस्ताक्षरों की नकल करना कूटलेखक्रिया है ॥१-७॥ (૧) વિચાર કર્યા વગર જ ખીજા પર મિથ્યાદેષારોપણ કરવું સહસાભ્યાખ્યાન અતિચાર આાગમમાં કહેલ છે, જેમ કે-તૂ ચેાર છું, તૂ' નીચ છુ' વગેરે. (૨) એકાન્તમાં મિત્રએ કે!ઇ ગ્રુપ્ત મ ́ત્રણા કરી છે, એવું મિથ્યાદેષારાપણુ કરવુ” રહસ્યાભ્યાખ્યાન કહેવાય છે. (૩) પેાતાની સ્ત્રી અથવા મિત્ર વગેરેની છાની વાતને જાહેર કરવી સ્વદારમત્રભેદ છે. (૪) અભ્યુદય અથવા નિશ્રેયસના વિષયમાં શકાશીક કોઈ પુરૂષ દ્વારા પ્રશ્ન પૂછવાથી, વાસ્તવિક સત્યને ન જાણુતા છતાં મિથ્યા ઉત્તર આપવા મિએ પદેશ કહેવાય છે. (૫) બીજાને છેતરવાના આશયથી, હાથચાલાકીથી, ખીજાના હસ્તાક્ષરેની नस ४२वी टोडिया हे ॥१-७ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %D0 तत्त्वार्थसूत्र उक्तञ्चोपासकदशाङ्गे १ अध्याये-'थूल मुसावायवेरमणस पंच अइ. धारा जाणियन्या, न समायरियन्या, तं जहा सहसभक्खाणे-रहसाभक्खाणे-लदारसंतभेए-मोसोवएसेए-कडलेहकरणे' इति । स्थूलमृपावाद विरमणस्य पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा सहसाभ्याख्या नम्-स्वदारमन्त्रभेदः मृपोपदेशः- कूटलेखकरणं च-' इति ॥४२॥ मूळम्-तइयल्स तेडाहडाइया पंच अइयारा ॥४३॥ छाया--तृतीयस्य स्तेनाहनादिकाः पञ्चातिचाराः ॥३॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे-क्रमप्राप्तस्य स्थूल मृपावादविरमणस्य द्वितीया | वनस्य सहसाभ्याख्यानादिकाः पश्चातिचाराः मरूपिताः, सम्पति स्तेनाहृतादिकान् पञ्चातिचारान् प्ररूपयितुमाह-'तक्ष्यस्स तेडाहडाइया पंच अश्यारा' इति । कृतीयस्य स्थूलादत्तादानविरतिलक्षणस्थाणुव्रतस्य स्तेन्हतादिकाः आदिना-तस्क उपासकदशांग के प्रथम अध्ययन में कहा है-स्थूलमृषावादविरमणवत के पांच अतिचार जानना चाहिए किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे अतिचार यों है-सहसाम्याख्यान, रहस्याभ्या. यान, स्वदारमन्त्रभेद, मृषोपदेश और कूटलेखकरण ॥४२॥ 'तझ्यस्त तेणाहडाइया' इत्यादि। मूत्रार्थ-स्तेमाहन आदि तीसरे अणुव्रत के अतिचार हैं ॥४३॥ - तत्वार्थदीपिका-पूर्वस्त्र में क्रमप्राप्त स्थूलमृपावाद विरमण नामक दूसरे अणुवन के सहसाभ्याख्यान आदि अतिचार बतलाये गये, अब क्रमप्राप्त स्थूल स्तेय विरमण नामक तीसरे अणुत्रन के स्तेनाहन आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैं ઉપાસકદશાંગના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે– ધૂળમૃષાવાદ વિરમણ વ્રતના પાચ અતિચાર જાણવા ગ્ય જરૂર છે પરંતુ આચરવા ગ્ય નથી આ અતિચાર આ પ્રમાણે છે-સહસાભ્યાખ્યાન, રહસ્યાભ્યાખ્યાન, સ્વદારમંત્રભેદ, મૃષપદેશ અને ફૂલેખકરણ ૪૨ 'तइयम्स वेडोहडाइया पंच अइयारा' त्यादि સૂત્રાર્થ–તેનાહત વગેરે ત્રીજા અણુવ્રતના અતિચાર છે. ૪૩ તત્વાર્થદીપિકા-પૂર્વસૂત્રમાં કમપ્રાપ્ત સ્થળમૃષાવાદ વિરમણ વ્રત નામના બીજા અવ્રતના સહસાભ્યાખ્યાન આદિ પાંચ અતિચાર બતાવવામાં આવ્યા હવે કેમપ્રાપ્ત રધૂળસ્તેય વિરમણ નામના ત્રીજા અણુવ્રતના તેનાહુત ખાદિ પાંચ અતિચારની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४३ तृती पाणुव्रतस्य पञ्चातिचारनि, ३२६ प्रयोग-२ विरुद्धराजपातिक्रम ३ कूटतुलाकूटयान ४ तत्पतिरूपा.व्यवहारश्चे ५ त्ये ते पश्चातिचारा आत्मनो मालिन्योत्पादकाः परिणतिविशेषा भवन्ति । तत्रस्तेन हृतं-स्तेन चौरा चौर्यवृत्या समानीतहिरण्यादेः चोरितस्य वस्तुनो लोभ पारवश्यादरमूल्यव्ययेन ग्रहणम् १ तस्करमयोगः तस्कराणां-चौराणा प्रयोगः 'हरत यूयं परधनादिकम्' इत्यादिवाक्यैः प्रेरणं चौर्यार्थ चौराय साह प्रदानम् २ विरुद्वराज्यातिक्रमश्च उचितन्यायात्मकारान्तरेण दान-ग्रहण मात क्रमः, रान अज्ञादि स्वीकरणम्-अविरुद्ध कर्म राज्य मुच्यते, विरुद्धश्च तद्राज्य तीसरे स्थूल अदत्तादान विरमण नामक अणुव्रत के पांच अतिचार हैं-(१) स्तेनाहत (२) तस्कर प्रयोग (३ विरुद्ध राज्यातिक्रम (४) कूटतुलाकूटमान और (५) तत्प्रतिरूपक पवहार । ये पांच अतिचार . आत्मा में मलिनता उत्पन्न करने वालेमात्मा के परिणाम विशेष हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है____ (१) स्तेन का अर्थ चोर है । चोरों द्वारा चोरी करके ल ये हुए सोने-चांदी आदि द्रव्य को लोभ के वश होकर अल्प भूल्य में खरीद लेनो स्तेनाहत अतिचार है। (२) तस्करों अर्थात् चोरों को प्रेरणा देना, जैसे-'तुम पराये धन का हरण करो' इत्यादि फहकर उन्हें उत्साहित करना चोरी के लिए प्रेरित करना स्तेनप्रयोग है। (३) उचित या न्यायसंगत तरीके से विपरीत किसी अन्य प्रकार से ग्रहण करना अतिक्रम कहलाता है । राजा की आज्ञा आदि को ત્રીજા સ્થળ અદત્તાદાન વિરમણ નામના અણુવ્રતના પાંચ અતિચાર છે– (१) स्तेनाइत (२) त२४२प्रया (3) १३४२२४ातम (४) टमाटमान અને (૫) તત્પતિરૂપક વ્યવહાર આ પાચ અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરનારા આત્માના પરિણામ વિશેષ છે. એમનું સ્વરૂપ નીચે મુજબ છે (૧) સ્તનને અર્થ ચોર છે. જે દ્વારા ચેરી કરીને લવાયેલા સેના ચાંદી વગેરે દ્રવ્યને લે ભને વશ થઈને ઓછી કિંમતે ખરીદી લેવું તેનાહન અતિચાર છે. (૨) તસ્કર અર્થાત્ ચેરોને પ્રેરણા આપવી, જેમ કે તમે પારકા - ધનનું હરણ કરે વગેરે કહીને તેમને ઉત્સાહિત કરવા, ચેરી માટે પ્રેરિત કરવા રતનપ્રગ છે. (૩) ચોગ્ય અથવા ન્યાયસંગતથી વિપરીત કઈ અન્ય પ્રકારથી ગ્રહણ કરવું અતિક્રમ કહેવાય છે. રાજાની આજ્ઞા વગેરેને સ્વીકાર કર, તેનાથી Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ तत्वार्थ ञ्चति विरुद्धराज्यं हिमन् राज्येऽतिक्रमो विरुद्धराज्यातिक्रमः मित्रराष्ट्रापमाना. सुव्यवसायी परराष्टोपकारक ठपवहारो यथातथा बोध्यः ३ कूटतुला-कूटमान करणस्य-शेटकादि-प्रस्थादिकं काष्ठादिरचितपात्र विशेषो मानं तुलादिक मुन्मानञ्च एतेन न्यूनेने-तरेभ्यो धान्य-मुत्रर्णादिकं दातव्यम्, एतेनाऽधिकेन चात्मनः स्वार्थ ग्राह्य मित्येवं प्रकृति कूटमयोगरूपमवसे यम् ४ तत्मेतिरूपक व्यवहारश्च-प्रति रूपकैः कृत्रिमहिरण्यसहरी स्ताम्र रूप्यरचितेद्रम्मैवञ्चना पूर्वक: क्रयविक्रयरूपो व्यवहारोऽयगन्तव्यः । तथा च ताम्रण घटिताः रूप्येण-सुवर्णन च घटताः, ताम्र रूपयाचाच घटिता द्रम्मा हिरण्य सहशा भवन्ति. तादृशा द्रम्माः केनचित्पुरुषेण स्वीकार करना, उसले विरुद्ध कार्य न करना अविरुद्ध राज्य में अति. क्रम करना विरुद्ध राज्यातिक्रम कहलाता है। तालर्य यह है कि मित्र राज्य का अपमान करनेवाला एवं परराष्ट्र के लिए उपकारक व्यवहार विरुद्ध राज्यानिक्रम है। (४) धान्य आदि नापने का लकडीआदि का बना हुआ नाप मान कहलाता है । तराजू आदि को उन्मान कहते हैं छोटे मोन-उन्मान से दूसरों को धान्य या लुबर्ण आदि देना और बडे से अपने लिए लेना, इस प्रकार का व्यवहार कूटतुलाकूटमान कहलाता है। (५) असली बस्तु में नकली चीज मिलाकर उसे अमली के रूप में वेचना तत्प्रतिरूपक व्यवहार कहलाता है । जैसे-घनावटी, चांदी जैसे, ताम्र एवं रूप से निर्मित सिको ले ठगाई करने के लिए क्रय-विक्रय વિરૂદ્ધ કાર્ય ન કરવું. વિરૂદ્ધ રાજ્યમાં અતિક્રમ કરવુ વિરૂદ્ધ રાજ્યતિક્રમ કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે મિત્ર રાજ્યનું અપમાન કરનાર અને પર રાષ્ટ્રના માટે ઉપકારક વ્યવહાર, વિરૂદ્ધ રાજાતિક્રમ છે. (૪) અનાજ વગેરે જોખવાનું લાકડા વગેરેથી બનેલું માપન્માન કહે વાય છે. ત્રાજવા આદિને ઉન્માન કહે છે. નાના–ઉન્માનથી બીજાને નાજ અથવા સુવર્ણ વગેરે આપવું અને મોટા વડે પિતાના માટે લેવું, આ જાતને વ્યવહાર ખુલાકૂટમન કહેવાય છે. (૫) અસલી વસ્તુમાં બનાવટી ચીજ ભેળવી દઈ ને તેને મૂળ વસ્તુના રૂપ માં વેચ થી તિરૂ વ્યવડાર કહેવાય છે. જેમ કે બનાવટી ચાંદી જેવા તાંબા અને રૂપાથી બનાવવામાં આવેલા સિકકાઓથી ઠગાઈ કરવા માટે કયવિક્રય વ્યવહાર કર. તાંબાથી બનાવેલા, ચાંદી–સોનાથી બનાવેલા અને તાબા તથા રૂપાથી બનાવેલા સિક્કા હિરણ્ય જેવા હેય છે. આવા સિક્કા Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. सू. ४३ तृतीयाणुव्रतस्य पञ्चातिचारनि० ३२७ छोकचनार्थ रचिताः भवन्ति, त एक दुश्माः पतिरूरका पदिश्यन्ते, ते खलु' प्रतिरूपकैः क्रयविक्रयव्यवहारः प्रतिरूपकव्यवहार उच्यते, ते तस्करमयोगादयः पंच तावत् स्थूल स्तेय विरतिलक्षणतृतीय, णुव्रतस्याऽतिवारा भवन्ति । तस्मात् स्थूलादत्तादानवितिलक्षणं तृतीयाणुव्रतं तहकर प्रयोग दि पश्चाऽविचार जनपूर्वकं परिपालनीयम् ॥४३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:--पूर्व तापद् द्वितीयाणुनतस्य स्थूलतावादविरति लक्षणस्य मृषोपदेशादयः पश्वातिचारा मरूपिताः, सम्प्रति क्रममाप्तस्य स्थूल स्तेयविरविलक्षण तृतीयाणुव्रतस्य स्तेनाहतादिकान् एञ्चातिचारान् प्ररूपयितुव्यवहार करना । तांबे से बने हुए. चोदी ले बने हुए एवं लांचे तथा रूप्पसे बने हुए द्रम्म हिरण्य जैसे होते हैं। ऐसे द्रम (लि) कोईकोई पुरुष लोगों को ठगने के लिए बनाते हैं। उन्हीं द्रम्मों को प्रति. रूपक कहते हैं। उन प्रतिरूपकों से क्रय-विक्रय मनहार करना प्रतिरूपक कहलाता है। तस्करप्रयोग आदि ये पांचों स्थूल स्नेय विपण नामक तीसरे अणुव्रत के अतिचार हैं। अतएव स्थूल अदन्तादान विरति नामक तीसरे अणुव्रत का, तस्करप्रयोग आदि पांच अतिचारों से बचते हुए पालन करना चाहिए ॥४३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पहले स्थलभूषावाद विरति नानक दुमरे अणुवन के मृषोपदेश आदि पांच अतिचारों का प्ररूपण किया गया, अब क्रमप्राप्त स्थूलस्तेय हिरमण नामक तीलरे अणुबन के रलेलाहम आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा करने के लिए हर कार इते हैंકઈ-કઈ પુરૂષ, લોકોને છેતરવા માટે બનાવે છે. તે જ સિકકાઓને પ્રતિરૂપક (નકલી) કહે છે. તે પ્રતિરૂપકેથી કય-વિકય વ્યવહાર કરે પ્રતિરૂપવ્યવહાર કહેવાય છે. તસ્કરપ્રાગ આદિ એ પાંચે યૂળસ્તેય વિરમણ નામના ત્રીજા આપુત્ર તના અતિચાર છે. આથી સ્થૂળઅદત્તાદાન વિરતિ નામનાં ત્રીજી આણુવ્રતના, તસ્કરપ્રાગ આદિ પાંચ અતિચારોથી બચીને તેમનું પાલન કરવું જોઈએ. ૫૪૩ તત્વાર્થનિર્યુકિત-પહેલા સ્થળમૃષાવાદ વિરતિ નામના બીજા અણુ વ્રતના મૃષપદેશ આદિ પાંચ અતિચારોનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું. હવે ક્રમ પ્રાપ્ત કરશૂળસ્તેય વિરમણ નામક ત્રીજા અણુવ્રતના સ્તન હન અદિ પાંચ - અતિચારની પ્રરૂપણ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वार्थसचे ३२८ माह-तश्या लेणाहवाहया पंच अध्यारा' इति । तृतीयस्य स्थूलादत्तादान चिरतिलक्ष गाणुबारक स्तेनाहतादिकाः आदिना-तस्करमयोगविरुद्धराज्यातिक्रम कूटतुल' कूट मानविरूपक एवहारश्चेत्येते पञ्चातिचाराः आत्मनो मलीमसताऽऽपादकाः परिणति विशेपा भवन्ति । तत्र-स्तेनाहृतादयस्तु-रतेनस्तस्करैराहतस्याऽऽनीवस्य सुवर्णनादेशादानम्-मूल्यं विनय, स्वल्पातिस्वल्पमूल्येन वा ग्रहणम् सच्चाऽनेक प्रत्यवाययुक्तं भवति, तस्मात्-तत्परिहर्तव्यम्-१ तस्करप्रयोगस्तावत् च्यादिकं मुष्णन्तं तस्करं प्रयुक्त 'स्वं द्रव्यादिकं मुषाण' इत्येवमपहरणक्रियायां पेरण-सभ्यनुज्ञान का प्रयोगः तस्करप्रयोग उच्यते । यद्वा-परद्रव्यापहरणोपकर स्नान आदि पांच अतिचार तीसरे अणुव्रत के हैं। आदि शब्द ले लहसन योग, विरुद्धराज्यातिक्रम, कुटनुला कूटमान और तत्प्रति रूपक व्यवहार का ग्रहण होता है। इस प्रकार ये पांच अतिचार आत्मा बलीनता उत्पन्न करने वाले परिणामविशेष हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है।-- (१) स्तेनों अर्थात् चोरों द्वारा चुराकर लाये हुए स्वर्ण-वस्त्र आदि पदार्थों को मूल्य चुकाये बिना ही अथवा कम से कम मूल्य देकर ले लेना स्तेनाहृतादान अतिचार है। ऐसा करने में अनेक खतरे होते हैं, अतएव इसका परिहार ही करना चाहिए। ___(२) चोरी करते हुए चोर को प्रेरणा करना तस्कर प्रयोग हैं, जैसे-तृ द्रव्य आदि चुरा ले, इस प्रकार चोरी के लिए प्रेरणा देना था चोरी की आज्ञा देना तस्कर प्रयोग है। अथवा परकीय द्रव्य के તેન હુન આદિ પાંચ અતિચાર ત્રીજા અણુવ્રતના છે “આદિ શબ્દથી તસ્કરબાગ, વિરૂદ્ધ રાજ્યાતિક્રમ, કૂટતુલાકૂટમાન અને ત—તિરૂપક વ્યવહારનું ગ્રહણ થાય છે. આ રીતે આ પાંચ અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરન ર પરિણામ વિશેષ છે. એમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (૧) તેનો અર્થાત્ ચેરો દ્વારા ચેરીને લાવેલા સુવર્ણ–વસ્ત્ર આદિ પદાર્થોને કીમત ચૂકવ્યા વગર જ અથવા ઓછામાં ઓછી કીમતમાં લઈ લેવા સ્તન હુતદાન અતિચાર છે આ પ્રમાણે કરવામાં અનેક જોખમો હોય છે આથી તેમને ત્યાગ કરવામાં જ શ્રેય છે. (૨) ચેરી કરતા ચારને પ્રેરણા કરવી તસ્કરડ્રગ છે જેમ કે તું દ્રવ્ય દ. આદિ ચોરી લે, આ રીતે ચેરી કરવા માટે પ્રેરણા આપવી અથવા ચેરીની આજ્ઞા આપવી તસ્કરગ છે અથવા પકીય દ્રવ્યના અપહરણના ઉપકરણ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ २. ४३ तृतीयस्याणुवतस्य पञ्चातिचारनि० ३२९. ... णानां कर्तरिकादीनां प्रयोगस्तस्करप्रयोगो बोध्यः । एवविधमुपकरणं नाणुरतिना सम्पादनीयं, नवा-विक्रेतव्यम् २ विरुद्धराज्यातिक्रमश्च-परस्परं विरुद्धयोः .. राज्ञोः राज्याऽतिक्रमणम् -उल्लङ्घनम् एकतरराज्यबासिनो लोभाद् द्वेषाद्वाऽन्यस्य , राज्ये वस्तूनि व्यवहरन्ति अन्यराज्यनिवासिनो पा तदितर राज्यं विनाज्ञां .. गच्छन्ति इत्येवं विरुद्धराज्यातिक्रमो बोध्या परस्परं विरुद्धराज्य कृत श्वस्थो.. ल्लङ्घनात्मकं सर्वमपिदानाऽऽदानादिक स्तेय युक्तम् तस्मात्-खलु विरुद्धराज्या. तिक्रमो न कर्तव्यः ३ कूट तुला कूटमानकरणम् शेटकादि प्रस्थादिकं काष्ठादिरचितपात्रविशेषो चा मानं तुलादिक मुन्मानञ्च यूनेनतेनेनरेभ्यो धान्य सुवर्णादिकं .. अपहरण के उपकरण कनरनी आदि के प्रयोग को लस्कर प्रयोग कहते -- हैं। अणुव्रती को ऐसे उपकरण न बनाना च हिए और न वेचना चाहिए (३) परस्पर विरोधी दो राजाओं का राज्यातिक्रम-उल्लंघन करना विरुद्ध राज्यातिक्रम हैं । किसी एक राज्य के निवासी लोभ या द्वेष के कारण दूसरे राज्य में वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते हैं, या अन्य राज्य के निवाली दूसरे राज्य में बिना आज्ञा के चले जाते हैं । इस प्रकार विरुद्ध राज्यातिन समझना चाहिए । तात्पर्य यह कि परस्पर विरोधी राज्यों द्वारा की गई व्यवस्था का उल्लंघन करके दान-आदान आदि करना स्तेय (चोरी) है अतः ऐसा नहीं करना चाहिए। ' (४) सेर मन आदि तथा लकडी आदि के बने हुए नाप मान कहलाते हैं और तराजू आदि उन्माद कहलाते है। छोटे मान उन्मान से दूमरे को धान्य या स्वर्ण आदि देना और बडे से अपने કાતરવું વગેરેના પ્રયોગને તસ્કરપ્રવેગ કહે છે અણુવતીએ આવા ઉપકરણ ન તે બનાવવા જોઈએ અથવા ન વેચવા જોઈએ. (૩) પરસ્પર વિરેાધી બે રાજાઓનું રાજ્યાતિકમ ઉલ્લંઘન કરવું વિરૂદ્ધ ૨.જ્યાતિક્રમ છે. કોઈ એક રાજ્યના નિવાસી લોભ અથવા ઈષ્યના કારણે બીજાના રાજ્યમાં વરતુઓને કય-વિક્રય કરે છે અથવા અન્ય રાજ્યના નિવાસી બીજાના રાજ્યમાં વગર ઉજાએ ચાલ્યા જાય છે. આ રીતે વિરૂદ્ધ રાજ્યાતિકમ સમજવું જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે પરસ્પર વિરોધી રાજ્ય દ્વારા કરવામાં આવેલી વ્યવસ્થાને અનાદર કરીને દાન-આદાન વગેરે કરવા स्तेय (यश) छ साथी 41 मारे । ४२७ नये. ., (४) से२, ११ मावि तथा al.! वगेरेना मनावर भा५, भान કહેવાય છે અને નવા વગેરે ઉન્માન કહેવાય છે. નાના માન-ઉન્માનથી त० ४२ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAREL तस्वार्थ सूत्र हातव्यम्, एतेनाऽधिकेन चात्मनः स्वार्थमाद्यमित्येवं प्रकृति कूटप्रयोगरूपमंसे यस्-४ कूटतुलाङ्कटमानाभ्यां वचनादियुक्तः क्रयो-विक्रयश्च न कर्तव्यः । प्रतिरूपक व्यवहारः पुन:-सुवर्णरूप्यादीनां द्रव्याणां पतिरूपकक्रियात्मको बोध्या। बघथा-सुवर्णस्य प्रतिरूपक्रिया तावत् यादृशं सुवर्ण भवति, तादृशमेवाऽन्य द्रव्यभयोगविशेषाद् वर्णगुरुत्वादिगुणयुक्तं निष्पादयति, एवम्-रूप्यादिकमपि यादृशं भवति-साशमेव रङ्गादि द्रव्यं निष्पादयति, एव मन्यदपि-प्रतिरूपकमवगन्तव्यम् थवाऽन्यैरपहतानां गवादीनां व्याजीकरणानि सशृङ्गाणां गवादीनां शङ्गाणि-अग्नि पक्वानि अधोमुखानि प्रगुणानि तिर्यकलितानि वा यथेच्छ कतुं शक्यन्ते. येनालिए लेना, यह कूटतुलाकूटमान कहलाना है । ठगाई की बुद्धि से झूठा लोलना था नापना उचित नहीं है। (५) सोने-चांदी आदि में उसी के सदृश किसी दूसरी धातु का सम्मिश्रण करके लोने-चांदी के रूप में वेचना अथवा किसी भी वस्तु में मिलावट करके बेचना तत्प्रतिरूपक व्यवहार कहलाता है। सुवर्ण का जैसा वर्ण आदि होता है उसी प्रकार का अन्य द्रव्यों के प्रयोग विशेष से वर्ण, वजन आदि से युक्त द्रव्य तैयार करना सुवर्ण की प्रतिरूपक क्रिया है। इसी प्रकार चांदी बनावटी तैयार कर लेना भी तत्प्रतिरूपक्रिया कहलाती है। इसी तरह अन्य वस्तुओं के विषय में समझ लेना चाहिए, यथा-सींग सहित गाय आदि के सींग अग्निपक्व, अधोमुख, सीधे या तिर्छ इच्छानुसार किये जा सकते हैं, जिस બીજાને અનાજ અથવા સુવર્ણ વગેરે આપવા અને પિતાના માટે મોટાને ઉપગ કરે, આ ફૂટતુલાકૂટમાન કહેવાય છે. છેતરવાના આશયથી ખોટું मयु अथवा माय योग्य नथी. (૫) સેના-ચાંદી વગેરેમાં તેના જ જેવી અન્ય કઈ ધાતનું મિશ્રણ કરીને સેના-ચાંદીના રૂપમાં વેચાણ કરવું અથવા કઈ પણ વસ્તુમાં મિશ્રણ કરીને વેચવું ત—તિરૂપક વ્યવહાર કહેવાય છે. સુવર્ણ જેવો વર્ણ વગેરે હોય છે. તે જ પ્રકારના અન્ય દ્રવ્યોને પ્રવેગ વિશેષથી વર્ણ, વજન આદિથી યુક્ત દ્રવ્ય તૈયાર કરવા સુવર્ણની પ્રતિરૂપક ક્રિયા છે. એવી જ રીતે ચાંદી બનાવટી તૈયાર કરી લેવી એ પણ તપ્રતિરૂપકકિયા કહેવાય છે. આ પ્રમાણે જ અન્ય વસ્તુઓના વિષયમાં સમજી લેવું જોઈએ–જેમ કે શીંગડા સહિત ગાય આદિના શીંગડાં, અગ્નિપકવ, અધોમુખ, સીધા અથવા વાંકા, ધાર્યા મુજબના કરી શકાય છે કે જેથી તે ગાય વગેરે કંઈ જુદાં જ ભાસે ! શીંગડા વગેરે આ પ્રમાણે કરી દેવાથી સરળતાથી તે ગાય ઓળખી શકાતી Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ७ सू. ४३ तृतीयस्याणुव्रतस्य पञ्चातिचारनि० ३३२ ऽन्यत्वमिवगवादयः प्रतिएघेरन् शृङ्गादीनां तथाकरणे सति न सुखेनाऽवधार्यन्ते, ऽन्यहस्ते वा विक्रीयन्ते इति व्याजः छद्माद-छद्मरूपायां छद्मरूपत्वापादनरूपं व्याजीकरणं, तदपणुव्रतिना न कर्तव्यम् । तथाचै-ते रतेनाहतादयः पश्चमस्थूल स्तेयविरमणलक्षणाऽणुव्रतस्याऽतिचारा भवन्ति, तस्मादणुव्रतीना स्तेनाहृतादयः पश्चातिचाराः परित्यक्तव्याः । तेषामतीचाराणां परित्यागपूर्वकं स्थूल स्तेय-. विरमणरूपं तृतीयाणुव्रतं सम्यक्तया परिपालनीयम् । उक्तञ्चोपासकदशाङ्गे प्रथमेऽध्ययने-'थूलगअदिण्णादाणवेश्मणस पंच अइयारा जाणियन्या न समायरियव्या तं जहा-तेनाडे, तकराओगे, विरुद्ध रज्जाइकम्मे कूडतुल्लकूडमाणे तप्पडिस्वगववहारे' इति स्थूलादत्तादानविरमणस्य पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्या, तचथा-स्तेनाहनम्, तस्करप्रयोगः, विरुद्ध राज्यातिक्रमा, कूटतुलाकूटमानम्, तत्पतिरूपकव्यवहारश्चेति ॥४३॥ से कि वह गाय आदि भिन्न ही मालूम पडने लगे ! सींग आदि ऐसे कर देने पर सरलता से वह पहचानी नहीं जा सकती और दूसरे को बेची जा सकती हैं। छद्मरूपता उत्पन्न कर देना व्याजीकरण कहलाता है अणुवती को ऐसा नहीं करना चाहिए। : - इस प्रकार स्तेनाहन आदि पांच स्थूलतेश घिरमण अणुनन के, अतिचार हैं । अणुव्रती को इन पांचों अतिचारों का परित्याग कर देना चाहिए । इन अतिचारों का परित्याग कर के स्थूलस्तेय घिरमण रूप तीसरे अणुव्रत का समीचीनरूप से पालन करना चाहिए। उपासक देशांग के प्रथम अध्ययन में कहा है-'स्थूल अदत्तादानविरमण व्रत के. पांच अतिचार जानने चाहिए, मगर उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे अतिचार ये हैं-स्तेनाहन, तस्कर प्रयोग, विरुद्धराज्यातिकम कटतुलाकूटमान, ताप्रतिरूपकव्यवहार । ४३॥ નથી અને બીજાને વેચી શકાય છે. છદ્મરૂપતા ઉત્પન્ન કરવી વ્યાકરણ કહેવાય છે. અણુવ્રતધારીએ આ પ્રમાણે કરવું જોઈએ નહીં. આવી રીતે તેનાહત આદિ પાંચ સ્થૂળસ્તેય વિરમણ અણુવ્રતના અતિચાર છે. અણુવ્રતીએ આ પાંચે અતિચારોને વજર્ય ગણવા જઈ એ. આ અતિચારોને પરિત્યાગ કરીને સ્થૂળસ્તેય વિરમણ રૂપ ત્રીજા અણુવ્રતનું સમીચીન રૂપથી પાલન કરવું જોઈએ. ઉપાસક દશાંગના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે–“સ્થૂળ અદત્તાદાન વિરમણ વ્રતના પાંચ અતિચાર જાણવા જોગ છે પરન્ત આચરવા ચોગ્ય નથી. આ અતિચારે આ પ્રમાણે છે-તેનાહત, તસ્કરપ્રયાગ વિરૂદ્ધ રાજ્યાતિકમ કૂટતુલાકૂટમાન, ત—તિ રૂપક વ્યયહર, ૪a Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्रे मूलम् - उत्थस्स इत्तरिया परिग्गहियागमणाइया पंच अइयारा ॥४४॥ ३३३ - छाया--' चतुर्थस्येत्यरिका परिगृहात गमनादिकाः पञ्चाविचाराः ॥ ४४ ॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्व तावत् क्रममाप्तस्य तृतीयाणुत्रतस्य स्थूलस्तेय विरतिलक्षणस्य तस्करमयोगादयः पञ्चाविचाराः प्ररूपिताः सम्प्रति क्रमप्राप्तस्यैव चतुर्थस्व स्थूल मैथुनविरमणलक्षणस्याऽणुव्रतस्य इत्वरिका परिगृहीतागमनादिकान् पश्चाविचारान् प्ररूपयितुमाह - ' च उत्थस्स्व इत्तरियापरिगहियागमणाइया पंच अयारा' इति, चतुर्थस्याणुत्रस्य स्थूल मैथुनविरंमणलक्षणस्य इत्वरिकापरिगृहीतागमनादिकाः पश्चातिचारा आत्मनो मलीनता सम्पादकाः परिणतिविशेषा अवगन्तव्याः तव्यथा - इत्वरिकापरिगृहीतागमनम् १ अपरि'उत्थस्त इसरिया परिग्गहिया' ||४४ || सूत्रार्थ-स्वरिका परिगृहीतागमन आदि चतुर्थं अणुवन के पांच अतिचार हैं ॥ ४४ ॥ 6 1. तार्थदीपिका - पहले क्रमप्राप्त तीसरे अणुव्रत स्थूलस्तेय विरमणं व्रत के तस्कर प्रयोग आदि पांच अतिचार प्ररूपण किये गये हैं, अब क्रम प्राप्त चोरी स्थूल मैथुन विरमणवन के इश्वरिका परिगृहीतागमन आदि पांच अतिचारों का कथन करते हैं स्थूलमैथुनविरमण रूप चौथे अर्जुन के इत्वरिकापरिगृहीतागमन आदि पांच अतिचार जानना चाहिए ये आत्मा में मलीनता उत्पन्न करने वाले परिणामविशेष हैं। वे पांच अतिचार इस प्रकार हैं- ( १ ) इश्वरिका परिगृहीतागमन (२) अपरिगृहीतागमन (३) अनंगक्रीडा 'चउत्थर इत्तरिया परिग्गहिया' इत्याहि સૂત્રા-ઈરિકાપરિંગૃહીતાગમન આદિ ચતુથ' અણુવ્રતનાં પાંચ અતિચાર છે. ૫૪૪।। તત્ત્વાર્થદીપિકા-પહેલા ક્રમપ્રાપ્ત ત્રીજા અણુવ્રત સ્થૂળરતેય વિરમણુ વ્રતના તસ્કરપ્રયેાગ આદિ પાચ અતિચાર પ્રરૂપિત કરવામાં આવ્યા હવે ક્રમપ્રાપ્ત ચેાથા સ્થૂળ મૈથુન વિરમણ વ્રતના ઈરિકાપરિંગૃહીતાગમન આદિ પાંચ અતિચારે નુ કથન કરીએ છીએ સ્થૂળમૈથુન વિરમણુ રૂપ ચાથા અણુવ્રતના ઇરિકા પરિગૃહીતાગમન વિગેરે પાચ અતિચાર જાણવા જોઈએ. આ અતિચારા આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરવાવાળા પરિણામ વિશેષ છે. આ પાંચ અતિચાર આ મુજબ છે (१) त्वरिठापरिगृहीतागमन ( २ ) अपरिगृहीतागभन (3) अनंगीडा (४) ५२. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४४ चतुर्थस्याणुवतस्य पञ्चातिवारनि० ३३३ गृहोतागमनम् २ अनङ्गक्रीडा ३ परविवाहकरणम् ४ कामभोगतीवामिलापः ५ इति, तत्रे-त्वरिका इत्वरकालिकी-अल्पवयस्का सावधपि परिहीता विचाहेन परिग्रहे नीता तथापि-दारफर्मणि सर्वथाऽसमर्था तस्यां गमनम् इत्वरिकागमनम् १ अपरिगृहीता गमनश्च-वाचादत्ताऽपि परिग्रहे नीता न, अविवाहितेत्यर्थः तस्या गमनं वाङ्मात्रेणैव दत्तायां गमन मिति यावत् अनङ्गक्रीडा-अङ्ग भोगाइम्, ततोऽन्यत्र क्रीडाऽनङ्गक्रीडोच्यते ३ विवाद-परिणयनम् परस्य स्वापयभिन्नस्य विवाहः तस्य करणं विधानं परविवाहकरणम् ४ कामभोगतीवामिलापश्च-काम-भोगेषु (४) परविवाह करण और (५) कामभोगत वाभिलाष । इन पांचों अतिचारों का स्वरूप निम्नलिखित है (१) इस्वरिको अर्थात् अल्पवयस्का या छोटी उम्र की। यद्यपि यह परिगृहीता हो चुकी है अर्थात् विवाहित होने से किसी की पत्नी बन चुकी है, तथापि दारफर्म में लर्वथा असमर्थ है । उसके साथ गमन करना इस्वरिकापरिगृहीतागमन है। (२) जिसका वाग्दान हो चुका है मगर जो विवाहित नहीं है, वह अपरिगृहीता कहलाती है। उसके साथ गमन करना अपगृहीनागमन कहलाता है। ___(३) संभोग के अंगों के अतिरिक्त अन्य अंगों से क्रीड़ा करना अनंगक्रीडा अतिचार है। (४) अपनी सन्तान के अतिरिक्त दूसरे का विवाह करना पर. विवाहकरण कहलाता है। વિવાહરણ અને (૫) કામગતીવ્રાભિલાષ આ પાંચે અતિચારોનું સ્વરૂપ નિમ્નલિખિત છે. (१) परि मात् २८५१२४ अथवा नानी (आथी) वयनी જો કે તેનું વેવીશાળ થઈ ગયું છે અથવા વિવાહિત થવાથી કોઈની પત્ની થઈ ચૂકી છે તે પણ દારકમ માટે સર્વથા અસમર્થ છે. તેની સાથે ગમન કરવું ઈવરિકાપરિગૃહીતાગમન છે. (૨) જે વાગદત્તા છે પરંતુ જે વિવાહિત નથી તે અપરિગ્રહીતા કહે વિાય છે. તેની સાથે ગમન કરવું અપરિગ્રહીતાગમન કહેવાય છે. (૩) સંભેગના અંગે સિવાયના અન્ય અગે થી કીડા કરવી અનંબકીડા કહેવાય છે. (૪) પિતાના સન્તાન સિવાયના બીજાઓને વિવાહ કરાવે ६ ५२विधा २५ ४२वाय छे. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्दै शब्ददिविषयेषु तीव्र 'ऽन्युत्कटोऽभिलाष इच्छा, अयं हि स्वदारेष्वपि निरन्तर भोगेच्छारूपः कामोत्तेजक बाजीकरणादि प्रयोगेषु, पामायाः खर्जनमिव भृशं काममोगशक्तिसंपादनेन कामभोगेच्छावन मित्यर्थः, अयमात्मनो मनोमालिन्य कारक पादतिचारः । तथाचो परविशाहकरणादयः पञ्च स्वदारसन्तोष. रूपस्य स्थू मैथुनविरविलक्षणस्य चतुर्थाऽणुव्रतस्याऽविचारा भवन्ति, तस्मात्-. चतुर्थाऽणुतिना परविवाहकरणादि पञ्चातिचारवर्जनपूर्वकं स्वदारसन्तोषत्रत ससक्तया परिपाल नीयम् । अन्यथा-एतेषां परविवाहकरणादीनां पञ्चातिचाराणां करणे सति चतुर्थाऽणुव्रतस्य भङ्गः प्रसज्येत । उक्तञ्च भगवताऽतिचार (६) कामभोग की उत्कट अभिलाषा होना कामभोगतीव्राभिलाषविचार है । अपनी पत्नी के साथ अत्यधिक काम सेवन की इच्छा रखने से भी यह अतिचार होता है। कामोत्तेजक वाजीकरण आदि. प्रयोग करके, खाज को खुजलाने के जैसे खूध कामभोग की शक्तिस्लशादित करके कामभोग को इच्छा को बढाका भी कामभोगतीव्रा. चिलाष है। आत्मा और मन में मलीनता उत्पन्न करने के कारण घाह अतिचार है। इस प्रकार ये परविवाहकरण आदि खदार सन्तोषरूप स्थूलमैथुनविरति लक्षण वाले चौथे अणुव्रत के अतिचार हैं। इस कारण चतुर्थ अणुव्रत के धारी को परविवाह करण आदि पांचों अतिचारों का वर्जन करके स्वदारसन्तोषव्रतका सम्यक् प्रकार से पालन करना चाहिए। अन्यथा परविचाहकरण आदि पांच अतिचारों का सेवन करने , (૫) કમભેગની ઉત્કૃષ્ટ અભિલાષા થવી કામગતવાભિલાષ અતિચાર છે. પિતાની પત્ની સાથે વધારે કામસેવનની ઈચ્છા રાખવાથી પણ આ અતિચાર લાગે છે. કામોત્તેજક વાજીકરણ આદિ પ્રયોગ કરીને, ખરજવાને ખજવાળવાની ફક, કામગની ઘણી શક્તિ સંપાદન કરીને કામગની ઈચ્છાને વધારવી એ પણ કામભે ગતીવ્રાભિલાષ છે. આમ તેમજ મનમાં મલીનતાં ઉત્પન્ન કરવાના કારણે–આ અતિચાર છે. આ રીતે આ પરવિવાહકરણ આદિ સવદારસંતોષ રૂપ રધૂ મિથુન વિરતિ લક્ષવાળા ચેથા અણુવ્રતના અતિચાર છે. આ કારણે ચોથા અણુવ્રતના ધારકે પરવિવાહરણ આદિ પાંચે અતિચારને પરિહાર કરીને સ્વદારયતષ વ્રતનું સભ્યપ્રકારથી પાલન કરવું જોઈએ. અન્યથા પરવિવાહકરણ આદિ પાંચ અતિચારોનું સેવન કરવાથી ચોથું અણુવ્રત ખંડિત (દૂષિત) થઈ જાય છે. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७.४४ चतुर्थयाणुव्रतस्य पञ्चातिचारनि० ३३५ विषये 'पंच अइयारा जाणेयन्या-न समायरेया' इति एते पञ्चाविचारा ज्ञातव्याः किन्तु-न समाचरितव्याः इति ॥४४॥ - तत्वार्थनियुक्तिः-पूर्वसूत्रे क्रममाप्तस्याणुव्रतस्य स्थूल स्नेय विरमणस्य तस्करपयोगादयः पश्चाविचाराः मरूपिता सम्पति-क्रममाप्तरय स्थूल सैथुनविरमणस्य स्वदारसन्तोषात्मकस्य चतुर्थाऽणुव्रतस्य इस्वरिकापरिगृहीतागमनादिकान पञ्चाविचारान् प्ररूपयितुमाह-'चउत्थरला इत्तरिया परिणहिया गमणाइया पंच अइयारा' चतुर्थस्य स्वदारसन्तोषरूपस्य स्थूल मैथुनदिरमणस्य ऽणुव्रतस्य इत्वरिकापरिगृहीतागमनम् १ आदिना-अपरिगृहीतागमनम् २ अनङ्गक्रीडा३ परदिवाहकरणम्४ काममोगतीव्राभिलापश्च५ इत्येते पञ्चानिचारा आत्मनो मलीनतापर चौथा अणुव्रत भंग (दूषित) हो जाता हैं। भगवान् ने ये अतिचार के विषय में कहा है-'अतिचार जानने योग्य हैं मगर आचरण करने योग्य नहीं हैं ॥४॥ · तत्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में क्रमप्राप्त तीसरे अणुव्रतस्थूलस्तेयविरमण व्रत के तस्कर प्रयोग आदि पांच अतिचारों का प्ररूपण किया गयां, अप क्रमप्राप्त स्थूलमैथुनविरमण जो स्वदारसन्तोषात्मक है, उस चौथे अणुव्रत के इत्वरिका परिगीतागमन आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैं चौथे स्वदारसन्तोषरुप स्थूलमैथुनविरमण के इत्वरिका परिंगहीता गमन आदि पांच अतिचार जानना च हिए । १ इत्वरिकापरिगृतागमन अपरिग्रहीतागमन ३ अनंगकोडा ४ परविवाहकरण और ५ काम भोगतीत्राभिलाष. ये पांच अतिचार आत्मा ભગવાને અતિચારના વિષયમાં કહ્યું છે-અતિચાર જાણવા ચોગ્ય જરૂર છે પણ આચરણમાં મૂકવા ગ્ય નથી” I૪૪ તત્વાર્થનિર્યુકિત–પૂર્વસૂત્રમાં ક્રમપ્રાણ ત્રીજા અણુવ્રત સ્થળdય વિરમણ વ્રતના તસ્કરપ્રયોગ આદિ પાંચ અતિચારોનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે ક્રમ પ્રાપ્ત, સ્થળમૈથુન વિરમણ, જે વદારસંતોષાત્મક છે, તે ચોથા અણુવ્રતના ઇત્વરિકાપરિગ્રહીતાગમન આદિ પાંચ અતિચારોની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ ચોથા સ્વદારસંતેષ રૂપ ધૂળમૈથુન વિરમણ વ્રતના ઈવરિકા પરિગ્રહી તાગમન આદિ પાંચ અતિચાર જાણવા યોગ્ય છે-(૧) ઈરિકાપરિગૃહીતાગમન (२) अतिमन (3) सन 18731 (४) परिवा४४२] भने (५) કામગતીત્રાભિલાષ આ પાંચ અતિચાર આત્માને મલીન કરનારા દુષ્પરિણામ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वास फारका दुष्परिणतिविशेषा भवन्ति । तथाचे-स्वरिकापरिगृहीता गमनादयः परस्थूल. मैथुनविश्मणस्य स्वदारसन्तोपात्मकस्याऽतिचारा भवन्ति तत्वरिका परिगृहीतागमनश्च-इत्वरिका इत्वरकालिकी-अल्पवयस्का सा परिगृहीता विवाहे न परिग्रहे नीना, एतादृश्यां गमनम् १ अपरिगृहीता गमनम् अपरिगृहीता वाचादत्ता किन्तुपरिग्रहे नीता न, अविवाहितेत्यर्थः तस्यां गमनं वाग्दत्तायां गमनमिति निष्कर्ष:-२ अनङ्गक्रीडा तावत्-अङ्ग मोगाङ्गम् ततोऽन्यत्र क्रीडाऽनङ्गक्रीडा-३ उच्यते तथा विवाहः परिणयनम् परस्य-स्वापत्यभिन्नस्य विवाहस्तस्य करणं परविवाह धारणम् ४ काममोगतीवामिलापश्च-कामभोगेपु शब्दादिविषयेषु तीवाऽन्युत्कटः, को मलीन करने वाले दुष्परिणाम हैं। इनका स्वरूप ई प्रकार है(१) इस्परिका अर्थात् अल्पवयस्क या छोटी उम्र की स्त्री। वह परिग्रहीता अर्थात् विवाहित हो चुकी हो फिर भी उसके साथ गमन करना इत्वरिकापरिग्रहीतागमन कहलाता है। ___ (२) जिसका वाग्दान हो चुका हो वह अपरिग्रहीता कहलाती है, अर्थात् जिसके साथ सगाई हो चुकी हो किन्तु विवाह न हुआ हो ऐसी स्त्री के साथ गमन करना अपरिगहीतागमन है। (३) कामभोग के अंगों के सिवाय अन्य अंगों से क्रीडा करना अनंगक्रीडा अतिचार है। (४) अपनी सन्तान के सिवाय दूसरे का विशाह से संबंध जोडना परविवाहकरण कहलाता है। (५) शब्द आदि कामभोगों की तीव्र अभिलाषा रखना कामभोग तीवाभिलाष अतिचार है अपनी पत्नी के साथ निरन्तर भोग की छ: मेमनु २१३५ मा प्रा२नु छ (૧) ઈન્ફરિકા અર્થાત અલ્પવયસ્ક અથવા કાચી વયવાળી સ્ત્રી તે પરિગૃહીતા અર્થાત્ વિવાહિત થઈ ચૂકી હોય તે પણ તેની સાથે ગમન કરવું ઇરિકાપરિગ્રહીતા કહેવાય છે. (૨) જેનું વાગ્દાન થઈ ગયું હોય તે અપરિગ્રહીતા કહેવાય છે, અર્થાત્ જેની સાથે સગપણ થઈ ગયું છે પરંતુ લગ્ન ન થવ્યું હોય એવી સ્ત્રીની સાથે ગમન કરવું અપરિગૃહીતાગમન છે, (૩) કામભેગના અંગે સિવાયના અન્ય અંગેથી ક્રીડા કરવી અનંગકીડા અતિચાર છે. - (૪) પિતાના સન્તાન સિવાય બીજાને વિવાહ સંબંધ જેડ પરવિવાહકરણ કહેવાય છે. (૫) શબ્દ આદિ કામોની તીવ્ર અભિલાષા રાખવી કામગતીવ્રભિલાષ અતિચાર છે. પિતાની પત્ની સાથે નિરન્તર ભેગ ભેગવવાની ઈચ્છા Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ लू. ४४ चतुर्थस्याणुव्रतस्य पञ्चातिचारनि० ३३७ अभिलापः ५ अयं हि स्वतारेवपि निरन्तरभोगेच्छारूपः, कामोत्तेजक वाजीकरणादि प्रयोगेण पायापाः खर्जनमिन भृशं कामसोगशक्ति संपादनेन कामभोगेच्छा. बर्द्धन मित्यर्थः । अयमात्मनो मालिन्य लारकरवादतिचारः । तस्मात्-स्थूल पैथुन विरतिलक्षणाऽणुप्रतशालिना श्रावण इत्वरिकापरिगृहीबागनादि पश्चातिचारवर्जनपूर्वकं वदारसन्होपात्मनात्रतं सम्यक्तया परिपालनीयमिति भावः । उक्तञ्चोपासनासाने प्रथमाध्ययले 'लदारतोलिए पंच अइयारा जाणियमान सभापरिचया, जहा-इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, Sisatel, परविचाहकरणे, काममओएसु तिचाभिलासो' इदि स्वदारसन्तोपे पश्चातिचारा ज्ञातव्याः च समाचरितव्याः, तद्यथा-इत्वरिका परिगृहीतागमनम् १ अपरिगृहीतारामनम् २ अनङ्गक्रीडा ३ परविवाहकरणम्-४ कामभोगेपुत्राभिलापः-५ इति ॥४४॥ कामना करने से भी अविवार लगता है। बालोत्तेजक वाजीकरण आदि का प्रयोग करके खाज खुजलाने के समान अतिशय कामलोग शक्ति संम्पादन करना इली अतिचार के अंतर्गत हैं। आस्मा में मलीनता उत्पन्न करने के कारण यह अतिचार कहलाता है। स्थललैशुनविरमण अणुमती श्रावक को इत्वरिकापरिग्रहीतागमन आदि पांचों अतिचारों का पर्जन करते हुए स्वदार सन्तोष नामक अणुव्रत का लस्था प्रशार ले पालन करना चाहिए। उपालकदशांग के प्रथम अध्ययन में कहा है पदारसंतोषत्रा के पांच अतिचार ये हैंइत्वरिकापरिग्रहीता गमन अपरिग्रहीतगायन, अनंगक्रीडा, परविधाहकरण और शासभोवतीत्राभिलाष ॥४४॥ રાખવાથી પણ આ અતિચાર લાગે છે. કામોત્તેજક વાજીકરણ આદિને પ્રયોગ કરીને ખરજવું ખજવાળવાની માફક અતિશય કામગની શક્તિ સસ્પાદિત કરવી એ પણ આ અતિચારનો ભાગ ગણાય છે. આમામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરવાના કારણે આ અતિચાર કહેવાય છે. ઘૂળમૈથુન વિરમણ—અણુવ્રતી શ્રાવકે ઈવરિકા પરિગૃહીતાગમન અદિ પાંચ અતિચારનો ત્યાગ કરીને સ્વદારસંતેષ નામક આવ્રતનું સમ્યક્ પ્રકારથી પાલન કરવું જોઈએ ઉપાસકદર્શાગના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે–સ્વદારસંતોષ વ્રતના પાંચ અતિચાર જાણવા જેઈએ પરંતુ તેમનું આચરણ કરવું જોઈએ નહીં. આ પાંચ અતિચારો આ પ્રમાણે છે-ઇરિકાપરિગ્રહીતાગમન અપરિગ્રહીતાગમન, અનંગકીડા પરવિવાહરણ અને કામગતીભિલાષ- ૪૪ त०४३ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ मूलम्-पंचमहल खिन्तवत्थप्परमाणाइसाइया पंच अश्यारा॥४५॥ छाया--'पंचमत्य क्षेत्र वास्तु प्रमाणाविक्रमादिकाः पञ्चाविचाराः॥४५॥ तत्वार्थदीपिया:--पूर्वपत्रे भागमाप्तम्य चतुर्थाणुव्रतस्य स्थलमैथुननिवृतिरूपस्य रबदारसन्तोपात्मकस्य इत्वरिकापरिगृहीतागमनादिकाः पञ्चातिचारा परूपिताः, सम्पति-क्रमागताय पञ्चमाणुव्रतस्य स्थुः परिग्रहविरमणक्षणस्य क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिकमादीन् पञ्चातिचारान प्रस्पयितुमाह-पंचमहल' इत्यादि पञ्चमस्य स्थूल परिग्रहविरतिलक्षणाऽणुव्रतस्य क्षेत्र वास्तु प्रमाणानिक्रमादिकाः, क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिवासः १ आदिना-हिरण्य सुवर्णममाणातिक्रमः २ धनधान्य प्रमाणातिक्रमः ३ द्विपदचतुष्पदप्रमाणतिक्रमः ४ कुष्य प्रमाणातिक्रमश्च ५ इत्येते 'पंचमहल खित्त' ॥४५॥ . सूत्रार्थ---पांचवें परिग्रह परिमाणवत के क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम आदि पांच अतिचार है ॥४५॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व सूत्र में क्रम प्राप्त चौथे अणुव्रत स्थूल मैथुन निवृत्ति रूप तथा स्वदार सन्तोषात्मक के इत्वारिका परिगृहीतागमन आदि पांच अतिचारों का प्ररूपण किया गया, अब क्रमागत स्थूलपरिग्रह विरमण रूप पांचवें अणुव्रत के क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिकम आदि पांच अनिचारों का प्रतिपादन करते हैं पांचवें स्थूलपरिग्रह विरति नामक अणुव्रत के पांव अतिचार हैं, यथा-(१) क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम (२) हिरण्य सुवर्ण प्रमाणातिक्रम (३) धन धान्य प्रमाणातिक्रम (४) छिपदचतुष्पदनमाणातिक्रम और (५) 'पंचमस्स खित्तवत्थप्पमाणाइकमाइया' या સૂત્રાર્થ–પાંચમા પરિગ્રહ પરિમાણવ્રતના ક્ષેત્રવાતુ પ્રમાણતિક્રમ આદિ પાંચ અતિચાર છે. પણ તત્ત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં ક્રમ પ્રાપ્ત ચોથા અણુવ્રત ધૂળમૈથુન નિવૃત્તિ રૂપ તથા સ્વદારસંતોષાત્મક ઈવરિકાપરિગૃહીતાગમન આદિ પાંચ અતિચારેનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે કમપ્રાપ્ત સ્થૂળ પરિગૃહવિરમણ રૂપ પાંચમાં અણુવ્રતના ક્ષેત્રવાસ્તુ પ્રમાણતિકેમ આદિ પાંચ અતિચારોનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ* પાંચમાં ધૂળ પરિગ્રહવિરતિ નામક અણુવ્રતનાં પાંચ અતિચાર છે જેવા 8-(१) क्षेत्रातुप्रमाणातिम. (२) लि२एयसपा प्रमाणातिम (3) धन. ધાન્ય પ્રમાણતિક્રમ (૪) દ્વિપદચતુષ્પદપ્રમાણતિક્રમ અને (૫) કુખ્યપ્રમાણુ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ स्लू. ४५ पञ्चमस्थाणुव्रतस्य पञ्चातिचारनि०- ३३९--- पञ्चातिचारा आत्मनो मालिन्यकारका दुष्परिणतिविशेपा भवन्ति । तत्रक्षेत्रं सस्योत्पत्ति भूमिः १ वास्तु-आवासगृहम् १ हिरण्यरूप्यादि व्यवहारहेतुभूतरजतादि धातुविशेषः, सुवर्ण-काञ्चनम् २ धनं गौमहिपहत्यश्वादि, धान्यं, शालिव्रीह्यादि-३ द्विपदो दासीदासादिकम् चतुष्पदो गोमहिष्यादिका ४ कुप्यम्ताम्रलोहकांस्यसीसकादि ५ क्षेत्रञ्च वास्तु वेति क्षेत्रवास्तु, धनश्च धान्यञ्चेति धनधान्यम्, हिरगयञ्च सुवर्णञ्चेति हिरण्यसुवर्णम्, द्विपदश्च चतुष्पदश्चेति द्विपदचतुष्पदम्, एतेपाञ्च-क्षेत्रवास्तु धनधान्यहिरण्यसुवर्णद्विषदचतुष्पद कुष्यानाम् कुप्यप्रमाणालिक्रम । ये अतिचार आत्मा मलीनमा उत्पन्न करने वाले दुष्परिणाम हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है-(१) क्षेत्र अर्थात् खेत जहां धान्य की उपज होती है, वास्तु आर्थात् निवास करने का मकान अभिप्राय यह है कि खुली भूमि क्षेत्र कहलाती है और आच्छादित भूमि को वास्तु कहते हैं।। (२) चांदी भादि धातुएं, जिनसे लेने-देने का व्यवहार होता है, हिरण्य कहलाती हैं और स्वर्ण का अर्थ कंचन है, जिसे लोना कहते हैं। (३) गाय, भैल, हाथी, अश्व आदि धन कहलाता है और शालि. व्रीहि अर्थात् चावल आदि को धान्य कहते हैं। (४) दासी दास आदि को द्विपद तथा गाय भैंस आदि को चतुष्पद कहते हैं। (५) तांबा, लोहा, कांसा, शीशा आदि कुपण कहलाता है। इन क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, स्वर्ण, धन, धान्य द्विपद, चतुम्पद और अपच के प्रमाण का अत्यन्त लोभ के वशीभूत होकर उल्लंघन करना पांचवें તિક્રમ આ અતિચાર ભામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરવાવાળા દુષ્પરિણામ છે. એમનું સ્વરૂપ આ પ્રકારે છે-(૧) ક્ષેત્ર અર્થાત્ ખેતર જ્યાં ધાન્યની ઉપજ થાય છે, વસ્તુ અર્થાત નિવાસ કરવાનું મકાન આશય એ છે કે ઉઘાડી જમીન ખેતર કહેવાય છે અને બાંધેલી જમીનને વસ્તુ કહે છે. (२) यही वगैरे धातुमा, नाथी -हेपने व्यवहार थाय छ; હિરણ્ય કહેવાય છે અને સુવર્ણ અર્થ કંચન છે, જેને સોનું કહે છે. (3) गाय, मेस, हाथी, घोडा वगेरे धन वाय छ भने डांगर ત્રીહિ અર્થાત ચેખા વગેરેને ધાન્ય કહે છે. (४) हासी, हास वगैरेने द्विप तथा गाय समाहिन-यतु०५६ छ. (५) is, बाटु, सु वगेरे सुपय ४२वाय छे. या क्षेत्र, वास्तु, હિરણ્ય, સુવર્ણ, ધન, ધાન્ય, દ્રિપદ, ચતુષ્પદ અને કુષ્યના પ્રમાણના Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० तत्त्वार्थसूत्रे अतिलोभवशात् प्रमाणस्याऽतिक्रमः प्रमाणादधिग्रहणम् एतादानेव मम परिग्रहो वर्तते नाऽतोऽधिज्ञः' इत्येदं परिच्छिन्नाद क्षेत्रवास्तु धनधान्यादिविषयात्ममाणातिरेकेण ग्रहणम् पश्चमाणुव्रतधारिणा प्रत्याख्यायते, तस्मात्क्षेत्रवास्तु ममाणातिक्रमादयः पञ्च स्थूल परिग्रहपरिमाणवतस्याऽतिचारा अवगन्तव्याः । अतः स्थूल परिग्रहविरमणरूप पञ्चमाणुव्रती पाका प्रमाणातिरिक्त क्षेत्रवास्तु धनधान्य हिरण्यसुवर्णादीनां प्रत्याख्यानपूर्वक एश्चगाणुव्रतं सम्यक्तया परिपालयेत् । तत्र धान्यञ्च-नीह्यादि अष्टादशविध बोध्यम् । सदुक्तम् 'गोधूमशलि घवलपंप माष मुन्नाः श्यामाक बङ्गतिल कोद्रव माजमापाः की नाश व्रत के अतिचार हैं । 'मैं इतना ही परिग्रह रक्खूगा, इलले अधिक नहीं इस प्रकार मर्यादित क्षेत्र, वाहतु, धन, धान्य आदि संबंधी प्रमाण ले अधिक का ग्रहण करना पांचवें अणुव्रतधारी श्राधक के द्वारा स्याग किया जाता है । अतएव उल लियत प्रमाण से अधिक क्षेत्र-वास्तु आदिक्षा ग्रहण करना अतिचोर है । इल स्थूलपरिग्रहविरमण नामक पांचवें अणुव्रत का धारक श्रावक प्रमाण ले अतिरिक्त क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य हिरण्य और स्वर्ण का परित्याग करता हुआ पांचवें अणुव्रत का सम्यक प्रकार से पालक करे। इनमें व्रीहि आदि धान्य अठारह प्रकार का होता है। कहा भी है१ गोधूम (गेहूं), २ शालि (चावल), ३ सय (जी), ४ लपंप (सरसौं) ५ माप (उडद), ६ मुद्ध (मूंग), ७ श्यामाका (लांवा), ८ कंशु, ९ तिल, १० कोद्रव (कोदों), ११ राजमाघ, १२ कीनाश, १३ नाल, १४ मठ, અત્યન્ત લેભને વશીભૂત થઈને ઉલ્લંઘન કરવું પાંચમા વ્રતના અતિચાર છે હું આટલે જ પરિગ્રહ રાખીશ, આથી વિશેષ નહીં, આવી રીતે મર્યાદિત ક્ષેત્ર, વાસ્તુ, ધન, ધાન્ય આદિ સંબંધી પ્રમાણુથી વધારે ગ્રહણ કરવું પાંચમાં અણુવ્રતધારી શ્રાવક દ્વારા ત્યાગ કરવામાં આવે છે આથી તે નિયત પ્રમાણથી અધિક ક્ષેત્ર-વાસ્તુ આદિનું ગ્રહણ કરવું અતિચાર છે આ કારણે સ્થળપરિગ્રહ વિરમણ નામક પાંચમાં આવ્રતના ધારક શ્રાવકે પ્રમાણથી વધારે ક્ષેત્ર, વાત ધન, ધાન્ય, હિરણ્ય અને સુવર્ણ ને પરિત્યાગ કરતો થક પાંચમા અણુવ્રતનું સમ્યક્ પ્રકારે પાલન કરે. આમાં વ્રીહિ આદિ ધાન્ય અઢાર પ્રકારના હોય છે કહ્યું પણ છે(१) गोधूम (45), (२) लि (योगा) (3) यव (४१) (४) सषक (सरसव) (५) भाष (43) (6) भु। (भग) (७) श्यामा (साभ। (८) ४Y (6) तिल () (१०) द्रव (BE) (११) २२४भाष (१२) श्रीनाश, (13) नाद Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ . ४५ पञ्चमस्याणुव्रतस्य पञ्चातिचारनि० ३४१ नाल मठ वैणव नाहकीच लिख्या कुलत्थ चणकादिषु बीजधान्यम्' १॥ इति, तत्र कीनाशो लाइलात्रिपुटः, नालं-मनुष्ठा, पठवैणवं-छारि, आढीतुबरी, इति । तुर्यश्वणका माष शुदगोधूमशालयः । यवाश्च मिश्रिताः सप्त धान्य माहुर्मनीषिणः ॥१ दिलशालियचाश्व-विधान्य मुच्यते ॥४५॥ .. तस्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-चक्षुर्थस्य स्थूळ पैथून विरतिलक्षणाऽणुव्रतस्य इत्त्वरिका परिगृहीता गमनादयः पचाविचाराः प्ररूपिताः सम्प्रति क्रमप्राप्तस्य पंचमस्य स्थूलपरिग्रह विरमणलक्षणाणुव्रतस्य इच्छापरिमाणव्रतरूपस्य प्रमाणातिरेकेण क्षेत्रवास्तु धनधान्यादीनां परिग्रहरूपपंचातिचारान् मरूपयितुमाह-'पंच मस्स खिसक्थुप्पमाणाइकमाइया पंच अश्यारा' इति पञ्चमस्य इच्छा परिमाणवतरूपस्य स्थूलपरिग्रहविरमणलक्षणस्याऽणुव्रतल्य क्षेत्रवास्तु प्रमाणा. तिक्रमादिकाः क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः १ आदिना हिरण्य-सुवर्ण प्रमाणाति(१५) वैणय, १६ आढकी, १७ लिम्चा, १८ कुलथ और १९ चना आदि ये अठारह धान्य हैं ॥१॥ इनमें से कीनांश का अर्थ है लांगल त्रिपुट, नाल मकुप्ठ को कहते है, पाठ वैणव छारि को कहते हैं और आढकी का अर्थ तुकरी है । 'तुवर, चना, उडद, मूंग, गेहूं, चावल और जौ, इन को बुद्धिमान् लोग सप्त धान्य कहते हैं । तिल, शालि और यव को निधान्य कहते हैं ॥४५॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-इससे पहले स्थूल मैथुनविरति नामक चौथे अणुव्रत के इत्वरिका परिगृहीतागमन आदि पांच अतिचार कहे गए हैं। अब क्रमप्राप्त स्थूल परिग्रह विरमण नामक पांचवें अणुव्रत के, जिसे इच्छापरिमाण भी कहते हैं, पांच अतिचारों का प्ररूपण करते हैं(१४) ४ (१५) वैश्व (१६) माढी (१७) सिम्(१८) ४थी (य!) વગેરે એ અઢાર ધાન્ય છે. ૧. આમાંથી કીનાશને અર્થ થાય છે લાંગલ ત્રિપુટ, નાલ મકુષ્ઠને કહે છે, મઠ વૈણવ છારિને કહે છે અને માઢકીને અર્થ तुवर छे. 'तु१२, यष्या, १६, मग, घ, योगा भने ०४५ माने मुद्धिमान લકે સસધાન્ય કહે છે. તલ, શાલિ અને જવને ત્રિધાન્ય કહે છે. ૪પ તસ્વાર્થનિર્યુક્તિ–આની પહેલા ચોથા સ્થળમૈથુન વિરતિ નામક ચેથા અણુવ્રતના ઇત્વરિઠાપરિગ્રહીતાગમન આદિ પાંચ અતિચાર કહેવામાં આવ્યા છે હવે ક્રમ પ્રાપ્ત સ્થૂળ પરિગ્રહ પરિમાણનામક પાંચમાં અણુવ્રતના જેને ઈચ્છા પરિમાણ પણ કહે છે. પાંચ અતિચારોનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪૨ तत्वार्थ सूत्रे B क्रमः २ धनधान्यप्रमाणातिक्रमः ३ दासीदास द्विपद चतुप्पद प्रमाणातिक्रमः ४ कुप्यमाणातिक्रमच ५ इत्येते पंचातिचारा आत्मनो मनोमालिन्यकारका दुष्परिणतिविशेषा भवन्ति तत्र क्षेत्रत्रास्त्वादीनां कुप्यान्तानाम् एतावान् मम परिग्रहो वर्तते न ततोऽधिकः' इत्येवं प्रत्याख्यानं पूर्वं कृत्वा यानि प्रमाणानि परिगृहीतानि तेषामतिक्रमः समुल्लंघनं कृतपूर्वमत्याख्यानममाणाधिक्येन परिग्रहणं प्रमाणातिक्रमो व्यपदिश्यते । तत्र क्षेत्रं तावत् सस्योत्पत्ति भूमिः तच्च क्षेत्रं द्विविधम्, सेतुक्षेत्र - केतुक्षेत्रञ्च । वास्तु - आवासगृहम्, तत् त्रिविधम् खातो 1 पांचवे इच्छापरिमाण या स्थूलपरिग्रह विरमण व्रत के पांच अतिचार हैं- (१) क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम (२) हिरण्य सुवर्ण प्रमाणातिक्रम (३) धन धान्यप्रमाणातिक्रम (४) दासीदास द्विपद चतुष्पद प्रमा णातिक्रम और कुप्य प्रमाणातिक्रम | ये पांच अतिचार आत्मा में मली. नता उत्पन्न करने वाले दुष्परिणति रूप है । क्षेत्र - वास्तु से लेकर कुप्यं पर्यन्त का 'इतना ही परिग्रह मुझे कल्पता है, इससे अधिक नहीं' इस प्रकार पहले प्रत्याख्यान करके जो भी प्रमाण रखा है, उसका उल्लंघन करना अर्थात् पहले स्वीकृत प्रमाण से अधिक उन वस्तुओं को ग्रहण करना प्रमाणातिक्रम कहलाता है। इनमें से क्षेत्र का अर्थ है-धान्य की उत्पत्ति की भूमि अर्थात् खेल | खेन दो प्रकार के होते हैं-सेतु क्षेत्र और केतु क्षेत्र । निवास करने की आच्छादित भूमि वास्तु कहलाती है । उसके तीन भेद हैं પાંચમા ઇચ્છાપરિમાણુ અથવા સ્થૂળપરિગ્રહ વિરમણ વ્રતના પાંચ अतियार छे-(१) क्षेत्रवास्तु प्रभाशातिभ ( २ ) हिरएय सुवर्णु प्रभातिभ ( 3 ) ધનધાન્યપ્રમાણુાતિક્રમ (૪) દાસદાસદ્વિપદ ચતુષ્પદપ્રમાણુ તિક્રમ અને (૫) મુખ્યપ્રમાણાતિક્રમ આ પાંચ અતિચ ર્ આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરનારા દુષ્પરિણિત રૂપ છે. ક્ષેત્ર-વાસ્તુથી લઇને કુષ્ય પર્યન્તને આટલા જ પરિગ્રહ મને કહ્યું છે, એથી વિશેષ નહી' એ રીતે પહેલા પચ્ચકખાણુ કરીને જે પણ પ્રમાણુ રાખ્યું છે, તેનુ ઉલ્લ’ઘન કરવુ. અર્થાત્ પહેલા સ્વીક રેલા પ્રમાણથી તે વસ્તુએ વધુ પ્રમાણમાં ગ્રહણ કરવી પ્રમાણાતિક્રમ કહેવાય છે. આમાંથી ક્ષેત્રને અ ≥-ધાન્યની ઉત્પત્તિની ભૂમિ અર્થાત્ ખેતર, ખેતર એ પ્રકારના હેય છે. સેતુક્ષેત્ર અને કેતુક્ષેત્ર નિવાસ કરવા માટેની ઢાંકેલી જમીન વાસ્તુ કહેવાય છે. તેના ત્રણ ભેદ છે-ખાત, ઉચ્છિત તેમજ ઉયરૂપ જમીન ઉપર Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ४५ पञ्चमस्याणुव्रतस्य पञ्चातिचारनि० ३४३ चिछूत- तदुभर भेदात्, तत्र- खातं भूमिगृहादि, उछ्रितं प्रासाद-हर्यादि, खातो. च्छ्रितं तु-भूमिगृहस्योपरिरचितप्रासादादि सनिवेशः तेषां क्षेत्रवारतूनां प्रमाणं तावत् प्रत्यख्यानकाले प्रतिज्ञातम् इयत्परिमितानि क्षेत्रानि चारानि च मया परिगृह्यन्ते तदतिरिक्तस्य च घल्या रूपानं क्रियते आजीवनं आसंवत्सरंवा-आचतुमसि वा, इत्येवं रीत्या सङ्कल्पित क्षेत्रवार तुममाणातिरके.ण कालावध्य भ्यन्तरेएव क्षेत्रास्तु ग्रहणं स्थूल परिग्रहविरण लक्षणाऽणुव्रतस्य इच्छापरिमाण व्रतरूपस्याऽतिचारो भवति । एवं-धनं को महिष इस्त्यश्वाऽजाऽऽचिक खरोन्टू प्रभृत्ति चतुष्पदवर्गः, धान्यं-गोधूम शालियवनीहि मुद्ग मापतिलक कोद्रम ममृति, सर्वमेत दुभयं श्रावकेण पंचमाऽणुव्रतधारिणा परिमितमेव ग्रहीतव्यम् । प्रमाणातिरेकेणं खात, पच्छ्रित और उभयरूप । तलघर आदि को खात-वास्तु कहते हैं, महल-मकान आदि उच्छ्नि कहलाते हैं और लघर के ऊपर बने हुए महल-मकान आदि उलयरूप कहलाते हैं। प्रत्याख्यान करते समय क्षेत्र-वास्तु का परिमाण किया कि इतनेही क्षेत्र और वास्तु मैं रक्खूगा, इससे अधिक का प्रत्याख्यान करता हूं जीवनपर्यन्त, एक वर्ष तक अथवा चार मास तक इस प्रकार प्रतिज्ञात क्षेत्र और वास्तु के प्रमाण से अधिक उसी अवधि में ग्रहण कर लेना स्थूलपरिग्रह विरमण या इच्छापरिमाणरूप व्रत का अतिचार है। धन का अभिप्राय है गाय, भैंस, हाथी घोडा बकरी, भेड, गधा, ऊंट आदि चौपाये और धान्य का अर्थ है गेहूं, शालि, जौ, ब्रीहि, मूंग, उडद, लिल, कोदों आदि । पंचम अणुव्रत के धारक श्रावक को ये दोनों परिमित ही रखना चाहिए । प्रमाण से अधिक धनઆધારિત આદિને ખાત-વાસ્તુ કહે છે, મહેલ મકાન વગેરે ઉચિત કહેવાય છે અને તલ ધરની ઉપર બનાવેલા મહેલ-મકાન આદિ ઉભયરૂપ કહેવાય છે. પચ્ચખાણ કરવાના સમયે ક્ષેત્ર-વાતુનું પરિમાણ કર્યું કે-“આટલા ખેતર અને મકાન હું રાખીશ, આનાથી વધારે ન રાખવાના હું પચ્ચખાણ ધારણ કરૂં છું–જીવું ત્યાં સુધી, એક વર્ષ સુધી અથવા ચાર માસ સુધી આ રીતે પચ્ચખાણ કરેલાં ક્ષેત્ર અને વાસ્તુના પ્રમાણથી અધિક, તેજ મર્યાદામાં ગ્રહણ કરવા, સ્થૂળ પરિગ્રહ વિરમણ અથવા ઈચ્છાપરિમાણ રૂપ વ્રતના અતિચાર છે. घननी माशय छे, गाय, लेस, हाथी, घ, बेटi, ii. , ગધેડા વગેરે પગ અને ધાન્યને અર્થ છે દઉં, ડાંગર, જવ, ચોખા, મગ, અડદ, તલ, કેદરા વગેરે પાંચમાં અણુવ્રતના ધારક શ્રાવકે આ બં Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ . तत्त्वार्थसत्रे धनधान्यग्रहणं स्थूलपरिग्रहविरतिरूपाणुन तस्याऽतिवारो भवति। एवं-हिरण्यं रजतादि धातुविशेषः तटित भनेकपकारकं पानादिकर, सुवर्ण काञ्चनम्, उपलक्षणत्वात्-इन्द्रनीलमणिमरक तपद्मरागमणिरत्नादिकमणि बोध्यम् , एतेषां खलु हिरण्यसुवर्णादीनां प्रतिज्ञातममाणातिरेकेण नाणेऽमि पञ्चाणुव्रते. ऽतिचारो भवति । एवं-दासीदास प्रभृति द्विपदानां गोमहिष्यादि चतुष्पदा. नाञ्च पूर्वकृताभिग्राममाणातिरेकेण ग्रहणेऽपि पञ्चपराणुव्र मेऽतिचारो भवति, एवं-कुप्यानां कांस्यताम्रलोहलीसकत्रपु मृन्द्राण्डादी पूर्वाभिगृहीत प्रमाणातिरेकेण ग्रहणेऽपि पश्चमाणुव्रते स्थूलपरिग्रहपिरतिलक्षणेऽतिचारो भवति तस्मात्धान्य क्षा ग्रहण स्थूलपरि ग्रहविरति अणु वा का अतिचार है। हिरण्य रजत आदि धातुओं को चाहते हैं। उनले बने हुए तरहतरह के पात्र आदि ली हिरण्य ही कहलाते हैं । स्वर्ण का मतलब कांचन है। उपलक्षण ले इन्द्रनीलमणि, मरकत मणि, पद्मराग मणि एवं रत्न आदि भी समझ लेना चाहिए । इन हिरण्य, सुवर्ण आदि का जो प्रमाण अंगीकार किया है, उससे अधिक उनका ग्रहण करने से पांचवें अणुव्रत का आतिचार हो जाता है। इसी प्रकार दाली दाल आदि द्विपदों और गाय भैस आदि चतुष्पदों के पूर्वकृत परिमाण ले अधिक उनको ग्रहण करना भी पांचवें अणुव्रत का अतिचार है। इसी प्रकर कांला, तांबा, लोहा, शीशा, रांगा, मिट्टी आदि के पात्रों का जो परिमाण किया हो, उससे अधिक ग्रहण करने पर पांचवें व्रत મર્યાદિત જ રાખવા જોઈએ. પ્રમાણથી અધિક ધન-ધાન્યનું ગ્રહણ સ્થળ-પરિગ્રહવિરતિ અવ્રતના અતિચાર છે. હિરણ્ય, રજત આદિ ધાતુઓને કહેવામાં આવે છે. તેનાથી બનેલા જાતજાતના પાત્ર વગેરે પણ હિરણ્ય જ કહેવાય છે. સુવર્ણને અર્થ કાંચન છે. ઉપલક્ષણથી ઈન્દ્રનીલમણિ, મરકતમણિ, પરાગમણિ તથા રત્ન વગેરે પણ સમજી લેવા જોઈએ આ હિરણ્ય, સુવર્ણ વગેરેનું જે પ્રમાણ અંગીકાર કરેલ છે, તેથી વધારે તેમનું ગ્રહણ કરવાથી પાંચમા અવ્રતના અતિચાર થઈ જાય છે. આવી જ રીતે દાસી દાસ આદિ દ્વિપદ તથા ગાય ભેંસ આદિ પગાનું પૂર્વકૃત પરિમાણથી અધિક તેમનું ગ્રહણ કરવું એ પણ પાંચમાં અણુવ્રતના અતિચાર છે मे ४ प्रमाणे सु, तमु, खोटु, सासु, २, माटी माहीना पात्रानु જે પરિમાણ કર્યું હોય, તેનાથી વધુ ગ્રહણ કરવાથી પાચમાં વ્રતના અતિચાર Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ टू. ४५ पञ्चमस्याणुव्रतस्य पञ्चातिचारनि० ३४५ पञ्चमाणुव्रतधारिणा क्षेत्रवास्तु प्रमाणातिक्रमादयः पश्चाविचाराः परिहर्तव्याः। अन्यथा-एतेषां क्षेत्रवारत्वादीनां प्राणाधिक्येन ग्रहणे इच्छापरिमाणव्रतस्य परिपाळनं न स्यात् । उक्तञ्चो-पासरुदशाङ्गे प्रथमाध्ययने-इच्छापरिमाणव्वयस्स समणोचालणं पंच अहयारा जाणियबा, न समायरियधा, तं जहाधण धन्नप्पयाणाइकले खेतवत्थुष्पहाणाइकमे, हिरण्णसुवण्णपरिणामाइक्कमे, दुप्पयचउप्पथपरिमाणाको वियपनाणाइक्कमे इति, इच्छापरिमाणव्रतस्य श्रमणोपासक्षेन पञ्चाविचारा ज्ञावव्याः, न समाचरितव्याः तद्यथा-धनधान्यप्रमाणातिकमा, क्षेत्र वास्तु घमाणातिक्रमः हिरण्य सुवर्ण परिमाणाऽतिक्रमः, द्विपदचतुष्पदपरिमाणातिकमा, कुप्यप्रमाणातिक्रमः इति ॥४५॥ दिलिव्वयस्ल उड्डदिति परिमाणाइकमाइया पंच अइयारा ॥४६॥ छाया--दिग्वतस्य ऊर्थविक प्रमाणातिक्रमादिकाः पञ्चातिचाराः-॥४६॥ का अलिचार होता है । इस कारण पंचम अणुव्रत के धारक को क्षेत्र वास्तुप्रमाणातिकम आदि पांचों अतिचारों का परित्याग करना चाहिए । अन्यथा क्षेत्र-वास्तु आदि को प्रमाण से अधिक ग्रहण करने पर इच्छापरिमाणव्रत का परिपालन नहीं होता । उपासकदशांग के प्रथम अध्ययन में कहा है-श्रमणोपालक को इच्छापरिमाण व्रत के पांच अतिचार जानना चाहिए, जिन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे पांच अतिचार इस प्रकार हैं-(१) धन-धान्य प्रमाणाति क्रम (२) क्षेत्र-वास्तु प्रमाणातिकम (३) हिरण्य-स्वर्ण प्रमाणातिक्रम (४) द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम और कुप्पप्रमाणातिकम ॥४५॥ 'दिलियत ऊदिसि' इत्यादि લાગે છે. આથી પાંચમા અણુવ્રતના ધારકે ક્ષેત્રવાસ્તુ પ્રમાણતિકમ આદિ પાં અતિચારેને પરિત્યાગ કરવો જોઈએ અન્યથા ક્ષેત્ર-વારસુ વગેરેને પ્રમાણુથી અધિક ગ્રહણ કરવાથી ઈચ્છાપરિમાણવ્રતનું પાલન થશે નહીં. ઉપાસકદશાંગના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહેવામાં આવ્યું છે-શ્રમણે પાસકે ઇચ્છા પરિમાણુવ્રતના પાંચ અતિચાર જાણવા જોઈએ પરન્તુ તેમનું આચરણ કરવું જોઈએ નહીં. मा पांय मतिया२ मा प्रमाणे छे-(१) धन-धान्य प्रभातिभ (२) क्षेत्र-वास्तुप्रमाणाति (3) डि२९५-२१ प्रमातिम (४) द्विपह-यतु०५४. પ્રમાણુતિકમ અને મુખ્યપ્રમાણુતિક્રમ. ૪પા 'दिसिव्वयस्ख उडूढदिछि' इत्याहि . त०४४ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाने तत्वार्थदीपिका-पूर्व ताकद-स्थूलपाणातिपातादि विरमणलक्षण पञ्चाणु. व्रतानां मत्येकं क्रमशः पञ्च-पश्चाविचाराः प्रतिपादिलाः सम्पति-दिग्विस्त्यादि सप्तशिक्षावताना प्रत्येकं क्रमशः पञ्चपञ्चातिचारान् प्रतिपादयितुं प्रथमं दिम्बिरतिलक्षणशिक्षाव्रतस्य पञ्चातिचारान् प्ररूपयति-दिसिव्वयस्स अदिति परिमाणाहकमाइया पंच अथारा-'इति, दिव्रतस्य पूर्वोक्तस्य दिग्विरतिलक्षणगुणवतरूपशिक्षाव्रतस्य ऊर्ध्वदिप्रमाणतिक्रमादिकाः अर्ध्वदिक ममाणातिकमा-१ आदिना--अधोदिक्रममाणातिक्रम:-२ तिर्यगदिममाणातिक्रमः-३ क्षेत्रवृद्धिः-४ इमृत्यन्तर्धानञ्च ५ इत्येते पञ्चातिचारा आत्मनो मालिन्य कारका दुष्परिणविविशेषा भवन्ति । तन-पूर्वादिदिक्षु गमनादौ-अभिग्रहा. ख्नार्थ-दिशावत के ऊर्वदिशा प्रमाणातिक्रम आदि पांच अतिचार जानना चाहिए ॥४६॥ तत्वार्थदीपिका-इसले पहले स्थूलप्राणातिपात विरमण आदि पांच अणुव्रतों के क्रम से पांच-पांच अतिचारों का प्रतिपादन किया गया है, अब दिग्वत आदि सात शिक्षा व्रतों में से प्रत्येक के पांचअतिचारों का निरूपण करने के लिए सर्व प्रथम पहले दिगवत नामक शिक्षाव्रत के पांच अतिचारों का कथन करते हैं दिविरति नामक गुणवतरूप शिक्षाबत के पांच अतिचार हैं-(१) ऊर्ध्वदिशा-प्रमाणातिक्रम (२) अधोदिशाप्रमाणातिक्रम (३) तियेंगदिशाप्रमाणातिक्रम (४) क्षेत्रवृद्धि और (५) स्मृति-अन्तर्धान । ये पांच अतिचार आत्मा को मलीन बनाने वाले दुष्परिणाम हैं । સૂત્રાર્થ–દિશાવતના ઉધ્વદિશા પ્રમાણતિકમ આદિ પાંચ અતિચાર જાણવા જોઈએ. ૪૬ તત્ત્વાર્થદીપિકા–આનાથી પહેલા સ્થળપ્રાણાતિપાતવિરમણ આદિ પાંચ અણુવ્રતના કેસથી પાંચ-પાંચ અતિચારોનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, હવે દિવ્રત આદિ સાત ગુણવત તથા શિક્ષાવ્રતમાંથી પ્રત્યેકના પાંચ-પાંચ અતિચારોનું નિરૂપણ કરવા માટે સર્વ પ્રથમ પહેલા દિગ્ગત નામ ગુણવતના પાંચ અતિચારે કહીએ છીએ हिविरति नाम सुनत३५ शिक्षव्रतना पाय मतियार छ-(१) Gai-प्रभातम (२) मधेहिशाप्रभावाति (3) तिय प्रमाणाતિક્રમ (૪) ક્ષેત્રવૃદ્ધિ અને (૫) સ્મૃતિ-અન્તર્ધાન આ પાંચ અતિચાર આત્માને મલીન બનાવનારા દુષ્પરિણામ છે. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अं. ७ सू. ४६ दिग्वतस्यातिचारनिरूपणम् , दिना परिमितस्य दिगवधेरतिलङ्घनं दिगतिक्रम उच्यते स च त्रिविध:ऊर्ध्वदिगतिक्रमाऽधो दिगविक्रम विर्यग्रदिगतिक्रम भेदात्, तत्र - पर्वतादावारोहणात् - ऊर्ध्वदिगतिक्रमो भवति - १ कूपावतरणादेरधोदिगतिक्रमः - २ कन्दरादि प्रवेशादे स्विर्यगदिगतिक्रमः - ३ एवम् - अभिग्रहादिना परिगृहीतस्य दिगवधे भादिकरणवशादाधिक्याभिसन्धिः। क्षेत्र वृद्धि: - यथा- मान्यखेटावस्थितेन केन - चिदगारिणाऽभिग्रहेण परिमाणं कृतम् यद अमुक नगरीङ्घनं नाहङ्करिष्यामीति, पश्चादन्यस्यां नगर्यां खल्वन्येन भाण्डादिना महान लाभो भविष्यतीति बुद्धयां इनमें से पूर्व आदि दिशाओं में गमन आदि करने का जो परिणाम किया है, उस परिणाम का अर्थात् मर्यादा का उल्लंघन करना दिगतिक्रम कहलाता है । दितिक्रम तीन प्रकार का है- ऊर्ध्वदिगतिक्रम, अधोदिगतिक्रम और तिर्यग्रदितिक्रम | पर्वत आदि के ऊपर मर्यादा से बाहर चढने पर ऊर्ध्वदिशा के प्रणाम का उल्लंघन होता है । कूप आदि में नीचे उतरने से अधोदिशा के प्रमाण का उल्लंघन होता है । कन्दरा आदि में प्रवेश करने से तिर्धी दिशा के प्रमाण का उल्लंघन होता है । इसी प्रकार अभिग्रह आदि करके दिशा की जो मर्यादा की हो उसको लोभ आदि किसी कारण से बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है । जैसेमान्यखेट - नगर में स्थित किसी आवक ने अभिग्रह करके परिमाण कर लिया कि मैं अमुक नगरी का उल्लंघन नहीं करूंगा । बाद में उसे मालूम हुआ कि उस नगरी को उल्लंघन करके आगे जाने पर व्यापार में बहुत આમાંથી પૂર્વ આદિ દિશાઓમાં ગમન વગેરે કરવાની જે મર્યાદા ખાંધી છે, તે મર્યાદા અર્થાત્ પરિમાણુનુ' ઉલ્લ‘ઘન કરવું દિગતિક્રમ કહેવાય છે. દિગતિકમ ત્રણ પ્રકારનું છે. ઉન્નગિતિક્રમ અધાગિતિકસ અને તિય ગૃગિતિક્રમ પર્વત આદિની ઉપર મર્યાદાથી બહાર મઢવાથી ઉદિશાના પ્રમાણનું ઉલ્લંઘન થાય છે. કૂવા વગેરેમાં નીચે ઉતરવાથી અધેદિશાના પ્રમાણનું ઉલ્લંઘન થાય છે. ગૂફા આદિમાં પ્રવેશ કરવાથી તિછી દિશાના પ્રમાણનું ઉલ્લંઘન થાય છે. આવી જ રીતે અભિગ્ર, આદિ કરીને દિશાની જે મર્યાદા બાંધી હાય તેને લેાભ વગેરે કેાઈ કારણેાસર વધારી દેવી ક્ષેત્ર વૃદ્ધિ છે જેમ કે-માન્યખેટ નગરમાં સ્થિત કેાઈ શ્રાવકે અભિગ્રહ કરીને પરિમાણુ કરી લીધુ. કે હું અમુક નગરીનુ' ઉલ્લંઘન કરીશ નહી. પાછળથી તેને ખબર પડી કે તે નગરીનું ઉલ્લંઘન કરીને આગળ જવાથી વેપારમાં ઘશે લાભ થશે. એવુ જાણીને ત્યાં જવાની ઇચ્છા કરવી અને કાઇ અન્ય Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VE तत्त्वार्थस्त्रे सश गमलाकाङ्क्षा, गमनश्च-क्षेत्रऋद्धिरितिभावा, स खलु-एपाऽतिक्रमः भमादामोहादासनाद्वा भवतीति बोध्यम् । एवम्-अभिगृहीतदिगवधेरननुस्मरणं रहस्यन्तराधान मुच्यते इत्येते पञ्च दिग्विरतिन्नतस्याऽतिचारा अब गन्तव्याः। एतांश्च पञ्चाविचारान् वर्जयित्वा दिग्विरविलक्षणशिक्षात्रतधारिणाऽगारिणा सम्यक्तया परिपालनीयमिति भावः ॥४६॥ तत्यार्थनियुक्ति-पूर्वोक्तरीत्या प्राणातिपातादिविरतिरूपपञ्चाणुव्रताना भत्येकं पञ्च पञ्चातिचारान् क्रमशः प्रतिपाद्य सम्मति-दिग्विरस्थादि पूर्वोक्त लाशिक्षावतानां प्रत्येक पञ्चाश्चातीचारान् क्रमशः प्रतिपादयितुं प्रथम दिग्विरतिरूपगुणवत्तलक्षणशिक्षाव्रतस्य पञ्चातिचारान् प्ररूपयति-'दिसिध लाभ होगा। ऐसा जान कर वहां जाने की इच्छा करना एवं। किसी दृशरी दिशा के परिमाण में कमी करके) जल ओर के क्षेत्र को बढा फर जाना क्षेत्रवृद्धि है। यह अतिक्रन शमाद से, मोह से या असंग हो होता है, ऐल्ला समझना चाहिए । इसी प्रकार ग्रहण की हुई दिशा -मर्यादा को भूल जाना स्मृत्धन्तर्धान कहलाता है। यह पांच दिशानस्ल के अतिचार हैं। इन पांचों अविचारों से बच कर दिगवतधारी श्रावक को लम्यक् प्रकार से दिग्व्रत का पालन करना चाहिए ॥४६॥ तत्वार्थनियुक्ति-पूर्वोक्त प्रकार से प्राणातिपातविरति आदि पांच अणुव्रतों में ले प्रत्येक के पांच-पांच अतिचारों का क्रम से प्रतिपादन किया, अब दिशावत आदि लाल शिक्षात्रों के पांच-पांत्र अतिचारों क अनुक्रम ले प्रतिपादन करने के लिए सर्वप्रथम दिशावत रूप शिक्षाव्रत के पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैंદિશાની મર્યાદામાં ઘટાડો કરીને તે બાજુના ક્ષેત્રની મર્યાદામાં વધારો કરી તે તરફ જવું ક્ષેત્રવૃદ્ધિ છે. આ અતિક્રમ પ્રમાદથી, મેહથી અથવા અસંગથી થાય છે એવું સમજવું જોઈએ, એવી જ રીતે ગ્રહણ કરેલી દિશા મર્યાદાને ભૂલી જવું મૃત્યન્તર્ધાન કહેવાય છે. આ પાંચ દિશાવતના અતિચાર છે. આ પાચે અતિચારેથી બચીને દિગવતધારી શ્રાવકે સમ્યક્ પ્રકારથી દિગતનું પાલન કરવું જોઈએ. ૫૪ દા - તવાર્થનિર્યુકિત-પૂર્વોક્ત પ્રકારથી પ્રાણાતિપાત વિરતિ આદિ પાંચ અણુવ્રતમાંથી પ્રત્યેકના પાંચ-પાંચ અતિચારોનું કમથી પ્રતિપાદન કર્યું, હવે દિશાશ્વત આદિ સાત શિક્ષાત્રતાના પાંચ-પાંચ અતિચારનું અનુક્રમથી પ્રતિપાદન કરવા માટે સર્વપ્રથમ દિશાવ્રત રૂપ શિક્ષાવ્રતના પાંચ અતિચારની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ– Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ४६ दिग्वतस्यातिचार निरूपणम् ३४९ यस्स' इत्यादि । दिग्वतस्य दिग्विरतिरूपस्य प्रथमस्य गुणवतस्य द्वादशवतेषु च षष्ठस्य व्रतस्य-ऊध्र्वदिक पमाणातिक्रम:-आदिना-अधोदिक् प्रमाणातिक्रम:२ तिर्यग्दिक प्रमाणविक्रमः-३ क्षेत्रवृद्धिः-४ स्मृत्यन्तर्धानंचे-५ त्येते पञ्चाऽति. चारा आत्मनो मालिन्यताऽऽपादका दुष्परिणतिविशेषा भवन्ति । तत्र-दिक्षुगमनाय पूर्वमभिग्रहादिना परिगृहीतस्य (नियमितस्य) दिक्परिमाणस्याऽतिक्रमः उल्लङ्घनम्, स च-दिक्ममाणातिकम त्रिविधो भवति ऊर्ध्वदिक् परिमाणातिक्रमः अधोदिक् प्रमाणतिक्रमः-२ तिर्यग्दिक प्रमाणातिकमश्चे-३ ति । तत्रोर्व पूर्वामिगृहीतदिममाणातिरिक्ततया पर्वत-वृक्षशिखरारोहणादिकम् ऊर्ध्वदिक् प्रमाणातिक्रमः, एवमध स्तावत्-पूर्वाभिगृहीताऽधोदिक् प्रमाणानिरिक्ततया कूप. चारह व्रतों में छठे, गुणन मों में पहले दिग्विरलिस्वरूप दिशाव्रत के ऊर्ध्वदिममाणातिक्रम आदि पांच अतिचार हैं । वे इस प्रकार हैं-(१) ऊर्ध्वदिप्रमाणातिक्रम (२) अधोदिप्रमाणातिक्रम (३) तिर्यदिक्प्रमाणातिकम (४) क्षेत्रवृद्धि और (५) स्मृत्यन्तर्धान । ये पांचों अतिचार आत्मा में मलीनता उत्पन्न करते हैं और एक प्रकार के दुष्परिणाम हैं। दिशाओं में गमन करने के लिए पहले जो अभिग्रह धारण किया हो अर्थात् जो मर्यादा निश्चित की हो, उसका उल्लंघन करना दिशाप्रमाणातिकम कहलाता है । दिशा प्रमाणातिक्रम तीन प्रकार का हैऊर्ध्व दिशाप्रमाणातिक्रन, अधोदिशा प्रमाणातिल और तिर्थगूदिशाप्रमाणातिकम । ऊर्ध्वदिशा में, पर्वत, वृक्ष आदि के ऊपर चढने के किये हुए प्रमाण का उल्लंघन करना ऊर्ध्वदिकप्रमाणातिक्रम कहलाता બાર વતેમાં છઠાં, ગુવ્રતમાં પહેલા, દિગ્વિરતિ સ્વરૂપ દિશાવતના ઉદ્ગદિપ્રમાણતિકમ આદિ પાંચ અતિચાર છે. તે આ પ્રમાણે છે-(૧) ઉર્વદિપ્રમાણુતિક્રમ (૨) અદિપ્રમાણતિકમ (૩) તિર્યક્રદિફપ્રમાણતિકમ (૪) ક્ષેત્રવૃદ્ધિ અને (૫) ઋત્યન્તર્ધાન આ પાંચે અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરે છે અને એક પ્રકારના દુષ્પરિણામ છે. દિશાઓમાં ગમન કરવા માટે પહેલા જે અભિગ્રહ ધારણ કરેલ હોય અર્થાત્ જે મર્યાદા નક્કી કરી હોય, તેનું ઉલ્લંઘન કરવું દિશા પ્રમાણતિક્રમ કહેવાય છે. દિશા પ્રમાણતિકમ ત્રણ પ્રકારના છે-ઉર્વદિશા પ્રમાણતિકમ, અધોદિશા પ્રમાણતિક્રમ અને તિઝિશા પ્રમાણતિક્રમ ઉર્ધ્વદિશામાં પર્વત, વૃક્ષ આદિ ઉપર ચઢવા માટે કરેલી મર્યાદાનું ઉલ્લંઘન કરવું ઉદ્ધ દિફપ્રમાણતિકમ કહેવાય છે. પૂર્વકૃત અદિશાના પ્રમાણથી આગળ કૂવા, * Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ सूत्रे भूमिगृहाद्यवतरणादिकम् - अधोदिक् प्रमाणातिक्रमः । एवं तिर्यगपि पूर्वाभिगृहीतयोजन प्रमाणातिरिक्ततया योजनाधिकगमनं तिर्यक्-दिक प्रमाणातिक्रमः । क्षेत्रवृद्धिस्तात् एकस्यां दिशि-अभिग्रहादिना योजनशतपरिमाणं क्षेत्र परिगृहीतम् अपरस्यां दशयोजनक्षेत्रपरिमाणमभिगृहीतम्, अथ कदाचित्तस्यां दिशि प्रयोजने समुपस्थिते सति योजनशतमध्यादन्यानि दशयोजनानि - अपनीय तत्रैवाने स्वबुद्धयाऽन्यानि दशयोजनानि प्रक्षिपति अन्यस्यां स वर्धयति - इत्येवं क्षेत्रवृद्धि गन्तव्या -४ स्मृत्यन्तर्धानञ्च - स्मृते भ्रंशरूपम् अन्तर्धानमनसेयम् गृहीताया दिमर्यादया विस्मरण मित्यर्थः ५ इत्येव मूर्ध्वदिक प्रमाणातिक्रमादयः पञ्चदिग्वि रतिलक्षणस्य प्रथमदिग्वतस्याऽतिचारा अनगन्तव्याः । तस्मादगारिणा - ऊर्ध्वदिक् है । पूर्वकून अधोदिशा के प्रमाण से आगे कूप, भूगृह आदि में उतरना अधोदिकप्रमाणातिक्रम कहलाता है । इसी प्रकार तिछी दिशा में जाने की जो मर्यादा पहले नियत की हो, उसका उल्लंघन करके आगे जाना तिर्यदिकप्रमाणातिक्रम है । एक दिशा में सौ योजन तक जाने की मर्यादा की हो और दूसरी किसी दिशा में दल योजन तक जाने की मर्यादा की हो, कदाचित् उस दूसरी दिशा में दश योजन से आगे जाने का प्रयोजन आ पडे तो पूर्वोक्त सौ योजन में से दशयोजन कम करके उस दिशा में बढ़ा लेना अर्थात् दूसरी दिशा में दस के बदले वीस योजन तक जाना क्षेत्रवृद्धि अतिचार है। ३५० - किये हुए परिमाण को स्मरण न रखना भूल जाना स्मृत्यन्तर्धान है ! इस प्रकार दिग्विरतिरूप प्रथम दिग्वत के पांच अतिचार जानने વાવ આદિમા ઉતરવું અર્ધા‚િપ્રમાણાતિક્રમ કહેવાય છે. એવી જ રીતે તિછી દિશામાં જવાની જે મર્યાદા પહેલા નક્કી કરી હાય તેનું ઉલ્લંઘન કરીને આગળ વધવુ તિય કૃક્િપ્રમાણાતિક્રમ છે. એક દિશામાં સો ચાજન સુધી જવાની મર્યાદા કરી હાય અને ખીજી કઈ દિશામાં દશ ચેાજન સુધી જવાની મર્યાદા કરી હાય-કદાચિત્ તે ખીજી દિશામાં દશ ચેાજનની આગળ જવાનું પ્રત્યેાજન આવી પડે તે પૂર્વેક્ત સો ચેાજનમાંથી દશ ચેાજન ઓછી કરી તે દિશામાં વધારા કરવા અર્થાત્ મીજી દિશામાં દશને બદલે વીસ ચેાજન સુધી જવું ક્ષેત્રવૃદ્ધિ અતિચાર છે. ખાંધેલી મર્યાદાનું સ્મરણ ન રહેવું, ભૂલી જવું મૃત્યન્તર્ધાન છે. આ રીતે દિગ્વિરતિરૂપ પ્રથમ દિવ્રતના પાંચ અતિચાર જાણ્યા Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ स. ४६ दिव्रतस्याति चार निरूपणम् ३५१ पमाणातिक्रमादीन् पञ्चातिचारान् वर्जयित्वा दिग्विरतिलक्षणं प्रथमं गुणवतं सम्यक्तयाऽनुपालनीयम्-उक्तञ्चोषासकदशाङ्गे प्रथमेऽध्ययने-'दिसिव्वयस्त पंच अइयारा जाणियव्या, न समायरियव्वा, तं जहा-उदिलिपरिमा. णाइकमे, अमोदिसि परिमाणाइक्षमे, तिरियदिलि परिमाणाहकमे, खेत्तबुद्धिस्सुइ अंतरडा' । दिग्वतस्य पञ्चातिचारा ज्ञातव्या, न समाचरितव्याः तद्यथा-ऊर्ध्वदिक्परिमाणातिक्रमः-अधोदिक परिमाणातिकमा-विग्दिक प्रमाणातिक्रमः-क्षेत्रवृद्धिः-स्मृत्यन्तर्धानम्-इति ॥४६॥ ___मूलम्-उवसोगपरिभोगपरिमाणस्त सचित्ताहाराड्या पंच अइयारा ॥४७॥ छाया-उपभोगपरिभोगपरिमाणस्य सचित्ताहारादिकाः पञ्चातिचाराः ।४७। तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे दिग्नतस्य-अदिक् प्रमाणातिक्रमादिकाः चाहिए । गृहस्थ श्रावक को ऊचादिकपमाणालिका आदि पांचों अतिचारों से बच कर दिशाविरतिरूप प्रथम गुणव्रत का सम्धक प्रकार से पालन करना चाहिए। उपासकदशांग के प्रथम अध्ययन में कहा हैदिशावत के पांच अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार हैं-ऊर्ध्वदिप्रमाणातिकम अधोदिकममाणातिक्रम, तिर्यकूदिकप्रमाणातिक्रम, क्षेत्र वृद्धि और स्मृत्यन्तर्धान ॥४६॥ 'उपभोगपरिभोग' इत्यादि उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के सचित्ताहार आदि पांच अतिचार हैं ॥४७॥ तस्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्र में दिगवत के ऊर्ध्वदिक प्रमाणातिक्रम જોઈએ. ગૃહસ્થ શ્રાવકે ઉદર્વદિફપ્રમાણતિક્રમ આદિ પાંચ અતિચારોથી બચીને દિશાવિરતિ રૂપ પ્રથમ ગુણવ્રતનું સભ્યપ્રકારથી પાલન કરવું જોઈએ. ઉપાસકદશાંગના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે-દિશાવતના પાંચ અતિચાર જાણવા જેગ્ય છે, આચરણ કરવા યોગ્ય નથી તે આ પ્રમાણે છે-ઉદર્વદિપ્રમાણતિક્રમ, અદિફપ્રમાણતિક્રમ, તિર્યકુદિફ પ્રમાણાતિમ ક્ષેત્રવૃદ્ધિ અને મૃત્યન્તર્ધાન. ૪૬ 'उवभोगपरिभोगपरिमाणस्स' त्याह સૂત્રાર્થ–ઉપભેગપરિભેગ પરિમાણ વ્રતના સચિત્તાવાર આદિ પાંચ भतियार छ. ॥४७॥ તવાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં દિવ્રતના ઉદર્વહિપ્રમાણતિક્રમ આદિ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ तत्त्वार्थसूत्रे पञ्चातिचारा: महपिताः सम्पति-यथाक्रमप्राप्तस्य द्वादशवतापेक्षया सप्तमस्य गुणव्रतापेक्षया द्वितीयस्योपभोगपरिमोगपरिमाणवतस्य सचित्ताहारादिकान् पञ्चाविचारान् नरूपयितुमाह-उवभोगपरि भोगपरिमाणस्स सचित्ताहाराइथा पंच अइयारा' इति, उपभोगपरिमोगस्य, तत्र-उप मोगा-वस्तुनः सकृद् व्यवहारः-अशनपानस्त्रक्चन्दनादिभोगरूपः। परिभोगो-वस्तुनः पुनः पुनव्यवहारः वस्त्राभूषणादिभोजः तयोः- परिमाणकरणम् उपयोगपरिभोगपरिमाणस् उपभोगपरिमोगो द्विविधः, योजनता-कर्मतश्च,-भोजनतः उपभोग परिभोगस्याऽशनपानखादिमस्वादिमस्त्रालङ्कारादिकस्य परिमाणकरणरूपस्य सप्तमत्रतस्य सचित्ताहारादिका:-सचित्ताहार:-१ आदिना-सचित्त प्रतिवद्धाहारः २ अपक्चौपधिमक्षणम्-३ दुष्पकवोपधिमक्षणम्-४ तुच्छोपविभक्षणम्-५ इत्येते आदि पांच अतिचार पतलाए गए हैं, अप क्रमप्राप्त, वारह व्रतों की अपेक्षा दूसरे उपभोगपरिमाणवत के सचित्ताहार आदि पांच अतिचारों का कथन करते हैं उपभोगपरिभोगपरिमाणवत के पांच अतिचार हैं । जो वस्तु एक चार भोगी जाय वह उपभोग कहलाती है, जैसे अशन, पान, माला, चन्दन आदि और जो वस्तु बार-बार भोगी जाय उसे परिभोग कहते हैं, जैसे-वस्त्र, आभूषण आदि । इन दोनों का परिमाण करना उपभोगपरिओगपरिमाण कहलाता है। उपभोगपरिभोग दो प्रकार का है-भोजन से और कर्म से । इनमें से भोजनले जो उपभोग परिभोग है और अशन, पान, खादिम, स्वादिन, वस्त्र, अलंकार आदि का परिमाण करना जिसका लक्षण है, उस्ल सातवें व्रत के पांच अतिचार -(१) सचित्ताहार (२) सचित्तप्रतिबद्धाहार. (३) अपक्वौषधि भक्षण પાંચ અતિચાર બતાવવામાં આવ્યા છે હવે કેમપ્રાપ્ત, બાર વ્રતોની અપેક્ષા તમાં અને ગુણવ્રતની અપેક્ષા બીજા ઉપભેગપરિગ પરિમાણ વ્રતના સચિત્તાહાર આદિ પાંચ અતિચાનું કથન કરીએ છીએ ઉપગપરિગ પરિમાણ વ્રતના પાંચ અતિચાર છે જે વસ્તુ એકવાર ભોગવી શકાય તે ઉપભોગ કહેવાય છે જેમ કે અનાજ, પાણી, માળા, ચન્દન વગેરે જે વસ્તુ વારંવાર ભેગાવી શકાય તેને પરિભેગ કહે છે. જેમ કે–વસ્ત્ર-આભૂષણ આદિ આ બંનેની મર્યાદા બાંધવી ઉપગપરિભેગ પરિમાણ કહેવાય છે. ઉપગપરિગ બે પ્રકારના છે–ભજનથી અને કર્મથી–આમાંથી ભેજનથી જે ઉપભેગ પરિગ છે અને અશન, પાન, ખાદિમ, રવાદિમ, વસ્ત્ર, અલંકાર વગેરેનું પરિમાણ કરવું જેનું લક્ષણ છે તે સાતમાં વ્રતના पांय मतियार छ-(१) सचित्ताडा२ (२) सथित्तप्रतिमद्धाहार (3) अ५४ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.४७ उ०परिभोगपरिमाणघ्रतस्यातिचारा: ३५१ पञ्चाति चारा आत्मनो मालिन्यताऽऽसादका दुष्परिणतिविशेषाः भवन्ति तत्रसहचित्तेन वर्तते इति सचित्तम् चेतनाद्रव्यम् तस्याऽऽहारः सचित्ताहारः उपभोगपरिमाणव्रतस्य प्रथमोऽतिचारोऽसेयः। सचित्तेन प्रतिबद्धः-उपश्लिष्टः स्पृष्टोवा व आहारः स सचित्तपतिद्धाहारः उपभोगपरिमाणव्रतस्य द्वितीयोऽति. चारो बोध्यः-२ एस्-अपचौपधिमक्षणम्, पास्ता न माप्तो य ओपधिः शालि ब्राह्याधानजातम् तस्य भक्षणम् अयं तृतीयोऽतिचारः-३ दुष्पक्वौषधिभक्षणम्दुर-दुःखेनाऽतिशप्टेन यः पच्यते स दुपक्का, चिराग्नितापपरिपाक साधित: औपधिः मापचणकाऽनजान अलावूचवलफली प्रभृतिश्च यत्पाके-पक्वाऽपक्व (४) दुष्पक्चौपधिभक्षण (६) तुच्छौषधिअक्षण । थे पांच अतिचार आत्मा में मलीनता उत्पन्न करने वाले दुष्परिणाम है । इनका अर्थ इस प्रकार है (१) जो चित्त सहित हो वह सचित्त कहलाता है अर्थात् चेतनावान् द्रव्य । उसका आहार करना सचित्ताहार नामक उपोधपरिभोग परिमाणव्रत का प्रथम अतिचार है। (२) सचित्त से मिला हुआ था छुआ हुआ आहार स्वचित्त प्रतिबद्ध आहार कहलाता है। यह उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत का दूसरा अतिचार है। । (३) जो शालि व्रीहि आदि अन्न पका न हो, वह अपक्व कहलाता है, उसका भक्षण करना अपक्वौषधिमक्षण नामक तीसरा अतिचार है। (४).जो बहुत कठिनाई से पके वह दुष्पक्व अर्थात् बहुत देर तक अग्नि जलाने पर पकने वाली वस्तु । जैसे उडद, चना आदि अन्न, વિષધિભક્ષણ (૪) દુપવૌષધિભક્ષણ (૫) તુચ્છૌષધિભક્ષણ આ પાંચ અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરનારા દુષ્પરિણામ છે. એમને અર્થ આ પ્રમાણે છે (૧) જે ચિત્ત સહિત હેય તે સચિત્ત કહેવાય છે અથવા ચેતનાવાનું દ્રવ્ય તેને આહાર કરે સચિત્તાવાર નામક ઉપગપરિભેગ પરિમાણુ વતને પ્રથમ અતિચાર છે. (૨) સચિત્તથી મળેલું અથવા અડકેલો આહાર સચિત્તપ્રતિબદ્ધ આહાર કહેવાયું છે. આ ઉપગ પરિભગ પરિમાણ વ્રતને બીજે અતિચાર છે. - (૩) જે ડાંગર-ચેખા વગેરે અનાજ પાકયું ન હોય, તે અપકવ કહેવાય છે તેનું ભક્ષણ કરવું અપૌષધિભક્ષણ નામક ત્રીજે અતિચાર છે. (૪) જે ઘણી મુશ્કેલીથી પાકે (૨ધાય) તે દુષ્પફવ અર્થાત્ ઘણુ સમય સુધી અગ્નિ બાળવાથી રંધાતી વસ્તુ જેમ કે-અડદ, ચણુ વગેરે અનાજ, त० ४५ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्यसूत्र PAR विषयिणीशक्षा जायते तादृशस्य दुष्पक्वोपधेर्भक्षणं दुप्पक्वोपधिभक्षणम्, अस्याऽऽरस्म बाहुल्यामिश्रत्वसन्देहाच्चाऽरिचारत्वम् अयं चतुर्थोऽतिचारः ४। तुच्छौषधिमक्षणम्, तुच्छो विराधनाबहुलोऽल्पतृप्तिकारक औषधिविशेषः मूशि दी-सीताफलादिरतस्य भक्षणं तुच्छौंपधिभक्षणम् अस्य यथावत्परिपक्वस्यापिसौजनजातस्याऽल्पस्वात्-त्याज्यभागस्य बहुलवादतिचात्त्वम् । अयं पञ्चमोऽ. विचार: ५ कर्मत उपयोगपरिमोगः-पञ्चदश कर्मादानरूपः। पञ्चदश शर्मादानानि-यथा अङ्गारकर्म १ वनकर्म २ शाकटिककर्म ३ भाटी कर्म ४ चौकी तथा चंवला आदि की फली, जिसके पाने पर यह शंका उत्पन्न होती है कि यह पकी है अथवा नहीं ? ऐसी दुरुपक्व औषधि का अक्षण करना दुष्पक्चौषधिभक्षण नामक अतिचार है । इसमें आरंभ की अधिकता होती है और मिश्र होने का सन्देह बना रहता है, इस झारण इले अतिचार गिना गया है । यह चौथा अतिचार है। (५) जो तुच्छ हो अर्थात् जिसमें विराधना यहुत हो और जिससे तृप्ति अल्प होती हो ऐसी मौसंघी सीताफल आदि को तुच्छौषधि कहते हैं । उसका भक्षण करना तुच्छौषधिभक्षण है। तुच्छौषधि को ठीक प्रकार पका भी लिया जाय तो भी उसमें खाद्य अंश कम होता है ओर फेंकने योग्य भाग अधिक होता है, अतएव इसे अतिचार कहा है। कर्म से उपभोगपरिभोग पन्द्रह कर्मादान है। उनके नाम ये हैं-(१) अंगार कर्म (२) वनकर्म (३) शाकटिककर्म (४) भाटीकर्म (५) स्फोटीગુવાર અથવા ચોળા વગેરેની સીંગ જેના રંધાવાથી એવી શંકા ઉત્પન્ન થાય છે કે આ પાકી હશે કે કેમ? આવી દુપક્વ ઔષધિનું ભક્ષણ કરવું દુષવષધિ ભક્ષણ નામક અતિચાર છે. આમા આરંભની અધિકતા હોય છે અને મિશ્ર હોવાની શંકા થતી રહે છે આથી એની અતિચારમાં ગણત્રી કરવામાં આવી છે આ એથે અતિચાર છે. (૫) જે તુચ્છ હાય અર્થાત્ જેમાં વિરાધના ઘણું હોય અને જેનાથી તૃપ્તિ અપ થતી હોય એવા મેસંબી, સીતાફળ આદિને તુૌષધિ કહે છે. તેનું ભક્ષણ કરવું તે તુચ્છૌષધિ ભક્ષણ છે. તુચ્છૌષધિને સારી પેઠે રાંધી પણ લેવાય તે પણ તેમાં ખાદ્ય અંશ એ છે હોય છે અને ફેંકી દેવા લાયક ભાગ વધુ હોય છે આથી એને અતિચાર કહેલ છે. કર્મથી ઉપભેગ પરિભેગ પંદર કર્માદાન છે. તેમના નામ આ प्रभारी छे-(१) म॥२४ (२) 413 (3) टिम (४) माडीम Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S दीपिका - नियुक्ति टीका अ.७ सू. ४७ उ० परिभोगपरिमाणत्रतस्यातिचारा: ३५५स्फोटीकर्म - ५ दन्तवाणिज्यम् ६ लाक्षावाणिज्यम् ७ रसवाणिज्यम् ८ विषयाः, णिज्यम् ९ केशवाणिज्यम् १० यन्त्रपीडनकर्म ११ निश्चिनकर्म १२ दवाग्निदापनम् १३ सरोदतडागशोषणम् १४ असतीजनपोषणं १५ चेति एतानि पञ्चदश कर्मादानपदवाच्यानि, तथाहि कर्माणि कठोराणि आदीयन्ते गृह्यन्ते, यद्वा - कठोराणां कर्मणा मादानं ग्रहणं येर्भवति तानिति व्युत्पत्तेः एतानि पश्चदशकर्मादानानि श्रमणोपासका न स्वयं कुर्वन्ति नाऽन्येन करयन्ति, कुर्वन्तं वाभ्यंनाऽनुमोदन्ते । एते पञ्चदशकर्मतः - उपभोगपरिभोगपरिमाणत्र तस्याऽविचारा अवसेयाः एषामय्यारम्भवनच्छेदादिना षट्कायोपमर्दनादिसद्भावादनर्थबहुलवादतिचारत्वम् । एषां सविस्तरं व्याख्या - उपासकदशाङ्गसूत्रे मत्कृताया मगारधर्म संजीविनीव्याख्याया मानन्दस्य व्रतस्वीकारमकरणे एकपञ्चाशत्तम सूत्रे - विलोकनीयेति ॥४७॥ " कर्म (६) दन्तवाणिज्य (७) लाक्षा वाणिज्य (८) रस वाणिज्य (९) विषवाणिज्य (१०) केश वाणिज्य (११) यंत्रपीडन कर्म (१२) निलछिनकर्म (१३) दवाग्निदापन (१४) सराहूतडागशोषण और (१५) असतीजनपोषण | यह पन्द्रह कर्मादान कहलाते हैं । जिनसे कठिन कर्मों का आदान-ग्रहण होता है उन्हें कर्मादान कहते हैं। श्रमणोपासक इन पन्द्रह कर्मादानों को न स्वयं करते हैं, न दूसरे से करवाते हैं और न करने वाले की अनुमोदना करते हैं । कर्मतः उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत के ये पन्द्रह अतिचार हैं । इनमें अग्नि का आरंभ बहुत होता है, जंगल कटवाये जाते हैं और षट्काय का विनाश होता है और अनर्थो की बहुलता होती है, इस कारण ये अतिचार कहे गए हैं । इनकी विस्तार युक्त व्याख्या उपासकदशांग सूत्र में मेरी बनाई हुई 'अगार (4) छोटी (4) हन्तवाविन्य (७) साक्षावाणिज्य (८) रसवासिन्य (6) विषवाशिन्त्य (१०) शवाविन्य (११) यंत्री उनमें (१२) निस छन (१३) हवासिहापन (१४) सरोडूहूतडागशोषण सुने (१५) असतीलनपोष આ પંદર કોઁદાન કહેવાય છે જેનાથી ભારે કર્માંતુ આદાન-ગ્રહણ થાય છે તેમને કર્માદાન કહેવાય છે. શ્રમણ્ાપાસક આ પંદર કર્માદાનાને સ્વય ગ્રહણ કરતાં નથી, બીજા પાસે તે કરાવતાં નથી અને કરનારાઓને અનુમેદન આપતા નથી કે તઃ ઉપભેાગ પરિભાગપરિમાણ વ્રતના આ પંદર અતિચાર છે. આમાં અગ્નિના આરભ ઘણુા થાય છે, જગલ કપાવાય છે અને છકાયના જીવાની હિંસા થાય છે અને અનર્થ†ની પર પશ ઉત્પન્ન થાય છે આથી એમને અતિચાર કહેવામાં આવ્યા છે. એની વિસ્તારયુક્ત વ્યાખ્યા ઉપાસકદશાંશ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ comments - - तत्त्वार्थस्त्रे तत्त्वार्थनियुक्ति:-एतत्सूत्रस्य तत्त्वार्थनियुक्तिवक्तव्यता-एतत्सूत्रस्य सवार्थदीपिका टीकायामेव गातार्थाऽतस्तत एव विवेचनीया ॥४॥ मूलम्-अणटादंड वेरमणवयस्स कंदप्पकुक्कुइयाइया पंच अइयारा ॥४८॥ छाया-अनर्थदण्डविरमणव्रतस्य कन्दर्प कौकुच्यादिकाः पञ्चातिचाराः ॥४८॥ तयार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे-उपभोगपरिभोगविरमणलक्षणस्य सप्तमव्रतस्य सचित्ताऽऽहारादिकाः पञ्चाविचाराः प्रतिपादिताः, सम्पति-क्रमप्राप्तस्याअनर्थदण्डविरमणलक्षणस्याऽऽमित्रतस्य पञ्चाविचारान् प्रतिपादयितुमाह 'अण?धर्म संजीविनी' नामक टीका में, अनन्द श्रावक के व्रत ग्रहण प्रकरण में इक्यावन सूत्र में देख लेना चाहिए ॥४७॥ ___ तत्वार्थनियुक्ति--निर्धारित क्रम के अनुसार इस सूत्र की तत्त्वार्थनियुक्ति कहना चाहिए, मगर वह सत्यार्थदीपिका टीका में ही अन्तर्गत हो जाती है, अतः उसी से समझ लेना चाहिए ॥४७॥ ___. 'अणट्ठादंड वेरमण' इत्यादि सूत्रार्थ---कन्दर्प कौकुच्य आदि अनर्थदण्डवित्मणव्रत के पांच अतिचार हैं ॥४८॥ - तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वस्त्र में उपभोगपरिभोगविरमग नामक सातवें व्रत के सचित्तोहार आदि पांच अतिचारों का प्रतिपादन किये गये हैं, अप क्रम प्राप्त अनर्थदण्डविरमण नानक आठ व्रत के पांच अतिचारों का प्रतिपादन करते हैंસૂત્રમાં, મારા વડે રચિત “અગારધર્મસંજીવિની” નામની ટીકામાં, આનંદશ્રાવકના વ્રતગ્રહણ પ્રકરણમાં, એકાવનમાં સૂત્રમાં જોઈ જવા ભલામણ છે. ૫૪છો? તસ્વાર્થનિર્યુક્તિ-નિર્ધારિતક્રમ અનુસાર આ સૂત્રની વાર્થનિર્યુક્તિ કહેવી જોઈએ, પરંતુ તે તત્વાર્થદીપિકા ટીકામાં જ સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે આથી તેમાં જ સમજી લેવી જોઈએ ૪ળા 'अणत्थदण्ड वेरमणब्वयस्स' त्या સૂત્રાર્થ –કન્દપકકુએ આદિ અનર્થદડ વિરમણવ્રવના પાંચ અતિयार छे. ॥४८॥ તત્ત્વાર્થદીપિકા-પૂર્વસૂત્રમાં ઉપગ પરિગ વિરમણ નામક સાતમાં વ્રતના સચિત્તાવાર આદિ પાંચ અતિચાર પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યા છે; હવે ક્રમ પ્રાપ્ત અનર્થદષ્ઠ વિરમણ નામના આઠમાં વ્રતના પાંચ અતિચારોનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ– Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.७ रु. ४८ अनर्थदण्डविरमगतस्यातिचारा ३५७ दंडवेरमणव्ययस्स कंदप्प कुक्कुयाइया पंच अइयारा-इति, अनर्थदण्डविरमणव्रतस्याऽष्टमवास्य तृतीयगुणन्न तरूपस्य कन्दर्पकौकुच्यादिका:-कन्दपः । कौकुच्यम् २ आदिना-मौखर्यम् ३ संयुक्ताधिकरणम् ४ उपभोगाऽतिरिक्तम् ५ इत्येते पञ्चातिचारा आत्मनो मालिन्याऽऽपादका दुष्परिणतिविशेषा भवन्ति । तत्र-रागोद्दीपकात्कामोद्दीपकः महासयुक्तोऽअभ्याऽश्लीलवाक्मयोगः कन्दर्प इति व्यवहियते १ एतदेव वाग् व्यापारणं-हसनश्च मोहनीयको दयसमावेशाद् दुष्कायकर्मप्रयुक्तं वाग्व्यापारोपसर्जनकायव्यापारप्रधानं कौकुच्य मुच्यने, कुकुचस्य कुत्सितसंकोचनादि क्रियायुक्तस्य भावः कौकुच्यम्, भाण्डचेष्टितवत्मुख-नासा-भू-नेत्रादीनां वैरूप्यकरणेन हास्योत्पादनमित्यवमेयः २ धाष्ट्य. ___ अनर्थदण्डविरमणत्रत के पांच अतिचार हैं-(१) कन्दर्प (२) कौकु. च्य (३) मौखर्य (४) संयुक्ताधिकरण और (५) उपभोगातिरिक्त । इन अतिचारों का स्वरूप इस प्रकार है (१) रागभाव के उद्रेक से कामोद्दीपक, हास्ययुक्त, असभ्य, एवं अश्लील वचनों का प्रयोग करना कन्दर्प कहलाता है। (२) यही वचनव्यापार और हंसी-मजाक मोहनीय कर्म के उद्य के आवेश से जब कायिक कुचेष्टाओं से युक्त होता है, जिसमें वचन का व्यापार गौण और काय का व्यापार प्रधान होता है तब कौकुच्य कहलाता है । कुकुच अर्थात् कुत्सित संकोचन आदि क्रिया से युक्त पुरुष का भाव कौकुच्य कहलाता है। भाण्डों की सी चेष्टाओ के सम्मान मुख, नाक, भौंह, नेत्र आदि को विरूप बना कर दूसरों को हंसाना कौकुच्च का आशय है। અનર્થદષ્ઠ વિરમણ વ્રતના પાંચ અતિચાર છે-(૧) કન્દર્પ (૨) કૌમુચ્ચ (3) भौम (४) संयुद्धताधि४२ भने (५) Suतिरित भी पतिચારોનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (૧) રાગભાવના ઉદ્રકથી કામોદ્દીપક, હાસ્યયુક્ત, અસભ્ય અને અશ્લીલ વચનને પ્રગ કરે કન્દર્પ કહેવાય છે. આ જ વચનવ્યાપાર અને ઠઠ્ઠામશ્કરી મોહનીય કર્મના ઉદયના આવેશથી જ્યારે શારીરિક કુચેષ્ટાઓથી યુક્ત હોય છે. જેમાં વચનને વ્યાપાર ગૌણ અને કાયાને વ્યાપાર મુખ્ય હોય છે ત્યારે કીકુ અર્થાત કુત્સિત સંકેચન આદિ કિયાથી યુક્ત પુરૂષને લાવ કીકુ કહેવાય છે. વિદૂષક જેવી ચેષ્ટાઓની માફક મુખ, નાક, ભ્રમર, નેત્ર આદિને કુરૂપ બનાવીને બીજાઓને હસાવવા કૌકુને આશય છે. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ तस्यार्थसूत्रे बहुलम् - अनर्गलं यत्किञ्चित् - अनर्थकम् बहुमलपनं मौखर्य मुच्यते ३ संयुक्ताधिकरणम् - अधिक्रियते सम्बध्यते दुर्गतिष्वात्माऽनेनेत्यधिकरणम्, उदुखल - मुसलधरह - वासी कुठारादि शस्त्रम्, संयुक्तञ्च तदधिकरणं संयुक्ताधिकरणम् उदुग्खलादिकं नैककं किञ्चिदपि कार्य कर्तुं क्षमम्, अपितु - मुसलादिना परस्परसंयोगेनैव एवम् - वास्यादिकमपि दण्डादि संयोगेनैव छेदनादिकार्य सम्पादयितुं समर्थ भवति नतु - एककमिति - उद्खलादीनां मुसकादिना संयोजनं, संयुक्ता धिकरण मितिभावः । संयुक्ताधिकरणस्य हिंसा हेतुत्वादविचारत्वमवगन्तव्यम् ४ । उपभोगपरिभोगयोग्या दधिकस्थाऽर्थस्य ग्रहणम् उपभोग(३) धृष्टता से परिपूर्ण, अनर्गल, निरर्थक अंटसंद बडबडाना मौर्य कहलाता है । WE -- (४) जिसके कारण आत्मा दुर्गतिका अधिकारी बनाया जाय वह अभिकरण कहलाता है अर्थात् ऊखल, मूसल, चक्की, वसूला, कुल्हाडा आदि शस्त्र । इनको जोड कर कार्य करने योग्य बनाना संयुक्ताधिकरण है । ऊखल आदि अकेला - अकेला कोई कार्य नहीं कर सकता, किन्तु मूसल के संयोग से ही करता है इसी प्रकार वसूला आदि भी हत्थे का संयोग होने पर ही अपना कार्य करने में समर्थ होता है, बिना हत्थे के नहीं । इस कारण ऊखल आदि को मूसल आदि से संयुक्त करना संयुक्ताधिकरण समझना चाहिए । संयुक्ताधिकरण हिंसा का हेतु होने से अतिचार है । (५) उपभोग और परिभोग के योग्य से अधिक वस्तु को ग्रहण (3) घृष्टताथी परिपूर्य, मनगंस, निरर्थ४, मेसस मणडवु સૌખય કહેવાય છે. (૪) જેના કારણે આત્માને દ્રુતિના અધિકારી બનાવવામાં આવે તે અધિકરણ કહેવાય છે અર્થાત્ ઉખલ, મૂશળ, ઘંટી, વાંસલા, કુહાડા વગેરે શસ્ત્રો એમને ભેગા કરીને કાર્ય કરવા ચેાગ્ય બનાવવું સંયુકતાધિકરણ છે. સાંબેલું વગેરે સ્વતંત્રપણે કોઇ કાર્ય કરી શકતુ' નથી પરન્તુ મૂશળના સચૈ ગથી જ કરી શકે છે એવી જ રીતે વાંસલા વગેરે પણ હાથાના સચાગ હાવાથી જ પેાતાનું કાય કરવામાં સમર્થ થાય છે, હાથા વગર નહીં. આ કારણે સાંધેલા આદિને મૂશળ આદિથી સંયુકત કરવા સ યુક્તાધિકરણ સમજવા જોઈ એ. સંયુતાધિકરણ હિંસાના હેતુ હાવાથી અતિચાર છે. (૫) ઉભુંગ અને પિરભાગના ચૈાગ્યથી અધિક વસ્તુને ગ્રહણ કરવું Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.४८ अनर्थदण्डविरमणव्रतस्थातिचारा: ३५९ परिभोगाऽतिरिक्त मबसेयम्, तत्र-उपभोगः सकृद्भोगयोग्यमनपान सक् चन्दनादिकम्, परिभोग-पुनः पुन भोंगयोग्यं भवनाऽऽप्तनादिकं तयोरतिरिक्तम्-आधिवयम् उपभोगपरिभोगातिरिक्तम् । तथा चैते पञ्च कन्दर्पादयोऽनर्थ - दण्डविरतिलक्षणतृतीयगुण व्रतस्याऽ तिचारा भवन्ति, तस्माद्-वाधारिणा कन्दपादि परिवर्जनपूर्वकमनर्थदण्डदिरतिव्रत मनुपालनीयम् ॥४८॥ ___ तत्वार्थनियुक्तिः -पूर्वं तावत्-क्रममाप्तस्य द्वितीयाणुव्रतस्य- उपभोगपरिभोगपरिमाणलक्षणस्य सचित्ताहारादयः पश्चातिचाराः प्ररूपिताः सम्पतिक्रमागतस्याऽनर्थदण्ड विरतिलक्षण तृतीय गुव्रतस्य पञ्चातिचारान् कन्दपदीन परूपयितुमाह-'अणदंडवेरमणब्धयस्त कदप्पकुक्कुयाहया पंच आयारा-'इति, पूर्वोक्तस्वरूपस्याऽनर्थ दण्डविरमणव्रतम्य कन्दर्पकौकुच्यादिकाः करना उपभोगपरिभोगातिरिक्त अतिचार है । एक बार भोगने की वस्तु उपभोग कहलाती है और बार-बार भोगने योग्य वस्तु को परिभोग कहते हैं। इनकी अधिकता उपभोगपरिभोगाति. रिक्त अतिचार है। ये पांचो कन्दर्प आदि अनर्थदण्डविरमणव्रत के अतिचार हैं। अतएव व्रतधारी को कन्दर्प आदि से बच कर अनर्थदंडविरमणव्रत का पालन करना चाहिए ॥४८॥ तस्वार्थनियुक्ति--पहले क्रमप्राप्त द्वितीय गुणव्रत-उपभोगपरिभोग परिमाण के सचित्ताहार आदि पांच अतिचारों का प्ररूपण किया गया, अय क्रमागत अनर्थदण्डविरमण व्रत नामक तीसरे गुणव्रत के पांच अतिचारों का कथन करते हैंઉપભોગ પરિભેગાતિરિકત અતિચાર છે. એકવાર ભેગવવાની વસ્તુ ઉપભેગ કહેવાય છે અને વારંવાર ભેગવવા યોગ્ય વસ્તુને પરિભેગ કહે છે. એમની વિપુલતા ઉપભેગપરિભગતિરિક્ત અતિચાર છે. આ પાંચે કન્દર્ય આદિ અનર્થદડ વિરમણ વ્રતના અતિચાર છે આથી વ્રતધારીએ કન્દર્ય આદિથી બચીને અનર્થદંડ વિરમણવ્રતનું પાલન કરવું જોઈએ. ૪૮ તત્ત્વાર્થનિકિત–પહેલા કેમપ્રાપ્ત દ્વિતીય ગુણવ્રત–ઉપભેગપરિભેગ પરિમાણુના સચિત્તાહાર, આદિ પાચ અતિચારોનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે કમાગત અનર્થદલ્ડ વિરમણ વ્રત નામક ત્રીજા ગુણવ્રતના પાંચ અતિચારનું કથન કરીએ છીએ અનર્થદંડ વિરમણ વ્રતના પાંચ અતિચાર છે-(૧) કન્ડર્ષ (૨) કૌકય Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० तत्वार्थ सूत्रे । - कन्दर्पः १ कौकुच्यम् २ आादिना - मौखर्यम् ३ संयुक्ताधिकरणम् ४ उपभोगपरिभोगातिरिक्तम् ५ इत्येते पञ्श्चाविचारा आत्मनो मालिन्याssपादका दुष्परिणतिविशेषा भवन्ति । तत्र कन्दर्प - सामरद्धेतुभूतोऽश्लील वाक्प्रयोगोऽपि कन्दर्पपदेनो-पचर्यते, तथा च- महासमिथोऽसभ्याऽशिष्टाकपयोगः कन्दर्पः १ भ्रू - नेत्रोष्ठ-वदनादिविकारपूर्वका परिहासादिजनको माण्डचारणस्येव कायिको व्यापारः । कौकुच्यम् - कुत्सितनासिका - नयनोष्ठादि संकोचनादि युक्तस्य कुक्कुचस्य भावः कौकुन्यमिति व्युत्पत्तेः तच्च - चौकुच्य मनेकविधम्भवति भाण्ड चारणादिविडम्बन क्रियासदृशक्रिया रूपत्वात् । यद्वा- कुत्सितः कुचः - भ्रूनेत्र - नासिकादिसंकोचनादि क्रियायुक्तः कुकुचत्तस्य भावः कौकुच्य सित्येदअनर्थदंडविरमणव्रत के पांच अतिचार हैं- (१) कन्दर्प (२) कौकुच्प (३) मौर्य (४) संयुक्ताधिकरण और (५) उपयोगपरिभोगातिरिक्त | ये पांचों अतिचार आत्मा में पलीनता उत्पन्न करने वाले दुष्परिणामरूप हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है 1 (१) कन्दर्प अर्थात् काम । जो वचन कन्दर्प का कारण होता है वह भी कन्दर्प कहलाता है । तात्पर्य यह है कि हंसी-मजाक से युक्त असभ्य और अशिष्ट वचन प्रयोग करना कन्दर्प नामक अतिचार है । (२) भौंह, नेत्र होठ और मुख आदि को विकृत करके, दूसरों को हंसाने के लिए भांड के समान जो शारीरिक चेष्टा की जाती है, उसे कौकुच्य कहते हैं । कौकुच्य कई प्रकार से किया जा सकता है, क्यों कि वह भांडों एवं चारणों की विडम्बना-क्रिया के समान होता है। अथवा कुत्सित कुच अर्थात् भौंह, नेत्र, नासिका ओदि के संकोचन की क्रिया से युक्त, उसका भाव कौकुच्य कहलाता है । (3) भौमर्य (४) संयुक्ताचिरा भने ( 4 ) उपभोगपरिभोगातिरिक्त भा પાંચે અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરનારા દુષ્પરિશુામરૂપ છે. એમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (૧) કન્દ અર્થાત્ કામ જે વચન કન્દનું કારણ હાય છે તે પણુ કન્તપ કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે ઠ્ઠા-મશ્કરીથી યુકત અસભ્ય અને अशिष्ट वयनप्रयोग ४२वा उन्दर्प मतियार छे. (२) अमर, नेत्र, होड, અને મુખ વગેરેને વિકૃત કરીને, ખીજાને હસાવવા કાજે વિષકની માફક > જે શારીરિક ચેષ્ટા કરવામાં આવે છે તેને કૌમુચ્ય કહે છે. કૌમુચ્ય ઘણી રીતે કરી શકાય છે કારણ કે તે ભાટ અને ચરણેાની વિડમ્બના—ક્રિયાની જેવુ હાય છે અન્યથા કુત્સિત કુચ અર્થાત્ ભ્રમર, નેત્ર, નાસિકા, આદિના સ ંકોચનની ક્રિયાથી યુકત, તેના ભાવ કોગ્ય કહેવાય છે. (૩) મુખરનેા Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४८ अनर्थदण्डविरमणव्रतस्यातिचाराः ३६९ धेयम् २ मौखयं तारद् सुवररूप भावो मौखर्यम्-चापल्यम्-धाष्टर्य बहुलम सभ्याऽनर्गलाऽसम्बद्ध बहुमलापित्वरूप गन्तव्यम् ३ संयुक्ताधिकरणं तावत्प्रयोजनमनालोयाऽधिकरणश्य संयोजनम्, मुहल-दान-शिला पुत्रक शख गोधूम यन्त्रशिलादीनाम् उद्ग्यलदण्डादिना संयोजनमवसेयम् ४ एवम्-उपभोगपरिमोगाऽतिरिक्तत्वं वक्ष्यनाणास्त्ररूपं बोध्यम्, तत्रो-पभोगोऽशन-पानस्त्रक्चन्दन-कुङ्कुम-क तूरिकाविलेपन प्रमृतिरूप:-परिभोगश्च-वस्वाऽऽभरणादि. लक्षणः तस्माद्-अतिरिक्तम् उपभोगपरिभोगयोग्यवस्तूनां नियमितपरिमाणा दाधिक्येन ग्रहण ५ । तथा च-मन्दपः १ कौकुणम् २ मौर्यम् ३ संयुक्ताधि (३) मुखर का भाव नौचर्य कहलाता है । चपलमा, धृष्टता से युक्त असभ्य, अनर्गल और असरबद्ध प्रलाप आदि इसके रूप हैं। (४) प्रयोजन का विचार किये बिना ही अधिकरण सा संयोजन करना अर्थात् नूहल, दांतला, लोढा, शस्त्र, चकी, शिला, अखल, डंडा (हस्था) आदि के द्वारा संयोजन करना इन्हें परस्पर यथा योग्य संयुक्त करके काल करने योग्य बनाना । (५) जो बस्तु एक पार काम लाई जाय वह उपभोग कहलाती है, जैसे-अशन, पान, माला, चन्दन, कुंकुल, कस्तुरी आदि । जो पदार्थ पुन:-पुन: काल में लाये जाते हैं, उन वस्त्र, आभूषण आदि को परिभोग कहते हैं। इन उपभोग-परियोग के योग्य दस्तुओं को निरर्थक इकट्ठा कर रखना उपलोभरिमोगातिरिक्तत्व अतिचार है। इस प्रकार (१) कन्दर्प (२) कौनुच्या (३) मौखर्य (४) संयुक्ताधिભાવ મીખર્યું કહેવાય છે. ચપલતા, ધૃષ્ટતાથી યુકત અસભ્ય, અનર્ગલ અને અસદ્ધ પ્રલાપ આદિ એના રૂપ છે. (૪) પ્રજનને વિચાર કર્યા વગર ४ मधिनु सय ४२ पर्थात् भूसण, हात, बाटु, शस्त्र, टी, શિલા, ઉખલ, ડાડો (હાથે) અાદિ દ્વારા સંચજન કરવું–આમને પરસ્પર યથારોગ્ય સંયુકત કરીને કામ કરવા ચગ્ય બનાવવું (૫) જે વસ્તુ એકવાર કામમાં લગાડવામાં આવે તે ઉપભે ગ કહેવાય છે જેમ કે-અશન, પાન, માળા, ચન્દને કંકમ, કસ્તુરી વગેરે જે પદાર્થ ફરી-ફરી કામમાં લગાડાય તે વસ્ત્ર, અંભષણ આદિને પરિભેગ કહે છે. આ ઉપગ પરિભોગને યોગ્ય વસ્તુઓને અર્થ વગર વધારે ભેગા કરી રાખવું ઉપભેગપરિભેગાતિરિક્ત અતિચારે છે. माली शत (१) ४.४५ (२) होय (3) भौभय (४) संयुताधिक्ष्य त०४६ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे करणम् ४ उपभोगपरिभोगातिरिक्तं ५ चेत्येने पञ्चानर्थदण्डविरतिव्रतलक्षण हत्तीयगुणवतस्याऽतिचारा भवन्ति । तत्र कामानुपङ्गिरागयुक्ताऽसभ्याऽश्लीलवाक्प्रयोगः कन्दपः १ अस्पष्टवर्णश्रवणरूपहास्यं च कौकुच्यम् एतदुभयमेव मोहनीय कर्मोदयाद् दुष्टकायव्यापारमधानं वाग्व्यापारोपसर्जनम् २ पूर्वापरसम्बन्धरहिता नर्गळबहुलापित्वं पौवयम् स्वार्थसाधनं दिन यत्किञ्चिदसम्बद्ध बहु प्रजल्पनरूपम् ३ । संयुक्ताऽधिकरणन्तु-अधिक्रियते सम्बध्यते नरकादिदुर्गतिषु आत्माऽनेने त्यधिकरणम् उदुखल मुसलघरहवासी कुठारादिशस्त्रम् , संयुक्तञ्च तदधिकरणं संयुक्ताधिकरणम् , उदूखलादिकं लेककं किमपि कार्य वर्तुं समर्थ भवति-अपितुकारण और (५) उपयोगपरिमोगातिरिक्त, ये पांच अनर्थदंडविरति लालक तीसरे गुणव्रत के अतिचार हैं। ___ काम वासना से प्रेरित, रागयुक्त, असभ्य और अश्लील वचनों का प्रयोग करना कन्दर्प नामक अतिचार है। अस्पष्ट वर्ण जिसमें सुने जाएं हास्थ कौकुच्य कहलाता है। यह दोनों मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं । इन काय के दुष्ट व्यापार की प्रधानता होती है और बचनप्रयोग गौण होता है। पूर्वापर संबंध से रहित अनर्गल बकवास मौर्य कहलाता है । तात्पर्य यह है कि कोई प्रयोजन न होने पर भी अंटसंट प्रलाप करना-बहुत बोलना मौखर्य है। जिनके कारण आत्मा नरक आदि दुर्गति का अधिकारी बनता है उसे अधिकरण कहते हैं। अखल, मूसल, चक्की, बालूला, कुल्हाडा, आदि शस्त्र अधिकरण हैं। अखल आदि अकेला कुछ भी कार्य करने में समर्थ नहीं होता, बल्कि અને (૫) ઉપભેગપરિભેગાતિરિક, આ પાંચ અનર્થદંડ વિરતિ નામક ત્રીજા ગુણવ્રતનાં અતિચાર છે. કામવાસનાથી પ્રેરિત, રાગયુકત, અસભ્ય અને અશલીલ વચને પ્રયોગ કરે કન્દપ નામક અતિચાર છે. અસ્પષ્ટ વર્ણ જેમાં સંભળાય એવા હાસ્ય કક કહેવાય છે. આ બંને મોહનીય કર્મના ઉદયથી થાય છે. તેમાં કામના દુષ્ટ વ્યાપારની પ્રધાનતા હોય છે અને વેચનપ્રયોગ ગૌણ હોય છે. પૂર્વાપર સંબંધથી રહિત અનર્ગલ બકવાટ મૌર્ય કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે bઈ પ્રજન ન હોવા છતાં પણ ગડબડગોટાળા ભર્યો પ્રલાપ કર–વધારે પડતું બોલવું મૌખર્યું છે. જેના કારણે આત્મા નરક આદિ દુર્ગતિનો અધિકારી બને છે તેને અધિકરણ કહે છે ઉખલ, મૂશલ, ઘંટિ, વાંસલે, કુહાડા વિગેરે શાસ્ત્ર અધિકરણ છે. ઉખલ વગેરે એકલું કઈ પણ કાર્ય કરવા માટે સમર્થ હેતું નથી પરંતુ મૂશળ આદિની સાથે યાચિત સયાગ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अं. ७ . ४८ अनर्थदण्डविरमणव्रतस्यातिचाराः ३६३ . मुसलादिना मिथः संयोगेनैव एवं-वास्यादिकमपि बंशदण्डादिसंयोगेनैव छेदनादि कार्य सम्पादयति-तु-एककम् , अतएव-उलूखलादीनां मुसलादिना संयोजन संयुक्ताधिकरणमुच्यते ४ उपभोगपरिभोगातिरिक्तत्वञ्च-अशनपानादिकम् , अलकारवस्त्रादिकञ्च याददुपभुज्यते स्वात्मन स्तावत एव ग्रहणमुपभोगपरिभोगपरिमाणं भवति तदपेक्षयाऽधिकस्य ग्रहणम् उपभोगपरिभोगातिरिक्तत्वमवसेयम् । तस्मात्-अनर्थदण्डविरतिव्रतधारिणाऽगारिणा कन्दादि पञ्चाविचारवर्जनपूर्वक सम्यक्तया तृतीयगुणवतरूपमनर्थदण्डविरतिव्रतमनुपालनीयम् । उक्तञ्चोपासक दशाङ्गे प्रथमाध्ययने-'अणहादंड वेलणस्त लमणोधासएणं पंच अइयारा जाणियधा, न मलायरियश तं जहा-कंदप्पे कुक्कुहए-मोहरिएमूसल आदि के लाथ यथोचिन संयोग होने पर ही वह अपना कार्य कर सकता है। इसी प्रकार बनला आदि भी दंड (हत्थे) के संयोग से ही छेदन आदि क्रिया कर सकता है, अकेला नहीं। अतएव अखल आदि का मूसल आदि के साथ संयोग करना संयुक्ताधिकरण कह लाता है । अशन पान आदि उपभोग और अलंकार वस्त्र आदि परिभोग कहलाते हैं । जितने उपभोगपरिभोग के योग्य पदार्थों की अपने लिए आवश्यकता हो, उससे अधिक का ग्रहण करना उपभोगपरिभोगातिरिक्तत्व अतिचार समझना चाहिए। अनर्थदण्डविरति नामक व्रत के धारक श्रावक को कन्दर्प आदि पांचों अतिचारों से बचते हुए सम्यक प्रकार से तीसरे गुणवतरूप अनर्थदण्डविरतिव्रत का पालन करना चाहिए। उपासकदशांग के प्रथम अध्ययन में कहा है-'श्रमणोपालक को अनर्थदंडविरमणव्रत के पांच થવાથી જ તે પિતાનું કાર્ય કરી શકે છે. એવી જ રીતે વાંસ વગેરે પણ ६. (21)। संयोगथी ०४ जेहन माठिया री श छ, ४ नही: આથી ઉખલ વગેરેને મૂશળ આદિની સાથે સયાગ કર સંયુકતાધિકરણ કહેવાય છે. અનાજ, પાણી આદિ ઉપગ અને અલંકાર વસ્ત્ર આદિ પરિભેગ કહેવાય છે. જેટલા ઉપગ પરિભેગને ચોગ્ય પદાર્થોની પિતાને માટે જરૂરીયાત હોય, તેથી અધિકનું ગ્રહણ કરવું ઉપગ પરિભેગાતિરિક્ત અતિચાર સમજવા જોઈએ. અનર્થદડ વિરતિ નામક વ્રતના ધારક શ્રાવકે કન્દ આદિ પાંચે અતિચારેથી બચતા થકા સમ્યફપ્રકારે ત્રીજા ગુણવ્રતરૂપ અનર્થદડ વિરતિ વ્રતનું પાલન કરવું જોઈએ ઉપાસકદશાંગ સૂત્રનાં પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છેશ્રમણોપાસકે અનર્થદડ વિરમણ વ્રતના પાંચ અતિચાર જાણવા જોઈએ પરન્ત Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे संजुत्ताहिगरणे, उपभोगपरिभोगाइरित्ते' इति, अनर्थदण्डविरमणस्य श्रमणोपासकेन पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तपथा-कन्दर्प:-कौकुच्यम्भौखयम्-संयुक्ताधिकरणम्-उपभोगपरिभोगाऽतिरिक्तत्वम् , ति ॥४८॥ मूलम् लामाइयस्ल मणदुप्पणिहाणाइया पंचअइयारा ॥४९॥ छाया-सामायिकस्य मनोदुष्प्रणिधानादिकाः पश्चातिचाराः ॥४१॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वमूत्रे यथाक्रमागतस्याऽनर्थदण्डविरतिलक्षण दृतीयशुणवतस्य कन्ददियः पञ्चाविचाराः प्ररूपिताः, सम्पत्रि-सामायिक व्रतस्य प्रथमशिक्षाव्रतस्य द्वादशव तेषु नवमस्य मनोदुष्प्रणिधानादिकान् पश्चातिचारान् प्रतिपादयितुमाह-'लामाहाल लणदुपपणिहाणाझ्या पंच अइयारा' इति, सामायिकस्य पूर्वोक्त सामायिकत्रतरूपपथमशिक्षावतस्य मनोदुष्पणिधानादिकाः -मनोदुष्पणिधानम् १ आदिना-चोदुष्मणिधानस् २ कायदुप्प्रणिधानम् ३ अतिचार जानना चाहिए परन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे अतिचार इस प्रकार हैं-कन्दर्प, कौकुच्य, मौखर्य, संयुक्ताधिकरण और उपभोगपरिभोगातिरिक्तत्व ॥४८॥ 'सामाइयरत नणदुप्प' इत्यादि सूत्रार्थ-सामायिशवत के मनादुष्प्रणिधान आदि पांच अतिचार है॥४०॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वमन्त्र में क्रमागत अनर्थदण्डविपणनत के कन्दर्प आदि पांच अतिचारों का प्रतिपादन किया गया, अब प्रथम शिक्षाव्रत एवं वारह व्रतों में से नव में सामायिकत्रत के मनो दुष्प्रणिधान आदि पांच अलिचारों की प्ररूपणा करते हैं पूर्व कथित पहले शिक्षाबत सामायिक के पांच अतिचार हैं-(१) मनो दुष्प्रणिधान (२) वचनदुष्मणिधान (३) कायदुष्प्रणिधान (४) તેમનું આચરણ કરવું જોઈએ નહીં આ અતિચાર આ પ્રકારે છે-કન્દપ, કૌમુખ્ય, મૌખર્ય, સંયુકતાધિકરણ અને ઉપગ પરિભેગાતિરિક્તત્વ. ૪૮ 'सामाइयस्त्र मणदुप्पणिहाणाइया' त्या સૂત્રાર્થ–સામાયિક વ્રતનાં મન દુપ્પણિધાન આદિ પાંચ અતિચાર છે. ૪ તત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વ સૂત્રમાં કમાગત અનર્થદઢ વિરમણ વ્રતના કન્દર્પ આદિ પાંચ અતિચારનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું, હવે પ્રથમ શિક્ષાવ્રત અને બાર તે પૈકીના નવમાં સામાયિક વ્રતના મનદુપ્રણિધાન આદિ પાંચ અતિચારોની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ___ थि: पहसा शिक्षाप्रत सामायिना पांय अतियार छ-(१) भनाहुप्रणिधान (२) श्यनप्रधान (3) अयप्रधान. (४) सामायितुं Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४९ सामायिकत्र तस्यातिचाराः ३६५ सामायिकस्य स्मृत्यकरणम् ४ सामाविशत्याऽनवस्थितस्य करणम् ५ इत्येते पञ्चाऽतिचारा आत्मनो मालिन्याऽऽपाइका दुष्परिणतिविशेषा भवन्ति । तत्र-त्रिविधस्वावद् योगः पूर्व मानसिक-वाचिक-कायिक भेदात् प्रतिपादितः, तस्य दुष्य. णिधानम् , दुष्टं प्रणिधानं सामायिकलक्षणध्यानविशेषावसरे मनोवाकायानां क्रोधमानमायालोभसहिता दुष्टमटलया-मनोदुष्प्रणिधानम् १ वचोदुष्पणिधानम्२ कायदुष्प्रणिधानं ३ चो-च्यते । तत्र-मन्दोदुष्प्रणिधानम्-सामाविकाऽनुष्ठानसमये गृहसम्बन्धि सुकृतदुष्कृतपरिचिन्तनमित्यर्थः १ एवं-वचोदुष्प्राणिधानम् -वचसो दुष्पणिधानम् , सामायिकसमये निष्ठुरसावध मापासप्लुदीरणम् २ एवम्-कायस्य शरीरस्य दुष्मणिधानं दुष्टं-सावा मणिधान-प्रवर्तन कायदुष्पणि. धानम् , अममानिताऽनिरीक्षितभूमौ हस्तपादादि प्रसारणम् इत्यर्थः ३ एवंसामायिक का स्मरण न रहना और (५) अनवस्थित रूप ले सामायिक करना। ये पांच अतिचार आत्मा मलीनता उत्पन्न करने वाले दुष्परिणाम हैं। पहले मनोयोग, बचनयोग और काययोग के भेद खे तीन प्रकार को योग कहा गया है, उसका दुष्ट प्रणिधान करना अर्थात् सामा. यिक रूप ध्यान के अवसर पर मन वचन काय को क्रोध मान माया लोभ सहित प्रवीना लनोदुष्प्रणिधान, वनदुष्प्रणिधान और काय दुष्प्रणिधान पहलाता है । सामायिक करते समय घर संबंधी अच्छेबुरे कामों का विचार करना मनो दुष्प्रणिधान है । सामायिक के समय निष्ठुर एवं लावध माषा का प्रयोग करना वचन दुष्प्रणिधान है। इसी प्रकार शरीर से दुष्ट अर्थात् सावध व्यापार करना कायदुष्प्रणिधान है, जैसे अप्रमार्जित और अप्रतिलेखित भूमि पर हाथ-पैर आदि फैलाना । મરણ ન રહેવું અને (૫) અનવસ્થિત રૂપથી સામાયિક કરવી. આ પાંચ અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરનારાં દુષ્પરિણામ છે. પહેલા મગ, વચનગ અને કાયયોગના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના ચોગ કહેવામાં આવ્યા છે, તેનું દુષ્ટ પ્રણિધાન કરવું અર્થાત્ સામાયિક રૂપ ધ્યાનના અવસર પર મન વચન કાયાને ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ સહિત પ્રવર્તાવવા મને દુપ્રણિધાન વચનદુપ્રણિધાન અને કાયદુપ્પણિધાન છે. સામાયિક લીધી હોય ત્યારે નિષ્ફર તેમજ સાવભાષાને પ્રવેગ કરે વચનદુપ્રણિધાન છે. એવી જ રીતે શરીરથી દુષ્ટ અર્થાત્ સાવદ્ય વ્યાપાર કરે કાયદુપ્રણિધાન છે જેમ કે-અપ્રમાર્જિત અને અપ્રતિલેખિત ભૂમિ પર હાથ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ सामायिकस्य स्मृत्य करणम् , सामायिकसम्वन्धिनी या स्मृतिः-स्मरणं, तस्या अकरणम् 'अमुकतमये मया सामायिकं कृत-कर्तव्यं-करिष्यामि वा' इत्येवं निश्चित सामायिकसमयस्य विस्मरणमित्यर्थः ४ एवं-सामायिकस्याऽनवस्थितस्यकरणम् , सामायिकस्य कदाचिदाचरणं-कदाचिदनाचरणं कदाचित्तु समयमपरिसमाप्यत्रोत्थानमित्यर्थ. ५ तत्र-शरीरावयवानाम् अनिभृतस्वरूपा कायस्याऽन्यथा प्रवृत्तिलक्षणा दुष्पतिः १ संस्कारहितार्थागमवर्णपदप्रयोगरूपा वचोऽन्यथापत्तिलक्षणा दुष्टप्रवृत्तिः २ उदासीनस्वरूपाच मनोऽन्यथा प्रवृत्तिलक्षणा दुष्ट चौथा अतिचार है सामायिक की स्मृति न रहना अर्थात् 'अमुक समय में मैंने सामायिक की या अनुक समय पर मुझे सामायिक करना है था करूंगा' इस प्रकार सामायिक के समय को भूल जाना। पांच वां अतिचार है-लामायिक अनवस्थितरूप से करना अर्थात् कभी सामायिक करना, कभी न करना, कभी समायिक का समय पूर्ण होने से पहले ही उठ जाना । इस प्रकार सामायिक के पांच अतिचार फलित होते हैं (१) शरीर के अवयवों की अर्थात् काय की अन्यथा प्रवृत्तिरूप दुष्ट प्रवृत्ति करना। (२) संस्कारहीन, आगम, वर्ण, पद का प्रयोग रूप वचन की दुष्ट प्रवृत्ति करना। ___ (३) मन की उदासीनतारूप अन्यथा प्रवृत्ति करना । यह तीन પગ વગેરે પ્રસારવી અતિચાર છે સામાયિકની સમૃતિ ન રહેવી અર્થાત અમુક સમયની અંદર મેં સામાયિક કરી અથવા અમુક સમયે મારે સામાયિક કરવી છે અથવા કરીશ આ રીતે સામાયિકના સમયને વિસરી જ. પાંચમ અતિચાર છે–સામાજિક અનવસ્થિત રૂપથી કરવી અર્થાત્ ક્યારેક સામાયિક કરવી, કયારેક ન કરવી, ક્યારેક સામાયિકનો સમય પૂરો થતાં અગાઉ જ સામાયિકવાળી લેવી આ રીતે સામાયિકને પાંચ અતિચાર ફલિત થાય છે (૧) શરીરના અવયની અર્થત, કાયાની અન્યથા પ્રવૃત્તિરૂપ દુષ્ટ પ્રવૃત્તિ કરવી. (1) स२४।२हीन, मागम, १ पहना प्रयास ३५ वयननी दुष्ट પ્રવૃત્તિ કરવી. (૩) મનની ઉદાસીનતા રૂપ અન્યથા પ્રવૃત્તિ કરવી. આ ત્રણ પ્રકારનાં Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४९ सामायिकवतस्यातिचाराः ३६७ प्रवृत्तिः ३ इत्येव त्रिविधं योगदुष्टणिधानम् । सामायिक स्मृत्यकरणम् , अनेकाग्रत्वं स्मृत्यनुपस्थानम् न ज्ञायते 'किं मया पठित-किंवा न पठिनम्' इत्येवमेकाग्रतारहितत्वं स्मृत्यकरणमवगन्तव्यम् ४ सामायिकस्याऽनवस्थितस्य करणम् , अव्यवस्थितं सामायिकस्य करणम् ५। तथा इ-सनोयोगदुष्पणिधानादयः पञ्च. ध्यानविशेषरूप सामायिकस्याऽतिचाराः ॥४९।। तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावद् यथाक्रमं तृतीयगुणवतस्याऽनर्थदण्डविरतिलक्षणस्य कन्दर्पादयः पश्चाविचाराः पतिपादिताः, सम्पति-क्रमागास्य द्वादशव्रतेषु नवमलक्षणस्य प्रथम शिक्षानतस्य सामायिकत्रतस्य मनोयोगदुष्प्रणिधानादीन् पञ्चाविचारान प्ररूपयितुमाह-'लामोइघल्ल मणदुप्पणिहाणाशा पंच अइ. यारा' इति, सामायिकस्य प्रथम शिक्षाव्रतविशेष रूपसामायिक व्रतस्य मनोयोगप्रकार का योगदुष्प्रणिधान है। (४) सामायिक का स्मरण न करना, एकाग्रता न रहना, यह भी मालुम न रहता कि मैंने क्या पढ़ा है और क्या नहीं पड़ा है। इस प्रकार मन का एकाग्र न रहना स्मृत्यकरण समझना चाहिए। (५) सामायिक अनवस्थित करना अर्थात् व्यवस्थितरूप से न करना। इस प्रकार मनोदुष्प्रणिधान आदि ध्यानविशेषरूप समायिकत्रत के पांच अतिचार हैं ॥४९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले क्रम के अनुसार अनर्थदण्डविरति नामक तीसरे गुणव्रत के कन्दर्प आदि पाँच अतिचार प्रतिपादन कियेगये हैं। अब क्रमप्राप्त वारह व्रतों में से नौवें और शिक्षाबतों में पहले लामा. यिकत्रत के मनो दुष्प्रणिधान आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैंसामायिव्रत के योग दुष्प्रणिधान आदि पांच अतिचार हैं યોગદુપ્રણિધાન છે. (૪) સામાયિકનું સ્મરણ ન કરવું, એકાગ્રતા ન રહેવી, એ પણ ખબર ન પડે કે મેં શું વાંચ્યું છે અને શું નથી વાંચ્યું? આ રીતે મનની એકાગ્રતાનો અભાવ મૃત્યકરણ સમજવું ઘટે. (૫) સામાયિક અનવસ્થિત કરવી અર્થાત્ વ્યવસ્થિત રૂપે ન કરવી. આ રીતે અને પ્રણિધાન આદિ ધ્યાનવિશેષ રૂપ સામાયિક વ્રતના પાંચ અતિચાર છે. ૧૪ તત્ત્વાર્થનિર્યુક્તિ–પહેલા કેમના અનુસ૨ અનર્થદડવિરતિ નામક ત્રીજા ગુણવ્રતના કન્દર્ષ આદિ પાંચ અતિચાર પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યા હવે કમખામ બાર વ્રતો પૈકી નવમાં અને શિક્ષાવતેસાના પહેલા સામાયિક વ્રતના મને દુપ્રણિધાન આદિ પાંચ અતિચારોની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे दुष्पणिधानादय:-मनोयोगदारणिधानम् १ वबोयोगदुप्पणिधानम् २ काययोग दुष्मणिधानम् ३ सामायिकस्य स्मृत्यकरणम् ४ सामायिकस्याऽनवस्थितस्य करणम् ५ चेत्येते पञ्चातिचारा आत्मनो मालिन्यतापाद का दुपरिणतिविशेषा भवन्ति । मणिधानप्रयोगः, दुष्टं प्रणिधानं दुष्प्रणिधानम् , तत्रिविधं मनोदुष्पणिधान-वचोदुष्पणिधान-काय दुष्पणिधानभेदात् । तत्र-क्रोधमानमायालोभ द्रोहेयादिना चित्तसम्भ्रमः-गृहसम्बन्धि सुकृतदुष्कृतचिन्तनं च मनोदुप्पणिधानम् १ निप्टुरसावधभाषोदीरणं वचोदुष्रणिधार म् २ हस्तपादादि शरीरावय (१) मनोयोगदुष्प्रणिधान (२) बचनयोग दुष्पणिधान (३) काययोग दुष्प्रणिधान (४) सामायिक की स्मृति न रखना और (५) अनवस्थित रूप से सामायिक कारना। ये पांचों अतिचार आत्मा में मलीनता उत्पन्न करने वाले दुष्परिणाम है। प्रणिधान का अर्थ है-प्रयोग-व्यापार । दुष्ट प्रणिधान दुष्प्रणिधान कहलाता है । वह तीन प्रकार का -मनोदुष्प्रणिधान, वचन दुष्प्रणिधान्न और कायदुष्प्रणिश्वान । इनका स्वरूप इस प्रकार है (१) क्रोध, मान, माया, लोल, द्रोह, ईष्यां आदि के कारण चित्त में संभ्रप्प होना और घर संबंधी सुकृत एवं दुष्कृत का विचार करना मनोदुणिधान है। (२) निष्ठुर और पापयुक्त भाषा का प्रयोग करना वचन दुष्प्रणिधान है। સામાયિક વ્રતના ગદુપ્પણિધાન આદિ પાંચ અતિચાર છે–(૧) મનેयोगप्रणिधान (२) क्यनयोगप्रणिधान (3) ययामप्रणिधान (४) સામાયિકની સ્મૃતિ ન રાખવી અને (૫) અનવસ્થિતપણે સામાયિક કરવી. આ પચે અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરનારા દુષ્પરિણામ છે. પ્રણિધાનને અર્થ છે–પ્રયોગ-વ્યાપાર દુષ્ટ પ્રણિધાન દુપ્રધિન કહેવાય છે તે ત્રણ પ્રકારના છે–મને દુપ્રણિધાન, વચનદુપ્પણિધાન અને કાયદુપ્રણિધાન એમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (१) ४.ध, मान, माया, सास, द्रोड, ४ा वगेरेना ४२वित्तमा ભ્રમણ થવી અને ઘર સંબંધી સુકૃત તથા તથા દુષ્કતને વિચાર કરે મને દુપ્રણિધાન છે. (૨) નિષ્ફર અને પાપયુકત ભાષાને પ્રત્યે ગ કર વયનદુષણિધાન છે. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ रु. ४९ सामायिकव्रतस्यातिचाराः ३६९ वानामप्रमार्जिताऽपतिलेखितभूमावस्थापनं काययोगदुष्पणिधानम् ३ कदाचित्करणं कदाचिदकरणं-समयमसमाप्योत्थान का, तद्विस्मरणं च सामायिकस्य स्मृत्यकरणम् अनेकाग्रता-सामायिक विषयकस्मरणाऽभावः सामायिक मया विधेयं न वा विधेयम्, कृतं न वा-कृतम् इत्येवमवधारणं स्मृतिभ्रंश इति भावः, मोक्ष. साधनाऽनुष्ठानस्य स्मरणमूलकत्वात् ४ प्रतिनियतसमये सामायिकस्याऽकरणं सामायिकस्याऽनवस्थितस्य करणम् ५ इत्येते एचप्रथमशिक्षाब तरूपसामायिक प्रतस्याऽतिचारा अवगन्तव्याः। तरमात्-व्रतधारिणाऽगारिणा मनोदुष्पणिधानादि पश्चाऽतिचारवर्जन पूर्वकं सामायिवान्न तमनुपालनीयम् । उक्तश्चोपासकदशाङ्गे प्रथमे ___ (३) बिना पूंजी और दिला देखी भूमि पर हाथ-पैर आदि शरीर के अवयदों के स्थापित करना कायदुप्रणिधान है। (४) सामायिक कली करना, कभी न करना, समय पूर्ण होने से पहले ही ऊठ बैठना, लानापिक करना भूल जाना, इत्यादि सामायिक का स्मृत्यकरण कहलाता है। चित्त का एलान न रहना, लामायिक संबंधी स्मरण न रहना, मुझे लायाधिक करनी है या नहीं करनी है, की है अथवा नहीं की है, यह सब स्मरण रखना स्मृत्यकरण कहलाता है । मोक्ष का साधनभूत अनुष्ठान स्मृतिमूलक ही होता है। (५) नियत स्यमय पर सामायिक न करना अनस्थित सामायिक करना कहलाता है। ये प्रथम शिक्षा सामायिक के पांच अविचार हैं। अतएव वन. धारी श्रावक को मनोनुणिधान आदि पांच अतिचारों का परित्याग (૩) વગર પૂંજેલી અને વગર એલી જમીન પર હાથ-પગ આદિ શરીરના અવયવોને સ્થાપિત કરવા કાયદુપ્રણિધાન છે. (૪) સામાયિક ક્યારેક કરવી, કયારેક ન કરવી સમય પૂરો થતા અગાઉ જ સામાયિક પાળી લેવી, સામાયિક જ ભૂલી જવી ઈત્યાદિ સામાયિકનું મૃત્યકરણ કહેવાય છે. ચિત્તની એકાગ્રતા ન રહેવી, સામાયિક સંબંધી સ્મરણ ન રહેવું, મારે સામાયિક કરવી છે કે નથી કરવી, મેં સામાયિક કરી કે નહીં, આ બધું સ્મરણ ન રાખવું મૃત્યકરણ કહેવાય છે. મોક્ષના સાધનભૂત અનુષ્ઠાન સ્મૃતિસારક જ હોય છે. (૫) નિયત સમયે સામાયિક ન કરવી અનવસ્થિત સામાયિક કરી એમ કહેવાય છે. આ પ્રથમ શિક્ષાવ્રત સામાયિકના પાંચ અતિચાર છે આથી વ્રતધારી શ્રાવકે મને પ્રણિધાન આદિ પંચ અતિચારોના પરિત્યાગ કરતા થકા त०४७ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वार्थसूत्रे ऽध्ययने-'सामायस्ल पंच अइयारा समणोवासएणं जाणियन्वा, न समायरियच्या, तं जहा-मणदुप्पणिहाणे, वए दुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, लामाइयस संति अकरणयाए, सामाइयस्स अणवडियस्स करणया' इति । सामायिकस्य-पञ्चाऽतिचाराः श्रमणोपासकेन ज्ञातव्याः न समाचरितव्याः, तद्यथा-मनोदुष्प्रणिधानम् १ वचोदुष्प्रणिधानम् २ कायदुष्प्रणिधानम् ३ सामयिकस्य सत्याकरणता, सामायिकल्याऽनवस्थितकरणता इति ॥४९॥ मूलम्-देसावगालियस्स आणणपयोगाइया पंचअइयारा।५०। छाया-देशावकाशिकस्याऽऽज्ञापनपयोगादिकाः पञ्चातिचाराः ॥५०॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्ववत्रे सामायिकस्य प्रथमशिक्षात्र रस्य मनोदुष्पणिधानादयः पश्चाविचाराः प्ररूपिताः सम्प्रति-क्रममाप्तस्य द्वितीयस्थ शिक्षाव्रतस्य करते हुए सामायिक व्रत का पालन करना चाहिए । उपासकदशांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में कहा है-श्रमणोपासक को सामायिक के पांच अतिचार जानना चाहिए किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे पांच अतिचार इस प्रकार हैं-(१) मनोदुष्प्रणिधान (२) वचनदुष्प्रणिधान (३) कायदुष्प्रणिधान (४) सामायिक की स्मृति न करना और (५) अनवस्थित रूप से सामायिक करना ॥४९॥ 'देसावगासियस' इत्यादि । सूत्रार्थ-देशावकाशिकव्रत के आनधनप्रयोग आदि पांच अतिचार हैं ॥५०॥ - तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्र में सामायिक नामक प्रथमशिक्षावत के मनोदुष्पणिधान आदि आंच अतिचार कहे गए हैं। अब क्रमप्राप्त સામાયિક વ્રતનું પાલન કરવું જોઈએ. ઉપાસકદશાંગસૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે–શ્રમ પાસકે સામાયિકના પાંચ અતિચાર જાણવા જોઈએ પરંતુ તેમનું આચરણ કરવું જોઈએ નહીં. આ પાંચ અતિચાર આ મુજબ છે-(૧) भनाप्रणिधान (२) क्यन प्रणिधान (3) अयप्रणिधान (४) सामायिनी સ્મૃતિ ન રાખવી અને (૫) અનવસ્થિતપણે સામાયિક કરવી ૪૯ 'देसावगासियस्त्र' या - સૂત્રાર્થ-દેશાવકાશિક વ્રતના આનયન પ્રયોગ આદિ પાંચ અતિચાર છે.પ૦ તરવાથદીપિકા-પૂર્વસૂત્રમાં સામાયિક નામક પ્રથમ શિક્ષાવ્રતના મને દુપ્રણિધાન આદિ પાંચ અતિચાર કહેવામાં આવ્યા છે. હવે ક્રમ પ્રાપ્ત દ્વિતીય શિક્ષાવતના, બાર વર્તમાના દશમા દેશાવકાશિક વ્રતના આનયનપ્રચાગ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ स्. ५० देशावकाशिकवतस्यातिचारनि० ३४ द्वादशवतेषु दशमस्य देशावकाशिकवतस्याऽऽनायनमयोगादिकान् पञ्चातिचारान् प्ररूपयितुमाह-'देसावगासियस्स आणवणप्पयोगाझ्या पंच अइयारा' इति । देशावकाशिकवतस्य पूर्वोक्तदेशवितिलक्षण द्वितीयशिक्षाव्रतस्याऽऽनायन प्रयोगादिका:-आनयनप्रयोगः १ आदिना प्रेषणप्रयोगः २ शब्दानुपात ३ रूपानुपात: ४ वहिः पुद्गलक्षेपश्च ५ इत्येते पञ्चातिचारा आत्मनो मालिन्याऽऽ. पादका दुष्परिणतिविशेषा भवन्ति । तत्र-पूर्वमात्मनाऽभिगृहीते देशे स्थितस्य प्रयोजनवशाल-अभीष्टं यत् किञ्चिद् 'आनय' इत्येव मानयनम् , तस्य प्रयोगा, आत्मसंकल्पिते देशे स्थितोऽपि प्रतिपिद्धाऽनभिगृहीतदेशस्थितानि वस्तूनि कार्यवंशात् तद्वस्त्वधिकारिणं निवेध निजदेशमध्ये-भानाय्य क्रयविक्रयादिकरणम्द्वितीय शिक्षावत, के वारह व्रतों में दल देशावकाशिकवत के आनयनप्रयोग आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैं देशाधकाशिकवत के, जो शिक्षानतों में दूसरा है, आनयनप्रयोग आदि पांच अतिचार हैं । के ये हैं-(१) आनयनमयोग (२) प्रेषणप्रयोग (३) शब्दानुपात (४) रूपानुपात और (५) बहिः पुद्गलक्षेप । ये पांच अतिचार आत्मा में मलीनता उत्पन्न करने वाले दुष्परिणामरूप हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है__ (१) पहले जिस देश की मर्यादा की है उसमें स्थित मनुष्य ती पुरुष को कोई प्रयोजन उपस्थित हो जाय तब वह बारह प्रदेश से किसी वस्तु को 'ले आओ' इस प्रकार कह कर मंगवाता है तो आनयनप्रयोग अतिचार होता है । तात्पर्य यह है कि अपने मर्यादित क्षेत्र में स्थित रहते हुए मर्यादा के बाहर के निषिद्ध क्षेत्र में स्थित वस्तुओं को આદિ પાંચ અતિચારની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ દેશાવકાશિક વ્રતના, જે શિક્ષાવતેમાં બીજુ છે, આનયનBગ આદિ પાંચ અતિચાર છે. તે આ પ્રમાણે છે-(૧) આનયનપ્રયોગ (૨) પ્રેષણપ્રગ (3) शहानुपात (४) ३५ानुपात मन (५) पडित५ मा पांच અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરનારા દુપરિણામ રૂપ છે એમ વરૂપ આ પ્રકારે છે-(૧) પહેલા જે દેશની મર્યાદા કરેલી છે તેમાં રહેલા કોઈ વતી પુરૂષને કોઈ પ્રયજન ઉપસ્થિત થઈ જાય ત્યારે તે બહારના પ્રદેશથી કઈ વસ્તુને “લઈ આવે એ પ્રમાણે કહીને મંગાવે છે ત્યારે આનયન પ્રગ અતિચાર લાગે છે. તાત્પર્ય એ છે કે પિતાના મર્યાદિત ક્ષેત્રમાં સ્થિત રહીને મર્યાદા બહારના નિષિદ્ધ ક્ષેત્રમાં રહેલી વસ્તુઓને Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gsdden तत्त्वार्थसूत्र मानायनप्रयोग इतिभावः ? एवम्-प्रतिपिद्धाऽनभिगृहीतदेशेऽभिप्रेतव्यापार साधनार्थे भृतस्य प्रेषणं तस्य-'एवं विधेहि' इति प्रयोगः प्रेषणप्रयोग उच्यते २ शब्दानुफ्ततीति शब्दानुपात: शब्दोच्चारणं ताइक्करोति येनोच्चरितशब्दः घरस्य श्री विवरं प्राप्नोति इति स शब्दाऽनुपात उच्यते, छिक्कोकासितादिकशब्देन, लोकमसिद्ध 'टेलिफोन' 'टेलिग्राफ' इत्यादियन्त्रेण च मतिवेशिकादि प्रतिबोध्य कार्यसम्पादनचेष्टितम् ३ रूपानुपातस्तावत्-शब्दमनुच्चारयन्नेव प्रयोजनवशाद स्वशरीर हस्तादिरूपं परेषां दर्शयति, तदर्शनाच्च मर्यादितक्षेत्रावहिः स्थिता दृष्टाः पुरुषा स्तत्समीपमागच्छन्ति, इतिरूपानुपातः ४ एवं-बहिः पुद्गलप्रक्षेप:कार्यवशात उसके अधिकारी को निवेदन करके अपने मर्यादित क्षेत्र में लाना क्रय-विक्रय आदि मंगवाना आलयन प्रयोग कहलाता है। (२) व्रत में जितने देश की मर्यादा की हो उसले बाहर के प्रदेश में किसी कार्य की सिद्धि के लिए भृत्य को भेजना और कहना कि'तुम जाकर ऐसा करो यह प्रेषणप्रयोग कहलाता है। __(३) इस प्रकार शब्द का उच्चारण करना कि जिससे वह दूसरे को सुनाई पडे, वह शब्दानुपात कहलाता है । छींक कर या खांस कर अथवा लोक में प्रसिद्ध टेलीफोन या टेलीग्राफ आदि यंत्रों द्वारा पडौसी आदि को समझाकर कार्यसम्पादन करने के लिए चेष्टा करना शब्दानुपात अतिचार है। (४) शब्द का उच्चारण किये बिना ही, प्रयोजनवशात् अपना हाथ आदि दिखलाना जिससे कि मर्यादित क्षेत्र से बाहर के लोग સંજોગવશાત તેના અધિકારીને નિવેદન કરીને પિતાના મર્યાદિત ક્ષેત્રમાં લાવવા, મગાવવા આનયનપ્રવેગ કહેવાય છે. (૨) વ્રતમાં જેટલા દેશની મર્યાદા કરી હોય તેનાથી બહારના પ્રદેશમાં કોઈ કાર્યની સિદ્ધિ માટે નેકરને મોકલો અને તેને કહેવું–‘તું જા અને આ પ્રમાણે કર આ પ્રેષણપ્રાગ કહેવાય છે.” (૩) એવી રીતે શબ્દનું ઉચ્ચારણ કરવું કે જેથી બીજાને સંભળાય તે શબ્દાનુપાત કહેવાય છે. શ્રી ક ખાઈને અથવા ઉધરસ ખાઈને અથવા લેકમાં પ્રસિદ્ધ ટેલીફોન અથવા ટેલીગ્રાફ આદિ-યંત્ર દ્વારા પાડોશી વગેરેને સમજાવીને કાર્ય સમ્પાદન કરવા માટેની ચેષ્ટા કરવી શબ્દાનુપાત અતિચાર છે. (૪) શબ્દનું ઉચ્ચારણ કર્યા વગર જ, પ્રજનવશાત્ પિતાને હાથ વગેરે બતાવે કે જેથી મર્યાદિત ક્ષેત્રથી બહારના લેકે તેની નજીકમાં Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ५० देशावकाशिकवतस्यातिचारनि० ३७३ पुद्गलानां परमाणुद्वयणुकादि स्कन्ध सूक्ष्मस्थूलभेदानां मध्ये बादराकारपरिणत लोप्टेष्टकाकाष्टप्रभृतीनां मर्यादित क्षेत्राव्दहि प्रक्षेपः, प्रयोजनवशात् कार्यार्थी पुरुषो विशिष्टदेशाभिग्रहे सति परस्मिन् देशे गमनाऽसम्भवात् परेषां प्रतिवोधनाय लोष्टादि पुद्गलान् प्रक्षिपति लोष्टादिनिपातानन्तरं च परे जनास्तत्समीपमागच्छन्तीति पुद्गल क्षेपशब्दार्थोऽवगन्तव्यः ५ एते पञ्चाऽऽनायन प्रयोगादयो देशावकाशिकलक्षण द्वितीयशिक्षावतस्याऽतिचारा अवगन्तव्याः ॥५०॥ - तत्वार्थनियुक्तिः-पू.सूत्रे सामायिकस्य प्रथमशिक्षाव्रतस्य मनोदुष्पणि धानादयः पश्चाविचाराः मरूपिताः, सम्मति-क्रममाप्तस्य द्वितीयस्य शिक्षाव्रतस्य द्वादशवनेषु दशमस्य देशावकाशिक व्रतस्याऽऽनायन प्रयोगादिकान पश्चाविचारान् उसके समीप आजाएं, यह रूपानुपात अतिचार है। (५) मिट्टी का ढेला, ईट, लकडी का टुकडा आदि पुद्गलों को मर्यादित क्षेत्र से बाहर फेकना घहिः पुद्गलप्रक्षेप कहलाता है । किसी ने अमुक देश पर्यन्त ही जाने की मर्यादा की हो, मगर बाहर का काम आ पडे तब वह स्वयं बाहर जाने में व्रत का अंग समझकर दूसरे को समझाने-चेताने के लिए पत्थर आदि फेकने ले लोग उसके पास आ जाते हैं, यह पुद्गलप्रक्षेप अतिचार है। ये आनयन प्रयोग आदि पांच द्वितीय शिक्षाबत देशावकाशिक व्रत के अतिचार हैं ॥५०॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्व सूत्र में प्रथम शिक्षाप्रत सामाधिक के मनोदुष्प्रणिधान आदि पांच अतिचारों का प्ररूपण किया गया है, अब આવી જાય, આ રૂપાનુપાત અતિચાર છે. (૫) માટીનું ઢેકુ, ઈંટ, લાકડાને કકડો આદિ પુદ્ગલેને મર્યાદિત ક્ષેત્રથી બહાર ફેંકવા બહિપુદ્ગલ પ્રક્ષેપ કહેવાય છે. કેઈએ અમુક દેશ સુધી જ જવાની મર્યાદા કરી હોય પરંતુ તેની બહારનું કામ આવી પડે ત્યારે તે જાતે બહાર જવામાં વ્રતને ભંગ થશે એમ સમજીને બીજાને સમજાવવાસાવચેત કરવા માટે પથ્થર આદિ ફેકે છે અને પથ્થર વગેરે ફેંકવાથી લોકો તેની પાસે આવી જાય છે. આ પુદ્ગલપ્રક્ષેપ અતિચાર છે. આ આયનપ્રયોગ આદિ પાંચ બીજા શિક્ષાવ્રત, દેશાવકાશિક વ્રતના અતિચાર છે. ૫૦ તત્વાર્થનિયુકિત-પૂર્વસૂત્રમાં પ્રથમ શિક્ષાત્રત સામાયિકના મને દુષ્પ ણિધાન આદિ પાંચ અતિચારેનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે કમ પ્રાપ્ત Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तखार्थो मरूपयितुमाह-'देखावमालियरस आणवणपयोगाच्या पंच अश्यारा' इति, देशारकाशिकवावस्याऽऽनायनप्रयोगादिका:-आनायनप्रयोगः १ आदिनाप्रेषणप्रयोगः २ शब्दानुपातः ३ रूपानुपातः ४ पुद्गलक्षेपश्च ५ इत्येते पञ्चातिचारा आत्मनः काल्लष्याऽऽपादका दुष्परिणतिविशेषा भवन्ति । तत्र-दिग्विरतिव्रतगृहीताऽभिग्रहस्य करणमेव देशावकाशिकवतम् । यत्खलु-अभिगृहीतदेशा. द्वहिः स्थितस्य द्रव्यादेरानयनाय-'स्वमिदमानय' इत्येवं सन्देशमदानादिना परआनाव्यते-द्रव्याघानेतुं प्रेर्यते स-आनायनप्रयोगो व्यपदिश्यते, हठात्विनियोज्यप्रेषणं प्रेषणप्रयोगोऽभिधीयते, यत्राभिगृहीत देशातिक्रमभयाद-अमि. क्रमप्राप्त द्वितीय शिक्षव्रत, जो बारह व्रतों में दसवां है और जिसका नाम देशावनाशिक है, उसके आनयनप्रयोग आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैं देशावकाशिशत्रत के पांच अतिचार हैं-(१) आनयनप्रयोग (२) प्रेषणमयोग (३) शब्दानुपात (४) रूपानुपात और (५) पुद्गल क्षेप । ये पांच अतिचार आत्मा में भलोनना उत्पन्न करते हैं और एक प्रकार के दुष्परिणमन हैं। दिशावत में बांधी हुई मर्यादा को सीमित समय के लिए संक्षिप्ता करना ही देशाचकाशिकवत है। देशावकाशिकव्रत में देश की जो मर्यादा निश्चिन की हो, उससे बाहर की वस्तु मंगवाने के लिए 'तुम यह ले आओ' इस प्रकार सन्देश आदि देकर दूसरे को वस्तु लाने की प्रेरणा करना आनयनप्रयोग कहलाता है। किसी को जबर्दस्ती भेजना દ્વિતીય શિક્ષાવ્રત, જે બાર વ્રતમાં દશમું છે અને જેનું નામ દેશાવકશિક છે તેના આનયનપ્રાગ આદિ પાંચ અતિચારોની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ शावाशि: प्रतना पाय मतियार ठे-(१) मानयनप्रयोग (२) प्रेषयुप्रयोग (3) शहानुपात (४) ३५ानुपात मन (५! पुगसमक्ष५ मा પાંચ અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરનારા હોવાથી એક પ્રકારના પરિણમન છે. દિશાવ્રતમાં બાંધેલી મર્યાદાને સીચિત સમય માટે પણ ઓછી કરવી એ જ દેશાવકાશિક વ્રત છે. દેશાવકાશિક વ્રતમાં દેશની જે મર્યાદા નકકી કરવામાં આવી હોય તેનાથી બહારની વસ્તુ મંગાવવા માટે “તમે આ લઈ આવો એ જાતનો સંદેશ વગેરે આપીને બીજાને વસ્તુ લાવવાની પ્રેરણું કરવી આનયન પ્રયોગ કહેવાય છે. કેઈને પરાણે મોકલે પ્રેષણપ્રાગ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७ सु. ५० देशावका शिकव्रतस्यातिचारनि० मतप्रयोजनवशात् त्वमयश्यमेव तत्र गत्वा ममाभीष्टं गवादिकमानय 'इदं वा ममादिष्टं कुरु' इत्येवमुक्त्वा भृभ्यस्य प्रेषणं मेषणप्रयोगः २ एव-मभिगृहीत भूप्रदेशतो वहिः प्रदेशे समुत्पन्ने प्रयोजनेऽभिग्रहव्यतिक्रममयात् स्वयं गन्तु मसमर्थत्वादछिकोकासादि शब्दकरणेन वहि: - प्रदेशवर्तिनः पुरुषान प्रतिबोधयति, ते च पुरुषास्तच्छन्दश्रवणाऽनन्तरं झटित्येव तत्समीपमागच्छन्ति' इत्येवं शब्दाऽनुपतनशीलत्वात्- 'शब्दानुपात' इति व्यव हियते ३ एवं - रूपानुपातःतावद - शब्दमनुच्चारयन्नेव प्रयोजनवशात् स्वशरीरावयवभूतं हस्ताङ्गुल्यादिकं परेभ्यो दर्शयति तद्दर्शनाच्च परे द्रष्टारोऽपि तत्मत्यासन्ना भवन्ति इत्येवं रीत्या प्रेषणप्रयोग कहलाता है । मर्यादित क्षेत्र का उल्लंघन करने से व्रत का भंग हो जाएगा, ऐसा भय हो और मर्यादित क्षेत्र से बाहर कोई प्रयोजन हो तब ऐसा कहना कि - 'तुम अवश्य वहां जाकर मेरी अभीष्ट गाय आदि ले आओ' अथवा 'मेरा अमुक कार्य कर दो' इस प्रकार कह कर भृत्य को भेजना प्रेषणप्रयोग है । इसी प्रकार मर्यादित प्रदेश से बाहर किसी प्रयोजन के उत्पन्न होने पर व्रतभंग के भय से स्वयं न जा सकता हो, तब छींक कर अथवा खांस कर मर्यादा से बाहर के पुरुषों को चेतावनी देता है । वे पुरुष उसका शब्द सुनकर झट से उसके समीप आ जाते हैं, ऐसा करना शब्दानुपात नामक अतिचार है । शब्द का उच्चारण किये बिना ही प्रयोजनवशात् अपने शरीर के अवयव हाथ या उंगली आदि दूसरे को दिखलाता है और उन्हें કહેવાય છે. મર્યાદિત ક્ષેત્રનું. ઉલ્લઘન કરવાથી વ્રતના ભંગ થઈ જશે, એવા ભય લાગે અને મર્યાદિત ક્ષેત્રથી બહાર કાઈ કારણુ આવી પડે ત્યારે આ પ્રમાણે કહેવું કે તમે અવશ્ય ત્યાં જઇને મારી ગાય વગેરે લઇ આવે’ અથવા મારૂં અમુક કાય કરી અપેા' આવું કહીને નાકરને મેકલવા પ્રેષણુપ્રયાગ છે. આવી જ રીતે મર્યાદિત પ્રદેશથી બહાર કાઈ પ્રત્યેાજન આવી પડવાથી વ્રતખ ́ડનના ભયથી સ્વય' જઇ શકે તેમ ન હૈાય ત્યારે છીંક ખાઈને અથવા ઉધરસ ખાઇને મર્યાદા મહાર રહેલા પુરૂષાને ઇશારા કરે છે. તે લેકા તેને શબ્દ સાંભળીને એકદમ તેની પાસે આવી જાય છે. આમ કરવુ શબ્દાનુપાત નામક અતિચાર છે. શબ્દનું ઉચ્ચારણ કર્યાં વગર જ પ્રાશનવશાત પેાતાના શરીરના અવયવ હાથ અગર આંગળી વગેરે ખીજાને મતાવે છે અને તે જોઇને લેાકા Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तत्त्वार्थस रूपानुपतनशीलत्वाद् रूपानुपातो व्यपदिश्यते ४ एवं वहिः पुद्गलप्रक्षेपस्तावत्पुद्गलाः परमाणुद्वथणुकस्कन्धादयः सुक्ष्मस्थूक भेदादनेकविधः तत्र-वादराकार स्थूलपरिणतानां लोप्टेष्टका-पाषाणखण्डादीनां पुद्गलानां प्रक्षेपः, अभिगृहीतभूप्रदेशाद् बहिः प्रदेशे प्रक्षेपणम्-बहिः पुद्गलक्षेष उच्यते । प्रयोजनवशात् कार्यार्थी खलु पुरुषमतिविशिष्टदेशाभिग्रहे कृते सति ततो बहिः प्रदेशेऽभिग्रहभन्नभयेन. गमनाऽपरमवात् परस्मिन् देशे स्थितानां पुरुषाणां प्रतिबोधनार्थ लोप्टादीन प्रक्षिपति लोष्टादिनि पातानन्तरमेव ते पुरुषास्तत्समीपमागच्छन्ति, इत्येवं रीत्या पुद्गलक्षेपो व्यवहियते ५ इत्येते पञ्चदेशावकाशिकवतस्य द्वितीय शिक्षावतस्यादेखकर लोग उसके पाल आ जाते हैं, इस प्रकार रूपानुपतनशील होने से यह अतिचार रूपानुपात कहलाता है। परमाणु, व्यणुक स्कंध आदि पुद्गल सूक्ष्म और स्थूल के भेद से अनेक प्रकार के हैं। उनमें से बादराकार स्थूल रूप में परिणत मिट्टी के ढेले, ईट, टुकडे आदि पुद्गलों को फेकना पुद्गलक्षेप कहलाता है। मर्यादितक्षेत्र से बाहर के प्रदेश में पुद्गलों को फेंकना बहिः पुद्गल क्षेप कहलाता है । तात्पर्य यह है कि किसी श्रावक ने देशावकाशिकव्रत में अमुक भूभाग तक ही जाने को मर्यादा की, तत्पश्चात् उसे भूभाग से बाहर का कोई प्रयोजन उपस्थित हो गया, व्रतभंग के भय से वह स्वयं वहां जा नहीं सकता, तव उस वाह्य प्रदेश के लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए वह कंकर-पत्थर आदि फेंकना है, તેની પાસે આવી જાય છે, આ રીતે રૂપાનુપતનશીલ હોવાથી આ અતિચાર ३पानुपात वाय छे. . પરમાણુ, કયણુકરકંધ આદિ પુગલ સૂક્ષમ અને સ્થૂળના ભેદથી અનેક પ્રકારના છે તેમાંથી બાદરાકાર રસ્થૂળરૂપમાં પરિણત માટીના ઢેફા, ઈંટ, પથ્થરના ટુકડા આદિ પુદ્ગલેને ફેંકવા પુદ્ગલપ્રક્ષેપ કહેવાય છે. મર્યાદિત ક્ષેત્રથી બહારના પ્રદેશમાં પુદ્ગલેને ફેંકવા બહિપુદ્ગલપ્રક્ષેપ કહેવાય છે. તત્પર્ય એ છે કે કોઈ શ્રાવકે દેશાવકાશિક વ્રતના અમુક પ્રદેશ સુધી જે જવાની મર્યાદા બાંધી ત્યાર બાદ તેને નિશ્ચિત પ્રદેશથી બહાર જવાનું કોઈ પ્રજન ઉપસ્થિત થઈ ગયું. વતભંગના ભયથી તે જાતે ત્યાં જઈ શકો નથી ત્યારે તે બાહ્યપ્રદેશના લેકેનું ધ્યાન પોતાની તરફ દેરવા માટે તે કાંકરી–પથ્થર વગેરે ફેકે છે કે જેનાથી તે લેકે તેના સંકેતને સમજીને Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ रु. ५० देशावकाशिकवतस्यातिचारनि० ३७७ ऽतिचारा अवगन्तव्याः। एते एश्च देशावकाशिरुव्रतस्याऽविचारा भवन्तीति भावः । उक्तञ्चोपासकशाने प्रथमाऽध्ययने-'देसावकालियब्वयस्स समणोवालएणं पंच अशारा जाणिया , ल समापरियन्वा, तं जहा-आण. वर्णपओगे, पेलवणपयोगे, लहाणुनाए, रूपाणुचाए, पहियापोग्गलपरिचिवः' इति । देशावकाशितव्रतस्य श्रमणोपास केन पश्चाविचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तया-आमालनप्रयोगः १ मेपणमयोगः २ शब्दानुपात: ३ रूपानुपातः ४ बदि पुदलाक्षेपः, इति ।।५०॥ मूला-बोलोकवासल्स अप्पडिलहिय-दुप्पडिलेहियसिन्जा-संथारा पंचवारा ॥५१॥ ___ छाया-पौधोपल्याऽग्लेिडिस दुष्पतिले खित्त-शव्या-संतारादिका पञ्चाविचाराः १.५१॥ जिससे वे जल संतानो पज हर उसके पास खा जाएं ऐसा करना देशावकाशिषव्रत का परिःगुगल प्रक्षेप नामक अतिचार है। __ ये पांच द्वितीय शिक्षाप्रत, देशासाशिकवत के अतिचार हैं । भावार्थ यह है कि ये पांच देशावाशिमवत के अतिचार है। उपासक दशांग के प्रथम अध्ययन में कहा है_ 'श्रमणोपातलो पेशामाशिनत के पांच अतिचार जानने चाहिए । किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे अतिचार ये हैं-आनयन पयोग, प्रेषण प्रयोग, शब्दालुपात, रूपानुपात और बहिः पुद्गलप्रक्षेप १५०॥ 'पोलाहोवधान इत्यादि । सत्रार्थ --अप्रतिलेखित-दुमति लेखित शय्यासंस्तारक आदि पौषधोपचाल के पांच अतिचार हैं ॥५१॥ તેની પાસે આવી જાય આ પ્રમાણે કરવું દેશવકાશિકન્નતને બહિપુદ્ગલપ્રક્ષેપ નામક અતિચાર છે. આ પાંચ દ્વિતીય શિક્ષાવ્રત, દેશાવકાશિક વ્રતના અતિચાર જાણવા જોઈએ પરંતુ તેમનું આચરણ કરવું જોઈએ નહીં. આ અતિચાર આ પ્રમાણે છે આયનગ, પ્રેષણપ્રવેગ, શબ્દાનુપાત, રૂપાનુપાત અને બહિપુદુલપ્રક્ષેપ. ૫૦ 'पोसहोववालस्त अपडिलेहिय' त्याह સૂત્રાર્થ –અપ્રતિલેખિત-પ્રતિલેખિત શય્યા સંરતારક આદિ પૌષધાપવાસના પાંચ અતિચાર છે. त०४८ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तस्वायसूत्रे तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र क्रमागतस्य शिक्षाबत द्वितीयस्य देशावकाशिकव्रतस्याऽऽनायनप्रयोगादयः पञ्चाविचाराः प्ररूपिताः सम्प्रति-यथाक्रममाप्तस्य पौषधोपचासस्य तृतीयशिक्षाव्रतरयाऽमतिलेखितदुष्मतिलेखित-शय्यासंस्तारादिकान् पश्चातिचारान् प्ररूपयितुमाह-'पोसहोववासस्से' त्यादि । पौषधोपवासस्य तृतीयशिक्षाव्रतस्याऽप्रतिले खित-दुप्पतिलेखित-शयमा संस्तारादिकाः पञ्चाऽतिचारा अतिक्रमा आत्मनो मालिन्याऽऽपादका दुष्परिणतिविशेषा भवन्ति । तत्रा-ऽप्रतिलेखित-दुष्पतिलेखित-शव्यासंस्तारः १ अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितशय्यासंस्तारः २ अपतिलेखित-दुष्पतिलेखितोच्चारप्रस्रवणभूमिः ३ अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जितोच्चारप्रसवणभूमिः ४ पौषधोपवासस्य सम्यगननुपालनम् ५ इत्येवं पञ्च पौषधोपचासवतस्याऽतिचारा भवन्ति ! तत्र__ तत्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्र में क्रमागत द्वितीय शिक्षाबत देशावकाशिक के आनयनप्रयोग आदि पांच अतिचारों का प्ररूपण किया गया है। अब क्रमप्राप्त तीसरे शिक्षानत पौषधोपचासत्रत के अप्रतिले. खित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते है तीसरे शिक्षाबत पौषधोपवास के पांच अतिचार हैं जो आत्मा में मलीनता उत्पन्न करने वाले दुष्परिणमनरूप हैं। उनके नाम इस प्रकार है-(१) अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तार (२) अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तार (३) अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखितउच्चारप्रस्रवणभूमि (४) अप्रमार्जित-दुरमार्जित उच्चार प्रस्रवणभूमि और पौषधोपचाल का सम्यक् प्रकार से अननुपालन । ये पांच पौष धोपचासव्रत के पांच अतिचार हैं। તત્ત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં કુમાગત દ્વિતીય શિક્ષાવ્રત દેશાવકાશિકના આનયનપ્રવેગ આદિ પાંચ અતિચારોનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે કેમપ્રાણ ત્રીજા શિક્ષાવ્રત પૌષધપવાસ વ્રતના અપ્રતિલેખિત-પ્રતિલેખિત શય્યાસંસ્તારક આદિ પાંચ અતિચારોની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ ત્રીજા શિક્ષાવ્રત પૌષધેપવાસના પાંચ અતિચાર છે જે આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન્ન કરવાવાળા દુષ્પરિણમન રૂપ છે તેમના નામ આ પ્રમાણે छ (१) मप्रतिवमित-हुप्रतिभित शय्यास ता२ (२) मप्रभालित-दुष्प्रभाજિત શય્યાસંસ્કાર (૩) અપ્રતિખિત-દુષ્પતિલેખિત-ઉચારપ્રસ્ત્રવણભૂમિ ૫) પૌષધોપવાસનું સભ્ય પ્રકારે અનનુપાલન આ પાંચ પૌષધોપવાસ વ્રતના અતિચાર છે. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ७ खू. ५१ पौषधोपवासवतस्यातिचाराः ३७९ शय्या संस्तारकाणां न सर्वथा प्रतिलेखनम्-अन्यमनस्कतया प्रतिलेखनं च प्रथमो ऽतिचारः १ तेषामेव शय्या संस्तारकाणां सर्वथा प्रमार्जनाऽभावोऽन्यमनस्कतया प्रमार्जनश्च द्वितीयः २ एवमेवोच्चारमस्त्रवणभूमौ क्रमेण प्रकारद्वये तृतीय-चतुर्थी ३-४ प्रवचनोक्तविध्यनुसारेण पौषधोपचासवतस्य सम्यगमनुपालनाऽभावा, व्रतसमये-आहारशरीरसरकारमैथुनादिविविधव्यापाराणामनुचिन्तनञ्च पञ्चमः ५ इति । तत्र संस्तारादौ जन्तवः सन्ति-न वा सन्ति-इत्येवं चक्षुापाररूपं प्रत्यवेक्षणं-प्रतिलेखनम्, तदेव पतिलेखितमुच्यते । न प्रतिलेखितम्-अमतिलेखितम्, इनमें से (१) शरघा और संस्तारक का प्रतिलेखन न करना अथवा अन्य मनस्कभाव से प्रतिलेखन करना प्रथम अतिचार है । (२) शय्या और संस्तारक का बिलकुल ही प्रमार्जन न करना , या अन्यमनस्क होकर प्रमार्जन करना दुसरा अतिचार है। (३) इसी प्रकार उच्चार प्रस्रवणभूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन न करना अथवा अन्य मनस्क होकर प्रतिलेखन-प्रमार्जन करना तीसरा और चोथा अतिचार है। (५) आगमोक्तविधि के अनुसार पौषधोपचाल का समीचीनरूप से पालन न करना अर्थात् व्रत के समय में आहार का, शरीरश्रृंगार का, मैथुन आदि विविध प्रकार के व्यापारों का विचार करना पांचवा अतिचार है। संस्तारक आदि में जीव-जन्तु है या नहीं हैं, इस प्रकार चक्षु का व्यापाररूप जो अवलोकन है, उने प्रतिलेखन कहते हैं। प्रतिलेखन ही प्रतिलेखित कहलाता है। जो प्रतिलेखित न हो अर्थात् देखा न गया આમાંથી (૧) પથારી અને સંથારાનું પડિલેહન ન કરવું, અથવા અન્યમનસ્કભાવથી પડિલેહન કરવું પ્રથમ અતિચાર છે. (૨) પથારી અને સંથારાનું બીલકુલ જ પ્રમાર્જન ન કરવું અથવા અન્યમનરક થઈને પ્રમાર્જન કરવું બીજે અતિચા૨ છે. (૩-૪) આવી જ રીતે ઉચ્ચારપ્રસ્ત્રવણભૂમિનું પડિલેહન-પ્રમાજન ન કરવું અથવા અન્યમનસ્ક થઈને પ્રતિલેખનપ્રમાર્જન કરવું એ ત્રીજા તથા ચોથા અતિચર છે. (૫) આગમે ક્ત વિધિ અનુસાર પૌષધવ્રતનું યોગ્ય રૂપથી પાલન ન કરવું અર્થાત્ વ્રતના સમયમાં આહારનું, શરીરસુશોભનનું, મિથુન આદિ વિવિધ પ્રકારના વ્યાપારનો વિચાર-ચિત્તવન કરવું પાંચમો અતિચાર છે. સાથરા વગેરેમાં જીવ જતુ છે કે નહીં આ રીતે અાંખના વ્યાપાર ૫ જે અવલોકન છે તેને પ્રતિલેખન કહે છે. પ્રતિલેખન જ પ્રતિલેખિત Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थम प्रत्यवेक्षितमित्यर्थः । मृदुना - कोमलेन ममानी मृत्युपकरणेन क्रियमाणं संशोधनादिकं प्रमार्जित मुच्यते, न प्रमार्जित - सममार्जितमित्यर्थः, एते पूर्वोक्ताः पौषधोपवासव्रतस्य तृतीयशिक्षात्रवस्याऽतिचाराः अवगन्तव्याः । तस्माद व्रतधारिणा पौषधोपवासस्य पञ्चाऽतिचारवर्जनपूर्वकं पौषधोपवासव्रतमनुपालनीयम् ॥५१॥ तत्वार्थ नियुक्तिः - पूर्वं तावत् यथाक्रमं प्राप्तस्य देशावकाशिकरूप द्वितीय शिक्षाव्रतस्याऽऽनायनप्रयोगादिकाः पञ्चाविचाराः प्ररूपिताः । सम्प्रतिक्रमागतस्य पौषधोपवासत्रवरूप तृतीय शिक्षा व्रतस्यामतिलेखित - दुष्पतिलेखितशय्यासंस्वारकादिकान् पश्चाविचारान् प्ररूपयितुमाह- 'पोसहोववासस्स अप्पडिले हिय- दुम्बडिले हिय-सिजा संथाराइया पंच अध्यारा' इति । पौषधोपवासस्याऽमतिलेखित - दुष्प्रविलेखितशय्यासंस्तारादिकाः - तत्राप्रतिळेखितशय्यासंस्तारकः १ अपमार्जित - दुष्प्रमार्जितराय्यः संस्तारका २ अप्रतिलेहो वह अप्रतिलेखित है । नरम पूंजनी आदि उपकरण के द्वारा किया जाने वाला संशोधन आदि प्रमार्जित घरलाता है । प्रमार्जित का अभाव अप्रमार्जित है । ये पाँच पूर्वोक तीसरे शिक्षाव्रत पौषधोपवास व्रत के अतिचार है । इस कारण व्रत का अनुष्ठान करने वाले श्रावक को अतिचारों से बचते हुए पौषधोपयासत का सम्यकू प्रकार से पालन करना चाहिए ॥ ५१ ॥ तच्चार्थनियुक्ति- पहले द्वितीय शिक्षावर देशाचकाशिक के आनधनप्रयोग आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा की गई है। अब पौषधोपालनामक तीसरे शिक्षाव्रत के अतिचारों का कथन करते हैं - આવનાર पौषधोपचास के पांच अतिचार हैं - ( १ ) ऊप्रति लेखिमदुष्प्रतिलेકહેવાય છે. જે પ્રતિલેખિત ન હોય અર્થાત્ જેવામાં ન આવ્યું હોય તે અપ્રતિલેખિત છે. સુંવાળી પૂજ]ી આદિ ઉપકરણુ દ્વારા કરવામા સશેાધન આદિ પ્રમાર્જિત કહેવાય છે. પ્રમાર્જિતના અભાવ અપ્રમાર્જિત છે. આ પાંચ પૂર્વોક્ત ત્રીજા શિક્ષાવ્રત પૌષધેાપવાસ વ્રતના અતિચાર છે. આ કારણે વ્રતનું અનુષ્ઠાન કરનાર શ્રાવકે અતિચારાથી ખચતા થકા પૌષધે પવાસ વ્રતનું સમ્યક્ પ્રકારે પાલન કરવુ જોઈએ. તા૧૫ તાનિયુક્તિ—પહેલા દ્વિતીય શિક્ષાવ્રત દેશાવકાશિકના આનયનપ્રત્યેાગ આદિ પાંચ અતિચારોની પ્રરૂપણા કરવામાં આાવી છે. હવે પૌષધ્રાપવાસ નામક ત્રીજા શિક્ષાવ્રતના અતિચારાતું કથન કરીએ છીએ પૌષધેાપવાસના પાંચ અતિચાર છે-(૧) અપ્રતિલેખિત દુષ્કૃતિલેખિત શય્યાसस्ता२४ (२) अप्रभाभित - दुष्प्रभान्ति शय्यास स्तार (3) अप्रतिडे मित Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.७ ५. ५१ पौषधोपवासव्र तस्यातिचारा: ३८१ खितोच्चारमस्त्रवणभूमिः ३ अपमाजिख-दुष्प्रमाजिवोच्चारमस्रवणभूमिः ४ पोष. धोपवास व्रतस्य सम्यगमनुपालनश्चत्ति ५ पञ्चाविचाराः। तत्र-शव्यासंस्तारकाणां न सर्वथा प्रतिलेखनञ्च प्रथमः १ तेषां शय्यासंस्तारकाणां न सर्वथा प्रमा. जैनम् अन्यमनस्कत्या प्रमार्जनं च द्वितीयः २ एवमेवोच्चारणवणभूमौ क्रमेण प्रकारद्वये तृतीय-चतुर्थौ ३-४ प्रवचनोक्तविध्यनुसारेण पोपधोपचासवतस्य सम्यगनुपालनाऽभावः, व्रतसमये-आहारशरीरसत्कार मैथुनादि विविधव्यापाराणामनुचिन्तनश्च पञ्चमः ५ इति, तन-प्रतिलेखनं सचित्ताऽचित्तमिश्र स्थावरत्रसजन्तु शून्यत्वेन शम्पादेचक्षुषा निरीक्षण, प्रमार्जनन्तु -रजोहरणादिना सम्माखित शय्यासंस्तारक (२) अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारक (३) अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्त्राणभूमि (४) अप्रमार्जितदुप्पमाजिल-उच्चारमनवणभूमि और (५) पौषत्रत का सम्यक अननुपालन । (१) शमा और संभारे का लर्वथा ही प्रतिलेखन न करना अथवा असावधानी से प्रतिलेखन करला प्रथम अतिचार है । (२) शय्या और संस्तारक का बिलकुल प्रमार्जन न करना अथवा अन्यमनस्क भाव से प्रमार्जन करना दूसरा अतिचार है । (३-४) हली प्रकार उच्चार भूमि और प्रस्त्रवणभूमि का प्रतिलेखन और प्रधान न करना था सम्यक प्रकार से प्रतिहेखन प्रमार्जन न करना तीसरा और चौथा अतिचार है। (५) आगमोक्त विधि के अनुसार पौष धवन का सम्यक प्रकार से पालन न करना, यह पौषधवत का पांचों अतिचार है। शया और हतार नन था स्थावर जीव तो नहीं है, यह प्रतिभित-२ या२५भूमि (४) मप्रभाति-प्रमानित-न्यार. प्रसपासूमि मने (५) पौषधवत सभ्य भननुपालन. (१) शय्या मन સંથારાનું સર્વથા જ પ્રતલેખન ન કરવું અથવા અસાવધાનીથી પ્રતિલેખન કરવું પ્રથમ અતિચાર છે. (૨) શા અને સંસ્તાશ્કનું બિલકુલ પ્રમાર્જન ન કરવું અથવા અન્યમનસ્કભાવથી પ્રમાર્જન કરવું બીજો અતિચાર છે. (૩-૪) આવી જ રીતે ઉચારભૂમિ અને પ્રસ્ત્રવણભૂમિનું પ્રતિલેખન અને પ્રમાજને ન કરવું અથવા સમ્યફ પ્રકારથી પ્રતિલેખન પ્રમાર્જન ન કરવું ત્રીજા અને ચોથા અતિચાર છે. (૫) આગએક્ત વિધિના અનુસાર પૌષધવ્રતનું સમ્યકપ્રકારથી પાલન ન કરવું, એ પૌષધવતને પાંચમો અતિચાર છે. શયા અને સંથારામાં ત્રસ અથવા સ્થાવર જીવ તે નથી એ જોઈ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ - - तत्त्वार्थसूत्रे जनम् , न पतिलेखिरुम् अप्रतिलेखितम् , एवं न प्रमार्जितम्-अपमाजितम् । एवं-गौपधोपवास व्रतधारिणाऽगारिणाऽपत्यवेक्षित दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारादि पश्चातिचारवर्जनपूर्वकमेव पौषधं,पवासवत पाकनीयम् । उक्तञ्चोपासकदशाने प्रथमे. ऽध्ययने 'पोहोचवालाल समणोवास एणं पंच अध्यारा जाणियबा, न समायरियच्या, तं जमा-अप्पडिहिय दुप्पडिलेहिय मिज्जा संधारे, अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जियलिज्जा संधारे, अप्पडिलेटि-दुप्पडिलेहिय उच्चार पासवणलूसी, अपपसज्जिय-दुप्पमज्जिय उच्चारपासवण. भूमी, पोलहोवदासरस सम्म अणणुपालणया' इति पौषधोपदासस्य श्रमणोपासकेन पञ्चाविचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा-अमतिलेखित दुष्पतिलेखितशय्यासंस्तारकः १ अप्रमार्जितदुष्पमानितशय्यासंस्तारकः २ अप्रतिछेखित दुष्मतिलेखितोच्चारपत्रणभूमिः ३ अपमार्जितदुष्प्रमार्जितोच्चारमस्त्रवणभूमिः ४ पौषधोषबासस्य सम्यगननुपालनता इति ॥५१॥ देखना प्रतिलेखन कहलाता है। रजोहरण आदि के द्वारा पूजना प्रमाजल कहलाता है। पौषधोपचासवान के धारक श्रावक को अप्रतिलेखित -दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक आदि पांच अतिचारों से बचते हुए पौषधोपलालवत का पालन करना चाहिए । उपासकदशांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में कहा है-'पौषधोपवासवत के श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने चाहिए किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए। चे अतिचार ये हैं-(१) अपतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तार (२) अप्रमार्जिन दुष्प्रमार्जित शव्यासंस्तार (३) अप्रति लेखित-दुष्पतिलेखित उच्चार प्रस्त्रवणभूमि और पोषधोपचास का सम्यक् अननुपालन ॥५१॥ લેવું પ્રતિખન કહેવાય છે. રજોહરણ વગેરેની મદદથી પૂજવું પ્રમાર્જન કહેવાય છે. પૌષધેપવાસ વ્રતના ધારક શ્રાવકે અપ્રતિલેખિત- દુષ્પતિ લેખિત શવ્યાસંસ્તારક આદિ પાંચ અતિચારોથી બચતા થકા પૌષધોપવાસનતનું પાલન કરવું જોઈએ. ઉપાસકદશાંગસૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે– અષાપવાસ વ્રતના શ્રમણોપાસકે પાંચ અતિચાર જાણવા જોઈએ પરતું मर्नु माय२ ३२ नये नहीं मा अतियार छ. (१) अप्रतिवमित(પ્રતિલેખિત શય્યાસંતાર (૨) અપ્રમાજિંત-પ્રમાર્જિત શય્યાસંસ્કાર (3) अप्रतिमत-प्रतिभित या२प्रश्नपभूमि भने (५) पौषधोपवासनु સભ્ય-અનનુપાલન. ૧૧ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ १.५२ द्वादशवतै निक्षेपणादि पञ्चातिचाराः ३८३ मूलम्-अतिहिसंविभागस्त सचित्तणिस्खेवणाइया पंचअइयारा ॥५२॥ छाया-अतिथिसंविभागस्य सचित्तनिक्षेपणादिका पञ्चातिचाराः । ५२॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे-पौषधोपचास व तस्याऽमतिलेखिन-दुष्पनिलेखित शयपासंस्तारादिकाः पश्चातिचारा प्रदर्शिताः सम्पति द्वादशत्रने द्वादशस्य निक्षेपणादिकाल् पश्चातिचारान् प्ररूपयितुमाह-'अतिहिलंविभागस्' इत्यादि___ अतिथिसंविभावस्य-पूर्वोक्तान्तिमशिक्षावः स्याऽतिथिसविभाषत्रतस्य सचितनिक्षेपणादिकाः-सचित्तनिक्षेपणम् १ आदिना-सचित्तविधानम् २ काला. तिक्रमः ३ परव्यपदेशः ४ मात्पर्यम् । इत्येते पञ्चातिचारा आत्मनो मालिन्यापादका दुष्परिणतिविशेपाः भवन्ति । तत्र-सचित्तनिक्षेपणं तावत् अदानयुद्धया 'अतिहिसंविभागस्त' इत्यादि सूत्रार्थ-अतिथिलंधिसागवन के लचित्तनिक्षेप आदि पांव अतिचार हैं ॥५२॥ ___तत्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्र में पौषधोपवासव्रत के अप्रतिलेखितदुष्पतिलेखितशय्या संस्तारक आदि पांच अतिचारों की प्ररूपणा की गई, अब श्रावक के वारहवाँ अतिथि संविभाग के पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैं पूर्वोक्त अन्तिम शिक्षाव्रत अतिथिसंविभाग के सचित्त निक्षेषण आदि पांच अतिचार है, वे ये हैं-(१) सचित्तनिक्षेपण (२) सचित्तपिधान (३) कालातिकम (४) परव्यपदेश और (५) मारलयं। ये पांच अतिचार आत्मा के मलीन बनानेवाले दुष्परिणमन हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है 'अतिहिसंविभागस्य सचित्तणिक्खेवणाइया पच अइयारा' ॥५२॥ સૂત્રાર્થ-અતિથિસંવિભાગવતના સચિત્તનિક્ષેપ વગેરે પાંચ અતિચાર છે. પરા તવાથદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં પૌષધોપવાસ વ્રતના અપ્રતિલેખિત-પ્રતિ લેખિત શાસંરતારક અદિ પાંચ અતિચારોની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી હવે શ્રાવકના બારમાં અતિથિસંવિભાગ વ્રતના પાચ અતિચારની પ્રરૂપણું કરીએ છીએ પૂર્વોક્ત અતિમ શિક્ષાવ્રત અતિથિસ વિભાગ દ્વતના સચિત્ત નિક્ષેપણ माहि पांय मतियार छे. ते ! प्रमाणे छ-(१) सयित्त निक्षेपy (२) सथित्तपिधान (3) सातिभ (४) ५२०यपहेश भने (4) मत्सय' मा પાંચ અતિચાર આત્માને મલીન બનાવનારા દુષ્પરિણમન છે તેને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ तत्त्वार्थमा सचित्ते कमलपत्रादौ रिक्षेपणम् अशनादीनां स्थापनम् , यहा-सचित्तस्य धान्यादि पानादे रचित्ता हारादौ स्थापनम् , यद्वा-हालबुद्धयाऽचित्तस्य सचित्तेन सचित्त स्याऽचित्तेन वा सम्मेलनस् ? सचिरनिक्षेपणम् । एवस्-सचिनेन पनपत्र-सचित्त जलपात्रादिना, अथवा- ऽचित्तेलाऽनानादिना सचित्तहरितादेः पिधानम् आच्छा. दनम् सचित्तपिधान २ एवं कालातिक्रमः साधोमिक्षा कालव्याऽविकरणम् , अथवा योग्य काले दानाक्षायनाकरणमित्यर्थः, सधा-साधुः सत्कनोऽपि भवेत्अशनार्ययोऽपि न भवेत् ३ एरव्यपदेशरतु-अशनादौ परयाऽऽरोपण, यथापरक्रियमिदमशानादिकं-न मम्' इत्यादि साधुममीपे भापणं एरव्यपदेशः । (१) अशान आदि आधार हो न देने की बुद्धि ले चित्त कमलपत्र आदि पर रखना चित्तनिक्षेपण । चालवित्त धान्यपान आदि को अचित्त आहार आदि पर रखना अथवा न देने की भावना से अचित्त को सचित्त के साथ या चित्त वन अचित्त के साथ मिला देना सचित्तनिक्षेपण है। (२) स्वचित कमलपत्र या जलपान आदि से अथवा मचित्त अशन आदि से अचित आहार आदि को ढंक देना सचित्तपिधान है। (३) साधु के भिक्षा के समय का उल्लंघल शरना। साधु को असमय में दान देने का उपक्रम करना जिलसे साधु हा सत्कार भी हो जाय और अशनादि भी बच जाय । यह कालातिका अतिचार है। (४) अपने अशन आदि को परायां बतलाना, परन्धपदेश अति. चार है, जैले साधु से कहना कि यह अशन आदि मेरा नहीं है, दूसरे का है। (૧) અશન આદિ આહારને નહીં આપવાની બુદ્ધિથી સચેત કમળપત્ર વગેરે પર રાખવે સચિત્ત નિક્ષેપણ છે અથવા સચેત ધાન્યપાત્ર વગેરેને અચેત આહાર વગેરે પર રાખવા અથવા ન આપવાની ભાવનાથી અચેતને સચેતની સાથે અથવા સચેતન અચેતની સાથે ભેળવી દેવું સચિત્તનિક્ષેપણ છે. (૨) સચેત કમળપત્ર અથવા જળપાત્ર વગેરેથી અથવા સચેત અશન આદિથી અચેત આહાર વગેરેને ઢાંકી દેવું સચિત્ત પિધાન છે. (૩) ગોચરમાં-સાધુના સમયનું ઉલ્લંઘન કરવું. સાધુને કસમયે દાન આપવાને ઉપક્રમ કર કે જેથી સાધુને સત્કાર પણ થઈ જાય અને અશનાદિ પડ્ઝ બચી જાય આ કાલ તિકમ અતિચાર છે. (४) पाताना मशन वगैरेने पार 11.4, ५२०यपहेश मतियार छ, જેમ કે સાધુને કહેવું કે આ ભેજન વગેરે મારું નથી, બીજાનું છે. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ ल्लू.५२ द्वादशवते निक्षेपणादि पञ्चातिचारा: ३८५ यद्वा-स्वयं सुस्थितो-दातुं शुद्धोऽपि परस्मै दातुं कथनम् , यथा-'अहङ्कार्यान्तरसंलग्नोऽस्मि त्वन्देहि' इति व्यपदेशः परव्यपदेशः ४ अन्यस्य दातुर्गुणाऽसहनं मात्सर्यम् ५ उत्तचोपालकदश ङ्गे मथमाऽध्ययने-'तयाणंतरं च णं अहासंविभागल लक्षणोधालएणं पंच अधारा जाणियव्या, न समायरियधा, तं जहा-लचिन्तनिवखेषणथा १ चित्तपेहणथा २ कालाइकमे ३ परब्धपएच ४ लच्छत्थिा ५।। छाया-तदनन्तरं यथा संविभागस्य श्रमणोपासकेन पंचाऽतिचारा ज्ञातव्याः तद्यथा-सचित्तनिक्षेपणता- सचित्तविधालता-कालातिकमा-परव्यपदेशः मत्स. रिता इति ॥५२॥ तत्यार्थ नियुक्ति:--पूर्व तावत् पञ्च णुव्रत-त्रिगुणवत-शिक्षाप्रतत्रयाणां यथाक्रमं पञ्च-पञ्चाऽतिचारा पिताः, सम्मति-चतुर्थस्याऽतिथिसंविभागवतरूपान्तिपशिक्षाव्रतस्थ लचित्तनिक्षेपणादिकान् पश्चाविचारान् प्ररूपयितुमाह (५) अन्य दाता के गुणों को बहल न करना मालय नामक अतिचाप है। ভঘাড়ল জুজ স্ব গুঘল ঐ ক্ষা লাআন্ধ को अतिथिलधिशागत के पांच अतिचार जानना चाहिए परन्तु उनका आचरण नहीं मारना चाहिए । ने पांच अतिचार इस प्रकार है-(१) सचित्तनिक्षेपणला (२) रूचिसपिधानता (३) कालतिक्रम (४) परव्यपदेश और (६) पररूदिता ॥५२॥ ___ तत्वार्थनियुक्ति-पहले पांच अणुव्रतों के, तीन गुणन्ननों के तथा चार में से तील शिक्षात्रों के पांच-पांच अतिचारों का कथन किया जा चुका है। अथ चौथे शिक्षाप्रत अतिथिसंविभाग के सचित्तनिक्षेप आदि पांच अतिचारों का प्ररूपण करते हैं (૫) અન્ય દાતાના ગુણને સહન ન કરવા માત્સર્ય નામક અતિચાર છે. ઉપાસકદશાંગ સૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે–શ્રમ પાસકે અતિથિ. સંવિભાગ વતના પાંચ અતિચાર જાણવા જઈએ આ પાંચ અતિચાર આ प्रमाणे छ-(१) सथित निक्षेपत। (२) सथित्त विधानता (3) सातिम (४) ५२०यपहेश म२ (५) मत्सरित'. ॥५२॥ તવાર્થનિર્યુક્તિ-આની પહેલા, પાંચ અણુવ્રતિના, ત્રણ ગુણવ્રતના તથા ૪ ચારમાંથી ત્રણ શિક્ષાત્રતાના પાંચ-પાંચ અતિચારોનું કથન કરવામાં આવ્યું છે હવે ચોથા શિક્ષાવ્રત અતિથિ વિભાગના સચિત્તનિક્ષેપ આદિ પાંચ અતિચારોનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ त० ४९ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे 'अतिहिसंविभागस्त' इत्यादि। अतिथिसंविभागस्य-पूर्वोक्तस्याऽतिथि संविभागवतस्याऽन्तिम शिक्षाववरूपस्य सचित्तनिक्षेपणादिका:-सचित्तनिक्षेपणम् १ आदिना-सचित्तपिधानम् २ कालातिक्रमः ३ परव्यपदेशः ४ मात्सर्यम् ५ चेत्येते पञ्चातिचारा आत्मनो मालिन्यापादका दुप्परिणतिविशेपा भवन्ति । तत्र सचित्तनिक्षेपणं तावत्-अशनपानखादिमरवादियरूपचतुर्विधाऽऽद्वारस्य सचित्तेषु कमळकदलीपत्रादिपु त्रीहियरमोधूम शाल्यादि सस्ये पु निक्षेपणम् , अदानबुद्धया स्थापनम् , इत्येवं सचित्तनिक्षेपणमा सेयम् १ अन्नादिक मोदनखाधादि सचित्ते निक्षिप्तं सत् श्रमणाः खल न गृहन्ति इत्यतो मया देयमशनादिक मुपस्थाप्यते, किन्तु-साधको नाऽऽददत इति मम लामोऽयं भविष्यतीति जानात्यसावितिभावः । अन्तिम शिक्षाबत अतिथि विभाग के पांच अतिचार हैं-(१) सचिनिक्षेपण (२) लचित्तपिधान (३) हालातिकम (४) परव्यपदेश और (५) मात्सर्य । ये पांच अतिचार आत्मा में बलीनता उत्पन्न करने वाले दुष्परिणमनरूप हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है (१) सचित्तनिक्षेपण-अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार के आहार को कमल या केले के सचित्त पत्ते श्रादि के ऊपर या व्रीहि, यव, गेहूं, शालि आदि धान्य के ऊपर, न देने की बुद्धि से, रख देना। ____अन्न आदि ओदन तथा खाद्य आदि जो सचित्त के ऊपर रक्खा हुआ होता है, उसे साधु अहण नहीं करते, अतएव मैं तो अशनादि उनके समक्ष उपस्थित करूंगा मसर लेंगे नहीं, इससे मुझे लाभ ही होगा, ऐसा जानकर गृहस्थ सचित्तनिक्षेपण करे तो अतिचार होता है। 1 અતિમ શિક્ષાત્રત અતિથિસંવિભાગના પાંચ અતિચાર છે-(૧) સચિત્તनिक्षपाय (२) सचित्तविधान (3) तिम (४) ५२०यपहेश मने (4) માત્સર્ય આ પાંચ અતિચાર આત્મામાં મલીનતા ઉત્પન કરવાવાળા દુષ્પરિમન રૂપ છે. તેમને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે (१)सथित्तनिया-मशन, पान, माध मने स्वाध ३५ ारे प्रारना આહારને કમળ અથવા કેળના સચેત પાંદડાં આદિની ઉપર અથવા ચોખા, જવ, ઘઉં, ડાંગર વગેરે ધાન્યની ઉપર, ન આપવાની બુદ્ધિથી રાખી દેવા. (૧) અન્ન આદિ ચખા (ભાત) તથા ખાદ્ય આદિ જે સચેતની ઉપર રાખેલા હોય છે, તેને સાધુ ગ્રહણ કરતા નથી આથી હું તે અશનાદિ તેમની સમક્ષ ઉપસ્થિત કરીશ પણ તેઓ સ્વીકારશે. નહીં, આથી મને તો લાભ જ થશે, આમ જાણીને ગૃહ સચિતનિક્ષેપણ કરે તે અતિચાર લાગે છે. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ५२ द्वादशवते निक्षेपणादि पञ्चातिचाराः ३८७ एवं-सचित्तविधानम्, सचित्तेन सुरणकन्दपनपुष्पादिनाऽशनपानादि चतुर्विधाहारस्य पिधानम् अदानवुद्धयाऽऽच्छादनम् , सचित्तपिधानम् , अशनादिकं सचित्तेनाऽऽच्छादितं सत् साधको न गृह्णन्तीति बुद्धया सचित्तेन स्थगयतीति भावः २ कालातिक्रमस्तु-श्रमणानामुचितां भिक्षावेलामतिक्रम्य उल्लंघ्य भोजनम् , यद्वा-साधूनां भिक्षार्थ मागमनकालात् मागेन भोजनम्-कालातिकमः उच्यते । स चाऽयं कालातिक्रमो भिक्षाग्रहीतुः श्रमणस्याऽपीतिकारको भवति-अदानश्चेति भावः ३ परव्यपदेशस्तु-चतुर्थ-षष्ठाऽष्टम भक्तादि पौषधोपवासतपारणावेलायां भिक्षार्थ समागतं स्पष्टतयाऽनादिकं पश्यन्तमपि श्रमणं प्रति परस्येदमन्नादिकं वर्ततेन ममेति, तस्मात्-न दातुमर्हामि-इत्येवमपरमार्थतः कथनं परव्यपदेशः, परमार्थ (२) सचित्तपिधान-लचित्त सूरण कन्द, पत्र, पुष्प आदि से अशन पान आदि चार प्रसार के आहार को ढंक देना अर्थात् साधु को न देने की भावना से आच्छादित कर देना सचित्तपिधान अतिचार है। क्यों कि सचित्त वस्तु से आच्छादित आहार को साधु ग्रहण नहीं करते हैं। (३) कालातिकल-साधुओं के भिक्षाकाल को टाल कर भोजन कर लेना, वा यद्यपि साधु का भिक्षा काल दिन का ही है, अतः दान न देने की इच्छा से रात्रि भोजन करना इत्यादि यह कालातिक्रम भिक्षा ग्रहण करने वाले श्रमण के लिए अप्रीतिकर होता है और इससे दान का अभाव भी होता है। (४) परव्यपदेश-उपवास, वेला, तेला आदि की तपस्या करने वाले या नित्य भोजी श्रमण के भिक्षार्थ उपस्थित होने पर सामने | (૨) સચિત્તપિધાન-સચેત સૂરણકદમૂળ, પત્ર, પુષ્પ આદિથી અશનપાન આદિ ચાર પ્રકારના આહારને ઢાંકી દેવ અર્થાત્ સાધુને ન વહોરાવવાની ભાવનાથી ઢાંકી દેવું સચિત્તપિધાન અતિચાર છે કારણ કે સચેત વસ્તુથી આચ્છાદિત આહારનો સાધુ ગ્રહણ કરતા નથી. तिम-साधुसना लक्षाने टणीन, अर्थात साधना ભિક્ષાકાળ દિવસને જ હોય આથી દાન ન આપવાની ઈચ્છાથી રાત્રિભેજન કરવું વગેરે–આ કાલાસિકમ ભિક્ષા ગ્રહણ કરનારા શ્રમણ માટે અપ્રીતિકર હોય છે અને આથી દાનને અભાવ પણ થાય છે. (૪) પરવ્યપદેશ-ઉપવાસ, છઠું અદમ વગેરેની તપસ્યા કરનારા અથવા નિત્ય ભજન લેનાર શ્રમણનું ભિક્ષાથે ઉપસ્થિત થવા પર નજર સામે Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तत्त्वार्थसूत्र वस्तु-वदीययेव तदन्नादिकं वर्तते, यहा-परस्य-अन्यजनस्येदमन्नादिकं वर्तते इति तत्र तं गत्वा यूयं मिक्षध्वम् इत्येवं परव्यपदेशः ४ । एवम्-गात्सर्य तावत्मत्सरता, यः श्रावको भिक्षादिकं श्रमणेन मिक्षितः सन् क्रुधपति अनादरं वा करोति, याचितोऽपि न ददाति स मत्सर उच्यते, तस्य भावो मात्सर्यम्, परगुणो. स्कऽसहिष्णुत्ववा, मात्सर्यम् । यहा-स खलु द्रमको दत्तवान् किमहं ततोऽपि न्यूनोऽस्मीत्येवं मात्सर्यात्-दाने मात्सर्य एपदिश्यते, अथवा-ऋपाय कलुपितेन चित्तेन श्रमणेभ्यो ददतः श्रावस्य मात्सर्यमुच्यते ५ तथाचैते पञ्चाऽतिथिसंविआगस्याऽतिचारा भवन्ति । उक्तञ्चोपासकदशाङ्गे प्रथमेऽध्ययने-'अहा संवि. भागस्ल पंच अश्यारा जाणियव्या, न समाचरियच्या, तं जहा-सचित्तनिक्खेवणया, सचित्तपेहणया, कालाकामदाणे, पोवएसे मच्छारिया' स्पष्ट दिखलाई देने वाले अन्न-पान आदि आहार के विषय में ऐसा कहना कि-'यह अन्न-पान पराया है, मेरा नहीं है, अतएव देने के लिये में असमर्थ हूं जब कि वह आहार वास्तव में उसी गृहस्थ का हो, दूसरे का न हो। (५) मात्सर्य श्रमण द्वारा भिक्षा की याचना करने पर जो श्रावक क्रुद्ध हो जाता है, श्रमण का अनादर करता है अथवा याचना करने पर भी देता नहीं है, वह भस्लर कहलाता है । सत्तर का भाव मात्सर्य है। अथवा दूसरे के गुण को सहन न करता मात्सर्य है । अथवा उस दरिद्र ने दान दिया है तो क्या में उलले भी गया बीता हूं, इस प्रकार के मारलयं भाव से दान देना भी मारहार्य कहलाता है । अथवा कषाय से कलुषित चित्त से श्रमणों को दान देना बाहय है। ___ये पांच अतिथिसंविभागवत के अतिचार हैं। उपासकदशांग ૫ણ દેખાતાં અન્નપાણી આદિ આહારના વિષયમાં આ પ્રમાણે કહેવું કે-“આ "माना४-५, lati छे, भा२। नथी को मापा माटे हुदायार छु। આ પરવ્યપદેશ નામક અતિચાર છે. હકીકતમાં તે તે આહાર ઈન્કાર કરનાર પિલા ગૃહસ્થને જ છે, બીજાનો નથી. - (૫) માત્સર્ય–શ્રમણ દ્વારા ભિક્ષાની યાચના કરવામાં આવે ત્યારે જે શ્રાવક ગુસ્સે થઈ જાય છે, શ્રમણને અનાદર કરે છે અથવા યાચના કરવા છતાં પણ આપતા નથી તે મત્સર કહેવાય છે. મત્સરનો ભાવ માત્સર્ય છે અથવા બીજાના ગુણો સહન ન કરવા માત્સર્ય છે અથવા પેલા દ્રરિદ્ર દાન આપ્યું છે તે શું હું તેનાથી ઉતરતી કક્ષાને શું ? એ પ્રકારના માત્સર્ય ભાવથી દાન આપવું પણ માત્સર્ય કહેવાય છે અથવા કષાયથી કલુષિત ચિત્તથી શ્રમણને દાન આપવું માત્સર્ય છે. આ પાંચ અતિથિસંવિભાગ વ્રતના અતિચાર છે. ઉપાસદશાંગસૂત્રના Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीको अ.७ खु.५३ सारणान्तिक संलेखनाया पञ्चातिचारा: ३८९ इति । यथा संविभागस्य पञ्चाऽतिचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथासचित्तनिक्षेपणम् १ सचित्तपिधानम् २ कालतिक्रपदानम् ३ परव्यपदेशः ४ मत्सरता ५ इति ॥५२॥ मूलम्-सारणंतिय लंलेहणाजोलणाए इहलोगासंसप्पओगाइया पंच अइयारा ॥५३॥ छाया-मारणान्तिकसंलेखनाया जोषणा इहलोकाऽऽशंसा प्रयोगादिकाः पश्चातिचाराः ॥५३॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वस्त्रेऽतिथिसंविभागवतरूपस्या- ऽन्तिमशिक्षाव्रतस्य द्वादशसु द्वादशस्य सचित्तनिक्षेपणादिकाः पश्चातिचागः घरूपिता, द्वादशवत पालनानन्तर-मासन्नमरणं सम्भाव्य यथाऽवसर श्रावकै संलेखनाऽवश्यं कर्तव्या सूत्र के प्रथम अध्ययन में कहा है-पथालविलागवत के पांच अतिचार जानना चाहिए मगर उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे अतिचार यों हैं-(१) चित्तनिक्षेपणता (२) खचित्तपिधानता (३) कालातिक्रमः दान (४) परव्यपदेश और (५) मत्सरता ॥५२।। 'मारणतिय लंहणा' इत्यादि। मारणान्तिकालखना जोषणा के इहलोकाशंसा प्रयोग आदि पांच अतिचार हैं ॥५३॥ ____ तत्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्र में अन्तिम शिक्षावत, बारह व्रतों में बारह वें अतिथिसंविला के वित्तनिक्षेरण आदि पांच अतिचारों का प्ररूपण किया गया है। बारह व्रतों का पालन करते हुए श्राधक को जब अपना भरण सन्निकट प्रतीत हो तब अचार आने पर संले. खना अवश्य करना चाहिए । लंलेखना का आशय है-कषाय और પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યું છે-અતિથિસંવિભાગ વતના પાંચ અતિચાર જાણવા જોઈએ પરંતુ તેમનું આચરણ કરવું જોઈએ નહીં. આ અતિચાર આ છે– (१) सथित्तनिपत (२) सथित्तपिधानता (3) अतिमहान (४) १२વ્યપદેશ અને મત્સરતા. પરા 'मारणांतिय संलेहणाजोखणाए' त्या સૂત્રાર્થ–મારાન્તિકસંલેખનાજષણાના ઈહલકાશંસાપ્રયોગ આદિ પાંચ અતિચાર છે. પલા તત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં અન્તિમ શિક્ષાવત, બાર વતેમાં બારમા અતિથિસંવિભાગના સચિત્તનિક્ષેપણ આદિ પાંચ અતિચારોનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. બારવ્રતનું પાલન કરતા થકા શ્રાવકને જ્યારે પિતાનું મરણ સમીપ છે તેવી ખાત્રી થાય ત્યારે અવસર આવવા પર સંલેખના અવશ્ય કરવી જોઈએ, Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० तत्त्वार्थसूत्रे सा च संलेखना कयायकायकशी.रणम्, ततोऽस्या मारणान्तिकसंलेखनाया जीविताशंपादिकान् पञ्चाऽतिचारान् प्ररूपयितुमाह-'मारणंतियसंलेहणा जोलणाए' इत्यादि। मारणान्तिकसंलेखनाजोपणायाः पूर्वोक्तस्वरूपायाः संयम-तपोभ्यां कायकपायकृशीकरणलक्षणाया रहलोकाशंसापयोगादिकाःइहलोकाशंसायोगः १ आदिना-परलोकाशंसायोगः२ जीविताशंसापयोगः३ मरणाशंसाप्रयोगः ४ काम भोगाशंसाप्रयोगः ५ तत्र-संस्तारग्रहणोत्तरम्-इहलोकेमनुष्यलोके आशंसामयोगः, 'मृत्वा चक्रवती वा-राजा बा-तन्मन्त्री वा भूयाल मित्यादिकरूपामिलापकरणम् १ एवं-परलोकाऽऽशंसाप्रयोगः 'देवोभूयासं' इत्यादिरूपामिलापकरणम् २ सम्मानादि लोभेन जीवितस्य-माणधारण काय को कृश करना । अतएच इस मारणान्तिक संलेखना के जीविता शंसा आदि पांच अतिचारों का प्ररूपण करते हैं जिलशा स्वरूप पहले कहा जा चुका है और तप एवं संयम के द्वारा काय तथा कषाय को कृश (दुर्बल) करना जिसका लक्षण है, उस मारणामिक संलेखना जोषणा के पांच आतिचार है । वे इस प्रकार -(१) इहलोकाशंला प्रयोग (२) परलोकाशंसाप्रयोग (३) जीविता. शंसाप्रयोग (४) मरणाशंलाप्रयोग और (५) कामभोगाशंमाप्रयोग। इनका स्वरूप निम्नलिखित है (१) इहलोशाशंमाप्रयोग-संथारा ग्रहण करने के पश्चात् इस लोक संबंधी इच्छा करना, जैले-मरने के अनन्तर मैं चक्रवर्ती, राजा या उसका मंत्री बन जाऊं, इस प्रकार की अभिलाषा करना। (२) परलोकाशंसाप्रयोग-मृत्यु के पश्चात् इन्द्र या देव होने સંલેખનાનો આશય છે-કષાય તથા કાયાને પાતળા પડવા આથી આ મારણાનિરાલેખનાના જીવીતાસા આદિ પાંચ અતિચારોનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ જેનું સ્વરૂપ પહેલા કહેવામાં આવી ગયું છે અને તપ તથા સંયમ દ્વારા કાયા તથા કષાયને પાતળા પાડવા જેનું લક્ષણ છે તે મારાન્તિકસંલેખના જેષણાના પાંચ અતિચારે આ પ્રમાણે છે-(૧) ઈહલેકારશંસાપ્રગ (२) ५२४ साप्रयोग (3) वितासायास अने. (५) मामाश - પ્રાગ તેમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (૧) ઈહલેકશંસાપ્રગ-સથારે ધારણ કર્યા બાદ આ લેક વિશે ઈચ્છા કરવી જેમ કે-મરણ પછી હું ચક્રવત્તા, રાજા અથવા તેને મંત્રી બની જઉં, એ જાતની અભિલાષા કરવી. (૨) પરકાશંસાપ્રગ-મૃત્યુ બાદ ઈન્દ્ર અથવા દેવ થવાની Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ स्. ५३ मारणान्तिक संलेखनाथापञ्चतिचारा: ३९१ स्या-ऽऽशंसापयोग:-अभिल पकरणं जीविताऽऽशसापयोगः ३ वर्कशक्षेत्रादिनिवासमयुक्त क्षुदाघुए इततया सम्मानायभावेन-दाऽह निये' इत्यादिरूपं मरणस्याऽमिलापकरणं मरणाशंसाप्रयोगः ४ कामो-शब्दरूपे, भोगा:- गन्धरसस्पर्शा स्त्राऽऽशंसाप्रयोग:-अभिलापकरणं कामभोगाऽऽशंसापयोगः, रुचिरस्पृहयालतेत्यर्थः ५।५३॥ __तत्वार्थनियुक्ति:--पूर्व तावदनुक्रमेण पञ्चाणुन तानां त्राणां गुण बनानां चतुर्णा शिक्षावतानाञ्च पञ्च-एञ्चातिचाराः ६रू पताः, सस्पति-मारणान्तिक सलेखना जोपणायाः पञ्चातिचारान् प्ररूपरितुमाह-रणतिय संदेहणा की अभिलाषा करना। (३) जीविताशंलाप्रयोग--आदर-सन्मान, अक्ति आदि के लोभ से जीवित रहने की इच्छा करना। (४) मरणाशंसाप्रयोग-ठोर भूमि में निवास करने से, भूख आदि की पीडा के कारण या लन्मान आदि न होने के कारण 'मैं कान भर লাভ’ সন্ধাহ লক্ষী জানা হলা। | (৬) জ্বাললামহাভাষীঘা—দ্ধাঞ্জ থান হয় জীহ খা भोग अर्थात् गंध, रस और रूपर्श की साधना करना काम भोगाशला प्रयोग नामक अतिचार है ॥५३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-- इलले पहले पांच अणुव्रतों के, तीन गुणा व्रतों के और चार शिक्ष व्रतों के पांच पांच अतिचारों का प्ररूपण किया અભિલાષા કરવી (3) पिताशप्रय11-24:४२-सन्मान, सहित हिना सोलथा જીવતા રહેવાની ઇરછા કરવી. (४) भरणाशसाप्रयोग-१६सयडी ४मीन ५२ निवास-४२वाथी, सूप વગેરેની પીડાના કારણે અથવા માન-સન્માન ન મળવાથી “હું કયારે મારી જાઉં એ પ્રકારે રણની કામના કરવી. (૫) કામગાશંસાપ્રયાગ-કામ અર્થાત શબ્દ અને રૂપ તથા ભોગ અર્થાત્ ગંધ, રસ અને સ્પર્શની કામના કરવી કાભે ગાશંસાપ્રગ નામક અતિચાર છે પાપવા તત્વાર્થનિયુકિત-અ ની પહેલા પંચ અણુવ્રતોના, ત્રણ ગુણ તેના અને ચાર શિક્ષાત્રતોનાં પાંચ-પાંચ અતિચારનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે હવે Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Terra ३९२ जोटणाए इहलोगा संपओगाइचा पंच अध्यारा' इति । मारणान्तिक संलेखनायाः संयम - तपश्चर्यादिना कायकपाय कुशीकरणलक्षणमारणान्विक संलेखना जोषणाया इहलोकाशंसाप्रयोगादिका. - इहलोकाशंसाप्रयोगः १ आदिनापरलोकाशंसाप्रयोगः २ जीविताशंसाप्रयोगः ३ मरणाशंसायोगः ४ कामभोगाशंसाप्रयोगः ५ रात्र तावत् - संस्वारग्रहणोत्तरम् इहलोके - मनुष्यलोके भविष्यज्ज न्मनि - आशंसाप्रयोगः, 'मृत्वा चक्रवर्ती वा - राजा वा तन्मन्त्री वा भूयास' मित्यादिरूपाभिलापकरणम् १ एवं- परलोकासामयोगः 'देवोभृयालम्' इत्यागया है, अब मारणान्तिक संलेखना - जोषणा के पांच अतिचारों की प्ररूपणा करते हैं तप और संयम के द्वारा कार एवं कषाय को कुरा करना जिस का लक्षण है, उस धारणान्तिक संलेखना जोषणा के इस लोफाशंसा प्रयोग आदि पांच अतिचार ये हैं- (१) इहलोकाशंसाप्रयोग (२) पर लोकशंसाप्रयोग (३) जीविताशंसाप्रयोग (४) नरणाशंसाप्रयोग और (५) कामभोगाला योग । इनका स्वरूप इस प्रकार है (१) संभार ग्रहण करने के पश्चात्, आगामी जन्म में मनुष्यलोक संबंधी अभिलाषा करना, जेसे में चक्रवर्ती या राजा या राजमंत्री हो जाऊं, हत्यादि । यह लोकाशंहाप्रयोग है । (२) ही प्रकार में इन्द्र था देव हो जाऊं, ऐसी कामना करना परलोकाशंखाप्रयोग है । આ મારણાન્તિક સ’લેખના જોષણના પાંચ અતિચારોની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ. તપ અને સુયમ દ્વારા કાયા તથા કષાચેને પાતળા પાડવા જેવુ લક્ષણ છે, તે મારણાન્તિકસ લેખના જોષણાના ઈહલેાકાશ'સાપ્રયોગ આદિ પાંચ अतियार छे, या प्रमाणे - ( १ ) लोमश सा प्रयोग ( २ ) परसो अशं साप्रयोग (3) बिताश साप्रयेोग ( ४ ) भरणाशंसाप्रयोग भने (4) अमलेोगाशंसाપ્રયાગ તેમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (૧) સ`થારા ધારણ કર્યાં ખાદ, આવતા જન્મમાં અનુષ્યલેાક સંબધી અભિલાષા કરવી જેમ કે—હુ. ચક્રવર્તી રાજા અથવા રાજમંત્રી થઈ જાઉં, વગેરે આ હલેાકાશ સાપ્રયેગ છે. (૨) એવી જ રીતે હું ઇન્દ્ર અથવા દેવ થઈ જાઉં એવી કામના કરવી પરલેાકાશ સાપ્રયાણ છે. (૩) સંથારા દરમ્યાન મારી પૂજા તથા મહિમા ઘણા વધી રહ્યો છે આથી મારા સથારે લાંબા સમય સુધી ખે་થાય તા સારૂ એ રીતે સારામાં વધારે જીવવાની ઈચ્છા ફરવી જીવિતાશ સાપ્રવેગ છે. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७सू.५३ मारणान्तिक संलेखनाया पञ्चातिचारा: ३९३ दिरूपामिलापकरणम् २ जीविताशंसाप्रयोगश्च-संस्तारके मदीयमहिमा पूजा असीमरूपेण भवति । अतो अदीयसंस्तारमा दीर्घसमयं यावत् प्रचलेत तु वरम् । अमुना प्रकारेण संस्कार के अधिकजीवनेच्छाकरणं जीविताशंसाप्रयोगः । एवंविध जीविताशंसा विपरीता खलु मरणाशंसाऽबसेया-तथाहि-नहि तथाविध पतिपन्नाऽनशनं खां कश्चिद्वेषयति, न वा-कश्चित् पूजते मार, नाऽप्याद्रियते, नो वा. कश्चित् श्लाघते' इत्येवं भावनया तस्य चेतसि परिणामो जायते 'यदिह झटित्येऽहं म्रियेय पापकर्षतिरूपा मरणाशंला दोधाः ३ कर्कशक्षेत्रादि निवासप्रयुक्त क्षुदाधुपहततया सम्मानायभावेन 'कदाहं निवेश इत्यादिरूपं मरणस्याभिलाषकरणं-सरणाशंसापयोगः ४ कालो शब्दरूपे, भोगा:-गन्धरसस्पर्शी स्तत्राशंसा संथारे रीहिला पूजा खूस हो रही है। इसलिये मेरा संथारा लम्बे समय तक चले तो अच्छा है, इस प्रकार थारे में अधिक जीनेसी इच्छा करना जीविताशंशा प्रयोग है। (४) जीविताशंलप्रयोग ले विपरीत मरणाशंसामयोग समझना चाहिए । यथा-मैंने आजीपन अनशन अंगीकार कर लिया है फिर भी कोई मुझे पूछत्ता नहीं है, कोई मेरी पूजा नहीं करता, कोई आदर नहीं करता, कोई प्रशंसा नहीं करता, हा प्रकार की भावना से चित्त में ऐसा विचार उत्पन्न होला कि-'मैं शीघ्र ही मर जाऊं तो अच्छा !' यह मरणाशंसाप्रयोग है । इसी प्रकार कर्कश भूभाग में निवास करने के कारण सप्ट हो या क्षुधा आदि वेदना पीडित कर रही हो, रोगजनित कष्ट हो तव 'हाथ, मैं कब मर जाऊ शीघ्र घर जाऊं तो अच्छा इस प्रकार सोचना भी मरणाशंसाप्रयोग है। (५) श्रोत्र और चक्षु इन्द्रियों के विषय अर्थात् शब्द और रूप (8) જીવિતાસંસાપ્રગથી વિપરીત મરણશંસાપ્રયાગ સમજો જેમ કે મેં આજીવન અનશન અંગીકાર કરી લીધું છે તે પણ કોઈ મારો ભાવ પૂછતા નથી, કે મારી પૂજા કરતું નથી, કંઈ આદર કરતું નથી, કંઈ તેના વખાણ કરતા નથી આ જાતની ભાવનાથી ચિત્તમાં એ વિચાર ઉદ. ભવે કે “હું વહેલું મરી જાઉં તે સારૂં” આ મરણશંસાપ્રયોગ છે. એવી જ રીતે કર્કશ જમીન પર રહેવાના કારણે કષ્ટ થાય અથવા સુધા આદિની વેદના દુઃખ આપી રહી હોય, રેગજનિત કષ્ટ થાય તેવા સંજોગોમાં, હાય હાય ! કયારે મારી જાઉં, જલદીથી મરી જાઉં તે સારૂં? આ રીતે વિચાર એ પણ મરણશંસાપ્રયોગ છે. (૫) શ્રેત્ર અને ક્ષુ ઈન્દ્રિયોના વિષય અર્થાત્ શબ્દ અને રૂપ કામ त० ५० Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रे १९४ योगो ऽभिलापकरण कामभोगाशंसामयोगः, रुचिरविषयस्पृहयालुतेत्यर्थः ५ इत्येते पश्वजीविताशंसादयो मारणान्तिकसंलेखना जोषणाया अतिचारा बोध्याः । एवञ्च पञ्चाणुत्रतेषु त्रिगुणत्रतेषु चतुःशिक्षावदेषु मारणान्तिकसं लेखनाजोपणासु च सर्व सम्मिलित्रयोदशव्रतेषु प्रत्येकं पञ्च पञ्चातिचारैः पञ्चपष्टिरविचाराः पूर्वोक्तरीत्या मरूपिताः, ते च सर्वेऽतिचाराः सर्वथाऽणुव्रतशीलत्रतधारिभिः परिहर्तव्याः । यद्यपि सम्यक्त्वस्याऽप्यविचार पञ्चकस्य सद्भावेन सप्तति संख्यकाः सर्वेऽतिचारा भवन्ति न तु पञ्चपष्टि संख्यका एव - तथापि - मूळप्रासाद पीठ रचनावत् सम्यक्त्वतम् अणुव्रतादीनामाधारो वर्तते तस्मात्तस्याऽऽधारत्वादूव्रतशीलेषु न तदतिचारग्रहणं भवति । एवञ्च - उक्तरीत्या बहुपायदर्शनात्काम कहलाते हैं और स्पर्शन, दखना तथा घ्राण इन्द्रियों के विषय अर्थात् गंध, रस और स्पर्श भोग कहलाते हैं । इन काम और भोग की इच्छा करना कामभोगाशंसाप्रयोग है। तात्पर्य यह है कि मनोज्ञ विषयों की कामना करना कामभोगाशंसाप्रयोग है । इस प्रकार पांच अणुव्रतों के, तीन गुणवतों के चार शिक्षाव्रतों के तथा मारणान्तिकसंलेखनाजोपना के, सब मिलकर तेरह व्रतों के पांच-पांच अतिचार होने से १३५ = ३५ अतिचार हुए। इन सब का प्ररूपण किया जा चुका। इन सब का अणुव्रतधारी एवं सप्त शीलधारी आवक को परिहार करना चाहिए । यद्यपि सम्यक्त्व के भी पाँच अतिचार हैं, इस कारण अतिचारों की संख्या पैंसठ नहीं सत्तर होती है, तथापि सम्यक्त्व, महल की नींव की तरह व व्रतों का आधार | अतएव व्रतों के अतिचारों के साथ उसके अतिचारों की गणना કહેવાય છે અને સ્પન, રસના (જીભ) તથા ઘ્રાણુ ઇન્દ્રિયેાના વિષય અર્થાત્ અધ, રસ અને સ્પ ભેગ કહેવાય છે. આ કામ અને લેગની ઇચ્છા કરવી કામલેગાશ સાપ્રચાળ છે. તાત્ય એ છે કે મનેાજ્ઞ વિષયેાની કામના કરવી કામણેાગાશ’સાપ્રયોગ છે. આ રીતે પાંચ અણુવ્રતાના ત્રણ ગુણુતાના, ચાર શિક્ષાત્રતાના તથા મારણાન્તિકસ‘લેખના જોષણાના,? બધાં મળીીને તેર ત્રતાના પાંચ-પાંચ અતિચાર ઢાવાથી ૧૩૪૫=૯૫ અતિચાર થયા આ ખાતું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યુ આ મધાના અણુવ્રતધારી અને સપ્તશીલધારી શ્રાવકે ત્યાગ કરવા જોઈ એ. જો કે સમ્યકૂત્ત્વનાં પણ પાંચ અતિચાર છે આથી અતિચારાની સખ્યા પાંસઠ નહીં સીત્તેર થાય છે, તે પણુ સમ્યકૃત્ત્વ, મહેલના પાયાની જેમ ખધા તેને આધાર છે. આથી તેના અતિચારાની સાથે તેના અતિચારાની Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.५५ पञ्चमहाव्रतनिरूपणम् एतेषु सम्यक्त्यवतमीलव्यतिक्रमस्थानेषु पञ्चषष्टयविचारस्थानेषु व्रतशीलैः श्रावकै प्रमादो न कर्तव्यः, अपितु अप्रमादो न्याय्यः ॥५३॥ मूलम्-एलिं विप्पजहणाओ वयसुद्धी ॥५४॥ छाया-एतेषां विपहाणाव्रतशुद्धिः ॥५४॥ मूलम्-पाणाइवायाइहितोलबओ वेरमणं पंच महत्वया।५५॥ छाया-प्राणातिपातादिभ्यः सर्वतो विरमणं पञ्चमहावतानि ॥५५॥ तत्त्वार्थदीपिका-तदेव मुक्तान्यगारिणो द्वादशवतानि साविचाराणि अतिचारवर्जनाद् व्रतशुद्धिरित्यप्युक्तम्, सम्पति-पूर्व यदुक्तं-'लब्धो महं' सर्वतोमहनहीं की गई है। इस प्रकार अनेक प्रकार की हानियां होने से सम्यक्त्व के तथा व्रतों और शीलों के पैंसठ अतिचारों के विषय में श्रावकों को प्रमाद नहीं करना चाहिए, बल्कि अप्रमाद ही न्यायसंगत है ।।५३॥ 'एएसि विप्पजहणाओ' इत्यादि । सूत्रार्थ-इन पूर्वोक्त अतिचारों का स्याग करने से व्रत की शुद्धि होती है ॥५४॥ 'पाणाइवायाइहितो' इत्यादि । . सूत्रार्थ-प्राणातिपात आदि से सर्वथा विरत होना पांच महाव्रत हैं॥५५॥ तत्त्वार्थदीपिका- इस प्रकार गृहस्थ्य के बारह व्रतों का अतिचार - कथन किया गया और यह भी बतला दिया गया कि अलिबारों का ગણતરી કરવામાં આવી નથી. આ રીતે અનેક પ્રકારની ક્ષતિઓ હોવાથી Tી સમ્યક્ત્તવના તથા વ્રત અને શીલાના પાંસઠ અતિચારેના વિષયમાં શ્રાવકે પ્રમાદ કરે જોઈએ નહી, બલિક અપ્રમાદ જ ન્યાયસંગત છે. પત્તા 'एएसिं विप्पजहणाओ वयसुद्धी' त्यादि સૂત્રાર્થ–આ પૂર્વોક્ત અતિચારોને ત્યાગ કરવાથી વ્રતની શુદ્ધિ થાય છે. ૫૪ 'पाणाइवायाइहितो सव्वओ वैरमणं' त्यादि સૂત્રાર્થ–પ્રાણાતિપાદ આદિથી સર્વથા વિરત થવું પાંચ મહાબત છે. પણ તવાથદીપિકા–આ રીતે ગ્રહસ્થના બાર વ્રતનું અતિચાર સહિત જન કરવામાં આવ્યું અને એ પણ બતાવી દેવામાં આવ્યું કે અતિચારોને - 4 - 31 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे दिति, सर्वतो यत्र विरतिर्भवति-तानि महावतानि कथ्यन्ते' इत्यत्र पञ्चमहात्रतानि पदयन्ते-'पाणाइवायाइहितो' इत्यादि । माणातिपातादिभ्यः सर्वतो विरमणं महाव्रतानि, तानि पञ्च, माणातिपातः १ आदिशब्देन-मृपावादा २ ऽदत्तादाना३ ऽब्रह्मचर्य ४ परिग्रहाणां ५ ग्रहणं भवति तेभ्यः सर्वतो विरमणं महावतानिउच्यन्ते । तानि पञ्च, तत्र-माणातिपातः माणिवधः, मृपावादोऽसत्यभाषणम् , अदत्तादानं-स्तेयम् , अब्रह्मचर्य मैथुनम् , परिग्रहो मूर्छा, एतेभ्यः सर्वतः सर्वप्रकारेण त्रिकरण-त्रियोगविरमणं-विरतिनिवृत्तिरिति भावः ॥५५॥ तत्वार्थनियुक्ति:--पूर्व द्वादशवतानि सातिचाराणि प्रदर्शिवानि, द्वादश प्रतीच तदनन्तरं पञ्च महाव्रतीभक्तुि महतीति तत्मस्तावात्-मोक्षहेतुभूतानि त्याग करने से ही व्रत की शुद्धि होती है । अब पहले जो कहा था'सवओ महं' अर्थात् हिला आदि का पूर्ण रूपेण जो त्याग किया जाता है उसे महावत कहते हैं, तो अब महानतों का कथन किया जाता है माणातिपात आदि से पूर्ण रूप से निवृत्त होना महावत हैं । महाव्रत पांच हैं-(१) प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) अब्रह्मचर्य और (५) परिग्रहसे सर्वथा विरल होना । प्राणातिपात का अर्थ प्राणी की हिंसा, वृषायाद का अर्थ मैथुन और परिग्रह का अर्थ मूर्छा है । इनसे सर्वथा अर्थात् तीन करण और तीन योग से विरत होना महाव्रत कहलाता है ॥५५॥ ____ तत्वार्थनियुक्ति-इल पूर्व अतिचारों स्वहित बारह व्रतों का निरूपण किया गया । बारहवतों का धारक श्रावक भी बाद में महा ત્યાગ કરવાથી જ વ્રતની શુદ્ધિ થાય છે. હવે પહેલા જે કહ્યું હતું– 'सव्व ओ महं' अर्थात् हिसा माहिन पू ३५थी २ या ४२वामा मावे છે તેને મહાવ્રત કહે છે જેથી હવે મહાવ્રતનું કથન કરવામાં આવે છે પ્રાણાતિપાત આદિથી પૂર્ણ રૂપથી નિવૃત્ત થઈ જવું મહાવ્રત છે. महाबत पाय छ-(१) प्रातिपात (२) भृषावार (3) महत्ताहान (४) અબ્રહ્મચર્ય અને (૫) પરિગ્રહથી સર્વથા વિરત થવું. પ્રાણાતિપાતને અર્થ પ્રાણની હિંસા મૃષાવાદને અર્થ અસત્ય ભાષણ, અદત્તાદાનનો અર્થ ચેરી, અબ્રહ્મચર્યને અર્થ મિથુન અને પરિગ્રહને અર્થ મૂછી છે. આ બધાંથી સર્વથા અર્થાત્ ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથી વિરત થવું મહાવ્રત કહેવાય છે.પપ તરવાથનિયુકિત-આની અગાઉ અતિચારે સહિત બાર વ્રતનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. બારવ્રતને ધારક શ્રાવક પણ પાછળથી મહાવ્રતી Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ५५ पञ्चमहाव्रतनिरूपणम् पञ्च महाव्रतान्याह-'पाणाइवायाइहितो सव्वओवेरमण महन्धया, ते पंच' इति । प्राणातिपात: १ आदिशब्देन-मृपावादा २ ऽदत्तादाना ३ ऽब्रह्मचर्य ४ परिग्रहाः ५ गृह्यन्ते, तेभ्यः सर्वत:-सर्वा शेन द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावेन त्रिकरणे स्त्रियोगैः सर्वथा विरति-निवृत्तिः पञ्च महाव्रतान्युच्यन्ते । तत्र-प्राणातिपातः कषायादि प्रमादपरिणाम परिणतेना-ऽऽत्मना कर्मा मनोवाकायादिरूपयोगव्यापारात् करणकारणाऽनुमोदन रूप कायव्यापारेण द्रव्य-भावभेदेन द्विविधेन माणिमाणव्यपरोपणरूपः १ मृषाबादस्तावत्-असत्यभाषणम् अनृतवचनम्-अलीकाभिभाषणम् २ अदलादानश्च अदत्तस्य स्व-स्वत्वनिवृति पूर्वक मवितीर्णस्या व्रती हो सकता है, इल लंबंध से मोक्ष के कारणभूम पांच महाव्रतों का कथन किया जाता है प्राणातिपात, सृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से सर्वाश से-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ले, तीनों करणों और तीनों योगों से लथा निवृत्त होना बहावन हैं। ____ कषाय आदि प्रमाद रूप परिणाम्ब से युक्त कर्ता आत्मा के द्वारा, मन वचन और कापा आदि योग के व्यापार ले, द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार से करण (स्वयं करना), कारण (करवाना) और अनुमोदन रूप कापव्यापार से प्राणी के प्राणों का व्यपरोपण करना प्राणालिपात है। असत्य भाषण करना, अनृत बचन बोलला, अलोक भाषण करना मृषावाद कहलाता है । दत्त का अर्थ है स्वामी का अपने स्वस्थ को हटा लेना । जो दन्त न हो वह अदत्त कहलाता है । उस अदत्त को થઈ શકે છે આ સંબંધથી એક્ષના કારણભૂત પાંચ મહાવ્રતનું કથન ४२वामा भाव छ પ્રાણાતિપાત, મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, અબ્રહ્મચર્ય અને પરિગ્રહથી સર્વાશે-દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભાવથી, ત્રણે કરણ અને ત્રણે યોગેથી સર્વથા निवृत्त थ महाबत छे. કષાય આદિ પ્રમાદરૂપ પરિણામથી યુક્ત કર્તા આત્માદ્વાર, મન વચન અને કાયા વગેરે એમના વ્યાપારથી દ્રવ્ય અને ભાવ બંને પ્રકારના કરણ (જાતે કરવું), કારણ (કરાવવું) અને અનુમોદન રૂપ કાયવ્યાપારથી પ્રાણીનાં પ્રાણોની હિંસા કરવી પ્રાણાતિપાત છે. અસત્ય ભાષણ કરવું, અમૃત (જ) વચન બોલવું, અલીક ભાષણ કરવું મૃષાવાદ કહેવાય છે. દત્તને અર્થ થાય છે માલિકનું–પોતાનું આદધપત્ય જતું કરવું. જે દત્ત ન હોય તે અદત્ત કહેવાય છે. તે અદત્તને ગ્રહણ કરવું અદત્તાદાન કહેવાય છે. સ્ત્રીસંગ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ स्थितिक तपस्तावत्-स्थान कायोत्सर्गः तेन-कायोत्सर्गेण सर्वदा स्थितिर्यस्य स स्थानस्थितिकः उच्यते, तद्रूपं तपः स्थानस्थितिक तपो भवति, धर्मधर्मिणोरभेद विवक्षणात् १ उत्कुटुकासानक तपरतु-सूम-असंलग्नपुतेन बद्धाञ्जलिपुटेन भूमो चरणमारोप्यो-पवेशनम् उत्कुटुक मुच्यते तदासनमस्यास्तीति उस्कुटुकाऽऽसनिक उच्यते, तद्रूपं तप उत्कुटु कासनिक तपो भवति २ प्रतिमा स्थायितपस्तु-पतिमा:मासिक्यादि द्वादशाभिग्रहविशेषाः उच्यन्ते ताभिर्मासिक्यादि प्रतिमाभिस्तष्ठति तच्छील प्रतिमास्थायी व्यपदिश्यते तद्रूपंतपः प्रतिमास्थायि तपो भवति३ वीरास निक तपतु-सिंहासनोपरि समुपविष्टस्य भूमिस्थितपादस्य सिंहासनाऽपनयने कृते सति सिंहासनोपविष्टबद् अस्थानं वीरासन मुच्यते तदस्त्य स्येति वीरासनिका, परिकर्म विलूपा विमुक्त । इस प्रकार कायक्लेश तप अनेक प्रकार का है। इनका स्वरूप इस तरह है (१) कायोलर्ग करके स्थित रहने वाला स्थानस्थितिक कहलाता है। यहाँ धर्म और धर्मी के अभेदकी विवक्षा की गई है। अतएव इसी को स्थानस्थितिक तप कहते हैं । (२) जमीनपर पुट्टे विना लगाए, हाथ जोड़कर, धरती पर पांव रख कर बैठना उत्कुटुक आसन कहलाता है। ऐले मालन वाले को उत्कुटुकासनिक कहते हैं । इस प्रकार की तपस्या उत्कुटु कासनिक तप है । (३) मासिकी आदि बारह प्रकार के अमित्रहों को प्रतिमा करते हैं । उन्हें ग्रहण करके स्थित होने . वाला प्रतिमास्थायी कहलाता है। ऐसा तप प्रतिमा स्थायी तप है । (४) कोई पुरूष पृथ्वी पर पैर जमा कर सिंहासन पर बैठा हो, फिर पीछे से सिंहासन खिलको लिया जाय और वह पुरुष ज्यों का त्यों बना रहे, અને (૧૨) સર્વગાત્રપરિ કર્મ વિભૂષા વિમુકત આ રીતે કાયકલેશ તપ सन २॥ छे. समनु ५१३५ मा प्रमाणे छे-- (૧) કાર્યોત્સર્ગ કરીને સિથત રહેનાર સ્થાન સ્થિતિક કહેવાય છે. અહી ધર્મ અને ધમીના અભેદની વિવક્ષા કરવામાં આવી છે આથી આને જ સ્થાન સ્થિતિક તપ કહે છે. (૨) જમીન ઉપર ટેકે દીધા વગર, હાથ જોડીને, ધરતી પર પગ રાખીને બેસવાને ઉત્કટક આસન કહે છે. આવા પ્રકારની તપસ્યા ઉકુટુંકાસનિક તપ છે. (૩) માસિકી આદિ આ પ્રકારના અભિગ્રહને પ્રતિમા કહે છે તેમને ગ્રહણ કરીને સ્થિર થનાર પ્રતિમાસ્થાયી કહી શકાય છે. આવું તપ પ્રતિમાસ્થાયી તપ છે. ( કઈ પુરૂષ પૃથ્વી ઉપર પગ રાખીને સિંહાસન પર બેઠે હોય, પછી પાછળથી સિંહાસન ખસેડી લેવામાં આવે અને પેલે પુરૂષ જેમ હતું તેમ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.१७ कायक्लेशतपसः स्वरूपनिरूपणम् ६३९ तद्रूपं तपो वीरासनिक तपो भवति४ नैषधिक तपस्तु-निषद्या सावत्-पुताभ्यां भूमावुपवेशन मुच्यते तथाविधया निषद्यया चरतीति नैषधिका उच्यते तद्रूपं तपो नैपधिक तपो भवति ५ दण्डायतिक तपस्तु-दण्डस्येवायवम् आयामोऽस्यास्तीति दण्डायतिकः, तद्रूपं तपो दाण्डायतिक तपो भवति६ लकुटशायि तपस्तु-लकुटो चक्रकाष्ठं तदिवशेते तच्छीलो लकुटशायी उत्तानशायी भूत्वा पाजिकद्धयं शिरश्च भूमौ स्थापयित्वा शयनशीलो लकुटशायी इत्युच्यते तद्रवं तपो लकुटशायि तो भवति ७ आतापक तपस्तु-आतापयति शीतोष्णादिभिः शरीरं सन्तापयतिक्लेशयति इत्याताएक उच्यते आतापनारूप मर्यातपादि सहनशील इत्यर्थः तद्रप तपो आताएक तपो भवति ८ अमावृतक तपः पुन:-शीतकाले सावरणरहितः सदोरकमुखवस्त्रिका चोलपट्टातिरिक्तववर्जितः खल्ल अपावृतक उच्यते द्रूप उस समय उसका जो आसन होता है वह बीरातन कहलाता है। वीरासन करने वाला वीरासनिक कहलाना है। (५) पुट्ठों से जमीन पर बैठना निषद्या है, जो निषद्या करे वह नैषधिक, इस प्रकार का तप नैषधिक तप है। (६) दंड के समान लम्बे लेटना रूप जो तप करे वह दण्डायतिक कहलाता है। (७) लकुटशायी-यहां लकुट का अर्थ है वक्र काष्ठ अर्थात् टेढा काठ, उसके समान सोना और पैरों की दोनों एडियां और सिर धरती पर टेश कर मध्य शरीर को अधर रखना लकुटशायी तप कहलाता है (८) सर्दी और धूप में स्थित होकर शरीर को संतपाला आतापकतप कहलाता है। (९) शीतकाल में वस्त्र वर्जित होकर रहना अर्थात् डोरा रहित मुख बस्त्रिका और चोलपट के सिवाय अन्य कोई वस्त्र न रखना अप्राकृतिक तप कहलाता है। (१०) अझण्डूयक्ष જ રહે આ વખતે તેનું જે આસન હોય છે તે વીરાસન કહેવાય છે. વિરાસન કરનાર વીરાસનિક કહેવાય છે. અઢેલીને પૂ ઠેથી જમીન પર બેસવાની મનાઈ છે, જે નિષદ્યા કરે તે નિષકિ આ પ્રકારનું તપ ઔષઘિક તપ છે. (૬) દંડની જેમ લાંબા સુઈ જઈને જે તપ કરે તે દણ્ડાયતિક કહેવાય છે, (૭) લકુટશાયી–અહીં લકુટનો અર્થ છે વકકાષ્ઠ અર્થાત્ વાંકુ લાકડું. તેની જેમ સુવું અર્થાતુ પગની બંને એડીઓ અને માથું ધરતી પર ટેકવીને વચ્ચેના શરીરને અદધર રાખવું લકુટશાયી તપ કહેવાય છે (૮) ઠંડી અથવા તડકામાં સ્થિત થઈને શરીરને તપાવવું આતાપક તપ કહેવાય છે. (૯) શિયાળાની તમાં વસ્ત્રવિહિન થઈને રહેવું અર્થાત્ દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકા અને ચોળપટ્ટ સિવાય અન્ય કઈ વસ્ત્ર ન રાખવું અપ્રાકૃતિક તપ કહેવાય છે (૧૦) અઠડૂયક Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3E तत्वार्थसूत्रे तपोऽपाहतक तपो भवति ९ अकण्डयक तुपस्तु-झडयन गावपणं तद्रहितोऽकण्ड. यका दूपं तपो-ऽकण्डूयक तपो भवति १० अनिष्ठीवरू तपातु-निष्ठीवनथूकरणं तद्रहितोऽनिष्ठीवकः त तपोऽनिष्ठीचा तपः उच्यते ११ सर्वगात्र परिकम विभूपा विषमुक्त रूपः पुन:-सर्वस्त्र मात्रस्य परिकर-परिमार्जनं पक्षानं विभूषणश्च ताभ्यां विप्रमुक्तो रहितः परित्यक्तर्वगात्रसंमार्जननिभूषणः, तद्रूपं सपा सर्वगात्रपरिकर्मविभूपाविनमुक्त तपो भवति, इत्येवं बहुविध कायक्लेश तपो भवतीतिभावः ॥१७॥ तरवार्थनियुक्ति:--पूर्व खलु-चतुर्थ स्वपरित्यागरूपं बाह्य तपः सविस्तरं यापितम्, सम्पति-क्रमागतं पञ्चमं कायक्लेशरूपं वाह्यं तपः रूपवितुमाह'कायकिलेस तवे अगबिहे, ठाणठिया दो' इति सायक्लेश तपः खलु कायस्य क्लेशो यस्य स कायरलेशः तद्रूपं तपः कायक्लेश तपः धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात्, एवम् ग्रेऽपि बोध्यम् । तच्चा-ऽनेकविध भवति, तथधा-स्थान स्थिति तप-खुजली आने पर भी शरीर को न खुजलाना (११) अनिष्ठीवक तपः थूकने का त्याग कर देना (१२) समस्त शरीर को धोना, पोछना, सजाना आदि क्रियाओं का त्याग करना सर्वगावरिकर्मविभूषा विषमुक्त तप कहा जाता है । इस प्रकार मायक्लेश तप के अनेक भेद हैं ॥१७॥ तत्वार्थनियुक्ति-चौथे रबपरित्याग बाह्य रूप कामविस्तर वर्णन किया जा चुका, अव मागत पांच कायक्लेय तप की प्ररूपणा करते हैं जिस तपस्या में विशेषतः काय को क्लेश पहुंचाया जाता है, वह कायलेश लप कहलाता है। इस तप के जो भेद वनलाएं गए हैं वे खाल तौर से तपस्या करने वालों के अद है, मगर धर्म और धर्मा में अर्थात् तप और तपस्वी में कथंचित् अभेद होता है अत: तपस्वी તપ-ખજવાળ આવવા છતાં પણ શરીરને ન ખવાળવું (૧૧) અનિષ્ઠીવક તપશૂકવાનું બ ધ કરી દેવું (૧૨) આખા શરીરને ધોવું, લુછવું સજાવટ આદિ ક્રિયાઓને ત્યાગ કર સર્વગાત્રપરિકર્મ વિભૂષાવિપ્રમુકત તય કહેવાય છે. | આવી રીતે કાયકલેશ વયના અનેક ભેદ છે. ૧૭ તત્ત્વાર્થનિકિત–ચોથા રસપરિત્યાગ બાહ્ય તપનું સવિસ્તર વર્ણન કરવામાં આવ્યું હવે કમાગત પચમાં કાયકલેશ તપની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ જે તપસ્યામાં વિશેષત:કાયાને કલેશ પહોંચાડવામાં આવે છે તે કાયકલેશ તય કહેવ છે આ તપના જે ભેદ બતાવવામાં આવ્યા છે તે ખાસ પ્રકારે તપસ્યા કરનાર ના ભેદ છે પરંતુ ધર્મ અને ધમમાં અર્થાત્ તપ અને તાંસ્વીમાં કથંચિત્ અભેદ હોય છે. આથી તપસ્વીના ભેદ તપના પણ ભેદ કહી Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ ७.१७ कायक्लेशतपसः स्वरूपनिरूपणम् ६१ कादि भेदतः, स्थानं कायोत्सर्गः तेन खलु कायोत्सर्गरूपेण स्थानेन सर्वथा स्थितियस्य स स्थानस्थितिका, रुद्रूपं स्थानस्थितिक तपो भवति १ आदिना-उत्कुटुकास निका२ प्रतिमास्थायी ३ वीरासनिश ४ नैषधिकः ५ दण्डायतिकः ६ लकुटशायी ७ आतापकः ८ अप्रावृतका ९ अकण्डूयकः १० अनिष्ठीवकः ११ सर्वगात्र परिकर्म विभूषा विभक्तः १२ इत्येवं खलु-अनेकविधं कायक्लेश तपो भवति । तत्रोत्कुटुकासनिक सपनाइत्-उत्कुटुझम् भूमौ असंलग्नपुतेन-बद्धाञ्जलि पुटेन भूतले पादतलमारोप्यो-एवेशन मुच्यते, शासन सस्त्यस्येति उत्कुटुकासनिकः तद्रूपं तपः उत्कुटुकालनिक तपो भवति २ प्रतिमास्थायि वपस्तु--मतिमा मासिक्यादयो द्वादशनियमविशेषा, तामि:-मासिक्यादि पतिमाभिस्तिष्ठतीति तच्छोला प्रतिमा-स्थायी तद्रूपं तपः प्रतिमास्थायितप उच्यते ३ वीरासनिकतपस्तुके भेद तप के भी भेद कहे जा सकते हैं। इसी दृष्टिकोण को सन्मुख रखकर यहां व्याख्या की जानी है। आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिए। ___कायक्रोश तप अनेक प्रकार का है, यथा (१) स्थान स्थितिक (२) उत्कुटुझासनिक (३) प्रतिस्थायी (४) बोरासनिक (४) नैषधिक (६) दण्डायलिक (७) लकुदशायी (८) आतापक (९) अप्रावृतक (१०) अकण्डूयक (११) अनिष्ठीवक (१२) सर्वगात्रपरिकर्मविभूषाविप्रमुक्त । (१) कायोत्सर्ग करके सिवन रहना स्थानस्थितिक तप है (१) भूमि पर पुढे विना टेके, हाथ जोडकर और दोनों पैर जमीन पर लगाकर बैठना उत्कुटुकासनिक तप कहलाता है । (३) मासिकी आदि बारह प्रकार की प्रतिमाओं (लियमविशेषों) को वहन करना प्रतिमास्थायी तप कहलाना है । (४) दोनों पांव जमीन पर टेक कर सिंहासन के उपर बैठे શકાય છે આજ દ્રષ્ટિકોણને સન્મુખ રાખીને અહીં વ્યાખ્યા કરવામાં આવે છે. આગળ પણ આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ यश तय भने ४२ना छ वाई-- (१) स्थानस्थिति(२) सानि (3) प्रतिमाथायी (४) वीरासनि: (५) नेपाथः (१) ४९14ति (७) सशायी (८) माता५४ (6) मप्रावृत: (१०) २५४९३५४ (११) मनिઠીવક (૧૨) સર્વગાત્રપરિકર્મવિભૂષાવિપ્રમુક્ત (૧) કાત્સર્ગ કરીને સ્થિત રહેવું સ્થાનસ્થિનિક તપ છે. (૨) ભૂમિ ઉપર પૂંઠ ટેકવ્યા સિવાય, હાથ જોડી ને અને બંને પગ જમીન ઉપર ટેકવીને બેસવું ઉભુટુકાસનિક તપ કહેવાય છે. (૩) માસિકી આદિ બાર પ્રકારની પડિમાઓ (નિયમ વિશે) નું વહન કરવું પ્રતિમા સ્થાયી તપ કહેવાય છે. (૪) બંને પગ જમીન પર ટેકવીને त०८१ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्यसूत्रे सिहासनोपरि समुपरिष्टस्य भूमिस्थितचरणस्य सिंहासनाऽपनर ने कृतेऽपि सिंहासनोपविष्टवदेवाऽवस्थानं वीरासन मुच्यते तदस्त्यस्येति वीरासनिक स्तद्रूपं तपो वीरासनिक तप उच्यते ४ नैपधिकतपस्तु-पुताम्यां भूमावुपवेशनं निषधा, तया चरति नपधिकः तद्र पो नैपधिक तपो भवति ५ दण्डायतिक तपस्तु-दण्डस्येवाऽऽयतं, आयामोऽस्यारतीति दण्डायतिकः तद्रूपंतपो दण्डायतिक तप उच्यते ६ लकुदशायितपस्तु-लकुटो बक्रकाष्ठं तदिव शयनशीलो लकुटशायीउत्तानशायी भूत्वा पाणिक द्वयं-शिरश्च भूमौ संस्थाप्य शयनशील उच्यते तद्रूपं तपो लकुटशायि तपो भवति७ आतापकतपस्तु-आतापयति शीतोष्णादिभिः शरीरं संतापयति-क्लेशयतीति आतापकः तद्रए तप आतापकतपः आतापना तावत् सूर्यातपादि सहनरूपा बोध्या ८ अप्रावृतक तपः-पुनः शीतलकाले सदोरकमुखवत्रिका-चोलपट्टातिरिक्त वस्त्ररूपशावरणरहितः अमातकः तद्रूपं तपोऽपातक हुए पुरुष के नीचे से अगर सिंहासन हटा लिया जाय तो उसका जो आसन होता है, वह वीरासन कहलाता है। वीरासन ले स्थित होना वीरासनिक तप है। (५) पुढे जमाकर भूमि पर बैठना नैषधिक तप कहला है। (६) दण्डायति-दंड की तरह लंषा लेटे रहना । (७) जैसे वन काष्ठ के दोनों सिरे जमीन को छूते हैं और मध्य का भाग अधर रहता है उसी प्रकार दोनों पांव और मस्तक धरती पर टेक कर शेष शरीर को अधर रखना लकुटशायी तप कहलाता है । (८) सूर्य की धूप या शीतकाल की लदी को विशेष रूप से सहन करना आतापना कहलाता है । आतापना द्वारा शरीर को तपालाक्लेश पहुंचाना आता. पक तप कहलाता है । (९) शीतकाल में डोरा सहित मुखयास्त्रिका સિંહાસન ઉપર બેસેલા પુરૂષની નીચેથી જે સિંહાસન ખસેડી લેવામાં આવે તે વખતે તેનું જે આસન હોય છે તે વીરાસન કહેવાય છે. વિરાસનથી સ્થિત થવું વીરાસનિક તપ કહેવાય છે. (૫) પળાંઠી જમાવીને ભૂમિ પર બેસવું નિષકિ તપ કહેવાય છે (૬) દડાયતિક દડની માફક લાંબા થઈ સુઈ રહેવું (૭) જેમ વાંકા લાકડાના બંને છેડા જમીનને સ્પર્શ કરે છે અને મધ્ય ભાગ અધર રહે છે તેવી જ રીતે બંને પગ અને મસ્તક ધરતી પર ટેકવીને બાકીના શરીરને ઉંચું રાખવું લકુશાયી તપ કહેવાય છે (૮) સૂર્ય ને તાપ અથવા શિયાળાની ઠંડીને વિશેષ રૂપથી સહન કરવા આતાપના કહેવાય છે. આતાપના દ્વારા શરીરને કષ્ટ આપવું આતાપક તપ કહેવાય છે. (૯) શિયાળામાં દેરા સહિતની મુખવસ્ત્રિકા તથા પહેરવાના વસ્ત્ર સિવાય Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीकां अं.८ सूं. १७ कायक्लेशतपसः स्वरूपनिरूपणम् ६४३ तपो भवति ९ अकण्डूयक तपस्तु गात्रघर्षणरूप कण्डूयनवर्जितोऽक'यक उच्यते तद्रूपं तपोऽकण्डूवक तपः १० अनिष्ठीवक तपस्तुनिष्ठीवन रहितोऽनिष्ठीवक स्वद्रूप तपोऽनिष्ठीवकतपः ११ सर्वमात्र परिकर्म विभूषा विभयुक्त तपः पुनः सर्वस्य - गात्रस्य परिकर्म मार्जन विभूषणश्च ताभ्यां विमुक्तो वर्जितः परित्यक्तसर्वगात्र सम्मार्जन विभूषणः तद्रव तपः सर्वगानपरिकर्म विभूषा विममुक्त उच्यते १० इत्येवं रीत्या कायक्लेश तपोऽनेकविधं भवति, इतिभावः । उक्तञ्चपपातिके २० सूत्रे - 'हे किं तं कायकिले से, सायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते तं जहा ठाणहिए १ उक्कुडुपालनिए २ पडिमट्ठाई ३ वीरासणिए ४ खज्जिए ५ दंडाइए ६ लउडलाई ७ आघावए ८ अवाउडर ९ अकंडुयए १० अणिहए ११ सवगाय परिकम्मविभूविमुक्के-१२ सेतं कायकिछे से' इति । अथ कोऽसौ कायक्लेशः ३ कायक्लेशोऽनेकविधः मज्ञतः, तद्यथा - स्थानस्थिविद्याः १ उत्कुटु कासनिकः २ प्रतिमास्थायी ३ वीरातथा चोलपट्ट के अतिरिक्त समस्त वस्त्रों को त्यागकर अप्रावरण स्थिति में रहना अप्रावृतक तप कहलाता है । (१०) खुजली आने पर भी शरीर को नहीं खुजलाना अकण्डूयक तप है । (११) थूकने का त्याग कर देना अनिष्ठीव तप है । (१२) सारे शरीर को धोने पोंछने और सजाने का त्याग कर देना सर्वमात्र परिकर्म विभूषा विप्रमुक्त तप है । इस प्रकार कायक्लेश तप अनेक प्रकार का है । औपपातिक सूत्र में कहा गया है - प्रश्न- कायक्लेश तर कितने प्रकार का है ? उतर -- कायक्लेश के अनेक भेद हैं, यथा-स्थानस्थितिक (२) Beeghrafts (३) प्रतिमास्थायी (४) वीरासनिक (५) नैवचिक (६) - दंडायतिक (७) लकुटशाघी (८) आतापक (९) अप्रावृतक (१०) अक ખાકીના સઘળા વસ્ત્રોને ત્યાગ કરીને અપાવરણ સ્થિતિમાં રહેવુ. અપ્રાવૃતક તપ કહેવાય છે (૧૦) ખજવાળ આાવવા છતાંપણ શરીરને ખજવાળવુ નહી તે અકર્ણાયક તપ છે (૧૧) થૂંકવાના ત્યાગ કરી દેવા અનિષ્ઠીવક તપ એ (૧૨) આખા શરીરને ધેાવા લુછ્યા તથા સજાવટના ત્યાગ કરી દેવે સ`ગાત્ર પરિક વિભૂષા વિમુક્ત તપ છે. આવી રીતે કાયકલેશ તપ અનેક પ્રકારના છે. ઔપપાતિક સૂત્રમાં કહ્યુ' છે પ્રશ્ન-કાયકલેશ તપ કેટલા પ્રકારના છે ? उत्तर-डायसेशना भने लेह हे वाडे - (१) स्थान स्थिति (२) उत्कुटु. वासनिक (3) प्रतिभास्थायी (४) वीरासनिङ (६) नैषधिः (७) एय Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविस्तर मादपिका--पूर्वता विधम्, इन्द्रियानि तत्त्वार्थस्त्रे सनिकः ४ नैषधिकः५ दण्डायतिका६ लकुटशायी ७ आतापकः ८ अमाहतका९ अकण्डयका १० अनिष्ठीवकः ११ सर्वगात्र परिकर्मविभूपाविषमुक्तः ११॥१७॥ मूलम्-डिसंलीणया तवे चउठिवहे, इंदियपडिसंलीणयाइ भेयओ ॥१८॥ छाया-प्रतिसंलीनता तप श्चतुर्विधम्, इन्द्रियमतिसंलीनवादि भेदतः ॥१८॥ तत्त्वार्थदीपिका--'पूर्व तावत्-क्रमप्राप्त बाह्य पञ्चमं कायक्लेशरूपं तपः सविस्तरं प्ररूपितम्, सम्मति-क्रमागतं षष्ठं तपः प्रतिसंलीनतारूपं प्रतिपादयितु. माइ-'पडिसंलीणया तवे' इत्यादि । प्रतिसलीनतातपः-इन्द्रिय क्रोधकपायादि निरोधकरणशीलतारूपं तपः खलु चतुर्विधं भवति, तद्यथा-इन्द्रियपतिसंलीनतादि भेदतः, इन्द्रियप्रतिसंलीनता १ कपायप्रतिसंलीनता २ योगपतिसंली. नया ३ विविक्तशव्यासन-सेवनता ४ चेत्येवं चतुर्विध तावत्म्मतिसंलीनतातपो ण्डूयक (११) अनिष्ठीवक और (१२) सर्वगात्रपरिकर्मविभूषाविप्रमुक्त । यह सब कायक्लेश तप है ॥१७॥ 'पडिसलीणया तवे चउन्धिहे' इत्यादि सूत्रार्थ-इन्द्रियप्रतिसलीनला, कपाधप्रतिसंलीनता योगप्रतिसंलीता और विविक्त शरघासनसेवनता के भेद से प्रतिसंलीनता तप चार प्रकार का है ॥१८॥ तत्वार्थदीपिका--पहले कायक्लेश तप का वर्णन किया गया अब क्रमागत प्रतिसंलीनता का निरूपण किया जाता है इन्द्रियों और कषायों आदि का निग्रह करना प्रतिसलीनता तप कहलाता है। उसके चार भेद है-(१) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता (२) कषाय पतिसंलीनता (३) योगप्रतिसलीनता और (४) विविक्तशय्यासन सेबनता । श्रोत्र आदि इन्द्रियों का गोपन-निग्रह करना अर्थात् इन्द्रियाँ (८) मा५४ () मप्रावृत(१०) २५४९५४ (११) मनिही मने (१२) સર્વગાત્ર પરિકર્મવિભૂષાવિમુક્ત આ સઘળા કાયકલેશ તપ છે ! ૧૭ 'पडिसलीणया तवे चउविहे' इत्यादि સૂવાથ–ઈન્દ્રિયપ્રતિસંલીનતા, કષાયપ્રતિસંસીનતા, ગપ્રતિસંસીનતા અને વિવક્તશય્યાસન સેવિતાના ભેદથી પ્રતિસંસીનતા તપ ચાર પ્રકારના છે ૧૮ તત્ત્વાર્થદીપિકા–પહેલાં કાયકલેશ તપનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું, હવે કમાગત પ્રતિસલીનતાનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે ઈન્દ્રિ અને કષાયે આદિને નિગ્રહ કર પ્રતિસંલીનતા તપ કહેવાય ७. तना यार से छे-(१) 8न्द्रियप्रतिसदीनता (२) पायप्रतिदीनता (3) ગપ્રતિસલીનતા અને (૪) વિવિકતશય્યાસન સેવનતા શોત્ર આદિ ઇન્દ્રિયનું Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ .१८ प्रति लीन तास्वरूपनिरूपणम् ६४५ भवति । तत्रेन्द्रिय प्रतिसलीनतातप स्तावत्-इन्द्रियाणां श्रोत्रादीनां पतिसंलीनता 'निरोधकरणशीलता, गोएनशीलता, तद्रपंतप इन्द्रियमतिसंलीनता तपो भवति एवं-कपाय प्रतिसंलीनतातप स्तावत्-क्रोधादिकाषायाणां प्रतिसंलीनता गोपन शीलता निरोधकरणशीलता तद्प तपः कषायप्रतिसंलीनता तपो भवति २ एवंयोग प्रतिसंलीनता तपस्ताबद्-योगानां मनोवचन-काय व्यापाराणां पतिसंली. नता गोपनशीलता तद्रूप तपो योगमतिसंलीनता तपो भवति ३ एवं विविक्त शय्यासनसेवनता विविक्तेषु स्त्री पशुपण्ड करहितस्थानेषु शय्यासनकरणशीलता तद्रूप तपो विविक्तशासनसेवनता तपो भवतीतिभावः ॥१८॥ __ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व खलु कायक्लेशरूपञ्चमं वाह्य तपः सविस्तरं प्ररूपितम् सम्पति क्रमप्राप्त षष्ठं बाह्यं तपः प्रतिसंलनतारूप चातुर्विध्येन प्ररूपयितुमाह-'पडिसंलीणया तवे च बिहे, इंदिव पडि संलीणघाइ भयो' " इति । प्रति संलीनतात:-प्रतिसंलीनस्य स्वान्वीनस्य भावः प्रतिसलीनताइन्द्रियकषायादीनां गोपनशीलता निरोधकरणशीलता तद्रूपं तपः पतिसंलीनता को मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में समलावधारण करना इन्द्रियप्रतिसली नता तप है (२) क्रोध आदि कषायों का निरोष करना कषायप्रतिसं लीनता है (३) योगों का अर्थात् मन वचन काय के व्यापारों का निरोध करना योगप्रतिसंलीनता है और (४) स्त्री, पशु, एवं नपुंसक से रहित स्थान में शयन-आसन करना विविक्त शयनासनसेवनता तप है ॥१८॥ तत्यार्थनियुक्ति-पहले पांचवें बाह्य तप कायक्लेशका विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया, अब क्रमप्राप्त छठे तप प्रतिसंलीनता के चार भेदों का निरूपण करते हैं इन्द्रियों और कषायों आदिका गोपन-निरोध करना प्रतिसंलीनता ગોપન-નિગ્રહ કર અર્થાત્ ઈન્દ્રિયોના મણ અમનોજ્ઞ વિષયમાં સમભાવ ધારણ કરે ઈન્દ્રિય પ્રતિસંલીનતા તપ છે. (૨) કોધ આદિ કષાયેનો નિરોધ કરે કષાય પ્રતિસંલીનતા છે. (૩) ભેગને અર્થાત્ મન, વચન કાયાના વ્યાપારને નિરોધ કર ગપ્રતિસંલીનના છે અને (૪) સ્ત્રી, પશુ તથા નપું સક વગરના સ્થાનમાં શયન આસન કરવું વિવિક્તશયનાસન સેવનતા તપ છે. ૫૮ તત્વાર્થનિર્યુકિત-આની પહેલા પાંચમાં બાહ્ય તપ કાયકલેશનું વિસ્તારપૂર્વક નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે ક્રમ પ્રાપ્ત છઠ તપ પ્રતિસલીનતાના ચારે ભેદનું નિરૂપણ કરીએ છીએ ઈન્દુિ અને કષા વગેરેનું ગોપન-નિરોધ કર પ્રતિસંલીનતા તપ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ तत्त्वार्थस्त्र तप उच्यते । तच्चतुर्विधम्, तद्यथा-इन्द्रियपतिसंलीनतादि भेदतः, इन्द्रिय प्रति संलीनता १ आदिना-पाय प्रतिसंलीनता २ योगप्रतिसंलीनता ३ विविक्तशययासन सेवनला ४ चेत्येवं चतुर्विध खन्, पतिसंलीनता तपो भवतीति भावः। तत्र-इन्द्रिय प्रतिसंलीनता-इन्द्रियाणां श्रोत्रादीनां मतिसंलीनता तद्रूपं तप इन्द्रिय प्रतिसलीलता तप उच्यते १ एवं-कपायतिसंलीनतारूप स्तानम्-कपायाणांक्रोधादि कपायाणां मतिसंलीनता-गोपनशीलता तद्रूपं तपः कपायपतिसंलीनता दप उच्यते २ एवं-योगपतिसंलीनता तप स्तावत्-योगानां मनोवाक् कायव्या. पारविशेषाणां पतिसं लीनता-गोपनशीलता तद्रूपं तपो योगप्रतिसंलीनता तप उच्चत्ते ३ एवं-विविक्तशरणासनसेवरतो तपस्तावत्-विदिक्तेषु स्त्री-पशु-पण्डक . रहितस्थानेषु शय्यासनकरणशीलता तद्रूपं तपो विविक्तशय्यासनसेवनता तप उच्यते ४ । उक्तञ्चौ-पपातिके ३० सूत्रे-'खे किं तं डिसलीणया ? पडिसंलीणया चयिहा पण्णत्ता, तं जहा-इंदियपडिसलीणया १ कसायपडिसली.णया २ जोधपडिसलीणा ३ विवित्तवरणासणसेवणया ४ इति । अथ कासौ प्रतिसंलीनता ? प्रतिसंलीनता चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-इन्द्रिय तप है । इसके चार प्रकार हैं-(१) इन्द्रियप्रतिसलीनता (२) कषाय प्रतिसलीनता (३) योगप्रतिसंलीनता और (४)विविक्तशयनासनसेवनता क्षेत्र आदि इन्द्रियों का गोग्न करना अर्थात् इन्द्रियों के विषय राग-द्वेष नहीं उत्पन्न होने देना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है। क्रोध आदि कपायों का निरोध करना कषायप्रतिसलीनता है । मन वचन और काय की प्रवृत्ति का संवरण करना योग प्रतिसंलोनता है। स्त्री, पशु और पाण्डक से रहित स्थान में शयन-आसन करना चिधिक्तायनासनलेबनना तप है। औपपातिकसूत्र में कहा है प्रश्न-प्रतिसंलीनता तप कितने प्रकार का है ? છે. એના ચાર પ્રકાર છે (૧) ઈન્દ્રિયપ્રતિસંલીનતા (૨) કષાયપ્રતિસંલીનતા (3) योगप्रतिसदीनता मने (४) विवितशयनासन सेवनता ત્ર આદિ ઇન્દિનું ગોપન કરવું અર્થાત્ ઇન્દ્રિયના વિષયમાં રાગ છેષ ન ઉત્પન્ન થવા દેવા ઈન્દ્રિય પ્રતિસલીનતા છે. ક્રોધ આદિ કષાયને નિરોધ કર કષાયપ્રતિસંલીનતા છે. મન વચન અને કાયાની પ્રવૃત્તિનું સંવરણ કરવું ચગપ્રતિસંલીનતા છે. સ્ત્રી પશુ અને નપુંસકથી રહિત સ્થાનમાં શયન આસન કરવા વિવિક્તશયનાસનસેવનતા તપ છે. ઔપપાતિક સૂત્રમાં કહ્યું છે પ્રશ્ન-પ્રતિસંલીનતા તપ કેટલા પ્રકારના છે ? Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maranews दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८. सू.१९ इन्द्रियप्रतिसंलीनतास्वरूपनिरूपणम् ६४७ प्रतिसंलीनता १ कषायमतिसंलीनता २ योगपतिसलीनता ३ विविक्तशय्या. सनप्रतिसंलीनता ४ इति ॥१८॥ मूलम्-इंदिय पडिसंलीणयातके पंचविहे,लोइंदियाइभेयओ।१९। छाया--'इन्द्रियमतिसंलीनतादपः पञ्चविधम्, श्रोत्रेन्द्रियादि भेदतः ।।१९।। तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् क्रमागतस्य षष्ठस्य बाह्य पसः प्रतिसलीनता रूपस्य मरूपणं कृतम्, सम्पति-चतुर्विधेषु तिसंलीनतारूपेषु प्रथमोपावस्य इन्द्रियप्रतिसलीनता तपसः स्वरूप मरूपयितुम्याह-'इंदिक्षपडिसंली जया इत्यादि । इन्द्रियपतिसंलीनता तपः इन्द्रिशाणां श्रीनादीनां प्रतिसंलीनता, इन्द्रियप्रतिसंलीनता तदरूप तप इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तपः तत् खल्ल पञ्चारधं भवति, तघथा-श्रोत्रेन्द्रियप्रतिसंलीनता १ आदिना-चक्षुरिन्द्रियपतिसंलीनता २ घ्राणे उत्तर-प्रतिसलीनता तप चार प्रकार का है-(१) इन्द्रिय प्रतिसं लीनता (२) कषायप्रति लीनता (३) योगप्रतिसंशीलता और (४) विविक्तशयनासनसेवनता ।।१८॥ 'इंदियपडिलीणया तवे इत्यादि । सूत्रार्थ-श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों के भेद ले इन्द्रिय प्रतिसलीनता तप भी पांच प्रकार का है ॥१९॥ तत्वार्थदीपिका-पहले छठे बायतप प्रतिसं लीनता निरूपण किया गया, अब उसके चार भेदों में से प्रथम भेद इन्द्रिय प्रतिसलीनता के भेदों की प्ररूपणा झरते हैं श्रोत्र आदि इन्द्रियों का गोपन करना इन्द्रिय प्रतिलीनता तप है। वह पांच प्रकार का है-(१) अंत्रेन्द्रिय प्रलिस्लीनता चारिन्द्रिय. प्रतिसंलीनता (३) घ्राणेन्द्रिय प्रतिसलीनला (४) रखनेन्द्रिय प्रलिझलीनता ઉત્તર-પ્રતિસલીનતા તપ ચાર પ્રકારના છે-(૧) ઈન્દ્રિય પ્રતિસલીનતા (२) ४ायप्रतिससीनता (3) यसप्रति लीनता भने (४) विवितशयन। સનસેવનતા છે ૧૮ | 'इंदियपडिसलीणया तवे पंचविहे' त्यादि સૂવાથ--ત્ર આદિ પાંચ ઈન્દ્રિયેના ભેદથી ઈન્દ્રિયપ્રસિંલીનતા તપ પણ પાંચ પ્રકારના છે. જે ૧૯ છે તત્વાર્થદીપિકા-પહેલા છઠા બાહ્યતા પ્રતિસંસીનતાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે એના ચાર ભેમાંથી પ્રથમ ઇન્દ્રિય પ્રતિસલીનતાના ભેદની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ શ્રેત્ર આદિ ઈન્દ્રિયેનું ગેપન કરવું ઈન્દ્રિય પ્રતિસંલીનતા તપ છે. તે પાંચ પ્રકારના છે–(૧) શ્રોત્રેન્દ્રિયપ્રતિસલીનતા (૨) ચક્ષુરિન્દ્રિયપ્રતિસ લીનતા Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪૮ तत्वार्थ सूत्रे द्विर मरि संलीनता - ३ जिह्वेन्द्रियमतिसंलीन्ता ४ स्पन्द्रियमतिसंलीनता ५ चेत्येनं पञ्चविधं तावद् इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तपो भवतीति भावः । तत्र थोत्रेन्द्रियविषयप्रचार निरोधः, श्रोत्रन्द्रियविपयमाप्तेष्वर्थेषु राग-द्वेपनिमहो वा श्रोत्रेन्द्रियप्रतिसंलीनता तपो भवति । तथा च- संगीता विघातकः शब्दो न श्रोतव्यः मधुर मृदङ्गादि शब्देवनुरागो न कर्तव्यः आक्रोशादि शब्देवमी ति लक्षणचित्तविकारात्मको द्वेषो न विधेयः - १ एवं चक्षुरिन्द्रियपतिसंलीनता तपस्तु-चक्षुरिन्द्रियविषय प्रचार निरोधरूपं चक्षुविषयमादर्थेषुरागद्वेषनिग्रहरूपं वा बोध्यम् २ एवं प्राणेद्रियमतिसलीनता तपस्तु त्राणेन्द्रियविपय प्रचार निरोधरूपं घ्राणेन्द्रिय विषयमाप्तष्वर्थेषु राग-द्वेष निग्रहरूपं चार सेयम् ३ एवं - जिह् वेन्द्रियमविसंलीनता तपस्तु - जिवेन्द्रियविषयमेचार '' और (५) स्पर्शेन्द्रियप्रनिसंलीनता । श्रोत्रेन्द्रिय को उसके विषय ग्रहण में प्रवृत्त न होने देना अथवा प्राप्त विषय में अर्थात् इष्ट अनिष्ट शब्द में राग-द्वेष न उत्पन्न देना श्रोगेन्द्रिय मतिसंलीनता है । अतएव संयम विघातक शब्द सुनना नहीं चाहिए, मृदंग आदि से मनोहर शब्दों में राग और आक्रोश आदि के शब्दों में द्वेष नहीं करना चाहिए | इसी प्रकार चक्षु इन्द्रिय के व्यापार का निरोध कर देना अथवा चक्षु के द्वारा दिखाई देने वाले रूपों में राग द्वेषन करना चक्षुरिन्द्रिय प्रतिसं लीनता है। घ्राणेन्द्रिय को अपने विषय में प्रवृत्त न होने देना अथवा इष्ट-अनिष्ट गंध की प्राप्ति होने पर राग-द्वेष न करना घ्राणेन्द्रिय प्रति संलीनता तप है । इसी प्रकार जिहा को रस में प्रवृत्त न करना अथवा (3) प्रायेन्द्रिय प्रतिस सीनता (४) रसनेन्द्रियप्रति सीनता (अने) (4) स्पर्श - ન્દ્રિયપ્રતિસ’લીનતા શ્રેન્દ્રિયને તેના વિષયગ્રહણમાં પ્રવૃત્ત ન થવા દેવી અથવા પાપ્ત વિષયમાં અર્થાત્ ઈષ્ટ અનિષ્ટ શબ્દમાં રાગદ્વેષ ઉત્પન્ન ન થવા દેવા શ્રેત્રેન્દ્રિયપ્રતિસલીનતા છે આથી સંયમ વિદ્યુતક શબ્દ સાંભળવા ન જાઈએ, મૃદગ આદિના મનેાહર શબ્દમાં રાગ અને આક્રોશ આદિના શબ્દોમાં દ્વેષ ન કરવા જોઈએ એવી જ રીતે શ્રુ ઇન્દ્રિયના વ્યાપારને નિરાધ કરી દેવા અથવા ચક્ષુ દ્વારા જોવામાં આવતા રૂપેામાં રાગ દ્વેષ ન કરવા ચક્ષુન્દ્રિયપ્રતિસ’લીનતા છે. ણેન્દ્રિયને તેના વિષયમાં પ્રવૃત્ત ન થવા દેવી અથવા ઇષ્ટ અનિષ્ટ ગધની પ્રાપ્તિ થવા પર રાગ દ્વેષ ન કરવા ઘ્રાણેન્દ્રિયપ્રતિસ’લીનતા તપ છે, એવી જ રીતે જીભને રસમાં પ્રવૃત્ત ન કરવી Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.८ ८.१९ इन्द्रप्रति संलीनतास्वरूपनिरूपणम् ६४९ निरोधरूपं निवेन्द्रिय प्राप्तेष्वर्थेषु राग-द्वेषनिग्रहरूपं वा बोध्यम् ४ एवं = स्पर्शनेन्द्रियमतिसंलीनता तपस्तु स्पर्शनेन्द्रियविषयप्रचारनिरोधरूपं स्पर्शनेन्द्रियविषयमाप्यर्थेषु राग-द्वेषनिग्रहरूपं वाऽवगन्तव्यम् ५ तथा च नेत्रस्य विषये रूपे प्रवृत्तिनिरोधः कर्तव्यः, मनोज्ञाऽमनोज्ञरूपेष्यनुरागस्य द्वेषस्य च निग्रहः कार्यः, एवं प्राणजिहवा स्पर्शनेन्द्रियाणां गन्धरसस्पर्शनात्मक विषयेषु भवृत्तिनिरोधो विधातव्यः, एनोज्ञाऽमनोज्ञगन्धरसस्पर्शेषु रागद्वेषनिग्रहः कर्तव्यः || १९|| सार्थनियुक्तिः- पूर्वं तावद् पष्ठं तपः प्रतिसंलीनतारूपं चतुर्विधं प्रतिपा दिवम्, तत्र - सम्पति- इन्द्रियप्रति संलीनता तपः पश्चविधत्वेन प्रतिपादयितुमाहप्राप्त मनोज्ञ और अपनोश रसों में राग-द्वेष उत्पन्न न होने देना रसनेद्रिय प्रतिसंलीता है । इसी भांति स्पर्शन इन्द्रिय को स्पर्श विषय में प्रवृत्त न होने देना अथवा प्रांत स्पर्श में रान द्वेष धारण न करना स्पइनिन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप है। ऐसा ही नेत्र के विषय रूप में चक्षु की प्रवृत्ति नहीं होने देना चाहिए और यदि प्रवृत्ति हो जाय तो उसमें राग द्वेष नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार घ्राण, रखना और स्पर्शनेन्द्रिय को अपने-अपने विषय में प्रथम तो प्रवृत्त ही नहीं होने देना चाहिए और कदाचित् प्रवृत्ति हो जाय, क्योंकि प्राप्त विषय को इन्द्रिय ग्रहण दिये बिना रहती नहीं, तो उन विषयों को मनोज्ञ या अग्नोज्ञ मानकर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए ||१९|| तस्वार्थनियुक्ति – पहले छठे तप प्रतिसंलीनता का निरूपण किया गया और उसके प्यार भेदों का नर्देश भी किया गया, अब उनमें से પ્રાત્ય સનાસ અસનાજ્ઞ રસમાં રાગ દ્વેષ ઉત્પન્ન ન થવા દેવા રસને ન્દ્રિયપ્રતિસલીનતા છે. એવી જ રીતે સ્પર્શ નઈન્દ્રિયને સ્પર્શ'વિષયમાં પ્રવૃત્ત ન થવા દેવી અથવા પ્રાપ્ત માં રાગ દ્વેષ ધારણ ન કરવા સ્પર્શે નેન્દ્રિય પ્રતિસ’લીનતા તપ છે. આવીજ રીતે નેત્રના વિષય રૂપમાં ચક્ષુની પ્રવૃત્તિ થવા દેવી ન જોઈએ અને કદાચ પ્રવૃત્તિ થઈ જાય તે તેમાં રાગ દ્વેષ તે ધારણુ ન જ કરવા ઘટે એવી જ રીતે ઘ્રાણુ, જીમ તેમજ સ્પર્શનેન્દ્રિયને પેાત પેાતાના વિષયમાં પ્રથમ તે પ્રવૃત્ત જ ન થવા દેવા જોઈએ અને કદાચિત પ્રવૃત્તિ થઈ જાય, કારણકે પ્રાપ્ત વિષને ઇન્દ્રિય ગ્રહણ કર્યાં વગર રહેતી નથી. ત્યારે તે વિષયાને મનાન અથવા અમનેાન જાણીને રાગ દ્વેષ ન રાખવા જોઇએ ! ૧૯। તત્ત્વાથ નિયુકિત-પહેલા છટ્ઠા તપ પ્રતિસ ́લીનતાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યુ અને તેના ચાર લેના નિર્દેશ પણ કરવામાં આવ્યે હુવે તે પૈકી त० ८२ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ 'इदिय पडिसंलोणया तवे पंचविहे, सोइंदियाइभेयओ' इति । इन्द्रिय मतिसंलीनतातपा-इन्द्रियाणां प्रतिसंलीलता संगोपनशीलता इन्द्रियप्रतिसंलीनता तद्रूपंतपः पञ्चविधं भवति तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियादि भेदतः । तथा च-श्रोत्रेन्द्रिय पतिसंलीनता १ चक्षुरिन्द्रियतिसंलीनतार घ्राणेन्द्रियमतिसंलोनता ३ जिहवेन्द्रिय प्रतिसंलीनता४ स्पर्शनेन्द्रियपतिसंकीनता च५ इत्येवं पञ्चविधं प्रतिसंलीनता तपो भवतीति भावः। तत्र-श्रोत्रेन्द्रियपतिलेलीनता तप स्तावत्-श्रोत्रेन्द्रियविपयाचार निरोधरूपं श्रोत्रोन्द्रियविषयेष्वर्थेपु रागद्वेनिग्ररूपं वा १ चक्षुरिन्दिर प्रतिसलीनता तपस्तावत्-चक्षुरिन्द्रियविषयप्रचार निरोधरूपं चक्षुरिन्द्रियप्राप्तेवर्थेषु रागद्वेष निग्रहरूपं वा बोध्यम्य एवं घ्राणेन्द्रियविषयप्राप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिहरूपं भवति ३ एवं जिहूवेन्द्रियपतिसंलीनता तपस्तु-जिहूवेन्द्रियविषयपचारनिरोधरूपम्, जिहूवेन्द्रियइन्द्रिय प्रतिसंलीनता ताप के पाँच भेदों का निरूपण करते है इन्द्रियां पांच है, अतएव इन्द्रिय प्रतिसलीनतातपली पांच प्रकारे का है, यथा-(१) श्रोनेन्द्रिय प्रतिमलीनता (२) चक्षुरिन्द्रिय प्रतिसंलीनता (३) घ्राणन्द्रिय प्रतिसलीनता (४) रसनेन्द्रिय प्रतिसलीनता और (५) स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिसलीनता । श्रोत्रोन्द्रिय को अपने विषय में प्रवृत्त न होने देना अथवा उसके विषय में राग द्वेष उत्पन्न न होने देना श्रोनेन्द्रिय प्रतिसंलीनता नामक तप कहलाता है। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय को अपने विषय में प्रवृत्त न होने देवा अथवा प्रवृत्त होने पर भी उसमें राग द्वेष न करना चक्षुरिन्द्रिय प्रतिसंलीनता हप है। घ्राणेन्द्रिय का निग्रह करना घ्राणेन्द्रिय प्रतिललता है। जिहवा को वचन प्रयोग से विरत कर देना या प्राप्त विषय में राग-द्वेष न उत्पन्न होने ઈન્દ્રિય પ્રતિસંલીનતા તપના પાંચ ભેદનું નિરૂપણ કરીએ છીએ ઇન્દ્રિયે પાંચ છે આથી ઈન્દ્રિયપ્રતિસંલીનતા તપ પણ પાંચ પ્રકારના छ २४ -(१) श्रीन्द्रियप्रतिससीनता (२) यक्षुन्द्रियतिस सीनता (3) ધ્રાણેન્દ્રિય પ્રતિસંલીનતા (૪) રસનેન્દ્રિય પ્રતિસંલીનતા અને (૫) સ્પર્શનેન્દ્રિય પ્રતિસંલીનતા. શ્રોત્રેન્દ્રિયને તેના વિષયમાં પ્રવૃત્ત ન થવા દેવી અથવા તેના વિષયમાં રાગ દ્વેષ ઉત્પન્ન ન થવા દેવા શ્રોત્રેન્દ્રિયપ્રતિસલીનતા નામક તપ કહેવાય છે. એવી જ રીતે ચક્ષુરિન્દ્રિયને પિતાના વિષયમાં પ્રવૃત્ત ન થવા દેવી અથવા પ્રવૃત્ત થવા છતાં પણ તેમાં રાગ દ્વેષ ન કર ચક્ષુરિન્દ્રિય પ્રતિસંલીનતા તપ છે ધ્રાણેન્દ્રિયને નિગ્રહ કરે ધ્રાણેન્દ્રિય પ્રતિસંસીનતા છે. જીભને વચન પ્રવેગથી વિરકત કરી દેવી અથવા પ્રાપ્ત વિષયમાં રાગ દ્વેષ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका भ.८ ६.१९ इन्द्रियप्रतिसंलीनता स्वरूपनिरूपणम् ६५१ विषयप्राप्तेषु- अर्थेषु रागद्वेपनिग्रहात्मकं वाऽवसेयम्४ एवं - स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिसंली नता तपस्तावत् - स्पर्शनेन्द्रियविषय वारनिरोधरूपं, स्पर्शनेन्द्रियविषयप्राप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहरूपं वाऽवगन्तव्यम् ५ उक्तञ्चोपपातिके ३० सूत्रे - 'से किं तं इंदिय पडिलीणया ? हृदियपडिसखीणया पंचविला पण्णत्ता, तं जहा सोह दिययपधारनिरोप था, सोई दिद्यवितयपत्ते अत्थेसु रामदोसनिगाहो वा १ वर्षिवदियवितयप्पयारनिग्नहो वा चक्खिदिवसयपत्ते अत्थेषु रामदोसनिग्गहो या २ घार्णिदियविलयप्यारनिग्गहो वा घार्णिदियविसयपले अत्थेसु रागदोलनिगहो वा ३ जिह्निदिय विसयत्पधारनिरोदो मा जिम्भिदिद्याविलयपत्तेसु अत्थेसु रामदोसनिग्गहो वा ४ फासिंदिप विसप्पयारनिरो हो वा फालिदियविपपत्ते प्रत्थेषु रामदोसनिग्नहो वा ५ से से इंदिय पडसंलीनया' इति अथ का सा इन्द्रियपतिसंलीनता ३ इन्द्रियप्रति संलीनता: पञ्चविधा प्रज्ञता, तद्यथा - श्रोगेन्द्रियविषयभचारनिरोधो वा श्रोगेन्द्रियविषय प्राप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहो वा १ चक्षुरिन्द्रियविषयभचारविरोधो वा चक्षुरिन्द्रियविषयप्राप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहो वा २ नाणेन्द्रियविषयप्रचार निरोधों वा घ्राणेन्द्रिय विषयमाप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहो वा ३ जिह्येन्द्रियविषयदेना जिवेन्द्रिय प्रतिसंलीनता है । स्पर्शन इन्द्रियों को विषय से विरत करना एवं मनो-अमनोश स्पर्श में राग-द्वेष न करना स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप है । औपपातिक सूत्र के तीसवें सूत्र में कहा हैप्रश्न- इन्द्रिय प्रतिस लीनता के कितने भेद हैं ? 9 उत्तर- इन्द्रिय प्रति लीनता के पांच भेद है । वे इस प्रकार हैं(१) श्रोगेन्द्रिय के विषय प्रचार का निरोध करना या श्रोगेन्द्रिय के विषय भून पदार्थों में राग द्वेष का निग्रह करना (२) चक्षुरिन्द्रिय के विषय प्रचार का निरोध करना या प्राप्त विषय में राग-द्वेष न करना ન ઉત્પન્ન થવા દેવા જિહૂવેન્દ્રિયપ્રતિસલીનતા છે. સ્પેન ઇન્દ્રિયને વિષયથી વિરક્ત કરવી અને મનેજ્ઞ અમનેજ્ઞ માં રાગ દ્વેષ ન કરવા પનેન્દ્રિયપ્રતિસ’લીનતા તપ છે ઔપાતિક સૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યુ` છે પ્રશ્ન-ઈન્દ્રિય પ્રતિસ લીનતાના કેટલા ભેદ છે ? ઉત્તર-ઈન્દ્રિયપ્રતિસ લીનતાના પાંચ ભેદ છે તે આ પ્રમાણે (૧)શ્રેત્રે. ન્દ્રિયના વિષયભૂત પદાર્થોમાં રાગદ્વેષના નિધિ કરવા અથવા શ્રોત્રેન્દ્રિયના વિષયભૂત પદાર્થાંમાં રાગ દ્વેષના નિગ્રહ કરવા (૨) ચક્ષુરિન્દ્રિયના વિષય Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ तत्त्वार्थसूत्रे पचारनिरोधो वा, जिहू वेन्द्रियविषयमाप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहो वा १ स्पर्शनेन्द्रियविषयमचारनिरोधो वा स्पर्शनेन्द्रियप्राप्तेष्वर्येषु रागद्वेपनिग्रहो पा ५ इति, एषा-इन्द्रियप्रतिसंलीनता, इत्येवं प्रतिसंलोनता वोध्या ॥१९॥ मूलम् कसायपडिसंलीणया तवे चउबिहे, काहपडिसंलीणयाइभेयओ ॥२०॥ ____ छाया-कषायामतिसंलीनता तपश्चतुर्विधम्, क्रोधप्रतिसंलीनतादि भेदतः २० - तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व ताबद चतुर्विधेषु प्रतिसंलोनता तपःसु 'प्रथमोपात्तम् इन्द्रियमविसंलीनता तपः पञ्चविधत्वेन सविस्तरं प्ररूपितम् सम्पति-क्रमप्राप्त द्वितीयं कपायतिसंलीनता तपश्चतुर्विधत्वेन प्ररूपयितुमाह-'कलायपडिसलीणया चउविहे फोहपडि संलोणयाइ अपओ' इाले । कपायमतिसंलीनता तपः कपायाणां क्रोधादीनां प्रतिसंलीरता-संगोपनशीलता कपायप्रतिसंकीनता तद्रूपं तपः ख चतुर्विधं भवति, तद्यथा-क्रोधपतिसं(३) घाणेन्द्रिय के विषय प्रचार को निरोध करना अथवा घ्राणेन्द्रिय के विषय (गंध) में राग द्वेष न करना (४) जिहवेन्द्रिय के विषय प्रचार का निग्रह करना अथवा उसके विषय राग द्वेष उत्पन्न न होने देना और (६) स्पर्शनेन्द्रिय के विषय प्रचार का निरोध करना या उसके प्राप्त विषय में राग द्वेष न करना। यह हन्द्रिय प्रति लीनता तप है ॥१९॥ - 'कसायपडिसलीणया लवे इत्यादि १० २० । . स्त्रार्थ-प्रति लीनता तप के चार लेदोंद इन्द्रिधपतिसंलीनता तप के पांच भेदों का विस्तार सहित निरूपण किया गया, अब क्रमप्राप्त कषाय प्रतिसंलीनता तप के चार भेदों का प्ररूपण करते हैं ॥२०॥ . तत्यार्थदीपिका--क्रोध आदि कषायों का गोपन करला कषायप्रतिसंलीनता तप कहलाता है । उसके चार खेद है-(१) क्रोधप्रतिसलीप्रयारा निरोध ४२वा (3) मान्द्रियना विषय (1)मा राषन रामपा. (૪) જિહવેદ્રિયના વિષયપ્રકારને નિગ્રહ કરે અથવા તેના વિષયમાં રાગ દ્વેષ ઉત્પન્ન ન થવા દે અને (૫) સ્પર્શનેન્દ્રિયના વિષયપ્રચારને નિરોધ કરે અથવા તેના પ્રાપ્ત વિષયમાં રાગ દ્વેષ ન કરે. આ બધાં ઈન્દ્રિ યપ્રતિસંલીનતા તપના ભેદ છે. મે ૧૯ | 'कसायपडिसलीणया तवे चउठिवहे' त्यादि સૂત્રાર્થ–-પ્રતિસંલીનતા તપના ચાર ભેદેમાંથી ઈન્દ્રિયપ્રતિસંસીનતા તપના પાંચ ભેદ્યનું સવિસ્તર વર્ણન કરવામાં આવ્યું, હવે ક્રમ પ્રાપ્ત કષાય પ્રતિસલીનતા તપને ચાર ભેદનું પ્રરૂરણ કરીએ છીએ કે ૨૦ છે તવાર્થદીપિકા-કધ આદિ કષાયનું ગોપન કરવું કષાયપ્રતિસંસીનતા १५ उपाय छे तेना यार से छ-(१) अधप्रतिसीनता (२) भानप्रतिस' Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका २.८ ६.२० कषायप्रतिसंलीनतातपस्वरूपम् कीनवादि भेदतः । तथा च - क्रोधपतिसंलीनता १ आदिनामानमविसंलीनता २ मायाप्रति संलीनता ३ लोभप्रतिसंलीनता ४ चेत्येवं चतुर्विधं तावत् कवाय प्रतिसंलीनता तपो भवति । तत्र - क्रोधमतिसंकीनता उप स्वायत्-क्रोधस्योदय निरोधरूपम्, उदयमाप्तस्य क्रोधस्य विफली करणम् अन्तः संगोपनरूपं विलीनकरणं वा क्रोधपतिसंलीनता तप उच्यते यथा क्रोधो नोदयेत तथा यदितव्यम्, यदि कदाचित्क्रोध उदितः स्यात् तदा तस्य विफलतां कुर्यात् - इति भावः १ एवं मानपतिसंलीनता तप स्वावद - मानस्योदय निरोधरूपम्, उदयघातस्य मानस्य विफलीकरण मन्तःसंगोपन विकीनीकरणरूपं वा मानप्रतिसंलीनता तपो भवति, यथाऽसिमानरूपमानस्योदय एव न स्थात्तथा यत्नः कर्तव्यः, यदि कदाचित मान उदितः स्याद् तदा तं चिफलं कुर्यात् । २ एवं मायामतिसंलीनता तपस्तावत् मायायाः उदय निरोधरूपम्, उदयमाध्याया मायाया विफलीकरणम्-अन्तः संगो पनं वा मायाप्रति संलीनता तप उच्यते, यथा-परवञ्चनारूपा मायानोदयेत तथा नमा (२) सानप्रति संलीनता (३) मायाप्रतिसंलीनता (४) टोमप्रतिललीनता । क्रोध को उत्पन्न न होने देना या उदित हुए क्रोध को विफल करना - उसे अन्दर ही दवा देना फोध प्रतिसंलीनता तप है। तात्पर्य यह है कि प्रयत्न ऐसा करना चाहिए कि क्रोध की उत्पत्ति ही न होने पाए, कदाचित् क्रोध उत्पन्न भी हो जाय तो उसे निष्फल बना देना चाहिए | इसी प्रकार मान को उत्पन्न न होने देना अथवा उत्पन्न मान को निष्फल कर देना मानप्रति संलीनता तप है, अर्थात् प्रयत्न ऐसा करना कि मान कषाय की उत्पत्ति ही न हो, फिर भी कभी उत्पन्न हो जाय तो उसे विफल कर देना चाहिए । इही तरह माया को उत्पन्न न होने देना और उदित हुई माया को निष्फल कर देना मायाप्रतिसं ६५ई લીનતા (૩) માયાપ્રતિસ'લીનતા (૪) લાભપ્રતિસ’લીનતા. ક્રોધને ઉત્પન્ન ન થવા દેવા અથવા ઉદિત થયેલા ક્રોધને વિળ બનાવવા તેને અંદરથી જ શમાવી દેવા ક્રોધપ્રતિસ લીનતા તપ છે. તાય એ છે કે પ્રયત્ન એવા કરવા જોઇએ કે ક્રોધની ઉત્પત્તિ જ ન થાય કદાચિત ક્રોધ ઉત્પન્ન થઈ પણ જાય તા તેને નિરકુશ અનાવી દેવા જોઈએ. એવી જ રીતે માનને ઉત્પન્ન ન થવા દેવું અથવા ઉત્પન્ન થનેલા જ્ઞાનને નિષ્ફળ કરી દેવું માનપ્રતિસ લીનતા તપ છે અર્થાત્ પ્રયત્ન એવા કરવા કે માનકષાયના ઉદ્દભવ જ ન થાય તેમ છતાં કદાચ ઉત્પન્ન થઈ જાય તા તેને નિષ્ફળ કરી દેવું જોઇએ આ પ્રમાણે માયાને ઉત્પન્ન થવા ન દેવી અને ઉદિત થયેલી માયાને ખિન અસરકારક બનાવી Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ तत्त्वार्थ सूत्रे यवितव्यम्, कथञ्चिदुदितायाः कपटरूपाया मायायाः विफलतां कुर्यात् ३ एवं ल' समतिसंत्री नताप स्तावत् - लोभस्योदय निरोधरूपम्, उदयप्राप्तस्य लोभस्य विफलीकरणम् अन्तः संयोपनरूपं वा लोभमनिसंलीनता तप उच्यते, यथा- परस्व ग्रहणलालसारूपो लोभो-न उदयेत तथा यत्नं कुत्, यदि कथञ्चित् कस्मिंश्चित्वस्तुनि लोभ उदितः स्वात् तदा तं विफलं विदध्यात् ४ इति भावः ॥ २० ॥ नियुक्त - पूर्व खल- प्रतिसंलीनता तपश्चतुर्विधत्वेन प्ररूपितम्, तत्र - प्रथमस्येन्द्रियप्रति संलीनता तपः पञ्चविधत्वेन सविशदं निरूपणं कृतम्, सम्प्रति-क्रमप्राप्तस्य कपायमतिसंलीनतारूप तपसः खलु चतुधित्वेन रूपणं वर्तुमाह- 'कसाथ पडिलीणया तवे चचिव कोहपडिलीणयाहमेयओ इति । कपायप्रतिसंलीनता तपः- कपाषाणां क्रोधादीनां प्रतिसंलीनता संगोपनशी लवा कपायमसिंळीनता, तद्रूपं तपः खलु चतुर्विधं भवति तद्यथा - क्रोधमतिसंलीला है। इसी प्रकार लोभ को उत्पन्न न होने देना और उत्पन्न हुए लोभ को विफल कर देना को ममतिसंलीनता तप कहलाता है। ऐसा यत्न करना चाहिए कि परक्षीय वस्तु को ग्रहण करने की लालसा रूप लोभ उत्पन्न ही न हो, फिर भी किसी प्रकार किसी वस्तु का लोभ उत्पन्न हो जाय तो उसे निष्फल करना चाहिए | २० || सत्यार्थनियुक्ति - - पहले प्रतिसंलीनता तप के चार भेदों का कथन किया गया था। उनमें ले प्रथम इन्द्रियप्रतिसंलीनता तप के चार भेदों का विशद प्ररूपण किया जा चुका, अब कम प्राप्त कषाय प्रतिसंलीनता तप के चार भेदों का निरूपण करते हैं कषायप्रतिसंलीनता तप के चार भेद है, जो इस प्रकार हैं - ( १ ) દેવી માયાપ્રતિસ લીનતા છે. એવી જ રીતે લેલને ઉત્પન્ન ન થવા દેવા અને ઉત્ત્પન્ન થયેલા લાભને નિષ્ફળ કરી દેવા લેભપ્રતિસ લીનતા તપ છે. એવા પ્રયત્ન કરવા જોઈએ કે પારકી વસ્તુને ગ્રહણ કરવાની લાલસા રૂપ લેભ ઉત્પન્ન જ ન થાય, આમ છતાં સંજોગવશાત્ કાઈ વસ્તુને લેાભ ઉત્પન્ન થઇ જાય તે તેને નિષ્ફળ મનાવવા જોઇએ ! ૨૦ ॥ તત્ત્વાર્થી નિયુક્તિ—પહેલા પ્રતિસ’લીનતા તપના ચાર ભેદ્દાનું કથન કરવામાં આવ્યુ હતુ. તેમાથી પ્રથમ ઇન્દ્રિયપ્રતિસ'લીનતા તપના પાંચ ભેદોનુ વિસ્તારપૂર્વક પ્રરૂપણુ કરવામાં આવી ગયુ, હવે ક્રમપ્રાપ્ત કષાય પ્રતિસલીનતા તપના ચાર ભેદનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ કષાય પ્રતિસ લીનતા તપના ચાર ભેદ આ પ્રમાણે છે-(૧) ક્રાયપ્રતિ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ.८ सू.२० कषायतिसंलोनतातपस्वरूपम् ६५५ लीनतादि भेदतः । तथा च क्रोधप्रतिसंलीनता १ आदिना-मानप्रतिसंलीनता-२ मायाप्रतिसंलीनता-३ लोभमोरुसंलीनता-४ चेत्येवं चतुर्विधं तावत्-कषाय पतिसंलीनता तपो भवति । तत्र क्रोधप्रतिसंलीनतो तपः खलु-क्रोधस्योदय निरोधरूपम्, उदितस्प क्रोधस्य विफलीकरण मन्तः संगोपनरूपं वा क्रोध भतिसंलीनता, तप उच्यते प्रथमं तु-क्रोधस्योदय एव यश न वात् तथा यतितव्यम्, यदितु कदाचित् क्रोध उत्यं प्राप्नुयात् तदा तं विफलं कुर्यात् इति भावः १ एवंमानप्रतिसंहीनता तप रताश्द् भविमानरूपस्य मानवोदयनरोधरूपम् उदय माप्तस्य मानस्य विफलोकरण मन्तः संगोएनं बा गानातिसंलीनता तप उच्यते प्रथमतस्तु-मानस्योदय एव यथा न स्यात्तथा यतितव्यम्-यदि कथंचिद-उदितः स्थान्मानः तदा तं विफलंबिध्यादितिभावः २ एवं मायामतिसंलीनता तपस्ताव मायाया परवञ्चनारूपायाः काटरूपाया वा उदयनिरोधरूपम्, उदय प्राप्ताया क्रोधप्रतिसंलीनता (२) मानप्रतिसलीनता (३) लाथाप्रति संलोलता और (४) लोभप्रतिसंलीनता । क्रोध की उत्पत्ति न होने देना अथवा उत्पन्न क्रोध को विफल कर देना क्रोधप्रतिसलीनता तप कहलाता है । भाव यह है कि प्रथम तो ऐसा प्रयत्न धारना चाहिए कि क्रोध उत्पन्न ही न होने पाए, कदाचित् उत्पन्न हो जाय तो उसे निष्फल बना दे। इसी प्रकार मानकषाय को उत्पन्न न होने देना और उत्पन्न हुए मान कपाय को निष्फल कर देना मालप्रतिसलीनता लप है। तत्पर्थ यह है कि प्रथम तो ऐसा खत्म करना चाहिए जिससे मान उत्पन्न ही न हो, कदाचित् उत्पन्न हो जाय तो उले विफल कर देना चाहिए । इसी मांति परवंचना रूप माया को उत्पन्न न होने देना और उत्पन्न ससीनता (२) भानप्रतिससीनता (3) मायाप्रतिस सीनता (४) सोमप्रतिस લીનતા. ક્રોધની ઉત્પતિ ન થવા દેવી અથવા ઉત્પન્ન ક્રોધનું શમન કરી દેવું ક્રોધપ્રતિસંલીનતા તપ કહેવાય છે. સારાંશ એ છે કે પ્રથમ તો એ પ્રયત્ન કરવો જોઈએ કે ક્રોધ ઉદભવે જ નહીં. કદાચ ઉદ્ભવે તો તેને નિષ્ફળ બનાવી દે આવી જ રીતે માનકષાયને ઉત્પન્ન ન થવા દે અને ઉત્પન્ન થયેલ માનકષાયને નિપ્રભાવિત કરી દે માનપ્રતિસંલીનતા તપ છે. તાત્પર્ય એ છે કે પ્રથમ તે એ પ્રયત્ન કરવો જોઈએ કે જેથી માન ઉપન્ન જ ન થાય, કદાચિત જે ઉત્પન્ન થઈ જાય તે તેને નિષ્ફળ બનાવવું જોઈએ આજ પ્રમાણે પરવંચના રૂપ માયા ને ઉત્તપન્ન ન થવા દેવી અને ઉત્પન્ન થયેલી માયાને વિફળ કરી દેવી અંદર અંદર જ શમન કરી દેવી Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तस्वार्थस्त्रे मायाया विफलीकरण अन्तः संगोपन वा, मायापतिसंलीलता तपो भवति, यथा परवञ्चनारूपा-कपटरूपा ना धाया मोदितास्थातथा यतितव्यम्, यदि कथञ्चित् माया-उदितास्यात्तदा तां विफलतां कुर्यादितिमाः३ एवं प्रतिसंलीनता तपस्तावद् लोमस्य परल्वग्रहणलाकमारूपस्योदयनिरोधरूपं भवति उदय प्राप्स्य लोमस्य विफलीमरणमन्तःसंगोपन वा लोधपतिसंलीनतातप उच्यते, प्रथमतस्तु लोभएब एरस्वग्रहणलालसारूपो यथा नोक्तिः स्यात्तथा यति तव्यम्, यदितु कथञ्चित्कारिमश्चि स्तुनि लोग उदितः स्यातना तं धिफलं कुर्यादिति भावः ४ उक्तश्चौपपातिके ३० सूत्रे-से कितं कलाबपडिटलीणघा? कलायडिसलीगया चविता पण्णता तं जहा-कोहस्जुदयनिहो वा, उदयपत्ताल बा-कोहल विफली करणं १ माणस्सुनिरोहो वा, उदय पत्तल वा माणरड विफलीकरण२ माय उदयणिनोहोचा, उद्यपत्ताए वा मायाए विफलीकरणं ३ लोहरदयणिरोको चा, उदयपत्तस्स लोहनविफलीकरण४ लेतं महायपडिसंलोणया' इति । अथका सा कषाय प्रतिसंलीनता पायपतिसंकोनता चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-क्रोधस्योदयनिरोधो आई माया को विफल कर देना-भीतर ही दवा देना माया प्रतिसली नता तप कहलाता है । आशय यह है कि कपटरूप माया उत्पन्न न हो ऐसा यत्न करना चाहिए । कदाचित् उत्पन्न हो जाय नो उसे निष्फल करदेना चाहिए। परकीय वस्तु को ग्रहण करने की लालसा रूप लोभ को उत्पन्न न होने देना और उत्पन्न हुए लोभ को विफल कर देना लोअप्रतिसं लीनता नामक तप कहलाता है । प्रथम तो यही प्रयत्न करना चाहिए कि लोभ का उद्घ ही न होलके कदाचित् उदित हो जाय तो उसे विफल कर देना चाहिए । औपपातिकसूत्र के तीसवें सूत्र में कहा भी हैમાયાપ્રતિસંલીનતા તપ કહેવાય છે. આશય એ છે કે કપટ રૂપ માયા ઉત્પન્ન ન થાય એ દિશામાં પ્રયત્ન કરજોઈએ, કદાચિત ઉત્પન્ન થઈ પણ જાય તો તેને નિષ્ફળ કરી દેવી જોઈએ. પરમાલિકીની વતને ગ્રહણ કરવાની લાલસા રૂપ લેભને ઉત્પન્ન ન થવા દે અને ઉત્પન્ન થયેલ લેભને વિફળ કરી દે લેભપ્રતિ લીનતા નામક તપ કહેવાય છે પ્રથમ તે લેભ ઉદ્દભવે જ નહીં એ માટે પ્રયત્નશીલ રહેવું જોઈએ. કદાચિત ઉદિત થઈ જાય તે તેને નિષ્ફળ કરી દેવું જોઈએ પપાતિક સૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું પણ છે-- Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ १.२१ योगप्रतिसंलीनतातपसः निरूपणम् ६५७ वाउदय प्राप्तस्य वा क्रोधस्य विफलीकरणम् १ मानस्योदयनिरोधो वा उदयमाप्तस्य वा, मानस्य विफलीकरणम् २ सायावा उदयनिरोधो का, उदय प्राप्ताया मायाया विफलीकरणम् ३ लोभस्मोदयतिरोधो वा, उत्यप्राप्तस्य लोभस्य विफलीकरणस् ४ ॥२०॥ मूल-लोधपडिसंतीणमा त तिविहे, सणजोगपडिलीणयाइ ए ओ ॥२१॥ ___ छाया--'योगमतिसंगीता तात्रिविधा, सनोयोगपतिसंलीनतादि भेदतः ॥२१॥ तस्यार्थदीपिता-पूर्व तावत्-चतुर्विधं प्रविसंलीनता तपः प्रतिपादितम्, तत्र-यथाक्रमिन्द्रिगतिसंलीनतापायप्रतिसलीनतातपा प्ररूपितस्, सम्मति प्रश्न-पायातिललीनता तप के कितने खेद हाँ ? उतर-पोलियोनला नप चार प्रकार का है-(१) क्रोध के उदया निरोध करना और उदित हुए शोध को विफल करना (२) मान को उत्पादन होने देना और उत्पान माल को विफल करना (३) माया के उपयोजना और उदित माधा को विफल करना (४) लोम के उदय को रोकना और सदित लोभको विफल करना।२०। जोगडिल लीजालोतिविहे' सूत्रार्थ-सलोधोगति लीनता आदि लेद ले पोसलीलता तप तीन प्रकार का है ॥२१॥ तत्वार्थदीपिका-पहले प्रतिसंलीलता तप के चार भदों का निर्देश किया गया था, उनले ले क्रम के अनुलार इन्द्रियप्रतिसलीनता और प्रश्न--पायप्रति समीरता तयना टस से छे. ? ઉત્તર– કષાય પ્રતિસંલીનતા તપ ચાર પ્રકારના છે–(૧) ક્રોધના ઉદયને નિરોધ કર અને ઉદિત થયેલા ફોષને બૂઝવે. (૨) માનને ઉત્પન્ન ન થવા દેવું અને ઉત્પન્ન માનને નિષ્ફળ બનાવવું (૩) માયાના ઉદયને રે અને ઉદય પામેલી માયાને વિફળ બનાવવી. (૪) લેભના ઉદયને રેક અને ઉદિત લેભાને વિફળ બનાવ છે ૨૦ છે 'जोगपडिसलीणया तवे तिविहे' त्या। સૂવાથ–મને ગપ્રતિસંલીનતા આદિના ભેદથી રોગપ્રતિસલીનતા તપ ત્રણ પ્રકારના છે કે ૨૧ છે તજ્યાદીપિકા--અગાઉ પ્રતિસંલીનતા તપના ચાર ભેદોને નિર્દેશ કરવામાં આવ્યું હતું, તેમાંથી કમાનુસાર ઈન્દ્રિયપ્રતિસલીનતા અને કષાય. त० ८३ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थस ६५८ । क्रमप्राप्तं तृतीयं योगप्रति संलीनवातपः प्ररूपयितुमाह-'जोगपडिलीणया तवे' इत्यादि । योगपतिसंकीनता तपः- योगानां मनोवचःकायव्यापार विशेषाणां पतिसंलीनता संगोपनशीलता - योगप्रति संलीनता उद्रपं तपस्त्रिविधं भवति, तद्यथा, मनोयोगमविसंलीनवादि भेदतः । तथा च मनोयोगमतिसंळीनता १ आदिना- बच्चोयोगप्रतिसंकीनता २ काययोगप्रतियंलीनता ३ चेत्येवं त्रिविधं खलु योगमतिसंलीनता तपो भवति । यत्र मनोयोगप्रति संलीडता तप स्तावद् अकुशलमनोनिशेधरूपम्, कुशलमनस उदीरणं वा उच्यते तथा च-शुभ मनसः प्रवर्तनरूपं वचोयोगप्रति संलीनता तपस्तावद् अकुशलचचोनिरोधरूपं वा वचोयोगप्रति संलीनता तप उच्यते । एवं काययोगपतिसंलीनतातप स्वावत् कूर्मवत् संहृतकरचरणगुप्तेन्द्रिय सर्वगात्रप्रतिसंलीतारूपं सर्व सावद्याऽनुष्ठानवर्जनात्मकं काययोगप्रतिसंलीनता तप उच्यते इति भावः ॥२१॥ कषायमतिस लीनता तप का निरूपण किया जा चुका अब क्रमागत तीसरे योगप्रतिस लीनता तप का निरूपण करते हैं- मन वचन और काय के व्यापार का गोपन करना योगप्रतिसलीनता तप है। उसके तीन भेद हैं- मनोयोग प्रतिसंलीनता, वचनयोग प्रतिसंलीनता और काययोग प्रतिसंलीनता । मन के अप्रशस्त व्यापार को रोकना एवं प्रशस्त व्यापार की उदीरणा करना मनोयोग प्रतिसंलीनता तप हैं। इसी प्रकार अप्रवास्त वचनों का निरोध करना और प्रशस्त वचनों की उदीरणा करना (अथवा मौन धारण करना) वचनयोग प्रति लीनता तप है। कर्म की तरह हाथों पैरों एवं सम्पूर्ण शरीर का संगोपन करना - सब प्रकार के कायिक सावद्य अनुष्ठान का त्याग करना काययोग प्रतिसंलीनता तप कहलाता है ॥२१॥ પ્રતિસ‘લીનતા તપતું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયુ. હવે ક્રમાગત ત્રીજા ગ પ્રતિસ’લીનતા તપનું નિરૂપણ કરીએ છીએ મન વચન અને કાયાના વ્યાપારનું ગેાપન કરવું ચેગપ્રતિસ’લીનતા તપ છે તેના ત્રણ ભેદ છે–મનાયેાગપ્રતિસ લીનતા વચનચે ગપ્રતિસ લીનતા અને કાયયેાગપ્રતિસ લીનતા. મનના અપ્રશસ્ત વ્યાપારને શકવા અને પ્રશસ્ત વ્યપારની ઉદીરણા કરવી મનેાચેાગપ્રતિસલીનતા તપ છે. એવીજ રીતે અપ્રશસ્ત વચનના નિષ કરવા અને પ્રશસ્ત વચનેાની ઉદીરણા કરવી (અથવા મૌન ધારણ કરવુ) વચનચેગપ્રતિસ'લીનતા તપ છે કાચમાની માફ્ક હાથ પગ અને સપુર્ણ શરીરનું સÝાચન કરવું મધા સાવ અનુષ્ઠાનના ત્યાગ કરવા કાયયેાગપ્રતિસ’લીનતા તપ કહેવાય છે! ૨૧ પ્રકારના કાયિક Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८.२१ योगप्रतिसलीनतातपसः निरूपणम् ६५२ तत्वार्थलियुक्ति:-पूर्व खल्ल-चतुर्विधनायप्रविलंलीनतातपसां यथाक्रम मिन्द्रियमतिसंलीनता-कपायप्रतिसलीनता तपः सविशदं प्ररूपितम्, सम्प्रति-क्रममाप्तं तृतीयं प्रतिसंलीनता तपो योगमतिसंलीनतारूप प्ररूपयितुमाह-"जोगपडिलीजया तवे तिविहे, भणजोगडिलीणयाइ भेयओ-" इति। योगाविसलीनतालप-योगानां मनोवचाकायव्यापार विशेषाणां प्रतिसंलीनता-संगोपनशीलता योगप्रतिसंलीनता तद्रूपं तपः खलु त्रिविधं भवति, तद्यथा मनोयोगमतित लीनवादि भेदतः । तथा च मनोयोगप्रतिसंलीनता १ आदिला वचोयोगपतिसंलोनता २ काययोगपतिसंलीनता ३ चेत्येवं त्रिविधं खल्ल योगपतिसंलीनताता उच्यते । तत्र मनोयोगमतिसंलीनता तप स्तावद् अकुशलपनोनिरोधरूपं कुशलमन उदीरणं वा मनोयोगपतिसंलीनता तप उच्यते, तच्च शुभमनसः प्रवर्तनरूपं बोध्यम् । एव बचोयोगपत्सिलीनता तप तस्वार्थनियुक्ति--चार प्रकार के प्रति लीनता तप में ले पहले इन्द्रिय प्रति लीलता और कवाय प्रति लीनता तप का विशद रूपसे प्ररूपण किया था, अब कलमात तीसरे योग प्रतिललीनता लप का निरूपण करते हैं__ मन, वचन और काय के योग-व्यापार का निरोध करना योग प्रतिसलीनता लप कहलाता है। इसके तीन भेद हैं-(१) मलोयोग प्रति संलीनता (२) बचनयोग प्रति लीनता और काययोग प्रतिसलीनता। अकुशल मन झा अर्थात् अप्रशस्त मनोव्यापार की उदीरणा करना मनोयोग प्रतिसंलोनता तप है । अकुशल वचन का निरोध करना और कुशल बचन की उदीरणा करना या वनयोगकी प्रवृत्ति को पूरी तरह रोक देना बचनयोग प्रतिललीनता तक हैं। कूर्ष की भांति हाथों, તત્ત્વાર્થનિર્યુક્તિ--ચાર પ્રકારના પ્રતિસલીનતા તપમાંથી પહેલા ઈન્દ્રિયપ્રતિસંલીનતા અને કષાયપ્રતિસંલીનતા તપનું વિશદ્ રૂપથી પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે ક્રમ પ્રાપ્ત ત્રિીજા ગપ્રતિસંલીનતા તપનું નિરૂપણ કરીએ છીએ મન, વચન અને કાયાના ચગવ્યાપારને નિરોધ કર ગપ્રતિસંલીનતા 'त५ उपाय छे. मान लेछ-(१) मनायेगप्रतिसदीनता (२) पयन ગપ્રતિસંલીનતા અને (૩) કાયગપ્રતિસલીનતા અકુશળ મનને અર્થાત્ અપ્રશસ્ત અને વ્યાપારને નિરાધ કરો અને પ્રશસ્ત અને વ્યાપારની ઉદીરણા કરવી મને ગપ્રતિસંલીનતા તપ છે. અકુશળ વચનનો વિરોધ કરવો અને કુશળ વચનની ઉદીરણા કરવી વચનગપ્રતિસંલીનતા તપ છે. કાચબાની જેમ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थस्त्र स्तावत् अकुशल वचो निरोधरूपं, कुशलपच उदीरणरूप का बचोयोगमतिसंलीनता तप उच्यते । एवं काययोग प्रतिसंहीनता तप स्तावद कूर्मवत् संहृतहस्तपाद गुप्तेन्द्रियसर्वगात्रमतिस लीनतारूप खलु तपो भवति शायिक सावध सर्वाऽ. नुष्ठानपरिवर्जन मुच्यते । तथा च कच्छप इव सुसमाहित पाणिपादो गुप्ते. न्द्रियः सर्वगात्र प्रतिसंलीनस्तिष्ठति। तथा च गुप्तेन्द्रियमुसंयत हस्तपाद सर्वगात्रपतिसं लीनतावपो भवति । उक्वञ्चौपपातिके३० सूत्रे से किं तं जोगपडिसंलीणया- १ जोगपडिसलीणधा लिविहा पण्णता, तं जहामणजोगपडिल लोणया-१ वजोग पडिलीणा-२ कायजोगपडिसंलोणया-३ से कि त भणजोग पडिललणधा-? मणजोगपडिसलीणया-अकुसलमणनिरोहो, अललमणदीरणंवा, से तं भणजोगपडिसलीणया, से कितं वयजोगपडिहलीजथा ? वजोग पडिलीणया-अकुललवयणिरोहोचा, हलबारदीरणया, से तं वय जोगपडिसलीणया, ले किं तं कायजोगपडितलीणशा ?-कायजोग पडिसलीणया-जं तं सुसमाहिय पाणि पादे कुन हब तिदिए, सव्व. गाय पडिलीणे चिट्ठा, से तं काय जोगपडिलंलीणया,। अथ का सा योगप्रतिसंलीनता ३ योग मतिसं लीनता त्रिविधा मज्ञप्ता, तयथा मनोयोगप्रतिसंली. पैरों, इन्द्रियों एवं सम्पूर्ण शरीर का गोपन करना काययोग प्रतिसंली. नता तक है। शरीर संबंधी लापच अनुष्ठानों को त्याग देना, कछुए की तरह लमस्त इन्द्रियों का गोपाल करमा बाययोग प्रतिललीनता तप है । औपपातिक सूत्र ने तीसवें नुन लकहा है प्रश्न-योग प्रतिसलीनता के कितने मे है ? उत्तर-योग प्रतिसंलीनता के तीन लद है-मनोयोग प्रतिसं लीनता वचनयोग प्रतिसलीनता और फाययोग प्रतिस्लीनता હાથ, પગ, ઈન્દ્રિયે અને સંપૂર્ણ શરીરને સમેટી લેવું કાયયોગપ્રતિસલીતા તપ છે. ઔપપાતિકસૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે પ્રશ્ન–ોગપ્રતિસંસીનતાના કેટલા ભેદ છે ? ઉત્તર–ગપ્રતિસલીનતાના ત્રણ ભેદ છે. મને ગપ્રતિસંલીનતા, વચન ગપ્રતિસંલીનતા અને કાયાગપ્રતિસલીનતા. પ્રશ્ન-મને ગપ્રતિસલીનતા કેને કહે છે ? ઉત્તર-અકુશળ મને વ્યાપારને નિરોધ કરે અને કુશળમનની પ્રવૃત્તિ કરવી મને ગપ્રતિસૂલીનતા છે. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका २.८ ८.२१ योगप्रति खलीनतातपसः निरूपणम् ६६९ नवा १ बचोयोगपतिसंलीनार काययोगप्रदिसंकीनता ३ अथ का सा मनोयोगप्रतिसंलीनता मनोयोगमविलीनता अकुशमनोशिधो वा, कुशल मन उदीरणं वा, सा एषा मनोयोगपतिस लीनता ? अथ का सा वचोयोगप्रति संलीनता ? वचोयोगपतिस लीनता अकुशलवचो निरोधो वा, कुशल चच उदीरण वा सा एप वचोयोगमनिस लीनता, अथ का सा काययोग प्रतिस लीनता ? काययोग मतिसंलीनता यह खलु सुसमाहितपाणिपाद कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः सर्व गात्रघतिस लीनास्तिष्ठति सा एषा काययोगमविसकीनता इति ॥२१॥ मूलम् - विवित लयणासणलेवणया तवे अणेगविहे, इत्थी - आइविरहिया - भोगट्टामणिवालभेयओ ॥२२॥ प्रन - मनोयोग प्रतिस लीनता किसे कहते हैं ? उत्तर- अकुशल मनोव्यापार का निरोध करना और कुशल मन की प्रवृत्ति करना मनोयोग प्रतिललीनता है । प्रश्न -- वचनयोगप्रति संलीनता किसे कहते हैं ? उत्तर - अकुशल वचनों का विरोध करना और कुशल वचनों की उदीरणा करना वचनयोगप्रति संलीनता तप है। प्रश्न -पाययोगप्रति संलीनता किसे कहते है ? उत्तर-- हाथों-पैरों का संगोपन करना इन्द्रियों का गोपन करना और सम्पूर्ण शरीरका गोपन करना अर्थात् कायिक व्यापार का निरोध कर देना कायप्रति संलीनता तप है ॥२१॥ 'विचिप्यणालण' इत्यादि सू० २२ सूत्रार्थ - विविक्त शयनासन सेवनता तप के अनेक भेद हैं, जैसे- स्त्री आदि से रहिए अनेक स्थानों में निवाल करना आदि ॥ २२ ॥ પ્રશ્ન-વચનચે ગપ્રતિસલીનતા કાને કહે છે. ? ઉત્તર-અકુશળ વચનાના નિરાધ કરવા અને કુશળ વચનાની ઉદીરણા કરવી વચનચે ગપ્રતિસ'લીનતા તપ છે, પ્રશ્ન-કાયયાગપ્રતિસ લીનતા કાને કહે છે ? ઉત્તર-હાથ પગનું સંગેાપન કરવુ' ઇન્દ્રિયાને ગેાપવી અને સ પૂર્ણ શરીરનુ' ગેપન કરવું' અર્થાત્ કાયિક વ્યાપારના નિરણ કરી દેવા કાયપ્રતિ સલીનતા તપ છે !! ૨૧ " 'वित्तियणा सण से वणया' त्यिाहि । દ્રાવિવિક્ત શયનાસનસેષનતા તપના અનેક ભેદ છે જેવા કે સ્ત્રી આદિથી રહિત અનેક સ્થાનામાં નિવાસ કરવા વગેરે ા રર ! Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वायी छाया--विविक्तशयनासनसेवनता तपो-ऽनेकविधं, स्मादिविरहिताऽनेकस्थाननिवायभेदता--" निस्वार्थदीपिका--पूर्वतावत् -चतुर्विधपतिसंलीनसातपःसु यथाक्रममिन्द्रिय पाययोगपतिसंहीनतातपस्वयं पुरूपितम् सम्पति क्रयमाप्तं चतुर्थ विविक्तशय्यासनसे बनतारूपं प्रतिसंलीनतावपः प्ररूपाय तुमाह-चिक्तिसयणालण' इत्यादि। निरिक्तशयनाप्सनतपः-विविक्तानि दोपवर्जितानि यानि शयनासनानि, तेषां सेवनता-वेचनम्, तद्रपं पतिसलीनतातपोऽनेकविधं भवति । तद्यथा--च्यादिविरहिताऽनेक स्थानानवासभेदतः, स्त्री-पशु-गण्डक-हितेननेकस्थानेषु-आरामो धानादिपु मासुरपणीय पीठ-फलक-शाच्या संस्कारकापसम्पद्य श्रमणो निवसति । अतएव-धर्मधर्मिणारभेदाद् विविक्तशन यनासनसवतातपो भवति, तथाच-पत्किल श्रमणोऽनगारः स्त्री-पशु-पण्डक संसर्गविरहितेवारामेषु कृत्रिमवनेषु-उद्यानेषु कुसुनकाननेषु बक्षकुलेषु, एक-स्त्री-पशु पण्डक वनितेषु स्थानेषु, स्यादिसंसगराहतेषु सामान्यगृहेषु चेत्येवमनेजस्थानेषु मासुकैपणीय-प्रगता असवः असुमन्तः पाणिनो यस्मात् तत् मासुकम्, अचित्तम् एकेन्द्रियादिजीववजितेषु, अतएव-एपणीय निरवचं पीठ-फलक-शय्या-संस्तारक मुपसंपद्य तिष्ठतीति विविक्तशयनासनसेवनतातपो भवति ॥२२॥ तस्वार्थनियुक्ति-चार प्रकार के प्रति लीनता तप में से पहले इन्द्रिय प्रति लीनता कषायतिखलीनता का निरूपण किया गया, अब क्रमप्राप्त विविक्तशयनासनसेबनला नामक चौथे प्रतिसलीनता तप का निरूपण करते है विधिक्त अर्थात् दोषों ले रहित शयन आसन का सेवन करना रूप तप विविक्त शयनासन लेबलता तप है । उसके अनेक भेद हैं, यथा-स्त्री, पशु और पण्डक से रहित अनेक स्थानों में अर्थात् बागबगीचा आदि प्रामुक एवं एषणीय पीठ, पाट, शय्या, संथारा आदि 1 તાર્થદીપિકા-ચાર પ્રકારના પ્રતિસંલીનતા તપમાથી પહેલા ઈન્દ્રિય પ્રતિસૂલીનતા, કાયપ્રતિસંલીનતા અને ગપ્રતિસંલીનતાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે ક્રમ પ્રાપ્ત વિવિક્ત શયનાસનસેવનતા નામક ચેથા પ્રતિસંલીનતા તપનું નિરૂપણ કરીશ છીએ– વિવિક્ત અર્થાત્ દેથી રહિત શયન આસનનું સેવન કરવા રૂપ તપ વિવિકત શયનાસનસેવનતા તપ છે તેના અનેક ભેદ છે જેવાકે સ્ત્રી, પશુ અને વ્યંઢળ રહિત અનેક સ્થાનમાં અર્થાત્ બાગબગીચા વગેરેમાં પ્રાસુક Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ स.२२ विविक्त शय्यासनसेवनतानिरूपणम् ६६३ तत्वाथनियुक्ति:- पूर्व ख्लु-इन्द्रियमतिसंलीनता-कृपायटिसलीन्तायोग प्रतिसलीनतातपस्वयं मरूपितम् . सम्पति-विविक्त शयनासन सेवनतारूपं चतुर्थ प्रतिसंळीनतातपः प्ररूपयितुमाह-'विवित्तलथणालणले वाया तवे अणे. गविहे, इत्थीलाइ विहिया गट्ठाणलिवालभेदी' इति । विविक्तशयनासनसेवनतासपः--विविक्तानि दोपवर्जितानि यानि शयनासनानि, तेषां सेवनतासेवनं, पं प्रतिसलीलतातपः खलु अनेकविधं भवति । तद्यथा-व्यादिविरहिताऽनेक्रस्थाननिवासभेदतः, तथा च-स्त्रोपशुपण्डकसंसर्गविहिनेवारामोद्यानदेवकुल मपापण्यशालादिषु अनेशस्थानेषु निशसो भवति श्रमणानां मासुकैपणीय पीठफल कशय्यासंस्तारकाऽभ्युपगमपूर्वकम् अतएक-धर्मधर्मिणोरभेदविविक्षया विविक्ताशयनासनसेवनतारूपं तपो भवति, यतः किल श्रमणोऽनगारः स्त्री पशु पण्ड व जिप्राप्त करके साधु निवास करता है, अतएक थाह तप विचित शशनासन सेवनता कहलाता है ॥२२॥ ___ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले इन्द्रियप्रतिक्षलीलता कपायमतिसंलोनना और योगप्रतिसंलीनता नामक तीन संलीनता लपोका निरूपण दिया माया, अब विविक्तशय्यासनलेबनता मालक चौथे भेद को कथन करते है-- विविक्त अर्थात् दोपवर्जिल शयन-पालन का सेवन करना विविक्तशथनासनसेवनता तप कहलाता है । यह तप अनेक प्रकार का है, जैसे-स्त्री, पशु और पण्ड क से रहित आराम, उद्यान प्रणा (घाऊ) पण्यशाला आदि अनेक स्थानों में श्रमण प्रामुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शया और संस्तारक आदि प्राप्त करके निवास करते हैं। उनका इस प्रकार निसाम करना विविक्त शयनासनलेवनता અને એષણીય પીઢ પાટ, શય્યા, સંથાર વગેરે પ્રાપ્ત કરીને સાધુ નિવાસ કરે છે આથી આ તપ વિવિત શયનસનસેવનતા તપ કહેવાય છે કે ૨૨ તત્ત્વાર્થનિર્યુકિત-- પહેલા ઈન્દ્રિય પ્રતિસંલીનતા, કષાય પ્રતિસંલીનતા અને રોગપ્રતિસંલીનતા નામક ત્રણ સંલીનતા તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે વિવિકતશય્યાસનસેવનતા નામક ચોથા ભેદનું કથન કરીએ છીએ વિવિકત અર્થાત દેવર્જિત શયન આસનનું સેવન કરવું વિવિકતશય નાસનસેવનના તપ કહેવાય છે. આ તપ અનેક પ્રકારના છે જેમકે સ્ત્રી, પશુ અને નપુંસક વગરના આરામ ઉદ્યાન પરબ, ધર્મશાળા આદિ અનેક સ્થાનમાં શ્રમણ પ્રાસુક અને એષણીય પીઢ, ફલક શય્યા અને સંધારે અદિ પ્રાપ્ત કરીને નિવાસ કરે છે તેમનું આ પ્રમાણેનું નિવાસ કરવું વિવિકતશય નાસનસેવનતા તપ કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે અનગાર શ્રમણ સ્ત્રી પશુ અને Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ तत्त्वार्थस्त्रे तेष्वारामोधानेषु यक्षकुलरूपेषु दे कुलेषु स्त्रीशुभण्डासम्पकवजिलासु सभासु, पानीय शालारूशसु प्रपामु, व्यवहारिकजनाधिष्ठितेषु ण्यगृहेषु बहुदायक ग्राहकजनयोग्याच्यादि संसर्गरहितेषु सामान्य गृहिगृहेषु परूतिरूपेषु वेत्येव विधानेकस्थानेषु प्रासुकमचित्तम्, एएणीय-बिरवद्यापीठ-फल-शया-संस्ता. रकम्-अभ्युपगस्य तिष्ठति, तस्मात्-श्रमणानां विधिकसम्हयनासनसेवनता तपोभक्तीतिभावः । उक्तश्चौपपातिके ३० सूत्रे-कित चिन्तयणासणसे. वणधा- निवित्तलयणालणलेषणमा-जणं शामे उजजाणेलु देव कुलेस्लु सहास्लु पचासु पणियगिहेतु पणियनालासु इन्दीरतु-पंडगसं. सत्तविरलियालु बलहील फास्लुएलणी पीठ फलाज्जासंथागं उपसंपज्जित्ताणं विहरह, ले त विविक्तलयणालणलेषणया से तं पडि संलोणया, ले तं बाहिरए तो' अथ का या विविक्तायनासन सेवनता ? विविक्तशयनासनसेचलता-यत् खलु आरामेपु उचानेछु देवलेषु समासु प्रपासु पणितगृशेषु पणितशालासु स्त्रीपशु रण्डकसंसक्तविरहितासु वसतिषु प्रासुपणीयम् तप कहलाता है। तात्पर्य यह है कि अमगार अक्षण स्त्री, पशु और नपुंसक का संसर्ग न हो ऐले आरामों और उद्यानों यक्षायतन रूप सभास्थलों में प्याजखें, दुझाद में तथा गृहस्थ्य के सामान्य पक्षान में प्रासुक अर्थात् अचित्त और एपणीय अर्थात् निर्दोष पीठ (पीठा) फलक (पाट) शरया सौर संभाश ग्रहण करके रहता है। ऐसा करने से विविक्षत शवासनलेवनता नामक लप होता है। औपपातिक सूत्र में कहा है प्रश्न-विविक्तशथनासानलेवनता लपविले कहते हैं ? उत्तर--श्रषण आरामों में, उद्यानों में, सभाओं में प्रपोओं में, प्रणितशालाओं-इत्यादि में स्त्री, पशु और पण्डक ले रहित स्थानो में નપુસકને જ્યાં સંસર્ગ ન હોય એવા વિશ્રાતિગૃહ અને ઉદ્યાનમા યક્ષાયતન રૂપ સભાસ્થળેમાં પરબમાં દુકાનમાં તથા ગૃહસ્થના સામાન્ય મકાનમાં પ્રાસુ અર્થાત્ અચિત્ત અને એષણીય અર્થાત નિષ પીઢ (પીઢા) ફલક (પાટ) શમ્યા અને સંધાર ગ્રહણ કરીને રહે છે. આ પ્રમાણે કરવાથી વિવિક્ત શશ્ચાસસેવનતા નામક તપ થાય છે ઔપપાતિકસૂત્રમાં કહેલ છે પ્રશ્ન-વિવિત શયનાસનસેવનતા તપ કેને કહે છે ? उत्तर--श्रम साराभाभा, धानीमा, समासामी, ५२५i, પ્રણિતશાળાઓ ઈત્યાદિમાં સ્ત્રી, પશુ અને પંડક (પુંસક) રહિત સ્થાનમાં Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.६ रु.२४ दर्शन विनयतपसः निरूपणम् ६६९ स्तद्रूपं तपो दर्शन-विनयक्षपः तद् द्विविधम्मवति । तद्यथा-शुश्रूषणाविनयः १ अनत्याशावना विनयश्चेति, तत्र-विधिवत् (पूर्वक) सामीप्येन गुर्वादीनां सेवनं शुश्रूषा तद्रूपं तपः शुश्रूषणा विनयतपः खलु-उच्यते, अनत्याशातना तपस्तावत् अति-अतीव-आयः सम्यक्त्वादि लाभः इत्यति शब्दार्थः तस्य आ-आसमन्तात् शातना-ध्वंसना अत्याशातना । यद्वा-अति-अतीव आयः सम्यक्त्वादिलाभ: अत्यायः तस्य शातना 'पृषोदरादित्वाद् य लोपे' अस्याशावना तदभावो विनयोऽनत्याशातनाविन्यः तद्रूपं तपोऽनल्याशातना विनय तप उच्यते, गुर्वादेरवर्णवादादि निवारणरूपमित्येवं द्विविधं खलु दर्शनविनयतपो भवतीतिभावः ॥२४॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व खलु-सप्तविधेषु विनयतपासु प्रथमोपात्तं ज्ञानविनय तपः पञ्चविधत्वेन प्ररूपितम्, आमिनिबोधिक ज्ञानविनयादि भेदात्, सम्पतिदर्शन संबंधी विनय को दर्शनविनय कहते हैं। इसके दो भेद हैंशुश्रषाविनय और अनत्याशातना बिनय । यथोचित विधि के अनुसार गुरू आदि की सेवा करना शुश्रूषा विनय तप कहलाता है। ___अति सम्यक्त्व आदि का लाभ होला 'अति' कहलाता है। 'आ' उपसर्ग का आशय है-खूब या पूरी तरह और 'शातना' अर्थात् नष्ट करना । 'अन्' निषेध का सूचक है । इस प्रक्षार अनत्याशातना का अर्थ हुआ लम्यक्त्व आदि के लाभ को नष्ट न करना अर्थात् सम्य. क्त्व आदि का विनाश करने वाला कोई कार्य न करना। यही अनस्याशातना तप कहलाता है, जैसे शुरू आदि का अवर्णवाद न करना आदि। इस प्रकार दर्शन धिनय के दो भेद होते है ॥२४॥ तत्वार्थनियुक्ति-पूर्वोक्त विनय तप के लात भेदों में से ज्ञान -विनय लप के पांच भेदों का निरूपण किया गया, अब दर्शन विनय ને દર્શન વિનય કહે છે એના બે ભેદ છે-શુષાવિનય અને અનન્યાશાતના વિનય ગ્યવિધિ અનુસાર ગુરૂ આદિની સેવા કરવી શુશ્રષાવિનય તપ કહેવાય છે અતિ સમ્યકત્વ આદિને લાભ થ “અતિ કહેવાય છે. “આ” ઉપસર્ગને આશય છે–ઘણુ અથવા સંપૂર્ણ રીતે શાતના અર્થાત્ નાશ કરવું “ અન્ ” નિષેધનું સૂચક છે આ રીતે અનાયાશાતના અર્થ થ સમ્યકત્વ વગેરેના લાભને નષ્ટ ન કરવા અર્થાત્ સમ્યકત્વ આદિને વિનાશ કરનારૂં કોઈ કૃત્ય ન કરવું આ અનત્યાશાતના વિનય તપ કહેવાય છે જેવી રીતે ગુરૂ વગેરેને અવર્ણવાદ ન કર વગેરે. આવી રીતે દર્શન વિનય તપના બે ભેદ હોય છે ૨૪ તત્વાર્થનિર્યુકિત --પૂર્વોક્ત વિનયતપના સાત ભેદે માંથી જ્ઞાનવિનય તપને પાંચ ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે દર્શન વિનય તપના બે Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० तत्त्वार्थ द्वितीयं दर्शनविनयतपो दैनिध्येन प्रपतिमाह-दमणविणयतवे दविहे। सुस्त मनाविणए अणच्चामायणाविणए च' इति । दर्शनदिनयतपः-दर्शनमोहनीयक्षयादि जनितस्तत्वार्थश्रद्धानरूप आत्मपरिणतिविशेपो दर्शनम् तत्स. म्बन्धी विनयो दर्शनविनयो पृषोदरादित्वासिद्धि स्तद्रूपं तपो दर्शनविनयतपः खलु विविध भवति । तबथा-शुक्षपणा विनयतपः १ अनत्याशातना विनयतपः२ चेत्येवं तावद् द्विविध दर्शनविनयतपो भवति । तत्र-विधिपूर्वकं सामीप्येना ऽऽचार्योपाध्यायादिगुर्यादेः सेवनरूपा शुश्रूपणा तद्रूपो विनयः शुचपणा विनयः तत्स्वरूप तपः शुश्रवणाविनय तप उच्यते । अस्याशातना तन्निपेयरूपो विनय अनत्याशातनाविनयः गु दरवर्णवादादि निवारणरूपः, तत्स्वरूपं तपोऽनत्याशातना तप उच्यते । अथवा-अतिशयेनाऽऽयः सम्यक्तादि लाभोऽत्यायः तस्य शातना. ध्वसनाऽन्याशातना तन्निषेधरूपो विनयोऽनत्याशातनाविनयः, तद्रपंतपोऽनत्यातप के दो भेदों को भरूपणा करते हैं दर्शन मोहनीय पर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम का उत्पन्न तत्वार्थ श्रद्धान रूप आत्म परिणाम दर्शन कहलाता है । दर्शन का विनय दर्शन दिनय तप है। दर्शन विनय तप दो प्रकार का है-शुश्रूषणा दर्शन बिलय तप और अनस्याशातना दर्शन विनय तप। विधिपूर्वक, समीप रहकर आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु आदि की सेवा करना शुश्रूषणा विनय है, इसी को शुश्रूषणाविनय तप काहते हैं। गुरु आदि का अवर्णवाहन करना अन्नत्याशालनाविनय अथवा अनत्याशातनातप कहलाता है। अथवा लम्यक्त्व आदि के अतिशय आय (लाभ) को 'अत्याय' कहते इस 'अस्या की शातना अर्थात् ध्वंसना (विनाश) करना अत्याशालना है। 'अत्याशातना' का निषेध 'अनस्याशातना' तप कहભેદોની પ્રરૂપણે કરીએ છીએ દર્શોહનીય કર્મના ક્ષય, ઉપશમ અથવા ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન તત્વાર્થ શદ્વાન ૩૫ આત્મપરિણામ દર્શન કહેવાય છે. દર્શનને વિનય દર્શનવિનયતપ છે. દર્શનવિનય તપ બે પ્રકારના છે–ચકૃષણદર્શનવિનય તપ અને અત્યાશાતના દર્શનવિનય ત૫ વિધિપૂર્વક સાન્નિધ્યમાં રહીને આચાર્ય, ઉપાધ્યાય અને ગુરુ આદિની સેવા કરવી શુશ્રુષણાવિનય છે આને જ શુશ્રણાવિનય તપ કહે છે. ગફ વગેરેને અવર્ણવાદ ન કરો અનત્યાશાતના વિનય અથવા અનન્યાશાતના તપ કહેવાય છે અથવા સમ્યકત્વ આદિને અતિશય અાય (લાભ) ને અત્યાય કડ છે. આ “અત્યાયની શાતના અર્થાત્ દેવંસના (વિનાશ) કરે અત્યાશાતના છે. “અત્યાશાતના” ને નિષેધ “અનત્યાશાતના તપ કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ स्.२५ शुश्रूणाविनयतपसः निरूपणम् १७१ शातना तपो भवति ॥ उक्तञ्चौपपातिक ३० सुने-'ने किं तं दमणधिणए, ? दसणविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुरुमुलणाविणए अणच्चालायणाविणए २ इति । अथ कोऽसौ दर्शनविनयः ३ दर्शनविनयो द्विविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-शुश्रूषणाविनघः १ अनत्याशातनादिनयः २ इति ॥२४॥ मूलम्-सुस्सूसणाविणयतचे अणेगविहे, अब्भुटाणाइ भेयओ ॥२५॥ छाया-शुश्रूषणाधिनयतपोऽनेकन्धिम्, अभ्युत्थानादि भेदतः ॥२६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तामद्-द्विविधं दर्शनविनयतपो भवतीत्युक्तम्, शुश्रूषणाविनयाऽनत्याशातना विनर भेदात, सम्मति- प्रथमोपात्तं शुश्रूपणा विनयतपः प्ररूपयितुमाह-'सुस्सूलणाविणयत' इत्यादि । शुश्रूपणादिनयतपा-विधि लाता है । तात्पर्य यह है कि कोई कार्य न करना जिससे लम्यक्षचारित्र आदि गुणों का नाश हो, वह अनत्याशातना घिनध है। औपपातिक मूत्र में कहा भि है प्रश्न-दर्शन बिनय के कितने भेद हैं ? उत्तर-दर्शन विनय तप के दो भेद हैं- शुश्रूजणाविनया और अनत्याशातना विनय ॥२४॥ 'सुस्मलणाविणय तवे अणेगविहे' इत्यादि सूत्रार्थ--अभ्युस्थान आदि के भेद से शुश्रषणा विनय अनेक प्रकार का है ॥२५॥ तत्वार्थदीपिका--पहले कहा गया था कि दर्शन विनय लषदो प्रकार का है-शुश्रूषणा विनय और अनत्याशातला विनय, अब इनमें से पहले शुश्रूषणा विनय तप की प्ररूपणा करते हैंકે એવું કોઈ કાર્ય ન કરવું જોઈએ કે જેથી સમ્યકત્વ-ચારિત્ર આદિ ગુણોને નાશ થાય અને આજ અનત્ય શાતનાવિનય છે. ઔપપાતિક સૂત્રમાં કહ્યું છે. પ્રશ્ન-દર્શન વિનયના કેટલા ભેદ છે ? ઉત્તર-દર્શનવિનય તપના બે ભેદ છે-શુશ્રષણાવિનય અને અનન્યા શાસનાવિનય છે ૨૪ છે 'सुस्सूसणाविणयतवे' त्यहि સૂત્રાર્થ –અભુત્થાન આદિના ભેદથી શુશ્રષણાવિનય અનેક પ્રકારના છે પરપા તત્ત્વાર્થદીપિકા-પહેલા કહેવામાં આવ્યું. કે દર્શનવિનય તપ બે પ્રકારના છે શુશ્રષણાવિનય અને અનન્યાશાતનાવિનય, હવે એ બંને સાથી પહેલા શુશ્ર ષણવિનય તપની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉ૭૨ तत्त्वार्थ पूर्वकं गुदिः सेवनरूपा शुश्रूपणा तद्रूपं तपः शुथपणा विनयतप उच्यते, तच्चाऽनेकविधम् । तद्यथा-अभ्युत्थानादिभेदतः, तथाचाऽभ्युत्थानविनयतपः १ आदिना-आसनाऽभिग्रहविनयतपः २ आसनपदानदिनयतपः ३ सस्कारविनय तपः ४ सम्मानविनयतपः ५ कृतिकर्मदिनयतः ६ अञ्जलिनग्रहविनयतपः ७ आगच्छतोऽनुगमनतारूरतपः ८ स्थितस्य पर्युपासना विनयतपः ९ गच्छतः पश्चादनुगमशीलता रूपतपः गच्छतः प्रतिसंसाधनतातप उच्यते-१० इत्येवं रीत्या ऽनेकविध खलु शुश्रूपणाविनयतपो भवतीति भावः । तनाऽऽचार्यादे रागत. स्थाऽभिमुखम् उत्थानम् विनयाईस्याऽऽचार्यादे देशलादेवाऽऽसनत्यागो भवति, तथाविधाऽन्यु-थानरूगे विनयः अभ्युत्थानविनयः तद्रूपं तपोऽभ्युत्थानदिनयतपो भवतीतिभावः । एवम्-आसनाऽभिग्रहविनयतपस्तु-आचार्य-गुर्वा दिर्यत्र यत्रोप विधिपूर्वक गुरु आदि की सेवा करना शुश्रूषणा विनय कहलाता है। उसके अनेक भेद हैं, यथा-(१) अभ्युस्थानविनय हप (२) आसनाभिग्रह विनय तप (३) आसन प्रदान दिनय तप (४) सत्कारविनय तप (५) सन्मान विनय तप (६) कृतिम विनय तप (७) अंजलि प्रग्रहविनय तप (८) गुरु आदि बडे आते हुए के सम्मुख जाना रूप विनय तप (९) स्थित की उपासना रूप दिनय तप (१०) जाते हुए के पीछे जाना रूप तप, इस प्रकार शुभषणा विलय तप अनेक प्रकार का है। इनका स्व रूप यह है (१) आचार्य आदि पर दृष्टि पडते ही आसन त्याग देना, उनकी ओर मुख करके खडा हो जाना अभ्युत्थान विनय कहलाता है । (२) आचार्य या गुरु आदि जहां-कहीं बैठने की इच्छा करें वहीं आसन વિધિપૂર્વક ગુરૂ આદિની સેવા કરવી શુશ્રષાવિનય કહેવાય છે તેના અનેક ભેદ છે જેમકે-(૧) અભ્યથાનવિનય તપ (૨) આસનાભિગ્રહવિનય તપ (3) आसनमहानविनयत५ (४) स४२विनयत५ (५) सन्मानविनयत५ (6) કતિકર્મ વિનયતપ (૭) અંજલિપ્રગ્રહવિનયતપ (૮) ગુરૂ વગેરે વડીલ આવતા હોય ત્યારે તેમની સન્મુખ જવું, (૯) રિતિની ઉપાસના રૂપ તપ (૧૦) જનારાની પાછળ જવા રૂપ તપ, આ રીતે શુશ્રણાવિનય તપ અનેક પ્રકાર છે. એનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (૧) આચાર્ય આદિ પર દ્રષ્ટિ પડતા જ આસન છેડી દેવું તેમની સન્મુખ ઉભા થઈ જવું અદ્ભુત્થાનવિનય તપ કહેવાય છે. (૨) આચાર્ય અથવા ગુરૂ આદિ જ્યાં કઈ રથને બેસવાની ઇચ્છા પ્રદર્શિત કરે ત્યાં જ - Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.८ रु.२३ ज्ञानविनयतपसः निरूपणम् १६५.. पीठ फलकशय्यासंस्तारकाएसंघद्य खलु विहरति, सा-एषा विविक्तशयनासन सेवनता, सा-एषा प्रतिसलीनता, तदेतद् वाह्यं तपः ॥२२॥ मूलम्-छबिहेसु अभितरतवेसु णाणविणयतवे पंचविहे, आभिणिबोहिय जाणविणयाइ भएओ ॥२३॥ ___ छाया-'पविधेषु-आभ्यन्तरतपासु ज्ञानविनयतपः पञ्चविधम्, आमिनिबोधिकज्ञानविनचादि भेदतः ॥२३॥ तत्वार्थ दीपिका--पूर्व तात् कर्मनिर्जराहेतुभृतं पहविधमपि वाह्यं तपः सविस्तरं प्ररूपितम्-सम्मति कर्मनिर्जरा हेतुभूतषविधाभ्यन्तरतपःसु प्रथमोपातपायधिशतपसः पूर्व प्ररूपणं कृतम्, सम्पति-क्रमप्राप्तद्वितीयाभ्यन्तरतपोविशेषसप्तविधविनथेषु प्रथमं ज्ञानविनयतपः मरूपयितुमाह'-छबिहेसु' इत्यादि । पूर्वोक्तेदु पइविधेषु प्रायश्चित्ताधाभ्यन्तरतपःसु द्वितीयस्य सप्तविध विनयतपसः प्रथयं दावद् ज्ञानविनयतपः पञ्चविध भवति । तद्यथा-आभिनिनिवास करता है, यह विविक्त शयनासन सेवनता तप है । यहां प्रतिसंलीनता तप और बाह्य तपः सा प्ररूपण पूर्ण हुआ ॥२२॥ 'छविधहेतु अभितरतवेसु'-इत्यादि स्लू० २३ सूत्रार्थ-छह प्रकार के आम्धन्तर तपों में ज्ञानविनयतप के पांच भेद हैं, आभिनिवाधिकज्ञानविनय आदि ॥२३॥ तत्त्वार्थदीपिका-कर्मनिर्जरा के हेतु छह प्रकार के पाय लप का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया, अब कर्मनिर्जरा के हेतु छह प्रकार के आभ्यन्तर तप में सर्वप्रथम गिने जाने वाले प्रायश्चित्त तप का पहले निरूपण हो चुका है, अतः क्रमप्राप्त दूसरे विनयतप में सर्वप्रथम ज्ञानविलय तप की प्ररूपणा करते हैंનિવાસ કરે છે. આ વિવિકતશયનાસનસેવનતા તપ છે અત્રે પ્રતિસંલીનતા તપ અને બાહ્ય તપોનું પ્રરૂપણ સમાપ્ત થયું. ૨૨ છે 'छविहेसु अभितरतवेसु' त्यादि સવાથ-છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપમાં જ્ઞાનવિનય તપના પાંચ ભેદ છે, આભિનિધિજ્ઞાનવિનય આદિ ૨૩ છે તવાથદીપિકા-કર્મનિરીના હેતુ છ પ્રકારના બાહ્ય તપનું વિસ્તાર પૂર્વક વર્ણન કરવામાં આવ્યું, હવે કર્મનિર્જરાના હેતુ છ પ્રકારના અન્ય -તર તપમાં સર્વપ્રથમ ગણવામાં આવતા પ્રાયશ્ચિત્ત તપનું પહેલા નિરૂપણ થઈ ગયું છે. આથી ક્રમ પ્રાપ્ત બીજા વિનય તપમાં સર્વપ્રથમ જ્ઞાનવિનય તપ ની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ त० ८४ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वाचे बोधिज्ञानविनयादि भेदतः, तथा च-आमिनियोधिकज्ञानविनयः १ आदिना श्रुतज्ञानविनयः २ अवधिज्ञानविनयः ३ मनापर्यवज्ञानविनयः ४ केवलज्ञानविनयश्च ५ इत्येवं एञ्चविध खल्लु ज्ञानविनयतपो भवतीति बोध्यम् । तत्राऽऽमिनिबोधिकज्ञानं मलिज्ञानरूपम् तस्य विनयः विनयति-अपनयति ज्ञानावावरणाधष्टविध कर्माणीति विनयः अभ्युत्थान-वन्दन-शुश्रया भक्त्यादिरूप: आभिनिबोधिक ज्ञानविलयः तद्रूपं तप आभिनियोधिकज्ञानविनय तप उच्यते । एवं श्रुतज्ञानविनयतपः अबधिज्ञानविनयतपः, मनःपर्यवज्ञानविनयतपः, केवलज्ञानविनय तपश्चापि बोध्यम् ॥२३॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावन्निजराहेतुत्वेनोक्तेषु प्रायश्चित्तादि पइविधाभ्यन्तरतपासु मायश्चित्तं तपः पूर्व मरूपितम्, सप्तविध बिनयतपश्च प्ररूपितम्, सम्पति तेषु सप्तविधेषु विनयतपासु प्रथम ज्ञानविनयतपः प्ररूपयितुमाह-'छन्धि सात प्रकार के विनयतप में ज्ञानविनय तप पांच मकार का है। (१) आभिलिबोधिकज्ञानविनय (२) श्रुतज्ञानविनय (३) अवधिज्ञानविनय (४) सनापर्यवज्ञानविनय और (५) केवलज्ञानविनय । आभि. निघोधिकज्ञान का अर्थ मतिज्ञान है । ज्ञानाधरण आदि आठों कर्म जिससे हटते हैं उसे विनय कहते है। अभ्युत्थान, पन्दन शुश्रूषा, भक्ति आदि विनय के अन्तर्गत हैं। आमिनियोधिज्ञान एवं ज्ञान वान् के प्रति यथायोग्य आदरमाच होना आभिनियोधक ज्ञान विनय है, इसी प्रकार श्रुवज्ञानविनय अवधिज्ञानविनय मनः पर्यवज्ञानविलय और केवलज्ञानविनय भी समझ लेना चाहिए २४ तत्त्वार्थनियुक्ति--निर्जरा के कारण कहे गए प्रायश्चित्त आदि छह आभ्यन्तर तपों में से पहले प्रायश्चित्त तप का प्ररूपण किया जा चुका, સાત પ્રકારના વિનયતપમાં જ્ઞાન વિનય તપ પાંચ પ્રકારના છે-(૧) भामिनिमाधिज्ञानविनय (२) श्रुतज्ञानविनय (3) अवधिज्ञानविनय (४) मनः પર્યવજ્ઞાનવિનય અને (૫) કેવળજ્ઞાનવિનય. આભિનિધિકજ્ઞાનનો અર્થ મતિ જ્ઞાન છે. જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠે કર્મો જેનાથી દૂર થાય છે તેને વિનય કહે છે અભ્યથાન વન્દન, શુશ્રષા, ભક્તિ આદિ વિનયના અન્તર્ગત છે આભિનિ બેધિક જ્ઞાન અને જ્ઞાનવાનું પ્રત્યે યથાયોગ્ય આદર ભાવ હે આભિનિધિક જ્ઞાનવિનય છે. એવી જ રીતે શ્રુતજ્ઞાનવિનય, અવધિજ્ઞાનવિનય, મન પર્યવજ્ઞાનવિનય અને કેવળજ્ઞાનવિનય પણ સમજી લેવા જોઈએ ૨૪ છે તત્વાર્થનિર્યુક્તિ-નિર્જરાના કારણ તરીકે કહેવામાં આવેલા પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ આભ્યન્તર તપમાંથી પહેલા પ્રાયશ્ચિત્ત તપનું પ્રરૂપણ કરવામાં Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ८ सू.२३ ज्ञानविनयतपसःनिरूपणम् हेसु अभिरतवेलु णानिणयतवे पंचविहे, आभिणियोहियणाण विगयाइभेधओ-" इति । पविधेषु पूरॊक्तेषु , आभ्यन्तरतपासु प्रथमोपात्तं ज्ञानविनयतयः पञ्चविध भवति । तयणा-नाभिनिवोधिकज्ञानविनयादि भेदतः, तथा च-विनयति अपनवति ज्ञानदिनयाघष्टविधकर्माणीति विनयः, तद्रूपं तप आभिनिबोधिकज्ञानविनय तप उच्यते आभिनिवोधिज्ञानमेव मतिज्ञान मुच्यते १ आदिना--श्रुतज्ञालदिनयः २ अवधिज्ञानविनयः ३ मनापर्यवज्ञानविनयः४ केवल ज्ञानविनयश्चेत्ये ५ च पञ्चविधं खल्लु आभ्यन्तरज्ञानविनयतपो भवति ॥ उक्तञ्चौपपातिके-३० सूत्रे-'ले कितं जाणविणए-? जोगविणए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-आलिणियोहियणाणविणए-१ सुगणाणविणए-२ ओहिणाणविणए-३ भणपजवणाणक्षिणए-४ केवलणाणविणए-६ इति । अथ कः स ज्ञानविनयः ? ज्ञानविनयः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आभिनिसात प्रकार के बिनय तप का भी निर्देश किया गया, अब उसमें से प्रथम ज्ञान विनय तप का निरूपण किया जाता है ज्ञान विनय तप के पांच भेद है-(१) आभिनियोधिक ज्ञानविनय तप (२) शुतज्ञानविनय तप (३) अवधि ज्ञानचिनय तप (४) मनः पर्याय ज्ञानविलय तष और (५) केवलज्ञानविनय तप । जो ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों को दूर करता है, उसे विनया कहते हैं। आभिनियोधिक ज्ञान का अर्थ प्रतिज्ञान है । इस प्रकार ज्ञान के पांच भेद होने से ज्ञानविनय के पांच भेद हैं, औपपातिक खून के तीसवें सूत्र में कहा है प्रश्न-ज्ञानविनय के कितने भेद हैं ? उत्तर-पांच भेद हैं-(१) आभिनियोधिक ज्ञानविनय (२) श्रुतज्ञानઆવી ગયું, સાત પ્રકારના વિનયતપને પણ નિર્દેશ કરવામાં આવ્યું હવે તેમાંથી પ્રથમ જ્ઞાનવિનય તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે __ज्ञानविनय तपन पांय ले छ-(१) मासिनिमाधिज्ञानविनय त५ (२) શ્રુતજ્ઞાનવિનયત૫ (૩) અવધિજ્ઞાનવિનય તપ (૪) મનઃપર્યયજ્ઞાનવિનય તપ અને (૫) કેવળજ્ઞાનવિનય તય જે જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોને દર કરે છે તેને વિનય કહે છે. આભિનિઓધિક જ્ઞાનને અર્થ મતિજ્ઞાન છે આ રીતે જ્ઞાનના પાંચ ભેદ હોવાથી જ્ઞાનવિનયના પણ પાંચ ભેદ છે. ઔપપાતિક સૂત્રના ૩૦માં સૂત્રમાં કહ્યું છેપ્રશ્ન–જ્ઞાનવિનયના કેટલા ભેદ છે ? तर---पाय -(१) मालिनिमाधिशानविनय (२) श्रुतज्ञानविलय Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्ने घोधिकज्ञानविनयः, श्रुतज्ञानविनयः अवधिज्ञानविनयः, मनापर्यवज्ञानविनयः, केवलज्ञानविनयश्चेति ॥२३॥ मूलम्-दसणविणयतवे दुविहे, सुस्सूसणाविणए, अणचा. सायणाविणए य ॥२४॥ छाया-दर्शनविनयतपो द्विविधम्, शुश्रूषणाविनयः-अनत्याशातनाविनयश्च ।२४। __तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् विनयतपः सप्तविधं प्रतिपादितम्, बान विनय-दर्शनविनयादि भेदात् तत्र-प्रथमोपात्तं ज्ञानविनयतपः पञ्चविधत्वेन मरूपितम्, सम्प्रति-दर्शनविनयतपो द्वैविध्येन मरूपयितुमाह-'दसणविणय तवे' इत्यादि । दर्शनविनयतपः-तत्र-दर्शनम् दर्शनमोहनीय क्षयादि जनित स्तत्वार्थश्रद्धानरूपआत्मपरिणतिविशेष स्तत्सम्बन्धी पिनयो दर्शनविनय विनय (३) अवधि ज्ञानविनय (४) बनापर्यव ज्ञानचिनय (५) केवल ज्ञानविनय ॥२३॥ 'दसणविणयतवे दुबिहे' इत्यादि। सूत्रार्थ दर्शन विनय दो प्रकार का है-शुश्रषा विनय और अनत्याशातना विनय ॥२४॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले दिल्य तप सात प्रकार का बतलाया गया था, जैसे ज्ञानविनथ, दर्शनविनय आदि । इनमें से प्रथम ज्ञानविनय के पांच भदों का कथन किया जा चुका, अध दर्शनविनय तए के दो भेदों कीप्ररूपणा करते हैं दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय, उपाय अथका क्षयोपश से उत्पन्न होने वाला तत्वार्थ श्रद्धान रूप आरम परिणाम दर्शन कहलाता है। - (3) भवधिज्ञानविनय (४) भना५वज्ञानविनय (५) विज्ञानविनय ॥ २३ ॥ 'दसणविणयतवे दुविहे' त्याला સવાર્થ-દર્શનવિનય બે પ્રકારના છે-શુશ્રષાવિનય અને અત્યા શાતના વિનય છે ૨૪ છે તત્વાર્થદીપિકા-પહેલા વિનયત સાત પ્રકારના બતાવવામાં આવ્યા છે જેવાકે જ્ઞાનવિનય, દર્શનવિનય આદિ આમાંથી પ્રથમ જ્ઞાનવિનયના પાંચ ભેદે નું કથન કરવામાં આવ્યું હવે દર્શન વિનય તપના બે ભેદાની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ દર્શનમોહનીય કર્મના ક્ષય ઉપશમ અથવા ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થનારા તત્વાર્થશ્રદ્ધાન રૂપ આત્મ પરિણામ દર્શન કહેવાય છે. દર્શન સંબંધી વિનય Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ तू.२५ शुश्रूणविनयतपसः निरूपणम् ६७३ वेष्टुमिच्छति तन-तनाऽऽसनस्थापनम्-आसनाभिग्रहविनयतपो भवति । आसन प्रदानदिनयस्तु-अचार्यादि गुरुषु समागतेषु सत्सु आसनदानम्भवति तद्रूपो विनयस्तदात्मकं तप आसनविनयतपो भवति । विनयाहस्याऽऽचार्यादे बन्दनादिनाऽऽहरण डकार उच्यते तद्पो विनयः सत्कारविनयः तद्रूपं तपः सत्कार विनयतपो पदिश्यते ? एवं-गुदीना माहारवस्त्रादि प्रशस्तनस्तुभिः सम्माननं सम्मान रूद्रपो विटयः स्म्मानजद रत्तदात्मकं तपः सम्मान दिनयतप उच्यते । एवं-गुचर्यादीनां यथाविधि बन्दनं चचिकर्म तद्रूपं विनयतपः कृतिकर्म विन्यतप उच्यते । एवं-गुरुसम्मुखेऽञ्जलीकरणम्-अञ्जलिनग्रहः तद्रूपं विनयतपोऽञ्जलि ग्रह दिनयतप उच्यते । एवम्-भागच्छन्तं मुर्दादि प्रति सम्मुखे गमनम् आगच्छतो. ऽनुगमनता तद्रपं दिनयतपः आगच्छतोऽनुगमनता विनयतप उच्यते। एक्स्उपदिष्टस्याऽऽकार्यादेच्छाऽनुकूलत्वा स्थितरय पर्युपासनता तप दिनयतपः स्थितस्य पर्युपासनता दिनयता उच्यते । एवम् गच्छत आचार्यादेः पश्चान्नुपरणबिछा देना आलनाभिनन्दप वाहलाता है। (३) आचार्य, गुरू आदि का आगमन होने पर आसन प्रदान करना आलम प्रदान बिलय कहलाता है। (४) विनय के योग्य आचार्य आदि का बन्दना आदि द्वारा आदर करना लत्कार विनय कहलाता है । (५) गुरु आदि का आहार वस्त्र आदि प्रशस्त वस्तुओं द्वारा सम्मान करना सम्मान विनय तप कहलाता है । (६) सुरू आदि विधि के अनुसार बन्दन करना कृतिकर्म विजय है। (७) गुरु के सामने हाथ जोडना लिपग्रह चिनय है। (८) आते हुए गुरू आदि के सम्मुख जाना भी एक प्रकार का विनय है। (९) आचार्य आदि की इच्छा के अनुसार लेधा करना, बैठे की उपासना करना पर्युपालनला विनय है। (१०) इसी प्रकार आचार्य आदि जाने આસન પાથરી દેવું આસનાહિતપ કહેવાય છે. (૩) આચાર્ય, ગુરૂ આદિ ના આગમન પ્રસંગે આસન પ્રદાન કરવું આસનપ્રદાનવિનય તપ કહેવાય છે. (૪) વિનયને ચગ્ય આચાર્ય આદિને વંદણ દ્વારા આદર કરે સત્કાર વિનય કહેવાય છે. (૫) ગુરૂ આદિનું આહાર-વસ્ત્ર આદિ પ્રશસ્ત વસ્તુઓ દ્વારા સન્માન કરવું સન્માનવિનય તપ કહેવાય છે. (૬) ગુરૂ આદિને વિધિ અનુસાર વંદન કરવું કૃતિકર્મ વિનય છે. (૭) ગુરૂની સામે હાથ જોડવા અંજલિપ્રથહવિનય છે. (૮) આગમન કરતાં ગુરૂ આદિની સામાં જવું પણ એક પ્રકારનો વિનય છે (૯) આચાર્ય આદિની ઈચ્છા અનુસાર સેવા કરવી, બેસેલા હોય એની ઉપાસના કરવી પડ્યું પાસનતા વિનય છે. એવી જ રીતે Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ तत्वार्थ शीलता तद्रूपं दिनयतपो शच्छतोऽनुशासनता विनयाप उच्यते, इत्येवमनेकविधं वावत्-शुश्रूषा निनयतपो भवति ॥२५॥ तरवार्थनियुक्ति:--पूर्व खल्ल द्विविधं दर्शन-विनयतपः प्रतिपादितम्, सम्पति तत्र प्रथमोपात्तं शुश्रूपणा विनवलपः नरूपयितुसाह-'जुस्यूक्षणा धिणय तचे अगदिहे, अन्सुहाणा मेकओ' इलि स्थपणा निनयरुपः-विधिपूर्वक सामीप्येनाऽऽचायर्यादीनां सेवनं शुश्रूपणा लत पं वियतपः खलु-अनेकविध भवति अभ्युत्थानादि गेदतः । तथा चाऽभ्युत्थानविनयतपः १ आदिनाऽऽसनाणिग्रह विनयतपः २ आसनप्रदानविनयहः ३ सरकारविश्य तपः ४ सम्मानविनयतपः कृतिकर्मविनयतका ६ अलिग्रहदिनयतपः ७ अनुमपनता बिनयतपः ८ पर्युपासना दिनयतपः ९ मतिलपान्ता दिनयतपश्च १० तिरीत्या शुश्रूषणालगे तो उनके पीछे-पीछे जाना अच्छतो अनुगमनमा विनय कलाता है। इसी प्रकार शुश्रूषणता पिनय रूप अनेक नेद हैं ॥२५॥ तस्वार्थनिमुक्ति--पहले दीननिय तप के दोनों का प्रनिपादन किया गया, अब पहले शुश्रषणाधिन हप की प्ररूपणा करते हैं विधिपूर्वक, समीप रहकर भाचार्थ आदि की शुश्रूषा करना शुश्रूषणा विनय तप कहलाता है। यह तप अभ्युत्थान आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। यथा-(१) स्थान चिलय तप (२) आसनाभिग्नह तप (३) आलन भदान विनय तप (४) मार विनय लप (५) सम्मान विनय तप (६) कृत्ति कर्म विनय तप (७) जलीप्रग्नह विनय तप (८) अनुगमनता विनय तह (९) पर्युपालना विनय रूप और (१०) प्रतिसन्धानता विनय रूप। આચાર્ય આદિ જવાની તૈયારી કરતા હોય ત્યારે તેમની પાછળ પાછળ જવું, ગછ અનુગામનતાવિનય કહેવાય છે. આવી રીતે શ્રેષતાવિનય તપના અનેક ભેદ છે || રપ છે તત્વાર્થનિર્યુક્તિ–પહેલા દર્શનવિનય તપના બે ભેદનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હવે પહેલા શુશ્રષાવિનય તપની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ વિધિપૂર્વક, પાસે રહીને આચાર્ય આદિની શુBષણ કરવી શુશ્રુષણાતા કહેવાય છે આ તપ અભ્યસ્થાન આદિના ભેદથી અનેક પ્રકારના છે. જેવાકે (१) मयुत्थानविनयत५ (२) मासनालिगविनयत५ (३) मासनप्रदानविनय त५ (४) स४२विनयत५ (५) सन्मानविनयत५ (6) कृतिम विनयत५ (७) અંજલિપ્રગ્રહવિનયતપ (૮) અનુગામનતાવિનયતા (૯) પયું પાસનાવિનયતા मन (१०) प्रतिसन्धानताविनय त५. તા. અગસના રીયારી કરત Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.८ स्तू.२५ शुश्रूगविनयतपसः निरूपण ६७६ विनयतपोऽने कविध भवति । तत्राऽऽगाना लाचार्यादीनामभिमुखं मुत्थानम्अभ्युत्थानम्, विनयाऽहस्य गुददेशनादेवाऽऽसनपरित्यागः तद्रयं विनयतपोऽभ्युस्थानविलयतपो भवति १ एवम्-भाचादिस्मिन् यस्मिन् स्थाने-उपवेष्टुमिच्छति तस्मिन्-तस्मिन् स्थाने तदर्थ नासनमापणम् भावनाभिग्रह स्तूप विनयतप बासनाभिग्रह विनयसपो भवति एवम्-आचार्य समागते शति-आसन दानं खलु-आसनपक्षानमुच्यते, लद्रूपं विनयतप आसनमदानविनयतपो भवति ३ एवम्-विनययोग्याऽऽचार्यादीनां वन्दनादिना-ऽऽदरकरणं-सत्कार स्तर निलपत्पः सद कारविनयतपो भवति । एषर-आचार्या खिल्ल आहारवस्त्रादि प्रशस्त बस्तुना लस्मान-पान स्तद्रूप विनयतपः सम्मानविनयतपो भवति ५ एक-शुदिानां सरत्नाधिकानों क्रमेण सांवधि बन्दनाकरणं कृतिकर्म तद्रूपं विनयतपः कृतिकम विनयरूपो भवति ६ एवम्-गुलादि सम्मुखाऽञ्जालकरणम् अञ्जलिपग्रह उच्यते, रुद्रप दिनयतपो-ऽजतिमाह बिनयतपो भवति ७ एवम्आयान्तं गुजादिकं प्रति-अभिमुखे गमनम् आगच्छतोऽनुगमनतोच्यते तद्रूपं ___(१) आते हुए आचार्य आदि के सामने खडा होना, विनय के योग्य लाचार्य आदि पर दृष्टि पड़ते ही आसनत्याग देना अभ्युत्थान विनय तप कहलाता है (२) आचार्धादि जहां कहीं बैठने की इच्छा करें उल्ली-उसी स्थान पर उनके लिए आसन बिछा देता आसनाधिग्रह विनय लव कहलाता है। (३) आचार्य के आने पर आसन देवा आसनप्रदान बिनय तप है। (४) विनया के चोच आचार्य आदि को चन्दना গুড়ি জাল রং বিলম্ব জয় । (৭) আজ? ঋঞ্ছি জা জাস্থা वस्त्र आदि मारत बस्तुओं द्वारा आदर करता मान्न चिना हर है। (६) रत्नाधिक माचार्य आदि को विधि पूर्वक बन्दना करना कृतिकर्म विनय कहलाता है। (७) गुरु आदि के सामने जाल करना अंजलि. (૧) આવી રહેલા આચાર્ય આદિની સામે ઉભા થઈ જવું, વિનયને યોગ્ય આચાર્ય આદિ પર નજર પડતાની સાથે જ આસન છોડી દેવું અભ્યOાનવિનય તપ કહેવાય છે (૨) આચાર્ય આદિ જ્યા પણે બેસવાની ઈચ્છા કરે તે જ સ્થાને તેમના માટે આસન પાથરી દેવું આસનાભિથહવિનય તપ કહેવાય છે. (૩) આચાર્યના આગમન પ્રસંગે આસન આપવું આસનપ્રદાન વિનય તપ છે (૪) વિનયને એગ્ય આચાર્ય આદિને વંદન વગેરેથી આદર કરે સકારવિનય કહેવાય છે (૧) આચાર્ય આદિને આહાર વસ્ત્ર આદિ અચેત વસ્તુઓ દ્વારા આદર કર સન્માનવિનય તપ છે (૬) રત્નાધિક આચાર્ય આદિને વિધિપૂર્વક વંદણું કરવી કૃતિકર્મવિનય કહેવાય છે (૭) ગુરૂ આદિની Andee Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ तत्त्वार्थसूत्र विनयतपोऽनुगमनता विनयतपो भवति ८ एवम्-उपविष्टाना माचार्यादीना मिच्छाऽनुक्ला सेवा, स्थितस्य पर्युपासनता दिनयतपो-भवति ९ एवम्-गच्छता माचार्यादीनां पश्चाद्गमनशीलता गच्छतः प्रतिसंसाधनतोच्यते तद्रूपं विनयतपः प्रतिसंसाधनता विनयतपो भवति । उक्तञ्चौपणातिके ३० सूत्रे-से किं तं सुस्सू. सणाविणए ? सुरसणाविणए अणेगविहे पण्णते, तं जहा-अभुठाणेहवा १ आसणाभिग्गहे इवा २ आलणप्पदाणे इया ३ सकारेइ वा४ सम्माणे इथा ५ कियकम्मेदवा६ अंजलिपमहे वा ७ एतस्स अणुगच्छ णया ८ ठियस्ल पज्जुवासणया ९ गच्छंत्तस्त पडिलंदशाहणधा १० सेतं सुस्थलणाविणए' इति । अथ कोऽसौ शुषपणा विनयः ? शुश्रूषणाविनयोऽनेक विधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-अभ्युत्थानमितिकाऽऽसनाभिग्रह इति बाऽऽसन प्रदानमिति वा सत्कार इति वा सम्मान इति वा कृतिकर्म इति वाऽचलि मनह इति वाऽऽगच्छतोऽनुगमनता-स्थितस्य पर्युपासनता-गच्छतः प्रतिसंसाधनता, एप शुश्रूषणा विनय इति ॥२५॥ प्रग्रह तप कहलाता है। (८) भाते हुए गुरु आदि के सामने जाना अनुगमनता तप है। (९) गुरु के बैठने पर इच्छानुकूल लेवा करना पर्युपालना विनय तप है । (१०) गुरु, आचार्य आदि के जाने पर पीछे. पीछे जाना प्रतिसन्धान तप कहलाता है। औषपातिक सूत्र के ३० वें 'सूत्र में कहा है, घश्न शुरूपाविनय कितने प्रकार का है ? शुशूपाविनय अनेक प्रकार का है, यथा-अभ्युत्थान, आसनाभिग्रह, आसनप्रदान, सहकार, सम्मान, कृतिकन, अंजलिनग्रह, अनुगमनत्ता, स्वित की पर्युपासला, जाते की अनुकरण करना, यह सब शुश्रूषाविनय है ॥२५॥ સામે હાથ જોડવા અંજલિપગ્રહ તપ કહેવાય છે (૮) આવી રહેલા ગુરૂ આદિ ની સામા જવું અનુમનતા વિનય તપ છે (૯) ગુરૂના બેઠા પછી ઈચ્છાનુકૂળ સેવા કરવી પઠું પાસના વિનય તપ છે. (૧૦) ગુરૂ, આચાર્ય આદિના પ્રસ્થાન પ્રસંગે પાછળ-પાછળ જવું પ્રતિસધાનતા તપ કહેવાય છે. ઔપપાતિક સૂત્રના ૩૦માં સૂત્રમાં કહ્યું છે પ્રશ્ન–શુક્રૂષાવિનય કેટલા પ્રકારના છે ? ઉત્તર–શુશ્રષાવિનય અનેક પ્રકારના છે જેવાકે અસ્પૃસ્થાન, આસનાલિગ્રહ આસનપ્રદાન, સત્કાર, સન્માન, કૃતિકર્મ, અંજલિપ્રગ્રહ, અતુગમતા સ્થિતની પપાસના જનારાનું અનુસરણ કરવું, આ બધાં શુશ્રષા વિનયના ભેદ છે રિયા Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८. सू.२६ अनत्याशातनायाः ४५ भेद निरूपणम् ६७७ मूलम्-अणच्चालायणा विणयतवे पणयालीसविहे, अरहंताइ मेयओ ॥२६॥ छाया-'अनत्याशातनाविनयतपः पञ्चचत्वारिंशद्विविधम्, अहंदादि भेदतः।२६। तत्त्वार्थदीपिज्ञा-पूर्व तावद्-दर्शनविनयतपसः प्रथमभेदः शुश्रूषणा विनयतपः प्ररूपितम्, सम्प्रति-अनत्याशातना विलयतपः स्वरूपं द्वितीयभेदं पञ्चचत्वारिंशद् विधत्वेन प्ररूपयितुमाह-'अणच्चासायणा' इत्यादि अनत्याशातनाविनयतपः- गुर्वा देवर्णवादादि रूपात्याशालनानिवारणरूप तावत् पञ्च. चत्वारिंशवविधं भवति, अहंदादि भेदतः । तथा चाहता मनत्याशातना १ आदिनाऽईल्मज्ञप्तस्य धर्मस्याऽनत्याशातना आचार्याणामनत्याशातना ३ उपाध्यायाना-मनत्याशातना ४ स्थविराणा सनत्याशातना ५ कुलस्याऽनत्याशातना६ 'अणच्चासायणा विणयलवे' इत्यादि। सूत्रार्थ-- महन्त आदि के भेदले अनत्याशातना विनय तप पैता लीस प्रकार का है ॥२६॥ तत्वार्थदीपिका-दर्शन बिनय तप के प्रक्षन भेद शुश्रूषणाविनय तप का निरूपण किया जा चुका, अब उसके दूसरे भेद अनत्याशातना विनय तप के पैंतालीस भेदों की प्ररूपणा करते हैं गुरु आदि की आशातला-अवर्णवाद न करना अनत्याशतनाविनय तप कहलाता है। अर्हन्त आदि के भेद से बह पैतालीस प्रकार का है(१) अर्हन्त की आशातना न करना (२) महत्प्रणीत धर्म की आशा. तना न करना (३) आचार्य की आशातना न करना (४) उपाध्याय की आशातना न करना (५) स्थविरों की आशातना न करना (६) कुल की अशातला न करना (७) गण की आशा 'अणच्चासायणाविणयतवे' त्या । સૂત્રાથ–-અહંન્ત આદિના ભેદથી અનન્યાશાતના વિનય તપ ૪૫ પ્રકારના છે. એ ર૬ ! તવાદીપિકા--દર્શનવિનતપના પ્રથમ ભેદ શુBષણાવિનય તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે તેના બીજા ભેદ અનત્યાશાતના વિનય તપના પિતાળીશ ભેદની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ-- ગુરૂ આદિની આશાતના અવર્ણવાદ ન કરવી અનન્યાશાતનાવિનય તપ કહેવાય છે. અર્હત આદિના ભેદથી તે પિસ્તાળીશ પ્રકારના છે–(૧) અહેનતની આશાતના ન કરવી (૨) અહંન્ત પ્રણીત ધર્મની આશાતના ન કરવી (૩) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMRPAN AR ६७० तत्त्वार्थसूत्र राणस्याऽनरवाशातना७ संघस्याऽनस्याशातया ८ क्रियाणा मनत्याशातना ९ समीपस्या-ऽमत्याशावना १० आमिनियोधिकज्ञानस्या-ऽनत्याशातना ११ श्रुनानस्याऽनत्याशाना अवधिज्ञानमाऽनत्याशातना १३ मनापर्यवज्ञानस्याऽनत्याशातना १४ क्षेवरज्ञालस्याऽनवाशाखमा १५ इत्येन्द्र पञ्चदशाईदादिविनया भवन्ति पञ्चदशावादीनी मक्तिबहुमानपदमाश्रित्य भवन्ति १५ पञ्चदशचाहदादीनां सद्गुणो कीर्तनतारूपा वर्ण संज्वलनता तामाश्रित्य भवन्ति १५ इत्येवं सर्व सम्मेलनेना-ऽनत्यानातना विनयतपः पश्चचत्वारिंशद्विधं अवतीतिभावः ॥२६॥ सत्यार्थभियुक्ति:--- पूर्व खर भूभूषणानिस्तपोरू प्रथम दर्शनविनयतपः तमा न करना (८) संघ की आशातना कधारना (९) क्रियाओ की आशादत करना (१०) मोनिका हाधु की आशालना न करना (११) आमिनियोधिय(प्रतिज्ञान) ज्ञान की आशालना न करना (१२) श्रुतज्ञान की आशातला न करमा (१३) अवधिज्ञान की आशातना न मारना (१४) मनः पर्यवसान की आशातना न करना (१५) केवलज्ञान की आशातना न करना । ये अहस आदि के चिनय के पन्द्रह भेद हैं। मन्ति-बहुनान पद को लेकर और सद्गुणोत्कीर्तन रूप वर्णसंज्व ललना को लेकर पन्द्रर-पन्द्रह मे करने ले तोल भेद और होते हैं। जले अहा की गति करना महत्प्रयीत धर्म की भक्ति करना आदि और अहंत के गुणों का कीर्तन करना अहत्प्रणीन धर्म के गुणों का धीन करना अदि । हा प्रकार सबको मिलाने से अनत्याशातला विनय रूप से पैतालात भेद समझने चाहिए ॥२६॥ આચાર્યની આશાતના ન કરવી (૪) ઉપાધ્યાયની આશાતના ન કરવી (૫) વિરોની આશાતના ન કરવી (૬) કુળની આશાતના ન કરવી (૭) ગણની આશાતના ન કરવી (૮) સંઘની આશાતના ન કરવી (૯) ક્રિયાઓની આશાતના ન કરવી (૧૦) સાંગિક સાધુની અશાતના ન કરવી (૧૧) આભિનિધિક અતિજ્ઞાનની આશાતના ન કરવી (૧૨) શ્રુતજ્ઞાનની આશાતના ન કરવી (૧૩) અવધિજ્ઞાનની આશાના ન કરવી (૧૪) મન:પર્યવજ્ઞાનની આશાતના ન કરવી (૧૫) વળજ્ઞાનની અશાતના ન કરવી આ અહંત આદિના વિનયના પંદર ભેટ છે. ભક્તિ-બહુમાન પદને લઈને સદગુણકીર્તન રૂપ વર્ણ સંજવલનતાને લઈને પંદર-પંદર ભેદ કરવાથી ત્રીસ ભેદ બીજ થાય છે જેમકે અહંન્તની ભકિત કરવી, અહંપ્રણીત ધર્મની ભક્તિ કરવી. અત્રત ધર્મના ગુણેનું કીર્તન કરવું આદિ આવી રીતે બધાને સરવાળો કરવાથી અત્યાશાતના વિનય તપનાં પિસ્તાળીશ ભેદ સમજવા જોઈએ ૨૬ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ १.२६ अनत्याशातनाया: ४५ भेद निरूपणम् ६८९ प्ररूपितम् , सम्प्रति-द्वितीयमानत्याशातनरूपं दर्शनविनर रूपः प्रहपस्तिशाह'अणच्चालायणाविणवलपणचालीसपिहे, अरहता लेओ' इति । अनत्याशातनाविनस्तर:-अहं शादीनामवर्ण वादादि निषेधरूपं पञ्चरत्वारिंशदविधं भवति । तद्यथा-अर्हता तीर्थसास् अनत्याशासनता १ आदिनाऽहमालस्य धर्मस्याऽनत्याशादनमा २ आवाणामनत्याशात सा३ उपाध्यायानागलागालखता४ स्थावराणामनत्याशास्नता ५ कुलस्याऽन याशातलता ६ गणस्याऽत्याशातनता संघस्याऽनत्याशातनता ८ क्रियाणामलल्याशातमता ९ सुरू होगरयाऽनन्यायालल. ता १० आभिनिवोधिसतानल्याऽनल्याशानका ११ शु ज्ञास्याऽनत्याशातनता १२ अवधिज्ञानस्याऽनत्याशातनता १३ पनापर्यवज्ञानरयाऽनर माद(१ १४ केवल. तत्वार्थ नियुक्ति-हमले पूर्व पनि दिन्या के प्रक्ष मे शुश्रूषणा चित्य लप का निरूपण किया गया है, अब दूसरे से अलत्याशाताना दर्शनविलय की प्ररूणा करते है____अर्हन्त आदि का अवर्णशद न करके आदि के मेले अनत्या शातना विनय लष पैलालील प्रकार का है-(१) अहम मायान्न की अनत्याक्षाहना-नाशातना न करना (२) अहमगीत धम्की आशातना न करना (३) आचार्य की बाकावना न करना (४) उपाध्याय की आशातदान करना , ५) स्वचिों पी आशातला न करना (६) कुल की आशालना न करना (७) प्ली आशामान भरना (८) संघ की आशातना नकारना (९) किपा ही आशातला करना (१०) सलोनिक की आशातना न करना(११) आभिनिधिमजान की आशारदा न करना (१२) शुत ज्ञान की आशालनान करना (१३) अवधिज्ञलको आशातना તત્તવાથનિર્યુકિત-આની અગાઉ દર્શનવિનયના પ્રથમ ભેદ શુષણ વિનય તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે બીજા ભેદ અનન્યાશાતના દર્શન વિનયની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ – અહંન્ત આદિની આશાતના ન કરવા વગેરેના ભેદથી અનન્યાશાતના विनय त५ पिस्ताजी प्रारना छ-(१) मत माननी मानत्याशातनाઆશાતના ન કરવી (૨) અહપ્રણીત ધર્મની આશાતના ન કરવી (૩) આયા ર્યની આશાતના ન કરવી (૪) ઉપાધ્યાયની આશાતના ન કરવી (૫) સ્થવિ. ની આશાતના ન કરવી (૬) કુળની આશાતના ન કરવી (૭) ગણની આશાતના ન કરવી (૮) સંઘની આશાતના ન કરવી (૯) કિયાની આશાતના ન કરવી (१०) सामागिनी माशातना न ४२वी (11) मानिनिमाधिज्ञाननी माशाતના ન કરવી (૧૨) શ્રતજ્ઞાનની આશાતના ન કરવી (૧૩) અવધિજ્ઞાનની આશાતના ન કરવી (૧૪) મન:પર્યવજ્ઞાનની આશાતના ન કરવી (૧૪) કેવળ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थस्त्रे ज्ञानस्याऽनत्याशातनता१५ इत्येव पञ्चदशाऽहंदादि बिनया भवन्ति । एवामेवा ऽहंदादीनां भक्तिबहुमानमाश्रित्य च पञ्चदश भवन्ति १५ । एवमेतेषां खलु अई. दादीनां सद्भूतगुणोत्कीर्तनतारूपा वर्णसंज्वलनतामाश्रित्य पञ्चदश भवन्ति १५ इत्येवं सर्वमनत्याशातनऽताविनयतपः पञ्चचत्वारिंशद्विधं सरति । तन-दुलपदेन, एकाचार्यस्य सन्ततिरूप रूमानाचारश्रमण समूहो गृह्यते, गणपदेन परस्परसापेक्षा ऽनेक कुलश्रमणसमुदायो-बोधपते, संघरदेन च-मुरुमग्दर्शनाहियुक्त श्रमण-श्रमणी श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विधः संघो ग्राह्यः, क्रियापदेन चैरिथिकादिक्रिया ग्राह्यः सम्भोगपदेन च-एकसामाचारिकता गृह्य ते, सम्-एकत्र लोगो-भोजनं सम्भोगः, समानसामाचारी तया श्रमणानां परस्परसुध्यादि दानग्रहणव्यापारसरयोगः न करना (१४) मनापर्यवज्ञान की आशातना न करना (१५) केवलज्ञान की आशातना न झरना, ये अन्त आदि के पन्द्रह विनय हैं। इन्हीं अर्हन्त आदि पन्द्रह के प्रति भक्ति-बहुमाल करने से और इन्हीं पन्द्रह के सदभूत गुणों का कीत्तन-वर्णसंज्वलनला-हे भी पन्द्रह भेद होते हैं। इस प्रकार सब को सम्मिलित करने से अनत्याशातना विनय तप पैंतालीस प्रकार का है। यहां कुल का अर्थ है एक आचार्य की सन्तान रूप लमान आचार विचार वाले श्रमणों का खचूह । गण्ड का अर्थ है परस्पर सापेक्ष अनेक कुलों के अक्षणों का समुदाय । संघ पद से लम्घदर्शन आदि से युक्त साधु, साध्वी, श्रावक और आधिका रूप चतुर्विध संघ सझना चाहिए । क्रिया शब्द ले प्रतिलेखन आदि क्रियाओं को ग्रहण करना चाहिए । सम्भोग शब्द का अभिप्राय है समान सामाचारी वाले श्रमणों જ્ઞાનની આશાતના ન કરવી, આ અહંત આદિના પંદર વિનય છે. આ જ અહંન્ત આદિ પંદરના પ્રતિ ભક્તિ–બહુમાન કરવાથી અને આજ પંદર ના સમુદ્ભૂત ગુણાનું કીર્તન-વર્ણસંજવલનતાથી પણ બીજા પંદર ભેદ થાય છે, આ રીતે બધાને ભેગા કરવાથી અનન્યાશાતના વિનય તપ પિસ્તાળીસ પ્રકારના છે. અહીં કુળને અર્થ છે એક આચાર્યના પરિવાર રૂપ સમાન આચારવિચારવાલા શ્રમને સમૂહ-ગણને અર્થ થાય છે પરસ્પર સાપેક્ષ અનેક કુળના શ્રમને સમુદાય સંઘ પદથી સમ્યફદર્શન આદિથી યુક્ત સાધુ સાધ્વી શ્રાવક અને શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘ સમજ જોઈ એ ક્રિયા શબ્દ શ્રી પ્રતિખન આદિ ક્રિયાઓને ચણ કરવા જોઈએ. સગ શબ્દને–ખભિ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८. सू.२६ अनत्याशातनाया.४५ भेद निरूपणम् ६८१ इति व्युत्पत्तेः । अन्यत् सर्व स्रष्टम् ॥ उक्तश्चौपपातिके ३० सूत्रे-"से कि तं अपच्चासायणाक्षिणए-? अणच्चासायणाविणए पणयालीसविहे पण्णत्ते, तं जहा--अरहताणं अणच्चालारणया-१ अरहलपण्णत्त. रस धम्मल भणच्चालायणया-२ आयरियाणं अणच्चासाचगया-३ एवम्-उपज्झागणं-४ थेशणं-५ झुलरला-६ गणस्स -७ संघ सस-८ किरियाण-९ संयोग-१० आभिणियोहियणाणल-११ सुयणाणेस १२ मोहिणाणल १३ मणपज्जधणाणल-१४ फेशलणाणस्स१५एएलि देव सहिपहुला-३०, एएलि चेव घाणसंजलणया-४५, से तं अणनालायणाक्षिणए" इति । अथ कोऽसौ-अनत्याशालनाविनय ? अनत्याशातलाविनयः पञ्चचत्वारिंशदधिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ऽहंतामनत्याशात. नता १ अर्हत्यज्ञप्तस्य धर्मस्याऽनत्यासातनता २ आचार्याणामनत्याशातिमसा ३ एव-पाध्यायानास् ४ स्थविशणाम् ५ कुलस्य ६ गणश्य ७ संघस्य ८ क्रियाणाम् ९ सम्भोगस्य १० आमिनियोपिकज्ञानस्य ११ श्रुतज्ञानस्य १२ अवधि का पारस्परिक आहार आदि व्यव्हार अर्थात् आपल्या में उपधि आदि को लेना-देना एक साथ बैठकर भोजन करना पयोचित बन्दन आदि करना । अन्य लब पा ही है। औपपातिकलून के ३०३ खून में कहा है प्रश्न-अलत्याशासनाधिनय कितने प्रकार के हैं ? उत्तर-अलल्याशातलाविनय पैंतालीम प्रकार का है, यथा-(१) अर्हन्तों की आशालना न करना (२) अप्रणीत धर्म की आशातना न करना (३) आचार्यों की आशीतना न करना (४) उपाध्यायों की आशालना न पारना (५) स्थघिरों की (६) कुल की (७) गण की (८) संघ की (२) निधाओंकी (१०) खांभोगिकों की (११) आभिनिबोधिकज्ञान को (१२) श्रुतज्ञान की (१३) अवधिज्ञान की (१४) પ્રાય છે સમાન સમાચારવાળા શ્રમને પારપરિક આહાર આદિ વ્યવહાર અર્થાત્ અંદર અંદર ઉપધિ વગેરેની લેવડદેવડ, એક સાથે બેસીને ભેજન કરવું, યચિત વંદણું વગેરે કરવી. બીજું બધું સ્પષ્ટ જ છે. ઔપપાતિક સૂત્રને ૩૦માં સૂત્રમાં કહ્યું છે– પ્રશન–અનત્યશાતનાવિનય કેટલા પ્રકાર છે? उत्तर--मनत्याशतनाविनय पिस्ताजश. प्रारना छ भ3-(१) અર્હતેની આશાતના ન કરવી (૨) અહપ્રણીત ધર્મની આશાતના ન કરવી (૩) આચાર્યોની આશાતના ન કરવી () ઉપાધ્યાયની આશાતના ન કરવી (५) स्थविशनी (6) सुनी (७) गनी (c) धनी () याभानी (१०) सम्मानिनी (११) मामिनिमोविज्ञाननी (१.२) श्रुतज्ञाननी (१3) मधि त० ८६ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ तत्त्वार्यसूत्रे ज्ञानस्य १३ मनापर्यवज्ञानस्य १४ केवलज्ञानस्य १५ एतेषां चैव भक्तिवहुमा. नानि ३० एतेषा चैव वर्णसंज्वलनता ४५ स एषोऽनत्याशातनाविनयः इति ।२६॥ मूलभू-चरितविणयतवे पंचविहे, सामाइयचरित्तविणयाइ भेयओ ॥२७॥ छाया-चारित्रविनयतपः पञ्चविधः सामायिकचारित्रविनयादि भेदतः॥२७॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तारत-सप्तविधेषु विनयतपासु यथाक्रमं प्रथम ज्ञानवितयतपः, द्वितीयं दर्शनविनयतपश्च सविशद प्ररूपितम् ; सम्पति-क्रमप्राप्त चारित्रविनयतपः प्ररूपायितुमाह-'चरित्तविणयतवे पंचविहे' इत्यादि। चारित्रविनयतपः-अनेकजन्मसञ्चिताऽष्टविधकर्मचयसंरक्षयाऽयचरणं सर्वविरतिलक्षणं मनः पर्यवज्ञान की और (१५) केवलज्ञान की आशातना न करना (३०) इन पन्द्रह की भक्ति और बहुमान करना और (४५) इन पन्द्रह की वर्णसंज्वलनता अर्थात् विद्यमान गुणों का उत्कीर्तन करना यह पैंतालीस प्रकार का अनस्याशातना विनय है ॥२६॥ 'चारित्त विणयतवे पंचविहे' इत्यादि सूत्रार्थ-चारित्र विनय तप पांच प्रकार का है-सामायिक चारित्रविनय तप इत्यादि ॥२७॥ - तत्त्वार्थदीपिका-सात प्रकार के विनयतपों में से क्रमशः पहले झानविनय तप का और दूसरे दर्शनविनयतप का निरूपण किया गया, अब क्रमागत चारित्रविनयतप की प्ररूपणा करते हैं अनेक जन्मों में संचित आठ प्रकार के कर्मसमूह का क्षय करने જ્ઞાનની (૧૪) મન પર્યાવજ્ઞાનની અને (૧૫) કેવળજ્ઞાનની આશાતના કરવી નહી. આ પંદરની ભક્તિ અને બહુમાન કરવા (૩૦) અને આ પંદરની વર્ણ સંજવલનતા અર્થાત વિદ્યમાન ગુણનું ઉત્કીર્તન કરવું આ પિસ્તાળીસ પ્રકારના અનન્યાશાતના વિનય છે ૨૬ 'चरित्तविणयतवे पंचविहे' छत्याह સુત્રાર્થ–ચારિત્ર વિનય તપ પાંચ પ્રકારના છે–સામાયિક ચારિત્ર વિનય તપ ઈત્યાદિ પરા તત્વાર્થદીપિકા-સાત પ્રકારના વિનયતામાંથી કમશઃ પહેલા જ્ઞાનવિનય તપતું અને બીજા દર્શન વિનય તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે ક્રમગત ચારિત્રવિનય તપની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ– અનેક જન્મોના સંચિત આઠ પ્રકારના કર્મ સમૂહનો ક્ષય કરવા માટે Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ ५.२७ चारित्रविनयतपो निरूपणम् चारित्रं, तत्सम्बन्धीविनयस्तद्रूपं तपः पञ्चविधं भवति, सामायिकादि भेदतः। तथा च-सामायिकचारित्रविनयतपः १ आदिना-छेदोपस्थापनीयचारित्रविनय तपः २ परिहारविशुद्धिकचारित्रविनयत्पः ३ सूक्ष्मसापरायचारित्रविनयतपा४ यथाख्यातचारित्रविनयतपः ५ चेति । तत्र-सर्वजीयेषु रागद्वेषरहितो भावः समः, तस्य समस्य प्रतिक्षणपूर्वापूर्वकर्मनिर्जराहेतुभूतस्य विशुद्धिरूपस्याऽऽयो लाभः समायः समायएव सामायिकं सावद्ययोगविरतिरूपम् सामायिकञ्च तत् चारित्रं सामायिकचारित्रम् , तद्रूपं विनयतपः सामायिकचारित्रविनयतप उच्यते। एवं-छेदेन पूर्वपर्यायच्छेदेन उपस्थाप्यते-आरोप्यते यन्महानतलक्षणं चारित्रं, तच्छेदोपस्थापनीय मुच्यते तद्रूपं चारित्रं छेदोपस्थापनीय के लिए सर्वविरतिरूप क्रियाकलाप चारित्र कहलाता है। चारित्र संबन्धी विनय को चारित्रविनय तप कहते हैं । यह पांच प्रकार का है- (१) सामायिक चारित्र विनय तप (२) छेदोपस्थापनीय चारित्रविनय तप परिहार विशुद्ध चारित्रविनय तप (४) सूक्ष्मलाम्पराय चारित्र विनय तप और (५) यथाख्यातचारित्र विनय तप। समस्त जीवों पर राग-द्वेष रहित मध्यस्थभाव होना 'सम' कहलाता है। प्रतिक्षण अपूर्व कर्मनिर्जरा के कारणभूत एवं विशुद्धि स्वरूप समभाव के आय अर्थात् लाभ को 'समाय' कहते हैं और समाय को ही सामायिक कहते हैं, जिसका आशय है सावध योग को त्याग करना। सामायिक रूप चरित्र सामायिक चारित्र कहलाता है और उसका विनय सामायिक चारित्रविनय तप है । पूर्वपर्याय का छेद करके महाव्रत रूप चारित्र का फिर से आरोपण करना छेदोपस्थापन चारित्र है, સર્વવિરતિ રૂપક્રિયાકલાપ ચારિત્ર કહેવાય છે. ચારિત્ર સંબંધી વિનયને ચારિત્ર વિનય તપ કહે છે, આ પાંચ પ્રકારના છે–(૧) સામાયિક ચારિત્ર વિનય તપ (૨) છેદેપસ્થાપનીયચરિત્ર વિનય તપ (૩) પરિહાર વિશુદ્ધિ ચારિત્ર વિનય તપ (૪) સૂમસામ્પરાય ચારિત્ર વિનય તપ અને (૫) યથા ખ્યાત ચારિત્ર વિનય તપ. સમસ્ત જીવો પ્રત્યે રાગ-દ્વેષ રહિત મધ્યસ્થ ભાવ હે-સમ કહેવાય છે પ્રતિક્ષણ અપૂર્વ-અપૂર્વ કર્મનિર્જરાના કારણભૂત અને વિશુદ્ધિ સ્વરૂપ સમ ભાવના આય અર્થાત લાભને સમાય કહે છે અને સમાયને જ સામાયિક કહે છે જેને ભાવાર્થ છે સાવદ્ય વેગને ત્યાગ કર. સામાયિકરૂપ ચારિત્ર સામાયિક ચારિત્ર કહેવાય છે અને તેનો વિનય સામાયિક ચારિત્ર Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ तरवार्थस चारित्रं तदात्मकं विनयतप श्छेदोपस्थापनीयचारित्रदिनयतपो भवति । एवम्-परिहरणं परिहारस्तपो विशेष स्तेन कर्मनिर्जराल्पा विशुद्धिर्यस्मिन् चारित्रे तत्-परिहारविशुद्धिकं चारित्र, तद्रूपं विनयतपः परिहारविशुद्धिकचारित्रविनयतप उच्यते । एवं-समयेति संसार मनेनेति सम्परायः कपायोदया, सूक्ष्मोलोमांशाऽवशेषः सम्परायो यत्र तत्-सूक्ष्मसम्परायं तद्रूपं यच्चारित्रं तत्सम्बन्धि विनय तपः सूक्ष्मसम्परायचारित्रविनयतप उच्यते । एवं-याथातथयेनाऽभिविधिना च यत् ख्यातं तीर्थकृभिरुपदिष्टं कषायरहितं चारित्रं तत् यथाख्यातचारित्रम् तत्सम्बन्धि विनयतपो यथाख्यातचारित्र विनस्तष उच्यते ॥२७॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व सप्तविधं दिनयतपः मतिपादितम् दन-ज्ञानविनयतप दर्शनविनयतपश्च सविशदं प्ररूपितम् सम्पति-तृतीयं चारित्रचिनयतपः पश्चउसका विनय छेदोपस्थापन चारित्र बिनय तप ललझना चाहिए। परिहार नामक तप जिल चारित्र में विशिष्ट धर्मनिर्जरा के लिए किया जाता है, वह चारित्र परिहारविशुद्धि कहलाता है। उसका विनय परिहारविशुद्धि चारित्र विनय है। जिसमें संज्वलन कषाय का सूक्ष्म . अंश ही शेष रहजाता है वह चारित्र सूक्ष्मतापराय चारित्र कहलाता है। उसका विनथ लूक्ष्मातापरायचारित्र विनय है। तीर्थ कर भगवान् द्वारा उपदिष्ट कषाय रहित चारित्र स्थास्यात्वचारित्र कहलाता है, उसका विनय यथाख्यातचारिन बिनय समझना चाहिए ॥२७॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पहले लात प्रकार के दिनय तप का निरूपण किया गया था। उसमें से ज्ञानविनय और दर्शनविनय नप का विशद् विवेचन किया जा चुका है। अब तीसरे चारिन बिनय तप का प्ररूपण करते हैं--- વિનય તપ છે, પહેલાના પર્યાયોને છેદ કરીને મહાવ્રતરૂપ ચારિત્રનું પુનઃ આરોપણ કરવું છેદપસ્થાપન ચારિત્ર છે તેને વિનય છેદપસ્થાપન ચારિત્ર વિનય તપ સમજવું જોઈએ પરિહાર નામક તપ જે ચારિત્રમાં વિશિષ્ટ કર્મ નિજાને માટે કરવામાં આવે છે તે ચારિત્ર પરિહાર વિશુદ્ધિ ચારિત્ર કહે વાય છે. જેમાં સંજવલન કષાયને સૂક્ષમ અંશ જ શેષ રહી જાય છે. તે ચારિત્ર સુક્ષ્મસામ્પરાય ચારિત્ર કહેવાય છે. તેને વિનય સૂફમસામ્પરાય ચારિત્ર વિનય છે. તીર્થકર ભગવાન દ્વારા ઉપદિષ્ટ કષાય રહિત ચારિત્ર યથાખ્યાતચારિત્ર કહેવાય છે, તેને વિનય યથાખ્યાત ચારિત્રવિનય સમજવું જોઈએ કેરો તત્વાર્થનિર્યુક્તિ–પહેલા સાત પ્રકારના વિનયતાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે તેમાંથી જ્ઞાનવિનય અને દર્શનવિનય તપનું વિશદ વિવેચન કરવામાં Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ तू.२७ चारित्रविनयतपो निरूपणम् ६८५ विधत्वेन प्ररूपयितुमाह-चरित्तविणयतवे पंचविहे, सामाय-चरित्त विणयाइ भेषभो' इति । चारित्रविनयतपः-नानाजन्म सञ्चिताऽष्ट विधर्म चय संक्षेयाय चरणं सर्वविरतिस्वरूप चारित्र तत्सम्बन्धी विनयः चारित्रविनय स्तद्रूपतपः पञ्चविधं भवति । सामायिक-चारित्र-विनयादि भेदतः, तथा चसामायिकचारित्रविनयः १ आदिना-छेदोपस्थापनीयचारित्रविनयः २ परिहार विशुद्धिकचारित्रविनयः ३ सुक्ष्मसम्परायचारित्रविनय: ४ यथाख्यातचारित्रविनय: ५ चेति । तत्र सावधयोगविरतिरूप सामायिकं तल्लक्षणं चारित्र सामायिकचारित्रं तद्रूप बिनयतपः सामाणिकचारित्रविनयतप उच्यते । एवंपूर्वपर्यायच्छेदेनो-पस्थाप्यते-आरोप्यते यन्महात्सलक्षणं चारित्र,-तल-छेदोपस्थापनीयचारित्र तत्सम्बन्धिविनयतपः छेदोषस्थापनीयचारित्रविनयतप उच्यते । एवं-तपोविशेषेण परिहारेण कमनिर्जरारूपा विशुद्धियस्मिन् चारित्रे अनेक जन्मों में संचित आठ प्रकार के कर्म समूह का क्षय करने के लिए जो सर्वविरतिरूप अनुष्ठान किया जाना है, वह चारित्र कहलाता है। चारित्र का विनय चारित्र विनय तप है। इसके भी पांच भेद हैं(१) सामायिक चारित्र विनय (२) छेदोपस्थापनीय चारित्र विनय (३) परिहार विशुद्धि चारित्र विनय (४) सूक्ष्मल्लापराय चारित्र विनय और (५) यथाख्यात चारित्र विनय । इनमें से सावध योग की निवृत्ति को सामायिक चारित्र कहते हैं, उसका विनया सामाशिक चारित्र विनय तप कहलाता है। जो पहाबानरूप चारित्र पूर्व पर्याय का छेदन करके आरोपित किया जाता है वह छेदोपस्थापनीय चारित्र कहलाता है उसका विनय छेदोपस्थापनीय चारिमविनय है। जिस चारित्र में परिहार नामक આવી ગયું. હવે ત્રીજા ચારિત્ર વિનય તપનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ અનેક જન્મમાં સંચિત આઠ પ્રકારના કર્મ સમૂહને ક્ષય કરવાને માટે જે સર્વ વિરતિરૂપ અનુષ્ઠાન કરવામાં આવે છે તે ચારિત્ર કહેવાય છે. ચારિત્રને વિનય ચારિત્ર વિનય તપ છે એના પાંચ ભેદ છે– (૧) સામાયિક ચારિત્ર વિનય (૨) છેદે પસ્થાપનીય ચારિત્ર વિનય (૩) પરિહાર વિશુદ્ધિ ચારિત્ર વિનય (૪) સૂમસામ્પરાય ચારિત્ર વિનય અને (૫) યથાખ્યાત ચારિત્ર વિનય આમાંથી સવઘગની નિવૃત્તિને સામાયિક ચારિત્ર કહે છે, તેને વિનય સામાયિક ચારિત્ર વિનય કહેવાય છે. જે મહા વ્રત રૂપ ચારિત્ર પૂર્વપર્યાયનું છેદન કરીને પુનઃ આપિત કરવામાં આવે છે તે છેદે પસ્થાપનીય ચારિત્ર કહેવાય છે તેને વિનય છે પસ્થાપનીય ચારિત્ર Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ तत्त्वाने तत्परिहारविशुद्धिकं चारित्रं तत्सम्बन्धिविनयरूपः परिहारविशुद्धिक चारित्र विनयतप उच्यते । एवम्-सम्पति संसारे परिभ्रमति अनेनेति सम्परायः कपायादयः सुक्ष्मो लोभाऽवशेषरूपः सपशयो यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायं तद्प यचारित्र तत्सम्बन्धि विनयतपः सूक्ष्मसम्परायचारित्रविनय तपः उच्यते । एवं-याथातथ्येन आ-समन्तात् यत् ख्यातं तीर्थकृभिरुपदिष्टम् कपायवर्जितं चारित्रं तद् यथाख्यातचारित्र तत्सम्बन्धि विनयतपो च्याख्यातचारित्रविनयतप उच्यते ॥ उक्त श्वौपपातिके ३० सुत्रे-'ले किंतं चरित्तविणए ? चरित्तविणए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-सामाइयचरित्तविणए१ छेदोवट्ठावणियचरित्तविणए २ परिहारविलुद्धिथचरितविणए३ सुहमसंपरायचरित्तविणए४ अहक्खाशुचरित्तक्षिणए लेयं चरितविणए' इति अथ कोऽसौ चारित्रविनयः ? तपश्चर्या के द्वारा कर्म निर्जरा रूप विशुद्धि की जाती है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है, उसका विनय परिहारविशुद्धि चारित्र विनय है। जिनके कारण जीव संसार में परिभ्रमण करता है, उन कषायों को सम्पराय कहते हैं। जिस चारित्र की दशा में सम्पराय सूक्ष्म लोमांश के रूप में शेष रह जाता है, उस चारित्र को सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं। सूक्ष्मलाम्पराय चारित्र का विनय सूक्ष्म साम्पराय चारित्र विनय कहलाता है। तीर्थकर भगवान ने यथार्थ रूप से जो चारित्रनिष्कपाय रूप कहा है, यह यथाख्यात चारित्र है। उसका विनय यथाख्यात चारित्राविनय कहलाता है । औपपातिक सूत्र के तीसवें सूत्र में कहा है प्रश्न-चारित्र विलय के कितने भेद हैं ? उत्तर-धारित्र विनय के पांच भेद हैं-(१) सामायिक चारित्र विनय વિનય છે જે ચારિત્રમાં પરિહાર નામક તપશ્ચર્યા દ્વારા કર્મનિર્જરારૂપ વિશુદ્ધિ કરવામાં આવે છે તે પરિહાર વિશુદ્ધ ચારિત્ર કહેવાય છે, તેને વિનય પરિહાર વિશુદ્ધચરિત્ર વિનય છે. જેના કારણે જીવ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે તે કષાયને સમ્પરય કહે છે. જે ચારિત્રની દશામાં સમ્પરાય સૂફમ-લેભાંશના રૂપમાં જ શેષ રહી જાય છે તે ચારિત્રને સૂમસાંમ્પરાય કહે છે. સૂકમસામ્પરાય ચારિત્રને વિનય સૂક્ષ્મસમ્પરાય ચારિત્ર વિનય કહેવાય છે. તીર્થકર ભગવાને યથાર્થ રૂપથી જે ચારિત્ર વિનય નિષ્કષાય રૂપ કહેલ છે તે યથાખ્યાત ચારિત્ર છે. તેને વિનય યથાખ્યાત ચારિત્ર વિનય કહેવાય છે. પપાતિકસૂત્રનાં ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહેલ છે-- પ્રશ્ન- ચારિત્ર વિનયના કેટલાં ભેદ છે ? ઉત્તર–ચારિત્ર વિનયના પાંચ ભેદ છે-(૧) સામાયિકારિત્ર વિનય Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ८ सू.२८ मनोवचः काविन यतपो निरूपणम् ६८७ चारित्रविनयः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा सामायिकचारित्र धिनयः १ छेदोपस्थाप. नीयचारित्रविनयः २ परिहारविशुद्धिकचारित्रविनयः ३ सूक्ष्मसम्मराय चारित्र. विनयः ४ यथाख्यातचारित्रविनयः ५ स एष चारित्रविनयः इति ॥२७॥ मूलम्-मणवइकायविणयतवे पच्चेयं दुविहे, पसत्थापलत्थमणवइकायविणयाइ भेयओ ॥२८॥ छाया-मनोवचः कायविनयतपः प्रत्येकं द्विविधम्, प्रशस्ताप्रशस्त मनोवचः कायविनयादि भेदतः ॥२८॥ ___ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् क्रमागतं चारित्रविनयतपः पञ्चविधत्वेन प्ररूपितम्, सम्पति-क्रमप्राप्तं मनोवचः कायविनयतपः प्रत्येकं द्वैविध्येन प्ररूप. यितुमाह-'मणवकायविणयतवे' इत्यादि । मनोवचः कायविनयतपा-मनो. (२) छेदो स्थापनीय चारित्र विनय (३) परिहार विशुद्धि चारित्र विनय (४) सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र विनय और (५) यथाख्यात चारित्र विनय । यह चारित्र विनय के पाँच भेद हैं॥२७॥ 'मणवहकायविणयतवे' इत्यादि । सूत्रार्थ-प्रशस्त और अप्रशस्त मन, वचन, काय विनय के भेद से मनोविनय, वचन विनय और कायविनय के दो-दो भेद हैं ॥२८॥ ___ तत्वार्थदीपिका-इससे पूर्व चारित्र विनय के पांच भेदों का निरूपण किया गया, अब क्रमप्राप्त मन-वचन-शापविनय में से प्रत्येक के दोदो भेदों का प्ररूपण करते हैं मनो विनय तप, बचन बिनय तप और काय विनय तप में से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-प्रशस्त मनो विनय तप और अप्रशस्त मनो (२) छोपस्थानीय यात्रि विनय (3) परिक्षा विशुद्धयात्रि विनय (४) સૂમસામ્પરાય ચારિત્ર વિનય અને (૫) યથાખ્યાત ચારિત્ર વિનય આ ચારિત્ર વિનયના પાંચ ભેદ છે. પરા 'मणवइकायविणयतवे' त्याह સવાથ–પ્રશસ્ત અને અપ્રશસ્ત મન વચન, કાયવિનયના ભેદથી મનેવિનય, વચનવિનય અને કાયવિનયના બબ્બે ભેદ છે. પર ૮ તત્ત્વાથદીપિકા–આની પહેલાં ચારિત્રવિનયના પાંચ ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે કમ પ્રાપ્ત મનવચન-કાયવિનયમાંથી પ્રત્યેકના બે-બે ભેદનું પ્રરૂપણ કરી છીએ મને વિનય તપ. વચનવિનતપ અને કાયવિનય તપમાંથી પ્રત્યેકના બે બે ભેદ છે–પ્રશસ્તમને વિનયતપ અને અપ્રશસ્તમને વિનય તપ, પ્રશસ્ત વચન વિનય --- assem Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ६२८ तत्त्वार्थ विनयतपः १ पचोबिनयतपः २ कायविनयतपः ३ च प्रत्येक विविधं भवति । तद्यथा-प्रशस्तामशस्त मनोवचः कायत्रिनयादि भेदतः, तथा च-प्रशस्तमनोविनय. तपः ३ अप्रशस्त मनोविनयतपः२ प्रशस्वचोविनयतपः३ अमगावचोविनयतपः ४ प्रशस्तकायविनयतपः ५ अप्रशस्त सायविन्यपः ६ चेत्येवं प्रशस्तासशस्त भेदेन प्रत्येकं द्वविध्यात् मनोवाकायदिनयतपः पदविध सम्पयने । तत्र-प्रशस्तम् अवयवजितं यन्मनोऽन्ताकरणम् तत्सम्बन्धि विनयतपः प्रागनगनोविनयतप उच्यते । एम्-अपशस्तं नाक्य-समापं यन्मनाऽन्तःकरण तन्नम्बन्धि विनयतपो-ऽपशस्त मनोविनय तप उच्यते । एवं-प्रशस्ताप्रशस्त मनोविनयतपः, प्रशस्ताप्रशस्त कायविनरतश्चापि स्वयमूहनीयम् ।।२८॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्वोक्तरीत्या पञ्चविध चास्त्रिग्नियतपः रूपितम्, सम्प्रति-क्रममाप्तं मनोवच:-कारविनयतपः प्रत्येकं द्वैविध्यन मरूपयितुमाहविनय तप, प्रशस्त बचन दिनय तप और अमानवचन विनय तप, प्रशस्त काय चिनय तप और अप्रशस्त साय विनय तप। इस तरह प्रत्येक के दो-दो भेद होने से तीनों के मिलकर छह भेद होते है। प्रशस्त मन अर्थात् निर्मल अन्ताकरण संबंधी विनय तप को प्रशस्त मनो. विनय तप कहते हैं। इसी प्रकार अप्रास्त अर्थात् पापयुक्त मन अर्थात् अन्तःकरण संबंधी घिनय तप को अप्रशस्त मनोविनय तप करते हैं। इसी भांति प्रशस्त और अप्रशस्त बचन और काय संबंधी विनयों का भी स्वरूप समझ लेना चाहिए ॥२८॥ तत्वार्थनियुक्ति-पांच प्रकार के चारित्र विनय तप का निरूपण किया जा चुका, अप क्रमप्राप्त मनोविनय, बचल धिनय और काचविनय तप के प्रत्येक के दो-दो भेदों का निरूपण करते हैं:તપ અને અપ્રશસ્તવચન વિનય તપ, પ્રશસ્ત કાય વિનય તપ અને અપ્રશસ્ત કાયવિનય તપ આ રીતે પ્રત્યેકના બે-બે ભેદ હોવાથી ત્રણેના મળીને છ ભેદ થાય છે પ્રશસ્ત મન અર્થાત્ નિર્મળ અન્તઃ કરણ સંબંધી વિનય તપ ને પ્રશસ્તમને વિનય તપ કહે છે એવી જ રીતે અપ્રશસ્ત અર્થાત્ પાપ યુક્ત મન અર્થાત્ અન્તઃ કરણ સંબંધી વિનય તપને અપ્રશસ્તમને વિનય त५ । छ, તેવીજ રીતે પ્રશસ્ત અને અપ્રશસ્ત વચન અને કાયસંબંધી વિનયનું પણ સ્વરૂપ સમજી લેવું જોઈએ. ૨૮ પાંચ પ્રકારના ચારિત્રવિનય તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. હવે ક્રમ પ્રાપ્ત મનેવિનય વચનવિનય અને કાયવિનય તપના પ્રત્યેકના બે બે ભેદનું નિરૂપણ કરીએ છીએ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ १.२८ मनोवच: कायविनयतपो निरूपणम् ६८९ 'मणवइकारविणयतवे पच्चेयं दुधिहे, पसस्थापसत्थमणवहकाय विणयाइ भेयओ' इति । मनोवच:-कायविनयतपः-मनोविनयतपः, वचोविनयतपः, कायविनयतपश्च प्रत्येक द्विविधं भवति, तद्यथा-प्रशस्तापशस्तमनोवाकायविनयादि भेदतः। तथा च-मशरतमनोविनयताः१ अप्रशस्तमनोविनयतपः २ प्रशस्तवचोविनयतपः३ अप्रशस्तच्चो दिनयतप४ प्रशस्तकायविनयतपः५ अप्रशस्तकायविनयतपः ६ चैत्येवं प्रत्येकं प्रस्तावशस्तभेदेन द्वैविध्याद षड्विधं तावत् मनोबचाकायविनयतपो भवतीतिभावः। तत्र प्रशस्तम्-अवयवर्जितं पापरहितं यन्मनस्तत्सम्बन्धि विलयतपः प्रशस्तमनोविनयसपः उच्यते । एवम अप्रशस्तं सावधं सपा-माणातिपाताधारस्पक्रियायुक्त कर्कशता-टुकता, निष्ठुरता-परुषतादि सहितञ्च यन्मनोऽन्तःकरणं तताम्बन्धि विनयतपोऽप्रशस्तमनोविनयतप उच्यते । एवम्-प्रशस्वामशस्तचोविनयतशः, प्रशस्ताऽप्रशस्तकायविनयतपश्चाऽप्युक्तरीत्याऽछगन्तव्यम् ।। उक्तश्चौषपातिके ३० मूत्रे-से कितअणविणए ? मणविणए मनो धिनय रूप के, बचनविनय तप के और काबिनय रूप के दो दो भेद है। वे इस प्रकार है-प्रशस्त बचन विनय तप और अप्रशस्त मनो विनय लप, प्रशस्त मनोविनय तप और अप्रशस्त बचन विनय तप, प्रशस्त काय बिनय तष और अप्रशस्ल काय बिनय तए । तीनों के दो दो भेद होने से लब मिलकर छह भेद होते हैं । प्रशस्त अर्थात् पाप रहित मन संबंधी विलय को प्रशस्त मनोविनय तप कहते हैं। अप्र. शस्त अर्थात् पापयुक्त-प्राणातिपात आदि से युक्त, कर्कशता, कटुकता, निष्ठुरता,परुषता आदि लहित जो अन्तःकरण है, उसका विनय अप्रशस्त मनोविनय कहलाता है। प्रशस्त और अप्रशस्त वचन विनय तथा कार्यविनय भी इस प्रकार समझ लेना चाहिए। औपपातिक सूत्र के तीसवें सत्र में कहा है। મને વિનય તપના વચનવિનય તપના અને કાયવિનય તપના બબ્બે ભેદ ' છે. જે આ પ્રમાણે છે.–પ્રશસ્તમને વિનય તપ અને અપ્રશસ્તમાવિનય તપ પ્રશસ્તવચનવિનયતપ અને અપ્રશસ્તવચનવિનય તપ, પ્રશસ્ત કાયવિનય તપ અને અપ્રશસ્ત કાયવિનય તપ. ત્રણેના બબ્બે ભેદ હેવાથી બધા મળીને ૬ ભેદ થાય છે. પ્રશસ્ત અર્થાત પાપરહિત મનસંબંધી વિનયને પ્રશસ્ત મનોવિનય તપ કહે છે. અપ્રશસ્ત અર્થાત્ પાપયુક્ત પ્રાણાતિપાત વગેરેથી યુક્ત, કર્કષતા કટુકતા નિષ્ફરતા, પરૂષતા આદિ સહિત જે અંતઃકરણ છે. તેને વિનય અપ્રશસ્ત મને વિનય કહેવાય છે. પ્રશસ્ત અને અપ્રશસ્ત વચન વિનય તથા કાયવિનય પણ આ પ્રમાણે સમજી લેવા જોઈએ. ઔયપાતિક સૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે त०८७ - Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वार्थस्त्र दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पसत्यमणविणए १ अप्पसस्थमणविणए २, से किं तं अप्पसत्यमणविणए ? अपरमत्थ मणविणए-जे य मणे सावज्जे १ सकिरिए २ सकको-३ कडुए ४ णिहुरे-५ फरूसे-६ अण्हयरे७ छेचकरे-८ भेषकरे९ परितावणकरे १० उदृक्षणकरे-११ भूओवधाइए१२ तहप्पगारं मणो णो पहारेजा, सेतं अप्पलत्थमणविणए, से किं तं पसत्थमणविणए ? पसत्यमणविणए तं चेच पसत्थं णेघवं, एवं चेव वइविणओवि एएहि पएहिं चेव णेयधो, से तं वामिणए, से किं तं कायविणए ? कायविणए दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा-पलत्यकाविणए ? अपसस्थकाविणए-२ से कितं अपसस्थायविणए-३ अप्पसत्यकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते तं जहा-अजाउत्तं गमणे-१ अणाउत्तं ठाणे-२ अणाउत्तं निसीयणे-३ अणान्तं तुघटणे-४ आजाउत्तं उल्लंघणे-५ अणाउत्तं पल्लंघणे-६ अणाउत सब्धिदियकायजोगजुजणया-७ से तं अप्पसस्थकायविणए, पसत्थकायविणए एवं वेव परस्थं भाणियचं, से तं पसत्थ काविणए, से तं कायविणए" इति । ___ अथकोऽसौ मनोविनयः १ मनोविनयो द्विविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा प्रशस्तमनोविनयः अप्रशस्तमनोविनयः२ अथ कोऽसौ अप्रशस्तमनोविनय: ३ अप्रशस्तमनोविनयः यच्च मनः सावधं-सक्रियं-स कर्कशं-कटुकं-निष्ठुरं-परुपम्-आस्रवकरं प्रश्न-मनोविनय के कितने भेद हैं ? उत्तर-मनोविनय के दो भेद हैं-प्रशस्त मनोविनय और अप्रशस्त मनोविनय। प्रश्न-अप्रशस्त मनोविनय किसे कहते हैं ? उत्तर-जो मन पापयुक्त है, क्रियायुक्त है, कर्कश है, कटुक है, निष्ठुर है, परुष है आस्रवजनक है, छेदकारी है, भेदकारी है, परितापकारी है, प्रश्न--मनोविनयना डेटा ले छ ? ઉત્તમને વિનયના બે ભેદ છે. પ્રશસ્ત મનેવિનય અને અપ્રશસ્તમને વિનય .', प्रश्न--प्रशस्तभनविनय आने छ ? " , उत्त२-२ भन पापयुक्त छ, ठियायुत छ, ४४पछे, ४९४ छ, नि०२ छ, ભરૂષ છે, આવજનક છે, છેદકારી છે, ભેદકારી છે, પરિતાપકારી છે, ઉપદ્રવકારી છે, Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.. सू.२८ मनोवचः कायविनयंतपो निरूपणम् ६६५ छेदकर-भेदकर-परितापनकरम्-उपद्गवणकर-भूतोपधातिकम्, तथाप्रकारं मनो न मधारयेत, स एषोऽप्रशस्तमनोविनयः। अथ कोऽसौ प्रशस्वमनोविनयः ? प्रशस्तमनोविनयः तच्चैव प्रशस्तं ज्ञातव्यम्, एवञ्चैव वचोविनयोऽपि एतैः पदैश्चैव ज्ञातव्यः स एव वचोबिनयः, अथ कोऽसौ कायविनयः? कायविनयो द्विविधः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रशस्तकायविनयः अनशस्तकायविनयः, अथ कोऽसौ अप्रशस्तकायविनयः? अप्रशस्तकायविनयः सप्तविधः मज्ञप्तः, तद्यथा-अनायुक्तं गमनम्-१ अनायुक्तं स्थानम् २ अनायुक्तं निषदनम्-३ अनायुक्त स्वरवर्तनम् ४ अनायुक्तम् उल्लंघनम्५ उपद्रवकारी है, भूतों का घालक है, ऐसे मन का व्यापार न होने देना अप्रशस्त मनोविनय है। प्रश्न--प्रशस्तमनोधिनय किसे कहते हैं ? उत्तर--पूर्वोक्त अप्रशस्त मन से विपरीत अर्थात् निरवद्य, क्रिया हीन आदि मन का व्यापार होना प्रशस्तमनोविनय है। पूर्वोक्त पदों के अनुसार ही वचनविनय भी समझ लेना चाहिए केवल 'मन' के स्थान पर 'वचन' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। प्रश्न--कापविनय किसे कहते हैं ? उत्तर--काविनय दो प्रकार का है-प्रशस्तकायविनय और अप्र. शस्तकायविनय । प्रश्न-अप्रशस्तकाविनय किले कहते हैं ? उत्तर---अप्रशस्तकाविनय साद प्रकार का है, यथा-(१) उपयोग शून्य होकर चलना (२) उपयोगहीन होकर खडा होना (३) उपयोगरहित પ્રાણીઓનું ઘાતક છે. એવા મનને વ્યાપાર ન થવા દેવે અપ્રશસ્તમને વિનય છે. प्रश्न--प्रशस्तमनाविनय आने छ ? ઉત્તર--પૂર્વોકત અપ્રશસ્ત મનથી વિપરીત અર્થાત્ નિરવા, ક્રિયારહિત આદિ મનને વ્યાપાર હવે પ્રશસ્તમને વિનય છે. પૂર્વોક્ત પદ અનુસાર જ વચનવિનય પણ સમજી લેવું જોઈએ. માત્ર મનની જગ્યાએ વચન શબ્દને પ્રગ કર જોઈએ. પ્રશ્ન-કાયવિનય કેને કહે છે ? ઉત્તર--કાયનિય બે પ્રકારના છે–પ્રશસ્તકાયવિનય અને અપ્રશસ્ત કાયવિનય प्र--प्रशस्तयविनय ने छ ? उत्तर--प्रशस्तयविनय सात २॥ छ. म -(१) अपयशून्य २४. यात (२) उपयोगसीन GL 2 (3) Sपयोगरहित मम Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वात अनायुक्तं प्रसनम् ६ अनायुक्तं सर्वोन्द्रियकाययोगयोजनता ७ स एपोऽप्रशस्त कायविनयः प्रशस्तकायविनयः एवञ्चैव प्रशस्तं भाणितव्यम्, स एष भशस्तकायविनयः, स एप कायविनयः इति ।।२८॥ मूलम्-लोगोवयारविणयतवे सत्तविहे, अब्भासवत्तियाइ भेयओ ॥२९॥ ' छाया-लोकोपचारविनयतपः सप्तविधम्, अभ्यासवृत्तितादि भेदतः ॥२९॥ ' तत्वार्थदीपिका-पूर्व - तावत्-सप्तविधेषु विनयतपःसु मनोवचः काय विनयतपः सविस्तरं प्ररूपितम्, सम्पति-लोकोपचारविनयतयः सप्तविधत्वेन प्ररूपयितुमाह-'लोगोश्यारविणवतवे' इत्यादि। लोकोपचारविनयतपःलोकानामुपचरणं लोकोपचार स्तरसम्बन्धि विनयत्पो लोकव्यवहारसाधकविनय बैठना (४) उपयोगरहित लेटना (५) उपयोगरहित होकर उल्लंघन करना -एक वार लांघना (६) उपयोगरहित होकर घार-चार लांघना और (७) उपयोग रहित होकर सब इन्द्रियों का काययोग का व्यापार करना, यह अप्रशस्तकायविनय है । इससे विपरीत प्रशस्तकायविनय कहलाता है। _ 'लोगोवयारक्षिणयतवे लत्तविहे' इत्यादि ' सूनार्थ-लोकोपचार विनय तप सात प्रकार का है-निकट में रहना आदि ॥२९॥ तत्वार्थदीपिका-सात प्रकार के विनय में से मन-वचन-काय विनय तप का विस्तार पूर्वक विवेचन किया जा चुका, अब लोकोपचार विनय तप के सात भेदों का प्रतिपादन करते हैं__लोक व्यवहार का साधक विनय लोकोपचार विनय कहलाता है। (૪) ઉપગરહિત સુવું (૫) ઉપગરહિત થઈને ઉલ્લંઘન કરવું એકવાર લાંઘવું (૯) ઉપોગરહિત થઈને વારંવાર લાંઘવુ અને (૭) ઉપગરહિત થઈને બધી પ્રક્રિયાનો અને કાયદો વ્યાપાર કરો. આ અપ્રશસ્તકા વિનય છે, આથી વિપરીત પ્રશસ્તકા વિનય કહેવાય છે. જે ૨૮ છે. 'लोगोवयारविणयतवे सत्तविहे' त्या સવાથ––લેકે પચારવિનય સાત પ્રકારને છે–નજીકમાં રહેવું વગેરે પરલ તત્વાર્થદીપિકા--સાત પ્રકારના વિનય તપમાંથી મન-વચન-કાયવિનય તપનું વિસ્તાર પૂર્વક વિવેચન કરવામાં આવ્યું. હવે લેપચાર વિનય તપના સાત ભેદેનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ લોકવ્યવહારનો સાધક વિનય લેકેપચારવિનય તપ કહેવાય છે. તે સાત Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.२९ लोकोपचारविनयतपो निरूपणम् ६९३ तपः सप्तविधं भवति, अभ्यासयत्तितादि भेदतः । तथा च-अभ्यासवृत्तिताविनयतपः १ आदिना परच्छन्दानुवर्तिताविनयतपः २ कार्यार्थ शुश्रूषाविनयतपः ३ कृतप्रतिक्रियाविनयतपः ४ आर्तगवेषणताविनश्तपः ५ देशकालपता विनयतपः ६ सर्वाऽर्थेषु-अप्रतिलोमता विनयतप ७ श्चेति । तत्र-कलाऽऽचार्यादीनां मधुरवचनादिरूप मभ्यासवृत्तिता दिनयतप उच्यते १ पराभिमायानुवर्तनशीलतारूप परच्छन्दानुवर्तितापिनयतप उच्यते २ विद्यादि प्राप्त्यर्थ भक्तपानाधानयन द्वारा शुश्रूषाकरणं कार्यहेतुशुश्रूषाविनयतप उच्यते३ भक्तादिनोपचारे कृते सति प्रसन्नाः सन्तो गुरवो मे श्रुतदानरूपां प्रतिक्रिया प्रत्युपकारं करिष्यन्तीति बुद्धया गुादीनां शुश्रूपणरूप प्रतिक्रियाविनयतप उच्यते ४ आर्तस्थ-पीडितस्य गवेषणता, औषध वह सात प्रकार का है-(१) अभ्यासवृत्तिता (२) एरच्छन्दानुवर्तिता (३) (३) कार्यार्थ शुश्रूषा (४) कृल प्रतिक्रिय (५) आर्तगवेषणता (६) देशकालज्ञता और (७) सर्व पदार्थों में अप्रतिलोभिता । इनमें से (१) ज्ञानाचार्य (ज्ञान की शिक्षा देनेवाले शिक्षक) के प्रति मधुर वचन आदि का प्रयोग करना अघालवृत्तिता विनय तप कहलाता है। (२) दुसरे के अभिप्राय को तोडकर तदनुसार वर्ताव करना परच्छन्दानुवतिता दिनय तप हैं। (३) ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए आहार-पानी आदि लाफार लेवा करना कार्य हेतु शुश्रूषाविनय तप कहलाता है। (४) आहार पानी बारा सेवा करने पर गुरू प्रशन्न होकर मुझे अन्न का दान देकर प्रत्युपकार करेंगे, ऐसे अभिमाय से गुरु आदि की शुभषा करना कृनप्रतिनिया विनय वप है। (५) रोगी को औषध मेष आदि देकर उसका उपकार करना आर्तगवे. रन छ-(१) मक्यासवृत्तिता (२) ५२७ नुवृत्तिना (3) आयथि शुश्रूषा (४) कृतप्रतिष्य (५) मात गवेषात(6) Aana मने (७) सपहाभां અપ્રતિભતા આમાંથી (૨) જ્ઞાનાચાર્ય (જ્ઞાનને બોધ આપનાર શિક્ષકો ની પ્રત્યે મધુર વચન વગેરેને પ્રવેગ કરો અભ્યાસવૃત્તિતા વિનયતપ કહેવાય છે. (૨) બીજાના અભિપ્રાયને સમજીને તદ્દનુસાર વર્તાવ કરે પરશૃંદાનુવત્તિતા વિનયતા છે. (૩) જ્ઞાન વગેરેની પ્રાપ્તિ માટે આહારપાણી વગેરે લાવીને સેવા કરવી કાર્ય હેતુ થષાવિનય તપ કહેવાય છે. (૪) આહારપાણી દ્વારા સેવા કરવાથી ગુરૂ પ્રસન્ન થઈને મને શ્રુત દાન દઈને પ્રત્યુપકાર કરશે એવા આશયથી ગુરૂ વગેરેની શુશ્રષા કરવી કૃતપ્રતિક્રિયા વિનયતા છે. (૫) રેગીને ઔષધ ભેષજ વગેરે આપીને તેમને ઉપકાર કર આતંગવેષતા Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवार भैषज्यादिना दुःखितस्योपकाररूपा तत्करणम् आतंगवेषणता विनयतप उच्यते५ देशकालोचिनार्थसम्पादनरूप देशकालज्ञता विनयतप उच्यते ६ सर्वप्रयोजनेध्वानुकूल्यरूपं सर्वार्थपु-अप्रतिलोमता विनयतपो भवति ॥ २९॥ तत्यार्थनियुक्ति:-पूर्वोक्तरीत्यासप्रविधविनयतपासु यथाक्रममनोवचः काय दिनयतपः सविस्तर प्ररूपितम्, सम्प्रति-सप्तमं लोकोपचारदिनयतपः सप्तविधत्वेन प्ररूपयितुमाह--'लोगोषमाक्षिणपतये सत्तविहे अभासवत्तियाइभेयो-' इति । लोकोप वारविनयतपः-लोकव्यवहारसाधकविनयतपः सप्तविधं. भवति, अध्यात्तिवादिभेदतः । तथाच-अभ्यासवृत्तितापिनयतपः-परच्छन्दानुः वर्तितापिनमतपः-२ कार्यमाप्त्यर्थ शुश्रूपादिकरणविनयतपः-३ कृतप्रतिक्रियावि. नयतपा-४ आवेगवेषणताबिनयतपः -५ देशकालज्ञताविनयतपः-६ सर्वायेषु षणता विनय तप है । (६) देश और काल के अनुरूप अर्थ सम्पादन धरनो-कार्य करना देशकालज्ञता विनय तप है। (७) समस्त प्रयोजनों में अनुकूलता अप्रतिलोभता विनय तप है ॥२९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-सात प्रकार के चिन तप में से क्रमानुसार मन बचन कापविनय तप का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया, अब सातवें लोकोपचार विनय तप के सात भेदों का प्रतिपादन करते हैं. लोक व्यवहार साधक तप लोकोपचार विनय तप कहलाता है। अभ्यास वृत्तिता आदि के भेद से उसके सात भेद हैं-(१) अभ्यास वृत्तिता विनय तप (२) परच्छन्दानु वर्तिता विनय तप (३) शुश्रूषादि कारविनय रूप (४) कृमप्रतिक्रिया विनय तप (५) आर्तगवेषणता विनय तप (६) देशलालज्ञता विनय तप और (७) अप्रलिलोभता विनय तप । વિનયતપ છે. (૬) દેશ અને કાળને અનુરૂપ અર્થ સંપાદન કરવો-કાર્ય કરવું દેશકાલસતા વિનતપ છે. () સમસ્તપ્રજનેમાં અનુકૂળતા, અપ્રતિભતા વિનય તપ છે કે ર૯ | તત્વાર્થનિર્યુકિત--સાત પ્રકારના વિનય તપમાંથી કમાનુસાર મન વચન કયવિનય તપનું સવિસ્તર નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે સાતમા લેકે પચાર વિનય તપના સાત ભેદોનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ લેકવ્યવહાર સાધક તપ કેપચારવિનય તપ કહેવાય છે. અભ્યાસવૃત્તિતા આદિના ભેદથી તેના સાત ભેદ છે-(૧) અભ્યાસવૃત્તિતાવિનય ત૫ (૨) પરચ્છન્દા તુવૃત્તિતાવિનય તય (૩) શુશ્રુષા આદિકરણવિનય ત૫ (૪) કૃતપ્રતિક્રિયાવિનય त५ (५) मात्शषता विनय त५ (6) Asiaविनय त५ भने (७) Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.८ .२९ लोकोपचार विनयतपो निरूपणय ६९५ अप्रतिलोमताविनयतपः - ७ इत्येवं सप्तविध लोकोपचारविनयतपो भवतीतिभावः । तत्र - लोकानामुपचरणं लोकोपचारस्तम्बन्धिविनयरूपो लोकोपचार विनयतपो बोध्यम् । तत्र अभ्यासवृचिता-कलाचार्यादीनां मधुर भाषणरूपा तद्रूपं विनयतपोSभ्यासवृत्तितादिनयतप उच्यते - ? परच्छन्दानुवर्त्तिसा तावत्-पराभिमानुवर्तनशीलता तद्रूपं तपः परच्छन्दातुवचिदातप उच्यते-२ विद्यादिप्राप्तिनिमित्तं गुर्दा - दीनां श्राकरणम्, कार्यसम्पातिहेतुक शुश्रूषा करण विनयपो स३ि भक्तपानादिनोपचारे कृते सति गुरवः प्रसन्नाः सन्नो में शुनदानरूपां प्रतिक्रियां प्रत्युपकारं करिष्यन्तीति बुद्धया गुरूणां शुश्रूपाकरणरूपं कृतमविक्रियाविनयतपः उच्यते-४ आर्तस्य - पीडितस्यगवेषणता औषधोपचारादिना दुःखितस्योपकरणं तद्रूपम् यह सात प्रकार का लोकोपचार विनय तप है । लोगों का उपचार करना लोकोपचार कहलाता है । लोकोपचार संबंधी नियत को लोकोपचार विनय तप कहते हैं। उसके भेद का स्वरूप इस प्रकार है- ( १ ) ज्ञानाचार्य आदि का मधुर भाषण अभ्यास वृत्तितानिय तप कहलाता है । (२) दूसरे के अभिप्राय को ताड कर तदनुसार कार्य करना परच्छन्दानुवर्तिता विनय तप है । (३) विद्या आदि की प्राप्ति निमित्त गुरु आदि की शुश्रूषा करना कार्यलम्प्राप्ति हेतु शुश्रूषाकरण विनय तप कहलाता है । (४) आहार पानी आदि के द्वारा उपचार करने से प्रसन्न होकर गुरु मुझे श्रुत का दान रूप प्रत्युपकार करेंगे, ऐसे बुद्धि से गुरु की शुश्रूषा करना कृमप्रतिक्रिया विनय तप कहलाता है । (५) जो रुग्ण है उसके लिए औषध भेषज ला देना, दुःखी का उपचार करना आसंगवेषणता विनय तप है । (६) અપ્રતિલાલતાવિનય તપ આ સાત પ્રકારના લેાકેાપચાર વિનય તપ છે. લાકેના ઉપચાર કરવા લાકે પચાર કહેવાય છે. લેાકેાપચાર સ'. ધી વિનય તપને લેાકેાચાર (વનય તપ કહેવાય છે. તેના ભેદોનુ સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે–(૧) જ્ઞાનાચાય આદિના મધુરભાષણુ અભ્યાસવૃત્તિતા વિનય તપ કહેવાય છે. (૨) ખીજાના અભિપ્રાયને પામી જઈને તનુસાર કર્મ કરવું પરચ્છન્દાનુવતિ તાવિનય તપ છે (૩) વિદ્યા આદિની પ્રાપ્તિના નિમિત્તથી ગુરૂ આદિની શુશ્રષા કરવી કાર્ય સમ્પ્રાપ્તિહતુક શુશ્રષાકરણવિનય તપ કહેવાય છે (૪) આહાર-પાણી વગેરે દ્વારા ઉપચાર કરવાથી પ્રસન્ન થઈને ગુરૂ મને શ્રુતના દાન રૂપ પ્રત્યુપકાર કરશે એવી બુદ્ધિથી ગુરૂની શુશ્રૂષા કૃતપ્રતિક્રિયા વિનય તપ કહેવાય છે. (૫) જે રાગી છે તેને માટે ઔષધ-ભૈષજ લાવી આપવા હુઃખીના Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - नयतप उच्यत पालिके ३० जहा तरवार्थसत्र आर्तगवेपणतापिनयतपो भवति-५ देशकालोचितार्थ सम्पादनरूप देशकालज्ञताचिनयतप उच्यते ६ सर्वपयोजनेषु आनुकूल्यं सर्वार्थेषु अप्रतिलोमताविनयल्प-७ श्वोच्यते ॥ उस्तञ्चौयपातिके ३० सूत्रे-"सिं तं लोगोश्यारविणए-? लोगोवधारविनए सत्तविहे पण्णत्त, तं जहा-भानपरियं १ परच्छं. दानुत्तियं-२ वाजहेलो ३कयपड़िकिरिया-४ अत्तावेलणया-५ देसकालण्णुया-समडेमु अपडिलोलचा-७ से तं लोगोक्यारविणए से तं विणए-" इति । अथ कोऽसौ लोकोपचारनिलयः ? लोकोपचारविनयः सप्तविधः प्रज्ञतः-अभ्यासवृत्तिता-१ परच्छन्दार गिता २ कार्य हेतु (शुश्रूषा) ३ कृतप्रतिक्रिया-४ आर्तगवेपणता-६ देशकालज्ञता-६ सार्थेषु अतिलोमवा-७ स एप लोकोपचारविनयः स एष विनय इति ॥२९।। मूलम्-विउलगे तबे दुविहे, दवसावभेयओ ॥३०॥ छाया--"युत्सर्गतपो विविधम्, द्रव्यभावभेदत:-" ॥३०॥ देश और काल के अनुरूप अर्थसम्पादन करना देश कालज्ञता विनय तप कहलाता है। (७) लय प्रयोजनों में अनुकूल होना अप्रतिलोभता विनय तप है । औपतिपातिक सूत्र के तीसवें सून में कहा है प्रश्न-लोकोपचार विनय के कितने भेद हैं ? । उत्तर-लोकोपचार बिनय के सात भेद है, यथा-(१) अभ्यास वृत्तिता (२) परच्छन्दानुत्तिना (३) कार्य हेतुशुश्रूषा (४) कृतप्रतिक्रिया (५) आतावेषगता (६) देशकालज्ञता और (७) सार्थों में अप्रतिलो. भता। यह सच लोकोपचार कहलाता है ॥२९॥ ___विस्मरगे तो दुम्बिहे उत्यादि। ઉપકાર કરે આર્નોગવેષણતાવિનય તપ છે. (૬) દેશ અને કાળને અનુરૂપ અર્થ સમ્પાદન કરવું દેશકાલજ્ઞતા વિનય તપ કહેવાય છે (૭) બધા પ્રજમાં અનકળતા હોવી અપ્રતિભતા વિનય તપ છે. પપાતિક સૂત્રની ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે પ્રશ્ન- લેકેપચાર વિનયના કેટલા ભેદ છે? ઉત્તર–લેકે પચાર વિનયના સાત ભેદ છે જેવાકે-(૧) અભ્યાસવૃત્તિતા (२) ५२२७-हानुवत्तिता (3) ४ तुशुश्रूषा (४) कृतप्रतिष्ठिया (4) माताવેષણતા (૬) દેશકાલજ્ઞતા અને (૭) સવર્થિક અપ્રતિભતા. આ બધાં લોકપચારવિનય કહેવાય છે. | ૨૯ | 'विउसग्गे तवे दुविहे' त्या विनय तप है। आपके कितने भेदही -(१) अभ्यास Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका स.८.३० आभ्यन्तरतवसो व्युत्सर्गाज्यस्य नि० ६९७ तत्व दीपिका- पूर्व लापद्-सप्तमाध्याये चैयाकृत्य-स्वाध्यायो-ध्यानं चाऽऽभ्यन्तरतपः सविस्तर प्ररूपित, साम्प्रतं पाठस्याभ्यन्तरतपसी व्युत्सर्गरूपस्य विशेषतः प्ररूपणं कर्तुपाह-विस्मरगे तो दुविहे, दव्यभावभेयओ-' इति । व्युत्सर्ग:-दि-विशेषेण उल्उत्कृष्टभावनया सर्गः-त्यागो व्युत्सर्गः, एतद्रूपं तपो व्युत्सर्गसप उच्यते । तद्-द्रव्यसोभावतश्चेति द्विविधम्, तत्र-द्रव्यव्युत्सग:वाह्य वस्तूनां त्यागः । भावव्युत्सर्गः आभ्यन्तरवस्तुनस्त्याग:- उक्तश्चौपपातिके ३० सूत्रे-लतिं विउ ? बिउल्लग्गे दुबिहे पन्नत्ते, तं जहा-दव्य. विउस्लो१ भावविहलोर ५-" इति, अथ कोऽसौ व्युत्सर्गः ? व्यु. त्सर्गों द्विविधा प्राप्तः, तद्यथा-पव्यु-सर्ग:-१ भावव्युत्सर्गश्च-२ इति ॥३०॥ सूत्रार्थ---व्युत्तर्गलप के दो भदइनव्युत्सर्ग और भावव्यु. त्सर्ग ॥३०॥ __तत्वार्थ दीपिका-लालवें अध्याय में पहले वैधावृस्य, स्वाध्याय और ध्यान, इन आस्मान्तर तय का विस्तार पूर्वक शरूपण किया गया, अब छठे आभ्यन्तर रूप व्युल्लर्ग की विशेषरूप से प्रलपणा करते हैं 'व्युत्तर्ग' शब्द का विश्लेषण इस प्रकार है-वि+उत्+सर्ग। 'वि' अर्थात् विशेष रूप ले, 'सत्' अर्थात् उत्कृष्ट भावना से, 'सर्ग' अर्थात् त्याग करना व्युत्सर्ग सहलाता है । व्युरलर्ग तप के दो भेद हैंद्रव्यव्युत्हर्ग और भावव्युन्सर्ग। बाह्य वस्तुओं का त्याग करना द्रव्यम्युल्लगलप है और आभ्यन्तर वस्तुओं का स्थान भावव्युत्सर्ग है। औपपातिक सूत्र के लोग सूत्र में कहा हैं प्रश्न-व्युत्सर्ग के किलने खेद हैं ? उत्तर-व्युवर्ग के दो भेद हैं-द्रव्य व्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग ।३। સુત્રાર્થ–બુત્સર્ગ તપના બે ભેદ છે-દ્રવ્યવ્રુત્સર્ગ અને ભાવવ્યુત્સર્ગ ૩૦ તત્ત્વાર્થદીપિકા–સાતમા અધ્યાયમાં પ્રથમ વૈયાવૃત્ય, સ્વાધ્યાય અને ધ્યાન–આ આલ્પનર તપનું વિસ્તારપૂર્વક પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યુ, હવે છઠા આભ્યન્તર તપ વ્યુત્સર્ગની વિશેષ રૂપથી પ્રરૂપણ કરીએ છીએ વ્યુત્સર્ગ શબ્દનું વિશ્લેષણ આ પ્રમાણે થાય છે-વિ-ઉત્સગ વિ અર્થાત્ વિશેષ રૂપથી ઉત અર્થાત્ ઉત્કૃષ્ટ ભાવનાથી, “સર્ગ' અર્થાત્ ત્યાગ કર વ્યુત્સર્ગ તપ છે જ્યારે આભ્યન્તર વસ્તુઓને ત્યાગ ભાવવ્યુત્સર્ગ છે ઔપપાતિક સૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે પ્રશ્ન–વ્યુત્સર્ગના કેટલા ભેદ છે ઉત્તર–વ્યુત્સર્ગના બે ભેદ છે દ્રવ્યુત્સર્ગ અને ભાવવ્યુત્સર્ગ - ૩ | त०८८ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वायत्रे । स्तरवार्थनियुक्ति:-स्पष्टा-दीपिका गम्याचेति ॥३०॥ मूलभू-दव्वविउस्सग्गतवे चउविहे, सरीरविउसगाइ भेयओ ॥३१॥ छाया-द्रव्य व्युत्सर्गतपश्चतुर्विधम्, शरीरव्युत्सर्गादिभेदत:-" ॥३१॥ तस्वार्थदीपिका--पूर्व ताक्त-व्युत्सर्गतपसो दैविध्यं मरूपितम्, तत्र-व्युस्सर्गतपसो द्वैविध्यं प्रतिपादयन्नाह-“दव्वविउसग्गतवे-" इत्यादि । द्रव्य व्युत्सर्गतपः-द्रव्यस्य शरीरादे व्युत्सर्गः ममत्वत्यागः, तद्रूपं तप स्तावद् चतुर्विधं भवति, । तद्यथा शरीरव्युत्सर्गादिभेदतः,तथा च-शरीरव्युत्सर्ग तपः १ आदिनागणव्युत्सर्ग तपा-२ उपधिव्युत्सर्गतपः-३ भक्तपानव्युत्सर्गतपश्च-४ इत्येवं चतुर्विधं द्रव्यव्युत्सर्गतपो भवति । तत्र शरीरस्य ममत्वत्यागः शरीरव्युत्सर्ग तप उच्यते, विशेषेणोत्कृष्टभावनया त्यागस्यैव व्युत्सर्गपदार्थत्वात् । एवं-द्वादश तत्वार्थनियुक्ति-स्पष्ट है और दीपिका टीका से समझी जा सकती है॥३०॥ ... 'दव्य विउस्सग्गतवे चउविहे' इत्यादि। सूत्रार्थ-द्रव्वव्युत्सर्ग तप चार प्रकार का है-शरीर व्युत्सर्ग आदि ॥३माविका इसके दो तस्वार्थदीपिका-इससे पहले व्युत्सर्ग तप के दो भेदों का निर्देश किया गया था, अप उसके दो भेदों का व्याख्यान करते हैं-- ___ शरीर आदि द्रव्य का ममत्व त्यागना द्रव्यव्युत्सर्ग है । इसके चार भेद हैं-(१) शरीरव्युत्सर्गतप (२) गणव्युत्सर्गतप (३) उपधिव्युत्सगे तप । शरीर संवन्धी ममता का त्याग करना अर्थात् अपने शरीर को भी अपने से भिन्न मानना शरीरव्युत्सर्गतप कहलाता है। विशेषरूप से और उत्कृष्ट भावना से त्याग करना ही व्युत्सर्ग शब्द का अर्थ है। તાવાર્થનિયુક્તિ–સ્પષ્ટ છે અને દીપિકા ટીકાથી જ સમજી શકાય છે ૩૦ 'व्वविउसग्गे तवे चउविहे' त्यादि સૂત્રાર્થ-દ્રવ્યવ્યત્સર્ગ તપ ચાર પ્રકારના છે શરીરવ્યત્સર્ગ આદિ ૩૧ તત્ત્વાર્થદીપિકા-આનાથી પહેલા વ્યુત્સર્ગ તપના બે ભેદે નિદેશ કરવામાં આવ્યા હતા. હવે તેના બે ભેદનું નિરૂપણ કરીએ છીએ શરીર આદિ દ્રવ્યનું મમત્વ છોડવું દ્રવ્યવ્યત્સર્ગ છે. આના ચાર ભેદ છે (૧) शरी२०युत्सगत५ (२) गव्युत्सम त (3) 6५धिव्युत्सम त५ अने (४) ભક્ત પાનબુત્સર્ગ તપ. શરીર સંબંધી મમતાને ત્યાગ કરે અર્થાત્ પિતાના શરીરને પણ પિતાનાથી ભિન્ન ગણવુ શરીરબ્યુન્સર્ગ શબ્દને અર્થ થાય છે, Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.३१ द्रव्यव्युत्सर्गतपो निरूपणम् ६९९ प्रतिमा आराधनाय गणस्य साधु समुदायस्य मनत्वत्यागो गणव्युत्सर्गतप उच्यते । एवम् वस्त्रादि रुपस्योपधेर्ममत्वत्यागरूपम् उपधिव्युत्सर्ग तप उच्यते । एवम् अशनादि त्यागरूपं भक्तपानव्युत्सर्गतप उच्यते ॥३१॥ तवार्थ नियुक्तिः-पूर्व तावत्-प्रायश्चित्तादि षष्टिधा भ्यन्तरतपासु वैयावृत्यस्वाध्यायध्यानरूपाणि पञ्च तपांसि सविस्तर मरूपितानि, सम्पति-षष्ठ स्य व्युत्सर्गनामकाऽभ्यन्तरतपसः सविस्तर विशेष प्ररूपयितुमाह-'दन्यवि उसग्ग तवे चउबिहे, सरीरविउसग्गाइभेघओ-" इति। द्रव्यव्युत्सर्गतप:द्रव्यस्य शरीरवस्त्रादि व्युत्सगों विशेषेण-उत्कृष्टभावनया सों ममत्वत्यागः द्रव्यव्युत्सर्ग स्तद्रूपं तपो द्रव्यव्युत्सगै तपस्तावच्चतुर्विधं भवति, शरीरव्युत्सर्गा दिभेदतः । तथा च-शरीरव्युत्सर्ग तपः-१ आदिना-गणव्युत्सर्गतपा-२ उपधि व्युत्सर्ग तपः-३ भक्तपानव्युत्सर्गतपञ्चे-४ त्येवं चतुर्विधं द्रव्यव्युत्सर्ग तपो इसी प्रकार द्वादश प्रतिमाओं की आराधना आदि के लिए गण अर्थात् साधु समुदाय का त्याग करना-एकाकी विचरना गणव्युत्सग है। वस्त्र आदि उपधि का त्याग कर देना उपधिव्युत्सर्ग है। इसी प्रकार अशनादि का त्याग करना भक्तपानव्युत्सर्गतप कहलाता है ॥३१॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले छह प्रकार के आभ्यन्तर तपों में से वैया. वृत्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि पांच का विस्तारपूर्वक प्ररूपण किया जा चुका, अब छठे आभ्यन्तरतप व्युत्सर्ग का विस्तृत एवं विशेष रूपसे निरूपण किया जाता है विशेष रूप से, उत्कृष्ट भावना से, शरीर आदि द्रव्यों की ममता का त्याग करना द्रव्यव्युत्सर्ग तप कहलाता है। इस तप के चार भेद हैं(१) शरीरव्युत्सर्ग तप (२) गणव्युत्सर्ग तप (३) उपधिव्युत्सर्गतप (8) એવી જ રીતે બાર પડિમાની આરાધના આદિને માટે ગણ અર્થાત્ સાધુ સમુદાયને ત્યાગ કરે-એકલવિહારી વિચરવું ગણુવ્યુત્સગ છે. વસ્ત્ર આદિ ઉષધિનો ત્યાગ કરી દે ઉપધિવ્યુત્સર્ગ છે એવી જ રીતે અશન આદિને ત્યાગ કર ભક્ત પાનયુત્સર્ગ તપ કહેવાય છે. એ ૩૧ મે - તત્વાર્થનિર્યુક્તિ–પહેલા છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપમાંથી વૈયાવૃત્ય સ્વાધ્યાય, ધ્યાન આદિ પાંચનું વિસ્તારપૂર્વક પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું. હવે છઠા આભ્યન્તરત૫ વ્યુત્સર્ગનું વિસ્તૃત તેમજ વિશેષ નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. વિશેષરૂપથી ઉત્કૃષ્ટ ભાવનાથી શરીર આદિ દ્રવ્યની મમતાનો ત્યાગ કરો. દ્રવ્યચુત્સર્ગતપ કહેવાય છે. આ તપના ચાર ભેદ છે-(૧) શરીરવ્યુત્સર્ગ તપ (૨) ગણવ્યુત્સતપ (૩) ઉપધિયુત્સર્ગતપ અને (૪) ભક્ત પાનબુત્સર્ગ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : तत्त्वार्थसूत्रे भवतीति बोध्यम् । तत्र शरीरस्य औदारिकादिरूपस्य व्युत्सर्गः विशेषेण-उत्कृष्टभाषनया ममत्वत्यागः शरीरव्युत्सर्ग स्तद्रूपं तपः शरीरव्युत्सर्गतप उच्यते । एवं प्रतिमा चाराधनाय गणस्य श्रमणसम्प्रदायस्य व्युत्सर्गों विशिष्टोत्कृष्ट भावनया ममत्वत्यागो गणव्युत्सर्गः ममत्वत्या गः उपधिव्युत्सर्गः तद्रूपं तप उप. धि व्युत्सर्ग तपः उच्यते । एवं-भक्तस्याऽऽहारस्व पानस्य जलस्य च व्युत्सर्गः परित्यागो भक्तपानव्युत्सगै स्तद्रूपं तपो भक्त-पान व्युन्सर्ग तप उच्यते॥ उक्तञ्चीपपातिके ३० सूत्रे-से किं तं दधविउलग्गे- दयविउस्लग्गे चलम्बिहे पण्णत्ते, तं जहा-सरीरथिउसगे१ गणविउलो२ वहिविउस्सग्गे-३ भत्तपानविउस्लग्गे-४ ले तं दनधि उस्लग्गे' इति । अथ कोऽसौ द्रव्यव्यु सर्गः? द्रव्य व्युत्सर्गश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा शरीरव्युत्सर्ग:-१ गणव्युत्सर्गः२ उपधिव्युत्सर्ग:-३ भक्तपानव्युत्सर्ग:-४ स एष द्रव्यव्युत्सर्गः ॥३१॥ भक्तपानव्युत्सर्गतप द्रब्धव्युरली के यह बार भेइ समझने चाहिए । • औदारिक शरीर के प्रति विशेष रूप से, उत्कृष्ट भावना पूर्वक ममत्व न रखना शरीरव्युत्सर्ग तप कहलाता है। प्रतिमा की आराधना आदि के लिए गच्छ को स्याग देना मणध्धुत्सर्ग तप है । वस्त्र आदि उपधि का त्याग हर देना उपधि व्युत्सर्ग वश है । आहार और पानी का त्याग कर देना जरूपानन्युरलर्ग तप है । औषपातिकसूत्र के ३० घे सूत्र में कहा है-'शरीरव्युतलगं गणव्युरल उपविध्युत्सर्ग और भक्तपानव्युत्लग यह चार प्रकार का द्रव्यव्युत्तर्गनप है ॥३१॥ 'भावविउस्लग तवे तिथिहे' इत्यादि भावव्युत्सर्ग तप तीन प्रकार का है-(१) कषायाम (२) संसार , તપ દ્રવ્યવ્યત્સર્ગના આ ચાર ભેદ સમજવા જોઈએ. | દારિક શરીરની પ્રતિ વિશેષરૂપથી ઉત્કૃષ્ટભાવના પૂર્વક મમત્વ ન રાખવું શરીરવ્યુત્સર્ગતપ કહેવાય છે. પડીમાંની આરાધના વગેરેના કારણે ગચ્છને ત્યાગ કરી દેવો ગણવ્યુત્સર્ગતપ છે. વસ્ત્ર આદિ ઉપધિને ત્યાગ કર ઉપધિત્સર્ગ તપ છે. આહાર અને પાણી ત્યજી દેવા ભક્તપાનથુત્સર્ગતપ છે. ઔયપાતિક સૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે - શરીરભુત્સર્ગ, ગણવ્યુત્સર્ગ અને ભક્તપાન ચુર્ગ આ ચાર પ્રકારના દ્રવ્યયુસર્ગ તપ છે. એ ૩૧ 'भावविउस्सगे तवे तिविहे' त्या साथ-मापव्युत्गत५ त्रय ४२ छ-(१) पायव्युत्सग (२) Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ खू.३२ मामव्युत्सर्गतपल: निरूपणम् ७१ मूलम् -- सावविडहग्गतवे तिविहे, कसायलंसारकम्मविउस्तरम भेयओ ॥३२॥ छाया-भातव्युत्सर्गतपस्त्रिविधं कषाय संसार-कम व्युत्सर्गभेदतः-"३२। तत्वार्थदिपीका-पूर्व खाबद्-द्रव्यव्युत्तर्गतपश्चतुर्विध सविस्तरं प्ररूपितम् सम्मति माइन्युत्सर्ग तपः प्ररूपयितुमाह-"माविउससम्म तवे-" इत्यादि। भावव्युत्हर्ग तपः-भावस्य कषायादे व्युत्सर्ग विशेषेणोत्कृष्टभावनया त्यागोभावव्युत्सर्ग स्तद्रूपं तपो भादव्युत्सर्गतः खल्ल त्रिविधं भवति । तद्यथा-कपायव्युत्सर्गतः १ संसारव्युत्सर्गतपः २ कर्मव्युत्सर्ग तपश्च ३ इत्येवं विविध भावव्युतर्गलपो भवति । तत्र-करायानां क्रोधादेर्भावस्य व्युत्सर्गः परित्यागः कषायव्युत्सर्ग स्तद्रूप तपः कषायव्युत्सर्ग तप उच्यते । एवं-संसारस्य नरक-तिर्यग्मनुष्य-देवगतिरूपस्य व्युत्सर्गः संसारव्युल्सर्ग तप उच्यते । एवं-कर्मणां ज्ञानावरणाघष्टविधानां व्युत्सर्गः परित्यागः कर्मव्युत्सर्ग स्तद्रूप तपः कर्मव्युत्सर्गतप उच्यते ॥३२॥ व्युत्सर्ग और (३) कर्मव्युत्लग ॥३२॥ ' तत्वार्थदीपिका-पहले द्रव्यव्युत्सर्ग का विस्तारपूर्वक प्ररूपण किया गया, अब भावव्युत्तर्गतप की प्ररूपणा करते हैं-- कषाय आदि भाव का व्युत्लग करना अर्थात् उत्कृष्ट भावना से विशिष्ट त्याग करना भावव्युरल तप कहलाता है। इस तप के तीन भेद हैं -कषायव्युत्तर्गतप, संसारव्युत्सर्ग तप और कर्मव्युत्सर्ग तप क्रोध आदि कषायभाव क्षा त्याग करना कषायव्युत्सर्ग तप कहलाता है। नरकति तिथंचगति मनुष्याति और देवगति रूप चतुर्विध संसार का त्याग करना संसारव्युत्तर्गतप कहलाता है और ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों का त्याग करना फर्मव्युत्लग तप कहलाता है ॥३२॥ संसा२०युत्स०। (२) मन (3) भव्युत् ॥ ३२ ।। તત્વાર્થદીપિકા-પહેલા દ્રવ્યત્રુત્સર્ગનું વિસ્તારપૂર્વક પ્રરૂપણ કર્યું. હવે ભાવવ્યુતપની પ્રાપણ કરીએ છીએ કષાય આદિ ભાવને વ્યુત્સર્ગ કરો ભાવવ્યુત્સર્ગતપ કહેવાય છે આ તપના ત્રણ ભેદ છે-કષાયવ્યત્સર્ગતપ, સંસારત્રુત્સર્ગતપ અને કબુત્સર્ગતપ ' કોધ આદિ કષાય ભાવનાત્યાગ કરવો કષાયવ્યત્સર્ગતપ કહેવાય છે. નરક ગતિ, તિર્યંચગતિ, મનુષ્યગતિ અને દેવગતિરૂપ ચતુર્વિધ સંસારનો ત્યાગ કર સંસાર વ્યુત્સર્ગતપ કહેવાય છે અને જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોનો ત્યાગ કર કર્મવ્યુત્સતપ કહેવાય છે. એ ૩૨ ૫ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तत्त्वाने तत्मार्थ नियुक्ति-पूर्व तावद्-द्रव्यभावभेदेन द्विविधेषु व्युत्सर्गतपामु चतुर्विधत्वेन द्रव्यव्युत्सर्गतपः परूपितम्, सम्पति-भावव्युत्सर्ग तपस्वविध्येन प्ररूपयितुमाह-'भावविउस्लग्गतवेतिविहे, कसाय-संसार कम्मविउस्तग्ग भेष ओ' इति । भावव्युत्सर्गतपः-भावस्य क्रोधादिकपायादेः खलु व्युत्सर्गः विशेषेणोत्कृष्ट भावनया त्यागो भावव्युत्सर्ग स्तद्प तप स्तावत् त्रिविधं भवति, तद्यथा-कषायव्युत्सर्ग तपः १ संसारव्युत्सर्गतपः २ कर्मव्युत्सर्गतपश्च-३ ति । तत्र-कषायस्य क्रोधादिरूपस्य भावस्य व्युत्सर्गः विशिष्टोत्कृष्टभावनया परित्यागः कपायव्युत्सर्ग स्तदूपं तपः कपायव्युत्सर्गतपो व्यपदिश्यते । एवं संसारस्य नरक-तिर्यमनुष्य-देवगीत रूपस्य व्युत्सर्गः परित्यागः संसारव्युत्सर्ग स्तद्रूपं तपः संसारव्युत्सर्गतपो व्यपदिश्यते एवं कर्मणां ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मणां व्युत्सर्गः परित्यागः कर्मव्युत्सर्ग स्तद्रूतपः कर्मव्युस्सर्ग तपो व्यपदिश्यते । उक्तञ्चौपपातिके ३० सूत्रे-से किं तं भावविउग्गे? भावविउस्सग्गे तिविहे तत्त्वार्थनियुक्ति-व्युत्सर्ग तप के दो भेदों में से द्रव्यव्युत्सर्गतप के चार भेदों की प्ररूपणा की गई, अब भावव्युत्सर्गतप के तीन भेदों का व्याख्यान किया जाता हैं विशेष रूप से उत्कृष्ट भावनापूर्वक क्रोधादि कषाय-भाव का त्याग भावव्युरसर्ग कहलाता है। उसके तीन भेद हैं-(१) कषायव्युत्सर्ग (२) संसारव्युत्सर्ग और (३) कर्मव्युत्सर्ग । क्रोध आदि कषयों का त्याग करना कषायव्युत्सर्ग तप है । इसी प्रकार नारक-तियं च-मनुष्य देवगति रूप संसार का परित्याग करना संसारव्युत्सर्गतप है और ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मो का परित्याग करना कर्मव्युत्सर्ग तप कहलाता है। औपपातिकसूत्र के तीसवें सूत्र में कहा है તત્વાર્થનિર્યુક્તિ--બુત્સર્ગતપનાં બે ભેદે પૈકી દ્રવ્યયુત્સર્ગતપના ચાર ભેદની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી. હવે ભાવવ્યુત્સર્ગતપના ત્રણ ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. વિશેષ રૂપથી, ઉત્કૃષ્ટભાવના પૂર્વક કોધાદિકષાયભાવને ત્યાગ ભાવવ્યુત્સર્ગ કહેવાય છે. તેને ત્રણ ભેદ છે (૧) કષાયત્રુત્સગ (૨) સંસારભુત્સર્ગ અને (૩) કર્મબુત્સર્ગ ક્રોધ આદિ કષાયને ત્યાગ કરે કષાયવ્યત્સર્ગતપ છે એવી જ રીતે નરક-તિયચ-મનુષ્ય દેવગતિ રૂપ સંસારને પરિત્યાગ કરવો સંસાર સુત્સર્ગતપ છે. જ્યારે જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોને પરિત્યાગ કરવો કર્મચુસતપ કહેવાય છે. ઔપપાતિક સૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ २.३३ कषायव्युत्सर्गतपसः निरूपणम् ०३ पण्णत्ते, तं जहा कसायविउस्सग्गे? संसारविउस्सग्गे२ कम्मविउस्सग्गे' इति। अथ कोऽसौ भावव्युन्सर्गः १ भावव्युत्सर्ग त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-कपायव्युत्सर्ग १ संसारव्युत्सर्गः२ कर्मव्युत्सर्गः २ इति ॥३२। मूलम्-कसायविउस्सग्गतवे चउठिवहे, कोहकसायाइ विउस्सग्ग भेयओ ॥३३॥ छाया-कषायव्यु सर्गतपश्चतुर्विधं, क्रोधकषायादि व्युत्सर्गभेदतः ।३३।। तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वमुत्रे-कषायसंसारकर्मभेदेन त्रिविधं भावव्युत्सर्गतपः प्ररूपितम्, सम्पति-तेषु कषायव्युत्सर्गतपश्चातुर्विध्येन प्ररूपयितुमाह-'कसायविउस्सग्गत' इत्यादि । कषायव्युत्सर्गतपः खलु चतुर्विधं भवति, तद्यथा-क्रोधकषायादि भेदतः। तथा च-क्रोधकषायव्युत्सर्गतपः १ मानकपायव्युत्सर्गतपः प्रश्न-भावव्युत्सर्ग के कितने भेद है ? उत्तर-भावव्युत्मर्ग के तीन भेद है-(१) कषायव्युत्सर्ग (१) मंसार व्युत्सर्ग और (३) कर्मव्युत्सर्ग ॥३२॥ 'कसायविउस्सग्ग तवे' इत्यादि सूत्रार्थ-क्रोध कषायव्युन्सर्ग आदि के भेद से कषायव्युत्लग तप के चार भेद हैं ॥३३॥ . तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में भावव्युत्सर्ग तप के कषाय संसार और कर्म के भेद से तीन भेदों की प्ररूपणा की गई थी अब उनमें से कषायव्युत्सर्ग के चार भेदों की व्याख्या करते हैं कषाय व्युत्सरी तप चार प्रकार का है, यथा-(१) क्रोध कषायव्यु: त्सर्ग (२) मानकषाय व्युत्सर्ग (३) मायाकषाय व्युत्तर्ग और (४) लोभ प्रश्न--भावयुत्सम ना Ban ? उत्तर--भावव्युत्सना ३ ले छ-(१) पायव्युत्सर्ग (२) संसार व्युत्सग मन (3) मयुत्सग. ॥ ३२ ॥ સૂવાથ– કોધકષાયવ્યત્સર્ગ આદિના ભેદથી કષાયવ્યત્સર્ગતપન ચાર ભેદ છે ૩૩ તત્ત્વાર્થદીપિકા--પૂર્વસૂત્રમાં ભાવવ્યુત્સતપના કષાયે સંસાર અને કર્મના ભેદથી ત્રણ ભેદની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી. હવે તે પૈકી કષાયવ્યત્સર્ગના ચાર ભેદની વ્યાખ્યા કરીએ છીએ કષાયયુત્સર્ગતપ ચાર પ્રકારના છે. જેમકે-(૧) ફોધકષાયવ્યત્સર્ગ (૨) માનકષાયવ્યત્સર્ગ (૩) માયાકષાયવ્યત્સર્ગ અને (૪) લેભકષાયબ્રુત્સર્ગ. તાત્પર્ય એ છે કે કષાયવ્યત્સર્ગ તપના ચાર ભેદ હોય છે. ૩૩ | Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ ROPERAT तत्त्वार्थस्थे मायाकषायव्युन्सर्गतपः ३ लोभकपायव्युत्सर्गसपश्च ४ इत्येवं चतुर्विध तावत् कपायव्युत्सर्ग तपो भवतीतिभावः ॥३३॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व ताब-निविधं भावव्युत्सर्ग तपः प्ररूपितम्, कपायसंसार-कर्मव्युत्सर्ग भेदात, सम्मति-तेषु प्रयागेषात कपायव्युत्तर्गतपचतुर्विधत्वेन प्ररूपयितुमाह-कहाचिजल्लग्गलये-चडचिहे, कोहमसायाइ विउस्सरगयओ' इति । कपायध्युत्मगतपः पायस्य-क्रोधादिरूपस्य व्युत्सर्गः परित्याग स्तद्रूपं तपः खलु चतुर्विधं भवति तद्यथा-क्रोधनपायादि व्युत्सर्ग भेदतः । क्रोधकषायव्युत्सर्ग तपः १ शादिना-पानझपाय व्युत्तर्गतपा२ मायाकषायव्युत्मर्गतपः ३ लोकपाय व्युत्सर्गतपश्च ४ इत्येवं चतुधिं खलुकपायव्युत्सर्गतपो भवतीति भावः ॥ उक्तञ्चौपपातिक ३० मुत्रे-से कि कलायविउस्लग्गे ? कलाय विउस्लग्गे विहे पण्णत्ते, तं जहाकोहकसायर्यावउग्गे १ माणकलायषिउस्लग्गे २ मायाकलायविउ. स्सग्गे ? लोहमसायविउस्लग्गे ४ ले तं कतारषिउस्हरगे' इति । अथ. कोऽसौ कषायव्युत्सर्गः ३ कपाश्व्युत्सर्ग श्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः तयश-क्रोधकपायकषायव्युवर्ग। लाशय यह है शि कपाच व्युत्सर्ग तप के चार भेद होते हैं ॥३३॥ तत्वार्थनियुक्ति-कषाय, संसार और कर्म के भेद से भाव व्यु. त्सर्ग के तीन भेदों का निरूपण किया गया, अब उनमें से प्रथम कषाय व्युत्लग तप के चार भेदों का कथन करते हैं क्रोध आदि कषायों का स्थाय करना कषाय व्युत्सर्ग तप कहलाता है। यह कषायव्युत्लग तर, कक्षायों के चार भेद होने के कारण चार प्रकार का है। वे चार प्रकार ये हैं-(१) क्रोध व्युत्लग तप (२) मान व्युव्यत्सर्ग तप (३) माण व्युरल तप और (४) लोभ व्युत्सर्ग तप। औपपातिक सूत्र के तीसवे सूत्र में कहा તત્વાર્થનિર્યુક્તિ–ષાયસંસાર અને કર્મના ભેદથી ભાવવ્યુત્સર્ગતપના ત્રણ ભેદનું પહેલા નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. હવે તેમાના પ્રથમ કષાયવ્યત્સર્ગ તપનાં ચાર ભેદનું કથન કરીએ છીએ ક્રોધ આદિ કષાયને ત્યાગ કરો કષાય વ્યુત્સર્ગ તપ કહેવાય છે. આ કષાયવ્યત્સર્ગ તપ, કષાયોના ચાર ભેદ હેવાના કારણે ચાર પ્રકારનું છે २ मा प्रभारी छे-(1) धव्युत्सग १५ (२) मानव्युत्सग त५ (3) भाया દ્રવ્યત્રુત્સર્ગ તપ અને (૪) લેભવ્યુન્સર્ગ તપ ઔપપાતિકસૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે– Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.८ सू.३४ संसारव्युत्सर्गतपसः निरूपणम् ७०५ व्युत्सर्गः मानझपायव्युत्सर्गी-सायाकषायव्युत्सर्ग: कोमपायव्युत्सर्गः से एप कषायव्युत्सर्गः इति ॥३३॥ मूलम्-संसारविउस्सरगतवे बउविहे, जेरइयसलारविउ. सग्गाइ भेयओ ॥३४॥ छाया-संसारव्युत्सर्गतपश्चतुर्विधम्, नैरयिकसंसारव्युत्सर्गादि भेदतः ॥३४। तरवार्थदीपिका--'पूर्व तावत्-विविधस्य भावव्युत्सर्गतपसः प्रथमभेदं कषायव्युत्सर्ग तपश्चातुर्विध्येन परूपितम्, सम्पति-द्वितीयं संसारव्युत्सर्गतपश्चातुविध्येन प्ररूपयितुमाह-संसारविरस्वगत' इत्यादि । संसारव्युत्सर्गतपःसंसारस्य नैरयिकादि गतिरूपस्य व्युत्सर्गः विशेषेण-उत्कृष्टतः सर्वथा परित्यागः प्रश्न-कषाय व्युत्लग के शितने भेद हैं ? उत्तर-कषाय व्युत्सर्ग के चार भेद हैं-(१) क्रोधकषायव्युत्सर्ग (२) मानकषायव्युत्सर्ग (३) पायाशाश्व्युत्सर्ग और लोभ कषाय व्युत्सर्ग। यह कषायव्युत्सर्ग तप का वर्णन है ॥३३ । 'संसारविउस्लम्गाचे चउबिहे' इत्यादि ।। सूत्रार्थ-संसार व्युत्सर्ग तप चार प्रकार का है-नैरयिकसंसार. व्युत्सर्ग आदि ॥३४॥ तत्वार्थदीपिका-इससे पूर्ण भावव्युत्सर्ग तप के प्रथम भेद कषाय व्युत्सर्ग तप के चार भेदों का कथन किया गया, अब दूसरे संसारव्युत्सर्ग तप के चार भेड़ों का निरूपण किया जाता है नैरपि गति आदि रूप संसार का विशेष रूप से उत्कृष्ट भावना પ્રશ્ન--કષાયબ્રુત્સર્ગના કેટલા ભેદ છે ? उत्त२-४ायव्युत्सम ना या२ ले छे-(१) डोपायव्युत्सम (२) भान કષાયબ્રુત્સગ (૩) માયાકષાયવ્યત્સર્ગ અને (૪) લેભાષાયવ્યત્સર્ગ આ રીતે આ કષાય વ્યુત્સર્ગ તપનું વર્ણન છે ૩૩. 'ससारविउस्सातवे चउठिवहे' त्यहि સૂવાથ-સંસારભુ તપ ચાર પ્રકાર છે.-નરયિકસંસ ૨ વ્યુત્સગ मा... ॥३४॥ તત્વાર્થદીપિકાનની પૂર્વે ભાવવ્યુત્સર્ગતપના પ્રથમ ભેદ કષાયવ્યત્સર્ગ તપના ચાર ભેદનું કથન કરવામાં આવ્યું હવે બીજા સંસારત્રુત્સર્ગ તપના ચાર ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે નરયિકગતિ આદિ રૂપ સંસારને વિશેષ રૂપથી ઉકૃષ્ટ ભાવનાથી ત્યાગ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ तस्वार्थ संसारव्युतमार्ग स्तद्रूपं तपः खलु चतुर्विधं भवति । तद्यथा-नैरयिकसंसारव्युत्सर्गादि भेदतः। नैरयिकसंसारव्युन्सर्गतषः-१ तिर्यक् संसारव्युत्सर्गतपः-२ मनुष्यसंप्तारव्युत्सर्गखपः-३ देवसंसारव्युत्सगतपश्च४ त्येवं चतुर्विधं खलु संसारव्युत्सर्ग तपो भवति । तत्र नैरिकगतिरूपस्य संसारस्य व्युत्सर्गः परित्यागो नैरयिकसंसाव्युत्सर्गत उच्यते । एवं-तियग्गतिरूपस्य संसारस्य व्यु सगैः परित्यागः तिर्यक् संसारव्युत्सर्ग तप उच्यते । एवं-मनुष्यगतिरूपस्य संसारस्य व्युत्सर्गः परित्यागो मनुष्यसंसारव्युन्सगतप उच्यने । एवं-देवाविरूपस्य संसारस्य व्युत्सर्गः परित्यागो देवसंसारव्युत्सर्ग तप उच्यते इति, ॥३४॥ तत्वार्थनियुक्ति:--पूर्व खलु भावव्युत्सर्गत्पत्रिविधं प्ररूपितम्, तत्रप्रथमं पायव्युत्सर्गतपो रूपं भावयुत्सर्गतपश्चतुर्विधत्वेन प्रतिपाद्य सम्पतिद्वितीयं संसारव्युत्सर्गतः मरूपयितुमाह-"संसारविउस्लगे तवे चउ. ब्धिहे, णेरहयलंसार दिउस्लम्गाइ भेयओ-" इति। संसारव्युत्सर्गतपःसे त्याग करना संलारव्युल्ग ता कहलाता है । वह चार प्रकार का है-(१) नैरथिक संसारव्युत्सर्ग लप (२) लिया लारव्युत्सर्ग नप (३) मनुष्य संसार व्युत्तर्गत्वप और (४) देवलं लार व्युत्लग तप । इस प्रकार संसारव्युहलग के चार भेद है। इनमें से नैरमिक गति रूप संसार का परित्याग करना राषिक संहाच्युतर्गतप कहलाता है। तिर्यंचति रूप संसार का परित्याग तिर्यकलला व्युत्सम तप सहलाता है। मनुष्य गतिरूप संसार का परित्याग लनुष्य संवारन्युल्सर्गगप कहलाता है और देवगति रूप संसार का परित्याग देव संसारव्युत्प्त कहलाता है ।।३४॥ तत्वार्थनियुक्ति-पहले भाव व्युत्सर्ग तप के तीन भेद कहे गए थे । उनले ले पहले कषाय व्युराग तप रूप भाव व्युत्सर्ग तप के चार કરો સંસારત્રુત્સર્ગ તપ કહેવાય છે. તે ચાર પ્રકારના છે-(૧) નરયિકસંસાર વ્યુત્સગ તપ (૨) તિર્યંચસંસાર વ્યુત્સર્ગ તપ (૩) મનુષ્યસંસારબ્યુત્સર્ગ તપ અને (૪) દેવસંસારસુત્સર્ગ તપ આવી રીતે સંસારયુત્સર્ગ તપના ચાર ભેદ છે, આમાંથી નૈરવિકગતિરૂપ સંસારને પરિત્યાગ કરવો નરયિકસંસારગ્રુત્સર્ગ તપ કહેવાય છે. તિર્યંચગતિરૂપ સંસારને પરિત્યાગ તિર્યંચ સંસારબ્યુન્સર્ગ કહેવાય છે. મનુષ્યગતિ રૂપ સંસારને પરિત્યાગ મનુષ્યસંસારભુત્સર્ગ તપ કહેવાય છે, અને દેવગતિ રૂપ સંસારને પરિત્યાગ દેવસંસારત્રુત્સર્ગ કહેવાય છે. તત્વાર્થનિર્યુક્તિ-પહેલાં ભાવવ્યુત્સર્ગ તપના ત્રણ ભેદ કહેવામાં આવ્યા હતા તેમાંથી પહેલા કષાયવ્યત્સર્ગતપ રૂપ ભાવબુર્ગ તપના ચાર ભેદોનું Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ शु.३४ संसारव्युत्सर्गतपसः निरूपणम् ०७ संसारस्य नरकादि रूपस्य व्युत्सर्गः परित्याग स्तद्रूपं तपः खनु चतुर्विधं भवति, तद्यथा-नैरपिकसं सारव्युत्लगादि भेदतः। नैरपिकसंसारव्युत्सर्गतपः . १ आदिना-तियक्त सारव्यु सर्गसपा-मनुष्यासारव्युत्सर्गतपः-३ देवसंसारव्युत्स तपश्च-४ इत्येवं चतुर्विध खनु संसारव्युत्सर्ग तपो भवति । तत्र-नैरयिक गति. रूपस्य संसारस्य परित्यागरूपं तपो नैरविकतार व्युत्सर्गतपो व्यपदिश्यते । एवं-तिर्यग्गति रूपल्या संसारस्य परित्यागरूपं तो निर्यग् संसारव्युत्सर्ग तपो व्यपदिश्यते । एवं मनुष्य गतिरूपस्य संसारस्व परित्यागरूपं तपो मनुप्यसंसारव्युत्सर्गतपो व्यपदिश्यते । एवं देवगतिरूपस्य संसारस्य परित्यागरूपं तपो देवसंसारव्युत्सर्गतपो व्यपदिश्यते ।। उक्तञ्चौषपातिक ३० छुन्ने-'हे कि तं भेदों का प्रतिपादन किया गया, अब दूसरे संसार व्युत्सर्ग तप की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं नरक आदि स्वरूप वाले संसार का व्युर वर्ग अर्थात् परित्याग संसार व्युत्सर्ग कहलाता है। यह चार प्रकार का है (१) नैरपिक संसार व्युत्सर्ग (२) तिर्यकसंसार व्युत्लग (३) मनुष्य लार व्युटसर्ग और(४) देवसंसार व्युत्तर्ग। इनमें से नैराधिक गतिरूप संसार का परित्याग नैरयिक संसार धुत्सर्ग. तप कहलाता है। तिथंचगति रूप संसार का परित्याग तिर्थक लार व्युत्लग तप कहलाता है। मनुष्य गति रूप संसार का परित्याग मनुष्य ससार व्युत्तर्ण कहलाता है। देवगति रूप संसार का परित्याग देव संसार व्युत्सर्ग कहलाता है । औपपातिक सून के तीसवें सत्र में कहा हैપ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હવે બીજા સંસારયુત્સર્ગ તપની પ્રરૂપણા કરવા માટે કહીએ છીએ નરક આદિ સ્વરૂપવાળા સંસારનો વ્યુત્સર્ગ અર્થાત્ પરિત્યાગ સંસાર व्युत्सग ४ाय छे. ते या२ प्रारना छे-(१) नैयिससारयुत्सम (२) તિર્યકસંસારગ્રુત્સર્ગ (૩) મનુષ્યસંસારભુત્સર્ગ (૪) દેવસંસારયુત્સર્ગ આ માંથી નૈરયિકગતિરૂપ સંસારને પરિત્યાગ નૈરવિકસંસારબ્યુન્સર્ગ તપ કહેવાય છે તિર્યંચગતિરૂપ સંસારને પરિત્યાગ તિર્યંચસારવ્યુત્સગ તપ કહેવાય છે. મનુષ્ય ગતિરૂપ સંસારને પરિત્યાગ મનુષ્યસંસારબ્યુન્સર્ગ તપ કહેવાય છે. દેવગતિરૂપ સંસારનો પરિત્યાગ દેવસંસારગ્યુસર્ગ કહેવાય છે. ઔપપાતિક સૂત્રના ૩૦માં સૂત્રમાં કહ્યું છે– Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ तत्त्वार्थस्त्र संसारथिउस्लग्गे-? ससारबिउलारगे च उधिहे पण्णत्ते, तं जहाणेरइयसंसारविउ लग्गे-१ तिरिय स्वारविसग्गे-२ मणुषसंसारविउ. म्सगे-३ देवसंसारविर सगे-४ ले तं संसारविउस्लग्गे' इति, अथ कोऽसौ संसारव्युत्तर्ग:-? संसारव्युत्तर्गश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा -नैयिकसंसार व्युत्वः, निर्यक्लंसार व्युत्तर्गः, अनुष्यसंसारव्युत्सर्गः, देवसंसारव्युत्तर्गः, स एष संसारव्युत्सर्गः इति। ॥३४॥ मूळम्-ऋम्मविउत्तरगतवे अटविहे, माणावरणिजाइ कम्म. विउस्लग्गभेयओ ॥३५॥ छाया-कमव्युत्सर्गपोऽष्टविध, ज्ञानावरणीयादि कर्मव्युत्सर्गभेदतः ॥३५॥ तत्वार्थदीपिका-'पूर्व खलु भावव्युत्सर्गतपो विशेषरूप संसारव्युत्सर्गतपश्चतुर्विधं प्रतिपादितम्, सम्प्रति-भावव्युत्सगतपो विशेषरूप कर्मव्युत्सर्ग तपोऽष्टविधं प्रतिपादयितुमाह-'दारू विउल्लग्गतवे' इत्यादि । कर्मव्युत्सर्गतपः प्रश्न-संसारव्युत्लग के शितने भेद हैं ? उत्तर-खलारव्युत्तर्गतप के चार भेद हैं, यथा-(१) नरयिक संसार घ्युत्लग (२) तियकसंसारव्युत्सर्ग (३) मनुष्य संलारव्युत्लग और (४) देवसंसार व्युत्सर्ग। यह संसार व्युत्सर्ग तप का वर्णन हुभा ॥३४॥ . 'काम्मविउलगतवे' इत्यादि । . सूत्रार्थ-कर्म व्युत्तर्गतप के आठ भेद हैं-ज्ञानावरण कर्मव्युत्तर्ग आदि ॥३५॥ तत्वार्थदीपिका-इससे पहले संसारव्युत्लग नामक भावव्युत्तर्ग तप विशेष के चार प्रकार प्रदर्शित किये गये, अथ उसी के अन्तिम भेद कर्म व्युत्सर्ग के भेदों का प्रतिपादन करते हैं પ્રશ્ન--સંસારયુત્સર્ગના કેટલા ભેદ છે ? ઉત્તર--સંસારભૃત્સર્ગ તપના ચાર ભેદ, જેવાકે-(૧) રયિક સંસારव्युत्सम (२) तिय इस सा२व्युत्सग (3) मनुष्यस सा२०युत्सग भने (४) देव સંસારગ્યુસર્ગ આ સંસારયુત્સર્ગ તપનું વર્ણન થયું ૩૪ 'कम्मवि उस्खग्गतवे' त्यादि। સત્રાર્થ–-કર્મભુત્સર્ગ તપના આઠ ભેદ છે-જ્ઞાનાવરણ કર્મવ્યુત્સગ ૩૫ તત્વાર્થદીપિકા-આની પહેલા સંસારત્રુત્સર્ગ નામક ભાવવ્યુત્સર્ગ તપ વિશેષના ચાર પ્રકાર પ્રદર્શિત કરવામાં આવ્યા છે, તેના જ અન્તિમ ભેદ કર્મવ્યુત્સર્ગના ભેદનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ खू.३५ कर्मव्युत्सर्गतपस: निरूपणम् ७०९ कर्मणां ज्ञानावरणीयावविधाको व्युत्तर्गः विशेषेणोत्कृष्टगया परित्यागः कर्मव्यु. त्सर्ग स्तर तपः खल्बष्टविधं भवति । तद्यथा-ज्ञानाचरणीपादि कर्मव्युत्सर्गभेदतः तथा च-ज्ञानावरणीयकर्मव्युत्तर्गतपः १ आदिना-दर्शनावरणीयकर्मव्युन्सर्ग तपः २ वेदनीयकर्मव्युन्सर्गतपः ३ मोहनीयकर्मव्युत्तर्गतपः आयुष्यकर्मव्युत्सर्ग तपः ५ नामकर्मव्युत्सर्गतपः ६ गोत्रकर्मव्युत्सर्गतपः ७ अन्तरायकर्मव्युत्सर्ग तपश्च ८ इत्येवं ताव इष्टविध कर्मव्युत्सर्गतपो भवतीति भावः। तत्रज्ञानावरणीयस्थ कर्मणः परित्यागरूष ज्ञानावरणीय कमव्युत्सर्गत उच्यते । दर्शनावरणीयस्य कर्मणः परित्यागरूप दर्शनावरणीयकमेव्युत्सर्ग तप उन्च्यते । एवंवेदनीयस्य कर्मणः परित्यागरूव वेदनीयकर्मव्युत्सगाव उच्यते । एवं मोहनीय. स्थ दर्शन चारित्रमोहनीयरूपस्य कर्मणः परित्यागरूप सोहनीयकर्मव्युत्सर्ग तप • ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का व्युल्लर्ग अर्थात् विशेष रूप से, उत्कृष्ट भावना से, परित्याग करना कर्म व्युत्लग तप कहलाता है। यह तप आठ प्रकार का है, यथा-(१) ज्ञानावरणीय कर्मव्युत्सर्गतप (२) दर्शनावरणीय कर्म व्युत्क्ष त्वष (३) वेदनीय कर्म व्युल्लर्ग तए (४) मोहनीय कर्म व्युत्तर्गलप (५) आयुष्य धर्म व्युत्लग लप (६) नामकर्म व्युत्सर्ग तप (७) गोत्र कर्म व्युत्लग लप और अन्तराय फर्म व्युरून तप । इस तरह कर्म ग्रुत्सर्ग लए आठ प्रकार का है। ज्ञानावरणीय कर्म का परित्याग करना ज्ञानाशरणीय कार्य व्युत्मग तप कहलाता है। इसी प्रकार दशकालावरणीय कर्म का परित्याग दर्शना वरणीय कर्म व्युत्सर्ग, वेदनीय कर्म का परित्याग वेदनीय कर्म व्युत्स गं. दर्शन-चारित्र मोहनीय रूप मोहनीय कर्म का परित्याग मोहनीय कर्म - જ્ઞાનાવરણય આદિ આઠ કર્મોને વ્યસર્ગ અર્થાત વિશેષરૂપથી ઉત્કૃષ્ટ ભાવનાથી પરિત્યાગ કર કર્મવ્યુત્સર્ગ તપ કહેવાય છે આ તપ આઠ પ્રકારના છે, જેમ કે-(૧) જ્ઞાનાવરણીય કર્મયુત્સગ તપ (૨) દર્શનાવરણીય કબુત્સર્ગ તપ (૩) વેદનીયકર્મયુત્સર્ગ તપ (૪) મોહનીયકમ વ્યુત્સર્ગ त५ (५) आयुष्य व्युत् त५ (६) नामभयुत्स त५ (७) गोत्र કર્મબુસત્સર્ગ તપ અને (૮) અન્તરાયકર્મયુત્સર્ગ તપ આ રીતે કર્મબુત્સર્ગ તપ આઠ પ્રકારના છે. જ્ઞાનવરીયકર્મનો પરિત્યાગ કર જ્ઞાનાવરણીય કર્મયુસર્ગ તપ કહે વાય છે, એવી જ રીતે દર્શનાવરણીય કર્મને પરિત્યાગ દર્શનાવરણીય કર્મ વ્યુત્સર્ગ, વેદનીય કર્મને પરિત્યાગ વેદનીય કર્મચુસ, દર્શનચારિત્રમેહનીય રૂપ મેહનીયકર્મને પરિત્યાગ મે હનીયકર્મયુત્સર્ગ. આયુષ્યકર્મને પરિત્યાગ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० तत्वार्थ सूत्रे उच्यते । एत्रम् - आयुष्य रूपस्य कर्मणः परित्यागरूपम् आयुष्य कर्मव्युत्सर्ग तप उच्यते । एवं नामरूपस्य कर्मणः परित्यागरूप नामकर्तव्युत्सर्गतप उच्यते । एवं गोत्ररूपस्य कर्मणः परित्यागरूप गोत्रकर्म व्युत्सर्ग तप उच्यते एकम् - अन्त रायरूपस्य कर्मणः परित्यागरूपम् अन्तरायकर्मव्युत्सर्ग तप उच्यते ||३५|| तत्वार्थनियुक्तिः - पूर्व तावत् - संसारव्युत्सर्ग तपोरूप ं भावव्युत्सर्ग तप चतुर्विधस्वेन मरूपितम्, सम्पति - कर्मव्युत्सर्ग वपोरूपं भावव्युत्सर्ग तपोऽष्टविध त्वेन रूपयितुमाह- 'कम्प विउस्सग्गलवे अहविहे णाणावर णिज्जाई कम्म विउस्सग्गमेय' इति । कर्मन्युत्सर्गतपः- कर्मणां व्युत्सर्गः परित्याग स्वद्रूपं तपः खष्टविधं भवति, कर्मन्युत्सर्गभेदतः ज्ञानावरणीयकर्म व्युत्सर्गतपः कर्मन्युत्सर्गतः २ वेदनीय कर्मन्युत्सतपः ३ ज्ञानावरणीयादीनां तद्यथा - ज्ञानावरणीयादि आदिना - दर्शनावरणीय मोहनीय कर्म व्युत्सर्गतपः-४ १ • व्युत्सर्ग, आयुष्य कर्म का परित्याग आयुष्य कर्म व्युत्सर्ग, नामकर्म का परित्याग नामकर्म व्युत्सर्ग, गोत्र कर्म का परित्याग गोत्र कर्म व्युत्सर्ग और अन्तराय कर्म का परिस्थान अन्तराय कर्म व्युत्सर्ग कहलाता है ।। ३५ । C तत्वार्थनियुक्ति - इससे पूर्व संसार व्युत्लर्ग रूप भावव्युत्सर्ग तप के चार भेदों का निरूपण किया गया था, अब कर्मव्युस्सर्ग तप के आठ भेदों की प्रखरणा की जाती है ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के परित्याग को कर्मव्युत्सर्ग तप कहते हैं। कर्म के भेद से इस तप के भी आठ भेद होते है, यथा- (१) ज्ञानावरणीय कर्म व्युत्लर्ण रूप (२) दर्शनावरणीय कर्म व्युत्सर्ग तप (३) वेदनीय कर्मत्स लप (४) मोहनीय कर्म व्युत्सर्ग तप (५) आयुष्यઆયુષ્યકમ ન્યુટ્સ, નામક ના પરિત્યાગ નામ કમ વ્યુત્સગ, ગાત્રકનેા પરિત્યાગ ગેત્રકમ ન્યુલ્સ અને અન્તરાયકના પરિત્યાગ અન્તર યકમ બ્લુત્સગ તપ કહેવાય છે રુપા ९ તત્ત્વાથ નિયુકિત—આની પહેલા સ'સારત્યુત્સગ રૂપ ભાવન્મુત્સગ તપના ચાર ભેદેત્તુ નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યું, હવે કમ વ્યુત્સગ તપ રૂપ ભાળ્યુસંગ તપના આઠ ભેદાની પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે જ્ઞાનાવરણુ દ ઠ કમેના પરિયાગને કબુત્સ તપ કહે છે. ક ભેદથી આ તપના પણ આઠ ભેદ હોય છે, જેમકે-(૧) જ્ઞાનાત્રરણીયક - વ્યુત્સગ તપ (૨) દનાવરણીયક બ્યુૠગતપ (૩) વેદનીયક વ્યુત્સ તપ (४) भाडनीयमं व्युत्सर्ग' तय (4) आयुष्यम्भ व्युत्सतम (१) नाभम्भ व्युत्सर्ग Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ २.३५ कर्मव्युत्सर्गतपसः निरूपणम् ७११ आयुष्यकर्मव्युत्सर्गतपः ५ नामकर्म व्युत्सर्ग तपः ६ गोत्रकर्म व्युत्सर्गतः ७ अन्तरायकर्मव्युत्सर्गतपश्च-८ इत्येवं खल्वष्टविधं कर्मव्युत्सर्गतपो भवतीति भावः। तत्र ज्ञानावरणकर्मणः परित्यागो ज्ञानावरणीयकर्मव्युत्सर्गतपो व्यपदिश्यते । दर्शनावरणीयकर्मणः परित्यागो दर्शनावरणीयकर्मव्युत्सर्गतपो भवति । एवं वेदनीयकर्मणः परित्यागरूप वेदनीयकर्मव्युत्सर्गतपो भवति। एवं चारित्रमोहनीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणः परित्यागरूपं मोहनीय कमव्युत्सर्गतपो भवति । एवं खलु-आयुष्यकर्मणः परित्यागरूपम् आयुष्यकर्मव्युत्सर्ग तपो भवति एवं-नामकर्मणः परित्यागरूप नाभकर्म व्युत्सर्ग तपो भवति । एवम्-गोत्रकर्मणः परित्यागरूपं गेत्रकर्मव्युत्सर्गतपो भवति, एनसेवाऽन्तरायकमणः परित्याग रूपम् अन्तरायकर्मव्युत्तर्ग तपो भवति । उक्तञ्च औपपातिके३० स्त्रे-से कि तं कम्मविउस्लग्गे ? कम्नवि उस्सग्गे अविहे पन्नत्से, तं जटा-जाणावरणिज्जकम्मविउत्सगे १ दरिलणावणिज्ज कम्पनि उस्लग्गे-२ वेणिज्ज कम्म विउस्लग्गे३ मोहणिज्ज कम्म विउस्रो १ आउकम्म कर्मव्युत्सर्ग तप (६) नामक व्युस्वर्ग तप (७) धोत्रकर्मव्यु. रसर्ग तप और (८) अन्तराय कर्म गुत्सर्ग लप) -ह आठ प्रकार का कर्मगुत्सर्ग तप है। ज्ञानावरण कर्म का परित्याग ज्ञानावरणीय कर्म का कहलाता है, दर्शनावरण कर्म का परित्याग दर्शनावरणीय कर्म गुरुवर्ग कहलाता है, वेदनीय कर्म :को परित्याग वेदनीय कर्म गुस्सा कहलाता है, दर्शन मोहनीय और चारिन मोहनीय कर्म का परित्याग मोहनीय कर्म गुस्मर्ग कहलाता है, आशुज्य कर्म क्षा परित्याग आध कर्म व्युत्तर्ग कहलाता है, धोत्रकर्म का परित्याग गोत्र कर्म गुरला कहलाता है और अन्तराय कर्म का परित्याग अन्तराय कर्म व्युत्सर्ग कहलाता है। औपपातिक सूत्र के तील सूत्र में कहा हैતપ (૭) ગોત્રકમ વ્યુત્સર્ગતપ અને (૮) અત્તરાયકર્મચુત્સર્ગતપ આ આઠ પ્રકારના કમ વ્યુત્યર્ગ તપ છે. જ્ઞાનાવરણકમને પરિત્યાગ જ્ઞાનાવરણીયકર્મબુત્સર્ગ કહેવાય છે, દર્શના વરણ કમને પરિત્યાગ દશનાવરણીયકર્મભુત્સર્ગ કહેવાય છે વેદનીયકમને પરિત્યાગ વેદનીયકર્મયુત્સર્ગ કહેવાય છે દર્શનમોહનીય અને ચારિત્ર મેહનીય કર્મને પરિત્યાગ મેહનીયકર્મભુત્સર્ગ કહેવાય છે. આયુષ્યકર્મને પરિત્યાગ આયુષ્યકર્મવ્યુત્સર્ગ કહેવાય છે, નામકર્મને પરિત્યાગ નામકર્મવ્યુત્સર્ગ કહેવાય છે, ગોત્રકર્મને પરિત્યાગ ગોત્રકર્મવ્યુત્સર્ગ કહેવાય છે અને અન્તરાયકર્મને પરિત્યાગ અન્તરાયકર્મ વ્યુત્સર્ગ કહેવાય છે. પાનિ સૂવના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ naries ६ जाम ८ से तंव धम्म --- चिसो ६ पोषकम्प विस्सगे ७ अंतराव से तं भावविसग्गे इति as sisai shagraः १ कर्मभ्युत्सर्गोऽष्टविधः प्रमः, तद्यथा - ज्ञानावरणीय धर्मपुत्सर्गः - दर्शनावरणीय कर्मभ्युत्सर्गः वेदनीय कर्मभ्युत्सर्गः मोहनीय कर्मम्यु रसर्गः - आयुष्पकर्म व्युत्यर्ग:- नामकर्मन्युत्सर्गः गोत्रकर्मव्युत्सर्गः अन्तरायकर्म व्युत्सर्गः इति । एवञ्चद् द्विविधमपि बाह्याभ्यन्तरश्च प्रत्येकं पविधत्वेन द्वादश प्रकारकं निरोधहेतुत्वात् संवत्करणं भवति पूर्ववार्जित कर्मपुखरजोविधूनननिमित्तत्वाच्च निर्जरा हेतु भवतीति भावः । एवञ्च ज्ञानावरणदर्शनावरणोः सयाद अनन्तज्ञान- दर्शने भवतः वेदनीयकर्मपाद् इन्द्रियजनित् प्रश्न-फर्म लगे के कितने भेद है ? " उत्तर- फर्मageसर्ग के आठ भेद हैं, यथा - (१) ज्ञानावरणीय कर्म सर्ग (२) दर्शनाणी कर्म उपसर्ग (३) वेदनीय कर्म व्युत्सर्ग (४) मोहनीय कर्म (५) आयुकर्मन्युलर्ग (६) नामकर्मवत्सर्ग (७) गोत्रकर्म व्युत्सर्ग और (८) अन्तराय कर्म व्युत्सर्ग। इस प्रकार छह बाह्य और छह आभ्यन्तर तप मिलकर बारह होते, हैं । यह बारह कर्मो का तप नवीन कर्मों के आय के निरोध का कारण होने से तंवर का हेतु है और पूर्वसंचित कर्मों के क्षण का कारण होने से निर्जरा का भी हेतु होता है । जब पूर्वोपर्जित कर्मों का क्षत्र और नूतन कर्मों के आस्रव का निरोध हो जाता है तो आत्मा की स्व भाविक शक्तियं अभिव्यक्त से उठती है। ज्ञानावरण के क्षय से अन न्त ज्ञान और दर्शनावरण के क्षय से अनन्त दर्शन की प्राप्ती होती है। પ્ર—કન્યુલ્સગČના કેટલાં ભેદ છે ? उत्तर- ४र्भव्युत्सर्गना माह ले छे, भेडे - ( १ ) ज्ञानावरणीय व्यु त्सर्ग (२) दृशनावरणीय भव्युत्सम ( 3 ) देहनीयम व्युत्सर्ग (४) भाडनीय हम व्युत्स (५) माथुम्भ व्युत्स" ( () नामम्भ०यु-स (७) गर्भ व्युत्सर्ग (८) मन्तरायभव्युत्सर्ग, नामम्र्मव्यु-सर्ग આ રીતે છ ખાદ્ય અને છ આભ્યન્તર તપ મળીને ખાર થાય છે ખાર પ્રકારના તપ નવીન કાંતા સત્રના નિરાધના કારણ હાવાથી સ`વરના હેતુ છે અને પૂચિત કર્મોના ક્ષયના કારગ હાવાથી નિશના પણ્ હતુ થઈ જાય છે ત્યારે આત્માની સ્વાભાવિક શક્તિએ અભિવ્યકત થઈ જાય છે. છે. જ્યારે પૂર્વાપતિ કર્મોના ક્ષત્ર અને નૂતન કર્મોના આસવના નિરાધ જ્ઞાનાવરણુના ક્ષયથી અનન્તજ્ઞાન અને દશનાવરણુના ક્ષયથી અનનર્દેશનની ? f { Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीविका -निर्युक्ति टीका अ. ८ सू. ३६ निर्जरा सर्वेषां समाना विशेषरूपा वा ७१३ सुख-दुःखक्षयो भवति, मोहनीयकर्मक्षयात् अनन्तसुखं भवति, आयुष्यकर्मक्षयात् जन्म-मरणक्षयो भवति, नामगोत्रक्षपाद अमूर्त्तत्वं भवति, गोत्रकर्मक्षयात् नीचोच्चगोत्रक्षयो भवति, अन्तरायकर्मक्षयादनन्तवीर्ये भवति इतिभावः ||३५|| मूलम् -मिच्छादिट्टिआइ चउदसगुणद्वाणड़ियाणं जहकमं असंखेजगुणनिजरा ॥३६॥ # छाया - मिथ्यादृष्यादि चतुर्दशगुणस्थानस्थितानां यथाक्रमम् असंख्येय. गुणनिर्जरा ||३६|| तत्रार्थदीपिका - पूर्व तावद् वाह्याभ्यन्तर द्वादश तपोभिर्देशतः कर्मक्षय लक्षणा निर्जरा भवतीत्युक्तम्, सम्पति सा सर्वेषां मिथ्यादृष्टिमभृतीनां किं समानैव भवति आहोस्विदस्ति कचित् प्रतिविशेषः ? इति जिज्ञासायामाह - 'मिच्छादिष्टि' वेदनीय कर्म के क्षय से इन्द्रियजनित सुख और दुःख का अन्त हो जाता है । मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्त सुख की प्राप्ती होती है । आयु कर्म के क्षय से जन्म-मरण का अन्त आ जाता है । नामकर्म के क्षय से आत्मा का अमूर्त्तत्व गुण प्रकट हो जाता है । गोत्र कर्म का क्षय होने पर नीच और उच्च गोत्रों का क्षय हो जाता है । अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्त वीर्य प्रकट होता है ||३५|| 'मिच्छादिट्टि आह' इत्यादि । सूत्रार्थ - मिथ्यादृष्टि आदि चौदन गुणस्थानों में स्थित जीवों को अनुक्रम से असंख्यात असंख्यात गुणी निर्जरा होती है || ३६ || तत्वार्थदीपिका - - पहले बनलाया गया है कि बाह्य और आभ्यन्तर तप से कर्म की निर्जरा होती है, अब इस जिज्ञासा का समाधान करते પ્રાપ્તિ થાય છે. વેદનીયક ના ક્ષયથી ન્દ્રિયજનિત સુખ અને દુઃખન્ના અન્ત થઈ જાય છે. માઢનીચકર્માંના ક્ષયથી અનન્ત સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે આયુષ્ય કર્મના ક્ષયથી જન્મ-મરણના અન્ત આવી જાય છે. નામકમના ક્ષયથી અત્મા ને અમૂત્તત્વગુણ પ્રકટ થઇ જાય છે. ગેત્રકમ ને! ક્ષય થવાથી નીચ અને ઉચ્ચ ગાત્રાના ક્ષય થઈ જાય છે, અન્તરાયકમ ના ક્ષયથી અનન્તવીય પ્રકટ થાય છે, ૩૫૫ 'मिच्छदिट्टि आइ' धत्याहि સૂત્રા-મિથ્યાદૃષ્ટિ અ િચૌઢ ગુચસ્થાનામાં સ્થિત જીવેને અનુક્રમથી અસ ખ્યાત-અસ ખ્યાતગણી નિર્જરા થાય છે !! ૩૬ ૫ તત્ત્વાથ દીપિકા પહેલા અતાવવામાં આવ્યું કે ખાદ્ય અને અભ્યુતર તપથી ક્રમની નિરા થાય છે, હવે એ જિજ્ઞાસાનું' સમાધાન કરીએ છીએ त० ९० Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ सूत्रे ७१४ इत्यादि । मिथ्यादृष्टेः प्रथमगुणस्थानस्थितस्य, आदिना सास्वादन सम्यग्टष्टेः२, सम्यग्मिथ्यादृष्टेः ३, अविरतसम्यग्प्टे ४, विरताविरतस्य ५, प्रमत्तसंयतस्य ६, अमत्त संयतस्य७, निवृत्तिनादरस्प८, अनिवृत्तिवादरस्य ९ सूक्ष्म संपरायस्य १०. उपशान्वमोहस्य ११, क्षीणमोहस्य १२, सयोगिकेर लिन । १३, अयोगिकेवलिनथ, हत्येतेषां सर्वेषां यथाक्रमं क्रमशः पूर्वपूर्वस्यादुत्तरोत्तरेपामसंख्येयगुणा निर्जरा भवतीति सूत्रसंक्षेपार्थः । 3 अथैकैकए एते प्रदश्यन्ते तत्र प्रथमं तावद् जीवः अनादिकालतो मिथ्यादृष्टिरेव तत्र यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञीपर्याप्तकः पूर्वकालिकलव्ध्यादि सहायः स हैं कि वह निर्जरा मिथ्यादृष्टि आदि को समान होती है या कुछ अन्तर पडता है ?--- (१) मिध्यादृष्टि (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि (३) सम्यग् मिथ्यादृष्टि (४) अविरत सम्पादृष्टि (५) विस्तारित (६) प्रमत्तसंघत (७) अप्रमत्तसंत (८) निसिपादर (९) अनिवृत्तिवादर (१०) सूक्ष्म लाम्पराय (११) उपशान्त मोह (१२) क्षीणमेह (१२) योगि केवली और (१४) अयोगि केवली, इनमें से पहले-पहले वाले की अपेक्षा आगे-आगे वाले को असंख्यात असंख्यात गुप्पी निर्जरा होती है। तास्पर्य यह है कि मिथ्या दृष्टि की अपेक्षा लास्वादन सम्यग्दृष्टि असंख्यात गुणी अधिक निर्जरा करता है, सास्वादन सम्पदृष्टि की अपेक्षा मिश्रदृष्टि असंख्यात गुणी निर्जरा करता है और मिश्रष्टि की अपेक्षा सम्यग्ध असंख्यात गुणी निर्जरा करता है, इसी प्रकार अयोगि केवली तक समझना चाहिए । કે તે નિરા મિથ્યદૃષ્ટિ વગેરેની માફક હાય છે કે તેમાં કાઈ ફેર પડે છે ? (१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादन सभ्यष्टि (3) सभ्य मिथ्यादृष्टि (४) अविरतसभ्यड्रदृष्टि ( विस्तावित ( १ ) प्रयत्तसंयत (७) अअभत्तस्यत (८) निवृत्तिणाहर (८) अनिवृत्तिणाहर (१०) सूक्ष्मसाम्पराय ( ११ ) उपशान्तभेोर (१२) क्षीणुभेोड (१३) सयोगिठेवजी भने (१४) भयेोगिवणी, शेभांथी पहेला -પહેલાવાળાની અપેક્ષા પછી-પછીવાળાને અસંખ્યાન અસંખ્યાત ગુણી વધારે નિર્જરા થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે મિથ્યાદૃષ્ટિની અપેક્ષા સાસ્વાદન સભ્યકૂદૃષ્ટિ અસંખ્ય તગણિ નિર્જરા કરે છે. સાસ્વાદન સમ્યકૂષ્ટિની અપેક્ષા મિશ્રÈ È અસખ્યાતગણી નિરા કરે છે અને મિશ્રર્દષ્ટિની અપેક્ષા સદૃષ્ટિ અસ ખ્યાતગણી નિરાકરે છે, એવી જ રીતે અચેગિ કેવળી પર્યન્ત સમજવું ોઈએ. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टोका अ.८ सू.३६ निर्जरा सर्वेषां समाना विशेषरूपा वा ७१५ क्रमशः परिणामविशुद्धया वर्तमानपरिणामः सन् अपूर्वशरणादि सोपानपङ्गया समुत्प्लवमानः कर्मनिर्जरा कर्तुं यतते ?, स एव पुनः प्रथमं शुमकर्मवशात् सम्यत्वमाप्ति हेतुसान्निध्ये सति लत्यक्त्वमासादितुमिछुः सास्वादनसम्यग्दृष्टि. भवति, सास्वादनसम्यग्दृष्टिरिति कोऽर्थः ? सह आस्शदनेन तत्वश्रद्धानरूपेषद्रसास्वादरूपेण बत्तते यत्तत् सास्पदनम् , ताशसम्यक्त्ववान् सास्वादनसम्यग्दृष्टिरुच्यते । अयं हि सुक्तक्षीराविषयव्यलीकचित्तः पुरुषोऽरुचिदशात्तद्वमनकाले यादृशं क्षीरानरसस्यास्वादानुभवति तथैव सम्यक्त्वस्य तथाविधमास्वादमात्रमनुभवति, अल्य काल एकसलया दारभ्योत्कृष्टतः षडाबलिकापरिमितो अब इन सब का स्वरूप प्रदर्शित करते हैं-(१) जो जीय दर्शन मोहनीय कर्म के उदद्य ले युक्त है और इस कारण तत्वश्रद्धा से रहित है, वह मियादृष्टि कहलाता है। (१) किसी मिथ्यावष्टि जीव ने पंचेन्द्रिय, लजी और पर्याप्त अवस्था प्राप्त करके तथों अपूर्व आदि परिणामों को प्राप्त करके एवं दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करके खम्प दर्शन प्राप्त किया, किन्तु अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् (क्योंकि औषधि या अनाहूतं तक ही रहता है).. वह सम्यक्त्व ले च्युन हो गया भमर लिथ्यात्म की स्थिति में नहीं पहुंचा उस समय की उसकी दशा लास्वादन स्पष्टि अवस्था कहलाती है। जैसे कोई मनुष्य किसी प्रासाद की छत के नीचे गिरे और पृथ्वी पर न पहुंच पाए, वैसी ही दशा सास्वादन सम्परष्टि की होती है। जैसे किसी ने खीर का भोजन किया हो और यह उसका वमन करे હવે આ બધાના સ્વરૂપ પ્રદર્શિત કરીએ છીએ-(૧) જે જીવ દર્શન મોહનીયકર્મના ઉદયથી યુક્ત છે અને આ કારણે તત્વશ્રદ્ધાથી રહિત છે તે મિથ્યાદડિટ કહેવાય છે (૨) કોઈ મિથ્યાદષ્ટિ જીવે પંચેન્દ્રિય સંજ્ઞી અને પર્યાપ્ત અવસ્થા પ્રાપ્ત કરીને તથા અપૂર્વકરણ આદિ પરિણામોને પ્રાપ્ત કરીને અને દર્શન મેહનીય કર્મને ઉપશમ કરીને સમ્યક્દર્શન પ્રાપ્ત કર્યું પરંતુ અન્તમુહૂર્ત બાદ (કારણ કે ઔપશમિક સમ્યકત્વ અન્તમુહૂર્ત સુધી જ રહે છે) તે સમ્યકત્વથી ભ્રષ્ટ થઈ ગયે પરંતુ મિથ્યાત્વની સ્થિતિમાં પહોંચ્યું નથી. તે સમયની તેની દશા સાસ્વાદન સમ્યક્દષ્ટિ અવસ્થા કહેવાય છે. જેમ કઈ મનુષ્ય કેઈ મહેલની છત પરથી નીચે પડે અને પૃથ્વી પર ન પહોંચી શકે, એવી જ દશા સાસ્વાદન સમ્યગદષ્ટિની થાય છે. ધારો કે કોઈએ ખીરન’ ભોજન કર્યું હોય અને તે તેનું વમન કરે ત્યારે ઉલટીના સમયે જે ખીર - } Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ भवति । ततो मिथ्याटेर पेक्षयाऽपमसंख्येयगुणनिजरावान् भवति २। ततः परमसौं सम्यक्त्वास्त्रादयभागद् बर्द्धमानपरिणामः सन् पडावलिकाकालानन्तरं मिथ्यात्वभावमल्पीकुर्वन् सम्यग्निवाष्टिः (मिश्रप्टि:) भवति । सम्यक्समीचीना च मिथ्याच दृष्टियस्याऽमो सम्य इण्यादृष्टिः, मिथशत्वपुद्गला एवं ईपद विशुद्धाः सध्यमिथ्यात्वव्यपदेशभाजो भनि । यदुदयवशात् जिनप्रणीतं तो वमन के समा जले खीर का स्माद भाता है, उसी प्रकार सास्वदन सम्यक्स्व के समय स्यग्दर्शन का कुछ-कुछ आस्वादन रहता है। जीव की यह दशा चौदह गुगस्थानों में ले विनीध गु गम्धान कहलाती है। यह दशा सम्पराव से गिरते समय ही होनी है। इसका उत्कृष्ट काल छह आयलिका है । मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सास्वादन सम्यग्दृष्टि असंख्यात गुणी अधिक निर्जरा करता है। (३) मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से जीव न तो पूरी तरह तत्व श्रद्धान करता है और न तस्यों के प्रति एकल अश्रद्धा ही करता है। उसके परिणाम उस समय मिले-जुले अर्थात् सम्यक्त्व मिथ्यात्वमय होते हैं। इस मिली-जुली अवस्था को मिश्रदृष्टि कहते हैं। जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा आंशिक रूप में समीचीन और आंशिक रूप में असमीचीन है वह मिश्रष्टि बन्ध के समय मिथ्याय के ही पुद्गलों का बन्ध होता है, किन्तु वे पुद्गल ही जब अर्धविशुद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं तत्र मिश्र कहलाते हैं। उन मिश्र पुद्गलों के उदय से जीव की સ્વાદ આવે છે તેવી જ રીતે સાસ્વાદન સમ્યકત્વના સમયે સમ્યગ દર્શનનું કંઈ કંઈ આસ્વાદન રહે છે. જીવની આ દશા ચૌદ ગુણસ્થાનમાંથી દ્વિતીય ગુણસ્થાન કહેવાય છે. આ દશા સમ્યકત્વથી પડતી વખતે જ થાય છે. આને ઉત્કૃષ્ટ કાળ છ આવલિકા છે. મિથ્યાષ્ટિની અપેક્ષા સાસ્વાદન સમ્યક્દષ્ટિ અસંખ્યાત २. मधि नि ! अरे छे. (૩) મિશ્રમેહનીયમના ઉદયથી જીવન તે પૂરી રીતે તત્વશ્રદ્ધાન કરે છે અને ન તની પ્રતિ એકાન્ત અથદ્ધા જ કરે છે તેના પરિણામે તે સમય સેળભેળ અર્થાત્ સમ્યકત્વ મિથ્યાત્વમય હોય છે. આ મિશ્ર અવસ્થાને મિશ્રદષ્ટિ કહે છે જેની દૃષ્ટિ અર્થાત્ શ્રદ્ધા આંશિક રૂપમાં સમીચીન અને આંશિક રૂપમાં અસમીચીન છે તે મિશ્રદષ્ટિ. બન્ધના સમયે મિથ્યાત્વના જ પગલે બંધાય છે પરંતુ તે પુદ્ગલ જ જ્યારે અર્ધવિશુદ્ધ અવસ્થાને પ્રાપ્ત થાય છે ત્યારે મિશ્ર કહેવાય છે. આ મિશ્ર પુગલોના ઉદયથી જીવની - Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ.८ ८.३६ निर्जरा सर्वेषां समाना विशेषरूपा वा ७१ভ त्वं न सम्यक् श्रद्धचे, नापि निन्दति पतिदौर्बल्यवत्सम्यगसम्यग्ना' इत्येका न्ततो निश्चयं न करोति, तद्विशिष्टदृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिः । अर्को सास्वादन सम्यग्दष्टे रपेक्षया संख्ये गुण निर्जरावान्भवति ३ तथा पुनः स एव सम्यक्त्वसद्भावाद वर्षमानपरिणामः सन् अवित्तसम्यग्दृष्टिति न विरतः सावध व्यापारेभ्यो यः सोऽविरतः स चानौ सम्यग्दृष्टिः यः परगमुनिमणीतां सावध योगविरर्ति सिद्धिघासादप रोहणसोपानभूत जानन्नपि अपत्याख्यानकपायोदयविघ्नवशात् तां नाधिगच्छति, नापि तत् पालनाय प्रयतते इत्यनावविरतबुद्धि में एक प्रकार की दुर्बलता पैदा हो जाती है जिसके कारण वह सम्यक् और असम्यक् का विवेक नहीं कर पाता । जैसे दही और शर्करा का मिश्रण करने पर न खट्टा रहता है, न मीठा हो, मिला-जुला स्वाद होता है, उसी प्रकार मिश्र मोहनीय कर्म के उदघ से मिश्रित परिणाम होते हैं । सास्वादन सम्यक्त्व की स्थिति की अपेक्षा हर स्थिति में असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । जो जीव मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशन से सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है, यह सम्यग्दृष्टि सहलाता है किन्तु अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से एकदेश विरति को भी प्राप्त नहीं कर पाने से अविरत होता है । उसकी अवस्था अविरत सम्पादृष्टि गुणस्थान है । ऐसा जीव सर्वज्ञवणीत विरक्ति को सिद्धि रूपी महल में प्रवेश करने के लिए सोपान के मान समझता है, मगर अत्पाख्यान कषाय के उदद्य स चित्र के कारण उसे प्राप्त नहीं कर पाया । उसका - બુદ્ધિમા એક પ્રકારની દુર્બળતા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે કે જેના કારણે તે સમ્યક્ તથા અસમ્યકૂના વિક કરી શકતે નથી. જેવી રીતે દહી અને સાકરનું મિશ્રણ કરવાથી ન ા ખાટે સ્વાદ રહે છે, ન માઠે, મિશ્ર સ્વાદ હેાય છે. એવી ४ રીતે મિશ્રમેહનીય કર્મના ઉદયથી મિશ્રિત પરિણામ થાય છે સાસ્વાદન સમ્યક્ત્ત્વની સ્થિતિની અપેક્ષા આ સ્થિતિમાં અસખ્યાતગણી નિર્જરા થાય છે (૪) જે જીવ મિથ્યા મેાહનીય ક્રમ ના ઉપશમ ક્ષય અથવા ક્ષયે પશમથી સમ્યકત્વન પ્રાપ્ત કરી લે છે તે સમ્યકૂદૃષ્ટિ કહેવાય છે. પરંતુ અપ્રત્યાખ્યાન કષાયના ઉદયથી એદેશવિરતીને પણ પ્રાપ્ત નહી' થવાથી અવિરત હાય છે. તેની અવસ્થા અવિરત સમ્યક્દૃષ્ટિ ગુણસ્થાન છે. આવા જીવ સવ સપ્રણીત વિર તીને સિદ્ધિ રૂપી મહેલમાં પ્રવેશ કરવા માટેની સીડી સમાન સમજે છે. પરંતુ અપ્રત્યાખ્યાન કષાયના ઉદ્યરૂપ વિગ્નના કારણે તેને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. તેનું પાલન કરવા માટે પ્રયત્ન પન્નુ નથી કરતા. તે અવિરતસમ્યક્દૃષ્ટિ કહેવાય Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सत्त्वार्थ सम्यग्दृष्टि रुच्यते । यथा कश्चित् पुरुषो न्यायशेषानितधनधान्यः प्रचुरभोरविलाससुख सौन्दर्य प्रमुत्पन्नः सुकुलसमुत्पन्नोऽपि दुग्न्तयनादि व्यसनजनिता. पराधलब्धराजदण्डः संखण्डिताभिमानश्चण्डदण्ड पाशिक विडम्यमानः स्वकुत्सितं कर्मप्रतिष्ठामतिकूल जानन् बकुलसौन्दर्यसम्पदभिलपन्नपि दण्ड. पाशिकसमीपे किमपि वक्तुं न शक्नोति, तथैवाऽयं जीदोऽविरति कुत्सितकर्म कल्पा जानन् सुधोपमविरति सुखसौन्दर्य ममिलपानपि दण्डपाशिककल्पा द्वितीया प्रत्यास मानरूपायाणां समीपे व्रतोत्साहपनि कतै न शक्नोति इत्यविरत-सम्य दृष्टित्व मनुमति अयं सम्यग्मिथ्यादृष्टयपेक्षयाऽयंख्येयगुणनिर्जरावान्मपालन करने के लिए प्रयत्न भी नहीं करता। वह अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है। कोई पुरुष न्याय-नीति ले धन उपार्जन करता था, प्रचुर भोग-विलाल एवं सुख-सामन्त्री में उत्पन्न हुआ, लुकुल में जन्म पाया किन्तु जुगारियों को संगति में पड़का जुमा खेलने लगा। फलस्वरूप उसे राजदण्ड की प्राप्ती हुई । उसका अभिमान खंडित हो गया। दण्डपा. शिक उसे सताते हैं। वह अपने अन्य को अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझता है। अपने कुल की प्रतिष्ठा को कायम रखना चाहता है। मगर दण्डपाशिकों के सामने उसकी एक नहीं चलती। इसी प्रकार यह जीव अधिरति को कुकृत्य के समान लमज्ञना है । वह अमृन के समान विरलि-सुख की अभिलाषा भी करता है। नगर दण्डपाशिक के लमान अप्रत्याख्याल कपाय के उदय के कारण विरति के लिए उत्साह भी प्रस्ट नहीं कर सकता। ऐसा अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुष मिश्रष्टि की अपेक्षा असंख्यान गुणी तर्मनिर्जरा करता है। છે. કેઈ પુરૂષ ન્યાયનીતિથી ધર્મોપાર્જન કરતો હતે, પ્રચુર ભોગવિલાસ અને સુખસામગ્રીમાં ઉત્પન્ન થયે. ઉત્તમ કુળમાં જ છે પરંતુ જુગારીઓની સેબતમાં જ પડીને જુગાર રમવા લાગ્યું પરિણામે તેને રાજદંડની પ્રાપ્તિ થઈ તેનું અભિમાન ઓસરી ગયું. દંડપાશિક તેને સતાવે છે તે પિતાને કુકૃત્યને પિતાની પ્રતિષ્ઠાની પ્રતિકૂળ સમજે છે. પિતાના કુળની પ્રતિષ્ઠાને કાયમી રાખવા ઈચ્છે છે પરંતુ દડપાક્ષિકે આગળ તેની એક પણ યુક્તિ કારગત નિવડતી નથી. તેવી જ રીતે આ જીવ અવિરતીને કુકૃત્યની બરાબર સમજે છે. તે અમૃત જેવા વિરતી સુખની ઝંખના પણ કરે છે પરંતુ દંડપાશિકની જેમ અપ્રત્યાખ્યાન કષાયના ઉદયને કારણે વિરતીને માટે ઉત્સાહ પણ પ્રગટ કરી શકતો નથી. આ અવિરત સમ્યદષ્ટિ પુરૂષ મિશ્રદષ્ટિની અપેક્ષા અસંખ્યાતગણી કર્મનિર્ભર કરે છે. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.८ ९.३६ निर्जरा सर्वेषां समाना विशेषरूपा वा ७१९ वति ।। स एव पुनश्चारित्रमोहनीयकर्मविकल्पाऽपत्याख्यानावरणक्षयोपशमकारण. परिणाममाप्तिकाछे रिशुद्धि प्रकर्षयोगाद् विस्ताविरतो देशविरतिश्रावको भवन विरताऽविरत इति-स्थूछमाणातिपातादि पापेभ्यो विरतः सूक्ष्मेभ्योऽविरत एतादृशः सन पूर्वापेक्षयाऽसंख्येयगुण निर्जरावान् भवति ५ एवमग्रेऽपि चतुर्दशगुणस्थानपर्यन्तं स्वयमूहनीयम् ६ ॥३६॥ __तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व खलु अनशनादि षड्विधवायतोऽनुष्ठानास्मायश्चित्तादि षविधाभ्यन्तरतपोऽनुष्ठानाच्च कर्मणः फलमोगलक्षणविपाकाच देशतः कर्मक्षयळक्षणा निर्जरा भवतीति भविषादिवम्, सम्प्रति सा खल्ल निजरा कि सर्वेषां मिथ्यादृष्टयादीनां समान भवति ? होखित्-कश्चित्पतिविशेषो (৬) ভবিল সুতি জাঘ ভাল ফাস্ট ক খ গ ভবহান জন্য স্কুল হিড়ি মা অনলা ই ঈ হলিখালি গান্ধি चारित्र परिणाम को प्राप्त करता है तब विरताविरत कहलाता है। वह स्थूल प्राणातिपात से निवृत्त हो जाता है किन्तु स्वक्षम प्राणातिपात से निवृत्त नहीं होता। ऐसा जीप श्रावक कहलाता है और वह अविरत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा असंख्यात गुणी कर्मलिजेरा का लागी होता है। - इसी प्रकार आगे भी चौदह गुणस्थान पर्यन्त स्वयं ही समझ लेना चाहिए ॥३६॥ तत्वार्थनियुक्तिः-पहले प्रतिपादन किया गया था कि अनशन आदि बाह्य तपा के अनुष्ठान ले, प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तपों के अनुष्ठान ले तथा कर्म के विपाक ले निर्जरा होती है। किन्तु बह निना मिथ्यादृष्टि आदि सभी को समान ही होती है या इसमें कुछ विशेषता (૫) અવિરતસમ્યક્દષ્ટિ જીવ અપ્રત્યાખ્યાન કષાયના ક્ષય અથવા ઉપામથી જ્યારે થોડી વિશુદ્ધિ સંપાદન કરે છે અને દેશવિરતી–આંશિકચારિત્ર પરિણા મને પ્રાપ્ત કરે છે ત્યારે વીરતાવિરત કહેવાય છે તે સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત આદિથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. પરંતુ સૂમપ્રાણાતિપાત આદિથી નિવૃત્ત થત નથી. આ જીવ શ્રાવક કહેવાય છે અને તે અવિરત સમ્યફદષ્ટિની અપેક્ષા અસંખ્યાતગણું કર્મનિજોને ભાગી થાય છે. આજ રીતે પછી પણ ચૌદમાં ગુણસ્થાન પર્યત જાતે જ સમજી લેવુ ઘટે. દા. તત્વાર્થનિયુકિત-- પહેલાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે અનશન આદિ બાહ્ય તપશ્ચર્યાના અનષ્ઠાનથી પ્રાયશ્ચિત આદિ આભ્યન્તર તપોના અનુષ્ઠાનથી તથા કર્મના વિપાઠથી નિજા થાય છે. પરંતુ તે નિર્જરા મિથ્યાદષ્ટિ આદિ બધાને સરખી જ થાય છે કે એમાં કોઈ વિશેષતા છે એ શંકાનું નિવારણ કેવા અર્થે કહીએ છીએ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे ७२० ऽस्ति ? इति शङ्कानिवारणार्थमाह- 'त्रिच्छादिडि आइचउदसवाद्वाणहियाणं जहमं असंखेज्जगुणतिज्ञ्जरी' मिध्यादृष्टेः १ आदिना - सास्वादन सम्यअष्टेः २ सम्यग्दृष्टेः ३ अविश्वसम्यग्दृप्टे ४ विरताविरतस्य मशत्तसंयतस्य ६ अप्रमत्तसंतस्य ७ निवृतिवादरस्य ८ अनिवृत्तिवादरस्य ९ सूक्ष्मसम्परायस्य १० उपशान्तमोहस्य ११ संयोगि केवलिन १४३ यथाक्रमं क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा भवति । एते चतुर्दश क्रमशेोऽसंख्येयगुणनिर्जरावन्तो भवन्तीतिभावः । अथैकैकश एते दन्ते तत्र प्रथमं तावज्जीवोऽनादिकालतो मिध्यादृष्टिरेव तत्र यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञीपर्याप्तः पूर्वशालिक लब्ध्यादि सहायः स क्रमशः परिणाम त्रिशुद्धया वर्द्ध मानपरिणामः सन् पूर्वकरणादि सोपानपट्ट्या समुत्प्लवमानः कर्मनिशं कर्तुं यतते १ स एव पुनः प्रथमं शुभकर्मवशात् सम्यक्त्वमाप्तिहेतुइस शंका का निवारण करने के लिए कहते हैं 1 - (१) मिथ्याष्टि (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि (३) सम्पग्मिवादृष्टि (४) अविरत ष्टि (५) विरताविरत (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) निवृत्ति वादर (९) अनिवृत्ति चादर (१०) सूक्ष्म साम्प राव (११) उपशान्त मोह (१२) क्षीणमोह (१३) सयोगिकेवली और (१४) अयोगिकेवली के अनुक्रम से असंख्यात ख्यातगुणी निर्जरा शेती है। अब इनमें से एक एम का स्वरूप दिखलाते हैं 4.tingg (१) जिस जीव के दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबंधी कपाय का हृदय होता है और इसी कारण जिसमें समान रूप परिणाम उत्पन्न नहीं होता, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। मिध्यादृष्टि जीव दो प्रकार के होते है-अनादृष्टि और सादिमिध्यादृष्टि । मिध्यादृष्टि जीव सब से कम निर्जरा करता है । (१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादनसभ्यष्टि (3) सभ्यष्ट्र मिथ्यादृष्टि (x) अविरत सभ्य (५) विश्तावित (६) प्रमत्तस्यत (७) अप्रमतसंयत ( ८ ) निवृत्तिभाहर (5) निवृत्तिमहर (१०) सूक्ष्मस पराय ( ११ ) उपशांतभेोड ( 1२) श्री मेह (13) सयेोगी देवजी भने (१४) अयोगी देवाजीने अनुभथी असખ્યાત—અસ`ખ્યાતગણી નિર્જરા થાય છે. હવે એમાંથી એકએકનુ સ્વરૂપ તાવીએ છીએ (૧) જે જીવને દર્શીનમેહનીય અને અનંતાનુ ધકષાયના ઉદય થાય છે અને એ કારણે જ જેનામાં તતૃશ્રદ્વાન રૂપ પરિણામ ઉત્પન્ન થતું નથી તે મિથ્યાષ્ટિ કહેવાય છે. મિથ્યાદૃષ્ટિ જીત્ર એ પ્રકારનાં હેાય છે અનાદિમિ દૃષ્ટિ અને સાદી મિશ્રાદ્રષ્ટિ મિથ્યાષ્ટિજીવ માંથી એછી કમ નિજ રા કરે છે Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका आ.८६.३६ निजरा सर्वेषां समाना विशेषरूपाचा ७२१ सान्निध्ये सति सम्यक्रमास्त्रादितुमिच्छुः सास्वादनसम्यग्दृष्टिर्भवति, सा. स्वादनसम्यग्दृष्टिरितिक ऽर्थः ? सह-आस्वादनेन तत्वश्रद्धानरूपेषद् रसास्वा. दरूपेण वर्तते यत्तत् सास्वादनम् तादृश सम्यक्त्ववान् सास्वादनसम्यग्दृष्टिरुच्यते। अयं हि-भुक्तक्षीरानविषयव्यलीकचित्तः पुरुषोऽरुचिषशाद्वमनकाले यादृश क्षीरानरसस्याऽऽस्वादानुभवति तथैव सम्यक्त्वस्य तथाविधमास्वादमात्र मनुभवति, अस्य काल:-एकसमयादारभ्योत्कृष्टतः पडावलिकापरिमितो भवति । ततो मिथ्यादृष्टेरपेक्षयाऽयमसंख्येय गुणनिजरावान् भवति २ ततः परमसौम्य पत्वास्वादप्रभावाद् बर्द्धमानपरिणामः सन् पडावलिकाकालानन्तरं मिथ्यात्वभाव. मल्पीकुर्वन् सम्पमिथ्याष्टिः (मिश्राष्टिः) भवति । सम्यक् समीचीना च मिथ्या च ..(२) दुसरा गुणस्थान सास्वादन लाम्यग्दृष्टि है। यह गुणस्थान सम्य. क्व से च्युत होते समय ही होता है। जी जब सम्यक्त्व रूपी पर्वत से गिर जाता है किन्तु मिशवाय रूपी धरातल पर नहीं पहुंचता-वमन किये हुए सम्यक्त्व का किंचित् आस्वादन्न होलारहता है, उस समय की स्थिति सास्वादन गुणस्थान कहलाती है। इस गुण स्थान का काल एक समय से लेकर अधिक से अधिक छह आर्शल का है। सास्वादन सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा असंख्यात गुणी कार्मनिर्जरा करता है। (३) मिश्रमोहनीयम के उदय हे ल एकान्तमिथ्यात्वरूप और न एकान्त सम्यक्त्वरूप परिणाम होता है किन्तु मिश्रितपरिणाम होता है । जीव की वह स्थिति मिश्रष्टिगुणस्थान कहलाती है। मिथ्यात्व के (૨) બીજું ગુણસ્થાન સાસ્વાદ-સમ્યદ ટ છે આ ગુણગાન સમ્યકૂવથી ભ્રષ્ટ થતી વખતે થ ય છે જીવ જ્યારે સમ્યકત્વરૂપી પર્વત ઉપરથી પડી જાય છે. પણ મિથ્યાત્વરૂપી ધરાતલ સુધી પહોંચતું નથી-વમન કરેલા સમ્યકત્વનું કિ ચિંત આસ્વાદન થતું રહે છે તે સમયની સ્થિતિ સાસ્વાદન ગુણ સ્થાન કહેવાય છે. આ ગુણસ્થાનનો કાળ એક સમયથી લઈને વધુમાં વધુ છ આવલિકાને છે. સાસ્વાદન સમ્યક્દષ્ટિ જીવ, સિચ્ચાદષ્ટિની અપેક્ષા અસખ્યાત ગણું કર્મનિર્જરા કરે છે. (૩) મિશ્ર મોહનીય કર્મના ઉદયથી ન તે એકાંત મિથ્યાત્વરૂપ કે ન એકાંત સમ્યકત્વરૂપ પરિણામ થાય છે. પરંતુ મિશ્રિત પરિણામ થાય છે. જીવની તે સ્થિતિ મિશ્રદષ્ટિ ગુણસ્થાન કહેવાય છે. મિથ્યાત્વના મુદ્દગલ જ त० ९१ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ तस्वार्थ दृष्टियस्याऽसौ सत्यग्मियादृष्टिः, मिथ्यात्वपुद्गला एव ईपद् विशुद्धाः सम्यमिथ्यात्व्यपदेशभाजी भवन्ति । यदुदयवशात्-जिनमणीतं तत्त्व न सम्यक् श्रदते नापि निन्दति मतिदैवल्यवशाव-सम्यगसम्परा' इत्येकान्ततो निश्चयं न करोति लहिशिष्टादृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिः । असौ सास्वादनसम्यग्दृष्टेरपेक्षयऽसंख्ये एगुगनिर्जरावान् भवति ३ तथा पुनः स एव सम्यक्त्वांशसभावाद वर्द्धमान परिणामः सत् सर्वथामिथ्यात्व मपनीय अविरतसम्यग्दृष्टिर्भवति न विरतः सावध व्यापारेभ्यो यः सोऽविरतः स चाही सम्यग्दृष्टिश्चा-ऽविरतसम्यग्दृष्टिः, यः परममुनिप्रणीता सावध योगविरति सिद्धिशासादपर्यारोहणानोपानभूता जानन्नति पुद्गल ही किंचित् विशुद्ध होकर सम्पमिथ्यात्व कहलाते हैं, जिनको उदय होने पर जीवन तो जियप्रणीत तत्व पर श्रद्धा करता है और न उनकी निन्दा करता है । उलझी पति इतनी दुर्बल हो जाती है कि वह सम्यक-असम्यक का निवेश नहीं कर पाता। ऐसी दृष्टि सम्याग्निश्यादृष्टि कहलाती है। लपग्मियाहष्टि जीव सास्वादनस. स्यग्दृष्टि की अपेक्षा असंख्यातशुगी कर्मनिर्जरा करता है। (४) जो जीव लिथ्यात्वमोहनीय और अनन्तानुबंधी कषाय के क्षम उपशम अश्वा क्षयोपशान होने पर मिथ्यात्व को सर्वथा हटा हटा कर शुद्ध तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेता है किन्तु सावद्यव्यापारों से तनिक लो चिरत नहीं होता अर्थात् स्थूल हिस्सा आदि का भी त्याग नहीं कर सकता, अव अविरत पादृष्टि कहलाता है। अविरतसस्पदृष्टि जीव लायद्ययोगविरति को मोक्ष-महल में प्रवेश करने के लिए लोपान के समान समझता हुक्षा ली अप्रत्यख्यान कषाय रूप કિંચિત વિશુદ્ધ થઈને સમ્યક્ મિથ્યાત્વ કહેવાય છે. જેને ઉદય થવાથી જીવ ન તો જીનપ્રણીત તત્વ પર શ્રદ્ધા કરે છે કે નથી તેની નિંદા કરતે. તેની બુદ્ધિ એટલી દુર્બળ થઈ જાય છે કે તે સમ્ય-અસભ્યને વિવેક પણ કરી શકતો નથી. આવી દષ્ટિ સમ્યક મિથ્યાદષ્ટિ કહેવાય છે. સમ્યક્ મિથ્યાદૃષ્ટિ જીવ સાસ્વાદન સમ્યક્દષ્ટિની અપેક્ષા અસંખ્યાત ગણી કર્મ નિર્જરા કરે છે. (૪) જે જીવ મિથ્યાત્વ મોહનીય અને અનંતાનુબંધી કષાયને ક્ષય ઉપશમ અથવા ક્ષપશમ થવાથી મિથ્યાત્વને સર્વથા દૂર કરીને શુદ્ધ તત્વશ્રદ્ધાન પ્રાપ્ત કરી લે છે. પરંતુ સાવદ્ય વ્યાપારથી થોડે પણ વિરત નથી અર્થાત્ સ્થવ હિંસા વગેરેને પણ ત્યાગ કરી શકતો નથી. તે અવિરત સમ્ય દષ્ટિ કહેવાય છે. અવિરત સમ્યક્દૃષ્ટિ જીવ સાવધોગવિરતિને મોક્ષ મહેલ માં પ્રવેશ કરવા માટેની સીડી માફક સમઝ થકે પણ અપ્રત્યાખ્યાન કષાય Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.८ ४.३६ निर्जरा सर्वेषां समाना विशेषरूपा वा ७२३ अपत्याख्यानकषायोदयविघ्न शाद खां नाधिगच्छति-नाऽपि-तत् पालनाय प्रयतते इत्पसावविरत सम्पष्टि रुच्यते । यथा कश्चित् पुरुषो न्यायोपार्जित. धनधान्यः प्रचुर भोगविलाप्सनु वसौन्दर्यसमुत्पन्नः सुकुलमुत्पन्नोऽपि दुरन्तद्यूतादि व्यसनजनिताऽपराधकबराजदण्डः संखण्डिताऽभिमानश्च दण्डपाशिक विंडरमानः स्वकं कुत्सितं कर्म स्वप्रतिष्ठापतिकूल जानन् स्वकुल सौन्दर्य सम्पदमि. लपन्नपि दण्डपाशिक समीपे किमपि वस्तुं न शक्नोति, तथैवायं जीनोऽबिरति कुत्सितकर्मकल्पां जानन् सुधोपमविरतिस्मुखसौन्दर्यलभिलपन्नपि दण्डपाशिकाल्पद्वितीयशपायाणां सकाशे व्रतोत्साहमपि कर्तुं न शक्नोति इत्यविरतसम्यग्दृष्टित्व अनुभवति अयं सध्यमिथ्यारण्यपेक्षयाऽसंख्येयगुणनिराशन विघ्न के सदूलाव से जले प्राप्त नहीं कर सकता और न उखका पालन करने का प्रयत्न ही करता है। जैले होई पुरुष न्यायपूर्वक धनोपाजन करता था, विपुल वैभव एवं सुखलाभग्री बोले उच्च परिवार में उत्पन्न हुआ, किन्तु संग दोष ले जु-भारी हो गया। जुमा खेलने के अपराध में उसे राजदण्ड का भागी होना पडा । उनका अभिमान खंडित हो गया। दण्डपाशिक उले सताते हैं। वह अपने कुकर्म को अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझता है और अपने कुल को प्रतिष्ठा को कायम रखने की अभिलाषा हरता है, मगर हण्डपाशिकों के सामने कुछ कर नहीं सकता, उसी प्रकार यह जी अविरक्ति को कुकर्म के समान समझता है और सुधा के समान निति के सुखसौन्दर्य की अभिलाषा करता है, किन्तु धडपाशिक के समान वित्तीय कषाय अप्रत्याख्यानाक्षरण के उदय के सामने उहती कुछ भी नहीं રૂપ વિઘના સદૂભાવથી તેને પ્રાપ્ત કરી શકતે નથી. તેમજ તેનું પાલન કરવાને પણ પ્રયત્ન કરતો નથી. જેમ કેઈ પુરૂષ ન્યાયપૂર્વક દ્રવ્યપાર્જન કરતા હોય વિપુલ, વૈભવ તથા સુખસામગ્રી સંપન્ન ઉચ્ચ પરિવારમાં ઉત્પન્ન થયા હોય પરંતુ સંસગ દષથી જુગાર રમવાના અપરાધ બદલ તેને રાજદંડના ભાગી થવું પડયું હોય તેથી તેનું અભિમાન ખંડિત થઈ જાય છે. દંડ પશ્વિક તેને સતાવે છે તે પિતાના કુકર્મને પિતાની પ્રતિષ્ઠાથી પ્રતિકુળ સમજે છે તેમજ પિતાના કુળની પ્રતિષ્ઠાને કાયમ રાખવાની અભિલાષા કરે છે. પરંતુ દંડપાશ્વિકે આગળ તે કશું કરી શકતો નથી. બરાબર એવી જ રીતે આ જીવ અવિરતિને કુકર્મની બરાબર સમજે છે અને અમૃત જેવી વિરતિના સુખસૌંદર્યની આકાંક્ષા સેવે છે પરંત દંડપશ્વિકની માફક દ્વિતીય કષાય અપ્રત્યાખ્યાનના ઉદયની આગળ તેન Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२५ तत्त्वार्थसूत्रे भवति ४ स एव पुनश्चारित्रमोहनीयकर्म विरालयाऽरत्याख्यानाऽऽवरणक्षयोपशम कारणपरिणामप्रापितकाले विशुद्धिप्रकर्पयोणार -विरताविरतो देशविरतिश्रावको भवन् विरताविरत इति स्थूल पाणातिपाचादि पापेश्यो विस्तः अक्ष्मेभ्योऽविरतः एताशः सन् पूऽपेक्षयाऽसंख्यगुणनिर्जरानान् भवति-५ ततश्च स पत्र परिणामविशुद्या प्रवर्द्धमानः सर्वशिरतित्वं स्वीकुर्वन् प्रथमं प्रमत्तसंयतः किञ्चिप्रमादयुक्तः सर्वविरतो भवति । अयं विरताविरतापेक्षयाऽसंख्येयगुणनिर्जरावान् भवति ६ स एव पुनस्तत्रापि परिणामविशुद्धिवशात् प्रमाद परित्यजन् अप्रमत्त संयतः सर्वप्रमादरहितः सर्वसंपतो भवति पूर्वापेक्षयाऽसंख्येयगुणनिर्जरावान् चलती-वह व्रत के प्रति उत्साह भी प्रदर्शित नहीं कर सकता। इस कारण अविरतसम्यादृष्टि कहलाता है। यह मिश्रष्टि की अपेक्षा असंखपालगुणी निर्जरा करता है। (५) अविरतलम्पष्टिजीव जव कुछ अधिक विशुद्धि प्राप्त करता है और प्रत्याख्यानावरण भापाय का उपशमादि करना है तब उसमें देविरतिपरिणाम उत्पन्न होता है। वह स्थूल प्राणातिपोत अदि पापों से निवृत्त हो जाता है तब विस्ताविरत या देशविरत कहलाता है। इस अवस्था में वह अविरत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करता है। (६) तत्पश्चात् जब प्रत्याख्यानावरण कषाय भी हट जाता है और परिणामों में विशेष शुद्धि उत्पन्न होती है तब वह सविरति को अंगीकार करता है किन्तु बाह्य क्रियाओं में निरत होने से सिंचित् प्रमादयुक्त होता है । यह विस्तारित की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। કંઈ નિવડતું નથી. તે વ્રત પ્રત્યે ઉત્સાહ પણ પ્રદર્શિત કરી શકતું નથી. આથી તે અવિરત સમ્યક્દષ્ટિ કહેવાય છે. આ મિશ્રદષ્ટિની અપેક્ષા અસંખ્યાત ગણી નિર્જરા કરે છે. (૫) અવિરત સમ્યક દષ્ટિ જીવ જ્યારે થોડી વધારે વિશુદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે. અને પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાયને ઉપશમાદિ કરે છે ત્યારે તેનામાં દેશવિરતિ, પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે. તે સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત આદિ પાપોથી મુકત થઈ જાય છે. ત્યારે વિરતાવિરત અથવા દેશવિરત કહેવાય છેઆ અવસ્થામાં તે અવિરત સમ્યક્દષ્ટિની અપેક્ષા અસંખ્યાતગણી કર્મનિર્જરા કરે છે. () ત્યારબાદ જ્યારે પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાય પણ દૂર થાય છે. અને પરિણામમાં વિશેષ શુદ્ધિ ઉત્પન્ન થાય છે ત્યારે તે સર્વવિરતિને અંગીકાર કરે છે. પરંતુ બાહ્ય ક્રિયાઓમાં નિરત હોવાથી થોડે પ્રમાદયકત હોય છે. આ વિરતાવિરતની અપેક્ષા અસંખ્યાતગણી નિર્જરા કરે છે. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्मुक्ति टीका अ८ क्रू.३ निर्जरा सर्वेषां समाना विशेपरूपा वा ७२५ भवति ७ इत्थं परिणाम विशुद्धया क्रमश उत्तरोत्तरं प्रवर्द्धमानो निवृत्तिवादरः, ८ अनिवृत्तिवादः ९ सूक्ष्म संपरायः १० उपशान्तमोहः ११ क्षीणमोहः १२ सयोगिकेवळी - १३ भवति । एते पूर्व पूर्वस्मादुत्तरोत्तर संख्येया संख्येय-गुणकर्मनिर्जरा वन्तो भवन्ति १३ ततोऽसौ सयोगिकेवलि चतुर्दश गुणस्थानमारोहन तत्र योगनिरोधं कृत्वा शैलेश्वस्थां प्राप्तः सन् अयोगिकेवली भूत्वा सर्वकर्मक्षयरूपां निर्जरां करोतीति ॥ १४ ॥ एतेषां विस्तरतो वर्णनं समवायाङ्गमूत्रस्य चतुर्दशसमवाये मत्कृ तायां भावबोधिनीटीकाया सबलोकनीयम् । तथाचोक्तम्- 'कम्मविसोहि (७) प्रमत्तसंघत पुरुष जब परिणाम विशुद्धि के कारण प्रमाद का परित्याग कर देता है- आत्माभिमुख होकर बाह्यविकल्पों से शून्य होता है तब अप्रमत्तसंयत कहलाता है । यह प्रमत्तसंयत की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा करता है । इस प्रकार परिणामो की शुद्धि से क्रमशः उत्तरोतर वृद्धि को प्राप्त होकर (८) निवृत्तिवादर (९) अनिवृत्तिवादर (१०) सूक्ष्मसम्पराय (११) उपशान्तमोह (१२) क्षोगमोह और (१३) सयोगि केवली भी असंख्यात - असंख्यातगुणी निर्जरा वाले होते हैं । सयोगि केचली जब योग का निरोध करके अयोगिकेवली अवस्था में पहुंचते हैं तो सर्व कर्मक्षय रूप निर्जरा करते हैं । इन सब का विशद वर्णन समवायांगसूत्र की मेरे द्वारा रचित भावपोधिनी टीका के चौदहवें समवाय में देख लेना चाहिए । कहा भी है (૭) પ્રમત્તસયત પુરૂષ જ્યારે પરિણામ વિશુદ્ધિને કારણે પ્રમાદને પરિત્યાગ કરી દે છે આત્માભિમુખ થઇને ખ હ્ય વિકલ્પાથી શૂન્ય થાય છે ત્યારે અપ્ર મત સયત કહેવાય છે. આ પ્રમતસ યતની અપેક્ષા અસખ્યાતગણી નિરા કરે છે. આ રીતે પરિણામેાની શુદ્ધિથી ક્રમશ ઉત્તરેત્તર વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થઈને (८) निवृत्ति बाहर (ङ) अनिवृत्ति नहर (१०) सूक्ष्मस पराय ( ११ ) उपशान्त માહ (૧૨) ક્ષીણુમેહ (૧૩) સૂચાગીકેની પણુ અસખ્યાતગણી નિર્જરાવાળા હાય છે. સયેન્ગીકેની જારે ચેાગના નિરેધ કરીને અચેીકેવળી અવસ્થામાં પહેાંચે છે. ત્યારે સકમ ક્ષયરૂપ નિર્જરા કરે છે. આ બધાનુ વિશદ વર્ણન સમવાયાંગ સૂત્રની ટીકામાં, ચૌદમા સમવાયમાં જોવા ભલામણ છે. મારી રચેલી ભાવમેધીની કહ્યું પણ - Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्र मगणं पडलच च उदह जीवाणा पण्णत्ता तं जहा-मिच्छादिही १ सासायणसम्बद्दिट्टी २ सम्मामिच्छादिट्ठी ३ अविरय सम्मट्टिी ४ विरयाविरए ५ पमत्तलंजए ६ अप्पमत्तसंजए ७ नियट्ठीवायरे ८ अनियहीबायरे २ सुहमसंपराए १० उवसामएवा-खवएवा-उवसंतमोहे ११ खीणमोहे १२ सजोगीकेवली १३ अजोगीकेवली १४ इति' कमपिशुद्धिमार्गणं पतीत्य चतुर्दशजीवस्थानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-मिथ्याष्टिः १ सास्वादन सम्याष्टिः २ सम्पमिथ्याष्टिः ३ अविरतसम्यग्दृष्टिः ४ विरताविरत: ५ प्रमत्त संयतः ६ अपमत्तसंपत ७ नियन्त्रितबादः ८ अनियन्त्रितबादरः ९ सूक्ष्मसंपरायः १० उपशमको वा-सयको चा, उपशान्वमोहः११ क्षीणमोहः १२ सयोगिकेवली १३ अयोगिकेवली १४ इति ॥३६॥ मूलम्-लम्मदसण नाणचरित्ताइ तवेय मोक्खमग्गो ॥३७॥ छाया-सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि तपश्च मोक्षमार्गः ॥३७॥ तत्वार्थदीपिका--'पूर्व तारद्-चतुर्दश जीवस्थानान्याश्रित्योत्तरमसंख्येय. 'कर्म विशुद्धिमार्गणा की अपेक्षा चौदह जीयस्थान कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं-(१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादनसम्पग्दृष्टि (३) सम्पतिथपादृष्टि (४) अविरतसम्यग्दृष्टि (५) विरताविरत (६) प्रमत्त. संपत (७) अप्रमत्तसंयत (८) निवृत्तिबादर (९) अनिवृत्तिवादर (१०) सूक्ष्मलाम्पराय (११-१२) उपशमक, क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह (१३) अयोगि केवली (१४) अयोगि केवली ॥३६॥ 'सम्पदलणनाणचरित्ताइ' इत्यादि स्वार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र और तप मोक्ष का मार्ग है ।।३७ । तत्त्वार्थदीपिका--इससे पहले बतलाया गया है कि चौदह जीव કર્મવિશુદ્ધિમાણાની અપેક્ષા ચૌદ જીવથાન કહેવામાં આવ્યા છે તે मा प्रमाणे ठे-(1) भ्याटि (२) सास्वाहन सभ्यष्टि (3) सभ्य मिथ्याल्टि (४) अविरत सभ्यष्टि (५) वि२तावि२त (6) प्रमतसयत्त (७) 4. भतसयत (८) निवृत्ति ४२ (6) मनिवृत्तिमा४२ (१०) सूक्ष्भसा ५२२य (११-१२) S५२४६५४ ७५शान्तमा, क्षीभाड (१३) सयोगिqil (१४) અગિકેવળી ૩૬ 'सम्मदसणणाणचरित्ताइ' त्या સૂત્રાર્થ–સશગ્દર્શન-જ્ઞાન-ચારિત્ર અને તપ મેક્ષના માર્ગ છે ૩૭ તસ્વાર્થદીપિકા-આની પહેલ બતાવવામાં આવ્યું કે ચૌદ વસ્થામાં Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.३७ मोक्षमार्गस्वरूप निरूपणम् ७२७ गुणनिर्जरा भवतीति प्रोक्तम्, सा च-सम्यग्दर्शनादिरूपमोक्षमार्गाश्रयणेनैव भवतीति मोक्षमार्गस्वरूपं निरूपयितुमाह-'लम्मदसण' इत्यादि । सम्यग्दर्शन- " ज्ञानचारित्राणि तपश्च, सम्यग्दर्शनं-सम्यग्ज्ञान-सम्यक् चारित्रं- तपश्चेत्येतच्च । तुष्टयं समुदितं मोक्षमार्गः मुक्तिसाधनं वर्तते, तत्राषि-सम्यग्दर्शन मोक्षसाधनेषु । प्रधानं साधन मस्तीति सूचयितुं सर्वप्रथमं सम्यग्दर्शनपदोपादनं कृतम् । एवञ्च सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रवत् तपोऽपि मोक्षसाधनं बोध्यम्, अतएव-पोऽपि मोक्षमार्गतयोपातं तच्च-तपो द्वादशविधम् वायाभ्यन्तरभेदभिन्नं बोध्यम् । सम्यग्दर्श तावत्-येन रूपेणाऽनादि सिद्धाः जीवादियदार्थाः सन्ति तेन रूपेण । तीर्थकृद्भिः प्रतिपादिते तत्वार्थे-तदविपरीताभिनिवेशराहित्येन श्रद्धानं सम्यग. स्थानों में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी लिर्जर होती है वह निर्जरा सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष मार्ग का अवलम्बन लेने ले ही होती है, अत एव मोक्षमार्ग का निरूपण करने के लिए कहते हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्पक्चारित्र और (लम्रक) तप, यह चारों मिलकर मोक्ष का मार्ग हैं। इन चारों में सम्यग्दर्शन प्रधान मोक्ष-साधन है, यह सूचित करने के लिए सर्वप्रथम सम्पग्दर्शन, पद का प्रयोग किया है । सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र के समान तप भी मोक्ष का मार्ग है अतएव उसका भी यहां ग्रहण किया गया है । तप के बारह भेद हैं-छह बाह्य तप और छह आभ्यन्नर तप । जिस रूप में अनादि सिद्ध जीवादि पदार्थ हैं, उसी रूप में तीर्थ करों द्वारा प्रतिपादित तत्वार्थ पर श्रद्धा रखना, उनके विषय में ઉત્તરોત્તર અસંખ્યાત-અસંખ્યાતગણી નિર્જરા થાય છે. તે નિર્જરા સમ્યગ્દર્શન આદિ મોક્ષમાર્ગને આધાર હોવાથી જ થાય છે, આથી મોક્ષમાર્ગનું નિરૂપણ કરવા માટે કહીએ છીએ સામ્યગ્દર્શન સમ્યજ્ઞાન સમ્યગૂચારિત્ર અને (સમ્યફ) તપ આ ચારે મળીને મોક્ષને માર્ગ બને છે. આ ચારેયમાં સામ્યદર્શન પ્રધાન મે ક્ષ સાધન છે, એ સૂચિત કરવા માટે સર્વ પ્રથમ સમ્યક્દર્શન પદને પ્રગ કરવામાં આવ્યું છે સમ્યક્દર્શન જ્ઞાન અને ચારિત્રની માફક તય પણ મોક્ષ ને માર્ગ છે આથી તેનું પણ અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે તપના બાર ભેદ છે છે બાધતપ અને છ આભ્યન્તર તા. જે સ્વરૂપે અનાદિસિદ્ધ જીવાદિ પદાર્થ છે તે જ સ્વરૂપે તીર્થકર દ્વારા પ્રતિપાદિત તત્વાર્થ પર શ્રદ્ધા રાખવી તેમના વિષયમાં કઈ પ્રકારને વિપરીત Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाले विश्वासरूपं बोध्यम्, तच निसर्गेण-गुरोरभिगमेन वा भवति। एवं येन येन प्रकारेण स्वभावेन जीवादि वस्तूनि सन्ति तेन तेन प्रकारेण स्वभावेन संशयविपरीताइनध्यवसायरूप दोपत्रयरहितत्वेनाऽवगमः सम्पग्बोधः सम्यग्ज्ञान मुच्यते । एवं भ्रमणकारणथूनकर्मणः समूल मुन्मूलयितुं समुद्यतस्य श्रद्दधानस्य संसार फान्तारभीरो भव्यस्य प्राणातिपातादि पश्चाश्रवनिवारण कारणीभूत पञ्चसंबर सम्यगाचरणं सम्यक् चारित्र मुच्यते । तथाच तानि-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रः तपासि कुलालदण्डचक्रचीवरादि न्यायेन सङ्घीभूय मोक्षरूपं फलं साधयन्ति । न तु-तृणारणिमणिन्यायेन प्रत्येकं पृथग्भूयेति भावः ॥३७॥ किसी प्रकार का विपरीत अभिनिवेश धारण न करना सम्यग्दर्शन समझना चाहिए। सम्पादन निसर्ग से या गुरु के अभिगम से उत्पन्न होता है। इसी प्रकार जीवादि पदार्थ जिस-जिस रूप में रहे हुए हैं, उसी रूप में, संशम विपर्यय और अनध्यवसाय-इन तीन दोषों से रहित उन्हें सम्यक् प्रकार से समझना-जानना सम्यग्ज्ञान है। भवभ्रमण के कारणभूत कर्मों का उन्मूलन करने के लिए उद्यत श्रद्धावान् संसार-कान्तार से भयभीत भव्यजीव प्राणातिपात आदि पांच आस्त्रवों का निवारण करने के कारणभून पांच संवरों का आचरण करता हैं वह सम्यक् चारित्र है । ___ यह सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप कुमार के दंड चक्र और चीवर आदि के न्याय से मिलकर मोक्षरूपी फल को सिद्ध करते है, पृथक-पृशकू मोक्ष के साधन नहीं होते ॥३७॥ અભિનિવેશ ધારણ ન કો સમ્યગ્દર્શન સમજવું જોઈએ સમ્યગ્દર્શન નિસર્ગથી અથવા ગુરૂના અભિમથી ઉદ્ભવે છે. એવી જ રીતે જીવ દિ પદાર્થ જે-જે સ્વરૂપમાં રહેલા છે તે જ રૂપે, સંશય વિપર્યય એને અનવસાય. આ ત્રણ દેષોથી રહિત તેમને સમ્યક્ પ્રકારથી સમજવા જાણવા એ સમ્યકજ્ઞાન છે. ભવભ્રમણના કારણભૂત કર્મોને નાશ કરવા માટે ઉદ્યત શ્રદ્ધાવાન્ સંસાર કાન્તારથી ભયભીત ભવ્યજીવ પ્રાણાતિપત આદિ પાંચ આસ્ત્રનું નિવારણ કરવ ના કારણભૂત પાંચ સંવરેનું આચરણ કરે છે તે સમ્યફારિત્ર છે. આ સમ્મદર્શન સન ચારિત્ર અને તપ, કુંભારના દંડચક અને ચીવર વગેરેના ન્યાયથી મળીને મોક્ષરૂપી ફળને પ્રાપ્ત કરે છે, પૃથક્ પૃથક્ મેક્ષના સાધન હોતા નથી કે ૩૭ છે Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ.८ २.३७ मोक्षमार्गस्वरूपनिरूपणम् ७२९ तस्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-तपो विशेषानुष्ठानादिना सकलकर्मक्षय लक्षणमोक्षस्य प्रतिपादितत्वात्, सम्पति-तस्य मोक्षस्य हेतुत्वेन सम्यग्दर्शनशानचरित्रतपोरूपरत्नचतुष्टयं प्ररूपयितुमाह-'सम्मदंलणनाणचरित्ताई सवे य मोक्खमग्गों' इति । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तपश्च मोक्षमार्गों पर्तते, तत्र-सम्यक् पदस्य द्वन्द्वादौ श्रूयमाणतया प्रत्येकपभिसम्बन्धात् सम्यग्द. र्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक् चारित्रं-तपश्चेत्येतच्चतुष्टयं तावत्-मक्षसाधनं वर्तते । सत्र-सम्यग्दर्शन तावत्-येन रूपेगाऽनादिसिद्धं जीवादितत्व मस्ति तेन रूपेण भगवद्भिस्तीर्थङ्करैः प्रज्ञप्ते जीवादि तत्वार्थे विपरीताभिनिवेशराहित्येन सम्यक् तत्त्वार्थनियुक्ति-तपोविशेष के अनुष्ठान आदि से सकल कर्म क्षय रूप मोक्ष का पहले प्रतिपादन किया गया है, अब यह प्रतिपादन करते हैं कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप, यह रत्न चतुष्टय मोक्ष का • कारण है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तथा सम्यक तप मोक्ष का मार्ग हैं। 'सम्पक' पद छन्द समास की आदि में प्रयुक्त होने से प्रत्येक पद के साथ जुडना है, इस कारण सम्यग्दर्शन, लम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप, यह चारों मोक्ष के साधन हैं । अनादि सिद्ध जीवादि तत्त्व जिस रूप में हैं, उसी रूप में तीर्थंकरों द्वारा कथित उन जीवाद तत्वों पर विपरीताभिनिवेश से रहित सम्यक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । इली प्रकार जीवादि पदार्थ जिस रूप में हैं, उसी रूप में, संशय विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित उन्हें जानना सम्यग्ज्ञान है। कहा भी है- તત્ત્વાર્થનિયુકિત–તપિવિશેષના અનુષ્ઠાન આદિથી સકળ કર્મક્ષય રૂપ મોક્ષનું પહેલા પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હવે એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ કે સમ્યક્દર્શન, જ્ઞાન, ચારિત્ર અને તપ આ રન ચતુષ્ટય મેક્ષના કારણે છે સમ્યક્દર્શન સમ્યકજ્ઞાન સમ્મચારિત્ર (સમ્યફ) તપ ક્ષના માર્ગ છે. “સમ્યફ' પદ દ્ધ સમાસની આદિમાં વપરાયેલ હોવાથી પ્રત્યેક પદની સાથે જોડાય છે આથી સમ્યક્દર્શન સમ્યકજ્ઞાન સમ્યક ચારિત્ર અને સમ્યકત એ ચારેય મોક્ષના સાધન છે અનાદિ સિદ્ધ જીવાદિ તત્વ જે રૂપે છે, તે જ રૂપમાં તીર્થકરો દ્વારા કથિત તે જીવાદિ તત્વ પર વિપરીત ભિનિવેશથી રહિત સમ્યક શ્રદ્ધાન કરવી સામ્ય દર્શન કહેવાય છે. એવી જ રીતે જીવાદિ પદાર્થ જે રૂપમાં છે તેજ રૂપમાં સંશય વિપર્યય અને અધ્યવસાયથી રહિત તેમને જાણવા સમ્યજ્ઞાને છે કહ્યું પણ છે. त० ९२ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थको 'श्रद्धानरूपमगन्तव्यम् । एवं सम्यग् ज्ञानं खलु येन येन प्रकारेण स्वभावेन जीवादयः पदार्था स्सन्ति तेन तेन प्रकारेण स्वभावेन संशयविपर्ययानध्यवसायदोष त्रय रहितत्वेनाऽवमासात्मकं सम्यग्बोधमवसेयम् । तथाचोक्तम् रुचिर्जिनोक्ततत्वेषु सम्यक् श्रद्धान मुच्यते । जायतेतन्निसर्गेण गुरोरधिगमेन च ॥१॥ यथाऽवस्थिततत्यानां संक्षेपाद् विस्तरेण वा । योऽवयोध स्तमत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ॥२॥ इति एवं सम्यक् चारित्रं तावद् संसारचक्रभ्रमिहेतु ज्ञानावरणादि कर्मणां समूह न्मूलनार्थमुद्यतस्य श्रद्धानशीलस्य भवाटवी भयभीतस्य भन्यस्य प्राणिप्राणव्यपरोपण मृपावाद स्ते यमैथुनपरिग्रहरूप पञ्चास्त्रवनिवारणकारणीभूत पञ्च 'जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित तत्वों पर रूची होना सम्यक श्रद्धान कहलाता है। वह अद्भान या तो निसर्ग से होता है या गुरू के उपदेश से होता है ॥१॥ वास्तविक तत्वों का विस्तार से अथवा संक्षेप से जो ज्ञान होता है उसे मनिषी जन सम्परजान कहते हैं ॥२॥ भवभ्रमण के कारण ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का स्वक्षम उन्मूलन करने के लिए उद्यन, अद्वान शील और भव-अटवी से भयभीत भव्य-प्राणी हिंसा, झूठ, चोरी, सैथुन और परिग्रह रूप पांच आस्रवों का निवारण करने वाले पांच संघरों का जो लमीचीन आचरण करता है, वह सम्यक् चारित्र कहलाता है । कहा भी है__ 'सावद्ययोग का सर्वथा त्याग पार देना चारित्र कहलाता है। यह चारित्र अहिंसा आदि व्रतों के भेद ले पांच प्रकार का कहा गया है।१। જિનેન્દ્ર ભગવાન દ્વારા કથિત તો પર રૂચિ હોવી સમ્યકુશ્રદ્ધા કહેવાય છે. આ શ્રદ્ધા કયાં તે નિસર્ગથી થાય છે અથવા ગુરૂના ઉપદેશથી થાય છે ? - વારતવિક તનું વિસ્તારથી અથવા સંક્ષેપથી જે જ્ઞાન થાય છે, તેને મનીષી જન સમ્યક્રજ્ઞાન કહે છે કે ૨ | ભવભ્રમણના કરણ જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મને સમૂળગો ક્ષય કરવા માટે ઉઘત શ્રદ્ધાવાનું અને ભવ અટવથી ભયભીત ભવ્ય પ્રાણહિંસા અસત્ય ચારી મંથન અને પરિગ્રહરૂપ પાંચ અ વે નું નિવારણ કરનાર પાંચ સંવરોનું જે સમીચીન આચરણ કરે છે તે સમ્યક્રચારિત્ર કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે - સાવદ્યાગનો સર્વથા ત્યાગ કરવો ચારિત્ર કહેવાય છે આ ચારિત્ર અહિંસા, આદિ વ્રતના ભેદથી પાંચ પ્રકારના કહેવામાં અાવ્યા છે | Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.३७ मोक्षमार्गस्वरूपनिरूपणम् ७३१ संवर सम्यगाचरणरूपं बोध्यम् । तथाचोक्तम्-'सर्वसाऽवयोगानां त्यागश्चारित्र मुच्यते । कीर्तितं तदहिंसादि भेदेन पञ्चधा ॥१॥ अहिंसा नृताऽस्तेय ब्रह्मचर्याऽपरिग्रहाः । न यत्यमादयोगेन जीवित व्यपरोपणस् ॥१॥ चराणां स्थावराणां च तदहिंसावतं मतम् ।।२।। मियं पथ्यं बचस्तथ्य छनृतं व्रत मुच्यते । तत्तथ्यमपि नो तथ्यम प्रियं चाऽहितं च यत् ॥३॥ अनादान मदत्तस्याऽस्तेय व्रत मुदीरितम् । बाह्याः प्राणाः नृणामर्थोहरता तं हताहिते ॥४॥ दिव्यौदारिककामानां कृतानुमतकारितैः। मनोवाक्कायत स्त्यागो ब्रह्माऽष्टादशधा मतम् ॥५। सर्वभावेषु भूच्छीया स्त्यागः स्यादपरिग्रहः । यदसत्स्वपि जायेत मूर्छया चित्तविप्लवः॥६॥ भावनामि विता ___ 'चारित्र के पांच कारण ये हैं-(१) अहिंसा (२) सत्य (३) अस्तेय (४) ब्रह्मचर्य और (५) अपरिग्रह । प्रसाद के योग से त्रस और स्थावर जीवों के प्राणों का व्यपरोपण न करना अहिंसा व्रत माना गया है। जो वचन प्रिय, पथ्य और तथ्य हो वह लत्य कहा गया है। जो वचन अप्रिय और अहितकर है, यह तथ्य होने पर भी सत्य नहीं है।३। ... 'अदत्त वस्तु को ग्रहण न करना अस्तेय व्रत कहा गया है। अर्थ अर्थात् धन मनुष्यों का बाह्य प्राण कहलाता है, जो उसे हरण करता है वह मानो प्राणहरण करता है ॥४॥ 'दिव्य और औदारिक शरीर संबंधी शाययोगों का कृत, कारित और अनुमोदना से तथा मन, वचन और काय ले त्याग कर देना अठासह-प्रकार का ब्रह्मचर्य व्रत कहलाता है ॥५॥ ... 'समस्त पदार्थों में ममता का त्याग करना अपरिग्रह व्रत है। असत यात्रिन पांय ॥२॥ २॥ छे-(१) मासा (२) सत्य (3) अत्त५ (૪) બ્રહ્મચર્ય અને (૫) અપરિગ્રહ, પ્રમાદના યેગથી ત્રસ અને સ્થાવર જીના પ્રાણની હિંસા ન કરવી અહિંસાવત માનવામાં આવ્યું છે કે ૨ છે જે વચન પ્રિય, પૃથ્ય અને તથ્ય હોય તેને સત્ય કહેવામાં આવ્યું છે. જે વચન અપ્રિય અને અહિતકર છે તે તથ્ય હોવા છતાં પણ સત્ય નથી , છે ૩ “અદત્ત વસ્તુને ગ્રહણ ન કરવી અસ્તેયવ્રત કહેવામાં આવ્યું છે. અર્થ અર્થાત ધન મનનો બાહા પ્રાણ કહેવાય છે. જે તેનું હરણ કરે છે તે જાણે કે પ્રાણુહરણું કરે છે ? | ૪ iાં દિવ્ય અને ઔદારિક શરીર સંબંધી કામભોગને કૃત, કારિત અને. અનુમોદનાથી તથા મન વચન અને કાયાથી ત્યાગ કરી દે અઢાર પ્રકારનું બ્રહાચર્યવ્રત કહેવાય છે. જે ૫ છે સમસ્ત પદાર્થોની મમતાને ત્યાગ કરવા અપરિગ્રહવત છે, અસત્ પદાર્થોમાં Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર तच्चार्थसूत्रे नि पञ्चभिः पञ्चधा क्रमात् । महाव्रतानि लोकस्य साधयन्त्यव्ययं पदम् ||७|| इति, तपस्तावद्-बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशविधम्, तथा च द्वादशविधं खलु तपो मोक्षसा धनं वर्तते, एवञ्च सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानसम्यक् चारित्र तपांसि इत्येतचतुष्टयं खलु दण्डचक्रचीवरन्यायेन सम्मिलितमेव मोक्षसाधनं भवति नतु तृणारणिमणिन्यायेने ति बोध्यम् । उक्तश्चोत्तराध्ययने २८ अध्ययने १=३ गाथासु - 'मोक्खमग्गपदार्थों में भी मूर्छा होने से चित्त में विकलता उत्पन्न होती है ||६|| 'प्रत्येक व्रत की पांच-पांच भावनाओं से भावित यह पांच महाव्रत साधकों को अव्यय पद (मोक्ष) प्रदान करते हैं ||७|| छह बाह्य और छह आभ्यन्तर तप मिलकर बारह होते हैं । ये यारह तप भी मोक्ष के साधन हैं । इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्पक चारित्र और सम्यक् तप ये चारों दण्ड, चीवर के न्याय से सम्मिलित होकर मोक्ष के साधन हैं, अर्थात् जैसे कुमार का डंडा, चाक और चीवर मिलकर ही घट के कारण होते हैं, पृथक-पृथक नहीं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि मिलकर ही मोक्ष के साधन होते हैं, पृथक्पृथक नहीं तृण, अरणि और मणी की तरह ये कारण नहीं हैं अर्थात् जैसे अग्नि अकेले तीनके से, अकेले अरणि न.मक काष्ठ से या अकेले मणी से उत्पन्न हो जाती है, वैसे अकेले सम्यग्दर्शन या ज्ञानादि से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । પણ મૂર્છા હૈાવાથી ચિત્તમાં વિકલતા ઉત્પન્ન થાય છે !! મૈં ।! પ્રત્યેક વ્રતની પાંચ-પાંચ ભાવનાએથી ભાવિત આ પાંચ મહાવ્રત સર્કાને અવ્યય પદ (મેાક્ષ) પ્રદાન કરે છે !! છ !! છ ખાદ્ય અને છ આભ્યન્તર તપ મળીને ખાર થાય છે આ માર તપ પણ મેક્ષના સાધન છે. આવી રીતે સમ્યક્દન સફ્જ્ઞાન સમ્યકૂચારિત્ર અને સમ્યક્ તપ આ ચારેય દ, ચક્ર માટીના ન્યાયથી સૃમ્મિલિત થઇને માક્ષના સાધન છે. અર્થાત્ જેવી રીતે કુંભારના ડાંટા ચાક અને માટી એ ત્રણે મળીને જ ઘડાના કારણ અને છે જુદા જુદા નહી એવી જ રીતે સમ્યકૂદન આદિ પણ મળીને મેક્ષના સાધન ખને છે, સ્વત ંત્ર સ્વતંત્ર નહી’ તૃણુ અગ્નિ અને જ઼િની માફક આ કારણુ નથી અર્થાત્ જેમ અગ્નિ એકલા તણખલાથી એકલા અણુિ નામક કાષ્ઠથી અથવા એકલા મણિથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે એવી રીતે એકલા સમ્યફૂદન અથના જ્ઞાનાદિથી મેક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી 1 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.३७ मोशमार्गस्वरूपनिरूपणम् ७३३ गई तच्च सुणेह जिण भाभियं । चउकारणसंजुत्तं नाणदसणलक्षणं ॥१॥ नाणं च दंणं चेव चरितं च तयो तहा । एल मरगुत्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहि ।।२। नाणं च दंसणंचेव चरित्तच तवो तहा एयं मग मणुपपत्ता जीवा गच्छंति सोग्गई३ इति ॥ मोक्षमार्गगति तथ्य शृणुत जिनमाषितम् । चतुष्कारणसंयुक्ता ज्ञानदर्शन लक्षणाम् ॥१॥ ज्ञानं च दर्शन चैत्र चरित्रं च तपस्तथा । एष मार्ग इति यज्ञप्तो निवरदर्शिभिः ॥२॥ ज्ञानं च दर्शन चैव चरित्रं च तपस्तथा। एतं मार्ग मनुमाप्ता जीवा गच्छन्ति स्वर्गतिम् ३ इति एवञ्च-सम्पज्ञानदर्शनचारित्रवत् तपोऽपि मोक्षसाधनं वर्तते । इति फंलितम् । तत्र-तपसः सम्यग्ज्ञानादि त्रयेऽपि हेतुत्वेन प्रथमोपादानयोग्यत्वेऽपि सम्पग्दर्शनस्य मोक्षम्प्रति मुख्यकारणतया प्रथमं तदुपादानमेव कृतम् । तथाचोक्तम् -'नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न होति चरणगुणा । अगुणस्स नस्थि मोक्खो नस्थि अमोक्खस्स निधाणं ।.१। इति, नादर्शनिनो ज्ञानं ज्ञानेन उत्तराध्ययन सूत्र के २८३ अध्ययन की गाथा १-३ में कहाभी है-- 'जिन भगवान द्वारा भाषिन, चार कारणों से युक्त, ज्ञान-दर्शन लक्षण वाली मोक्षमार्गगति को सुनो ॥१॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, इन चारों को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेन्द्र ने मोक्षमार्ग कहा है ॥२॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के मार्ग को प्राप्त जीव स्तुगति को प्राप्त करते हैं ॥३॥ ___ इस प्रकार यह फलित हुभा की सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्पू चारित्र की भांती तप भो मोक्ष का कारण है । यद्यपि सम्गज्ञान आदि तीनों में कारण होने से सर्वप्रथम स्थान देने योग्य हैं, तथापि सम्य. ग्दर्शन मोक्ष का मुख्य कारण है, अतएव उसी को प्रथम स्थान दिया गया है ! कहा भी है ઉત્તરાધ્યાયનસૂત્રના ૨૮માં અધ્યયનની ગાથા ૧-૩માં કહ્યું પણ છે– જિનેન્દ્ર ભગવન્ત દ્વારા ભાષિત, ચાર કારથી યુક્ત, જ્ઞાનદશન લક્ષણવાળી મેક્ષમાગ ગતિને સાંભળે ૧ જ્ઞાન, દર્શન ચારિત્ર અને તપ આ ચારેયને સર્વજ્ઞ સર્વદશી જિનેન્દ્રોએ મોક્ષમાર્ગ કહેલ છે. જે ૨ | જ્ઞાન દર્શન ચારિત્ર અને તપ મને પ્રાપ્ત જીવ સુમતિને પ્રાપ્ત કરે છે ? | ૩ આ રીતે એ પ્રતિપાદિત થયુ કે સમ્યજ્ઞાન સમ્યક્દર્શન અને સમ્યફ ચરિત્રની જેમ તપ પણ મોક્ષના કારણભૂત છે. જો કે તપ સમ્યફજ્ઞાન આદિ ત્રણેમાં કારણ હોવાથી સર્વ પ્રથમ સ્થાન આપવા ગ્ય છે તે પણ સમ્યક્દર્શન મોક્ષનું મુખ્ય કારણ છે આથી તેને જ પ્રથમ સ્થાન આપવામાં આવ્યું છે કહ્યું પણ છે Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૪ तत्त्वार्थ सूत्रे विना न भवन्ति चरणगुणाः । अगुणिनो नास्ति मोक्षो नास्त्य मोक्षस्य निर्वाणम् ॥ १॥ इति, सम्यक्त्वं तावत्-त्रिविधं भवति, दर्शनसम्यक्त्वम्, ज्ञानसम्यक्त्वम्, चारित्र. सम्यक्त्वश्वेति । उक्तश्च स्थानाङ्गे ३ स्थाने ४ उद्देश के - 'तिविहे सम्मे पण्णसे, तं जहा - नाणलम्मे दंसणसम्मे चरितसम्मे' इति, त्रिविधं सम्पक्वम्प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-ज्ञानसम्यक्त्वम्, दर्शनसम्यक्त्वम्, चारित्रसम्यक्त्वम्, इति । तत्रापि सम्यग्दर्शनं द्विविधम्भवति । निसर्गसम्यग्दर्शनम् - अभिगमसम्यग्दर्शनश्चेति । तत्र - निसर्ग सम्यदर्शनमपि द्विविधम् प्रतिपाति च - अप्रतिपाति चेति । एवम् अभिगमसम्यग्दर्शनमपि द्विविधम्, प्रतिपाति च अप्रतिपातिचेति । उक्तश्च स्थानाने २ स्थाने १ उद्देशे - 'सम्पदंसणे दुबिहे पणत्ते, तं जहा णिसग्ग 'जो सम्यग्दर्शन से रहित है उसे ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में चारित्र रूप गुण अथवा चारित्र अर्थात् सूत्रगुण और गुण अर्थात् उरगुग नहीं होते। गुगहीन को मोक्ष प्राप्त नहीं होता और मोक्ष प्राप्त हुए बिना निर्वाण प्राप्त नहीं होता ॥ १ ॥ सम्यक्त्व तीन प्रकार का है- दर्शनसम्यक्त्व, ज्ञानसम्यक्त्व, और चारित्र सम्यक्त्व | स्थानांग सूत्र के तीसरे स्थानक के चौथे उद्देशक में कहा है- 'म्पत्य तीन प्रकार का है - ज्ञान सम्यक्त्व, दर्शनसम्यक्श्व और चारित्रम्यक्त्व । ' इसमें भी सम्यग्दर्शन दो प्रकार का हैनिसर्ग सम्पग्दर्शन और अभिगम सम्यग्दर्शन । निसर्ग सम्यग्दर्शन भी प्रतिपाती और अप्रतिपाती के भेद से दो प्रकार का है। इसी प्रकार प्रतिपाती और अप्रतिपाती के भेद से अभिगम सम्यग्दर्शन भी दो प्रकार का है । स्थानांग सूत्र के दूसरे स्थान के प्रथम उद्देशक में कहा જે સમ્યક્દશનથી રહિત છે તેને જ્ઞાન લાધતું નથી અને જ્ઞાનના અભાવમાં ચારિત્ર રૂષ ગુણુ અથવા ચારિત્ર અર્થાત્ મૂળગુણુ અને ગુણુ અર્થાત્ ઉત્તરગુર્થી હેતાં નથી નિર્ગુણને મેાક્ષ પ્રાપ્ત થતા નથી અને મેક્ષ પ્રાપ્ત થયા વગર નિર્વાણ પ્રાપ્ત થતું નથી સમ્યકત્વ ત્રણ પ્રકારનું છે-દનસમ્યકવ, જ્ઞાનસમ્યકત્વ અને ચારિત્રસમ્યકત્વ. સ્થાનાંગસૂત્રના ત્રીજા સ્થાનકના ચેાથા ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે સમ્યકવ ત્રણ પ્રકારના છે જ્ઞાનસમ્યક્ત્વ, દનસમ્યકત્વ અને ચરિત્રસમ્યક્ત્વ એમા પશુ સમ્યગ્દર્શન એ પ્રકારના છે-નિસગ સમ્યક્દર્શન અને અભિગમ સમ્યગ્દર્શન નિસ સમ્યકૂદન પણ પ્રતિપાતી અને અપ્રતિપાતીના ભેદથી એ પ્રકારના છે. એવીજ રીતે પ્રતિપતી અને અપ્રતિપાતીના ભેદથી અનિગમ સમ્યકૂદ ન પણ એ પ્રકારનું છે, સ્થાનોંગ સૂત્રના ખીજા સ્થાનના પ્રથમ ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે. સમ્યક્ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ८ स.३७ मोक्षमार्गस्वरूपनिरूपण ७३५ सम्मदंसणे चेव, अभिगमलम्मदसणे चेक, अभिगनसम्म इंलणे दुविहे पंणते, तं जहा-पंडिवाइचेव, अपडिवाहचे' इति । सम्यग्दर्शनं द्विविधं प्रजातम् तद्यथा-निसर्ग सम्यग्दर्शनम् चैव अभिगमसम्यग्दर्शनम्, चैत्र । निसर्गसम्यदर्शन द्विविधं प्रज्ञप्तम् तद्यथा-प्रतिपातिचैव, अप्रतिपातिचैत्र, अभिगमसम्यग्दर्शनं द्विविधं प्रज्ञप्तम् प्रतिपातिचैव-अप्रतिपातिचैत्र इति ॥३७॥ मूलम्-तत्तत्थ सद्धरणं लम्मदंसणं ॥३८॥ छाया--'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यद्गर्शनम् ॥३८॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत्-मोक्षसाधनत्वेन सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्रतपांसि प्ररूपिठानि, तत्र-पथमोपात्तं सम्यग्दर्शनं विस्तररूपेण प्ररू. पयितुमाइ-'तत्तत्थ सद्धाणं लम्लईलणं' इति । तत्वार्थश्रद्धानम्-तत्व शब्दो भावसामान्यवाची दर्तते, तदिति सर्वनाम्नः समान्ये वर्तमानत्वात्, सर्वेषां यन्नाम है-निसर्ग सम्यग्दर्शन और अभिम सम्यग्दर्शन। इन दोनों के भी प्रतिपाती और अप्रतिपाती के भेद से दो-दो भेद हैं॥३७॥ 'तत्तस्थ सद्धाणं सम्मइंदण' सूत्रार्थ-तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ॥३८॥ तत्वार्थदीपिका-जम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप मोक्ष के कारण दें, यह पहले कहा गया है, इनमें से अब सम्यग्दर्शन की विस्तारपूर्वक प्ररूपणा करते हैं तत्वार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहलाला है। यहाँ नत्व शब्द सामान्य भाव का वाचक है, क्योंकि 'तत्' यह सर्वनाम शब्द सामान्य के अर्थ में है। जो लय का नाम हो यह सर्वनाल, ऐनी उसकी अन्धर्थ દર્શન બે પ્રકારનું છે નિસર્ગસમ્યક્દર્શન અને અભિગમ સમ્યક્દર્શન આ બંનેના પણું પ્રતિપાતી અને અપ્રતિપાતીના ભેદથી બબ્બે ભેદ છે એ ૩૭ છે 'तत्तत्थ सद्धाण सम्म सणं' સવાથ--તત્વાર્થની શ્રદ્ધા કરવી સમ્યગ્દર્શન છે ૩૮ છે તત્વાર્થદીપિકા-સમ્યક્દર્શન, સામ્યજ્ઞાન, સમ્યકૂચારિત્ર અને સમ્યક્ત તપ મોક્ષના કારણ છે એ અગાઉ કહેવામાં આવ્યું છે, એમાંથી હવે સમ્યક દર્શનનું વિસ્તારપૂર્વક પ્રરૂપણ કરીએ છીએ તત્વાર્થની શ્રદ્ધા સમ્યગ્દર્શન કહેવાય છે. અત્રે “તત્વ” શબ્દ સામાન્ય ભાવને વાચક છે કારણકે “ત’ આ સર્વનામ શબ્દ સામાન્યના અર્થમાં છે. જે બધાનું નામ છે તે સર્વનામ એવી તેની અવથ સંજ્ઞા છે, આ રીતે Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ तस्वार्थस 'तत् सर्वनाम इत्यन्वर्थसंज्ञावलात, तस्य सामान्यस्य भावस्तत्वम् । तथा च-यवस्तु यथा पवस्थितं वर्तते तस्य वस्तुनः तथाभावो भवनम्, तत्त्वेनार्थ स्तरवार्थः तरा मेवार्थ स्तत्त्वार्थः, तत्वार्थस्य श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन मवगन्तव्यम् । तत्वानि च प्रथमाध्याये प्ररूपितानि नवविधानि वोध्यानि, सम्यक्त्वञ्च-पूर्वो. तानां जीवादि नवतानाम्-अर्थानां यथावस्थितस्य वास्तविकस्वरूपस्य तथा भावेनोपदेशो विश्वास विशेषरूप श्रद्धानश्वोच्यते । एवञ्च-जीवादि तत्वार्थानां जैनागमेषु येन रूपेण वास्तविक स्वरूपं प्रतिपादितं तेनैव रूपेण विज्ञाय तद्भावे. नोपदेशनं श्रद्धाकरणं च सम्पग्दर्शनं बोध्यम् । उक्तश्चोत्तराध्ययने२८ अध्यने १५ गाथायाम्-'तहियाणं तु भाषाणं सम्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं त विधाहियं ।१॥ इति, तत्थ्यानान्तु भावानां सद्भाव उपदेशनम् । भावेन श्रद्दधतः सम्यक्त्वं तद् व्याख्यातम् ॥१॥ इति ॥३८॥ संज्ञा है। इस प्रकार तत्व शब्द का अर्थ हुआ-जा वस्तु जिस स्वरूप में है उसका वैसा ही होना, तत्त्वार्थ काश्रद्धान तत्व श्रद्धान कहलाता है। यही सम्पग्दर्शन है। तत्वों का निर्देश प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। उनकी संख्या नौ है । इस प्रकार पूर्वोक्त जीव अजीव आदि तत्वों पर यथार्थ रूप से विश्वास करना श्रद्धान कहलाता है। अतएव जैनागमों में जीवादि तत्वों का जिस रूप में प्रतिपादन किया गया है, उन्हें उसी रूप में समझ कर सही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। उत्तराध्ययन सूत्र के २८ वें अध्ययन की गाथा २५ वीं में कहा है-'तथ्य अर्थात् शास्तविक पदार्थों का यथार्थ कथन करना और भाव पूर्वक श्रद्धा करना सम्यक्त्व कहा गया है ॥३८॥ તત્વ શબ્દનો અર્થ થયે વસ્તુ જે સ્વરૂપમાં છે તેનું તેજ પ્રમાણે તેવું તત્વાર્થની શ્રદ્ધા તત્વશ્રદ્ધા કહેવાય છે, આજ સમ્યક્દર્શન છે તને નિર્દેશ પ્રમથ અધ્યાયમાં કરવામાં આવ્યું છે. તેમની સંખ્યા નવ છે. આ રીતે પૂત જીવ અજીવ આદિ તત્વે પર યથાર્થ રૂપથી વિશ્વાસ કરે શ્રદ્ધા કહેવાય છે. આથી જૈનાગમમાં જીવાદિ તનુ જે સ્વરૂપે પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે તેમને તે જ સ્વરૂપે સમજીને સાચી શ્રદ્ધા ભાવવી સમ્યક્દર્શન છે. ઉત્તરાયન સૂત્રના ૨૮માં અધ્યયનની ૧૫મી ગ થામાં કહ્યું છે તે અથાત વાસ્તવિક પદ ર્થોનું યથાર્થ કથન કરવું અને ભાવપૂર્વક શ્રદ્ધા કરવી સમ્યકત્ર કહેવામાં અાવ્યું છે . ૩૮ છે Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारेण प्रतिपादीतरागद्वेषेण यथास्य ते । तत्र तस्य भाव दीपिका-नियुक्ति टीका भ.८ ५.३८ विस्तरतोसम्यग्दर्शननिरूपणम् ७३७ तत्वार्थनियुक्ति:--'पूर्वमूत्रे-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र तपांसि इति चतुष्टयस्य मोक्षम्मति कारणत्वं प्रतिपादितम्, सम्पति-तत्र प्रथमोपात्तं सम्य. ग्दर्शननं प्ररूपयितुमाह-'तत्तत्थ सद्धाणं सम्प्रदंसण" इति । तत्यार्थश्रद्धानम् तस्वानां जीवानीवादि नवाना मानां श्रद्धानं रुचिरमीतिः, तत्त्वेन वा अर्थानां स्वैः स्वैनिविशेषैः परिच्छिद्यमानानां जीवादिपदार्थानां स्याद्वादसिद्धान्तानु. सारेण प्रतिपादितानां श्रद्धानं-रुचिपूर्वकं विश्वसनं तयार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन मुच्यते भगवताऽर्हता वीतरागद्वेषेण यथारूपं जीवादित त्वं प्रतिपादितं तयारूपेणैव तेषां श्रद्धानं प्रत्ययावधारणं सम्यग्दर्शनं व्यपदिश्यते । तत्र तस्य भावस्तत्त्वम्, तत्त्वेन भावेन स्व प्रतिपत्त्या जीवादिपर्दानां निश्चयनं न तु मातापित्रादि दाक्षि. ण्यानुरोधात्, न वा-धनादि लाभापेक्षया कृत्रिममात्र श्रद्धानम्, अपितु-तदेव वस्तु तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि सम्प गूदर्शन, सम्यगूजान, सम्यग चारित्र और सम्यक् तप, ये चारों मोक्ष के कारण हैं, अब इन चारों में से प्रथम सम्यग्दर्शन की प्ररूपणा की जाती है___ तत्त्वार्थ का श्रद्धान सम्घगदर्शन है। तत्वों अर्थात जीवादि नौ पदार्थों पर श्रद्धा-रूची-प्रतीति करना अथवा यथार्थ रूप से अपनेअपने ज्ञानों द्वारा जाने जाने वाले, स्यावाद सिद्धान्त के अनुमार प्रति. पादित पदार्थों का रूचि पूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। तात्पर्य यह है कि वीतराग अर्हन्त भगवान ने तत्वों का जिस रूप में प्रतिपादन किया है, उसी रूप में उन हा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। जीवादि पदार्थों का श्रद्धान अपनी प्रतिपत्ति से करना चाहिए, मातापिता आदि की लिहाज से अश्वा धन आदि के लाभ की इच्छा से તત્વાર્થનિર્યુક્તિ-પૂર્વસૂત્રમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે સમ્યફ દર્શન, સમ્યફ઼જ્ઞાન સમ્યકરો રિન્ન અને સમ્યક્ તપ, એ ચારે મોક્ષના કારણ છે, હવે આ ચારે પિકી પ્રથમ સમ્મદર્શનની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે. તત્વાર્થની શ્રદ્ધા સમ્યક્દર્શન છે ત અર્થાત્ જીવાદિ નવ પદાર્થો પર શ્રધા રૂચિ પ્રતીતિ કરવી અથવા યથાર્થ રૂપથી પોત–પિતાના જ્ઞાનો દ્વારા જાણી રાકાનારાં સ્યાદ્વાદસિદ્ધાંત અનુસાર પ્રતિપાદિત પદાર્થોની રૂચિપૂર્વક શ્રદ્ધા કરવી સમ્યક્દર્શન કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે વીતરાગ અહંત ભગવંતોએ તોનું જે રૂપમાં પ્રતિપાદન કરેલ છે તે જ સ્વરૂપે તેમની શ્રદ્ધા કરવી સમ્યકદર્શન છે. જીરાદિ પદાર્થોની શ્રદ્ધા પિતાની આગવી પ્રેરણાથી કરવી જોઈએ માતા પિતા આદિના ફરમાનથી અથવા ધન વગેરેના લાભની ઈચ્છાથી બનાવટી त० ९३ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ _तत्वात तथ्यस्वरूपं यज्जिनैरुपलब्धमुपदिष्टं वा, इत्येव रीत्या तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन बोध्यम् । यथाऽनादि सादि पारिणामिकादि मावेन जीवपुद्गलाः, अनादिपारिणामिकेन च जीवत्वेन उपयोगस्वरूपेण भावेन, सादिपारिणामिकेन च भावेन नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवादिना च जीवाः, पुद्गला अपि अजीवत्वेनाऽनुपयोग स्वरूपेणाऽनादिपारिणामिकेन, सादिपरिणामिकेन च श्वेत कृष्णनीलरक्ता. दिना परिच्छिद्यमानस्वादर्थी उच्यन्ते । धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायाऽऽकाशास्ति कायास्तु-अनादिपारिणामिकेनैव गतिस्थित्यवगाहावस्था मत्यानुस्त्यजन्ति त्यक्ष्यन्ति वा, परतस्तु-सादिपारिणामिकेनाऽपि भावेन परिच्छिद्यन्त एव, अतएवाऽर्था इत्युच्यन्ते । एव मन्येऽपि पदार्था अब सेयाः, तदेवं खलु प्रथम संवेगनिर्वेदानुकम्पाऽस्तिक्यादि लक्षणं तत्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वं वोध्यम् । सम्यक्त्वञ्च पनावटी श्रद्धान नहीं होना चाहिए । 'वही वस्तु सत्य है जिसे जिन भग. घान् ने जाना या प्रतिपादन किया है। इस रूप से तत्वार्थ श्रद्धान होना सम्घगूदर्शन है। उदाहरणार्थ जीच अनादि काल से उपयोगमय है और यह कर्मोदय के वशीभूत होकर नरक, तिथंच, मनुष्य और देवगति में परिभ्रमण करता है। पुद्गल रूपी अजीब है, अनुपयोग स्वभाव वाला है, वह काला नीला पीला लाल श्चेत आदि विभिन्न पदार्थों में परिणत होता रहता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय स्वभावतः गति, स्थिति और अवगाह के कारण हैं, अरूपी है, अजीव है, ये सभी द्रव्य नित्यानित्य, सामान्य विशेषात्मक और सत्-असत् स्वरूप हैं। सभी उत्पाद, व्यय और धौव्व से युक्त हैं । इसी प्रकार अन्य पदार्थों का भी स्वरूप यथायोग्यं समझ लेना चाहिए। इस तरह (ઢોંગી) શ્રદ્ધા હેવી જોઈએ નહીં. તે જ વસ્તુ સત્ય છે જેને જિનેશ્વર ભગવાને જાયું અથવા પ્રતિપાદન કરેલ છે “આ રૂપથી તત્વાર્થ શ્રદ્ધા થવી સમ્યક્રદર્શન છે ઉદાહરણાશે–જીવ અનાદિકાળથી ઉપગમય છે અને તે કર્મોદયને વશીભૂત થઈને નારકી, તિર્યચ, મનુષ્ય અને દેવગતિમાં પરીભ્રમણ કરે છે. युगल ३१५०१ छे, अनुपयोगमा पाणी छे, a grl, २१, पी, લાલ, સફેદ વગેરે વિભિન્ન પર્યામાં પરિણત થતું રહે છે. ધર્માસ્તિકાય અધમસ્તિકાય અને આકાશસ્તિકાય સ્વભાવત ગતિ સ્થિતિ અને અવગાહદાનના કારણ છે, અરૂપી છે, અજીવ છે. આ બધા દ્રવ્ય નિત્યનિત્ય સામાન્ય વિશેષાત્મક અને સત્ અસત્ સ્વરૂપ છે. બધા ઉત્પાદ વ્યય અને ધ્રૌવ્યથી ચુકત છે. એવી જ રીતે અન્ય પદાર્થોનું પણ વરૂપ યથાયોગ્ય સમજી લેવું Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3ACE दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.८ १.३९ सम्यग्दर्शनस्य द्वैविध्यनिरूपणम् ७३९ जीवा जीवादि नवतत्त्वार्थानां यथावस्थितस्वरूपस्य तथाभावेनोपदेशः श्रद्धानश्च बोध्यम् । उक्तश्चोत्तराध्ययने २८ अध्ययने तहियाणं तु भावाणं सम्भावे उवएसणं भावेणं सद्दहतस्स सम्मत्तं तं विगाहियं ॥१॥ तथ्यानान्तु भावानां सद्भाय उपदेशनम् । मावेन श्रद्दधतः सम्यक्त्वं तद्व्याख्यातम् ।१। ३८ मूलम्-तंदुविहं णिसगा सम्मदसणे अभिगमलम्मदंसणेय।३९। छाया-तद् द्विविधा, निसर्गसम्यग्दर्शनम्-अभिगमसम्यदर्शनञ्च ।।३९॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावत्-मोक्षसाधकतया प्रतिपादितेषु सम्यग्दर्शना. दिषु चतुषु प्रथमोपात्तस्य सम्यग्दर्शनस्य स्वरूपं भरूपितम्, सम्मति-तदेव सम्यग्दर्शन द्वैविध्येन प्ररूपयितुमाह-तं दुविहं.' इत्यादि । तत्खलु पूर्वमत्रोक्त जिनोक्त तत्व पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है जिसके लक्षण प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य हैं। उत्तराध्धयन सूत्र के २८ वें अध्ययन में कहा है-यथार्थ माओं के उपदेश पर वास्तविक रूप से भावपूर्वक श्रद्धान करने वाले को सम्यक्त्व होता है, ऐसा तीर्थ कर भगवान् ने कहा है ॥३८॥ 'तं दुविहं णिसग्ग सम्म' इत्यादि । सूत्रार्थ-सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है-निसर्ग सम्यग्दर्शन और अभिगमसम्यग्दर्शन ॥३९॥ तत्वार्थदीपिका-पहले मोक्ष के चार सम्यग्दर्शन आदि कारणों में से प्रथम कारण लम्यग्दर्शन के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया, अब उसके दो भेदों की प्ररूपणा करते हैंજોઈએ. આ રીતે જિનકત તત્વોપર શ્રદ્ધા કરવી સમ્મદન છે. ना सक्ष, प्रथम, विश, नि, अनु। मने स्तिय छे. उत्तધ્યયનસૂત્રના અઠયાવીસમા અધ્યયનમાં કહ્યું છે યથાર્થ ભાવના (ઉદ્દેશ) ઉપદેશ પર વાસ્તવિક રૂપથી ભાવપૂર્વક શ્રદ્ધા કરનારને સમ્યકત્વ થાય છે. આવું તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે કે ૩૮ | _ 'त' दुविह निसग्गसम्मदसणे' त्या સૂત્રાર્થ–સમ્યક્દર્શન બે પ્રકારનું છે– નિસર્ગસમ્યદર્શન અને અભિગમસમ્યકદર્શન. B ૩૯ તવાથીપિકા-પહેલાં મેક્ષના ચાર સમ્યકદર્શન વગેરે કારણોમાંથી પ્રથમ કારણ સમ્યકદર્શનના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હવે તેના બે ભેદની પ્રરૂપણું કરીએ છીએ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ स्वरूपं सम्यग्दर्शनं द्विविधं भवति, तद्यथा-निसर्गसम्यदर्शनम्, अभिगमसम्य. ग्दर्शन चेति तत्र-निप्तर्गतः पूर्वभवसंस्कारादिजन्यस्वभाववतो जायमानं सम्य ग्दर्शनम् निसर्गप्तम्यग्दर्शन मुच्यते । एवम्-अभिगमाद् आचार्य गुरूपाध्यायादि सदुदेशादि रूपाभिगमाज्जायमानं सम्यग्दर्शनम्, अभिगमसम्यग्दर्शन मुच्यते तथा च - पूर्वजन्म विशिष्टसंस्कारादि स्वभावात् स्वयमेवात्मनि यत्मकटी भवति तद् निसर्ग सम्यग्दर्शन बोध्यम् । एवम्-आचार्यादि सदुपदेशात् यज्जायते तद्-अभिगमसम्यग्दर्शनं ज्ञेशम् इति ॥३९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-'पूर्वसूत्रे-सम्यग्दर्शनादि चतुष्टयस्य मोक्षसाधनत्वेन प्रतिपादितस्य मध्ये प्रथमोपात्तं सम्यग्दर्शनस्वरूप प्रतिपादितम् - (परूपितम्), सम्पति-तस्य खच सम्पग्दर्शनस्य द्वैविध्यं प्ररूपयितुमाह-'तं दुविहं णिसग्ग सम्बग्दर्शन के दो भेद हैं-निसर्ग सम्यग्दर्शन और अभिगम सम्पगदर्शन । निसर्ग से अर्थात् दूसरे के उपदेश के विना ही पूर्व संस्कार आदि से उत्पन्न होने वाला सम्यग्दर्शन निसर्ग सम्पग्दर्शन कहलाता है। अभिगम अर्थात् आचार्य, उपाध्याय, गुरु आदि के सदुपदेश रूप अभिगम से होने वाला सम्यग्दर्शन अभिगम सम्यग्दर्शन कहलाता है । अभिप्राय यह है कि पूर्व जन्म के विशिष्ट संस्कार आदि स्वभाव से जो सम्यग्दर्शन स्वतः आत्मा में प्रकट हो जाता है वह निसर्ग सम्यग्दर्शन है एवं आचार्य आदि के सदुपयोग से जो उत्पन्न होता है वह अभिगम सम्यग्दर्शन है ॥३९॥ तत्वार्थनियुक्ति-सम्घगदर्शनादि चतुष्टय मोक्ष का साधन है, यह पनिपादन किया गया था, उसमें से सम्यग्दर्शन के स्वरूप का पूर्वसूत्र में निरूपण किया गया, अब उसके दो भेदों का निर्देश करते हैं સમ્યદર્શનના બે ભેદ છે નિસર્ગસમ્યકદર્શન અને અભિગમસમ્યકદર્શન નિસર્ગથી અર્થાત્ બીજાના ઉપદેશ વગરજ પૂર્વ સંસ્કાર આદિથી ઉત્પન્ન થનાર સમ્યદર્શન નિસર્ગ સમ્યકદર્શન કહેવાય છે. અભિગમ અર્થાત્ આચાર્ય ઉપાધ્યાય, ગુરૂ, આદિના સદુપદેશ રૂપ અભિગમથી થનારૂં સભ્યદર્શન અભિગમસમ્યકદર્શન કહેવાય છે. અભિપ્રાય એ છે કે પૂર્વ જન્મના વિશિષ્ટ સંસ્કાર આદિ સ્વભાવથી જે સમ્યકદર્શન સ્વતઃ આત્મામાં પ્રગટ થઈ જાય છે તે નિસર્ગસમ્યકદર્શન છે અને આચાર્ય વગેરેના સદુપદેશથી જે ઉત્પન્ન થાય છે. તે અભિગમસમ્યકદર્શન છે કે ૩૯ છે તત્ત્વાર્થનિયુકિત--સમ્યકદર્શનાદિ ચતુષ્ટય મેક્ષના સાધન છે. એ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.३९ सम्यग्दर्शनस्य द्वैविध्यनिरूपणम् ७४१ सम्मदंसणे अभिगम सम्मदसणेय' इति। तत् खल पूर्वछत्रपतिपादित स्वरूपं सम्यग्दर्शनं द्विविध मरगन्तव्यम् तद्यथा-निसर्गसम्यदर्शिनम्-अभिगम. सम्यग्दर्शनश्चति । तत्र-निसर्गः स्वभावः विशेषात्मपरिणामः अपरोपदेश उच्यते तस्माज्जायमानं सम्यग्दर्शन निसर्ग सम्यग्दर्शनं भवति । ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणस्याऽऽत्मनो जीवस्य अनादौ संसारकान्तारे परिभ्रमतः स्वकृतस्य कर्मणो बन्धनिकाचनोदयावलिका प्रवेशनिर्जरापेक्षतया नारक-तिर्यमनुष्य-देव भवग्रहणेषु नानापकारकं पुण्य-पापफलं सुख दुःखरूपमनुभवतो ज्ञानदर्शनोपयोग स्वाभाव्यात् तत्तत् परिणामाध्यवसाय स्थानान्तराणि प्राप्नुक्तोऽनादि मिथ्यादर्शनस्यापि परिणामविशेषात् तथाविधमपूर्वकरणं भवति येनाऽस्यात्मना उपदेश दिनैव सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है-निसर्गसम्बग्दर्शन और अभिगम सम्य ग्दर्शन । निसर्ग अर्थात् स्वभाव, आत्मा का विशेष परिणाम या परोपदेश का अभाव तात्पर्य यह है कि परोपदेश के विना ही जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है वह निसर्ग सम्पग्दर्शन कहलाता है। आत्मा ज्ञानदर्शन स्वभाव वाला है, अनादि संसार-अटवी में परिभ्रमण कर रहा है, अपने किये कर्म के बन्ध, निकाचन, उद्यावलिकाप्रवेश और निर्जरा की अपेक्षा से नारक तीर्यच मनुष्य और देव गतियों में पुण्य--पाप के नाना प्रकार के सुख-दुःख रूप फल को भोग रहा है, अपने ज्ञान-दर्शन-उपयोग स्वभाव के कारण विभिन्न प्रकार अध्यवसाय स्थानों को प्राप्त करता रहता है, ऐसा जीव यदि अनादि मिथ्या ष्ट हो तो भी परिणामविशेष से ऐसा अपूर्वकरण करता है कि उपदेश के विना ही उसे सम्यग्दर्शन પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું. એમાંથી સમ્યક્દર્શનના સ્વરૂપનું પૂર્વસૂત્રમાં નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. હવે તેના બે ભેદનું નિર્દેશન કરીએ છીએ સમ્યક્દર્શન બે પ્રકારના છે નિસર્ગ સમ્યકદર્શન અને અભિગમસમ્યક દર્શન નિસંગ અર્થાત્ સ્વભાવ, આત્માનું વિશેષ પરિણામ અથવા પરિપદેશ નો અભાવ, તાત્પર્ય એ છે કે પારકાના ઉપદેશ વગરજ જે સમ્યકદર્શન ઉદ્દભવે છે તેને નિસર્ગ સમ્યકદર્શન કહેવાય છે. અમા, જ્ઞાન દર્શન સવભાવ વાળ છે, અનાદિ સંસાર અટવીમાં પરિભ્રમણ કરી રહ્યો છે, પોતાના કરેલા કર્મના બંધ નિકાચન ઉદયાવલિકા પ્રવેશ અને નિર્જરાની અપેક્ષાથી નારકી તીર્થંચ મધ્ય અને દેવગતિઓમાં પુણ્ય પાપના જુદા જુદા પ્રકારના સુખ દુઃખ રૂપ ફળને ભેગવી રહ્યો છે, પિતાના જ્ઞાન દર્શન ઉપગ સ્વભાવના કારણે વિભિન્ન પ્રકારના અધ્યવસાય સ્થાને પ્રાપ્ત કરતા રહે છે. આ જીવ જે અનાદિ મિથ્યાદૃષ્ટિ હોય તે પણ પરિણામવિશેષથી એવું અપૂર્વ કરણ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ तत्त्वार्थसूत्रे सम्यग्दर्शनं संजायते, इत्येवं निसर्गसम्यग्दर्शनमव सेयम् । एवम् - अभिगमः अधिगनः - श्रवणं शिक्षणम् उपदेशः तस्माद् अभिगमाद् आचार्योपाध्याय गुर्वादि सकाशात् उपदेशाज्जायमानं यत् तचार्थश्रद्धानं तदभिगमसम्यग्दर्शन मवगन्तव्थम् । एवञ्च यत्खलु अपूर्व करणानन्तरभाव्य निवृत्तिकरणं तत्-निसर्ग इति व्यपदिश्यते, तस्मात् खल्ल निसर्गरूपात् कारणादयः खलु जावादितश्वेषु रुचिरुत्पद्यते तन्निसर्ग सम्यग्दर्शन सुच्यते । या पुनर्जीवादि तत्वेषु आचार्याद्युपदेशादिना रुचिरुत्पद्यते तदभिगमसम्यग्दर्शनं व्यवहियते । उक्तञ्च स्थानाने २-स्थाने १३ उद्देशक्के ७० सूत्रे - 'सम्मदंधणे दुविहे पण्णत्ते, तं जड़ासिग्गसम्मद रणे चेत्र अभिगमसम्मदसणे चेव' इति, सम्यग्दर्शनं द्विविधं यज्ञतम् तद्यथा - निसर्गसम्यग्दर्शनम् अभिगमसम्यग्दर्शनञ्चेति ॥३९॥ मूलम् - पमेयवावगे ववसायस्तभावे सम्मनाणे ॥४०॥ छाया - 'प्रमेयव्यापि व्यवसायस्वभावं सम्यग्ज्ञानम् ||४०|| प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार उत्पन्न होने वाला सम्यग्दर्शन निसर्ग सम्यग्दर्शन कहलाता है। अभिगम का अर्थ है श्रवण, शिक्षा या उपदेश, आचार्य उपाध्याय या गुरु के उपदेश से जो तस्वार्थ श्रद्धान उत्पन्न होना है वह अभिगम सम्यग्दर्शन कहलाता है। तात्पर्य यह है कि आचार्य आदि के उपदेश के बिना ही जो तस्व श्रद्धान उत्पन्न होता है वह निसर्ग सम्यग्दर्श कहलाता है और आचार्य आदि के उपदेश से उत्पन्न होने वाला दर्शन अभिगम सम्यग्दर्शन कहा जाता है । स्थानांग सूत्र के दूसरे स्थान में ७ वें सूत्र में कहा हैसम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है-निसर्ग सम्ग्दर्शन और अभि गम सम्यग्दर्शन ||३९| ܝ કરે છે કે વગર ઉપદેશે જ તેને સમ્યક્દર્શન પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. આ રીતે ઉત્પન્ન થનાર સમ્યકદર્શન નિસર્ગી સમ્યકૂદન કહેવાય છે. અભિગમનેા અથ છે અભિગમ શ્રૠણુ, શિક્ષણુ, અથવા ઉદેશ, આચાર્ય, ઉપાઘ્યાય અથવા ગુરૂના ઉપદેશથી જ તત્વા શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે. તે અભિગમ સમ્યક્દશન કહેવાય છે તાપ એ છે કે આચાય આદિના ઉપદેશ વગરજ જે તત્વ શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે. તે નિસ સમ્યકદર્શન કહેવાય છે અને આચાય આદિના ઉપદેશથી ઉત્પન્ન થનાર સમ્યકદર્શન અભિગમ સમ્પ્રદર્શન કહેવાય છે. સ્થાનાંગ સૂત્રના સમ્યક્દશન એ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે નિસગ સમ્યકદર્શીન અને અભિગમ સમ્યકદર્શીન ॥ ૩૯ ॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.४० सम्यग्ज्ञानस्वरूपनिरूपणम् तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तार-मोक्षम्मति सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यकू चारित्र तप इति चतुष्टयस्य हेतुत्वप्रतिपादनात् तत्र-सम्यग्दर्शनस्य सभेदं स्वरूपं निरूपितम्, सम्पति--सम्यग्ज्ञानस्य स्वरूपं प्ररूपयितुमाह-'पमेय वावगे' इत्यादि । प्रमेयव्यापि-मेयं वस्तुव्याप्तुम् अपरित्यक्तुं शीलयस्येति प्रमेयव्यापि नियतो वस्तुमाहि नियतवस्तुसहचारि व्यवसायस्वभावम् अध्यवसायास्मकं निश्चयात्मकं ज्ञानं सम्पगू ज्ञान मुच्यते । तत्र अमेय व्यापकपदेन-- विपरीतज्ञानस्य व्यावृत्ति भवति, व्यवसाय स्वभावपदेन-अनध्यवसायसंशयात्मकं ज्ञानं व्यावय॑ते, । तथा च-येन येन प्रकारेण स्वभावेन जीवदयः पदार्थाः व्यव० 'पमेयवावगे ववलाय' इत्यादि । सूत्रार्थ-जो प्रमेयव्यापी और व्यवसाय स्वभाव बाला (निश्चया. स्मक हो वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है।॥४०॥ तत्वार्थदीपिका-पहले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, समान चारित्र और सम्यक् तप, इस चतुष्टय को मोक्ष के कारण कहा था, उसमें से सम्यग्दर्शन का सभेद स्वरूप कहा जा चुका, अश सम्परज्ञाय के स्वरूप का कथन करते हैं जो प्रमेय अर्थात् वस्तु को प्राप्त करे वह प्रमेय व्यापी कहलाता है जिसका अर्थ है नियम ले वस्तुमाही या नियत वस्तु साचारी । व्यवसायास्मक उसे कहते हैं जो निश्चयात्मक हो । ऐसा मोदयापी और व्यवसायात्मक ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। यहां 'प्रमेयव्यापी' इस पद से दिप रीत ज्ञान का निरास किया गया है और 'व्यवसायात्मक' पद से अन. ध्यवसाय तथा संशय ज्ञान का निवारण किया गया है । तापय शाह - 'पमेयवावगे ववसाय' त्या , સૂત્રાર્થ-જે પ્રમેયવ્યાપી અને વ્યવસાય સ્વભાવવાળુ નિશ્ચયાત્મકછે તે સમ્યકૃજ્ઞાન કહેવાય છે કે ૪૦ | તવાથથદીપિકા–પહેલા સમ્મદર્શન સમ્યકજ્ઞાન સમ્યફચારિત્ર અને સમ્યકૃતપ એ ચતુષ્ટયતાને મોક્ષના કારણ કહ્યા હતા તેમાંથી સમ્મદર્શનનું સભેદ સ્વરૂપ કહેવામાં આવ્યું હવે સફજ્ઞાનના સ્વરૂપનું કથન કરીએ છીએ જે પ્રમેય અર્થાત વરતને વ્યાપ્ત કરે તે પ્રમેયાપી કહેવાય છે. જેનો અર્થ છે નિયમથી વસ્તગ્રાહી અથવા નિયતવસ્તુસહચારી વ્યવસાયાત્મક તેને કહે છે જે નિશ્ચયાનક હેય. આવુ પ્રમેયવ્યાપી અને વ્યવસાયાત્મક જ્ઞાન સમ્યકજ્ઞાન છે. અહી પ્રમેયવ્યાપી એ પદથી વિપરીત જ્ઞાન અભિપ્રેત કરવામાં આવ્યું છે અને વ્યવસાયાત્મક પદથી અનધ્યવસાય તથા સંશયજ્ઞાનનું નિવારણ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ स्थितास्तेन स्तेन प्रकारेणाऽनध्यवसाय-संशय-विपर्ययभिन्न ज्ञानं सम्यग्ज्ञान व्यपदिश्यते, सम्यक् पदेनाऽपि-अनध्यवसायसंशयविपर्ययज्ञानस्य व्यावृत्ति भवति । अनध्यवसायादि त्रयस्य मिथ्याज्ञानरूपत्वेन मोक्षसाधने तेषा मनुपयुक्तत्वात सत्राऽनध्यवसायो मोहः, संशयः, संदेहः विपर्ययो-विपरीतत्वमितिभावः ॥४॥ सार्थनियुक्ति--पूर्व तावम्-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानादि चतुष्टयस्य मोक्षसाधकरपेन मतिपादितवान् तत्र-प्रथमोपात्तस्य सम्यग्दर्शनस्य स्वरूप प्ररू. पितम्, सम्मति क्रममाप्तस्य सम्यग्ज्ञानस्य स्वरूपं प्ररूपयितुमाह-'पमेयवावगे ववलायस्समाये सम्मनाणे' इति । प्रमेयव्यापकं प्रमेयम्, प्रमातुं योग्य प्रमेयंनिकला कि जो जीवादि पदार्थ जिस-जिस रूप में अवस्थित हैं, उसी. उसी रूप में, जानने वाला अनध्यवसाय, संयम और विपर्यय से भिन्न ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । इसके अतिरिक्त सम्यक् पद से भी अनध्यवसाय, संशय और विपर्यय रूप ज्ञान की व्यावृत्ति हो जाती हैं, क्योंकि ये तीनों मिथ्याज्ञान हैं, अतएव मोक्ष के साधन नहीं हो सकते। , अनध्यवसाय का अर्थ मोह, संशय का अर्थ सन्देह और विपर्यय का अर्थ विपरीतता है ॥४॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकूचारित्र और सम्पनप को मोक्ष का साधन कहा था, उनमें से सम्यग्दर्शन के स्वरूप की पाटया की, अब क्रमप्राप्त सम्यग्ज्ञान के स्वरूप का पति पादन करते हैं____जो प्रमिति के योग्य अर्थात् जानने के लायक हो वह प्रमेय कहालाता है । प्रमेय वस्तु को व्याप्त करना अर्थात् त्याग न करना या नियम કર્યું છે. સાર એ નીકળે કે જે જીવાદિ પદાર્થ જે જે રૂપમાં રહેલા છે તે તે રૂપમાં જાણવાવાળા અનધ્યવસાય, સંશય અને વિપર્યયથી ભિન્ન જ્ઞાન સમ્યકજ્ઞાન કહેવાય છે. આ સિવાય સભ્યપદથી પણ અનધ્યવસાય, સંશય અને વિપર્યયરૂપ જ્ઞાનની વ્યાવૃત્તિ થઈ જાય છે કારણકે આ ત્રણે મિથ્યાજ્ઞાન છે. જેથી મેક્ષના સાધન થઈ શક્તા નથી અનધ્યવસાયને અર્થ મોહ સંશયને અર્થ સંદેહ અને વિપર્યયને અર્થ વિપરીતતા છે. છે ૪૦ તવાર્થનિયુકિત-પહેલાં સમ્યક્દર્શન, સમ્યકજ્ઞાન, સમ્યક્રચારિત્ર, અને સફતપને મોક્ષનાં સાધન કહ્યાં હતાં. તેમાથી સમ્યક્દર્શનનાં સ્વરૂપની વ્યાખ્યા કરી હવે ક્રમ પ્રાપ્ત સમ્યકજ્ઞાનનાં સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ જે પ્રતીતિને ચે ગ્ય અર્થાત જાણવાને લાયક છે તે પ્રમેય કહેવાય છે. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mer दीपिका-नियुक्ति टीका थ.८ सू.४० सम्यग्ज्ञानस्वरूपनिरूपणम् वस्तु, व्याप्तम्भपरित्यक्तु नियमतो ग्रहीतुं शीलमस्येति प्रमेय व्यापकं नियमतो पस्तुमाहि वस्तुनो नियमतो ग्रहगशी, व्यवसाय स्वभावस्-व्यवसायोऽध्यवसायः निश्रया स्वभावः स्वरूपं यस्य तद् व्यवसायस्वभावम् अश्यवसायस्वरूपम्, निश्चयात्मकं ज्ञानं सम्यग्ज्ञान मुच्यते। तत्र-प्रमेयव्यापकपदेन विपर्ययज्ञानम् ज्यावृत्तिः क्रियते, तस्य प्रमेयाव्यापकत्वात् अध्यवसायस्वरूपव्यवसायस्वभावकथनेन च मोहरूपानध्यत्र सायस्य संशयस्य च व्यावृत्ति भवति । एतेषां खल प्रयाणाम् अनध्यवसायसंशयविपर्ययाणां मिथ्याज्ञानरूपत्वेन मोक्षसाधनेऽनुपः युक्तस्वात्, तथा च-येन येन स्वरूपेण स्वभावेन जीवादीनि तत्वानि व्यवस्थितानि सन्ति तेन तेन स्वरूपेण स्वभावेन तेषां परिज्ञानं सम्यग्ज्ञानमवगन्तव्यम् । तच्च सम्यग्ज्ञान द्विविधं, प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद, तत्र-प्रत्यक्षमपि द्विविधं भवति, सां. से ग्रहण करना जिसका स्वभाव हो वह व्यवसाय स्वभाव कहलाता है। व्यवसाय अर्थात् अध्यवसाय था निश्चय जिसका स्वभाव हो वह व्यवसायस्वभाव । इस प्रकार जो ज्ञान प्रमेयव्यापक और व्यवसायस्व. भाव होता है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है। 'प्रमेयव्यापक, पद से विर्यपज्ञान की व्यावृत्ति की गई है, क्योंकि वह प्रमेयव्यापक नहीं होता और व्यवसायात्मक पद से मोह रूप अनध्यवसाय का तथा संशयज्ञान का निराकरण हो जाता है। ये तीनों अनध्यवसाय, संशाध और विपर्यश मिथशाज्ञान होने के कारण मोक्ष साधन में उपयुक्त नहीं है। अभिप्राय यह है कि जो जीयादि पदार्थ जिस-जिस रूप में स्थित हैं, उन्हें उली रूप में जानना लम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान दो प्रकार का है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनमें से प्रत्यक्ष પ્રમેય વસ્તુને વ્યાપ્ત કરવી અર્થાત ત્યાગ ન કરે અથવા નિયમથી ગ્રહણ - કરવું જેને સ્વભાવ છે તે “વ્યવસાયસ્વભાવ” કહેવાય છે. વ્યવસાય અર્થાત અધ્યવસાય અથવા નિશ્ચય જેનો સ્વભાવ છે તે વ્યવસાયસ્વભાવ આ રીતે જે જ્ઞાન પ્રમેયવ્યાપક અને વ્યવસાય સ્વભાવ હોય છે તે સમ્યફજ્ઞાન કહેવાય છે પ્રમેયવ્યાપક પદથી વિપર્યય જ્ઞાનની વ્યાવૃત્તિ કરવામાં આવી છે કારણકે તે પ્રમેયવ્યાપક હોતું નથી અને વ્યવસાયાત્મક પદથી મેહરૂપ અને વ્યવસાયનું તથા સંશયજ્ઞાનનું નિરાકરણ થઈ જાય છે. આ ત્રણે-અનધ્યવસાય, સંશય અને વિપર્યય મિથ્યાજ્ઞાન હોવાથી મોક્ષ સાધનમાં ઉપયોગી નથી. કહેવાનું એ છે કે જે જીવાદિ પદાર્થ જે જે વરૂપમાં સ્થિત છે તેમને તેજ રૂપમાં જાણવા એ સમ્યફ઼જ્ઞાન છે સમ્યકજ્ઞાન બે પ્રકારનાં છે. પ્રત્યક્ષ અને પક્ષ આમાંથી પ્રત્યક્ષનાં પણ त. ९४ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्वार्थ व्यावहारिक-पारमार्थिकदात् । तत्र-सांव्यवहारिक मपि द्विविधम्, इन्द्रिय निवन्धनम्-अनिन्द्रिय निबन्धनश्चति । तत्र-चक्षुरादीन्द्रियहेतुकं प्रत्यक्षम् अनिन्द्रिय निबन्धन घुच्यते, मनोहेतुकं प्रत्यक्षम्-अनिन्द्रियनिवन्धनं व्यपदिश्यते । एवम्परमाथिकं प्रत्यक्षमपि द्विविधं भवति, विकलं सकळञ्चति, तत्राऽसमाविषयक विकलं प्रत्यक्षम् घुच्यते समाविषयजन्तु सकलं प्रत्यक्ष व्यपदिश्यते । तत्र-विकलं प्रत्यक्षम् अवधिमनः श्यवज्ञानभेदेन द्विविधमवगन्तव्यम्, सकलंपत्यक्षं पुनरेकमेव समस्ताऽऽवरणक्षयहेतुकसकलद्रव्यपर्यायसाक्षात्कारस्वरूप केवलज्ञान मुच्यते । परोक्षं तावत्-सम्यग्ज्ञानं पञ्चविधं भवति, स्मरणमत्यभिज्ञानतोऽनु. के भी दो भेद हैं-लांव्यवहारिकप्रत्यक्ष और पारमार्थिकप्रत्यक्ष । सांव्य वहारिक प्रत्यक्ष श्री दो प्रकार का है-इन्द्रिय निबन्धन और अनिन्द्रिय नियन्धन । चक्षुआदि इन्द्रियों से जो प्रत्यक्ष होता है वह इन्द्रियनिबन्धन कहलाता है और मन ले होने वाला प्रत्यक्ष अनिन्द्रिय निषन्धन । पारमार्थिकप्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-विकल और सकल । जो समस्त वस्तुओं को ग्रहण न करे वह विशलपारमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाता है और समग्र वस्तुओं को जाननेवाला सकलपामार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है । विकलपारमार्थिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-अवधिज्ञान और मनःपर्य वज्ञान । सलल पारमार्थिक प्रत्यक्ष एक ही प्रकार का है। वह समस्त आवरणों के क्षय से उत्पन्न होता है और समस्त द्रव्यों और पर्यायों को साक्षात् करना उसका स्वरूप है। उसे केवलज्ञान काइते है। परोक्ष सम्यग्ज्ञान पांच प्रकार का है-(१) स्मरण (२) प्रत्यभिज्ञान (३) तर्क (४) अनुमान और (५) आगम | उत्तराध्ययनसूत्र के २८ वे બે ભેદ છે સાંવ્યવહારિક પ્રત્યક્ષ અને પારમાર્થિક પ્રત્યક્ષ. સાંવ્યવહારિકપ્રત્યક્ષ પણ બે પ્રકારનાં છે-ઈન્દ્રિયનિબ ધન અને અનિદ્રીયનિબંધન ચક્ષુ આદિ ઈન્દ્રિથી જે પ્રત્યક્ષ હોય છે તે ઇન્દ્રિયનિબંધન કહેવાય છે અને મનથી થનારા પ્રત્યક્ષ અનિદ્રીયનિબંધન. પારમાર્થિક પ્રત્યક્ષ પણ બે પ્રકારના છે વિકલ અને સકલ જે સમસ્ત વસ્તુઓને ગ્રહણ ન કરે તે વિકલપારમાર્થિક પ્રત્યક્ષ કહેવાય છે અને સમગ્ર વસ્તુઓને જાણનાર સકલપારમાર્થિક પ્રત્યક્ષ કહેવાય છે વિકલપારમાર્થિપ્રત્યક્ષનાં બે ભેદ છે અવધિજ્ઞાન અને મનઃપર્વવજ્ઞાન સકયપારમાર્થિક પ્રત્યક્ષ એક જ પ્રકારનું છે. તે સમરત અને પર્યાને સાક્ષાત કરવા તેનું સ્વરૂપ છે. તેને કેવળજ્ઞાન કહે છે. પક્ષ સમ્યકજ્ઞાન પાંચ પ્રકારનાં છે (૧) સ્મરણ (૨) પ્રત્યભિજ્ઞાન (૩) તક () અનુમાન અને (૫) આગમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ૨૮માં અધ્યયનના Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.८ लू.४१ सम्यग्ज्ञानभेदनिरूपणम् ७७ मानाऽऽयमभेदात् ।। उक्तश्चोत्तराध्ययने २८ अध्ययने २४ माथायाम्-'दव्वाणं सबभावा, सवपमाणेहिं जस्त उबलद्धा। बाहिं नयविहीहिं, वित्थाररुत्ति नायो॥१ इति द्रव्याणां सर्वभावाः सर्वप्रमाणैर्यस्योपलब्धाः ! सबै नयविधिभि, विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः ॥१॥ इति, तथा च-यस्य जीवस्य द्रव्याणां सर्वे मावाः गुणपर्या यादयः सर्वप्रमाणः सर्वनय चोपलब्धाः परिज्ञाता भवन्ति स विस्ताररुचिरुच्यते ॥४०॥ इति __मूलम्-तं च पंचविहे, मासुयोहिमणपज्जवकेवलनाण. भेयओ ॥४१॥ छापा-तच्च पञ्चविधं, मतिश्रुतावधि मनःपर्यवकेवलज्ञानभेदतः ॥४१॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व तावद्-मोक्षसाधकतया प्रतिपादितेषु सम्यग्दर्शना दिषु चतुर्यु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानश्च प्ररूपितम्, सम्मति तत्र-सम्यग्ज्ञानस्य मति श्रुतादि पञ्चभेदान् प्ररूपयितुमाह-'तं च पंचविहे' इत्यादि । तच्च पूर्वोक्त स्वरूपं अध्ययन की २४ वीं माथा में कहा है-- 'जिसने द्रव्यों के समस्त पर्यायों को समस्त प्रमाणों से और सष नयविधानों से जान लिया, वह विस्तार रुचि कहलाता है ।।१॥ इस प्रकार जो जीव द्रव्यों को गुण-पर्यायरूप भावों को प्रमाणों और सब नयों से जान लेना है, वह विस्ताररूचि कहलाता है॥४०॥ 'त' च पंचविहे घहस्य' इत्यादि ४१ सूत्रार्थ-लम्घरज्ञान पांच प्रकार है-(९) प्रतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) अनापर्यज्ञान और (५) केवलज्ञान ॥४१॥ तत्वार्थदीपिका--मोक्ष के साधन कहे भए सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान आदि में से सम्यग्दर्शन और लम्पज्ञान को प्ररूपणा की गई, अब सम्यग्ज्ञान के मति शुत अदि पांच भेदों की प्ररूपणा करते हैं૨૪ મી ગાથામાં કહ્યું છે–જેણે દ્રવ્યના સમસ્ત પર્યાયને સમસ્ત પ્રમાણેથી અને બધાં નવિધાનેથી જાણી લીધા તે વિસ્તારરૂચિ કહેવાય છે ? આ રીતે જે જીવ દ્રવ્યોના સમસ્ત ગુણ-પર્યાયરૂપ ભાવેને બધાં પ્રમાણ અને બધાં નથી જાણી લે છે તે વિસ્તાર રૂચિ કહેવાય છે. જો 'त च पंचविहे मइसुय' त्यात साथ-सभ्य ज्ञान पाय प्रजाना छे-(१) भतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (3) અવધિજ્ઞાન (૪) મનઃ પર્યાવજ્ઞાન અને (૫) કેરળજ્ઞાન ૪૧ તત્વાર્થદીપિકા-મેક્ષના સાધન કહેવામાં આવેલા સમ્યગ્દર્શન સમ્યગજ્ઞાન આદિમાંથી સરગ્દર્શન અને સમ્યજ્ઞાનની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી હવે Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ge तत्त्वार्थस्से सम्यग्ज्ञानं पञ्चविधं भाति, मतिश्रुताबधिमनःपर्यवकेवलज्ञानभेदात, तत्राऽऽ. भिनिवोधिकज्ञानरूप मतिज्ञानमवसेयम् । तत्र-ज्ञानाचरणं तावद् ज्ञानप्रतिवन्धक मुच्यते, तत् त्रिविधं भवति, मनोगतम्-इन्द्रियात-विषयगतश्चेति । तत्र. मात्सर्यादिक मनोगतमावरणम् काच-कामलादिक मिन्द्रियगतमावरणम्, (काचश्वाऽत्र-नेत्ररोगविशेषः काचविन्दु नाम्ना प्रसिद्धः) सूक्षमत्वगाढान्धकारव्यातस्वादिकं विषयगतमावरणं भवति, तस्य खलु-आवरणस्य सर्वथा नाशः क्षय उच्यते । आवरणस्य विद्यमानत्वेऽपि-अनुभूत रावस्था उपशम उच्यते । तत्र मतिज्ञानावरणक्षयोपशमे सति-इन्द्रिय मनसि पुरस्कृत्य व्यापृतः सन् यथार्थ पूर्वोक्त सम्परज्ञान पांच प्रकार का है-(१) मति (२) श्रुत (३)अवधि (४) मनापर्यच और (५) केवलज्ञान । आभिनियोधिकज्ञान को मतिज्ञानकहते हैं । जो ज्ञान को आवृत्त-आच्छादिन करे वह ज्ञानावरण कह लाता है। आवरण तीन प्रकार के होते हैं-लनोगत, इन्द्रियगत और विषयगत । मात्सर्य आदि मनोगत आवरण है, काच-कामलादिक रोग इन्द्रियगत आवरण हैं (काच नामक नेत्रों का एक रोग होता है जो काचविन्दु नाम से भी प्रसिद्ध है)। मूक्षमता, गाढ अंधकार से व्याप्त होना आदि विषयगत आवरण हैं। आवरण का सर्वथा नाश होना क्षय कहलाता हैं आवरण विद्यमान तो हो मगर उद्मून (प्रकट) न हो तो ऐसी अवस्था को उपशम कहते हैं। ___मतिज्ञानावरण हा क्षयोपशम होने पर इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो यथार्थ ज्ञान होता है वह मतिज्ञान कहलाता है। तात्पर्य यह સમ્યજ્ઞાનના પ્રતિકૃતિ આદિ પંચ ભેદની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ– पूर्वरित सभ्यज्ञान पाय प्रा२नु छ-(१) मति (२) श्रुत (3) अवधि (४) भन: ५५ मने (प) वज्ञान मालिनिमाधि 3-ज्ञानने भतिज्ञानકહે છે. જે જ્ઞાનને આવૃત્ત-આચ્છાદિત કરે તે જ્ઞાનાવરણ કહેવાય છે. આવરણ ત્રણ પ્રકારના હોય છે–મને ગત ઈન્દ્રિયગત અને વિષયગત. માત્સર્ય આદિ મને ગત આવરણ' છે, કાચ-કામલાદિક રોગ ઈન્દ્રિયગત આવરણ છે. (કાચ નાને આખેને એક રોગ હોય છે જે કાયબિન્દુ નામથી પણ પ્રસિદ્ધ છે,) સૂક્ષ્મતા, ગાઢ અન્ધકારથી વ્યાપ્ત થવું વગેરે વિષયગત આવરણ છે. આવરણને સર્વથા નાશ થવો ક્ષય કહેવાય છે. આવરણ વિદ્યમાન તે હેય પરન્તુ ઉદુભૂદ (પ્રકટ) ન હોય તે એવી અવસ્થાને ઉપશમ કહે છે. મતિજ્ઞાનાવરણને ક્ષોપશમ થવાથી ઈન્દ્રિય તેમજ મનના નિમિત્તથી યથાર્થ જે જ્ઞાન થાય છે તે મતિજ્ઞાન કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે મતિજ્ઞાના Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ १.४१ सम्यग्ज्ञानभेदनिरूपणम् मनुते सा भति रुच्यते । तथा च-जन्यते इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः योग्य देशावस्थितवस्तुविषयक इन्द्रिय मनोनिमित्तकज्ञानविशेषो मतिज्ञान मुच्यते । तथा च मतिज्ञानावरणस्य क्षयोपशमे प्रथमतो जायमानं मनना स्मकं ज्ञान मित्यर्थः मनलान्मतिरिति व्युत्पत्तेः ततो मतिज्ञानजन्यं यत् अस्पष्टम् ज्ञानं तत्-श्रुतज्ञानमुच्यते इञ्च ज्ञानद्वयं परोक्षं भवति । ततोऽच्छिन्नो मर्यादित सीमितो विषयो यस्य तादृशमिद मीश मित्याकारकं ज्ञानमवधिज्ञानम् । श्रूयते इति श्रुतं शब्दः तत्सम्बन्धि ज्ञान श्रुतज्ञान मुच्यते श्रवणं दा श्रुतं शब्द ज्ञानविशेष तथा च-भाषमाणस्य शब्दं शृण्वतः पुस्तकादि न्यस्तलिपिंया चक्षुषा पश्यतो यज्ज्ञानं तत्-श्रुत ज्ञानमवसेयम् । इदश्च ज्ञानद्वयं परोक्ष भवति, यद्वाश्रवणं श्रुतं वाच्य वाचक भाचपुरस्सरीकरणेन शब्दसम्बद्धार्थग्रहण हेतुरुपलब्धिविशेषः श्रुतज्ञान मुच्यते । इदञ्च ज्ञानद्वयं परोक्ष भवति, ततोऽवच्छिन्नो मर्यादितः है कि मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर सर्वप्रथम मननात्मक जो ज्ञान होता है, वह प्रतिज्ञान कहलाता है । भतिज्ञान के पश्चात् पाच्य-वाचक भाव संबन्ध के आधार पर जो ज्ञान होता है, वह श्रुत ज्ञान कहलाता है। जो सुना जाय वह शब्द-शब्दः संबन्धी ज्ञान श्रुतज्ञान है । अथवा सुनना श्रुत कहलाता है। वक्ता के द्वारा प्रयुक्त शब्द को श्रवण करके उसके अर्थ (बाच्य) को जानना श्रुतज्ञान कह लाता है । तात्पर्य यह है कि साच्च-वाचकभाव संबन्ध के अधार पर शब्द के साथ सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान शुनज्ञान कहा लाता है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों परोक्ष है। इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना जिल ज्ञान के द्वारा मर्या. दित रूपी पदार्थों का बोध हो वह अवधिज्ञान कहलाता है । जो अवधि વરણ કર્મને પશમ થવાથી સર્વ પ્રથમ મનનાત્મક જે જ્ઞાન થાય છે તે મતિજ્ઞ ન કહેવાય છે. મતિજ્ઞાન પછી જે વ કય–વાચક ભાવ સંબંધના આધારે જે જ્ઞાન થાય છે તે શ્રતજ્ઞાન કહેવાય છે જે સાંભળી શકાય તે શબ્દ, શબ્દ સંબંધી જ્ઞાન શ્રતજ્ઞાન છે. અથવા સાંભળવું થુન કહેવાય છે વકતા દ્વારા વપરાયેલા શબ્દનું શ્રવણ કરીને તેના અર્થને (વાસ્થ) જાણવો શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે વાચ્ય–વાચકભાવ સંબંધના આધારે શબ્દની સાથે સમ્બધ અર્થને ગ્રહણ કરનાર જ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે. મતિજ્ઞાન અને श्रुतज्ञान-मन परेक्ष छे. - ઇન્દ્રિય અને મનની સહાયતા વગર જે જ્ઞાન દ્વારા મર્યાદિત રૂપી પદાર્થો ને બંધ થાય તે અવધિજ્ઞાન કહેવાય. છે જે અવધિ અર્થાત્, રૂપી કને Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० तरवार्थसचे सीमितो विषयो यस्य तादृशमिद मीशमित्याकारकं ज्ञानम् अवधिज्ञान मुच्यते। अवधीयते द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैः परिच्छिद्यते विषयोऽनेनेति व्युत्पत्तेः, यद्वाऽधस्ताद् विद्यमानबहुतरविषयग्रहणा दवधिरुच्यते, अवशब्दोऽधः शब्दार्थः अ-अधो विस्तृत वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेति-अवधिः, यद्वा-अवधिमर्यादा रुपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेिदन तया ज्ञानम् अवधिज्ञानम् । देवाः खल अवधिज्ञानेन सप्तमनरकपर्यन्तं पश्यन्ति । उपरि पुनरल्पमेव स्वविमानदण्डपर्यन्तं पश्यन्ति । एवम्-मात्सर्यादि ज्ञावरणक्षयोपशमे सति अन्य मनोगतस्याऽर्थस्य स्फुटं परिअर्थात् रूपी द्रव्यों का जानने की मर्यादा से युक्त हो वह अवधिज्ञान अथवा जो ज्ञान अधस्तन अर्थात् नीचि दिशा में अधिक जाने वह अवधिज्ञान । यहां 'अ' शब्द अधः अर्थात् नीचे के अर्थ में है। देव अवधिज्ञान से सातवें नरक तक देखते है मगर ऊपर थोडा ही देखपाते है-केवल अपने विमान के दण्ड पर्यन्त ही। ____ मनःपर्यायज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर दूसरे के मनोगत पर्यायों को साक्षात् रूप से जानने वाला ज्ञान मन:पर्यवज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान परमनोद्रव्यों और उनके पर्यायों को ही प्रत्यक्ष जानता है मगर मन द्वारा चिन्तित घट आदि बाह्य पदार्थों को नहीं जानता। उन्हें अनुमान से ही जानता है। तात्पर्य यह है कि जब कोई संज्ञी जीव किसी पदार्थ का मनन-चिन्तन करता है तब उस चिन्तनीय पदार्थ के अनुरूप उसके मन के पर्याय उत्पन्न होते हैं। मनःपर्यवज्ञान જાણવાની મર્યાદાથી યુક્ત હેય તે અવધિજ્ઞાન અથવા જે જ્ઞાન અપસ્તાત અર્થાત નીચી દિશામાં અધિક જાણે તે અવધિજ્ઞાન અહી અવશબ્દ અધઃ ચર્થાત્ નીચેના અર્થમાં છે. દેવ અવધિજ્ઞાનથી સાતમી નરક સુધી જુએ છે પરંતુ ઉપર તે જ જોઈ શકે છે- માત્ર પિતાના વિમાનના દર્ડ પર્યત જોઈ શકે છે. મનઃ પર્યાયજ્ઞાનાવરણને પશમ થવાથી બીજાનાં મનોગત પર્યાને સાક્ષાત રૂપથી જાણનાર જ્ઞાન મનઃ પર્યવજ્ઞાન કહેવાય છે. આ જ્ઞાન પરમને દ્રવ્યો અને તેના પર્યાને જ પ્રત્યક્ષ જાણે છે પરંતુ મન દ્વારા ચિતિત ઘટ આદિ પણ પદાર્થોને જાણતા નથી. તેને અનુમાનથી જ જાણે છે તાત્પર્ય એ છે કે જ્યારે કેઈસ ની જીવ કેઈ પદાર્થનું મનન-ચિન્તન કરે છે ત્યારે તે ચિત્તનીય પદાર્થને અનુરૂપ તેના મનના પર્યાય ઉત્પન્ન થાય છે. મનઃ પર્યાવજ્ઞાન તે પર્યાને સાક્ષાત જાણે છે અને તેના આધારે બાહ્ય પદાર્થોનું Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ.८ ९.४१ सम्यग्ज्ञानभेदनिरूपणम् ७५१ च्छेदकं ज्ञानम्-'इदमित्थंभूतमनवचिन्तितम्' इत्येवंरूप ज्ञानं मनापर्यवज्ञान मुच्यते । तपस्विनो जना यदर्थं तपः क्रियाविशेष कुर्वन्ति तज्ज्ञान सकल. द्रव्य पर्यायाऽवभासकम् अन्यज्ञानासंसृष्ट केवलज्ञानं उपपदिश्यते । तच्चमोक्षसाधकं भवतीति ॥४१॥ ___ तत्वार्थनियुक्ति:--पूर्व तावद् मोक्षसाधनत्वेन सम्यग्ज्ञानं प्रतिपादितम्, सम्मति तस्य मूलभेदान् भतिपादयितुमाह-'त च पंचविह, महसुयओहि मणपज्जव केवलनाण भेयओ' इति । तच्च पूर्वोक्तस्वरूप सम्यग्ज्ञानं उन पर्यायों को साक्षात् जानता है और उनके आधार पर वाय पदार्थ का अनुमान करता है ।जैसे सामान्य ज्ञानवान् पुरुष किसी के चेहरे को प्रत्यक्ष देखता है और फिर चेहरो के आधार से उसके अन्तः करण के क्रोध, करुणा, अनुराग आदि भावों का अनुमान करता है उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञानी दूसरे के मनोद्रव्यों को प्रत्यक्ष देखता है और फिर मनोद्रव्यों के पर्यायों के आधार पर बाह्य पदार्थों का अनु मान करता है-'जाणह बज्झेऽणुमाणाओ' अर्थात् बाह्य पदार्थों को अनुमान से जानता है । जिस ज्ञान के लिए तपस्वी जन तपश्चरण में प्रवृत्त होते है, वह सभी द्रव्यों और पर्यायों को जानने वाला एवं अन्य ज्ञानों से अछूतो ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। यही ज्ञान मोक्ष का साधक होता है।४१॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले सम्यग्ज्ञान को मोक्ष का साधन कहा है, अब उसके मूलभेदों का प्रतिपादन करते हैंઅભિમાન કરે છે. જેમ સામાન્ય જ્ઞાનવાન પુરૂષ કેઈના ચહેરાને પ્રત્યક્ષ જુએ છે અને પછી ચહેરાના અધારથી તેના અતઃકરણના કોઇ અનુરાગ આદિ ભાવેનું અનુમાન કરે છે. તે જ રીતે મન:પર્યવજ્ઞાની બીજાના મને દ્રવ્યને પ્રત્યક્ષ જુએ છે અને પછી મને દ્રવ્યના પર્યાના આધાર પર मा पहानु अनुमान ४२ छ. यु ५५ छ-'जाणइ बज्झेणुमाणाओ' અર્થાત્ બાદ્યપદાર્થોને અનુમાનથી જાણે છે. જે જ્ઞાનને માટે તપસ્વીજન તપશ્ચર્યામાં પ્રવૃત્ત થાય છે તે બધા દ્રવ્યો અને બધાં પર્યાને જાણનાર તેમજ અન્ય જ્ઞાનેથી ન સ્પર્શેલું જ્ઞાન કેવળ જ્ઞાન કહેવાય છે. આજ જ્ઞાન મેક્ષનું સાધક હોય છે કે ૪૧ | આ તત્વાર્થનિર્યુક્તિ-અગાઉ સમ્યજ્ઞાનને મોક્ષનું સાધન કહ્યું છે હવે તેના મૂળ ભેદોનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थस ७५२ - , पञ्चविधं भवति मविवधि मनःपर्यव - केवलज्ञानभेदतः । तथा च मतिज्ञानं श्रुनज्ञानम् - अधिज्ञानं मनः पर्यवज्ञानं - केवलज्ञान श्वेत्येवं तावत् पञ्चविधं सम्य ज्ञानमत्रसेयम् । अत्रान्तरभेदास्तु-अनेकविधाः सन्तीति वक्ष्यते, तत्र - मननं मतिः परिच्छेदः, ज्ञप्तिज्ञानं वस्तु स्वरूपावधारणम्, मतिरूप ज्ञानं मतिज्ञानम्, इदमेवाssमिनिवोधिकज्ञानमुच्यते । तच्च श्रोत्रेन्द्रिय व्यतिरिक्त चक्षुरादीन्द्रिया नक्षरोपलरूप मतिज्ञानं बोध्यम्, श्रूयते इति श्रुतम् तच्च शब्दमात्र बोध्यं तस्यैव श्रयमाणत्वात् तत्सम्बन्धिज्ञानं श्रुतज्ञान मुच्यते । यद्वा-श्रवणं श्रुतरूपं श्रुतं शब्दज्ञान विशेष उच्यते भावे क्त प्रत्ययः, तच्च श्रुतज्ञानं भाषमाणस्य शब्द माकर्णयतः पुस्तकादिन्यस्तलिपित्रा पश्यतो यज्ज्ञानं भवति तत् श्रुतज्ञानं बोध्यम् । अवधि - पूर्वोक्त सम्यग्ज्ञान पांच प्रकार का है - ( १ ) मतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनः पर्यवज्ञान (५) केवलज्ञान । इनके अवान्तर भेद अनेक प्रकार से हैं, जिसका आगे कथन किया जाएगा। मनन करना मति कहलाता है, जानना अर्थात् वस्तु के स्वरूप का अवधारण करना ज्ञान है । मतिरूप ज्ञान मतिज्ञान । इसे आभिनियोधिक ज्ञान भी कहते हैं। पांचों इन्द्रियों से और मन से जो अनक्षराम बोध होता है, उसे मतिज्ञान समझना चाहिए । जो सुना जाय सो श्रुत । श्रुत शब्द ही है क्योंकि शब्द ही सुना जाता है। श्रुत संबंधी ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है । अथवा श्रवण को अर्थात् शब्दज्ञान विशेष को श्रुत कहते हैं। यहां भाव में 'क्त' प्रत्यय हुआ है। किसी बता के द्वारा उच्चारण किये गये शब्द को सुनने के पश्चात् પૂર્વતિ યૂનાન પાંચ પ્રકારનુ છે—(૧) મતિજ્ઞાન (ર) શ્રુતજ્ઞાન (3) अवधिज्ञान ( ४ ) मनःपर्यवज्ञान भने (4) देवजज्ञान शेभना भवान्तर ભેદ અનેક પ્રકારથી છે જેમનુ કથન હવે પછી કરવામાં આવશે. મનન કરવું. મતિ કહેવાય છે, જાણવું અર્થાત વસ્તુના સ્વરૂપનુ' અવધારણ કરવું જ્ઞાન છે. મતિરૂપ જ્ઞાન મતિજ્ઞાન અને આભિનિઐધિક જ્ઞાન પશુ કહે છે. ૫ ચે ઇન્દ્રિયેાથી અને મનથી જે અનક્ષરાત્મક મેધ થાય છે, તે મતિજ્ઞાન સમજવુ જોઇએ. જે સાંભળી શકાય તે શ્રુત, શ્રુત શબ્દનેા જ પર્યાય છે કારણકે શબ્દ જ સાંભળી શકય છે. શ્રુત સંખ’ધી જ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે, અધવા શ્રવણુને શબ્દજ્ઞાન વિશેષ ને શ્રુત કહે છે. અહી ભાવમાં ‘કત’પ્રત્યય લાગ્યા તે, કાઇ વકતા દ્વારા ખેલાયેલા શબ્દોને સાંભળ્યા ખાદ તે શબ્દના અર્થનું જે જ્ઞાન Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५३ दीपिका-नियुक्ति टीका आ.८ सु.४१ लस्यग्ज्ञानभेदनिकरणम् ज्ञानं तावद् अनशब्दस्याऽधः शनार्थ मावेनाऽवधानादयधिः तद्रूपं ज्ञानं परिच्छेदः अवधिःज्ञाना, तसाऽयो विस्तृत सप्तमनरकपर्यन्तविषयक मनुत्तरविमानवासिनां देवानाम् अवधिज्ञान मुच्चो । यद्धा-अवधि शब्दस्य मर्यादार्थकतयाऽवच्छिन्नो मदित लोपितो विषसे यह साशं ज्ञानम् इदमीशम्' इत्या कारसमवधिधान मुख्यते। अवधी से दूर-क्षेत्र-कालभायः परिच्छियचे मोदी क्रियते विषयोऽनेलेति व्युत्पत्तिः, सच्चाऽर्त द्रव्यपरिहारेण सूर्त द्रव्यनिवन्धनस्वादेव-सीवितस्पेनधिज्ञानदेन व्यादिव्यते यच्च-नरकादि चतुर्गतिष्वपि वर्तमानानां जीवाना विद्रयःनिरपेक्ष गतिविशिष्टक्षयोपशमहेतुकं पुद्गलउमा शब्द के का जोशात शेता है पाह श्रुतज्ञान कहलाता है। यहां यह स्मरण Fखना चाहिए कि कान के द्वारा शब्द को सुनना अथवा नेनों का मिर-अक्षों को देखकर परिज्ञान है, उसके अनतर उल शब्द के का पाच- समबन्ध के आधार पर जो बोध होता है, वह श्रुतज्ञान है। ___ अवधि शब्द जो '' भाग है यह अधः अर्थात् नीचे का वाचन है। अधिज्ञान जिची दिशा में अधिक विस्तृत होता है। जानुन्तर विमाधानी देश अधक्षिकाल से सप्तम नरक पर्यन्त जानते देखते हैं। अभमा अनधिका अर्थ है मर्यादा । जो ज्ञान मर्यादा युक्त है बाह अवधिज्ञान । झिाल ही मर्यादा यह है कि यह ज्ञाल अमूर्त पदार्थों को छोडकर खि लूल द्रव्यों को ही जानता है। इस कारण यह मर्यादित-लीमित या अवधि ज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान चारों गतियों के जी को हो सकता है। इसमें इन्द्रिय और मन की सहायता થાય છે તે શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે. અત્રે એ યાદ રાખવું જોઈએ કે કાન વડે શબ્દને સાંભળો અથવા નેત્રો દ્વારા લિપિ અક્ષરને જેવા મતિજ્ઞાન છે. આના અનન્તર તે શબ્દના અર્થને વાચ્ય-વાચક સંબંધના આધારે જે બોધ થાય छ. ते श्रुतज्ञान छे. અવધિ શબ્દમાં “અવ' ભાગ છે તે અધ અર્થાત્ નીચેને વાચક છે. અવધિજ્ઞાન નીચી દશામાં અધિક વિરતૃત હોય છે. અનુત્તરવિમાનવાસી દેવ અવધિજ્ઞાન વડે સાતમી નરક સુધી જઈ શકે છે અથવા અવધિને અર્થ મર્યાદા છે. જે જ્ઞાન મર્યાદા સુકત છે તે અવધિજ્ઞાન અવધિજ્ઞાનની મર્યાદા એ છે કે આ જ્ઞાન અમૂર્ત પદાર્થોને બાદ કરતા માત્ર મૂત્ત દ્રવ્યને જ જાણે છે. આથી તે મર્યાદિત સીમિત અથવા અવધિજ્ઞાન કહેવાય છે, આ જ્ઞાન ચારે ગતિના જીવોને થઈ શકે છે, એમાં ઈન્દ્રિય અને મનની પ્રહાયતાની त० ९५ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५५ तस्वार्थस्से परिच्छेदि देव-मनुष्य-तियङ्-नारक रथामिकमवधिज्ञानं भवति । तत्र-देवनारकाणां भवप्रत्ययिक, मनुष्यतिरश्वाञ्च लब्धि प्रत्यायिकमवधिज्ञानं भवतीति विवेक अवधि विविधो भवति यथार्थो विपरीतश्च । तर यथार्थोऽवधिः अवधिज्ञानम् विपरीतोऽवधि विभङ्गज्ञान इश्यते । सन्याष्टे जीवस्य अधिज्ञानं जायते, मिथ्याप्टे जीवस्य च विभङ्गज्ञान जाते। मनापर्यवज्ञानातु-मनस्तावद् द्विविधस्, द्रव्यसनो-भावसनश्चेलि । तन-मनौवर्गणारूपं द्रव्यमन उच्यते, भादमनः पुनस्ता एव द्रव्यमनोवणा जीवेनोपात्ताः सत्यश्चिन्त्यमाना भावमन उच्यते । तत्र पछते-भानमनः परिगृह्यते तस्य भावमनसः एर्यवाणां पर्यवेषु वा की अपेक्षा नहीं रहती-लीधा आत्मा से ही उत्पन्न होता है । अवधि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है और रूपी द्रव्यों को ही जानता है। देवों और नारकों को भवप्रत्यक्ष अवधिज्ञान होता है तथा मनुष्यों और तीर्यञ्चो को गुण प्रत्यय अधिज्ञान होता है। कोई भी देव और नारक अवधिज्ञान से रहित नहीं होता जबकि मनुष्यों और तिर्यंचों में से किसी-किसी को ही होता है। अवधि दो प्रकार का होता है। सुलट और उलटा। सुलटे अवधि को अवधिज्ञान कहते हैं, और उलटे अवधि को विज्ञान कहते हैं, स्पष्टि जीव को अवधिज्ञान होता है और विवादृष्टि को विज्ञान होता है। मन दो प्रकार का है-द्रव्यमान और लायनन । द्रव्यसन मनोर्गणा के पुद्गलों से निर्मित होता है और आत्मा का मनन करने की शक्ति भाद मन कहलाती है। यहां द्रव्यमान अभिप्रेत है। दव्यनन के पर्यायों का અપેક્ષા રહેતી નથી સીધું આત્માથી જ ઉત્પન થાય છે અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થાય છે અને રૂપી દ્રવ્યોને જ જાણે છે. દેવે અને નારકીના જીવને ભવપ્રત્યય અવધિજ્ઞાન થાય છે તથા મનુષ્યો અને તિર્યંચને ગુણ પ્રત્યય અવધિજ્ઞાન થાય છે. કઈ પણ દેવ અને નારક અવધિજ્ઞાનથી રહિવ હતા નથી જ્યારે મનુષ્ય અને તિર્યંચામાં કોઈ કેઈ ને જ હોય છે. અવધિ બે પ્રકારના હોય છે (સીધું અને ઉંધું) સીધા અવધિને અવધિજ્ઞાન કહે છે જ્યારે ઉંધા અવધિને વિભંજ્ઞાન કહે છે, સમદષ્ટિજીવ ને અવધિજ્ઞાન થાય છે અને મિથ્યાષ્ટિને વિલંગજ્ઞાન થાય છે. મન બે પ્રકારના છે દ્રવ્યમન અને ભાવમન દ્રવ્યમન મનાવર્ગના પુદ્ગલથી નિર્મિત થાય છે. અને આત્માની મનન કરવાની શક્તિ ભાવમન કહેવાય છે. અત્રે દ્રવ્યમન અભિપ્રેત છે. દ્રવ્યમનના પર્યાનું જે જ્ઞાન થાય Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ.८ ए.४१ सम्यग्ज्ञानभेदनिरूपणम् ७५५ यद् ज्ञान तन्मनःपर्यवज्ञानम्-भापमनः पर्यवाश्चैवंविधा बोध्याः। यथा-कश्चिज्जीवा-एवं चिन्तयेत् किं स्वभावः खल्लामा वर्तते ? ज्ञान स्वभावोऽमूर्तः कर्ता सुखादीना मनुमारिता इत्यादयो ज्ञेविषयाऽध्यवसायाः परगला भवन्ति तानेव मनःपर्यवान् परमार्थतः समवुध्यते, बाह्यांस्तु-मनापर्यवान् अनुमानादेवाऽसौ जानाति तन्मनः पर्यवज्ञान बोध्यम् । तथा च- इदमित्थंभूतमनेन चिन्तितम् इत्येवं रूप ज्ञान मनापर्यवज्ञान घुच्यते सच्च-मनःपर्यवज्ञान साधद्वयद्वीप समुद्रान्तप्रति संज्ञि मनोद्रव्यावलम्बन भवति । केवलज्ञानन्तु-केवलपदेन सम्पूर्ण जो ज्ञान होता है वह मनःपर्यष ज्ञान कहलाता है । तात्पर्य यह है किजैसे किसी पुरुष के अन्तःकरण प्रेम, करुणा, क्रोध आदि किली भाव के उदय होने एरु उसके चेहरे की आकृति सादनुसार बदलती रहती है और उसके चेहरे को देखकर उन-उन भावों को समझा जा सकता है, इसी प्रकार जब कोई संज्ञी जीव किली वस्तु का चिन्तन करता है तब उस वस्तु के अनुरूप व्यसन की आकृतियां-अवस्थायें भी पलटती रहती हैं। उन आकृतियों या अजस्थाओं अथवा पर्यायों को मनापर्यवज्ञानी उसी प्रकार प्रत्यक्ष देखता है जैले हल किसी के चेहरे को प्रत्यक्ष देखते हैं मन के उन्न पर्यायों को प्रत्यक्ष्म देखना-जानना ही मनापर्यव ज्ञान है। मन के द्वारा जिन पदार्थों का चिन्तन किया जाता है उन पदायों को मनापर्यवहान नहीं जानता के पदार्थ मन के पर्यायों के आधार पर किये जाने वाले अनुमान के द्वारा की जाने जाते हैं, जैसे-इस पुरुषने घट का चिन्तन किया है, यदि ऐलान किया होता तो उसके मन के पर्याय છે તે મન:પર્યયજ્ઞાન કહેવાય છે. સારાંશ આ છે–જેમ કેઈ પુરૂષનાં અન્તઃ કરણમાં પ્રેમ, કરૂણા, ક્રોધ આદિ કોઈ ભાવને ઉદય થવાથી તેના ચહેરાની આકૃતિ તદનુસાર બદલાતી રહે છે અને તેના ચહેરા (મુખમુદ્રા) ને જોઈને તે તે ભાવેને સમજી શકાય છે, એવી જ રીતે જ્યારે કેઈ સંજ્ઞી જીવ કઈ વસ્તુને ચિંતન કરે છે ત્યારે તે વાતને અનુરૂપ દ્રવ્યમનની આકૃતિએ અવસ્થાઓ પણ બદલાતી રહે છે તે આકૃતિએ અગર અવસ્થાએ અથવા પર્યાને મન:પર્યયજ્ઞાની તે જ રીતે પ્રત્યક્ષ જુવે છે જેમ આપણે કેઈના ચહેરાને પ્રત્યક્ષ જોઈએ છીએ મનના તે પર્યાને જોવા જાણવા એજ મન:પર્યવજ્ઞાન છે, સન દ્વારા જે પદાર્થોનું ચિન્તન કરવામાં આવે છે તે પદાર્થનું મન:પર્યવજ્ઞાન જાણતું નથી. તે પદાર્થ મનના પર્યાના આધાર પર કરાનાર અનુમાન દ્વારા જ જાણી શકાય છે. જેમકે–આ પુરૂષે ઘડાનું ચિન્તન કર્યું છે, જે એમ ન કય Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ तस्वार्थ ज्ञेयं परिगृह्य ते तस्य-तस्मिन् वा सकलने ये सपः क्रिषानुव्हान त्रिशुदयविशया. दिना यद् ज्ञान भवति तत्केवल ज्ञान गुच्यते । तच-सर्वद्रव्यमानपर्यायपरिच्छेदि भवति, यद्वा केवलशब्दस्याऽनहायार्थ तया कोवलम् एकमेव मत्यादि ज्ञानासम्बद्धमात्यन्तिक ज्ञानावरणक्षयजन्यं चंवलज्ञानमनियमानास्वेदं सकळ पदार्थाऽवभासकं भवति, तत्र-मतिज्ञानस्य पञ्चावग्रहादयो नेवाः, श्रुतज्ञानस्याऽगाऽनङ्ग प्रविष्टादयः, अवधिज्ञानस्य भवप्रत्ययादयः, मनःपयेवज्ञानस्य ऋजुमत्यादयो भेदाः अग्रेऽभिधास्यन्ते, केवलज्ञानस्य तु मेदा न सन्तीति-योध्यम् उक्तञ्च ऐसे-घटानुरूप नहीं होते, इत्यादि । वह लनःपर्यवज्ञान अढाई द्वीप (मनुष्य लोक) में स्थित संजी जीव के जलोद्रव्यों को जानता है। जिस ज्ञान के द्वारा समस्त ज्ञेय पदार्थ जाने जाते है, यह केवल. ज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान विशिष्यतर तपश्चरण एवं ध्यान आदि साधना से ज्ञानावरण कर्म का पूर्ण रूप से श्वष होने पर उत्पन्न होता है। यह समस्त द्रव्यों और रतलस्त पर्धापों को जानता है। • 'केवल' शब्द का अर्थ असहाय भी है। हाथ के अनुसार जो ज्ञान असहाय है अर्थात् मतिज्ञान आदि किसी भी ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता-अकेला ही होता है और ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन होता है, वह केवलज्ञान है। इन ले लतिज्ञान के चार खेद है-अपनर, इता, अधाध और धारणा । झुतज्ञान के अंगप्रविष्ट, अनंगाविष्ट (अंभवाय) आदि હોત તે એના મનના પર્યાય આવા ઘડાનુરૂપ ન હોત, વગેરે આ મનઃપર્યવજ્ઞાન અઢી દ્વિીપ (મનષ્યલેક) માં સ્થિત સંજ્ઞી જીવના મને દ્રવ્યોને જાણે છે. જે જ્ઞાન વડે સમસ્ત ય પદાર્થ જાણી શકાય છે. તે કેવળજ્ઞાન કહેવાય છે. આ જ્ઞાન વિશિષ્ટતર તપશ્ચર્યા તેમજ ધ્યાન આદિ સાધનાથી જ્ઞાનાવરણ કર્મને પૂર્ણ રૂપથી ક્ષય થવાથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ સમસ્ત દ્રવ્ય અને સમસ્ત પર્યાને જાણે છે. કેવળ શબ્દને અર્થ, અસહાય પણ થાય છે. આ અર્થ અનુસાર જે જ્ઞાન અસહાય છે અર્થાત્ મતિજ્ઞાન આદિ કઈ પણ જ્ઞાનની અપેક્ષા રાખતું નથી એકલું જ હોય છે અને જ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયથી ઉત્પન થાય છે તે કેવળ જ્ઞાન છે. આમાંથી મતિજ્ઞાનના ચાર ભેદ છે અવગ્રહ, ઈહા, અવાય અને ધારણા શ્રુતજ્ઞાનના અંગપ્રવિષ્ટ અનંગપ્રવિષ્ટ (અંગબાહ્ય) આદિ અવાન્તર ભેદ છે. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका स.८.४१ मतिश्रुतशानयोः परोक्षत्वम् ७५७ स्थानाङ्गे ५ स्थाने ३ उद्देशके ४६३ सुत्रे-पंचविहे गाणे पण्णत्ते तं जहा आभिजियोहियणाणे-सुराणाणे ओहिणाणे भणपज्जवणाणे केवलणाणे' इति, पञ्चविध ज्ञान प्रज्ञशार, तथा भामिनिबोधिकज्ञानम्, श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानम्, मनापर्यवज्ञान केवलज्ञानम् इति ॥ एसेव भगवतीत्रे-८ शतके २उद्देशके ३१८-सूत्रे अनुयोगद्वारचुत्रे, नन्दिच्ने चोक्तम् ॥४१॥ मूलम्-हत्थ सइनुयनाणे परोक्खे ॥४२॥ छाया-तत्र मति-श्रुतज्ञान परोक्षम् ॥४२॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्रे-सत्यज्ञान पञ्चविधत्वेन प्रतिपादितम् मतिश्रुतावधिनायकेवलज्ञान भेदात, तेषु च पञ्चसु प्रथमद्वयं परोक्षम्, अन्तिम आवान्तर भेद हैं । अवधिज्ञान के भवप्रत्यय आदि भेद हैं और मनः पर्यवज्ञान के ऋजुपति आदि लेद है, जिनका कथन आगे किया जाएगा। केवलजाल के सेट नहीं होते हैं। स्थानांग स्वन के पांचवे स्थानक के तृतीय उद्देशक ने कहा है-'ज्ञान पांच प्रकार के कहे गए हैं-(१) आभिनिबोधिक ज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनः पर्यवज्ञान (५) और केवलज्ञान। इली प्रकार भगवती सूत्र में शतक ८, उद्देशक २ सूत्र ३१८ में, अनुयोगद्वार में तथा नन्दी लून में भी कहा है ॥४१॥ 'तत्य मा सुथनाणे परोक्खे' हत्यादि । सूत्रार्थ-भतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं ॥४२॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वस्त्र में सस्परज्ञान पांच प्रकार का प्रतिपादन किया गया है-ति, श्रुत, अवधि, मनापर्यन और केवल ज्ञान । इन અવધિજ્ઞાનના ભવપ્રત્યય આદિ ભેદ છે અને મન:પર્યવજ્ઞાનના જુમતિ આદિ. ભેદ છે જેનું કથન હવે પછીથી કરવામાં આવશે. કેવળજ્ઞાનના ભેદ હોતા નથી સ્થાનાંગસૂત્રના પાંચમાં સ્થાનકના ત્રીજા ઉદ્દેશનમાં કહ્યું છે જ્ઞાન પાંચ પ્રકારના ४i छ-(१) मासिनिमाधिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (3) मवधिज्ञान (४) मन:५वज्ञान मन (५) ज्ञान. એજ પ્રમાણે ભગવતીસૂત્રમાં શતક ૮, ઉદ્દેશક ૨, સૂત્ર ૧૩૮માં, અનુ ગદ્વાર સૂત્રમાં તથા નન્દીસૂત્રમાં પણ કહેવામાં આવ્યું છે કે ૪૧ છે 'तत्थ महसुयनाणे पचक्खे' त्या સૂત્રાથ-તજ્ઞાન અને શ્રતજ્ઞાન પક્ષ છે. ૫ ૪૨ છે તવાથીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં સમ્યગજ્ઞાન પાંચ પ્રકારના પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યા–મતિશ્રત અવધિમનઃપર્યવ અને કેવળજ્ઞાન આ પાંચમાંથી પ્રારંભના Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५९ तस्वार्थस्त्र त्रपञ्च प्रत्यक्ष व्यपदिश्यते इति प्रतिपादयितुं प्रथमं पतिश्रुतज्ञानद्वयस्य परोक्षवं प्ररूपयति-लत्थ महसुचनाणे पदोक्खे' इति । तत्र-लेषु खलु पूर्वोक्तेपु मत्यादि ज्ञाने प्रथमद्वयं मौतश्रुतज्ञान -मतिज्ञानं श्रुतज्ञानञ्च परोक्षं वर्तते, मतिज्ञानस्य चक्षुरादीनिखाऽपेक्षतयैवोपजायमानस्मरणात्मकविषयचिन्तनरूपतया परोक्ष बोध्यम् । यथा-नाटकाघवलोकने जवनिकाऽपसारणा-ऽव्यवहित पूर्व काले किं पात्र मागन्तीत्यौत्सुक्येन दर्शकानां जवनिका प्रदेशे मनोव्यापार पूर्तिकाराष्टः संलग्ना भवति तथाविध ज्ञानस्यैव मतिज्ञानपदेन व्यवाहियमाणत्वात् श्रुतज्ञानस्य च शब्द सुस्वधाज्जायमानतया परोक्षत्वं बोद्धयम् ॥४२॥ तस्वार्थनियुक्ति:-पूर्व वादन-सम्यग्ज्ञान सोक्षसाधन पञ्चविधं प्ररूपितम् पतिथुनावधिमनःपर्यवकेवलज्ञानभेदात् तत्र-प्रथमद्वयं-मनिश्रुतज्ञानरूपं परोक्ष पांच में से प्रारंभ के दो परोक्ष और अन्तिम तीन प्रत्यक्ष है। यह प्रतिपादन करने के लिए पहले मनिज्ञान और शुतज्ञ'न को परोक्ष कहते हैं पूर्वोक्त पांच ज्ञानों में से प्रारंभ के दो अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं। जो ज्ञान इन्द्रिय था बन्द रूप पर निमित्त से उत्पन्न हो वह परोक्ष कहलाता है। मलिज्ञान इन्द्रियों की और मन की सहायता से उत्पन्न होता है, अतएव वह परोक्ष है और श्रुतज्ञान मन के निमित्त ले उत्पन्न होने के कारण परोक्ष है। इसी प्रकार पकाश एवं परोपदेश आदि बाह्य कारणों ले जनित होने के कारण भी ये दोनों ज्ञान परोक्ष कहलाते हैं ।।४।। तत्वार्थनियुक्ति--पहले मोक्ष के साधन लम्घरज्ञान के पांच भेद कहे गये हैं-प्रतिज्ञाल, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवल ज्ञान । इनमें से प्रारंभ के दा मतिज्ञान और श्रुतज्ञाच परोक्ष हैं और બે પરોક્ષ, જ્યારે અતિમ ત્રણ પ્રત્યક્ષ છે, એવું પ્રતિપાદન કરવાના આશયથી પહેલા અતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનને પક્ષ કહીએ છીએ પૂર્વોક્ત પાંચ જ્ઞાનમાથી પ્રારંભના બે અર્થાત્ મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન પરોક્ષ છે જે જ્ઞાન ઈન્દ્રિય અથવા મન રૂપ નિમિત્તથી ઉત્પન્ન થાય તે પરોક્ષ કહેવાય છે. અતિજ્ઞા ન ઈન્દ્રિાની તથા મનની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થાય છે આથી તે પક્ષ છે. એવી જ રીતે પ્રકાશ તેમજ પરોપદેશ આદિ બાહ્ય કારણેથી ઉત્પન્ન થવાના કારણે પણ આ બંને જ્ઞાન પક્ષ કહેવાય છે ઈરા તવાર્થનિર્યુક્તિ–પહેલા મોક્ષના સાધન સમ્યગૂજ્ઞાનના પાંચ ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન, મન:પર્યવજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન આમાંથી પ્રારંભના બે મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન પક્ષ છે અને તવા ના કારણે પણ આ જ પરીપર Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ग.८७.४२ मतिश्रुतज्ञानयोः परोक्षत्व ७५९ वर्तते, इति प्रतिपादयितुं प्रथम मतिश्रुतज्ञानद्वयस्य परोक्षत्वं प्ररूपयति-तस्थ महसुयनाणे परोक्खे' इति तत्र-तेषु मतिश्रुनावधिमनापर्यवकेवलज्ञानेषु प्रथमद्वयं मतिश्रुतज्ञानम्, मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च परोक्षं व्यपदिश्यते । तत्रमतिज्ञानस्य चक्षुरादीन्द्रियालपेक्षतयघोषजायमानस्सारणात्मकविष्यचिन्तनरूपत्त्या परोक्षत्वं बोध्यम् । स्मरणात्मकस्यैव मतिज्ञानस्य परोक्षत्वेन विवक्षितन्यात् तेनसांव्यावहारिकस्य सतिज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि न कश्चिद् विरोधः । एवं श्रुतज्ञानस्यापि शहाज्जायमानत्वेन परोक्षत्वमगन्तव्यस् । वस्तुतस्तु-अक्ष:-आत्मा तस्मात्पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्य निमित्त प्रतीत्याऽपेक्ष्या तदाबरण कसैक्षयोपशमजन्य त्वात मतिज्ञानस्य शुतज्ञानस्य च पर क्षत्व मवगन्तव्यम् । परैरिन्द्रियादिमि रुपेक्ष्यते-सिच्यतेऽभिगृहे इति परोक्षपद अंतिम तीन अर्थात् अवधिज्ञान, मन:पवज्ञान और लेवलज्ञान प्रत्यक्ष हैं, इस भेद का प्रतिपादन करने के लिए पहले प्रति-श्रुतज्ञान को परोक्ष पतलाते हैं मति, श्रुत, अवधि, मनापर्यक्ष और केवलज्ञान से पहले के दो अर्थात् मतिज्ञान और अतज्ञान पदोक्ष कहलाते हैं । जो ज्ञान आत्मा से भिन्न किसी पर निमित्त से उत्पन्न होता है वह एरोक्ष कहलाता है। मतिज्ञान पांचों इन्द्रियों ने और इसे उत्पन्न होता है, अतएव वह परोक्ष है। इसी प्रकार श्रुनज्ञान भी लनजन्य होने के कारण परोक्ष है। वास्तव में इन्द्रियाँ और मन आत्मा से पर-शिक्ष हैं और ये दोनों জাল স্কুল বালিশী স্ব লম্বা সাহা জীহ ঘং স্বস্থা জাকি ঘাম লিলি से उत्पन्न होते हैं, इस कारण पक्ष हैं। परोक्ष शब्द की व्युत्पत्ति છેલા ત્રણ અર્થાત અવધિજ્ઞાન મનઃ પર્યવજ્ઞાન તથા કેવળજ્ઞાન પ્રત્યક્ષ છે આ ભેદનું પ્રતિપાદન કરવા માટે પ્રથમ મતિ શ્રુતજ્ઞાનને પરોક્ષ બતાવીએ છીએ મતિ શ્રત અવધિ મન:પર્યવ અને કેવળજ્ઞાનમાંથી પહેલા બે અર્થાત મતિજ્ઞાન અને શ્રતજ્ઞાન પક્ષ કહેવાય છે. જે જ્ઞાન આત્માથી ભિન્ન કોઈ બીજા નિમિત્તથી ઉત્પન્ન થાય છે તે પરોક્ષ કહેવાય છે. અતિજ્ઞાન પાંચે ઈન્દ્રિયોથી અને મનથી ઉત્પન્ન થાય છે. આથી તે પરોક્ષ છે એવી જ રીતે શ્રતજ્ઞાન પણ મનજન્ય હાવાથી પરેલ છે. હકીકતમાં ઈન્દ્રિ અને મન આત્માથી પર ભિન્ન છે અને આ બંને જ્ઞાન આ પરનિમિત્તોથી તથા પ્રકાશ અને પરપદેશ આદિ બાહ્ય નિમિત્તથી ઉત્પન્ન થાય છે એ કારણ પરોક્ષ છે. પરોક્ષ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રમાણે છે પર અર્થાત્ ઈન્દ્રિય આદિથી જે જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય અથવા અક્ષ અર્થાત્ આત્માથી પર Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० तत्त्वार्थसूत्रे व्युत्पत्तिः अक्षादात्मनः परावृत्तं वा परोक्षमिति व्युत्पत्ति तथा च-अक्षरयाऽऽत्म रूपस्य परेभ्य इन्द्रियादिस्यो यदू जायते लत्परोक्षम् अपोद्गलिकत्वादरूपी जीवो वर्तते, द्रव्येन्द्रियमनांसितु-पौलिकत्वाद् रूपीणि वर्तन्ते ततश्च जीवापेक्षया पराणि-अन्त्यानि द्रव्येन्द्रियमनांसि तेभ्यः पौद्गलिनेभ्यो व्यनिय मनीभ्योऽक्षस्य जीवस्य यज्ज्ञानमुपजायते तत्परोक्ष ज्ञानम् । लच्च विविध विज्ञानरूपं श्रुवज्ञानश्च परोक्ष मुच्यते । उक्तश्च स्थानाङ्गादौ-'दुविहे ना पणते, लं जहा. पच्चरखे चेव-एरोवखे चेश, परोखेसाणे दुबिहे एणन्ते, तं जमाअभिणियोहिणाणे चेश, सुगणाणे क्षेत्र' इति द्विविध ज्ञान यज्ञसम् तद्यथाप्रत्यक्षञ्चत्र परोक्ष चैत्र, परोक्ष ज्ञानं द्विविध प्रज्ञा, नुपया-भाभिनियोधिज्ञानं चैव श्रुनज्ञानंचैव इति ॥४२॥ मूलम्--ओहिमणपज्जब केवलणाणे पच्चले ॥४३॥ छाया-'अवधि मनापर्यचकेवलज्ञानं प्रत्यक्षम् ॥४॥ इस प्रकार है-पर अर्थात् इन्द्रिय आदि ले जो ज्ञान उत्पन्न हो अथवा अक्ष अर्थात् आत्मा से पर-इन्द्रियादि से जो ज्ञान एत्पन्न होता है वह परोक्ष कहलाता है। जीव अपौलिक होने से अरूपी है ओर इन्द्रियां तथा द्रव्यामन पौगलिक होने के कारण लपी है। भाडेन्द्रिय और भावमन भी कारण होने के कारण का ओस्मा ले भिन्न है अर्थात् पर हैं। इन पर निमित्तों से अक्ष (आत्मा) को जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे परोक्षज्ञान समझना चाहिए। परोक्ष ज्ञान दो हैं-प्रतिज्ञान और श्रुतज्ञान। स्थानांग सूत्र में कहा है-जान दो प्रकार का कहा है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। भी दो प्रकार का है-आभिनियोधिक ज्ञान और शुतज्ञान ॥४२॥ 'ओहिमणपजय केवल' इत्यादि। सूत्रार्थ-अवधि-मनापर्यव और देवलज्ञान प्रत्यक्ष हैं ॥४३॥ ઈન્દ્રિયાદિથી જે જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે તે પરોક્ષ કહેવાય છે. જીવ અપગલિક હોવાથી અરૂપી છે અને દ્રવ્યેન્દ્રિય તથા દ્રવ્યમન પૌગલિક હેવાથી રૂપી છે. ભાવેન્દ્રિય અને ભાવમન પણ કરણ હેવાના કારણે કર્તા આત્માથી ભિન્ન છે અર્થાત પર છે. આ પરનિમિત્તોથી અક્ષ (આત્મા) ને જે જ્ઞાન ઉત્પન થાય છે તેને પક્ષ સમજવા જોઈએ પરોક્ષ જ્ઞાન બે છે મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન સ્થાનાંગસૂત્રમાં કહ્યું છે. “જ્ઞાન બે પ્રકારના કહ્યા છે પ્રત્યક્ષ અને પરોક્ષ, પરોક્ષ જ્ઞાન પણ બે પ્રકારના છે. આભિનિધિકજ્ઞાન અને શ્રતજ્ઞાન ” જરા 'ओहिमणपज्जवकेवल' त्यहि સૂત્રાર્થ—અવધિ મન પર્યવ અને કેવળજ્ઞાન પ્રત્યક્ષ છે ૪૩ | Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.४३ अवधि-मनःपर्यवकेवलस्य प्रत्यक्षत्वम् ७६१ लत्यार्थदीपिका--पूर्व खलु मोक्षसाधकतया प्रतिपादितस्य सम्यग्ज्ञानस्य मतिश्रुतावधि मनापर्यजकेवलज्ञानदेन पञ्चविधत्वप्रतिपादनात् तत्र प्रथमद्वयं मतिश्रुतज्ञान परोक्षं वर्तले इत्युक्तम् सध्मति-अन्तिमत्रयस्याऽवधि-मनःपर्यवकेवलज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वं प्रतिपादयितुमाह- मोहिमणपज्जवकेवलनाणे पच्च. क्खे' इति । अधिनापर्यवकेवलज्ञानम्- पूर्वोक्तस्वरूपम्, अवधिज्ञानं-मनापर्यव. ज्ञान-क्षेवलज्ञानं चेत्येतत् भिवयं प्रत्यक्षाच्यते । नतु-परोक्षम् । अक्षणोतिमाप्नोति-जानातिया इत्यक्ष आत्मा, तमेवा-ऽक्षमात्मानं प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षी. तत्वार्थदीपिका---पहले लोक्ष के लायक खस्यज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनापर्यन र शलज्ञान के भेद से पांच भेद प्रतिपादन किये गए, उनसे पति और अनज्ञान परोक्ष हैं, यह पहले कहा जा चुका है। अब अन्तिम अर्थात् अवविज्ञान, मनापर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष ह, ऐसा निदान करते हैं___ अधिज्ञान, मावशाल और केवलज्ञान प्रत्यक्ष कहलाले हैं। अक्ष अर्थात् आत्मा हो, ज्ञातावरण का क्षयोपशम क्षय होने पर जो प्रतिनियत सम्यग्ज्ञान होता है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । अथवा ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम था साधा से इन्द्रिय और मन की सहायता के विना, केवल आत्मा की जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष कहलाता है । वह निश्चपनय ते तीन प्रकार का है-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इन तीनों अविज्ञान और मनःपर्यवज्ञान क्षयोपशम से होते हैं एवं केवलज्ञान तथा से होता है। તવાદપિકા–પહેલાં એક્ષના સાધક સમ્યફજ્ઞાનના મતિ, શ્રત, અવધિ મન પર્યવ અને કેવળજ્ઞાનના ભેદથી પાંચ ભેદ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યા. તેમાંથી મતિ અને શ્રતજ્ઞાન પરોક્ષ છે એ પહેલા કહેવાઈ ગયું હવે અંતિપ્ર ત્રણ અર્થાત અવધિજ્ઞાન મન:પર્યજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન પ્રત્યક્ષ છે, એવું નિરૂપણ કરીએ છીએ અવધિજ્ઞાન, મન:પર્યયજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન પ્રત્યક્ષ કહેવાય છે. અક્ષ અર્થાત આત્માને, જ્ઞાનાવરણનો ક્ષયોપશમ અથવા ક્ષય થવાથી પ્રતિનિયત સભ્યજ્ઞાન થાય છે તે સમ્યજ્ઞાન કહેવાય છે. અથવા કર્મના સોપશમ અથવા ક્ષયથી ઈન્દ્રિય અને મનની સહાયતા વગર માત્ર આત્માથી જ જે જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે તે પ્રત્યક્ષ કહેવાય છે તે નિશ્ચયનયથી ત્રણ પ્રકારનું છે અવધિજ્ઞાન મન:પર્યવજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન આ ત્રણેયમાં અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યાવજ્ઞાન ક્ષપશયથી થાય છે. અને કેવળજ્ઞાન ક્ષયથી થાય છે. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ तरवाया णाचरणं च प्रतिनियतं यत्सम्याज्ञानं तत्-प्रत्यक्ष मुच्यते । यद्वा-माणिनां यद ज्ञानदर्शनावरणयो क्षयोपशमाद-क्षयाच्च इन्द्रियानिन्द्रियनिरपेक्षमात्मानमेव केवलमाश्रित्योत्पद्यते तत्त्व क्षम् । तच्च प्रत्यक्षं निश्चयनयेन त्रिविधं भवति अवधिमनःपर्यव केवलज्ञानभेदात् । तत्रा-ऽवधिमनापर्यवज्ञानापेक्षया परिमाप्तक्षयोपशमस् इत्युक्तम् , केवलज्ञानाऽपेक्षयाच-प्रक्षीणावरणमित्युत्तन । यद्यपि-अवधिदर्शनस्य केवलदर्शनस्य विभङ्गज्ञानस्य चाऽपि बक्ष-मात्मानं प्रतिनियतत्वात प्रत्यक्षत्वं प्राप्नोति, तथापि-सम्यग्ज्ञानस्यैव तथाविधाक्षम्पतिनियतत्वविशेषणेन प्रत्यक्षत्व कथनात् अवधिदर्शनस्य- केवलदर्शनस्य च सम्यावेऽपि ज्ञानत्वाऽभावात् न प्रत्यक्षदं सम्भवति । विभङ्गज्ञानस्य च ज्ञानत्वेऽपि मिथ्याज्ञानत्वेन सम्यक्त्वाऽभावात् तस्यापि न प्रत्यक्षत्वमिति भावः । मतिज्ञानरय-श्रुतज्ञानस्य च सम्यग्त्रा. नरवेऽपि, अक्षाद-आत्मनः पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्य निमित्तं यद्यपि अवधिदर्शन, केवलदर्शन और विभंगज्ञान भी सिर्फ आत्माश्रित है, अतएव उनमें भी प्रत्यक्षता का प्रसंग होता है किन्तु यहां सम्यग्ज्ञान का प्रकरण होने से उनका निराकरण हो जाता है। वे सम्यग्ज्ञान नहीं है। अवधिदर्शन और केवलदर्शन ज्ञानरूप न होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं कहलाते। विभंगज्ञान यद्यपि ज्ञानरूप है किन्तु सम्घकू नहीं मिथ्याज्ञान है, इस कारण उसकी भी प्रत्यक्ष सम्यग्ज्ञानों में गणना नहीं की जा सकती । इसके अतिरिक्त जो उपयोग विशेष का ग्राहक होता है उसी में सम्यक् असम्यक् का व्यवहार हो सकता है। दर्शनोपयोग लिर्फ सामान्य ग्राहक है, अतएव उसमें सम्यक्-असम्यकू का व्यवहार ही नहीं होता। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान यद्यपि सम्यग्ज्ञान में किन्तु आत्मा से पर જે કે અવધિદર્શન, કેવળદર્શન અને વિર્ભાગજ્ઞાન પણ કેવળ આત્માશ્રિત છે. આથી તેમનામાં પણ પ્રત્યક્ષતાને પ્રસંગ હોય છે. પરંતુ અહીં સમ્યક્ જ્ઞાનનું પ્રકરણ હોવાથી તેમનું નિરાકરણ થઈ જાય છે. તે સમ્યજ્ઞાન નથી અવધિદર્શન અને કેવળઈશન જ્ઞાનરૂપ ન હોવાના કારણે પ્રત્યક્ષ કહેવાતા નથી. વિર્ભાગજ્ઞાન છે કે જ્ઞાનરૂપ છે પરંતુ સમ્યક્ નહિ, મિથ્યાજ્ઞાન છે એ કારણે તેની પણ પ્રત્યક્ષ સમ્યજ્ઞાનમાં ગણના કરી શકાય નહિ. આના સિવાય જે ઉપગ વિશેષને ગ્રાહક હોય છે. તેમાંજ સમ્યક, અસકુને વ્યવહાર થઈ શકે છે. દર્શનપગ માત્ર સામાન્ય ગ્રાહક છે. આથી તેમાં સભ્ય અસભ્યને વ્યવહારજ હેતો નથી. મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન છે કે સમ્યકજ્ઞાન છે. પરંતુ આત્માથી પર Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका नं. ८ ८.४३ अवधि -: - मनः पर्यवकेवलस्य प्रत्यक्षत्वम् ७६३ प्रतीत्याऽपेक्ष्य तदावरण कर्मक्षयोपशमजन्यत्वात् तयोः परोक्षत्वमेव सम्भवति नं तु प्रत्यक्षत्वम्, अक्षात्-आत्मनः परावृत्तत्वाद् वा परोक्षत्वं तयो रसेयम् ॥४३॥ तत्वार्थनियुक्तिः - पूर्व तावद् सम्यगू ज्ञानस्य मोक्षम्पति हेतुभूतस्य मतिश्रुताविधिमनःपर्यव केवलज्ञानभेदात् पञ्चविधं प्रतिपादितम्, तत्र - मथमद्वयस्य मतिश्रुतज्ञानस्य परोक्षत्वं रूषितम्, सम्प्रति- अन्तिमत्रयस्याधिमनः पर्यव केवलज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वप्रतिपादयितुमाह- 'ओहि क्षणपज्जण केवलनाणे पच्चकखे' इति । अवधिमनः पर्यव केवळज्ञानस् अवधिज्ञानं मनः पर्यवज्ञानं केवलज्ञानं चेत्येतत् त्रित्यं सम्यज्ञानं प्रत्यक्षं व्यपदिश्यते । तत्र - ज्ञानावरणक्षयोपशमात् क्षयाच्च, इन्द्रियाऽनिन्द्रियद्वारनिरपेक्षतवाऽक्षमात्मानमेव केवलमाभिमुख्येन गृह्णत् अवधिइन्द्रिय, मन, प्रकाश एवं उपदेश आदि बाह्य निमित्तों की अपेक्षा रखते हैं, अतएव प्रत्यक्ष नहीं है। इस प्रकार प्रत्यक्ष के उक्त लक्षण में अतिव्याप्ति दोष नहीं है ॥ ४३ ॥ तत्वार्थनियुक्ति-- पहले सम्यग्ज्ञान के मोक्ष का कारण कहा गया और उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवल ज्ञान, इन पांच भेदों का कथन किया गया । इन पांचों भेदों में से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं, यह भी कहा जा चुका। अब अंतिम तीन ज्ञानों की प्रत्यक्षता का प्रतिपादन करते हैं अवधिज्ञान, मनःपर्यज्ञान और केवलज्ञान, ये तीनों प्रत्यक्ष हैं। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम और क्षण से, इन्द्रिय और मन की अपेक्षा " न रखते हुए केवल आत्मा से ही उत्पन्न होने के कारण ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाते हैं । अक्ष का अर्थ आत्मा है । ज्ञानावरण कर्म का क्षयो ઇન્દ્રિય મન પ્રકાશ અને ઉપદેશ આદિ માહ્ય નિમિત્તેની અપેક્ષા રાખે છે. આથી પ્રત્યક્ષ નથી. આ રીતે પ્રત્યક્ષના ઉક્ત લક્ષણમાં શ્રુતિવ્યાપ્તિ દોષ નથી. ૪૩। તત્ત્વાથ નિયુકિત-પહેલાં સમ્યકજ્ઞાનને મેાક્ષનું કારણ કહેવામાં આવ્યુ. તેમજ તેના મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન મનઃપવજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન એ પાંચ ભેદોનું કથન કરવામાં આવ્યું. આ પાંચ ભેદોમાંથી મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન પરાક્ષ છે. એ પણ કહેવામાં આવ્યુ. હવે અતિમ ત્રણ જ્ઞાનેાની પ્રત્યક્ષતાનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ. અવધિજ્ઞાન, મન:પર્યં યજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન આ ત્રણેય પ્રત્યક્ષ છે. જ્ઞાનાવરણ કર્માંના ક્ષયે પશમ અને ક્ષયથી, ઇન્દ્રિય અતે મનની અપેક્ષા ન રાખતાં થકા કેવળ આત્માથી જ ઉત્પન્ન થવાના કારણે આ ત્રણેય જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ કહેવાય છે. અક્ષ ને અથ આત્મા છે. જ્ઞાનાવરણુ કર્મોના યાપશમ અથવા ક્ષય થવાથી Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ तरवार्थ सूत्रे ज्ञानम् मनः पर्यवज्ञानं - केवलज्ञानञ्च सम्यग्ज्ञानरूपं समुदेति, अतः प्रत्यक्ष मुच्यते । एवञ्चाऽक्ष्णोति व्याप्नोति जानाति वेति- अक्षः - आत्मा, तमेवाक्षमात्मानं प्राप्तक्षयोपशमम् - पक्षीणावरर्ण च प्रतिनियतं यत् सम्यग्ज्ञानं तत् प्रत्यक्षं व्यपदिइयते । एवंविधं खल्ल सम्यग्ज्ञानम् - अवधिमन:पर्यय केवलज्ञानमेव भवति नतुमविज्ञान - श्रुतज्ञानं वा तयोरक्षात् परभूतेन्द्रिय मनःप्रकाशोपदेशादि वाह्यनिमित्ता. पेक्षया जायमानत्वात्, अवधिदर्शनस्य केवलदर्शनस्य बाह्यनिमित्तापेक्षया जायमा नत्वात्, अवधिदर्शनस्य केवलदर्शनस्य च तथाविधवाद्यनिमित्तानपेक्षतया जायमानत्वेऽपि ज्ञानत्वाभावादेव प्रत्यक्षत्वं न सम्भवति । विभङ्गज्ञानस्य तु - ज्ञानत्वेऽपि तस्य मिथ्याज्ञानत्वेन सम्यक्त्वाभावात् प्रत्यक्षत्वं नापद्यते इति सर्व मानवयम् ॥ उक्तञ्च स्थानाङ्गे २ -स्थाने १ उद्देश के७१ सूत्रे - 'पञ्चवखे नाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा= केवलनाणे चेक, णो केवलवाणे चेब, णो केवलनाणे 'दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- महिणाणे देव, नगपज्जवणाणे चेव' - इति - प्रशन या क्षय होने पर अक्ष अर्थात् आत्मा को जो सम्यग्ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष सम्यग्ज्ञान अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान ही है, नतिज्ञान और श्रुतज्ञान नहीं, क्योंकि ये दोनों ज्ञान अक्ष से भिन्न इन्द्रिय, सन, प्रकाश एवं परोपदेश आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होते हैं । यद्यपि अवधिदर्शन और केवलदर्शन भी पाह्य निमित्तों से उत्पन्न नहीं होते तथापि ज्ञान रख्ख्प न होने के कारण उन्हें प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता । विभंगज्ञान ज्ञान होने पर भी सम्यकू नहीं मिथ्या है। अतएव वह भी प्रत्यक्ष सम्यग्ज्ञानों की गणना में नहीं आता। इस प्रकार पूर्वोक्त विधान निर्दोष है। स्थानांग सूत्र के द्वितीय स्थानक, प्रथम उद्देशक, सूत्र ७१ में कहा અક્ષ અર્થાત્ આત્માને જે સમ્યજ્ઞાન થાય છે તે પ્રત્યક્ષ કહેવાય છે. આ રીતનુ' પ્રત્યક્ષ સમ્યજ્ઞાન અવિધ મન:પર્યાંવ અને દેવળજ્ઞાન જ છે, મતિજ્ઞાન અનેશ્રુતજ્ઞાન નહિ. કારણકે એ ખ`ને જ્ઞાન અક્ષથી ભિન્ન ઇન્દ્રીય, મન પ્રકાશ અને પરદેશ આઢિ માઘનિમિત્તોથી ઉત્પન્ન થાય છે. જો કે અવધિદર્શન અને કેવળદર્શીન પણ ખાદ્યનિમિત્તોથી ઉત્પન્ન થતાં નથી. તે પણ જ્ઞાનસ્વરૂપ ન હાવાને લીધે તેમને પ્રત્યક્ષ કહેવામાં આવતા નથી. વિભાગજ્ઞાન જ્ઞાન હાવા છતાં પણ સમ્યક્ નહિ પરંતુ મિથ્યા છે. આથી તે પણ પ્રત્યક્ષ સમ્યજ્ઞાનાની ગણુનામાં આવતું નથી આ રીતે પૂર્ણાંકત વિધાન નિર્દોષ છે. સ્થાનાંગસૂત્રના દ્વિતીયસ્થાનકના, પ્રથમ ઉદ્દેશક, સૂત્ર ૭૧માં કહ્યું છે Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका २०८ पु.४४ मतिज्ञानस्य वैविध्यनिरूपणम् ७६५ प्रत्यक्ष ज्ञानं द्विविध प्रज्ञतम् तद्यथा-केवलहान वैव, नो केवलज्ञानक्षेत्र, नो केवल. ज्ञानं द्विविध प्रज्ञप्तम्, सचथा-अवधिज्ञानवैत्र-मनापर्यवज्ञानञ्चष इति ॥४३॥ मूलम्-मइनाणे दुबिहे, हंदियनिलिते-लो इंदियानिमित्ते य।४४॥ छाया-'पविज्ञानं द्विविधा, इन्द्रियनिमित्तं नो इन्द्रियनिमित्तं च ॥४४॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावद-पतिज्ञलमात्मरूपाक्षातिरिक्तमिन्द्रियं मनवाऽपेक्षाजायमानत्वात् परोक्ष प्रतिपादितम् सम्पति तन्निमित्तद्वय भेदात्तस्य द्वैविध्यं प्रतिपादयति-महाणे दुषि' इत्यादि । पतिज्ञानं-पूर्वोक्तस्वरूप द्विविधं बोध्यम्, तद्यथा-इन्द्रियनिमिनम् लो इन्द्रियनिमित्तश्चति । तत्र-इन्दतीति इन्द्र आत्मा तस्यात्मन उपयोगलक्षणस्य ज्ञानदर्शनपरिणामिन स्तवावरणक्षयोहै-'प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-केवलज्ञान और मोके. वलज्ञान । नोकेवलज्ञान भी दो प्रकार का है-अवधिज्ञान और पानापर्यवज्ञान ॥४३॥ 'माइनाणे दुबिहे इंदिय इत्यादि । सूत्रार्थ --मत्तिज्ञान दो प्रकार का है-इन्द्रियनिमित्तक और नोइ. न्द्रियनिमित्तक ॥४४॥ तस्वार्थदीपिका--आत्मा से भिन्न इन्द्रिय और मन के निमित्तले उत्पन्न होने के कारण स्पतिज्ञान को परोक्ष कहा गया है, अन्य उक्त दोनों निमित्तों के भेद से मतिज्ञान के दो भेद होते हैं, यह प्रतिपादन करते है पूर्वोक्त भतिज्ञान के दो भेद है-इन्द्रियनिमित्तक और अनिन्द्रिय निमित्तक । इन्द्र अर्थात् आत्मा उपयोग स्वभाववाला है, ज्ञानदर्शन परिणाम वाला है, तथापि स्वयं ही पदार्थों को जानने में असमर्थ हो रहा है, પ્રત્યક્ષજ્ઞાન બે પ્રકારના કહેવામા આવ્યા છે. જેમકે કેવળજ્ઞાન અને ને કેવળજ્ઞાન ને કેવળજ્ઞાન પણ બે પ્રકારના છે. અવધિજ્ઞાન અને મન પર્યયજ્ઞાન.” ૪૩ 'मइनाणे दुबिहे' त्यादि સન્નાથ–મતિજ્ઞાન બે પ્રકારનાં છે-ઈન્દ્રિયનિમિત્તક અને ઈન્દ્રિયનિમિત્તકાકા તરવાથદીખિકા-ગાત્માથી ભિન ઈન્દ્રિય અને મનનાં નિમિત્તથી ઉત્પન્ન થવાના કારણે મતિજ્ઞાનને પક્ષ કહેવામાં આવ્યું છે. હવે ઉકત બંને નિમિત્તોનાં ભેદથી મતિજ્ઞાનનાં બે ભેદ થાય છે એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ પૂત મતિજ્ઞાનનાં બે ભેદ છે ઈન્દ્રિયનિમિત્તક અને નો અનિનિદ્રયનિમિત્તક ઈન્દ્ર અર્થાત્ આત્મા ઉપગવભાવ છે, જ્ઞાનદર્શન પરિણામ વાળે છે, તે Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចទុខ្ញុំ तत्त्वार्थसूत्र घशाने सरि यमर्थान् ग्रहीतु मलपर्थस्य यदर्थोपलव्धिनिमित्तं भवति तदिन्द्रियः मुखते, तय समर्शनादिकमव सेयस् । लो इन्द्रियं सन उच्यते, तथा च-स्पर्शनादीन्द्रियं निमित्तं बस्य तदिन्द्रिय निमित्तकं मतिज्ञानं सवति, एवं नो इन्द्रियं मनो निमित्तं यस्य तद-नो इन्द्रियनिभिरके मतिज्ञानं भवति । एक्श्व-रतिज्ञानस्य पञ्चन्द्रिय-मनोरूपानिन्द्रिमभेदेन पट्कारणभेदात् पत्रिंशदधिकशतत्रयभेदा भवन्ति, तच्चाने म्फुटी शविष्यति । अतएवेदं मतिज्ञानम् इन्द्रिय मगेनिमित्तकत्वात् सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमाप व्यपदिश्यते, तथा च-गतिरेव स्मृति-प्रतिमा-बुद्धिमेघा-चिन्ता-प्रज्ञा शब्देनापि व्यवयिते ॥४४॥ तस्मानियुक्ति:-पूर्व मतिज्ञानस्येन्द्रियमनोनिमित्तकत्वेन परोक्षत्वं अतएच पदाथों की उपलब्धि में जो निमित्त होता है उसे इन्द्रिय कहते न्द्रियां स्पर्शनादि के भेद ले पांच है । नोडन्द्रिय का अर्थ मन है । प्रशार जो मतिज्ञान स्पर्शन आदि इन्द्रियों के निमित्त से होता है इन्द्रिनिनितक कहलाता है और जो नोहन्द्रिय अर्थात् मन के ललितले उत्पन्न होता है वह नोहन्द्रियनिमित्तक कहलाता है-इस पार पतिज्ञान के छह कारण है-पांच इन्द्रियों और छठा मन । इन कारणों ले तथा विषयभूत पदार्थों के भेद से मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं, इनसा स्पष्टीकरण आगे किया जाएगा। मतिज्ञान इन्द्रियों और मन के हारा उत्पन्न होने के कारण सांधवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाता है। स्मृति, प्रतिमा, बुद्धि, मेधा, चिन्ता और प्रज्ञा शब्दों से भी प्रतिज्ञान का व्यवहार हाता है ॥४४॥ तस्वार्थनियुक्ति-इन्द्रिध-लनोनिमित्त होने से मतिज्ञान को પણ સ્વયમ્ પદાર્થોને જાણવામાં અસમર્થ રહેલો છે. આથી પદાર્થોની ઉપલબ્ધિમાં જે નિમિત્ત બને છે તેને ઈન્દ્રિય કડે છે. ઈન્દ્રિયો સ્પર્શનાદિનાં ભેદથી પાંચ છે નેઈન્દ્રિયનો અર્થ મન છે. આ રીતે જે મતિજ્ઞાન સ્પશન વગેરે ઈનિદ્રાના નિમિત્તથી થાય છે તે ઇન્દ્રિયનિમિતક કહેવાય છે અને જે નઇન્દ્રિય અર્થાત મનના નિમિત્તથી ઉત્પન્ન થાય છે તે નઈન્દ્રિયનિમિત્તક કહેવાય છે. આ રીતે મતિજ્ઞાનનાં છ કારણ છે પાચ ઈન્દ્રિયે અને છઠું મન આ કારણથી તથા વિષયભૂત પદાર્થોના ભેદથી મતિજ્ઞાનનાં ૩૩૬. ભેદ થાય છે જેનું સ્પષ્ટીકરણ આગળ ઉપર કરવામાં આવશે. ઈન્દ્રિયો મતિજ્ઞાન અને અન વડે ઉત્પન્ન થવાના કારણે સાંવ્યવહારિક પ્રચક્ષપણ કહેવાય છે સ્મૃતિ, પ્રતિભા, भुद्धि, मेघा, पिता मने प्रज्ञा Avatथी ५५४ मतिज्ञानना पवार थाय छे. । ४४ । 1 તત્વાર્થનિયુકિત–ઈન્દ્રિય મને નિમિત્તક હોવાથી મતિજ્ઞાનને પક્ષ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.४४ मतिज्ञानस्य द्वैविध्यनिरूपणम् ७६७ पतिपादितम् , सम्प्रति-निमित्तद्वय भेदात्तस्य द्वैविध्यं प्रतिपादयति-बहनाणेदुविहे, इंदियनिमित्त-को इंदियनिनित्य-इनि। प्रतिज्ञानम्-बहिरङ्ग मन्तरङ्गश्चाऽयं यथा-ऽऽस्मा परिस्फुट सन्य ते सा मतिः तद्रूपं ज्ञान परिज्ञान द्विविधं भवति, तद्यथा--इन्द्रियानिमित्तम् नो इन्द्रियनिमित्तञ्च । तम-ज्ञरकमावश्यास्मनः उपयोगलक्षणस्य ज्ञानदर्शनपरिणामिनोऽील स्वयं ग्रहीतुमसर्थस्याऽर्थोंपलब्धिनिमित्तं यद् भवति तद्-इन्द्रिय सुच्यते । तच्च-स्पर्शलरसनादिक बोध्यम्. नो इन्द्रियपदेन सन उच्यते तदुभयनिमिनकं पतिज्ञानं भवति, तथाचेन्द्रियमनोनिमित्तकत्वात् मतिज्ञानं लगवहारिक प्रत्यक्षमाप उपदिश्यते । मतिरेव-स्मृति मयभिज्ञा प्रतिभावुद्धि मेघा प्रज्ञा प्रभृति शब्दपि गवाहियते। उक्तञ्च-'वुद्धिरतात्कालिक ज्ञेया मतिरामामि गोचा। धीरणाचती मेधा प्रज्ञापातीतकालिकों ॥ बुद्धिं नश्लवोन्मेष शालिनी प्रतिमा विदुः ।। परोक्ष कहा है, अब दो निमित्तों के भेद से उसके दो बेटे का प्रति पादन करते है-- मतिज्ञान दो प्रकार का है-इन्द्रियमित्तक और अनिन्द्रियनिमित्तक । आत्मा ज्ञान स्वभाववाला है, उपयोग लक्षण वाला है, ज्ञान-दर्शनपरिणामवाला है किन्तु पदार्थों को स्वयं ब्रहण करने में असमर्थ है, अतएव पदार्थो को ग्रहण करने में जो निमित्त होता है, उले इन्द्रिय कहते हैं । स्पीन, रखना आदि पांच इन्द्रियों है। लो इन्द्रिय का अर्थ मन है। इन दोनों कारणों से मनिज्ञान उत्पन्न होता हैं और इल्ली कारण उले सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष श्री कहते है । प्रतिज्ञान ही स्कृति, प्रत्यभिज्ञा प्रतिभा, बुद्धि, मेधा प्रज्ञा आदि भी कहलाता है। कहा भी है___ जो वर्तमानकालविषयक्ष हो अर्थात् जिसले वर्तमान की बात કહ્યું છે. હવે બે નિમિત્તોનાં ભેદથી તેનાં બે ભેદનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ. મતિજ્ઞાન બે પ્રકાનાં છે ઇન્દ્રિયનિમિત્તક અને ઈન્દ્રિયનિમિત્તક. આત્મા જ્ઞાન સ્વભાવવાળે છે ઉપગલક્ષણવાળે છે જ્ઞાન દર્શનપરિણામવાળે છે. પરંતું પદાર્થોને જાતે ગ્રહણ કરવા માટે અશકત છે. આથી પદાર્થોને ગ્રહણ કરવામાં જે નિમિત્ત બને છે તેને ઈન્દ્રિય કહે છે સ્પર્શન રસના આદિ પાંચ ઈદ્રિ છે. નોઈદ્રિયનો અર્થ મન છે. આ બન્ને કારણેથી મતિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે અને એ કારણે જ તેને સાંવ્યવહારિક પ્રત્યક્ષ પણ કહેવાય છે મતિજ્ઞાન જ સ્મૃતિ, પ્રત્યભિજ્ઞા–પ્રતિભા બુદ્ધિ, મેઘા, પ્રજ્ઞા વગેરે પણ કહેવાય છે કહ્યું પણ છે જે વર્તમાન કાળ વિષયક હોય અર્થાત્ જેનાથી વર્તમાનની વાત જાણી શકાય તે બુદ્ધિ કહેવાય છે. આગામી કાળથી સંબંધ રાખવાવાળી બુદ્ધિને મતિ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ तत्त्वायसूत्रे अतीतार्थ ग्राहिणी प्रतीति:-स्मृतिः 'हक्षता तलाशादिनी' तदेवेदन इत्यादि बुद्धिः प्रत्यभिज्ञा, तथाचान-इन्द्रिय निमित्त सेकं पतिज्ञानम् अपरनिन्द्रिय मनोनिमित्तम् अन्यत्पुनरिन्द्रियानिन्द्रियनिमिरञ्चेति । तृतीयं सनितान छत्रदय चकारेण समुच्चीयते, तत्र-एकमिन्द्रियनिमित्तं पत्तिज्ञानस्, यथा-पृथिव्यप्तेजो वायद नरपतीनामेकेद्रियाणां द्वि-नि-चतुरिन्द्रियाणा संक्षिां च पञ्चन्द्रियाणां मनसोऽभायात् संजायते । अनिन्द्रिय मनोनिमित स्मृतिस्पं ज्ञानम् इन्द्रियनिरपेक्ष भवति, तत्र चक्षुरादीन्द्रिगव्यापाराभावात् इन्द्रियानिन्द्रियनिलितन्तु-जामदवरथायां स्पर्शनेन मनसा चोपयुक्तो जीवः कश्चित स्पृगति-उष्णमिदं नीतञ्चति । तंत्रन्द्रियनिमित्तं मतिज्ञानं स्पीनरपनघाणचक्षुःश्रीनाणां पश्चानामिन्द्रियाणां परिसगन्धरूपशब्देषु पञ्चमु स्वपियेषु संजायते अनिन्द्रियमनोनिमित्तञ्च स्मृतिरूपं जानी जाय यह बुद्धि कहलाती है आगामी साल से लंबन्न दखने वाली बुद्धि को मति कहते हैं । धारणा वाली बुद्धि मेधा पहलाती है और अतीतकालीन वस्तु को विषय भरने वाली मजा हल्लाती है। नई-नई सूझ वाली बुद्धि को प्रतिभा, पुरानी बात को शाद करना स्कृति है। 'यह वही है 'इल प्रकार भून और वर्तमान शालिक पर्यायों की एकता को जानने वाली बुद्धि प्रत्यभिज्ञा कहलाता है। इस प्रकार एक मतिज्ञान इन्द्रियनिमित्तक और दूसरा मनोलिमित्तक है। कोई इन्द्रिय मनोनिमित्तक भी होती है ? मलिज्ञान के हम नीबारे भेद का सूत्र में प्रयुक्त च शब्द ले ग्रहण होता है। केवल इन्द्रियानिमित्त मतिज्ञान पृथ्वीशाय अपूतान, लेजस्काय, वायुझाय. और वनस्पतिसाय, इन एकेन्द्रियजीदों को तथा धीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजीवों को होता है, क्योंकि इन भन का अभाव होता है। मनोनिमित्तक मतिज्ञान स्न रणरूप होता है और उसमें इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रहती, इन्द्रियों का કહે છે. ધારણાવાળી બુદ્ધિ મેધા કહેવાય છે અને અતીત કાલિન વસ્તુને વિષય કરવાવાળી પ્રજ્ઞા કહેવાય છે. નવીનવી હૈયાઉલત વાળી બુદ્ધિને પ્રતિભા, नी वातन सभाकी स्मृति छ. " ते छ" से शत सूत मने वतવર્તમાનકાલિક પર્યાની એકતાને જાણનારી બુદ્ધિ પ્રત્યભિજ્ઞા કહેવાય છે. આ રીતે એક મતિજ્ઞાન ઈન્દ્રિય નિમિત્તક અને બીજું મને નિમિત્તક છે. કઈ ઈન્દ્રિય મને નિમિત્તક પણ હોય છે. મતિજ્ઞાનનાં આ ત્રીજા ભેદનુ સૂત્રમાં વપરાચેલ “ચ” શબથી ગ્રહણ થાય છે માત્ર ઈન્દ્રિયનિમિત્તક મતિજ્ઞાન પૃથ્વીકાય, અપકાય તેજસ્કાય વાયુકાય અને વનસ્પતિકાય, એ એકેન્દ્રિય ને તથા બેબુંદ્રિય તેઈદ્રિય, ચૌઈ દ્રિય, તેમજ અસજ્ઞિ પંચેન્દ્રિય જીવોને થાય છે કારણકે એમનામા મનને અભાવ હોય છે અને નિમિત્ત મતિજ્ઞાન મરણ રૂપ હોય છે, Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका २.८ १.४४ प्रतिज्ञानस्य द्वैविध्यनिरूपणम् ७६९ भतिज्ञान भावसनसो विषयपरिच्छेदकतया परिणतिजन्यं भवति । तथा चमतिज्ञानस्य पञ्चेन्द्रिय मलोपानिन्द्रिय भेदेन षट्कारणभेदात् षट्त्रिंशदधिक शतत्रयभेदा भवन्ति ते च भेदा अग्रेऽभिधास्यन्ते । उक्तञ्च नन्दिात्रे ३ 'से किं तं पञ्चवली पच्चवश्वं बुदिहं पणतं, तं जहा-इंदिया पच्चक्ख नो इंदियपच्चर छ'-इति, अर्थ कि तत् प्रत्यक्षम् ? प्रत्यक्षं विविध यज्ञप्तम् तद्यथा-इन्द्रियात्वास, तो इल्दिय प्रत्यक्षव, इति । पुनस्तत्रैव नन्दि सूत्रे उक्तम् 'ईहा अयोधीला आपा नदेखणा । स्वन्ना सईबई पन्ना सव्वं आभिणियोरिअं ।। इति, ईशा अपोहो विमशी मार्गणा च गवेषणा। संज्ञा स्मृतिः मतिः प्रज्ञा सवैमाभिनिमोधिनम् ॥४४॥ वहां हमापार नहीं होगा लीला इन्द्रियामनोनिलितक भतिज्ञा उन्न समय होता है जब मनुशागता हो और सक्षम आदिका तथा बनका उपयोग लगाए तो जैले जोई किमी वस्तु का स्पर्श करके लोचता हैयह शीत है, यह उन है इत्यादि । इन्द्रिय नविता प्रतिज्ञान रूपान, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोन, इन पांच इन्द्रियों के विषय स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शाद का होता है । अनिन्द्रियानिमितक नलिज्ञान स्मृति रूप होता है । यह सायमन के विषय परिच्छेहरू परिजनन ले उत्पन्न होता है । पांच इन्द्रिय और मन, इन छह चारणों के भेद ले तथा विष यभूत पदार्थो के मेले प्रतिज्ञान के तीन सौ छत्तील भेद होते हैं, उनका निरूपण आगे किया जाएगा। बन्दी खून में कहा है प्रश्न-प्रत्यक्ष के कितने भेद है ? उत्तर--प्रत्यक्ष के दो भेद है-इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोहन्द्रियान्यक्ष । અને તેમાં ઈન્દ્રિયોની અપેક્ષા રહેતી નથી. ઈન્દ્રિયોને ત્યાં વ્યાપાર હોતે નથી. ત્રીજી ઈન્દ્રિયસનેનિમિત્તક મતિજ્ઞાન તે સમયે થાય છે જ્યારે મનુષ્ય જાગતું હોય અને સ્પર્શન વગેરેના તથા મનને ઉપયોગ લગાડેલ હોય. જેમ કોઈ વસ્તુને સ્પર્શ કરીને વિચારે છે આ ઠંડુ છે આ ગરમ છે. વગેરે ઈદ્રિયનિમિત્તક મતિજ્ઞાન સ્પશન રસન ઘાણું, ચક્ષુ અને શ્રેત્ર આ પાંચ ઈન્દ્રિયોના વિષય સ્પર્શ, ગંધ, રસ, વર્ણ અને શબ્દનો હોય છે. અનિન્દ્રિય નિમિત્તક મતિજ્ઞાન રતિરૂપ હોય છે. તે ભાવમનના વિષય પરિચછેદક પરિણ મનથી ઉત્પન્ન થાય છે. પાંચ ઇન્દ્રિય અને મન એ છ કારણેના ભેદથી તથા વિષયભૂત પદાર્થોના ભેદથી મતિજ્ઞાનનાં ૩૩૬ ભેદ થાય છે. તેમનું નિરૂપણ પછીથી કરવામાં આવશે નંદીસૂત્રમાં કહ્યું છે. પ્રશ્ન–પ્રત્યક્ષનાં કેટલા ભેદ છે ? ઉત્તર–પ્રત્યક્ષનાં બે ભેદ છે ઈન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ અને અઈન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ त० ९७ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ QUO नस्वास्त्र मूलम्-तं च पुण घउठिवहं, उग्गहईहावायधारणा भेयओ।१५। छाया-तच्च पुनश्चतुर्विधम्-अवग्रहे-हा ऽवाय-धारणा भेदतः ॥४५॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावद् इन्द्रियनिन्द्रियानिमित्तभेदात् मतिज्ञानस्य दैविध्यं प्रतिपादितम्, सम्पति-तस्यैव मतिज्ञानस्य चातुर्विध्यं मतिपादयितुमाह-'तं च पुणचउबिहे'-इत्यादि। तच्च पुनः पूर्वोक्तम्बरूपं मतिज्ञान चतुर्विधं बोध्यम्, अवग्रहहाऽवायधारणा भेदतः । तथा च-सांव्यवहारिक मतिज्ञानम्, प्रत्याक्षावग्रहरूपम्, ईहारूपम्, अवायरूपम्, धारणारूपञ्चेत्येवं चतुर्विधं भवति उघ-सामान्यतः 'अयं पुरुप.' इत्येवं रूपं ज्ञानमन्ग्रह उच्यते । ततः नन्दीसूत्र में ही फिर कहा गया है-'इहा, अपोह विमर्श, मार्गणा गवेषणा, संज्ञा, मति, स्मृति, और प्रज्ञा, यह सब आभिनियोधिक ज्ञान हैं ॥४४॥ 'तं च पुण चऊब्धिह इन्यादि सूत्रार्थ-मतिज्ञान चार प्रकार का है-(१) अवग्रह (२) ईहा (३) अवाय और (४) धारणा ॥४५॥ __ तत्वार्थदीपिका-पहले इन्द्रियनिमित्तक और अनिन्द्रिनिमित्तक के भेद से मतिज्ञान के दो भेदों का प्रतिपादन किया जा चुका है, अब उसी के चार भेदों का प्रतिपादन करते हैं पूर्वोक्त मतिज्ञान चार प्रकार का है-अवग्रह, इहा, अवाय और धारणा । परसामान्यग्राही दर्शनोपयोग के पश्चात् अपरसामान्य को ग्रहण करने वाला ज्ञान अथग्रह कहलाता है, जैसे-'यह पुरुष है।' अव. નંદીસૂત્રમાં જ વળી કહેવામાં આવ્યું છે “હા, અપહ, વિમર્શ, માર્ગ ગવેષણા, સંજ્ઞા, મતિ, સ્મૃતિ અને પ્રજ્ઞા એ બધાં આમિનિબાધિકજ્ઞાન છે ૪૪ 'तं च पुण चउविहं' त्याह સવાથ–મતિજ્ઞાન ૪ પ્રકારના છે-(૧) અવગ્રહ (૨) ઈહ અવાય અને ધારણું. ૪૫ છે તવાથથદીપિકા પહેલા ઈદ્રિયનિમિત્તક અને અનિદ્રિયનિમિત્તકના ભેદથી મતિજ્ઞાનનાં બે ભેદનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. હવે તેના ચાર ભેદેનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ પૂર્વોકત મતિજ્ઞાન ચાર પ્રકારનાં છે અવગ્રહ, ઈહા, અવાય અને ધારણા. પરસામાન્યગ્રાહી દર્શને પગની બહાર અપર સામાન્યને ગ્રહણ કરનારૂં જ્ઞાન અવગ્રહ કહેવાય છે જેમકે “આ પુરૂષ છે. અવગ્રહની પછી “આ દક્ષિણી Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.८ ५.४५ मतिज्ञानस्य चातुविध्यार 6 किमयं दाक्षिणात्या' उताहो-औदीच्यः इत्येवं संशये सति 'नूनमयं दाक्षि. णात्य' इति ज्ञानमीहा उच्यते । इदश्चोत्प्रेक्षारूपं प्रतिज्ञानम् उत्कटैककोटिक संभावनात्मकं भवति, नतु निश्चयात्मकम्, ततो भाषादि विशेषज्ञानाद् 'अयं दाक्षिणात्य एवं' इत्येवं निश्चयात्मकं ज्ञानमवायः, ततश्च-तस्यैव दाक्षिणात्यस्य विषयस्य यस्खलु संस्कारजनकं ज्ञान स्पद्यते सा धारणा व्यपदिश्यते । यया खल धारणया कालान्तरे तद्विषयकं स्मरणमुपजायते, तथा च-यत्क्रमेणाऽवग्रहादीनामुत्पत्तिर्भवति तत्क्रमेणैव तेषा पत्रोपन्यासः कृतः प्रथमं विषयविषयि सन्निपाते सति दर्शनं भवति तदनन्तरं सामान्यतो-ऽर्थस्य ग्रहणपवनहः । तदनन्तरं ग्रह के पश्चात् 'यह दक्षिणि है या उत्तरीय इस प्रकार का संशय होने पर 'यह दक्षिणि होना चाहिए' इस प्रकार एक ओर को झुका हुआ जो ज्ञान होता है वह ईहाज्ञान कहलाता है । संशय में दोनों कोटियां समान होती हैं जबकि ईहा में एक कोटि की संभावना बढी हुई होती है, फिर भी ईहाज्ञान् निश्चय की कोटि तक नहीं पहुंच पाता। तत्पश्चात् भाषा आदि की विशेषता से 'यह दक्षिणि ही है' ऐला जो निश्च. यात्मक ज्ञान होता है, वह अपाय कहलाता है। अवायज्ञान जब इतना दृढ हो जाता है कि संस्कार को उत्पन्न कर सके तच उले धारणा के नाम से कहते हैं । इस धारणा ज्ञान ले कालान्तर में स्मृति उत्पन्न होती है। इस प्रकार जिस क्रम रखे अपग्रह आदि की उत्पत्ति होती है, उसी क्रम से उनका सूत्र में निर्देश किया गया है। सर्वप्रथम विषय (वस्तु) और विषयी (इन्द्रिय) के योग्य देश के संबंध होने पर दर्शन उत्पन्न છે અથવા ઉતરીય” આ પ્રકારના સંશય થવાથી “આ દક્ષિણ હે જોઈએ એ રીતે એક તરફ નમેલું જે જ્ઞાન થાય છે તે ઈહાજ્ઞાન કહેવાય છે. સંશયમાં બને કેટિઓ સરખી છે. જ્યારે કે ઇંડામાં એક કોટિની શક્યતા વધેલી હોય છે. તેમ છતાં આ ઇહાજ્ઞાન નિશ્ચયની કેટિ સુધી પહોંચી શકતું નથી. ત્યારબાદ ભાષા આદિની વિશેષતાથી “આ દક્ષિણી જ છે ” એવું છે. નિશ્ચયાત્મક જ્ઞાન થાય છે તે અવાય કહેવાય છે. આવાયજ્ઞાન જ્યારે એટલું દૂઠ થઈ જાય છે કે સંસ્કાર ઉત્પન્ન કરી શકે ત્યારે તેને ધારણા નામથી ઓળખે છે. આ ધારણાજ્ઞાનથી કાલાન્તરમાં સ્મૃતિ ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે જે કમથી અવગ્રહ આદિની ઉત્પત્તિ થાય છે તે કમથી તેમને સૂત્રમાં ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યું છે. સર્વપ્રથમ વિષય (વધુ) અને વિષયી (ઇન્દ્રિય) નો ગ્ય દેશમાં સંબંધ થવાથી દર્શન ઉત્પન્ન થાય છે, દર્શનની Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9૭૨ तत्त्वाचे तद्विशेषाकांक्षणमीहा, तदन्तरम्-विशेपनि नात् याथात्स्यायनमोऽवायः, तदनन्तरं कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा भवति, इति बोध्यम् ॥१५॥ तत्यार्थनियुक्ति:-पूर्व तावन्मतिज्ञानं द्विविधं भवति रपर्शनादीन्द्रिय निमित्तकम् अनिन्द्रियमनोनिमित्तकञ्चेति प्रतिपादितम् , लम्पति-तस्यैव मतिज्ञानस्य पत्रिंशदधिकशतत्रयभेदान्मतिपादयितुं प्रथमं चतुर्भेदान् आह-तं च पुण चउन्विहं, उग्गह-ईहा-बायधारणा मेयओं' इत्यादि । तच्च पुन: पूर्वोक्तस्वरूपं मतिज्ञान चतुर्विधं भवति तद्यथा-अवग्रहाचायधारणा भेदतः। तथा च-अवग्रहरूपम् , ईहारूपम् , अवायरूपम् , धारणारूपं चेत्येवं चतुर्विधं खलु मतिज्ञानं भवति । तत्रा-ऽवग्रहणम् अवग्रहः सामान्यतोऽर्थपरिच्छेदः, अव्यक्त ज्ञानमित्यर्थः, तथा च-विषयविपयि सन्निपातानन्तर यथायथं चक्षुरादीन्द्रिय होता है, दर्शन के अनन्तर सामान्यरूप ले अर्थक्षा ग्रहण होना अवग्रह है। अवग्रह के बाद विशेष धर्म को जानने की अकांक्षा ईको कहलाती है, ईहा के पश्चात् विशेष का निश्वर होना अाद उसके अनन्तर धारणाज्ञान होता है जो कालान्तर के स्मरण का कारण होता है ॥४५॥ __तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले निरूपण किया गया है कि तिलाल दो प्रकार का है-स्पर्शनादि इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला और उनसे उत्पन्न होने वाला अघ मतिज्ञान के तीन सौ छतील भेदी ज्ञा प्रतिपादन करने के लिए सर्वप्रथम चार भेदों का काम करते हैं पूर्वोक्त प्रतिज्ञान चार प्रकार का हि-अमल, ईला, अनाथ और धारणा। इनमें से सहण को अर्थात् सामान्य पदार्थ के पोध को अवग्रह कहते हैं। इन्द्रिय और पदार्थ के योग्य समिपाल के अनतर सर्वप्रथम दर्शनोपयोग उत्पन्न होता है। दहीकोपयोग के पश्चात् जो અનન્તર સામાન્ય રૂપે અર્થનું ગ્રહણ થવું અવગ્રહ કહેવાય છે. ઈહા પછી વિશેષને નિશ્ચય થ અવાય છે. તેના પછી ધારણુજ્ઞાન થાય છે. જે કાળાતરે સ્મરણનું કારણ બને છે. કે ૪૫ છે તત્વાર્થનિયુકિત–પહેલાં નિરૂપણ કર્યું કે મતિજ્ઞાન બે પ્રકારનાં છે સ્પર્શનાદિ ઈન્દ્રિયથી ઉત્પન્ન થનાર અને મનથી ઉત્પન થનાર. હવે મતિજ્ઞાન નાં ૩૩૬ ભેદનું પ્રતિપાદન કરવા માટે સર્વ પ્રથમ ચાર ભેદેનું કથન કરીએ છીએ - પૂત મતિજ્ઞાન ચાર પ્રકારનાં છે. અવગ્રહ, ઈહા, અવાય અને ધારણ આમાંથી અવગ્રહને અર્થાત્ સામાન્ય રૂપથી પદાર્થનાં બંધને અગ્રવહ કહે છે ઈનિદ્રય અને પદાર્થના ખ્ય સન્નિપાત પછી સર્વપ્રથમ દર્શને પયોગ થાય Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ .४९ प्रतिज्ञानस्य चातुविध्यस् ७७३ विषयाणां यदव्यतम्-अस्फुटस्-आलोचनमानभवधारणं भवति-सोऽवाह उच्यते । ततश्च-सामान्यतोऽवग्रहेणाऽवग्रहीतस्य तस्यैव विषयस्य निश्चयविशेष जिज्ञासा विशेषा काङ्क्षा-ईशा-उच्यते, अह-तर्क:-परीक्षा-विचारणा-ईहाजिज्ञासा-इत्येते शब्दाः समानार्थका अबसेयाः । ततथा-ऽवग्रहेण गृहीतस्य ईहया गृहीतस्य तस्यैव विषयस्य सम्यगासल्यग्वे' त्येवं गुण दोष विचारणाऽवाय उच्यते। ततथाऽवायेनाऽवेतस्य तस्यैव विषयल्य या पतिपत्तिः मतिस्थिरता साधारणापपदिश्यते । तथा च-प्रथमं चक्षुरिन्द्रियस्य शुक्लादिरूपे विषये सन्निपाते सति चक्षुषा शुक्लं रूप मित्येवं ग्रहणमवग्रहः । ततश्चादग्रहगृहीते शुक्ले रूपे विशेषाकांक्षणमीहः । यथा-शुबलमिदंकि बलाकारूपं किं वा-पताकारूपं स्यात् इत्येवं जिज्ञासारूपा-ईहा भवति । ततश्च-विशेष निर्धानात् याथात्मनिश्चयोऽवायः उच्यते । यथा-उत्पलननिपतन पक्षविस्फुरण विक्षेपादिभि बलाकैवेयं, नतु-पताका अव्यक्त -अपरिस्फुट बोध-अंश होता है वह धंजनावग्रह कहलाता है और व्यंजनावग्रह के पश्चात् आवान्तर सामान्य जानने वाला ज्ञान अर्थावग्रह कहा जाता है। सामान्य रूप रखे जाने गरी उसी विषय में विशेष को जानने की जो आकांक्षा होती है या जो उपक्रम होता है उसे ईहा कहते हैं । ईहा को ऊह, तार्क परीक्षा विचारणा या जिज्ञासा भी कहते हैं। ईहा के पश्चात् पदार्थ का विशेष धर्म का निश्चश हो जाना अधाय है । अचाक्ष के द्वारा जाने हुए विषय में जो प्रतिपाति या पति स्थिरता होती है, उले धारणा कहते हैं। चक्षु इन्द्रिय और रूप का अथायोग्य लनिपाल होने पर यह रूप है' इस प्रकार सामान्य ग्रहण होना अपग्रह है । अक्षग्रह के द्वारा जाने हुए विषय में विशेष को जानने की आकांक्षा होना ईहाज्ञान है । ईहाज्ञान अद्यापि विशेष का निर्णय नहीं कर पाता तथापि विशेष की ओर उन्मुख हो जाता है। तत्पश्चात् जन ज्ञान विशेष निश्चय कर लेता है तब वह अचाय कहलाता है, जैसी यह बलाका (बगुला की पंक्ति) ही है, છે. દર્શને પગ પછી જે અવ્યક્ત, અપરિક્રુટ બંધ અંશ થાય છે તે વ્યંજના વગ્રહ કહેવાય છે. અને વ્યંજનાપગ્રહની પછી અત્તર સામન્યને જાણનારૂ જ્ઞાન અર્થાવગ્રહ કહેવામાં આવે છે. સામાન્ય રૂપથી જાણેલા તે જ વિષયમાં વિશેષ જાણવાની જે આકાંક્ષા થાય છે અથવા જે ઉપકેમ થાય છે તેને ઈડા કહે છે. ઈહાજ્ઞાન છે કે વિશેષને નિર્ણય કરી શકતું નથી. તે પણ વિશેષની તરફ ઉન્મુખ થઈ જાય છે. ત્યાર પછી જ્યારે જ્ઞાન વિશેષને નિશ્ચય કરી લે છે ત્યારે તે અવાય કહેવાય છે. જેમકે આ બગલાંની હાર જ છે, ધજા નથી, Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ២១៥ तस्वार्थ इत्येवं निश्चयरूपोऽवायो भवति । ततश्चाऽवाय शान विपयीभृताया बलाकायाः कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा भवति, यथा-सवेयं बलाका वर्तते यां पूर्वाहे, ऽहं अद्राक्षम् इत्येदं रूपा धारणा बोध्या। अब कथं तावद् अवग्रहादयः क्रमेणेव भव. न्ति न व्युत्क्रमेण ? येन प्रथमे क्षणे तं विपयं यथावत् परिच्छेत्तुं न पारयति परतश्च क्रमशः परिच्छेत्तुं पारयतीविचेत् अत्रोच्यते-मति ज्ञानावरणीयकर्मणस्तथाविधएव क्षयोपशमो अवति, येन-प्रथमक्षणे त विषयं सामान्यतः परिच्छिनत्ति ईहया चा. याशएक क्षयोपशनो भवति येन स्फुटं परिच्छिनत्ति, अबायेचाऽन्यादृश एव पताका नहीं । अवायज्ञान निर्णयात्मक होता है। अवायज्ञान ही जब इतना दृढ हो जाता है कि यह संस्कार को उत्पन्न कर सके और कालानतर तरण का कारण बन सके, तय धारणा कहलाता है। जैसे वह बलाका । अश्रवा यह वही बलाका है जिसे मैंने पूर्वाह ग में देखा था। प्रश्न-अवग्रह आदि फ्रम से क्यों होते हैं ? व्युत्क्रम से क्यों नहीं होते ? जिससे कि प्रथम दर्शन में विषय को य पावत् बोध होता है ? उत्तर-प्रतिज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार ही बोधव्यापार होता है और वह क्षयोपशम उक्त क्रम से ही उत्पन्न होता है । अर्थात् मतिज्ञान का क्षयोपशम इन प्रकार का होता है कि प्रारंभ में वह अपने विषय को सामान्य रूप से जानता है, तत्पश्चात् ईहामतिज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है जिससे उपयोग विशेषोन्मुख होता है, फिर अवा यज्ञानाहरण के क्षयोपशम ले वह विशेष का निर्णय करने में समर्थ અવાય જ્ઞાન નિર્ણયાત્મક હોય છે. અવાય જ્ઞાન જ જ્યારે એટલું દઢ થઈ જાય છે કે તે સંસ્કારને ઉત્પન્ન કરી શકે અને કાલાંતરમાં સ્મરણનું કારણ બની શકે, ત્યારે ધારણું કહેવાય છે. જેમકે તે બગલાની હાર અથવા આ તે જ બગલાની હાર છે. કે જે મેં પહેલાં પહેરમાં જોઈ હતી. પ્રશ્ન-અવગ્રહ આદિ કમથી કેમ હોય છે? ચુકમથી કેમ નહિ? જેમ કે પ્રથમ દર્શનમાં વિષયને યથાવત્ ધ થતું નથી. અને પાછળથી યથાવત્ બંધ થાય છે ? ઉત્તર-અતિશનાવરણના ક્ષપશમ મુજબ જ બધ વ્યાપાર થાય છે. અને તે ક્ષપશમ ઉકત ક્રમથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત મતિજ્ઞાનને ક્ષપશમ આ રીતે જ હેય છે. કે પ્રારંભમાં તે પિતાના વિષયને સામાન્ય રૂપે જાણે છે. ત્યારબાદ ઈહા મતિજ્ઞાનાવરણને પશમ થાય છે. જેનાથી વિશે—ખ થાય છે. પછી અવાયજ્ઞાનાવરણને પશમ થવાથી તે ધારણ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७५ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.४५ मतिज्ञानस्य चातुर्विध्यम् क्षयोपशमो येन तमेव विषयं स्फुटतरमवच्छिनत्ति, धारणायामपि-भन्याशएन. क्षयोपशमो भवति, येन ततोऽपि स्फुटतरमधारयति । तस्यात्-क्षयोपशमस्यादी मलीमसत्वात् अव्यक्तमस्फुटज्ञानं भवति । अतएवाऽग्रहादिषु उसोत्तर स्फुटता ऽवगन्तव्येति । तत्र-बहुबहुविधा-क्षिपानि स्मृताऽलुक्तध्रुवरूपाणां एविधानाम् तद्विपरीतैः पविधैश्च-अल्पएकविधाऽक्षिप नि:सृतोक्ताऽध्रुवरूपैः लहितानां द्वादशविधानां प्रत्येक भवग्रहेहाबायधारणाभेदेन चतुर्भेदात् मति ज्ञानस्य षट्त्रिंशदधिकशतत्रयभेदा भवन्ति । तथाहि-प्रथमं तानद् मरिज्ञानस्याऽवग्रहईहाऽवायोधारणाचेति चत्वारो भेदाः । ततः प्रत्येकं चतुर्णा बहुबहुविधादि द्वादश भेदात् द्वादश-द्वादशभेदा भवन्ति तथा चाऽष्टचत्वारिंश शशः सम्प छन् । ततश्च तेषां प्रत्येकं पञ्चेन्द्रियमनोरूप नो इन्द्रिय भेदेन पट्ट् भेदा भवन्ति, इत्येवमष्टचत्वाहो जाता है। तत्पश्चात् धारणा भतिज्ञानावरण का क्षयोपशान होने पर वह धारण करने में समर्थ होता है । इस प्रकार प्रारंभ में जो क्षयोष शम होता है वह इतना अस्फुट होना है कि सिर्फ सामान्य को जान पाता है, फिर क्रम से उसमें सबलता आती जाती है। यही कारण है कि अवग्रह आदि में उत्तरोत्तर स्पष्टता होती है। ____ मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थ बारह प्रकार के है-(१) बहु (२) बहुविध (३) क्षिप्र (४) अनिमृत (५) अनुक्त और (६) ध्रुक्ष, तथा इनसे विपरीत अल्प, एकविध, अक्षिप, निसृत, उश्त और अध्रुश्च । ये बारह प्रकार के हैं। इन बारह प्रकार के पदार्थों के अखग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा चारों होते हैं, अतः १२४४४८ (अड़तालील) भेद हो जाते हैं। यह अडतालीस प्रकार का मलिज्ञान पांचों इन्द्रियों से तथा કરવામા શકિતમાન થાય છે. આ રીતે પ્રારંભમાં જે ક્ષપશમ થાય છે, તે એટલે અમ્ફટ હોય છે કે માત્ર સામાન્યને જાણી શકે છે. પછી ક્રમથી તેનામાં સબળતા આવી જાય છે. આજ કારણ છે કે અવગ્રહ આદિમાં ઉત્તરસર સ્પષ્ટતા હોય છે. भतिज्ञानना विषयभूत पहा मा२ प्र४।२ना छ (१) मई (२) बहुविध (3) क्षिप्र (४) भनिसृत (4) मनुस्त मन (6) ध्रुप, तथा मानाथ विपरीत ८५ એકવિધ અક્ષિ, નિસત, ઉકત અને ધુત્ર આ બ ૨ પ્રકારના પદાર્થો છે આ બાર પ્રકારના પદાર્થોને અવગ્રહ ઈહા, અવાય અને ધારણું ચારેય હોય છે. આથી ૧૨૪૪=૪૮ (અડતાળીસ) ભેદ થઈ જાય છે. આ ૪૮ પ્રકારના મતિજ્ઞાન પાંચેય ઈન્દ્રિયેથી તથા છઠ્ઠા મનથી હોવાના કારણે છ થી ગુણવાથી ૨૮૮ ભેદ નિષ્પન્ન થાય છે. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे रिंशत: पहभिगुणनेऽष्टाशीत्यधिवागतवरभेदाः अब टवषाविज्ञानरय सम्पन्ना, अपकटरूपमतिज्ञानरय चाऽस्टचत्वारिंशदभेदाः राममान्त इति गर्ने सस्मिल्य पट् त्रिंशदधिर शतय भेदाः सम्पयते इति भावः ।। उक्तञ्च गाप्यकारेण-'जं बम्बहुविक्षिप्पाणिमिलिच्छियधुक्षेचा विभिन्मा, पुरोगाओ तोसं छत्तीलतिलय लेद' इनि, यज्ञबहुविधिमानि मृतनिासनध्रवेतर विभिन्ना । यत् पुनरवहादयोऽत्तरतत् त्रिंगवधित्रिशतगेटम् . इति । उक्तञ्च नन्छिन-'२७ सूत्रे-कितं अतिरिदन अं ? उनिहं पणतं तं जहा-१ उनहे. २-ईहा, ३ अचाओ. ४ धारणा' इति, अथ किं तत श्रुतनिःमृतम् ? चतुर्विध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-अवग्रह:-हाऽवायोधाणा इति । स्थानाङ्गे ६ स्थाने ५१० मुत्रे चोक्तम्-'छबिहा महमनी एण्णत्तातं जहा छठे मन से होने के कारण छह के मुणित करने पर दो लौ अठासी भेद निष्पन्न होते हैं। ____ अवग्रह के दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । व्यंजनावग्रह अव्यक्त होता है और अर्थायग्रह व्यक्तज्ञान । उल्लिखित दो सौ अठासी भेदों में मिर्फ अर्थावग्रह के ७२ भेदों की गणना की गई है। व्यंजनावग्रह बक्षु और मन ले नहीं होना-लिर्फ चार इन्द्रियों से होता और पूर्वोकर बारह प्रकार के पदार्थों को जानता है, प्रतएव उसके अडतालील भेद ही होने है। इन अडवालीम भेदों को दो लो अठासी भेदों में मिला देने ले भनिज्ञान के रूप मेद ३३६ हो जाते हैं। भादकार ने भी कहा है-'मलिज्ञान बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिमृत, निमृत, ध्रुव और इनले विपरीत पदार्थों को जानता है और उनके अवग्रह आदि भेद होते हैं, इस कारण वह तीन नौ छत्तील प्रकार का है। અવગ્રહના બે ભેદ છે. વ્યંજનાવગ્રહ અને અર્થાવગ્રહ વ્યંજનાવગ્રહ અવ્યક્ત હોય છે. જ્યારે અર્થાવગ્રહ વ્યકતજ્ઞાન. ઉપર જણાવેલ ૨૮૮ ભેદેમાં માત્ર અર્થાવગ્રહના ૭૨ ભેદેની ગણના કરવામાં આવી છે. વ્યાજનાવગ્રહ ચક્ષુ અને મનથી થતું નથી માત્ર ચાર ઈન્દ્રિયેથી થાય છે. અને પૂર્વોક્ત બાર પ્રકારના પદાર્થોને જાણે છે. આથી તેના અડતાળીસ ભેદ જ હોય છે. આ અડતાળીસ ભેદેને ૨૮૮ ભેદમાં ઉમેરી દેવાથી મતિજ્ઞાનના બધા મળીને ૩૩૬ ભેદ થઈ જાય છે. ભાગ્યકારે પણ કહ્યું છે. મતિજ્ઞાન બહુ બહુવિધ ક્ષિપ્ર, અનિવૃત, નિસત, ધ્રુવ અને એનાથી વિપરીત પદાર્થોને જાણે છે અને તેના અવગ્રહ આદિ ભેદ હોય છે એ કારણે તે ૩૩૬ પ્રકારનું છે Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ दीपिका-नियुक्ति टीका आ.८ खु.४५ मतिज्ञानस्य चातुविध्यम् खिप्पमोगिण्हह, बालोनिहह बहुषिधमोगिहा, धुवमोगिण्हह, अणिस्सियमोगिणमा, अलंदिलोगिह, छविहा ईहामती षण्णता, तं जहा खिप्पमीहति, दमोहति, जाव असंदिधलीहति। छब्धिहा अवाचनती पण्णत्ता, तं जहा--विपनवेति, जाय असंदिह अवेति । छब्धिहा धारणा হ্যা , না জা-ঘাইছ, দ্বীফ চুম্বাই, দুই ঘাইনি, লিলি धारेति असंदिट्ठ पारेर हाते । पविशाऽवग्रहपतिः प्रज्ञा बधथा-क्षिण मचगृहाति, ध्रुपदलाति, अनिःस्मृतरायगृहाति, असंविधवलालि । पविधा ईशा भतिः प्रज्ञप्ता, लयथा-भिमनोहते, बहुमीहते, याबदसंदिग्धसीहते एविधा ऽवायमतिः प्रज्ञप्ता, सघशा क्षिपमति, यावदसंदिग्धमवैति । षड्विधा धारणा प्रज्ञप्ता तद्यथा बहुं धारयति बहुविध धारयति पुराणं धारयति दुद्धरं धारयति अनिहतं धारयति असंदिग्धं धारयति इति । ४६।। नन्दीन में भी सहा है-अननिश्रित प्रतिज्ञान के कितने हैं ? उसके चार लेद हैं-(१) अवग्रह (२) ईज्ञा (३) अबाध ओर (४) धारणा। __ स्थानांग सून के छठे स्थान के सूत्र ५१० महा है-अवग्रहमति के छह भेद कहे गए हैं, यथा- क्षिक्षा अवग्रह, बहु का अक्षग्रह, बहुविध का अपग्रह ध्रुव हा नक्षत्र, अनिस्कृत का अवग्रह, असंदिग्ध का अवग्रह। ईहामलिज्ञान के श्री छह भेद हैं-क्षिण की ईशा, यावत् असंदिग्ध की ईहा । अवाय मतिज्ञान भी छह प्रकार का हैक्षिका भवाय यावत् असंदिग्ध का अभाय । धारणा के भी छहद हि-बहुमती धारणा, पुरातन की धारणा, दुद्धी धारणा, असंदिग्ध सी धारणा। इस प्रकार मलिज्ञान के तीला लो छत्तीस भेद का इशष्टीकरणमझना चाहिए ॥४५॥ નન્દીસૂત્રમાં પણ કહ્યું છે, કૃતનિશ્રિત મતિજ્ઞાનના કેટલા ભેદ છે? તેના यार मे छ (१) व (२) हा (3) अवाय (४) धारयु.. . સ્થાનાંગ સૂત્રના ૬ઠા સ્થાનના સૂત્ર ૫૧૦ માં કહ્યું છે અવગ્રહમતિના ૬ ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે જેવાકે ક્ષિપ્રાને અવગ્રહ, બહેને અવહ, બહવિધને અવગ્રહ, શ્રને અવગ્રહ, અનિતને અવગ્રહ, અસંદિગ્ધને અવગ્રહ ઈહામતિજ્ઞાનના પણ ૬ ભેદ છે ફિઝની ઈહા બહુની ઇહા, એ રીતે અસંદિગ્ધ ની ઈહા અવાયમતિજ્ઞાન પણ ૬ પ્રકારનું છે, ક્ષિપ્રને અવાય એ રીતે અસં. દિગ્ધ નો અવાય ધારણાના પણ ૬ ભેદ છે. બહુ ની ધારણા, પુરાતનની ધારણા, દુરની ધારણા, અનિનની ધારણા, અસ દિગ્ધની ધારણા આ રીતે મતિજ્ઞાનના ૩૩૬ ભેદનું સ્પષ્ટીકરણ સમજવું જોઈએ કે ૪પ त० ९८ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७७८ तत्त्वार्थस्ने मूलम्-उग्गहे दुविहे, अत्थोग्गहे बंजणुग्गहे य ॥४६॥ छाया-'अवग्रहो द्विविधः अर्थावग्रहो व्यञ्जनावग्रहश्च ॥४६॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व ताक्द-मतिज्ञानं चतुर्विध प्रतिपादितम्, अवग्रहहा. ऽवायधारणाभेदात् । तत्र-प्रथमोपात्तसग्रहं द्वैविध्येन मरूपयितुगाह-'उग्गहे दुषिहे'-इत्यादि । अचमहा पूर्वोक्त रवरूपो मतिज्ञानविशेषः द्विविधो भवति वघथा-अर्थावग्रहः व्यञ्जनाऽवग्रहश्चेति । तत्राऽर्थात्तावत्-परतुरूपः द्रव्यरूपो वा चक्षुरादीन्द्रिय ग्राह्याणां ग्राह्यो सम्यो गोचरो विषय उच्यते, तथाविधस्य चक्षुरादीन्द्रिश्नावस्थार्थस्य व्यत्तस्वरूपस्याऽवश हो मतिज्ञान विशेषः अर्थावऽग्रह उच्यते । एवम्-व्यञ्जनमव्यक्तं शब्दरूपरसान्धस्पर्शजातम् । तस्य खलु व्यच. नस्याऽरक्तशब्दादेरच ग्रहो मतिज्ञान विशेषः व्यञ्जनाऽग्रह उच्यते । तथ चाऽर्था. 'उग्गहे दुविहे' इत्यादि। सूत्रार्थ-अपनाह दो प्रकार का है--अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह।४६॥ तत्त्वार्थदीपिका-भवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से मतिज्ञान चार प्रकार का कहा गया है। इनमें से पहले अवग्रह के दो मेदों की प्ररूपणा करते हैं पूर्वोक्त स्वरूप वाला अवग्रह मतिज्ञान दो प्रकार का है-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। यहां अर्थ का साशय द्रव्य या वस्तु है। वह चक्षु भादि इन्द्रियों का ग्राह्य, गम्य, गोचर या विषय भी कहलाता है । चक्षु भादि इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य व्यक्त रूप पदार्थ का अवग्रह अर्थावग्रह कहलाता है । व्यंजन अर्थात् अन्यक्त शब्द, रस, गंध और स्पर्श का जो भवग्रह होता है वह व्यंजनावग्रह कहलाता है। इस प्रकार अर्थावग्रह 'उग्गहे दुविहे' त्यादि સુત્રા–અવગ્રહ બે પ્રકાર છે અર્થાવગ્રહ અને વ્યંજનાવગ્રહ છે ૪૬ છે તત્ત્વાર્થદીપિકા-અવગ્રહ ઈહા, અવાય અને ધારણાના ભેદથી મતિજ્ઞાન ચાર પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યું છે એ પૈકી પ્રથમ અવગ્નહના બે ભેદની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ-પૂર્વોક્ત સ્વરૂપવાળું અવગ્રહ મતિજ્ઞાન બે પ્રકારનું છે–અર્થાવગ્રહ અને વ્યંજનાવગ્રહ. અત્રે અર્થને આશય દ્રવ્ય અગર વસ્તુ છે તે ચક્ષુ આદિ ઈન્દ્રિયેને ગ્રાહ્ય, ગમ્ય, ગેચર અથવા વિષય પણ કહેવાય છે. ચક્ષુ આદિ ઈન્દ્રિયો દ્વારા ગ્રાહા વ્યક્ત રૂપ પદાર્થને અવગ્રહ અર્ધા ગ્રહ કહેવાય છે. વ્યંજન અર્થાત્ અવ્યક્ત શબ્દ, રસ, ગંધ તથા સ્પર્શને જે અવગ્રહ થાય છે તે વ્યંજનાવગ્રહ કહેવાય છે. આ રીતે વ્યંજનાવગ્રહ અને અર્થાવગ્રહમાં અવ્ય Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.सू.४६ अवग्रहस्य भेदद्वयनिरूपणे ७७९ वग्रह व्यञ्जनावग्रहयो व्यक्ताऽव्यक्तकृतो विशेषो द्रष्टव्यः अभिनवशरावाी. करणवत्, यथा-जलकरणेन द्वित्रियारं सिक्तो नूतनः शरावो नाी भवति किन्तुपुनः पुनः सिच्यमानः शनैः शनैराी भवति । एवं श्रोत्रादीन्द्रियेषु शब्दादिरूपेण परिणताः पुद्गला द्विवादिषु समयेषु गृह्यमाणाः खलु न व्यक्ती भवन्ति पुनः पुनरवग्रहे सति तु व्यक्ती सन्ति तस्माद-व्यक्तग्रहणात् पूर्वमव्यक्तगुणरूपो व्यञ्जनावग्रहो भवति । ततश्च व्यताहणरूपोऽर्थावग्रहो बोध्यः । अतएच-अव्यतावग्रहणाद् व्यञ्जनस्येहादयो न भवन्ति । एवं चक्षुषानिन्द्रियेण मनसा च व्यञ्जनावग्रहो न भवति। तयोरप्राप्यकारित्वात् । चक्षुस्तावत्-अप्राप्तमर्थमवि और व्यंजनावग्रह में व्यक्तता और अव्यक्तता का अन्तर है। जैसे नवीन शराव (सिकोरा) में जल की एक दो तीन बूंद डोले जाएँ तो वह गीला नहीं होता, परन्तु बार-बार लींचने से धीरे-धीरे गीला हो जाता है, इसी प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियों में शब्दादि रूप से परिणत पुद्गल एक दो तीन आदि समयों में जो ग्रहण किये जाते हैं, वे व्यक्त नहीं होते, किन्तु वार वार ग्रहण होने पर व्यक्त होते हैं । इस कारण व्यक्त ग्रहण से पहले अव्यक्त ग्रहण होता है जो व्यंजनावग्रह कहलाता है। उसके अनन्तर व्यक्त ग्रहणरूप अर्थावग्रह उत्पन्न होता है । इस प्रकार अव्यक्त का ग्रहण होने से व्यंजन के ईहा, अवाय और धारणा नहीं होती। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय और मन से भी व्यंजनावग्रह नहीं होता, क्योंकि ये दोनों अप्राध्यक्षारी हैं अर्थात् उनके विषय के साथ उनका संयोग हुए विना ही वे अपने विषय को ग्रहण करते हैं । अर्थात् चक्षु કાતા અને વ્યક્તતાનું અન્તર છે. જેવી રીતે નવા શકેરામાં પાણીના એક, બે, ત્રણ ટીપાં નાખવામાં આવે તે તે ભીનું થતું નથી પરંતુ વારંવાર પાણી સીંચવાથી કમશઃ ભીનું થઈ જાય છે. એ જ રીતે શ્રોત્ર આદિ ઇનિદ્રામાં શબ્દાર્થ રૂપથી પરિણત પુદ્ગલ એક બે ત્રણ આદિસમયમાં જે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. તે વ્યક્ત હતાં નથી. પરંતુ વારંવાર ગ્રહણ થવાથી વ્યક્ત થાય છે આ કારણે વ્યક્તથી પહેલા અવ્યક્ત ગ્રહણ થાય છે જે વ્યંજનાવગ્રહ કહેવાય છે તેની પછી વ્યક્ત ગ્રહણ રૂપ અથવગ્રહ ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે અવ્યક્તનું ગ્રહણ થવાથી અંજનના ઈહા, અવાય તેમજ ધારણા હેતા નથી. એવી જ રીતે ચક્ષુરિન્દ્રિય અને મનથી પણ વ્યંજનાવગ્રહ થતું નથી કારણ કે એ બંને અપ્રાપ્યકારી છે અર્થાત વિષયની સાથે તેમને સંગ થયા વગર જ તે પિતાના વિષયને ગ્રહણ કરે છે. અર્થાત ચક્ષુને રૂપ સાથે સોગ નથી થતું, તે Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ beationshindernet. comnatomeremone m ama Go तत्त्वाथरसे दिवकं युक्तसन्निकर्षविशेषेऽस्थितं वाह्यप्रकाशामिव्यस्तमुपलभते । एवं मनश्चापि-अमाप्तमभिव्यक्तमेवोपलमले तपा-चक्षुर्मनसो व्यंजनावग्रहो न भवति, एवञ्च-चक्षुर्मनसी परित्यज्य श्रोत्ररसनस्पर्शजवाघ्राणेन्द्रियश्चतुर्मिः खलं जनावग्रहो भवति । अर्थावग्रहस्तु-सर्वरिन्द्रियानिन्द्रियः संजायते । एवमर्थस्येहादयोऽपि संभवन्ति ॥४६।। लत्वार्थनिक्ति:-पूर्व तावत्-प्रवाहाऽवायधारणाभेदात् सतिज्ञानस्य चातुर्विध्यं प्रतिपादितम्, सम्पति-तन्त्र प्रथमोपात्तस्याऽवनहस्य भेदयं प्रतिपादयितुमाह-'उग्गहे दुषिहे, अत्याग्गहे-बंजरगाहेब' इति । अवग्रहः पूर्वोक्त स्वरूपो मतिज्ञानविशेषो द्विविधो भवति, तपथा-अर्थाऽनग्रहः व्यजनावग्रहश्चेति, का रूप के साथ संयोग नहीं होता, फिर भी यह असनिष्ट रूप को ग्रहण करती है। मन भी मनात और अभिव्यक्त पदार्थ कोही ग्रहण मरता है। इस कारण चक्षु और मन से व्यंजनाचनह नहीं होता। अंतएवं चक्षु और मन को छोड़शर श्रोन, रलला, प्राण और स्पर्शन, इन, चार ही इन्द्रियों ले व्यंजवावग्रह होता है। अर्थाजग्रह साली इन्द्रियों ले जोर मारले होता है। इसी प्रकार अर्थ के ईक्षा आदि भी होते हैं।४६। तत्वार्थनियुक्ति-नक्षत्रह, ईशा, अधाय और धारणा के भेद से प्रतिज्ञान के चार नकों का निरूपण किया जा चु, अचाइना सर्वप्र. क्षम निर्दिष्ट अवनय के दो से या कवन करते है___अवग्रह, के जिलका स्वरूप पहले कहा गया है और जो एक प्रकार की प्रतिज्ञान है, दो भेद हैं-अविग्रह और व्यंजनावग्रह । चक्षु आदि અસરિકૃષ્ટ રૂપને ગ્રહણ કરે છે. મન પણ અપ્રાપ્ત અને અભિવ્યક્ત પદાર્થને જ ગ્રહણ કરે છે આથી ચહ્યું અને મનથી વ્યંજનાવગ્રહ થતું નથી. આથી ચક્ષુ અને મનને બાદ કરતાં શ્રેત્ર રસના ડ્રાણુ અને સ્પર્શન આ ચાર જ ઈન્દ્રિચેથી વ્યંજનાવગ્રહ થાય છે. અર્થાવગ્રહ બધી ઈન્દ્રિયોથી અને સનથી થાય છે. એજ રીતે અર્થના ઈહા આદિ પણ થાય છે. જે ૪૬ છે તરવાથનિયુક્તિઅવગ્રહ ઈહા, અવાય અને ધારણુના ભેદથી અતિ જ્ઞાનના ચાર ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે એમાંથી સર્વ પ્રથમ નિર્દિષ્ટ અવગ્રહના બે ભેદનું કથન કરીએ છીએ– અવગ્રહ, કે જેનું સ્વરૂપ અગાઉ કહેવામાં આવ્યું તેમજ જે એક પ્રકારનું મતિજ્ઞાન છે તેના બે ભેદ હોય છે –અથવગ્રહ અને વ્યંજનાવગ્રહ, ચક્ષુ આદિ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.८ .४६ अन्नहस्य मेदद्वयनिरूपणम् ७८१ तत्राऽयस्य व्यक्तस्थ चक्षुरादीन्द्रियग्रहणयोग्यस्य परिस्फुटार्थयावग्रहोऽर्थावग्रह उच्यते । एवं-व्यञ्जनस्याऽन्यज्ञारावृतघटरूपादेरिबाऽपरिस्फुटशब्दादेरग्रह व्य. अनावग्रह उच्यते । तथा चपर्शनाघुपकरणेन्द्रिय संश्लिष्ट रूपर्शनाकार परिणत पुद्गलस्वरूपव्यञ्जनस्य सामान्यतः परिच्छेदकोऽव्यक्तावग्रहो भवति, अबग्रहस्यात्यन्नुपरिच्छेदकत्वात् । किन्तु व्यञ्जनस्याऽव्यक्तस्य शब्दादेः परिच्छेदिका ग्राहिका ईहाऽवायधारणा न भवन्ति तासां स्वांशे व्यत्तस्यैत्र मेहमाण निश्चय धारणाख्ये नियतवान व्यक्तस्यार्थश्य प्राहिकाः पुनश्चमोऽपि-अवनदेहावायधारणा भवन्त्येव तथा च-पर्थाऽ प्रह-व्रजनावग्रहयो खल्लु व्यक्तान्यतपदार्थकृतो विशेषोऽवगन्तव्यः । एवं-चतुरिन्द्रियेण नो इन्द्रियेण मनसाचापि व्यञ्जनावग्रहो न सदति, वयोः खलु-चक्षुमनलोरमाप्यकारित्वात् । अपितु-श्रोत्ररसनघ्राणइन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने के योग्य परिस्फुट अर्थ का जो अपग्रह होता है वह अर्थावग्रह कहलाना है । व्यंजना अर्थात् अव्यक्त शब्द आदि का जो ग्रहण होता है वह व्यंजनावग्रह कहलाता है। इस प्रकार स्पर्शन आदि उपकरणेन्द्रिय के साथ संयुक्त, पाझार परिणम पुद्गल रूप से जानने वाला अव्यक्तावग्रह कहलाता है। अगर व्यक्त शब्द आदि को ईहा, अवाय और धारणा नहीं होती, उनकी अपने अपने व्यक्त विषय में ही प्रवृत्ति होती है। मार्गणा करना, निश्चय करना और धारण करना, यह ईहा आदि का व्यापार व्यक्त विषय में ही हो सकता है। इस प्रकार अधिग्रह और यंजनावग्रह में व्यक्त और अव्यक्त पदार्थ के कारण भेद है। व्यंजनावग्रह-चक्षु और मन से नहीं होता, क्योंकि ये दोनों अमा.. ઈન્દ્રિ દ્વારા ગ્રહણ કરવાને ચગ્ય પરિટ્યુટ અર્થનું જે અવગ્રહણ થાય છે તે અર્થાવગ્રહ કહેવાય છે વ્યંજન અર્થાત્ અધ્યક્ત શબ્દ આદિનું–જેમ અંધકારથી વ્યાપ્ત ઘટ આદિનું જે ગ્રહણ થાય છે, તે વ્યંજનાવગ્રહ કહેવાય છે. આ રીતે સ્પર્શન આદિ ઉપકરણેન્દ્રિોની સાથે મળેલ સ્પર્શીકાર પરિણત પુદ્ગલ રૂપ વ્યંજનને સામાન્ય રૂપથી જાણનાર અગ્યક્તાવગ્રહ કહેવાય છે. પરંતુ અવ્યક્ત શબ્દ આદિને જાણનાર ઈહા અવાય અને ધારણાને અભાવ હોય છે. તેમની પોત-પોતાના વ્યક્ત વિષયમાં જ પ્રવૃત્તિ રહે છે માણ કરવી નિશ્ચય કરી અને ધારણા કરવી, એ ઈહા આદિને વ્યાપાર વ્યક્ત વિષયમાં જ થઈ શકે છે આ રીતે અર્થાવગ્રહ અને વ્યંજનાવગ્રડમાં વ્યક્ત અને અવ્યક્ત પદાર્થના કારણે ભેદ છે. વજનવગ્રહ ચહ્યું અને મનથી થતું નથી કારણને એ બંને અપ્રાપ્યકારી છે. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ सूत्रे स्पर्शनरूपैश्चतुरिन्द्रयैरेव व्यञ्जनावग्रहो भवति । एवञ्च ये खलु दृश्यमाना विन्त्यमानाच पदार्थविशेषा भवन्ति । ते चक्षुरूपकरणेन्द्रियेण नो इन्द्रियेण मनसा च सह संश्लेपमाया एव परिच्छिद्यन्ते । न तु संश्लेषं प्राप्ताः यतश्चक्षु स्तावत् शारीरस्थं सदैव योग्यदेवावस्थितं पदार्थ परिच्छिनत्ति । न तु विषयदेशं गत्वा तत्परिच्छेदे व्यापृयते, नवा - विपयमेत्र मसूर - धान्याकृति के चक्षुरिन्द्रियदेशे समागतं परिच्छिनचि । तस्मात् चक्षुरमाप्यैव दिपयग्रादि भवति, यदि विषय प्राप्यैव चक्षुः परिच्छिन्द्यात् तदाऽग्नि प्रदेशगमने चक्षुषो दाहोऽपि स्यात् । एवंस्त्रसमीपवर्ति अञ्जनादिकमपि परिच्छिन्द्यात्, न तु परिच्छिनत्ति । अतएव - पचकारी हैं । श्रोत्र, रसना, घ्राण और स्पर्शन रूप चार ही इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होता है । जो पदार्थ विशेष दृश्यमान और चिन्त्यमान होते हैं वे चक्षु उपकरणेन्द्रिय और मन के साथ संयुक्त हुए बिना ही जाने जाते हैं, संयुक्त होकर नहीं जाने जाते । क्योंकि चक्षु शरीर के अन्दर ही स्थित रहकर सदैव योग्य देश में स्थित पदार्थ को देखती है। वह विषयदेश में अर्थात् दृश्य वस्तु जहां हो वहां जाकर पदार्थ नहीं जानती है और न मसूर नामक धान्य की आकृति वाली चक्षु के पास आये हुए और उससे स्पृष्ट हुए पदार्थ को ही जानती है। तात्पर्य यह है कि न तो नेत्र पदार्थ के पास जाकर स्पृष्ट होता है और न पदार्थ नेत्र के पास आकर स्पृष्ट होता है। इस कारण वह अप्राप्यकारी है। यदि अपने विषय को प्राप्त करके चक्षु जानती होती तो अग्नि के साथ संयोग होने पर उसका दाह हो जाता और अपने साथ संयुक्त अंजन आदि સ્ત્રોત્ર ૨:ના, ઘ્રાણુ અને સ્પશન રૂપ ચાર જ ઇન્દ્રિયાથી ન્યુજનાવગ્રઢ થાય છે. જે પદાર્થ વિશેષ દૃશ્યમાન અને ચિન્યમાન હોય છે તે ચક્ષુઉપકરણેન્દ્રિય અને મનની સાથે સંયુકત થયા વગરજ જાણી શકાય છે, સંયુકત થઈને જાણી શકાતાં નથી કારણ કે ચક્ષુ શરીરની અંદરજ સ્થિત રહીને જ સદૈવ ચેાગ્ય દેશમાં સ્થિત પદ્મા'ને જુએ છે. તે વિષય દેશમાં અર્થાત્ દશ્ય વસ્તુ જ્યાં છે ત્યાં જઈને પટ્ટાને જોતુ નથી અથવા ન તે મસૂર નામક ધાન્યની આકૃતિવાળી આંખની પાસે આવેલ અને તેનાથી પૃષ્ટ થયેલા પદાર્થ ને જાણે છે, તાત્પર્ય એ છે કેખ ન તે પદાર્થીની પાસે જઇને પૃષ્ટ થાય છે અથવા તેથી વિપરીત પણુ અનતું નથી. આ કારણે તે અપ્રાપ્યકારી છે. જો પેાતાના વિષય ને પ્રાપ્ત કરીને ચક્ષુ જાણતી હૈત તે અગ્નિની સાથે સચાગ થવાથી તે મળી જાત અને પેાતાની સાથે જોડાયેલા અ'જન આદિને પણ તે જાણી લઈ શકત ઉંટર્ #m Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.४६ अवग्रहस्य भेदद्वयनिरूपणम् ७८३ बाह्यप्रकाशाभिव्यक्तमेव पदार्थ योग्यसनिकऽवस्थितमुपलभते चक्षुः, न तुमलीमस तमसावृतमव्यक्तं पदार्थम् । तस्मात्-वक्षुषा व्यञ्जनावग्रहो न भवति । एवं-नो इन्द्रियमनोऽपि न चिन्त्यमान विषयं प्राप्यैव चिन्तयति, नापि-कुतश्चिदागत्याऽऽत्मनि अवस्थितमेव विषयं मनःपर्यालोचयति । यदि च विषयं संश्लिष्यैव मनोऽपि परिच्छिन्द्यात् तदा-तदपि ज्ञेयकृतसद्धग्रहं दिक्लेदादिरूपं भवेत् । दाहादिरूपानुपघातं वा प्राप्नुयात्, न तु विक्लेदादि अनुभवतिनवा-दाहादिनमुषघातं पाप्नोति । तस्मात्-मनोऽऽप्यमाप्येव विषयग्राहि भवति तस्मात्-मनसाऽपि व्यञ्जनावग्रहो न भवति । श्रोवरसम्राणस्पर्शनरूपाणि चक्षुरिको भी वह जान लेती, मगर जाननी नहीं है। अलएन पाह्य प्रकाश से प्रकट पदार्थ कोही, जो योग्य देश में स्थित हो, चक्षु देखती है, मलीन अन्धकार से आच्छादित पदार्थ को नहीं देखती । हल फारण चक्षुमारा व्यंजनावग्रह नहीं होता है। इसी प्रकार मन भी अपने चिन्त्यमान पदार्थ को पास करके नहीं जानता और न ऐसा होता है कि कहीं से आकर विषय आत्मा में स्थित हो जाय और मन उसका चिन्तन करे। अगर बन भी प्राप्त पदार्थ को ही चिन्तन करता होता तो उसमें ज्ञेयकृत निग्रह-अनुग्रह भी होते। अग्नि का चिन्तल करने पर दाह रूप उपघात को भी प्राप्त होता । अत. एव यही मानना उचित है कि मन भी विषय के साथ संयुक्त हुए बिना ही अपने विषय का ग्राहक होता है। यही कारण है कि मन से भी व्यंजनावग्रह नहीं होता। श्रोत्र, रसना, घ्राण और स्पर्शन इन्द्रियाँ પરન્તુ આમ થતું નથી. આથી બાહ્ય પ્રકાશથી પ્રકટ પદાર્થને કે જે યોગ્ય દેશમાં સ્થિત હોય, ચક્ષુ તે જુવે છે. મલીન અન્ધકારથી આચ્છાદિત પદાર્થને જોઈ શકતી નથીઆ કારણે ચક્ષુ દ્વારા વ્યંજનાવગ્રહ થતો નથી. એવી જ રીતે મન પણ પિતાના ચિત્યમાન પદાર્થને પ્રાપ્ત કરીને જાણતું નથી અને એવું પણ બનતું નથી કે કયાંયથી આવીને વિષય આત્મામાં સ્થિત થઈ જાય અને મન તેનું ચિન્તન કરે. જે મન પણ પ્રાપ્ત પદાર્થનું જ ચિન્તન કરતું હોત તે એનામાં યકૃત નિગ્રહ અનુગ્રહ પણ હતા. અગ્નિનું ચિન્તન કરવાથી દાહરૂપ ઉપઘાતને પણ પ્રાપ્ત થાત આથી મન પણ વિષય ની સાથે સંયુકત થયા વગર જ પિતાને વિષય ગ્રહણ કરે છે. એમ માનવું એ જ ગ્ય છે. મનથી પણ વ્યંજનાવગ્રહ થતું નથી તેનું કારણ પણ આ જ છે. શ્રેત્ર રસના ઘાણ અને સ્પર્શન ઈન્દ્રિઓ પ્રાપ્યકારી છે આથી તેઓ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ तत्त्वार्थ न्द्रियाणि तु-पाप्यझारियाद सलीमसनससा स्तमव्यत्तपिपहा दिल्लष्टं परि च्छिन्दन्ति । तस्माद-श्रोत्रादि चरिन्द्रियरे, व्यजामहो शवलि । तथाचेन्द्रिय निमित्त नो इन्द्रिय निमित्त भेट्न मरिज्ञान हिन्धिम्, पुनर ग्रादि भेदात् चतुविधा, स्पर्शनादि मन पयानपडिन्द्रियाणां जमीनदयः सयुदिता. श्चतुर्विधाः, चक्षुर्मनोभिन्न परिन्द्रियाणां व्यञ्जनवा , तम्माचाष्टा विशतेः बहुवहुविधादि टिभिगुण ने पटनिधिक गत्वरित ३३६ मलिज्ञानं संपद्यते । उक्तञ्च स्थानाङ्गे द्वितीयायाले १ उद्देशके ७१ -लुनिस्टिए दुरिहे पल्लते. तं जहा-स्थोराहे देश वं श चे इति. श्रुननिःसृतं द्विविध प्रजप्तम् तथा-अ अश्चैव, व्यसनावर. इति । नन्दिमुळे३० प्राप्यकारी है, अतएव वे अपने विषय के साथ संयुक्त होकर ही उसे जानती हैं। इस प्रकार इन्द्रियनिमित्ताक और अनिन्द्रियनिमितक के भेद से मलिज्ञान दो प्रकार का है, फिर अपग्रह भादि के भेद से चार प्रकार का है और म्पर्शन से लेकर मन पर्यन्त छह इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण अर्थावग्रह आदि चारों मिलकर चौगल भेद होते हैं। चक्षु और मन को छोडकर शेष चार इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण व्यंजना वग्रह के चार भेद हैं । लय बिलार अट्ठाईम लेद हुए। इन अट्ठाईस भेदों का बहु, बहुविध आदि बारह पदार्थो के साथ गुणाकार करने से मतिज्ञान के कुल तीन लौ छत्तील सेव हो जाते हैं। स्थानांगसूत्र के द्वितीय स्थान के प्रश्न उद्देशक के ७१ ३ जून में - कहा हैપિતાના વિષયની સાથે સંયુકત થઈને જ તેને જાણે છે. આમ ઈન્દ્રિયનિમિત્તક અને અનિન્દ્રિયનિમિત્તકના ભેદથી મતિજ્ઞાન છે પ્રકારના છે, ત્યારબાદ અવગ્રહ આદિના ભેદથી ચાર પ્રકારના છે અને સ્પર્શનથી લઈને મનપર્યત છ ઈન્દ્રિયેથી ઉત્પન્ન થવાના કારણે અર્થાવગ્રહ આદિ ચારે મળીને વીસ ભેદ થ ય છે. ચક્ષુ અને મનને છેડીને શેષ ચાર ઈન્દ્રિાથી ઉત્પન્ન થતા હેવાથી વ્યંજનાવગ્રહના ચાર ભેદ છે. બધાં મળીને અઠયાવીસ ભેદ થયા આ અઠયાવીશ ભેદેના બહ, બહુવિધ આદિ બર પદાર્થોની સાથે ગુણાકાર કરવાથી મતિજ્ઞાનના કુલ ત્રણસને છત્રીસ ભેદ થઈ જાય છે. સ્થાનાંગસૂત્રના દ્વિતીય સ્થાનના પ્રથમ ઉદ્દેશકના ૭૧માં સૂત્રમાં કહ્યું છે કૃતનિવૃત (મતિજ્ઞાન) બે પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યું છે જેમકે અર્થાવગ્રહ અને વ્યંજનાવગ્રહ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ८. रू. ४६ अवग्रहस्य केदयनिरुपणम् - ७८५ .9 2. सूत्रे चोट से किसे प्रश्न है - थुग्ण छदि पण, तं जहा सोईदिय आथुम, भरियादिय अत्युन्महे घापिदिय जत्थुण्णहे, जिरिंगदिथ अत्थुग्ण हे पार्सिदिय मत्युग्नहे तो इंदिन अत्यु' इति । अथ कोडrefuse form एकविधः पज्ञः उद्यथा श्रवेिन्द्रियार्यावग्रहः चक्षु रिन्द्रियार्थाः प्रोत्रिया पित्रः जिहूदेद्रिणः स्पर्शनेन्द्रियार्थानं ग्रह। नो इन्द्रियार्थावग्रहः । रुमः पूर्वष नदि९त्रेोष - कित जचुहे ? पंज से जल- दोइदियगंज गुनाहै पार्णिदिय बंजारे की दिवादियजपुर के तं जणुम्हे. इति । यर मोडी १ हरिष पज्ञतः तद्यथा-श्रो प्राणेनि जिह देद्रियन्नाहः स्पर्शनेन्द्रित इति । केपररूपे भए ।४६। वाग्रहदुषणतयाहामा तदिशुम (लिज्ञान) दो प्रकार का कहा गया है, यथा-नवग्रह और व्यंजनाह । नन्ही के ३० वें में फल है-अम किनेर का है ? उपर-भर है यथा-श्रमिक ह चक्षुरिन्द्रिय-अर्थावर, घाषेशिव अवयर, जिवेद्रिय अर्धा, स्पर्शनेन्द्रिय-वग्रह और वोइन्द्रिय अर्थावराह । इससे पहले भी नन्दीपन के २९ ३ जून में कहा है-व्यंजनाव के कितने भेद हैं ? व्यंजनाना के पार भेद है-श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनात्रग्रह, घाणेन्द्रिय व्यंवावर जिवेन्द्रिय व्यंजनाग्रह और स्पन्द्रिय व्यंजनाथग्रह 1 નન્દીસૂત્રના ૩૦માં સૂત્રમાં કહ્યું છે અર્થાવગ્રહ કેટલા પ્રકારના છે ? ઉત્તર-અવગ્રહ છ પ્રકારઙા છે જેમકે શ્રોત્રેન્દ્રિય અોવગ્રહ, ચક્ષુરિન્દ્રિય, અર્થાવગ્રહ, પ્રાણેન્દ્રિય અર્થાવગ્રહ, જિહૂવેન્દ્રિય અર્થાવગ્રહ સ્પર્શેન્દ્રિય સ્પર્ધાવ ગૃહ અને અઈન્દ્રિય અ વડ આથી પહેલ! નન્દીરાત્રના ર૯માં સૂત્રમાં કહ્યું છે વ્યંજનાવગ્રહુના કેટલા ભેદ છે ? વ્યંજનાવગ્રહુના ચહ્ન બે છે શ્રોત્રેન્દ્રિયવ્યજ'ના ગ્રેડ, પ્રાણેન્દ્રિય યંજનાपथ नियेन्द्रिया 25 परे स्पन्द्रियन्यवनाव त० १९ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ तरवासने मूलम्-सुयनाणे दुविहे, अंगपचिट्टे-अंगबाहिरेय ॥४७॥ छाया-श्रुतज्ञानं द्विविधम् अङ्गप्रविष्टम्-उङ्गबाह्यञ्च-॥४७॥ तत्वाथदीपिका-पूर्व तावद् मविज्ञानं सविस्तरं भेदोपभेदपूर्वकं प्रतिपादितम्, सम्मति श्रुत्ज्ञानं द्वैविध्येन प्ररूपयितुमाह-"सुपचाणे-" इत्यादि । श्रुतमानम्-श्रूयते इति श्रुतम् शब्दस्वरूपम् तत्सम्बन्धिज्ञानम् श्रुतज्ञानम् श्रवणं वाश्रुतिरूपम् श्रुतम्-तद्रूपं ज्ञानं श्रुतज्ञानं तायद् द्विविध पचति । तद्यथा-आचाराझं१ सूत्रकृताङ्ग-२ स्थानाङ्ग-३ समवायाङ्ग-४ व्याख्यायज्ञप्त्यङ्गम्-५ ज्ञातृधर्मकथाङ्गम्-६ उपासकदशाङ्गम्-७ अन्तकद्दशाङ्गम्-८ अनुत्तरोपपातिक दशाङ्गम्-९ नन्दीसूत्र के केवल उपलक्षण रूप में ही अर्थावग्रह का कथन किया गया है, अतएव ईहा, अपाय और धारणा के भेद भी इली प्रकार जान लेने चाहिए ॥४६॥ 'सुयनाणे दुधिहे' इत्यादि। सूत्रार्थ-श्रुतज्ञान दो प्रकार का है-अंगप्रविष्ट और अंगयाह्य ॥४७॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले भेदोपभेदों सहित विस्तार पूर्वक मतिज्ञान का निरूपण किया गया, अप श्रुतज्ञान के भेद कहते हैं जो सुना जाय सो श्रुत अर्थात् शब्छ । शब्द संबंधी ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। अथवा सुनना श्रुत कहलाता है और श्रुतरूपज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता श्रुतज्ञान दो प्रकार का है-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । इनमें से अंगप्रविष्ट श्रुत के चारह भेद है, बधा-(१)आचारांग (२) मुत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) समवायांग (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (६) ज्ञाताधर्मकथांग (७) નન્દીસૂત્રમાં માત્ર ઉપસંહાર રૂપે જ અર્થાવગ્રહનું કથન કરવામાં આવ્યું છે આથી ઈહા, અવાય અને ધારણાના ભેદ પણ આ પ્રમાણે જાણી લેવા જોઈએજદા 'सुयनाणे दुविहे' छत्यादि સુવાથ– શ્રુતજ્ઞાન બે પ્રકારનું છે-અંગપ્રવિષ્ટ અને અંગબાહ્ય ૪૭ તત્ત્વાર્થદીપિકા–પહેલા ભેદેપભેદ સહિત વિસ્તારપૂર્વક મતિજ્ઞાનનું નિસ્પણ કરવામાં આવ્યું, હવે શ્રુતજ્ઞાનના ભેદ કહીએ છીએ. જે સંભળાય તે મૃત અર્થાત્ શબ્દ. શબ્દ સંબંધી જ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે અથવા સાંભળવું ગ્રુત કહેવાય છે અને શતરૂપ જ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે. તજ્ઞાન બે પ્રકારનું છે અંગપ્રવિષ્ટ અને અંગબાહ્ય, એમાંથી અંગપ્રવિષ્ટ કૃતના भा२ लेह छ 2418-(१) माया । (२) सूत्रकृतin (3) स्थानां। (४) अभपायin (4) व्याभ्याप्रशसि (6) ज्ञाताधम यांn (७) पास ६शांn (८) Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.४७ श्रुतज्ञानस्य द्वैविध्यमू प्रश्नव्याकरणम्-१० विपाकश्रुवाङ्गम्-११ दृष्टिवादाङ्गञ्च-१२ इति । अङ्गवामञ्च श्रुतज्ञानमने कविध बोध्यम् । तद्यथा-अङ्गबाह्य तावत्-प्रथमतो द्विविधम्, आवश्यकम्-आवश्यकव्यतिरिक्तश्चेति, ताऽऽवश्यकव्यतिरिक्तं द्विविधर, कालिकञ्चउत्कालिकञ्चेति-तत्र कालिका ने सावधम्, उत्सराध्ययनानि-दशा-कल्पा-व्यवहार:-निशीथम्-महानिशीथम्-जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिः-द्वीपसागरप्रज्ञातः-चन्द्रमप्ति:सूर्यपज्ञप्ति रित्यादि । उत्कालिकञ्चाप्यनेकविधम्, दशकालिकम्-काल्पकाकाल्पकम्-क्षुल्लकल्पश्रुतम्-महाकल्पश्रुतम् -उपपातिकम् राजरसनिलम्-जीवाभिगम: -मज्ञापना-महाप्रज्ञापना, इत्यादि । आवश्क पविधन, सामायिकं चतुर्विशतिस्तवः, वन्दनकम् प्रतिक्रमणम्, कायोत्सर्गः, प्रत्याख्यानम्, इति- बच्च-श्रुतज्ञानं मतिज्ञानपूर्वकमेव भवति-न तु विज्ञानम् श्रुतज्ञानपूर्वक मित्यबधेयम् ॥४७॥ उपासकदशांग (८) अन्तकृदशांग (९) अनुत्तोषपातिक दशांग (१०) प्रश्नव्याकरणांग (११) विपाकश्रुतांग और (१२) दृष्टिवादांग। अंगबाह्य श्रुतज्ञान अनेक प्रकार का है। यह इस प्रकार है-आव. श्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त । आवश्यक व्यतिरिक्त के भी दो भेद हैं-कालिक और उत्सालिका इनमें से मालिक श्रुत अनेक प्रकार का है-उत्तराध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, जम्बू बीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञाप्त आदि उत्कालिक श्रुत भी अनेक प्रकार.क्षा है, जैसे-दशवैज्ञालिक, फल्पिका-कल्पिक, क्षुल्लकल्पश्रुत, महाकल्पश्रुत, औपपातिक, राजप्रसानक, जीवाभिगम, मज्ञापना, महाप्रज्ञापना इत्यादि। आवश्यक श्रुत के छह प्रकार है-(१) सामायिक (२) चतुर्विंशतिઅકુશગિ (૯) અનુત્તરપપાતિકદશાગ (૧૦) પ્રશ્નવ્યાકરણગ (૧૧) વિપાક श्रुतin मन (१२( है. ' અંગબાહા થતજ્ઞાન અનેક પ્રકારનું છે તે આ પ્રમાણે અંગબાહ્ય પ્રથમ તે બે પ્રકારનું છે આવશ્યક અને આવશ્યક વ્યતિરિકત આવશ્યક વ્યતિરિક્તના પણ બે ભેદ છે કાલિક અને ઉત્કાલિક એમાંથી કાલિકશુત અનેક પ્રકારના છે ઉત્તરાધ્યયન દશા. ૫, વ્યવહાર, નિશીથ, મહાનિશીથ, જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિ, દ્વીપસાગરપ્રજ્ઞાતિ, ચન્દ્રપ્રાપ્તિ, સૂર્યપ્રજ્ઞપ્તિ આદિ ઉલ્કાલિક સૂત્ર પણ અનેક પ્રકારના છે. જેવાકે—–દશવૈકાલિક, કલ્પિકાકલ્પિક, ક્ષુલ્લકપણુત, મહાકલ્પકૃત પપાતિક, રાજમણિક, જીવાભિગમ, પ્રજ્ઞાપના મહાપ્રજ્ઞાપના ઈત્યાદિ भा१श्य:श्रुतना छ ४२ छ (१) सामाथि, (२)यतुविशतिस्त५ (३) Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थ सूत्रे तत्वार्थनियुक्ति - पूर्वं तावत- मतिवधिमा विज्ञान मेदात् सम्यग्ज्ञानं पञ्चविधं प्रतिपादितम्, तत्र मदिश्रालम् - मोहाशयधारणाभेदात्तदवान्तरभेदाच्च पत्रिंशदधिकशतत्रयतिं प्ररूपितम् सम्पति-श्रुवमानं देविध्येन रूपयितुमाह- "माणे दुबिहे, अंगपट्टे अंगवी रेघ" इति - 1 श्रुतज्ञानम् - श्रयते इति श्रुतम् - श्रयमाणशन्दस्वरूपं, अवश्रुतम् -सावेतः प्रत्ययः, तत् सम्बन्धि-तद्रूपम् ना श्रुततानम् आगमरूपम् जिनवचनं तीर्थ कृदुपदेशः भातोपदेशः आतवचनं चोच्यते । तच्च युवज्ञानं मविज्ञानपूर्वकं मनति, न तुलय (३) पदक (४) प्रतिक्रमण (५) कार्ग प्र (६) प्रत्याख्यान । यह श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक ही होता है विज्ञानरुज्ञान पूर्वक नहीं होता ॥४७॥ ॥ थे। उनमें तत्वार्थ नियुक्ति --- पहले नति, शुभ, अवधि, मन के भेद से ज्ञान के पांच प्रकार प्रदर्शित किए अवग्रह, ईहा, अवाज और धारणा के भेद के तीन ली छसील प्रकार का है, यह भी ज्ञान के दो भेदों का महण करते हैं है। यहां भाव के अर्थ में 'क्त' प्रत्यय होने जी सुना जाय सो श्रुत अर्थात् तम् । अथ सुता श्रुत कहलाता 'शु' शब्द निष्पन्न होता पदे, आत्मोपदेश । यह शुतज्ञान आगहरूप जिन वचन, या आत्मवचन भी कहलाता है । ७८८ वन्दन (४) प्रतिभ (4) डायोत्सर्ग भने (१) अत्याख्यान. મા શ્રુતજ્ઞાન મતિજ્ઞાનપૂર્વક શ્રુતજ્ઞાનપૂર્વક થતું નથી ! ૪૭ ૫ તત્ત્તા નિયુકિત-૫ડેલા મતિ, શ્રુત, અવધિ, મન પત્ર અને ડૅવળના સૈથી જ્ઞાનના પાંચ પ્રકાર પ્રદર્શિત કરવામાં આવ્હા હતા. તે પૈકી મતિજ્ઞાન અવગ્રહ, ઇંહા, મવાય અને ધારણાના લેધી તથા વાન્તર ભેદોથી ત્રસે છત્રીસ પ્રકારના છે, એવું પણ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું. હવે શ્રુતજ્ઞાનના એ ભેદોની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ 2 और केवल से मतिज्ञान अनन्तर भेदों से किया गया । अब 9 H 2 જે સ'ભળાય તે શ્રુત અત્ શબ્દ અથવા સાંભળવુ' શ્રુન કહેવાય છે. મહી ભાવના અર્થમાં ‘કત' પ્રત્યય હાવાયા શ્રુત શબ્દ નિષ્પન્ન થાય છે. આ શ્રુતજ્ઞાન આગમરૂપ જિનવચન, તીર્થંકરપદેશ, આપ્નેદેરા અધવા આમ્રવચન પણ કહેવાય છે. & થાય છે પરન્તુ મતિજ્ઞાન Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - বিন্ধা-লিকি ? ৫ ০৪৬ স্থান নিঃ | ও৫২ , বিছাল স্বরাদুন্ধমূ। ও হলিগ ২৪ - জজ স্তু ন লং স্তুনিষা- বি বি ই - বি গুরু ঘুর্ণিা , নি। বগাকুৰি বস্তু অলি ভাবি নি =াহাজং স্কুলজন্ধু কালা দিবাজি ৪ তামণিঃ ৭ মঙ্গ কথাও ভাবदशाङ्गम् अन्तकद्दशाङ्ग८ अनुत्तरोषपातिकदशाङ्गम् प्रश्नव्याकरणम् १० দিবাঙ্কা? ছিঘাংং অম্বা এথ বা ভিৰি গনি’ আম্বং অবিকি ২ মার্চ স্বদিছু অন্তর্নিয়ন্তি ত্ব, অলয়, বিল, জাহাংশু দত্যাজ্জালঘৰ ? জাৰৰ তথবিহিক দ্বিাস্তু, কি- ওভার। বক্ষ-লক্ষ বা . স্কুল নিদাঘ হাশা , লাল জালঘু ছালা। জীনু জ ২৪ ম্ব র জ - স্বজন হারবদ্ধ গুলা ই, তার অনিমাল জানু নছী হয়। মষ্টি সূনাল ভ ন্নাহ জ -রাষ্মাহ , লুক্ষুণা, থালা, শাল, সিজাদি, জঙ্গি , অন্যজ্জা , গুনীল কস্থালি, মজ্জা, লিখা গুহ ছিল যা তুমি । | মাস্তু না প্লাহ ফা ই-শ্রাব হু খাদ্য নিধি। গুছৰ জ ই ই-() প্রাঘিম (২) অন্তলি স্থালিংক (2) সুল (৪) দ (5) এয়াসু জব (৫) মা । - দুষাহি দু ফাহ র -জাজি হু শুদ্ধি । স্কাঙ্কি શ્રુતજ્ઞાન મતિજ્ઞાનપૂર્વક થાય છે મતિજ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાનપૂર્વક થતું નથી નંન્દી સૂત્રના ૨૪માં સૂત્રમાં કહ્યું છે કૃતજ્ઞાન અતિજ્ઞાનપૂર્વક થાય છે, પરંતુ મતિજ્ઞાન મુતપૂર્વક થતુ નથી. | pog catt অ2 883 9-aRit, it, aiot, પાવાયાંગ, વ્યાપાખજ્ઞપ્તિ, જ્ઞાતાધનથાળ, ઉપાસકદશાંગ, અનુત્તરોપાતિક દંગ, પ્રણવ્યાકરણ, વિપાકનાંગ, અને દષ્ટિવાદ અગર દષ્ટિપાત. અંગબાહ્ય બે પ્રકારનું છે. આવશ્યક અને આવશ્યક વ્યતિરિકત આવશ્યકતા છે প্রঃ -(৭) । ১৯৪৮ (২) ade (3) egg (৮) মুনমg (৭) કાયોત્સર્ગ અને (૬) પ્રત્યાખ્યાન, આવશ્યકતિરિકત બે પ્રકારના છે-કાલિક અને ઉલ્કાલિક તેનાં કાલિક અનેક પ્રકારના છે જેમ–ઉત્તરાધ્યયન દશા કપ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्रे उत्तराध्ययनानि दशा - कल्पः - व्यवहारः- निशीथम् - महानिशीथम् = जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - द्वीपसागरपज्ञप्तिः - चन्द्रपज्ञप्तिः - सूर्यप्रज्ञप्तिः - सुद्रिका - विमानमविभक्ति:महल्लिका- विपाप्रविभक्ति:- अङ्गचूलिका-चक्रचूलिका- विवाहचूलिका-अरुणोपपातः वरुणोपपातः - गरुडोपपातः- धरणोपपातः - वैश्रवोपपातः- वेलन्धरोपपतिः देवेन्द्रो पपातः - उत्थानसूत्रम् - समुत्थानसूत्रम् - निश्यावलिका - कलिका-कल्पाचतंसिका - पुष्पका- पुष्प चूलिका-प्रत्यादि । उत्कालिकञ्चापि अनेकविधम्, तद्यथा दशवैकालिकम् - कल्पिककल्पिकम् - क्षुल्लकल्पश्रुतम् - महाकल्पश्रुनस् - उपपातिकम् - राजमश्नीयकम् - जीवाभिगमः - मज्ञापना - महाप्रज्ञापना इत्यादि । उक्तञ्च - स्थानाङ्गे २ स्थाने १ उद्देशके ७१ सूत्रे - 'सुगनाणे दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा= अंगपविद्वे चेय, अंगवाहिरे चेष' इति श्रुतज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - अङ्ग , ७ अनेक प्रकार का है, यथा-उत्तराध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, जम्बूद्रीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागर, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, क्षुद्रिकावितानविभक्ति, महल्लिकाविमानप्रत्रिभक्ति, अंगचूलिका, वकच लेका, विवाहचूलिका, अरुणोपपात, वरूणोपपात, गरूड़ोपपात, धरणोपपात, वैश्रवणोपपात, वेलंधरोपपात, देवेन्द्रोपपात, उत्थानसूत्र, समुत्थानसूत्र, निरयावलिका, कल्पिका, कल्पावर्तसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका इत्यादि । उत्कालिक भी अनेक प्रकार है, यथा-दशवैकालिक, कल्पिका श्रुत कल्पिक, क्षुल्ल कल्पश्रुत, महाकल्पश्रुत, उपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभि गम, प्रज्ञापना, महाप्रज्ञापना इत्यादि । स्थानांग सूत्र के द्वितीय स्थान के प्रथम उद्देशक के सूत्र ७१ वें में कहा है- 'श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा વ્યવહાર, નિશીથ, મહાનિશીથ, જમ્મુદ્દીપપ્રગતિ દ્વીપસાગરપ્રાપ્તિ ચન્દ્રપ્રાપ્તિ સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્તિ, ક્ષુદ્રિકાવિમાનપ્રવિભકિત, મહલ્લિકાવિમાનપ્રવિભકિત, અંગચૂલિકા, वम्यूसिभ विवाह यूसिभ पपात पात, गड्डययात, घरापपात, વૈશ્રમણેાપપાત વેલ ધરોપયાત દેવેન્દ્રોપપાત, ઉત્થાનસૂત્ર, સમુત્થાનસૂત્ર, નિરયાલિકા કલ્પિકા, કલ્પાવત'સિકા, પુષ્પિકા, પુષ્પચૂલિકા ઈત્યાદિ ઉત્કાલિક સૂત્ર પણ અનેક પ્રકારના છે જેવાકે દશવૈકાલિક, કપિકાपिठ, क्षुदसम्स्यश्रुत, भडाउवयश्रुत, उपपातिष्ठ, राज्यनीय, लवालिगम, પ્રજ્ઞાપના મહાપ્રજ્ઞાપના ઇત્યાદિ. સ્થાનાંગસૂત્રના દ્વિતીયસ્થાનના પ્રથમ ઉદ્દેશકના ૭૧માં સૂત્રમાં કહ્યુ છે શ્રુતજ્ઞાન બે પ્રકારના છે જે આ પ્રમાણે છે-અગપ્રવિષ્ટ અને અગમા Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ६ सु.४७ श्रुतज्ञानस्य द्वैविध्यम् ७९१ पविष्टश्चैव, अङ्गबाह्यश्चैव, इति । नन्दिसूत्रे-४४ सूत्रो चोक्तम्-'ले कि तं अंगपविठं ? दुवालसविहं पण्णत्तम् तं जहा-आधारो १ सुथगडे२ ठाण३ समवाओ४ विवाह पण्णत्ती५ नायाधम्मकहाओ६ उघालणदखाओ७ अंतगडदसाओ८ अणुत्तरोववाहयदशाओ९ पण्हायागरणाइं१० विवागसुय११ दिहिवाओ१३ इति । अथ किं तत्-अङ्ग भविष्टस् ? द्वादशविधं पज्ञप्तम् तद्यथा-आचार:-सूत्रकृतम् स्थानम् समवायः माख्यामज्ञप्तिः ज्ञाताधर्मकथा-उपासकदशा-अन्तकृदशा-अनुत्तरोपपातिकशा प्रश्नव्याकरणम् विपाकश्रुतम् दृष्टिवादः इति । तदग्रे च नन्दिनने ४४ सूत्रे एवोक्तद्-'अंगवाहिरं दुवि पण्णतं, तं जहा-आवरलयं छ, आवरलयक्ष रित्तं च, से कि तं आवस्वयं ? आक्षरलायं छठिवहं पण्णतं, तं जहा-सामायं-चउवीसत्यवो वंदणयं पडिक्कमणं काउलग्गो पच्चाक्खाणं लेतं आधस्सयं । से किं तं आवस्सयवहरितं ? आवस्यवहितंदुविहं पण्णत्तं है, वह इस प्रकार है-अगप्रविष्ट और अंगवाहा।। नन्दी सूत्र के सूत्र ४० में कहा है-अंगप्रविष्ट श्रुत कितने प्रकार का है ? (उत्तर-) बारह प्रकार का है, यथा-(१) आचार (२) सूत्रकृत (३) स्थान (४) समवाय (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (६) ज्ञातधर्मकथा (७) उपासकदशा (८) अन्तकृद्दशा (९) अनुत्तरोषपातिक (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाकश्रुत (१२) दृष्टिवाद ।। इससे आगे नन्दीखून में ही सून ४४ में कहा है-अंगबाह्यश्रुत दो प्रकार का है-आवश्यक और अवश्यक व्यतिरिक्त । आवश्यक के कितने भेद हैं ? (उत्तर-) आवश्यक के छह भेद हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । आवश्यक व्यतिरिक्त के कितने भेद हैं ? (उत्तर-) आवश्यक व्यतिरिक्त के दो भेद हैं, यथा નંદીસૂત્રના ૪૦ માં સૂત્રમાં કહ્યું – અંગાવિષ્ટ કૃત કેટલા પ્રકારના छ ? उत्तर भार ना छ (१) माया२ (२) सूत्रकृत (3) स्थान (४) समपाय (५) व्याध्याप्रति () ज्ञाताधम था (७) पास४६ (८) मन्त। (6) मनुत्त५पाति: (१०) प्रश्नव्या४२९५ (११) विपाश्रुत मने (१२) दृष्टिवाह. આથી આગળ નંન્દીસૂત્રમાં જ ૪૪ માં સૂત્રમાં કહ્યું છે–અંગબાહ્ય ત બે પ્રકારના છે આવશ્યક અને આવશ્યક વ્યતિરિકત. આવશ્યકના કેટલા ભેદ છે? ઉત્તર–આવશ્યકના છ ભેદ છે-સામાયિક ચતુર્વિશતિસ્તવ, વંદા પ્રતિક્રમણ કોચાત્સર્ગ અને પરચખાણ. આવશ્યકતિરિકતના કેટલા ભેદ છે ? ઉત્તર–આવ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ तत्वार्थ તે – ૪ વાજી કa, તિં કદારિ? રાજા ચિદં કરું good = ગાગા ગુરરg, રાહુ વાર . vadi gar જદાવાદ જીલ્લા ચં ચં ઝgો વિશ્વ વંદુ વા િવંવાદ રૂquiા દિ સંદે. - অন্য বিজ্ঞানভি, ঘাস্থি, হলি - স্বলে હિજરાહુન્ને નિરર નિદાર રીતે રજા ના સ્ત્રાવ પર સ્ટે લંકા રે વં ? રાશિ અવquતં શT 1 s t - 1 ડિગ્રી મજ પ્તિ છું વંદgrી, હૈદ દક્ષી જાતિ રક્ષા કરે છે જે એ? () જાલા જ્ઞા, ધ્યાન , જાવા, ફાર, બહારગ્સ, ફાતિ, રાજા, કોર, પ્રજ્ઞા, પ્રજ્ઞાઉના, કાવા-gwા નથી, જોજદાર, વેદ, ગુia, વાવા, ફાતિ, જીરુ, અંજીર, વિચાર , જીવિત્ર, સ્થાનિધિ, 8ાવિશુદ્ધિ, શિi ( રજાવિહાર , , Trume, હજારો જસ્ટિસ જે શિને ? દાર્જિા જ કાર , જા-રાદvજન, , , , નિજ, ર શીલ, - કવ્યતિરિક્તના બે ભેદ છે જેમકે કાલિક અને ઉત્કાલિક ઉલ્કાલિકના કેટલા ભેદ છે? ઉલ્કાલિક અનેક પ્રકારના છે જેમકે દશવૈકાલિક, કલ્પિકાકલ્પિક, કુલદ૯૫શ્રત, મહાક૯૫ત, ઉપપાતિક, રાજપ્રશ્નીય, જીવાભિગમ, પ્રજ્ઞપના મહાપ્રજ્ઞાપના, પ્રમાદાપ્રમાદ નંદી અનુગદ્વાર, દેવેન્દ્રસ્તવ, તન્દુલાલિક. ચન્દ્રાધ્યિક, સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્તિ, રૂષીમંડલ, મંડલપ્રવેશ, વિદ્યાચરણવિનિશ્ચય ગણિતવિદ્યા ધ્યાનવિભકિત, ચરણવિભક્તિ આત્મવિશુદ્ધિ, વીતરાગધ્રુત સંલેખનાથુન, વિહારકા, ચરણવિધિ, આતુરપ્રત્યાખ્યાન, મહાપ્રત્યાખ્યાન, ઈત્યાદિ પ્રમાદ પ્રમાદ, નંદી, અનુગદ્વાર દેન્દ્રસ્તવ. વૈતાલિક ચંદ્રવૈતાલિક. સૂર્યપ્રજ્ઞપ્તિ પૌરૂષીમંડળ મંડળશ વિદ્યાચરણ વિનિશ્ચય ગણુવિદ્યા ધ્યાનવિભક્તિ મરવિરક્તિ આત્મવિશુદ્ધિ, વીતરાગદ્ભુત સલેખનાશ્રુત વિહારકલ્પ ચરણવિધિ આતુરપ્રત્યાખ્યાન મહાપ્રત્યાખ્યાન ઈત્યાદિ - કાલિકwતના કેટલા ભેદ છે? કાલિ શ્રત અનેક પ્રકારનું છે. જેમકે ઉત્તરાધ્ય દશાક૫ વ્યવહાર નિશીય મહાનિશીથ ઋષિભાષિત જંબૂઢીપ પ્રાપ્તિ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ど दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ८ सु.४८ अवधिज्ञानस्वरूपनिरूपणम् ७९३ चंदपणती खुइडिया विमाणपरिभत्ती, महल्लिया विमाणपवि - भत्ती अंगचूलिया भगवूलिया विवाहचूलिआ अरुणोबचाए बरुको aare गरुडोबवाए धरणोदवार वेलमणो दबाए बेलंधरोबचाए देबिंदो बनाए उाणसुए नामपरिभवनि, निरयाबलियाओं कपिआओ कपडा सभाओ पुष्पबू लिआओ वहीदाओ एवमाह घाई चरासी पहनवलसाह ॥४७॥ मूलम् - ओहिनाणे दुबिहे, सवपच्चय खओवसमनिमित्त भेयओ ॥४८॥ छाया - 'अज्ञान' द्विविधम् भवप्रत्ययक्षयोपशमनिमितभेदतः ॥ ४८ ॥ " तत्वार्थदीपिका - पूर्व तान्तु यथाक्रमं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानञ्च सविस्तरं प्रज्ञापितम्, सम्पति-क्रमाप्तमवज्ञानमनेकविधत्वेन मरुतुमाह- 'ओहिनाणे भाषित, जम्बूद्वीपप्रज्ञ पत्र, द्वीपलापरवज्ञप्ति, चन्द्रवज्ञप्ति (सूर्यप्रज्ञ से), क्षुल्लिका विज्ञानविमक्ति, महा विमानप्रविभक्ति अंगचूलिका, वर्गचूलिका विवाहम्युलिका, अरुणो पात, वरुणोषपात, गरुडोपपाल, धरणीपात, वैश्रवणोपपात, बेलम्बरोपपात, देवेन्द्रोपपास, उत्थानश्रुत, नागपरियाणिया, निश्यावलिका, कल्लिका, कल्वावतंसिका, पुष्पिका, पुष्प'चूलिका, वृष्णिदार, इत्यादि चौरासी हजार प्रकीर्णक होते हैं ॥४७॥ 'ओहिनाणे दुबिहे' इत्यादि । ' सूत्रार्थ-अवधिज्ञान दो प्रकार का है- भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त ||४८ || तत्वार्थदीपिका - पहले विस्तार के साथ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्ररूपणा की गई, अब क्रमप्राप्त अवधिज्ञान के अनेक भेदों का निरूपण करते हैं દ્વીપસાગરપ્રજ્ઞપ્તિ ચંદ્રપન્નતિ સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્ત ક્ષુલ્લિકા વિમાન પ્રવિભક્તિ મહાવિમાન પ્રવિભક્તિ અંગચૂલિકા વચૂલિકા, વિવાહચૂલિકા અર્ણેાષપાત વર્ણેાપપાત ગરૂડપપાત ધરણાપપાત વૈશ્રમણેાપપાત વેલ ધરાપપાત દેવેન્દ્રીપપાત ઉદ્યાનસૂત્ર નાગપરિમાણિયા નિૉવલિકા કલ્પિકા કલ્પાવત`સિકા પુષ્પિકા પુષ્પચૂલિકા. વૃષણીદશા વગેરે ચાર્થાંશી હજાર પ્રકી : હાય છે, ॥ ૪૭ ૫ 'ओहिनाणे दुबिहे' त्याहि સૂત્રા–અવધિજ્ઞાન એ પ્રકારનુ’ છે ભાવપ્રત્યય અને ક્ષચેપશ્ચમનિમિત્તક ૫૪૮ા તત્ત્વાથ દીપિકા-—પહેલાં સવિસ્તર મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનની પ્રરૂપણા .४२वामां आवी, डुवे हुआ प्राप्त अवधिज्ञानना भने लेहानु नि३ रीमे छी. त० १०० Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वास्त्र दुविहे' इत्यादि । अवधिज्ञानम्-पूर्वोक्तस्वरूपं द्विविधं भवति तस्य खलु अवधिज्ञानस्य द्विविधत्वे हेतुमाह-भक्प्रत्ययक्षयोपशम निमित्तभेदतः, भवः प्रत्ययोनिमित्तं यस्य स भवप्रत्ययः अवहेकोऽवधिः । एवं क्षयश्च-उपशमश्चेति क्षयोपशमो तो निमित्तं यस्य स क्षयोपशमनिमित्तः खल्लु अवधिरुन्च्यते तत्र भवस्तावत् आयुर्नाम कर्मादयनिमित्तक आत्मनः परी: तन्निमित्त खल्पवधिज्ञान भवप्रत्ययिक देवालां-नाराणाञ्च भवति । -अवधिज्ञानवरणस्य देशघातिस्पर्द्धकानामुदये सति सर्वघातिस्पर्द्धकानासुदयामानः क्षयः, तथाविधानमेव स्पर्द्धकाना पूर्वोक्त स्वरूप बाला अवधिज्ञान दो प्रकार का है। अवधिज्ञान के दो प्रकार होने का कारण है अवरूप निमित्त और क्षयोपशामरूप निमित्त जिस अवधिज्ञान का कारण अब हो बामप्रत्यय और जिसका कारण क्षयोपशम हो वह क्षयोपशमनिमित्तक कहलाता है। आयुर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले पर्याय को भव कहते हैं। भव जिल. बाह्य कारण हो वह अवधिज्ञान भजप्रत्यय कहलाता है। यह देओं और नारकों को ही होता है, क्योंकि देवभव और नारकभव के निमित्त से उसकी उत्पत्ति होती है। जो अवधिज्ञान तपश्चरण आदि गुणों के योग से अवधिज्ञानावरण फर्म का क्षयोपशम होने पर उत्पन्न होता है यह क्षयोपशमनिमित्तक कहलाता है। वह अवधिज्ञान मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिय चों को होता है। अवधिज्ञानावरण फर्म के देशघाति स्पर्धकों का उदय उद्यागत सर्वघाति स्पर्धशों का क्षय और आगे उदय में आने वाले सर्वघात - પર્વોક્ત સ્વરૂપવાળું અવધિજ્ઞાન બે પ્રકારનું છે. અવધિજ્ઞાનનાં બે પ્રકાર હેવાનું કારણ છે. ભવરૂપનિમિત્ત અને ક્ષયોપશમરૂપનિમિત્ત જે અવધિજ્ઞાનનું કારણે ભવ છે તે ભવપ્રત્યય અને જેનું કારણ પશમ હોય તે ક્ષપશમનિમિત્તક કહેવાય છે. આયુષ્યકર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થનાર પર્યાયને ભવ કહે છે. ભવ જેમાં બાહ્ય કારણ હોય તે અવધિજ્ઞાન ભવપ્રત્યય કહેવાય છે. આ દે અને નારકેને જ થાય છે કારણકે દેવભવ અને નારકભવના નિમિત્તથી તેની ઉત્પત્તિ થાય છે. જે અવધિનાન તપશ્ચર્યા આદિ ગુણોના ચગથી અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મને શોપશમ થવાથી ઉત્પન્ન થાય છે તે ક્ષયોપશમનિમિત્તક કહેવાય છે. આ અવધિજ્ઞાન મનુષ્ય અને તિર્યચપંચેન્દ્રિયને થાય છે. અવધિજ્ઞાનાવરણુકર્મનાં દેશઘાતી સ્પર્ધકોને ઉદય, ઉદયગત સર્વધાતી સ્પર્ધકને ક્ષય અને આગળ ઉપર ઉદયમાં આવનાર સર્વઘાતી સ્પર્ધકોને Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.४८ अवधिज्ञानस्वरूपनिरूपणम् ७९५ मनुदयमाप्तानां सदवस्था-उपशमः, रूप कञ्च-कमजुद्गलशक्तीनां क्रमिक वृद्धिहासरूपम् तथाविध क्षयोपशमनिमित्तलवधिज्ञानं पविध देवनारकमिन्नानाम् उपशान्तक्षीणकर्मणां मनुष्यपश्चेन्द्रिय-तियोनिकानां भवति तथा च पक्वान्नाना मवधिज्ञानावरणीयकर्मणां क्षयेण विषाक्रमप्राप्तानामवधिज्ञानावरणीयकर्षणानुपशमेन चोत्पद्यमानमवधिज्ञानं क्षायोपशनिक व्यपदिश्य से । एवञ्च-एकं भवप्रत्यायिकं १ क्षायोपशमिकं षडावधम् आनुपातिकम् २ अनानुमाभिकम् ३ वर्धमानम्-४ हीयमानम् ५ प्रतिपाति ६ अप्रतिपाति च ७ इत्येवं सतविध तावद् सचमवधिज्ञानमवसे यम् ॥४८॥ तत्वानियुक्ति:-पूर्व खलु क्रमप्राप्त सम्परज्ञान विशेषरूपं मतिज्ञान-श्रुत ज्ञानश्च सविस्तरं मरूपितम्, सम्प्रति-क्रमप्राप्तमवधिज्ञान द्विविधत्वेन प्रतिपादयि. तुमाह-'ओहिनाणे दुबिहे, सम्बपञ्चय-वोचसनिमित्तभेषाओ' इति अवधिज्ञान बावत् पूर्वोक्तस्वरूपं द्विविध भवति तस्य द्विविधत्वे हेतुमाह-भवप्रत्य क्षयोपशमनिसेतभेदतः। तत्र-भवः आयुनाम कर्मोदयनिमित्तक आत्मनः पर्यायः तथाविधा मनः मत्ययः हेतु स्य तत्-सवात्ययम् अवधिज्ञालम् । एनं क्षयश्वो स्पर्द्धको का उपशाम हो त अवधिज्ञान का क्षयोपशान होता है । क्षयो. पशम अवधिज्ञान छह प्रकार का है-(१) आनुगामिक (२) अनानुगामिक (३) वर्धमान (४) हीयवान (५) प्रतिपाति और (६) अप्रतिपाती ॥४॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले सस्यज्ञान विशेष प्रतिज्ञान और श्रुतज्ञान की विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की गई, अब क्रमप्राप्त अवधिज्ञान के दो भेदों की प्ररूपणा करते हैं पूर्वोक्त स्वरूप वाला अवधिज्ञान दो प्रकार का है- भवप्रत्यय और क्षयोपशम प्रत्यय । उसके दो भेद होने के कारण यह है कि वह भव रूप निमित्त से और क्षयोपशव्य रूप निमितले उत्पन्न होता है। ओयकर्म के उद्य से होने वाला आत्मा का पर्याय सक कहलाता है। वह ઉપશમ થાય ત્યારે અવધિજ્ઞાનને ક્ષયે પશમ થાય છે. ક્ષપશમનિમિત્તક અવા विज्ञान छ ४२ छ (१) मानुगाभिः (२) मनानुभि (3) भान (४) डीयमान (य) प्रतिपाती २ (6) प्रतिपाति. ॥ ४८ ॥ તત્ત્વાથ નિક્તિ -પહેલા સમ્યફજ્ઞાન વિશેષ મતિજ્ઞાન અને શ્રતજ્ઞાનની વિસ્તારપૂર્વક પ્રરૂપણ કરવામાં આવી હવે કમપ્રાપ્ત અવધિજ્ઞાનનાં બે ભેદની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ પૂર્વોક્ત વરૂપવાળું અવધિજ્ઞાન બે પ્રકારનું છે ભવ પ્રત્યય અને પશમપ્રત્યય. જેના બે ભેદ હોવાનું કારણ એ છે કે ભવરૂપ નિમિત્તથી અને ક્ષપશમ રૂપનિમિત્તથી ઉત્પન્ન થાય છે. આયુષ્યકર્મના ઉદયથી થના આત્માને પર્યાય જાવ કહેવાય છે. આ લવ જેમાં બાહ્ય કારણ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९६ तत्वार्थ पशमश्चति क्षयोपशमौ लौ निमित्तं यस्य तत् क्षयोपशमनिमिन अवधिज्ञान पविधं भवति । तत्र क्षयस्तावत्-अवधिज्ञानावरणस्य देशघाति स्पद्धशाना मुइयेसति सर्व.. घाति स्पर्द्धकानामुदयाभावरूपः । उपशमस्तु-तथाविधानामेच स्पर्द्धकानामुदयमाप्तानां सदवस्थारूपः। स्पर्द्धकञ्च कमपुद्गलशक्तीनां क्रमिकवृद्धिहासरूपं बोध्यम् तथाचैकं भवप्रत्ययिकम् १ क्षयोपशामिकं पविधम् । आनुगामिकम् २ अनानुगामिकम् ३ वर्द्धमानम् ४ हीयमानम् ५ प्रतिपाति ६ अमतिपाति चेत्येवं सर्व सप्तविधं तावत् अवधिज्ञानमदसेयम् । तत्र-मनमत्ययिकमवधिज्ञान देवानां नारकाणाञ्च भवति । क्षयोपशमनिमित्तकञ्च-पइविधमनधिज्ञान मनुष्याणां पञ्चेभत्र जिसमें बाह्य करण हो वह अवधिज्ञान भवत्यय कहलाता है। जिस अवधिज्ञान में क्षयोपशम ही प्रधान कारण हो वह क्षयोपशमनिमित्तक था क्षयोपशम प्रत्यय कहलाता है । क्षयोपशमनिमित्तक अवधि ज्ञान छह प्रकार का है। ., अवधिज्ञानावरण कर्म के देशाचालक स्पर्धा का उद्घ हो, उदय में आये हुह सर्वघातक स्पर्धक्कों का क्षय हो और आगे उदय में आने काले स्पर्धकों का उपशम हो, तय अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशमः होता है। क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान के छह भेद है-(१) आनुमामिक (२) अनानुगामिक (३) बर्द्धमान (४) हीयमान (५) प्रतिपाति और (६) अप्रतिपाति । इल भदों में यदि अयप्रत्यय को सम्मिलित कर दिया जाय तो सान्द सेन कहे जा सकते हैं। - भवप्राययिक अवधिज्ञान देवों और नारकों को हो । क्षयोपशभनिमित्तक उन संज्ञी मनुष्यों और पञ्चेन्द्रिय हियों को होता है હેય તે અવધિજ્ઞાન ભવ પ્રત્યય કહેવાય છે. જે અવધિજ્ઞાનમાં ક્ષોપશમ જ પ્રધાન કારણ હોય તે પશમનિમિત્તક અથવા ક્ષપશપ્રત્યય કહેવાય છે. પશમનિમિત્તક અવધિજ્ઞાન છ પ્રકારનાં છે. - અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મના દેશઘાતક સ્પર્ધકોને ઉદય થાય, ઉદયમાં આવેલા સર્વઘાતક સ્પર્ધકેના ક્ષય થાય અને આગળ ઉપર ઉદયમાં આવનારા સ્પર્ધકને ઉપશમ થાય ત્યારે અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મને ક્ષય થાય છે ક્ષપશમનિમિત્તક અવધિજ્ઞાનનાં છ ભેદ છે (૧) આનુગામિક (૨) मनानुभि४ (3) भान (४) डीयमान (५) प्रतियाती मते (6) मप्रतिपाती આ દેશમાં જે ભવ પ્રત્યયને મેળવી દેવામાં આવે તે સાત ભેદ કહી શકાય. ભવ પ્રત્યઈક અવધિ જ્ઞાન દેવો અને નારકને થાય છે મનિમિત્તક તે સંસી મનુષ્ય અને તીર્થંચ પંચેનિદ્રાને થાય છે. કે જેઓએ અવધિજ્ઞાના Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ लू.४८ अवधिशामस्वनपनिकपणम् ७२७. न्द्रियतिर्यग्योनिकालाञ्चोपशान्त क्षीणकर्मणां गवतीतिमावः । तथा च-एक्वालाम्अवधिज्ञानावरणीय कर्मणां क्षण, विषाक्रमवाप्तानाम् अवधिज्ञानावरणीय कर्मणामुपशमेन चोत्पद्यमालमवधिज्ञान क्षायोपशामिकं व्यपदिश्यते । उक्तञ्च स्थानाङ्गे २ स्थाने १ उद्देशके ७१ छो-दोण्हं भवपच्चइए पण्णत्ते, तं जहा देवाणंचेव, नेरइयाण चेव इति । द्वयोर्भव प्रत्यायिका प्रज्ञप्ता, देवानाश्चैव-नारकाणाश्चा, इति । नन्सूित्रो चोक्तम्-'से कि तं भवपच्चइअं ? दुण्हं, तं जहा-देवाणघ नेरइयाणथ' इति, अष किं तत् भवपत्यायिकम् ? द्वयोः तद्यथा-देवानाञ्च नैरयिकाणाच इति, । पुनश्च-स्थानाङ्गे २ स्थाने १ उद्देशके. ७१ सूत्रो-'दोण्हं खओक्सलिए पाते तं जहा-अणुस्वाण चेष पंचिंदिजिन्होंने अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम किया हो । यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि भषप्रत्यय अवधिज्ञान के लिए भी क्षयोपशम होना अनिवार्य है, क्योंकि अवधिज्ञान क्षयोपशामिक भावों में परिणत है, अतएव क्षयोपशम के बिना उलशी उत्पत्ति नहीं हो सकती, फिर भी उसे भवप्रत्यय कहने का कारण यह है कि अब अर्थात् देवभव और नरकभव का निमित्त पाकर अधिज्ञान का क्षयोपशान अवश्य हो जाता है। इस प्रकार बाह्य झारण की प्रधानता से अवप्रत्यय कहा है । स्थानांगसूत्र द्वितीय स्थान, प्रथम उद्देशक के ७१वें सूत्र में कहा है'देव और नारक इन दो प्रकार के जीयों को अवाप्रत्यधिक अवधिज्ञान होता है। नन्दीसूत्र में भी कहा है-'असमायिक अवधिज्ञान किसे होता हैं ? दो को होता है-देशों और नारकों को पुनः स्थानांगसूत्र के द्वितीय स्थानक, प्रथम उद्देशक के ७१ वे सूत्र में कहा है-दो प्रकार વરણ કર્મને પશમ કર્યો હોય અત્રે એ ધ્યાનમાં રાખવું જોઈએ કે ભવપ્રત્યય અવધિજ્ઞાન માટે પણ ક્ષપશમ થવું અનિવાર્ય છે. કારણકે અવધિજ્ઞાન ક્ષયપથમિક ભાવોમાં પરિણત છે. આથી ક્ષ પશમ વગર તેની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી, તે પણ તેને ભવપ્રત્યય કહેવાનું કારણ એ છે કે ભવ અર્થાત દેવભવ અને નરભવનું નિમિત્ત પામીને અવધિજ્ઞાનને ક્ષપશમ અવશ્ય જ થઈ જાય છે. આ રીતે બહા કારણની પ્રધાનતાથી એને ભવપ્રત્યય કહેલ છે. - સથાનાંગસૂત્ર દ્વિતીય સ્થાન પ્રથમ ઉદ્દેશકના ૭૧માં સૂત્રમાં કહ્યું છે “દેવ અને નારક આ બંને પ્રકારના છને ભવ પ્રાઈડ અવધિજ્ઞાન થાય છે” નન્દીસૂત્રમાં પણ કહ્યું છે ભવપ્રત્યઈ અવધિજ્ઞાન કેને થાય છે? દેને અને નારકાને એમ બેને થાય છે. પુનઃ સ્થાનાંગ સૂત્રમાં દ્વિતીય સ્થાન પ્રથમ ઉદ્દેશકના ૭૧ માં Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस यतिरिक्ख जोणियाणं चेव इति द्वयोः क्षापोपशमिकः प्राप्तः, तद्यथा-मनु. ज्याणाश्चैव पश्चन्द्रियातयंग्योनिकानाचव, इति । तदने च स्थानाङ्गे ६ स्थाने ५२६ सूत्रो चोक्तम्-'छव्धिहै ओहिनाणे पण्णते तं जहा अणुगामिए १ अणाणुगाम्लिए ३ दट्टमाणए ३ हीयमाणए ४ पडिदानी ५ अपडिवाती' उनि, पविधमवधिज्ञानं प्रजप्तम्, तद्यथा-आनुगामिकम् १ अनानुगामिकम् २ वर्द्धमानम् ३ हीयमानम् ४ प्रतिपाति ५ अप्रतिपाति ६ इति । एवं नन्दिसूत्रे ८ सूत्रो चोक्तम्-'किं तं खाओचमिअं ? खाओवममि दुहं तं जहा =मणुस्लाणय-पंचिदिनिरिक्ख जोणियाणय. को हेज खामोपसमिअं? खामोशायमिनावरणिजाणं कमाणं उदिण्णाणं खएणं अदिणाणं उबलमेणं ओहिलाणं हपज्जा' इति अघ किं तत् क्षायोपशमिकम् ? क्षायोपामिर्क द्वयोः, तद्यथा-मनुष्याणाश्च पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकानाञ्च, किं हेतु क्षायोपशामिकम् ? क्षायोपशषिकं तदावरणीयानां कर्मणाम् उदीर्णानां क्षयेण, के जीयों को क्षयोपशम अवधिज्ञान कहा गया है-मनुष्यों को और पंचेन्द्रिय तियं चों को, इससे आगे स्थानांग के छठे स्थान के ५३६ सूत्र में कहा है-'अवविज्ञान छह प्रकार का कहा गया है, यथा-(१) आनु. गामिक (२) अनानुगामिक (३) बर्द्धमान (४) हीयमान (५) प्रतिपाति और (६) अपतिगति ।' नन्दीसत्र के आठवें सूत्र में कहा है-'क्षायोपशम अघधिज्ञान झिसे होता है ? क्षायोपशमिक अवधिज्ञान दो को होता है-मनुष्यों को और पंचेन्द्रिय तिर्य चों को। इलेक्षायोपशमिक कहने का क्या कारण है ? उड्य में आये हुए अवधिज्ञानावरणीय कर्मों के क्षय से लया जो उदय में नहीं आए है उनके उपशाम से वह अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, अनएव क्षायोपशसिक कहा जाता है। સૂત્રમાં કહ્યું છે બે પ્રકારના જીને ક્ષાપશમિક અવધિજ્ઞ ન કહેવામાં આવ્યું છે. મનુષ્યને અને પંચેન્દ્રિય તિયાને આથી આગળ સ્થાનાંગના ૬ઠા સ્થાન ના પરના સૂત્રમાં કહ્યું છે અવધિજ્ઞાન ૬ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. २वा (१) मानुमि (२) मनानुभि (3) व मान (४) डीयमान (4) પ્રતિપાતી (૬) અપ્રતિપાતી નન્દીસૂત્રના ૮માં સૂત્રમાં કહ્યું છે ક્ષાપશમિક અવધિજ્ઞાન કેને થાય છે? શાપથમિક અવધિજ્ઞાન બેને થાય છે. મનુષ્યને અને પંચેન્દ્રીય તિર્ય ને આને ક્ષાપશમિક કહેવાનું કારણ શું છે? ઉદયમાં આવેલા અવધિજ્ઞાનાવરણીય કર્મોનો ક્ષયથી તથા જે ઉદયમાં આવ્યા નથી. તેમના ઉપશમથી આ અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. આથી ક્ષાપશમિક કહેવાય છે, Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ १.४९ मनःपवज्ञानस्य द्वैविध्यनिरूपणम् ७९९ अनुदीर्णानाम् उपशमनाऽधिज्ञान समुत्पद्यते, इति प्रज्ञापनायां ३३ पदेतु-क्षायोपशमिकावधिज्ञानस्या-ऽवस्थिता-ऽनवस्थित भेदद्वयमपि अधिक-मुक्तम् ॥४८॥ मलम्-मणपज्जवनाणे दुविहे, उज्जुबईविउलमईय ॥४९॥ छाया-मनापर्यवज्ञान विविधम् ऋजुमति-विपुलमति च ॥४९॥ तत्वार्थदीपिक्षा-पूर्व लावत्-अधिज्ञान सविस्तरं प्ररूपितम् सम्प्रति-मनः पयंत्रज्ञान द्वैविध्येन प्ररूपयितुमाह-गणपज्जयनाणे दुछि हे' इत्यादि मनः पर्यवज्ञानम् पूर्वोक्तदरूपं द्विविधं भवति, तपथा- ऋजुमतिः विपुलसतिश्च. तत्र ईर्ष्यादीनां ज्ञानमतिबन्ध की भूतानां मनोगताना मन्तरायाणां सम्यग्दर्शनेन सति क्षये वोपशमे सर्वे मनसो परस्परं भेद प्रतिमासाभावेन परमनोगतोऽप्यों येन ज्ञायते तज्ञानं मनः पर्यवज्ञानपदेन व्यपदिश्यते । मनःशब्देनाऽत्र मनोगतोऽर्थों . प्रज्ञापना सूत्र के ३३ ३ पद में क्षायोपमिक ज्ञान के अवस्थित और अनवस्थित भेद कहे हैं ॥४८॥ 'मणपज्जवनाणे दुविहे' इत्यादि। सूत्रार्थ-मनापर्यवज्ञान दो प्रकार का है- ऋजुमति और विपुलमति ॥४९॥ तत्वार्थदीपिका-पहले अवधिज्ञान का विरतार सहित निरूपण किया गया, अब मनापर्यवज्ञान के दो भेदों की भरूपणा घारते हैं मनःपर्थवज्ञान का स्वरूप पहले कहा जा चुका है। उनके दो भेद है-ऋजुमति और विपुलमति। मन पर्यवज्ञानावरण एवं वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम ले परकीय मनोगत साचों पर्यायों को प्रत्यक्ष जानने बाला ज्ञान बनापर्यव शासन पर्ययज्ञान कहलाता है । यहां 'मन' शब्द પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના ૩૩ માં પદમાં ક્ષાપશમિક જ્ઞાનના અવસ્થિત અને અનવસ્થિત ભેદ કહ્યા છે કે ૪૮ ! 'मणपज्जवनाणे दुविहे' त्यादि સત્રાથ–મન:પર્યવજ્ઞાન કેટલા પ્રકારના છે અને ત્રાજુમતિ અને વિપુલમતિ.જલા તત્ત્વાથદીપિકા-પહેલા અવધિજ્ઞાનનું સવિસ્તર નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે મન:પર્યવજ્ઞાનના બે ભેદની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ. મન:પર્યવજ્ઞાનનું સ્વરૂપ પહેલાં કહેવાઈ ગયું છે તેના બે ભેદ છે. જુમતિ અને વિપુલમતિ, મન પર્યજ્ઞાનાવરણ અને વર્યાન્તરાય કર્મના સાપશમથી પરકીય મનોગત ભાવે પર્યાને પ્રત્યક્ષ જાણુતાર જ્ઞાન મનઃ પર્યાવ અથવા મન:પર્યવજ્ઞાન કહેવાય છે. અહીં “મન” શબદથી મને ગત પર્યાય Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 100 तत्त्वार्थ लक्ष्यते, तस्य मनोगतस्यार्थस्य पर्यवर्ण मनोन्तरेषु परिगमन भवतीति मनः पर्यवः-मनापर्ययोपोच्यते । परितः अदनम् अयन वा सनापर्यवः मनापर्ययोवेति व्युत्पत्तिा, तत्र-ऋज्वीमतियस्मिन् तर मजुमति मनापर्यव. ज्ञान मुच्यते । दिपुला मतियसिंह स्तद् विपुलमति सतापर्यज्ञान मुच्यते, तत्र ऋजुमत्यपेक्षगा विपुलमति मनापर्यज्ञानम् अधिकं विशुद्धं भवति । अप्रतिपाति च-भवति, चारिमा दपतनशीबवाद अप्रतिपाति पपदिश्यते, अखए-नाजुमति मनापर्यवज्ञान प्रतिपाति भवति, भूयः परिपतत्यपि, विलसति मनः५ र्यवज्ञानन्तु. न कदाचिदपि प्रतिषततीति भावः । एन अनधिज्ञानापेक्षयाऽपि मनापर्यवज्ञान विशुद्धतरं भवति, एकञ्च-विशुद्धिकृतः क्षेत्रकृतः रवारिकृतः विषयकृतश्च मनः पर्यवज्ञानस्य अवधिज्ञानापेक्षया विशेषो द्रष्टव्यः । तथा च विपुलमति लापर्यवसे मनोगत पर्याय समझना चाहिए। दूसरे के मन के पर्यायों को जो ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से जानता है, उस्ले मनापर्यवज्ञान कहते हैं। जिसमें मति ऋजु-सरल या साधारण हो वह ऋजुपति और जिसमें मति विपुल हो वह विपुलमति कहलाता है। ऋजुभति की अपेक्षा विपुल मतिज्ञान अधिक विशुद्ध होता है। इसके अतिरिक्त दोनों में दूसरा अन्तर प्रतिपालि-अप्रतिपाति का होता है । ऋजुमतिज्ञान प्रतिपाति है अर्थात् उत्पन्न होकर नष्ट भी हो जाता है, मगर विपुलनति अप्रतिपाति है अर्थात् वह एक घार उत्पन्न होकर केवलज्ञान की उत्पत्ति होने तक नष्ट नहीं होता। इस प्रकार ऋजुमति और विपुलसति में विशुद्धि और अप्रतिपात से अन्तर है। ___ अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान में विशुद्धि. क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा अन्तर है। સમજ જોઈએ બીજાના મનના પર્યાને જે જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ રૂપથી જાણે છે. તેને મન:પર્યવ જ્ઞાન કહે છે. જેમાં મતિ ઋજુ સરલ અથવા સાધારણ હોય તે ત્રાજમતી અને જે મતિ વિપુલ હોય તે વિપુલમતિ કહેવાય છે. જુમતિની અપેક્ષા વિપુલમતિ જ્ઞાન અધિક વિશુદ્ધ હોય છે. આ સિવાય બંનેમાં બીજો તફાવત પ્રતિપાતિ અપ્રતિપાતીનો છે ઋજુ અતિ પ્રતિપાતી અર્થાત્ ઉત્પન્ન થઈને નષ્ટ પણ થઈ જાય છે. પરંતુ વિપુલમતિ અપ્રતિપાતી છે અર્થાત્ તે એકવાર ઉત્પન્ન થઈને કેવળજ્ઞાન ઉત્પત્તિ થતા સુધી નાશ પામતું નથી આ રીતે જજુમતિ અને વિપુલમતિમાં વિશુદ્ધિ અને અપ્રતિપાતથી તફાવત છે અવધિજ્ઞાન અને મન પર્યાવજ્ઞાનમાં વિશુદ્ધિ ક્ષેત્ર સ્વામી અને વિષયની अपेक्षा २ छे. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८.४९ मनःपर्थवज्ञानस्थ वैविध्यनिरूपणम्... ज्ञाने प्राप्ते सति उपशमणिलध्वैय क्षएकश्रेण्यारूढो भूत्वा क्रमश श्चत्वारि 'मोहनीय ज्ञानावर दर्शनावरपात्तरायरूपघातिकर्माणि विनाश्य केवलज्ञान माप्य मोक्षमासादति । असहर विषुळ पति मनःपर्यवज्ञानी चारित्राद न कदाचित् परिधशते, किन्तु-ऋजुपति मनापर्यत्रज्ञानी अप्रमत्तसंयतः कदाचित चारित्रात् परिभ्रमाते पकवाचिच्चन परिभ्रंशते यतोहि-ऋजुमतिः सार्द्ध द्वयां अंगुलप्रमाणहीनं पश्यति-जानाति विपुलपतिश्च लाई द्वयां अंगुलप्रमाणाधिक पश्यति-जानातिविवेकः ॥४९॥ लस्वार्थ नियुक्ति :--पूर्व तावत् क्रमासमवधिज्ञान सचिरतरं मलपितम् सम्पति-क्रमागतं मनायवज्ञान वैविध्येन मरूपयितुमाह-मणपजनाणे दुबिहे उज्जुलह-विलमय इति मनःपर्यवज्ञान पूरी तस्वरूपं द्विविधम्म_ जो अनि विपुलमति मनापर्यवज्ञान प्राप्त करता है, यह क्षपक्षश्रेणी पर भारुढ होकर क्रमशः मोहनीध, ज्ञानाबरण, दर्शनावरण और अन्त. राय, इन चार धातिधा कों का क्षक कार के नियम ले केवलज्ञान का स्वामी होला है और मोक्ष प्राप्त करता है। किन्तु जुमति के संबंध में यह बात नहीं, वह उत्पन्न होकर नष्ट भी हो जाता है। ___मनापर्यवज्ञान अबाई द्वीप स्थित संज्ञी जीवों के मनोभावों को जानता है, किन्तु ऋजुमति, विपुलमति की अपेक्षा अढाई अंगुल कम जानता है ॥४९॥ ___ तत्त्वार्थनियुक्ति--पहले क्रममा अवधिज्ञान का विस्तृत निरूपण किया गया, अन्य क्रमागत मनःपर्यवज्ञान के दो लेदों की प्ररूपणा करते हैं જે મુનિ વિપુલમતિ મન ૫ર્યાવજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે છે. તે ક્ષપકશ્રેણી પર ચઢીને ક્રમશઃ મોહિનીય જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ અને અંતરાય આ ચાર ઘાતિ કર્મોનો ક્ષય કરીને નિયમ મુજબ કેવળજ્ઞાનને સ્વામી બને છે અને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે. પરંતુ રાજુમતિના સંબંધમાં આ હકીકત નથી, તે ઉત્પન્ન થઈને નષ્ટ પણ થઈ જાય છે. મન:પર્યવજ્ઞાન અઢીદ્વીપમાં સ્થિત સંત્તી ઇવેના મનભાવને જાણે છે. પરંતુ અજુગતિ, વિપુલમતિની અપેક્ષા અઢી આગળ ઓછું જાણે છે. ૧૪ તત્વાર્થનિયુકિત-- પડેલા કમપ્રાપ્ત અવધિજ્ઞાનનું વિસ્તૃત નિરૂપણ કર્યું. હવે કમાગત મન:પર્યવજ્ઞાનને બે ભેદની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ. त० १०१ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ arties वति, ऋजुमति - विपुमतिचेति, तत्र ऋज्वीमतिर्यस्मिन् तत् ऋजुमति मनःपर्यव ज्ञानम् । एवं विपुला मविस्मिन् तत् विपुलमति-मनः पर्यवज्ञान मुच्यते तथाचेयदीनां ज्ञानप्रतिबन्धकानां मनोगतानामन्तरायकर्म विशेषाणां सम्यग्दर्शनेन क्षये-उपशमे वा जाते सति सर्वेषां मनसां परस्परं भेदप्रतिभालाभावेन परमनोstrर्थी येन ज्ञायते तज्ज्ञानं मन:पर्ययज्ञानपदेनोच्यते । मनःशब्देनात्र मनोगतो पलक्ष्यते, तस्य खलु मनोगत्स्वार्थस्य पर्यवणं- पर्ययणं वनोन्तरेषु परिगमनं भवतीति मन:पर्यय इत्युच्यते । तत्र ऋजुमति प्रतीक्ष्याऽपेक्ष्य विपुलमति मन:पर्यवज्ञानमधिकं विशुद्धं भवति । एष - ऋजुनस्यपेक्षया विपुलमति - अप्रतिपाति चापि भवति चारिशदपतनशीलत्वात् अमतिपाति व्यपदिश्यते । तथा च मनः पर्यवज्ञान का स्वरूप पहले कहा जा चुका है। उसके दो भेद है - ऋजुत्रति और विपुलप्रति । जिसमें मति ऋजु अर्थात् सरल हो वह ऋजुमति मनःपर्य बज्ञान कहलाता है । जिसमें मति विपुल हो वह विपुलमति है । मनःपर्य ज्ञानावरण एवं बिधन्तराध कर्म के क्षयोपशम से परकीय मनोगत भावों-पर्यायों को प्रत्यक्ष रूप से जानने वाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। यहां 'मन' शब्द से मनोगत 'अर्थ' समझना चाहिए। जिस ज्ञान से मनोगत अर्थ जाना जाता है, वह मनः पर्यवज्ञान है । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमतिज्ञान अधिक विशुद्ध होता है। इसके अतिरिक्त विपुलमति अतिपाति है जब कि ऋजुमति प्रतिपाति है । जो एक बार उत्पन्न होकर केवलज्ञान की उत्पत्ति तक नष्ट न हो वह अमपाती कहलाता है और जो पहले ही नष्ट हो जाए वह प्रतिपाति कहलाता મન:પર્યવજ્ઞાનનું સ્વરૂપ પહેલાં કહેવાઈ ગયુ છે. તેના એ ભેદ છે. ઋજુમતિ સ્મૃને વિપુલમતિ. જેમાં મતિ, ઋજુ અર્થાત્ સરળ છે, તે ઋજુમતિ મનઃવજ્ઞાન કહેવાય છે. જેમાં મતિ વિપુલ છે; તે વિપુલસ્રતિ મન:પવ જ્ઞાનાવરણ અને વીર્યાન્તરાય ક્રર્માંના ક્ષયાપશમથી પરકીય મનેાગત ભાવે પાઁચાને પ્રત્યક્ષ રૂપથી જાણનાર જ્ઞાન મન:પર્યવજ્ઞાન કહેવાય છે. અહી 'મન' શબ્દથી મનેાગત અથ સમજવા જોઈએ. જે જ્ઞાનથી મનેાગત અ लागी शाय छे, ते मनःपर्यवज्ञान छे. ઋજુમતિની અપેક્ષા વિપુલમતિ જ્ઞાન અધિક વિશુદ્ધ હૈાય છે. આ સિવાય વિપુલમતિ અપ્રતિપાતી છે જ્યારે ઋજુમતિ પ્રતિપાતી છે, જે એકવાર ઉત્પન્ન થઈને કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ સુધી નષ્ટ ન થાય તે પ્રતિપાતી કહેવાય છે. Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.४९ मन:पर्यवज्ञानस्य विध्यनिरूपणम् ०३ वाक्काय मनस्तार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात् निवतिता पश्चाद् व्यावर्तिता चालिता व्याघोटिता मतिः ऋजुपति रुच्यते । तथाविधान विज्ञानात् न निवतिता न पश्चाद् व्यावर्तिता न चालिता-न व्याघोटिता मतिः विपुलमति रुच्यते एवञ्च-विपुलमति मनःपर्यवज्ञाने प्राप्ते सति-उपशम श्रेणीमबद्धवैव क्षपक श्रेण्यारूढो भवति बतश्च क्रमशश्वत्वारि घातिकर्माणि मोहनीयज्ञान दर्शनावरणान्तराय रूपाणि विश्वस्य मोक्ष प्राप्नोति । अतएक-विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी चारित्रान्न कदाचित् परिभ्रशते, ऋजुमति मनापर्यवज्ञानीतु-अप्रमत्तसंयतः चारित्रात्कदाचित् परिभ्रंशले-कदाचिन्नापि परिभ्रंशते इतिभावः । एवं मनःपर्यवज्ञानम्अवधिज्ञानापेक्षया विशुद्धतरं भवति तथा च-विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयकता खलु विशेषोऽअधिज्ञानापेक्षया मनःपर्यवज्ञानेऽदान्तव्यः । तथाचाऽवधिज्ञानस्यहै। ऋजुमति प्रतिपाती और विपुलमति अप्रतिपाती है । इस प्रकार वचन, हाथ और मन के हारा कृत, परकीय मनोगत सरल भाव को जानने वाला ऋजुप्रति मनःपर्य ज्ञान है और उल प्रकार के विज्ञान से जो निवर्तित कम हो, पश्चात् व्यावर्तित न हो, चालित न हो, व्याधोटित न हो, वह पिपुलमति ज्ञान कहलाता है। विपुलपति मनापर्यव ज्ञान की प्राप्ति होने पर मुनि सीधा क्षपक श्रेणी पर आरूढ होता है और पहले मोहनीय कर्म को तथा अन्तर्मु. हुर्त के पश्चात् एक साथ तीन शेष घातिया कनों को क्षय फरके केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। ___अवधिज्ञान की अपेक्षा सनापर्यवज्ञान अधिक विशुद्ध होता है। इन दोनों ज्ञानों में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयले अन्तर पड़ना અને જે પહેલાંજ નાશ પામે તે પ્રતિપતિ કહેવાય છે. બાજુમતિ પ્રતિપાતી અને વિપુલમતિ અપ્રતિપાતી છે. આ રીતે વચન, કાય અને મન દ્વારા શ્રત, પરકીય મને ગત સરળભાવને જાણનારૂં જુમતિ મનપર્યવજ્ઞાન છે અને એ પ્રકારના વિજ્ઞાનથી જે નિવર્તિત ન હોય, પશ્ચત્ વ્યાવર્તિત ન હોય, ચાલિત ન હોય, વ્યાઘટિત ન હોય તે વિપુલમતિ જ્ઞાન કહેવાય છે. વિપુલમતિ મન:પર્યવજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થવાથી મુનિ સીધો ક્ષેપક શ્રેણી પર આરૂઢ થાય છે. અને પહેલા મેહનીય કર્મનો તથા અન્તમુહર્તા પછી એકી સાથે ત્રણ શેષ ઘાતિ કર્મો ખપાવીને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી લે છે, અવધિજ્ઞાનની અપેક્ષા મન:પર્યવજ્ઞાન અધિક વિશુદ્ધ હોય છે. આ બને જ્ઞાનમાં વિશુદ્ધિ ક્ષેત્ર સવામી અને વિષયથી ભેદ થાય છે. અવધિજ્ઞાનને Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थस्से क्षेत्र लोकत्रयम्, मनापर्यवज्ञानस्य क्षेत्रं तु केवलं मध्यलोक एव, तत्रापि-सार्द्धद्वीपद्वयम्, तत्रापि-यत्र केवलं चतुर्थकाला तत्सन्धि वा भवति, तथाविध कर्मभूमिबोध्या। एवमधिज्ञानस्य स्वामी चतसृष्वपि नरक-देव-मनुष्य-तिर्यग्गतिषु भवति मनापर्यवज्ञानस्य स्वामीतु-विरल एव भवति । तथाहि-मनापर्यवज्ञान केवलं गर्भजमनुष्याणामेव भवति तत्र कर्मभूमिजातानामेव तत्रापि-संख्येयवायुपामेव नाऽप्यकर्मभूमिजानाम्, न वा-ऽसंख्येयवर्षायुपाम्, तत्रापि पर्याप्तकानामेव-नाऽ. है। अवधिज्ञान का विषय, क्षेत्र की अपेक्षा, सम्पूर्ण लोक है, अर्थात् लोक में विद्यमान समस्त रूपी पदार्थ को वह जान सकता है। यही नहीं, परमावधिज्ञान में तो इतना साप होता है कि वह आलोक में लोकाकाश के घराघर-घराघर के असंख्यात खंडों को भी जान सकता है, मगर अलोक में रूपी पदार्थ होते नहीं हैं अतएव वह जानता भी नहीं है। मनःपर्यवज्ञान का क्षेत्र सिर्फ मनुष्यलोक अर्थात् अढाई द्वीप है। . स्वामी की अपेक्षा विचार किया जाय तो अवधिज्ञान के स्वामी चारों गलियों के जीव होते हैं, वह नारकों, देवों और तीर्यचों को भी होता है । मनःपर्यवज्ञान विरल मनुष्यों को ही होता है, यथा-वह केवल गर्भज मनुष्यों को होता है, उनमें से सी केवल शर्मभूलिजों को ही होता है, उनमें संख्यात वर्ष की आयु बालों को ही होता है, न अकर्मभूमिज मनुष्यों को होता है और न अलंख्यात्त वर्ष की आयु वालों को । संख्यात्त वर्ष की आयु बालों में भी पर्याप्तको को और વિષય ક્ષેત્રની અપેક્ષા સંપૂર્ણ લોક છે. અર્થાત્ લોકમાં વિદ્યમાન સઘળા રૂપી પદાર્થોને તે જાણી શકે છે. એટલું જ નહિ પરમાવધિ જ્ઞાનમાં તે એટલું સામર્થ્ય હોય છે કે તે અલકમાં કાકાશની બરાબર બરાબરના અસંખ્યાત. ખંડેને જાણી શકે છે. પરંતુ અલકમાં રૂપી પદાર્થ હોતા નથી આથી તે જાણ પણ નથી. મને પર્યવ જ્ઞાનનું ક્ષેત્ર કેવળ મનુષ્યલક અર્થાત અહીદ્વીપ છે, સ્વામીની અપેક્ષા વિચાર કરવામાં આવે તે અવધિજ્ઞાનના સ્વામી ચાય ગતિઓના જીવ હોય છે. તે નાર દે મનુષ્યો અને તિયાને પણ થાય છે. મન:પર્યવ જ્ઞાન વિરલ મનુષ્યને જ થાય છે. જેમકે તે કેવળ ગર્ભ જ મનુષ્યને થાય છે. તેમાં પણ કેવળ કર્મભૂમિને જ થાય છે. તેમાંથી પણ સંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળાઓને જ થાય છે. ન તો અકમ મિ જ મનુષ્યને થાય છે કે ન અસંખ્યાત વર્ષના આયુષ્યવાળાઓને સંખ્યાત વર્ષના આયુષ્યવાળાઓમાં પણ પર્યાપ્તને અને તેમાં પણ સમ્યક Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.८ स्कू.४९ मनःपर्यवज्ञानस्य द्वैविध्यनिरूपणम् ८०५ पर्याप्तानाम्, तत्रापि सम्यग्दृष्टीनामेव नाऽसम्यग्दृष्टीनाम्, तत्रापि ऋद्धिमाप्तानामेव भवतीतिभावः ॥ एवम्-अवधिज्ञान विषयीभूतस्य रूपि द्रव्यस्याऽनन्ते सूक्ष्मे भागे मनःपर्यवज्ञानस्य वृत्तिर्भवति, तथा च-यद् द्रव्यं खलु अवधिज्ञान जानाति तस्मादपि अनन्तभागं सूक्ष्मपदार्थ मनापर्यवज्ञान जानातीति बोध्यम् । उक्तश्च नन्दिसूत्रे १८ सूत्रे 'उज्जुमईणं अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासह ते चेव विउलमई अब्भहिथत्तराए विउलतराए विस्लुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ, खेत्तीर्ण उज्जुपई य जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग, उक्कोलेणं अहे जाव ईभीसे रयणप्पभाए पुढवीए उचरिमडिल्ले खुड्डगपयरे उड़ जाच जोहलस्स उवरिमनले लिरिय जाव अतो मणुस्साखित्ते अडाइज्जेलु दीवस मुद्देस्तु पण्णरस कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीतु छप्पणए अंगरदीवणेलु सपणीणं पंचिंदियार्ण पज्जत्तयाणं भावे जाणइ-पासइ, तं चेव विउलमह अदइज्जेहिं अंगुलेहि अम्भहियतरं विउलतरं विसुद्धतरं चितिभिरतरागं खेत्तं जाण-पासह कालओणं उज्जुमइ जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखिज्जाभार्ग, उक्कोसेणं वि पलिओवमस्त असंखिजहभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ, तं चेव विउलमा अमहियतरागं विसुद्धतरागं चितिमिरतरागं जाणइ, पासइ, भावओ उज्जुमा अणंते आवे जाणइ पासइ, सब्वभावाणं अणंतभागं जाणइ पालइ मणपज्जक्षणाणं पुण जण मण परिचिंति अस्थपागडगं माणुस्लखित्त निबद्ध गुणा पव्वक्ष्य चरितवओ' से तं मणपज्जवणाणं-ड्रोपत्त अप्पमत्तसंजय सम्मदिड्डी पज्जत्तग संखेज्जवासाउयकम्मभूमि अगम्भवक्कति अमणुस्साणं मणपज्जवणाणं समुपज्जा, तं समासओ चाउन्विहं पण्णत्तं तं जहा उनमें भी सम्यग्दृष्टियों को होता हैं। सम्यग्दृष्टियों में भी अप्रमत्तसंयतो को ही होता है और उनमें से भी ऋद्धिपाप्त मुनियों को ही होता है। विषय की अपेक्षा से अवधिज्ञान के विषयभूत रूपी द्रव्य के अन. न्तवें भाग में सनापर्यवज्ञान का व्यापार होता है। इस प्रकार अवधि. ज्ञान जिस द्रव्य को जानता है उसके अनन्तवें भाग सूक्ष्म अर्थ में દૃષ્ટિઓને થાય છે સમ્યકદષ્ટિએમાં પણ અપ્રમત્ત સંતોને જ થાય છે અને તેમાં પણ ત્રાદ્ધિ પ્રાપ્ત મુનિઓને જ થાય છે. વિષયની અપેક્ષાથી અવધિજ્ઞાનના વિષયભૂત રૂપી દ્રવ્યના છેવટના ભાગમાં મન:પર્યવજ્ઞાનને વ્યાપાર થાય છે આ રીતે અવધિજ્ઞાન જે દ્રવ્યને જાણે છે. તેના અનંતમાં ભાગ સૂકમ અર્થમાં મન:પર્યવજ્ઞાન જાણે છે. નદી Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०६ ता G Goaओ खितओ कालओ भावओ' इत्यादि । ऋजुपतिः खल्ल अनन्तान् अनन्तप्रदेशकान स्कन्धान् जानाति पश्यति, तचैव विपुलमतिः अम्पधिकतरं विपुरं विशुद्वतरं वितिमिरतरं जानाति पश्यति, क्षेत्रतः खन् ऋजुपतिश्च जघन्येनां गुलस्याऽसंख्येय मागान् उत्कृष्टेनाऽधो यावद् अस्था रत्नपमायाः पृथिव्या उपरिमाssस्वात् शुल्कपतरे ऊर्ध्व यात् ज्योतिष्कस्योपरितले तिर्यग् यावद अन्तोमनुष्यक्षेत्रे सार्द्ध तृतीययोः द्वीपसमुद्रयोः पञ्चदश कर्मभूमिषु त्रिशद कर्मभूमिषु षट्पञ्चाशदन्तद्वषेषु संज्ञीनां पञ्चेन्द्रि याणां पर्याप्तकानां मनोगतं यावं जानाति पश्यति, तचैव विपुलमतिः सार्धदतीयै रंगुलै रभ्यधिकतरं विपुलतरं विशुद्वतरं वितिमिरतरं क्षेत्र जानाति पश्यति, कालतः खलु ऋजुमतिः जघन्येन पल्योपमस्याऽसंख्येयभागस् उत्कृष्टेनापि मनः पर्यवज्ञान जानता है । नन्दिन के १८ वे सूत्र में कहा है- 'ऋजुमति अनन्त अनन्तप्रदेशी स्कन्धों को जानता देखता है, विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर और निर्मलतर जानता देखता है | क्षेत्र की अपेक्षा ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को, उत्कृष्ट नीचे इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरी निचले क्षुद्र प्रतर तक, उपर ज्योतिष्कों के उपरी तल तक, तिछे मनुष्यक्षेत्र के अन्दर, अढाई द्वीप - समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों में और छप्पन अन्तद्वयों में, संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त जीवों के भावों को जानता - देखना है, विपुलमति उसी को अढाई अंगुल अधिक विपुलतर, विशुद्धतर और वितिमितरतर - निर्मलकर क्षेत्र को जानता देखता है । काल की अपेक्षा से, ऋजुमति जघन्य पत्योपम के असंख्यानवें સૂત્રના અઢારમાં સૂત્રમાં કહ્યુ છે. ઋજુમતિ અન ́ત પ્રદેશી સ્કાને જાણે āખે છે. વિપુલમતિ તે જ સ્કંધાને અધિકતર વિપુલતર વિશુદ્ધતર અને નિ ળતર જાણે જૂએ છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષા ૠજુમતિ જઘન્ય આંગળના અસંખ્યાતમાં ભાગને, ઉત્કૃષ્ટ રીતિએ આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીનાં ઉપલાનીચલા ક્ષુદ્રક પ્રતર સુધી ઉપર ચૈાતિકાના ઉપરી સપાટી સુધી, તીરછામનુષ્યક્ષેત્રની અંદર, અઢીદ્વીપ સમુદ્રોમાં, પત્તર ક ભૂમિએમાં, ત્રસ અકમ ભૂમિએમાં અને છપ્પન અંતર દ્વીપામાં, સ’જ્ઞી પંચેન્દ્રિય પર્યાસ જીવેાના ભાવેાને જાણે જુએ છે. વિપુલમતિ તેને અઢી આંગળ અધિક વિપુલતર, વિશુદ્ધતર અને નિતિમિરતર નિમ ળતર ક્ષેત્રને જાણે જુએ છે, કાળની અપેક્ષાથી ઋન્નુમતિ જઘન્ય લ્યાયનાં અસંખ્યાતમાં ભાગને Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.८.४९ मनः पर्यवज्ञानस्य द्वविध्य निरूपणम् ८०७ पल्योपमस्या संख्ये मागम् अतीतमनागतं वा जानाति पश्यति तं चैव विपुलमति अभ्यधिकतरं विशुद्धतरं चितिमिरतरं जानाति पश्यति, भारतः खलु ऋजुमतिः अनन्तं भावं जानाति पश्यति, सर्वभावाना बनन्तभागं जानाति पश्यति तंचैत्र विपुलमति खलु अभ्यधिकतरं विपुलतरं विशुद्धतरं जानाति पश्यति - ऋद्धिप्राप्ताऽप्रमत्तसंगत सम्यग्टष्टिपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क कर्मभूमि गर्भव्युव क्रान्तिक मनुष्याणां मनः पर्यवज्ञानं समुत्पद्यते । तत् समासवश्चतुर्विधं मतम्, तद्यथाभाग को और उत्कृष्ट भी पल्पोपन के असंख्यातवें भाग को अतीत और अनागत काल को जानता- देखता है। त्रिपुलमति उसी को अधिकतर, विशुद्धतर और निर्मलतर जानता देखता है। भाव की अपेक्षा से ऋजुमति अनन्त भावों को जानता- देखना है । सर्व भावों के अनन्तवें भाग को जानता- देखता है, विपुलमति उसी को अधिकतर, fagaतर और विशुद्धतर जानता- देखता है । "मन:पर्यवान मनुष्यों के मन द्वारा चिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला है, वह मनुष्य क्षेत्र तक सीमित है, गुण प्रत्यय ही होता है अर्थात् तपस्या आदि गुणों के द्वारा ही उत्पन्न होता है और संघमी मुनियों को ही प्राप्त होता है । और भी कहा है- ऋद्धिप्राप्त, अप्रमत्त संयत, सम्परष्टि, पर्याप्त, संख्यात वर्ष की आयु वाले, कर्मभूमिज और गर्भज मनुष्यों को ही मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है । मनःपर्यवज्ञान संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है, यथा- (१) द्रव्य અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ પયેાપમનાં અસખ્યાતમા ભાગને અતીત અને અનાગત કાલને જાણે જુએ છે. વિપુલમતી તેને અધિકતર વિશુદ્ધતર અને નિર્માંળતર જાણે જુએ છે. ભાવની અપેક્ષાથી ઋજુમતિ અનંત ભાવાને જાણે છે જુએ છે. સ ભાવાના અનંતમા ભાગને જાણે છે જુએ છે વિપુલમતી તેને અધિકતર વિપુલતર તેમજ વિશુદ્ધતર જાણે જુએ છે. ‘મન:’ પવજ્ઞાન મનુષ્યેાના મન દ્વારા ચિ'તિત અને પ્રકટ કરનારૂ છે, ને મનુષ્યક્ષેત્ર સુધી મર્યાદિત છે, ગુણપ્રત્યય જ થાય છે. અર્થાત્ તપસ્યાં આદિ ગુણ્ણા દ્વારા જ ઉત્પન્ન થાય છે અને સંયમી મુનિએને જ પ્રાપ્ત થાય છે. ww વળી પશુ કહ્યુ. છે લબ્ધિપ્રાપ્ત, અપ્રમત્તસ`યત સદૃષ્ટિ, પર્યાપ્ત સખ્યાત વર્ષની આયુવાળા કમભૂમિ જ અને ગજ મનુષ્યાને જ અનઃપય જ્ઞાન થાય છે. મન:પર્યં યજ્ઞાન સંક્ષેપમાં ચાર પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યુ • Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ तत्त्वार्थसूत्रे द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतचेति । एवञ्च विषयापेक्षयापि अवधिज्ञानतो मनः पर्यवज्ञानस्य विशेषोऽवगन्तव्यः । एवं सर्वस्तोकाः खलु मनः पर्यवज्ञानपर्यवा भवन्ति तदपेक्षयाऽवधिज्ञानपर्यंवा अनन्तगुणा अवसेयाः तथा च- मनःपर्यव ज्ञानस्य पर्यवाः सर्वज्ञानापेक्षयास्तोका भवन्ति, तस्य सवज्ञानापेक्षया सूक्ष्मपदार्थग्राहित्वात् इतिभावः ॥४९॥ मूळम् - मइसुयनाणे - असव्वपज्जवेसु दव्वसु ॥५०॥ छाया - 'मति - श्रुतज्ञानम् - असर्व पर्यवेषु द्रव्येषु ॥ ५० ॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्व तावत् सम्यग्ज्ञानस्य मोक्षम्मति कारणतया मतिश्रुता वधिमनःपर्य केवलज्ञानरूपस्य तस्य प्ररूपणं कृतम्, तत्रापि मोक्षम्प्रति मुख्य कारणतया केवळ ज्ञान प्रथमं प्ररूपितम् तदन्तरं मतिज्ञानादिकं क्रमशः प्ररूपिनम् से (२) क्षेत्र से (३) काल से और (४) भाव से । इस प्रकार विषय की दृष्टि से भी अवधिज्ञान की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञान की विशेषता सम झना चाहिए। इस प्रकार मनः पर्यवज्ञान के पर्याय सब से थोडे हैं, उसकी अपेक्षा अवधिज्ञान के पर्याय अनन्त गुणा है ॥४९॥ 'महधनाणे' इत्यादि । सुनार्थ - - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सब द्रव्यों को जानते हैं किन्तु उनके सब पर्यायों को नहीं जानते ॥५०॥ तत्वार्थदीपिका -- मोक्ष के कारणभूत सम्यग्ज्ञान के मति, श्रुन, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान के भेदों की प्ररूपणा की गई, उन में भी मोक्ष का प्रधान कारण होने से केवलज्ञान की पहले प्ररूपणा की छे. भडे (१) द्रव्यथी (२) क्षेत्रथी (3) असथी भने (४) लावथी मे रीते વિષયની દૃષ્ટિએ પણુ અવધિજ્ઞાનની અપેક્ષા મન:પર્યં યજ્ઞાનની વિશેષતા સમજવી જોઇએ આ રીતે મન:પર્યયજ્ઞાનનાં પર્યાય સૌથી ઘેાડા છે. તેની અપેક્ષા અવધિજ્ઞાનના પર્યાય અન તગણુ છે. 'मसुयणाणे' त्याहि સૂત્રાર્થ –મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન બધાં દ્રબ્યાને જાણે છે. પરંતુ તેમનાં ખમાં પાઁચાને જાણતા નથી !! ૫૦ ॥ તત્ત્વાર્થં દીપિકા મેાક્ષનાં કારણભૂત સભ્ય જ્ઞાનના મતિ, મન:પર્યય અને કેવળજ્ઞાનના ભેદોની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી, તેમાં પણ મેક્ષ અવિધ શ્રુત Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.५० पञ्चज्ञानानां मध्ये वैशिष्ट्यादिकम् ८०९ सम्पति-तेषां पञ्चान मध्ये पूर्वपूर्वज्ञानापेक्षया-उत्तरोत्तरस्योत्पादिकम्पतिपदयितुं प्रथम मतिश्रुसमाना हवं अन्द प्राति-सुधनाणे' इत्यादि । मतिश्रुतज्ञान-मालिसानं श्रुतज्ञ.नच यूक्तस्वरूपम् अलपर्यवेधु न सई द्रव्य पर्यायेषु वसले, अपितु-द्रव्येषु सर्वेषु पवर्तते । तथा च-अतिश्रुतज्ञानयोवृत्तिः सर्वद्रव्येषु भवति, तु-व्यपर्यायेनिसि साक्षः। पतिज्ञानं श्रुवज्ञानञ्च सर्वाण्येव द्रव्यानि दिया --माने जानाति, न तु-सव्यपर्यायान् किञ्चिदेव इमपर्वाचा भागातील पोध्यम् । इत्याणि च धर्माधर्मालाल पुरलजीवाणि पूर्वोक्ताल अनन्तमानि । तत्रापि देशद्ध एक मतिज्ञान, द्रव्याणि-जानाति न तु सर्वतः । श्रुतज्ञानन्तु-सतएव द्रशाणि जानाति, अतएव-गतिज्ञानापेक्षश श्रुतमनरल वैशिष्ट्य हारले राष्ट् ॥५०॥ गई और वह पाइजा हलिहाक श्रादि का निमा दिया माया, अघ उन पांचों ज्ञानों में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा आगे-भाले बाचे दान का उत्कर्ष प्रतिपादन करने के लिए सर्वप्रथम मति और अन्य जान के विषय का शयन करते हैं। ____अतिज्ञा और श्रुतवान सभी द्रव्यों को को जानते है परमार पर्यायों को नहीं जानते। हल प्रज्ञार शमिश्रुम ज्ञान का सार हमाल द्रव्यों में होता है, म मरद पई नहीं । नतिज्ञान और शुन. ज्ञोन दश द्रव्यों को विषय करते हैं मार सय पर्यायों को नहीं-धोडे पर्यायों को काटते है । धन, अधर्म, आशाश, झाल, पुद्गल और जीव, ये छह नव्ध हैं, जिनकार कसा पहले किया जा चुका है। मतिः ज्ञान द्रव्यों की देशतः जाता है, अनज्ञान लवतः जानता है, एक मतिज्ञान की अपेक्षा शुशलाल विशिष्ट है ॥५॥ નું પ્રધાન કારણ હોવાથી કેવળજ્ઞાનની પહેલાં પ્રરૂપણા કરી અને ત્યાર પછી કમથી મતિજ્ઞાન આદિનું નિરૂપણ કર્યું. હવે તે પાંચ જ્ઞાનેમાં પૂર્વ-પૂર્વની અપેક્ષાએ ઉત્તર-ઉત્તરવાળા જ્ઞાનનાં ઉત્કર્ષ પ્રતિપાદન કરવા માટે સર્વપ્રથમ મતિ અને શ્રુતજ્ઞાનના વિષયનું કથન કરીએ છીએ મતિજ્ઞાન અને શ્રતજ્ઞાન બધાં દ્રાને તે જાણે છે પરંતુ બધાં દ્રાનાં બધાં પર્યાને જાણતા નથી. આ રીતે મતિ શ્રુતજ્ઞાનને વ્યાપાર બધાં દ્ર માં થાય છે પણ બધાં પર્યાયોમાં નહીં મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન બધા દ્રવ્યોને વિષય બનાવે છે. પરંતુ બધા પર્યાને નહીં શેડા પર્યાયે ને જ જાણે છે ધ. અધર્મ, આકાશ, કાલ, દ્ગલ અને જીવ આ છ દ્રવ્ય છે. જેમનું કથન त० १०२ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्र तत्वार्थनियुक्तिः -पूर्व खल्लु मोक्षसाधनत्वेन मतिश्रुतावधिमनापर्यव. केवल ज्ञानरूपं सम्यग्ज्ञानं परूपिवम् तत्रापि केवलज्ञानस्य मुख्यत्वात् प्रथम प्ररूपणं कृतम् तदन्तरं मतिज्ञालादिकं धरूपितम्। सम्पति तेपु मत्यादि पञ्चज्ञानेषु पूर्व पूर्वअपेक्ष्य उत्तरोत्तरस्य वैशिष्टयादिकं मरूपायितुमाह-लहसुयनाणे असव्व पजचेलु देख्नु' इति । मतिश्रुतज्ञानम्-पूसह स्वरूपं भतिज्ञानम् आभिनियोधिक ज्ञानरूएस् शुद्धज्ञानञ्च-अपर्चपर्यवेधु, न सर्वद्रव्यदायेषु भवति अपितुद्रव्येषु सर्वेषु भवति । तथा च-विज्ञानं श्रुनज्ञानश्च न लद्रव्यपर्यायविषयक भवति, अपितु-धर्माधर्षाकाशकालपुद्गलनीवरूप-सर्वद्रव्यविषयकं भवति । एवञ्च-भतिश्रुताभ्यां सर्वाणि द्रव्याणि जानाति, न तु-सर्वद्रव्यपर्थान् इति भावः। लदार्थनियुक्ति--पहले अति, शुभ, अवधि, बनापर्थव और केवलज्ञानरूप लम्यज्ञान सोक्षका साधन है, यह प्रतिपादन किया गया, उनमें भी प्रधान होने से क्षेवलज्ञान का पहले निरूपण शिया __ गया, उसके अनन्तर मलिज्ञान आदिशा कथन किया गया, अब उन पांचों ज्ञानों में उत्तरोत्तर की विशिष्टता का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं पूर्वोक्त मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति लय द्रव्यों में होती है किन्तु व पायों में लहीं होती। इस कारण मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सब द्रव्य-पर्याय विषयक नहीं है, अपितु धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जी रूप लई द्रव्यों को जानते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान और शुसज्ञान के जीव सब द्रव्यों को तो जानता है मगर પહેલા કરવામાં આવી ગયું. અતિજ્ઞાન દ્રવ્યને દેશતઃ જાણે છે. શ્રુતજ્ઞાન સર્વતઃ જાણે છે. આથી મતિજ્ઞાનની અપેક્ષા શ્રુતજ્ઞાન વિશિષ્ટ છે. ૫૦ છે તવાથનિર્યુકિત–પહેલા મતિ, કૃત, અવધિ, મનઃ પર્યાય અને કેવળ જ્ઞાન રૂપ સમ્યકજ્ઞાન મોક્ષનું સાધન છે એ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું. તેમાં પણ પ્રધાન હોવાથી કેવળજ્ઞાનનું પ્રથમ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. તેના પછી મતિજ્ઞાન આદિનું કથન કરવામાં આવ્યું. હવે તે પાંચે જ્ઞાનમાં ઉત્તરોઉત્તર વિશિષ્ટતાનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહીએ છીએ પૂર્વોક્ત મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનની પ્રવૃત્તિ બધાં દ્રામાં થાય છે પરંતુ બધાં પર્યામાં થતી નથી. આ કારણે મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન સર્વદ્રવ્ય પર્યાય વિષયક નથી, તે પણ ધર્મ, અધમ, આકાશ, કાલ, પુદ્ગલ અને જીવ રૂપ સર્વને જાણે છે. આ રીતે મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનથી જીવ બધાં દાને તે જાણે છે પરંતુ તેના બધાં પર્યાને જાણતા નથી. જ્યારે મતિ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.८ लू.५० पञ्चज्ञानानां मध्ये वैशिष्ट्यादिकम् . ८११ यदा खलु-मतिज्ञानी श्रुतज्ञानेनोपलब्धेष्वर्थषु अक्षरपरम्परापरिपाटी विनवसम्यग्ज्ञानादि द्रव्याणि ध्यायति खदा-मतिज्ञानविषया सर्वद्रव्याणि भवन्ति, न तु-सर्वद्रव्यपर्यायाः अल्पकालस्यात्-मनसश्चाऽशक्तत्वात् । एवम्-श्रुतग्रन्थानुसारेण सर्वाणि धर्माधर्माकाशकाल पुदलजीवद्रव्याणि जानाति, न तेषां सर्वपर्यायान् तत्रापि-पतिज्ञानेन देशतएन द्रव्याणि जानाति, न तु-सर्वतः । श्रुतज्ञानेन तु-सर्वतो द्रव्याणि जानाति, सर्वव्यपर्यायांस्तु-न लास्यां जालानीति फलितम् । उक्तश्च नन्दिसत्रे ३७ सचे-'तस्थ माओणं आभिणियोहियणाणी आए होणं सगाई ब्याई जाणान पाल, कालओणं आभिणिलोहिय णाणी आएवणं स्वयकालं जाणाइन पालाइ, आव भोणं आभिणियोहियणाणी आएलेणं लम्चे भाव जाण पालाई खखश्चाग्रे तौर-५८ सूत्रे चोक्तम्-'स समारो चकिहे एण्णत्ते तं जमा-हब्बओ खितओसब पर्यायों को नहीं जानता। जब मतिज्ञाल श्रुमज्ञानी के द्वारा उपलब्ध पक्षायों को अपइस्पा फी परिपाटी के बिना ही द्रव्यों का ध्यान करता है तब सनी द्रव्य विज्ञान के विषय हो जाते हैं, मगर सब द्रव्यों के लब पर्याय उसके विषय नहीं हो सकते, क्योंकि वह इन्द्रियों और लनले उत्पन्न होता है और माय पर्यायों को जानने में असमर्थ हैं। हल प्रकार यह दूल-नय के अनुहार धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुदगल और जीवद्रव्यों को जानता है मगर बनके सब पर्यायों को नहीं जानता। हनीपतिज्ञान के छारा एजशा से ही द्रव्यों को जानता है, अर्थ हैश नही। श्रुतज्ञाचार सर्व देश ले जानता है, बार हम दोनों ज्ञानों से द्रव्यों के समस्त पर्याय नहीं जाने जाते, यह हमला फलिता है। नन्दि सूत्र के ३७ थे. सूत्र में कहा-'द्रव्य की अपेक्षा भतिजाकी सामान्य रूप से मामी જ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાન દ્વારા ઉપલબ્ધ પદાર્થોને અક્ષરપરપરાની પરિપાટી વગર જ દ્રનું જ્ઞાન કરે છે ત્યારે બધાં દ્રવ્ય અતિજ્ઞાનના વિષય બની જાય છે. પરતુ બધાં દ્રવ્યના બધા પર્યાય તેના વિષય થઈ શકતા નથી, કારણ કે તે ઈન્દ્રિયો અને મનથી ઉત્પન્ન થાય છે અને બધાં પર્યાયાને જાણવામાં અસમર્થ છે. આ રીતે તે શ્રતગ્રંથ અનુસાર ધર્મ, અધર્મ, આકાશ, કાલે, પુદગલ અને જીવ દ્રવ્યને જાણે છે પરંતુ તેના બધા પર્યાયને જાણતું નથી. એમાં પણ મતિજ્ઞાન દ્વારા એક દેશથી જ દ્રવ્યને જાણે છે, સર્વ દેશથી નહીં. શ્રુતજ્ઞાન દ્વિારા સર્વદેશથી જાણે છે. પરંતુ આ બંને જ્ઞાનેથી દ્રવ્યોના સયત પર્યાય જાણી શકતા નથી, આ એને ફલિતાર્થ છે. નન્દીસૂત્રના ૩૭માં સૂત્રમાં કહ્યું છે દ્રવ્યની અપેક્ષા સતિજ્ઞાની સામાન્ય રૂપથી બધાં સ્થાને જાણે છે પણ જેતે Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तस्वार्थसूत्रे कालओं-भावओ, तत्थ दवाओणं सुबणाणी उचलते सव्वाई जाण पासह, खित्तओणं सुथणाणी उचउसे सब्छ खेतं जाणा पासह 'कालोणं-सुयणाणी उवउत्ते सत्रं झालं जाणा पासह वापओणं 'सुघणाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ पाला इति, सन द्रव्यतः खलु आभि'निवोधिकज्ञानी आदेशेन सर्वाणि द्रव्याणि जानातिन पयति, क्षेत्रतः खल्लु आमिलिवोधिकज्ञानी आदेशेन सर्व क्षेत्र जानाति न पश्यति, कालतः खलु थाभिनिवोधिकज्ञानी आदेशेन सर्व कालं जानाति न पश्यति, भारतः खलु आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सवान् भावान् जानाति न पश्यति । अथ समास्तचतुर्विधः प्रज्ञतः तयथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः, तत्र द्रव्यतः खल्ल श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्व क्षेत्र जानाति पश्यति कालतः खलु श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वान् भावान् जानाति पश्यति इत्लेलेन खल्लु आगमेल भतिज्ञालापेक्षया श्रुवज्ञानस्य वैशिष्टयं स्पष्टं ज्ञायते इति ५०॥ द्रव्यों को जानना है, मगर देखता नहीं है, काल ही अपेक्षा मतिहानी सामान्य रूपले सर्व काल को जानता है मगर देखना नहीं है, भाष की अपेक्षा नतिज्ञानी सामान्यतः सभी भावों को जानता है मगर देखता नहीं है।' आगे वहीं ५८ में कट है-शुतज्ञान लक्षेपले भार प्रसार का कहा गया है-व्यहो, क्षेत्रले, काल ले और साचले। द्रव्य ले श्रुज्ञानी उपयोग हमलों को जानतादेखता है, क्षेत्र से श्रुवज्ञानी उपयो लगाकर सर्व क्षेत्र को जानतादेखता है, कालले शुलज्ञानी डायोः लार र दाल को जानता देवता है, मानो तुमज्ञानी उपयोग लामाको जानता देखता है। इस मामले स्पतिवान की अपेक्षा श्रुतज्ञाम भी विशिटमा स्पष्ट ही ज्ञात होती है॥५०॥ નથી, કાલની અપેક્ષા અતિજ્ઞાની સામાન્ય રૂપથી સર્વકાલતે જાણે છે પરંતુ તે નથી, ભાવની અપેક્ષા મતિજ્ઞાની સામાન્યતઃ બધા ભાવેને જાણે છે પણ જેતે નથી આગળ જતાં ત્યાં જ ૫૮માં સૂત્રમાં કહે છે કૃતજ્ઞાન ટુંકામાં ચાર પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યું છે દ્રવ્યથી મેથી, કાલથી અને ભાવથી દ્રવ્યથી શ્રુતજ્ઞાની ઉપગ લગાવીને સર્વદ્રાને જાણે જુએ છે, ક્ષેત્રથી શ્રુતજ્ઞાની ઉપગ લગાડીને સર્વ ક્ષેત્રને જાણે જુએ છે. કાલથી શ્રુતજ્ઞાની ઉપગ લગાવી ને સર્વ કાલને જાણે જુએ છે ભાવથી શ્રુતજ્ઞાની ઉપગ લગાવીને બધાં ભાવે ને જાણે જુએ છે આ આગમથી અતિજ્ઞાનની અપેક્ષા થતજ્ઞાનની વિશિષ્ટતા સ્પષ્ટપણે જ્ઞાત થાય છે ૫૦ છે Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका प. ८ . ५१ अवधिज्ञानविषयं निरूपणम् मूलम् - ओहिनाने सव्वरुविसु ॥५१॥ छाया - अवधिज्ञानं सर्वरूपिद्रव्येषु ॥ ५१ ॥ ८१३ तत्वार्थदीपिका- 'पूर्वसूत्र-मतिश्रुतज्ञानयो विषयमरूपणं कृतम् सम्पति अवधिज्ञानस्य विषयं प्ररूपयितुमाह- 'ओहिनाणे लम्बरुवि दव्बे' इति । अवधिज्ञानम् - पूर्वोक्तस्वरूपं भवत्यधिकं क्षायोपशमिकञ्चाविज्ञानं सर्वरूपि godoea yearयेषु भवति न तु सर्वपलद्रव्यपर्यायेषु द्रव्येsयेव पुनलद्रव्यपर्यायेषु नापि - भरूपिद्रव्येषु धर्माधर्माकाशाऽऽत्मद्रव्येषु तथा चावधिज्ञानं रूपि द्रव्यविषयकमेव भवति न तु-अरूपि द्रव्यविषयकम् नापि सर्वपक्षीयविषयक अत्यन्त विशुद्धेनापि अवधिज्ञानेन रूपीण्येन द्रव्याणि परमावधिज्ञानी जानाति नापि द्रव्याणि तान्यपि रूपि द्रव्याणि सर्वैः पर्यायैः अतीतानागतवर्तमानैरुत्पादव्यय प्रौव्यादिभिरनन्तैः पर्यदेव न जानाति इति भावः ॥ ५१ ॥ " 'ओहिनाणे सच्च' इत्यादि । सूत्रार्थ - अवधिज्ञान लय रूपी द्रव्यों को जानता है ॥५१॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्र में प्रतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय का निरूपण किया गया, अब अवधिज्ञान के विषय का प्रतिपादन करते हैंपूर्वोक्त स्वरूप वाला अत्यधिक और क्षमोशनवत्यधिक अवधि ज्ञान रूपी द्रव्यों अर्थात् पुद्गलों में ही व्यापार करता है, किन्तु रूपी द्रव्यों के समस्त पर्यायों में व्यापार नहीं करता । वह अरूपी द्रव्यों को भी नहीं जानता । सब से अधिक विशुद्ध अथविज्ञान भी रूपी द्रव्यों को ही जानता है, किन्तु उनके अतीत, अनागत, वर्तमान, उत्पाद व्यय और tor आदि सब अनन्त पर्यायों को नहीं जानता है ॥५१॥ 'ओहिनाणे सव्व' त्याहि સુત્રા –અવધિજ્ઞાન અંધાં રૂપી દ્રબ્યૂને જાણે છે ! ૫૧ ॥ તવા દોપિકાઃ-પૂર્વ સૂત્રમાં મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનના વિષયનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યુ, હવે અવધિજ્ઞનના વિષયનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ પૂર્વોક્ત સ્વરૂપવાળા ભવપ્રત્યયિક અને યેાપક્ષ પ્રત્યયિક અવધિજ્ઞાન રૂપી દ્રવ્યોને અર્થાત્ પુદ્ગલમાં જ વ્યાપાર કરે છે, પરન્તુ રૂપી દ્રવ્યેાના સમસ્ત પાંચામાં વ્યાપાર કરતું નથી તે અરૂપી દ્રવ્યાને પણ જાણુતું નથી સહૂથી અધિક વિશુદ્ધ અવિશ્વસન પણ રૂપી દ્રવ્યેાને જ જાણે છે પરન્તુ તેમનાં અતીત અનાગત, ઉત્પાદ વ્યય અને ધ્રૌવ્ય આદિ બધા અનન્ત પર્યાયને જાણતુ નથી !! ૫૧ ॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ सूत्रे तत्वार्थनिर्युक्तिः- पूर्व तान् मतिज्ञान - श्रुतज्ञानयो विपयस्य निरूपणं विधितम् सम्पति तदन्तरावयवस्या - वधिज्ञानस्य विषयं निरूपयितुमाह- 'ओहिनाणे सन्दवि दव्वेसु' इति । अवधिज्ञानम् - भवत्ययिकं क्षायोपशमिकञ्च पूर्वोक्त स्वरूपमवधिज्ञानं सर्वरूपिद्रव्येषु - पुद्गलद्रव्य स्वरूपेष्वेव भवति नत्वरूपि द्रव्येषु धर्माधर्माकाशात्मस्वरूपेषु, नवा-सर्वरूपि पुद्गलद्रव्यपर्यायेषु तथा चावधिज्ञानं सर्वरूपि पुद्गलद्रव्यविषयकमेव संभवति । न तु -अरूपि द्रव्यविषयकम्, नापि - रूपि पुद्गलद्रव्य सर्व पर्यायविषयकम परसावधिज्ञान्यपि सुविशुद्धेनाऽपि अवधिज्ञानेन रूथीण्येव पुद्गलद्रव्याणि जानावि नाडरूषीणि धर्माधर्माकाशात्म द्रव्याणि जानाति, न - ज्ञान्यविरूपि पुद्गलद्रव्याणि सर्वैरतीतानागतवर्तमानेरूलादव्ययत्रौव्यादिभिरनन्तैः पर्यायैः परिच्छिनत्ति परमावधिज्ञानी अत्यन्त विशुद्धेनापि अवधिज्ञानेन । उक्तश्चाऽनुयोगद्वारे १४४ सूत्रे - 'ओहि दंसण " ૪ - तस्यार्थनियुक्ति- पहले मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय का निरूपण किया वया, अब क्रमप्राप्त अवधिज्ञान के विषय का प्रतिपादन फरते हैं भवप्रस्थय और क्षयोपशननिमित्तक अवधिज्ञान पुद्गल द्रव्य रूप सर्व खरी द्रव्यों में ही व्यापार करता है, धर्म, अधर्म, आकाश और जीव, हन अख्री द्रव्यों में उसका व्यापार नहीं होता । वह रूपी द्रव्यों के समस्त पर्यायों को भी नहीं जानता है । परमावधि ज्ञानी भी अन विशुद्धि अवधिज्ञान के द्वारा रूपी द्रव्यों को ही जानता है, अरूपी द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश और आत्मा को नहीं । रूपी द्रव्यों को भी सभी अतीत, अनागत, वर्तमान, उत्पाद, व्यय और धौव्य आदि अनन्त पर्यायों से नहीं जानता । તાનિયુક્તિ—પહેલા મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનના વિષયનું નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યુ, હવે કેમપ્રાપ્ત અવધિજ્ઞાનના વિષયનુ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ ભપ્રત્યય અને ક્ષાપશનિમિત્તક અવધિજ્ઞાન પુદ્દગલવ્ય રૂપ સ રૂપી દ્રવ્યેામાં જ વ્યાપાર કરે છે. ધર્મ, મધ, આકાશ અને જીવ આ અરૂપી દ્રવ્યેકમાં તેના વ્યપાર હૈાત્તા નથી, તે રૂપી દ્રવ્યેના સમસ્ત પર્યાચાને પણ જાણતું નથી. પરમાધિજ્ઞાની પણ અત્યન્ત વિશુદ્ધ અવધિજ્ઞાન દ્વારા રૂપી દ્રબ્યાને જ જાણે છે. અરૂપી દ્રવ્ય ધર્મ, અધમ, આકાશ અને આત્માને નહી' રૂપી દ્રવ્યાને પણ ધાં અતીત, અનાગત, વર્તમાન, ઉત્પાદ, વ્યય અને અને ધ્રૌવ્ય આદિ અનન્ત પાયાથી જાણતુ નથી. Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.८ १.५१ अवधिज्ञानविषयनिरूपणा १५ ओहिदसणिहम सन्दरूचि दोन व पुण लव्ह एज्जबलु' इति अवधिदर्श नम्-अवधिदर्शनिनः सर्वरूपि द्रव्येषु न पुनः सर्वरिषु, इति एवं नन्दिच्ने १६ सूत्रो चोक्तम्-'तं समासो बउब्धिहं पणतं तं जह-दच्चीखेत्तो कालओ भावो, वस्य दशमओ ओहिलाणी जहण्णणं अगलाई रूविदव्वाइं जाणा-पालइ उसलेणं लव्वाई रूचिदमाई जाण पाला खेत्तओणं ओहिलाणी जहण्णेणं अंगुलहहा अहंखिजमार्ग जाणइ पासइ उक्कोलेणं असंलिज्जा अलोग लोगपमालिसा खंडाई जाणा-पास कालोणं ओहिनाणी जहणेणं आलियाए असंखि ज्जाई भागं जागह-पालह, उक्कोशेणं अखिनासो उसलहिणीओ ओसप्पिणीनो अईय अगाईयच झालं जाण पाला साक्षोणं ओहिनाणी जहणणं अर्णते भावे जाण पालइ उक्कोणधि अणंत भावे जाणइ पालइ, सक्षमावाणं अणंतसाग जाणह पाला-इति तत् समासतश्चतुर्विधं यज्ञप्तम् तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रल: कालतो भारतः । तत्र द्रव्यतोऽवधिज्ञानीजघन्येनाऽनन्तानि रूपि द्रव्याणि जानाति पश्यति, उत्कृष्टेन सर्वाणि रूपि द्रव्याणि जानाति पश्यति, क्षेत्रतः खलु अवधिज्ञानी जघन्येांगुलस्यासंख्येय___अनुयोगद्वार सूत्र के १४४ ३ सूत्र में कहा है-'अवधिदर्शन वाले का समस्त रूपी द्रव्यों में व्यापार होता है, मगर उनके समस्त पर्यायों में नहीं। नन्दिलूत्र के १६ में सूत्र में भी कहा है-अवधिज्ञान संक्षेप ले चार प्रकार का है-द्रव्य से, क्षेत्र ले, काल से और मान ले। द्रव्य की अपेक्षा अवधिज्ञानी जघन्य अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है, उत्कृष्ट समस्त रूपी द्रव्यों को जानता और देखता है । क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञानी जघन्ध बंगुल के अझख्यालो भाग को जालता-देखता અનુયોગદ્વાર સૂત્રના ૧૪૪માં સૂત્રમાં કહ્યું છે “અવધિદર્શન અવધિદર્શન વાળાના સમસ્ત રૂપી દ્રવ્યોમાં વ્યાપાર હોય છે પરંતુ તેમના સમસ્ત પર્યાયોમાં નહીં નંદીસૂત્રમાં ૧૬માં સૂત્રમાં પણ કહ્યું કે અવધિજ્ઞ ન સંક્ષેપમી ચાર પ્રકારનું છે દ્રવ્યથી ક્ષેત્રથી કાલથી અને ભાવથી દ્રવ્યની અપેક્ષા અવધિજ્ઞાની જઘન્ય અનન્ત રૂપી દ્રવ્યને જાણે જુએ છે ઉત્કૃષ્ટ સમસ્ત રૂપી દ્રવ્યોને જાણે જુએ છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષા અવધિજ્ઞાની જઘન્ય આંગળના અસંખ્યાતમાં ભાગને જાણે જુએ છે, ઉશ્કટ અલોકમાં લેકપ્રમાણે અસંખ્યત ખડેને જાણે જુએ છે, કાલથી અવધિજ્ઞાન જ ઘન્ય આવલિકાની સંખ્યામાં ભાગને જાણે જુએ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थस्त्र भागं जानाति एइति उत्कृष्टेनाऽसंख्येयानि अलोलोकममाणमितानि खण्डानि जानाति पश्यति, कालतः खलु अवधिज्ञ नी जघन्येनावली कायाऽसंख्येयमार्ग जानाति पश्यति, उस्कृप्टेनाऽसंख्येयाः उन्सविण्य वसर्पिणीः अतीतम्-अलागतञ्च कालं जानाति एश्यति, भावतः खलु अवधिज्ञानी जघन्येन अनन्तान् भावान् जानाति पश्यति उन्कृप्टेनापि अनन्तान भाकान् जानाति पश्यति, सर्व भावानास् अनन्तमागं जनाति पश्यति, इति ॥५१॥ मूलम्-मापजवनाणे तदनंतभागे ॥५२॥ छाया- मनः पर्यवज्ञानं तदनन्तभागे ॥५२॥ तयार्थदीपिका--पूर्वमवधिज्ञानस्य विषयः मरूपितः सम्पति-पदधिज्ञानापेक्षया मनाएर ज्ञानस्य वैशिष्टयं प्रतिपादस्तुि तस्य विषयमाह-'मण है, उत्कृष्ट अलोक लोकप्रमाण असंख्यात खडों को जानता-देखता है । काल ले अवधिज्ञानी जघन्य भालिका के असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है, उत्कृष्ट असंख्यात अतीत और अनागत उतरूपिणी और अयसर्पिणी कालो को जानता-देखता है। भाव से अवधिज्ञान जघन्य अननस मायरों को जालता देखता है-सर्व भावों के अनन्तवें भाग को जानता और देखना है" ॥५१॥ 'मणपजनकनाणे' इत्यादि। सूत्रार्थ-मनःवज्ञान, अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग को जानता है ॥५२॥ तत्वार्थदीपिहा-पहले अवधिज्ञान से विषय का निरूपण किया गया, अम अधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यवज्ञान की विशिष्टता का प्रतिपादन करने के लिए उनके विषय का निरूपण करते हैंછે, ઉત્કૃષ્ટ અસંખ્યાત અતીત અને અનાગત ઉત્સર્પિણિ અને અવસર્પિણ કાલેને જાણે જુએ છે ભાવથી અવધિજ્ઞાની જઘન્ય અનન્ત ભાવને જાણે જુએ છે અને ઉત્કૃષ્ટ પણ અનન્ત ભાવેને જાણે જુએ છે સર્વ ભના અનન્તમાં ભાગને જાણે અને જુએ છે. ૫૧ ૫ 'मणपज्जवनाणे' या સૂત્રાર્થ––મન:પર્યવજ્ઞાન, અધિજ્ઞાનના વિષયના અનન્તમાં ભાગને नये छ. ।। ५२ ॥ તત્વાર્થદીપિકા--પહેલા અવધિજ્ઞાનના વિષયનું નિરૂપણ કર્યું, હવે અવધિજ્ઞાનની અપેક્ષા મન:પર્યવજ્ઞાનની વિશિષ્ટતાનું પ્રતિપાદન કરવાને માટે તેના વિષયનું નિરૂપણ કરીએ છીએ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति का पट १.५३ मनःपर्यवज्ञानस्य वैशिष्टयनिरूपणम् . ८१७ पजनाणे तदादा ' इति मनापर्यज्ञानम्-पूर्वोक्तस्वरूपं तदनन्तभागे तस्याऽवधिज्ञानविषयीभूलहर रूपि शुदलद्रव्यख्याऽपेक्षयाऽनन्ते-सूक्ष्मे भागे भवति । सपा चपद् द्रव्य अवविज्ञान विषयी करोति तस्यापि अनन्तमागमे सूक्ष्मपनाने कार्यमा विषयी शेति। तथा चाऽवधिज्ञान विषयाऽ. पेक्षया बनाएरशातल्या त्या कक्षावार्थविषयकत्वात् अवधिज्ञानापेक्षया तस्य वैशिष्टयं हि इति शाम राणा व यानि रूपिनलद्रव्याणि भवधिज्ञानी जानाति नेपाश्वाधिशाषयी कृत रूचि पुनलद्रव्याणा मनन्तमागे एकालिन् मनापर्यवज्ञान तिपतिएकर अधिज्ञानविषयस्य सचलपि पुद्गलव्यख्या सन्तमायसेनापज्ञानी जानाति। अतएवाऽनधिज्ञानापेक्षया मनापर्यवज्ञानवैशिष्टय शुल्कृष्टत्वञ्च वर्तते इत्यरसेपट । आशिकानाविरतसम्याटेरवि भवति मनापर्यवज्ञानन्तु-संपतस्याभन तत्प, ऋद्धि प्रातल्यैव भवतीति विशेषः ॥५॥ हत्यार्थनिति -पूर्व छात्रोक्तावविज्ञानापेक्ष्य मनापर्थवज्ञानस्य अक्षयपदार्थ सिरसाद् शाधिज्ञानरपेक्ष र नाप ज्ञावस्योत्कृष्टत्वं प्रतिपादक्तुिमाह मापर्यवहान, विज्ञान के विषयभूत रूपी पुद्गल द्रव्धा के अन नलवे यार के जानता। अत: अधिज्ञान जिस दन्छको विषय, करता है, उसके मलहवें भाण ,पयेथज्ञान विषय करता है। इस कारण अवधिज्ञान की अपेक्षा नलपर्यवज्ञान अत्यन्त सूक्षत पदार्थ को जानने के कारण जो अपेक्षा विशिष्ट है। अधिज्ञान अधिरत सम्पष्टि को भी प्राप्त होता है किन्तु मन पर्थवज्ञान अध्यत्तसंपला और ऋद्धिमा कोही होता है। यह भी उसकी विशेषता है ॥२॥ तत्वार्थनियुजि-पूर्वस्त्रोत अवधिहान, मनापर्यज्ञाल की अपेक्षा सूक्ष्म पदार्थ में प्रवृत्त होने के कारण विशिष्ट है, अतएव उसकी जकष्टता का प्रतिपादन करते हैं મન પર્યાવજ્ઞાન અવધિજ્ઞાનના વિષયભૂત રૂપી પુદગલ દ્રવ્યના અનત્તમાં ભાગને જાણે છે અર્થાત્ અવધિજ્ઞાન જે દ્રવ્યને વિષય બનાવે છે, તેના અનન્તમાં ભાગને સનઃ પર્યાવજ્ઞાન વિષય બનાવે છે. આ કારણે અવધિજ્ઞાનની અપેક્ષા મન પાનાન અત્યન્ત સૂકમ પદ ર્થને જાણવાના કારણે તેની અપેક્ષા વિશિષ્ટ છે. અવધિજ્ઞાન અવિરત સમ્યક દષ્ટિને પણ પ્રાપ્ત થાય છે પરંતુ મન:પર્યવ જ્ઞાન અપ્રમત્ત સંયત અને દ્ધિપ્રાપ્તને જ થાય છે એ પણ એની . વિશેષતા છે. | પર છે તત્તવાનિર્યુક્તિ--પૂર્વસૂત્રોક્ત અવધિજ્ઞાન મન પર્યાવજ્ઞાનની અપેક્ષા સૂમ પદાર્થોમાં પ્રવૃત્ત થવાના કારણે વિશિષ્ટ છે. આથી તેની ઉત્કૃષ્ટતાનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ त १०३ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ तरवार्थ 'मणपज्जवनाणे तदनंतभागे' इति । मनःपर्यवज्ञानम्-पूर्गेनस्वरूपं तदनन्तभागे, तस्याऽवधिज्ञानविषयीकृतस्य रूपिपुद्गलद्रव्यस्याऽनन्ते सूक्ष्मे एकस्मिन् भागे प्रवर्तते । एवञ्च-यद् रूपि पुद्गल द्रव्यम् अवधिज्ञान विषयी करोति तस्यापि अनन्तभागं सूक्ष्ममेक पदार्थ मनःपर्यवज्ञान विषयी करोति । तथा च-यानि रूपि पुद्गलद्रव्याणि अवधिज्ञानी जानाति तेषामवधिज्ञानाप्टरूपि पुद्गलद्रव्याणा मनन्तभागमेकं मनापर्यवज्ञानी जानाति । तान्यपि चाऽवधिज्ञानविषयानन्तभागव. तीनि रूपि द्रव्याणि न कुडन्याधाज्ञारव्यवस्थितानि जानाति । अपितु-मनश्चिन्तनविचाराऽन्वेषणविषयीभूतान्येव जानातीति तानि पुनर्न सर्वलोकवर्तिनि, अपितु मनुष्य क्षेत्रवर्तीन्येव जानातीतिमावः । तानि चाऽवधिज्ञानिनः सकाशात् विशुद्धतराणि अत्यन्त सूक्ष्मपर्यायाणि द्रव्याणि मनापर्यत्र ज्ञानी जानातीति ___अवधिज्ञान के विषयभूत रूपी पुद्गलद्रव्य के अनन्त सूक्ष्म एक भाग में मनापर्यज्ञान की प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार जिस रूपी पुद्गल द्रव्य को अवधिज्ञान जानता है, उसके भी अनन्तभाग सूक्ष्म एक पदार्थ को मनापर्यवज्ञान जानता है। अतएव जिन रूपी पुद्गल द्रव्यों को अवधिज्ञानी जानता है, उन अवधिज्ञान के द्वारा दृष्ट-ज्ञान रूपी पुद्गल द्रव्यों के अनन्त भाग-एक को मनापर्यवज्ञानी जानता है । अवविज्ञान के विषय से अनन्तवें भागवर्ती रूपी द्रव्यों को कुडय (दीवार) आदि आकारों में व्यवस्थित रूप से नहीं जानता है किन्तु मन द्वारा चिन्तन, विचार एवं अन्वेषण के विषयभूत द्रव्यों को ही जानता है। उन द्रव्यों को भी समस्त लोक में नहीं जानता वरल् मनुष्य क्षेत्रवर्ती द्रव्यों को ही जानता है। अधिज्ञानी भी अपेक्षा विशुद्धतर और अत्यन्त सूक्ष्म पर्याय वाले द्रव्यों को मनापर्यवज्ञानी जानता है। અવધિજ્ઞાનના વિષયભૂત રૂપી પુદ્ગલદ્રવ્યના અનન્ત સૂકમ એક ભાગમાં મન ૫ર્યવજ્ઞાનની પ્રવૃત્તિ થાય છે. આ રીતે જે રૂપી પુદ્ગલ દ્રવ્યને અવધિજ્ઞાન જાણે છે તેના પણ અનન્ત ભાગ સુક્ષ્મ એક પદાર્થનું મન:પર્યવજ્ઞાન જાણે છે. આથી જે રૂપી પુદ્ગલ દ્રવ્યને અવધિજ્ઞાની જાણે છે, તે અવધિજ્ઞાન દ્વારા દૃષ્ટજ્ઞાન રૂપી પુદ્દગલ દ્રવ્યના અનન્ત ભાગ–એકને સન:પર્યવજ્ઞાની જાણે છે. અવધિજ્ઞાનના વિષયથી અનન્તમાં ભાગવતી રૂપી દ્રવ્યોને દીવાલ આદિ આકારમાં વ્યવસ્થિત રૂપથી જાણતા નથી પરંતુ મનદ્વારા ચિન્તન, વિચાર અને અનવેષણના વિષયભૂત દ્રવ્યોને જ જાણે છે. તે દ્રવ્યોને પણ સમરત લેકમાં જાણતા નથી પરન્ત મનુષ્યક્ષેત્રવતી દ્રવ્યોને જ જાણે છે. અવધિજ્ઞાનીની અપેક્ષા વિશુદ્ધતર અને અત્યન્ત ભૂમિ પર્યાયવાળા દ્રવ્યોને મન:પર્યવજ્ઞાની જાણે છે. Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. सु. ५२ मनः पर्यवज्ञानस्य वैशिष्टयनिरूपणम् ८१९ भावः । उक्तञ्च भगवती सूत्रे ८ शतके ३ उद्देशके ३२३ सूत्रे - 'सव्वत्थोवा मणवज्जवणाणपण्जया, ओहिणाणपज्जवा अनंतगुणा, सुयनाणपज्जवा अनंतगुणा, आभिनिषोहियनाणपज्जवा अनंतगुणा केवलनाणपज्जवा अनंतगुणा-" इति । सर्वस्वोकाः मनः पर्यवज्ञानपर्यवाः अवधिज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः श्रुतज्ञानपर्यंवा अनन्तगुणाः, आभिनिबोधिक ज्ञानपर्यंवा अनन्तगुणाः, केवलज्ञानपर्यवाः अनन्तगुणा' इति ॥ ५२ ॥ मूळम् - मोहणिजणाणदंसणावरणांतरायक्खयाय केवलणाणं ॥ ५३ ॥ छाया - मोहनीय ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलज्ञानम् ॥ ५३ ॥ तत्वार्थदीपिका- 'पूर्व ज्ञानावरणादिकर्मणां सर्वतः क्षये जनिष्यमाणो मोक्षः केवलज्ञानोत्पत्ति कारणमाह- मोहणिज्ज' - इत्यादि । मोहनीयज्ञानदर्शनावरणा भगवतीसूत्र के आठवें शतक के द्वितीय उद्देशक में सूत्र २२३ में कहा है- 'मन:पर्ययज्ञान के पर्याय सब से कम हैं, अवविज्ञान के पर्याय उससे अनन्तगुणा हैं, श्रुतज्ञान के पर्याय अनन्तगुणा है, आभिनियोविकज्ञान के पर्याय अनन्तगुणा हैं और केवलज्ञान के पर्याय अनन्त गुणा है ||५२|| 'मोहणिज्जणाणदंसणा' इत्यादि । सूत्रार्थ - मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म के क्षय से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है ॥५३॥ तत्वार्थदीपिका - ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय होने पर उत्पन्न होने वाला मोक्ष केवलज्ञान की उत्पत्ति के बिना संभव नहीं है, अतएव केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण कहते हैं • ભગવતીસૂત્રના આઠમાં શતકના દ્વિતીય ઉદ્દેશકના સૂત્ર ૩૨૩માં કહ્યુ છે મનઃપવજ્ઞાનના પર્યાય બધાથી ઓછા છે અવિધજ્ઞાનના પર્યાંય તેનાથીઅનન્ત ગણા છે, આભિનિષેાધિકજ્ઞાનના પર્યાય અનન્તગણુા છે અને કેવળજ્ઞાનના પર્યાય અનન્તગણા છે ! પર " 'मोहणिज्जणाणदंसणा' इत्याहि સુત્રા-મેાહનીય, જ્ઞાનાવણ્ દનાવરણુ અને અન્તરાય ક્રમના ક્ષયથી કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થાય છે. !! ૫૩ || તત્ત્વાથ દીપિકા--જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્માંના જવાથી ઉત્પન્ન થનાર મેક્ષ કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ વગર કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિનું કારણ કહીએ છીએ સપૂર્ણ પણે ક્ષય થઈ શકય નથી આથી Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र न्तरायक्षयात्-अष्टाविंशतिविधस्य सोहनीयकरणः क्षयात्, पञ्चविधस्य ज्ञानादरणीय. कर्मणः क्षयाव, नवविधस्य-दर्शनावरणी कर्मणः क्षणात्, पक्षाविधस्याऽन्दरायकर्मणः क्षयात्, चकारात् मनुष्याऽऽयुष्यवर्जायुष्यत्रयस्य क्षयात् साधारणातष पश्चेन्द्रिय भिन्नचतुर्जाति नरकति नरकगत्यानुपूर्वी स्थावर सुमतिर्यग्गदि सिर्यग्गत्यानुपूर्वी-उद्बोतलक्षणत्रयोदशविधनामकर्मणः क्षयाच्च त्रिषष्टि कर्मपति क्षयरूपात् केवलज्ञान मुत्पद्यते इतिभावः। तत्र-सर्वप्रथम मोहनीयकर्मण एव दर्शनीयचारित्र. मोहनीयरूपस्य क्षयप्रतिपादनार्थ प्रथमं मोहनीय पदोपदनमानलेवम् ॥५३॥ तत्वार्थनिमुक्तिः - पूर्व ज्ञानाबरणीयादि कर्मणामन्तराषाणां सर्वतः क्षये अट्ठाईन प्रकार के मोहनीय कर्मक्षयले, पाँच प्रकार के ज्ञानाघरणीय कर्म के क्षच से नौ प्रकार के दर्शनावरणीय धर्म के क्षय से और पांच प्रकार के अन्तराय कर्म के क्षय हो तशाच शब्द के प्रयोग से मनुष्यायु के लिधाम तीन आयुमो के क्षय से, कारण नामकर्म आतए नानकम, पंचेन्द्रिय जाति को छोड़कर चार जातियों के क्षय से, भरक्षगति, नरकात्यानुपी, स्थावर, सूक्ष्म, तिर्यंचति, तिथंचात्यानुपूर्वी एवं उद्योत-हेन तेरह प्रकार के नाम के क्षयरले नेसठ कर्म प्रकृतियों का क्षय होने पर देवतज्ञान की उत्पत्ति होती है। सर्वप्रथम दर्शन-चारिन मोहनीय रूप मोहनीय कर्म का क्षय होता है, यह बतखाने के लिए सर्वप्रथम मोहनीय कर्म कर नहा किया है, ऐसा समझ लेना चाहिए ॥५॥ तत्यार्थनियुक्ति-ज्ञानावरणीय आदि कली का लका क्षय होने અઠયાવીસ પ્રકારના મોહનીય કર્મના ક્ષયથી, પાંરા પ્રકારના જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષયથી નવ પ્રકારના દર્શનાવરણીય કર્મના ક્ષયથી અને પાંચ પ્રકારના અન્તરાય કર્મના ક્ષયથી તથા “ચ” શબ્દના પ્રયોગથી મનુષ્યાયુ સિવાયના ત્રણ આયુષ્યના ક્ષયથી સાધારણ નામકર્મ, તપ નામ કર્મ. પંચેન્દ્રિય જાતિને બાદ કરતાં ચાર જાતિઓના ક્ષયથી નરગતિ નરગત્યાનુપૂરી, થાવર, સૂક્ષમ તિર્યંચગતિ તિર્યંચગત્યાનુપૂર્વ અને ઉદ્યોત આ તેર પ્રકારના નામકર્મના ક્ષય થી ત્રેસઠ કર્મ પ્રકૃતિએને ક્ષય થવાથી કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થાય છે. સર્વપ્રથમ દર્શન ચારિત્ર મોહનીય રૂપ મોહનીય કર્મને ક્ષય થાય છે, એ દર્શાવવા માટે સર્વપ્રથમ મેહનીયકર્મ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે, એવું સમજી લેવાનું છે કે પડે છે તત્વાર્થનિર્યુકિત-જ્ઞાનાવરણીય આદિ કમેને સર્વથા ક્ષય થવાથી મોક્ષ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বিঃ-বিবি যা .৫ঃ কানামালিয়াছু जनिष्यमणो मोक्षः केवलज्ञानाला न लम्भवतीति केवलज्ञानोत्पत्तिहेतुमाह‘নাজিল মাই লাগল। মালীজালহীনাত্মীয়? ভাল মন্না ওবি, ব্যক্তিবিম্ব হলকালিগীন স্বতনগঃ, বি এফ রানাসহীহ দঃ দ্বিগঞ্জ হানাহলীত্ব কালঃ, ঘন বাসন: না হাবিব! নিখাদ্ভজদ গিৰিSদ্ভুলঃ দুম্বা, হাজাহUSSBত্ব ঘখি মিন্ন অনুজী নব নহ' ফg ংঘাণৰ ভৰি খিত্যামুণী- ভাঙ্গণীয়বিঘন-ক্ষকছু স্বপ্ন স্থিতি সঙ্কুম্বিত্ব তালম্ভম্বর মুন্থিঃ। দেথ তার বিঘাপ্তানাদিনা-১াपर मोक्ष उत्पश होता है, किन्तु केवलज्ञान के विना थाहा पक्ष नहीं ই, জন্য: দফাল না ভাল না ক্ষা দিবস ঘন - | মীলী, সালাহ, ছালাহ অহ না এ ঘ বৈ ভাল ভাল খা । মাই দু মাই দু দুলি-হিল গ্রন্থ নীক, যা দুমাহ ক ছালৰংঘ , ন দ্রক্ষাৎ ঞ্জ ছালা গীত্ব জ জ জীং বল ফাহ উ বা দ্বজ ই স্ব স্ব না ‘ল’ হাত্ত্ব জ ম য় র গঙ্গা ত্ত প্রিয় হজ্জ ফুলি গুনঃ-হঙ্গা, বিভ্রান্তু জীহ জ্ঞাসু দক্ষ জম্ম , দ্বাহু, জাক, স্বাস্থ জী লাভ হীড় সহ অনঘ , লংলা, জয়দ্ধান্তভুজ, ঘি, স্কুল, নিন্মান্তি, বিভাষী গুহ ভী-- মাফ বহ ন জ লাগাল ন্তু ব, দুস্থ অল্প মন্ত্রী বঙ্গ ঈ केवलज्ञान उत्पन्न होता है। ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ વગર શક નથી, આથી કેવળજ્ઞાન ની ઉત્પત્તિનું કારણ કહીએ છીએ એહનીય, જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ, અને અન્તરાય કર્મના ક્ષયથી કેવળ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. રાઠયાવીસ ડારના દર્શનચારિત્ર મોહનીયના, પાંચ પ્રકારના જ્ઞાનાવરણીયકમના, નવ પ્રકારના દર્શનાવરણીયકર્મના અને પાંચ બે પ્રકારના અનારાયકર્મના ક્ષયથી તથા “ચ” શબ્દના પ્રાગથી મનુષ્યાયુથી ભિન, બાકીના ત્રણ આયુષ્ય નરકાસુ, તિય રચાયુ અને દેવાયુ કાના ક્ષયથી, સાધારણ આત, પંચેન્દ્રિયને છોડી શેષ ચાર જાતિઓના નરકગતિ, નરકગજ્યાનુપૂવી સ્થાવર સૂફમ, તિર્યંચગતિ, તિયચગત્યાનુપૂર્વ અને ઉદ્યોત આ રીતે તેર પ્રકારના નામકર્મના ક્ષયથી, લ સેંસઠ કર્યપ્રકૃતિઓના ક્ષયથી કેવળજ્ઞાન ৫ণ ata Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वायत्र ४२२ विंशतिविधे मोहनीयकर्मणि क्षीणे सनि पञ्चविध ज्ञानावरण नवविध दर्शनावरण पञ्चविधान्तरायकर्मसु क्षीणेषु मनुष्यायुष्यभिन्ने त्रिविधायुष्यकर्माणि च क्षीणे पूर्वोक्त त्रयोदश नामकर्मसु च क्षीणेषु समस्त द्रव्यपर्यायपरिच्छेदि केवलज्ञान दर्शनं घातिम चतुष्टयापगमात् प्रादुर्भवतीति भावः, उक्तश्च स्थानाङ्गे ३ स्थाने-"खी गमोहस्सणं अरहओ लो कम्मंसा जुग खिज्जंति, तं जहा-नाणावरणिज्ज, दसणावरणिज, अंतराइयं-" इति, क्षीणमोहस्य खलु अईतस्त्रयः कर्मा शाः युगपत् क्षीयन्ते, तद्यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरगीयम्, आन्तरायिकम्, इति ॥५३।। __ मूलम्-सव्वदचपज्जबोभासिणाणं केवलं ॥५४॥ छाया-सर्व द्रव्य पर्यावभासि ज्ञान केवलम् ॥५४॥ पहले विशिष्ट तप के अनुष्ठान आदि द्वारा अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म के क्षय होने पर तथा पांच प्रकार के ज्ञानाचरण, नौ प्रकार के दर्शनावरण और पांच प्रकार के अन्तराय मे का क्षय होने पर, मनु. ष्याय के सिवाय तीन प्रकार के आयु कर्म का क्षय होने पर और तेरह प्रकार के नामकर्म का क्षय होने पर समस्त द्रव्यों और पर्यायों को जानने बाला केवलज्ञान और केवलदर्शन, चार घातिया कर्मों के हट जाने से प्रकट होता है। स्थानांगमूत्र के तीसरे स्थान में कहा है-'जिसका मोहकर्म क्षीण हो चुका है उन अरिहन्त के तीन कमांश एक साथ क्षय को प्राप्त होते हैं, यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अन्तराय।५३। 'सव व पज्जया' इत्यादि। सूत्रार्थ:-केवलज्ञान समस्त द्रव्यों और पर्यायों को जानता है ।५४॥ અગાઉ વિશિષ્ટ તપના અનુષ્ઠાન આદિ દ્વારા અઠયાવીશ પ્રકારના મોહનીય કને ક્ષય થવાથી તથા પાંચ પ્રકારના જ્ઞાનાવરણ નવ પ્રકારના દર્શનાવરણ અને પાંચ પ્રકારના અન્તરાય કર્મને ક્ષય થવાથી, મનુષ્પાયુ સિવાયના ત્રણ આયુષ્ય કર્મોનો ક્ષય થવાથી અને તે પ્રકારના નામકર્મને ક્ષય થવાથી સમસ્ત દ્રવ્ય અને પર્યાને જાણનાર કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન, ચાર ઘાતિ ના દર થવાથી પ્રકટ થાય છે. સ્થાનાંગસૂત્રના ત્રીજા સ્થાનમાં કહ્યું છે – મન મોહકમ ક્ષીણ થઈ ચુકયું છે તે અરિહન્તના ત્રણ કર્મીશ એકી સાથે શ્રયને પ્રાપ્ત થાય છે જેમકે જ્ઞાનાવરણીય, અને દર્શનાવરણીય અને આંતરાય ૫૩ 'सव्वव्व पज्जवा' त्यात સવાર્થ-કેવળજ્ઞાન સમસ્ત દ્રવ્ય તેમજ પર્યાને જાણે છે. ૫૪ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.८२.५५ केवलज्ञानलक्षणनिरूपणम् २३ सत्वार्थदीपिका-पूर्वतावत् केवलज्ञा पूर्विका मोक्षप्राप्तिभक्तीति मोक्ष पाप्त्यर्थ केवलज्ञानोत्पत्ति कारणतया ज्ञानावरण-दर्शनाचरण-मोहनीयान्तराय रूपघातिकर्मचतुष्टयस्य सपोऽनुष्ठानादिनाक्षयः प्रतिपादित सम्पति-केवळज्ञानस्य लक्षणं रूपयितुमाह-सव्ध दबपज्जवोभाखिणाणं केवलं'-इति । सर्वद्रव्यपर्यायावभासि सर्वेषां द्रव्याणां धधिकिाशकालपुद्गलजीवस्वरूपाणां सर्वेषी पर्यवानाचा-ऽवभासि प्रकाशनं ज्ञानं केवलमुच्यते, तस्य च केवलज्ञानस्य मत्यादिज्ञानान्तरा संसृष्टत्वेना-ऽसहायत्वात् केवलव्यपदिश्यते । तथा च-सल्लद्रव्य सकळपर्यायविषयकं ज्ञानं भवतीति बोध्यम् । तशाच केवलम् एकम्-असहायम्, इन्द्रियादि साहाय्यानपेक्षणात् । यद्वा-केवलं सब लं-सस्पूर्णम्, सम्पूर्ण ज्ञेयग्राहि तत्वार्थदीपिका-मोक्ष की प्राप्ति केवलज्ञान के होने पर होती है, अतएव मोक्ष की प्राप्ति के लिए केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घाति कर्मों का तपश्चरण आदि के द्वारा क्षय प्रतिपादन किया गया, अच्छ केवलज्ञान के लक्षण का निरूपण करते हैं• समस्त द्रव्यों और पर्यायों को जानने वाला केवलज्ञान है अर्थात् जो ज्ञान, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव रूपी सभी द्रव्यों को और उनके समस्त पर्यायों को युगपत् प्रत्यक्ष रूप ले जानता है, वह केवलज्ञान कहलाता हैं। केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर मतिज्ञान आदि कोई भी अन्य ज्ञान नहीं रहता अतएव उसका कोई सहायक साथी ज्ञान न होने से वह केवल' कहलाता है। अतएव यह समझना चाहिए कि केवल ज्ञान का विषय सकल द्रव्य और भाकल पर्याय है। તત્ત્વાર્થદીપિકા-મોક્ષની પ્રાપ્તિ કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થવા થાય છે, આથી મોક્ષની પ્રાપ્તિને માટે કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિને કારણે જ્ઞાનાવરણ દર્શનાવરણ, મોહનીય અને અન્તરાય, એ ચાર ઘાતિ કર્મોને તપશ્ચર્ય આદિ દ્વારા ક્ષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું, હવે કેવળજ્ઞાનના લક્ષણનું નિરૂપણ કરીએ છીએ સમસ્ત દ્રવ્યો અને પર્યાને જાણનારૂ કેવળજ્ઞાન છે. અર્થાત્ જે જ્ઞાન ધર્મ, અધર્મ, આકાશ, કાલ, પુદ્ગલ અને જીવ રૂપ બધાં દ્રવ્યોને અને તેમના સમસ્ત પર્યાયોને ચુગવત્ પ્રત્યક્ષ રૂપથી જાણે છે, તે કેવળજ્ઞાન કહેવાય છે કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થવાથી મતિજ્ઞાન આદિ કોઈ પણ અન્ય જ્ઞાન રહેતું નથી આથી તેનું કેઈ સહાયક સાથી જ્ઞાન ન હોવાથી તે કેવળ કહેવાય છે. આથી એ સમજવાનું છે કે કેવળજ્ઞાન વિષય સકળ દ્રવ્ય અને સડળ પર્યાય છે. Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताहारज्ञानाभावत् । स्वात् । यat - केवलम् - साधारणश यहा केला अनन्य अपरिपालित्ये पर्यवसन्ाव होगानन्दपाञ्चइत्येवमेकादिosर्थेषु केली (म) दवे, राज्ञा । एवञ्च - गोपक्षये ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-उत्तरायणपतिचारविकरिक्शे पक्षप्रभर्व पालकमविल स्वयुक्ताफलानं यथानस्विता - शेपभूल-भवद् - मान्यरस्यवावावदायकं केवल विभागः । as at out aratदादि वर्तन्ते, पाण्यध्यनन्तानि षु स्वान्ध भेदेन fearfa aन्ति, धर्माचाशानि श्रीमणि अनेक देवेऽपि केवल अर्थात् असेला या अहा पयति इति आदि की यता की अपेक्षा नहीं रखना । अथवा लेवल शब्द का अर्थ है - मल, सम्पूर्ण, क्योंकि नए समस्त ज्ञेष पदार्थ को करना है। केवल अर्थात् असाधारण, जनव्यवहन, क्रोंकि ऐसा हादरा कोई नहीं है । अथवा केवल अर्थात् अनन्त, क्योंकि वह अप्रतिपाति होने से है तथा उसके ज्ञेय भी अनन्त है। इस प्रकार यहां केवल शब्द एक आदि अर्थ बाला है । इस प्रकार मोह का क्षय होने पर और ज्ञानावरण, दर्शनारण, तथा अमादाय कार्स का सर्वथा क्षय होने पर देने वाला, हथेली पर रखे हुए अतुल थूल सोनी के समान बार्थ, समस्त प मान और भविष्यकालीन पदार्थों को जानने वाला केवलज्ञान होना है। स्वार्थसूत्रे । 1 इनमें से जीव हुन्छ अनन्त है । पुल द्रव्य भी अनन्त है और કેવળ અર્થાત્ એકલું અથવા અસહાય, કારણ કે તે ઇન્દ્રિય આદિની સહાયતા ની અપેક્ષા રાખતું નથી અથવા કેવળ શબ્દને અથ થાય સકળ સમ્પૂર્ણ, કારણુ ફૅ તે સમસ્ત જ્ઞેય પદાર્થને ગ્રહણ કરે છે. મથવા કેવળ અર્થાત્ અઢા ધારણ, અનન્ય સદૃશ કેમકે એનુ જ્ઞાન ખીજું કાઈ જ નથી, અથવા કેવળ અર્થાત્ અનન્ત, કારયુકે તે અપ્રતિપાતી હાવાથી અન્તરહિત છે તથા તેના ક્ષય પણ અનન્ત છે, આ રીતે અહીં કેવળ શબ્દ એક આઢિ અર્થવાળે છે. આ પ્રમાણે સાહુને ક્ષય થવાથી અને જ્ઞાનાવરણ દનાવરણ તથા અન્તરાય કમ ના સર્વથા ક્ષય થવાથી ઉત્પન્ન થનાર હથેળી પર રાખેલા અતુલ સ્થૂળ મેાતીની સમાન યથાર્થ સમસ્ત ભૂત, ન્તમાન અને ભવિષ્યત કાલીન પર્ધાને જાણનાર કેવળજ્ઞાન હાય છે. આ માંથી જીવદ્રવ્ય અનન્ત છે. પુદ્દગલદ્રવ્ય પણ અનન્ત છે અને તે Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका आ.८.५४ केवलज्ञानलक्षणनिरूपणम् ८२५ खण्डात्मकत्वालावात् प्रत्येक मेशत्वान्ति, । कालद्रव्यमप्यनन्तं वर्तते, तस्या ऽतीता-ऽनागतादिरू नानात्वं दोध्यम् । तेषां पगालपि द्रव्याणां पर्यायाश्च त्रिकालभुषः प्रत्येकनमस्तानाता भवन्ति, लेपु द्रव्यं-पर्यापजातं का न शिश्चिदपि केवलज्ञानस्य विश्वा नलिकामति, अपितु-सनमेवद्रव्यं पर्यायजातञ्च केवलज्ञानस्य विषयो भवति । अपरिमितमाहात्म्यं खलु केवलज्ञानं सरति येन सर्वमपि द्रव्य पर्यायञ्च विएयी करोति तच्च केलतानम् एकमेव तिष्ठति न तेन सह-इतराणि क्षायोपशमिकादीनि युगपदयदि ते, सदाचिद-मलिश्रुते द्वे अपि युगपरसंभवतः, कदाचित् वीणि मतिश्रुता-ऽवधिज्ञानानि युगपत्संभवन्ति । कदाचित्-चत्वारि वे अणु तथा स्कन्द के लेद ले भिन्न हैं। धर्म, अधर्म और आशाश द्रव्य अनेकप्रदेनी होने पर भी खंडाहाक न होने के कारण एक-एक ही हैं। कालम भी अप्त है और गीत तथा अनागत आदि के भेद से नाला प्रकार का है। उन छह द्रव्यों के त्रिकालभावी पर्याय प्रत्येक के अनन्तानंत हैं। इनमें से कोई भी द्रव्य पर्याय केवलज्ञान के विषय ले पर नहीं है। बल्कि सभी द्रव्य और सभी पर्याय केवलज्ञान के विषय हैं । केवलज्ञान्न का माहारस्य अपरिमित है, जिससे वह सभी द्रव्यों और पर्यायों को जानता है। केवलज्ञान अकेला ही रहता है। उसके साथ कोई भी शायोपशधिक ज्ञान नहीं रह सकता । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों एक साथ ही रहते हैं, कदाचित् शिली आत्मा में मति, श्रुत और अबधि अथवा अति, श्रुत और मनःपर्यच येतील ज्ञान एक साथ होते है, किसी आत्मा ने पत्ति, श्रुत, अवधि और मनापर्यव, અણુ તથા સ્કંધના ભેદથી ભિન્ન છે. ધર્મ, અધર્મ અને આકાશ દ્રવ્ય અનેક પ્રદેશી હોવા છતાં પણ ખડાત્મક ન હોવાના કારણે એક એક જ છે. કાય દ્રવ્ય પણ અનન્ત છે અને અનીત તથા અનાગત આદિના ભેદથી વિવિધ પ્રકારના છે. આ છએ દ્રવ્યોના ત્રિકાળ ભાવી પર્યાય પ્રત્યેકના અનન્તાનન્ત છે. આમાંથી કોઈ પણ દ્રવ્ય અથવા પર્યાય કેવળજ્ઞાનના વિષયથી પર નથી બલ્ક બધાં દ્રવ્ય અને બધાં પર્યાય કેવળજ્ઞાનના વિષય છે. કેવળજ્ઞાનનું માહાભ્ય અપરિમિત છે જેથી તે બધાં દ્રવ્ય અને પર્યાને જાણે છે. કેવળજ્ઞાન એકલું જ રહે છે. તેની સાથે કઈ પણ ક્ષાએ પથમિક જ્ઞાન રહી શકતું નથી. મતિજ્ઞાન અને શાન બંને એક સાથે જ રહે છે, કદાચિત કોઈ આત્મામાં મતિ શ્રત અને અવધિ અથવા અતિ, કૃત અને મન:પર્યવ એ ત્રણ જ્ઞાન સંયુકત त० १०४ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % D तत्वायत्र मतिश्रुता-ऽवधि-मनापर्यवज्ञानानि युगपद् भवन्ति । किन्तु-न कदाचित-पश्चाऽपि ज्ञानानि युगपद् भवन्ति-केवलज्ञानस्य-असहायत्वाद इति भावः ॥५४॥ तत्वार्थनियुक्तिः पूर्वमन्त्रे मोक्षयापितम्मति हेतुभूतस्य केवलज्ञानस्योत्पादकारणत्वेन ज्ञानाऽवरण-दर्शनावरण-मोहनीयान्तरायरूपघातिकर्मचतुष्टनस्य तपो विशेषानुष्ठानविपाकादिना क्षयः भतिपादितः सम्प्रति-केवलज्ञानस्य लक्षणं घरूपयितुमाह-"लव्य दव्यापजको मालिणाणं केवलं-" इति। सर्वद्रव्यपर्यवावधासि ज्ञानम्-सर्वेषां द्रव्याणां-धर्मास्तिफायाधर्मास्तिकायाकाशाये चारों ज्ञान भी पाये जाते हैं। पांचों ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते। किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि उपयोग एक समय में एक ही ज्ञान का होता है, एक से अधिक्ष दो, तीन या चार ज्ञानों का एक साथ होना जो कहा गया है, वह सिर्फ क्षयोपशन की अपेक्षा से है । अर्थात् एक आत्मा में एक साथ चार ज्ञानों तक का क्षयोपशम होता है ॥५४॥ तत्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि मोक्ष की प्राप्ति में कारणभूत जो ज्ञान है, उसकी उत्पत्ति का कारण ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-इन चार घातिक कर्मों का क्षय है जो कि विशिष्ट तपश्चरण से होता है। अब केवलज्ञान के लक्षण का प्रतिपादन करते हैं जो समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों को जानता है, उसे केवल ज्ञान कहते हैं। धर्मास्तिकाय, अपोस्तिशाय, आकाशास्तिकाय, पुदપણે હોય છે કેઈ આત્મામાં મતિ શ્રત અવધિ અને મનઃ પર્યવ એ ચારે જ્ઞાન પણ જોવામાં આવે છે પાંચે જ્ઞાન એકી સાથે હોઈ શકતા નથી પરતુ યાદ રાખવું ઘટે કે ઉપગ એક સમયમાં એક જ જ્ઞાનને થાય છે. એથી અધિક બે, ત્રણ અથવા ચાર જ્ઞાનેનું એકી સાથે હેવાનું જે કહેવામાં આવ્યું છે, તે માત્ર ક્ષપશમની અપેક્ષાથી છે અર્થાત એક આત્મામાં એક સાથે ચાર જ્ઞાને સુધી ક્ષપશમ થાય છે. છે ૫૪ છે તત્ત્વાર્થનિર્યુક્તિ-પૂર્વસૂત્રમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે મેક્ષની પ્રાપ્તિ માટે કારણભૂત છે કેવળજ્ઞાન છે તેની ઉત્પત્તિના કારણ, જ્ઞાનાવરણ દર્શનાવરણ મોહનીય અને અન્તરાય આ ચાર ઘાતિને જાય છે કે જે વિશિષ્ટ તપશ્ચર્યા આદિથી થાય છે. હવે કેવળજ્ઞાનના લક્ષનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ જે સમસ્ત દ્રવ્યો અને સમસ્ત પર્યાને જાણે છે, તેને કેવળજ્ઞાન કહે છે, ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, પુદ્ગલાસ્તિકાય, જીવાસ્તિ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ शु.५४ केवलज्ञानलक्षणनिरूपणम् ८२७ स्तिकापपुद्गलास्तिकायजीवास्तिकायकारूपाणां, सर्वेषां पर्यवानाचावमासि. अवभासकं प्रकाशकं विषयतयाऽवलम्ति ज्ञानं केवलज्ञान सुच्यते । तथाचसकलद्रव्यसकलपर्यायविषयकं ज्ञानं केवलज्ञानं व्यपदिश्यते । एवञ्च-धर्मास्तिकायादि सकलद्रव्यविषयकस्-उत्पादादि सकलपर्यायविषयकच केवळ ज्ञान भवति। तत्र-धर्माधर्षाकाशरूपट्रव्यत्रयाणाम् परत उत्पाद-व्ययों भवता, पुद्गलानां-जीवानां कालानाञ्च द्रव्य त्रयाणां स्वतः-परतश्चौत्पाद-व्ययों भवतः। यथा-पुनलस्य शुक्लत्यादिना व्ययो भवन् स नीलवादिना समुपजायमानोऽछि पुद्गलत्वेनाऽवतिष्ठते । एवं जीवोऽपि देवत्वादिनोपजायमानो मनु । ष्यवादिना व्येति जीवत्वेलच सदाऽवतिष्ठते। एवं कालोऽपि आवलिकादित्वेन गलास्तिशाय, जीवास्तिशाय और साल, इन सभी द्रव्यों को तथा समस्त पर्यायों को जानने बाला ज्ञाल केवलज्ञान कहलाता है। इस प्रकार साल द्रा और सफल पर्याधाविषयक केवलज्ञान कहा जाता है। इस तरह जो धर्मास्तिकाय आदि मच द्रव्यों को और उत्पाद आदि सब पर्यायों को जानता है वह केवलज्ञान होता है। धर्म, अधर्म और आकाश, इन तीन द्रव्यों का उत्पाद और व्यय परतः होता है तथा पुहूगल जीस और काल, इन तीन द्रव्यों का उत्पाद और व्यथ खनः और परतः होता है। पुद्गल द्रव्यद का शुक्ल पर्याय से व्यय (विनाश) होता है, नील पर्याश के रूप में उत्पाद होता है, फिर भी वह पुद्गल रूप से ध्रुश रहता है, इसी प्रकार जीक का भी देव पर्याय से उत्पाद, मयुष्य पर्याश हे विनाश और जीव रूप ले धौव्य होता है- अर्थात् जीयस्व दोनों पायों में कायम रहता है। इसी प्रकार काल भी आवलिका आदि रूप से नष्ट होता है, समय आदि रूप से કાય અને કાલ, આ બધાં દ્રોને તથા બધાં પર્યાયોને જાણનારા જ્ઞાન કેવળ જ્ઞાન કહેવાય છે. આ રીતે સકળ દ્રવ્ય અને સકળ પર્યાય વિષયક કેવળજ્ઞાન, કહેવામાં આવે છે. આ રીતે જે ધર્માસ્તિકાય આદિ બધા ને તેમજ ઉતપાદ આદિ બધાં પર્યાયોને જાણે છે તે કેવળજ્ઞાન કહેવાય છે. ધર્મ, અધર્મ, અને આકાશ આ ત્રણ દ્રવ્યના ઉત્પાદ અને વ્યય પરતઃ હોય છે. પુદ્ગલદ્ર શુકલ પર્યાયથી વ્યય (વિનાશ) થાય છે, નીલપર્યાયના રૂપ માં ઉત્પાદ થાય છે, તે પણ તે પુગલ રૂપથી ધ્રુવ રહે છે એજ રીતે જીવ મેં પણ દેવ પર્યાયથી ઉત્પાદ, મનુષ્યપર્યાયથી વિનાશ અને જીવ રૂપથી ધ્રૌવ્ય થાય છે- અથાત જીનત્વ બંને પર્યામાં કાયમ રહે છે એવી જ રી' . Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र वियन् समयत्यादिना समुपजायमानोऽपि कालत्वेन लदावतिष्ठते अवस्थित एव भवति, तथा चैवविध सकलद्रव्यपर्यायानमालक के.वलज्ञान भवति ॥ अथ कथं तावत्-केवलज्ञानस्य सकलद्रव्याणि सर्व पर्यायाच गोचरी भवन्तितेषामनन्ताऽनन्तत्वात् इतिचेत्रोव्यते-अपरिमितमाहाल्यं खलु केवळशान भवति । अतएवा-अपरिच्छिन्न माहारल्यावकेवलज्ञान सर्वेषां द्रव्यक्षेत्रकालभावविशिष्टानां पदार्थाना सबभामकं भवति, स्थाच-सम्पूर्णलोकालोक विषयकं खलु केवलज्ञान भवति, नातः परं किश्चिद् ज्ञानमस्ति नापि-केवळ ज्ञानविषयादन्यत् किमपि ज्ञेय मस्ति। तत्र धर्माधर्मास्तिकायद्रव्यद्वया वच्छिन्नमाकाशं पुद्गलास्तिकायजीवास्तिकायश्च लोकपदेनोच्यते । यत्र पुनराकाशे धर्माधर्मास्तिकार्यो नस्तः सोऽलोको लोकशिनः उच्यते, तथाच-यदिह उत्पन्न होता है और कालत्व की दृष्टि सदा स्थिर रहता है। इस प्रकार के सभी द्रव्यों और पर्यायों को केवल ज्ञान जानता है। .. प्रश्न केवलज्ञान सर्व द्रव्यों और सर्व पक्षीयों को कैसे जान सकता है ? क्योकि यह अनन्तानन्स हैं। उन्तर-केवलज्ञान का माहात्म्य अपरिमित है। असीम महात्म्य होने के कारण क्षेवलज्ञान समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशिष्ट पदार्थों का बोधक होता है। केवलज्ञाल लमस्त लोक और अलोक को जानता है। उल्लले बढ कर अन्य कोई ज्ञान नहीं है और ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान के विषय से पार हो। बलासितकाय और अध. मास्तिकासले व्याप्त आशाश लोक कहलाता है। जिला आकाशखंड में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय विधमान नहीं है, वह लोक से કાલ પણ આવલિકા આદિ રૂપથી નષ્ટ થાય છે, સમય આદિ રૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે અને કાલવની દૃષ્ટિથી સદા સ્થિર રહે છે. આ પ્રકારના સઘળાકો તેમજ પર્યાને કેવળજ્ઞાન જાણે છે. પ્રશ્ન--કેવળજ્ઞાન સર્વદ્રવ્યો અને સર્વપર્યાને કેવી રીતે જાણ કરી શકે? કારણ કે તેઓ તો અનસ્તાનન્ત છે ! ઉત્તર–કેવળજ્ઞાનનું માહાસ્ય અપરિચિત છે. અસીમ માહાતમ્ય હોવાના કારણે કેવળજ્ઞાન સમસ્ત દ્રવ્ય, ક્ષેત્રકાલ અને ભાવથી વિશિષ્ટ પ્રકારે નું બાધક હોય છે કેવળજ્ઞાન સમસ્ત લોક અને અલકને જાણે છે. તેનાથી વધીને અન્ય કોઈ જ્ઞાન નથી અને એવું કંઈ રેય નથી જે કેવળજ્ઞાનના વિષયથી બહાર હોય. ધર્માસ્તિકાય અને અધર્માસ્તિકાયથી વ્યાપ્ત આકાશ લોક - કહેવાય છે. જે આકાશખંડમાં ધર્માસ્તિકાય અને અધર્માસ્તિકાય વિદ્યમાન નથી, Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युति टीका थ.८ इ.५४ केवलज्ञानलक्षणनिरूपणम् लोके-ऽलोके बा किश्चिदपि ज्ञेयमस्ति तयथा बहिः एश्यति एव मन्तरपि केवल ज्ञानेन पश्यति काली, इत्येवं सम्पूर्ण लोकालोकविषयकं खल्लु केरल ज्ञान भवति । अतएब केवलज्ञान परिपूर्ण इम्पदिश्यते सनस्य द्रव्यभावजालल्य परिच्छेदकत्वात् । एवं समन, सत्यादि ज्ञानापेक्षया विशिष्टम् असाधारणं निरपेक्ष विशुद्ध सर्वभावज्ञापनं लोक लोकविषयकस्यात् अनन्तपरिणामात्मकञ्च केवलज्ञानं भाति । तच्च फेवलज्ञानं नान्येन सत्यादि ज्ञानादिना सह युगपत् सम्भवति, अपितु-केवलमेकमेव तिष्ठति न खलु केवलज्ञानेन सह क्षायोपशमिकादीनि संभवन्ति । कदाचिदैकस्मिन् जीवे मत्यादि ज्ञानद्वयं-ज्ञानत्रयं-ज्ञानचतुष्टयं वा भिन्न अलोक कहलाता है। इस प्रकार इस लोक और अलोक में जो भी ज्ञेय है, उहा राय को केवली केवलज्ञान से जानते ह-जले बाहर देखते हैं वैसे ही भीतर देखते हैं। इस तरह क्लज्ञान सम्पूर्ण लोकअलोक विषयक है। इस कारण केवलज्ञान परिपूर्ण कहलाता है, क्योंकि वह समस्त द्रव्यमा लसून हा परिच्छेदक है। इस प्रकार समग्र, मति आदि ज्ञानों की अपेक्षा विशिष्ठ, असाधारण, निरपेक्ष, विशुद्ध, सर्व भावों का ज्ञापस तथा लोया-आलोक विषयक होने के कारण अनन्त परिणामालका केवलज्ञान होता है। केवलज्ञान प्रति आदि ज्ञानों के साथ नहीं रह सकता, किन्तु अकेला ही रहता है। केवलज्ञान के लाय क्षायोपशभिक ज्ञानों का रहना संभव नहीं है। एक जीव में विज्ञान और अवज्ञान-दो तो साथ ही होते हैं, कदाचित् अवधिज्ञान या मनापर्थय के साथ तीन भी हो सकते તે લેકથી ભિન્ન અલેક કહેવાય છે. આ રીતે આ લેક અને અલકમાં જે કોઈ પણ ય હોય છે, તે સર્વેને કેવળી કેવળજ્ઞાન દ્વારા જાણે છે જેવી રીતે બહાર જુએ છે તેવી જ રીતે અંદર પણ જુએ છે. આ રીતે કેવળજ્ઞાન સંપૂર્ણ લેક અલેક વિષયક છે. આથી પરિપૂર્ણ કહેવાય છે, કારણકે તે સમસ્ત દ્રવ્યમાનસમૂહને પરિરટેક છે, આ પ્રકારે સમગ્ર મતિ આદિ જ્ઞાનની અપેક્ષા વિશિષ્ટ, અસાધારણ નિરપેક્ષ વિશુદ્ધ સર્વભાવના જ્ઞાપક તથા લેક અલેક વિષયક હોવાના કારણે અનન્ત પરિણામાક કેવળજ્ઞાન હોય છે. કેવળજ્ઞાન મતિ આદિ જ્ઞાનની સાથે રહી શકતું નથી પરંતુ એવું જ રહે છે. કેવળજ્ઞાનની સાથે પરામિક જ્ઞાનું રહેવું, શકય નથી, એક જીવમાં અતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન બંને તે સાથે જ હોય છે, કદાચિત અવવિજ્ઞાન અથવા મન:પર્યવજ્ઞાન સાથે પણ ત્રણ હોઈ શકે છે અને કઈ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ युगपत् मत्यादि मनापर्यवज्ञान पर्यन्तं सम्भवति । किन्तु-न कदाचिदपि ज्ञानपञ्चक युगपत्सम्भवति, केवलज्ञानऽ कालेऽन्येषां मत्यादि ज्ञानानामसभावात । अतएव ज्ञानान्तरा सम्बद्धत्वेनाऽसहायत्वात् तस्य केवलत्वव्यवहारो भवति ॥ उक्तश्चाऽतुयोगद्वारे दर्शनगुणप्रमाणप्रकरणे १४४ छत्रे-'केवलदंसणं केवलदंसणिस्स सबदवेलुय-सव्वपज्जवेसु -इति, केवलदर्शनं केवलदर्शनिनः सर्वद्रव्येषु च-सर्व पर्यायेषु च इति । नन्दिनत्रे २२ मूत्रेचोक्तम्-'तं ममासओ चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दवओ, खित्तमओ कालो, भावभो, तत्व वओणं केवलनाणी बच्न दवाई जाण पालह, वित्तभोणं केवल नाणी सव्वं खित्त जाण पासइ, काल ओर्ण क्षेवलनाणी सव्वं कालं जाणइ पासह, भावओणं केवलनाणी सबने भावे जाणइ पाला, अहव्व व्वपरिणाम भाव विष्णत्ति कारणमातं, सालयमा डिनाई एगविह केवलं नाणं' इति । तत् समासन अतुर्विधम् प्रज्ञतम्, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः -द्रव्यतः खल्ल केवलज्ञानी सईद्रपाणि जानाति एश्यति, क्षेत्रतः खलु केवल. हैं और किसी आत्मा में चारों भी पाये जा सकते हैं। मगर एक साथ पाँचो ज्ञानो का होना संभव नहीं है। केवलज्ञान के सदभाव में मति आदि चार ज्ञानो का लदभाव नहीं होता। अतएव दूसरे ज्ञानों के साथ सम्बद्ध न होने से, असहाय होने के कारण वह केवलज्ञान कहलाता है। ___अनुयोगद्वार सूत्र में दर्शनशुणप्रमाण के प्रकरण में, सूत्र १४४ में कहा है-'केवलदर्शन-क्षेबलदर्शनी का मुर्व द्रव्यो में और सर्वपर्यायो-' नन्दिसूत्र के २२वे सूत्र में भी कहा है-'वह केवलज्ञान संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य से केवलज्ञानी सब द्रव्यो को जानता-देखता है, क्षेत्र से केवलज्ञानी આત્મામાં ચારે પણ જોવા મળે છે પરંતુ એકી સાથે પાંચ જ્ઞાનેનું હોવું સંભવિત નથી. કેવળજ્ઞાનના સદૂભાવમાં મતિ આદિ ચાર જ્ઞાનેને સદ્ભાવ હેતો નથી. આથી બીજા જ્ઞાનની સાથે સમ્બદ્ધ ન હોવાથી અસહાય હોવાના કારણે તે કેવળ જ્ઞાન કહેવાય છે. અનુગદ્વાર સૂત્રના દર્શનગુણું પ્રમાણુના પ્રકરણના સૂત્ર ૧૪૪માં કહ્યું છે કેવલદર્શન કેવલદર્શનીના સર્વદ્રવ્યમાં અને સર્વ પર્યામાં નંદીસૂત્રના ૨૨માં સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે કે-તે કેવળજ્ઞાન સંક્ષેપથી ચાર પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યું છે દ્રવ્યથી ક્ષેત્રથી કાળથી અને ભાવથી દ્રવ્યથી કેવળજ્ઞાની અષાં ફૂલે જાણે છે જુએ છે, ક્ષેત્રથી કેવળજ્ઞાની સર્વક્ષેત્રને જાણે છે જુએ છે Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.५४ केवलज्ञानलक्षणनिरूपणम् ८३१ ज्ञानी सर्व क्षेत्र जानति पश्यति, कालतः खल्लु केवलज्ञानी सर्व कालं जानातिपश्यति, भावतः खलु केवलज्ञानी सर्वान् भावान् जानाति पश्यति । अथ सर्वव्यपरिणामभाव विज्ञप्ति कारण मनन्तं शाश्वतम् अप्रतिपाति एकविधं केवलज्ञानम् इति । तथा चाऽपरिमत माहात्म्यं खलु केवलज्ञानं भवतीति फलितम् ॥५४॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगदल्लम-प्रसिद्धवाचक-पश्चदशभाषा कलितललितकलापालाएकपविशुद्धगधपधानैकग्रन्थ निर्मापक, बादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजघदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालचतिविरचियां श्री दीपिका-नियुक्ति व्याख्या द्वयोपेतस्य तत्वार्थ सूत्रस्याष्टो ध्याय: समाप्तः ॥८॥ सर्व क्षेत्र को जानता-देखता है, काल से केवलज्ञानी सम्पूर्ण झाल को जानता-देखता है और भाव से केवलज्ञानी सकल भादो को जानतादेखता है। 'केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रब्यो, भावो और परिणामो को जानने का कारण है, अनन्त है, शाश्वत है, अपतिपाती है और एक प्रकार का है। इससे यह फलित हुआ कि केवल का माहात्म्य अपरिमित है ॥५४॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'तत्त्वार्थस्सूत्र' की दीपिका-नियुक्ति व्याख्या का आठवां अध्याय समाप्त ॥८॥ કાળથી કેવળજ્ઞાની સંપૂર્ણ કાળને જાણે જુએ છે અને ભાવથી કેવળજ્ઞાની સકળ ભાવેને જાણે જુએ છે. કેવળજ્ઞાન સપૂર્ણ દ્રવ્યું, અને પરિણામોને જાણવાનું કારણ છે, અનન્ત છે શાશ્વત છે, અપ્રતિપાતી છે અને એક પ્રકારનું છે. આનાથી એ ફલિત થયું કે કેવળનું મહાતમ્ય અપરિમિત છે. છે ૫૪ છે જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસલાલજી મહારાજકૃત “તત્વાર્થસૂત્રની દીપિકા-નિર્ચક્તિ વ્યાખ્યાને માઠમે અધ્યાય સમાપ્તઃ ૮. ज Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्र - - ॥ अथ ननमोऽध्यायः पारस्मः ॥ मूलम्-सयलकालखए सोश्ले ॥१॥ छाया-सकळकर्मक्षयो मोक्षः ॥१॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावत्-'जीजाजीनाथ धोय पुषणं पायालयी तहा। संबरो णिज्जरा मोखो संत तहमा बन्न ॥१॥ इत्युत्तराध्ययनानुसा रेणा-ष्टावध्यायेषु यथाक्रममेवैकस्यियध्याये जीवादि निर्जरा पर्यन्तानामष्टतत्यानां मरूपणं कृतस्. सम्पति-क्रममाप्तं नवयं मोक्षल सविशदं प्रल्पयितुं नवममध्यायं प्रारमते-पूर्व तत्र मिथ्याष्टित आरय सुबोदशगुणस्थान पर्यन्तं देशतो निर्जरा भवति । ततः परपयोगिोवलिनः सर्वकर्मणां क्षयरूपं निर्जरणं भवतीति प्रोक्तम् । सम्पति-लवकर्मक्षये पुनः शिम्भवतीति प्ररूपायितुमा 'लयल | স ঙ্গান্থ দু এক 'सयलसम्मखएनोखे। सूत्रार्थ-लमस्त फर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है ॥१॥ तत्वार्थदीपिका-"जीव, अनजीच, बन्ध, पुणश, पाप, आस्त्रय, संघर, निर्जरा और मोक्ष, ये नौ तत्व है। "इल उन्ताध्ययनसून के अनुसार पहले आठ अध्यायो, कसले एक-एक अध्यन में, जीव ले लेकर निर्जरा पर्यन्त आठ लो की शुरूणा की गई, अघ प्रप्राप्त नौवें मोक्ष तत्त्व को विशद प्रलपणा की जाती है पहले मिथ्याष्टि ले लेकर तेरहवें गुणस्थान तक देशत: लिर्जरा होती है तत्पश्चात् अयोग केवली को सहनों की रूप निर्जरा होती है, यह कहा जा चुका है। अब यह बदलाते हैं कि हमस्त कला नवमा अध्यायन पारस- -- 'सयलकम्मक्खए मोखे સવાથ–સમસ્ત કર્મોને ક્ષય થઈ જ મે ા છે કે ૧ | तवाह -७१, 48+, अन्ध, १७५, पाय, मालप, सव२, નિર્જરા અને મે. આ નવ તત્વ છે” આ ઉત્તરાયનસૂત્રના અનુસાર પ્રથમ આઠ અધ્યાયમાં ક્રમથી એક -એક અધ્યયનમાં જીવથી લઈને નિર્જરાપર્યત આઠ તરાની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી, હવે ક્રમપ્રાપ્ત નવમાં મેં ક્ષતત્વની વિશદ પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે પહેલા મિશ્રાદષ્ટિથી લઈને તેમાં ગુણસ્થાન સુધી દેશનઃ નિર્જરા થાય છે. ત્યારબાદ અગકેવળીને સમસ્તકર્મોના રૂપ નિર્જરા થાય છે. એ કહેવામાં આવી ગયું છે, હવે એ બતાવીએ છીએ કે સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય થવાથી શું થાય છે? Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९ स्.१ मोक्षतत्वनिरूपणम् कम्मक्खए मोक्खे-इति । अनशन प्रायश्चित्तादितपः संयमादिना कर्मफलभोगलक्षणविपाकेन च देशतः कर्मक्षयलक्षणा निर्जरा भवतीत्युक्तम् ततश्च-मिथ्यादर्श. नादीनां बन्धहेतूनां तदावरणीयकर्मणः क्षयोदभावे सति केवलज्ञान-केवलदर्शनो. स्पादे च ज्ञानावरणाघन्तरायपर्यन्ताऽष्टविध कर्ममूल प्रकृतीनामष्टचत्वारिंशद. धिकशतसंख्यकोत्तरमकृतीनां च क्षयात् सकलकमक्षयः सकलस्य-सम्पूर्णस्य निरवशेषस्य-कृत्स्नस्य कर्मणः क्षयः, आत्मप्रदेशेभ्यः परिशाटः पृथग्भवनम् सकलकर्ममध्वंसो मोक्षो व्यपदिश्यते । तथा च-ज्ञानावरण दर्शनाऽवरण मोहनी. याऽन्तरायरूपघातिकर्मचतुष्टये सति केवलज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं वेदनीयनामगोत्राऽऽयुष्करूप कर्म चतुष्टयस्य भवधारणीयस्याषि क्षयो भवति, इत्येवं सकल कर्मका क्षय होने पर क्या होता है ? - ____अनशन तथा प्रायश्चित्त आदि बाह्य एवं आभ्यन्तर तप से, संयम आदि से तथा कर्मफल के योग रूपी विपाक से एकदेश कर्मक्षय रूप निर्जरा होती है, यह कहा गया है। तदनन्तर बन्ध के कारण मिथ्यादर्शन आदि का अभाव हो जाने पर और केवलज्ञान तथा केवलदर्शन की उत्पत्ति हो जाने पर ज्ञानावरण से लेकर अन्तराय कम पर्यन्त आठ मूल कर्म प्रकृतियों का एवं एक सौ अडतालीस उत्तर प्रकृतियों का क्षय होने से समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, अर्थात् वे कर्म आत्मा से पृथक् हो जाते हैं। यही मोक्ष कहलाता है। इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरोय-इन चार धातिया कर्मों का क्षय होने पर केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु-इन चार भवधारणीय कर्मों का भी - અનશન તથા પ્રાયશ્ચિત આદિ બાહ્ય તથા આભ્યન્તર તપથી, સંયમ, આદિથી તથા કર્મફળમા ભેગરૂપી વિપાકથી એકદેશ કર્યાય રૂપ નિર્જર થાય છે એ કહેવામાં આવ્યું છે. તદનન્તર બન્ધના કારણે મિથ્યાદર્શન આદિ ને અભાવ થઈ જવાથી અને કેવળજ્ઞાન તથા કેવળદર્શનની ઉત્પત્તિ થઈ જવાથી જ્ઞાનાવરણથી લઈને અન્તરાયકર્મ પર્યત આઠ મૂળ કર્મપ્રકૃતિઓને તથા એકસો અડતાળીશ ઉત્તરપ્રવૃત્તિઓને ક્ષય થવાથી સઘળાં કર્મોને ફાય થઈ જાય છે, અર્થાત્ તે કર્મ આત્માથી જુદાં થઈ જાય છે આ જ મે કહેવાય છે. આ રીતે જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ, મેહનીય અને અન્તરાય એ ચાર ઘનઘાતિ કને ક્ષય થવાથી કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ બાદ વેદનીય, નામ, ગોત્ર અને આયુ એ ચાર ભવધારણીય કર્મોને પણ ક્ષય થઈ જાય છે. આ રીતે त० १०५ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t ? तत्त्वार्थस क्षय समकालमेव - औदारिकशरीर निमुक्तस्याऽस्य मनुष्यजन्मनः प्रहाणं - समु छेदो rate मध्यादर्शभावाच्चोत्तर जन्मनोऽप्रादुर्भाव इत्येवं पूर्वजन्मन उच्छेद उचरजन्म प्रादुर्भाविथ कृत्स्न कर्मक्षयलक्षणो मोक्षः ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणस्याऽऽत्मनः स्व-स्वरूपावस्थानं भवतीति भावः । तत्राऽष्टसु ज्ञानावरणदर्शनावरण- मोहनीय वेदनीयाऽऽयुर्नाम - गोत्रान्तरायेषु मूलप्रकृतिकर्मसृ पञ्चज्ञानावरणानि सतिज्ञानावरणादि भेदात् नवदर्शनावरणीयानि चक्षुर्दर्शनावरणादिभेदात् अष्टाविंशति मोहनीयानि कर्माणि दर्शर-सोहनीय, चारित्रमोहनीयादि भेदात्, द्वे वेदनीयकर्मणी - सदस द्वेदनीय भेदात् । चत्वारि - आयुः कर्माणि, नरकक्षय हो जाता है । इस प्रकार लय कर्मों का क्षय होते ही औदारिक शरीर से मुक्त हुए इस मनुष्य-जन्म का अन्त होता है और मिथ्यादर्शनादि का जमाव होने से अगला जन्म होता नहीं है। इस प्रकार 'पूर्वजन्म का विच्छेद हो जाना और उत्तर जन्म का प्रादुर्भाव होना मोक्ष है और सम्पूर्ण फर्मों का क्षय होना उसका लक्षण है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान-दर्शन उपयोग रूप आत्मा का अपने ही स्वरूप में अव'स्थान हो जाना ही मोक्ष कहलाता है । wphy कर्मको आठ मूल प्रकृतियां है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, 'वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें से मतिज्ञानावरण 'आदि के भेद से ज्ञानावरण के पांच भेद है, क्षुदर्शनावरण आदि के भेद से दर्शनावरण के नौ भेद है, दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय आदि के भेद से मोहनीय कर्म के अड्डाईस भेद हैं, माता-असाता के भेद ले वेदनीय कर्म के दो भेद हैं, नरकायु तिर्यं चायु आदि के भेद से -સમરત 'કર્માના ફાય થતાં જ ઔદારિક શરીરથી મુકત થયેલા આ મનુષ્ય જન્મના અન્ત આવે છે અને મિથ્યાદનાદિને અભાવ થવાથી પુનર્જન્મ થતા ‘નથી આમ પૂર્વ જન્મના વિચ્છેદ થઈ જવા અને ઉત્તરર્જન્મના પ્રાદુર્ભાવ ન ,थेवे। भिक्षा'छे'भने-'सभ्यूयु" भेनि क्षय थे। तेनुं छे. तात्यय के ज्ञान दृर्शनः उपयोग ३५ मत्सानु' 'पोतानी” स्वईयमी अवस्थान ४. मोक्ष, हेवा छे - " * Pe , A मनी आठ भूप्रति $1145 1: हे ज्ञानावरण, दर्शनविरथ, मोहनीय वेहनीय સ્માયુ, નામ, ગેાત્ર અને અન્તરાય આમાંથી મતિજ્ઞાનાવરણું આદિના ભેદથી ज्ञानावरछना, पाथ लेड छे," अक्षुदर्शनावर महिनाले यी हर्शनावस्थ A માનિ દનાવરણના નવ ભેદ છે, દશ નમાહનીય ચારિત્રમેહનીય આદિના " } ભેદથી મેહનીય કેમના મયાવીસ ભેદ છે, સાતા અસાતાના ભેદથી. વેદનીય 11- 16 25 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्मुक्ति टीका अ.९ .९ मोक्षतत्वनि SH ***** H - तिर्यगादि भेदात् त्रिणवंति नामकर्माणि गति-जाति-नाम भेदात्, द्वे गोत्र कर्मणी उच्चनीचगोत्र भेदात् । पञ्चान्तरायकर्माणि दानान्तरायादि भेदात्, इत्येव सककानों पञ्च- नवाऽष्टाविंशति द्विचतुःत्रिणवति द्विपञ्च संख्यकानां ६-९-२८-३ ४२९३-२-६ - अष्टचत्वारिंशदधिकशते कर्मणा क्षलक्षणो मोक्षन्तव्यः एतेषां च कर्मणां विशेष स्वरूपाणि निर्युक्तौ प्रशष्यते ॥ १ ॥ 'तत्त्वार्थनियुक्ति -- पूर्व खलु - जीवाजीदंवन्धपुण्यपापात्र व संवर निर्जरामोक्षरूपनवतश्वेषु - उत्तराध्ययनोक्तेषु यथाक्रमं जीवादि निर्जरापर्यन्तानामष्ट तत्त्वानामष्टसु अध्यायेषु प्रत्येक मेकैकस्मिन् अध्याये सविस्तरं रूपणं कृतम्, सम्पति-नवमं मोक्षवत्त्वं रूपयितुं नवममध्यायं पारमते -'संथल सम्म देखए, आयुकर्म के चार भेद है, गतिनाम, जातिवाल आदि के भेद से तेरा " नमक के भेद हैं, उच्च और नीच के भेद से गोकर्ण दो प्रकार का है । दानान्तराय आदि के भेद से अन्तराय कर्म के पांच भेद हैं। इस प्रकार पांच, नौ, अट्ठाईस, दो, चार, तिराणये, दो और पांच (५९-२८-२-४-९३-२-५) मिलकर एक सौ अडतालील कर्म प्रकृतियों का क्षय हो जाना मोक्ष समझना चाहिए। इन कर्मो का विशेष स्वरूप नियुक्ति में दिखलाऐंगे ॥ १२ ॥ #1 ભેદ છે 'तश्वार्थनियुक्ति - जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्त्राव, संबर, निर्जरा और मोक्ष, इन उतराध्ययनसून में प्रतिपादित नौ तत्वों में से, क्रमानुसार जीव से लेकर निर्जरा पर्यन्त आठ तत्वों का आठ अध्यायों में एक-एक को एक-एक अध्याय में विस्तारपूर्वक प्ररूपण किया गया.. કર્મીના ....ભેદ છે, નરકાસુતિય ચાયુ આદિના ભેદથી આયુકમના ચાર ગતિનામ, જાતિનામ આદિના ભેદથી નામકમના ત્રાણ ભેદ છે ઉચ્ચ અને નીચના ભેદથી ગાત્રકમ એ પ્રકારના છે. દાનાન્તરાય આદિના ભેદથી અન્તરાય उभना यांच लेहमछे. भावी रीते यांथ, नव, यावीस, में, यार, भागु में अने यांय (५+८४२४×२X४X३X२५५) मणीने शेम्स। अताडी' (१४८) उ પ્રકૃતિઓના ફાય થઈ જવા માક્ષ સમજવા જોઇએ. આ કર્યાંનુ વિશેષ સ્વરૂપ निर्युतिभां दर्शावीशु ॥ १४॥ Pr '' Jh 1 1 " 3 }' : तत्त्वार्थं नियुठित-७, मलव, अन्ध, નિર્જરા અને મેક્ષ આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં ક્રમાનુસાર જીવથી લઇને નિરા પન્ત આઠ એક એકનું એક એક અધ્યાયમાં વિસ્તારપૂર્વક નવમા મેાક્ષતત્વની પ્રરૂપણા કાજે નવમાં અધ્યાય પ્રારંભ કરવામાં આવે છે पुण्य, चाय, शासन, सौंदर,' પ્રતિપાદિત નવ તત્વામાંથી તત્વાનુ આઠ અધ્યાયામાં પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યૂ હવે Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...................... तत्वार्यसूत्र - मोक्खे' इति । सकळकर्मक्षयः-सकलानां-ज्ञानावरण-दर्शनावरणाघष्टविधमूलप्रकृतिरूपाणामष्टचत्वारिंशदधिकशतसंख्यकोत्तरपकृतिरूपाणाश्च कर्मणां क्षयः मात्मप्रदेशेभ्योऽपरिशटनं मोक्षः ज्ञानदर्शनोपयोग लक्षणस्याऽऽत्मनः स्व-स्वरूपा यस्थानं भवतीति भावः । तथा च-प्रथमं तावत्-तपः संयमनिर्जरादिभिः शाना-. वरण-दर्शनावरण-मोहनीयाऽन्तरायाख्यचतुर्विधघातिककर्मसु क्षीणेषु केवलज्ञानोत्पत्ति भवति, तदनन्तरं भवधारणीयानां वेदनीय-नामगोत्राऽऽयुष्करूप चतुर्विध कमणाञ्च क्षयो भवति । इत्येव मुत्तरपकृतिसहिताऽष्ट-विधकर्मक्षयसमकाल मेवौदारिकशरीर वियुक्तस्याऽस्य मनुष्यजन्मनः प्रहाणम् उच्छोदो भवति । अय नौवें मोक्षतत्व की प्ररूपणा करने के लिए नौवें अध्याय प्रारम्भ किया जाता है सम्पूर्ण कर्मों का अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि आठ मूल कर्मप्रकृतियों का एवं एक सौ अडतालीस उत्तरप्रकृतियों का क्षय होना अर्थात् आत्मप्रदेशों से पृथक् होना मोक्ष है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानदर्शन-उपयोग लक्षण वाले आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थान हो जाता है, यही मोक्ष है। पहले तप, संयम और निजरा आदि द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण,, मोहनीय, और अन्तराय नामक चार घातिक कर्मों का क्षय हो जाने पर केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है, तत्पश्चात् भयोपग्राही वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु नामक चार कर्मों का क्षय होता है। इस प्रकार उत्तरप्रकृतियों सहित आठ कर्मों का क्षय होते ही औदारिकशरीर वाले इस मनुष्य जन्म का अन्त हो जाता है और वंध के कारण मिथ्यादर्शन સપૂર્ણકમેને અથાત્ જ્ઞાનાવરણ દર્શનાવરણ આદિ આઠ મૂળ કર્મપ્રકૃતિ એને એકસે અડતાલીશ ઉત્તર પ્રવૃતિઓને ક્ષય થ અર્થાત્ આત્મપ્રદેશથી પૂથ થઈ જવું મોક્ષ છે. તાત્પર્ય એ છે કે જ્ઞાન-દર્શન ઉપગ લક્ષણવાળા આત્માનું પિતાના સ્વરૂપમાં અવસ્થાન થઈ જવું એ જ માફ છે. . પહેલા તપ સંયમ અને નિર્જરા આદિ દ્વારા જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ, મેહનીય અને અન્તરાય નામક ચાર ઘનઘાતિ કર્મોને ક્ષય થઈ જવાથી કેવળ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થાય છે, ત્યારબાદ ભગ્રાહી વેદનીય, નામ, ગોત્ર અને આયુષ્ય નામક ચાર કર્મોને ક્ષય થાય છે. આ રીતે ઉત્તરપ્રકૃતિઓ સહિત આઠકને ક્ષય થતાંની સાથે જ દારિક શરીરવાળા આ મનુષ્ય જન્મને અખ્ત થઈ જાય છે અને બન્ધના કારણે મિથ્યાદર્શન આદિને અભાવ થવાથી Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युति टीका अ.९ सू.१ मोक्षतत्वनिरूपणम् .............३७. मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनाम भावाच्चोत्तरजन्मनो-ऽमादुर्भावो भवति, एवं विधा ऽपूर्वजन्मोच्छेदोत्तरजन्मा-ऽपादुर्भावावस्था खलु कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो व्यपदिश्यते । एवञ्च-कृत्स्नकर्मणां क्षयः आत्मपदेशेभ्यः पृथग्भवनरूपं परिशटनम् कर्मराशिप्रध्वंसः आत्मनः स्वस्वरूपावस्थानमेव मोक्षो भवतीति बोध्यम्, नतु-आत्मनोऽपि-अभावो मोक्षावस्थायां भवति । आत्मनो ज्ञानादि परिणामि स्वभावतया तस्य निरन्वयनाशसम्मवात्, तदानीमपि-ज्ञानादि परिणामित्वेन स्थितिसम्भवात् । तपः संयमादिना स्थगित सकलाऽऽस्रवद्वारस्य संवरसंवृतस्य परमातिशयसम्पन्नस्य सम्यक्तयाऽनुष्ठायिन इच्छास्थस्य सयोगिकेवलिनो निरूद्धसकलयोगस्य च मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनामभावात् । तदावरणीयकर्मआदि का अभाव होने से उत्तर जन्म का प्रादुर्भाव नहीं होता है । इस प्रकार वर्तमान जन्म के उच्छेद से और अगले जन्म का प्रादुर्भाव न होने से जो समस्त कर्मों से रहित विदेहावस्था प्राप्त होती है, वही मोक्ष है। इस प्रकार समस्त कर्मों का क्षय, आत्मप्रदेशों से पृथक् होना रूप निरण, कर्मसमूह का प्रध्वंस या आत्मा का स्व-स्वरूप में स्थित होना ही मोक्ष कहलाता है। मोक्ष अवस्था में आत्मा का अभाव नहीं होता है। आत्मा ज्ञानादि परिणाम स्वभाव वाला होने से समूल नष्ट नहीं होता। उस अवस्था में भी ज्ञानादि स्वभाव से उसकी सत्ता रहती है। तप संयम आदि के द्वारा समस्त आस्रवद्वारों का निरोध कर देने वाले, संवरयुक्त, परम अतिशय से सम्पन्न, क्रिया का समीचीन अनु. ष्ठान करने वाले छद्मस्थ, सयोग केवली और सम्पूर्ण योग का निरोध कर देने वाले को मिथ्यादर्शन आदि बन्धकारणों का अभाव हो जाने ઉત્તરજન્મને પ્રાદુર્ભાવ થતું નથી. આ રીતે વર્તમાન જન્મના ઉચ્છેદથી અને પુનર્જન્મને પ્રાદુર્ભાવ ન થવાથી જે સમસ્ત કર્મોથી રહિત વિદેહાવસ્થા પ્રાપ્ત થાય છે તે જ મેક્ષ છે. આમ સમસ્ત કર્મોને ક્ષય, આત્મપ્રદેશોથી પૃથક્ થવું રૂપ નિજર, કર્મ સમૂડને પ્રäસ અથવા આત્માનું પોતાના સ્વરૂપમાં સ્થિત થવું એ જ મોક્ષ કહેવાય છે. મોક્ષ અવસ્થામાં આત્માને અભાવ થત નથી. આત્મા જ્ઞાનાદિપરિણામ ક્વભાવવાળા હોવાથી સમૂળગો નષ્ટ થતો નથી, તે અવસ્થામાં પણ જ્ઞાનાદિ સ્વભાવથી તેની સત્તા તો રહે જ છે. તપ, સંયમ આદિ દ્વારા સમસ્ત આવકારને નિરોધ કરનારી સંવ યુક્ત, પરમ અતિશયથી સમ્પન્ન, કિયાનું સમીચીન અનુષ્ઠાન કરનારા છવસ્થા સગકેવળી અને સંપૂર્ણ રોગને નિરોધ કરનારાઓને મિથ્યાદર્શન આહિ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षयात् सम्यग्दर्शनादीनाञ्चोत्पादात् अपूर्वकर्मणो बन्धो न भवति । पूर्वापानितस्य च कर्मेण स्तपोऽनुप्ठानादिभिः क्षयो भवति, तत्र-घातिकमणो मोहनीये.' क्षये 'ज्ञानावरणा-ऽन्तरायरूपस्याऽऽत्यन्तिकः क्षयो भवति । भवधारणीयस्य'च' वेदनीयनामगोत्रा-ऽऽयुष्यरूपस्य 'क्षयो भवति । तत्र-घातिकर्मक्षयानन्तरमेव समस्तद्रव्यपर्यायविषयं । परमैश्वर्यसम्पन्न मनन्तम् अनुत्तरं निर्व्याघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण केवलज्ञानं केवलदर्शनं च लब्ध्वा शुद्धः परिशटितसकलकर्ममलत्वाद बुद्धः सर्वत्रः सर्वदर्शीजिनः केवली भवति । ततश्चाघाति प्रतनु' शुभवेदनीय नामगोत्राऽऽयुः कर्मावशेषः सन् आयुष्यकर्मणः संस्कारवशात शीतसे, तदावरणीय कर्म के क्षय से सम्यग्दर्शन आदि की उत्पत्ति हो जाने से नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। और तप के अनुष्ठान आदि से पूर्वोपार्जित कर्म का क्षय हो जाता है । तब मोहनीय कर्म का क्षय होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का आत्यन्तिकसदा के लिए क्षय हो जाता है । भवधारणीय वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु कर्म का भी क्षय हो जाता है। घाति कर्मों का क्षय होते ही समस्त द्रव्यों और पर्यायों को जानने वाला, परम ऐश्वर्य से युक्त, अनन्त, अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) नियाघात, निरांवरण, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, केवलदर्शन और केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इन्हें प्राप्त करके जीव शुद्ध हो जाता है, समस्त कर्ममल के क्षीण होने से बुद्ध, सवैज्ञ, सर्चदर्शी, जिन और केवली बन जाता है। उस समय अंत्यन्त हल्के शुभ वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु कर्म शेष અન્ય કારને અભાવ થઈ જવાથી તદાવરણીય કર્મના ક્ષયથી સમ્યકદર્શનઆદિની ઉત્પત્તિ થવાથી નવીન કર્મો એ ધાતા નથી અને તપના અનુષ્ઠાન અદિથી પૂર્વોપાર્જિત કર્મોને ક્ષય થઈ જાય છે ત્યારે મોહનીયર્મને ક્ષય થઈ જવાથી જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ અને અન્તરાય કર્મોના આસ્થતિક-હમેશને માટે શ્રેય જાય છે. ભવધારણીય વેદનીય, નામ, ગોત્ર અને આયુષ્ય કર્મોને अर्थ थ य छ। . .. . . . ... ઘતિકમને ક્ષય થતાં જ સમરત દ્રવ્ય અને પર્યાને જાણનારા,પરમ #श्व था युक्त, अनन्त,' अनुत्तर (सष्टि ) निव्याधात, निरा१२९, सम्पू કેવળદેશ અને કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. આમને પ્રાપ્ત કરીને જીવ શુદ્ધ 4 dय' छ. सघणा मात्र, क्षी' वाथी मुद्ध सश, सश', मिन અને કેવળ બની જાય છે. આ સમયે અત્યન્ત હલકાં શુભ વેદનીય નામ, ગેત્ર - - Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका २.९६.१ मोक्षतत्वनिरपणम् रश्मिवद् - भव्यजनकुमुदवनोद्वोधनाय · भू-गगनमण्डछे विहरति ततश्चक्तविधिना-ऽऽयुष्ककर्मपरिसमाशौ सत्यां वेदनीयनामगोत्रकर्मणामपि 'क्षयो भवति, इति सकलकर्मक्षये सति स्वात्मन्यबस्थानलक्षणो मोक्षो भवतीति भावः। तत्र-पञ्चविध ज्ञानादरणस्य नवविध दर्शनावरणस्या-पुष्टाविंशति प्रकार मोहनीयकर्मणो द्विविधवेदनीयस्य त्रिणवतिविधनामकर्मण श्चतुविधायुष्यकर्मणो द्विविध गोत्रकर्मणः पञ्चविधान्तरायकर्मणश्च सकलकर्मरूपस्याऽष्ट - चत्वारिंशदधिकशतसंख्यकम काररय १४८ क्षयोऽवगन्तव्यः। खनाऽविस्तसम्य. ग्दृष्टि-देशरिति-एकत्तामात्तस्थानानामन्यतमगुणस्थाने सह सोहनीयकर्मरह जाते हैं। ऐसी स्थिति में आयुशर्म के संस्कारवश वह चन्द्रमा के समान भव्यजीव रूपी कुमुदचनों को विकलित-उद्बोधित करने के लिए भूमण्डल में विचरते हैं । तदनन्तर उक्त विधि के अनुसार आयु कम की समाप्ति होने पर लाथ ही वेदनीय, नाम, और गोत्र फर्म का भी क्षय हो जाता है। इस तरह सकल कों का क्षय होने पर अपनी -आत्मा में ही अवस्थित हो जाना रूप मोक्ष होता है। . ... यह पांच प्रकार के ज्ञानावरण का नौ प्रकार के दर्शनावरण का, .(१) अट्टाईल प्रकार के मोहनीय का, (२) दो प्रकार के वेदनीय का (३) तेरानवे प्रकार के नामकर्म का (४) चार प्रकार के आयुक्रम का, दो प्रकार के गोत्रकर्म का और पांच प्रकार के अन्तराय कर्म का, इस प्रकार सघ को मिलाकर एक सौ अडतालीस (१४८) कर्मप्रकृतियों का क्षय समझना चाहिए। इनमें से अविरत:लघरष्टि, देशाविरतं, प्रम-અને- આયુષ્ય કર્મો શેષ રહી જાય છે. આવી સ્થિતિમાં આયુષ્યકમને સરકારે વશ તે ચન્દ્રમાની જેમ ભવ્યજીવ રૂપી કુમુદવનેને વિકસિત દૂધિત કરવાને , માટે ભૂમંડળમાં વિચરે છે. તદનન્તર ઉકત-વિધિ અનુસાર આયુષ્યકમની - સમાપ્તિ થવાની સાથે જ વેદનીય, નામ અને શેત્ર કમેને પણ ક્ષય થઈ જાય छे. शत. १४॥ नि। क्षय थqाथी पातानु" मात्मामा अवस्थित थे rat'३५ भाक्ष थाय छे. ..'.', ही 42 रन ज्ञानानु नप न शनाप२एन। (१) 'भयावी अंना मोडनायने। (२) में प्रारना वहनीया (3) प्राना 'નામકર્મને, ચાર પ્રકારના આયુષ્યકમના—બે પ્રકારનાં ગોત્ર કર્મને અને પાંચ પ્રકારના અંતરાય કમને એ રીતે બધા , મળીને એક અડતાળીશ (१,४८), प्रकृतियानो क्षय समन्. . . . BIHथा . पिरत Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "८४० तत्त्वार्थले प्रकृतय श्चतुरनन्तानुबन्धिकषायत्रि मिथ्यात्वसम्यक्त्व मिश्रमोहनीयरूपाः क्षीणां भवन्ति । अनिवृत्तिगुणस्थाने च विंशति मोहनीयकर्मप्रकृतयः क्षीणा भवन्ति, त्रयोदशनामकर्मप्रकृतयश्च नरकगतिः, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिः, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एक द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियजातयः, आतपम्, उद्योतम्, स्थावरम्, सूक्ष्मम्, साधारणञ्चेति क्षीणानि भवन्ति । तिस्रो दर्शनावरणवर्मप्रकृतय 'श्चःनिद्रानिद्रा-प्रचला प्रचला-स्त्यानद्धिरूपाः क्षीणा भवन्ति । मोहनीयेपु च क्रमेणा-ऽपत्याख्यानाः क्रोधादय श्चत्वारः, प्रत्याख्यानावरणा क्रोधादयश्चत्वारः क्षीयन्ते । ततश्च-नपुसकस्खीवेदौ, हास्यरत्यरतिशोकमय जुगुप्सार पुरुष वेदश्च संज्वलनक्रोध-मान-माया इति । सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने चरमसमये संज्वलन तसंपत और अप्रमत्तसंपत गुणस्थानों में से किसी गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियां-चार अनन्तानुबन्धी और दर्शनमोहनीय की तीन-मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमोह और मिश्र-क्षीण होती हैं । अनिवृत्ति गुणस्थान में मोहनीय कर्म की वीस प्रकृतियों का क्षय होता है और नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय होता है, जो इस प्रकार हैं-नरकति, नरकगत्यानुपूर्वी, तियग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, आतप, उद्: धोन, स्थापर, सूक्ष्म और साधारण । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि नामक दर्शनावरण की तीन प्रकृतियों का क्षय होता है। मोहनीय प्रकृतियों में से चार अप्रत्याख्यानी क्रोध आदि, चार प्रत्या ख्यांनी क्रोध आदि का क्षय होता है । नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुम्सा पुरुषवेद तथा संज्वलन क्रोध, मान और સમ્યકદષ્ટિ, દેશવિરત, પ્રમત્તસંયત અને અપ્રમત્તસંયત ગુણસ્થાનોમાંથી કોઈ ગુણસ્થાનમાં મેહનીય કર્મની સાત પ્રકૃતિઓ ચાર અનન્તાનુબંધી અને દર્શન મેહનીયની ત્રણ મિથ્યાત્વ, સમ્યકત્વ મોહ અને મિશ્ર ક્ષીણ થાય છે. અનિવૃત્તિ ગુણસ્થાનમાં મોહનીયકર્મની વીસ પ્રકૃતિને ક્ષય થાય છે અને નામકર્મની તેર પ્રકૃતિએને ક્ષય થાય છે જે આ પ્રમાણે છે નરકગતિ, નરકગત્યાનુપૂવી - તિર્યગતિ, તિર્યગત્યાનુપૂર્વી, એકેન્દ્રિય જાતિ, દ્વિીઈન્દ્રિય જાતિ, ત્રીન્દ્રિયજાતિ ચતુરિન્દ્રિયજાતિ, આતપ, ઉદ્યોત. સ્થાવર સક્ષમ અને સાધારણ નિદ્રા નિદ્રા પ્રચલા પ્રચલા અને સત્યાનદ્ધિ નામક દર્શનાવરણની ત્રણ પ્રકારની પ્રવૃતિઓનો ક્ષય થાય છે. મોહનીય પ્રકૃતિઓમાંથી ક્રમથી ચાર અપ્રત્યાખ્યાની ક્રોધ આદિ ચાર પ્રત્યાખ્યાની ક્રોધ આદિને ક્ષય થાય છે. પછી નપુંસકવેદ, સ્ત્રીવેદ, હાસ્ય પતિ અરતિ, શાક, ભય, જુગુપ્સા, પુરૂષવેદ તથા સંજવલન ક્રોધ માને તથા Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.९७.१ मोक्षतत्वनिरूपणम् लोमः क्षीणो भवति। ततश्च-क्षीणकषायस्थाने निद्रामचले द्वे द्विचरमसमये क्षीणे भवतः। चरमसमये-पुनश्चतुर्दशकमप्रकृतयः पञ्चज्ञानावरणरूपाणि चतुर्दश दर्शनावरणरूपाणि च क्षीणानि भवन्ति । अयोगिकेवलिनश्च-द्विचरमसमये पञ्चचत्वारिंशत् नामप्रकृति कर्माणि क्षीणानि भवन्ति । यथा-देवगतिः, औदा. कारिकादि शरीरपञ्चकम्, संस्थानपट्कम्, अङ्गोपाङ्गत्रयम्, संहननषट्कम्, वर्णरस-स्पर्श चतुष्कम्, मनुष्यगति देवसत्यापूर्वी, अशुरुलघु, उपघातम्, पराघातम् उच्छवासः, प्रशस्त विहायो नासित, अप्राकर, स्थिरस्, अस्थिरस्, शुभस्, अशुमम्, दुर्भगम्, मुस्वरम्, दुःस्वरम्, अनादेयम्, अयशः कीर्तिः, निर्माणमिति बाह्ये च द्वे सातासातारूपान्यतरवेदनीये नीचे गोत्राख्ये कर्मणि क्षीणे सति तीर्थ. कृदयोगि केवलिन थरमसमये द्वादश कर्मपदयः क्षीणा भवन्ति । तद्यथा-अन्यमाया का क्षय होता है । सूक्ष्मलाम्पाय गुणस्थान के चरम समय में संज्वलन लोभ का क्षय होता है । तत्पश्चात् क्षीणकषाय गुणस्थान में निद्रा और प्रचला नामक दो प्रकृतियों का विचरम लमय में क्षय होता है और चरम समय में चौदह प्रकृतियों का क्षय होता है जो इस प्रकार हैं-पांच ज्ञानावरण और नौ दर्शनावरण की । अयोगकेवली हिचरम: में पैंतालीस नामकर्म प्रकृतियों का क्षय करते हैं, वे इस प्रकार हैदेवाति, औदारिक आदि पांच शरीरनाम, छह संस्थान, तीन अंगोपांग; छह संहनन, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुप्वी, अगुरुलधु, उपघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति, और निर्माण ? साता-आसाता में से માયાને ક્ષય થાય છે સૂમસામ્પરાય ગુણસ્થાનના ચરમ સમયમાં સંજવલન લાભને ક્ષય થાય છે ત્યારબાદ ક્ષીણકષાય ગુણસ્થાનમાં નિદ્રા અને પ્રચલા નામક બે પ્રકૃતિના દ્વિચરમ સમયમાં ક્ષય થાય છે અને ચરમ સમયમાં ચૌદ પ્રકૃતિઓને ક્ષય થાય છે જે આ પ્રમાણે છે પાંચ જ્ઞાનાવરણ અને નવ દશનાવરણની અગકેવળી ચિરમસમયમાં પીસ્તાળીશ નામપ્રકૃતિઓને ક્ષય કરે છે તે આ પ્રમાણે છે દેવગતિ, ઔદરિક આદિ પાંચ શરીરનામ છે સંસ્થાન ત્રણ અંગોપાંગ, છ સંહનન. વર્ણ, રસ, ગંધ, સ્પર્શ, મનુષ્યગત્યનું મૂવી, અગુરુલઘુ, ઉપઘાત, પરાઘાત, ઉચ્છવાસ, પ્રશસ્તવિહાગતિ, અપ્રશસ્ત विहायोति, अपर्याप्त, प्रत्ये, स्थिर, मस्थिर. शुभ, अशुम, हुम, सुश्वर દુશ્વર, અનાદેય. અયશકીતિ અને નિર્માણ સાતા અસાતામાંથી કોઈ એક त० १०६ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थरचे तरवेदनीयम्, उच्चैोत्रम्, मनुष्यायुष्कम्, मनुष्यगति पश्चेन्द्रियजाति त्रसबादर पर्याप्त सुभगाऽऽदेययशः कीर्ति तीर्थकरनामानि चेति । अतीर्थकृदयोगि केवलि. नस्तु-चरमसमये एतान्येवोपर्युक्तानि तीर्थकरनामकर्मवर्जितानि एकादशकर्मपकतयः क्षीणा भवन्ति । आयुष्यश्चैकमेव मनुष्यायुष्करूपं वद्धनतु-तदितराणि त्रीणि पूर्ववद्धानि उस्मादेकमेव मनुध्यायुष्यकर्मक्षीणं भवति तदानीमिति भावः । उक्तञ्च-स्थानाङ्गे ३-स्थाने ४ उद्देशके २२६ सुत्रे-खीणमोहस्स णं अरहओ तओ कम्मंसा जुगवं खिज्जंति, तं जहा-नाणावरणिज्जं दसणावरणिज्जं अंतराइय-इति, क्षीणमोहस्य खलु अर्हत स्त्रयः कर्मा शाः युगपत् क्षीयन्ते, तद्यथा-ज्ञानावरणीयम्-दर्शनावरणीयम्-आन्तरायिकम्, इति । उत्तराध्ययने२९ कोई एक वेदनीय और नीचगोत्र कर्म का क्षय होने पर तीर्थंकर अयोगकेवली चरमसमय में बारह कर्मप्रकृतियों का क्षय करते हैं। वे इस प्रकार हैं-कोई एक वेदनीय, उच्चमोत्र, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पञ्चे. न्द्रिय जाति, प्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश कीर्ति और तीर्थंकर नामकर्म । अतीर्थ कर केवली चरम समय में इन्हीं उपयुक्त प्रकृतियों का क्षय करते हैं, केवल तीर्थकर प्रकृति का क्षय नहीं करते, क्योंकि वह उनके होती ही नहीं है । इस प्रकार वे ग्यारह प्रकृतियों का क्षय करते हैं। आयु केवल एक मनुष्यायु ही उनमें होनी है, शेष तीन आयुष्क बांधे नहीं होते। अतएव एक मात्र मनुष्यायु कर्म का ही उस समय क्षय होता है। स्थानांग के तीसरे स्थान, चौथे उद्देशक में कहा है___ क्षीण मोहनीय अरिहन्त भगवान् के लीन कर्माश एक साथ વેદનીય અને નીચ ગોત્ર કમને ક્ષય થવાથી તીર્થકર અગકેવળી ચશ્મ સમયમાં બાર કર્મપ્રકૃતિઓને ક્ષય કરે છે તે આ પ્રમાણે છે કેઈ એક વેદનીય ઉચ્ચગેત્ર, મનુષ્પાયુ મનુષ્યગતિ, પંચેન્દ્રિય જાતિ ત્રસ, બાદર, પર્યાપ્ત, સુભગ, આદેય યશકીતિ અને તીર્થંકર નામકર્મ અતીર્થકર કેવળી ચરમસમયમાં આજ ઉપર કહેલી પ્રકૃતિઓનો ક્ષય કરે છે, માત્ર તીર્થંકર પ્રકૃતિને ક્ષય કરતાં નથી કારણ કે તેમને પ્રકૃતિઓ હતી જ નથી. આમ તેઓ અગીયાર પ્રકૃતિએને ક્ષય કરે છે આયુષ્ય કેવળ એક મનુષ્યાયુ જ તેમનામાં હોય છે, શેષ ત્રણ આયુષ્ય બાંધ્યા હતા નથી આથી એક માત્ર મનુષ્પાયુ કર્મો જ તે સમયે ક્ષય થાય છે સ્થાનાંગના ત્રીજા સ્થાન, ચેથા ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે– ક્ષીણમેહનીય અરિહન્ત ભગવાનના ત્રણ કર્ભાશને એકી સાથે ક્ષય થાય છે Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९ चू.१ मोक्षतत्वनिरूपणम् मध्ययने ७१ सूत्रोचोक्तम्-'तप्पढमयाए-जहाणुपुव्धीए-अवीसहविई मोहणिज्ज कम्मं उग्धाएइ, पंचविहं नाणावरणिज्ज, ननविह अंगराइयं एए तिन्नि विचारले जुएवं खदेड' इति, तत्प्रथमतया यथानुपूा-ऽष्टा विंशति विध मोहनीयं कर्म सद्घात्यते, पञ्चविधं ज्ञानावरणीयम्, नवविधं दर्शनावरणीयम्, पञ्चविधम्-आन्तरायिकस्, एतानि भीनपि कर्मा शा युगपत्क्षपयति, इति, पुनकोत्तराध्ययने २९ अध्ययने ७२ सूत्रे-चोक्तस्-अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियहि सुझाणं-झियायमाणे वेणिज्ज आउयं नाम गोत्तं च-एए चत्तारि पाल्मले जुगई खवेह' इति, अनगार: समुच्छिन्नक्रियः भनिधि शुक्लध्यानं ध्यायन् वेदनीयम् आयुष्यं नामगोत्र च, एतान् चतुरः कर्मा शान् युगपत् क्षपयति' इति । तथाचोत्तराध्ययन-स्थानाङ्ग सूत्रागममामाण्येण लोक्षावस्यागम् आत्मनः कृत्स्नकर्मक्षयो भवतीति ज्ञायते, अतएव सहल कर्मक्षयलक्षणो मोक्षो व्यपदिश्यते इति प्रकृतसूत्रे प्रोक्तम् ॥१॥ क्षीण होते हैं। वे इस प्रकार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय।' उत्तराध्ययन के २९ वै अध्ययन के ७१ वे बोल में कहा है-'सर्व. प्रथम यथाक्रम अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म का क्षय करते हैं, पांच प्रकार के ज्ञानावरण को, नौ प्रकार के दर्शनावरण कर्म को और पांच प्रकार के अन्तराय कर्म को, इन तीनों कर्माशों को एक साथ क्षय करते हैं।' पुनः उत्तराध्ययन के २९ वें अध्ययन के ७२ में बोल में कहा है-'अन. गार'समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यान ध्याता हुआवेदनीय, आय, नाम और गोत्र-इन चार कर्स शो का एक साथ क्षय करता है। इस प्रकार उत्तराध्ययन और स्थानांग नामक सूत्रागम के प्रामाण्य से તે આ પ્રમાણે છે જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય અતરાય ઉત્તરાધ્યયનના ૨૯માં અધ્યયનના ૭૧ માં બોલમાં કહ્યું છે સર્વપ્રથમ યથાક્રમ અઠયાવીશ પ્રકારના મોહનીયકર્મને ક્ષય કરે છે, પાંચ પ્રકારના જ્ઞાના વરણને, નવ પ્રકારના દર્શનાવરણ કર્મને અને પાંચ પ્રકારના અન્તરાયકર્મનો આ ત્રણે કમશન એકી સાથે ક્ષય કરે છે. પુનઃઉત્તરાધ્યયનના ૨હ્યાં અધ્યયનના હરમાં બેલમાં કહ્યું છે અનગાર સમછિન્નક્રિય અનિવૃત્તિ શુકલધ્યાન ધ્યાને થકે વેદનીય, આયુ. નામ અને 'ગોત્ર આ ચાર કમશેને એકી સાથે ક્ષય કરે છે, and Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वायत्र - मूलम्-केवलसम्मत्तनाणदंसणसिद्धत्तं वजित्ता ओवसमियाइ भव्वत्तक्खए य ॥२॥ ___ छाया-'केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वं वर्जयित्वा-औपशमिकादिभव्यत्व'क्षयश्च ॥२ - तत्वार्थदीपिका-पूर्व मूने खलु सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो भवतीत्युक्तम् तत्र-आत्मनो मोक्षावस्थायां न केवलं द्रव्यकममात्रस्यैव क्षयो भवति, अपितुऔपमिक-क्षायोपमिकौदयिकादि भावकमणामपि क्षयो भवतीति प्ररूपयितुमाइ ज्ञात होता है कि मोक्ष अवस्था में समस्त कर्मों का क्षय होता है । इस कारण सम्पूर्ण कर्मों का क्षय मोक्ष कहलाता है, ऐसा प्रकृत सूत्र में कहा गया है ॥१॥ . 'केवल सम्मत्तनाणदंसण' इत्यादि। - सूत्रार्थ केवल सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व को छोडकर औप. शमिक आदि भावों का तथा भव्यत्व भाव का भी क्षय हो जाता है ॥१॥ ॥ तस्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में कहा गया है कि सकल कर्मों का क्षय होना मोक्ष है। मोक्ष-अवस्था में केवल द्रव्य कर्मों का ही क्षय नहीं "होता वरन् क्षायोपशनिक, औदयिक आदि भावों का भी क्षय हो जाता है, यह प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं'- केवल सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व को छोडकर औपश• આ રીતે ઉત્તરાધ્યયન અને સ્થાનાંગ નામક સૂત્રાગમના પ્રમાણથી જ્ઞાત થાય છે કે મોક્ષ અવસ્થામાં સમસ્ત કર્મોને ક્ષય થાય છે. આથી સંપૂર્ણ કર્મોને ક્ષય મેક્ષ કહેવાય છે એવું પ્રકૃતસૂત્રમાં કહેવામાં આવ્યું છે. જે ૧ છે -- - - 'केवलसम्मत्चनाणदखण' त्याह . सूत्राथ- सभ्यत्व, ज्ञान, ६शन भने सिद्धपने मा ४२ता मो५. શમિક આદિ ભાવેને તથા ભવ્યત્વ ભાવને પણ ક્ષય થઈ જાય છે . ૨ છે તત્વાર્થદીપિકા-પૂર્વસૂત્રમાં કહેવામાં આવ્યું કે સકળ કર્મોનો ક્ષય થવો 'મેલ છે. મોક્ષ અવસ્થામાં કેવળ દ્રવ્યકર્મોને જ ક્ષય થતો નથી પરંતુ ક્ષાપશમિક, ઔદયિક આદિ ભાવેને પણ ક્ષય થઈ જાય છે એ પ્રતિપાદન કરવા માટે કહીએ છીએ કેવળ સમ્યકત્વ, જ્ઞાન, દર્શન અને સિદ્ધત્વ સિવાય ઓપશમિક આદિ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका म.९ ६.२ मोक्षावस्थायां भावकर्मक्षयः ૧ 'केवल सम्मत' इत्यादि । केवल सम्यक्त्व ज्ञानदर्शनसिद्धस्वं वर्जयित्वा दर्शन सप्तकक्षयात् क्षायिकं केवल सम्यक्त्वम्, समस्त ज्ञानावरण क्षयात् क्षायिकं केवल ज्ञानम्, सकलदर्शनावरण क्षयात् क्षायिकं केवलदर्शनम्, समस्त कर्मक्षयात् क्षायिक सिद्धत्वञ्च विहाय तदतिरिक्ता औपशमिकादयः औरशमिकः आदिना - क्षायिकः क्षायोपशमिकः औदयिकश्च भावा गृह्यन्ते, तथाचौ - पशमिकस्य केवल सम्यक्त्वादि चतुष्टयभिन्नस्य क्षायिकस्य, क्षायोपशमिकस्य - औदयिकस्य, सेत्स्य ल्लक्षण भव्यत्व रूपस्य पारिणामिकस्य च भावस्य क्षयश्च - आत्ममदेशेभ्यः पृथग्मवनलक्षणं-परिशटनं च मोक्षावस्थाय भवतीति भावः । एवञ्च मुक्तात्मनि औपशमिक क्षायोपशमिकौदयिका भावाः सर्वथैव न भवन्ति । किन्तु क्षायिके भावे केवलसम्यक्त्वलक्षणं क्षायिक सम्यक्त्वम्-१ क्षायिक केवलज्ञानम् २ क्षायिक केवलदर्शनम् ३ - क्षायिक सिद्धत्वञ्च सम्भवति । एतच्चतुष्टयातिरिक्तः क्षायिको भावो न सम्भवति एवम् पारिणामिके भावेतु- सेत्स्यल्लक्षण भव्यत्वमेव केवलं परिणामिकं मिक आदि भावों का तथा अव्यय भाव का भी क्षय हो जाता है । दर्शनमोह की सात प्रकृतियों के क्षत्र से क्षायिक सम्यक्त्व होता है, सम्पूर्ण ज्ञानावरण के क्षप से क्षायिक केवलज्ञान होता है, दर्शनावरण कर्म के क्षय से क्षायिक केवलदर्शन होता है, सफल कर्मों के क्षय से - क्षायिक सिद्धत्व उत्पन्न होता है। इन भावों के लिवाय जो औपशमिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव है उनका क्षय हो जाता है । भव्यव नामक परिणामिक भाव भी क्षीण हो जाता है । इस प्रकार मुक्तात्मा में औपशमिक, क्षायोपशमिक और औधिक भाव सर्वधा ही नहीं होते । क्षायिक भावों में से क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिक केवलज्ञान, क्षाfe heart, क्षायिक सिद्धत्व विद्यमान रहते हैं । इन चार के सिवाय अन्य कोई क्षायिक भाव नहीं रहता । पारिणामिक भावों में 9 ભાવાના તથા ભવ્યત્વના પણુ ક્ષય થઈ જાય છે. દનમેહનીય સાત પ્રકૃતિના ! ક્ષયથી ક્ષાયિક સમ્યકત્વ થાય છે. સંપૂર્ણ જ્ઞાનાવરણના ક્ષયથી ક્ષ'વિક કેવળ જ્ઞાન થાય છે, દશનાવરણુકમના ક્ષયથી ક્ષાયિક વળદર્શન થાય છે. સમસ્ત કોના ક્ષયથી ક્ષાયિક સિદ્ધત્ર ઉત્પન્ન થાય છે. આ ભાવાના સિવાય જે ઔપમિક, ક્ષાયે પશમક અને ઔયિક ભાવ છે તેમના ક્ષય થઈ જાય છે ભવ્યત્વ નામક પારિણામિક ભાવ પણ ક્ષીણ થઇ જાય છે. આ રીતે ચુકતાત્મામાં ઔમિક ક્ષાયૈાપશમિક અને ઔયિક ભાવ સ॰થા જ હાતા નથી ક્ષાયિક ભાવેામાંથી ક્ષાયિકસમ્યકત્વ, ક્ષાણિક કેવળજ્ઞાન, ક્ષાયિક કૅબળદશન ક્ષાયિક સિદ્ધત્વ વિદ્યમાન રહે છે આ ચાર સિવાય અન્ય કાઈ ક્ષાયિકભાવ રહેતા નથી પારિણામિક ભાવામાં ભવ્યત્વ જેના કારણે સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરવાની ચે બ્ર્યતા સાં Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्रे मुक्तात्मनि न सम्भवति, किन्तु भव्यत्वातिरिक्तः खल्ल पारिणामिको भावो ज्ञानदर्शनोपयोगास्तित्व- गुणवत्वानादिखा संख्येयप्रदेश वत्वनित्यत्व द्रव्यत्वादि लक्षणः सम्भवत्येव एतेषां खलु सम्यक्त्वादीनां क्षायिकभावानां नित्यत्वादमुक्तस्यापि ते क्षायिकाः केवलसम्यक्त्वादयो भवन्ति इति भावः ॥ २ ॥ तत्वार्थनियुक्ति:- पूर्व तावद् मोक्षावस्थायां ज्ञानावरणादि सकलकर्मक्षयो भवती - त्युक्तम् तत्र न केवलं सकलद्रव्यकर्मणामेव क्षत्रो भवति - अपितु - आत्मनः स्व तत्त्व भूलस्य औपशमिक क्षायिक क्षायोपमिकौ दयिक - पारिणामिक भावस्यापि क्षयो भवतीति सापवादं रूपयितुमाह- केवल सम्मत्तनाण-दंसणसिद्धत्तं वज्जिन्त्ता ओसमिया भव्यत्तक्खएव' इति । केवलसम्यवत्व ज्ञानदर्शनसिद्धत्वं वर्जयित्वा दर्शनसप्तक क्षयात् क्षायिकं केवलसम्यक्त्वं - क्षायिक सम्यक्त्वभव्यत्व, जिसके कारण सिद्धि प्राप्त करने की योग्यता होती है, सिद्धि प्राप्त होने के पश्चात नहीं रहता है । किन्तु अस्तित्व, गुणत्व, अनादित्व, असंख्येयप्रदेशच्व, नित्यत्व, द्रव्यव आदि पारिणामिक भाव रहते हैं । ये सम्यक् आदि क्षायिक भाव अनन्त होने के कारण मुक्त जीव में भी रहते हैं ॥ २ ॥ तत्वार्थनियुक्ति- पहले कहा गया था कि मुक्तावस्था में ज्ञानावरणीय आदि सर्व कर्मों का क्षय हो जाता है, किन्तु अब यह निरूपण करते हैं कि केवल कर्मों का ही क्षय नहीं होता किन्तु आत्मा के असा धारण भाव औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक का भी क्षय हो जाता है, किन्तु इसमें कुछ अपवाद भी है। - दर्शन सप्तक के क्षण से क्षायिक सम्यक्त्व होता है, ज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान, दर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शन और समस्त છે, સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થયા ખાદ રહેતું નથી. પરંતુ અસ્તિત્વ, ગુણવત્વ, અનાદિ સ્વ અસ’ચૈયપ્રદેશવત્વ, નિત્યત્વ, દ્રવ્યત્વ આદિ પારિણામિક ભાવ રહે છે. આ સમ્યકત્વ આદિક્ષાયિક ભાવ અનન્ત હેાવાના કારણે મુક્ત જીવેામાં જ હાય છે રા તત્ત્વાર્થનિયુકિત—પહેલા કહેવામાં આવ્યુ હતું કે મુકતાવસ્થામાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ બધાં કાના ક્ષય થઇ જાય છે, પરન્તુ હવે એ નિરૂપણ કરીએ છીએ કે કેવળ કર્મને ક્ષય થતા નથી પરતુ આત્માના અસાધારણ ભાવ ઔપમિક, ક્ષાયિક, ક્ષાર્યાપશમિક ઔયિક અને પારિણામિકના પશુ ક્ષય થઈ જાય છે પરન્તુ આમાં થેઢા અપવાદ પણ છે, દનસપ્તકના ક્ષયથી ક્ષયિક સમ્યકત્વ થાય છે, જ્ઞાનાવરણુના ક્ષયશી દેવળજ્ઞાન, દર્શનાવરણુના ક્ષયથી કેવળદર્શન અને સમસ્ત કર્માંના ક્ષયથી સિદ્ધત્વ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९ सू.२ मोक्षावस्थायां भावकर्मक्षयः ४७ सपम्, समस्तज्ञानावरणक्षयात् क्षायिकं वेवळज्ञानम्, सकलदर्शनावरणक्षयात् सायिक केवलदर्शनम्, समस्तकर्मक्षयात् क्षायिक सिद्धत्वञ्च विहाय तदन्येषा मौपशमिकादीनाम्-औपमिकस्य आदिना-क्षायिकस्य, क्षायोपशमिकस्य औदयिकस्य, पारिणामिकस्य च सेत्स्यल्लक्षणभव्य स्वस्य भावस्य क्षयो भवति । तथा च-मुक्तात्मनि औपशमिक क्षायामकोदयिका मामास्वयः सर्वथैव न सम्भवन्ति, क्षायिके भावेतु-क्षायिकसम्यक्त्वम् क्षायिक केवलज्ञानं क्षायिककर्मों के क्षय से मिद्धत्व उत्पन्न होता है । इनको छोड़कर अन्य औप. शमिक, क्षायिक, क्षायोपशभिक, औदायिक और सिद्धि प्राप्त करने की योग्यता रूप भव्यत्व नामक पारिणामिक भाषों का भी क्षय हो जाता है। इस कारण मुक्तात्मा में औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं औदयिक ये तीन भाव तो सर्वथा ही नहीं होते। क्षायिक भावों में से क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व रहते हैं। इन चार के सिवाय अन्य क्षायिक भाव भी मुक्तात्मा में नहीं होते। सम्यक्त्व आदि चार भाव नित्य होने के कारण रहते हैं। किन्तु पारिणामिक भावों में से सिद्धि प्राप्त करने की योग्यता रूप भव्यत्व भाव का ही अभाव होता है, उसके अतिरिक्त पारिणामिक भाव जैले अस्तित्व, गुणवत्व, अनादित्व, असंख्यात प्रदेशवत्व, नित्यत्व, द्रव्यत्व आदि मोक्षावस्था में भी विद्यमान रहते हैं । इल प्रकार झोक्षावस्था में औपशमिक, क्षाघोपशमिक और औदयिक भावों का सर्वथा अभाव हो जाता है। इसी प्रकार क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक केवलज्ञान, क्षायिक केवल. ઉત્પન્ન થાય છે. આ બધાને બાદ કરતા અન્ય ઔપશમિક, ક્ષાયિક, ક્ષાપપશમિક, ઔદયિક અને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરવાની યોગ્યતા રૂપ ભવ્યત્વ નામક પરિણામિક ભાવને પણ ક્ષય થઈ જાય છેઆ કારણે સુતાત્મામાં પરામિક ક્ષાપશમિક અને ઔદપિક આ ત્રણે ભાવ તે સર્વથા જ હતાં નથી, ક્ષાયિક ભામાથી ક્ષાયિકસમ્યકત્વ, કેવળજ્ઞાન, કેવળદર્શન અને સિદ્ધવ રહે છે આ સિવાય અન્ય કઈ ક્ષાવિકભાવ પણ મુકતાત્મામાં હેતા નથી, સમ્યકત્વ આદિ ચાર ભાવ નિત્ય હોવાથી રહે છે, પરંતુ પરિણામિક ભાવોમાંથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરવાની યોગ્યતા રૂપ ભવ્યત્વ ભાવને જ અભાવ હોય છે. તેના સિવાય પરિણામિક ભાવ જેવાકે અસ્તિત્વ, ગુણવત્વ અનાદિવ, અસંખ્યાત પ્રદેશવત્વ નિત્ય, દ્રવ્યત્વ આદિ મોક્ષાવસ્થામાં પણ વિદ્યમાન હોય છે જ આ રીતે માણાવસ્થામાં પથમિક, લાપશમિક અને ઔદયિક ભાવોને સર્વથા અભા Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ तस्वार्थ केवलदर्शनं क्षायिक सिद्धन्वञ्च संभवति । एतच्चतुष्टयाऽतिरिक्तं क्षायिकत्वमपि मुक्तात्मनि न संभवति क्षायिकसम्यक्त्वादि चतुष्कस्य तु-क्षायिकत्वेन नित्यत्वात् मुक्तस्यापि भवत्येवेति भावः । किन्तु परिणानि के भावे खल केवलं सेत्स्यल्लक्षणं भव्यत्वमेव पारिणामिकमायो मुक्तात्मनि न भवति, तदतिरिक्ताः पारिणामिकाः भावास्तु-ज्ञानदर्शनोपयोग अस्तित्वगुणवत्वाऽनादित्वाऽसंख्येय प्रदेशवत्व-नित्यत्व द्रव्यत्वादयो मोक्षावस्थायामपि आत्यनि भवन्त्येवेतिभावः । एनञ्च-मोक्षावस्थाया नौपशमिक औदायिक भावानां सर्वथा परिशटनं मालिआत्मप्रदेशेभ्यः। एवं-केवलसम्यक्त्व लक्षण क्षायिकसम्यक्त्व-क्षायिककेवलंज्ञान क्षायिक केन्लदर्शन- क्षायिक सिद्धत्यतिरिक्तक्षायिकमावानामपि परिशटनं भवति । क्षायिकसम्यक्त्वादीनां चतुर्णा क्षायिक भावानान्तु-नित्यत्वात् मोक्षायस्थायामात्मपदेशेभ्यः परिशटनं न भवति । परिणामिकभावेतु-केरलं सेत्स्य लक्षणभव्यत्वरूप एव पारिणामिकमायो मुक्तापनि परिशटति, तदतिरिकता: पुननिदर्शनोपयोगादयः पारिणामिकमाना नात्मप्रदेशेभ्यः परिशटन्ति न क्षीयन्ते, आत्मनस्तथाविधपरिणामस्वभावात् । उक्तञ्चाऽनुयोगद्वारे षण्णामाऽधिकारे १२६ सूत्रो'खीणमोहे केवल सम्पत्तं, केवलणाणी. केवलदसणीसिद्धे' इति, क्षीणमोहः केवलसम्यक्त्यः, केवलज्ञानी, केवलदर्शनीसिद्धः' इति प्रज्ञापना. दर्शन, क्षायिक सिद्धत्व के अतिरिक्त अन्य क्षायिक भावों का भी अभाव हो जाता है। मगर क्षायिक सम्यक्त्व आदि चार क्षायिक भाव नित्य होने के कारण मोक्षावस्था में आत्मप्रदेशों से पृथक् नहीं होते। पारिणामिक भावो में से अव्यत्व नामक पारिणामिक मुक्तात्मा में नहीं रहता, उसके अतिरिक्त अन्य अस्तित्व आदि पारिणामिक भाव बने रहते हैं क्यो कि आत्मा का वैसा ही परिणाम स्वभाव है। अनुयोग द्वार में षट् नामों के अधिकार में कहा है-'क्षीणमोह, केवलसम्यक्त्वी, केवलज्ञानी, केवलदर्शनी और सिद्ध होते हैं। प्रज्ञापना થઈ જાય છે. એવી જ રીતે ક્ષાયિકસમ્યકત્વ, ક્ષાયિકકેવળજ્ઞાન, ક્ષાયિકકેવળદર્શન ક્ષાયિક સિદ્ધત્વ સિવાય અન્ય ક્ષાયિકભાોને પણ અભાવ થઈ જાય છે પરંતુ ક્ષાયિકસમ્યકત્વ આદિ ચાર ક્ષાયિકભ વા નિત્ય હોવાના કારણે મોક્ષાવસ્થામાં આત્મપ્રદેશોથી પૃથક થતાં નથી પારિખ્યામિકભાવમાથી ભવ્યત્વ નામક પારિવામિક મુકતાત્મામાં રહેતું નથી એ સિવાય અન્ય અસ્તિત્વ આદિ પારિણામિક ભાવ કાયમ રહે છે કારણ કે આત્માને એ જ પરિણામસ્વભાવ છે. અનુગદ્વાર માં ષટુનામેનાં અધિકારમાં કહ્યું છે ક્ષીણમોહ કેવળ अभ्यापी, वणशानी, वणशनी भने सिद्ध डाय छ. . Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९ सू.३ मुक्तात्मनो गतिनिरूपणम् याञ्चः १८ १९५दे चोक्तम्-'नोभवसिद्धिए, नो अभवसिद्धिए, सिद्धासम्मदिट्ठी' इति, नो भवसिद्धिकः, नो अभवसिद्धिका, सिद्धासम्यग्दृष्टयः, इति॥२॥ मूलम्-तओ पच्छा उर्दू गच्छइ जाव लोगंतं ॥३॥ छाया-ततः पश्चात् अर्ध्व गच्छति यावद् लोकान्तम् ॥३॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावद् सकलकर्मक्षयरूपो मोक्षः प्रतिपादितः, सच मुक्तः सन् किं तत्रैवावतिष्ठते उतान्यत्र कुत्रचित् गच्छतोत्याह-'तओ पच्छा' इत्यादि । ततः पश्चात् सर्वकर्मक्षयानन्तरम् औपशमिकाघभावानन्तरं च स मुक्तात्मा उमेव गच्छति । शियल्प यन्तं गच्छति १ इत्याह-यावद् लोकान्तम् लोकस्य अन्तः सस्तका, तत्पर्यन्तं गच्छति । लोकस्तात् पश्चास्तिकाय समुदायात्मकः तोपत्पाग्यारा पृथिवी हिमशकलयवला उत्तानकच्छत्राकृतिवर्तते । सूत्र में १८-१९ वें पद में भी कहा है-'युक्तात्मा न भव्य कहलाते हैं, न अभव्य हैं, वे सिद्ध हैं, लस्रष्टि हैं ॥२॥ 'तओ पच्छा उद्ध' इत्यादि । सूत्रार्थ-मुक्त होने के पश्चात् आत्मा लोक के अन्त तक ऊर्ध्वगमन करता है ॥३॥ . तत्त्वार्थदीपिका--पहले प्रतिपादन किया गया है कि समस्त कर्मों का क्षय होना मोक्ष कहलाता है, वगर मुक्त होकर आएमा वहीं रह जाता है या अन्यत्र कहीं जाता है, इस प्रश्न का समाधान करते हैं: - समस्त कर्मों का क्षय होने के पश्चात् मुक्तात्मा ऊपर गमन करता है। कहां तक जाता है ? लो कहते हैं-लोक के अन्त तक अग्रभाग तक जाता है। पंचास्तिकायामक इस लोक के अग्रभाग में ईषत्प्रा પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રમાં ૧૮-૧૯માં પદમાં કહ્યું છે– મુકતાત્મા ન તે ભવ્ય કહેવાતા, નથી અભવ્ય, તેઓ સિદ્ધ છે, સમ્યકદષ્ટિ છે કે ૨ __ 'तो पच्छा उड्ढ' याह સુત્રા–મુક્ત થયા બાદ આત્મા લોકના અન્ત સુધી ઉર્ધ્વગમન કરે છે ૩ તત્વાર્થદીપિકા-પહેલા પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે સમસ્ત કને ક્ષય રે મેક્ષ કહેવાય છે, પરંતુ મુક્ત થઈને આત્મા ત્યાં જ રહી જાય છે - અથવા બીજે કયાંય જાય છે એ પ્રશ્નનું સમાધાન કરીએ છીએ . સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય થવા બાદ મુતાત્મા ઉપર ગમન કરે છે. તે કયાં સુધી જાય છે ? તો કહે છે–લોકના અન્ત સુધી અગ્રભાગ સુધી જાય છે. પંચાસ્તિકાયાત્મક આ લેકના અગ્રભાગમાં ઈષપ્રાગભારા નામક પૃથ્વી છે.તે त० १०७ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाचे स्था अप्युपरि चतुषकोशात्मक योजनमेकं यावद लोकः, तत्र चतुर्पु क्रोशेषु कोशत्रयं हिया चतुर्थस्य क्रोशस्योपरितमः षष्ठोभागः त्रयस्त्रिंशदुत्तरधनुः शत्रपमितो द्वात्रिंशद अंगुलाधिकः, एतावत्परिमितं क्षेत्र लोकान्तशब्देन गृह्यते तत्र लोकान्ते गत्वा मुक्तात्मा सिद्धो भूत्वा तिष्ठतीति ॥३॥ मूलम्-ण तओ पर धम्मस्थिकायाऽभावा ॥४॥ छाया- ततः परं धर्मास्तिकायाऽभावात् ॥४॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावद् मोक्षानन्तरं मुक्तात्मा अचं लोकान्तं यावद् गच्छतीत्युक्तं, यदि मुक्तात्मन ऊर्ध्वगमनं भवति तदा को नियमः यद् लोकान्त पर्यन्तमेव अच्छतीति, गच्छतु स तदनेऽपि का वाधा तत्र ? गति निवारकस्या ग्भार नामक पृथ्वी है। वह हिम के समान धवल और ऊर्ध्वमुख छत्र के आकार की है । उसके भी ऊपर एक योजन अर्थात् चार कोस तक लोक है । इन चार कोसों में से तीन कोस छोडकर चौथे कोस का छठा भाग तीन सौ .तेतीस धनुष और बत्तीस अंगुल प्रमित क्षेत्र लोकान्त शब्द से ग्रहण किया जाता है । उस लोकान्त में जाकर मुक्तात्मा अर्थात् सिद्ध अवस्थित हो जाते हैं ॥३॥ ____तओ परं धम्मत्थिकायाऽभावा' . सूत्रार्थ--'लोकान्त से आगे मुक्तात्मा नहीं जाते, क्योंकि वहां धर्मास्तिकाय का अभाव है ॥४॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले पतलाया गया है कि मुक्त होने के अनतर मुक्तात्मा ऊपर लोकान्त तक नमन करते है। किन्तु प्रश्न उपस्थित होता है कि अगर मुक्तात्मा का अर्धगमन होता है तो लोकान्त બરફના જેવી વેત તેમજ ઉર્વસુખ છત્રના આકારની છે. તેની પણ ઉપર એક જન અર્થાત્ ચાર ગાઉ સુધી લેક છે. આ ચાર ગાઉમાંથી ત્રણ ગાઉ છેડીને ચોથા ગાઉને છઠે ભાગ ત્રણસેતેંત્રીશ ધનુષ્ય અને બત્રીશ આંગળી પ્રમિત ક્ષેત્ર લેાકાન્ત શબ્દશી ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. તે લોકાતમાં જઈને મુઠતાભા અર્થાત્ સિદ્ધ અવસ્થિત થઈ જાય છે ને ૩ છે 'न तओं पर धम्मस्थिकायाऽभावा' સુન્નાથ-લકાત્તથી આગળ સુતાત્મા જતા નથી કારણુકે ત્યાં ધર્મો સ્તિકાયને અભાવ છે ૪ તત્ત્વાર્થદીપિકા–પહેલા બતાવવામાં આવ્યું કે મુકત થઈ ગયા બાદ મુક્તાત્મા ઉપર લેકાન્ત સુધી ગમન કરે છે, પરંતુ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 --८५१ दीपिका-नियुक्ति टीका २९४ मुक्तात्मनों लोकान्तपर्यन्तमेत भावात् ? अत्रोच्यते = 'ण तओ परं' इत्यादि ततः परं लोकान्तादये न गच्छति धर्मास्तिकायाभावात् गतिपरिणतजीवपुद्गलानां धर्मद्रव्यमुपग्रहकारकं भवति मीनस्य यथा जलं, तच्च तदग्रे नास्त्रि जीवपुद्गलानां पती धर्मद्रव्यं कारणं भवति लोकान्तात्परमलोकः तत्र तदभावः अतो सुक्तात्मा लोकान्तादग्रे न गच्छति तत्रैव सिद्धो भवतीतिभावः-उक्तं चतराध्ययने पट् विंशत्तमेऽध्ययनेकहि पहिया सिद्धा: कहिं सिद्धा पट्टिया | कहिं वौदिं चत्ताणं कत्थ वा गंतूग सिज्झइ ॥ ५६ ॥ अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइडिया | इह वौदिं चाणं तत्थ गंतू पण सिज्झइ |२७|| तक ही जाने का नियम क्यों है ? आगे जाने में बाधा क्या है ? जब कि गति को रोकने वाला कोई कारण नहीं है ? इस प्रश्न का समाधान करते हैं- लोकान्त से आगे मुक्तात्मा का गमन नहीं होना क्यों कि वहां धर्मास्तिकाय नहीं है । धर्मद्रव्य गतिपरिणत जीरों और पुद्गलों की गति में निमित्त कारण होता है, जैसे जल मछली की गति में सहायक होता है । धर्मास्तिकाय आगे विद्यमान नहीं है, अतएव मुक्तात्मा आगे नहीं गमन करते । लोक के आगे अलोक है अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव है । यही कारण है कि सिद्ध जीव लोकान्त में ही स्थित हो जाते हैं । उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन में कहा है 'सिद्ध कहाँ रुक जाते हैं ? सिद्ध कहां अवस्थित होते हैं ? कहां शरीर का परित्याग करके कहां जाकर सिद्ध होते हैं ? ॥ ५६ ॥ કે જો મુતાત્માનું ઉર્ધ્વગમન થાય છે તેા લેાકાન્ત સુધી જ જવાના નિયમ શા માટે છે. ? આગળ જવામાં શું વાંધો છે ? આ પ્રશ્નનું સમાધાન કરીએ છીએ લેાકાન્તથી આગળ મુકતાત્માનું ગમન થતું નથી કારણકે ત્યાં ધર્માસ્તિકાય નથી ધદ્રવ્ય ગતિપરિણત જીવા અને પુદ્ગલાની ગતિમાં નિમિત્ત કારણુ હાય છે, જેવી રીતે જળ માછલીની ગતિમાં સહાયક થાય છે. ધર્માસ્તિકાય આગળ વિદ્યમાન નથી આથી સુતાત્મા આગળ ગમન કરતાં નથી. લેકાન્તની પછી અલાક છે અને અલેાકમાં ધર્માસ્તિકયના અભાત્ર છે. સિદ્ધ જીવ લેાકા ન્તમાં જ અવસ્થિત થઈ જાય છે તેનુ આજ કારણ છે. ઉત્તરાધ્યયનના છત્રીસમાં અધ્યયનમાં કહ્યું છે સિદ્ધ કયાં રાકાઈ જાય છે ? સિદ્ધ કયાં અવસ્થિત થાય છે ? શરીરના પરિત્યાગ કર્યાં કરે છે? મને કયાં જઈને સિદ્ધ થાય છે ! પ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वाक्षरी - छाया-कुत्र प्रतिहताः सिद्धाः कुत्र सिद्धाः भतिष्ठिताः। कुत्र वौदि त्यक्त्वा कुत्र गत्वा सिध्यति । अलोके प्रतिहताः सिद्धाः लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः। इह बोदिं त्यक्त्वा तत्र गत्वा सिध्यति इति । सू० ॥४॥ मूलम्-निस्संगओ निरंगणओ गइपरिणामाओबंधच्छेयओ निरंधणओ पुचप्पओगाओ य तगई ॥५॥ छाया-निस्सङ्गतो निरङ्गणतो गतिपरिणामात् बन्धच्छेदात् । निरिन्धनतः पूर्वप्रयोगाच्च तद्गति ॥५॥ तत्त्वार्थ दीपिका--'पूर्व तावत् मुक्तात्मनो गतिरुक्ता, सा च कर्मसद्भावादेव भवति, सर्व कर्मक्षये मोक्षः इति पूर्व मुक्तमेव ततोऽकर्मणः पुनः कथं गति संभवः ? इत्याह-'निस्संगओ' इत्यादि । निस्सङ्गात् सर्व कर्मक्षये गतिरोधक - सिद्ध अलोक में रुक जाते हैं, लोक के अन भाग में अवस्थित होते हैं, यहां शरीर का त्याग करके वहां जाकर सिद्ध होते हैं ।।५७॥४ - निस्संगओ निरंगणओ' इत्यादि । - ' सूत्रार्थ--नि:संग होने के कारण, कर्म-लेप का अभाव होने के कारण, गतिपरिणाम के कारण, वन्ध का छेद न हो जाने के कारण कर्मरूपी ईधन का अभाव होने के कारण और पूर्व-प्रयोग के कारण सिद्धों की ऊर्ध्वगति होती है ।।५।। : तत्वार्थदीपिका-पहले मुक्तात्मा की गति का निरूपण किया गया है, किन्तु गति तो कर्म के सद्भाचले होती है और यह पहले ही कहा जा चुका है कि समस्त कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष होता है । तो फिर अकर्मा जीव की गति का किस प्रकार संभव है ? इलका उत्तर • સિદ્ધ અલકમાં રેકાઈ જાય છે, લેકના અગ્રભાગમાં અવસ્થિત થાય છે, અહીં શરીરને ત્યાગ કરીને ત્યાં જઈને સિદ્ધ થાય છે એ જ છે ' 'निस्संगओ निरंगणभो' छत्याह સત્રાર્થ-નિઃસંગ હેવાના કારણે, કર્મ લેપને અભાવ હોવાના કારણે ગતિપરિણામના કારણે, બન્ધનું છેદન થઈ જવાના કારણે કર્મ રૂપી બળતણને અભાવ હોવાના કારણે તેમજ પૂર્વગના કારણે સિદ્ધોની ઉદર્વગતિ થાય છે. ૫ તત્ત્વર્થદીપિકા-પહેલા મુકતાત્માની ગતિનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે, પરંતુ ગતિ તે કર્મના સદ્દભાવથી થાય છે, અને એ તો પહેલા જ કહેવાઈ ગયું છે કે સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય થવાથી મોક્ષ થાય છે તે પછી અકમી જીવની ગતિ કઈ રીતે શકય છે ? આને જવાબ પ્રસ્તુત સૂત્રમાં Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९ ७.५ अकर्मणी गतिनिरूपणम् कर्मणोऽप्यभावस्ततः कर्म सङ्गराहित्यात सङ्गः स्खलनं, तद्राहित्यात्, निरङ्गणात् मोहापगमेन तत्रावस्थान झारणभूतरागलेषाभावात्, गतिपरिणामात् तथा. विध गतिपरिणामात्, बन्धछेदात् कर्मवच्छेदात्, निरिन्धनात्-कर्मरूपेन्धना भावान्, तथा पूर्वप्रयोगाच स कर्मावस्थायां गतिमत्त्व स्वभावमाश्रित्यापि गति भवति, एवं कारणषटकाद् अकर्मणोऽपि गति भवतीति ॥५॥ , ____ मूलम्-ववगवलेव जलष्ट्रिय तुंबं बिव, विप्फुडियकोस एरंडबीयं विव, इंधणविमुक्कधूमं विव, धणुविमुक्कसायगं विव ॥६॥ . छाया-यपगतलेप जलस्थिततुम्बमिव, बिस्फुटितकोशैरण्डवीजमिव, इन्धन विमुक्तधूमइव, धनुर्विमुक्त सायकमित्र ॥६॥ इस सूत्र में दिया जाता है सिद्ध जीवों की नि:संग होने के कारण पति होती है, अर्थात् गति में रुकावट डालने वाले कर्म का भी अभाव हो जाने से उनका अवं. गमन होता है। दूसरे, मोह के हट जाने से यहां ठहरने के कारणभूत राग का लेपन नहीं रह जाता , इल झारण भी पति होनी है। तीसरे, जीव का स्वभाव ही ऊर्ध्वगलन करने का है। चौथे, कर्मबन्धका विच्छेद हो जाता है। पांचवें, कर्मरूपी ईधन का अभाव हो जाता है। छठे, पूर्वप्रयोग से अर्थात् लकम अवस्था में गतिमय स्वभाव होने से अकर्म-अवस्था में भी गति होती है । इस प्रकार छह कारणों से सिद्ध जीव की ऊर्चवगति होती है है ॥५॥ 'ववगयलेव जलट्ठिय' इत्यादि । सूत्रार्थ-लेप के हट जाने पर जल की सतह पर स्थित होने वाले આપવામાં આવે છે નિઃસંગ હોવાના કારણે સિદ્ધ જીવની ગતિ થાય છે, અર્થાત્ ગતિમાં અવરોધ કરનાર કર્મને પણ અભાવ થઈ જવાથી તેમનું ઉદર્વગમન થાય છે. બીજું મેહ દૂર થઈ જવાથી ત્યાં રોકાવાના કારણભૂત રાગને લેપ રહે તે નથી એ કારણે પણ ગતિ થાય છે ત્રીજું, જીવને સ્વભાવ જ ઉદર્વગમન કરવાનું છે. ચોથું, કર્મબંધને વિચઠેદ થઈ જાય છે. પાંચમું, કર્મરૂપી ઈધન નિ અભાવ થઈ જાય છે. છટ્ઠ, પૂર્વપ્રગથી અર્થાત સકર્મ અવસ્થામાં પણ ગતિ થાય છે. આ રીતે છ કારણેથી સિદ્ધ જીવની ઉદર્વગતિ થાય છે પાપ ‘ववगयजलद्रिय' इत्यादि। સૂત્રાર્થ–લેપના દૂર થવાથી પાણીની સપાટી પર સ્થિત થનાર તુંબડાની Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tarket तत्वार्थदीपिका- 'पूर्वं तावद् निस्सङ्गत्वादिमिरकर्मणो मुक्तात्मनो गतिः प्रदर्शिता, साच केन दृष्टान्तेन गति भवतीति निरूपयितुमाह- 'ववगय' इत्यादि । व्यपगतले पजलस्थित तुम्बमिव यथा तुम्बफलं शुष्कं निश्छिद्धं अष्टभिः कुंशमृत्तिकादिलेपैः लिप्तम् आतपे दत्तं सद् शुष्कं भवति, तत् जले क्षिप्तं सत् गुरु कत्वेन जलगततलपविष्ठानं भवति, तदेव क्रमशा ठेपनिर्गलनात् जलगततळ मतिक्रम्य स्वभावत एव सलिलतकप्रतिष्ठानं भवति तद्वद् अकर्मणो गतिर्भवति |१| एवमेव निरङ्गणश्वेन तथाविध गतिणामेन चाऽव्यकर्मणो गतिर्भवति २-३, एवं वन्धच्छेदादपि अकर्मणो गतिर्भवति यथा एरण्डफलम् आतपे दत्तं सत् शुष्कं भवति, शुकस्य तस्य कोशभेदे सद्गतसे रण्डवीजमुपर्युत्पतति तद्वदेवाकर्मणाऽपि तूबे के समान, कोश के फटने पर एरंड के बीज के समान, ईंधन से विमुक्त घूम के समान और धनुष से छूटे हुए वाण के समान ॥ ६ ॥ - तत्त्वार्थदीपिका- पहले निस्संगता आदि हेतुओं से मुक्तात्मा की गति का विधान किया है, इस सूत्र में दृष्टान्तों द्वारा उसे पुष्ट करते हैं(१) जैसे कोई तुखा तुम्बाफल हो, छिद्रहोन हो और मिट्टी के आठ लेपों से लिप्स करके धूप में रखकर सुखा लिया जाय । फिर उसे जल में डाला जाय तो लेपयुक्त होने के कारण भारी होने से वह जल के तिलभाग में जाकर ठहरता है। फिर धीरे-धीरे लेपों के हटने पर वह -स्वभावतः जल के ऊपर आ जाता है, इसी प्रकार कर्म - लेप के हट 'जाने से सिद्ध जीव भी ऊर्ध्वगमन करते हैं । ( २ - ३ ) इसी प्रकार निरंगण होने से अर्थात् मोह के नष्ट होने से भी अकर्मा जीव की गति - જેમ, કૈાશના ફાટવાથી એરડાના બીજની માફક, ઈધણુથી વિમુકત ધૂમાઢાની સમાન અને ધનુષ્યથી છુટેલા માણુની સમાન ।। ૬ ।। તત્ત્વાર્થદીપિકા—પહેલા નિસ ંગતા આદિ હેતુઓથી મુકતાત્માની ગતિનુ વિધાન કર્યું, આ સૂત્રમાં દૃષ્ટાંત દ્વારા તેની પુષ્ટિ કરીએ છીએ (૧) જેમ કાઈ સુકૢ તુંબડું હાય, છિદ્ર વગરનું હાય, તેને માટીના આઠ લેપેાથી લીપીને તડકામાં રાખીને સુકાવી દેવામાં આવે, પછી તેને પાણીમાં નાખવામાં આવે તે લેયુક્ત હાવાના કારણે વજનદાર હેાવાથી તે જળના તળભાગમાં જઈને સ્થિર થાય છે. પછી ધીમે-ધીમે લેપેાના દૂર થવાથી તે સ્વભાવતઃ પાણીની સપાટી ઉપર આવી જાય છે. આવી જ રીતે ક–લેપ દૂર થવાથી સિદ્ધજીવ પણ ઉર્ધ્વગમન કરે છે. (૨-૩) આ જ પ્રમાણે નિર ંગણુ હોવાથી અર્થાત્ માહના દૂર થઈ જવાથી પણ અકર્મી જીવની ગતિ થાય છે. (૪) અન્યના ८५४ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ९६ अकर्मणो गतिविषयेः दृष्टान्तः ८५५ गतिर्भवति ४ । तथा-इन्धनमुक्तस्य धूमध्य गतिर्भवति, यथा इन्धन विषमुक्तस्य धूमस्य स्वभावत एव व्याघाताभावे ऊर्ध्व गतिभवति तथैवाकर्मणोऽपि गतिभवति ५। पूर्व प्रयोगाच्चाकर्मणो गतिर्भवति, यथा आकृष्ट कर्णान्तवापः पुरुषो धनुषा बाणं क्षिपति, तस्य वाणस्य धनुर्मुक्तस्य पुरुष व्यापाररहितस्यापि गतिभवति तथैवाऽकर्मणोऽपि गतिभवति पूर्व येन कर्मणाऽस्य गति प्रयोगो जनितः स क्षीणेऽपि कर्मणि अविच्छिन्न संस्कारत्वाद् गतिहेतुर्भवति ततस्तत्कृता गति भवति । एवं पूर्वोक्तः षड्भि दृष्टान्तरकर्मणोऽपि गतिर्भवतीति ॥६॥ . होती है। (४) बन्ध के नष्ट होने से भी कर्म रहित जीच गति करता है। जैसे एरंड का फल धूप लगने ले जल स्मृख जाता है तो उलझा कोश फटता है और अन्दर रहा हुओ बीज ऊपर उचटता है, उसी प्रकार बन्ध हट जाने पर अकर्मक जीव भी ऊर्ध्वगमन करता है । (६) ईधन से विमुक्त धूम की, व्याघात के अभाव में स्वलाव से ही ऊर्ध्वगति होती है, उसी प्रकार अफर्मक जीव की भी ऊर्ध्वगति होती है। (६) पूर्वप्रयोग से भी सिद्ध जीव ऊर्थागमन करते हैं । जले कान तक धनुष की डोरी को खींच कर पुरुष बाण छोडता है। वह काण पुरुष के व्यापार के विना भी पूर्व प्रयोग से गति करता है, उसी प्रकार सिद्ध जीव भी पूर्व प्रयोग से गमन करता है। तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के कारण उसकी पहले गति होती थी, उसका क्षय हो जाने पर भी संस्कार का विच्छेद न होने से वह गति का हेतु होता है । इस प्रकार इन छह दृष्टान्तों से अकर्मक जीव की गति सिद्ध होती है ॥६॥ નાશ થવાથી પણ કમરહિત જીવ ગતિ કરે છે જેવી રીતે એરંડાનુ ફળ તડકે લાગવાથી જ્યારે સુકાઈ જાય છે ત્યારે તેને કોશ ફાટી જાય છે અને અંદર બીજ ઉપર ઉચકાય છે એ જ રીતે બધ દૂર થઈ જવાથી અકર્મક જીવ પણું ઉર્ધ્વગમન કરે છે. (૫) ઈધણથી વિમુકત ધુમાડાની વ્યાઘાતના અભાવ માં સ્વભાવથી જ ઉદર્વગતિ થાય છે, તેવી જ રીતે અકર્મ જીવની પણ ઉદ. ગતિ થાય છે. (૬) પૂર્વ પ્રયોગથી પણ સિદ્ધ જીવ ઉર્ધ્વગમન કરે છે. જેવી રીતે કાન સુધી ધનુષ્યની દેરીને ખેંચીને પુરુષ બાણ છોડે છે. આ બાણ પુરૂષના વ્યાપાર વગર પણ પૂર્વપ્રયાગથી ગતિ કરે છે તેવી જ રીતે સિદ્ધ જીવ પણ પૂર્વપ્રગથી ગમન કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે કર્મના કારણે તેની પહેલા ગતિ થતી તેનો ક્ષય થઈ જવા છતા પણ સંસ્કારનો વિચ્છેદ ન થવાથી તે ગતિને હેતુ થાય છે. આમ આ છ દૃષ્ટાંતથી અકમક જીવની ગતિ સિદ્ધ થ ય છે. છે ને Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वार्यसूत्र ___ मूलम्-खेत्त १ काल २ गइ ३ वेय ४ तित्थ ५ लिंग ६ चारित्त ७ बुद्ध ८ नाणा ९ ऽयहणु १० कोलं ११ तरा १२ णुसमय १३ संख १४ ऽश्वहत्तओ १५ लज्झा ॥७॥ छाया-क्षेत्र १ काल २ गति ३ वेद ४ तीर्थ ५ लिङ्ग ६ चारित्र ७ बुद्ध८ ज्ञाना ९ ऽवगाहनो १० स्कर्षा ११ न्तुरा १२ नुसमय १३ संख्या १४ ऽल्पबहुस्वतः १५ साध्याः ॥७। तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् सर्वसमक्षयरूपे मोक्षे सति सिद्धो भवतीति सिद्धस्वरूपं पञ्चदशमिरै निरूपयितुमाह- खेत्तशाल' इत्यादि। अत्र सिद्धाः साध्याः अनुगमनीयाः । कथम् ? क्षेत्रादि पञ्चदशमिरैः। अत्र सिद्धानां स्वरूपज्ञाने क्षेत्रादीनि एश्वदश द्वाराणि सन्ति, एतै द्वारी सिद्ध. 'खेत्त १ काल २ गई' इत्यादि । सूत्रार्थ-सिद्ध जीव इन पन्द्रह द्वारों से चिन्तनीय या प्ररूपणीय हैं-(१) क्षेत्र (२) काल (३) गति (४) वेद (५) तीर्थ (६) लिंग (७) चारित्र (८) बुद्ध (९) ज्ञान (१०) अवगाहना (११ उत्कर्ष (१२) अन्तर (१३) अनुसमय (१४) संख्या और (१५) अल्पयत्व ॥७॥ तत्वार्थदीपिका-पहले कहा गया है कि जीव कमों का क्षय होने पर सिद्ध होता है, अतएव यहां पन्द्रह द्वारों से सिद्ध के स्वरूप को निरूपण किया जाता है सिद्ध पन्द्रह द्वारों से समझने योग्य हैं । तात्पर्य यह है कि सिद्धों के स्वरूप को समझने के लिए पन्द्रह द्वार हैं, उनसे उनके 'खेत्त१ काल२ गई३' त्या । સવાર્થ-સિદ્ધજીવ આ પંદર દ્વારેથી ચિત્તનીય અથવા પ્રરૂણીય છે (१) क्षेत्र (२) सण (3) गति (४) ३६ (५) तीथ (6) nि (७) यात्रि (८) सुद्ध (6) ज्ञान (१०) माना (११) ४ (१२) सन्त२ (१3) मनुसमय (१४) सध्या मते (१५) २८५हुत्य ॥ ७ ॥ તત્વાર્થદીપિકા–પહેલાં કહેવામાં આવ્યું કે જીવ સમસ્ત કર્મોને ક્ષય થયા બાદ સિદ્ધ થાય છે. આથી અહીં પંદર દ્વીરોથી સિદ્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. સિદ્ધ પંદર દ્વારેથી સમજવા ગ્ય છે. તાત્પર્ય એ છે કે સિદ્ધોના સ્વરૂપને સમજવા માટે પંદર દ્વાર છે તેનાથી તેમના સ્વરૂપને વિચાર કરવો Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९ सू.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् स्वरूपं चिन्तनीयरिति भावः । तानि द्वाराणि यथा 'खेत' इत्यादि । अत्र क्षेत्राघल्पवहुत्वान्तान इन्द्रः । ततः क्षेत्रातः कालतः इत्यादि । तत्र क्षेत्रतः कस्मिन् क्षेत्रे सिध्यन्ति, विधेऽपि क्षेत्रो अवधिस्तिर्यग्लोकरूपे सिध्यन्ति । तत्र-ऊर्ध्वलोके पण्ड करनादौ, अधोलोके सलिलावती विजयाधोलौकिकेषु ग्रामेषु, तिर्यग्लोके मनुष्यक्षेत्रो सिध्यन्ति । नापि संहारणामावेन एञ्चदशसु कर्मभूमिषु-भरत पञ्चकरवत एञ्चकमहाविदेहपञ्चकरूपातु सिद्धा शवन्ति संहरणमपेक्ष्य समुद्रनदी वर्षधरपर्वतादावपि भवन्ति । तीर्थकराः पुनरधोलोकेऽधोलौकिकेषु प्रामेछु, तिर्यग्लोके पश्चदशायु कर्मभूमिषु भवन्ति न शेषेषु स्थानेषु, तत्र तेषां संहरणत एव सदाबाद, न तीर्थकृतां भगवना कदाचिदपि संहरण संभव इति। संहरणं द्विविधं स्वरूप का विचार करना चाहिए । उनका निरूपण इस प्रकार है- . __ (१) क्षेछार-शिल क्षेत्र में जीव सिद्ध होते हैं ? उत्तर यह है कि ऊर्ध्व, वधः और नियंक, इन तीनों लोकों में जीव सिद्ध होते हैं। पण्डकपन आदि ऊदलोमा, सलिलावती विजय के अघोलौकिक ग्रामरूप अधोलोक मनुष्यक्षेत्ररूप तिर्छ लोक में सिद्ध होते हैं। उसमें भी संहरण के अभाव में पन्द्रह कर्मभूमियों से अर्थात् पांच भरत, पांच एरयत और पांच महाविदेह में सिद्ध होते है, संहरण की अपेक्षा समुद्र, नदी वर्षधर, एवं पर्वत आदि में श्री सिद्ध होते हैं। तीर्थकर अधोलोक में अधोलौकिक ग्रामों में, तिर्यक् लोक में पन्द्रह कर्म भूमियों में सिद्ध होते है, शेष स्थानों में नहीं। शेष स्थानों में जो सिद्ध होते है ये संहरण से ही होते हैं किन्तु तीर्थकर भगवान् का 'જોઈએ. તેનું નિરૂપણ આ પ્રમાણે છે : ક્ષેત્રદ્વાર - ક્યા ક્ષેત્રમાં જીવ સિદ્ધ થાય છે? જવાબ એ છે કે ઉર્વી અધઃ-અને તિર્યક, આ ત્રણે લોકોમાં સિદ્ધ થાય છે પણ્ડકવન આદિ ઉર્વ લેકમાં સલિલાવતી વિજયના અધેલેકિક ગ્રામરૂપ અધલેકમાં તથા મનુષ્યક્ષેત્ર રૂપ તિછલોકમાં સિદ્ધ થાય છે આમાં પણ સંહરણના અભાવમાં પંદર કર્મભૂમિમાં અર્થાત પાંચ ભરત, પાંચ એરવત અને પાંચ મહાવિદેહમાં સિદ્ધ થાય છે, સંહરણની અપેક્ષા સમુદ્ર, નદી, વર્ષઘર અને પર્વત આદિમાં પણ સિદ્ધ થાય છે. તીર્થકર અધોલોકમાં અલૌકિકથામાં તિર્યકર્લોકમાં પંદર કર્મભૂમિઓમાં સિદ્ધ થાય છે, શેષ સ્થાનમાં નહી શેષ સ્થાને માં જે સિદ્ધ થાય છે તેઓ સંહરણથી જ થાય છે પરંતુ તીર્થ કર ભગવાનનું સંહરણ કદી પણ થઈ શકતું નથી. સંહરણ બે પ્રકારના હોય છે त० १०८ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्यस्त्र भवति स्कृतं परकृतं च । तत्र स्वकृतं यत् जङ्घाचारण विद्याचारणानां स्वेच्छातो विशिष्ट स्थानानुगसनं भवति तत् । परकृतं यत् चारणविद्याधरैर्देवश्च वैरभावतो ऽनुकम्पातो वा तत्र उत्क्षिप्यान्यन्न प्रक्षेपणं भवति तत् । संहरणं तु प्रमत्तसंयतानां देशविरतानामेव भवति न तु सर्वेषां साधूनाम् । श्रमणी, व्यपगतवेदः, परिहारविशुद्धिसंयतः, पुलाकः अप्रमत्तसंयतः, चतुर्दशपूर्वी, आहारकशरीरी चेत्येतेषां सप्तानां कदाचिदपि संहरणं न भवति । तथा चोक्तम् "समणीमक्षणयवेदं, परिहार पुलागमप्पमत्तंच । चोहलपुद्धि आहा-रगंच णवि कोवि संहरह।" इति छाया-श्रमणीमपगनवेदं परिहारं पुलाकमप्रमत्तं च। - चतुर्दश पूविणं आहारकं च नापि कोऽपि संहरति ॥इति क्षेत्रद्वारम् ।। संहरण कभी हो नहीं सकता। संहरपा दो प्रकार का होता है-स्वकृत और परकृत । जंघाचरण मुनि अपनी इच्छा से विशिष्ठ स्थानों पर गमन करते हैं, वह स्वकृत संहरण कहलाता है। विद्याधरों अथवा देवों बारा वैरभाव के कारण या अनुकंपा से प्रेरित होकर नियत स्थान से किसी दूसरे स्थान पर ले जाना परकृत संहरण कहलाता है। यह संहरण प्रमत्त संयतो और देशविरत श्रावकों का ही हो सकता है, सब साधुओं का नहीं। श्रमणी, वेदरहित साधु, परिहार विशुद्धि संयत, पुलाक, अप्रमत्तसंयत, चतुर्दशपूर्वी और आहारक शरीरी, इन सातका -संहरण कदापि नहीं होता । कहा भी है- 'श्रमणी वेदविहीनश्रमण, परिहार विशुद्धि संयमवान् पुलाक, प्रमत्त संयत, चौदहपूर्वी और आहारक शरीरी श्रमण का कई संहरण नहीं करता। સ્વકૃત અને પરકૃત જંઘાચારણ અથવા વિદ્યાચારણ મુનિ પિતાની ઈચ્છાથી વિશિષ્ટ સ્થાને ભણું ગમન કરે છે, તે સ્વકૃત સંહરણ કહેવાય છે. વિધારે અથવા દેવે દ્વારા વેરભાવના કારણે અથવા અનુકંપાથી પ્રેરિત થઈને નિયત સ્થાનેથી કોઈ બીજા સ્થાને લઈ જવું પરકૃત સંહરણ કહેવાય છે. આ સંહાર ૨ણ પ્રમત્તસંયત અને દેશવિરત શ્રાવકેને જ હોઈ શકે છે, બધાં જ સાધુઓને નહીં. સાધ્વી વેદરહિત સાધુ પરિહાર વિશુદ્ધ સંયત, પુલાક, અપ્રમત્તસંયત, ચતુદશપૂવી અને આહારકશરીરી, આ સાતનું સંહરણ કદાપી થતું નથી વળી કહ્યું પણ છે શ્રમણ, વેદવિહિન શ્રમણ, પરિહાર વિશુદ્ધિ સંયમવાન પુલાક, અપ્રમ સંયત, ચૌદપૂર્વ અને આહારક શરીરી શ્રમણનું કઈ સંહરણ કરતું નથી Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९२.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् .. . . . ८५६ कालतः सिद्धाः कस्मिन् काले सिद्ध्यन्ति ?। सामान्यतो जन्मतोऽवसपिण्युत्सर्पिणीरूपेषु कालेषु सिद्ध्यन्ति। विशेषतस्तु--अवसर्पिण्यां सुपमदुष्पमा रूपे तृतीयकालभागे संख्येयेषु वर्षेषु शेषेषु जाताः सन्तः सिद्धयन्तिः । दुष्पमसुषमायां सर्वस्यामिलि चतुर्थाऽरके सर्वत्र सिद्धयन्ति । दुष्पसुषमायां जाता दुषमा रूपे पञ्चमार के सिद्धयन्ति किन्तु दुष्पमायां जाता न कदाचित् सिद्धयन्तीतिभावः । संहरणापेक्षयातु अबला पिण्यादिषु सर्वे ध्वपि कालेषु सिद्धयन्ति । यथा-अवसापिण्यां तृतीयचतुर्थारकयोश्वरमशरीरिणां जन्म सिद्धि गमनं तु केषाञ्चित् पञ्चमेऽप्यरके भवति रथा जम्बूस्वामिनः । केषाश्चित् चरमशरीरिणां उत्सर्पिण्यां दुष्पमादिषु द्वितीय तृतीयचतुर्थारकेषु जन्म, सिद्धिग। (२) कालवार-काल लिद्धजीव किन काल में सिद्ध होते हैं ? लामा. न्य रूप से, जन्म की अपेक्षा अबलर्पिणी और उत्सर्पिणी-सभी कालो में सिद्ध होते हैं। विशेष का विचार किया जाय तो अवसर्पिणी के सुषम दुष्पल रूप तीसरे आरे में संख्यात घर्ष शेष रहने पर जन्मे एं सिद्ध होते हैं। दुष्षम-सुषम नामक पूरे चौथे आरे में सिद्ध होते हैं। दुष्षम सुषम आरे में जो उत्पन्न हुए हैं वे पंचम आरे में सिद्ध हो सकते हैं किन्तु दुष्षम नामक पांचवें आरे जन्मे हुए जीव सिद्ध नहीं होते। सहरण की अपेक्षा अवसर्पिणी आदि लश्री कालों में सिद्ध होते हैं। यथा-अवसर्पिणी काल में तीसरे और चौथे बारे में चरमशरीरी मनुव्यों का जन्म होता है किन्तु उनमें से कोई-कोई पांचवें आरे में भी मोक्ष जाते हैं, जैसे जम्बू स्थानी। किन्हीं-किन्हीं चरमशरीरीयों का (૨) કાલદ્વાર–કાલથી સિદ્ધ જીવ કયા કાળમાં સિદ્ધ થાય છે? સામાન્ય રૂપથી, જન્મની અપેક્ષા અવસર્પિણી અને ઉત્સર્પિણી બધાં જ કાળમાં સિદ્ધ થાય છે. વિશેષને વિચાર કરવામાં આવે તે અવસર્પિણીના સુષમદષમ રૂપ ત્રીજા આરામાં, સંખ્યાત વર્ષ શેષ રહેવા પર જન્મેલા સિદ્ધ થાય છે. દુષમ સુષમ નામક પૂરા ચેથા આરામાં સિદ્ધ થાય છે. દુષમસુષમ આરામાં જે ઉત્પન્ન થાય છે તે પંચમ આરામાં સિદ્ધ થઈ શકે છે પરંતુ દુષમ નામક પાંચમાં આરામાં જન્મેલા જીવ સિદ્ધ થતાં નથી સંહરણની અપેક્ષા અવસપિણી આદિ બધાં કાળમાં સિદ્ધ થાય છે જેમકે–અવસર્પિણી કાળમાં ત્રીજા અને ચોથા આરામાં ચરમશરીરી મનુષ્યને જન્મ થાય છે પણ તેમાંથી કોઈ કોઈ પાંચમાં આરામાં પણું મેક્ષે જાય છે જેમ કે જખ્ખસ્વામી કેઈ કે ચરમશરીરિઓને ઉત્સર્પિણી કાળમાં દુષમ આદિ બીજા ત્રીજા ચેથા આરામાં Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ सूत्रे मनं तु तृीतयचतुर्धारकयोरेव भवति । - " दो वि समा जाया सिज्झतो सप्पिणीए कालतिगे । तीसुय जाया जोसप्पिणीए सिज्झंति कालदुगे ||१|| " इति द्वयोरपि समये जाताः सिद्धयन्ति उत्सर्पिण्यां कालत्रिके । तिसृषु च (समासु ) जाता अवसर्पिण्यां सिद्धयन्ति कालद्विके इतिच्छाया ॥ संहरणमपेक्ष्यतु - उत्सर्पिण्यामवसर्वियां च षट्स्वप्यरकेषु सिद्धयन्ति । तीर्थकृतां पुनरवसर्पिण्यामुत्सर्मिण्यां च जन्म सिद्धिगमनंतु- सुषमदुष्पमा दुष्पमसुष्पमारूपयो स्तृतीय चतुर्धारकयोरेव वेदिव्यं, न तु शेषेष्वरकेषु' यथा भगवत ऋषभस्वामिनः सुषम दुष्पमारकपर्यन्तभागे जन्म, एकोननवति पक्षेषु इति सार्द्धाष्टमासाधिकेषु त्रिषु वर्षेषु शेषेषु च सिद्धिगमनम् । भगवतो वर्द्धमानउत्सर्पिणी काल में दुष्षम आदि द्वितीय-तृतीय चतुर्थ आरे में जन्म होता है किन्तु सिद्धिगमन तो तीसरे चौथे आरे में ही होता है। कहा भी है- 'अवसर्पिणी काल के दो आरों में उत्पन्न हुए जीव तीन आरों में सिद्ध होते हैं और उत्सर्पिणी काल के तीन आरों में जन्मे हुए 'दो आरों में सिद्ध होते हैं ' ॥१॥ संहरण की अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में छहों आरों में सिद्ध होते हैं। तीर्थकरों का | जन्म अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के तीसरे और चौथे आरे में होता है और सिद्धिगमन भी सुषम दुषमा और दुष्षत्र सुषमा काल में- तीसरे और चौथे आरे में ही समझना चाहिए, अन्य बारों में नहीं । जैसे भगवान् ऋषभदेव का जन्म सुपन दुब्बम आरे के पर्यन्त भाग में हुआ और ८९ पक्ष, अर्थात् तीन वर्ष और साढे आठ भास शेष रहने पर मोक्षगमन हुआ । भगवान् वर्द्धमान स्वामी का जन्म જન્મ થાય છે પરન્તુ સિદ્ધિગમન તે ત્રીજા ચેાથા આશમાં થાય છે. કહ્યું પણ છે અવસર્પિણી કાળના એ આરામાં ઉત્પન્ન થયેલા જીઃ ત્રણ આરામાં સિદ્ધ થાય છે ઉત્સર્પિણી કાળના ત્રણ આરામાં જન્મેલા એ આરામાં સિદ્ધ થાય સ’હરણની અપેક્ષા ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળમાં છ એ મારામાં સિદ્ધ થાય છે. તીર્થંકરના જન્મ અવસર્પિ`ણી અને ઉત્સર્પિણી કાળના ત્રીજા અને ચેાથા આરામાં થાય છે અને સિદ્ધિગમન પણ સુષમદુષમા અને દુષ્પમસુષમા કાળમાં ત્રીજા અને ચેથા આરામાં જ સમજવું જોઇએ, અન્ય મારાએમાં નહીં. જેમ ભગવાન ઋષભદેવના જન્મ સુષમદુષ્મમ ારાના છેલ્લા ભાગમાં થા અને ૮૯ પખવાડીઆ અર્થાત્ ત્રણ વર્ષ અને સાડા આઠ માસ રોષ રહેવા પર મેાક્ષગમન થયું. ભગવાન મહાવીર સ્વામીના જન્મ દુષ્કર્મ છે Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. सू.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् स्वामिनस्तु दुष्पमसुषमारक पर्यन्त भागे जन्म, एकोननवति पक्षेषु शेषेषु सिद्धि, गमनमिति। इति द्वितीयं कालद्वारम् ।।२।। गतिमाश्रित्य कस्यां गली सिद्धयन्ति । अत्र नयद्वयम्-अनन्तरनयः पाश्चास्कृतनयथेति, वन अनन्तरनयमिति मत्युत्पन्नमत्रमधिकृत्य मनुष्यगतावेव सिदूध्यन्ति नान्यस्यां गतौ । पश्चात्कृतनयमिति पाश्चात्यानन्तरं भवमधिकृत्य पुनः सामान्यतश्चक्मृश्योऽपि गतिम् आगताः सिद्धयन्ति। सत्रायं विवेकः-गरकगतिमाश्रित्य चतसृभ्य आधास्यो नरकपृथिवीश्य आगताः सिद्धयन्ति । तिर्यग्गतिमाश्रित्य पृथिव्यवमनस्पति पञ्चेन्द्रिपतिय गतिथ्य आगताः सिद्धयन्ति । मनुष्य गति माश्रित्य स्त्रीस्या पुरुषेभ्यो वा समापनाः सिद्धयन्ति ३ देवगति मश्रित्य चतुभ्यो देवनिकायेभ्य आगताः सिद्धयन्ति ४ । तीर्थ कराः पुनर्देवगार्नरक गतेदुषद सुषम नानक आरे के अन्तिम भाग में हुमा ८९ पक्ष शेष रहने पर मोक्षपटन हुआ। (३) गसिहार-गति की अपेक्षा एक गति में सिद्ध होते हैं। इस विषय में दो नथ है-अनन्तर नए और पश्चात्कृत लय । अनन्तर लय अर्थात् वर्तमान अध्क्ष की अपेक्षा ले लनुष्यगति में ही सिद्धि प्राप्त होती है, किसी अन्य गति में नहीं । पश्चात्कृत लय अर्थात् वर्तमान भवरले पहले के भय के अपेक्षा से, सामान्य रूप ले चारों ही गतियों से आये जीव सिद्ध होते हैं। इसमें विशेषता यह है-नरकति की अपेक्षा प्रारंभ की चार पृथिवियों से आये जीन सिद्ध हो सकते हैं । तिर्य च गति की अपेक्षा पृथ्वी, जल बलस्पति और पंचेन्द्रिय तिथंचों से आये जीव सिद्ध होते हैं। देक्षगलि की अपेक्षा चारों निकायों से आये સુષમ નામક આરાના અન્તિમ ભાગમાં થયો. ૮૯ પખવાડીઆ શેષ રહ્યા त्यारे मे.क्षामन थयु'. (૩) ગતિદ્વાર–ગતિની અપેક્ષા એક ગતિમાં સિદ્ધ થાય છે આ વિષયમાં બે જય છે-નારનચ અને પશ્ચાતકૃતનય અનન્તરય અર્થાત્ વર્તમાન ભવની અપેક્ષાથી મનુષ્યગતિમાં જ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, કોઈ અન્ય ગતિમાં નહીં પશ્ચાતકતનય અર્થાત્ વર્તમાન ભવના પહેલાના ભાવની અપેક્ષાથી, સામાન્ય રૂપથી ચારેય ગતિઓમાંથી આવેલા જીવ સિદ્ધ થાય છે. આમાં વિશેષતા આ છે નરકગતિની અપેક્ષા પ્રારંભની ચાર પૃથ્વીથી આવેલા જીવ સિદ્ધ થઈ શકે છે. તિર્યંચગતિની અપેક્ષા પૃથ્વી, જળ વનસ્પતિની અને પંચેન્દ્રિય તિર્ગથી આવેલા જીવ સિદ્ધ થાય છે. તીર્થકર દેવગતિ અથવા Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वापस वोऽनन्तरागताएव सिद्धयन्ति । तत्रापि नरकगतिमाश्रित्य तिसृभ्य आधाभ्य एवं नरक पृथिवीभ्य आगता सिद्धयन्ति । देवगति माश्रित्य वैमानिक देवनिकायेभ्य एव आगताः सिद्धयन्ति । न तु शेपनिकायेभ्यः। इति तृतीयं गतिद्वारम् ॥३॥ वेदता-कस्मिन् बेदे सिद्धयन्ति ? भायुत्पन्ननयमधिकृत्य अपगतवेदा एवं सिन्ति तद्धवानुभूनपूर्ववेदमाश्रित्य तु सर्वेष्यापि वेदेषु स्त्री पुं नपुनसकरूपेषु सिद्ध्यन्ति । उक्तञ्च-"अवगयवेओ सिज्झा, पच्चुप्पण्णं लयं पडुच्च ३। लहिय वेएहिथ, लिहसमश्यनयराया ।।१॥" अपगतवेदः सिद्धथति, प्रत्युत्पन्न नयं प्रतिस्य तु । सर्वेश्च वेदैश्च सिद्धयति लमतीवनयवादात् इतिच्छाया। तीर्थकृतः पुनः स्त्रीवेदे वा पुरुष वैदेवा सिद्ध्यन्तिश तु नपुंसक वेदे ॥ इति चतुर्थ वेदद्वारम् ।। जीव सिद्ध होते हैं। तीर्थ कर देवति था नरकगति से अनन्तर आकर ही सिद्ध होते हैं । नरक से आएं जो प्रारंभ की तीन नरकभूमियो से भाकर सिद्ध होते है। देवगति की अपेक्षा वैमानिकनिकाय से सिद्ध होते है, अन्य किसी निकाय से नहीं। (४) वेदछार-वेद की अपेक्षा किस वेद से सिद्ध होते है ? प्रत्युस्पन्न नया अर्थात् वर्तमालवाहीनय की अपेक्षा तो वेद रहित जीव ही सिद्ध होते हैं उस भव में अनुभव किये हुए पूर्व वेद की अपेक्षा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंलकवेद तीनों से सिद्ध होते हैं। कहा भी है-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा सभी वेदों से सिद्ध होते हैं ॥१॥ तीर्थ कर स्त्रीवेद अथवा पुरुषवेद में ही सिद्ध होते हैं, नपुसकवेद में नहीं। બરકગતિથી અનન્તર આવીને જ સિદ્ધ થાય છે. તીર્થકર નરકથી આવે તે પ્રારંભની ત્રણ નરકભૂમિઓથી આવીને સિદ્ધ થાય છે. દેવગતિની અપેક્ષા ઉમાનિકનિકાયથી જ આવીને સિદ્ધ થાય છે. અન્ય કેઈ નિકાયથી નહીં (૪) વેદદ્વાર–વેદની અપેક્ષા કયા વેદથી સિદ્ધ થાય છે? પ્રત્યુત્પન નય અર્થાત્ વર્તમાનશાહી નયની અપેક્ષા તે દરહિત જીવ જ સિદ્ધ થાય છે. ભવમાં અનુભવેલા પૂર્વવેદની અપેક્ષા સ્ત્રીવેદ, પુરૂષ અને નપુંસકવેદ શ્રણથી સિદ્ધ થાય છે કહ્યું પણ છે પ્રત્યુત્પન નયની અપેક્ષા વેદથી રહિત જીવ સિદ્ધ થાય છે, પરંતુ અતીતગ્રાહી નયની, અપેક્ષા બધા વેદોથી સિદ્ધ થાય છે, ૧ | તીર્થ કર સ્ત્રીવેદ અથવા પુરૂષદમાં જ સિદ્ધ થાય છે, નપુંસદમાં નહીં, Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् तीर्थतः कस्मिन् तीर्थ सिद्धयन्ति ? तीर्थकरतीर्थे च अतीर्थे च सिद्ध्यन्ति ॥ इति पञ्चमं तीर्थद्वारम् ।५। लिङ्गतः कस्मिन् लिङ्गे सिद्ध्यन्ति ?, गृहिलिङ्गे स्वलिङ्गे च सिद्ध्यन्ति, इदं च सर्व द्रव्यलिङ्गापेक्षया ज्ञातव्यम् । संयमरूपभावलिङ्गापेक्षया तु स्वलिङ्गे एक सिद्ध्यन्ति न तु तदतिरिक्त लिङ्ग भावलिङ्गनव सिद्धि प्राप्तेः। इतिषष्ठ लिङ्गद्वारम् ।६। चारित्रतः कस्मिन् चारित्रे सिद्ध्यन्ति ? मत्युत्पन्ननयमधिकत्य यथाख्यात. चारित्रे सिद्ध्यन्ति । द्धवानुभूतपूर्वचारित्राऽपेक्षया केचित् सामायिक सूक्ष्मसंपराय-यथाख्यातेति चारित्रिणः १ केचित्-सामायिक छेदोपस्थापनीय-सूक्ष्म(५) तीर्थद्वार-तीर्थ की अपेक्षा किल तीर्थ में सिद्ध होते हैं ? तीर्थकर के तीर्थ में, तीर्थकरी के तीर्थ में और अतीर्थ श्री सिद्ध होते हैं। (६) लिङ्गद्वार-लिंग की अपेक्षा किल लिंग में सिद्ध होते हैं ? अन्य लिंग में, गृहस्थलिंग में और स्वलिंग की अपेक्षा समझना चाहिए। संयमरूप भावलिंग की अपेक्षा तो स्वलिंग में ही सिद्धि प्राप्त होती है उसका सिवाय अन्य भावलिंग में नहीं। (७) चारित्रद्वार-चारित्र की अपेक्षा किस चारित्र में सिद्ध होते हैं? प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा यथाल्यात चारित्र में सिद्ध होते हैं उसी अव में पहले अनुभव किये चारित्र की अपेक्षा कोई सामायिक सुक्ष्मालाम्प राय और यथोख्यात-तीन चारित्र वाले होते हैं, कोई चार-सामायिक, छेदोपस्थापना, स्वक्ष्म साम्पराय और यथाख्यान चारित्र चाले होते हैं (५) तथा२-तीनी अपेक्षा या ती भi 6पन्न थाय छ ? તીર્થકરના તીર્થમાં, તીર્થકરીના તીર્થમાં અતીથમાં પણ સિદ્ધ થાય છે. (6) सिंगा--सिनी अपेक्षा या विमा सिद्ध थाय छ ? અન્યલિંગમાં, ગૃહસ્થલિંગમાં અને સ્વલિંગમાં સિદ્ધ થાય છે આ કથન દ્રવ્યલિંગની અપેક્ષા સમજવું જોઈએ સંયમરૂપ ભાવલિંગની અપેક્ષા તે સ્વલિંગમાં જ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છેએ સિવાયના અન્ય ભાવલિંગમાં નહીં. (७) यात्रि।२--यात्रिनी अपेक्षा या यात्रिमा सिद्ध थाय छ ? પ્રત્યુત્પન્નનયની અપેક્ષા યથાખ્યાત ચારિત્રમાં સિદ્ધ થાય છે, તે જ ભાવમાં પહેલા અનુભવેલા ચારિત્રની અપેક્ષા કેઈ સામાયિક, સૂમસામ્પરાય અને યથાખ્યાત ત્રણ ચારિત્ર વાળા હોય છે. કેઈ ચાર-સામાયિક, છેદપસ્થાપના સૂમસામ્પરાય અને યથાખ્યાત ચારિત્રવાળા હોય છે. કોઈ સામાયિક, છેદ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्यसूत्रे सपराय-यथाख्यातेति चतुश्चारित्रिणः २, केचिद-मामायिक छेदोपच्यापनीयपरिहारनिशुद्धिक सूक्ष्मसंपराय ययाख्याते विपञ्च चारित्रिणः ३, इति। "परस्मि समाए, ५च्छुकृष्णेण लिज्जा पापणा । पुवाणलर चरणे, लि-बउझम-पंचन-लेणं ॥१॥ इति छाया-चरणे यथाख्याते, प्रत्युत्पन्लेन सिध्यति नयेन ! पूर्वान्दचरणे, त्रि-चतुष्का-पश्चक गयेन ॥इति। तीर्थकर पुन: सामाजिक सक्षासंपाय यथाख्यात चारित्रिण एव सिद्ध्यन्तितो सप्तमं चारित्रद्वारम् ॥७॥ बुद्धत्वमाश्रित्य कीदृशा बुद्धा सिद्ध्यन्ति ? स्वयंयुद्धाः प्रत्येक बुधाः बुद्धनोधितावा मिद्धयन्ती नि सन्न क्ष बुद्धा-स्त्रोत्र आत्मनैव बुद्धाः नान्येन बोधिताः-ले व तार्थकाराः तीर्थ करनामगोत्रोदयसमा उच्यते । प्रत्येक बुद्धाः-मन्येकमेव पात्मानं प्रति क्षिश्चिनिमित्तमाश्रित्य संजात जाति स्मसामायिक, छेदोषस्थानीय, परिहास विशुद्धिक वृक्षालाम्पराय और याख्यात्व इस प्रकार पांचों चरित्रों की आराधना करके सिद्ध होते हैं। कहा भी है-'प्रत्युत्पन्नमय की अपेक्षा पधाख्यान चात्रि में सिद्ध होते हैं पूर्वाचरित चास्त्रिों की अपेक्षा कोई तीन, कोई चार कोई पांच चारित्र ले सिद्ध होते हैं।' तीर्थ कर सामायिक, वृक्षासाम्परा और यथाख्यात चारित्र का आराधन करके ही सिद्ध होते है। (८) बुद्धद्वार-बुद्धस्च की अपेक्षा शिा प्रकार के बुद्ध हिद्ध होते हैं ? स्वयंवुद्ध-जिन्हें परोपदेश के विना स्वयं ही बोध प्राप्त हुआ हो प्रत्येकबुद्ध-जिन्हें कोई चाल लिमित्त पापार बोध प्राप्त हुआ हो और वुद्ध बोधिश-ज्ञालीजनों ले उपदेश पाकर जिन्हें बोध प्राप्त हुआ हो. सिद्ध होते हैं। तीर्थ कर स्वयं बुद्ध ही होते हैं, उन्हें પસ્થાનીય, પરિહાર વિશુદ્ધિક, સૂમસામ્પરાય અને યથાખ્યાત એ રીતે પાંચે રિત્રાની આરાધના કરીને સિદ્ધ થાય છે કહ્યું પણ છે પ્રત્યુનનયની અપેક્ષા યથાખ્યાત ચારિત્રમાં સિદ્ધ થાય છે અને પૂર્વોચરિત ચારિત્રની અપેક્ષા કેઈ ત્રણ કે ઈ ચાર અને કઈ પાંચ ચારિત્રથી સિદ્ધ થાય છે. “તીર્થ કેર સામાયિક. સસ્મસામ્પરાય અને યથાખ્યાત ચારિત્રની આરાધના કરીને જે સિદ્ધ થાય છે. (૮) બુદ્ધકાર–બુદ્ધવની અપેક્ષા કયા પ્રકારના બુદ્ધ સિદ્ધ થાય છે? સ્વયં બુદ્ધ જેમને પપદેશ વગર સ્વયં જ બેધ પ્રાપ્ત થયો છે. પ્રત્યેક બુદ્ધ જેમને કંઇપત્ર નિમિત્ત મેળવી બાધ પ્રાપ્ત થયેલ હોય અને બુદ્ધ ધિત જ્ઞાની જનથી ઉપદેશ પામીને જેમને બાધ પ્રાપ્ત થયે હેય-સિદ્ધ થાય છે તીર્થકર સ્વયંબદ્ધ જ હોય છે, તેમને કોઈ પાસેથી બેધ પ્રાપ્ત કરવાની જરૂર પડતી Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् रणा दबुद्धा करकण्ड्वदिवत् ते प्रत्येकबुद्धा उच्यन्ते । बुद्धबोधिता:-बुधेनज्ञात सिद्धान्तातरवेन विदितसंसारस्वभावेन ये बोधितास्ते वुद्धबोधिता उच्यन्ते, एते सम्भूताः सिद्ध्यन्वीति । इत्यष्टमं बुद्धद्वारम् ।८।। - ज्ञानत:-कस्मिन् ज्ञाने सिद्ध्यन्ति ? प्रत्युत्पन्ननयमाश्रित्य केवलज्ञाने सिद्ध्यन्ति । तदानुभूतपूर्वानन्तरज्ञानमपेक्ष्य तु केचित्-मतिश्रुतज्ञानिनः, केचित् मतिश्रुतावधिज्ञानिनः, केचित् मतिश्रुनमनःर्या यज्ञानिनः, केचित्-मतिश्रुता. वधिमनःपर्यायज्ञानिना सिध्यन्ति । तीर्थकरास्तु मतिश्रुवावधिमनःपर्यायज्ञानिनः सिद्धयन्ति तत्र मतिश्रुनावधीतिज्ञानत्रयन्त एव परभवतः समागच्छन्ति । दीक्षाकिसी से घोध प्राप्त नहीं करना पडता । प्रत्येकवुद्ध भी किसी का उपदेश पाये बिना ही बोध प्राप्त करते हैं अगर उन्हें किसी बाहरी निमित्त की आवश्यकता होती है जै ले कर कण्ड आदि । जो सिद्धान्त के सार को समीचीन रूप से जानने बाले ज्ञानी पुरुष का उपद्धेश पाकर बुद्ध होते हैं, वे बुद्धघोषित कहलाते हैं। ये तीनों प्रकार के साधसिद्धि प्राप्त करते हैं। (९) ज्ञानद्वार-ज्ञान की अपेक्षा किल ज्ञान से सिद्ध होते हैं? प्रत्युत्पन्न अर्थात् वर्तमानग्राहीनय की अपेक्षा केवलज्ञान में सिधि होती है। किन्तु उसी भव में प्राप्त पूर्वकालीन ज्ञानों का विचार किया जाय तो कोई मति-श्रुतज्ञानी होते हैं कोई मति, श्रुत और अवधिज्ञानी होते हैं, कोई मति, श्रुत मनापर्यवज्ञानी होते हैं। और कोई मति, श्रुत और अवधिज्ञानी होते है । तीर्थङ्करों को नियम से चारों ही નથી. પ્રત્યેકબુદ્ધ પણ કેઈને ઉપદેશ પામ્યા વગર જ બેધ પ્રાપ્ત કરે છે પરંતુ તેમને કોઈ બહારના નિમિત્તની જરૂરીયાત રહે છે જેમ કે કરકચ્છ આદિ જે સિદ્ધાંતના સારને સમીચીન રૂપથી જાણનાર જ્ઞાની પુરૂષને ઉપદેશ પામીને બુદ્ધ થાય છે તે બુદ્ધ બધિત કહેવાય છે. આ ત્રણે પ્રકારના સાધક સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે. (૯) જ્ઞાનદ્વાર-જ્ઞાનની અપેક્ષા કયા જ્ઞાનથી સિદ્ધ થાય છે ? પ્રત્યુત્પન અર્થાત્ વર્તમાનગ્રાહીનયની અપેક્ષા કેવળજ્ઞાનમાં સિદ્ધ થાય છે, પરંતુ તે જ , ભવમાં પ્રાણ પૂર્વકાલીન જ્ઞાનેને વિચાર કરવામાં આવે તે કઈ મતિ શ્રતજ્ઞાની હોય છે, કેઈ મતિ, શ્રુત અને અવધિજ્ઞાની હોય છે જ્યારે કોઈ મતિ શ્રત, અવધિ અને મન:પર્યવજ્ઞાની હોય છે. તીર્થકરોને નિયમ त०.१०९ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D तत्वार्थ काले चतुर्थ मनःपर्यवज्ञानमपि समुत्पद्यते, ततः केवलं प्राप्य सिद्धयन्तीति विवेकः । इति नवमं ज्ञानद्वारम् ।।९।। अवगाहनाता-कस्यामवगाहनायां सिद्ध थन्ति ? अवगाहना त्रिविधा-जघन्या उत्कृष्टा, सध्यमा चेति । तत्र जघन्या द्विरत्नि प्रमाणा, उत्कृष्टा पञ्चशतधनु: प्रमाणा, मध्यमा-सप्ताह स्तादि प्रमाणा। तत्र जघन्यावगाहनया द्विरत्नि प्रमाणा सिद्धाः वामनकूर्मीपुत्रादयः, उत्कृष्टावगाहनया पञ्चशतधनुःप्रमाणा सिद्धाः भरतबाहुबल्यादयः, मध्यमावगाहनया सप्तहस्तादि प्रमाणा सिद्धाः गौतमादयः जघन्योत्कृष्टावगाहनातिरिक्ता सर्वाऽप्य गाहना मध्यमैव ज्ञातव्येतिविवेकः इति दशममरगाहनाद्वारम् ॥१०॥ ज्ञान होते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान से युक्त होकर ही परभव से आते हैं। दीक्षा धारण करते ही उन्हें मनापर्यवज्ञान प्राप्त हो जाता है और फिर केबलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध होते हैं। (१०) अवगाहनाद्वार-अवगाहना की अपेक्षा किस अवगाहना से सिद्ध होते हैं ? अवगाहना तीन प्रकार की है-जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम । जघन्य दो हाथ की अवगाहना से सिद्ध होते हैं, उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की अवगाहना वाले सिद्ध होते हैं और मध्यम सात हाथ आदि की अवगाहना वाले सिद्ध होते है जघन्य अवगाहना से कूर्मपुत्र आदि सिद्ध हुए, उत्कृष्ट पांचसो धनुष की अवगाहना से भरत बाहुबली सिद्ध हुए। और मध्यम लात हाथ की अवगाहना से गौतम भादि ने सिद्ध प्राप्त की। जघन्य और उत्कृष्ट अक्षणाइना के बीच की सारी अध्यगाइनाएं मध्यम ही समझनी चाहिए। ચારેય જ્ઞાન હોય છે. તેઓ મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાનથી ચુકત થઈને જ પરભવથી આવે છે દીક્ષા અંગીકાર કરતા જ તેમને મન:પર્યવજ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ જાય છે અને પછી કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને સિદ્ધ થાય છે. (૧૦) અવગાહનાદ્વાર–અવગાહનાની અપેક્ષા કયા અવગાહનથી સિદ્ધ થાય છે ? અવગાહના ત્રણ પ્રકારની છે જઘન્ય ઉત્કૃષ્ટ અને મધ્યમ. જઘન્ય બે હાથની અવગાહનાથી સિદ્ધ થાય છે, ઉત્કૃષ્ટ પાંચસે ધનુષ્યની અવગાહ નાવાળા સિદ્ધ થાય છે અને મધ્યમ સાત આદિની અવગાહનાવાળા સિદ્ધ થાય છે જઘન્ય અવગાહનાથી કૃમપુત્ર આદિ સિદ્ધ થયા ઉત્કૃષ્ટ પાંચસો ધનુષ્યની અવગાહનાધી ભરત બાહુબલી આદિ સિદ્ધ થયા અને મધ્યમ સાત હાથની અવગાહનાથી ગૌતમ વગેરેએ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી. જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના વચ્ચેની બધી અવગાહનાઓ મધ્યમ જ સમજવી જોઈએ. Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ९ लू.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् ඒ දිම सम्यक्त्व परिभ्रष्टा उत्कृष्टतः किषति कालेऽविक्रान्ते सिद्धयन्ति ? सम्यपरिभ्रष्टा उत्कर्षतो देशोनापार्क पुनलपरावर्त्त-संसारातिक्रमे सति सिद्धयन्ति अनुत्कर्षतस्तु केचित् संख्यकालातिक्रमे, केचिच्चानन्येन कालेन सिद्धयन्ति ति । इत्येकादशमुत्कृष्टद्वारम् ||११|| अन्तरतः सिद्धानां कियत्कालिमन्तरं भवति ? अन्तरमिति सिध्यमानानां जीवानामन्तरकालः । तथाहि एको वर्तमानसमये सिद्धः, वसोऽन्यः कियताकालेन सेटस्यतीति सिद्धेर्गमनशुन्यो यः कालः स अन्तरं कथ्यते । वर्तमानकाले एकः सिद्धः द्वितीयो जघन्येन तत एक समयव्यवधानेन सिध्यति उत्कृष्टतः (११) उत्कर्ष हार - सम्यक्त्व से च्युन हुए जीव अधिक ले अधिक कितना काल व्यतीत होने पर सिद्ध होते हैं ? सम्यक्त्व से व्युत जीव उत्कृष्ट देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्तन पाल में सिद्ध होते हैं । अनुकर्ष की अपेक्षा कोई संख्येय काल बीतने पर और कोई अनन्त काल व्यतीत होने पर सिद्ध होते हैं । (१२ अन्तरद्वार - सिद्ध जीवों का कितने काल का अन्तर होता है ? सिद्ध होने वाले जीवों में समय का जो व्यवधान होता है वह अन्तर कहलाता है । जैसे-एक जीन वर्तमान समय में सिद्ध हुआ, उसके पश्चात् दूसरा जीव जिसने समय के बाद सिद्ध होगा उतना बीच का काल अन्तर कहलाता है अर्थात् सिद्धिगमन से शून्यकाल | वर्त्तमान समय में एक जीव सिद्ध हुआ, दूसरा एक समय के व्यवधान से सिद्ध होता है, इस प्रकार जघन्य अन्तर एक समय का होता है । उत्कृष्ट (૧૧) ઉત્કર્ષ દ્વાર-સમ્યકત્વથી ભ્રષ્ટ થયેલા જીવ અધિકમાં અધિક, કૈટલેા કાળ વ્યતીત થયા પછી સિદ્ધ થાય છે? સમ્યકત્વથી ભ્રષ્ટ છત્ર ઉત્કૃષ્ટ દેશેશન અપા પુદ્ગલ પરાવન કાળમાં સિદ્ધ થાય છે અનુત્કૃષ્ટની અપેક્ષા કાઈ સÅય કાળ વીત્યા માદ અને કાઇ અનન્ત કાળ વ્યતીત થવા મા સિદ્ધ થાય છે. (૧૨) અત્તરદ્વાર—સિદ્ધ જીવાનું કેટલા કાળનુ અન્તર હાય છે ? સિદ્ધ થનારા જીવામાં સમયનું જે વ્યવધાન થાય છે તે અન્તર કહેવાય છે જેમકે-એક જીવ વમાન સમયમાં સિદ્ધ થયે। ત્યાર બાદ ખીજો જીવ જેટલા સમય માદ સિદ્ધ થશે તેટલેા વચ્ચેના કાળ અન્તર કહેવાય છે અર્થાત્ સિદ્ધિગમનથી શૂન્યકાળ વર્ત્તમાન સમયમાં એક છત્ર સિદ્ધ થયે, ખીજો એક સમયના વ્યવધાનથી સિદ્ધ થાય છે, આ રીતે જઘન્ય અત્તર એક સમયના Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - तत्त्वार्थसूत्र षण्मासव्यवधानेनान्यः सिद्धयत्येव । इति द्वादशमन्तरद्वारम् ॥१२॥ . अनुसमयतो निरन्तरत इत्यनु पमयमाश्रित्य कति समयान् यावत् सिद्ध्यन्ति निरन्तर नैरन्तर्येण जघन्यतो द्वौ समयौ यावत् सिद्ध्यन्ति, उत्कृष्टतोऽष्टौ समयान यावत् निरन्तरं सिद्ध्यन्ति ततः परं व्यवच्छेदः । इति त्रयोदशमनुसमयद्वारम् ॥१३॥ ... संख्यातः-एकस्मिन्समये कति संख्यका सिद्ध्यन्ति ? जघन्यत एकस्मिन् समये एक एव सिद्ध्यति, उत्कृष्ट तोऽष्टाधिकं शतं सिद्ध्यति । तच्चास्मिन् भरतक्षेत्रेऽस्यामवसपिण्यां भगवतः श्रीऋषभदेवस्वामिनो निर्वाणसमये उत्कृष्टावगाह 'नावतामष्टोत्तरशत्तमेकस्मिन् समये सिद्ध मिति श्रूयते । तचाश्चर्यभूतं कथ्यते शास्त्रे मध्यमावगाहनावतामेवाष्टोत्तरशतसंख्यकानामेकसमयसिद्धत्वेन कथितत्वात् । अन्तर छह मास का होता है। (१३) अनुसमयद्वार-अनुसमय अर्थात् बीच में एक भी समय का अन्तर हुए विना लगातार सिद्ध हों तो कितने समयों तक सिद्ध होते रहते हैं ? निरन्तर सिद्ध हों तो लगातार दो समयों तक सिद्ध होते हैं। उस्कृष्ट लगातार आठ समयों तक सिद्ध होते रहते हैं आठ समय के पश्चात् अन्तर अवश्य होता है।। - (१४) संख्याद्वार-एक समय में कितने जीव सिद्ध होते हैं ? एक “ 'समय में जघन्य अर्थात् कम से कम एक जीव सिद्ध होता है । उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक एकसमय में एक सौ आठ जीव सिद्ध होते हैं। इस अवसर्पिणी काल में इस भरत क्षेत्र में भगवान ऋषभदेव स्वामी के निर्वाण के समय में उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक सौ आठ जीव एक साथ (एक ही समय में) सिद्ध हुए। यह एक अच्छेरा હિય છે. ઉત્કૃષ્ટ અન્તર છ માસનું હોય છે. - (૧૩) અનુસમયદ્વાર–અનુસમય અર્થાત વચમાં એક પણ સમયનું અત્તર ‘પડયા વગર સતત સિદ્ધ થાય તે કેટલા સમય સુધી સિદ્ધ થતાં રહે છે ? નિરન્તર સિંદ્ધ હોય તો લગાતાર બે સમયે સુધી સિદ્ધ થાય છે. ઉત્કૃષ્ટ લગાતાર આઠ સમય સુધી સિદ્ધ થતાં રહે છે. આઠ સમય પછી અત્તર અવશ્ય પડે છે. (૧૪) સંખ્યા દ્વાર-એક સમયમાં કેટલા જીવ સિદ્ધ થાય છે ? એક સમયમાં જઘન્ય અર્થાત્ ઓછામાં ઓછો એક જીવ સિદ્ધ થાય છે ઉત્કૃષ્ટ અર્થાત અધિકમાં અધિક એક સમયમાં એક આઠ જીવ સિદ્ધ થાય છે, આ અવસર્પિકાળમાં આ ભરત ક્ષેત્રમાં ભગવાન ઋષભદેવ સ્વામીના નિર્વાણના Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९ सू.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् उक्तंचोत्तराध्ययनस्य षट्त्रिंशतमाध्ययने चतुष्पश्चाशत्तमगाथायाम्-'उक्कोसो -गाहणाए य विज्झते जुगवं दुवे। चत्तारिय जहन्नाए, मज्झे अटुत्तरं सयं ॥१॥' इति उत्कर्षावगाहनया च सिद्धयतीयुगपद् द्वौ । चत्वारश्च जघन्यग, मध्येऽष्टोत्तरं शतम् ।इति इविच्छाया इति । चतुर्दश संख्याद्वारम् ॥१४॥'.. ____ अल्पबहुत्वता-केन्या केऽल्पा के संख्येयगुणा ? इत्यादि । चिन्त्यंते, तत्र संक्षे तोऽल्पबहुत्वं यथा-सर्वस्तोका युगपद् द्विवादिकाः सिद्धाः, एकका एकाकिन सिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्तश्च-'संखाए जहन्नेणं, एको उक्कोसएण अहलयं । सिद्धाऽणेगा थोवा, एक्कासिद्धा उ संखगुणा ॥१॥ छाया-संख्यया जघन्येन एका, उत्कर्षेण अष्टशतम्, सिद्धा अनेकाः आश्चर्य मय घटना-कही जाती है, क्योंकि शास्त्र में मध्यम अवगाहना वाले एक सौ जीवों का ही सिद्ध होना कहा है। उत्तराध्यन सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन की ५४ वीं गाथा में कहा है-'उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक साथ दो जीव सिद्ध होते हैं, जघन्य अवगाहना वाले चार सिद्ध होते हैं और मध्यम अवगाहना वाले एक सौ आठ सिद्ध - (१५) अल्पबहुत्ववार-किनसे कौन अल्प है, किनसे कौन बहुत है, इस प्रकार न्यूनाधिकता का विचार जहां किया जाता है, वह अल्पबहुत्वद्वार कहलाता है। संक्षेप से अल्पषहुत्व इस प्रकार है-एक साथ दो-तीन आदि सिद्ध होने वाले सष से कम है, एकाकी सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा अधिक है। कहा भी है-संख्या की अपेक्षा जघन्य સમયે ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના વાળા એકસો આઠ જીવ એક સાથે (એક જ સમયમાં) સિદ્ધ થયા આ એક અભૂતપૂર્વ આશ્ચર્યકારક બનાવ કહેવામાં આવે છે કારણ કે શાસ્ત્રમાં મધ્યમ અવગાહનાવાળા એકસો આઠ જીવેનું જ સિદ્ધ હેવાનું કહેવામાં આવ્યું છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ૩૬માં અધ્યયનની ૫૪મી ગાથામાં કહ્યું છે ઉત્કૃષ્ટ અવગાહન વાળા એકી સાથે બે જીવ સિદ્ધ થાય છે, જઘન્ય અવગાહના વાળા ચાર સિદ્ધ થાય છે અને મધ્યમ અવગાહનાવાળા એકસો આઠ સિદ્ધ થાય છે. (૧૫) અ૫મહત્વદ્વાર– કેનાથી કેણ અ૫ છે. તેનાથી કોણ વધારે છે. એ રીતે જૂનાધિકતાને વિચાર જ્યાં કરવામાં આવે છે તે અ૯૫બહુવહાર કહેવાય છે. સંક્ષેપથી અ૯૫બહુત્વ આ પ્રમાણે છે–એક સાથે બે ત્રણ આદિ સિદ્ધ થનારા સહુથી ઓછા છે, એકાકી સિદ્ધ થનારા સંખ્યાલગણા અધિક છે. કહ્યું પણ છે સંખ્યાની અપેક્ષા જઘન્ય એક અને ઉત્કૃષ્ટ એકસે આઠ સિદ્ધ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఉతం तत्त्वाचे स्तोकाः, एकक सिद्धास्तु संख्यगुणाः ॥१॥ ___अथ विस्तारत एतानि क्षेत्रादीनि चतुर्दशद्वाराण्यधिकृत्याल्पबहुत्वं चिन्तनीयं जन्मतः संहरणतश्च । तत्र जन्मतः पञ्चदशसु कर्मभूहिषु । अकमभूमय. स्त्रिंशत् हैमवताद्याः सन्ति । तत्र संहरणं कर्मभूमिपु अकर्मभूमिषु वा भवति, तत्र सर्वास्तोका संहरणसिद्धाः, ततोऽसंख्येयगुण जन्मतः सिद्धाः । संहरणं स्वकृतपरकृतभेदेन द्विविधम् । स्वकृतं चारणांवद्याधराणां स्वेच्छा , परकृतं देवएक और उत्कृष्ट एक सौ आठ सिद्ध होते है । एक साथ अनेक सिद्ध होने वाले कम हैं और एक-एक सिद्ध होने वाले संख्यागुण है ॥१॥' अब विस्तार से क्षेत्र आदि चोदह द्वारों के आधार पर अल्पवटुत्व का विचार किया जाता है, जिसमें जन्म और संहरण दोनों का विचार भी सम्मिलित है। क्षेत्र से अल्पबाहुल्य-जन्म ले पन्द्रह कर्मभूमियों में सिद्ध होते हैं। हैमवत क्षेत्र आदि तीस अकर्मभूमियां हैं। संहरण कर्मभूमियों में अथवा अकर्मभूमियों में होता है। संहरण सिदूध अर्थात् जिन्हें कोई देव या विद्याधर एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठा ले गया और वहीं से जिनको सिद्धि प्राप्त हुई ऐसे जीव सबसे कम हैं, जन्म से सिद्ध होने घाले उनसे असंख्यातगुणा अधिक हैं । संहरण दो प्रकार का है-स्वकृत और परकृत । चारण विद्याधर का स्वेच्छापूर्वक जो संहरण होता है वह स्वकृत कहलाता है। देवों और विद्याधरों द्वारा होने वाला परकृत થાય છે. એક સાથે અનેક સિદ્ધ થનારાં ઓછા છે અને એક એક સિદ્ધ થનાર સંખ્યાતગણું છે છે ' હવે વિસ્તારથી ક્ષેત્ર આદિ ચૌદ દ્વારોના આધાર પર અ૫મહત્વને વિચાર કરવામાં આવે છે જેમાં જન્મ અને સંહરણ બંનેને વિચાર પણ सम्मिलित छे. (૧) ક્ષેત્રથી અલપખહત્વ—જન્મથી પંદર કર્મભૂમિમાં સિદ્ધ હેાય છે. હૈમવત ક્ષેત્ર આદિ ત્રીસ અકર્મભૂમિઓ છે. સંહરણ કર્મભૂમિમાં અથવા અકર્મભૂમિઓમાં થાય છે. સંહરસિદ્ધ અર્થાત્ જેમને કોઈ દેવ અથવા વિદ્યાધર એક સ્થાનેથી બીજા સ્થાને ઉપાડી ગયા અને ત્યાંથી જ જેમને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થઈ હોય એવા જીગ સહુથી ઓછા છે. જન્મથી સિદ્ધ થનારા તેથી અસંખ્યાતગણી અધિક છે. સંહરણ બે પ્રકારનું છે-સ્વકૃત અને પરકૃત ચારણ વિદ્યાધરનું સ્વેચ્છાપૂર્વક જે સંહરણ થાય છે તે સ્વકૃત કહેવાય છે કે Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७१ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९ तू.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् धारणविद्याधरैश्च जायमानम् । एषां क्षेत्राणां विभाग कर्मभूमिरकर्मभूमिः समुद्राद्वीपा ऊर्ध्वमस्तियगिलि लोकत्रयम् । तत्र सर्वस्त्रोका ऊलोक सिद्धाः, अधो. लोकसिद्धाः संख्येयगुणा, तिर्यग्लोक सिद्धाः संख्येगुणाः । सर्वस्तोका समुद्रसिद्धाः, द्वीपसिद्धाः संख्येयगुणाः सस्तोकाः लषणसमुद्रसिद्धाः, कालोदधि सिद्धाः संख्येयगुणाः जम्बूद्वीप सिद्धाः संख्येयगुणाः धातकीखण्ड सिद्धाः संख्येयगुणाः पुष्कराद्ध सिद्धाः संख्येयगुणाः गतं क्षेत्रतोऽलाबहुत्वम् ।।१।। कालतोऽल्एबहुत्वं चिन्त्यते-काल: अवसर्पिण्युत्तपिणी मध्यकालरूपस्त्रिविधः । तत्र पूर्व मवमधिकृत्य सर्वस्तोका उत्सर्पिणी सिद्धाः, अनसर्पिणी सिद्धा विशेषाधिकाः, मध्यकालसिद्धाः संख्येयगुणाः । प्रयुत्पन्नमनापेक्षया अकाले संहरण कहलाता है। इन क्षेत्रों का विभाग कर्मभूमि, अकर्मभूमि, समुद्र, छीप, ऊवलोक, अधोलोक और मध्यलोक है । इनमें से अर्ध्वः लोकसिद्ध सब से कम हैं, अधोलोसिद्ध संख्यालगुणा हैं और मध्यलोकसिद्ध उनसे भी संख्यातगुणा हैं । समुद्रसिद्ध लब से कम हैं, द्वीपसिद्ध उनसे संख्यातगुणा अधिक हैं। लवणसमुद्रसिद्ध सबसे कम हैं, . कालोदधिसमुद्रसिद्ध उनले संख्यातशुणा अधिक हैं, जंबूदीपसिद्ध संख्यातगुणा , धातकीखण्डतिदूध संख्यातगुणा है, पुष्करार्धसिद्ध संख्यातगुणा हैं। २-काल से अल्पयतुस्व-साल तीन प्रकार का है-अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी और मध्यकाल । पूर्वपक्ष की अपेक्षा उत्सर्पिणीकालसिद्ध सबले कम हैं, अवसर्पिणी कालस्लिव विशेषाधिश हैं और मध्यकाल અને વિદ્યાધરો દ્વારા થનારું પરકૃત સંહરણ કહેવાય છે. આ ક્ષેત્રોના વિભાગ કર્મભૂમિ, અકર્મભૂમિ, સમુદ્ર, દ્વિીપ, ઉદર્વક અધલક અને મધ્યક છે. એમાંથી ઉદર્વલેકસિદ્ધ સહુથી ઓછા છે, અધોલેકસિદ્ધ સંખ્યાલગણા છે અને મધ્યલેકસિદ્ધ તેથી સંખ્યાતગણું છે. સમુદ્રસિદ્ધ સહુથી ઓછા છે, દ્વીપસિદ્ધ તેથી પણ સંખ્યાતગણ અધિક છે લવણસમુદ્રસિદ્ધ સહુથી ઓછા છે, કાલોદધિ સમુદ્રસિદ્ધ તેથી સંખ્યાતગણ અધિક છે, જબૂઢીપસિદ્ધ સંખ્યાલગણા છે, ધાતકીખણ્ડસિદ્ધિ સંખ્યતગણ છે, પુષ્કરાર્ધ સિદ્ધ સંખ્યાતગણુ છે. (૨) કાલથી અલ્પબદ્ધત્વ–કાલ ત્રણ પ્રકારના છે-અવસર્પિણી ઉત્સર્પિણી અને મધ્યકાળ. પૂર્વભવની અપેક્ષા ઉત્સર્પિણીકાલસિદ્ધ સહુથી ઓછા છે. અવસર્પિણુંકલસિદ્ધ વિશેષાધિક છે અને મધ્યમકાલસિદ્ધ સંખ્યાતગણુ છે. Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ सिद्धयन्त्यतो नास्त्यल्पवहुत्वम् । गतं कालतोऽल्पवहुन्वम् ॥२॥ ___ गतिमधिकृत्याल्पबहुत्वं चिन्स्यते-प्रत्युत्पन्नभावापेक्षया सिद्धिगतौ सिद्धय. न्तीतिनास्त्यल्पबहुत्वम् । पूर्वभावापेक्षयाऽनन्तर पश्चाकृतिको मनुष्यगतो सिद्धच. तीति नास्त्यल्पवहुत्वम् । परस्परपश्चात्कृति कस्यानन्तरागति चिन्त्यते, तथाहिसर्वस्तोका मनुष्ययोनिकानन्तरगतिसिद्धाः, नरकयोलिकाऽनन्तरगति सिद्धाः संख्येय गुणाः तिर्यग्योनिकानन्तरगति सिद्धाः संख्येय गुणाः, देवयोनिकाऽनन्तर गति सिद्धाः संख्येर गुणा । इति गतं गतितोऽलए बहुलम् ॥३॥ लिङ्गतोऽल्पबहुत्वं चिन्यते-लिङ्गद्वारे वेदद्वारमन्त हितम् । प्रत्युत्पन्नभावासिद्ध संख्यातगुणा हैं। प्रत्युत्पन्न भव की अपेक्षा अकाल मिध होते हैं, अतएव अल्पषहुत्व नहीं है। ३-गति से अल्पबतुत्व-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा सिद्धगति में सिद्ध होते हैं, अतएव इस अपेक्षा से कोई अल्पवहुत्व नहीं हैं। अनन्तर पूर्वभव की अपेक्षा सभी मनुष्यगति में सिद्ध होते हैं, अतएव इस अपेक्षा से भी अल्पबटुत्व नहीं है । परम्पर पर्वभव की अपेक्षा से अर्थात् चरम भव से पहले के भव की अपेक्षा से विचार किया जाय तो मनुष्यत्ति से मनुष्यगति में आकर सिद्ध होने वाले सब से कम हैं, नरकगति से आकर सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा अधिक हैं, तिथंचगति से आशर सिद्ध होने वाले उनसे भी संख्यात 'गुणा अधिक है और देवगति से आशर सिद्ध होने वाले उनसे भी संख्यातगुणा अधिक है। - ४-लिंग से अल्पबहुत्व-लिंगद्वार में वेदद्वार अन्तर्गत है। प्रत्यु: પ્રત્યુત્પન્ન ભવની અપેક્ષા અકાલમાં સિદ્ધ થાય છે. આથી અલ૫બહત્વ નથી . (૩) ગતિથી અલ્પબદુત્વપ્રત્યુત્પન્ન નયની અપેક્ષા સિદ્ધિગતિમાં સિદ્ધ હોય છે આથી આ અપેક્ષાથી કેઈ અ૫બહુ નથી. પૂર્વભવની અપેક્ષા બધા મનુષ્યગતિથી સિદ્ધ થાય છે આથી આ અપેક્ષા પણ અલ્પબદુત્વ નથી. પરસ્પર પૂર્વભવની અપેક્ષાથી અર્થાત્ ચરમ ભવથી પહેલાના ભાવની અપેક્ષાથી વિચાર કરવામાં આવે તે મનુષ્યગતિથી મનુષ્યગતિમાં આવીને સિદ્ધ થનારા સહથી ઓછા છે, નરકગતિથી આવીને સિદ્ધ થનારા સંખ્યાલગણ અધિક છે, તિર્યંચગતિથી આવીને સિદ્ધ થનારા તેથી પણ સંખ્યાલગણ અધિક છે જ્યારે દેવગતિથી આવીને સિદ્ધ થનારા તેમનાથી પણ સંખ્યાતગણું અધિક છે. (૪) લિંગથી અલ૫બહુવ-લિંગદ્વારમાં વેદકાર અન્તર્ગત છે. પ્રત્યુત્પન્ન Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.९ सू.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् ____ - ८७३ पेक्षया व्यपगत वेदः सिद्ध यतीति नारत्यल्पबहुत्वम् पूर्वभावापेक्ष्य सर्वस्तोकानपुंसकलिङ्गसिद्धाः, स्त्रीलिङ्गसिद्धाः संख्येय गुणाः पुंल्लिङ्गसिद्धाः संख्येयगुणाः गतं लिङ्ग देद्वारम् ॥४॥ तीर्थतोऽल्पबहुत्वं चिन्त्यते-सर्वस्तीकास्तीर्थकर सिद्धाः तीर्थकरतीर्थे नो तीर्थकर सिद्धाः संख्येयगुणाः । तीर्थकरतीर्थसिद्धाः नपुंसकाः संख्येयगुणाः तीर्थकरतीर्थसिद्धाः स्त्रिया संख्येवगुणाः तीर्थकरतीर्थसिद्धाः पुमांसः संख्येयगुणाः गतं तीर्थतोऽल्पवहुस्वम् ।। - चारित्रतोऽस्पबहुत्वं चिन्तयते तत्र प्रत्युत्पन्नभावापेक्षया नो चारित्रि नो अचारित्री सिद्धत्यतीति नास्त्यल्पबहुत्वम् । पूर्व भावापेक्षया- सामान्यतः सर्वस्तोकाः त्पन्न भव की अपेक्षा वेद का क्षय करके बेवहीन हुए जीव ही सिद्ध होते हैं, अतएव इल अपेक्षा ले कोई अल्पवस्व नहीं है। पूर्वभाव की अपेक्षा से नपुंसकलिंगलिदूध सब ले कम है, स्त्रीलिंगसिध उनसे संख्यातगुणा अधिक हैं और पुलिंगसिदूध उनसे भी संख्यातगुणा अधिक हैं। ५-तीर्थ ले अल्पपशुत्व-तीर्थकरसिद्ध सष से कम हैं, तीर्थकर के तीर्थ में नो तीर्थकरसिद्ध संख्यालगुणा अधिक हैं, अथवा द्रव्यलिंग की अपेक्षा तीर्थकर तीर्थसिद्ध नपुंसक सब से थोडे हैं, तीर्थकर तीर्थसिद्ध स्त्रियाँ संख्यातगुणी , तीर्थकर तीर्थसिद्ध पुरुष संख्यातगुणा हैं। ६-चारित्र से अल्पचक्षुत्व-प्रत्युत्पन्न भाव की अपेक्षा नो चारित्री नो अचारित्री जीव ही सिद्ध होता हैं, अतएव कोई अल्पबहुत्व नहीं ભાવની અપેક્ષા વેદને ક્ષય કરીને વેદહીન થયેલા જીવ જ સિદ્ધ થાય છે. આથી આ અપેક્ષાથી કોઈ અ૫બહુત્વ નથી. પૂર્વભવની અપેક્ષાથી નપુંસકલિંગસિદ્ધ સહુથી ઓછા છે, સ્ત્રીલિંગસિદ્ધ તેથી સખ્યાતonણું અધિક છે અને પુલિંગસિદ્ધ તેથી પણું સંખ્યાતગણું અધિક છે. (૫) તીર્થથી અલ્પબહુત્વ-તીર્થકરસિદ્ધ સહુથી ઓછા છે, તીર્થકરના તીર્થમાં અતીર્થંકરસિદ્ધ સંખ્યાતગણ અધિક છે અથવા દ્રવ્યલિંગની અપેક્ષા તથંકર તીર્થસિદ્ધ નપુંસક સહુથી ડાં છે. તીર્થકર તીર્થસિદ્ધ સ્ત્રિઓ સંખ્યાતગણી छ, तीथ:४२ ती सिद्ध ३५ सध्याता छ. (૬) ચારિત્રથી અલ૫બહુત્વ-પ્રત્યુત્પન ભાવની અપેક્ષાને ચારિત્રી અચારિત્રી જીવ જ સિદ્ધ થાય છે આથી કઈ અલ્પબદુત્વ નથી. પૂર્વભવની અપેક્ષાથી, त० ११० Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ पञ्चचारिन सिद्धाः, चतुश्चारित्र सिद्धाः संख्येय गुणाः, त्रिचारिसिद्धाः चतुश्चारित्र. सिद्धाः संख्ये यगुणाः त्रिचारित्रा सिद्धाः संख्येयगुणाः विशेषापेक्षया-सर्वस्तीकाः सामायिक-छेदोपस्थानीय-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसंपराय- यथाख्यातचारित्रसिद्धाः, सामायिक छेदोपस्थापनीय-मुक्ष्मसंपराय-ययाख्यात चारित्रसिद्धाः संख्येयगुणाः गतं । चारित्र तोऽल्पबहुत्वम् ।।६॥ बुद्धत्वतोऽल्पबहुत्वं चिन्त्यते-सर्वस्तोकाः प्रत्येकबुद्ध सिद्धाः, बुद्धवोधित सिद्धाः पुंसकाः संख्येरगुणाः, बद्धबोधित सिद्धाः स्त्रियः संख्येयगुणाः, बुदघोधित सिद्धाः पुमांसः संख्येय गुणाः इति । गतं बुद्धत्वतोऽल्पबहुत्वम् ॥७॥ है। पूर्वभाव की अपेक्षा से, सामान्य रूप से पंचचारित्री (सामायिक आदि पांचों चारित्रों की आराधना करने वाले) सिद्ध सय से कम है, चार चारित्रों की ओराधना करके सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा अधिक है। त्रिचारित्री संख्यातगुणा अधिक हैं। विशेष की अपेक्षा सामायिक, दोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धिक, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात, इन पांचों चारित्रों से सिद्ध होने वाले सय से कम है। सामायिक, छेदोपस्थापनीय, सूक्षमसाम्पराय और यथाख्यात चारित्र से सिद्ध होने वाले संख्यातगुणाहै। सामायिक, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्र से सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा अधिक हैं।। - ७-बुद्धत्व से अल्पबदुत्व-प्रत्येक बुद्ध सिद्ध सय से कम हैं वुद्धबोधित सिद्ध नपुंसक संख्यातगुणा अधिक हैं, युद्धघोधित सिद्ध स्त्रियां संख्यातगुणा है, युद्धयोधितसिद्ध पुरुष संख्यातगुणा हैं। સામાન્ય રૂપથી પંચચારિત્રી (સામાયિક વગેરે પચે ચારિત્રની આરાધના કરવાવાળા) સિદ્ધ સહુથી ઓછા છે. ચાર ચારિત્રની આરાધના કરીને સિદ્ધ થનારા સંખ્યાતગણ અધિક છે, ત્રિચારિત્રી સંખ્યાતગણ અધિક છે વિશેષની અપેક્ષા સામાયિક, છેદો સ્થાપનીય પરિહારવિશુદ્ધિક, સૂમસામ્પરાય અને યથાખ્યાત, આ પગે ચારિત્રથી સિદ્ધ થનારાં સહુથી ઓછા છે. સામાયિક છેદેપસ્થાપનીય, સૂમસામ્પરાય અને યથાખ્યાત ચારિત્રથી સિદ્ધ થનારા સંખ્યાતગણ અધિક છે (૭) બુદ્ધત્વથી અલ્પબદ્ધત્વ-પ્રત્યેકબુદ્ધ સિદ્ધ સહુથી ઓછા છે બુદ્ધ બેધિતસિદ્ધ નપુંસક સંખ્યાતગણ અધિક છે. બુદ્ધાધિતસિદ્ધ સિઓ સંખ્યાગણું છે. જ્યારે બુદ્ધિાધિતસિંદ્ધ પુરૂષ સંખ્યાતગણુ છે. Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. १ सू.७ सिद्धस्वरूपनिरूपणम् ૧ 1 ज्ञानतोऽल्पबहुत्वं चिन्त्यते - प्रत्युत्पन्नभावमपेक्ष्य केवलज्ञानी सिद्धयतीतिनास्त्यल्पबहुत्वम् । पूर्वभावमपेक्ष्य सामान्यतः सर्वस्वोका द्विज्ञानसिद्धाः चतु ज्ञान सिद्धाः संख्येयगुणाः, त्रिज्ञानसिद्ध॥ संख्येयगुणाः विशेषतः सर्वस्तोका मतिश्रुतज्ञानसिद्धा, सतिश्रुतावधिमन:पर्ययज्ञानसिद्धा संख्येयगुणा, सतिश्रुषा - वधिज्ञानसिद्धाः संख्ये गुणा इति । गतं ज्ञानतोऽल्पबहुत्वम् | ८|| अवगाहनातोऽल्पबहुत्वं चिन्त्यते - सर्वस्तोका जघन्यावगाहना सिद्धाः, उत्कृ ष्टावगाहना सिद्धास्ततोऽख्येयगुणा, यत्रमध्यसिद्धा असंख्येयगुणाः, यवमध्योपरिसिद्धाः असंख्येयगुणाः यवमध्याधस्तात् सिद्धा विशेषाधिकाः सर्वे विशेषा ८ - ज्ञान से अल्पबहुत्व - वर्त्तमान भाव की अपेक्षा से केवलज्ञानी को ही सिद्धिप्राप्त होती है, अतएव इस दृष्टि से कोई अल्पबहुत्व नहीं है । पूर्वभाव की अपेक्षा से सामान्य रूप से विज्ञानसिद्ध अर्थात् मति ज्ञान और श्रुतज्ञान से सीधा केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध होने वाले सब से कम हैं, चार ज्ञान से सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा अधिक हैं, त्रिज्ञानसिद्ध संख्यातगुणा अधिक हैं । विशेष रूप से मति श्रुतज्ञान से सिद्ध होने वाले सब से कम हैं । मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यवज्ञान से सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा अधिक हैं । मति, श्रुत और अवधिज्ञान से सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा हैं । ९ - अवगाहना से अल्पबहुत्व - - जघन्य अवगाहना से सिद्ध होने वाले सब से कम हैं । उत्कृष्ट अवगाहना से सिद्ध होने वाले उनसे असंख्यातगुणा अधिक हैं, यवमध्य सिद्ध असंख्यातगुणा है, ente उपर वाले सिद्ध असंख्यातगुणा है । यवमध्य नीचे वाले सिद्ध विशे. (૮)જ્ઞાનથી અપમહુવ–વમાન ભાવની અપેક્ષાથી કેવળજ્ઞાનીને જ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે આથી આ દૃષ્ટિએ કાઇ અલ્પમર્હુત્વ નથી. પૂર્વભવની અપેક્ષા થી સામાન્ય રૂપથી દ્વિજ્ઞાનસિદ્ધ અર્થાત્ મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનથી સીધું કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને સિદ્ધ થનારાં સહુથી ઓછા છે, ચાર જ્ઞાનથી સિદ્ધ થનારા સખ્યાતગણા અધિક છે, ત્રિજ્ઞાનસિદ્ધ સખ્યાતગણા અધિક છે. વિશે ષરૂપથી મતિ શ્રુતજ્ઞાનથી સિદ્ધ થનારા સૌથી ઓછા છે. મતિ, શ્રુત, અધિ અને મનઃવજ્ઞાનથી સિદ્ધ થનારા સંખ્યાતગણા અધિક છે. સતિ, શ્રુત અને અવધિજ્ઞાનથી સિદ્ધ થનારાં સંખ્યાતગણા છે. (૯) અવગાહનાથી અપમહુત્વ-જઘન્ય અવગાહનાથી સિદ્ધ થનારાં સહુથી માળ છે. ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાથી સિદ્ધ થનારા તેથી અસંખ્યાતગણુા અધિક Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र धिकाः । गतमवगाहनातोऽल्पबहुत्वम् ।१०। उत्कर्पद्वारे नास्त्यल्पवहुत्वम् ॥११॥ ___अन्तरतः अनुसमयत इत्यनन्तरश्वाल्पबहुत्वं चिन्त्यते-सर्वस्तोका अष्टसमयानन्तरसिद्धाः, सप्तसमयानन्तरसिद्धाः षट्समयानन्तर सिद्धा इत्यारभ्य यावद् द्विसमयानन्तर सिद्धाः एते सर्वे संख्येयगुणाः । एवं तावदनन्तरेषु सान्तरेष्वपि सर्व स्तोंकाः षण्मासान्तर सिद्धाः, एक समयान्तरसिद्धाः संख्येयगुणाः, यवमध्यान्तरसिद्धाः संख्येयगुणाः, अधस्ताद् यवमध्याऽन्तरा सिद्धाः संख्येयगुणाः, षाधिक हैं। सब विशेषाधिक हैं। १०-अन्तर-अनन्तर से अल्प बहुत्व-लगातार आठ समय तक सिद्ध होने वाले सब से कम हैं, उनकी अपेक्षा निरन्तर सात समय तक सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा है, उनकी अपेक्षा निरन्तर छह समय तक सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा है, उनसे पांच समय तक सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा है, उनसे लगातार चार समय तक सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा हैं, उनले लगातार तीन समय तक सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा अधिक हैं, और उनसे दो समय तक निरन्तर सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा है, यह अनन्तर सिद्धि का अल्प. बहुत्व है। सान्तर सिद्धि में अर्थात् जिनके समय में व्यवधान है उनमें छह मास के अन्तर से सिद्ध होने वाले सब से कम हैं, एक समय के अन्तर से सिद्ध होने वाले संख्यातगुणा हैं, यवनध्य अन्तर सिद्ध संख्यातगुणा है, नीचे यवमध्य अन्तर सिद्ध संख्यातगुणा हैं, उपरियवमध्य अन्तरसिद्ध विशेषाधिक हैं, सब विशेषाधिक है। છે, યવમધ્યસિદ્ધ અસંખ્યાતગણુ છે, યવમધ્ય ઉપરવાળા સિદ્ધ અસંખ્યાતગણા છે. યવમય નીચેવાળા સિદ્ધ વિશેષાધિક છે. બધાં વિશેષાધિક છે. (૧) અન્તર અનન્તરથી અલ્પબહુ––લગાતાર આઠ સમય સુધી સિદ્ધ થનારા સહથી ઓછા છે તેમની અપેક્ષા નિરન્તર સાત સમય સુધી સિદ્ધ થનારા સંખ્યાતગણુ છે. તેમની અપેક્ષા નિરતર છ સમય સુધી સિદ્ધ થનારા. સંખ્યાતગણું છે તેમનાથી લગાતાર ચાર સમય સુધી સિદ્ધ થનારા સંખ્યાત ગણા છે. તેથી લગાતાર ત્રણ સમય સુધી સિદ્ધ થનારા સંખ્યાતગણ અધિક છે અને તેથી બે સમય સુધી નિરન્તર સિદ્ધ થનારા સંખ્યાલગણા છે. આ અનન્તર સિદ્ધોનું અ૫બહુત્વ છે. સાન્તર સિદ્ધોમાં અર્થાત્ જેમના સમયમાં વધાન છે તેમનામાં છ માસના અત્તરથી સિદ્ધ થનારાં સંખ્યાતગણું છે. Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ९.७ सिंघस्वरूपनिरूपणम् उपरियवमध्यान्तरसिद्धाः, विशेषाधिकाः सर्वे विशेषाधिकाः । गतमन्तरतोऽनन्तरतश्वाल्पबद्दुत्वम् ।१२।१३।। . . . . . . : संख्यातोऽल्पबहुस्वं चिन्त्यते-सर्वस्तोका अष्टोत्तरशत सिद्धाः पश्चानुपूव्या सप्तोत्तरशत सिद्धादारभ्य यावत् पञ्चाशत् सिद्धा अनन्तगुणाः । एवमेवं पश्चानु. पूा एकोनपश्चाशसिद्धादारभ्य यावत् पञ्चविंशति सिद्धा असंख्येयगुणाः। एवमेव पश्चानुपूा चतुर्विंशति सिद्धादारभ्य यावद् एक सिद्धाः, सर्वे एते संख्येयगुणाः पश्चानुपूर्वी हानिः पदयते-सर्वस्तोका अनन्तगुणहानि सिद्धाः, असंख्येयगुणहानि सिद्धा अनन्तगुणाः, संख्येयगुणहानिसिद्धाः संख्येगुणा इति । गतं संख्यातोऽल्पबहुत्वम् ॥१४॥ ११-संख्या से अल्पबहुत्व-एक समय में एक सौ आठ सिद्ध सष से कम हैं पश्चानुपूर्वी से एक सौ सात सिद्धं से लगाकर पचास सिद्ध तक अनन्तगुणा हैं। इसी प्रकार पश्चानुपूर्वी से लेकर पच्चीस तक असंख्यातगुणा हैं । इसी प्रकार एक साथ चौवीस सिद्धों से लगाकर एक सिद्ध तक संख्यातगुणा हैं । अब पश्चानुपूर्वीहानि दिखाते हैंअनन्तगुण हानि सिद्ध सबसे कम है, असंख्पेयगुणहानि सिद्धअनन्तगुणा हैं, संख्यगुणहानि सिद्ध संख्यातगुणा है। યવમધ્ય અન્તરસિદ્ધ સંખ્યાલગણ છે; નીચે યવમધ્ય અખ્તરસિદ્ધ સંખ્યા- . ગણુ છે, ઉપનિયવમધ્ય અન્તર સિદ્ધ વિશેષાધિક છે, બધાં વિશેષાધિક છે. . (૧૧) સંખ્યાથી “અલ૫બહુ-એક સમયમાં એક આઠે સિદ્ધ સહુથી ઓછા છે, પશ્ચાનુપૂર્વીથી એક સાત સિદ્ધથી લઈને પચાસ સિદ્ધ સુધી અનન્તગણુ છે. એવી જ રીતે પશ્ચાનુપૂર્વીથી લઈને પચ્ચીસ સુધી અસખ્યા તગણુ છે. એવી જ રીતે એકી સાથે ચાવીસ સિદ્ધોથી લઈને એક સિદ્ધ સુધી સંખ્યાલગણ છે હવે પશ્ચાનવી હાનિ બતાવીએ છીએ અનન્તગુણ હાનિસિદ્ધ સહુથી ઓછા છે. અસંખ્ય ગુણહાનિ અનcગણા છે, સંખેય ગુણહાનિ સિદ્ધ સંખ્યાલગણા છે. આ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ स एतानि चतुर्दशद्वाराणि अधिकस्याल्पबहुत्वद्वारं पञ्चदशमत्रसेयम् । एतैः पूर्वोक्तेः पञ्चदशद्वारैः साध्याः अनुगमनीयाः एतैः पूर्वोक्तद्वारैः सिद्धानां स्वरूपं चिन्तनीयमिति भावः ॥ सूत्र ॥७॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ- प्रसिद्धवाचक - पश्चदशभाषाकलितललितकला पालापकमविशुद्ध गद्यपद्यानैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त - 'जैनाचार्य पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितस्य श्री aafaar - नियुक्ति व्याख्या द्वयो- पेतस्य तच्चार्थसूत्रस्य नवमो ८७८ चिति की 5 A इस प्रकार उन चौदहद्वारों से अल्पबहुत्व का विचार करने पर पन्द्रह द्वारों से सिद्धों का स्वरूप चिन्तनीय है ॥७॥ - जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर 5. 3 ध्यायः समाप्तः ॥९॥ इति श्रीस्वार्थ सूत्रं दीपिका तोनिर्युक्तितश्व -: समाप्तम् : 22 पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'तत्त्वार्थसूत्र' की दीपिका-नियुक्ति व्याख्या का नववां अध्याय समाप्त ॥९॥ दीपिका और निर्युक्ति के साथ तस्वार्थसूत्र - समाप्त - આ રીતે મા ચૌદ દ્વારાથી અલપબહુત્વના વિચાર કરવાથી પંદર દ્વારાનુ નિરૂપણ સમ્પૂર્ણ થયુ. આ પૂર્વોક્ત પંદર દ્વારાથી સિદ્ધોનું સ્વરૂપ ચિન્તનીય છે છા જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત તત્ત્વાથ સૂત્ર”ની દીપિકા-નિયુક્તિ વ્યાખ્યાના નવમા અધ્યાય સમાપ્તઃ ડાહ્યા તત્ત્વાર્થ સૂત્ર સ ́પૂ K फ्र Page #653 --------------------------------------------------------------------------  Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ - तत्त्वार्थस्त्र . ऽऽहानमुच्यते ३ अन्नह्मवर्य-स्त्रीसंयोगः, मैथुन मितियावत् ४ परिग्रहस्तु-मी, सचित्ताऽचिमिश्रेषु शास्त्रानुमतिरहितेषु द्रव्यादिपु ममत्वरूपः ५ एतेभ्यः प्राणाऽतिपातादिभ्यः सर्वत: सर्वात्मना निकरण स्त्रियोगैमनोवाकार्य विरमणंनिवृत्तिः पञ्च महाव्रतान्यव से यानि । प्राणिवधादितो निवृत्तिर्वत मुच्यते, तत्र स्थितो हिंसादिलक्षणं क्रियाकलापं नाऽनुतिष्ठति, पितु-अहिंसादिलक्षणमेव क्रियाकलापमनुविष्ठनीति फलति । माणातिपातादिभ्यो निवृत्तस्य शास्त्रविहित क्रियाऽनुष्ठानाद सदसत्प्रवृत्तिनिवृत्तिक्रियासाध्यं कर्मक्षपणं भवति, कर्मक्षपणाच्च -मोक्षाऽत्राप्तिरिति भावः । अत्रेदं बोध्यम्-माणातिपातस्तावत्-प्राणवियोजनम्, ग्रहण करना अदत्तादान है । स्त्री संयोग या मैथुन अब्रह्मचर्य कहलाता है। मूच्छी अर्थात् शास्त्र की अनुमति जिनके लिए नहीं है ऐसे सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य आदि में ममत्वधारण करना परिग्रह है। इन प्राणातिपात आदि से पूर्ण रूपेण तीन करण और तीन योग ले मन वचन काय ले निवृत्त होना पांच महावत हैं। हिंसा आदि से निवृत्त होना व्रत कहलाता है, व्रत में स्थित पुरुष हिंसा रूप क्रियाकलाप नहीं करता है। इससे यह फलित हुआ कि वह अहिंसा रूप क्रियाकलाप ही करता है। भावार्थ यह है कि जो प्राणातिपात आदि से विरत होता है वह शास्त्रोक्त क्रियाओं का अनुष्ठान करता है, अतएव खत्मवृत्ति और असनिवृत्ति रूप क्रियाओं द्वारा होने वाला कर्मक्षय करता है और कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यहां यह समझ लेना चाहिए-प्राणातिपात का अर्थ है-प्राणवि. અથવા મિથુન અબ્રહ્મચર્ય કહેવાય છે. મૂછ અર્થાત્ જેના માટે શાસ્ત્રની અનુમતિ નથી એવા સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્ર દ્રવ્ય આદિમાં મમત્વ घा२६१ ४२ परियड छे. આ પ્રાણાતિપાત આદિથી પૂર્ણતયા, ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથીમન વચન કાયાથી નિવૃત્ત થવું પાંચ મહાવ્રત છે. હિંસા આદિથી નિવૃત્ત થવું વ્રત કહેવાય છે. વ્રતમાં રહેલે પુરૂષ હિંસારૂપ ક્રિયાકાન્ડ કરતું નથી. આનાથી એવું સાબિત થયું કે તે અહિંસારૂપ કિયાકલાપ જ કરે છે. ભાવાર્થ એ છે કે જે પ્રાણાતિપાદ આદિથી વિરત થાય છે તે શાસ્ત્રોક્ત ક્રિયાઓનું અનુષ્ઠાન કરે છે આથી સત્ પ્રવૃત્તિ અને અસનિવૃત્તિ રૂપ ક્રિયા દ્વારા થનારાં કર્મ ક્ષય કરે છે અને કર્મોને ક્ષય કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી લે છે. અહીં એક બાબત સમજી લેવાની જરૂર છે–પ્રાણાતિપાતને અર્થ છે Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका ज.७ सु. ५५ पञ्चमहात्रतनिरूपणम् " प्राणाचेन्द्रियादयः तत्सम्बन्धात्प्राणिनो जीवाः पृथिवीकायाद्ये केन्द्रियद्वीन्द्रियश्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियास्तान - जीवान् विज्ञाय - श्रद्धया प्रतिपद्य भावतस्वस्याऽकरणं ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं चारित्रमुच्यते तच्च - सदसत्मवृत्तिनिवृत्तिक्रियालक्षणं चारित्रं मनोवाक् कायकृतकारिताऽनुमोदित भेदेनाऽनेकविधं बोध्यम् । उक्तञ्च-स्थानाङ्गे पञ्चमस्थाने प्रथमोदेश के पंच महच्या पण्णसा, तं जहासव्वाओ पाणाइवायाओ, जाव सव्वओ परिग्गहाओ वेरमणं' इति, पञ्च महाव्रतानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - प्राणातिपाताद्विरमणस्, यावद - सर्वस्मात् परिग्रहाद विरमणम् - इति, आवश्यके दशवैकालिकेऽप्युक्तम् ॥५५॥ I ३९९ योजन | माण इन्द्रिय आदि दस हैं । उन्हीं के संबंध से जीत्र प्राणी कहलाते हैं । पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, ये सब प्राणी हैं। इन जीवों को जानकर एवं इन पर श्राद्धा करके भाव से प्राणातिपात न करना ज्ञान - श्रद्धान- पूर्वक चारित्र कहलाता है। सत् अनुष्ठान में प्रवृत्ति और असत् अनुष्ठान से निवृत्ति उसका लक्षण है । मन, वचन, काय, कृत, कारित और अनुमोदन आदि के भेद से चारित्र अनेक प्रकार का है। स्थानांगसूत्र के पंचम स्थान के प्रथम उद्देशक में कहा है- 'पांच महाव्रत कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं- समस्त प्राणातिपात से विरत होना, जाव अर्थात् समस्त मृषावाद से विरत होना, समस्त अचादान से विरत होना, समस्त मथुन से विरत होना और समस्त परिग्रह से विरत होना ।' आवश्यक और दशवैकालिक सूत्र में भी ऐसा ही कहा है ॥ ५५ ॥ - પ્રાણવિયેાજન પ્રાણુ ઇન્દ્રિય આદિ દસ છે તેમના જ સંધથી જીવ પ્રાણી કહેવાય છે. પૃથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિય, દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુર્તિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય, આ બધાં પ્રાણી છે આ જીવાને જાણીને અને એમનામાં શ્રદ્ધા કરીને ભાવથી પ્રાણાતિપાત ન કરવા જ્ઞાન-શ્રદ્ધાનપૂક ચારિત્ર કહેવાય છે. સત્ અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્તિ અને અસત્ અનુષ્ઠાનથી નિવૃત્ત તેનુ' લક્ષણ છે. મન, વચન, કાયા, કૃત, કારિત અને અનુમેદન આદિના ભેદથી ચારિત્ર અનેક પ્રકારના છે. સ્થાનાંગસૂત્રના પંચમ સ્થાનના પ્રથમ ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે. પાંચ મહાવ્રત કહેવામાં આવ્યા છે તે આ મુજબ છે-સમસ્ત પ્રાણાતિપાતથી વિરત થવું, સમસ્ત સૃષાવાદથી વિત થવું, સમસ્ત અદત્તાદાનથી વિરત થવું, સમસ્તમૈથુનથી વિત થવું અને સમસ્ત પરિગ્રહથી ત્રિરત થવું. આવશ્યક તેમજ દશવૈકાલિક સૂત્રમાં પણ આ પ્રમાણે જ કહેવામાં આવ્યુ છે. પપ્પા Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसूत्रे मूळम् - तत्थेजाहूं ईरियाइया पणवीसं भावणाओ || ५६॥ छाया - 'वत्स्थैर्यार्थम् - ईयीदिकाः पञ्चविशति भवनाः ॥ ५६ ॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्व देशतो हिंसादिविरक्षिलक्षण पञ्चाणुत्रवादिस्वरूपं ग्ररूपितम्, सम्पति तेषां व्रतानां स्थिरता सम्पादनायें तावद् ईयीदिकाः पञ्चविंशतिभविनाः प्ररूपयितुमाह- 'तत्थेज्जहुँ' इत्यादि । तत्स्थैर्यार्थम् - तेषां पूर्वोक्तानां व्रतानां स्थूल माणातिपात विरमणादिलक्षणानां स्थिरताकरणार्थ दृढीकरणार्थम् ईर्यादिका:- ईर्यादिलक्षणाः पञ्चविंशतिपविना भवन्ति । तत्र - ईईरणं यतनया गमनम् १ आदिपदेन मनः माशस्त्य २ ववः प्राशस्त्ये ३ पणा ४ Ssदान निक्षेपरूपाः ५ पञ्च प्रथममहाव्रतस्य भावनाः १ अलोच्य सम्भाषणम् १ क्रोध ૪૦૦ 'तत्थेज्जद्वं ईरियाहया' इत्यादि ||५६|| स्वार्थ- वनों की स्थिरता के लिए ईर्घादिक पच्चीस नावनाएं हैं |२६| तच्चार्थदीपिका - पहले एक देश से हिंसादि से विरत रूप पांच अणुव्रत आदि का लक्षण कहा गया है, अब उन्न व्रतों में स्थिरता लाने के लिए ईर्ष्या आदि पच्चीस भावनाओं का प्ररूपण करते हैं- पूर्वोक्त स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि व्रतों की स्थिरता के लिए अर्थात् उन्हें दृढ करने के लिए ईर्ष्या आदि पच्चीस भावनाएं कही गई है। वे इस प्रकार है । (१) ईर्या अर्थात् यतनापूर्वक गमन करना (२) मन की प्रशस्तता (३) वचन की प्रशस्तता (४) एषणा (५) आदाननिक्षेप, यह पांच प्रथम व्रत की भावनाएं हैं। (१) सोच-विचार कर भाषण करना (२) कोषत्याग (३) लोभ'तत्येऽजटुं ईरियाइया पणवीस' भावणाओ' સૂત્રા—વ્રતાની સ્થિરતા માટે ઇર્યાદિક પચ્ચીસ ભાવનાએ છે પદા તત્ત્વા’દીપિકા—અગાઉ એકદેશથી હિંસાદ્રિથી વિરતિરૂપ પાંચ શુભત આદિના લક્ષણુ કહેવામાં આવ્યા છે હવે તે તેમાં સ્થિરતા લાવવાના આશયથી ઇર્ષ્યા વગેરે પચ્ચીસ ભાવનાઓનુ પ્રરૂપણું કરીએ છીએપૂર્વોકત સ્થૂલપ્રાણાતિપાત વિરમણુ વગેરે તેાની સ્થિરતા માટે અર્થાત્ તેમને દ્રઢ કરવા માટે ઇર્યા વગેરે પ્રચ્ચીસ ભાવનાઓ કહેવામાં આવી છે. તે આ પ્રમાણે છે (૧) ઇર્યાં અર્થાત્ યતનાપૂર્વક ગમન કરવુ' (૨) મનની प्रशस्तता (3) वयननी प्रशस्तता ( ४ ) शेषा (4) साहान निक्षेपमा पांय પ્રથમ તની ભાવનાએ છે. (१) समल वियारीने मोसवु (२) डोध त्याग ( 3 ) बोलत्याग (४) · Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.५६ पञ्चविंशतिर्भावनाया निरूपणम् ४०१ २ लोभ ३ सय ४ हास्येषु ५ अनृतविवर्जनश्चेति पश्च द्वितीय महाव्रतस्य भावनाः २ अष्टादशनिध विशुद्धवसतेयाचनापूर्वकं सेवनम् १ प्रतिदिनमवग्रहं याचित्वा तृणकाष्ठादिग्रष्णम् २ पीठफल काद्यर्थमपि वृक्षादीनां छेदनम् ३ साधारण पिण्डस्याऽधिकतो न सेवनस्४ साधुवैयावृत्यिकरणञ्चेति प्रश्च तृतीयमहाव्रतस्य भावनाः३। स्त्रीपशुपण्डकरहितवमतिसेचनम् १ स्वीकथावर्जनम् २ रब्यङ्गोपाङ्गाऽनवलोकनम् ३ पूर्वकृतसुरतरतेस्मरणम् ४ प्रतिदिनं भोजनपरित्यागचे ५ ति पश्च चतुर्थपहावामस्य भाननाः ४ प्रशस्ताऽपशस्तशब्द १ रूप २ रस ३ गन्ध ४ त्याग (४) अपत्याग और (५) स्वास्थयाा यह द्वितीयव्रत की पांच भावनाएं हैं। (१) अठारह प्रकार से पिशुद्ध पति का याचना पूर्वक लेखन करना (२) प्रतिदिन अपनर की चाचना कार के तृण काप्ठ आदि को ग्रहण करना (३) पाय आदि के लिए श्री वृक्ष आदि का छेदन न करना (४) साधारण पिण्ड हा अधिक लेवन न करना अर्थात् अनेक साधुओं का जो स्पिलिन आहार हो उसमें से अपने उचित भाग से अधिक्ष न देना और (५) साधुओं का वैश्रावृत्य करना, यह तृतीयव्रत की पांच भावनाएं हैं। (१) स्त्री, पशु और एण्ड से रहित बसति का सेवन करला (२) स्वीकथा न करना (३) स्त्री के अंगोपांगों का अवलोकन नहीं करना (४) पूर्व भुक्त लोगों का स्मरण न करना और (५) प्रतिदिन गरिष्ठ भोजन का परित्याग करना, यह चौथे व्रत की पांच भावनाएं हैं। मयत्या मने (५) त्यत्या, 21 भीतनी पाय माना छे. (૧) અઢાર પ્રકારથી વિશુદ્ધ વસ્તીનું યાચનાપૂર્વક સેવન કરવું (૨) દરરોજ અવગ્રહની યાચના કરીને તૃણ કાષ્ઠ વગેરેને ગ્રહણ કરવા (૩) પાટ વગેરે માટે પણ વૃક્ષ વગેરેનું છેદન ન કરવું (૪) સાધારણ પિણ્ડનું અધિક સેવન ન કરવું અથત અનેક સાધુઓ માટેને જે ભેગો કરેલે આહાર હોય તેમાંથી પોતાના ભાગે છે તેનાથી વધુ ન લેવું અને (૫) સાધુઓની વિયાવચ્ચ (સેવા) કરવી આ ત્રીજા વતની પાંચ ભાવનાઓ છે. (१) स्त्री, पशु भने नस४ वरनी सतीम पास ४२व। (२) સ્ત્રીકથા ન કરવી (૩) સ્ત્રીના અંગોપાંગોનું અવલોકન ન કરવું (૪) પૂર્વ ભેગવેલા ભેગેનું સમરણ ન કરવું અને (૫) દરરોજ સ્વાદિષ્ટ ભોજનને પરિત્યાગ કર, આ ચેથા વ્રતની પાંચ ભાવના છે. त० ५१ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ तत्त्वाचे स्पर्शेषु ५ रागद्वेषर्जनं शब्दादिभेदाद पञ्च पञ्चमम् हानतस्येति मिलिताः पञ्चविंशतिर्भावना कर्तव्याः ॥२५॥५६॥ ___हत्यार्थनियुक्ति:-पूर्व सर्वपाणातिपातविरमणादिलक्षणानि पञ्चमहावतानि प्ररूपितानि, सम्पति-तेषां व्रतानां दाढाथ मैकैकस्य महावतस्य पञ्च पञ्चभावनाः प्ररूपयितुमाह-तस्थेज्ज8 ईरियाहया पणवीसं भावणानो' इति । तत्स्थैर्याथम्-इर्यादिकाः पञ्चविंशतिर्भावना भावनीयाः, तेषां पूर्वोक्तस्वरूपाणां सर्वत, : (१) प्रशस्तरूप (२) इस (३) गंध (४) स्पर्श और (५) शब्द में राण और अप्रशस्त रूपादि में द्वेष धारण न करना, यह पांच पंचमव्रत की भावनाएं है । सब मिलकर पच्चीस भावनाएं होती हैं ॥५६॥ तत्वार्थनियुक्त-पहले सम्पूर्ण प्राणातिपातविरमण आदि पांच महानतों की प्ररूपणा की गई, अघ उन व्रतों की दृढता के लिए-एकएक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएं कहते हैं। उन व्रतों की स्थिरता के लिए ईर्थी आदि पच्चीस भावनाओं का सेवन करना चाहिए अर्थात् सम्पूर्ण प्राणातिपातविरमण आदि पांच महाव्रतों का तथा स्थूलप्राणातिपात विरमण आदि पांच अणुव्रतों को दृढ करने के लिए पच्चीस भावनाएं कही गई हैं। वे इस प्रकार है(१) ईर्यासमिति (२) मनोगुप्ति (३) वचन गुप्ति (४) एषणा (५) आदाननिक्षेपणा (६) आलोच्य संभाषण-सोच-विचार करके बोलना (७) क्रोध का त्याग (८) लोभ का त्याग (९) भय का त्याग (१०) हास्य (१) प्रशस्त ३५ (२) २स (3) 14 (४) २५श भने (५) शमा રિગ તથા અપ્રશસ્ત રૂપાદિમાં ઠેષ ધારણ ન કરો એ પાંચ પાંચમાવતની ભાવનાઓ છે. બધી મળીને પચ્ચીસ ભાવનાઓ થાય છે કે પ૬ છે * તત્ત્વાર્થનિયુક્તિ–અગાઉ સપૂર્ણ પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ મહાવ્રતની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી હવે આ વ્રતની દ્રઢતાને માટે એક એક મહાવ્રતની પાંચે પાંચ ભાવનાઓ કહીએ છીએ તે વ્રતોની સ્થિરતા માટે ઈર્યા આદિ પચ્ચીસ પ્રકારની ભાવનાઓનું સેવન કરવું જોઈએ અથત સપૂર્ણ પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ અણુવ્રત ને દઢ કરવા માટે પચ્ચીસ ભાવનાઓ કહેવામાં આવી છે જે આ પ્રમાણે छ- (१) सामति (२) भनाशुति (3) क्यनशुति (४) मेष (५) माहान નિક્ષેપણું (૬) આલે સંભાષણ– સમઝી વિચારીને બેવું (૭) ક્રોધને या (८) सासनी त्यास (6) अयना त्याग (१०) हास्यने त्यास (११) Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.५६ पञ्चविंशतिर्भावनाया निरूपणम् ४०३ प्राणातिपातविरमणादि लक्षणानां पञ्च महाव्रतानां देशतः माणातिपातादिविरतिलक्षणाऽणुव्रतानाञ्च स्थैर्यार्थ दृढतासम्पादनार्थम् ईर्यासमितिः १ आदिपदेनमनोगुप्तिः २ वचोगुप्तिः३ एपणा : आदाननिक्षेपणा आलोच्य सम्भाषणम्६ क्रोध प्रत्याख्यानम् ७ लोभपत्याख्यानम् ८ भयमत्याख्यानम् ९ हास्य प्रत्याख्यानम् १० अष्टादशविधविशुद्धवसते-चनापूर्वकं सेवनम् ११ प्रतिदिनमवग्रहं याचित्वों तृणकाष्ठादिग्रहणम् १२ पीठ फलकाद्यर्थमपि वृक्षादीना मच्छेदनम् १३ साधारणपिण्डस्याऽधिकतो न सेवनम् १४ साधु वैयावृत्यकरणञ्च १५ स्त्रीपशुनपुंसक संसक्तशयनाऽऽसनर्जनम् १६ रागयुक्तस्नीकथा वर्जनम् १७ स्त्रीणां मनोहरेन्द्रियवर्जनम् १८ पूर्वरतानुस्मरणवर्जनस् १९ प्रतिदिनं भोजनपरित्यागश्च २० मनोझाऽमनोज्ञस्पर्श २१ रस २२ गन्ध २३ वर्ण २४ शब्दानां २५ रागद्वेषवर्जनश्चे -त्येवं पञ्चविंशतिर्भावनाः । तत्र प्रथमाः पञ्च भावनाः ईयर्यासमितेः (माणातिका त्याग (११) अठारह प्रकार से विशुद्ध बसालि का याचनापूर्वक सेवन (१२) प्रतिदिन अक्ग्रह की याचना करके तृण काष्ठ आदि को ग्रहण करना (१३) पीठ फलक आदि के लिए भी वृक्ष आदि को न काटना (१४) माधारण पिण्ड का अपने समुचित भाग से अधिक सेवन न करना (१५) साधुओं का वैयावृत्य करना (१६) स्त्री, पशु और नपुं. सक के संसर्गवाले शय्या एवं आमन के सेवन से बचना (१७) रागः युक्त स्त्री कथा का त्याग (१८) स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों को न देखना (१९) पहले भोगे लोगों का स्मरण न करना (२०) प्रतिदिन सरस भोजन का त्याग करना-कभी-कभी जपवाल आदि करना (२१-२५) मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द पर राग-द्वेष न करना, ये पच्चीस भावनाएं हैं। અઢાર પકારથી વિશુદ્ધ વસતીનું યાચનાપૂર્વક સેવન કરવું (૧૨) દરરોજ અવગ્રહની યાચના કરીને તૃણુ કાષ્ઠ વગેરેનું ગ્રહણ કરવું (૧૩) પીઠ–પાટ વગેરે માટે પણ વૃક્ષ વગેરે ન કાપવા (૧૪) સાધારણ પિણ્ડનું પિતાના ભાગથી पधारे सेवन न २ (१५) साधुसोनी यावया (शुश्रूषा) ४२वी (१६) श्री पश અને નપુંસકના સંસર્ગવાળી પથારી અને આસનના સેવનથી દૂર રહેવું (૧૭) રાગયુત સ્ત્રીકથાને ત્યાગ (૧૮) સ્ત્રીઓની મનહર ઈન્દ્રિયને ન જેવી (૧૯) પૂર્વે ભેગવેલા ભેગેનું મરણ ન કરવું (૨૦) દરરોજ સ્વા ભેજનને ત્યાગ કરા-કયારેક કયારેક ઉપવાસ વગેરે કરવા (૨૧-૨૫) મનોજ્ઞ અને અમનેઝ સ્પર્શ રસ, ગધ, રૂપ તથા શબ્દ પર રાગદ્વેષ ન ક. મા પચીસ ભાવનાઓ છે. Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ - तत्त्वार्थस्त्र पातविर) द्वितीयाः पञ्च भावना:-असत्य विरते, तृतीयाः पञ्चभावनाः स्तेयविर, चतुर्थ्यः पञ्च भावना:-ब्रह्मचर्यस्य, पञ्चभ्यः पञ्च भावनाः परिग्रहविरते रवगन्तव्याः तत्र तावत्-ईरणं गमनम्-ईर्या, तस्यां समितिः-सङ्गतिः श्रुतुरूपेणाऽऽत्मनः परिणतिः, तदुपयोगेन पुरस्तान युगमात्रया दृष्टया स्थावरजङ्गमानिभूतानि परित्यजन् अप्रमत्तः सन् गच्छेत्-इत्यादिरूपो विधिः ईयर्यासमिति रुच्यते १ मनोगुप्तिश्च-मनसो रक्षणम्, भातरौद्रध्यानाऽपचारः-धर्मध्याने उपयोगश्वर वचो. गुप्तिश्च-एपणासमितिरूपा ३ एपणा च-त्रिविधा, गवेषण १ ग्रहण २ ग्रास ३ भेदात् । तस्यामेपणायामसमितस्य षण्णामपि कायाना मुपधानापत्तिः स्यादतस्तसंरक्षणार्थ सकलेन्द्रियोपयोगळक्षणा-एपणासमितिः कर्तव्या ४ आदाननिक्षेपणा -- इनमें से प्रारंभ की पांच भावनाएं प्राणातिपान विश्मणव्रत की, दूसरी पांच असत्यविरति की, तीसरी पांच स्तेपचिरति फी, चौथी पांच ब्रह्मचर्यत्रत की और पांचवीं भावनाएं परिग्रहविरति की है। इन भावनाओं का अर्थ इल प्रकार है-शासन करने में यतना रखना ईयासमिति है अर्थात् चार हाथ आगे की भूमि देखकर स्थावर और बस जीवों की रक्षा करते हुए, अप्रमत्त भाव से गमन करना प्रथम भावना है । मनोगुप्ति का अर्थ है आतध्यान और रोद्रध्यान से चंच कर धर्म धान में लीन होना । वचन को गोपन करना अर्थात् मौन धारण करना बचनगुप्ति है । एषणा के तीन भेद हैं-गवेषणा, ग्रहणैषणा और ग्रासषगा । जो एषगा समिति से रहित होता है, वह छहों फायों का विराधक होता है, अतएव जीवों की रक्षा के लिए આમાંથી પ્રારંભની પાંચ ભાવનાઓ પ્રાણાતિપાત વિરમણ વ્રતની બીજી પાંચ અસત્યવિરતિની ત્રીજી પંચ સ્ટેયવિરતિની, જેથી પાંચ બ્રહ્મચર્ય વ્રતની અને પાંચમી પાંચ ભાવનાઓ પરિગ્રહ વિરતિની છે. . આ ભાવનાઓને અર્થ આ પ્રમાણે છે. ચાલવામાં જતના રાખવી ઈસમિતિ છે. અર્થાત્ ચાર હાથ આગળની જમીનનું બારીકાઈથી નિરીક્ષણ કરીને સ્થાવર તેમજ ત્રસ જીવોની રક્ષા કરતા થકા અપ્રમત્ત ભાવથી ગમન કરવું એ પ્રથમ ભાવના છે. મને ગુપ્તિને અર્થ છે. આર્તધ્યાન તથા રૌદ્ર ધ્યાનથી અળગા રહીને ધર્મધ્યાનમાં લીન થવું, વચનને ગોપવું અર્થાત્ મૌનવ્રત ધારણ કરવું વચનગુપ્તિ છે. એષણાના ત્રણ ભેદ છે-ગવેષણ, બહષણ અને પ્રાસેષણ જેઓ એષણા સમિતિથી રહિત હોય છે તે છએ કાયાને વિરાધક હોય છે આથી જેની રક્ષા માટે એષણાસમિતિનું પાલન કરવું Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. सू.५६ पञ्चविंशतिर्भावनायाः निरूपणम् ४०५ समितिस्तु-औधिक-औपग्रहिकभेदेन द्विविधस्योपधेग्रहण-स्थापनलक्षणयोरादान निक्षेपणयोरागमनानुसारेण प्रत्यवेक्षण-समार्जनरूपा समिति रुच्यते५ आलोकिन, पानभोजनन्तु-प्रतिगृहे पात्रमध्यपतितपिण्डस्य चक्षुराधुपयोगेन तत्समुत्थाऽऽगन्तुकसत्त्वसंरक्षणार्थं मत्यवेक्षणं कर्तव्यम् उपाश्रयमागत्य च पुनरपि प्रकाशयुक्ते. प्रदेशे स्थित्वा पानभोजनं सुपत्यवेक्षितं कृत्वा प्रकाशप्रदेशाऽवस्थितेन वल्गनं कर्तव्य मिति बोध्यम् इत्येवं रीत्या-एताः पञ्चभावनाः पुनः पुनर्भावयन् वासयन वाहुल्येन सम्पादयन् समस्तास् प्राणातिपातलक्षणामहिंसां पातुं समर्थों भवतीति भावः । अथाऽनृतविरतिलक्षण सत्यवचनस्य दाढयार्थ पूर्वोक्त पञ्च भावनासु प्रथम तावत्-अनुवीचिभाषणमुच्यते, अनुवीचिशब्दो देशीया-आलोचनार्थकः । तथा च एषणासमिति का पालन करना चाहिए। औधिक और औपग्रहिक के भेद से दोनों प्रकार की उपधि के धरने-उठाने में, आगम के अनुसार प्रमार्जन एवं प्रतिलेखन का ध्यान रखना आदाननिक्षेपणा समिति है। पात्र में पडे हुए या रखे हुए आहार को चक्षु आदि का उपयोग लगा कर, उसमें उत्पन्न हुए अथवा बाहर से आए जीवों की रक्षा के लिए देखना चाहिए । उपाश्रय में आकर पुनः प्रकाशयुक्त प्रदेश में स्थित होकर आहार-पानी को भली-भांति देखकर प्रकाशपूर्ण स्थान में हो उसे खाना चाहिए। यह आलोकितपानभोजन भावना है। इन पांच भावनाओं से सम्पन्न श्रमण पूर्णरूपेण प्राणातिपातविरमण व्रत का पालन करने में समर्थ होता है। __मृषावादविरमणत्रत की दृढता के लिए इन पांच भावनाओं का सेवन करना चाहिए-'अनुवोचि भाषण' यहां 'अनुबीचि शब्द देशीय જોઈએ, ઔધિક અને ઔપગ્રાહિકના ભેદથી બંને પ્રકારની ઉપધિને ઉપાડવા તથા મૂકવામાં આગમ અનુસાર પ્રમાર્જન તથા પડિલેહણાનું ધ્યાન રાખવું આદાનનિક્ષેપણું સમિતિ છે. પાત્રમાં પડેલા અથવા રાખેલા આહારને ચક્ષુ વગેરેને ઉપગ લગાવીને. તેમાં ઉત્પન્ન થયેલા અથવા બહારથી આવેલા છની રક્ષા માટે અવકન કરવું જોઈએ. ઉપાશ્રયમાં આવીને ફરી એકવાર પ્રકાશવાળી જગ્યાએ બેસીને આહાર-પાણીને સારી પેઠે જઈ તપાસીને અજવાળું હોય એવી જગ્યાએ જ તેને ઉપભેગ કરવો જોઈએ. આ છે આલેક્તિપાન ભજન ભાવના આ પાંચ ભાવનાઓથી સંપન સાધુ સંપૂર્ણતયા પ્રાણાતિપાત વિર મણવ્રતનું પાલન કરવામાં સમર્થ થાય છે. - મૃષાવાદ વિરમણવ્રતની દઢતા કાજે આ પાંચ ભાવનાઓનું સેવન કરવું Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे -समीक्ष्याऽऽलोच्य वचनप्रवर्तनम् अनुवीचिभाषणं वोध्यम्, अनालोचितवक्ता कदाचिामृषा मपि ब्रूयात् ततश्चाऽऽत्मनोलाघव-वैर-पीडाः खलु-ऐहिकानिफलानि स्युः, परमाणोपधातश्चाऽवश्यंभावी, अतः-समीक्ष्योदाहरणेनाऽऽत्मानं भावयन् न मृपाभाषण जनितपापेन सम्पृक्तो भवति १ क्रोधस्य कपायविशेषस्य मोहर्मोदयनिष्पन्नमद्वेषपायस्याऽप्रीतिलक्षणस्य प्रत्याख्यान-निवृत्तिरनुत्तिर्वा, तेन क्रोधपत्याख्यानेन सततमात्मानं भावयेत्, तथा भावयन्-वासयंञ्च सत्यादिभ्यो न व्यभिचरतीतिर एवं-लोभमत्याख्यानं तावत् तृष्णालक्षणस्य लोभस्य प्रत्याख्यानं-परित्यागः, तेनाऽप्यात्मानं भावयन् न वितथमापीभवति ३ एवं-भयशीहै और उसका अर्थ है 'विचार करना । अशय यह हुआ कि सोचसमझ कर बोलना 'अनुचीचिभाषण' कहलाता है। विना विचारे बोलने चाला कदाचिद् मिथ्या भाषण भी करता है। इससे आत्मा की लघुना, वैर और पीडा आदि इस लोक संबंधी फलों की प्राप्ति होती है और दूसरे के प्राणों का घाल होता है। अतएव जो सोच-विचार कर भाषण करता है वह कभी मिथ्या भाषण के पापसे लिप्त नहीं होता। मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले द्वेष रूप एवं अप्रीति लक्षणवाले क्रोध का त्याग करना चाहिए । क्रोध प्रत्याख्यान से आत्मा की निरन्तर भावना करनी चाहिए । जो ऐसी भावना करता है वह असत्य आदि से बच जाता है । तृष्णा रूप लोभ का भी परित्याग करना चाहिए । जो लोभ प्रत्याख्यान से आत्मा को भावित करता है वह मिथाभाषी नहीं होता। इसी प्रकार जो भय या भीरुता का જોઈએ-“અનુવાચિસ ષણ” અહીં “અનુચિ શબ્દ દેશીય છે અને તેને અર્થ થાય છે વિચાર કરે તાત્પર્ય એ થયું કે સમઝી વિચારીને બેલવું “અનુવિચિભાષણ કહેવાય છે વગર વિચાર્યું બેલનાર કવચિત્ મિથ્યાભાષણ પણ કરતા હોય છે. આથી આત્માની લઘુતા વેર અને પીડા વગેરે આલેક સંબંધી કળાની પ્રાપ્તિ થાય છે અને બીજાના પ્રાણેની હિંસા થાય છે. આથી જે સમઝી -વિચારીને બોલે છે તે કયારેય પણ મિથ્યાભાષણના પાપથી ખરડાતું નથી. મોહનીયમના ઉદયથી ઉત્પન્ન થનારા દેષરૂપ તેમજ અપ્રીતિ લક્ષણે કાળા ક્રોધને ત્યાગ કરે જોઈએ ક્રોધ પ્રત્યાખ્યાનથી આત્માની નિરન્તર ભાવના કરવી જોઈએ જે આવી ભાવના ભાવે છે તે અસત્ય આદિથી બચી જાય છે. તૃષ્ણ રૂપી લેભને પણ પરિત્યાગ કર જોઈએ. જે લોભ પ્રત્યાખ્યાનથી આત્માને ભાવિત કરે છે તે મિથ્યાભાષી હેતે નથી આવી જ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका म.७ सू. ५६ पञ्चविंशतिभावनाया: निरूपणम् ४०७ लस्य भीरुत्वस्य प्रत्याख्यानेनाऽपि-आत्मानं भावयन् नाऽनृतं कदाचिद् वदति भयशीलो जनः कदाचित् वितथमपि भापते चौरोऽथपिशाचो वा मया रात्रौ दृष्ट इति, तस्माद्-निर्भय वासनाध्यान सात्मनि भावयेत् ४ एवं-मोहोद्भवपरिहासलक्षणहास्य परिणतः आत्मपरिहासं कुर्वन् परेण सह वितथमपि भाषेत, तस्मात्-तस्य प्रत्याख्यानेनाऽऽत्मानं भावयन् सस्यव्रतपालनक्षमो भवति १० एवं-खलु-अनुवीचिअवग्रहयाचनं तावत्-आलोच्याऽवग्रहयाचनरूपं बोधगम् ११ अवग्रहश्च-देवेन्द्रराजगृहपति शय्यातरसाधर्मिकसदेल पञ्चविधः, तब-यो यत्र स्वामी स एव याचनीयः, अस्वामियाचने दोषाधिक्थं स्यात् । तस्मात्-'मालोच्याऽवग्रहो याच्या' इत्येव प्रत्याख्यन करता है, वह कभी अलस्य भाषण नहीं करता डरपोक होता है वह मिथ्या भाषण भी करता है, जैसे-आज रात्रि में मुझे चोर अथवा पिशाच दिखाई दिया था इत्यादि । अतः अपने आपको निर्भय बनना चाहिए। मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न एवं परिहास लक्षण वाला हास्य जो करता है वह अपनी हंसी करता हुआ दूसरे के प्रति मिथ्या भाषण भी करता है । अतएच हास्य के प्रत्याख्यान से आत्मा को भावित करने वाला सत्य व्रत का पालन करने में समर्थ होता है। अस्तेयव्रत की पांच भावनाएं-लोच-विचार कर अवग्रह की याचना करना चाहिए । अवग्रह पांच प्रकार का है-(१) इन्द्र (२) राजा (३) गृहपति (४) शय्यातर और (५) साधर्मिक का अवग्रह । जहां जो स्वामी हो वहां उसी से याचना करना चाहिए । जो स्वामी नहीं है રીતે ભય અથવા કાયરતાનું પ્રત્યાખ્યાન કરે છે તે કદી પણ અસત્ય બેલતે નથી. જે ડરપોક હોય છે તે મિથ્યાભાષણ પણ કરતો હોય છે જેમ કે આજે રાતે મને ચેર અથવા પિશાચ દેખાયા હતા. વગેરે આથી દરેકે પોતાની જાતને નિર્ભય બનાવવી જોઈએ મેહનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન તથા લક્ષણવાળું હાસ્ય જે કરે છે તે પિતાની મશ્કરી કરતો થકે બીજાની પ્રતિમિથ્યાભાષણ પણ કરે છે. આથી હાસ્યના પ્રત્યાખ્યાનથી આત્માને પ્રભા વિત કરનાર સત્યવ્રતનું પાલન કરવા સમર્થ બને છે. અસ્તેયવ્રતની પાંચ ભાવન –સમજી વિચારીને અવગ્રહની યાચના કરવી જોઈએ અવગ્રહ પાંચ પ્રકારના છે(૧) ઈન્દ્ર (૨) રાજા (૩) ગૃહપતિ (૪) શય્યાતર અને (૫) સાધર્મિકને અવગ્રહ જયાં જે માલિક હેય ત્યાં તેની પાસે જ યાચના કરવી જોઈએ, જે માલિક નથી તેની પાસે યાચના Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे ૪૦૮ मात्मनि भान्येव इत्थञ्च भावयन् नादसादाने प्रवर्तत इति । अभीक्ष्णाऽवग्रह याचनं तावत् स्वामिना सकृद्दत्तेऽपि परिग्रहे मुहुर्मुहुरचहयाचनरूपं बोध्यम् । पूर्व लब्धपरिग्रहः- लानाच्यवस्थासु मूत्र - पुरीपोत्सर्ग पात्र हस्तपादपक्षालनस्था नानि स्वामिचित्तपीडापरिहारार्थं याचनीयानि । एक मेतावत्परिमितं सर्वतः क्षेत्र समग्रहीतव्यम् इत्येतदेवाऽवधारणरूपम् एतावदित्यवग्रहाऽवधारणं बोध्यम्१२ एवम् - पीठफलकाद्यर्थमपि वृक्षादीनामच्छेदनं ज्ञेयम् - १३ एवं साधारणपिण्डस्यापि सेवनं नाऽधिकता, अपितु गुरुभिरतुज्ञापितमेव पान - भोजनं ग्रहीत व्यम् गुरुणा मनुज्ञया स्वीकृतं पानभोजनं सूत्रोक्तविधिका भुञ्जीत । औधिको उससे पाचना से दोषों की अधिकता होती है। अतएव 'सोच- विचार कर अवग्रह की याचना करनी चाहिए' ऐसी भावना करे । जो ऐसी भावना करता है वह अदत्तादान में प्रवृत्ति नहीं करता । एक बार स्वामी द्वारा परिग्रह प्रदान करने पर भी बार-बार अवग्रह की याचना 'अभीक्षण - अवग्रह याचना' कहलाता है । रुग्णता आदि अवस्थाओं में मल-मूत्र के त्याग का पात्र तथा हाथ-पैर धोने के स्थान की याचना पुनः इसलिए करनी चाहिए कि जिस से स्वामी के चित्त को पीडा न पहुंचे। इसी प्रकार 'इतना ही क्षेत्र मुझे ग्रहण करना है. ऐसा अवधारण कर लेना चाहिए। और पीढा तथा पाटा आदि के लिए भी वृक्ष आदि का छेदन नहीं करना चाहिए । साधारण पिण्ड़ का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, बल्कि गुरुने जिन को सेवन की अनुमति दी हो उस को भोजन - पानी ही ग्रहण करना चाहिए । गुरु की आज्ञा से स्वीकृत भोजन - पानी भी सुनोक्त विधि से खाना કરવાથી ઢાષાની અધિકતા થાય છે. આથી સમજી-વિચારીને અવગ્રહની યાચના કરવી જોઇએ એવી ભાવના ભાવે જે આ જાતની ભાવના સેવે છે તે અદત્તાદાનમાં પ્રવૃત્ત થતા નથી એકવાર માલિક દ્વારા પરિગ્રહનું પ્રદાન થવા છતાં વારંવાર અવગ્રહની યાચના કરવી ‘અભીક્ષ્ણ-અવગ્રહ યાચના કહેવાય છે. રાગી વગેરે અવસ્થાઓમાં મળ–મૂત્રના ત્યાગ કરવાના પાત્ર તથા હાથ-પગ ધાવાના સ્થાનની યાચના ફરીવાર એ માટે કરવી જરૂરી છે કે જેથી માલિકના મનને વ્યથા ન પહોંચે એવી જ રીતે આટલું જ ક્ષેત્ર મારે ગ્રહણ કરવુ' છે એવા અભિગ્રહ ધારણ કરી લેવા જોઇએ તેમજ પીઠ પાટ વગેરે માટે પણ વૃક્ષ વગેરેનુ ઇંદન ડરવું ન જોઇએ પરંતુ ગુરૂએ જેટલા આહારપાણીની અનુમતિ આપી હાય તેટલું ભેજનપાણી જ જોઇએ ગુરૂજીની આજ્ઞાથી સ્વીકારેલા ભાજન પાણી પણ સૂત્રેાક્ત વિધિ ગ્રહણ કરવું Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ, ७ सू, ५६ पञ्चविंशतिर्भावनायाः निरूपणम् १०९ पग्रहिकभेद मुपधिरूपं वस्त्रादिकमपि सर्व गुरुभिरनुज्ञात वन्दनपूर्वकं गुरुवचनविधिना परिभोक्तव्यम् एवंरीत्याऽऽत्मनि भावयन्-वासयंश्वाऽस्तेयनतं नातिकामति ! १४ एवं-साधुवैयारत्मकरणमपि बोद्धयम् १५ एवं-ब्रह्मवयस्य-मैथुन विरतिलक्षणस्य पूर्वोक्तामु भावनासु स्त्रीपशु पुंपकसंसक्तशयनाऽऽसनवर्जन सावत्-देव-मनुष्य स्त्रीतिर्यग्जाति बडवा गोमहिष्य-जाऽविकादिभिः सह संसक्ताऽऽसन शयनादिपरित्यागरूपं बोध्यम् ताभिः सह प्रतिश्रय-संस्तारका. ऽऽसनादि वह्वयायवाद्वर्जनीय मित्येवं वासयन्नात्मानं भावयेदिति १६ एवंस्त्रीपशु नपुंसकानामसद्भावेऽपि रागसंयुक्त स्त्रीकथाजनं कर्तव्यम् मोहोद्भवः कपायरूप रागाकार परिणतियुक्ता रागजननी खलु स्त्रीकथा देशजातिकुलनेपथ्यः चाहिए। इसी प्रकार औधि और औपग्रहिक उपधि वस्त्र आदि भी गुरु की आज्ञापूर्वक, वन्दनपूर्वक, गुरु के वचनों की विधि के अनुसार ही काम में लाना चाहिए जो ऐसी भावना करता है वह अस्तेयवन का उल्लंघन नहीं करता । इसी प्रकार साधु को वैधावृत्य करना भी समझ लेना चाहिए। ये पांच अदत्तादान व्रत की भावनाएं हैं। ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाएं--ब्रह्मचर्यवत की पूर्वोक्त भावनाओं में से स्त्रीपशु नपुंसक संसक्त शयनासनवर्जन का अर्थ है-देवांगना, मानवस्त्री, तिर्यकत्री जैसे घोडी, गाय, भैम, बकरी, मेड आदि के संसर्गवाले शयन एवं आसन का त्याग करना चाहिए, क्योंकि उस से अनेक प्रकार की हानियां होती हैं, स्त्री पशु और नपुंस्तक का संसर्ग न होने पर भी रागयुक्त स्त्री से बचना चाहिए। स्त्रीकथा मोहजनित कषायरूप परिणति से युक्त होती है और रागभाव को મુજબ જ ખાવા જોઈએ એવી જ રીતે ઔઘિક તેમજ પાહિક ઉપધિ વસ્ત્ર વગેરે પણ ગુરૂની આજ્ઞ પૂર્વક વંદનપૂર્વક ગુરૂના વચનની વિધિ અનુસાર જ કામમાં લેવા જોઈએ જે આ જાતની ભાવના ભાવે છે તે અસ્તેયતનું ઉલંઘન કદી પણ કરતે નથી આવી જ રીતે સાધુની શુશ્રષા માટે પણ સમજી લેવું આ પાંચ અદત્ત દાન વાની ભાવનાઓ છે. પ્રદાચવતની ભાવનાઓ–બ્રહ્મચર્યવ્રતની પૂક્ત ભાવનાઓમાંથી સ્ત્રીપશુનપુંસકસંસકત શયનાસનવર્જનને અર્થ છે- દેવાંગના માનવસ્ત્રી જેવા કે ઘડી, ગાય, ભેંસ, બકરી ઘંટી વગેરેના સંસર્ગવાળી પથારી તથા આસનને ત્યાગ કરવો જોઈએ કારણકે તેનાથી અનેક પ્રકારની નુકશાની થાય છે, સ્ત્રી, પશ. તથા નપુંસકનો સંસર્ગ ન હોવા છતાં પણ રાગયુકત સ્ત્રીકથાથી બચવું જોઈએ. સ્ત્રીકથા મો જનિત કષાય રૂપ પરિણતિથી યુક્ત હોય છે તથા તે રાગભાવને त० ५२ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थ चचनाssलापगतिविलासविभ्रम- सूप कटाक्षहान्यलीलामयकलह-गृहाररसपरि पूर्णा सवी वाल्या - इत्र ( वण्टोरिया जैसे ) विनोदधि नूनमेव विलोभयति तस्मात्रामानुबन्धि स्वीकथा वर्जनं श्रेयः इति भाययेत् १७ एवं खोणां मनोहरेन्द्रिया-ssलोकनवर्जनं कर्तव्यम्, तासां कमनीय कुचकलशावलोकनादि विरतिः खलु श्रेयसी वर्तते, इत्येवं भावयेत् १८ एवं पूर्वरतानुस्मरणवर्जनं कर्तव्यम् साध्व स्थायां गृहस्थदशोऽनुभूतरत क्रीड धनुरमरणात् कामाग्निसन्धुक्षणं (सन्दीपनम् ) भवति, तस्मात् वहर्जनं श्रेयः इति स्वात्मनि सावयेत् १९ एवं मणीतरसभोजन पर्जनं कर्तव्यम्, प्रगीतस्य वृष्यस्य - स्निग्ध मधुरादि रसस्य दुग्ध-दधि-हैय उत्पन्न करती है, वह देश, जाति, कुल, पेपसूषा, बननालाप, गति, विलास, विभ्रम, भ्रूभंग, कटाक्ष, हास्यलीला प्रणयकलह, आदि रूप श्रृंगाररस से परिपूर्ण होती हुई चित्त को उसी प्रकार क्षुब्ध कर देती है जैसे तूफान समुद्र को । इस कारण रागान्धिनी स्त्रीकथा का त्याग करना श्रयस्कर हैं। इसी प्रकार स्त्रियों के मनोहर अंगो के अवलोकन का भी त्याग करना चाहिए और ऐसी भावना करनी चाहिए कि- 'स्त्रियों के लुन्दर - कलश आदि के अवलोकन से विरत होना ही श्रेव्हर है। और पा लेने से पहले गृहस्थावस्था में की हुई काम-क्रीडा के स्मरण का भी त्याग करना चाहिए । पूर्व कालीन काम-क्रीडा के स्मरण से कालाग्नि प्रज्वलित हो उठती है, अतएव उसका त्याग करना श्रेयस्कर है | पौष्टिक भोजन का भी स्याग कर देना चाहिए । पुष्टिकर स्निग्ध और अधुर दूध, दही, घी, उत्यन्न १रे छे ते हेश, लति हुण, वेशभूषा, वथनासाय, गति, विलास, વિભ્રમ ભ્રહ્મગ કટાક્ષ હાસ્ય પ્રણય કલર્ડ વગેરે રૂપ શૃંગારરસથી પરિપૂર્ણ થતી થતી ચિત્તને તેજ પ્રકારથી ક્ષુબ્ધ કરી દે છે જેમ કે વાવાઝોડાથી સમુદ્રની થતી ડામાડાળ સ્થિતી. આથી રાગ વધારનારી કથાના ત્યાગ કરવે એ જ શ્રેયસ્કર છે એવી જ રીતે સ્ત્રીએના ચારૂ અંગેાપાંગનું અવલેન પણ ત્યજી દેવુ જોઇએ અને એવી ભાવના ભાવવી જોઇએ કે સ્ત્રીઓના સુંદર સ્તન-યુગ્મ વગેરેના અવલાકનથી વિરત ધવામાં જ ભલુ રહેલુ છે અને સાધુ થતાં પહેલા ગૃહસ્થાવસ્થમાં કરેલી રતિક્રીડાના સ્મરણુને પણ ત્યાગ કરવા જરૂરી છે. પૂર્વકાલીન કામક્રીડાના સ્મરણથી કામાગ્નિ પ્રજલિત થઈ જાય છે માટે તેને ત્યાગ કરવા શ્રેયસ્કર દે. પૌષ્ટિક ભેાજનને પશુ ત્યાગ કરી દેવા જોઇએ. પૌષ્ટિક સ્નિગ્ધ અને મીઠાં દૂધ દહી ગાળ ધી Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका नियुक्ति टीका अ.७ सू.५६ पञ्चविंशतिर्भावनायाः निरूपणम् ४११ वीनघृतगुडतैलादि भक्षणेन मेदो बज्जा शुभाधु पचयादपि मोहोद्भवो भवति, तस्मात्-निरन्तराभ्यारोन मणीलरसमोजनं वर्जनीयमिति ब्रह्मचर्यरक्षार्थ मात्मनि भावयेत् २० एवं-वाद्याभ्यन्तरपरिग्रहशून्हा श्रमणस्य पञ्चाना रूप १ रस २ गन्ध ३ स्पर्श ४ शब्दानी ५ मनोज्ञाना लिन्द्रियार्थानां प्राप्त सायं वर्जनम् , अमनोज्ञानां च तेषां प्राप्तौ द्वेष वर्जनं कर्तव्य मित्यात्मनि भावयेत् २५ उक्तश्वसमवायाङ्गे २५ समवाये-'पंचजानन पायी भावणाओ पणन्तामो, तं जहा-ईस्चिाललिई १, मशागुत्ती २, बन्यो गुक्ति ३, आलोय-भायणभोयणं ४, आदान भंडवत्तनिक्वेक्षणाललिई ५, अणुबीहभालणया६, कोहविवेगे ७, लोअविवेगे ८, सयविदेगे ९, हालविवेगे १०, उग्गह अणुण्णवयणा ११, उग्गहलीम जाणणया, सममेव उग्गह-अणुगिण्हणया, साहलिम उग्राहं अणुष्णविवपरिगणया, लाहारण भत्तपाणं अणुण्णावियपडिजणया, इत्थी एसुपंडगललता लथणासणवज्जणया, इत्थी कहबज्जणवा, इस्योणं इंदिशाणमालोचजणया, पुन्न रत्त पुव्यकीलियाण अषणुसरणया, पीयाहारवजणथा, लोइंदियरागोवरई, वविदिशाबोधरई, धाणिदिशमोधर ई, जिभिदियरामो वरई, फासिदियरागोरई' इति ।। गुड, तेल आदि के आहार ले मेद बजा शुक आदि धातुओं का उपचय होता है और इससे भी लोह की उत्पत्ति होती है, अतएव निरन्तर अभ्यास रूपले पोधिक प्रोजन का त्याग करना चाहिए । ब्रह्मचर्य की रक्षा के किए ऐसी भावना करनी चाहिए। ___ इसी प्रकार पाय और आन्तर परिग्रह से शून्य अमण को रूप, रस, गंध, रूपी और शाब्द, इन पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग और अननोज्ञ रूपादि में बेच नहीं करना चाहिए। ગેળ તેલ વગેરેના આહારથી મેદ મજા શુક વગેરે ધાતુ બેને ઉપચય થાય છે અને આમ થવાથી પણ મેહની ઉત્પત્તિ થાય છે. આથી નિરંતર અભ્યાસ રૂપથી સ્વાદુ ભેજનનો ત્યાગ કરવો જોઈએ બ્રહ્મચર્યની રક્ષા માટે આવા પ્રકારની ભાવના ભાવવી જરૂરી છે. એવી જ રીતે બાહ્ય આભ્યન્તર પરિણહથી શૂન્ય સાધુએ રૂપ રસ ગંધ સ્પર્શ અને શબ્દ એ પાંચ ઈન્દ્રિયના મનોજ્ઞ વિષયમાં રાગ અને અમનોજ્ઞ વિશ્વમાં શ્રેષ ન રાખવા જોઇએ. Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थम पञ्च यमस्य पञ्चविंशति भर्भावनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ईसमितिः १ मनोशुतिः २ बचोगुप्तिः ३ आलोकितपानभोजनम् ४ आदानभण्डाऽमत्रनिक्षेपणा समितिः ५ अनुवी चिभापणम् ६ क्रोधविवेकः ७ लोभविवेकः ८ भयविवेकः ९ हास्यविवेकः १० अवग्रहानुज्ञापनता ११ अवग्रहसीमानुज्ञापनता १२ स्वयमेवा. ऽवग्रहाऽनुग्रहणता १३ सार्मिकावग्रहमनुज्ञाय परिभोगता १४ साधारणभक्त. पानमनुज्ञाप्य परिभुञ्ज नेन १५ स्त्री पशुपण्डक संसक्तक शयनाऽऽसनवर्जनता १६ स्त्रीकथावर्जनता १७ स्वीणा मिन्द्रियाकोकवर्जनता १८ पूर्वरतपूर्वक्रीडितानामनुस्मरणता१९ प्रणीताहारवर्जनता-श्रोत्रेन्द्रियरागोपरतिः चक्षुरिन्द्रियरागोपरतिः -घ्राणेन्द्रियरागोपरति:-जिवेन्द्रियरागोपरतिः स्पर्शेन्द्रियरागोपरतिः इति ।५६। लखवायांग सूत्र के पचीसवें समवाय में कहा है-पांच व्रतो की एच्चीस भावनाएं कही गई है, वे इस प्रकार है- (१) ईसिमिति (२) मनोगुप्ति (३) वचनगुप्ति (४) आलोकितपानभोजन (५) आदानभाण्डामन निक्षेपणासमिति (६) अनुवीचिभाषणता (७) क्रोधविवेग (८) लोभविवेक (२) भयविवेक (१०) हास्थविवेक (११) अवग्रह-अनु. ज्ञापनता (१२) अवग्रहसीमानुज्ञापनता (१३) स्वयमेव अवग्रह-अनुग्रहणता (१४) साधर्मिकअवग्रहअनुज्ञायपरिभोगता (१५) साधारणभक्तपान को अनुमति लेकर काम में लाना (१६) स्त्रीपशुपंडक के संसर्गवाले शयनासन का त्याग करना (१७) स्त्री कथा का स्वाग (१८) स्त्रियों को इन्द्रियों के अवलोकन का त्याग (१९) पूर्वभुक्तरति. क्रीडा का स्मरण न करना (२०) पौष्टिक आहार को त्याग (२१) श्रोत्रे न्द्रिय के विषय पर राग न करना (२२) चक्षु के विषय पर राग न સમવાયાંગસૂત્રના પચ્ચીસમાં સમવાયમાં કહેવામાં આવ્યું છે-પાંચ તેની પચ્ચીસ ભાવ એ કહેવામાં આવી છે જે આ પ્રમાણે છે-(૧) समिति (२) भनी गुति (3) क्यनगुति (४) मासातिपाना (4) આદાનભાડામત્ર નિક્ષેપણા સમિતિ (૬) અનુવાચિભાષણુતા (૭) કોવિવેક (८) बमविवे (6) मयवि (१०) हास्यविवे: (११) अपह-मनुडता (૧૪) સાધર્મિક અવગ્ર અનુજ્ઞાય પરિભેગતા (૧૫) સાધારણ ભરપાનને આજ્ઞા લઈને ઉપગ કરે (૧૬) સ્ત્રી પશુ નપુંસકના સંસર્ગવાળા શયનાસનને ત્યાગ કરે (૧૭) સ્ત્રીકથાને ત્યાગ (૧૮) સ્ત્રીઓની ઇન્દ્રિાના અવ લકનને ત્યાગ (૧૯) પૂર્વ ભેગવેલ રતિક્રીડાનુ સ્મરણ ન કરવું (૨૦) पौष्टि माहारने त्यास (२१) श्रीन्द्रियना विषयमा सन २३ (२२) Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अं.७ स.५७ सामान्यत: सर्ववतभावनानिरूपणम् ४१३ मलम्-हिंसादिसु उभयलोगे घोरदहं चउग्गइ भमणं च।५७। छाया-'हिंसादिषूभयलोके घोरदुःख-चतुर्गतिभ्रमणश्च ॥५७॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वस्त्रे प्राणातिपातादिविरमणलक्षणेषु पञ्चसु महाव्रतेषु प्रतिव्रत मधिकृत्य पश्च पश्च भावनाः प्रखपिताः सम्प्रति-सामान्यत: सर्वव्रत. साधारणी भावनाः प्रतिपादयितु माह-'हिंसादिसु' इत्यादि । हिमादिषु माणातिपाताऽनृत-स्तेयाऽब्रह्मचर्य-परिग्रहेषु पञ्च वक्ष्यमाणास्रवेषु उभयलोके, इहलोके-परलोके च नरकादिजन्मनि घोरदुःखं, तद्विपाकान्नरकादिषु तीव्र यात नाऽनुभवनं तद् भावयेत् । ज्ञानपूर्वकक्रियानुष्ठानेन हिंसादिषु ऐहिक-पारलौ. करना (२३) घ्राणेन्द्रिय के विषय पर राम न करना (२४) जिहवा इन्द्रिय के विषय पर राग न करना और (२५) स्पर्शेन्द्रिय के विषय पर राग न करना ॥५६॥ 'हिंसादिसु उभयलोगे' इत्यादि। सूत्रार्थ-हिंसा आदि पापों का सेवन करने पर इह-परलोक में घोर दुःख होता है और चारों गतियों में भ्रमण करना पडता है ||५७॥ तत्वार्थदीपिका- पूर्व सूत्र में प्राणातिपातविरमण आदि पांच महाव्रतों में से प्रत्येक की पांच-पांच भावनाओं का प्रल्पण किया गया, अब सभी व्रतों के लिए समान भावनाओं का प्रतिपादन करते हैं। हिंसा आदि अर्थात् हिंसा, अनृत, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रह, इन पांचों आस्वा का सेवन करने से इस लोक में तथा नारक आदि परलोक में घोर दुःख भुगतना पडता है, ऐसी भावना करनी चाहिए । तात्पर्य यह है कि जान-बुझ कर हिंसा आदि का आचरण ચક્ષુના વિષયમાં રાગ ન કરે (૨૪) જીભ સ્વાદુ ઈન્દ્રિયના વિષયમાં રાગ ન કરવો અને (૨૫) સ્પર્શેન્દ્રિયના વિષયમાં રગ ન કરવો છે ૫૬ છે __'हिंसादिसु उभयलोंगे' त्याह સત્રાર્થ-હિંસા આદિ પાપનું સેવન કરવાથી આલોક તેમજ પરલેકમાં ઘેર દુઃખ થાય છે અને ચારે ગતિઓમાં ભ્રમણ કરવું પડે છે. આપણા તત્ત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ મહાવતેમાંથી પ્રત્યેકની પાંચ-પાંચ ભાવનાઓનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે બધાં વ્રતો માટે સમાન ભાવનાઓનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ– हा माल मत हिसा, सन्त, महत्ताहान, मप्रझयय भने પરિગ્રહ આ પાંચે આસનું સેવન કરવાથી આલોકમાં તથા નારક વગેરે પરલેકમાં ઘેર દુખે ભેગવવા પડે છે એવી ભાવના રાખવી જોઈએ. કહેવાનો આશય એ છે કે ઈરાદાપૂર્વક હિંસા વગેરેનું સ્મરણ કરવાથી અહિક અને Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ तत्त्वार्थसूत्रे किक नरकादिजन्माउन परस्परां गर्हित नारकादि तीवदुःखानुमपनञ्चोपलममानो जीव माणातिपातादिषु न प्रयतचे इति भावः। घोरदुःखमेव हिंसादिषु सर्वत्र भावयेत. चतुर्गतिभ्रमणश्च-नारक तिर्यङ्मनुष्यदेवगतिरूपचतुर्गतिषु भ्रमणश्च भवति हिसादिनेति भावः ॥५७॥ तत्वार्थ नियुक्ति:--पूर्व सर्वतो-देशतश्च हिंसाऽतृत-रतेयाऽब्रह्मचर्यपरिग्रहेको नितिलक्षणेषु पञ्च महावाऽणुन तेषु प्रतिव्रतं पञ्च पञ्च भावनाः तेषां दाढया मरूपिता, सम्मावि-सर्वव्रतसामान्य भावनाः प्ररूपयितुमाह-'हिंसा. दिलु उभयलोगे घोर दुह-च उग्गहमलणं च' इति। हिंसादिषु हिंसाऽसत्य-स्ते ग-मैथुः परिग्रहेषु पञ्चमु वक्ष्यमाणास वेषु तिप्टतामुभयलोकेऽस्मिन् -परलोके च नरकादो घोरदुःख-तीव्रयातना, तद्विपाकनन्य तीव्रनारकादियातनाऽनुमबन मा भूधात्' इति भावनया वतीजीको हिंसादिषु कथञ्चिदपि न प्रवर्तते । करने पर ऐहिक और पारलौकिक अनेक प्रकार के अनर्थों की परम्परा उत्पन्न होती है, नरक क्षादि दुर्गतियों में तीत्र दुःख का अनुभव करना पडता है, ऐली माधना करने ले जीव प्रागातिपात आदि में प्रवृत्ति नहीं करता। हिंसा आदि ने घोर दुख है और उसके कारण चारों गतियों में भ्रमण करना पडना है ॥५७।। लस्वार्थनियुक्ति-हलो पूर्व मविरतिरूप महावतों और देश विरतिरूप अणुव्रतों में ले प्रत्येक की पांच-पांच भावनाओं का प्रति. पादन किया गया, अन्य सभी व्रतों के लिए साधारण भावनाओं का निरूपण करते हैं हिंसा, असत्य, स्लेय, अन्ब्रह्मचर्य और परिग्रह, इन पांच आत्रवों में प्रवृत्ति करने वालों को इस लोक में तमा नरक शादि परलोक में तीव्र यातना न भोगनी पडे, इस प्रकार की भावना से नीजीव પારલૌકિક અનેક પ્રકારના અર્થોની પરમ્પર ઉત્પન્ન થાય છે, નરક આદિ ગંતિઓમાં તીવ્ર દુઃખનો અનુભવ કરવો પડે છે, એવી ભાવના કરવાથી જીવ પ્રાણાતિપાત આદિમાં પ્રવૃત્તિ કરતા નથી હિંસા આદિમાં ઘેર દુઃખ જ દુઃખ છે અને તેના કારણે ચારે ગતિએ માં ભ્રમણ કરવું પડે છે. આપણા તવાથદીપિકા–આની પૂર્વે વિરતિરૂપ મહાવ્રતને અને દેશવિરતિ રૂપ અણુવ્રતોમાંથી પ્રત્યેકની પાંચ પાંચ ભાવનાઓનું પ્રતિપાદન કરવામાં અાવ્યું, હવે બધાં વ્રતા માટે સાધારણ ભાવનાનું નિરાકરણ કરીએ છીએ . निसा, मसाय, स्तेय, अब्रह्मयय मने परियड, २॥ पाय पासवामा પ્રવૃત્તિ કરનારાઓને આલેકમાં તથા નરક આદિ પરલોકમાં તીવ્ર યાતનાઓ ન ભેગવવી પડે, આ પ્રકારની ભાવનાથી વતી જીવ હિંસા આદિમાં પ્રવૃત્તિ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ १.५७ सामान्यतः सर्ववतभावनानिरूपणम् ४१५ तथा चे है। तावद् हिंसादिषु प्रवृत्तस्य जनस्याऽमी प्रत्यवाया दरीदृश्यन्ते, नरकादामुत्र च दारुणः पाकविपाको भवतीति भूयो भूयो भावयेत् इति । तत्रपाणिवधे तावत्-घोरदुःखं प्रदश्यते, हिमनशीलो हिलो जनः सतत मुद्वेजयिता सन्त्रासकारी भवति, स खलु हिंस्रो भीषणवेषो ललाटरचिटिलभूमङ्गो नितान्तेाऽऽमनिर्भरनेत्रहढदन्तमुष्टोष्ठ: प्राणिनां सन्त्रासजनको भवति, नित्याऽनुबद्ध रच संजायते । एवञ्च-हलोऽपि वंशदलकशादिमित्ताडनं निगड. शङ्खलादिभिधवन्धनं विविधशाष्ठेष्टकाऽऽरोपणादि परिक्लेशन प्रतिलभते । प्रेत्यच नरकादिगति प्रति प्राप्नोति, लोके-गहितो निन्दितश्च भवति, पूर्वजन्मो. हिसा आदि में प्रवृत्ति नहीं करता । जो हिला आदि में प्रवृत्ति करता है उसे प्रथम तो इही लोक में अनेक अनर्थों का सामना करना पडता है, फिर नरक आदि में दारुग फल भोगना पडता है, ऐसा बार-बार चिन्तन करना चाहिए । हिंसा से कैसा घोर दुःख होता है थाह बत. लाते हैं-हिंसक जीव लदैव उदूदेवा और प्रास उत्पन्न करता है। उसका वेष भीषण होता है, उनके ललाट पर ललकट पडे रहते हैं। उसके नेत्रों से ईर्षा और शोध टपकता है। वह दांगों से होठ चबाता रहता है और प्राणियों को बाल उत्पन्न करता है । छन्ड सदैव वैश् बांधे रहता है । वह इश्व लोक में भी लाठियों और चाबुकों से पीटा जाता है, हथकडियों और इंडियों से जकडा जाता है वध-बन्धनका पात्र बनता है और विविध प्रकार के काठ, ईट आदि से पीटा जाता है। और भी अनेक प्रकार के क्लेशों को प्राप्त होता है । हिंसक जीच पर. કરતો નથી. જે હિંસા આદિમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે તેને પ્રથમ તે આ જ લેકમાં અનેક અનર્થોનો સામને કર પડે છે પછી નરક આદિમાં દારૂણ ફળ ભેગવવા પડે છે એ પ્રમાણે પુનઃ પુનઃ ચિન્તન કરવું જોઈએ હિંસાથી કેવું ઉગ્ર દુખ થાય છે એ બતાવીએ છીએ-હિંસક જીવ સદૈવ ઉદ્વેગ અને ત્રાસનું સામ્રાજ્ય ફેલાવે છે, તેને વેશ ભીષણ હોય છે. તેના ભાલ પ્રદેશ પર કરચળીઓ પડેલી રહે છે. તેની આંખોમાંથી ઈર્ષ્યા અને કોઈ રૂપી અગ્નિ વરસે છે. તે દાંતથી હેઠ ચાવતું હોય છે અને પ્રાણિઓને ત્રાસ ઉપજાવતો હોય છે તે હમેશાં દુશ્મનાવટ બાંધતા રહે છે. તે આ લોકમાં પણ લાઠી તથા ચાબુકેથી ફટકારાય છે, હાથકડી તથા જંજીરેથી જકડાય છે, ફાંસીના માંચડે ચઢવાને પાત્ર બને છે અને વિવિધ પ્રકારના લાઠી, ઈંટ આદિથી --- લેકે તેને મારે છે બીજા પણ અનેક પ્રકારનાં કલેશને પ્રાપ્ત થાય Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ तस्वार्थ पार्जिताऽशुभकर्मविपाकोऽयं खलु 'एतस्य मम वराकस्ये' स्येवं सम्मावयतश्च विवेकवलाल 'प्राणिषधाव्युपरमः श्रेयान्' इति तस्य दृढनिश्चयः समुत्पद्यते इति भावः । एवं-हिंसादिना नारक-तिर्यङ्मनुष्यदेवगतिरूप चतुर्गतिके संसारे. भ्रमणम्, नरक निगोदादिषु-अनन्ताऽनन्तजन्ममरणादिकं घोरातिघोरं दुख माप्नुवन्ति । अथ हिंसको जनो यथा प्रत्यवायेन लिप्यते, एव मसत्यवाय.प. जनः मत्यवायमाग्भवति, लोकेऽश्रद्धेयवचनश्च संजायते । एवमैहिकं प्रत्यघायजन्यम् असत्यभाषण पयुक्तं जिवाच्छेदन श्रोत्र नासिकाच्छेदनादिकं प्रति. लोक में नरक आदि दुर्गतियां प्राप्त करता है, लोक में गहित और निन्दित होता है। जो मनुष्य विवेक के बल से यह समझता है कि पूर्व जन्म में उपार्जित, अशुभ कर्म का ही यह फल मुझ अभागे को छाश हुआ है, अपहिला से विरत हो जाना ही श्रेयस्कोर है, इस प्रकार का दृढ निश्चय उसके चित्तमें उत्पन्न हो जाता है। इली प्रकार हिंसा आदि पापों के कारण नरक तियंच मनुष्य और देव गति रूप संसार में परिभ्रमण करना पडता है । हिंसक नरकनिगोद आदि में जन्न-मरणादि के अनन्तानन्त घोर अति-घोर दुःख प्राप्त करते हैं। जैसे हिंसक पुरुष अनर्थों का भागी होता है, उसी प्रकार अप्सत्य वादी जन भी अनर्थ भागी होता है । लोक में उसके वचन का कोई विश्वास नहीं करता। असत्य भाषण के कारण असत्यभाषी की जीम काटली जानी है, कान काट लिये जाते हैं, नाक काट ली जाती है। હિંસક જીવ પલેકમાં નરક આદિ દુર્ગતિ પ્રાપ્ત કરે છે, લોકમાં ગહિંત અને નિદિત થાય છે. જે મનુષ્ય વિવેકના બળથી એવું સમજે છે કે પૂર્વ જન્મમાં ઉપાર્જિત, અશુભ કર્મનું જ ફળ મને અભાગીયાને પ્રાપ્ત થયું છે હવે તે હિંસાથી વિરત થઈ જવામાં જ ભલું છે એ જાતને દૃઢ નિશ્ચય એના ચિત્તમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. આવી જ રીતે હિંસા આદિ પાપના કારણે નરક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિરૂપ સંસાર અટવિમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે. હિંસક નરક-નિગોદ વગેરેમાં જન્મ મરણદિના અનન્તનત ઘેર અતિઘેર દુખ પ્રાપ્ત કરે છે. જેમ હિંસક પુરૂષ અનર્થોને ભાગીદાર થાય છે તેવી જ રીતે અસત્યવાદી મનુષ્ય પણ અનર્થભાગી થાય છે લેકમાં તેના વચનને કોઈ વિશ્વાસ કરતું નથી. અસત્ય ભાષણના કારણે અસત્યભાષીની જીભ કાપી લેવામાં Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ लू. ५७ सामान्यतः सर्वव्रतभावनानिरूपणम् ४१७ गर्हितं फलं लभते, नारकादितीव्रयासनादुःखं चाऽऽशुष्मिक फलं लभते । एव. मनृतभाषणजनितनुःखयुक्तेश्यो बद्धबैरो यो जिहाच्छे इनादिपूर्वोक्त दोषा. पेक्षयाऽपि यातनाविशेषान् अधिकान् धबन्धादीन् दु ख हे तून प्राप्नोति, तीना. शयो जन स्तीवस्थित्यनुमाइशेव कर्मोंपादत्ते अत्यचाऽशु मानीव नारकादियातना मासादयति, तस्माद्-अनु समावणस्येव विश्वविषमफलरिपाक यात्मनि माश्यन् 'तद्व्युपरमः श्रेधान्' इति रीत्या विचार्याऽनृतभाषणाद् पुपरतो भवति, यथा च-प्राणातिपाताऽपयमापण ऽनुष्ठायिनः प्रत्याययुक्ता भवन्ति, एवं-परद्रव्यइसी प्रकार के अन्य हित फल भी होते हैं । उस्ले परलोक में नरक आदि की तीन पातनाएं भो नी पडली है। जो लोग असत्य भाषण से उत्पन्न दुःखयुक्त दैरानुबंध खे हैं, वे जिहशछेदन आदि पूर्वोक्त दोषों की अपेक्षा भी अधिक धातना वध-बन्ध आदि दुःख के हेतुओं को प्राप्त करते है। जिसका आज्ञाध्य - अध्यबाय तीव्र होता है वह दीर्घ स्थिति और तीन अनुभाग वाले अशुल करी का बंध करता है और परलोक में नरक आदि की अशुभ एवं तीब्र यातना को प्राप्त करता है । अतएव असत्य भाषण का ऐसा विषय फलक्षिपाश होता है, ऐसी भावना करता हुभ्या 'इससे विरत हो जाना ही श्रेयस्कर है, इस प्रकार विचार करके अलस्य भाषण से निवृत्त हो जाता है। जैसे हिंसा और असत्य भाषण करने बाले दुःखों के पात्र होते આવે છે, કાન કાપી લેવામાં આવે છે, નાક કાપી લેવામાં આવે છેઆવી જ જાતના અન્ય ગહિંત ફળ પણ ભેગવવા પડે છે. તેને પરલેકમાં નરક આદિની તીવ્ર યાતનાઓ ભેગવવી પડે છે. જે લેકે અસત્ય ભાષણકી ઉત્પન્ન થનારા દુખયુકત વૈરાનુબંધવાળાઓ છે. તેઓ જિલ્ફ છેદન આદિ પૂર્વોક્ત દોષની અપેક્ષ એ પણ અધિક યાતના વધ બન્ધન આદિ દુખના હેતુઓને પ્રાપ્ત કરે છે જેમનો આશય–અદયવસાય તીવ્ર હોય છે તે દીર્ઘ સ્થિતિ અને તીવ્ર અનુ. ભાગવાળ અશુભ કર્મો જ ધે છે અને પરલોકમાં નરક આદિની અશુભ અને તીવ્ર યાતનાઓને પ્રાપ્ત કરે છે આથી અસત્ય-ભાષાનું આવું વિષમ ફળ વિપાક મળે છે, એવી ભાવના કરતે થકે, આનાથી વિરત થઈ જવું એમાં જ શ્રેય છે. આ પ્રમાણે ચિતવન કરીને અસત્ય ભાષણથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે જેવી રીતે હિંસા અને અસત્ય ભાષણ કરવાળાં દુખેને પ્રાપ્ત થાય त०५३ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %AAme तस्यायो हरण प्रसक्तमतिरपि स्तेनः सर्वगोड जसो भवति-अपहियमाणद्रव्यादिधनस्वामिन उद्वेगं समुत्पादयति, (तेन) इहलोकेऽन्वव्यापहरणजन्य ताडन-पीडनकशाधमि. धातनिगड शङ्खालादिबन्धनं कर-चरण-श्रोत्र नासिकौष्ठच्छेदन भेदन सर्वस्व हरणादिकं लमते, मेत्यच नारकादितीव्र यातनागति प्राप्नोति तस्मात्-'स्तेयाद. ज्युपरमः श्रेयान्न' इति भावयन् चौर्याद व्युपरतो भवति, यथा खलु-माणाति. पाताऽसत्यभाषणस्तेयाऽनुष्ठायिनः प्रचुरान् प्रत्यवायान् प्राप्नोति । एव-मब्रह्मसेचिनोऽपि, कामिनीविलाराविशेषविभ्रमोभ्रान्तस्वान्ताः विप्रकीर्णेन्द्रियवृत्तयः तुच्छन्त्रिपये प्रवर्तितेन्द्रियाः मनोज्ञेषु शब्द रूप-रस शन्धस्पर्शेषु रागाङ्गेषु अनुः है उसी प्रकार परद्रव्य का अपहरण करने वाला चोर भी दुःखों का भागी होता है और सब्य को उद्वेग पहुंचाता है-जिलका धन हरण करता है उस्ले दुःख पहुंचाता है। इसके फलस्वरूप उसे ताडन-पीडन, घावुको की मार, हथकडी-वेडी आदि का बन्धन, हाथ-पैर-काननाक और होठों का छेदन-दन तथा सर्वस्व हरण आदि भोगना पड़ता है। वह परलोक में नरक आदि की तीव्र वेदनाएं प्राप्त करता है। अतएव 'स्तेय से विरत हो जाना श्रेयस्कर है, ऐसी भावना करता हुआ चोरी से विस्त हो जाला है। जैसे शाणालिपात, असत्य आषण और चोरी करने वाले अनेक अनर्थों को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार अन्नमवयं का सेवन करने वाला भी। स्त्रियों के हाव-भाव विभ्रम-विलाल आदि से जिनका चित्त डांवाडोल रहता है, जिनकी इन्द्रियां चंचल होनी हैं और तुच्छ विषयों છે તેવી જ રીતે પારદ્રવ્યનું અપહરણ કરનારે ચેર પણ દુઃખને ભાગી થાય છે અને બધાને ઉદ્વેગ પહોંચાડે છે-જેનું ધન હરણ કરે છે તેને દુઃખ પહોંચાડે છે–આના ફળસ્વરૂપે તેને તાડન-પીડન, ચાબુકોને માર હાથકડીજંજીર વગેરેનું બન્ધન–હાથ-પગ-કાન-નાક અને હેઠોનું છેદન-ભેદન તથા સ્વસ્વ હરણ વગેરે જોગવવા પડે છે. તે પરલોકમાં નરક આદિની તીવ્ર વેદનાઓ પ્રાપ્ત કરે છે. આથી તેયથી વિરત થઈ જવું શ્રેયસ્કર છે, એવી ભાવના કરતે થ ચેરીથી વિરત થઈ જાય છે. જેવી રીતે પ્રાણાતિપાત, અસત્યભાષણ અને ચોરી કરનારા અનેક અનર્થોને પ્રાપ્ત થાય છે તેવી જ રીતે અબ્રહ્મચર્યનું સેવન કરનાર પણ સ્ત્રીઓના હાવ-ભાવ, વિભ્રમ વિલાસ આદિથી જેમનું ચિત્ત ડામાડોળ રહે છે, જેમની ઇન્દ્રિઓ ચંચલ હોય છે તેમજ હલકા પ્રકારના વિષયમાં રચેલી Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.७ टू. ५७ सामान्यत, सर्ववतभावनानिरूपणम् ४१९ रक्ताः सन्तो मदोन्मत्तगजेन्द्रा इत्र निरङ्कुशा इष्टानिष्ट प्रवृत्तिनिवृत्तिविचाररहिताः कुत्राऽपि न शर्मल मन्ते, मोहाभिभूताश्च कर्तव्याऽकर्तव्य विवेकरहितत्वात् सर्वमपि कर्म शोभनमेव मन्यमानाः कतुं प्रवर्तन्ते ग्रहाविष्टपुरुषात् परस्त्रीगमनप्रयुक्तांचेहलोके वैरानुवन्धलिङ्गच्छेइन वध बन्धन सर्वस्वापहरणादी अपायान् प्रतिलभन्ते, प्रेत्यच नारकादिगतिं प्राप्नुवन्ति, तस्मात्-'मैथुनतो व्युपरमः श्रेधान्' इति भावयन् ततो व्युपरतो भवति । एवं परिग्रहबानषि जन स्वस्करादीना माक्रमणीयो भवति,-यथा कश्चित् एक्षी मांसपेशीकरः श्येनादिपक्षिभिः आममांस में व्याप्त रहती हैं, जो मनोज्ञ शब्द, रूप, रल गंध और स्पर्श में अनु. रक्त होते हैं, जो मतवाले हाथी के समान निरंकुश होते हैं और इष्ट तथा अनिष्ट विषयों में प्रवृत्ति-निवृत्ति के विचार से रहित होते हैं, वे कहीं भी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं करते । मोह से अभिभूत होने के कारण कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक ले रहित हो जाते हैं और प्रत्येक कार्य को अच्छा ही समझ कर करने को तैयार रहते हैं मानों उन्हें भूत लग गया हो । परस्त्रीगलन के कारण हल लोक में दूसरों के साथ उनका वैर बंध जाता है । वे लिंग-छे हल, बध, बन्धन और सर्वस्वापहरण आदि अपायों को प्राप्त करते हैं । परलोक में उन्हें नरक आदि गतियां प्राप्त होती हैं। इस कारण 'लथुन रहे विरत होजाना श्रेयस्कर है, ऐसी भावना करता हुआ पुरुष उसले निवृत्त हो जाता है। इसी प्रकार परिग्रहवाल पुरुष पर तस्कर आदि आक्रमण करते हैं। जैसे मांस का टुकडा चोच में दबाने पाले पक्षी पर श्येन आदि दूसरे પચેલી રહે છે, જે મનેz શબ્દ, રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શમાં લીન રહે છે, જે મદમસ્ત હાથીની માફક નિરંકુશ હેય છે અને ઈષ્ટ તથા અનિષ્ટ વિષયોમાં પ્રવૃત્તિ-નિવૃત્તિના વિચારથી રહિત હોય છે, તેમાં કોઈ પણ સ્થળે સુખ–શાતિ પ્રાપ્ત કરતા નથી. મેહથી અભિભૂત હોવાના કારણે કર્તવ્ય-અકર્તવ્યના વિવેકથી રહિત થઈ જાય છે અને દરેક કાર્યને સારું જ સમજીને તે કરવા તત્પર રહે છે જાણે તેઓને ભૂત ન વળગ્યું હોય ! પરસ્ત્રીગમનના કારણે આ લોકમાં બીજાઓની સાથે તેમનું વેર બંધાઈ જાય છે તેઓ લિંગદન. વધ, બન્ધન અને સર્વસ્વાપહરણ આદિ મુશ્કેલીઓને વહોરે છે. પરલોકમાં તેમને નરક આદિ ગતિ પ્રાપ્ત થાય છે. આ કારણથી તૈથુનથી વિરત થઈ જવું શ્રેયસ્કર છે, એવી ભાવના કરતા થકે પુરૂષ તેનાથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે પરિગ્રહવાન પુરૂષ ઉપર ચાર વગેરે આક્રમણ કરે છે જેવી રીતે માંસને ટુકડે ચાંચમાં દબાવનાર પક્ષી પર બાજ આદિ બીજા Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० तत्त्वार्थ भक्षिमिरमिभवनीयो भवति । तथैव-परिग्रहीजनोऽपि तस्करादिभिरभिभूयतेतदुपार्जनरक्षणक्षयमयुक्तांश्च दुःस्वपरिश्रमशोकादिदोपान् प्रतिलभते, परिग्रहशीलस्य शुष्कन्धरग्नेरिव द्रव्यादिभिरतहिन अवति, लोभाभिभवाच्च कर्तव्याऽकर्तव्यविवेकराहित्यान्महद निप्टं प्राप्नोति, मेत्य च नारकादि तीव्रगति प्राप्नोति, 'लुब्धोऽयं जनाः' इति च सगवितो भवति, तस्मात्-'परिग्रहतो व्युपरतिः श्रेयसी' इत्यात्मनि भावयद् परिग्रहाद् व्युपरतो भवति । लोमरूपया तृष्णापिशाचिकया वीकृतचित्तो न कानपि प्रत्याशान् पाति, लोभपयस्तो जनः प.च्या मांस अक्षण करने वाले पक्षी हमला करते हैं, उसी प्रकार परिग्रहवान् पुरुप को तस्कर आदि सताते हैं। परिग्रही को धन आदि के उपार्जर में कष्ट उठाना पडता है, उपार्जित करने के पश्चात् उनकी रक्षा करने की चिन्ता शरनी पड़ती है और रक्षा करते-करते भी जब वह नष्ट हो जाता है तो शोकसन्ताप का अनुभाव करना पड़ता है। जैले सूखे ईधन ले अग्नि की तृप्ति नहीं होती उसी प्रकार तृष्णावान् पुरुष धन से कभी सन्तुष्ट नहीं होता। वह लोभ से घिरा रहने के कारण कर्त्तव्य-अकर्तव्य के विवेक से रहित हो जाना है और परिणामस्वरूप महान् अनिष्ट प्राप्त करता है । परलोक में उसे नरक आदि की तीव्र यातनाएं भोगनी पडती हैं। लोग उसे 'लोभी-कंजम-मक्खी चुप्त' आदि कह कर तिरस्कृत करते हैं । अतएच' परिग्रह से विरत हो जाना ही श्रेयस्कर हैं, ऐनी भावना करने वाला परिग्रह से विरत हो जाता है । जिल्ला चित्त लोमा तृष्णापिशाची के वशीभूत हो કાચા માંસનું ભક્ષણ ર ાર પક્ષી હુમલે કરે છે તેવી જ રીતે પરિગ્રહવાનું પુરૂષને ચેર વગેરે પજવે છે. પરિગ્રહીને ધન આદિના ઉપાર્જનમાં કષ્ટ સહેવા પડે છે, ઉપાજિત કર્યા બાદ તેનું રક્ષણ કરવાની ચિતા સવાર થાય છે અને રક્ષણ કરવા છતાં પણ જ્યારે તે નાશ પામે છે ત્યારે શેક–સન્તાપને અનુભવ કરે પડે છે. જેમ સુકા ઇંધણથી અગ્નિની તૃપ્તિ થતી નથી તેમ તૃષ્ણાવ – પુરૂષ ધનથી કદી પણ ધરાતો નથી. તે લેભથી ઘેરાયેલ રહેવાના કારણે કર્તવ્ય-અકર્તવ્યના વિવેકથી રહિત થઈ જાય છે અને પરિ. ણામ સ્વરૂપ મહાન અનિષ્ટ પ્રાપ્ત કરે છે. પરલેકમાં તેને નરક આદિની ती यातना, सन १२वी ५४ छ. सो। तने वाली- स-मायूस' વગેરે ઉપનામ લગાડીને તેને હડધૂત કરે છે. આથી “પરિગ્રહથી વિરત થઈ જવું જ શ્રેયસ્કર છે. એવી ભાવના ભાવનાર પરિગ્રહથી વિરત થઈ જાય છે. જેનું ચિત્ત લેભરૂપી તૃષ્ણ પિશાચીનીને વશીભૂત થઈ જાય છે તે Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ५७ सामान्यतः सर्वव्रतभावनानिरूपणम् ४२१ पितरमपि धनार्थ व्यापादयति मातरमपि हिनस्ति च सुतमपि इन्तुमुद्यतो भवति, भ्रात्रादीनपि द्रव्यार्थ जिघांसति, किंबहुना स्व प्राणप्रियां श्रेयसी मपि तदर्थं हन्ति एव मन्यानपि बह्वनर्थान् करोनि इति लोभाभिभू जनः किमपि कार्यमकार्य न परिगणयति, तस्मात् परिग्रहेऽनर्थान् वहून् भावयन् ततो निवृत्ति समासादयति, हिंसादिषु पञ्च दुःखमेव च भावयेत् । एवञ्च - हिंसादिपञ्चकं यथा मम दुःखजनकत्व अप्रियं भाति एवं सर्वेषामपि प्राणिनां हिंसादिकं वध बन्धनच्छेदनादि हेतुकमप्रियं भवति इत्यात्मानुभयेन सर्वेषां दुःखं हिंसादौ भावजाता है, वह किन्हीं भी अनर्थों को नहीं देख पाता । लोभ के चंगुल में फंसा मनुष्य धन के लिए पिता की भी एस्पा कर डालता है, मोतो की भी जान ले लेता है, पुत्र का घात करने को भी उद्यत हो जाता है, द्रव्य के लिए भाई भाई का भी खून कर डालना चाहता है, अधिक क्या कहा जाय, अपनी प्राणप्रिया पत्नी की भी हत्या कर डालता है 1 ऐसे अन्यान्य बहुत-से अनर्थ करता है । इस प्रकार लोभ से अभिभूत प्राणी कार्य- अकार्य का कुछ भी विवेक नहीं करता। जो परिग्रह के बहुत से दुष्परिणामों का विचार करता है । वह उससे निवृत्त हो जाता है । rss को चाहिए कि वह हिंसा आदि में दुःख की भावना करे । जैसे हिंसा आदि पांचों मुझे दुःख जनक होने के कारण अप्रिय हैं, उसी प्रकार वध, बन्धन, छेदन आदि के कारण हिंसा आदि सभी को अप्रिय है, इस प्रकार के आत्मानुभव से हिंसा आदि में सभी के કાઈ જ અનર્થાને જોઈ શકતા નથી. લેાભની પકડમાં આવેલ નુષ્ય ધન માટે સગા બાપની પણ હત્યા કરી બેસે છે, માતાને જીવ પણ લ લે છે, પુત્રની ઘાત કરવા માટે પણ તત્પર ઈજાય છે, દ્રવ્ય ક જે ભાઈનું ખૂન કરી નાખવા ઇચ્છે છે, વધારે શુ ગૃહી શકાય, પેાતાની પ્રાણવલ્લભાની પણ હત્યા કરી નાખે છે. આ જાતના અન્યાન્ય ઘણા બધા અનથ કરે છે. આ રીતે લેભથી અભિભૂત પ્રાણી કાર્ય-અકાયના કોઈ પણ વિવેક કરતા નથી, જે પરિગ્રહના ઘા બધાં દુષ્પરિણામેાને વિચાર કરે છે તે તેનાથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. સાધકે હિ'સા આદિમાં દુ:ખની જ ભાવના કરવી જોઈ એ. જેવી રીતે હિંસા આદિ પાંચે મને દુ.ખજનક હાવાના કારણે અપ્રિય છે. તેવી જ રીતે વધ, બન્ધન, ઇંદન આદિના કારણે હિ‘સા વગેરે બધાંને અપ્રિય છે. આ જાતના માત્માનુભવથી Rsિ'સા ક્રિમાં મધાના દુઃખની ભાવના કરતા થકા Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्र यन् घाणातिपातान विरति श्रेयसीति भावनया तस्माद् विरतो भवति । एवं यथा समाऽत्यभापगादि बहु महद्दुःखसुप नायते, एवं सर्वेषामपि प्राणिना मसत्य भाषणाभ्यासाने नाऽभ्याख्यानहेतुकं महदुःखमस्मिल्लोके भवति । परलोकेतु-असत्यभापणपरो यत्र जन्म मासादयति तत्र तत्र च सर्वत्र तथाविधैरेवाडसत्यभाषणाल्याख्यानरभियुज्यमानः सदा महद्दुःखमनुमवतीति भावयन् अनृत. भापणाद् विस्तो भवति । एवं-स्था तस्करादिभि ममेष्टद्रव्यापहरणेन दुःखं भवति-भूतपूर्वश्च तथा सर्व प्राणिनामपि द्रव्यापहारे दुःखं भवति भविष्यति चेत्यास्मानुभवेन भावयन् मदतादानतो विरतो भवति । एवं-मैथुनस्यापि रागद्वेषमूळदुःख की साधना करता हुआ पुरुष को 'प्राणातिपात से विरत हो जाना ही श्रेयस्कर है, हल भावना ले हिंसा आदि से निवृत्त हो जाता है। जैले असत्यभाषण ले मुझे महान् दुःख होता है, उसी प्रकार प्राणियों को असत्यमापण एवं मियादोषारोपण से इस लोक में घोर दुःख की शह होती है। असत्यभाषी जहां कहीं जन्म लेता है वहीं उस्ले असत्यभाषण-द्वारा मिथ्या आरोपों का शिकार होना पडता है और सदैव घोर दुःखों का पात्र बनना पडता है। ऐसी भावना फरने वाला पुरुष अल्लत्य भाषण से विरत हो जाता है। इली प्रकार जैले तस्कर आदि के द्वारा मेरे इष्ट द्रव्य का अपहरण करने ले मुझे दुःख होता है या पहले हुभा था, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी उनके द्रव्य के अपहरण ले दुःख होना है और होगा, इस प्रकार आत्मानुभव ले भावना करता हुआ अदनादान से विरत हो जाता है। પુરૂષ–“પ્રાણાતિપાતથી વિરત થઈ જવું જ શ્રેયસ્કર છે એવી ભાવના ભાવ હિંસા આદિથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. જેમ અસત્ય ભાષણથી મને મહાનું દુઃખ થાય છે, તેવી જ રીતે બધાં પ્રાણિઓ ને અસત્ય ભાષણ અને મિયાદેષારોપથી આ લોકમાં ઘેર દુઃખની પ્રાપ્તિ થાય છે અસત્યભાષી જ્યાં પણ જન્મ લે છે ત્યાં જ તેને અસત્ય ભાષણ દ્વ રા મિષા આપને શિકાર થવું પડે છે અને સદૈવ ઘેર દુઃખેના પાત્ર બનવું પડે છે. આવી ભાવના રાખનાર પુરૂષ અસત્યભાષણથી વિરત થઈ જાય છે. આવી જ રીતે તસ્કર વગેરે દ્વારા પ્રિય ધનનું અપહરણ થવાથી મને દુઃખ થાય છે અથવા તે અગાઉ થવું હતું તેવી જ રીતે અન્ય પ્રાણિઓને પણ તેમના દ્રવ્યના અપહરણથી દુઃખ થાય છે અને આ રીતે આત્માનુભવથી ભાવના કરતે થકે અદત્તાદાનથી વિરત થઈ જાય છે. Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.५७ सामान्यतः सर्ववतभावनानिरूपणम् ४२३ कत्वाद् हिंसादिवदेव दुःखजनकत्वेन लोकसमाजहितत्वेन च दुःखजनकत्वं भावयन् तस्माद् विरतो भवति । अश स्त्रीणामुपभोगे यतोऽधर पानादि संस्पर्शजनित सुखविशेषाऽनुभवएच लौकिकशास्त्रकारिभिः सडिण्डिम घुष्यते, संशब्द्यते, तदनुयायिभिश्व रामानुसारिसि बधैिरिव (गीयते) तत् निमिति तस्य दुःखात्मकस्वमितिचेत् ? अनोच्यते-यथा खन्य क्षयकुष्ठादयो ब्राधिविशेषाः भैषज्योपयोगेन, पथ्याऽऽसेवनेन चांऽशत सलुच्छियमाना अपि पुनः पुनः उद्भवन्ति, एवं-कामदेवव्याधयोऽपि न खल्ल भैथुनलेवनेन सर्वथा शान्ताः अभवन् न वा भवन्ति भविष्यन्ति च । तथा चोक्तम्___मैथुन भी राग-द्वेषमूलक है, हिंसा आदि के समान दुःख जनक है, लोक और समाज में गर्षित है, इस कारण दुःख जनक है, ऐसी भावना करने वाला उसले निवृत्ति हो जाता है। . शंका-स्त्रियों के उपयोण में, उनके अधरपान आदि संस्पर्श से उत्पन्न होने वाला विशेष प्रकार का सुखानुभव ही लौशिक शास्त्रकार डिडिमनाद के साथ उच्च स्वर से घोषित करते हैं और उनके अनु. यायी रागानुसारी वाद्यों के जैसे उसका ही गान करते हैं। ऐसी स्थिति में उसे दःखरूप कैसे कर सकते हैं ? __ समाधान-जैसे क्षय एवं कोढ आदि व्याधि । औषध के प्रयोग से और पथ्य के सेवन से आंशिकरूप से मिट जाती हैं किन्तु वारंवार प्रकट हो उठती हैं, इसी प्रकार काम-व्याधि भी मैथुन-सेवन से न कभी पूरी तरह शान्त हुई है, न होती है और न होगी ही। कहा भी है भैथुन ५ २१-द्वेषभू८४ छ, डिसा महिनी म मन छ, લેક અને સમાજમાં તિરસ્કૃત છે. આ કારણે દુઃખજનક છે એવી ભાવના કરનાર તેનાથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. શંકા–સ્ત્રીઓના ઉપભોગમાં, તેમના અધરપાન આદિ સંસ્પર્શથી ઉત્પન થસે વિશેષ પ્રકારનો સુખાનુભવ જ લૌકિક શાસ્ત્રકાર ડિડિમનાદની સાથે ઉચ્ચસ્વરથી ષણા કરે છે અને તેમના શિષ્ય રામાનુસારી વાવોની જેમ તેમનું જ ગાન કરે છે. આવી સ્થિતિમાં તેને દુઃખરૂપ કેવી રીતે કહી શકાય? સમાધાન–જેવી રીતે ક્ષય અને કોઢ આદિ વ્ય ધિઓ ઔષધના પ્રયોગથી અને પરહેજના સેવનથી આંશિક રૂપથી મટી જાય છે ૫ ના વારંવાર ઉથલા મારે છે, એવી જ રીતે કામ-વ્યાધિ પણ મિથુન સેવનથી ક્યારેય પ પૂર્ણતયા શાન્ત થયે નથી, અને ક્યારે પણ થશે નહીં કહ્યું પણ છે- - Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वायसरे न जातु काम कालानाप्नुपयोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवढंच भूयो भूयो विवर्धते ॥१॥ इति, तस्मात्-कर्मणां क्षयोपशमादयः क्षेत्रकालद्रव्य भावापेक्षिणो नाऽन्यन्तिकं सुखमु राजनयितुं सपर्या भवन्ति, केवलं तेषां किञ्चिकालार्थ दुःखप्रतिबन्धमात्र कारितत्वात् , तस्मात्-मूना स्तमाशा विशेष वस्तुतो दुःखमपि सुखमभिमन्यन्ते। यथा-फण्डूयनं (पात्रखर्जनम्) जुर्मान् जनो दुःखमेव तदानीं सुखमभिमन्यतेमोहात्। तथा-मैथुनमुपसेवमानोऽपि मोक्षप्रतिवन्धकीभूताऽनन्ताऽनन्तसंतारभ्रमणादि दुःखमेव (आपातरामणीयकम् ) स्पर्श सुम्बन भिमन्यते, तस्मात्-मैथुनेऽपि दुःख भावनाभादितचेतमो भैथुनाद्विरति भवति । एवम्-धनादिपु ममस्वरूप ___कनों के उप मोगले कार कदापि शान्त नहीं होता। यही नहीं, वरन् जैले घृन डालने से अग्नि अधिक प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार काम रोशन हे काम की अभिलाषा अधिकाधिक बढती ही जाती है। ___'कर्म के क्षयोपशम आदि क्षेत्र, काल, द्रव्य और भाव की अपेक्षा रखते हैं, उनसे आत्यन्तिक रख की उत्पत्ति नहीं हो सकती । वास्तव में उनसे थोडे लमय के लिए दुःख की रुकावट मात्र ही होती है। अतएव सृह जन्न उस दु ख मलिवन्ध अधस्था को सुख मान लेते हैं। जैसे खाज खुजलाने वाला पुरुष उस समय दु:ख को ही सुख समझना है, उसी प्रकार मैथुन का सेवन करने वाला पुरुष मोक्ष के विरोधी एवं अनन्तानन्त संला भ्रमण के दुःख को जो आपातरमणीय है-शेवल परी दृष्टि से ही समय प्रतीत होता है, स्पर्शसुख કામોને ઉપભોગથી કામ કદાપિ શાન્ત થ નથી એટલું જ નહીં, પરંતુ જેમ ઘી હોમવાથી અગ્નિ અધિક પ્રજ્વલિત થાય છે તેવી જ રીતે કામસેવનથી, કામની અભિલાષા અધિક ધિક વધતી જાય છે. કર્મના ક્ષપશમ આદિ ક્ષેત્ર, કાળ, દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષા રાખે છે, તેનાથી આત્યંતિક સુખ ની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી. વાસ્તવમાં તેમનાથી ઘેડા સમય માટે દુઃખનું રોકાણ માત્ર થાય છે આથી મૂઢ લે તે દુઃખ પ્રતિબન્ધ અ૫ અવસ્થાને જ સુખ માની બેસે છે જેમ ખરજવાને ખળનાર પુરૂષ તે સમયે દુખને જ સુખ સમજે છે તેવી જ રીતે તૈથુનનું સેવન કરનાર પુરૂવ મોક્ષના વિધી અને અનન્તનત સંસ રભ્રમશુના દુઃખને, જે આપાતરમgીવ છે, માત્ર ઉપલકીયા દષ્ટિથી જ રમ્ય ભાસે છે, સ્પર્શ સુખ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ .५७ सामान्यतः सर्ववतभावनानिरूपणम् ४१५ परिग्रहवान् जनोऽपाप्मान-नष्टेषु धनादिवस्तुषु क्रमशोऽभिलाषा-रक्षणशोकोद्भवं दुःखमेव सर्वथा प्रायोति, तस्माद् अपरानेषु वस्त्रादिवस्तुषु प्राप्त्यभिलाषां कुर्वन् तदनासादयन् दुःखमे गाऽनुमति, सामेषु च तेषु राज-तस्कराऽनलदायादमूषिकादिभ्यो रक्षणे सतत शुद्विग्नः सन दु खामे प्रासादयति, विनष्टेषु च तेषु परिग्रहेषु तद्वियोगजनितोऽसहा स्मृत्यनुषगलक्षणः शोकानलः सन्तापयति. नितराम् , तस्मात्-तेषु परिग्रहेषु दु खमेव भावयतो जनस्व परिग्रह द् विरमो समझता है । इस कारण जो मैथुन में दुःख रूपत्ता की भावना करता है वह मैथुन से विरत हो जाता है। इसी प्रकार धनादि में लमत्व रखने वाला परिग्रही जन धन आदि की अप्राप्ति में उसकी अभिलाषा जनित दुःख का अनुभव करता है, उसके प्राप्त होने पर उसकी रक्षा का दुःख उठाना है और रक्षा करते-करते भी जब उसका विनाश हो जाता है तो वियोग जन्य शोक का अनुभव करता है। जन धनादि प्राप्त नहीं होते और उनको प्राप्त करने की अभिलापा होती है तो दुःख का अनुभव होता है। जय उनकी प्राप्ति हो जाती है सब्द राजा, चोर, अग्नि, मूषिक और भागीदारों आदि से रक्षा करने में उद्विग्न होकर दुःख का ही अनुभव करता है। और जब वह धन आदि नष्ट हो जाता है तो उसके वियोग की असह्य शोकाग्नि उसे सन्तप्त करती है। अतएच परिग्रह में दुःख ही है, ऐसी भावना करने वाला पुरुष परिग्रह से उपरत होजाता है। સમજે છે. આ કારણે જે થુનમાં દુઃખરૂપતાની ભાવના કરે છે તે મૈથુનથી વિરત થઈ જાય છે. એવી જ રીતે ધનાદિમાં મમત્વ રાખનાર પરિગ્રહીજન ધન વગેરેની અપ્રાપ્તિમાં તેની અભિલાષાનું દુઃખ અનુભવે છે, તેની પ્રાપ્તિ થવાથી તેના રક્ષણનું દુખ ભોગવે છે અને રક્ષણ કરવા છતાં પણ જ્યારે તેને વિનાશ થઈ જાય છે ત્યારે વિચગજન્ય શાકનો અનુભવ કરે છે. જ્યારે ધન આદિ પ્રાપ્ત થતા નથી અને તેમને મેળવવાની અભિલાષા થ ય છે ત્યારે દરખરો અનુભવ થાય છે. જ્યારે તેમની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે ત્યારે રાજા, ચેર, અગ્નિ ઉંદર અને ભાગીદારો વગેરેથી તેનું રક્ષણ કરવામાં “ઉદ્વિગ્ન થઈ દુખ જ અનુભવ કરે અને જ્યારે તે ધન આદિ નષ્ટ થઈ જાય છે ત્યારે તેના વિયેગનો અસહ્ય શેકાન તેને પ્રજવાળે છે આથી પરિગ્રહમાં દખ જ છે. એવી ભાવના રાખનાર પુરૂષ પરિગ્રહથી મુક્ત થઈ જાય છે, त० ५४ में दुःख असह्य शोकाग्नि आदि नष्ट हो जा Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ भवति, एवं-रीत्या माणातिपाताऽनृतभाषण-स्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेषु दुःखमेव भावयतो व्रतिनः पञ्चवतेषु स्थिरसालक्षण दृढता भरतीति भावः। उक्तञ्च-स्थानाङ्गे ४ ध्याने २ उद्देशके २८३-सूत्रे-संवेगिणी कहा चउव्विहा पण्णता, तं जहा-इहलोगसंवेषिणी, परलोमलंगिणी, आयसरीर संवेगिणी परलरीरसंवेगिणी। जिन्वेशणी हा चविहा पण्णत्ता, तं जहा-रहलोगे दुधिषणा करमा हालोगे दुहफलविघागसंजुत्ता भवंति १ इहलोगे दुच्चिन्या क्षम्मापरलोगे दुहपलबिधामजुत्ता भवंतिर परलोगे दुचिण्णा कम्मा इहलोगे दुहफलविवागजुत्ता भवति३ परलोगे दुच्चिण्णा कम्मा परलोगे दुरविवागफललंजुन्ता भत्ति इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे हफलक्षिमामलजुत्ता अति इहलोगे सुचिण्णा कम्मा परलोगे सुहफलक्षिधाण संजुत्ता अवलि २ एवं च नंग संगिनी कथा चतुविधा मज्ञप्ता तद्यथा-इहलोगसंवेगिनी, परलोकसंवे. मिनी, जामशरीरसंवेगिनी, परशरीरसंवेगिनी, निर्वेदिनी कथा चतुविधा प्रज्ञप्ता, तधथा-इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि-इछलोके दुःखफलविषाकसंयुक्तानि भवन्ति इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके दु.खफलविपाससंयुक्तानि भवन्ति २ ___ इस प्रकार प्राणालिपान, मृषाभाषण, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह में जो दुःख की ही भाधना करता है वह व्रतो पांचों व्रतों में स्थिर होता है। स्थानीगरब के चौथे स्थान के द्वितीय उद्देशक में कहा है___'संवेगिनी कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा-(१) इह लोक संवेगिनी (२) परलोकसंवेगिनी (३) स्वशरीरसंवेगिनी और (४) परशरीरसंवेगिनी। इसी प्रकार निदनी कथा भी चार प्रकार की कही गई है, यथा-(१) इस लोक में किये गये खोटे कर्म इसी लोक में दुःख रूप फल विपाक को उत्पन्न करते हैं (२) इस लोक में किये गये खोटे कर्म આવી રીતે પ્રાણાતિપાત, મૃષાભાષણ, તેય, અબ્રહ્મચર્ય અને પરિગ્રહમાં, જે દુઃખની જ ભાવના કરે છે તે વ્રતી પાંચે વ્રતોમાં સ્થિર થાય છે. સ્થાનાંગસૂત્રના ચોથા સ્થાનના દ્વિતીય ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે 'सवहिनी ४था या२ ४२नी ४ामा मावी छ. २वी है-(१) - दोसहिनी (२) परससवनी (3) शरीरसवाहिनी मन (४) ५२. શરીરસંવેદિની એવી જ રીતે નિર્વેદિની કથા પણ ચાર પ્રકારની કહેવામાં આવી છે જેવી કે-(૧) આ લેકમાં કરવામાં આવેલા ખોટા ક આ જ લોકમાં દુઃખરૂપ ફળવિપાકને ઉત્પન કરે છે. (૨) આ લેકમાં કરેલા બેટાં Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ शु. ५७ सामान्यतः सर्वव्रतक्षावनानिरूपणम् ४२७ परलोके दुश्वीर्गानि कर्माणि इहलोके दुःखफलविपाक संयुक्तानि भवन्ति ३ परलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके दुःख फलविषा संयुक्तानि भवन्ति ४ इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि इहलो के सुख फत्रिपाकसंयुक्तानि भवन्ति १ इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि परलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि २ एवं चतुर्भङ्गः। तथा चपरलोके सुचीर्णानि कर्माणि इहलोके सुखफळविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ३ पर लोके सुचीर्णानि कर्माणि परलोके सुख फलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ४ इत्येवं चत्वारो भङ्गाः लचोणकर्मफलविषाकानां वोध्याः । संवेद्यते-संवेग्यते संसाराऽ. सारतापदर्शनेन मोक्षामिलाप उताधतेऽनयेति संवेदिनी-संवेगिनी, तत्र-या कथा संप्तारस्यासारतां प्रदय शव्यजीवेषु मोक्षाभिलाषां जनयति सा-संवेगिनी परलोक में दुःख उत्पन्न करते हैं (३) परलोक किये गये खोटे कर्म इस लोक में दुःख उत्पन्न करते हैं और (४) परलोक किये गये खोटे कर्म परलोक में दुःख उत्पन्न करते हैं। एवं (१) इस लोक में किये गये सुकन इसी लोक में सुख रूप फल प्रदान करते हैं (२) इस लोक में किये गये सुकृत परलोक में सुखरूप विषाक उत्पन्न करते हैं (३) परलोक में किये गये सुकन इस लोक में सुख उत्पन्न करते हैं और (४) परलोक में किये गये सुकमा परलोक सुख उत्पन्न करते हैं। __जो कथा अर्थात् धर्मदेशना संसार की अल्लारता प्रदर्शित करके मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न करती है वह संवेगिनी या संवेदिनी कथा कहलाती है। इस प्रकार जो कथा संसार की असारता प्रदर्शित करके भन्यजीवों में मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न करती है, उस्ले संवेगिनी કર્મો પરલેકમાં દુઃખ ઉત્પન્ન કરે છે. (૩) પરલેકમાં કરવામાં આવેલા ખોટાં કર્મો આ લેકમાં દુખ ઉત્પન્ન કરે છે અને (૪) પરલોકમાં કરવામાં આવેલા ખોટા કર્મો રિલેકમાં દુઃખ ઉત્પન કરે છે અને (૧) આ લેકમાં. કરેલા સુકૃત્ય આ લેકમાં સુખરૂપ ફળ પ્રદાન કરે છે. (૨) આ લોકમાં કરેલા સુકૃત્યે પરલેકમાં સુખરૂપ વિપાક ઉત્પન્ન કરે છે. (૩) પરલોકમાં કરવામાં આવેલા સુકૃત્યો આ લોકમાં સુખ ઉત્પન્ન કરે છે અને (૪) પરલેકમાં કરવામાં આવેલા સુકૃત્યે પરલોકમાં સુખ ઉત્પન્ન કરે છે. જે કથા અર્થાત્ ધર્મદેશના સંસારની અસારતા પ્રદર્શિત કરીને મોક્ષની અભિલાષા ઉત્પન્ન કરે છે તે સંવેદિની કથા કહેવાય છે. એ રીતે જે કથા સંસારની અસારતા પ્રદર્શિત કરીને ભવ્યજીમાં મોક્ષની અભિલાષા ઉત્પન્ન કરે છે તેને સંવેદિની કથા સમજવી જોઈ એ જેવી રીતે Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ तत्त्वार्थस्त्र वोध्या, यया-सल्लीकुवारी स्वस्थामनुरक्तान् पपि भूमिपालान् विज्ञाय तेभ्यः संसारासारता प्रदर्य विनीय मोक्षामिलापं जनयामास । तथा चेक्तम् यस्याः श्रःण पात्रेण मुक्ति वाञ्छा प्रजायते । संवेदिनी या मल्ली पड् नृपान् प्रत्यबोधयन् ॥१॥ निवेद्य ते विषयभोगेभ्यो विरज्यते श्रोताऽनयेति निर्वेदिनी। तथाचोक्तम् यदाकर्णनमात्रेण वैराग्यमुपजायते । निर्वेदिनी यथा शालिभद्रो वीरेण बोधितः ॥१॥ यस्याः कथायाः श्रवणमात्रेणैव वैराग्यमुपजायते, सा निर्वदिनी कया धर्मकथा मोच्यते, यथा-पगवान् महावीरः शालिभद्र प्रतियोधितवान् इति ॥५७|| मूलम्-सत्सभूयगुणागिकिलिस्समाणा विणएसु मित्तिप्पमोय कारुणामज्झत्थाइं ॥५८॥ कथा समझना चाहिए, जैले कुमारी मल्ली ने छह राजाओं को अपने ऊपर अनुरक्त जान कर, उन्हें संसार की अप्तारता दिखलाकर मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न की थी। कहा भी है जिस कथा के सुनने मात्र से मुक्ति की अभिलाषा उत्पन्न होती है, वह संवेदिनी कथा कहलाती है, जैसे मलली कुमारी ने छह राजाओं को प्रतिबोध दिया ॥१॥ जिस कथा के द्वारा श्रोता विषयभोगों से विरक्त होता है वह 'निवें दिनी कथा करलाती है। कहा भी है 'जिस इथा के श्रवण मात्र से वैराग्य की उत्पत्ति होती है, वह निदिनी कथा कहलाती है, जैसे भगवान् महावीर ने शालिभद्र को प्रतियोष दिया ।।५७॥ કુમારી મવીએ છ રાજા ને પોતાની ઉપર અનુરક્ત જાણીને, તેમને સંસારની અસારતા બતાવીને મેક્ષની અભિલાષા ઉત્પન કરી હતી કહ્યું પણ છે જે કથાને સાંભળવા માત્રથી મોક્ષની અભિલાષા ઉત્પન્ન થાય છે, તે સંવેદિની કથા કહેવાય છે, જેવી રીતે મલલીકુમારીએ ૬ (છ) રાજાઓને પ્રતિબંધ આપ્યું. ૧ જે કથા દ્વારા શ્રોતા વિષયભોગોથી વિરકત થાય છે તે નિર્વેદિની કથા કહેવાય છે કહ્યું પણ છે– જે કથાના શ્રવણમાત્રથી વૈરાગ્યની ઉત્પત્તિ થાય છે, તે નિવેદિની કથા કહેવાય છે જેવી રીતે ભગવાન મહાવીરે શાલિભદ્રને ઉપદેશ આપે, પા Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ५८ सर्व गणिषु मैत्रीभावनानिरूपण पू ४९९ छाया - सर्वभूतगुणाधिक क्लिश्यमानाऽनियेषु मैत्रीमनोद कारुण्य माध्य स्थानि ॥ ५८ ॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्व सूत्रे हिंसादि निवृत्तिलक्षण पञ्चवत साधारणतया प्राणातिपातादिषु, इहामुत्र घोरदुःखभावना च प्ररूपिता, सम्प्रति-तद्वास्यैव दार्थ सर्व सच्चादिषु सैन्यादि भानामरूपयितुमाह-'०' इत्यादि । सर्वभूत गुणाधिक क्लिश्यमानाऽ विनयेषु मैत्रीप्रमोदकारुण्य माध्यस्थ्यानि इति । तत्र - सर्वभूतेषु सर्वप्राणिषु मैत्रीं भावयेत्, गुगाधिकेषु स्वाऽपेक्षयाऽधिकगुणवत्सु प्रमोदं - हर्षातिशयं भावयेत्, क्लिश्यमानेषु क्लेशमनुभवत्सु च कारुण्यं - दया. 'सव्वगुणाहिग' इत्यादि । सूत्रार्थ - - सर्व प्राणियों पर मैत्री, अधिक गुणवानों पर प्रमोद, क्लेश पाते हुओं पर करुणा और अविनीतों पर मध्यस्थ भाव धारण करना चाहिए ||१८|| तत्वार्थदीपिका - पूर्व सूत्र में हिंसाविरमण आदि पांचों व्रतों की साधारण भावना अर्थात् हिंसा आदि में इस लोक में और परलोक में घोर दुःख का विचार करना ऐसी भावना का प्ररूपण किया गया, अब उसी व्रत की दृढता के लिए मेत्री आदि भावनाओं का प्ररूपण करते हैं --- सर्वभूत, गुणाधिक, विमान और अविनीत पर अनुक्रम से मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए । अर्थात् समस्त प्राणियों पर मैत्री भावना भाये, अपने से अधिक गुणवानों पर 'सव्वभूयगुणाहिग' त्यिाहि સૂત્રા-સર્વ પ્રાણુિએ પ્રતિ મૈત્રી, અધિક ગુણવાના પર પ્રમેાદ, કલેશ પામન રાએ પર કરૂણા અને અવિનીને પર મધ્યસ્થ ભાવ ધારણ કરવા જોઇએ ૫૫૮ાા તત્ત્વાર્થદી પકા—પૂર્વસૂત્રમાં ‘હિંસ વિરમણુ આદિ પાચે' વ્રતાની સાધારણુ ભાવના અર્થાત્ હિંસા આદિમાં આ લેખમાં અને પલેાકમાં ઘેર દુઃખના વિચાર કરવા-એવી ભાવનાનુ' પ્રરૂપણુ રળમાં આવ્યું. હવે તે જ વ્રતની દૃઢતા માટે મૈત્રી આદિ ચાર ભાવનાઓનુ` વિવેચન કરીએ છીએ સભૂત, ગુણાધિક, કિલશ્યમાન અને અવિનીત પર અનુક્રમથી મૈત્રી, પ્રમેાદ, કારૂણ્ય અને માધ્યસ્થ ભાવ રાખવા જોઈએ અર્થાત્ સમસ્ત પ્રાણિ પર મૈત્રી ભાવના ભાવે, પેતાના કરતાં અધિક ચુવાનેા પર પ્રમેાદ ભાવના Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्र दाक्षिण्यं भावयेत, अविनयेषु-अधिनी ते पु शठेषु च माध्यस्थ्यम् औदासीन्यम् उपेक्षाति भावयेत, एवं विध मैयादि भावद्भिः सर्वैः सह वैरादिकं विनष्टं भवति इति भावः तथाचोक्तम् सत्त्वे पु मैत्री, गुणिपु प्रमोद-क्लिप्टेपु-जीवेषु दयापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ-सदा ममाऽऽत्माविदधातु धीरः (देव) ।। इति ।।५८॥ तत्वार्थ नियुक्तिः- पूर्व प्राणातिपातादि विरविलक्षण पञ्चव्रतानां स्थिरतार्थ सर्वसाधारणतया हिंसादिषु ऐहिक-पारलौकिकाऽपायाऽद्य दर्शनरूपा भावना दुःखभावना च प्ररूपिता, सम्पति-तेषामेव व्रतानां परम्परया स्थिरता सम्पा. प्रमोद भावना भावे अर्थात् उन्हें देख कर अतिशय हर्ष का अनुभव करे, जो जीव क्लेश का अनुभव कर रहे हैं उनके प्रति करुणा भाव का अनुभव करे और जो अविनीत अर्थात् शठ हैं, उनके प्रति मध्यस्थता, उदासीनता या उपेक्षा वृत्ति धारण करे । इस प्रकार मैत्रीभाव आदि धारण करने से किसी के प्रति बैर-विरोध नहीं रहता। कहा भी है 'प्रभो ! मेरी आत्मा प्राणी मात्र के प्रति मैत्रीभाव धारण करे, गुणी जनों के प्रति प्रमोद भाव धारण करे, क्लेश भोगने वालों पर करुणा भाव धारण करे और विपरीत आचरण करने वालों पर मध्यस्थता का भाव धारण करे ॥५॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले प्राणातिपातविरमण आदि पांच व्रतों की स्थिरता के लिए हिस्सा आदि में अपाय एवं अद्यदर्शन भावना और दुख भावना का निरूपण किया गया, अब उन्हीं व्रनों की परम्परा से ભાવે અર્થાત્ તેમને જોઈને અતિશય હર્ષ અનુભવે, જે જીવ કલેશને અનુભવ કરી રહ્યાં છે તેમના પ્રતિ કરૂણાભાવને અનુભવ કરે અને જેઓ અવિનિત અર્થાત્ શઠ છે તેમના તરફ મધ્યસ્થતા ઉદાસીનતા અથવા ઉપેક્ષાવૃત્તિ ધારણ કરે આ રીતે મૈત્રીભાવ આદિ ધારણ કરવાથી કોઈની પ્રત્યે વેર– વિરેાધ રહેતું નથી કહ્યું પણ છે પ્ર ! મારે આત્મા પ્રાણીમાત્ર પ્રતિ મૈત્રીભાવ ધારણ કરે, ગુણિજનની તરફ પ્રમેદભાવ ધારણ કરે, કલેશ ભગવનારા પર કરૂણાભાવ ધારણ કરે ને વિપરીત આચરણ કરનારાઓ પર મધ્યસ્થતાને ભાવ ધારણ કરે. ૫૮ તત્ત્વાર્થનિયંતિ–આની અગાઉ પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ વતની રિથરતા માટે હિંસા આદિમાં અપાય અને અઘદર્શનભાવના અને Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टोका अ. ७ ४, ५८ सर्वप्राणिषु मैत्रीभावनानिरूपणम् ४३१ दनार्थं सर्वभूतादिषु मैशादिभावना पतिपादयितुमाहलमभूय' इत्यादि । सर्वभूतगुणाधिक क्लिश्यमानाऽविनयेषु मैत्रीपमोदकालण्यमाध्यस्थानि 'इति, तम-यथाक्रमं सर्वसत्त्वेषु मैत्रीम् १ गुणाधिकेषु प्रमोदम् २ क्लिश्यमानेषु कारुण्यम् ३ अविनयेषु माधवस्थ्यञ्च भावयेतेति बोध्यम् । तत्र मेशति-हिनयति इति मित्रम् तस्य साचो मैत्री परहितचिन्तारूषा, सकलमाणिविषय आत्मनः स्नेह परिणामः, प्रमादाद् अन्यथा तापकारेष्वपि प्राणिषु मित्रता हृदये निधाय 'अहमेतस्य मित्रमस्मि एतेच मम मित्राणि सन्ति इति 'नाऽहं पिवद्रोहित्वप्रतिपत्स्ये' मित्रद्रोहित्वस्य दुर्जनाश्रयत्वात् । तस्मात्-'सर्चमाणिनोऽहं क्षमे' इति सर्व स्थिरता के लिए सर्वभूत आदि मैत्री आदि मान्यनामों का प्रति. पादन करते हैं। सर्वभूत, गुणाधिक क्लिश्यमान और अधिनीतों के प्रति मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थमात्र धारण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव धारण करे अपने से अधिक गुणवान् जनों के प्रति प्रमोदभार धारण करे, जो क्लेश के पात्र बने हुए हैं उनके प्रति करुणाभाव धारण करे और अविनीत जनों पर मध्यस्थभाव धारण करे। पर के हित का चिन्तन करना मैत्री है अर्थात् समस्त जीवों के प्रति अपना स्नेहभाव होना । अगर कोई जीव प्रमाद के कारण किसी प्रकार का अपकार करें तो भी उनके ऊपर मैत्री भाव धारण करके 'मैं इनका मित्र है और ये मेरे मित्र हैं. मैं मित्रद्रोह नहीं करूंगा દુખભાવનાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે તે જ વ્રતની પરંપરાથી સ્થિરતા માટે સર્વભૂત આદિમાં મૈત્રી વગેરે ભાવનાઓનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ સર્વભૂત, ગુણાધિક, કિલશ્યમાન અને અવિના તેના પ્રતિ મિત્રી, પ્રમોદ. કારૂણ્ય અને માધ્યભાવ ધારણ કરવા જોઈએ તાત્પર્ય એ છે કે સમસ્ત પ્રાણિઓ તરફ મૈત્રીભાવ ધારણ કરે, પોતાના ક તાં અધિક ગુણવાન જન તરફ પ્રમોદભાવ ધારણ કરે, જેઓ કલેશના પાત્ર બનેલા છે તેમના પ્રત્યે કરૂણભાવ ધારણ કરે અને અવિનીત જનો પ્રત્યે મધ્યભાવ ધારણ કરે. બીજાના હિતનું ચિન્તન કરવું મંત્રી છે અર્થાત્ સમસ્ત જે તરફ પિતાનો નેહભાવ હૈ અગર કઈ પ્રમાદના કારણે કોઈ જાતને અવાર કરે તે પણ તેમના પર મત્રીભાવ ધ રણ કરીને હું એમનો મિત્ર છે અને આ મારે મિત્ર છે, હું મિત્રદ્રોહ કરીશ નહીં કારણ કે મિત્રને દોડ કરો Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ तखार्थ सूत्रे सवान् प्रतिभावयेत् 'सध्यग्मनोवचनकाय: सर्वसत्वानहं सहे' इत्येवं भावनया मित्रता यथार्थतयाऽऽसायते। ये च मयापकृताः पाणिन स्तानपि मित्रत्वत्वात् क्षमेऽहम् , तथा च सर्वप्राणिषु मम मैत्री वर्तते न केनापि मम वैरमिति, स चैत्र वैरानुबन्धः अमृतप्रत्यवायशाखाशवसंबाधो मात्सर्यविषयोदयो भूयोभूयो विच्छिन्नबीजाङ्कुर मसबसमर्थोऽपि तीक्ष्ण प्रज्ञाविवेकाऽसिधाराच्छेच स्तिरस्कृत निखिलशेषतुषि मैत्री भावनया निरक्शेष समूलघातं पतिहन्तव्यः इति बोध्यम् । एव-सम्यक्त्वादि गुणाधिकेषु मलिपु रमोदं-हर्षातिशयं भावयेत् । क्यों किमिन का द्रोह करना दुर्जनता का लक्षण है अतएव में सब प्राणियों को क्षमा करता हूं हल प्रकार की समस्त जीवों के प्रति भावना करे । 'मैं सम्यक् मन वचन काय से समस्त प्राणियों को सहन करता हूं, ऐसी भावना से वास्तविक मित्रता की प्राप्ति होती है। और जिन माणियों का मैंने अपकार किया है, मित्र होने के कारण मैं उनसे खमाता हूं। मेरा समस्त प्राणियों पर मैत्रीभाव है, किसी के माथ वैरभाव नहीं है। यह वैरानुबंध जब बढता है तो इसमें से सैकडों अनों की शाखा-प्रशाखाएं फूटती हैं, मात्सर्य आदि दोषों की उत्पत्ति होती है, इसके अंकुर तीक्ष्ण प्रज्ञा एवं विवेक रूपी तलवार की धार से ही काटे जा सकते हैं और किसी कारण से उसका उच्छेद नहीं हो सकता । इसका समूल विनाश मैत्री भावना के द्वारा ही करना चाहिए। __ इमी प्रकार जो लम्यक्त्व आदि गुणों में अधिक हैं, उनके प्रति દુર્જનતાનું લક્ષણ છે. આથી હું બધાં પ્રાણિઓને ક્ષમા આપું છું” આ પ્રકારની સમસ્ત જી તરફ ભાવના રાખે “હું રામ્યક્ મન વચન કાયાથી સમસ્ત પ્રાણિઓને સહન કરું છું એવી ભાવનાથી વાસ્તવિક મિત્રત ની પ્રાપ્તિ થાય છે અને જે પ્રાણિઓનો મેં અપકાર કર્યો છે, મિત્રના નાતે હું તેમનાથી ક્ષમાપના મેળવું છું મારે સમસ્ત પ્રાણિઓ પર મૈત્રીભાવ છે, કેઈની સાથે વેરભાવ નથી. આ વેરાનુબંધ જ્યારે વધે છે ત્યારે એમાંથી સેંકડે અનર્થોની શાખા-પ્રશાખાઓ ફૂટી નીકળે છે, માત્સર્ય આદિ દોની ઉત્પત્તિ થાય છે, આના અંકુર તીણ પ્રજ્ઞા અને વિવેક રૂપી તરવારની ધ.૨ વડે જ કાપી શકાય છે બીજા કેઈ કારણે તેનું ઉરદન થઈ શકતું નથી. આને જડમૂળથી વિનાશ મૈત્રીભાવના દ્વારા જ કરવું જોઈએ એવી જ રીતે જેઓ સમ્યકત્વ આદિ ગુણેમાં અધિક છે તેમના પ્રત્યે Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % an ~ . - - - दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ५८ सर्वप्राणिषु मैत्रीभावनानिरूपणम् ४१५ सत्र प्रमोद स्तावद्-वन्दनस्तवनमशंसनबैशावृत्यकरणादिभिः सम्यक्त्वज्ञान चारित्रतपोऽधिकेषु मुनिवरेषु सर, पर, तदुभय कनसम्मानजन्यः सर्वेन्द्रियामि ' व्यक्त आनन्दातिरेक उच्यते । तत्र सम्एकावं तावत्-वधार्थश्रद्धानस्वरूपं बोध्यम् , ज्ञानश्वे-टाऽनिष्टपत्तिनिवृत्तिविषयकं बोधरूपं, चारित्रञ्च-मूलोतर. गुणभेदम् , तपश्च-बाह्यासारभेदेन द्विविधमवसे यम्, एतैचोपयुक्तलक्षणैः सभ्यस्त्वादिभिः श्रावकापेक्षया विशिष्टेषु श्रमणेषु स्वेन परेण तदुमाल्या वा कृत. वन्दनादिना मुनिजनगुणोत्कीर्तनसमये-एकतान श्रवणसमुत्फुल्लनयनाविभूतप्रमोद अर्थात् हर्ष के अतिरेश को धारण करे अर्थात गुणी जनों को देख कर अत्यन्त प्रसन्न हो । जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र अथवा तप में अधिक-अपने से ऊंचे हैं उनका यथोचित बन्दन, रूपन, प्रशंसा, वैयावृत्य आदि करना, आदर-सरकार करना और लश इन्द्रियों से आनन्द की अधिकता को व्यक्त करना प्रमोद महलाला है। इनमें से सम्यक्त्व का अर्थ है तत्वार्थ का श्रद्धान करना । इष्ट में प्रवृत्त और अनिष्ट से निवृत्त होने के बोध को ज्ञान कहते हैं और मूलगुणों और उत्तरगुणों को चारित्र कहते हैं। बाह्य और अन्तर के भेद से तप के दो भेद हैं । इन सम्यक्रव्य आदि गुणों में जो अपने से अधिक उत्कृष्ट हैं, उनके प्रति मानसिक हर्ष प्रकट करना प्रमोद है । एक श्रावक की अपेक्षा दूसरा श्रावक और एक मुनि की अपेक्षा दूसरा मुनि इन गुणों में अधिक होता है। श्राक्षक की अपेक्षा मुनि में ये गुण अधिक पाये ही जाते हैं। मुनिजन के गुणोत्कीतन के પ્રમોદ અર્થાત્ હર્ષના અતિરેકને ધારણ કરે અર્થાત ગુણીજનોના દર્શનથી અત્યન્ત પ્રસન્ન થાય જે સમ્યક્દર્શન, જ્ઞાન, ચારિત્ર અથવા તપમાં અધિકપિતાનાથી વધારે હોય તેમનું યથોચિત વંદન સ્તવન, પ્રશંસા, વૈયાવૃત્ય, વગેરે કરવા, આદર-સત્કાર કરવા અને બધી ઈન્દ્રિયથી આનંદની પરાકાઠાને વ્યક્ત કરવી, પ્રમેદ કહેવાય છે. આમાંથી સકૂવને અર્થ છે તવાર્થની શ્રદ્ધા કરવી ઈષ્ટમાં પ્રવૃત્તિ અને અનિષ્ટથી નિવૃત્ત થવાના બંધને જ્ઞાન કહે છે અને મૂળગુણો તથા ઉત્તરગુણેને ચારિત્ર કહે છે. બાહ્ય અને આભ્યન્તરના ભેદથી તપના બે ભેદ છે, આ સમ્યક્ત્વ આદિ ગુણેમાં જે પોતાના કરતાં અધિક ઉષ્ઠ છે તેમના પ્રત્યે માનસિક હર્ષ પ્રગટ કરે પ્રદ છે એક શ્રાવકની અપેક્ષા બીજો શ્રાવક અને એક મુનિની અપેક્ષા બીજા મુનિ આ ગુણોમાં અધિક હોય છેશ્રાવકની અપેક્ષા મુનિમાં આ ગુણ અવશ્ય અધિક જોવા મળે છે. મુનિજને ગુણકીર્નોન વેળાએ એકાગ્ર થઈને त० ५५ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तत्त्वार्थसूत्र रोमाञ्चा चुफितगात्रयष्टयादि लिङ्गेन प्रकटितो मनामहर्षः प्रमोदो व्यपदिश्यते तं भावयेदिति । एवं-क्लेशमनुभवत्सु पिलश्यमानेषु दीनेषु-अनाथवालद्धादिषु कारुण्यं भावयेत् , तन-कारुण्यं खल्वनुशपाप मुच्यते, दीनोपरि-अनुग्रहो दयादृष्टिः दीनत्वञ्च-मानसिकशारीरिक दुःवरभिभूतत्वं दोषम् । तत्र-करुणाक्षेत्रेषु सत्वेषु मिथ्यादर्शनाऽनन्तानुवन्ध्यादिरूप महामोहाभिभूतेषु मतिश्रुतविभङ्गज्ञान व्याप्तेषु इष्टानिष्टमाप्तिपरिहारजितेपु-अनेकदुःखपीडितेषु दीनकृपणाऽनाथ. वालवृद्धादिषु-अविनिछ-नं कारुण्यं भावयेत्, तथाविधं कारुण्यं भावयंश्च मोक्षोपदेशदेश-कालापेक्ष बनानपानप्रतिश्रयौषधादिमिस्ताननुगृह्णीयात् इति । समय एकाग्र होकर श्रवण करना नेत्रों का खिल उठना, समस्त शरीर में रोमांच प्राट होना, इत्यादि चिहूनों से मानसिक हर्ष प्रकट होता है । इस प्रमोद ले आत्मा को भावित करे।। - जो क्लेश-कष्ट का अनुभव कर रहे हों, ऐसे दुःखी, दीन, अनाथ और वृद्ध आदि पर करुणा भाव से आत्मा को भावित करे। कारूण्य का अर्थ है अनुकम्पा, दीन प्राणी पर अनुग्रह, दयादृष्टि । जो शारीरिक या माललिक दुःखो से पीडित हैं वे दीन कहलाते हैं। इनमें से जो प्राणी मिशादर्शन तथा अनन्तानुबंधी आदि महामोह से ग्रप्त हैं, कुमनि क्रुश्रुत और विनंम ज्ञान से व्याप्त हैं, जो इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट परिहार नहीं कर सकते और अनेक दुःखों से पीडित हैं, जो दीन, कृषण, अनाथ, बाल और वृद्ध हैं, उनके प्रति निरन्तर करुणा की भावना करनी चाहिए और करुणा की भावना શ્રવણ કરવું, આંખે નું નાચી ઉઠવું, સમરત શરીરમાં રોમાંચ જાગૃત થવો ઈત્યાદિ ચિહ્નોથી આ માનસિક હર્ષ પ્રગટ થાય છે. આ પ્રમોદથી આત્માને ભાવિત કરવા જોઈએ. જેઓ કલેશ-કષ્ટને અનુભવ કરી રહ્યા હોય એવા દીન, દુઃખી અનાથ અને વૃદ્ધ આદિ પર કરૂણા ભાવથી આત્માને ભાવિત કરવો. કારૂણ્યને અર્થ છે અનુષ્પા, દીનપ્રાણ પર અનુગ્રહ, કૃપાદૃષ્ટિ જેઓ શારીરિક અથવા માનસિક વ્યથાઓથી પીડિત છે તેઓ દીન કહેવાય છે. આમાંથી જે પ્રાણી મિથ્યાદર્શન તથા અનન્તાનુબંધી આદિ મહામે હથી ગ્રસ્ત છે, કુમતિ, કુશ્રુત અને વિભંગ જ્ઞાનથી વ્યાપ્ત છે, જેઓ ઈષ્ટ પ્રાપ્તિ અને અનિષ્ટ પરિહાર કરી શકતા નથી અને અનેક દુઃખથી પીડિત છે, જેઓ દીન, કૃપણ, બાલ તેમજ વૃદ્ધ છે, તેમના તફ઼ હરહંમેશ કરૂણાની ભાવના ભાવવી જોઈએ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ७ सु. ५८ सर्वप्राणिपु मैत्रीभावनानिरूपणम ४३५ अविनेयेषु शठेषु जनेषु माध्यस्थ्यम्-औदासीन्यम्-उपेक्षां भावयेत् । तत्र-विनीयन्ते शिक्षा ग्राहयितुं शक्यन्ते ये से विनेयाः शिक्षाहीं, ये तथा न भवन्ति तेऽ. विनेयाः शिक्षाऽनहींः उच्यन्ते । चेतनाः अपि काष्ठ-कुडयाऽश्मसन्निभाः ग्रहणधारणेहाऽहशून्याः मिथ्यादर्शनाभिभूताः दुष्ट जनविपलब्धा उच्यन्ते, तेष्वौदासीन्यं भावयेत् , तेषु-सदुपदेशादिकं शुष्कवी नमिवोषरभूमि घु, उप्तमपि न किमपि फनाधायकं भवति, तस्मात्-तेपेक्षेत्र कर्तव्येति भावः । तथाचोक्तम्-परहिवचिन्ता मैत्री, परदुःख निवारणं तथा करुणा । परसुखतोषो मोदः, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥१॥ इति करते हुए उन्हें मोक्ष का उपदेश देना चाहिए, देश-कालोचित वस्त्र, अन्न, पानी, आवास तथा औषध आदि ले उन पर अनुग्रह करना चाहिए। जो अधिनेय-शठ हैं उस पर बाध्यस्थय मान धारण कारना चाहिए। जो शिक्षा ग्रहण करने योग्य हों वे विदेश कहलाते हैं और जो शिक्षा के योग्य न हों वे अधिनेय कहे जाते हैं अर्थात् जो सचेतन होते हुए भी काठ, दीवाल एवं पाषाण के समान ग्रहण, धारण, ईहा, अपोह से शून्य हैं, मिथ्यादर्शन से ग्रस्त है और दुष्ट जनों द्वारा यहकाये हुए हैं, उन्हें अविनेय समझना चाहिए। ऐले जनों पर उदासीन भाव धारण करे । जैसे ऊपर भूमि में डाला हुआ बीज निष्फल होता है, उसी प्रकार ऐसे लोगों को दिया हुभा उपदेश व्यर्थ जाता है। उसका कुछ भी फल नहीं होगा, अतएव उन पर उपेक्षाभाव धारण અને કરૂણની ભાવના કરતા થડા તેઓને મેક્ષને ઉપદેશ આપ જોઈએ, દેશ-કાળ પ્રમાણે વસ્ત્ર, અનાજ, પાણી, રમાવાસ તથા ઔષધ આદિ દ્વારા તેમના પર અનુગ્રડ કર જોઈએ. જેઓ અવિનયી-શઠ છે તેમના તરફ માયસ્થભાવ ધારણ કરવો જોઈએ. જેમાં શિક્ષણ ગ્રહણ કરવા લાયક છે તેઓ વિર ય કહેવાય છે અને જેઓ શિક્ષણને એગ્ય ન હોય તેમને અવિનેય કહેવામાં આવે છે અર્થાત જે સચેતન હોવા છતાં પણ લાકડા, દીવાલ અને પથરાની માફક, ગ્રહણ, ધારણ, ઈહા, અપહથી શૂન્ય છે, મિથ્યાદર્શન થી ઝરત છે અને દુષ્ટજને દ્વારા ભ ભેરાયેલા છે તેમને અવનેય સમજવા જોઈએ આવા માણસ તરફ ઉદાસીનભાવ ધારણ કરવું જેવી રીતે ખારાપાટવ ળી જમીનમાં નાખેલું બીજ નિષ્ફળ નીવડે છે તેવી જ રીતે આવા લોકોને આપવામાં આવેલ ઉપદેશ નિષ્ફળ જાય છે. તેનું કંઈ જ ફળ આવતું નથી આથી તેમના પર ઉપેક્ષાભાવ ધારણ કરે એ જ એગ્ય છે. કહ્યું પણ છે-“બીજાના હિતની Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂઠ્ઠું तत्वार्थ सूत्रे उक्तश्च सूत्रकृताङ्गे प्रथमथुवस्कन्धे १५ अध्ययने तृतीयगाथायाम् - 'मैत्रीं भूतेषु कल्पयेत्' इति । एवम् औपपातिके प्रथम सूत्रे २० प्रकरणे चोक्तम्। 'सुपडियानंदा' इति । पुनस्तत्रैवोपपाति के भगवदुपदेशे चोक्तम्- 'साणुको सघाए' सानुक्रोशतया इति आचाराङ्गमकरणे श्रुतस्कन्धे ८ अध्ययने ७ उद्देशे ५ गाथायाञ्चोक्तम् 'मज्झथोनिज्जरापेही, समाहिमनुपालए' इति । मध्यस्थो निर्जरापेक्षी, समाधिमनुपालयेत् || इति ||१८|| मूलपू - चरितं पंचविहं सामाइय छेदोवट्टावणपरिहारविसुयि सुहुमसंपराय जहखायमेयओ ॥ ५९ ॥ करना ही उचित है । कहा भी है- 'दूसरों के हित की चिन्ता करना मैत्री है, पराये दुःख का निवारण करना करुगा है, दूसरे के सुख को देखकर सन्तोष मानना प्रमोद है और पराये दोषों की उपेक्षा करना उपेक्षा भावना है ||१॥ सूत्र कृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के पन्द्रहवें अध्ययन की तीसरी गाथा में कहा है- 'प्राणियों पर मैत्री धारण करे' । इसी प्रकार औपपांतिक सूत्र के प्रथम सूत्र के २० वें प्रकरण में भी कहा है- 'सुप्रत्यानन्द:- प्रमोद : ' | इसी सूत्र में भगवान् के उपदेश-प्रकरण में कहा है'साक्कोसघाए' अर्थात् दया युक्तता से । आचारांग श्रुतस्कंध के आठवें अध्ययन, सातवें उद्देशक की पांचवीं गाथा में कहा है 'मध्यस्थ एवं निर्जरा की अपेक्षा करने वाल! श्रमण समाधि का अनुपालन करे ॥५८॥ ચિન્તા કરવી મૈત્રી છે, 'જાના દુઃખાનું નિવારણ કરવુ કરૂણા છે, ખીજાના સુખને જોઇ સન્તુષ માનવા પ્રમેદ છે, અને પારકા દેષાની ઉપેક્ષા કરવી उपेक्षा भावना है. ॥१॥ સૂત્રકૃતાંગા પ્રથમ શ્રુતકધના પંદરમાં સ્મુધૈયનની ત્રીજી ગાથામાં કહ્યું છે-પ્રાણિઓ પર મૈત્રી ધારણ કરે' એ જ પ્રમાણે ઔપપાતિસૂત્રના પ્રથમ સૂત્રના, ૨૦માં પ્રકરણમાં પણ કહ્યું છે-સુપ્રત્યાનન્દ-પ્રમેદ. આ જ सूत्रभां लगवान्ना ऽपदेश अशुभ छे. 'साणुकोसयाए' अर्थात् हयाચુક્તતાથી આચારગ શ્રુતસ્કંધના આઠમાં અયન, સાતમા ઉદ્દેશકની પાંચમી ગાથામાં કહ્યું છે—મધ્યસ્થ અને નિર્જરાની અપેક્ષા કરનાર શ્રમણ સમાધિનુ અનુપાલન કરે. ૫૫૮ના Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ खु.५९ चारित्रभेदनिरूपणम् .. ४३७ छाया-चारित्रं पञ्चविधं, सामायिक छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिकसूक्ष्म साम्पराय यथाख्यात भेदतः ।।५९॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् समितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षा परीपहजय चारित्राणां कर्मास्रवनिरोधलक्षणसंवरहेतुत्वेन प्रतिपादितत्वात् तेषां खलु संवरहे तूनां मध्ये चारित्रसंज्ञाव्यपदेशाथै प्रथमं चारित्रभेदान् प्रतिपादयितुमाह-'चरितं पंच विहं।' इत्यादि । चारित्रं तावत्-पूर्वोक्तदविधश्रमणधर्मान्तर्भूतं संयमात्मकं पञ्चविधं वर्तते, सामायिक १ छेदोपस्थापन २ परिहारविशुद्धिक ३ सूक्ष्मसाम्पराय ४ ययाख्यात ५ भेदतः। तथा च-सामायिकचारित्रम् १ छेदोपस्थापन. चारित्रम् २ प.रेहारविशुद्धिकचारित्रम् ३ सूक्ष्मसाम्परायिकचारित्रम् ४ यथाख्यात चारित्रञ्चे ५ त्येवं पञ्चविधं चारित्रमवगन्तव्यम् । सम:-सम वं रागद्वेषरहितत्वेन 'चरित्तं पंचविहं सामाय' इत्यादि । सूत्रार्थ-~चारित्र पांच प्रकार का है-(१) सामायिक (२) छेदोपस्था पनीय (३) परिहार विशुद्धि (४) सूक्ष्म साम्पराश और (५) यथाख्यात ।५९। तत्त्वार्थदीपिका-पहले प्रतिपादन किया गया था कि समिति, गुप्ति धर्म अनुपेक्षा, परीषह जय और चारित्र संघर के कारण हैं । इन संवर के हेतुओं में से चारित्र का स्वरूप प्रतिपादन करने के लिए उसके भेदों का निर्देश करते हैं पूर्वोक्त दस प्रकार के श्रमण धर्मों के अन्तर्गत संयमात्मक चारित्र पांच प्रकार का है-(१) लामाथिक (२) छेदोपस्थापनीय (३) परिहार विशुद्धिक (४) सूक्ष्मवापराय और (५) यथाख्यात । इस प्रकार चारित्र पांच प्रकार का समझना चाहिए। 'चरित्त पंचविहं' इत्यादि ।।५९॥ सूत्राथ-यात्रि पांय ४२ना है-(१) सामयि४ (२) छे।५२थानीय (3) प२ि७.२विशुद्धि (४) समसा-५२॥य भने (५) यथा ॥५ તત્વાર્થદીપિકા–પહેલા પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હતું કે સમિતિ, ગુપ્તિ, ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા, પરીષહજય અને ચારિત્ર, સંવરના કારણ છે. આ સંવરના હેતુઓમાંથી ચારિત્રના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવા માટે તેના ભેદેતું નિદર્શન કરીએ છીએ પૂર્વોક્ત દશ પ્રકારના શ્રમણધર્મોના અતર્ગત સંયમાત્મક ચારિત્ર પંચ ४२ना छ- (१) सामा४ि (२) छे?:५२थानीय (3) परिहा२ विशुद्धि (૪) સૂમસાપરાય અને (૫) યથાખ્યાત આવી રીતે ચારિત્ર પાંચ કારના સમજવા જોઈએ, Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ तत्त्वार्थसूत्रे सर्वेषु जीवेषु स्वात्मसम्यवत्वम्, तस्य समत्यस्य आयः - प्राप्तिः समायः प्रवर्धमानशारदशुक्ल चन्द्रकलावत् प्रतिक्षणविलक्षणज्ञानादिलाभः स प्रयोजनमस्येति सामायिकम्, सामायिकञ्च तत् चारित्रश्चेति सामायिकचारित्रम्, एतस्य खलु - सर्वसुखनिदानभूतायाः सर्वेषु जीवेषु स्त्रात्मतुल्यदर्शनरूपायाः समतायाः प्राप्तयेऽनुष्ठानं क्रियते । तत्र-पूर्वोक्तस्वरूपं सामायिकचारित्रं तावद् द्विविधम्, नियतकालिकम्, अनियतकालिकश्च । तत्र स्वाध्यायादिकं सामायिकचारित्र नियत कालिकम् ऐपिथिकादिकन्तु अनियतकालिकं सामायिकचारित्र बोध्यम् । छेदोपस्थापनन्तु प्रमाकृत हिंसात्रताऽनुष्ठानस्य सर्वथा परित्यागानन्तरं सम्य " सम अर्थात् समत्व या राग-द्वेष के अभाव के कारण समस्त जीवों को अपने समान समझना । उस समत्व के आय (लाभ) को समाय करते हैं अर्थात् वृद्धि को प्राप्त होती हुई शरद् ऋतु के चन्द्रमा की कलाओं के समान प्रतिक्षण विलक्षण ज्ञानादि की प्राप्ति । वह समाय जिसका प्रयोजन हो उसे सामायिक कहते हैं, सामायिक रूप चारित्रको सामायिक चारित्र कहा गया है । समस्त सुखों के कारण और समस्त प्राणियों पर आस्म तुल्य दर्शन रूप समता की शप्ति के लिए सामायिक का अनुष्ठान किया जाता है । यह सामायिकचारित्र दो प्रकार का है-नियतकालिक और अनियतकालिक | इन में से स्वाध्याय आदि सानाविक चारित्र नियतकालिक कहलाता है और ऐर्यापथिक अनियतकालिक सामायिक चारित्र है । वाद के कारण हिंसा भादि अननों के अनुष्ठान का सर्वधा સમ અર્થાત્ સમત્વ અથવા રાગ-દ્વેષના અભાવના કારણે સમરત જીવેાને પેાતાના જેવા સમજવા તે સમત્વના આય (લાભ)ને સમાય કહે છે અર્થાત્ વૃદ્ધિને પ્રપ્ત થતી થકી શરદ ઋતુના ચંદ્રમાની કળાએની જેમ પ્રતિક્ષણે વિલક્ષણુ જ્ઞાનાદિની પ્રાપ્તિ તે સમાય જેનુ પ્રચાજન હેાય તેને સામાયિક કહે છે, સામાયિક રૂપ, ચારિત્રને સામાયિક ચારિત્ર કહેવામાં આવ્યુ છે. સમસ્ત સુખાના કારણુ અને સમસ્ત પ્રાણીએ પર આમતુલ્ય દર્શોનરૂપ સમતાની પ્રાપ્તિ માટે સામાયિકનું અનુષ્ઠાન કરવામાં આવે છે. આ સામાયિક ચારિત્ર બે પ્રકારના છે, નિયતકાલિક અને અનિયતકાલિક આમાથી સ્વાધ્યાય આદિ સામાયિક ચારિત્ર નિયતકાલિક કહેવાય છે અને અય્યપથિક અનિયતકાલિક સામાયિક ચારિત્ર છે. પ્રમાદને કારણે હિં'સા આદિ અવતાના અનુષ્ઠાનના સર્વથા પરિત્યાગ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ रु.५९ चारित्रभेदनिरूपणम् गागमोक्तविधिना पुन्नारोपणं सम्यक् प्रतिक्रियात्मकं बोध्यम् । छेदेन दिवस पक्षमासादि प्रवज्या-हापनेनोपस्थापनं पुनर्वतारोपणं छे दोपस्थापन मिति व्युत्पत्तिा, सङ्कल्पदिकल्पनिषेधो वा छेदोपस्थापनचारित्रमुच्यते । परिहरणं परिहारः प्राणा. तिपातान्निवृत्तिः, परिहारेण विशिष्टा शुद्धिः कर्ममलकलङ्कपङ्कशक्षालनं यस्मिंश्चारित्रे तत् परिहारविशुद्धिचारित्रमुच्यते, यथा- द्वात्रिंशद्वर्ष जातस्य चिरकालतीर्थपादसेविनः प्रत्याख्यान नामधेयनयमपूर्वोक्त सम्यगाचारवेदिनोऽपि प्रचुरचर्याऽनु. ष्ठायिनः सन्ध्यात्रयं वर्जयित्वा द्विगव्यूतगामिनः संयत्तस्य सुनेः परिहारविशुद्धिपरित्याग करने के पश्चात् आगमोक्तविधि के अनुल्ला पुनः व्रतों का आरोपण करना छेदोपस्थापनीय चारित्र है । उरहे लम्पक प्रतिक्रिया रूप समझना चाहिए । 'छेदोपस्थापन' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार हैछेद अर्थात् दिन, पक्ष, भाग्य आदि की दीक्षा कम करके, उपस्थापन अर्थात् फिर व्रतों में अरोपण करना 'छेोपस्थापन' है । अथवा संकल्प -विकल्प का निषेध छेदोपस्थापन चारित्र कहलाता है। परिहार का आशय है प्राणातिपात से निवृत्त होना। जिस चारित्र में 'परिहार' के द्वारा विशिष्ट शुद्धि अर्थात् कर्मबल रूप पंग का प्रक्षालन किया जाता है, वह परिहारविशुद्धि चारित्र है । जो यत्तीस वर्ष का हो चुका हो, चिरकाल तक जिहाने तीर्थ कार के चरणों की सेवा की हो, जो प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व में कधिल आचार वस्तु का ज्ञाता हो' उग्र चर्यावान हो, जो तीनों संध्याओं को हच्या कर કર્યા બાદ આગમક્ત વિધિ અનુસાર પુનઃ વ્રતનું આરોપણ કરવું છેપસ્થાપનીય ચારિત્ર છે તેને સમ્યક્ પ્રતિક્રિયા રૂપ સમજવું જોઈએ. દેપસ્થાપન શબ્દની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રમાણે છે. છેદ અર્થાત્ દિવસ, પખવાડિયું, મ.સ વગેરેની દિક્ષા ઓછી કરીને, ઉથાપન અર્થાત ફરીવાર વનોમાં આરોપણ કરવું છેદોપસ્થાપન” અથવા સંકલ્પ-વિકલ્પને નિષેધ છેદો પસ્થાન यरित्र वाय छे. પરિહારનો આશય છે પ્રાણાતિપાતથી નિવૃત્ત થવું. જે ચારિત્રમાં પરિવાર દ્વારા વિશિષ્ટ શુદ્ધિ અર્થાત્ કર્મમળરૂપ કાદવનું પ્રક્ષાલન કરવામાં આવે છે તે પરિહાર નિશુદ્ધિ ચારિત્ર છે. જે બત્રીસ વર્ષ થઈ ગયે હોય, ચિરકાળ સુધી જેણે તીર્થકરના ચરણોની સેવા કરી છે, જે પ્રત્યાખ્યાન નામક નવમા પૂર્વમાં કથિત આચારવતુ જ્ઞાતા હોય, ઉગ્ર ચર્યાવાન હોય, જે ત્રણે સંયાઓને બચાવીને બે ગભૂતિ ગમન કરે છે. એવા સંયમશીલ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० तत्त्वार्थ चारित्रं भवति । अतिमूक्षम कोधमानमायादि कपायत्वात् सूक्ष्क्षसाम्परायचारित्र मुच्यते, सम्परायशब्दस्य कायवाचकत्वात् । सर्वस्य मोहनीयस्योपशमः क्षयो. वा वर्तते यस्मिन् तत् परमौदासीन्यलक्षणं जीवस्वभावदशाविशिष्टं यथाख्यातचारित्रम् , यथा-ऽऽ मनः शुद्धः स्वभावः स्थितः तथैवाऽऽख्यातः कथित आत्मनः समानो यस्मिश्चारित्रे तत्-यथास्थातचारित्रमिति व्युत्पत्तिः, तथाच-निरव शेषस्य मोहनीयकर्मण उपशवात्-क्षयाच्चाऽऽत्मस्वभावापेक्षालक्षणं यथाख्यात चारित्र व्यपदिश्यते, यथाख्यातमेवाऽयाख्यातचारित्र नाम्नापि व्यपदिश्यते । तस्थाऽ अमर्थः-याक्तनचारित्र विधायिभिः खलु आत्मनो यदुत्कृष्टं चारित्रमाख्यातं दो गव्यूति सम्मान करता हो, ऐले संघमशील मुनि को परिहारविशुद्धि चारित्र होता है। जिल अवस्था में कषाय अत्यन्त सूक्ष्म रह जाते हैं, उस अवस्था में होने वाला चारित्र सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहलाता है। सम्पराय शब्द कांय का वाचक है। ____ मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम या क्षय होने पर जो चारित्र प्रकट होता है वह यथाख्यात चारित्र है। यह चारित्र परम उदासीनता. मय और जीवन की स्वभावदशा रूप है । आत्मा का जो शुद्ध स्वभाव है वही जिस चारित्र में कहा गया हो, वह यथाख्यात चारित्र । इस कारण सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से या क्षय से आत्मस्वभावयथाख्यान चारित्र कहलाना है । इसे अधाख्यात चारित्र भी कहते हैं। उसका आशय यह है-पहले चारित्र के जो आराधक हुए हैं उन्हें आत्मा का जो उत्कृष्ट चारित्र कहा है, वैसा चारित्र जीवने पहले नहीं प्राप्त મુનિને પરિહારવિશુદ્ધિચરિત્ર હોય છે. જે અવસ્થામાં કષાય અત્યંત સૂક્ષમ રહી જાય છે તે અવસ્થામાં થનારું ચારિત્ર સૂમસામ્પરાય ચરિત્ર કહેવાય છે. સંપાય શબ્દ કષાયને વાચક છે. મેહનીય કર્મને સર્વથા ઉપશમ ક્ષય થવાથી જે ચારિત્ર પ્રકટ થાય છે તે યથાખ્યાતચારિત્ર છે. આ ચારિત્ર પરમઉદાસીનતામય અને જીવન સ્વભાવદશા રૂપ છે. આત્માને જે શુદ્ધ સ્વભાવ છે તે જે ચારિત્રમાં કહેવામાં આવ્યું હોય, તે યથ ખ્યાત ચરિત્ર આથી સંપૂર્ણ મેહનીય કર્મના ઉપશમથી અથવા ક્ષયથી આત્મસ્વભાવરૂપ યથાખ્યાતચારિત્ર કહેવાય છે અને અથાખ્યાતચારિત્ર પણ કહે છે. તેને આશય આ છે. પહેલાં ચારિત્રના જે આરાધક થયા છે તેઓએ આત્માનું જે ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્ર કહ્યું છે એવું ચારિત્ર જીવે Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.५९ चारित्रभेदनिरूपणम् कथितं तथाविधं चारित्रजीवेन पूर्व न भातम् भिन्तु-अमानन्तरं मोहनीयकर्मक्षयोपशमाभ्यां प्राप्तं यच्चारित्र तत्-अथारख्यातचारित्र मिल्युच्यते, अथ शब्दस्याऽऽनन्तयोऽर्थकतया सकलमोहनीयकर्मक्षयोपशमानन्तर मात्म भावाऽऽविर्भावात् ५९। तत्वार्थ नयुक्ति:-पूर्व करप्राप्तस्य संघरहेतुभूनपरीषहमयस्य प्ररूपणं कृतम् , सम्प्रति-संबर हेतुलथा प्रतिपादितस्य चारित्रस्य भेदान् प्रतिपादयितुमाह-- 'चरितं पंचविह' इत्यादि । चारित्रं खल्लु-संपलक्षणं पञ्चविधम् , सामायिक छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसार राय-यथारुका ५ भेदात्, तथाचसामायिकचारित्रम् १ छेदोवस्थापनदारित्र २ परिहारविशुद्धिकचारित्रम् ३ सूत्रसाम्परायचारित्रम् ४ यथाख्यातचारित्रम ५ चेत्येव पञ्चनिधं चारित्रमदकिया है, इस कारण बह अवास्यात चारित्र कहलाता है। 'अथ' शब्द आनन्तर्य अर्थ का वाचन है, अतएव लामाल मोहनीय कर्म के क्षय अथवा उपशन के अनन्तर जो चारिम प्राप्त हो वह अधाख्यात चारित्र है इस चारित्र की उपस्थिति में भारत का शुद्ध स्वभाव प्रकट होता है ॥५९॥ ___तत्वार्थनियुक्ति--पहले संबर के क्रमप्रास कारण परीषह जय का निरूपण किया गया था। अच चारित्र के, जो संघर का कारण कहा जा चुका है, भेदों का निर्देश करते हैं संयम रूप चारित्र पांच प्रकार का है (१) सामायिक (२) छेदोपस्थापनीय (३) परिहार विशुद्धिक (४) सूक्ष्मसापराय और (५) यथाख्यात । इस प्रकार (१) सामाधिकचारिक (२) छेदोपस्थापनचारित्र (३) અગાઉ પ્રાપ્ત કર્યું ન હતું પરંતુ પાછળથી મેહનીય કર્મના ક્ષય અથવા ઉપશમ દ્વારા સંપાદન કરેલું છે. આ કારણે તે અથાખ્યાતચારિત્ર કહેવાય છે. “અ” શબ્દ આનન્તય અર્થને વાચક છે. આથી સમસ્ત મોહિનીય કર્મના ક્ષય અથવા ઉપશમના અનન્તર જે ચારિત્ર પ્રાપ્ત થાય તે અથાખ્યાતચરિત્ર છે આ ચારિત્રની ઉપસ્થિતિમાં આત્માને શુદ્ધ સ્વભાવ પ્રકટ થાય છે પા તત્કાનિતિ–પહેલાં સંવરને કર્મ પ્રાપ્ત કારણ પરીષહજ્યનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હતું. હવે ચારિત્રના. જે સંવરને કારણ કહેવાઈ ગયા છે, તેનાં ભેદનું નિદર્શન કરીએ છીએ સંયમ રૂપ ચારિત્ર ૫ પ્રકારના છે–(૧) સામાયિક (૨) છેદેપરથાપનીય (3) परिडा२ विशुद्धि (४) सुक्ष्मसा५२राय भने (५) यथाण्यात मा शत (१) सामायि४ यरित्र (२) छे।। ५२थापन यात्रि (3) परिक्षा विशुद्धि त० ५६ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ramanddoor %EMONE Tara तत्त्वार्य गन्तव्यम् । तत्र--सर्वसावधयोगविरतिलक्षणं सामारिकं तदविशेषाएव छेदोपस्थापनीयादयो भवन्ति, सावधय गघिरते रेव विशुद्धतराध्यवसायविशेषा भव. न्ति । तम-समस्य भयो गमनं प्राप्तिः समायः, स एव सामायिकम् , सामायिकच. सच्चारित्रं सामायिकचारित्रम् । तच्च सामायिक द्विविधम्, इत्वरकालिकम्-याव जीविकच, तम यथय तापत् प्रथरतीर्थचद् अन्यतीर्थकृतोः प्रत्रयापतिपत्तौ कथितं शस्त्रपरिज्ञाध्ययनादिविदः श्रद्धा कुर्वखच्छेदोषस्थापनीय संयनारोपणविशिष्ट तरत्वाद् विरतः सामायिकस्यपदेशं परित्यजति, तस्माद्-इन्चरकालस् । मध्यमतीर्थकृतां विदेहक्षेत्रवर्तिनाव वावजीरिक सामासिकं भवति, तच्च-प्रव्रज्या प्रतिपत्तिपरिहारविशुद्धिमचारिन (४) सूक्षमनारायचारिन और (५) यथा ख्यातचारित्र, यह पाँच प्रकार का चारिम समझना चाहिए। इलमें ले लामाथि का अर्थ है लर्व साश्य योग का त्याग करना। छेदोपस्थापनीय आदि सामाधिक के हो विशेष रूप हैं। 'सम' के 'आय' अर्थात् लाभ को लमाय' कहते है और उसी को सामायिक कहते हि । सामाधिश के दो प्रकार हैं-इत्वशालिक और यारज्जीविक। प्रथम और अन्तिम तीर्थकों के शासन में दीक्षा लेने पर इत्तरकालीन सामाधिचारित्र होता है। जो शस्त्र परिक्षा अध्ययन आदि का ज्ञाता होता है और श्रद्धा पारता है, बह छे दोपस्थापललयन से युक्त हो जाता है, अतएव उलझा चारित्र 'सामायिक इस नाम से नहीं कहा जाता, अतएव वह इस्चरकालिक अर्थात् अल्पकालिक कहलाता है । धीच के बाईस तीर्थंकरों के शासन में लथा विदेहक्षेत्र के तीर्थंकरों के शाप्तन ચારિત્ર (૪) સૂફમસાંપરાય ચારિત્ર અને (૫) યથાખ્યાત ચારિત્ર આ પ પ્રકારના ચારિત્ર સમજવા જોઈએ. આમાંથી સામાયિકનો અર્થ છે સર્વ સાવદ્ય યોગનો ત્યાગ કરે. છે પાપનીય આદિ સામાયિકના જ વિશેષ રૂપ છે. “સમ ને “અ ય અર્થાત્ લાભને “સમાયકહે છે. અને તેને જ સામાયિક કહે છે. સામાયિક બે પ્રકારનું છે. ઈવારકાલિક અને ય વજીવિક પ્રથમ અને અંતિમ તીર્થકરેના શાસનમાં દીક્ષા લેવા પર ઈવરકાલિન સામાયિક ચારિત્ર થાય છે જે શસ્ત્રપરજ્ઞા અધ્યયન આદિને જ્ઞાતા હોય છે અને શ્રદ્ધા રાખે છે તે છેદે પસ્થાપન સંયમથી યુક્ત થઈ જાય છે. આથી તેનું ચારિત્ર “સામાયિક એ નામથી કહેવાતું નથી આથી તે ઈત્વરકાલિક અર્થાત્ અલપકાલિક કહેવાય છે. વચ્ચેના બાવીસ તીર્થંકરના શાસન દરમિયાન તથા વિદેહ ક્ષેત્રને તીર્થક Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ स्कू.५९ चारित्रभेदनिरूपणम् कालादारभ्य मरणकालपर्यन्तं तिष्ठति प्रथमाऽन्यतीर्थकृतो शिष्याणां सामान्य सामायिकपर्यायाछे दो विशुद्धतरसर्वसावधयोगविरतो समस्थानं विविक्ततरमहाब्रतारोपणं छेदोपस्थापनीयचारिजम् । पूर्वपर्यायच्छेदे सति-उत्तरपर्यायेउपस्थापनम्, तच्चापि द्विविधम् निरतिचारसातिचार भेदतः, तत्र-शिक्षकस्य निरविचार छेदोषस्थापनीयमधीत विशिष्टाऽध्ययन विदो मध्यनतीर्य करशिष्यो बा यदा-चरमतीर्थकरशिष्याणां सविधे-उपतिष्ठते, सातिचार छेदोषस्थापनीयन्तु विनिष्टमूलगुणस्य पुनर्वतारोपणाद्भवति । तथा वे-तदुमयमपि सातिचार निरतिमें यावज्जीविक समाधिकचारित्र होला है। वह दीक्षा अंगीकार करने के समय से लगायार भरणकाल पर्यन्त रहता है। प्रथम और अन्तिम तीर्थशरों के शासन में शिप्यों के सामान्य पर्याय का छेद होना, विशुद्धतर सर्वलावद्ययोगविरति में स्थित होना और विविक्ततर महावनों में आशेषण करना छेदोषस्थापनीषचारित्र कहलाता है। तात्पर्य यह है कि पूर्व प य का छेद होकर उत्तर पर्याय में स्थापित करना छेदोपस्थापन है । उसके भी दो भेद हैं-निरतिचार और सातिचार । जिसने विशिष्ट अध्ययन का अध्ययन कर लिया है उसको तथा जय मध्यम तीर्थंकर का कोई शिष्य चरम तीर्थकर के शिष्यों के पास जाता है लस निरतिचार छेदोपस्थापन चारित्र कहलाता है । जिस साधु का मूलगुण नष्ट हो जाता है उस्ले पुनः प्रव्रज्या देकर व्रतों में आरोपित किया जाना सालिचार छेदोपस्थापन चारिन है। इन कारण यह दोनों अर्थात् नालिचार और निरतिचार छेदोपस्थापन चारित्र प्रथम રોના શાસનમાં ચાવજજીવિક સામાયિક ચારિત્ર થાય છે તે દીક્ષા અંગીકાર કરવાના સમયથી માંડીને મરણકાળ પર્યત રહે છે. પહેલા અને છેલ્લા તીર્થકરોના શાસનમાં શિષ્યના સામાન્ય પર્યાય છેદ, વિશુદ્ધતર થવે, સર્વસાવદ્ય યોગ વિરતિમાં સ્થિત હોવું અને વિવિક્તાર મહાવ્રતમાં આરો પણ કરવું દેપસ્થાપનીય ચરિત્ર કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે પૂર્વપર્યાયમાં સ્થાપિત કરવું છેદે પસ્થાપન છે. તેના પણ બે ભેદ છે-નિરતિચાર અને સાતિચાર જેણે વિશિષ્ટ અધ્યયનને અભ્યાસ કરી લીધા છે તેને તથા જ્યારે મઘમતીર્થકરને કઈ શિષ્ય ચરમતીર્થકરના શિષ્યોની પાસે જાય છે ત્યારે નિરતિચાર છેદેપસ્થાપન ચારિત્ર કહેવાય છે. જે સાધુનો મૂળગુણ નષ્ટ થઈ જાય છે તેને ફરીવાર દીક્ષા આપીને તેમાં આરેપિત કરવું સાતિચાર છે પસ્થાપનચારિત્ર છે. આથી આ બંને અર્થાત સાતિચાર અને નિરતિચાર Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वार्थसूत्रे चारश्च प्रथमाऽन्त्यतीर्थकृतोरेव सम्मपति, । पहिरणं-परिहारः तपोविशेषः तेन-विशुद्धं परिहारविशुद्धिक चारित्रमुच्यते, तदपि-परिहारविशुद्धिकं द्विविधम् निश्यिमानकम्-निविष्टज्ञायिकञ्चेति । तत्राऽ सेव्यमानं परिभुज्यमानस्वरूपं निविश्यमानकमुच्यते, आसेविषयू-उपयुक्तस्वरूपम्, निविष्टकायिकमुच्यते । तत्सहचरितत्वात् तदनुष्ठाथिनोऽपि निविश्यमानाः उच्यन्ते। उपभोगो निवेशः, तदुरभुजानाः निश्चिपानका भान्ति । निर्विष्टकायिकाः पुन निविष्टः कायो पोरी-निर्विष्टकागिकाः, तत्सहचरितल्यात् तेनाकारेण तपोनुष्ठानद्वारेण परियुक्तः कायो यैरते परियुक्त तथाविधनुपसो निर्विष्टकायिका उच्यते, परिहारविशुद्धिकञ्च तपः प्रतिपन्नानां नवको गच्छो भवति । तत्र चत्वार ताब परीहाराः, चारिणश्चत्वारोऽनुपरिहारिणः, एकस्तु-कल्पितो वाचनाचार्यः और अन्तिम तीर्थकर के शासनकाल में ही होता है। परिहार नामक एक विशेष प्रकार का तप है, उससे जो विशुद्ध हो वह परिहारविशुद्धिक चारित्र कहलाता है। परिहारविशुद्धिकचारित्र भी दो प्रकार का है-निविश्यमानक और निर्धिष्ट कायिक । जो सेवन किया जा रहा हो वह निविश्यमानक कहलाता है और जो सेवन किया जा चुका हो वह निर्विष्टकायिक कहा जाता है। इन दोनों प्रकार के चारिन का सेवन करने वाले भी निश्चिमान और निविष्ट- . कायिक कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि जो विशिष्ट तपश्चरण कर रहे हों वे निविश्यमाद और जो कर चुके हों वे निविष्टकायिक कहलाते हैं। नौ साधु मिल का परिहारविशुद्धिचरित्र का सेवन करते हैं। उनमें से चार परिहारी होले हैं अर्थात तप करते है, चार अतुपरिहारी છેદેપસ્થાપન ચારિત્ર પ્રથમ અને અંતિમ તીર્થ"કરના શાસનકાળ દરમ્ય ન જ થાય છે. પરિહાર નામનું એક વિશેષ પ્રકારનું તપ છે. તેનાથી જે વિશુદ્ધ છે તે પરિહાર વિશુદ્ધિક ચારિત્ર કહેવાય છે. પરિહાર વિશુદ્ધિકારિત્ર પણ બે પ્રકારના છે-નિર્વિષ્ઠ માનક અને નિષ્ઠિકાયિક જેનું સેવન કરવામાં આવતું હોય તે નિર્વિષ્ઠ માનક કહેવાય છે. અને જેનું સેવન થઈ ચૂકયું છે તે નિર્વિષ્ઠકાયિક કહેવાય છેઆ બંને પ્રકારના ચારિત્રનું સેવન કરનારા પણ નિર્વિષ્ઠમાનક અને નિર્વિષ્ઠકાયિક કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જેઓ વિશિષ્ઠ તપશ્ચર્યા કરી રહ્યા છે તેઓ નિર્વિષ્ઠ માનક અને જેઓ સેવન કરી ચૂક્યા છે તે નિર્વિષ્ઠકાયિક કહેવાય છે. નવ સાધુ મળીને પરિહાર વિશુદ્ધિક ચારિત્રનું સેવન કરે છે એમાંથી ચાર પરિહારિ હોય છે. અર્થાત્ તપ કરે છે, ચાર અનુપરિહારિ હાય છે. Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ .५९ चारित्रभेदनिरूपण इत्येवं नवको गच्छः । तत्र-यद्यपि सर्वेऽपि ते श्रुतातिशयसम्पन्ना भवन्ति, तथापि-प्रसिद्धया -कल्पस्थित नवसु विशिष्टवाचनाचार्य एकः कश्च इवस्थाप्यते । तत्र ये खल्ल विभिन्नका शिक्षिततयोऽनुष्ठानं कुर्वन्ति ते-परिहारिण उच्यन्ते । अनुपहारिणरतु-वैयाहत्यकारिणः नियताचाम्लभक्ता सन्त स्तेषामेव तमोग्लानानां परिहारिणामन्तिके साहाय्यमाचरन्त स्तिष्ठन्ति, कल्पस्थितोपि-नियताचाम्लभक्त एव भाति । यत् खलु परिहारिणां तपो ग्रीमती चतुर्थषाऽनमतलक्षण जघन्यं मध्यममुत्कृष्टञ्च, वर्षताचाऽष्टमदशमद्वादशभलस्वरूपं तपो जघायं मध्यममु. स्कृष्टश्चाऽसे यम् । पारणाशाले च-समुपस्थितेऽपि आचालमेव पारयन्ति तथाविध तपः षण्मासं विधाय परिहारिणोऽनुपरिहारित्वमासादयन्ति । अनुपरिहारिहोते हैं अर्थात् उन तपस्वियों का वैयावृत्य करते हैं और एक वाचना चार्य होता है । यद्यपि वे सभी साधु विशिष्ट शुन के ज्ञाना होते हैं तथापि उनमें से कोई एक विशष्टवाचनाचार्य स्थापित कर लिया जाता है । तथा विभिन्न कालों में जो शानविहित तप का लेवन करते हैं वे परिहारी कहलाते हैं और उनका जो वैवाचकारते हैं के अनुपरि. हारि कहलाले हैं। वे अनुपरिहारी नियत आयंबिल करते हैं और तपस्या में संलग्न परिहारियों के समीप रह कर उनकी लेखा सहायता करते हैं । कल्पस्थित भी नियत आयंबिल ही करता है। परिहारियों का तप ग्रीष्म ऋतु में अनुक्रमण से जवन्य चतुर्थभक्त, मध्य पष्ठ और उत्कृष्ट अष्टम भक्त होता है। वर्षा ऋतु में जघन्य अप्टम भक्त मध्यम दश भक्त और उत्कृष्ट छादश भक्त होता है । जब पारणा का काल आता है तो आयंबिल ले ही पारणा करते हैं। इस प्रकार छह અર્થાત્ તે તપસ્વીઓની વૈયાવચ્ચ કરે છે અને એક વાચનાચાર્ય હોય છે. જો કે તે બધા સાધુ વિશિષ્ટ શ્રતના જ્ઞાતા હોય છે. તો પણ તેમનામાંથી કોઈ એકને વિશિષ્ટ વાચનાચાવ નિયુક્ત કરી લેવામાં આવે છે તથા વિસિન કાળમાં જેઓ શાસ્ત્રવિહિત તેનું સેવન કરે છે તેઓ પરિહારિ કહેવાય છે. તે અનુપરિહારિ હમેશા આયંબિલ કરે છે અને તપસ્યામાં રહેલા પવ્હિારિ. એની પાસે રહીને તેમની સેવાચાકરી કરે છે. ક૫સ્થિત પણ નિયત આયં. બિલ જ કરે છે પરિહારિઓને તપ મ રતુમાં અનુકમથી જઘન્ય ચતુર્થભક્ત, મધ્યમ, ષષ્ઠભક્ત અને ઉત્કૃષ્ટ અષ્ટમભક્ત હોય છે. વર્ષાઋતુમાં જઘન્ય અષ્ટમભક્ત, મધ્યમ, દશમભક્ત અને ઉત્કૃષ્ટ દ્વાદશ ભકત છે, જ્યારે પારણને સમય આવે છે. ત્યારે આ યંબિલથી જ પારણાં કરે છે. આ રીતે Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्र __णश्च परिहारणो मान्ति, तेऽपि खलु-अनुपरिहारिणः एण्मासं तत्तपः समाचरन्ति तदनन्तरं कल्पल्धिन एककएव पण्मासावधिकं परिहारतपः समासादयति । तस्य चैकोऽनुपरिहारी भाति, सम्मध्ये चाऽपर एषः कल्पस्थितो भवति, इत्येवं रीत्या खजु परिहारविशुई तपोऽष्टादशमिर्मासैः परिपूर्ण भवति, परिपूर्णे च तस्मिन् पुन स्तदेव परिहारतपः केचिदन्ये स्वशक्त्यनु पारं प्रतिपद्यन्ते, केचित्पुनर्जिनकल्पं प्रतिपबन्ते, केचिदन्येतु-गच्छमेव वा प्रविशन्ति । परिहारविशुद्धिकाश्च स्थिताल्प एघि चरमतीर्थ कर तीर्थयोरेव भवन्ति नतु-मध्यमतीर्थेषु इति भावः । वृक्षासापराय संयमचारित्रन्तु-श्रेणीमारोह्तः परततो वा सम्भवति, श्रेणिस्ताव माल तक लप करके परिहारि अनुपरिहारि बन जाते हैं और जो अनुपरिहारि थे वे परिहारिपन जाते हैं। वे अनुपरिहारि भी परिहारि पाल कर छह महीनों तक वही तप करते हैं। तत्पश्चात् कल्पस्थित एक साधु छह मास तक परिहार तप करता है। उसका एक अनुपरिहारि होता है, उनमें ले दूसरा एक कोई कल्गस्थित होता है। इस प्रकार परिहार विशुद्ध रूप अठारह महीनों में परिपूर्ण होता है। जय परिहार विशुद्ध तप परिपूर्ण हो जाता है तब कोई-कोई अपनी शक्ति के अनुसार पुनाउस रूप का अनुष्ठान करते है, कोई जिनकल्प को गोक्षार पार लेते हैं और लोई अपने गच्छ में शामिल हो जाते है। स्थितकल्प में, आप और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में ही परिहार विशुद्धिक होते हैं, मध्य के बाईला तीर्थक्षरों के शासन में नहीं होते। वृक्षरतापराय चारित्र या तो श्रेणी चढते समय होता है या છ માસ સુધી તપ કરીને પરિહરિ અનુપરિહરિ થઈ જાય છે અને જે અનુપરિહાર હોય છે તેઓ પરિહરિ બની જાય છે તે અનુપરિહરિ પણ પરિહારિ બની જઈને છ માસ સુધી તે જ તપ કરે છે ત્યાર બાદ ક૯પસ્થિત એક સાધુ છ મ સ સુધી પરિહાર તપ કરે છે તેને એક અનુપરિહારિ હોય છે તેમાથી બીજો એક કેઈ ક૯પસ્થિત થાય છે. આ રીતે પરિહાર વિશુદ્ધ તપ ૧૮ માસમાં પરિપૂર્ણ થાય છે. - જ્યારે પરિહારવિશુદ્ધ તપ પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે ત્યારે કઈ કઈ પિતાની શક્તિ મુજબ પુનઃ તે તપનું અનુષ્ઠાન કરે છે, કેઈ નિક૯પને અંગીકાર કરી લે છે જયારે કોઈ પિતાના ગચ્છમાં સામેલ થઈ જાય છે. સ્થિતપમાં, આદ્ય અને અંતિમ તીર્થકરના તીર્થમાં જ પરિહ રવિશુદ્ધિક થાય છે, મધ્યના બાવીસ તીર્થકરોના શાસનમાં થતાં નથી. સૂમસામ્પરાય ચ પિન્ન કરે છે ચઢતી વખતે થાય છે અથવા Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ सू. ५९ चारित्रभेदनिरूपणम् द्विविधा, औपशमिकी - क्षायिकी च । दत्रौषशमिकी थेगिस्ता अनन्तानुबन्धिनो मिथ्यात्वादित्रयं स्त्री- नपुंसक वेदाः, हास्यरत्यादिषट्स्म् अपत्याखानावरणम्, संज्वलनश्चेति, अस्याः खल औपशमिक शरः प्रकोप ससंयतो भवति । सूक्ष्मः इलक्ष्णावयवः सम्परायः क्रोधादिरूपायः संसारहेतुर्यत्र ल सूक्ष्मसम्परायसंयमः, स चो- पशान्तकपायोऽपि स्वल्पयत्ययला मात् दावानल. दग्धाञ्जनवृक्षो यथोदक सिवनादि कामकुरादि स्वरूप सुपदर्शयति एरमेदसदोरक - मुखबत्रिकादिषु ममत्व समीरणेन संघमानः पाग्निः वारि त्रेन्धनम् आसूलती दहन् प्रतिविशिष्टा - ऽध्यवसायात् स ટાઉ प्रणचयति । श्रेणी से गिरते समय होता है। श्रेणी दो प्रकार की होती है । उपराम श्रेणी और क्षपक श्रेणी । बोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपश मन करते हुए उँचे चढना उपशाम श्रेणी है और उनका क्षपण करते हुए आगे पढना क्षपक श्रेणी है। दोनों में से किसी भी श्रेणीका आरंभ अष्टम गुण स्थान वर्ती अप्रमत्त सुनि ही करता है । उपशाम श्रेणी करने वाला मुनि जब आठवे गुणस्थानसे नौवें और नौवें ले दसवें गुणस्थान में पहुँचता है तब उसे सूक्ष्मसम्पराय चारित्र की प्राप्ति होती है । तत्पश्चात् वह मुनि व्यारहवें गुणस्थान में पहुँचता है और वहां मोहनीय कर्म को एक अन्तर्मुहर्स के लिए पूर्ण रूप से उपशान्त करता है । फिर संज्वलन कषाय का उदय होता है और श्रेणी सम्पन्न सुनि पुनः गिर कर दशवें गुनस्थान में आ जाना है । उस समय भी उससे सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र होता है । 1 શ્રેણીથી પડતી વખતે થાય છે શ્રેણી એ પ્રકારની હોય છે, ઉપશમ શ્રેણી અને ક્ષપક શ્રેણી મેહનીય કર્મોની પ્રકૃતિએ નુ' ઉપન્થમ કરતાં થકા ઉંચે ચઢવુ ઉપશમ શ્રેણી છે. અને તેમનું ક્ષપણુ કરતાં થકા આગળ વધવું ક્ષપક શ્રેણી છે. બંનેમાંથી કાઇ પણ શ્રેણીને આર્ભ અષ્ટમગુણુસ્થાનવતી અપ્રમત્ત મુની જ કરે છે. ઉપશમ શ્રેણી કરનારા મુનિ જ્યારે આઠમાં ગુસ્થાનથી નવમા અને નવમાંથી દશમાં ગુણથાનમાં પડેોંચે છે ત્યારે તેને સૂક્ષ્મ સપરાયચારિત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે. ત્યાર બાદ તે મુનિ અગિયારમા ગુણસ્થાનમાં પહોંચે છે. અને ત્યાં મેહનીય કર્મીને એક અતરર્મુહૂત'ને માટે પૂર્ણતયા ઉપશાન્ત કરે છે, પછી સંજવલન કષાયના ઉદય થાય છે. અને શ્રેણી સ‘પન્ન મુનિ પુન: પડીને દશમાં ગુરુસ્થાનમાં આવી જાય છે. તે સમયે પશુ તેના સૂમસામ્પરાય ચારિત્ર હાય છે, Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ तत्त्वार्थस्त्र क्षायिकी श्रेणि:-अनन्तानुवन्धिनः कमायाः मिथ्यात्वमिश्रमभ्यक्त्वानि अपत्या. ख्यानपत्याख्यानाचरणानि, पुं-लघुपक-स्त्रीवेदाः, हास्यादिपट्कम् सज्वलन कषायश्च-नि, अयाश्च क्षायिकश्रेणे-मारोहकः अविरतदेशपमत्ताऽपमत्ताऽविर सान्यतमः कश्चिद् किशुन्यमानाऽध्यवसायो भवति । स खलु अनन्तानुवन्धिनः कषायान् अन्त मुहूर्तेलेत्र युगपदेव क्षपयति, ततश्च-यावत् संज्यलनकोभकपाय संख्येयभागं क्षायति, तथासहि-सूक्ष्मसम्परायसंयमचारित्रवान सम्पद्यते । समसकलमोहनीयको समेतु एकादशगुणस्थानप्राप्तः सन् उपशान्तकषायो यथाख्यातसंयमचारित्रवान् भवति, क्षपकः पुनः समस्तमोहनीयकर्मोदधि क्षक श्रेणी करने वाला लुन्दि श्री जय दलवें गुणस्थान में पहुचता है तब उसे भी हमलावराय चरित्र झोया है, विशेषता यही है कि क्षपक श्रेणी वाला दसवें सीधे बारह गुणास्थान में पहुंच कर अप्रतिमानी हो जाता है। उसका पतन नहीं होता। उपशाम श्रेणी में अनन्तालुबंधी कषाय, दर्शननिक, अप्रत्याख्यानी कषाय, मस्याख्यानाचक्षणीय कपाय, पुरुष वेद-श्री वेद-नपुंसक वेद, हास्यादि पदक और संज्वलन पाय का उपशम करता है जब कि क्षपक श्रेणी बाला इस प्रकृतियों का क्षय करता है। उपशम श्रेणी वाला मुनि जन्य ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है तब अन्तर्मुहर्त समय के लिए उसे यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होती है । क्षक श्रेणी चाला चारहवें गुणस्थान को प्राप्त करके अप्र. निपानी अथारुयात चारित्र प्राप्त करता है। ક્ષપક શ્રેણી કરવાવાળા મુનિ પણ જ્યારે દેશમાં ગુણસ્થાનમાં પહોંચે છે ત્યારે તેને પણ સૂમસામ્પરાય ચારિત્ર થાય છે. વિશેષતા એ છે કે ક્ષપક એ ગીવાળા દશમાંથી સીધા બારમા સ્થાનમાં પહોંચીને અપ્રતિપાતિ થઈ જાય છે. તેનું પતન થતું નથી ઉપશમ શ્રેણીમાં અનંતાનુબંધી કષાય, દર્શનત્રિક, અપ્રત્યાખ્યાની કષાય, પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાય, પુરૂષદ-સ્ત્રીવેદ, નપુંસકવેદ, હાસ્યાદિ ષટક અને સંજવલન કષાયને ઉપશમ કરે છે જ્યારે ક્ષપક શ્રેણીવાળા આ પ્રકૃતિએ ને ક્ષય કરે છે. ઉપશમ શ્રેણીવાળા મુનિ જનારે અગીયારમા ગુણસ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. ત્યારે અંન્તર્મુહૂત સમયને માટે તેને યથ ખાત ચરિત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે ક્ષપક શ્રેણીવાળા બામા ગુણસ્થાનને પ્રાપ્ત કરીને અપ્રતિપાતિ યથાખ્યાન ચારિત્ર પ્રાપ્ત કરે છે. Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ४९ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ५९ चारित्रभेदनिरूपणम् समुत्तीर्णों निग्रन्थः श्रमणो स्थाख्यातचारित्र संयमी सम्पद्यते। यथाख्यातः कथितस्तीर्थकृता तथैव यो वर्तते स यथाख्यातसं रमउच्यते, अकषायः खल्ल संयम स्तीर्थकृताख्यातः, स चैकादश - द्वादशगुण स्थानयोः सम्भवति, उपशान्तत्वात्क्षीणत्वाच्च कपायाभाव इति भावः । तथा चैवं रीत्या पञ्चविध चारित्रमदगन्तव्यम् ज्ञानावरणाद्यष्टविधर्मपुञ्जस्य रिक्तीकरणातू । उक्तश्चोत्तराध्ययने २८-अध्ययने ३२-३३ गाथायाम् । 'सामाइयत्वपढम्-छेदोषहाचणं भवे बीयं । परिहारविलुद्धीयं-सुहमतहसंपरायं च ॥१॥ 'अकायमदखायं-छ उमथस्न जिरलया। एवं चरितकर-चारित होइ आहियं ॥२॥ इति । 'सामायिकमय प्रथम-छेदोषस्थापनं भवेद् द्वितीयम् । परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्म तथा सम्परायञ्च ॥१॥ तीर्थकरों ने 'यथा' अर्थात् जैसा ख्यात' अर्थात् कहा है, वैसा ही जो हो वह 'यथाख्यात' कहलाता है । तीर्थदरों ने कषायरहित संयम कहा है। यह यथाख्यात चारित्र ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में होता है, इन गुणस्थानों में कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, अतएव उनका उदय नहीं रहता। -- इस प्रकार पांच प्रकार का चारित्र समझना चाहिए। ज्ञाना वाणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों के समूह को रिक्त करने से उसे चारित्र कहते हैं। उत्तराध्ययनमूत्रके २८ वें अध्ययन की ३२-३३ वीं गाथा में कहा हैपहला सामाजिक चारित्र है, दूसरा छेदोपस्थापन चारित्र है, तत्प તીર્થકરે એ “યથા” અર્થાત્ જેવું ખ્યાત” અર્થાત્ કહ્યું છે તેવું જ જે હોય તે “યથાખ્યાત' કહેવાય છે તીર્થકરોએ કષાય રહિત સંયમ કહેલ છે. આ યથાખ્યાત ચરિત્ર અગિયારમાં અને બારમાં ગુણસ્થાનમાં થાય છે, આ ગુણસ્થાનમાં કષાય, ઉપશાન્ત અથવા ક્ષીણ થઈ જાય છે. આથી તેમનો त्य २२ता नथी. આ રીતે પાંચ પ્રકારના ચારિત્ર સમજવા ઘટે જ્ઞાનાવરણીય અદિ ૮ પ્રકારના કર્મોના સમૂહને ખપાવવા તેને ચારિત્ર કહે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ૨૮ મા અધ્યયનની બત્રીસ-તેત્રીસમી ગાથામાં કહ્યું છે–પહેલું સામયિક ચારિત્ર છે, બીજુ દેપસ્થાપન ચારિત્ર છે. ત્યાર બાદ પરિહાર त० ५७ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . ' सस्वासूचे ४५० 'अपाययथारूपात उसास्थस्य जिनस्व वा । एवं चयरितार-चारिन्नं भवति आख्यानम् ॥२॥ इति । ५९।। धूलम्-तबो दुविह, बाहिरए-अभितरह य॥६॥ छाया--सपो द्विविधम्, बाहार-आभ्यन्तरञ्च ॥६॥ तस्थार्थदीपिका-पूर्व तावत्-कर्मास्त्रवनिरोधलक्षणसंबर हेतुस्वेन तपस उक्तवान्, सम्मति-तप धरूपयितुं प्रथयं वरय वाह्याभ्यन्तरभेदेन भेदद्वयमाह'तबो दुविहं, बाहिरए-अभितरए छ' इति । सपति-दहति अष्टविधकर्माणि, तप्यति वा तपः कर्तरि असुन प्रत्ययः, संपविशिष्टात्मनः शेषाशयविशोधनार्थ बाह्याभ्यन्तरतापनं तपः उच्यते, शरीरेन्द्रियतापनार-कर्मनलनिर्दाहकत्वाच्च श्चात् परिहार विशुद्धिक और क्षमताम्बराय है। पांचशं चारित्र यथा ख्यात है जो छमस्या को और जिन भगवान को प्राप्त होता है। कर्मों के चथसमूह को-रिक-मष्ट करने से चारित्र संज्ञा सार्थक होती है ॥५७॥ 'लको दुधिहं पाहिए' इत्यादि सूत्रार्थ-तह दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर ॥६०॥ तत्वार्थदीपिका-पहले तप को सदर का कारण कहा गया था, अब उस तप की प्ररूपणा करने के लिए पहले उसके बाल और आभ्यन्तर भेदों का निर्देश करते है-- लए दो प्रकार का है-बाह्य तप और आप्रन्तर तप । जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाना-जलाता है, वह तप कहलाता हैं । संघम से युक्त आत्मा का शेष आशय को शुद्ध करने के लिए बाह्य और વિશુદ્ધિક અને સુમસાંપરાય છે. પાંચમું ચારિત્ર યથાખ્યાત છે જે છઘસ્થને અને જિન ભગવાનને પ્રાપ્ત થાય છે. કર્મોના ચય-સમૂહને રિક્ત-નષ્ટ કરવાથી ચારિત્ર સંજ્ઞા સાર્થક થાય છે. પલા 'तवो दुविहे, बाहिरए अभितरए य' त्याहि સૂત્રા—તપ બે પ્રકારના છે–બાહ્ય અને આભ્યન્તર. ૧૬૦ તવાર્થદીપિકા––અગાઉ તપને સંવરનું કારણ કહેવામાં આવ્યું હતું. હવે તે તપુની પ્રરૂપણ કરવાને માટે પહેલાં તેના બાહ્ય અને આંજ્યન્તર ભેદનું નિદર્શન કરીએ છીએ તપ બે પ્રકારના છે-બાહ્ય તપ અને આભ્યતર તપ જે ૮ પ્રકારના કને તપાવે-બાળે છે તે તપ કહેવાય છે. સાયથી યુક્ત આત્માના શેષ આશયને શુદ્ધ કરવા માટે બાહા અને આભ્યાર તાપનને તપ કહે છે. Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ इ. ६० तपसो भेदनिरूपणम् तपो व्यपदिश्यते, तच्च द्विविधम्, बाह्यमाभ्यन्तरश्च । तत्र-बाह्य द्रव्यापेक्षत्वात् -बाह्य तप उच्यते, आभयन्तरव--अन्ताकरण व्यापारमाध्यत्वात् बाह्यद्रव्यान पेक्षत्वाच्चाऽऽभ्यन्तर तप उच्यते तत्राऽसायनादिः कायक्लेशात्मकं तपो बहिलक्ष्यते इति वाह्य तत्-तप उच्यते, अनशनादिशालिवाह्य तपः । प्रायश्चित्त विनयादिकन्तु-आभ्यन्तरं तप उच्यते, अथवा- परमत्यक्षं तपो बाह्यम् , स्वएत्यक्षं पुन राभ्यन्तरं तप उच्यते, अथवा-परप्रत्यक्षं तशे वाला , प्रत्यक्ष पुन राभ्यः न्तरं तप. उच्यते । तदुभयं सपा प्रत्येकं षड्भेदाद् दाइविध बोध्यम् ॥१०॥ तस्वार्थनियुक्ति:--पूर्व कर्मास्त्र निरोध रक्षणकरं प्रति समिति-गुशिआभ्यन्तर तापन को तप करते हैं। शरीर और इन्द्रियों को तय करने के कारण या कर्म-फल का दग्ध करने के कारण भी वह तप कहलाता है। . बाह्य तप और आभ्यन्तर तप के भेद हे तप दो प्रकार का है। जिस तप में बाह्य की अपेक्षा होती है व बाह्य लप और अन्य करण के व्यापार ले ही होने के कारण एवं बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रखने के कारण आभ्यन्तर ताण कहलाता है। आमारना आदि कायक्लेश रूप तप पाह्य से प्रभीत होता है, अन्य पाह्या कहलाता है। अन. शन आदि भी बाह्य रूप ही हैं । प्रायश्चित्त, विनय आदि को अगम्यन्तर तप कहते हैं । या जो तप दूसरों को प्रत्यक्ष हो सके वह पाछ और जो स्वप्रत्यक्ष ही हो वह आभनन्तर तप । दोनों हापों के छह-छह भेद हैं, अतः लन्ध मिलकर बारह प्रकार का तप है ।। ६० ॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले यह प्रतिपादन किया गया था कि कर्मानव શરીર અને ઈન્દ્રિયોને તપાવવાના કારણે અથવા કર્મમળને દગ્ધ કરવાના કારણે પણ આ તપ કહેવાય છે. * બાહ્ય તપ અને સભ્યતર તપના ભેદથી તપ બે પ્રકારના છે. જે તપમાં બહ્ય દ્રવ્યોની અપેક્ષા રહે છે. તે બાહ્ય તપ અને અંતઃકરણના વ્યાપારથી જ થવાના કારણે અને બાહ્ય દ્રવ્યોની અપેક્ષા ન રાખવાને કારણે આભ્યન્તર તપ કહેવાય છે આતાપના આદિ કાયકલેશ રૂપ તપ બહારથી પ્રાપ્ત થાય છે. આથી બાહ્ય તપ કહેવાય છે. અનશન રાદિ પણ બાહ્ય તપ છે. પ્રાયશ્ચિત્ત વિનય આદિને આભ્યતર તપ કહે છે. અથવા જે તપ બીજાને પ્રત્યક્ષ થઈ શકે તે બાહ્ય અને જે સ્વપ્રત્યક્ષ જ હોય તે આભ્યન્તર તપ બંને તપના છ છ ભેદ છે. આથી બધા મળીને બાર પ્રકારના તપ છે દવા તત્વાર્થનિર્યુકિત–પહેલાં એ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હતું કે Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STOR तत्त्वार्थसूत्रे ४५२ धर्मानुप्रेक्षापरीपहजय-चारित्र तपसा हेतु वकथनात् क्रमशः समित्यादि चारित्रा. न्तानां प्ररूपणं ऋतम्, सम्पति-तपः प्ररूपयितुं थमं तावत् तद्भेदद्वयं पतिपादयति-नको दुविहं, शाहिरए-अमितरए च' इति । तपः खलु-कर्मफल निर्दहनरूपं द्विविधम् भवति, व ह्यम्-आभ्यन्तरश्च, तत्र-वान्तावद् वक्ष्यमाणमनशनादिकं पविधम्, एबम-आम्रन्तरं चाऽपि प्रायश्चित्तादिकं पइविधमवगन्तव्यम् । तथा च-तदुषयं तपः खलु-द्वादशविधं भवति, परिसेव्यमानम् आतापनादिकं तपः कर्मणि-आत्म प्रदेशेभ्यः पृथककृत्य परिशाटयति, अनशनमायश्चित्तध्यानादितपोऽवश्यमेच कर्माबद्वारं संकृणोति, । तथा च-तपसा खलु-पूर्वोपचित कर्म परिक्षयो भवति नूतनकर्मप्रवेशाभावश्च, तस्मात्-संवरस्य-निर्जरायाश्च हेतुभूतं तपो भवतीतिभावः ॥६०॥ निरोध रूप संघर के कारण समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप हैं। इनमें से समिति से लेकर चारित्र तक की प्ररूपणा की जा चुकी है, अब तप की प्ररूपणा करने के लिए सर्व. प्रथम उनके दो भेदो का कथन करते हैं वर्मनिर्दहन रूप तए दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप अनशन आदि छह प्रकार का है और आभ्यन्तर तप भी प्रायश्चित्त आदि के मेद से छह प्रकार का है। दोनों के मिलकर बारह भेद होते हैं। आराधन किया जाने वाला भातापना आदि तप कर्मा को आत्मप्रदेशों से प्रथक् करके हटा देता है और अनशन, प्रायश्चित्त एवं ध्यान आदि तप अवश्य ही कर्मों के आस्त्रबहार को रोकता है । तपस्या के द्वारा पूर्वचित कों का क्षय (निर्जरा) होता है और नवीन કર્માસવનિરોધ રૂપ સંવરના કાર સમિતિ, ગુપ્તિ, ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા, પરીષહજય ચારિત્ર, અને તપ છે. આમાંથી સમિતિથી લઈને ચારિત્ર સુધીની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે. હવે તપની પ્રરૂપણ કરવા માટે સર્વ પ્રથમ તેના બે ભેદેનું કથન કરીએ છીએ. કર્મનિદંડન રૂપ, તપ બે પ્રકારના છે. બાહા અને આભ્યન્તર બહા તપ અનશન આદિ છ પ્રકારના છે. અને આભ્યન્તર તપ પણ પ્રાયશ્ચિત્ત આદિના ભેદથી ૬ પ્રકારના છે. બંનેના મળીને બાર ભેદ થાય છે. આરાધના કરવામાં આવનાર આતાપના આદિ તપ કર્મોના આત્મપ્રદેશથી પૃથફ કરીને કાઢી નાખે છે અને અનશન, પ્રાયશ્ચિત્ત અને દયાન આદિ તપ અવશ્ય જ કર્મોના આસ્રવારને રોકે છે. તપસ્યા દ્વારા પૂર્વ સંચિત કર્મોને ક્ષય (નિર્જરા) Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ रु. ६१ वाह्यतपसोभेदनिरूपणम् मूलम्-बाहिरए तो छविहे, अणसणऊणोरियाभिक्खायरिया रसारिच्चाग-कायकिलेग-संलोणया भेयओ ॥६॥ छाया--'वाह्यन्तपः पइविधम्, अनशनाऽवमौदर्य-मिक्षाचार सपरित्याग - कायक्लेश-संलीनतामेदतः ॥६१॥ तत्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे-संवरहेतुभूतिषसो द्वविध्य प्रतिपादितम्,वाह्याऽभ्यन्टरभेदात्, सम्प्रति तस्यैव तपसः प्रथमभेदभूतस्य बाह्य तास पड्भेदान् ररूपयितुमाह पाहिरए तवे छबिहे' इत्यादि । बाह्य बहिर्भवं तपः खलु पइविधं वर्तते,तद्यथा-अनशनाऽ मौदर्य-मिक्षाचर्या-रस परित्याग-कायक्लेश-संलीनताभेदतः। तत्राऽशनपान खाद्य स्वाधरूपचतुर्विधाहारपरित्यागोऽनशन मुच्यते, तत्रकर्मों का आस्त्रब रुक जाता है। इस प्रकार तप संदर और निर्जरा दोनों का कारण है ॥६० ॥ 'बाहिरए तवे छब्धिहे' इत्यादि सूत्रार्थ-बाह्य तप छह प्रकार काहै-(१) अनशन (२) अवमौदर्य (३) भिक्षाचर्या (४) रसपरित्याग (५) कायक्लेश और (६) प्रतिसंलीनता ।६०॥ तत्वार्थदीपिका- पूर्व सूत्र में संघर के कारणभूत लप के दो भेद कहे हैं-बाह्य और आश्यन्तर । अब पाय लप के भेदों का निरूपणकरते हैं। बाह्य तप छह प्रकार का है-(१) अनशन (२) अवमोदय (३) भिक्षाचर्या (४) रखपरित्याग (५) कायक्लेश और (६) संलीनता । इनमें से अशन, पान, खादिम और स्वादिल रूप चार प्रकार के आहार का परित्याग करना अनशन कहलाता है। उपवास, वेला, तेला, चौला થાય છે અને નવા કર્મોનો આસ્રવ રેકાઈ જાય છેઆ રીતે તપ, સંવર અને નિર્જરા બંનેનું કારણ છે. ૬૦ . 'बाहिरए तवे छबहे' छत्यादि सूत्राय- त५ ७ ५४२ -(१) अनशन (२) ममोहय (3) मिक्षायर्या (४) २सपरित्याग (५) यश गने (६) प्रति तीनता. તન્નાથદીપિકા–પૂર્વ સૂત્રમાં સંવરના કારણભૂત તપના બે ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે બાહ્ય તેમજ આભ્યન્તર હવે બાહ્ય તપના ભેદનું નિરૂપણ उरी छीमे___ा त५ ७ ५४२ -(१) अनशन (२) समय (3) मिक्षा. या (४) २सपरित्याग (५) यश भने (6) प्रतिससीनता सामाथी અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વ ઘ રૂપ ચાર પ્રકારના આહારને પરિત્યાગ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - नत्त्वार्थसूत्र चतुर्थ पष्टाऽष्टम-दशम-द्वादशादि भेदाननेकविधम् । तधा-इत्वरिक-मरणका लिकभेदादनशनं द्विविधं भवति, तवापि-हत्वरिक श्रेणितपःमभृति भेदरनेकविधम् । ए-मरण कालिक तमोऽपि सविचाराऽविचारनिरिमऽनिहारिमादिभेदै रनेकविधं सरति । तच्च दृष्टाऽप्टफलाऽनपेक्षतया संयमसिद्धिरागोच्छेद कर्मविनाशध्यानाऽऽगममाप्त्यर्थ क्रियते १ संथम ज्ञानादिहेतोयद स्वाहारपरिमाणन्यून भुज्यते तद्-अमोदर्य गुच्यते, तच्च-गक्षेत्रकालभावपर्यवेः पञ्च, विधं वति, तद्धि-संयमकृद्धयर्थ उद्गनदोपपशमार्थ सन्तोपस्वाध्यायादि सिद्धयर्थ और पंचोस आदि के सेद से अनशन अनेक प्रकार का है। इस्वरिक अनशन और पापज्जीवन अनशन के भेद से भी अनशन दो प्रकार का है। इत्परिक अनशन श्रेण तप आदि के भेद से कई प्रकार का है। इसी प्रकार यायज्जीवन (मरणकालि.) सनशन के भी सवि. चार, अदिचार, निहारिम, अनिहरिम के भेद से अनेक भेद हैं । अनशान लप प्रत्यक्ष और परोक्ष लौकिक्ष फल की अपेक्षा न रखते हुए संघम की सिद्धि के लिए, राग को नष्ट करने के लिए, कर्मों का विनाश करने के लिए, प्रधान और ज्ञान की प्राप्ति के लिए किया जाता है। ___ संयम और ज्ञान भादि की सिद्धि के लिए अपने आहार में जो कभी की जाती है वह अबलौदर्य लष कहलाता है। नव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यक्ष के लेद ले हलके पांच भेद हैं। संचन की वृद्धि के लिए, संयम बंधी दोषों को शान्त करने के लिए, तथा संतोष एवं ४२वी सना हेवाय छ. उपवास, छ, मटुम, भने ५याणु વગેરેના ભેદથી અનશન અનેક પ્રકારના છે. ઈવરિક અનશન અને યાજજીવન અનશનના ભેદથી પણ અનશન બે પ્રકારના છે. ઇવરિક અનશન શ્રેણિતપ આદિના ભેદથી ઘણી જાતના છે. એવી જ રીતે માવજ જીવન (મરણપર્યત૬) અનશનના પણ સવિચાર, અવિચાર, નિહરિમ અનિરિમને ભેદથી અનેક ભેદ છે. અનશન તપ પ્રત્યક્ષ અને પરોક્ષ લોકિક ફળથી અપેક્ષા ન રાખતા થકા સંયમની સિદ્ધિને માટે, રાગ નાશ કરવા માટે, કર્મોને વિનાશ કરવા કાજે, ધ્યાન તથા જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ અર્થે કરવામાં આવે છે. સંયમ અને જ્ઞાન આદિની સિદ્ધિ માટે પિતાના આહારમાં જે ઘટાડે કરવામાં આવે છે તે અમૌદર્ય તપ કહેવાય છે દ્રવ્ય ક્ષેત્ર, કાળ ભાવ અને પર્યાવના ભેદથી તેના પાંચ ભેદ સંયસની વૃદ્ધિ માટે સંયમ સંબંધી દેને શાત કરવા માટે તથા સંતોષ અને સ્વાધ્યાય વગેરેની સિદ્ધિના. દથી પણ એક છે. એવી જ હામિન Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ६९ वाह्यतपसोर्भेदनिरूपणम् ७५५ च क्रियते २ भिक्षार्थं चरणं - भिक्षाचर्या. लाचाऽष्टविधमोचरात्र रुतैषणातदन्याभिग्रहरूपा भवति, इयं वृत्तिपरिसंख्यानमिति नाम्नापि मसिद्धेति ३ इन्द्रियमदनिग्रहार्थं क्षीर-दधिघृतादि प्रणीतपानवोजनस्य परिवर्जनम्, 'वीर दहि सपिमाई' इत्युत्तराध्ययनोहेनाऽऽदिशन्देत्र विक्क - कटु कषायादिरसानामपि ग्रहणं बोध्यम् रसपरित्याग इन्द्रियदर्पनिग्रह निद्रादिजयस्वाध्यायसिद्धयादि. निमित्तं दुग्धादि पौष्टिकरलपरित्यागचतुर्थ तप उच्यते ४ शुभपरिणामजनक - मोक्ष सुखसम्पादक- वीरासनोत्कुदुकानासनविधानादिरूपः कायशः तपः स्वाध्याय आदि की सिद्धि के लिए किया जाता है। भिक्षा के लिए विचरण करना भिक्षापर्या है । यह प्रकार के गोचराग्र, सात एषणा तथा अन्य अभियह रूप है । इसका दूसरा नाम 'वृत्तिपरिसंक्षेप' भी प्रसिद्ध है । इन्द्रियों के उन्माद का तथा निद्रा आदि का विग्रह करने के लिए दूध, दही, घृत आदि पौष्टिक आहार पानी का स्थान करना रसपरित्याग तप है । 'खीर - दहि-सपिमाई' उत्तराध्ययन में यहां जो 'आदि शब्द का प्रयोग किया है, उससे तिक्त, वहु और कषाय आदि रखों का भी ग्रहण कर लेना चाहिए । इन्द्रियों की प्रबलता को दबाने के लिए, निद्राविजय के लिए तथा स्वाध्याय आदि की सिद्धि के लिए दूध आदि पौष्टिक रसों का स्थान करना रसपरित्याग नाम का चौथानप है । शुभ परिणामों को उत्पन्न करने के लिए और मोक्षसुख को प्राप्त માટે કરવામાં આવે છે. ભિક્ષા માટે વિચરણ કરવુ' ભિક્ષાચર્યાં છે. આ આઠ પ્રકારના ગેચરાગ્ર, સાત એષણા તથા અન્ય અભિગ્રહ રૂપ છે આાનુ મંજું નામ વૃત્તિિ संक्षेप' पण छे. : ઇન્દ્રિયેાના ઉન્માદનુ' તથા નિદ્રા આદિના નિઝ્ડ કરવા માટે દૂધ, દહીં, ઘી આદિ પૌષ્ટિક આહાર-પાણીના, ત્યાગ કરવા રસપરિત્યાગ તપ છે. 'खीर दही खनिमाई' उत्तराध्ययनभां भहीं' ने 'आदि' शब्द प्रयोग કરવામાં આવ્યે છે તેનાથી તીખા, કડવા અને કસાયેલા વગેરે રસેતુ' પણ ગ્રહણુ કરી લેવુ' જોઈ એ. ઇન્દ્રિચાની પ્રબળતાને દબાવવા કાજે, નિદ્રાવિજયને માટે તા સ્વાધ્યાય આદિની સિદ્ધિ માટે દૂધ વગેરે પૌષ્ટિક સેના ત્યાગ કરવા રસપરિત્યાગ નામક ચેાથું તપ છે. શુભ પરિણામેાને ઉત્પન્ન કરવા માટે અને મેાક્ષસુખને પ્રાપ્ત કરવા Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थस्त्र -कायक्लेशतपः पश्च मयुरूपते, । तच्च-कायक्लेशरूपं तपः शारीरिक दुख तितिक्षा सुखानभिष्वङ्ग प्रवचन प्रभावनाधर्थम्, अध परीपह कायक्लेशयोः को विभेदः ३ इति चेदुच्यते-परीपह 'स्तावद् यदृच्छया खलु-उपनिपतितो भवति, कायक्लेशस्नु-स्वयंकृतो भवतीति विशेषो द्रष्टव्यः। बाह्यद्रव्यापेक्षस्वात-परमत्यक्षस्वाच्च कायक्लेशस्य बावनव्यवहारो भवतीतिभावः ५ सलीनता -चतुर्विधा, इन्द्रिय १ कपाय २ योग ३ विविक्तचर्या ४ भेदात् तत्रेन्द्रियसंलीलता-इन्द्रियगोपनम् १ रूपायसलीनठा--कपायोदयनिरोधः, २ योग संलीनता-मनोवाक काययोगानां शुभेषु प्रवृत्तिः ३ विविक्तवर्याकरने के लिए बीरालन, उत्कुटुमालक आदि कठिन आमन करना आदि कायक्लेश तक है। यह पांचवां है। इस तप का उद्देश्य हैशारीरिक कष्ट को सहन करना, सुख में आसक्ति न उत्पन्न होने देना और प्रवचन की प्रभाचला। प्रश्न-परीवह और कायक्लेश में क्या भेद है ? उत्तर-परिषह वह कष्ट है जो अपने-आप आ पड़ता है किन्तु कायक्लेश स्वेच्छा से उत्पन्न क्रिया होता है । यह दोनों में अन्तर है। ___घाह्य द्रव्यों की अपेक्षा होने से दूसरों को प्रत्यक्ष होने से काय क्लेश थाह्य तप कहलाता है। _ संलीनता चार प्रकार की है-(१) इन्द्रिय संलीनता (२) कयायसंली. नता (३) योगमलीनता और (४) विविक्त चर्चा संलीनता । इन्द्रियों का गोपन करना इन्द्रियसलीनता है, कषाय के उदय का निरोध करना માટે વીરાસન, ઉસ્કુટુકાસન વગેરે અઘરાં આસન કરવા કાયકલેશ તપ છે. આ પાંચમું તપ છે. આ તપને હેતુ છે–શારીરિક કષ્ટને સહન કરવા, સુખમાં આસકિત ઉ૫ન ન થવા દેવી અને પ્રવચનની પ્રભાવના. પ્રશ્ન-પરીષહ અને કાયકલેશમાં શે ભેદ છે? ઉત્તર–પરીષહ તે કષ્ટ છે જે પિતાની મેળે આવી પડે છે પરંતુ કાયકલેશ વેચ્છાપૂર્વક ઉત્પન કરવામાં આવે છે. બંનેમાં આ તફાવત છે બ ઘ દ્રવ્યોની અપેક્ષા હોવાથી, બીજાઓને પ્રત્યક્ષ હોવાથી કાયકલેશ બાહ્ય તપ કહેવાય છે. सांदीनता या२ ५४ा२नी छ-(१) ४न्द्रियसलीनता (२) ३५ यस सीनता (3) योग सीनता भने (४) विवितियांस सीनता न्द्रियानु पिन ४२ ઈન્દ્રિયસંલીનતા છે, કષાયના ઉદયને નિરાધ કરો કષાયસંલીનતા છે, મન Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.सू. ६१ बालतपसोभेदनिरूपणम् ४५७ एकान्ताऽनपातस्त्री पशु पण्डकविवर्तित शयनाऽऽमनसेवनम् ४ तदूपं तपः संलीनता तपः षष्ठं बाह्यं तप उच्यते ६ इति ।।६१॥ तत्त्वर्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-कर्यास्त्रत्रनिरोधलक्षग संवरस्य हेतुतया तपः मतिपादितम्, तत्खलु तपो द्वादशषिधम् तत्र-षड्विधं ब ह्यम्, पडूविधमाभ्यन्तरश्चेतिमरूपितत्वात्, सम्मति-प्रथमं पविधं बाह्यं तपो निरूपयितुमाह-'बाहिरए तवे छबिहे, अणसण-ऊणोयरिया-भिक्खायरिया-रसपरिच्चाग-कायकिलेससंलोणया भेयो' इति । बाह्य-बहिर्मवं बहिर्लक्ष्यमाणं तपस्ताद पडूविध भवति अनशनाऽत्रमौदर्य-भिक्षाचर्या-रसपरित्याग-कायक्लेशसंलीनता भेदात् , तत्र-अनशनम् १ अवमोदयम् २ भिक्षावर्या ३ रसपरित्यागः ४ संली. नता ६ कायक्लेशः ५ इत्येवं षड्विधं वाह्यं तप उच्यते । यः पुनः प्रवचनोक्त. कषायसंलीनता है । मन वचन और काय को अशुभ व्यापार में प्रवृत्त न होने देना योगसंलीनता है और एकान्त, जहां लोगों का आवागमन न हो तथा जो स्त्री, पशु और पण्डक ले रहित हो ऐसे शयनासन का सेवन करना विविक्तचर्या है । यह प्रति संलीनता नामक छठा बाह्य तप है ॥ ६१ ॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले कर्मास्रवनिरोध रूप लंबर का कारण तप है, ऐसा प्रतिपादन किया गया था। उस तप के बारह भेद हैं-छह बाह्य और छह आभ्यन्तर, यह भी कहा जा चुका है। अब प्रथम बाह्य तप के छह भेदों की प्ररूपणा करते है बाह्य तप छह प्रकार का है-अनशन, अधमौदर्य, ऊनोदरता, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिललीनता । जो तप बाह्य हो और बाहय से जाना जा सके वह बाहय तप कहलाता है। વચન અને કાયાને અશુભ થાપારમાં પ્રવૃત્ત ન થવા દેવી એ ગમલીનતા છે અને એકાત, જ્યાં લોકે નું આવાગમન ન હોય તથા જે સ્ત્રી, પશુ અને નપુંસી રહિત હોય એવા શયનાસનનું સેવન કરવું વિવિકતચર્યા છે. આ પ્રતિબંલીનતા નામક છઠું બાહ્ય તપ છે. ૬૧ તવાનિયુકિત-પહેલાં કમઅવનિરોધ રૂપ સંવરનું કારણ તપ છે, એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હતું. તે તપના બાર ભેદ છે-છ બાહ્ય તથા છ આભ્યન્તર એ પણ કહેવામાં આવ્યું છે. હવે પ્રથમ બાહ્ય તપના છે ભેદની પ્રરૂપણે કરીએ છીએ मा त५७ ५२न। छ-मनशन, अवमी, हरता, लिहायर्या. રસપરિત્યાગ, કાયકોશ અને પ્રતિસલીનતા જે તપ બહાર ય અને બહારથી જાણી શકાય તે બાહ્ય તપ કહેવાય છે. त० ५८ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वाक्षरे भया स्वसामर्थानु पारं द्रव्य क्षेत्रकामावविक्षः सन् अहोरात्राभ्यन्तर कर्तव्य क्रियाश्चापरित्यजन् अनशनादिकं तपश्चरवि स कर्यनिर्जराभाग भवति इति पोध्यम् । पूर्वोक्तस्य-सप्तदशविधस्य पृथिवीकायिकादि संयमस्य सामायिकादि पञ्चविधचारित्ररूपस्य वा संयमस्य परिपालनार्थ रसत्यागादिकं तपो भवति । चैन-तपसा ज्ञानाबरणादि कर्मण आत्ममदेशेभ्यः पृथक्करणरूपपरिशाटनलक्षणा निर्जरा भवति । तत्रा-ऽशनम् - आहारः, बत् परित्यागोऽनशनम् , तच्च द्विविधम् इत्वरं-यावज्जीवश्च । तत्रेवरसनशन नमस्कारसहितादिकं चतुर्थभक्तादि -पण्मासपर्यन्तञ्चाऽवले यस् । यावज्जीवं पुन स्त्रिविधम् , पादपोपगमनम्-इङ्गितम् जो साधक प्रवचन में श्रद्धा रखना शुश्रा, अपने सामर्थ्य के अनु. सार, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाष को जानता हुआ, दिन में और रात्रि में करने योग्य क्रियाओं का परित्याग न करता हुआ अनशन आदि तप करता है, वह कालनिर्जरा का भागी होता है। पूर्वक्ति सत्तरह प्रकार के पृथ्वीकाय संयम आदि का पालन करने के लिए या पांच प्रकार के सामायिक चारिन आदि रूप संयम के पालन के लिए रसपरित्याग आदि तप किया जाता है। लपले कर्मो की निर्जरा होती है अर्थात् ज्ञानावरण आदि कनों क्षा आत्मप्रदेशों से पृथक्करण रूप परिशाटन होता है। ___ अशन का अर्थ है-माहार, उसका त्याग करना अनशन है। इसके दो भेद है-इत्वरिक और यावञ्जीव । इत्वरिक अनशन नौकारसी से लेकर उपवास आदि छह महीने तक का होता है । यावजीच अनशन के तीन भेद है-पादपोपगमन, इंगितमरण और भक्तप्रत्याख्यान । જે સાધક પ્રવચનમાં શ્રદ્ધા રાખતે થક, પિત ની શકિત મુજબ, દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવને જાણ થક, દિવસ અને રાત્રિદરમ્યાન કરવા ગ્ય ક્રિયાઓને પરિત્યાગ ન કરતે થકે, અનશન વગેરે તપ કરે છે, તે કર્મ નિર્જરાને ભાગી થાય છે પૂર્વોકત સત્તર પ્રકારના પૃથ્વીકાય સંયમ આદિનું પાલન કરવા માટે અથવા પાંચ પ્રકારના સામાયિક ચારિત્ર આદિ રૂપ સંયમના પાલન માટે ૨સપરિત્યાગ આદિ તપ કરવામાં આવે છે. તપથી કર્મોની નિર્જરા થાય છે અર્થાત્ જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોના આત્મપ્રદેશથી પૃથક્કરણ રૂપ પરિશાટન થાય છે. અશનનો અર્થ છે-આહાર, તેને ત્યાગ કરે અનશન છે આના બે ભેદ છે–ઈશ્વરિક અને માવજજીવ ઈરિક અનશન નૌકારશીથી લઈને ઉપવાસ વગેરે છ માસ સુધીનું હોય છે. યાજજીવ અનશનના ત્રણ ભેદ છે Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.६१ बाह्यतपसोभेनिङ्गपण भक्तपत्याख्यानश्च । तन-पाइपोपगमनं द्विविधा, सव्याघातम्-नियाघातञ्च तत्र-सतोऽप्यायुषः समुत्पन्नव्याधिना संजात महावेदनेन यमाणोत्क्रान्ति करोति तत्-सव्याघातमुच्यते. निर्याघातं पादपोपगमनं हु-प्रवज्या शिक्षा पदादिक्रमेण जराजर्नरितदेहः सन् उपहितचतुर्विधाहार प्रत्याख्यान: प्रशस्तध्यानव्यापृतान्तःकरणो जन्तुरहितं रथ ण्डलमाश्रित्य पादपवत् एकल पान निपत्य परिस्पन्दशून्यः तावत्कालपर्यन्तमारते यावत्माणा नोकामन्ति, इत्येवं तावत् पादपोपगमरूपं द्विविध मनशनम् । श्रुतविहित क्रियाविशेषरूप मिङ्गितमुच्यते, तद्विशिष्टं मरणमिङ्गितमरणम् । इदमषि-अनशनवः स्वीकुर्वन् दीक्षा-शिक्षापदादिपापपोपगमन के दो भेद हैं-लयाघात और निर्धाधान्द । जिसे व्याधि उत्पन्न हुई है और घोर वेदना हो रही है वह भायु शेष होने पर भी माणों की जो उत्क्रान्ति करता है वह शव्याघात पादपोपममन हैं। जिस साधु का शरीर प्रवज्या एवं शिक्षा पद आदि के क्रम से जरा से जर्जरित हो गया हो, वह चारों प्रकार के आहार का परिहार करके, प्रशस्त ध्यान में चित्त लगाकर जीव-जन्तुओं ले रहित भूमि का आश्रय लेकर पादप (वृक्ष) के जैले एक पलवाडे से टेट जाता है, हलन-चलन बिलकुल बंध कर देता है और जीवन के अन्त तक उसी प्रकार स्थिर रहता है। यह निधाधान पादपोपगमन कहलाता है। यह दोनो प्रकार का पादपोषाध्यम नानक अनशन है। शास्त्रविहित क्रिया को इंगित सहते हैं, उससे युक्त भरण इंगित मरण समझना चाहिए । इल अनकाल जर को भी वहीस्वीकार करता પાદપિપગમનું ઈગિતમરણ અને ભાતપ્રત્યાખ્યાન પાદપિપગમનના બે ભેદ છે સવ્યાઘાત અને નિર્વાઘાત જેને વ્યાધિ ઉત્પન્ન થઈ છે અને ઘર વેદના થઈ રહી છે તે આયુષ્ય બલી હોવા છતાં પણ પ્રાણાની જે ઉત્ક્રાન્તિ કરે છે તે સવ્યાઘ ત પાદપિપગમન છે. જે સાધુનું શરીર પ્રવજ્યા અને શિક્ષાપદ આદિના કમથી ઘડપણથી જર્જરિત થઈ ગયું છે, તે ચારે પ્રકારના આહારને ત્યાગ કરીને, પ્રશરત કાનમાં ચિત્ત પરેવીને, જીવજતુએ વગરની ભૂમિને આશરો લઈને, પાપ (વૃક્ષ)ની જેમ એક પડખેથી સુઈ જાય છે, હલનચલન તદ્દન બંધ કરી દે છે અને જીવનના સુધી તે જ હાલતમાં સ્થિર રહે છે. આ નિર્ચાઘાત પાદપપગમન કહેવાય છે. આ બંને પ્રકારના અનશન પાદપપગમન નામક છે. શાસ્ત્રવિહિત ક્રિયાને ઈગિત કહે છે, તેનાથી યુક્ત મરણ ઈગિતમરણ સમજવું. આ અનશન વ્રતને પણ તે જ સ્વીકાર કરે છે જે દીક્ષા અને Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० तत्त्वार्थ प्रतिपत्तिक्रमणेवा-ऽऽयुपः क्षीणतामवगम्य गृहीतरबोपकरणो निर्जन्तुकस्थण्डिळ शायी भूत्वा-एकक एवं प्रत्याख्यान चतुर्विवाहारो गर्यादितभूमौ गमनाऽगमनं कुर्वन्-चेष्ठावान् सम्यग्ज्ञाननिष्ठः प्राणान् परित्यजति, एतत् खल-इङ्गितमरणं परपरिकर्मवर्जितश्च भवति । भक्तपत्याख्यानरूपमनशनं तु-गच्छमध्यवर्तिनः संयतस्य बोध्यम् , स खल्नु गच्छ ध्यवर्ती संयतः कदाचित् त्रिविधाहारमत्या. ख्याता भवति-कदाचित्-चढविधादार मत्याख्शता भाति, अन्ते च-मृदुसंस्तारकाश्रितः कृतसकल पत्याख्यानः शरीरायुपकरणमनस्वरहितः सन् स्वयं परिहै जो दीक्षा और शिक्षा पद आदि के क्रम से आयु को क्षीण हुआ समझता है । वह अपने उपकरणों को ग्रहण करके जीव-जन्तु विहीन भूमिभाग में चला जाता है। अकेला ही चारों प्रकार के माहार का त्याग कर देता है और मर्यादा की गई भूमि में ही गमनागमन करता है। इस प्रकार सम्याक् ज्ञान में लिए हो कर समाधि पूर्वक प्राणों का परित्याग कर देता है । इंगित मरण परपरि कर्म से वर्जित शेता है अर्थात् इस में भी दूसरे से किसी प्रकार की सेवा-शुश्रूषा नहीं करवाई जाती। भस्तप्रत्याख्यान अनशन .गच्छ में रहे हुए साधु को होता है। गच्छ के अन्दर रहा हुआ साधु कभी तीन प्रकार के आहार का, त्याग करता है और कभी चारों प्रकार के आहार का परित्याग कर देता है। अन्त में संस्तारक पर लेट कर, सब प्रकार का प्रत्याख्यान करके, शरीर एवं उपकरण आदि में ममता से रहित होकर, स्वयं नमस्कार શિક્ષા પદ આદિના ક્રમથી આયુષ્યને ક્ષીણ થયેલું સમજે છે. તે પિતાના ઉપકરણોને ગ્રહણ કરીને જીવ-જતુ વિહેણ ભૂમિભાગમાં ચાલ્યા જાય છે. એકલે જ ચારે પ્રકારના આહારને ત્યાગ કરી દે છે અને મર્યાદા બાંધેલી ભૂમિમાં જ ગમનાગમન કરે છે, આ રીતે સમ્યગ્રજ્ઞાનમાં નિષ્ઠ થઈને સમાધિપૂર્વક પ્રાણને પરિત્યાગ કરી દે છે ઈગિતમરણ પરંપરિકમથી વર્જીત હૈય છે અર્થાત્ આમાં પણ બીજાથી કઈ પ્રકારની સેવા–શુશ્રષા કરવામાં આવતી નથી ભકતપ્રત્યાખ્યાન અનશન ગ૭માં રહેલા સાધુ માટે હોય છે. ગચ્છની અંદર રહેલ સાધુ કઈ વાર ત્રણ પ્રકારના આહારનો ત્યાગ કરે છે અને કયારેક ચારે પ્રકારના આહારનો ત્યાગ કરે છે, છેવટે સાથરા પર સુઈ જઈને, બધા પ્રકારના પચ્ચખાણ કરીને, શરીર અને ઉપકરણ વગેરેમાં મમતાથી રહિત થઈને સ્વયં નમસ્કાર ગ્રહણ કરીને અથવા પાસે રહેતા Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ रु. ६१ बाद्यत सोभेदनिरूपगम् ४६९ माहितनमस्कारः, रत्सासन्न श्रमणकचनमस्कारो वा-उद्वर्तन पार परिवर्तनादिकं विदधत् समाधिना कालं करोति, तदेवल खलु-भक्तमत्याख्यानरूप मनशनमव सेयम् १ अदमोदय तावत्-अनमं-न्यूनस्-उदरं यस्य सोऽवमोदरः तस्य भावः अवमौदर्यम् , न्यूनोदरत्वम् , सच्च-भवमोदयं तप चतुर्विधं भवति । १ जघन्या. ऽवमौदर्यम्, २ प्रमाणपामाऽवमौदर्यम्, ३ अर्थाऽव पौदर्यम्. ४ उत्कृष्ट ऽसौदयम् , २ । यत्र-एका सिकथादारभ्य कवलपर्यन्त न्यून माहारादिकं भुज्यते तत्जघन्याऽ मौदर्यम् , द्वात्रिंशत्प्रमाणे-आहारे चतुर्विंशति कबलमा भुज्यते यत्र, तत्-प्रमाणमाप्ताऽधमौदयम् , पोडशकवलमात्रं यत्र सुन्यते तद्- अर्धाऽमौदर्यम् , कवलाष्टका दारभ्य सिकथमात्रं यत्र भुज्यते तद्-उत्कृष्ट ऽ मौदर्यम् । एतच्चन्यूनतर-न्यूनतमा-ऽऽहारे उत्कृष्टम्-उत्कृष्ट मञ्चाऽ मौदयं भवतीति २ मिक्षाग्रहण करके या पास में रहे हुए साधु के द्वारा कुन नमस्कार होकर, पसवाड़ा बदलता हुआ समाधि के साथ कालधर्म को प्राप्त होता हैं। यह भक्तप्रत्याख्यान अनशन है। (१) ऊमोदरता को अवीदर्य करते हैं। अबसौदर्य तप के चार भेद हैं-(१) जघन्य अवोदय (२) प्रमाणप्राप्त अवमौदर्य (३) अर्धावमौर्य और (४) उत्कृष्टायनोदयं । एक लीश्य से लेकर एक ग्रास तक कम आहार करना जघन्य-अचमौर्य है। पूर्ण आहार पत्रीस कवल माना जाता है, उसमें से चौबीस कवल मात्र खाना प्रमाणप्राप्त अवनोदर्य है। सोलह कवल खाना अर्वावमोदर्य है और आठ कवल से लेकर एक स्लीप तक खाना उस्कृष्टावौदर्य है । तात्पर्य यह है कि परिपूर्ण आहार में से जितना-जितना आहार कम किया जाता है, उनना-उतना उत्कृष्ट अधमौदर्य तप होता है। સાધુ દ્વારા કૃતનમસ્કાર થઈને પડખું બદલત થકે સમાધિપૂર્વક કાળધર્મને પ્રાપ્ત થાય છે. આ ભકત પ્રત્યાખ્યાન અનશન છે (૨) ઉનેદરતાને અવનૌદર્ય કહે છે. અમદઈ તપના ચાર ભેદ છે(૧) જઘન્ય અવમૌદર્ય (૨) પ્રમાણપ્રાપ્ત અવમૌદર્ય (૩) અવમૌદર્ય અને (૪) ઉ કટાવમૌદર્ય એક સીથથી લઈને એક કેળિયા સુધી આહાર ઓ છો કર જઘન્ય-અવમૌદર્ય છે. પૂ આ હાર બત્રીસ કેળયા માનવામાં આવે છે તેમાંથી ચોવીસ કે ળિયા જ ખાવું પ્રમાણુપ્રાસ-અવમી દર્ય છે. સેળ કેળિયા ખાવા અર્ધાવનૌદર્ય છે અને આઠ કેળિયાથી લઈને એક સીથ સુધી ખાવ ઉત્કૃષ્ટ વમૌદર્ય છે તાત્પર્ય એ છે કે પરિપૂર્ણ અહિારમાંથી જેટ–જેટલે. આહાર ઓછો કરવામાં આવે છે, તેટલુ - તેટલું ઉત્કૃષ્ટાવમૌદર્ય તપ થાય છે. Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ तत्त्वार्थस्त्र चर्या च-वृत्ति परिसंख्यानरूपाऽनेकविधा भवति, उत्क्षिप्तचर्या-निक्षिप्तचर्यादि भेदात् । तत्रोक्षिप्त-निक्षिप्चर्यादीनां सक्तु-कुल्माषोदनादीनामन्यतममभिग्रहममिगृह्य भिक्षायै पर्यटनम्-तदन्यस्य प्रत्याख्यानं भिक्षाच। तत्र-द्रव्यक्षेत्रकाल-मावतो विभक्तानमिगृहान् कृत्वा भिक्षाटनं कर्तव्यम्, तत्र-दत्तीनां मिक्षाणाश्च परिग्रहणं कर्तव्यम् । तद्यथा-'अधैकां दत्तिं ग्रहीष्यामि द्वे वा-तिस्रो वा' एवम् -भिक्षाणामपि परिगणनं कर्तव्यम् , तत्र द्रव्यतोऽभग्रहः सक्तुकुलमापाऽन्न शुष्कौहनादे ग्रहणविषये, तक्रस्य-एककस्याऽऽचाम्ल पर्णस्य मण्डकानाञ्चाऽऽभिग्रहः क्षेत्रतोऽभिग्रहो देहलीभागस्य जङ्घयौरन्तःकरणेन भिक्षाग्रहण (३) भिक्षाचर्या को वृत्तिपरिसंक्षेप भी कहते हैं। यह अनेक प्रकार की हैं-उरिक्षप्तचर्या, निक्षिप्तचर्चा आदि । उक्षिप्त या निक्षिप्त, लातु, कुल्लाप, ओदन आदि में से किसी का अभिगृह लेकर भिक्षा के लिए अटन हारना और दूसरी वस्तुओं का त्याग करना भिक्षाचर्या हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विभक्त वस्तुओं का अभिग्रह करके भिक्षाटन करना चाहिए। अभिग्रह दत्ति और भिक्षा का किया जाता है, जैले-आज एक ही दन्ति ग्रहण करूंगा या दो अथवा तीन ही ब्रहण हरूंगा । इसी प्रकार भिक्षा की भी गणना-मर्यादा कर लेनी जाहिए । वक्तु, कुल्लाष, अन्न या ओदन को ग्रहण करने के विषय में या हम आचाम्ल पर्णक था मण्डक के विषय में अभिग्रह करना द्रव्य से शिक्षाचर्या है । एक पैर देहली के बाहर और एक भीतर हो तो शिक्षा लूंगा, इस प्रकार का अभिग्रह करना क्षेत्र संबंधी भिक्षा(૩) ભિક્ષાચર્યાને વૃત્તિપરિસંક્ષેપ પણ કહે છે. આ અનેક પ્રકારની છેઉક્ષિપ્તચર્યા, નિક્ષિપ્તચય આદિ ઉક્ષિત અથવા નિક્ષિપ્ત સનુ કુમાષ એદન વગેરેમાંથી કેઈને અભિગ્રહ લઈને ભિક્ષા માટે અટન કરવું અને બીજી વસ્તુઓને ત્યાગ કરે ભિક્ષાચર્યા કહેવાય છે. દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભ વથી વિભક્ત વસ્તુઓને અભિગ્રહ કરીને ભિક્ષાટન કરવું જોઈએ. અભિગ્રહ દત્તિ તથા શિક્ષકને કરવામાં આવે છે, જેમ કે-આજે એક જ વસ્તુ પ્રહણ કરીશ અથવા બે અગર ત્રણનું જ ગ્રહણ કરીશ આ રીતે ભિક્ષાની પણ ગણના-મર્યાદા બાધી લેવી જોઈએ. સ ા, કુલમ = અનાજ અથવા એદનને ડગ કરવાના વિષયમાં અથવા છાશ આચાર્લી પર્ણક અથવા મંડકના વિષયમાં અલિગ્રહ કરે દ્રવ્યથી ભિક્ષાચર્યા છે. એક પગઉ બરા બહાર અને બીજો અંદર હોય તે જ ભિક્ષા લઈશ આ જાતનો અભિગ્રહ ક્ષેત્ર સંબંધી ભિક્ષાચર્યા છે, જ્યારે બધાં જ ભિક્ષુકે ચાલ્યા જશો ત્યારે ભિક્ષા Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ.७सू. ६१ वातपसोमेदनिरूपण विषये कालतोऽभिग्रहः सर्वेषां भिक्षचराणां विनिर्गमनानन्तरं ग्रहण विषये । भावतोऽभिग्रहो हास्यरोदनादि व्यापृतस्य दायकस्य भिक्षा-दानविषयेऽवगन्तव्य, तदेवं-द्रव्याधन्यतमाऽभिग्रहं कृत्वा शेष प्रत्यारुगनं वृत्ति परिसंख्यानरूपा भिक्षाचर्यातपो व्यपदिश्यते ३ रसपरित्यागस्तावत्-अनेकविधः, दुग्ध दध्यादि रसविकृतीनां प्रत्याख्यानं विरस-लक्षादीनाममिग्रहश्च दोध्यः । समस्यन्तेऽतिशयेना-ऽऽस्वाद्यन्ने इति रसाः दुग्ध-दधि-घृतादयः तेषां परित्याग परिहरणं-रसपरित्यागः, तद्रूपं तपो रसपरित्यागतपः ४ एकान्ते शरीरोपघातरहिते सूक्ष्म-स्थूल माणिवर्जिते स्त्री पशुपण्ड करहिते स्थाने स्थितिः, शून्यागार-गिरिचर्या है। जब सभी भिक्षुक निशल चुकेंगे तब शिक्षा लूगा, इत्यादि काल संबंधी अभिग्रह करना काल ले भिक्षाचर्या है। अगर दाता हंसता हुआ या रोता हुआ आहार देगा तो ही ग्रहण करूंगा, इत्यादि अभिग्रह करना भाव से भिक्षाचर्या है। इस प्रकार इन द्रव्य, क्षेत्र आदि में से किसी का अभिग्रह करके शेष का त्याग करना वृत्तिपरिसंख्यान रूप भिक्षाचर्या तप है। (४) रसपरित्याग तप भी अनेक प्रकार का है। दृध, दही आदि रसविकृतियों का त्याग करना और विरस-नीरस सूखे आदि का अभिग्रहण करना इसी तप के अन्तर्गत है। जो रखे जाएं अर्थात आस्वादन किये जाएं उन्हें रस कहते हैं, जैसे दूध, दही, घृत आदि, उन रसों का त्याग रसपरित्याग कहलाता है। (५) एकान्त, शारीरिक व्याघात से वर्जित, सूक्ष्म और स्थल ગ્રહણ કરીશ વગેરે કાળ સંબંધી અભિગ્રહ કરે, કાળથી ભિક્ષાચર્યા છે જે દાતા હસતા હસતા અથવા રડતા રડતા આહાર આપશે તે જ ગ્રહણ કરીશ વગેરે અભિગ્રહ કર, ભાવથી ભિક્ષ ચર્ચા છે આવી રીતે આ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર વગેરેમાંથી કોઈને અભિગ્રહ કરીને શેષને ત્યાગ કરવો એ વૃત્તિપરિ સંખ્યાન રૂ૫ ભિક્ષચર્યા તપ છે. (४) २सपरित्याग त५ ५ अने प्रा२ना छ. दूध, दही माहि રસવિકૃતિ કોને ત્યાગ કરે અને વિરા–નીરસ રૂક્ષ આદિને અભિગ્રહ ક૯પ આ તપના જ અન્તર્ગત છે જે રસી શકાય અર્થાત આસ્વાદન કરી શકાય તેમને રસ કહે છે, જેવી રીતે દૂધ, દહીં, ઘી આદિ સે ને ત્યાગ રસપરિત્યાગ કહેવાય છે. (૫) એકાન્ત, શારીરિક વ્યાઘાતથી વર્જિત, સૂક્ષમ અને રધૂળ પ્રાણિ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थको गुहादौ समाध्यर्थ निरसनं कायक्लेशश्चाऽने कविधः, आतापनादिकम्-वीरासनम्उत्कुटु कासनम् एकपाश्र्वशायित्वम्-६ण्डायतशायित्वम्-अप्रावृत्तादिकम्- केशछश्चमञ्च गन्तव्यम् ५ संलीनता तारत्-इन्द्रिय-पाय-योग-विविक्तवर्या भेदात् चतुविधा। इन्द्रियरूपाययोगानां शुभेषु प्रवृत्तिरिन्द्रियकपाययोगसंली. नता चतुर्थी-विपित्ताशया, एपा-विविक्तशयनासन से बनता-इत्यपि कथ्यते । इत्येचं पविधवाहातपसा खलु संमारसङ्गत्याग:-शरीरलघुत्वम्-इन्द्रियविजयः संगमरक्षण-ज्ञानावरणादि कर्म निर्जरणश्च समासाद्य ते संपतैः-श्रमणः इति ॥६१॥ प्राणियों से रहित एवं श्री पशु तथा नमुलक जहां न हो ऐसे स्थान में रहना-समाधि के लिए सूने घर या पर्वत की गुफा आदि में निवास करना काथलेश है । उनके अनेक भेद है, जैसे-आता ना लेना, घोरासन करना, उत्कुटुक आसन करना, एक ही पखवाडे से शयन करना, दण्डायत (दंड की तरह लषा) होशर शयन करना जीर्णशीर्ण रखना, अल्प भूल्यवस्त्र रखना केशलोंच करना आदि। (६) संलीनता-इसके चार भेद है-इन्द्रिय सलीनता, कषायसलीनता, योग खलीनता और विधिवतचर्या । इन्द्रियों की अशुभ प्रवृति न होने देना इन्द्रिय संलीनता, कषायों की प्रवृत्ति न होने देना कषाय सलीनता और योगों की अशुभ प्रवृत्ति न होने देकर शुभ प्रवृत्ति करना योग संलीनता हैं । स्त्री आदि से वर्जित शयन-आसन का सेवन करना विक्षिक्तशरण नामक सलीनता है। એથી રહિત અને સ્ત્રી, પશુ તથા નપુંસક જ્યાં ન હોય એવા સ્થાનમાં વાસ કરે-સમાવિ માટે સુ ઘર અથવા પર્વતની ગુફા આદિમાં નિવાસ કરે કાયકલેશ છે તેના અનેક ભેદ છે, જેવાં કે–આતાપના લેવી, વીરાસન કરવું, કુટુક આસન કરવા, એક જ પડખે શયન કરવું, દડાયત (દંડની જેમ લાંબા) થઈને શયન કરવું, જીર્ણશીર્ણ વસ્ત્રો રાખવા, અલ્પમૂલ્ય વસ્ત્ર રાખવા, કેશલેચ કરે વગેરે. (6) सलानत-माना यार से छे-धन्द्रियस' सीनत, पायसन 11, ચગસંલીનતા અને વિવિક્તચર્યા ઈન્દ્રિયની અશુભ પ્રવૃત્તિ ન થવા દેવી ઈન્દ્રિયસંલીનતા, કષાની પ્રવૃત્તિ ન થવા દેવી કષાયસલીનતા અને રોગોની અશુભ, પ્રવૃત્તિ ન થવા દઈ શુગ પ્રવૃત્તિ કરવી છે.ગસંલીનતા છે. સ્ત્રી દિથી વજિત શયન-આસનનું સેવન કરવું વિવિક્તશય્યા નામક સંસીનતા છે. આ રીતે છ પ્રકારના બાહા તપથી સંસાર તરફથી આસકિતને ત્યાગ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E दीषिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.६२ आभ्यन्तरतपसोभेदनिरूपणम् ५६५ मूलम्-अब्सितरए तवे छबिहे, पायच्छित्त-विणय-चेयाबच्च-सज्झाय-झाण-विउलगभेयओ ॥२॥ छाया-आभ्यन्तरं तपः षड्विधम् , पायश्चित्त-विनय--वैयावृत्य स्वाध्यायध्यानव्युत्सर्गभेदतः ॥६२॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व ताबद्-बाह्याऽभ्यन्तरभेदेन तपसो द्वैविध्यस्योक्त त्वात् तत्र पूर्वमने पक्धि बाह्य रूपः घरूपितम् , सम्पति-पविधमेवाऽभ्यन्तरं तपः प्रतिपादयितुम्ह-लितए लवे छविहे' इत्यादि । तथा च-प्रायश्चित्तम् , विनया, पैयाहत्यम् , स्वाध्यायः, ध्यानम् , व्युत्सर्गः इत्येवं पइविध इस प्रकार छह प्रकार के बाह्य तप से संस्कार के प्रति आसक्ति का त्यागोता, शारीरिक लघुना आती है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्ती होती है, संयम की रक्षा होनी है और ज्ञानावरण आदि दानों की निर्जरा होती है ॥६॥ 'अभिरए तवे छब्धिहे' इत्यादि सार्थ-मास्यन्तर लप के छह भेद है-(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैधावत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्लगें ॥२॥ तत्त्वार्थदीपिका--पहले बाह्य और आभ्यन्तर ये तप के दो भेद कहे थे, इसमें ले पूर्वस्न बाह्य तप के छह भेदों का निरूपण किया गया अब आभ्यन्तर तप के छह भेदों का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं (१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैधावत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युल्लचं, यह छह प्रकार का यन्तर तप हैं। ये प्रायश्चित्त થાય છે, શારીરિક લઘુના આવે છે, ઈન્દ્રિયો પર વિજય પ્રાપ્ત થાય છે. સંયમનું રક્ષણ થાય છે અને જ્ઞાનાવરણ વગેરે આઠ કર્મોની નિરા થાય છે. ૬૧ अभितरए तवे छबिहे' त्यहि सत्राथ:-मास्यन्त२ तयना छ ले छ-(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (3) यावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान म२ (६) व्युत्सम ॥१२॥ તયાથદીપિકા–પહેલા બાહ્ય અને આભ્યન્તર એમ તપના બે ભેદ કહેવામાં આવ્યા હતા. આમાંથી પૂર્વસૂત્રમાં બાહ્ય તપના ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે આભ્યન્તર તપના છ ભેદનું પ્રતિપાદન કરવા માટે ४ही छीमे (१) प्रायश्चित्त (२) विनय (3) वैयावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान અને (૬) વ્યુત્સર્ગ, આ છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપ છે. આ પ્રાયશ્ચિત્ત વગેરે त० ५९ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्यसूत्र खल्वाभ्यन्तर तप उच्यते, मनोनियमनार्थत्वा देतेषामाभ्यन्तरत्वेन व्यपदेशो भवति । तत्र प्र-प्रकृष्टोऽयः, प्रशस्तः शुभावहो विधिर्यस्य श्रमणलोकस्य समायः, प्रकृष्टचारित्रः तस्य प्रायस्य-प्रकृष्टचारित्रस्य श्रमणलोकस्य चित्तं यस्मिन् कर्मणि तत्-प्रायश्चित्तम् , आत्मविशुद्धिकारकः क्रियाविशेप उच्यते । यद्वा-प्र-मणप्ट:गतोऽया पायः अपराधः, तस्य चित्तं-शुद्धिः प्रायश्चित्तम् प्रमादोत्पन्न दोपनिवा. रणं प्रायश्चित्तम् । तयाचोक्तम् 'प्राय इत्युच्यते लोक श्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तस्य शुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तं तदुच्यते ॥इति॥ १ पर्यायज्येष्ठेषु मुनि प्रभृतिषु समादरो बिनयः २ कायिकचेष्टया-द्रव्यान्तरेण चोपासनं वैयावृत्यम् ३ शरीरमवृत्या-द्रव्यान्तरेण वा ग्लानस्य-मुनेः पाद आदि मन को नियंत्रित करने वाले हैं. इस कारण इन्हें आभ्यन्तर कहा है । 'प्र' अर्थात् प्रकृष्ट (उस्कृष्ट), 'अय' अर्थात् अप्रशस्त-शुभंकर विधि को 'माया' कहते हैं जिसका अर्थ है उत्कृष्ट चारित्र। प्रकृष्ट चित्त बाले साधुजनों का 'चित्त' जिसमें हो वह 'प्रायश्चित्त कहलाता है । आत्म शुद्धि करने वाले क्रियाविशेष को प्रायश्चित्त कहते हैं । अथवा 'प्रायः' का अर्थ अपराध हैं, उस पित्त अर्थात् शोधन को प्रायश्चित्त कहते हैं। कहा भी हैं___'प्राय:' का अर्थ हैं लोग और 'चित्त' का अर्थ है-उसका मन चित्त की शुद्धि करने वाला कृस्य प्रायश्चित्त कहलाता है ॥१॥ . दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ मुनि आदि का आदर करना विनय है। कायिक व्यापार से अथवा अन्य द्रव्यों से उपासना करना वैयावृत्य મનને અંકુશમાં રાખનારાં છે, આ કારણે એમને આભ્યન્તર કહેવામાં આવ્યા છે. “પ્ર” અર્થાત્ પ્રકૃષ્ટ (ઉત્કૃષ્ટ) “અય અર્થાતુ અપ્રશસ્ત-શુભંકર વિધિને પ્રાય કહે છે જેને અર્થ ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્ર પ્રકૃષ્ટ ચિત્તવાળા સાધુપુરૂનું ચિત્ત’ જેમાં હેય તે “પ્રાયશ્ચિત્ત કહેવાય છે. આત્મશુદ્ધિ કરનાર કિયા. વિશેષને પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે અથવા “પ્રાયનો અર્થ અપરાધ છે. તે ચિત્ત અર્થાત્ શોધનને પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. કહ્યું પણ છે–પ્રાય નો અર્થ થાય છે લેકે અને ચિત્તને અર્થ થાય છે–તેનું મન ચિત્તની શુદ્ધિ કરનાર કૃત્ય પ્રાયશ્ચિત્ત કહેવાય છે. જેના દીક્ષાપર્યાયમાં જયેષ્ઠ મુનિ આદિનો આદર કર વિનય છે. કાયિક વ્યાપારથી અથવા અન્ય કાથી ઉપાસના કરવી વૈયાવૃત્ય છે. શરીરથી Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.६२ आभ्यन्तरतपसोमेदनिरूपणम् -- -- ४६७संवाहनादिभिराराधनं वैयास्यम् । ज्ञानभावनार्थ मूलमूत्रपठनं स्वाध्यायः ४ ध्यान-धर्मशुक्लरूपं ध्यातव्यमितिपञ्चममाभ्यन्तरं ध्यानम् ५ शयनाऽऽसनस्थानेषु काय चेष्टायाः परित्यागो व्युत्सर्गः ६ ॥६२॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व सावत् संचरहेतुत्वेन तपः प्ररूपितम् , तच्चद्विविधम् , बाह्य'ऽभ्यन्तरभेदात् सत्र-बाह्यन्वषः षड्विधमनशनादिकं पूर्वसूत्रे मरूपितम् , सम्पति-आभ्यन्तरं तपः षइविधं भवतीति प्ररूपयितुमाह-'अभि. तरए तवे छव्धिहे पायश्चित्त-विण वेयाधाच्च सज्झाय-झाण-'विउ. सग्गभेयओ' इति । आभ्यन्तरं तपः षडविधम् , प्रायश्चित्त-विनयवैयावृत्य स्वाध्याय-ध्यान-व्युत्तर्गभेदतः इति, तथा च-प्रायश्चित्तं, विनयवैयावृत्यंहै। शरीर ले रूग्ण नुनि के पांच दहाना अथवा अन्य प्रकार से उसकी आराधना करना वैथानत्य है। ज्ञान-भावना के लिए मूलसूत्रों का पठन करना स्वाध्याय है । चित्त को एकाग्र करना ध्यान हैं या धर्मध्यान और शुक्लध्यान करना शान तप है । काय की चेष्टा का परित्याग करना व्युत्लर्ग है ॥६२॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पहले तप को संबर का कारण कहा था। तप के दो भेद हूँ-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप के अनशन आदि छह भेद हैं, यह पहले सत्र में प्रतिपादन किया जा चुका हैं, अब आभ्यन्तर तप के छह भेद कहते हैं___ आभ्यन्तर लप के छह लेद हैं-(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैयावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग । इस प्रकार પીડિત મુનિના પગ દબાવવા અથવા અન્ય પ્રકારશ્રી તેમની આરાધના કરવી વિયાવૃત્ય છે. જ્ઞાન- ભાવના માટે મૂળસૂત્રનું પઠન કરવું સ્વાધ્યાય છે ચિત્તને એકાગ્ર કરવું ધ્યાન છે અર્થાત્ ધર્મધ્યાન અને શુકલધ્યાન કરવું ધ્યાન તપ કાયાની ચેષ્ટાને પરિત્યાગ કરવો વ્યુત્સર્ગ છે. પાદરા - તવાર્થનિર્યુક્તિ–પહેલાં તપને સંવરના કારણ રૂપ કહેવામાં આવ્યું. તપના બે ભેદ છે–બાહ્ય તથા આભ્યાર બાહ્ય તપના અનશન આદિ છે ભેદ છે એ પહેલા સૂત્રમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવી ગયું છે, હવે આભ્ય. ખતર તપના છ ભેદ કહીએ છીએ मास्यन्तरे तयना छ ले छे-(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (3) यावृत्य (४) पाय (५) ध्यान मन (६) व्युत्सम भारीते प्रायश्चित्त, Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्से स्वाध्यायो-ध्यान-व्युत्सर्ग इत्येवं पविध माभ्यन्तरं तप उच्यते । मलोत्तरगुणेषु कश्चिदतीचारश्चित्तं मलिनयतीति तत्छुद्धयर्थ प्रायश्चित्तं विहितं भवति, पापच्छेदकारित्वाद प्रायश्चित्तमुच्यते, मायो बाहुल्येन चित्तविशुद्धिहेतुत्वाद-मायश्चित्तम् १ विनीयते ज्ञानावरणादिकमष्टपकारक कर्माऽपनीयते येन स विनयः २ धुंनोपदेशेन व्यावृत्ता-शुमव्यापारवान् , तस्य भावः-कर्म वा वैयावृत्यम् ३ निर्जराथै ग्लानादि सेवाकरणं वैयावृत्य मुच्यते ३ सुष्टु-मर्यादया काल वेला. परिकारेण, पौरुष्यापेक्षया वा मूळसूत्रस्याऽऽध्यायः पठनं स्वाध्याय उच्यते ४ ध्यायते चिन्त्यते वस्त्पनेने तिध्यानम् , तच्चाऽऽत्त-रौद्रे वर्जयित्वा धर्मशुक्लरूपम्, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग, ये छह आश्चन्तर तप कहलाते हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है। (१) प्रायश्चित्त-मूल या उत्तर गुणों में कोई अति चार लगा हो और वह चित्त को मलीन बना रहा हो तो उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त किया जाता है । पाप का छेद (बिनाश) करने के कारण वह प्रायश्चित्त कहलाता है। - (२) विनय-जिसके सेवन से ज्ञानावरण आदि पाठ प्रकार के कर्म बिनीत-दूर होते हैं, वह विनय तप है। __(३) वैशावृत्य-श्रुत के उपदेश के अनुसार शुभ व्यापारवान् का भाव था कर्म वैयाकृत्य कहलाता है । अर्थात् अपने कर्मों की निर्जरा के अर्थ ग्लान मुनि की सेवा करना वैयावृत्य लप कहलाता है। ___ (४) सु अर्थात् समीचीन रूप ले-मर्यादा के साथ-झालवेला का વિનય, વૈયાવૃત્ય, સ્વાધ્યાય, ધ્યાન અને વ્યુત્સર્ગ આ છ આભ્યન્તર તપ કહેવાય છે. તેમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (૧) પ્રાયશ્ચિત્ત-મૂળ અથવા ઉત્તરગુણેમાં કોઈ અતિયાર લાગ્યા હોય તેમજ તે ચિત્તને કલુષિત બનાવતો હોય તો તેની શુદ્ધિ કાજે પ્રાયશ્ચિત્ત કરવામાં આવે છે, પાપને છેદ (વિનાશ) કરવાના કારણે તે પ્રાયશ્ચિત્ત उपाय छे. (२) विनय-रेना सेवनधी ज्ञानावर माहि 418 A२॥ भ विनीत६२ थाय छ, त विनय त५ छे. (૩) વૈયાવૃત્ય- શ્રતના ઉપદેશ અનુસાર શુભ વ્યાપારવાને ભાવ અથવા કમ વૈયાવૃત્ય કહેવાય છે અર્થાત્ પિતાના કર્મોની નિર્જરા માટે ઉદાસીન મુનિની સેવા-શુશ્રુષા કરવી વૈયાવૃત્ય તપ કહેવાય છે. (૪) સુ અર્થાત્ સમીચીન રૂપથી-મર્યાદા સહિત-કાળ-વેળાને પરિહાર Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ . ६३ दशविधवायश्चित्तनिरूपण કર एतत्पश्चममाभ्यन्तरं तपः उच्यते ५ शयने - उपवेशने स्थाने - ऊर्ध्वस्थाने कायचेष्टायाः वजेनं व्युत्सर्ग इत्युच्यते ६ इत्येवं षड् विधं खल्लाभ्यन्तरं तपो व्यपदिश्यते । ६२ । मूलम् - पायच्छित्ते तवे दलविहे, आलोयण पडिकम्मण-तदुभयविवेगविउ सग्गतच्छेदमूलावणटुप्प पारंचियभेयओ ॥६३॥ छाया - प्रायश्चित्तं दशविधम्, आलोचन - प्रतिक्रमण - तदुमय - विवेकव्युत्सर्ग -तप-छेद - मूलानवस्थाप्य पाराश्चिकभेदतः ॥६३॥ परिहार करके या पौरुषी का ध्यान रख कर मूल सूत्र का अध्याय अर्थात् पठन करना स्वाध्याय है । (५) ध्यान - जिसके द्वारा वस्तु का चिन्तन किया जाय वह ध्यान । यहां आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान को त्याग कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही ग्रहण करना चाहिए । यह पांचवां आभ्यन्तर तप है । (६) शयन या स्थान में अर्थात् बैठ कर या खडे होकर काय संबंधी चेष्टाओं का त्याग करना व्युत्सर्ग है । यह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है ॥६२॥ 'पायच्छिते दसविहे' इत्यादि । ०६३ || सूत्रार्थ - प्रायश्चित्त दस प्रकार का है - (१) आलोचन (२) प्रतिक्रमण (३) तदुषय - आलोचन - प्रतिक्रमण (४) विवेक (५) व्युत्सर्ग (६) तप (७) छेद (८) मूल (९) अनवस्थाप्य और (१०) पारांचिक || ६३ || કરીને અથવા પારસીનુ ધ્યાન રાખીને મૂળસૂત્રનું ધૈયયન અથવા પઠેન કરવુ. સ્વાધ્યાય છે. (૫) ધ્યાન—જેના વડે વસ્તુનુ' ચિન્તન કરવામાં આવે તે ધ્યાન અત્રે આન્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાનના ત્યાગ કરીને ધમયાન અને શુકલધ્યાન જ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. આ પાંચમુ આભ્યન્તર તપ છે. (૬) શયન અથવા સ્થાનકમાં અર્થાત્ ઉભા થઈ ને કે એસીને, કાયા સ’બધી ચેષ્ટાઓને ત્યાગ કરવા વ્યુસ છે. આ છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપ છે. દા 'पायच्चित्त दस बिहे' त्याहि सूत्रार्थ - प्रायश्चित्त दृश अारना है - ( १ ) आसायन (२) अति भागु (3) तदुभये - आयोथन - प्रतिभायु (४) विवेक (५) व्युत्सर्ग (६) तय (७) छे! (८) भूज (E) अनवस्थाय्य भने (१०) पाशंथि४. ॥६३॥ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० तत्त्वार्थस्त्र तत्वार्थदीपिका-पूर्वमुने -मायश्चित्तविनय-वैयावृत्यादि भेदेन पविध मास्परं तपः.प्ररूपितम्, तत्र-प्रथमोपात्तं प्रायश्चित्तं तावद् दशविधं भवतीति प्रयितुमाह- पायच्छित्ते दस इत्यादि । प्रायश्चित्तम्-आत्मशुद्धिकारकक्रिया विशेषो दाविधं वर्तते, आलोचनमतिक्रमण-तदुमय-विवेक-व्युन्सर्ग-तप"छेद-मू कानवस्थाप्यपाराञ्चिक भेदतः । तथा चाऽऽलोचनमायश्चित्तम् १ प्रतिक्रमणप्रायश्चित्तम् २ तदुमयमायश्चित्तम् ३ विवेकमायश्चित्तम् ४ व्युत्सर्गपायश्चित्तम् ५ तपः प्रायश्चित्तम् ६ छेद प्रायश्चित्तम् ७ मूलपायश्चित्तम् ८ अनवस्थाप्यमायश्चित्तम् ९ पाराञ्चिक प्रायश्चित्तम् १०, इत्येवं दशविधं प्रायश्चित्तम् । तुत्राऽऽचार्या प्रमादल्य दशदोपविवर्जितं निवेदन मालोचन मुच्यते, एकान्तो तवार्थदीपिका-पूर्व जून में प्रायश्चित्त, विनय, वैधावृत्य आदि के भेद ले छह प्रकार के आसन्नर तप का निरूपण किया गया, उनमें प्रथम आपन्तर तप प्राश्चित्त के दल भेदों का यहां निरूपण किया जाता है। प्रायश्चित्त अर्थात् आत्मशुद्धि कारक क्रिया के दस भेद हैं-(१) आलोचन (२) प्रतिक्रमण (३) उभय-आलोचन-प्रतिक्रमण (४) विवेक (५) व्युत्लग (६) तप (७) छेद (८) मूल (२) अनवस्थाप्य और पारांचिक । इस प्रकार (१) आलोचन प्रायश्चित्त (२) प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त (३) तदुभयप्रायश्चित्त (४) विवेकप्रायश्चित्त (५) व्युत्सर्गप्रायश्चित्त (६) रूप प्रायश्चित्त और (१०) पाराचिकप्रायश्चित्त, इस तरह दस प्रकार का प्रायश्चित्त है। (१) आलोचन-आचार्य और उपाध्याय के समक्ष अपने प्रमाद તત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં પ્રાયશ્ચિત્ત, વિનય, વૈયાવૃત્ય આદિનાં ભેદથી છ પ્રકારના આ૫ત્તર તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, તેમાં પ્રથમ આભ્યન્તર તપ પ્રાયશ્ચિતના દશ ભેદનું અહીં નિરૂપણ કરવામાં આવે છે પ્રાયશ્ચિત અર્થાત્ આત્મશુદ્ધિકારક ક્રિયાના દશ ભેદ છે-(૧) આલેચન (२) प्रतिम (3) Sal-मासायन-प्रतिम (४) विव४ (५) ०युत्सग (6) त५ (७) है। (८) भूग (6) मनवस्थाप्य भने (१०) पातथि: RAI श२ (१) माटोयन (२) प्रायश्चित्त (२) प्रतिभ प्रायश्चित्त (3) तमयप्रायश्चित (४) विवे प्रायश्चित्त (५) व्युत्सम प्रायश्चित्त (६) तप:प्रायश्चित्त (७) प्रायश्चित्त (८) भूप्रायश्चित्त (e) 114थाप्यप्रायश्चित्त मन (१०) પાર ચિપ્રાયશ્ચિત્ત આ રીતે દશ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્ત છે. (૧) આલોચન-આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયની રૂબરૂ પિતાના પ્રમાદનું દશ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.६३ दशविधप्रायश्चित्तनिरूपणम् ४७१ पविष्टाय प्रसन्नचित्ताय विज्ञातदोष-देश-कालाय गुरवे सविनयं वञ्चनारहितस्य शिशुवत् सरलबुद्धेः-शिष्यस्य निमापराधस्य मर्यादया प्रकाशनम्-आलोचन बोध्यम् १ मिथ्यादुष्कृताभिधानात्-अभिव्यक्तिपतिक्रिय तावत्-प्रतिव्रामणं नाम प्रायश्चित्तं भवति तद्धि-गुरुणाऽनुज्ञात शिष्य एक कुर्यात् यत्रालोचनं मिथ्यादुष्च. तदानरूपं-प्रतिक्रष्णं चेति इयमपि भवेत्तत् २ तदुभयं नाममायश्चित्तम् शुद्धस्याऽपि यत्राऽशुद्धत्वेन सन्देह-विपर्ययो (स्तः) भवतः-अशुद्धल्याऽपि च शुद्धत्वेन यश्च निश्चयो भवखिताऽऽलोचन-अतिक्रमण द्वयं भवतीति भावः ३ सदोषान्नपानोपकरणादिवर्जनं विवेको नाम प्रायश्चित्तम् ४ यद्वस्तुनियमितं भवति तद्वस्तु चेत् को दल दोषों से रहित निवेदन करना आलोचन कालाना है। अर्थात् एकान्त में बैठे हुए, प्रसन्नचित्त, देश-शाल और दोष के स्वरूप के ज्ञाता गुरु के लन्मुख, विनयपूर्वक, कंचन भाव ले रहित होकर शिशु के समान सरल बुद्धि ले शिष्य का अपने अपराधों का निवेदन करना आलोचन नामक प्रायश्चित्त समझना चाहिए । (२) प्रतिक्रमण-'मिच्छामि दुगडं' ऐसा कह धार प्रतिक्रिया प्रकट करना । गुरु की अनुमति से शिष्य ही प्रतिकरण करे । ___ (३) तदुभय-किसी अतिचार की शुद्धि के लिए आलोचन और प्रतिक्रमण-दोनों का अनुष्ठान करना तदुभय प्रायश्चित्त है। तात्पर्य यह है कि जहां शुद्ध होने पर भी अशुद्ध होने का संदेह या विषाक्ष हो या अशुद्ध का भी शुद्ध रूप से निश्चय हो जाय, वहां आलोचनप्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं। દે થી રહિત નિવેદન કરવું આલોચન કહેવાય છે અર્થાત્ એકાન્તમાં બેઠેલા, પ્રસન્નચિત્ત, દેશ-કાળ અને દેષના સ્વરૂપના જ્ઞાતા ગુરૂની સન્મુખ, વિનયપૂર્વક વંચનાભાવથી રહિત થઈને, બાળકની માફક સરળ બુદ્ધિથી શિષ્યનું પિતાના અપરાધનું નિવેદન કરવું આલેચન નામક પ્રાયશ્ચિત સમજવું. (२) प्रतिमा -'मिच्छामि दुक्कड' से पहीने प्रतिया ५४८ ४२वी. ગુરૂની અનુમતિથી શિષ્ય જ પ્રતિક્રમણ કરે. (૩) તદુભય-કઈ અતિચારની શુદ્ધિ માટે આલેચન અને પ્રતિક્રમણ એ બંનેનું અનુષ્ઠાન કરવું તદુય પ્રાયશ્ચિત છે. તાત્પર્ય એ છે કે જ્યાં શુદ્ધ હોવા છતાં પણ અશુદ્ધ હોવાની શંકા અથવા ભ્રમ થાય અથવા અશુદ્ધ પણ શુદ્ધ રૂપથી નકકી થઈ જાય, ત્યારે આલેચનપ્રતિકમણે એમ બંને કરવામાં આવે છે. Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ तस्वार्थसत्रे स्वहस्तगतपाने पतति सुखमध्ये वा गच्छति, यस्मिन् वस्तुनि गृहीते वा लोभादि कषायादिकमुपजायते तस्य सर्वस्य वस्तुनरत्यागो विवेकनाम प्रायश्चित्तं बोध्यम् ४ नियतकालं कायस्य-बाचो-मनसश्च त्यागरूपः कायोत्सर्गः व्युन्सर्गनाम पायश्चित्तम् ५ एवञ्चाऽनशनाऽवमौदर्य भिक्षाचर्यारसपरित्यागविविक्तशय्याऽऽसन कायक्लेशरूपं वाह्य पविधं तप स्तपोनास प्रायश्चित्तम् इति फलितम् ६ दिवसएक्ष-मासादिना दीक्षा-पर्यायच्छेदनं छेदोनाम प्रायश्चित्तम् दिवस-पक्ष-मासादि. विभागेन दीक्षास्वीकरणमित्यर्थः ७ पुनमहावबारोपणं मूलं नाम मायश्चित्त मुच्यते ४ विवेक-दोषयुक्त अन्न, पानी, उपकरण आदि का वर्णन करना विवेक नामक प्रायश्चित्त है । जिस वस्तु का त्याग कर रक्खा हो वह अपने पात्र में पडजाय अथवा मुख में चलीजाय अथवा जिस वस्तु का ग्रहण करने पर लोभ आदि कषायों की उत्पत्ति होती है, उस वस्तु का उत्सर्ग-त्याग कर देना विवेक नामक प्रायश्चित्त है।। (५) व्युत्सर्ग-नियमित समय पर्यन्त काय, वचन और सन का त्याग करना कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। (६) तप-अनशन, अवमौदर्य, भिक्षाचर्या रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेशरूप छह प्रकार का तप करना तप नामक प्रायश्चित्त है। (७) छेद-दिवस पक्ष, मास आदि की दीक्षा का छेदन करना अर्थात् उसे कम कर देना छेद नामक प्रायश्चित्त है। (४) विवे-होषयुद्धत मन्न, पाणी, 6५४२६४ महिना त्यास २। વિવેક નામક પ્રાયશ્ચિત્ત છે. જે વસ્તુને ત્યાગ કરી દીધું હોય તે પિતાના પાત્રમાં પડી જાય અથવા મેઢામાં આવી જાય અથવા જે વસ્તુનું ગ્રહણ કરવાથી લાભ આદિ કષાયોની ઉત્પત્તિ થાય છે તે વસ્તુને ઉ સર્ગ–ત્યાગ કરી દેવે વિવેક નામક પ્રાયશ્ચિત્ત છે. (૫) વ્યુત્સર્ગ–નિયમિત સમય સુધી કાયા, વચન અને મનને ત્યાગ કરે કાયોત્સર્ગ અથવા વ્યુત્સર્ગ પ્રાયશ્ચિત્ત છે. (6) त५-मनशन, भौय, मिक्षायर्या २सपरित्या, विविकृत શસ્યાસન અને કાયકલેશ રૂપ છ પ્રકારના તપ કરવા તપ નામક પ્રાયશ્ચિત્ત છે. () છેદ-દિવસ, પક્ષ, માસ આદિની દીક્ષાનું છેદન કરવું અર્થાત તેને ઓછા કરી નાખવા છેદ નામક પ્રાયશ્ચિત્ત છે, Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७.६३ दशविधप्रायश्चित्तनिरूपणम् ४७३ ८ यस्मिन्नासेवित वचन कालं व्रतेष्यनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चाच्चीण तपा तदोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तद् अननस्थाप्यं नाम प्रायश्चित्तम् ९ एवम्-यस्मिन्मति. षेविते लिङ्ग-क्षेत्र-काल-तपोनि पाराञ्चिको वहिर्भूतः क्रियते तद्-पाराश्चिक नाम प्रायश्चित्त शुभते १० इति ॥६३॥ सत्त्वार्थनियुक्ति:--- पूर्व तावर सपो द्विविध मित्युक्तम् बाह्यमाम्यन्तरञ्च, तन-मायश्चितादि भेदार पशिधे आभ्यन्तरतपसि प्रथमोपात्तस्य प्रायश्चित्तस्य दशभेदान् भरूपचितुमाह-पापच्छिन्ते दलविहे, आलोयण-पडिकम्मणतदुभय-विवे-लिउहा मालपछेद-खूलाणदपा पारंचिध भेयाओ' ज्ञति । प्रायशिल पूर्वोक्तचित्त विशुद्धिहेतुभूत्वपः क्रियाविशेष रूपं दशविधं भवति, (८) चूल-नये सिरे से गानों का आरोपण करना मूल नामक प्रायश्चित्त है। (९) अलवस्थाप्य- जिलेषण करने पर कुछ काल तक व्रतों में अनवस्थापन पक्षर के बाद जिसमा आचरण करने से दोष की निवृत्ति होने पर व्रत स्थापित किया जाय वह अनवस्थाप्य प्रायः श्चित्त कहलाता है। (१०) पाचिक-जिय प्रायश्चिन में लिंगा (वेष), क्षेत्र, काल और तप से पाचिक अर्थात् बाहर कर दिया जाता है, वह परांचिक नामक प्रायश्चित्त कहलाता है ॥१०॥६३॥ तस्वार्थनियुक्ति-पहले बाह्य और आभ्यन्तरके भेद से लप के दो भेद कहे गए हैं, उनमें से आयात लप के छह भेदों में पहला भेट प्रायश्चित्त बललाश गया है । उसके दस सेदों को प्ररूपणा करते हैं। प्रायश्चित्त अर्थात् चारिन लंबंधी लगे हुए दोष की शुद्धि के लिए (૮) મૂળ-નવેસરથી મહાવ્રતનું આરોપણ કરવું મૂળ નામક પ્રાયશ્ચિત્ત છે (૯) અનવસ્થાપ્ય–જેનું સેવન કરવાથી થોડા સમય સુધી તેમાં અનવસ્થાપ્ય કરીને પાછળથી જેનું આચરણ કરવાથી દોષની નિવૃત્તિ થવાથી વ્રતમાં સ્થાપિત કરવામાં આવે તે અનવરાગ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત કહેવાય છે. (१०) पाराय-२ प्रायश्चित्तमा सिंग (वेश), क्षेत्र, मतपथा પારાચિક અર્થાત બહાર કરી નાખવામાં આવે છે તે પારાચિક નામક પ્રાયશ્ચિત્ત કહેવાય છે. ૬૩ તત્તવાનિયક્તિ–પહેલા બાહ્ય અને આભ્યન્તર ભેદથી તપના બે ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે તેમાંથી આવ્યા તપના છ ભેદોમાં પહેલાં પ્રાયશ્ચિત્ત બતાવવામાં આવેલ છે. તેના દશ ભેદોની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ પ્રાયશ્ચિત્ત અશત્ ચારિત્ર સંબંધી લાગેલા દોષની શુદ્ધિ માટે કરવામાં त०६० Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ आलोचन-परिक्रमण-सुदुभय-विवेक व्युत्सर्ग-तप छेद-मूलाऽनवस्थाप्य-पारा. श्चितभेदतः । तथा चाऽऽलोचनम् १ प्रतिक्रमणम् २ आलोचन-प्रतिक्रमणरूपं तदुभयम् ३ विवेकः ४ व्युत्सर्गः ५ तपः ६ छेदः ७ मूलम् ८ अनवस्थाप्य ९ पाराश्चिकम् १० दशविधं प्रायश्चित्तम् । तत्रै-कान्तोपविष्टाय प्रसन्नचित्ताय विदितदोपदेशकालाय गुरवे तथाविधेन शिष्येण सविनयं स्त्र प्रमादनिवेदनं दशदोपवर्जनपूर्वकं निजप्रमादप्रकाशनम्-आलोचनं नाम मायश्चित्त मुच्यते । तथाचोक्तं दशदोपविषये स्थानाङ्गे दशमस्थाने । 'आकंपिय अणुमाणिय जं दिलु यादरं च सुहमं च । छपणलहा उलयं यहुजण अयत्ततस्सेवि ॥११॥ 'आकम्पित मनुमानितं यदृष्टं दादरञ्च सूक्ष्मञ्च । छन्नं शब्दाकुलञ्च बहुजनमव्यक्तं तत्सेची ॥१॥इति।। किया जाने वाला तपश्चरणविशेष दस प्रकार का है-(१) आलोचन (२) प्रतिक्रमण (३) तदुभय (४) विवेक (५) व्युत्सर्ग (६) तप (७) छेद (८) मूल (९) अनवस्थाप्य और (१०) पारांचित । इस प्रकार (१) आलोचन (२) प्रतिक्रमण (३) तदुभय-आलोचन-प्रतिक्रमण (४) विवेक (५) व्युत्सर्ग (६) तप (७) छेद (८) मूल (९) अनवस्थाप्य और (१०) पारांचित, यह दस प्रकार का प्रायश्चित्त है । इनका स्वरूप इस प्रकार है। (१) आलोचन-एकान्त में स्थित, प्रसन्नचित्त, दोष, देश एवं काल के स्वरूप के जानकार गुरु के समक्ष शिष्य विनय पूर्वक ओलो. चनाके दस दोषों ले पचकर अपने प्रवाद का निवेदन करता है-अपने दोष को प्रकट करता है, वह आलोचन नामक प्रायश्चित्त कहलाता है। स्थानांग सूत्र के दसवें स्थान में दस दोषों के संबंध में कहा है। આવતી તપસ્યા વિશેષ દશ પ્રકારની છે (१) मालीयन (२) प्रतिमए (3) तदुमय (४) वि३४ (५) व्युत्सम (6) त५ (७) छे४ (८) भूण (6) मानवस्थाप्य मन (१०) पाiथित मा દશ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્ત છે. એમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (१) मासायन-शान्तमा स्थित, प्रसन्नचित्त, घोष, देश तथा जना સ્વરૂપના જ્ઞાતા ગુરૂની સમક્ષ, શિષ્ય વિનયપૂર્વક આલોચનાના દશ દેથી બચીને પિતાના પ્રમાદનું નિવેદન કરે છે–પોતાના દેષને પ્રકટ કરે છે તે આલેચના નામક પ્રાયશ્ચિત્ત કહેવાય છે. સ્થાનાંગસૂત્રના દશમાં સ્થાનમાં દશ દેના સંબંધમાં કહેવામાં આવેલ છે Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.६३ दशविधायश्चित्तनिरूपणम् ७५ तत्रोपकरणादि दानेन गुरोरनुकम्पासुस्पायाऽऽलोचने-आकम्पितं नाम दोषः, वचनेनाऽनुमायाऽऽलोचनेऽनुमानितं नामदोषः, यल्लोकदृष्टं तस्यैवालोचने दृष्टं नामदोषः, स्थूलस्यैवाऽऽलोचन्ने बादरं नाम दोषः, अल्पस्यैत्र दोषस्याऽऽलोचने सूक्ष्म नामदोषः, केनचित्-पुरुषेण निजदोषे प्रकाशिते सति यादृशो दोषोऽनेन प्रकाशित स्वादृशो समापि वर्तते इत्येवं प्रच्छन्नस्य दोषस्याऽऽलोचने छन्नं नाम आकम्पित्त, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्षम, छन्न, शब्दाकुल, बहुजन, अव्यक्त और तत्लेबी नामक इस दोष आलोचना के समझना चाहिए। इनका स्वरूप इस प्रकार है। (१) गुरु को उपकरण बना आदि देकर, उनके चित्त में अपने प्रति अनुकम्पा उत्पन्न करके आलोचन करना आकम्पित नामक दोष है। (२) वचन से अनुमान करके आलोचन करना अनुमानित दोष है। (३) लोगों ने जिल दोष को देख लिया हो उसी की आलोचना करता दृष्ट नामक दोष है।। (४) स्थूल दोष की ही आलोचना करना बादर दोष है। (५) सूक्ष्म-छोटे से अपराध की आलोचना करना सूक्ष्म दोप है। (६) छन्न-किसी पुरुष के द्वारा अपना दोष प्रकाशित करने पर ऐसा कहना कि-'जैसा दोष इन्हें लगा है वैसा ही मुझे भी लगा है, इस प्रकार प्रच्छन्न (गुप्त) रूप से दोष को प्रकाशित करना छन्न नामक दोष है। मापित, मनुमानित, दृष्ट, माह२, सूक्ष्म, छन्न, शहास, मन, અવ્યક્ત અને તત્સવી નામના દશ દેષ આલોચનાના સમજવા જોઈએ, એમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (૧) ગુરૂને ઉપકરણ વસ્ત્ર આદિ આપીને, તેમના ચિત્તમાં પિતાની તરફ અનુકમ્પા ઉત્પન્ન કરીને, આલેચના કરવી. આકર્ષિત-નામક દેષ છે. (૨) વચનથી અનુમાન કરીને, આલોચના કરવી અનુમાનિત દેષ છે. (૩) લોકેએ જે દેષને જોઈ લીધા હોય તેની જ આલોચના કરવી દષ્ટ નામક દેષ છે. (૪) સ્થૂળ દેષની જ આલેચના કરવી ભાદર દેષ છે. (૫) સૂફમ-નાના સરખા અપરાધની '' કરવી સૂક્ષ્મ દોષ છે. (૬) છન્ન-કોઈ પુરૂષ દ્વારા દેષ મતે આ પ્રમાણે કહેવું Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ नवार्थको दोषः, शब्दाकुलं यथा-शवति तथाविधकोलाहलमध्ये यमा-गुरपि न शणोति इत्येवंविधालोचने शब्दाकुलं नाम दोप-बहन गुरुगनान् प्रति आलोचने बहुजनं. नामदोपः, अव्यक्तस्याऽप्रवुद्धस्याऽग्रे-आलोचनेऽपय नामदोपः, तद्दोपसे विनो गुरोग्रे आलोचने तत्सेवीनामदोपो भवति, इत्येवं दा दोपविजित द्वयाश्रयं व्याश्रयं वाऽऽलोचनं भवति । तथा च कश्चिदतीचार प्रसाशन मात्रेणव दुरी भवति, यथा-श्रुतोपदिष्ट व्यापारानुष्ठायीसंयतः शिप्यो मोक्षार्थ प्रयतमानोऽवल्यानु. ष्टेयेषु प्रत्युपेक्षण-समाजन-वैयावृत्त्यस्त्राध्याच-तपश्चरणाऽऽहारविहार-मुनि. (७) जब कोलाहल हो रहा हो तब अपने दोपको प्रकाशित करना, जिसले गुरु भी ठीक तरह लसुन लो, यह शब्दाकुल नामक दोप है। - (८) एक ही अपराध की अनेकों के सामने आलोचना करना बहुजन नामक दोष है। (९) जो अव्यक्त हो अर्थात् प्रायश्चित्तशास्त्र का ज्ञाता न हो ऐसे के समक्ष आलोचन करना अव्यका लोप है। (१०) जिल दोष की आलोचना करना है, उसी दोष का सेवन करने वाले साधु के सामने उन दोर की आलोचना करना तत्सेवी नामक दोप है। इस प्रकार आलोचन दल दोपों से रहिल धाश्रम अश्रधा ज्याश्रय होता है। जैसे-फिती अतिचार को प्रकाशित करने मानले शुद्धि हो जाती है। यथा-जो लाधु शास्त्रविहित आचार का परिपालन करता है, मोक्ष के लिए प्रयत्नशील है, अवश्य करने योग्य प्रतिलेखन, मान, वैया કે-જેવો દેષ એને લાગે છે તે જ મને પણ લાગ્યો છેઆ રીતે પ્ર૭ (ગુપ્ત) રૂપથી દોષને જાહેર કરવું એ છત નામક દેષ છે. (૭) જ્યારે શોરબકોર થઈ રહ્યો હોય ત્યારે પોતાના દેષને પ્રકાશિત કરવા, જેને ગુરૂ પણ સારી પેઠે સાંભળી ન શકે, આ શબ્દાકુલ નામક દેષ છે. (૮) એક જ અપરાધની અનેકની સામે આલેચના કરવી બહુજન નામક દેષ છે. (” જે અવ્યક્ત હોય અથતું પ્રાયશ્ચિત્ત શાસ્ત્રનો જે જ્ઞાતા નથી એવાની સામે આલોચના કરવી અવ્યકત દેષ છે. (૧૦) જે દેશની આલોચના કરવાની હોય તે જ દોષનું સેવન કરનાર સાધુની સમક્ષ તે દોષની આલોચના કરવી તત્સવી નામક દોષ છે, આ રીતે આલોચન દશ દેથી રહિત હયાશ્રય અથવા શ્વાશ્રય હોય છે જેમ કે કઈ અતિચારને જાહેર કરવા માત્રથી શુદ્ધિ થઈ જાય છે યથાજે સાધુ શાસ્ત્રવિહિત આચારનું પરિપાલન કરે છે, મોક્ષને માટે પ્રયત્ન શીલ છે, અવશ્ય કરવા યોગ્ય પડિલેહન, પ્રમાજન, વૈયાવૃત્ય, સ્વાધ્યાય, Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ ४.६३ दशविधप्रायश्चित्तनिरूपणम् ४७७ वन्दनादिकार्येषु नितान्तोपयुक्तो निरस्तस्थूलातिचारः सूक्ष्माऽऽस्व-प्रमाद. क्रिशा विशुद्धयर्थ म.लोचनमात्रादेव विशुद्धो भवति ! एवम्-अविचाराभिमुख्य परिहारेण प्रतीपं क्रमणाम् अपलरणं प्रतिक्रमणम् मिथ्यादुष्कृताभिधागत् अभि व्यक्तीकृतपश्चात्तापः सूत्रविरुद्धपिद अया दुष्टं कृतं दुष्कृतं चरणविराधनं स्वच्छन्दतो, नतु-सूत्रानुसारेणेखि समुपजालपश्चातापस्तत्पतीपमपसपति-प्रत्याचष्टे न खलु-पुनरेवं करिष्याम्'ि इत्येवं प्रत्याख्यानं प्रतिक्रमण शुच्यते २ तदुभयवृत्य, स्वाध्याय, तपश्चरण, आहार, विहार एवं छुनिबन्दन आदि कार्यों में खूप उपयोग लगाए रहता है, स्थूल अतिचारों से बचा रहता है, वह अपने वृक्षा प्रमाद के लिए यदि आलोचना कर लेता है तो उस से शुद्ध हो जाता है। उसे किसी अन्य प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं रहती। (२) प्रतिक्रमण-अतिचारों की अभिमुखता त्याग कर उलटा चलना प्रतिकरण है। जो साधु लिथया दुष्कृन देसर अपने पश्चत्ताप को प्रकट करता है और कहता है-'मैंने खून से विरुद्ध यह दूषित कर्म किया है, स्वच्छन्द पास से चारित्र की विराधना की है, स्त्र के अनुकूल नहीं किया है और ऐसा कहकर जो पश्चात्ताप करता है फिर उस दूषित कृत्य से विपरीत कथन करता है कि-'अब ऐसा फिर नहीं करूंगा' इला प्रकार का प्रत्याख्यान करना प्रतिक्रमण कहलाता है । (३) तदुभय-का आशय है आलोचना और भलिकम्दण दोनों। તપસ્યા, આહાર, વિહાર અને મુનિર્વાદ આદિ ક.માં ઘણો ઉપયોગ રાખતું હોય, શૂળ અતિચારોથી બચતે રહે છે તે પિતાના સૂક્ષમ પ્રમાદને માટે જે આલેચના કરી લે છે તો તેથી જ શુદ્ધ થઈ જાય છે. તેને કઈ અન્ય પ્રાયશ્ચિત્તની આવશ્યકતા રહેતી નથી. (૨) પ્રતિક્રમણ-અતિચારોની અભિમુખતા ત્યાગીને વિપરીત ચાલવું પ્રતિકમણ છે. જે સાધુ મિથ્યા દુષ્કૃત દઈને પિતાને પશ્ચાત્તાપને પ્રકટ કરે છે અને કહે છે-“મેં સૂત્ર વિરૂદ્ધ આ દૂષિત કર્મ કર્યું છે, વછન્દ, ભાવથી ચારિત્રની વિરાધના કરી છે, સૂત્રને અનુકૂળ કર્યું નથી અને આ પ્રમાણે કહીને જે પશ્ચાત્તાપ કરે છે અને પછી તે દૂષિત કૃત્યથી વિપરીત કથન કરે છે કે- આવું ફરી કયારે પણ કરીશ નહીં” એ પ્રકારના પચ્ચખાણ કરવા પ્રતિક્રમણ કહેવાય છે. (૩) તભય-આનો આશય છે આલેચના અને પ્રતિકમણ બને Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रे gઉટ एहेना-आलोयन प्रतिकरण रूपोअयं प्रायश्चित्तमुच्यते, तत्राऽऽलोचनं प्रतिक्रमणश्च पूर्व गधुनै व्याख्यातं वर्तते, स्त्र-पूर्व मालोचनं पश्चाद् गुरुसन्दिष्टस्य प्रतिक्रमणम्, एतदुभयं प्रायश्चित्तं सम्भ्रमभातुरापतत् सहसाऽना भोगाऽनात्मशगतस्य दुष्टचिन्तनापणचेप्टायुक्तस्य च कृने विहितमयमन्तव्यम् एवं विवेकः शुद्धा. ऽशुद्धान्नपानादिविपये विवेचनम् अशुद्धानपानादिपरित्याग इत्यर्थः खल त्यागपरिणतिरूपविवेचन भावविशुद्धयात्मको विशोधनरूपः प्रत्युपेक्षणल्पो भवति, अयं तावद् विवेको नाम मायश्चित्तं संपक्ताहारपानोपकरणोपग्रहिकोपधि शय्यामस्मादिषु अति। तथा च-यस्मिन् वस्तुनि गृहीते सति लोमादि कपायादिक मुत्पद्यते तस्य सर्वस्य वस्तुनस्त्यागो विवेको नाम प्रायश्चित्त मरगन्तव्यम्, यथाआलोचना और प्रतिमण की अभी-अभी व्याख्या की गई है। पहले आलोचना फिर गुरु के कहने पर प्रतिक्रमण करना आलोचन प्रति. क्रमण कहलाता है । जो मुनि संभ्रम या भय से आतुर हैं, सहसा उपयोग शन्यता के कारण अपने अधीन नहीं रहा है और जो दुष्ट चिन्तन, दुष्ट भापण एवं दुष्ट चेष्टा से युक्त है, उसके लिए इस प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। (४) विवेक--शुद्र-अशुद्ध अन्न-पानी आदि के विषय में पृथक कारण करना अर्थात् अशुद्ध अन्न-पानी आदि का त्याग करना विवेक प्रार्याश्चत्त है । त्याग परिणतिरूप यह विवेचन भाव शुद्धिस्वरूप है, विशोधनरूप है, प्रत्युपेक्षणरूप है, यह विवेक प्रायश्चित्त दूषित आहार, पानी, उपकरण, औपहिक उपधि, शायया तथा आलन आदि के विषय આલોચના અને પ્રતિકમણની હમણા જ વ્યાખ્યા કરવામાં આવી છે. પહેલા આલેચના પછી ગુરૂની આજ્ઞાથી પ્રતિક્રમણ કરવું આલેચનપ્રતિક્રમણ કહેવાય છે. જે સુનિ સંભ્રમ અથવા ભયથી આતુર છે. એકાએક ઉપગશુન્યતાને કારણે પિતાને વશ રહેતો નથી અને જે દુષ્ટ ચિન્તન, દુષ્ટ ભાષણ તેમજ દુષ્ટચેષ્ટાથી યુક્ત છે તેના માટે આ પ્રાયશ્ચિત્તનું વિધાન કરવામાં આવ્યું છે. (४) विवे:-शुद्ध-मशुद्ध मन-पाणी वगेरेना पृथ५४२१४ ४२ અર્થાત અશુદ્ધ અન્ન-પાણી આદિને ત્યાગ કરવો વિવેક પ્રાયશ્ચિત્ત છે. ત્યાગપરિણતિરૂપ આ વિવેચન લાવશુદ્ધિ સ્વરૂપ છે, વિશેધનરૂપ છે, પ્રત્યુ ક્ષિણરૂપ છે. આ વિવેક પ્રાયશ્ચિત્ત દૂષિત આહાર, પાણી, ઉપકરણ, ઔપહિત ઉપધિ, શય્યા તથા આસન આદિના વિષયમાં થાય છે. આથી જે Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ सू.६३ दशविधप्रायश्चित्तनिरूपणम् ૨૭૨ उपयुक्तेन गीतार्थेनाऽन्नादिकं प्रथमं गृहीतं पश्वादशुद्धं चेज्ज्ञातं भवति तदातस्य त्यागो विवेकाख्यं प्रायश्चित्तं भवति ३ एवं विशिष्ट उत्सर्गो व्युत्सर्गी काय वाङ्मनो व्यापाराणां प्रणिधान पूर्वको निरोधो व्युत्सर्गप्रायश्चित्तमुच्यते, तथा च नियतकालं कायस्य वाचो मनसश्च व्यापारत्यागो व्युत्सर्गो नाम प्रायश्चित्तम् एतत्कायोत्सर्गश देनाsयुते ५ एवं षड्विधं पूर्वोक्त मनशनाऽयमौदर्यादिकं व तपः खल पोनाम प्रायश्चित्तमुच्यते ६ अथाऽऽभ्यन्तरत पोरूपतया माय वित्तस्य, बाइयतको रूपत्वेनानशनादेव कथं तयोरैक्यं सम्भवति परस्परविरो में होता है । अतएव जिन वस्तुओं के ग्रहण करने पर लोभादिक कषायों की उत्पत्ति होती है, उन सब का त्याग करना विवेक प्रायश्चित है । जैसे किसी उपयोगदान गीतार्थ मुनि ने पहले अन्न आदि को ग्रहण कर लिया, पश्चात् वह दूषित मालूम हुआ तो उसका त्याग कर देना विवेक प्रायश्चित है। (५) व्युत्सर्ग - विशिष्ट प्रकार के उत्सर्ग को व्युत्सर्ग कहते हैं अर्थात् शरीर, वचन और मन के व्यापारों का उपयोग पूर्वक निरोध करना व्युत्सर्ग है । इस प्रकार मर्यादित समय के लिए शरीर के, वचन के और मन के व्यापार का त्याग करना व्युस्सर्ग नामक पायश्चित्त है। इसे 'कायोत्सर्ग' भी कहते हैं । (६) तप - पूर्वोक्त अनशन आदि छह प्रकार का बाह्य तप प्रायचित्त कहलाता है । शंका- प्रायश्चित्त आभ्यन्तर तप है, वह अनशन आदि बाह्य વસ્તુએનું ગ્રહણુ કરવાથી લાભાદિક કષાયેની ઉત્પત્તિ થાય છે આ મધારી ત્યાગ કરવા વિવેક પ્રાયશ્ચિત્ત છે. જેમ કાઈ ઉપયેાગવાન્ ગીતા મુનિએ પ્રથમ અન્ન વગેરે ગ્રહણ કરી લીધા, પછળથી તે દુષિત જણાય તા તેના ત્યાગ કરી દેવે વિવે પ્રાયશ્ચિત્ત છે. (૫) વ્યુત્સ-વિશિષ્ટ પ્રકારના ઉત્સગન વ્યુત્સગ કહે છે અર્થાત્ શરીર, વચન અને મનના વ્યાપારાના ઉપયેગપૂર્વક નિરોધ કરવા શ્રુત્સ છે. આવી રીતે મર્યાદિત સમયને માટે શરીરના, વચનના અને મનના વ્યાપારના ત્યાગ કરવા વ્યુત્સગ નામક પ્રાયશ્ચિત્ત છે. આને ‘કાયાત્સગ’ પણ કહે છે. (६) तय - पूर्वेति अनशन माहि છ પ્રકારના माह्य तप-प्राय चित्त उवा छे. શંકા-પ્રાયશ્ચિત્ત આભ્યન્તર તપ છે, તે અનશન આદિ માહ્ય તપ રૂપ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वार्थसूत्रे धात इतिचेत् २ उच्यते-अध्यात्मनि खेदजनकत्वेनाऽऽभ्यन्तरत्वमिति न कश्चिद् विरोधः । छेदोनाम प्रायश्चित्तं तावद् दिवस-क्ष-मालादिनिमागेन दीक्षापर्याय च्छेदनं प्रव्रज्यान्यूनकरणम्, तथा च-महावतारोपणकालादारस्य मत्रज्यादिवस -पक्ष-मास-संवत्सराणा मन्यतमानां, पर्श वरूप च छ यो भवति यस्मिन् दिवसे महावतारोपणं कृतं तथाविधमत्रज्यादिवसादिः पर्याय उच्यते, तन-पञ्चक प्रभृति च्छेदः पर्यायस्य यथा यस्य खड्ल दशवर्षाणि-आरोपितमहाव्रतस्याऽपराधानुरूपः 'कदाचित्-पञ्चकच्छेदः कदाचिद-दशनच्छेदः' इत्यादिरीत्या तप रूप शिल प्रशार हो सकता है ? दोनों एक कैले हो सकते हैं ? दोनों में परस्पर विरोध है। सामाधान-आत्मा खेदजनक होने के कारण इसे भी आभ्यन्तर कहा जाता है, अतएव कोई विरोध नहीं है । (यो भी बाह्य और आभ्यन्तर तप में पारस्परिक विरोध नहीं है, बाह्य तप भी परिणाम विशेष से आभ्यन्तर बन जाता है और आभ्यन्तर तप भी बाह्य बन सकता है। (७) छेद-कतिपय दिन, पक्ष या मास की दीक्षा का छेदन करना अर्थात् उसे कम कर देना छेद प्रायश्चित्त है । महावतों के आरोपणकाल से लगाकर जो दीक्षाकाल है उसमें से कुछ दिन, पक्षक्ष या मास का दीक्षा काल कम कर देना छेद कहलाता है। जिन दिन महत्रतों का आरोपित किया गया छह दीक्षा दिवस आदि पर्याय कहलाता है। उसमें पांच आदि का छेदन होता है। उदाहरणार्थ-किली की दीक्षा કઈ રીતે હોઈ શકે? બંને એક કેવી રીતે હોઈ શકે ? બંનેમાં પરસ્પર વિરોધ છે. સમાધાન-આત્મામાં ખેદજનક હેવાના કારણે આને પણ આભ્યન્તર કહેવામાં આવે છે. આથી કઈ વિરોધાભાસ નથી (આમ પણ બાહ્ય અને અને આભ્યન્તર તપમાં પારસ્પરિક વિરોધ નથી, બાહ્ય તપ પણ પરિણામ વિશેષથી આભ્યન્તર બની જાય છે અને આભ્યન્તર તપ પણ બાહ્ય બની શકે છે.) (૭) છેદ-કેટલાંક દિવસ પક્ષ અથવા માસની દીક્ષાનું છેદન કરવું અર્થાત્ તેમાં ઘટાડો કરી દે છેદ પ્રાયશ્ચિત્ત છે, મહવનાં આપણકાળથી માંડીને જે દીક્ષાકાળ છે તેમાંથી ડાં દિવસ, પક્ષ અથવા માસને દીક્ષાકાળ એ કરી દે છેદ કહેવાય છે. જે દિવસે મહાવ્રતનું આપણું કરવામાં આવ્યું તે દીક્ષાદિવસ આદિ પર્યાય કહેવાય છે તેમાં પાંચ આદિને છેદ થાય છે. દાખલા તરીકે-કેઈની દીક્ષા પર્યાય દશ વર્ષની છે તે અપરાધ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ टू. ६६ दशविधप्रायश्चित्तनिरूपणम् .. ४८१ यावत्-पण्यासपरिमाणच्छेदो घु- गुरु ी भवति । एवंविधेन छेदेन छिधमानः प्रवज्यादिषसमपि छेदपति ७ मूलं शायश्चित्तं पुनर्वतारो एणम् अस्य विषयः-सङ्कल्पात् कृता प्राणातिपातचतुर्थाऽऽसबसेवन-मुस्कृष्टं मृषावादादिकं वाऽऽसेवमानो बोध्या ८ अनास्थाप्यं नाम प्रायश्चित्तं सेविताऽविचारस्याऽकृततो विशेषस्य व्रताऽनारोपणीषलारूपलबसेयम्, तथा-यद् आसेविते च दोषे कञ्चनकालं व्रत्तारोपणाऽयोग्यं कृत्वा पश्चाचीर्ण नपास्तन् दोपोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तत् ५ पारी -पांच दल हर्ष की तो भलाध के अनुसार उनमें से कदाचित पंचवच्छेद होता है, लदाचित् दशकच्छेद होता है। अधिक से अधिक छह महीने का छेउ मायश्चित दिशा जाता है। (८) स्थूल-बदेखि ने पुनः दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है । यह प्रायश्चित सभी दिया जाता है जब कोई साधु संकल्प पूर्वक माणातिः पात करे, चतुर्थ भावन-जैथुन का सेवन करे या उत्कृष्ट स्वृषालोद आदि का सेवन करे। (९) अवस्थाधा-जिस साधु ने अतिचार का सेवन किया हो किन्तु उसके प्रायश्चित्तत्यप सपथिकोष का सेवन न किया हो, वह व्रतारोपण के योग्य नहीं होता। उनकी यह अयोग्यता अन्नवस्थाप्य प्रायश्चित्त है । दोष का सेवन करने पर कुछ काल तक वह साधु व्रतारोपण के योग्य नहीं होना, बाद जब तपश्चरण कर लेता है और उल्ल दोष की निवृत्ति हो जाती है तय ब्रतों में उले स्थापित किया जाता है। સૂજબ તેમાંથી કદાચિત પંચકચછેદ થાય છે, કદાચિત દશકચ્છેદ થાય છે. વધારેમાં વધારે છ માસનું છે પ્રાયશ્ચિત્ત આપવામાં આવે છે. (૮) મૂળ-નવેસરથી ફરીવાર દીક્ષા આપવી મૂળ પ્રાયશ્ચિત્ત છે જ્યારે કઈ સાધુ સંકલ્પપૂર્વક પ્રાણાતિપાત કરે ત્યારે જ આ પ્રાયશ્ચિત્ત કરવામાં આવે છે, ચતુર્થ આસવ-મૈથુનનું સેવન કરે અથવા ઉત્કૃષ્ટ મૃષાવાદ આદિનું સેવન કરે. (6) मनवस्थाय-2 साधुसे मतियानु सेवन यु. ५२न्त तना પ્રાયશ્ચિત્ત સ્વરૂપ તપવિશેષનું સેવન કર્યું નથી, તે ઘતારે પણ માટે યોગ્ય હિતે નથી તેની આ અગ્યતા અનવસ્થા પ્રાયશ્ચિત્ત છે. દોષનું સેવન કરવાથી થોડા સમય સુધી તે સાધુ વારોપણ માટે ચગ્ય રહેતું નથી. છેલ્લે જ્યારે તપસ્યા કરી લે છે અને દેષની નિવૃત્તિ થઈ જાય છે ત્યારે વ્રતમાં તેને સ્થાપિત કરવામાં આવે છે. त०६१ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाचे श्विकं नाम दशमं प्रायश्चित्तम्, तथाहि-पारं-प्रायश्चित्तानामन्तम्, यस्मात्-परसुत्कृष्ट प्रायश्चित्ताऽभावात् अञ्चति-माप्नोतीति पाराश्चिक मुच्यते । यद्वा-पारः अपराधानामन्तः अञ्च्यते-पाप्यते येन प्रायश्चित्तेन तत्-पाराश्चिकं नाम पायश्चित्त मुच्यते । अत्राऽयं विवेका-कृतातिचारं लिङ्ग-क्षेत्र-कालतो बहिर्भूतं कृत्वा छत्वा च तपसा शुद्धं पुन: स महान वेष्यारोप्यते,। इदं प्रायश्चित्तं जातिकुलसम्पन्न एव-(कश्चित् क्वचित्) स्वीकरोतीति । यः कोऽपि साधुर्गच्छाधिष्ठात्री राजराज्ञी-श्रेष्ठिपत्नीगामी, तथा-स्त्यानद्धि निद्रावान् मृतगुरुदन्तोत्पाटक इत्यादि दुष्कुल्याऽऽकारी भवति तस्मै-इदं प्रायश्चित्तं देयं भवति ॥१०॥इति भावः॥६३॥ (१०) पाराचिन-यह दसवां प्रायश्चित्त है। जिससे बडा अन्य कोई प्रायश्चित्त न हो अर्थात् जो लोत्कृष्ट प्रायश्चित्त हो वह परां. चिक प्रायश्चित्त कहलाता है। अथवा जिस प्रायश्चित्त के सेवन से अपराधि अपने अपराध के पार (अन्त) पहुंच जाय अर्थात् शुद्ध हो जाय वह परांचिक प्रायश्चित्त, यहां यह समझ लेना चाहिए कि जिसने अनाचार का सेवन किया है उसे लिंग क्षेत्र और काल से बाहर करके, तत्पश्चात् तपस्या कर चुकने पर पुनः दीक्षित किया जाता है । जाति और कुल से सम्पन्न पोई-कोई ही इस प्रायश्चित्त को कदाचित् स्वीकार करता है। जो साधु गच्छ की अधिष्ठात्री (भवतिनी) राजरानी या किसी लेठानी के साथ संगम फरता है अथवा जो स्त्यानद्धि निद्रावान् होता है और अपने मृत गुरू के दातों को कषायाविष्ट होकर उखाडना जैसा घोर अनाचार करता है, उसी को यह प्रायश्चित्त किया जाता है ॥६३॥ (१०) पायि:- मा शभु प्रायश्चित्त छे. नाथी भाई भी પ્રાયશ્ચિત્ત હેય નહી, અર્થાત્ જે સર્વોત્કૃષ્ટ પ્રાયશ્ચિત્ત છે તે પારાચિક પ્રાયશ્ચિત્ત કહેવાય છે, અથવા જે પ્રાયશ્ચિત્તના સેવનથી અપરાધી પિતાના અપરાધને છેડે પહોંચી જાય, અર્થાત શુદ્ધ થઈ જાય તે પારાચિક પ્રાયશ્ચિત્ત, અહીં એ સમજી લેવું જોઈએ કે જેને અનાચારનું સેવન કર્યું છે તેને લિંગ, ક્ષેત્ર અને કાળથી બહાર કરીને, ત્યાર બાદ, પુનઃ દીક્ષિત કરવામાં આવે છે. જાતિ અને કુળથી સમ્પન્ન કેઈ—કઈ જ આ પ્રાયશ્ચિત્તને કદાચિત સ્વીકાર કરે છે. જે સાધુ ગચ્છની અધિષ્ઠાત્રી (પ્રવતિની), રાજરાણી અથવા કઈ શેઠાણીની સાથે સંગમ કરે છે, અથવા જે ત્યાનધિ નિદ્રાવાનું થાય છે અને પિતાના મૃત ગુરૂના દાંતને કષાયાવિષ્ટ થઈને ઉખાડવા જે ઘેર અનાચાર કરે છે, તેને જ આ પ્રાયશ્ચિત્ત આપવામાં આવે છે. ૬રા Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. सु. ६४ विनयरूवाभ्यन्तरतपसो भेदनि० ૩ मूलम् - विणए सत्तविहे, णाणदंसणचरित्तमणवइकायलोगोवयारभेयओ ॥६४॥ छाया - 'विनयः सप्तविधः, ज्ञान-दर्शन - चारित्र - मनो- वचः - कायलोकोपचारभेदतः ॥६४॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्रे - प्रायश्चित्तविनय वैयावृत्यादि विधाभ्यन्तरतपसां प्रथमोपात्तस्य प्रायवित्तस्याऽऽलोचनप्रतिक्रमणादिदशभेदानां प्ररूपणं कृतम् सम्पति-- क्रममाप्तस्य द्वितीयस्य विनयरूपस्याभ्यन्तर तपसो भेदान् प्ररूपयितुमाह- 'विणए वत्तविहे' इत्यादि । विनयः - विनीयसेऽपनीयते क्षिप्यते ज्ञानावरणाद्यष्टविध कर्मरजोराशिर्येन स विनयः सप्तविधः ज्ञान- दर्शन - चारित्र - मनो - वचः - काय - लोकोपचारभेदतः । तथा च ज्ञानविनयः १ दर्शन विनयः २ 'विए सत्तविहे णाण' इत्यादि सूत्रार्थ - विनय सात प्रकार का है- (१) ज्ञान (२) दर्शन (३) चारित्र (४) मन ( ५ ) वचन (६) काय और (७) लोकोपचार ||६४ || पूर्वसूत्र में प्रायश्चित विनय वैयावृत्य आदि छह प्रकार के आभ्यन्तर तपों में से प्रायश्चित्त के आलोचन प्रतिक्रमण आदि दस भेदों का निरूपण किया गया, अब क्रमप्राप्त विनय नामक आभ्यन्तर तप के भेदों की प्ररूपणा करते हैं जिसके द्वारा ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार का कर्म-रज विनीत किया जाय - हटाया जाय उसे विनय कहते हैं । वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वचन, काय और लोकोपचार के भेद से सात प्रकार है अर्थात् उसके सात भेद हैं, यथा-- (१) ज्ञानविनय (२) दर्शन 'fare सत्तविहे णाणदंसण' इत्यादि सूत्रार्थ - विनय सात प्रहारनो छे - ( १ ) ज्ञान (२) दर्शन ( 3 ) यारित्र (४) भन (4) वथन (१) अय भने (७) बोडीयार ॥६४॥ તત્ત્વાથ દીપિકા—પૂર્વસૂત્રમાં પ્રાયશ્ચિત્ત વિનય વૈયાવૃત્ય આદિ છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપેામાંથી પ્રાયશ્ચિત્તના માલાચન પ્રતિક્રમણ આદિ દશ ભેદોનુ નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યું, હવે ક્રમપ્રાપ્ત વિનય નામક તપના ભેની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ આભ્યન્તર જેના વડે જ્ઞાનાવરણુ આદિ આઠ પ્રકારના ક-રજ વિનીત કરવામાં भावे—दूर १२वामां आवे तेने विनय हे छे. ते ज्ञान, दर्शन, व्यास्त्रि, भन, पथन, કાયા અને લેાકેાપચારના ભેદથી સાત પ્રકારને છે. અર્થાત્ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रे सनविनय १ उच्यते ज्ञाते सति तस्मिनामदाद हिविधः २। चारित्रविनयः ३ मनोविनयः ४ वचोविनय: ५ कायविनयः ६ लोकोपचारविनयश्च ७। तबाऽऽलस्यवजितेन देश-काल-द्रव्य-भानादिशुद्धिकरणेन बहुमानेन मोक्षमाप्त्यर्थं ज्ञानग्रहणं ज्ञानाभ्यासो ज्ञानस्मरणादिकं ज्ञानविनय उच्यते । स च पञ्चविधः, मतिज्ञानविनयश्रुतज्ञानविलयाऽवधिज्ञानविनय-केवलज्ञानविनयभेदात् । तत्र-शङ्काऽऽकाङ्क्षाऽऽदिदोपवर्जितं तत्पश्रद्धानं दर्शनविनय १ उच्यते स च-सुश्रूषणाऽध्याशातलाभेदाइ द्विविधः २ । ज्ञानदानवतः पुरुषस्य चारित्रे ज्ञाते सति तस्मिन् पुरुषे-भावतोऽतिभक्तिविधानं भावतः स्वयं चारित्रानुष्ठानश्च चारित्रविनय उच्यते । स च पञ्चविधः, सामायिकचारित्रविनर-छेदोपस्थापनीय विनय (३) चारित्र विनय (४) मनोविनय (५) बचन विनय (६) काय विनय और (७) लोकोपचार विनय। आलस्थरहित होकर देश, काल, द्रब्ध और भाच आदि संबंधी शुद्धि करके, बहुमानपूर्वक, मोक्ष प्राप्त करने के हेतु ज्ञान को ग्रहण करना ज्ञानका अभ्यास करना ज्ञान का स्मरण आदि कारला ज्ञान विषय कहलाता है ? ज्ञानविनय के पांच भेद है मतिज्ञालविनय, शुलज्ञानविनय, अवधिज्ञानविनय, मनापर्यव ज्ञानविनय और केवल ज्ञानविनय । - शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित होकर तत्वार्थ पर श्रद्धान करना दर्शनविनय है । इसके दो लेद है-शुश्रूषणा और লালমা। ज्ञान-दर्शन सम्पन्न पुरुष में यदि चारिज मालूम हो तो उसके प्रति भावपूर्वक अत्यन्त अक्ति करना और स्वयं सावपूर्वक चारित्र का अनुष्ठान करना चारिजिनध है। चारित्रभिनय पांच प्रकार का तेना सात मे छ-(१) ज्ञानविनय (२) शनविनय (3) यात्रिविनय (४) भनाविनय (५) क्यनविनय (6) आयविनय म. (७) ययाविनय. આળસ ખંખેરીને દેશ, કાળ, દ્રવ્ય અને ભાવ આદિ સંબંધિ શુદ્ધિ કરીને, બહુમાનપૂર્વક, મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવાના હેતુથી જ્ઞાન ગ્રહણ કરવું, જ્ઞાનને અભ્યાસ કર, જ્ઞાનનું સ્મરણ આદિ કરવું જ્ઞાનવિનય કહેવાય છે. જ્ઞાનविनयना पाय म छ-भतिज्ञानविनय, अनज्ञानविनय, अवधिज्ञानविनय, મન:પર્યવજ્ઞાનવિનય અને કેવળજ્ઞાનવિનય. શંકા-કાંક્ષા આદિ દેથી રહિત થઈને તત્વાર્થ પર શ્રદ્ધા કરવી દર્શનવિનય છે. આના બે ભેદ છે-શુશ્રષણ અને અનન્યાશાતના, જ્ઞાન-દર્શન સમ્પન્ન પુરૂષમાં જે ચારિત્ર જણાય તો તેના પ્રત્યે ભાવપૂર્વક. અત્યન્ત ભક્તિ કરવી અને સ્વયં ભાવપૂર્વક ચારિત્રનું અનુષ્ઠાને Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीविका निक्ति टीका अ.७ ० ६४ विनय रूपाभ्यन्तरतपसो भेदनि० ४८५ चारित्रविनय-परिहारविशुद्धिक चारित्रविनय-सूक्ष्मसाम्पराय चारित्रविनययथाख्यात्चारित्रभेदात् । तथा च ज्ञानदर्शनवतः पुरुषस्य चारित्रस्लमाहित चित्तता चारित्रविनको व्यपदिश्यते ३ मनोविनयस्तु पराक्षेश्वषि-आचार्योपाध्यायादिषु गुणानुस्मरणादिरूप उन्च्यते ४ सच-प्रशस्ताऽप्रशस्तभेदाद् द्विविधः । एवं वचोधिनयोऽपि-परोक्षेपि तेषु वचसा गुणकीर्तनादिरूप उच्यते, अयमपि प्रशस्ताऽप्रशस्तभेदाद द्विविधः ५ एवं-झाविनयोऽषि परोक्षेष्वपि आचार्योपाध्या यादिषु कायेन शिराहस्तादिनाऽञ्जबिक्रियादिरूपोऽरसे य: ६ असावपि-प्रशस्ताहै-लामाथिक्ष चारित्रविनय, छेापस्थापनीय चारित्रविनय, परिहारविशुद्धिक चारित्रजिनय, सूक्ष्मलाम्पा चरित्रविनय और यथाख्यात. चारित्रचिलया । इस प्रकार ज्ञान और दर्शन से युक्त पुरुष का चारित्र में चित्त लग जाना चारित्रविनय है। ____ आचार्य शा उपाध्याय आदि परोक्ष में हो तो भी उनके गुणों का स्मरण आदि करना मनोविनय कहलाता है। मनोविनय के दो भेद हैं-प्रशस्तमनोविनय और अप्रशस्त मनोविलय । आचार्य उपाध्याय आदि परोक्ष हो तो भी वचन से उनके गुणों का कीर्तन करना आदि बचन बिनय है। प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से यह भी दो प्रकार का है। इसी प्रकार काय विलय भी ललना चाहिए- आचार्य आदि परोक्ष हो तो भी उन्हें काम से हाथ आदिले अंजलि क्रिया करना आदि काय विनय है। प्रशस्त और अप्रास्ता के भेद से छलके भी दो भेद है। કરવું ચારિત્રવિનય છે. ચારિત્રવિનય પાંચ પ્રકારના છેસામાયિક ચારિત્રવિનય, છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્રવિનય, પરિહારવિશુદ્ધિ ચારિત્રવિનય સૂમસંપરાય ચારિત્રવિનય અને યથાપાત ચારિત્રવિનય આ રીતે જ્ઞાન અને દર્શનથી યુક્ત પુરૂષનું ચારિત્રમાં મન પરોવાઈ જવું ચારિત્રવિનય છે. આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાય આદિ પક્ષ હોય તે તેમના ગુણેનું સ્મરણ વગેરે કરવું મને વિનય કહેવાય છે. મને વિનયના બે ભેદ છેપ્રશસ્તમને વિનય અને અપ્રશસ્તમને વિનય. આચાર્ય, ઉપાધ્યાય આદિ પરેલ હોય તે પણ વચનથી તેમના ગુણેનું કીર્તન કરવું વગેરે વચનવિનય છે. પ્રશસ્ત તેમજ અપ્રશસ્તના ભેદથી આ પણ બે પ્રકારના છે આવી જ રીતે કાવિનય પણ સમજ-આચાર્ય આદિ પરોક્ષ હોય તો પણ તેમને કાયાથી-હાથ વગેરેથી અંજલિકિયા કરવી આદિ કાયવિનય છે. પ્રશસ્ત અને અપ્રશસ્તના ભેદથી આના પણ બે ભેદ છે, Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rea तत्त्वाचे ऽपशस्तभेदाद द्विविधाः ६ कोकोपचारविनयस्तु-उपचरणमुपचारः लोकविषय श्रद्धानपूर्वक नम्रता विशेषलक्षणो विलक्षणोव्यवहारः सचाऽसौ विनयश्चेति लोकोपचारविनयः । स च-सप्तविधः, अभ्यासवृत्तिता-परिच्छन्दानुवर्तिताऽऽदिभेदाद ७ । विनयस्य सविस्तरं भेदानुभेदरूपं वर्णनम्-'औपपातिक' मुत्रस्य मत्कृतायां 'पीयूषवर्षिणी' टोकायां त्रिंशत्तमसूत्रव्याख्यायां (पृष्ठ-२५७४२७२) विलोकनीयम् ॥६॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-पडविधाऽऽभ्यन्तरतपसः प्रथमोपात्तस्य प्रायश्चित्तस्याऽऽलोचन-प्रतिक्रमणादि दशभेदानां प्ररूपणं कृतम्, सम्प्रति क्रमप्राप्त स्य द्वितीयस्य विनयरूपाभ्यन्तरतपसः प्ररूपणं कर्तुमाह-'विणए सत्तविहे, णाण-दसण-चरित्त-मण-बह-काय-लोगोंक्यारमेयओ' इति । विनयस्तारत् पूर्वोक्त स्वरूपो ज्ञानावरणायष्टविधकर्मरजोराशि विनाशक नम्रता विशेषः लोक विषयक श्रद्धापूर्वक नम्रता होना लोकोपचार विनय है। इसके सात भेद हैं-अस्यासनवृत्तिता अर्थात् गुरू के निकट में रहना, परछन्दालुर्तिलो दूसरे की इच्छा को समझकर उसके अनुसार कार्य करना आदि । विनय को विस्तार पूर्ण भेदानुभेद सहित वर्णन 'औपपातिक' मुत्र की मेरे द्वारा रचित 'पीयूषवर्षिणी' टीका में, तीसवें सूत्र की व्याख्या में देखना चाहिए ॥ ६४॥ तत्वार्थनियुक्ति-छह प्रकार के आभ्यन्तर तप में परिगणित प्रथम भेद प्रायश्चित्त के आलोचन प्रतिक्रमण आदि दस भेदों का वर्णन पूर्वसूत्र में किया गया, अब क्रमप्राप्त द्वितीय आभ्यन्तर तप विनय की प्ररूपणा करते है- લેકવિષયક શ્રદ્ધાપૂર્વક નમ્રતા હેવી લોકપચારવિનય છે. આના સાત ભેદ છેઅભ્યાસવૃત્તિતા અર્થાત્ ગુરૂની સાંનિધ્યમાં રહેવું પરછન્દાનુવત્તિતાબીજાની ઈચ્છાને સમજી લઈ ને તદ્દ અનુસાર કાર્ય કરવું વગેરે. વિનયનું વિરતારપૂર્વક ભેદાનભેદ સહિત વર્ણન “પપાતિક સૂત્રની મારા વડે રચાયેલી “પીયૂષવર્ષિ ટીકામાં, ત્રીસમાં સૂત્રની વ્યાખ્યામાં જોઈ લેવા ભલામણ છે ૬૪ તત્વાર્થનિયુક્તિ-છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપમાં પરિગણિત પ્રથમ ભેદ પ્રાયશ્ચિત્તના આલેચન પ્રતિકમણ આદિ દશ ભેદનું વર્ણન પૂર્વસૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું, હવે ક્રમ પ્રાપ્ત દ્વિતીય આભ્યન્તર તપ વિનયની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७६.६४ विनयापाभ्यन्तरतपसो भेदनि० ४८७ सप्तविधो भवति, विनीयन्ते-क्षिप्यंते ज्ञानावरणायष्टविधकर्माणि येन स विनय इति व्युत्पत्तेः । तद्यथा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मनो, वचः, काय, लोकोपचार, भेदतः । १ ज्ञानविनयः २ दर्शनविनयः ३ चारित्रविनयः ४ मनोविनयः ५ वचोविनयः ६ कायविनयः ७ लोकोपचारविनयश्चेति । तत्र-ज्ञानविनयस्तावत् पञ्चविधः, तद्यथा-मतिज्ञानविनयः केवलज्ञानविनय श्वेत । तथा च-आदरपूर्वकं मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणं ज्ञानाभ्यासः ज्ञानस्मरणादिकं यथाशक्ति ज्ञानदिनय उच्यते । ज्ञानविनये सति मति ज्ञानादि पञ्चके सबहुमानं शक्त्यतिशयो ज्ञानरूबरूपश्रद्धानं तद्विषयं श्रद्धानश्वोपजायते, तेच विशेषो जायते । तथा च क्तम् 'काले विणए बहुमाणे उपहाणे तह अनिहवणे । वंजण अत्थ तदुभए अट्टविहो नाणमायारो ॥१॥ ज्ञानोवरण आदि आठ प्रकार के कर्म रूपी रज को दूर करने वाली नम्रता को विनय कहते हैं-उसके सात भेद हैं । ज्ञान, दर्शन, चारि, मन, वचन, काय और लोकोपचार अर्थात् (१) ज्ञान विनय (२) दर्शन विनय (३) चरित्रविनय (४) मनो विनय (५) वचन विनय (६) कायविनय और (७) लोकोपचार विनय, इनाई ले ज्ञानविनय के पांच भेद हैं-मतिज्ञानविनय, श्रुतज्ञानविनय, अवधिज्ञानविनय, मनापर्यवज्ञानविनय और केवलज्ञानविनय, आदर के साथ ज्ञान को ग्रहण करना, ज्ञान का अभ्यास करना, ज्ञान का स्मरण आदि करना, ज्ञान विनय है। ज्ञानचिनय के होने पर मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानों में बहुमानपूर्वक शक्ति का आधिक्य होता है, ज्ञान के स्वरूप का श्रद्धान होता है और ज्ञान के विषय पर भी श्रद्धान होता है। श्रुतज्ञान में विशिष्टता उत्पन्न होती है। कहा भी है જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મરૂપી રજને દૂર કરનારી નમ્રતાને विनय ४ छे, तना सात से छे-ज्ञान, शन, यारित्र, मन, वयन, ४.या भने सोडीयया२ मत (१) ज्ञानविनय (२) शनविनय (3) यात्रिविनय (४) भने विनय (५) पयनविनय (६) यविनय भने (७) पाशवनय. આમાંથી જ્ઞાનવિનયના પાંચ ભેદ છે–મતિજ્ઞાનવિનય, શ્રુતજ્ઞાન વિનય. અવધિજ્ઞાનવિનય, મન:પર્યવશ નવિનય અને કેવળજ્ઞાનવિનય સન્માનપૂર્વક જ્ઞાન ગ્રહણ કરવું. જ્ઞાનનો અભ્યાસ કરો, જ્ઞાનનું સમરણ વગેરે કરવું જ્ઞાનવિનય છે જ્ઞાનવિનયના હોવાથી મતિજ્ઞાન આદિ પાંચ જ્ઞાનેમાં બહુમાનપૂર્વક શક્તિનું આધિય થાય છે, જ્ઞાનના સ્વરૂપની શ્રદ્ધા થાય છે અને જ્ઞાનના વિષય પર પણ શ્રદ્ધા થાય છે. શ્રુતજ્ઞાનમાં વિશિષ્ટતા ઉત્પન્ન થાય છે. કહ્યું પણ છે– Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्त्वार्थ ૮૮ 'काले विनये बहुमाने उपधाने तथा अनिहिये। व्यञ्जनेऽर्थे तदुभये अष्टविधो ज्ञाने आचारः ॥१॥ इति, शङ्कादिदोपत्र जितं तत्वार्थश्रद्धानं दर्शन दिलय उच्यते, सच-सम्यग्दर्शन; विनयः शुश्रूषणाऽनत्याशातनभेदाद् द्विविधः २, तथा तीर्थछन् मणीतस्य धर्मस्या. ऽऽचायौं-पाध्याय-स्थविर-कुलाण - संघ-ऋषणसाम्भोमिकसनोज्ञानाचाऽनाशा तना घशम संवेग-वैराग्याऽनुकम्पाऽऽस्तिक्यानि च सम्यग्दर्शनविनयो वोध्यः ज्ञानदर्शनवतः पुरुषस्य चारित्रे विज्ञाते सति तान् पुरुषे पावत आदरातिशयकरणम्-द्रव्यमावत: स्वयं चारित्रानुष्ठानञ्च चारित्रचिन्य उच्यते । स चारित्रविनयः पञ्चविधः, सामायिकचारित्रविलय:-छेदोपस्थापन चारित्रविनय:___ काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिल न, शब्द अर्थ और उभय-हान्दार्थ, थाह आठ मर का ज्ञानजिन्य है। शंका आदि दोषों देह सहित तत्वार्थ का बहाल दर्शनविनय कहलाता है। शुश्रूषण और अपत्याशातला के भेद से वह दो प्रकार का है। तीर्थर द्वारा गुणीत धर्म की आशातला म फरमा लथा आचार्य उपाध्याय, स्थविर शैक्ष, ग्लान, तपस्वी, सालिका, झुल, गण संघ, एवं मेनोज्ञ श्रमणो की आशातना न करता तथा प्रशस, संवेग, वैरा:: ग्य अनुकम्पा आस्तिस्य यह हम्यग्दर्शनधिनय है। ज्ञाल दर्शनवान् पुरुष के चारिन का ज्ञान होने पर उस पुरुष का अतिशय आदर करना तथा द्रव्य भाव से स्वयं चारित्र झा अनुष्ठान करना चारित्र विनय है। चारित्र विलय के पांच भेद हैं-लामाथिक चरित्र विनय, छेोपस्थापन चारित्रविनय, परिवार विशुद्धिक चारित्र કાળ, વિનય, બહુમાન, ઉપધાન અનિહૂનવ શબ્દ અર્થ અને ઉભય શબ્દાર્થ–આ આઠ પ્રકારના જ્ઞાનવિનય છે. શંકા વગેરે દેથી રહિત તત્વાર્થની શ્રદ્ધા દર્શનવિનય કહેવાય છે. શુશ્રુષણ અને અનન્યાશાતનાના ભેદથી તે બે પ્રકાર છે. તીર્થકર દ્વારા પ્રણીત ધર્મની અશાતના ન કરવી તથા આચાર્ય, ઉપાધ્યાય, સ્થવિર, શૈક્ષગ્લાન તપસ્વી, સાધમિક, કુળ, ગણ, સંઘ અને મને શ્રમણની અશાતના ન કરવી તથા પ્રશમ, સંવેગ, વૈરાગ્ય, અનુષ્પા અને આસ્તિ આ સમ્યગદર્શનવિનય છે. જ્ઞાન-દર્શનવાન પુરૂષના ચારિત્રનું જ્ઞાન થવાથી તે પુરૂષને અતિશય આદર કરે તથા દ્રવ્ય-ભાવથી યં ચારિત્રનું અનુષ્ઠાન કરવું ચારિત્રવિનય છે ચારિત્રવિનયના પાંચ ભેદ છે--સામાયિક ચરિત્રવિનય છેદે પસ્થાપન ચારિત્ર Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू. ६४ विनयरूपाभ्यन्तरतपसी मेदनि० ५८९ सूक्ष्मसाम्परायिकारिनविनयः-थयाख्यातविनयश्चेति। तथा च पूर्वोक्त सामायिकादि स्वरूपश्रद्धानपूर्वकं चानुष्ठान विधिना प्ररूपणं चारित्रविनय उच्यते २ परोक्षेपु चापि आचार्योपाध्यायादिषु भनसा-वचसा कायेन च खल मनो विनया, बचो दिनयः, कायविनयथोच्यते । कोकोपचारविनयस्तु-उपचरण -मुपचारः श्रद्धानपूर्वको नम्रतारूप क्रियाविशेषलक्षणो लोकविषयो व्यवहारा, सचाऽसौ विनयश्चेति लोकोपचारविश्यः उच्यते । स च-सप्तविधः, अभ्यासवृत्तित्ता पस्च्छन्दानुवन्तिादिभेदार । विनयस्य सविस्तरवर्णनं भेदानुभेदरूपम् 'औपपालिश' सुनस्य मत्तायां पीयूषवर्षिणी' टीकायां त्रिंशत्तमसूत्रव्याख्यायां (पृष्ठ २४७-२७२) विलोकनीयम् ॥६४॥ विनय, वृक्षार साम्पराधिक चारित्रविनय और यथाख्यात चारित्र विनय । हलके अतिरिक्त पूछोरत सामायिक आदि के स्वरूप के श्रद्धान के साथ अनुष्ठान विधि ले प्ररूपण करना चारित्र विनय है। आचार्य आदि परोक्ष में हो तो भी मन से बचन और काय से उनका विनय करना क्रयशा मनोविनय, वचनविनय और काथविनय कहलाता है। ___ उपचरण को उपचार कहते हैं। श्रद्धानपूर्वक नम्रतारूप क्रिया विशेष उपचार कहलाता है तात्पर्य यह है कि लौकिक व्यवहार में नम्रता एवं सौजन्य रखना लोकोपचार विनय है। अभ्याशवृत्तिता, परछन्दानुवतिता आदि ने भेद से इसके सात भेद हैं। भेद-प्रभेद के साथ विनय का विस्तृत वर्णन मेरे द्वारा रचित - વિનય, પરિહાર વિશુદ્ધિક ચરિત્રવિનય, સૂમસામ્પરાયિક ચારિત્રવિનય અને , યથાખ્યાત ચારિત્રવિનય આ સિવાય પૂર્વોક્ત સામાયિક આદિના સ્વરૂપની શ્રદ્ધા સહિત અનુષ્ઠાન વિધિથી પ્રરૂપણા કરવી ચારિત્રવિનય છે. આચાર્ય આદિ પરોક્ષ હોય તો પણ મનથી, વચનથી તેમજ કાયાથી તેમને વિનય કર અનુક્રમે મને વિનય, વચનવિનય અને કાયવિનય કહેવાય છે. ઉપચરણને ઉપચાર કહે છે. શ્રદ્ધાપૂર્વક નમ્રતારૂપ ક્રિયા વિશેષ ઉપચાર કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે લૌકિક વ્યવહારમાં નમ્રતા અને સૌજન્ય દાખવવા લેકે પચારવિનય છે અભ્યાસવૃત્તિતા, પરછન્દાનુવત્તિતા આદિના ભેદથી આના સાત ભેદ છે. ભેદ-પ્રભેદની સાથે વિનયનું વિસ્તૃત વર્ણન મારા વડે રચાયેલી त० ६२ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नस्वार्थ . मूलम्-वेयावच्छे दलविहे, आयरिय उवज्झाय-थेर-तवस्ति-सेह-गिलाणकुलगणसंघ-साहम्भिय भयो।६५॥ छाया- 'वैयावृत्यं दशविधम्, भाचार्यो-पाध्याय-स्थविर-तपस्वि-शैक्षग्लान कुल-गण-संघ-साधर्मिकभेदतः ॥६५॥ तत्वार्थदीपिका--पूर्व ताबद् आभ्यन्तरतपसः प्रायश्चित्तविनयवैयारत्त्या. दिभेदेन पविधरय प्रतिपादितत्वेन तम-क्रमशः प्रायश्चित्तस्य दशभेदानामालोचन-अतिक्रमणादीनां विनयस्य च राप्तभेदानां ज्ञान-दर्शनचारित्रा. दिविनयानां प्ररूपणं कृतम्, सम्मति-क्रममाप्तस्य वेयावृत्त्यरूपतृतीयाभ्यन्तरतपसो दशभेदानाम् आचार्यों-पाध्यायादि चैयावृत्त्यानां प्ररूपणं कर्तुमाह-'वैयावच्चे इसचिहे' इत्यादि । वैयावृत्त्यम् सूत्रोक्तविधिना व्यावर्तते अमेतिव्यावृत्तः निर्जरालक्षण शुभव्यापारवान् तस्य भावः-कर्म वा 'औषपातिक सूत्र की पीयूषवर्षिणी' टीका में, तीसवें सत्र की व्याख्या में (पृ-२५७-२७२-पर) देखना चाहिए ॥सूत्र ६४॥ ___ 'वेयावच्चे दसविहे' इत्यादि । सू० ६५॥ सूत्रार्थ-वैयावृत्य दस प्रकार का है-१ आचार्य २, उपाध्याय ३, स्थविर ४ शैक्ष ५ ग्लान ६ तपस्वी ७ साधर्मिक ८ कुल ९ गण १० संघ के वैयावृत्य के भेद से ॥५०॥६५॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले आभ्यन्तर के प्रायश्चित्त, विनय, वैद्यावृत्य आदि छह भेद कहे गए थे। उनमें से आलोचन, प्रतिक्रमण आदि दस भेद् प्रायश्चित्त के तथा ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रधिनय आदि दस भेद विनय के कहे जा चुके है, अब क्रम प्राप्त तीसरे आभ्यन्तर तप वैयावृत्य के आचार्य वैयावृत्य, उपाध्याय यावृत्य आदि दस भेदों की प्ररूपणा પપાતિક સૂત્રની પીયૂષવર્ષિ ટીકામાં, ત્રિીસમાં સૂત્રની વ્યાખ્યામાં (પાના નં. ૨૫૭૨૭૨) પર જોઈ લેવા ભલામણ છે. ૬૪ सूत्रा-वैयाकृत्य श प्रा२नी छे-(१) मायाय (२) 6पाध्याय (3) स्थविर (४) शैक्ष (५) खान (6) तपस्वी (७) सामि (८) युग (6) ગણ તથા (૧૦) સંઘની વૈયાવૃત્યના ભેદથી. પદપા . . तत्याही ५-पोसा माय-२ तपन प्रायश्चित्त, विनय, વૈયાવૃત્ય આદિ છ ભેદ કહેવામાં આવ્યા. તેમાંથી આલોચન, પ્રતિક્રમણ આદિ દશ ભેદ પ્રાયશ્ચિત્તના તથા જ્ઞાનવિનય, દર્શનવિનય, ચારિત્રવિનય આદિ દશ ભેદ વિનયન કહેવામાં આવેલ છે હવે કેમપ્રાપ્ત ત્રિીજ આભ્યન્ડર તપ વૈયાવૃત્યના આચાર્ય વિનય, ઉપાધ્યાયવિજય આદિ દશ ભેદની Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ ५.६५ वैयावृत्यस्य भेदनिरूपणम् . . वैयावृत्त्यम्, सेवाकरणम् तद् दशदिधं भवति । तद्यथा-आचार्योपाध्यायस्थविरतपस्वि-शैक्ष-ग्लान-कुल-गण-संध-साधर्मिकभेदतः, तत्र-दविधं खलु वैया. वृत्त्यं भवति आचार्यस्य वैयावृत्त्यं सेशऽऽचार्य वैयावृत्त्या १ उपाध्यायस्य शुश्रूषा. करणम्-उपाध्यायवैयावृत्त्यम् २ स्थविरस्य-वृद्धानेवैयावृत्त्यं स्थविरवैयावृत्त्यम् ३ तपस्वी-मासमक्षणादिकारका, तस्य यावृत्त्य लपस्विक्षयात्त्यम् ४ शैक्षस्यग्रहणाऽऽसेवनशिक्षाभ्यासशीलस्य वैयाहत्य-शैक्षवैषावृत्त्यम् ५ ग्लानस्य रुग्णस्य रोगादिक्लेशयुक्तशरीरस्य वैयावृश्यं ग्लानरयावृत्यम् ६ अनेकगणसमुदायाकुलं तस्य वैयाहस्यं कुलवैयावृत्त्यम् ७ मुनिसमूहस्य वैयाहत्त्य गणवैयावृत्यम् ४ संघस्य--साधु साध्वी श्रावक श्राधिकारूपस्य चतुर्विधर्व संघस्य वैयावृत्त्यं संघ. करने के लिए कहते हैं-निर्जरा रूप शुभब्यापारवाले को व्यावृत्त कहते हैं वैयावृत्यका भाव या कर्म वैयावृत्य कहलाता है, जिसका अभिप्राय है सेवा करना । वैयावृत्य के दस भेइ है-(१) आचार्य की सेवा करना आचार्य वैयावृत्य है (२) उपाध्याय की सेवा करना उपाध्याय वैयोवृत्य है (३) स्थविर अर्थात् वृद्ध मुनि की सेवा करना स्थविर वैयावृत्य है (४) ग्रहण-आसेवन रूप शिक्षा का जो अभ्यास कर रहा हो ऐसे नव दीक्षित मुनि की सेवा करना शैक्ष वैयावृत्य है (५) ग्लान-अर्थात् रोग ग्रस्त की सेवा करना ग्लान वैधावृत्य है (६) मास खमण आदि तपस्या करने वाले तपस्वी की सेवा करना तपस्वि वैयावृत्य है (७) साधर्मिक अर्थात् समान समाचारीबाले साधु की लेवा फरना साध. मिक वैयोवृत्य है अनेक कुल के समूह को गण कहते हैं, कुल की सेवा करना कुल वैयाकृत्य है (९) अनेक गण के अर्थात् मुनियों के પ્રરૂપણ કરવા માટે કહીએ છીએ-નિર્જરા રૂપ શુભ વ્યાપારવાળાઓને વ્યાવૃત્ત કહે છે, વ્યાવૃત્તને ભાવ અથવા કર્મ વિયાવૃત્ય કહેવાય છે જેને અર્થ એ થાય કે સેવા કરવી વૈયાવૃત્યના દશ ભેદ છે-(૧) આચાર્યની સેવા કરવી આચાર્ય વૈયાવૃત્ય છે (૨) ઉપાધ્યાયની સેવા કરવી ઉપાધ્યાય વૈયાવૃત્ય છે (૩) સ્થવિર અર્થાત્ વૃદ્ધ મુનિની સેવા કરવી સ્થવિર વૈયાવૃત્ય છે () ગ્રહણ-આસેવન રૂપ શિક્ષણને જે અભ્યાસ કરતા હોય એવા નવદીક્ષિત સનિની સેવા કરવી લાવૈયાવૃત્ય છે (૬) માસખમણ આદિ તપયા કરનાર તપસ્વીની સેવા કરવી તપસ્વી વૈયાવૃત્ય છે. (૭) સાધમિક અર્થાત સમાન સમાચારીવાળા સાધુની સેવા કરવી સાધમિક વૈયાવૃત્ય છે. (૮) અનેક કળના સમૂહને ગણ કહે છે કુળની સેવા કરવી કુળયાવૃત્ય છે. (૯) અનેક ગણના Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરર तत्वार्थसूत्रे वैयावृत्यम् ९ एवम् साधर्मिकस्य - समानाचारयतः सार्धं वैयावृत्यं साधर्मिक वैयावृत्यम् उच्यते १० इत्येवं दशविधं वैयावृत्यमवगन्तव्यम् वैयावृत्येन च समाधिप्राप्ति:- यवचने शङ्काच्यभावः - प्रवचन वात्सल्यप्राकटयश्च भवतीति भावः ॥ ६५|| तत्त्वार्थनियुक्ति:-- पूर्वं तावत् प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यादि पड़विधस्याभ्यन्तरतपसो यथाक्रमं दशविधधायश्चित्तस्य सप्तविधविनयस्य च मरूपणं कृतम्, सम्प्रति-क्रममाप्तस्य वैयावृत्यस्य दशभेदान् आचार्योपाध्यायादि चैयावृत्यरूपान् प्ररूपयितुमाह - 'वेयावच्चे दसविहे, आयरिय-उवज्झायथेर-तवस्ति-लेह - गिलाणकुल- गण - संघ- साहम्मिय भेयओ' इति । वैयावृत्यम् व्यावृत्तस्य - निर्जरादिशु मव्यापारमवृतस्य भवचनमयोजित क्रिया- विशेषाऽनुष्ठानतत्परस्य भावः तथाविधपरिणामः - कर्म वा, वैयावृत्यम्, तच्च'समूह की सेवा करना गण वैयावृत्य तप है (१०) संघ की अर्थात् साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की सेवा करना 'संघ वैद्यावृत्य है । यह दस प्रकार का वैयावृत्य तप है । वैधावृत्य से समाधि की प्राप्ति होती है, प्रवचन संबन्धी शंका- कांक्षा आदि की निवृत्ति हो जाती है और प्रवचन वात्सल्य प्रकट होता है || ६५ || तत्वार्थनियुक्ति- पहले प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य आदि छह प्रकार के आभ्यन्तर तप में ले इस प्रकार के प्रायश्चिता तथा सात प्रकार के विनय का निरूपण किया गया, अव प्राप्त बैगनृत्य के आचार्य वैयावृत्य, उपाध्याय वैयावृत्य आदि दल भेद का प्ररूपण करते है । जो निर्जरा आदि शुभव्यापार में प्रवृत्त है और शास्त्र प्रतिपादित क्रिया विशेष के अनुष्ठान में तत्पर है, उसका भाव या कर्म वैया અર્થાત્ મુનિએના સમૂહની સેવા કરવી ગવૈયાનૃત્ય છે. (૧૦) સંધની અર્થાત્ સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધસંઘની સેવા કરવી સંઘયાનૃત્ય છે. આ દશ પ્રકારનુ વૈયાનૃત્ય તપ છે. વૈયાવૃત્યથી સમાધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, પ્રવચન સમધી શકા-કાંક્ષા વગેરેની નિવૃત્તિ થઈ જાય છે અને પ્રવચનવાત્સલ્ય પ્રકટ થાય છે. ૬ા તત્ત્વાર્થનિયુકિત—આ અગાઉ, પ્રાયશ્ચિત્ત, વિનય, વૈયાવૃત્ય આદિ છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપમાંથી દશ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્તના તથા સાત પ્રકારના વિનયનું નિરૂપણૂ કરવામાં આવ્યું, હવે ક્રમપ્રાપ્ત વૈયાવૃત્યના આચાય વૈંયાનૃત્ય, ઉપાધ્યાય વૈયાવૃત્ય આદિ દશ ભેદોની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ જે નિરા આદિ શુભબ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત છે અને શાસ્ત્રપ્રતિપાદિત ક્રિયાવિશેષના અનુષ્ઠાનમાં તત્પર છે, તેના ભાવ અથવા કમ વૈયાવૃત્ય Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ.७ लू. ६५ वैयावृत्यस्य भेदनिरूपणम् રફે यथायोगं क्षेत्र - वसति - प्रत्यवेक्षण भक्तपानवस्त्रपात्रौषधं भैषजशरीरशुश्रूषादिरूप मवगन्तव्यम्, तत् खलु - वैयावृत्यम् - आचार्योपाध्यायस्थविरतपस्विशैक्षग्लानकुल गण संघ साधर्मिकभेदतो दशविधं भवति । तत्राऽऽवरति आचारयति वा धर्मादिकमित्याचार्यस्तस्य वैयावृत्यम् - आचार्यवैयावृत्यम् १ उपाध्यायस्य वैयावृत्यम् उपाध्यायवैयावृत्यम् -२ स्थविरस्य वयसा पर्यायेण श्रुतेन वृद्धस्य वैयावृत्त्यं स्थविरवैयावृत्यम् ३ चतुर्थषष्ठाऽष्टमभक्तादिविविधतपकारक स्वपस्वी तस्य वैयावृत्त्यं तपस्त्रिवैयावृत्यम् ४ एकदिनादारभ्य षण्मासाऽवधि दीक्षायुक्तस्य नवदीक्षितस्य शैक्षस्य वैयावृत्यं शैक्षवैयावृत्त्यम् ५ ग्लानस्य - रुग्णस्य व्याध्यमि वृत्य कहलाता है । उसे यथायोग्य क्षेत्र - वसति प्रत्यवेक्षण, भक्तपान, वस्त्र, पात्र, औषध भेषज, शरीर शुश्रूषा आदिरूप समझना चाहिये, अर्थात् इन सब के द्वारा सेवा करना वैयावृत्य है । सेव्य के भेद से वैयावृत्य के दस भेद हैं (१) आचार्य (२) उपाध्याय (३) स्थfar (४) शैक्ष (५) ग्लान ( ६ ) तपस्वी (७) साधर्मिक (८) कुल (९) गण १० संघ का वैयावृत्य । जो स्वयं पांच आचार रूप धर्म का पालन करता है और दूसरों से पालन करवाता है वह आचार्य कहलाता है, उस के वैयावृत्य को आचार्य वैद्यावृत्य कहते है । (२) उपाध्याय की सेवा करना उपाध्याय वैधाहृत्य है । (३) स्थविर अर्थात् वय दीक्षापर्याय और श्रुतसे जो वृद्ध है उसकी सेवा करना स्थविर वैयावृत्य हैं । (४) एक दिन से लेकर छहमाल तक का दीक्षित नव दीक्षित या शैक्ष कहलाता हैं । उसका वैयावृत्य शैक्षवैघावृत्य है । (५) ग्लान अर्थात् अहेवाय छे. तेने यथायोग्य क्षेत्र - वसति - प्रत्यवेक्षण, अत्त-यान, वस्त्र, पात्र, ઔષધ, ભેષજ, શરીર શુશ્રુષા આદિ રૂપ સમજવુ જોઇએ અર્થાત્ આ બધા વડે સેવા કરવી વૈયાનૃત્ય છે. સૈન્યના ભેદથી વૈયાવૃત્યના દેશ ભેદ છે (૧) आयार्य (२) उपाध्याय (3) स्थविर (४) शैक्ष (५) ग्लान (१) तपस्वी (७) साथसिंह (c) हुज (ङ) आशु भने (१०) अधनुं वैयावृत्य ? स्वय यांच આચાર રૂપ ધર્મનુ પાલન કરે છે અને ખીજાએ મારફતે પાલન કરાવે `માચા' કહેવાય છે. તેના વૈયાનૃત્યને આચાયવૈયાનૃત્ય કહે છે. (૨) ઉપાધ્યાયની સેવા કરવી ઉપાધ્યાયનૈયાનૃત્ય છે. (૩) સ્થવિર અર્થાત્ વય, દીક્ષાપર્યાય તથા શ્રુતથી જે વૃદ્ધ છે તેમની સેવા કરવી સ્થવિર વૈયાવૃત્ય છે. (૪) એક દિવસથી લઈને છ માસ સુધીના દીક્ષિત નવદીક્ષિત અથવા શૈક્ષ કહેવાય છે. તેનુ' તૈયાનૃત્ય શૈક્ષવૈયાનૃત્ય છે. (૫) ગ્લાન અર્થાત્ રાગી, જે Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्र भूस्य श्रमणस्य वैयावृत्त्यं ग्लानवैयाहत्यम् ६ अनेकगणसमुदायः कुलम् तस्य वैयावृत्तम् कुक यावृत्यम् ७ अनेक साधुसमुदायो गणः तस्य वैय वृत्त्यं गणवैया वृत्यम् ८ संघस्य साधु साध्वी श्रावक श्राविकारूपस्य चतुर्विधस्य वैयावृत्त्य संघ. वैयावृत्यम् ९ साधर्मिका:-समानाचारवन्तः तेषां-ज्ञानदर्शनादि पौरुषेय शक्तिभि मोक्षसाधकानां मूलोत्तरगुण पुस्पान्नानां वैयाकृत्यं सार्मिकवैयावृत्त्यम् १०। त्याचैतेषा माचार्यादीनाम् आहारपानवस्त्रपात्रपतिश्रयपीठफलकशय्यासंस्तारादिमिर्धर्मसाधनभूतैः कान्तारादि विषमस्थानगतेकूपकण्टकादिव्याप्त रुग्णा, जो किसी नमाधि से पीडित हो उसका वैधावृत्य ग्लान वैयावृत्य कहलाता है । (६) उपचारून वेला, तेला, आदि विविध प्रकार का तपश्च. रण करने वाली तपस्थी कहलाता है । उसका चयावृत्य तपस्वि वैयावृत्य है। (७) लाधर्मिक अर्थात् समान समाचारीवाले साधु की सेवा करना साधर्मिक वैद्यावृत्य है । (८) कुल अनेक साधुओं के समूह को कुल कहते हैं अनेक कुल के समूह को गण कहते हैं अनेक गण के समूह को संघ कहते हैं कुल की सेवा करना कुल वैयावृत्य है (९) गण-अनेक गणके अर्थात् मुनियों के समूह की सेवा करना गणवैयावृत्य है (१०) संघ-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रुप चतुर्विध संघ की सेवा करना संघ वैयावृत्य है। पूर्वोक्त आचार्य आदि की आहार-पानी से, वस्त्र-पात्र से, उपाश्रय, पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक आदि मोक्ष के साधनों से सेवा करना, कान्तार आदि विषम स्थानों से, गड्ढा, कूप, कंटक आदि से युक्त વ્યાધિથી પીડિત હય, વૈયાવૃત્ય લાવૈયાવૃત્ય કહેવાય છે. (૬) ઉપવાસ, છઠ, અઠમ આદિ વિવિધ પ્રકારનું તપશ્ચરણ કરનાર તપસ્વી કહેવાય છે તેનું વૈયાવૃત્ય તપસ્વિયાવૃત્ય છે. (૭) સાધમિક+અર્થાત્ સમાન સમાચારીવાળા સાધની સેવા કરવી સાધર્મિકવૈયાવૃત્ય છે. (૮) કુળ–અનેક સાધુઓના સમૂહને કુળ કહે છે, અનેક કુળના સમૂહને ગણ કહે છે. અનેક ગણના સમૂહને સંઘ કહે છે કુળની સેવા કરવી કુળયાવૃત્ય છે. (૯) ગણ-અનેક ગણની અર્થાત્ મુનિઓના સમૂહની સેવા કરવી ગણવૈયાવૃત્ય છે. (૧૦) સંઘ-સાધુ-સાવી, શ્રાવક અને શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘની સેવા કરવી સંઘવૈયાવૃત્ય છે. __ पूर्वरित भायार्य माहिनी, माहा२-पाणीथी, वस्त्र-पात्रथी, पाश्रय, પીઠ, ફળક, શયા અને સંથારા વગેરે મોક્ષના સાધનોથી સેવા કરવી લાન્તાર આદિ વિષમ સ્થાનેથી, ખાડો, ફ, કંટક આદિથી યુક્ત સ્થળેથી Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका १.७६.६५ वैयावृत्यस्य भेदनिरूपणम् स्थल ज्वराऽतीसार-कासश्वासाधुपसर्गेषु शुश्रूषणम् ऑपधभैपज्यकरणम् अभ्युद्धरणं परिरक्षणादिकं यावत्यमुच्यते । उल्लञ्च व्याख्यायज्ञप्तौ भगवती सूत्रे २५ शतके ७ उद्देशके ८०२-सूत्रे वेयावच्चे दलविहे पणते तं जहा-आयरिय वेयावच्चे, उबज्झायवेयावच्चे, लेह व्यावच्चे, गिलाणवेशावच्चे, तवस्सिवेयावच्चे, थेर वेवादच्चे, साहग्मिवेयाचच्चे, कुलवेयावच्चे, गणवेयावच्चे, संघयावच्चे, इति । वैयारत्त्य दश विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाआचार्यवैवाहत्यम् १ उपाध्याय वैयात्म् २ शैक्षवैयाहत्यम् ३ ग्लानदैयावृत्त्यम् ४ तपस्क्वैियावृत्त्यम् ५ स्थिविरवैयाहत्या ६ सार्मिक देयात्त्यम् ७ कुलचैयावृत्त्यम् ८ गणवैयावृरयम् ९ संघयात्यम् १० इति ॥६५॥ मूलम्-लज्झाए पंचविहे, वारणा-पुच्छणा-परियणाऽणुप्पेहा-धम्मकहा भेयओ ॥६६॥ छाया-'स्वाध्यायः पञ्चविधः, वाचना-मच्छना-परिवर्तनाऽनुप्रेक्षाधर्मकथा, भेदतः ॥६६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वमूत्रे-प्रायश्चित्तादि षडूविधाऽभ्यन्तरतपसो यथा क्रमं तृतीयस्य वैयात्त्यस्याऽऽचायो-पाध्यायादि दशविधस्य प्ररूपणं विहितम, सम्मति-क्रमागतस्य चतुर्थस्य स्वाध्यायस्य वाचना-प्रच्छनादि पञ्चभेदान् स्थल से, ज्वर, अतिसार, खांसी, श्वास आदि का कष्ट होने पर सेवा करना-औषध-भेषज लाकर देना इत्यादि धेयावृत्य कहलाता है।॥६५॥ 'सज्झाए पंचविहे' इत्यादि सूत्रार्थ-स्वाध्यायतप पांच प्रकार का है-(१) याचना (५) पृच्छना (३) परिवर्तना (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा ॥६६॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वस्त्र में प्रायश्चित्त आदि छह प्रकार के आभ्यन्तर तप में से तीसरे वैयावृत्य तपके दस भेदों-आचार्य वैधावृत्य, उपा. બચાવવા, જવર, અતિસાર, ઉધરસ શ્વાસ વગેરેનું કષ્ટ હોય ત્યારે સેવા કરવી–ઔષધ–ભેષજ લાવીને આપવા વગેરે વૈયાવૃત્ય કહેવાય છે. પાપા 'सज्झाए पंचविहे' त्यादि। સૂત્રાર્થ–સ્વાધ્યાય તપ પાંચ પ્રકારનું છે-(૧) વાચના (૨) પૃચ્છના (3) परिवतन। (४) अनुप्रेक्षा भने (५) यथा ॥६६u તવાદીપિકા પૂર્વ સૂત્રમાં પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપમાંથી ત્રીજા વિયાવ્રયતાના દશ ભેદ-આચાર્યવૈયાવૃત્ય, ઉપાધ્યાયવૈયાવૃત્ય Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ तरवास मरूपयितुमाह-'लज्माए पंचविहे' इत्यादि । रजा याय:-सु-गुष्ठ आ-अमदियाऽस्वाध्याय परिहारेण पोसध्यायपेक्षयाऽध्यायः-अध्ययन सूत्रमूलपठनं स्वाध्यायः, स पञ्चविधो भवति, तद्यथा-वाचना १ प्रच्छना २ परिवर्तना ३ प्रेक्षा ४ धर्मकथा ४ चेति । तत्र-निश्चय सूत्रार्थ तदुभयम्याऽऽदान-प्रदान. रूपा वाचना १ सन्देशनिवारणाय निभिनाथदार्थाय वा शावस्यार्थ जानतोऽपि गुरूं प्रति पृच्छा-मच्छनं प्रच्छना २ अधीनस्य त्रादेः पुनः पुनरावृत्ति करणं-गुणनं परिवर्तना ३ अधिगतार्थस्य ज्ञातार्थस्य सूत्रस्य मनसा चिन्तनम् अनुप्रेक्षा ४ अहिंसा दिधर्मस्य मरूपणं-धर्मथा ५ इत्येवं पञ्चविधः खलु स्वाध्यायोऽगन्तव्य ॥६६॥ ध्यायवैयावृत्य आदि, का प्ररूपण किया गया अब क्रमागत चौथे स्था. ध्याय तप के वाचना पृच्छना आदि पांच भेदों का प्ररूपन करते हैं। मर्यादापूर्वक अर्थात् अमज्झाय को टालर पौरूपी आदि को ख्याल रखते हुए अध्याय-अध्ययन अर्थात् सूलपाठ पढाना स्वाध्याय कहलाता है। स्वाध्याय पांच प्रकार का है-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना अनुप्रेक्षा और धर्मकथा। इनका स्वरूप इस प्रकार है-(१) निर्दोष सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ दोनों का आदान प्रदान करना वाचना है। (२) संदेह का निवारण करने के लिए अथवा निश्चित अर्थ की दृढना के लिए शास्त्र के अर्थ को जानते हुए भी गुरु के समक्ष प्रश्न करना पृच्छना है। (३) पढे हुए सत्र आदि की वार-वार आवृत्ति करना, उसे गुनना परिवर्तना है । (४) जिसका अर्थ जान लिया हो उस सूत्र આદિનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે કમાગત ચોથા સ્વાધ્યાય તપના વાચના, પૃચ્છના આદિ પાંચ ભેદનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ મર્યાદાપૂર્વક અર્થાત્ અસરજાયને ટાળીને, પિરસી વગેરેને ખ્યાલ રાખતા થકા અધ્યાય-અધ્યયન કરવું અર્થાત્ મૂળપાઠ ભણવો, સ્વાધ્યાય उवाय छ, स्वाध्याय पांय प्रा२ना छे-पायना, २छना, परिवत ना, अनुપ્રિક્ષા અને ધર્મકથા એમનું સ્વરૂપ આ પ્રકારે છે-(૧) નિર્દોષસૂત્ર, અર્થ અને સૂત્રાર્થ બંનેનું આદાન-પ્રદાન કરવું વાચના છે. (૨) સન્દહનું નિવારણ કરવા માટે અથવા નિશ્ચિત અર્થની દઢતા માટે શાસ્ત્રના અર્થને જાણતા હેવા છતાં પણ ગુરૂ સમક્ષ પ્રશ્ન કરે પૃચ્છના છે. (૩) ભણી ગયેલા સૂત્ર આદિની વારંવાર આવૃત્તિ કરવી, તેને ફરી ફરીવાર જોઈ જવું પરિવર્તન * છે. (૪) જેને અર્થ જાણી લીધું હોય તે સૂત્રનું મનથી ચિન્તન કરવું Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . - . -. . . दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ पृ.६६ स्वाध्यायस्य भेदनिरूपणम् . तत्वार्थनियुक्ति:--'पूर्व तावद् यथाक्रमं षड्विधाभ्यन्तरतपसा पायश्चित्तस्य-विनयस्य-वैधास्यस्य च मरूपणं कृतम्, सम्पति-क्रममाप्तस्य स्वाध्यायस्य चतुर्याभ्यन्तरतपसो बावनादि पञ्चभेदान् प्ररूपयितुमाह'सज्झाए पंचविहे, वाचणापुच्छणापरियणाअणुप्पेहा-धम्मकहाभेयओ' इति । स्वाध्यायः-सुष्टु महिया कालवेलापरिहारेण पौरुष्यायपेक्षया वाऽध्यायः-मूलसूत्रपठन-स' पञ्चविधो वर्तते । तद्यथा-वाचना प्रच्छना परिवर्तनाऽप्रेक्षा धर्मकथा चेत्येवं परिसंख्यातः स्वाध्यायोऽवगन्तव्यः, तत्रशिष्याणा भागमार्थाध्याएनरूपा वचना १ कालिकस्यो-कालिकस्याऽऽलापपदानं वा-याचना २ सन्देवनिनाशाय निश्चितार्थवादाय वा खुनार्थयोराचार्यकामन ले चिन्तन करना अपेक्षा है । (५) अहिंसा आदि धर्म की प्ररूपणा करनाधर्म कथा है । यह पांच प्रकार का स्वाध्याय जानना चाहिए ॥६६॥ तत्यार्थनियुरिल्ल छह मशार के आभ्यन्तर लपले प्रायश्चित्त, विनय और वैधावृत्य का निरूपण किया जा चुका, अन्च चौथे आभ्यन्तर तप स्वाध्याय के बाचना आदि पांच भेदों की प्ररूपणा करते हैं. দাদুবক গুলি তুই ? ? হ যা দ্বী জানি का ध्यान रखकर सूलनका पठन स्वाध्याय कहलाता है। उसके पांच भेद (१) वाचना (२) पृच्छना (३) परिवर्तना(४) अनु. प्रेक्षा और (५) धर्मकथा शिष्यों को आगम का अर्थ एढाना वाचता है या कालिक और उत्कालिक के आलापों का प्रदान करना वाचना स्वाध्याय कहलाता है। संशय का निवारण करने के लिए या निश्चित અનપેક્ષા છે. (૫) અહિંસા આદિ ધર્મની પ્રરૂપણ કરવી ધર્મકથા છે. આ પાંચ પ્રકારના સ્વાધ્યાય જાણવા જોઈએ. ૬ દા તત્ત્વાર્થનિર્યુકિત–છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપમાંથી પ્રાયશ્ચિત્ત, વિનય અને વૈયાવૃત્યનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે ચોથા આભ્યન્તર તપ સ્વાધ્યાયના વાચના આદિ પાંચ ભેદની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ– મર્યાદાપૂર્વક અર્થાત્ એસજઝ યકાળ વગેરેને ટાળી દઈને અથવા પિરસી આદિનું ધ્યાન રાખીને મૂળસૂત્રનું પઠન સ્વાધ્યાય કહેવાય છે–તેના પાંચ मे छे-(१) वायना (२) छन। (3) परिवत्त ना (४) अनुप्रेक्षा (4) ધર્મકથા શિષ્યને આગમનો અર્થ ભણાવ વાચના છે અથવા કાલિક અને ઉલ્કાલિકના આલાપનું પ્રદાન કરવું વાચના સ્વાધ્યાય કહેવાય છે. સંશયનું નિવારણ કરવા માટે અથવા નિશ્ચિત અર્થની દઢતા માટે સૂત્ર અથવા અર્થના વિષયમાં આચાર્યને પ્રશન પૂછ પૃચ્છના છે. ભણી ગયેલા સૂત્ર અને અર્થનું त०६३ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्रे स्पति प्रश्नः-प्रच्छना-२ अधीत सूत्रार्थयोः पुनः पुनः पठनम् परिवर्तना-३ विदितार्थस्य मनसा चिन्तनम्-अनुप्रेक्षा ४ श्रुतचारित्ररूपधर्मस्योपदेशो धर्मकथा५ उक्तश्च भगवती सूत्रे २५ शतके ७ उद्देशके ८०२-सूत्रे-'सज्झाए पंचविहे पणत्ते वायणा-पडिपुच्छणा-परिदृणा अणुप्पेहा-धम्मकहा' इति । स्वाध्यायः पञ्चविधः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वाचना १ प्रतिश्च्छना २ परिवर्तनम् ३ अनुप्रेक्षा ४ धर्मकथा ५ इति । एवम्-उत्तराध्यारेऽप्युक्तम् एवञ्च-वाचनादयः पञ्च तावत् स्वाध्यायपदेन ग्रहीतव्याः ॥६६॥ मूलम्- एमत्त चित्तावठाणं झाणं ॥६७॥ छाया-'एकत्र चित्तावस्थानं ध्यानम् ॥६७॥ तत्वार्थदीपिका--'पूर्व तावत पइविधेषु प्रायश्चित्ताद्याभ्यन्तरतपासु पञ्चानां प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायानां यथाक्रमं प्ररूपणं विहितम्। अर्थ की दृढता के लिए सूत्र या अर्थ के विषय में आचार्य से प्रश्न करना प्रच्छता है। पठित सूत्र एवं अर्थ का पुन:पुनः पठन करना परिवर्तना है। ज्ञात अर्थ का बार वार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है |श्रुत एवं चारित्र रूप धर्म का उपदेश देना धर्मकथा है। भगवतीसूत्र के २५ वे शतक के ७वे उद्देशक के ८०२ सूत्र में कहा है-'स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है-वाचना, प्रतिप्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा एवं धर्म कथा। इसी प्रकार उत्तराध्ययन स्यूम में भी कहा गया है। इस प्रकार स्वाध्याय शब्द से वाचना आदि पांचों को ग्रहण करना चाहिए ॥६६॥ 'एगत्त चित्ताचट्ठाणं' इत्यादिसूत्रार्थ--एक जगह चित्त का स्थिर होना ध्यान है ॥६७॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले छह प्रकार के आभ्यन्तर तपों में से प्रायश्चित्त પુનઃ પુનઃ પઠન કરવું પરિવર્તન છે. જાણેલા અર્થનું વારંવાર ચિન્તન કરવું અનુપ્રેક્ષા છે અને શ્રત અને ચારિત્ર રૂપ ધર્મનો ઉપદેશ આપ ધર્મકથા છે. ભગવતી સૂત્રના રૂપમાં શતકના માં ઉદ્દેશકના ૮૦૨ સૂત્રમાં - ४झुछ-स्वाध्याय पाय जान वामां माव्या छ-बायना प्रतिरछना, પરિવર્તાના, અનુપ્રેક્ષા અને ધર્મકથા આવી જ રીતે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં પણ કહેવામાં આવ્યું છે. આમ સ્વાધ્યાય શબ્દથી વાચના આદિ પાંચેયનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. ૬૬ 'एगत्तचित्तावद्वाणं झाणं' त्या સૂત્રાર્થ-એક જગ્યાએ ચિત્તનું સ્થિર થવું ધ્યાન છે. દુકા તવાથદીપિકા–પહેલા છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપમાંથી પ્રાય Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७५.६७ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् ... ९९ सम्मति-क्रमप्राप्त ध्यानाख्यमाभ्यन्तरतपः मरूपयितुमाह-'एगत्तचित्तावट्ठाणं झाणं' इति । ध्यानम्-ध्यावियानम्, परिणामस्थैथम् अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकाल मेकाग्रचित्तताऽध्यवसान मित्यर्थः नानाविलम्बनेन परिस्पन्दवतश्चित्तस्याऽन्याशेषविषयेभ्यो व्यावर्त्य-एकत्रैव विषये नियमतः स्थापनम् अन्यतोऽन्तःकरणवृत्तिनिरोधो ध्यानमितिभावः । तच्च-ध्यानं चतुर्विधम्, आरौद्र-धर्म-शुक्ल भेदात्, । तदत्र समाहितचित्तस्याऽऽत-रौद्र ध्याने वर्जयित्वा धर्म-शुक्लरूपै ध्यानद्वयं ध्यानशब्देन ग्राह्यम् । उक्तंच-उत्तराध्ययने त्रिंशत्तमेऽध्ययने पञ्चत्रिंशत्तमगाथायाम्बिनय वैयावृत्य और स्वाध्याय का क्रम से निरूपण किया गया है, अब क्रमागत ध्यान नामक आभ्यन्तर तप का प्ररूपण करने के लिए कहते हैं परिणाम की स्थिरता ध्यान है। अभिप्राय यह है कि अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त चित्त का एकान रहना ध्यान कहलाता है। यह चित्त नाना अर्थों का अवलम्बन करता हुआ चंचल रहता है, अतः इसे अन्य समस्त विषयों से हटाकर किली एक ही विषय में लगा देना-और सब तरफ से चित्तवृत्ति का निरोध कर देना ध्यान है। " - ध्यान चार प्रकार का है-आतध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान, यहां आतध्यान और रौद्रध्यान को छोडकर धर्मध्यान और शुक्लध्धान थे दो धान हो समझना चाहिए, क्योंकि यहां मोक्षमार्ग का प्रकरण है और आर्तध्यान तथा रौद्र ध्यान मोक्षोपयोगी શ્ચિત્ત, વિનય, વૈયાવૃત્ય તપ અને સવાધ્યાયનું કમથી નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે માગત ધ્યાન નામક આક્યુત્તર તપનું પ્રક્ષણ કરવા માટે કહીએ છીએ પરિણામની સ્થિરતા થયા છે. અભિપ્રાય એ છે કે અન્તર્મહત્ત કાળ પર્યન્ત ચિત્તનું એકાગ્ર રહેવું ધ્યાન કહેવાય છે. આ ચિત્ત જાણેલા અને અવલખન કરતું થયું ચંચળ રહે છે, આથી તેને બીજા બધાં વિષાથી ભક્ત કરીને કઈ એક જ વિષયમાં પરેવી દેવું અને ચારે બાજુએથી ચિત્ત વૃત્તિને નિરોધ કરે ધ્યાન છે. ધ્યાન ચાર પ્રકારના છે–આર્તધ્યાન રૌદ્રધ્યાન, ધર્મધ્યાન અને શાલ ધ્યાન અહીં આર્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાનને છોડી દઈ ધર્મધ્યાન અને શકલધ્યાન એ બે દયાન જ સમજવાના છે કારણ કે આ મોક્ષમાર્ગનું પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે જ્યારે આત્તધ્યાન તથા રૌદ્રધ્યાન મોક્ષેપગી નહી પણ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & ५०० तत्त्वार्थ सूत्रे 'अट्ट - रुद्दाणि वज्जिन्ता-झाएज्जा सुसमाहिए । धम्म-सुकाई झाणं तं तु चुहावए ' ॥१॥ 'आर्तरी वर्जयित्वा - ध्यायेत सुसमाहितः । धर्म - शुक्ले ध्याने - ध्यानं तत्तु बुधा वदन्ति' || १ || इति ॥६७॥ तत्वार्थनियुक्ति - पूर्वसूत्रे - पविधाभ्यन्तरतपसः क्रमप्राप्तस्य स्वाध्यायस्य प्ररूपणं कृतम्, सम्पति - पञ्चमस्याऽभ्यन्तरतपसो ध्यानस्य प्ररूपणं कर्तुमाह- 'एगत्तचित्तावद्वाणं झाणं' इति । एकस्मिन् एव ध्येयवस्तुनि चित्तावस्थानम्, अन्यविषयेभ्यो व्यावर्तनपूर्वकम् - एकाग्रतथा चित्तस्य व्यवस्थापनं- स्थिरतापादनं निर्यातस्थानस्थित स्थिरदीपशिखावत् (तत्) । एवञ्च - कावलम्बनं निश्चलं स्थिरता युक्तमध्यवसानं छद्मस्थविषयध्यानमुच्यते । केवलिनान्तु नहीं वरन् उसके बाधक हैं । उत्तराध्ययन सूत्र के तीसवें अध्ययन की पच्चीसवीं गाथा में कहा है। 72 'समाधिमान् पुरुष आर्त्ति और रौद्र ध्यानों का परित्याग करके धर्म- ध्यान और शुक्लध्यान ध्यावे । ज्ञानी पुरुष इसी को ध्यान कहते हैं । ६७| तत्वार्थनियुक्ति -- पूर्वसूत्र में छह आभ्यन्तर रूपों में से क्रमप्राप्त स्वाध्याय का प्ररूपण किया गया, अब पांचवें आभ्यन्तर तप ध्यान की -प्ररूपण करने के लिए कहते हैं 2. किसी एक ही ध्येय वस्तु में चित्त का स्थिर होना अर्थात् वायु -रहित स्थान में स्थित दीपक की शिखा के समान चिस का एकाग्र रूप - में स्थिर हो जाना ध्यान कहलाता है । इस प्रकार एक वस्तु का अचलन करने वाला, निश्चल, स्थिरता से युक्त छमस्थ विषयक अव्यव તેના અવરાધક છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ત્રીસમાં અધ્યયનની પચ્ચીસમી ગાથામાં કહ્યું છે—સમાધિમાન્ પુરૂષ આત્ત અને રૌદ્ર ધ્યાનેને પરિત્યાગ કરીને ધમ ધ્યાન અને શુકલધ્યાન ધ્યાવે જ્ઞાની પુરૂષ આને જ ધ્યાન કહે છે. utછા તત્ત્વાર્થ નિયુકિત-પૂર્વસૂત્રમાં છ આભ્યન્તર તપામાંથી ક્રમપ્રાપ્ત સ્વાધ્યાયનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યુ, હવે પાંચમાં આભ્યન્તર તપ ધ્યાનની પ્રરૂપણા કરવા માટે કહીએ છીએ કેાઈ એક જ લક્ષ્ય વસ્તુમાં ચિત્તનુ* સ્થિર થવું અર્થાત્ વાયુરહિત સ્થાનમાં રહેલા દીવાની જયાતની સમાન ચિત્તનું એકાગ્ર રૂપમાં સ્થિર થઇ જવુ' ધ્યાન કહેવાય છે. આ રીતે એક વસ્તુનું અવલમ્બન કરનાર, નિશ્ચલ, સ્થિરતાથી યુક્ત છદ્મસ્થ વિષયક અધ્યવસાન ધ્યાન સમજવું જોઇએ, જેને Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ. ७ शु. ६७ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् मनसोऽभावाद् वाकाययोगनिरोध एव ध्यान मवगन्तव्यम् । प्राप्त केवलज्ञानस्य मनोव्यापारो न सम्भवति सकलकरणसमुदायनिरपेक्षत्वात् । तच्च ध्यानम् आर्त-रौद्र-धर्म-शुक्लभेदाद् चतुर्विधम् भवति, तदत्राऽऽत-रौद्रे वर्जयित्वा धर्मशुक्लरूपं ज्ञेयम् । तत् खलु-ध्यानं जघन्येन-एकं समयम्, उत्कृष्टेनाऽन्तर्मुहूर्त मात्रम्, मुहूर्तात्परतो न भवति, मोहनीय कर्माऽनुभावात्-संक्लेशाद्वा । उक्तञ्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवती सूत्रे २५ शतके ६ उदेशके ७०७ सूत्रे पुलाकादि विषये' 'केवइयं कालं अवष्टिय पारिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उको सेणं अंतो मुहत्त' हियन्तं कालम् अवस्थितपरिणामो भवति ? साय न समझना चाहिए। केवली मनन व्यापार से रहित होते हैं अतएव उनकी अपेक्षा वचन और काय योग का निरोध ही समझना चाहिए। जिले केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है उसमें मनोव्यापार नहीं होता क्योंकि वह समस्त कारणों ले लिरपेक्ष होता है। ध्यान चार प्रकार का है-आर्तध्यान रौद्रध्धान धर्मध्यान और शुक्लध्धान आर्तध्यान और रौद्र ध्यान को छोडकर यहां धर्म और शुक्लध्यानको ही लप में परिपगणित करना चाहिए, क्योंकि यही दो ध्यान मोक्षसाधना में उपयोगी होते हैं :-आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं। ध्यान का काल जघन्ध एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इससे अधिक समय तक मोहनीय कर्म के अनुभाव सेअथ वा संक्लेश के कारण ध्यान स्थिर नहीं रह सकता भगवती सूत्र के पच्चीसवें शतक के छठे उद्देशक के ७०७ वें सूत्र में पुलाक आदि के विषय में कहा है प्रश्न- भगवन् ! कितने काल नक स्थिर परिणाम वाला रहता है ? કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ જાય છે તેમનામાં મને વ્યાપાર હોતું નથી કારણ કે તે સમરત કરથી નિરપેક્ષ હોય છે. ધ્યાન ચાર પ્રકારનું છે–આર્તધ્યાન, રૌદ્રધ્યાન, ધર્મધ્યાન અને શુકલધ્યાન આર્તધ્યાન અને રૌદ્ર ધ્યાનને છોડીને અહીં ધર્મ અને શુકલ ધ્યાનને જ તપમાં પરિણિત કરવા જોઈએ કારણ કે આ જ બે ધ્યાન મોક્ષ સાધનામાં ઉપયોગી થાય છે–આર્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન નહીં. ધ્યાનને કાળ જ ઘન્ય એક સમય અને ઉત્કૃષ્ટ અન્તર્મહત્ત છે. આનાથી વધુ સમય સુધી મેહનીય કર્મોના અનુભાવથી અથવા સંકલેશના કારણે ધ્યાનમાં સ્થિરતા રહી શકતી નથી. ભગવતી સૂત્રના પચીસમાં -શતકના છઠા ઉદ્દેશકના ૭૦ ૭માં સૂત્રમાં પુલાક વગેરેના વિષયમાં કહ્યું છે પ્રશ્ન- ભગવન ! કેટલા કાળ સુધી થિર પરિણામવાળા રહે છે? Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ तत्त्वाने गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तम् इति । स्थानाङ्गवृत्तौ ४ स्थाने प्रथमोद्देशक २४७ सूत्रे चोक्तम् 'अंतोमुत्तपित्तं चित्तावठाणमेगवत्थुमिम । छ उसस्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणंतु' ॥१॥ 'अन्तर्मुहूर्तमानं चित्ताऽत्रस्थानमेशवस्तुनि । उमस्थानां ध्यान योगनिरोधो जिनानान्तु ॥१॥ इति ६७॥ मूलम्-तं च चउब्धिह, अट्टरोदधम्मसुकमेयओ ॥८॥ छाया-'तच्च चतुर्विधम्, आर्त-रौद्र-धर्म-शुक्ल भेदतः ॥६८। तत्वीदीपिका-पूसत्रे-मोक्ष साधन सम्यक्त्वादि प्रधानतया ध्यानस्वरूपं प्ररूपितम्, सम्पति-तस्य ध्यानस्य चतुर्भेदान् प्रतिपादयितुमाह-'तच्चउन्विहं अट्ट-रोह-धम्म सुक्कमेयओ' इति । तत् खलु पूर्वोक्तस्वरूपं ध्यानं चतुर्विधं उत्तर- गौतम ! जधन्य एक समय उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त तक स्थानांग सत्र की टीका में, चौथे स्थान के प्रथम उद्देशक में कहा है छमस्यों के चित्त की स्थिरता एक वस्तु में अन्तमुहर्त तक हो सकती है। यह चित्त स्थिरता ही ध्यान है । केवली के योगों का निरोध हो जाना ध्यान कहलाता हैं ॥६॥ 'तं च चउधिह' इत्यादि सूत्रार्थ-ध्यान चार प्रकार का है-आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल ।६८ तत्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में मोक्ष के सम्यक्त्व आदि साधनों में प्रधान होने के कारण ध्यान के स्वरूप का प्ररूपण किया गया, अब ध्यान के चार भेदों की प्ररूपणा करते हैं-- ઉત્તર–ગૌતમ! જઘન્ય એક સમય, ઉત્કૃષ્ટ અન્તર્મુહૂર્ત સુધી. સ્થાનિંગસૂત્રની ટીકામાં ચેથા સ્થાનના પ્રથમ ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે છઘના ચિત્તની સ્થિરતા એક વસ્તુમાં અત્તમુહૂર્ત સુધી રહી શકે છે. આ ચિત્ત સ્થિરતા જ દયાન છે. કેવળીના વેગોને નિરોધ થઈ જે. ધ્યાન કહેવાય છે. ૬૭ 'तं च चउव्विहं' त्याह। સૂત્રાર્થ–દયાન ચાર પ્રકારનું છે-આd, રૌદ્ર, ધર્મ અને શુકલ. ૬૮ તત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં મોક્ષના સમ્યક્ત્વ આદિ સાધનોમાં મુખ્ય હોવાના કારણે, ધ્યાનના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે ધ્યાનના ચાર ભેદની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ– Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ.७ ०.६८ ध्यानस्य चातुविध्यनिरूपणम् ५०३ भवति, आर्त्त-रौद्र-धर्म-शुक्ल भेदतः । तथा च-आर्तध्यानम् १ रौद्रध्यानम् २ धर्मध्यानम् ३ शुक्लध्यानञ्चे ४ ति । तत्र-ऋतं दुःखम्, अर्दन-मर्तिवा तत्र भवम् आतम्. तद्रूपं ध्यानम्-आर्तध्यानम् उच्य ते १ रुद्र:-क्रूराशयः तस्य कर्म, तत्र भवं वा रौद्रम् तद्रूपं ध्यानं-रौद्रध्यानमुच्यते २ पूर्वोक्तस्वरूपाद् धदिनपेतं (धर्म्यम्) धर्मध्यान मुच्यते, तच्च धर्मध्यानं परंपरया मोक्षहेतुर्भवति, गौणत्या मोक्षसाधन मुपचर्य ते, शुक्लथ्यानं पुनः साक्षात् तद्भवे मोक्षकारणं भवति । उपशमक श्रेण्य पेक्षयातु-शुक्लध्यानं तृतीये अवे मोक्षदायकं भाति तच्च शुद्धध्यानं शुचिगुणयोगात् शुक्लं व्यपदिश्यते ॥६॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-पष्ठा पन्तरतपसो ध्यानरूपस्य स्वरूपं प्रतिपादितम्, तस्य खलु ध्यानस्य भेदान् प्रतिपादयितुमाह-'हच्चउब्धिह अट्टरोद्दधम्मसुकमेण्ओं' इति । तत् खलु ध्यानं चतुर्विधम्, तद्यथा-आतौद्र जिसका स्वरूप पहले कहा गया है वह ध्यान चार प्रकार का है(१) आर्तध्यान (२) रौद्रध्यान (३) धर्मध्यान और (४) शुक्लध्यान ऋत या अति से अर्थात् दुःख के कारण जो ध्यान होता है वह आर्तध्यान कहलाता है। रुद्र अर्थात् क्रूर का जो कर्म है रौद्र ध्यान कहलाता है पूर्वोक्त धर्म से जो युक्त हो वह धर्मध्यान परम्परा से मोक्ष का कारण होता है अर्थात् मोक्ष का गौण क्षारण है । शुक्लध्यान उसी भव में मोक्ष का साक्षात् कारण है उपशम श्रेणी की अपेक्षा से शुक्ल ध्यान तीसरे भाव में मोक्ष दायक होता है। शुक्ल ध्यान शुचि गुण के योग से शुक्ल कहलाता है ॥६८॥ तत्वार्थनियुक्ति--पहले छठे मानन्तर तप ध्यान के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया, अब ध्यान के भेदों का निरूपण करते हैं જેનું સ્વરૂપ પહેલા કહેવામાં આવ્યું તે ધ્યાન ચાર પ્રકારનું છે–(૧). આર્તધ્યાન (૨) રૌદ્રધ્યાન (૩) ધર્મધ્યાન અને (૪) શુકલધ્યાન બાત અથવા અર્તિથી અર્થાત દુઃખના કારણે જે ધ્યાન થાય છે તે આર્તધ્યાન કહેવાય છે. રૂદ્ધ અર્થાત ફેરનું જે કર્મ છે તે સૌદ્રધ્યાન કહેવાય છે પૂર્વોક્ત ધર્મથી જે યુક્ત હોય તે ધર્મધ્યાન છે. ધર્મધ્યાન પરંપરાથી મોક્ષનું કારણ હોય છે અર્થાત્ મોક્ષનું ગૌણ કારણ છે શુકલધ્યાન તે જ ભવમાં મોક્ષનું સાક્ષાત કારણ છે. ઉપશમ શ્રેણીની અપેક્ષાથી શુકલધ્યાન ત્રીજા ભવમાં મેક્ષદાયક હોય છે. શુકલધ્યાન શુચિગુણના ચોગથી શુકલ કહેવાય છે. ૬૮ તત્વાથ નિયુક્તિ–આની અગાઉ છઠા આભ્યન્તર તપ ધ્યાનના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હવે ધ્યાનના ભેદનું નિરૂપણ કરીએ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्रे धर्मशुक्लभेदतः, तथा व आतध्यानम् १ रौद्रध्यानम् २ धर्मध्यानम् ३ शुक्लध्यानञ्च ४ इत्येवं चतुर्विधं ध्यानं भवतीति बोध्यम् । तत्र-ऋतं दुःख मुच्यते ऋते भत्रम् आतम् दुःख मयं दुखानुवन्धि च यद्-ध्यानं तद्-आर्तध्यान मुच्यते । एवं दयति अन्यान् इति रुद्रो दुःखस्य हेतुः तेन कृतं तत्कर्मका रौद्रम्, प्राणाऽतिपात कर्मवन्ध परिणत आत्मा रुद्रः तत् सम्बन्धिध्यान मुच्यते । क्षमादिदशविधलक्षणात् धर्माद अनपेतं धर्म्यम् उच्यते, तथाविधधर्मयुक्तं ध्यानं धर्मध्यानं व्यपदिश्यते । शुक्लं निर्मलं, सकलकर्मक्षयहेतुतया शुचि विशुद्धस्, यहा शुभम् अष्टविधकर्मलक्षण दुःख कळमयति क्षपयति-ग्लपयति निरस्यतीति शुक्लम् तथाविधं ध्यानं शुक्लध्यान मुच्यते । उक्तश्च व्याख्याप्रज्ञप्ती भगवतीमत्रे २५ शतके ७ उद्देशके ८०३ सूत्रे-‘चत्तारि झाणा एजन्ता, तं जहा अहे झाणे, रोदेशाणे, धम्मे झाणे, ध्यान के चार भेद है-(१) मार्तध्यान (२) शेतमाल (इ) धर्मध्वान और (४) शुक्लध्यान । इनमे से जो धान दुःख के कारण उत्पन्न होता है और दु खानुबंधी होता है वह आतध्यान कहलाता है। जो दूसरों को रूलावे वह दुःख का कारण रुद्र कहा जाता है उससे जो उत्पन्न या उसका जो कम हो वह रौद्र कहलाता है। अथवा हिंसा रूप परिणत आत्मो रूद्र और उसका ध्यान रौद्रध्यान कहलाता है । क्षमा आदि दस प्रकार के, धर्म से जो युक्त हो वह धम्र्य, ऍला धर्मयुक्तध्यान धर्मध्यान शुक्ल अर्थात् निर्मल, सहल कर्मों के क्षय का कारण होने से शुचिविशुद्ध, अथवा अष्टविध कर्म रूप दुःख शुचि कहलाता है, उसका जो क्षय कर देता है वह शुक्ल । ऐसा ध्यान शुक्लध्यान है। भगवतीमत्र के पच्चीसवे शतक के सप्तम उद्देश्यक में कहा हैछी-ध्यानना यार से छे-(१) मात ध्यान (२) रौद्रध्यान (3) मध्यन અને (૪) શુકલધ્યાન આમાંથી જે ધ્યાન દુઃખના કારણે ઉત્પન્ન થાય છે અને દુઃખાનુબન્ધી હોય છે તે આર્તધ્યાન કહેવાય છે. જે બીજાને સતાવે તે દુઃખનું કારણ રૂદ્ર કહેવામાં આવે છે, તેનાથી ઉત્પન્ન અથવા તેનું જે કર્મ હોય તે રૌદ્ર કહેવાય છે અથવા હિંસારૂપ પરિણત આત્મા રૂદ્ર અને તેનું ધ્યાન રૌદ્રધ્યાન કહેવાય છે. ક્ષમા આદિ દશ પ્રકારના ધર્મથી જે ચુક્ત હોય તે ધર્મ, આવું ધર્મયુક્ત ધ્યાન એ ધર્મધ્યાન શુકલ અર્થાત્ નિર્મળ, સકળ કર્મોનો ક્ષયનું કારણ હવાથી–શુચિ-વિશુદ્ધ અથવા અષ્ટવિધ કર્મરૂપ દુઃખ શુચિ કહેવાય છે તેને જે નાશ કરી નાખે છે તે શુકલ આવું ધ્યાન શુકલધ્યાન છે. ભગવતીસૂત્રના પચ્ચીસમાં શતકનાં સાતમાં ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે–ધ્યાન ચાર કહેવામાં આવ્યા છે–આર્તધ્યાન રૌદ્રધ્યાન ધર્મધ્યાન અને શુકલધ્યાન. ૬૮ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-मियुक्ति टीका अ.७ सू.६९ धर्मशुक्लध्यानयोमीक्षहेतुत्वम् ५०५ सक्के' इति चस्मारिध्यानानि यज्ञपनि, सवथा आत ध्यानम् रोदध्यानम् धम्मैध्यानम् शुक्लं गनमिति ॥६८॥ मूलम्-धम्मसुकाई लोकहेउणो ॥६९॥ छाया-'धर्थ शुक्ले मोक्षहेतू ॥६९॥ तत्वार्थदीपिका-'पूर्व तारद् आभ्यन्तरतपसः प्रायश्चित्तादि भेदेन पविधस्य क्रमशो निरूपणानन्तरं षष्ठमपि ध्यानरूपमाभ्यन्तरतपः आतौद्र धर्मशुक्लभेदेन चतुर्विधं मतिपादितम्, तत्र प्रथमट्टयं संसारहेतु:-अन्तिमदरश्च मोक्षहेतुर्भरतीति प्रतिपादयितुमाह-धरूलसुधाई प्रोख हे उणो' इति धर्मशुक्ले पूर्वोक्ते धर्माइनपेतलक्षणधर्म शुक्लश्चेत्येते द्वे अलिमे ध्याने मोक्षहेतू मुक्तिसाधने भवतः । प्रथमद्वयन्तु आर्तध्यानं सैद्रध्यानश्च संगारस्थितिकारणं भवति, 'ध्यान चार कहे गए हैं- आतध्यान, रौद्रध्यान, धर्मशाल और शुक्लध्यान ॥६॥ 'धम्मसुक्काई मोदखहे उणों सूत्रार्थ-धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं ॥६९॥ । तत्वार्थदीपिका-पहले प्रायश्चित आदि के भेद से छह प्रकार के आभ्यन्तर तप का क्रमशः निरूपण करने के पश्चात् छठे आभ्यन्तर तप ध्यान के आत, रौद्र, धर्म और शुक्ल के भेद हे चार प्रकार प्रदर्शित किए गए, इनमें से प्रपत्र के दो संसार के कारण है और अन्तिम दो मोक्ष के कारण हैं, यह प्रतिपादन करने के लिए चाहते हैं पूर्वोक्त धनध्यान और शुलशन मोक्ष के साधन है। प्रारंभ के दो अर्थात् आर्सचान और रौद्रयान संस्कार के कारण है। अन्तिम दो को जय मोक्ष का साधन कहा तो पारिशेव्या न्याय से आरंभ के 'धम्मसुकाई मोवखहे उणो' 'त्यादि સૂત્રાર્થ-ધર્મધ્યાન અને શુકલધ્યાન મોક્ષના કારણ છે. ૬૯ તસ્વાર્થદીપિકા–પહેલા પ્રાયશ્ચિત્ત આદિના ભેદથી છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપ ક્રમશઃ નિરૂપણ કર્યા બાદ છઠ્ઠા આભ્યન્તર તપ ધ્યાનના આત્ત, રૌદ્ર, ધર્મ અને શુ લના ભેદથી ચાર પ્રકાર પ્રદશિત કરવામાં આવ્યા આમાંથી પ્રથમ બે સંસારના કારણ છે જયારે છેલ્લા બે મોક્ષના કારણ છે એ પ્રતિપાદન કરવાના આશયથી કહીએ છીએ પૂર્વોક્ત ધર્મધ્યાન અને શુકલધ્યાન મેક્ષના અન છે. પ્રારંભના બે અર્થાત આ વાન અને રૌદ્રધ્યાન સંસારના કારણે છે અન્તિમ બેને જે મેક્ષના સાધન કહેવામાં આવ્યા તે પારિશેષ્ય ન્યાયથી આરંભના બે तर ६४ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARAN . . . तस्वार्थसर अन्तिमद्वयस्य मोक्षहेतुत्वायनेन प्रथमद्वयस्य परिशेषात् संसारहेतुत्वसिबे. मोक्षसंसाराभ्यां प्रकारान्तराभारात्, तृतीयल्य साध्यस्य कस्यचिदभावात् ।६९।' तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्वमन्त्रे-ध्यानाएं पष्ठमाभ्यन्तरं तपश्चतुर्विध मातरौद्र धर्य-शुक्लभेदात् सविशदं प्रतिपादितम् , संपति-तेषु चतुर्विधेषु धर्म-शुक्ल ध्यानद्वयं सोक्षहेतुः, प्रथम सन्तु-आर्त-रौद् ध्यानरूपं संसारहेतुर्भवतीति मरूपायतुमाह-'धम्मसुम्काइयोख हे उणो' इति । पूर्वोक्त ध्यानचतुष्टयेषु अन्तिम इयं धर्म शुक्लध्यानरूपं मोक्षहेतुर्भवति, परिशेपात्मयमद्वयं खलु-पातरौद्रध्यानरूपं संसारकारणं भवति । तत्रापि-धार्य ध्यानं शुक्लध्यानश्च देवगते मुक्तेश्च (उपयोः) कारणं भवतः, नतु-केत्रलं मुक्तेरेव कारणं भवतः । आर्तगैद्रध्यानयोस्तु दो संसार के कारण आप ही आप सिद्ध हो गए, क्योंकि मोक्ष और संसार ले अतिरिक्त अन्य को प्रकार नहीं है, इन दो के सिवाय तीसरा कोई हाध्य नहीं है ॥६९॥ तत्वार्थनियुक्ति--पूर्व सून्न से ध्यान नामक आभ्यन्तरतप के चार भेद-आर्स, रौद्र, धर्म और शुक्ल विशद रूप से प्रतिपादित किये जा चुके हैं, अब यह प्रतिपादन करते हैं कि उन चार भेदों में से अन्तिम ही मोक्ष के कारण हैं और आदि के दो संसार के कारण हैं पूर्वोक्त चार प्रकार के ध्यानों में से अन्तिम दो अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण है और आतंधान तथा रौद्रध्यान संसार के कारण हैं। धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान देवगति और मुक्ति दोनों के कारण होते हैं, अकेली मुक्ति के कारण नहीं परन्तु आर्तध्यान સંસારના કારણ સ્વયં જ સાબિત થઈ ગયા કારણ કે મેક્ષ અને સંસારથી અતિરિકત અન્ય કોઈ પ્રકાર નથી. આ બેના સિવાય ત્રીજું કશું જ સાધ્ય नथी ।। ६६ ॥ તત્વાર્થનિયુક્તિ – પૂર્વસૂત્રમાં ધ્યાન નામક આભ્યન્તર તપના ચાર ભેદઆર્ત, રૌદ્ર ધર્મ અને શુકલ, વિશદ રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યા છે. હવે એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ કે તે ચાર ભેદોમાંથી અન્તિમ મોક્ષના કારણે છે અને શરૂઆતના બે સંસારના કારણે છે. પૂર્વોક્ત ચાર પ્રકારના ધ્યાન માંથી અન્તિમ બે અથાતુ ધર્મ ધ્યાન અને શુકલધ્યાન મેક્ષના કારણું છે અને આ દયાન તથા રૌદ્રધ્યાન સંસારના કારણ છે ધર્મધ્યાન અને શુકલધ્યાન દેવગતિ અને મુકિત બંનેનું કારણ છે એકલી મુકિતનુ કારણુજ નથી પરંતુ આધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન એકાન્તતા સંસારના જ કારણ છે. તે મોક્ષના કારણ કદાપિ હોઈ શકતા નથી, Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ १.६९ धर्मशुक्लध्यानयोर्मोक्षहेतुत्वम् ५०७ सर्वथा संसारकारणत्यमेव नतु-सदाचिदपि मोक्षहेतुत्वं संभवति । संसारश्वनारकादिभेदेन चतुर्विधो वर्तते । एवन्तु-रागद्वेषमोहाः संसारहेतवः, तदनु गतञ्चाऽऽनरौद्ररूपं ध्यान मपि प्रकृष्टतमरागद्वेषमोह माजो जनस्य भवति, तस्मात् भवभ्रमणहेतुता तयोः खलु भवति, नतु-मोक्ष हेतुना इति भावः । उक्तबोत्तराध्ययने ३० अध्ययने ३५ गाथायाम 'अदृरुवाणि दजित्ता झाएज्जा लुसमाहिए। धम्म सुक्काहं झागाई झाणं तं तु वुझावए ॥१॥ आतरौद्रे वर्जयित्वा ध्यायेत सुसमाहितः । धर्मशुक्ले ध्याने ध्यानं तत्तु बुधा वदन्ति ॥१॥ इति, तथा च चतुर्विधेषु ध्याने पु-आतरौद्रध्याने भवनमणहेतू, धर्मशुक्लन्यानेतुमोक्षहेतू भवत इति फलितम् तेपी प्रत्येक भवान्तर भेदा अग्रेऽभिधास्यन्ते ॥६९॥ और रौद्रध्यान एजान्ततः लंलार के ही कारण है, वे मोक्ष के कारण कदापि नहीं हो सकते । नारक आदि के ले ले संसार चार प्रकार का होता है। यों तो राग द्वेष और लोह संसार के कारण हैं, मगर उनसे अनुगत आर्त-शैव ध्यान भी तीनतम राग, द्वेष और मोह वाले पुरुष का होता है उत्तराध्ययन के तील अध्ययन की पैतीसवीं गाथा में कहा है 'समाधिमान् पुरुष आध्यान और रौद्रध्यान को त्याग कर धर्म और शुक्लध्धान शावे। ज्ञानी जल इसी को ध्यान करते हैं। फलित हुआ कि चार प्रकार के ध्यानों में ले आतधान और रोद्रध्धान भवनमण के कारण हैं और धर्मशन तथा शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं इनमें से प्रत्येक के भवान्तर भेदों का कथन आगे किया जाएगा ॥६९॥ નારકઆદિના ભેદથી સંસાર ચાર પ્રકારનું છે. આમતે, રાગ દ્વેષ અને મેહ સંસારના કારણ છે. પરંતુ તેમનાથી અનુગત આત– રૌદ્રયાન પણ તીવ્રતમ રાગ દ્વેષ અને મેહ વાળા પુરૂષને થાય છે આથી તે બંને પણ ભવભ્રમણના કારણ છે ઉત્તરાધ્યયનના ત્રીસમાં અધ્યયનની પાંત્રીસમી ગાથામાં કહ્યું છે. સમાધિમાન પુરૂષ આધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાનનો ત્યાગ કરીને ધર્મ અને શુકલધ્યાન ધ્યાવે જ્ઞાનીજન આને જ ધ્યાન કહે છે. સાબિત થયું કે ચાર પ્રકારના ધ્યાનેમાંથી આર્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન ભવભ્રમણના કારણ છે. જ્યારે ધર્મધ્યાન તથા શુકલધ્યાન મેલના કારણ છે. આમાંથી પ્રત્યેકના અવાન્તર ભેદનું કથન આગળ જતા કરવામાં આવશે જા . Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ तत्त्वार्थस्त्रे मूलम् - अहझाणं चउठिवहं, असणुषणमंपओग-विप्पओग. सइआइ सेयओ ॥७॥ छाया-आशानं चतुर्विधम्, अमनोज्ञ संपयोम-विषयोगम्मृत्यादिभेदतः तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व तात्-ध्यानम् अतरौद्रधर्मशुक्लभेदेन चतुर्विध मविपादितम्, प्रति-तेषां चातुविध्यं प्रतिपादयितुं प्रथममार्तध्यानस्य मथमोपात्तस्य चातुर्विध्य प्ररूपयति-'अदृझाणं च विह' इत्यादि । आर्तध्यान चतुर्विधं भवति, तया-आनोज्ञसंभयोग-वियोग-स्मृत्यादि भेदतः तथाचामनोज्ञसंप्रयोगविपयोग स्मृतिः १ श्रादिना-मनोज्ञविप्रयोगसंपयोगस्मृतिः २ आतङ्कसंप्रयोगविषयोगम्मतिः ३ परिषेवित कामभोगसंप्रयोगविप्रयोग स्मृतिश्चे ४ त्येव तायद् आर्तध्यान चतुर्विधं भवति । तत्राऽमनोज्ञस्य शब्दादेः सम्पयोगे माशौ सत्यां तद्विपयोगाय ‘स कया रीत्या मे न स्यात्' इत्येवं स्मृति 'अझणं चाहिं' इत्यादि सूत्रार्थ-नातवान चार प्रकार का है-अमनोज्ञमम्प्रयोग-विप्रयोग स्मृति आदि ॥७॥ तस्वार्थदीपिका--पहले आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल के भेद से ध्यान चार प्रकार का का नया है, अब उसमें से प्रथम आर्तध्यान के भी चार भेदों का प्रतिपादन करते हैं आतध्यान के चार भेद हैं--(१) अमनोज्ञ सम्प्रयोग-विप्रयोग स्मृति (२ घनोज्ञ विप्रयोग संप्रयोगस्मृति (३) आतंक सम्प्रयोगविप्रयोग स्मृति और (४) आलेखित काममा सम्प्रयोग विप्रयोग स्मृति। अमनोज्ञ वस्तु का संभोग होने पर उसके विशेष के लिए चिन्तन झरना- संकल्प प्रबंध होना, जैसे- किस उपाय से इलसे मेरा पिण्ड 'झाणं चउव्विह' छत्यादि સૂત્રાર્થ – આર્તધ્યાન ચાર પ્રકારનું છે. અમને જ્ઞ સામ્બાગ વિપ્રયોગ स्मृति गरे ॥ ७० ॥ તત્વાર્થદીપિકા–પહેલાં આર્ત રૌદ્ર ધન અને શુકલના ભેદથી ધ્યાન ચાર પ્રકારનું કહેવામાં અાવ્યું છે હવે પ્રથમ આર્તધ્યાનના પણ ચાર ભેદનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ मात ध्यानना यार से छ-(१) ममनाशसम्प्रयोग-विप्रया--- સ્મૃતિ (૬) મને વિપ્રયોગ સ»ગ સ્મૃતિ (3) આતંકસમ્પ્રયોગ વિપ્રયાગ મૃતિ અને (૪) આસવિત—કાસભેગસસ્મોગ વિપ્રોગરમૃતિ અમનજી વસ્તુને સંગ થવાથી તેના વિયોગને માટે ચિન્તન કરવું સંક૯પપ્રબંધ થવું જેમકે કયા ઉપાયથી આનાથી મારૂ પિન્ડ છુટે એવુ વારંવાર Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ १.६९ आध्यानस्य चातुर्विध्यम् ५०९ श्चिन्तनं संकल्प प्रबन्ध:-अमनोज्ञसंप्रयोगविप्रयोगस्मृतिरुच्यते १ अमऽनोज्ञमनसोऽपियम् तत्खलु-मनसः प्रतिकूलत्वान् सनसा न ज्ञायते इत्यमनोज्ञ मुच्यते, तच्याऽमनोझं वस्तु चे वन-मचेतनञ्च। तत्र-चे वनं कुत्सितरूपं दुर्गन्धशरीर दौर्भाग्यादि सहितं कलत्रादिकम् भरजासाधुत्पादक शुद्वेग मनकं शत्रुपर्प व्याघ्रादिकच, परपयुक्तं विपशस्त्ररुण्टकादिक मचेतनं वोध्यम् सेप पीडा कारकत्वात्, इत्येवं तावत् प्रथमम् आर्तध्यान सनिष्टसंयोगरूपममनोज्ञ विप्रयोगरूपं वोयम् १ द्वितीयं तावत्-मनोज्ञविभयोगसंप्रयोगचिन्तनरूपम् आर्तमान पनो पेष्टहा शब्दादेः पुत्रकल धनादेवी विषयोगे-चिरहे सति वसंमयोगाय-तत्माप्तये चिन्तनम् विवारपवन्या-पनोज्ञभियोगसंप्रयोग चिन्तन मुच्यते २ अथ तृतीय मार्तध्यानं ताबद्-आतङ्कसंप्रयोगविप्रयोग चिन्तारूपम्, आतङ्को रोगः तस्य वातादि प्रकोपजनितरुप्प संमयोगे समुत्पन्ने छुटे' ऐला बार बार चिनन करना मनोज्ञ सम्प्रयोग वियोग स्मृति नामक आर्तवान कहलाता है। जो मन को प्रिय न लगे वह अमनोज्ञ। अमनोज वस्तु चेतन नी होती है और अचेतन श्री' चेतन जैसे-कुरूपा, दुर्गन्धित शरीर काली एवं असुन्दर पत्नी आदि तथा भय और त्रास जनक शत्रु, लप, व्य ध्र आदि अचेतन अमनोज्ञ, जैसे-विच, शत्र, कंटक आदि, क्योंकि ये सब पीडाफारक होते हैं। दूसरा आर्तध्यान मनोज्ञ विप्रयोग संप्रयोग रत्त है। इसका अर्थ है-प्रमोज अर्थात् इष्ट शब्द आदि एवं पुन, कलत्र, एल आदि का विशेग होने पर उनके संयोग के लिए चिन्ता करना। तीसरा भेद आतंक सम्प्रयोग विप्रगोग चिन्ता है। यहां आतंक का अर्थ है शेग, वात आदि के प्रकोपले शेग के उत्पन्न होने पर उसके ચિન્તન કરવું અમને સમ્પયોગ વિપ્રગસ્મૃતિ નામક આધ્યાન કહેવાય છે. જે મનને પ્રિય ન લાગે તે અમનોજ્ઞ અમનેણ વરતુ ચેતન પણ હોય છે અને અચેતન પણ, ચેતન જેમકે કુરૂપ દુર્ગધિત શરીરવાળી અને અસુંદર પત્ની વગેરે તથા લય અને ત્રાસજનક શત્રુ, સાપ વાઘ વગેરે અચેતન અમનોજ્ઞ જેવાકે ઝેર શસ્ત્ર, કાટ વગેરે કારણકે આ બધા દુઃખદાયક હોય છે. બીજુ આનંદધાન મનેઝ વિપ્રયાગ સંપ્રગમૃતિ છે. આનો અર્થ થાય છે મનોજ્ઞ અર્થાત ઈષ્ટ શબ્દ આદિ અને પુત્ર પત્ની ધન વગેરેને વિયોગ થવાથી તેમના સંગને માટે ચિન્તન કરવું. ત્રીજો ભેદ આતંકસંપ્રગ વિપ્રયાગ ચિન્તા છે. અહી આંતકને અર્થ છે રેગ વાયુ આદિના પ્રપથી રોગના ઉત્પન્ન થવાથી તેના વિગતે માટે Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्यसूत्रे सतीत्यर्थः तद्विप्रयोगाय 'तदपायः कथं मे रयात्' इत्येवं चिन्तन मुच्यते, आतङ्कस्य-रोगस्य वेदनया पीडितस्य चलचित्तस्य च्युतधैर्यस्य वेदना प्रत्यासत्तो सत्या कथमेतस्था वेदनाश नित्तिर्मविष्यतीति वेदनावियोगाय पुनः पुनश्चिन्तनं कर-शिरः प्रभृति विधाननम् आक्रोशनम्-आक्रन्दनम् अश्रु जलमोचनम्-'पापस्वरूपोऽयं व्याधिरतीक मां बाधते पीड़पति कदाऽयं रोगो विनञ्जयति इत्येवं चिन्तनं तदीर मातध्यानं भवतीति भावः ३ अथ चतुर्थ तावत्-परिषेवित कामभोगसंप्रयोगप्रियविप्रयोग चिन्तारूप मार्तध्यान मुच्यते, भोगाकाङ्क्षा प्रति आतुरस्य पुरुास्य प्राप्त काममोगादि विप्रयोगं प्रति मनः प्रणिधानरूपं चिन्तनम्' अनागत विषय सोगाकाङ्क्षारूपं वा' चतुर्थमाध्यान मवगन्तव्यम् ४॥७०॥ वियोग के लिए चिन्तन करना-'यह रोग कैसे मिट जाय' ऐसा विचार करना तीसरह आध्यान है तात्पर्य यह है कि जो रोग की वेदना से पीड़ित है, जिसका धैर्य नष्ट हो गया है, वह वेदना का संयोग होने पर लोक्ता है-कैले मेरी वेदना की निवृत्ति होगी ? ऐसा सोचकर हाशों ले लिर धुनता है, चोखता है, आंसू बहाता है और चिन्तन करता कि-'यह पापरूप व्याधि मुझे सता रही है, कब इसका बिनाश होगा ? यह तीसरा आतंयोन का भेद है। चौथा आतेधान लेवन किये हुए कामभोगों के वियोग का चिन्तन करता है। जो लोगों की कामना से पीडित है, वह ऐसा सोचता है कि कहीं ऐसा न हो कि इनका त्रियोग हो जाए यह चिन्तन चौधा अत. ध्यान है । अथ भविष्य संबधी कान भोगों का चिन्तन करना चौथा आर्तध्यान ललझना चाहिए ॥७०॥ ચિન્તન કરવું આ રેગ કેવી રીતે મટી જાય આ વિચાર કરે ત્રીજું मात्त ध्यान छे. તાત્પર્ય એ છે કે રોગી, જે શગની વેદનાથી પીડિત છે. જેની ધીરજને અંત આવી ગયો છે. તે વેદનાનો સંગ થવાથી વિચારે છે કઈ રીતે મારી વેદનાને છુટકારો થશે એવું કહીને હાથ વડે માથું કૂટે છે. ચીસાચીસ પાડે છે. આસુ વહેવડાવે છે અને ચિન્તન કરતે હે ય છે કે આ પાપ રૂપ વ્યાધ મને પરેશાન કરી રહી છે. ત્યારે આને અંત આવશે? આ ત્રીજા આર્તધ્યાનને ભેદ છે. ચોથું આખ્તધ્યાન સેવેલા કામોના વિયેગનું ચિન્તન કરવું એ છે જે ભેગોની ઇચછાઓથી પીડિત છે તે એવું વિચારે છે કે ક્યાંય એમ ન બને કે આને વિગ થઈ જાય આ ચિન્તન ચેાથે આર્તધ્યાન છે અથવા • ભવિષ્ય સંબંધી કામગોનું ચિતન કરવું ચોથુ આધ્યાન સમજવું જોઈએ૭૦ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ.७ स.७० आध्यानस्य चातुविध्यम् ५११ तस्वार्थनियुक्तिः-पूर्वमुत्रे-पष्ठस्याभ्यन्तरतपलो ध्यान रूपस्याऽऽतरौद्र धर्मशुक्लभेदेन चातुविधय मुक्तम्, वा तेषां चतुर्णामपि आर्तध्यानादीनां प्रत्येकं चातुविंध्यं प्रतिपादयितुं प्रथमं प्रथमोपात्तस्याऽऽर्तध्यानस्य चातुर्विध्यं प्ररूपयति'अष्टझाणं चविहं, अपणुण्ण संपभोग विपभोग आह अयओ' इति । आर्तध्यानं ऋतं-दुखं, तस्य निमित्ता. यद्वा-तत्र भवम् आतम्, तच्च तध्यानम् आर्तस्य दुखितस्य वा ध्यानम् आर्तध्यान मुच्यते उक्तञ्च 'राज्योपभोग शयनासनवाहनेषु, स्त्रीगन्ध माल यमणि रत्नविभूषणेषु । इच्छामिलाप मतिमात्रमुपैति मोहाद् ध्यानं तदातमिति सप्र बदन्ति तज्ज्ञाः।१। तत्-चतुर्विधं भवति, यथा-अमनोज्ञपयोगवि श्यो गस्मृत्यादि भेदतः तथा च अमनोज्ञसंपशेगविषयोगस्मृतः १ आदिना-मनोज्ञ संप्रयोगविपयोगस्मृतिः २ आतङ्कमयोगविषयोगस्मृतिः ३ परिषेवितकाममोगसपयोगविपयोग तत्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में छठे आभ्यन्तर तप ध्यान के चार भेद कहे-आत, रौद्र, धर्म और शुक्लध्धान । अन्य उनमें से प्रत्येक के चारचार भेद बतलाते हुए प्रथम भातध्यान के चार सदों की प्ररूपणा करते हैं ऋत का अर्थ दुःख है । जो ऋन का कारण हो अथवा ऋन से उत्पन्न हो वह आत । अर्थात् दु:खित का शान आतमान कहलाता है। कहा भी है 'राज्य, उपभोग, शयन, आसन, वाहन, स्त्री, गंध, माला, मणि, रत्न तथा आभूषण आदि में मोह की तीव्रता से जो अनीव आकांक्षा होती है, उसे ध्यानवेत्ता आतध्यान करते हैं ॥१॥ ___ आतध्यान चार प्रकार का है-(१) अमनोज्ञ सम्प्रयोग विप्रयोग स्मृत्ति (२) मनोज्ञ सम्प्रयोग विप्रयोगामुत्ति (३) आतंक सम्प्रयोग તત્વાર્થનિયુક્તિઃ –પૂર્વસૂત્રમાં છઠા આન્તર તપ ધ્યાનના ચાર ભેદ કહયા આર્નરૌદ્રધર્મ અને શુકલધ્યાન હવે તેમાંથી પ્રત્યેકના ચાર ચાર ભેદ બતાવતા થકાં પ્રથમ નંધ્યાનના ચાર ભેદેની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ તને અર્થ દુઃખ છે. જે ત્રહતનું કારણ હોય અથવા ત્રાતથી ઉત્પન્ન થાય તે આર્તા. આર્ત અર્થાત્ દુખિતનુ ધ્યાન આર્તધ્યાન કહેવાય છે. વળી કહ્યું પણ છે शन्य, पाग, शयन, मासन, वाहन, स्त्री, धमाल, २त्न तथा આભૂષણ આદિમાં મેહની તીવ્રતાથી જે અતી આકાંક્ષા થાય છે. તેને ધ્યાનવેત્તા આ ધ્યાન કહે છે કે ૧ . આર્તધ્યાન ચાર પ્રકારનું છે.() અમનોજ્ઞપ્પગ વિપ્રોગ રકૃતિ (૨) મઝસસ્મોગ વિયોગ સ્મૃતિ (૩) આતંકસપ્રગ વિપય રમતિ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ स्मृतिः ४ इत्येवं तारदातध्यान चतुर्विध सामन्तव्यम् । तत्र अमनो. ज्ञस्याऽनिष्टस्य शब्दादिविषयाणां सम्मयोग सम्बन्धे श्रोत्रादीन्द्रियेण सह सम्पर्क सति शब्दादिविषयाणां सान्निधरे सति इत्यर्थः तेषां शब्दादीना मनिष्टाना विभयोगायाऽपगमायाऽनिष्ट शब्दादिविषयपरिहाराय कधमहमस्मादनिष्ट संप्रयोगान्तुचरेथ' इति चिन्तनम् अमनोज्ञसंप्रयोगविभयोगस्मृतिरूपं प्रथम मातानं भवतीति भावः १ अथ द्वितीय पातध्यानं धनोज्ञ संयोगाऽविपयोग चिन्तारूपम् यथा-'मनोज्ञस्येष्टरय बस्तुनः संप्रयोगे तस्याऽविप्रयोगचिन्तनम् ययालयमपि तस्य धिप्रयोगो न स्यात्' इत्येवं चिन्तनं द्वितीय मार्तध्यान मुच्यते २ अथ तृतीयवात धानम् आतच संप्रयोग विभयोग चिन्ता. रूपम् यथाऽऽतलभ्य दु ख वेदनावाः पित्तादि धातु प्रकोपजनिताया शूल शिरः कम्पज्वरादिकायाः सम्प्रयोगे प्राप्तौ सत्यां तद्विप्रयोगाय कयमयं मम विनय विप्रयोग स्मृत्ति और (४) परिषेपित कामभोग सम्प्रयोग विप्रयोग स्मृति । इनका स्वरूप इस प्रकार है (१) अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर उसके वियोग के लिए चिन्तन करना-कैले मैं इस अनिष्ट वस्तु से छुटकारा पाऊ' ऐा चिन्तन करना प्रथम आतध्यान है। (२) इष्ट वस्तु का संयोग होने पर ऐसा सोचना कि-कहीं इसका वियोग न हो जाय' दूसरा आर्तध्यान है। (३) पित्त आदि के प्रकोपले रोग की वेदना उत्पन्न हो जाय-शुलं उत्पन्न हो जाए, शिर कम्पन होने लगे या जबर आ जाय, तो उसके वियोग के विषय में चिन्ना झरना अर्थात् 'कैसे इसका विनाश हो'અને () પરિપેરિત કામગસચ્યોગ વિપ્ર સ્મૃતિ એમનું પરૂપ આ પ્રકારે છે– (૧) અનિષ્ટ વસ્તુને સંગ થવાથી તેના વિગતે માટે ચિતન કરવું – આ અનિષ્ટ વરતુથી કઈ રીતે મારે છુટકારો થાય? આવું ચિત્ત કરવું પ્રથમ આર્તધ્યાન છે. (૨) ઈષ્ટ વસ્તુને સંયોગ થવાથી એવું વિચારવું કે ક્યાંય આને વિગ ન થઈ જાય એ બીજું આર્તધ્યાન છે. (૩) પિત્ત આદિના પ્રકોપથી રોગની વેદના ઉપજે–શૂળ ઉત્પન્ન થઈ જાય માથું ધજવા માંડે અથવા તાવ આવી જાય ત્યારે એમના વિયોગના વિષયમા ચિન્તન કરવું અર્થાત્ કઈ રીતે આને વિનાશ થાય એ વિચાર Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ सू.७० आत ध्यानस्य चातुर्विध्यम् तीति चिन्तनं तृतीय मतिध्यान मवगन्तव्यम् ३ अथ चतुर्थमार्तध्यानम् यथा - कामोपहतचेतसा परिषे बेतकामभोगसंत्र योगस्य ऽविप्रयोग चिन्तन' चतुर्थ मार्त ध्यानमवसेयम् ४ तस्येतस्य चतुर्विधस्यापि आत ध्यानस्य क्रन्दनादीनि चिह्नानि भवन्ति यैः खलु आध्यायी संलक्ष्यते करतलनितिम्लान सुखः आक्रन्दति शोचति तपति निःशब्द म मुञ्चति परिदेवते इत्यर्थः इत्येवं परस्फुटितानि लक्षणानि भवन्ति । उक्तञ्च व्याख्यावज्ञप्ती भगवती सूत्रे २५ शतके ७ उद्देशके ८०३ सूत्रे 'अट्टे झाणे चउबिहे पण ते तं जहा अमणुन्न संग, तस विषय सह समन्नायाविभवा १ मणुपणसंगसंपते, तस्य अविष्यतमण्णागर यानि भवद्द २ आर्यक संपते तस्य भिनण्णागर यावि भवः ३ परिजुमित कामभोगसंपओगसंपते, तरुप अविभोग सह सम एयावि भवइ ४ 'अट्टल णं झाणस्म चन्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा=कंदा १ सोपण्या २ तिपणया ३ परिदेवणया ४ | इति, ऐसा विचार करना तीसरा आर्तध्यान है । 1 ५१३ (४) कामभोगों के प्राप्त होने पर उनका वियोग न होने का चिन्तन करना चौथा आर्तव्यान है । इस चारों प्रकार के आर्तध्यान के लक्षण आक्रन्दन 'रोना' आदि हैं, जिनसे यह पता लग जाता है कि यह अर्तध्यान कर रहा है । आ ध्यानी अपने ग्लान मुख को हथेली पर रख लेना है, आक्रन्दन करता है, शोक करता है, संतप्त होता है और कभी-कभी शब्द किये बिना आंसू बहाता है। ये आर्तध्यान का प्रकट लक्षण हैं । भगवतीसूत्र के पच्चीसवें शतक के सातवें उद्देशक में कहा है-' आर्तध्यान चार प्रकार ४२खे। श्री भर्त्तमान है. (૪) કામભાગે પ્રાપ્ત થયા પછી તેમના વિયેાગ ન થાય એ જાતનું ચિન્તન કરવુ' ચેાથુ' આપ્તધ્યાન છે. આ ચારે પ્રકારના આર્ત્તધ્ય'નલક્ષણ અકદ રૂદન આદિ છે જેનાથી એ જાણી શકાય છે કે આ માણસ આત્તધ્યાન ધરી રહેચે છે. આત્ત ધ્યાની પેાતાના પ્લાન મુખને હથેળી ઉપર રાખી લે છે, આક્રુન્દ કરે છે, શેક કરે છે, સતમ થાળ છે અને કઈં કેઇ વાર શબ્દ ઉચ્ચાર કર્યા વગર સારે છે. આ બધા આન્તધ્યાનના પ્રકટ લક્ષણુ છે શતકના સાતમાં ઉદ્દેશકમાં સુ ભગવતી સૂત્રના પચ્ચીસમાં યુ છે. અત્ત ધ્યાન ચાર પ્રકારના त० ६५ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वाक्षर 'आतध्यानं चतुर्विध प्रज्ञाप्तम्, तद्यथा अमनोज्ञ संप्रयोगसंपयुक्ते तस्य विप्रयोग स्मृतिसमन्यागतश्चापि भवति १ एनोज्ञविप्रयोगसंयुक्ते तस्याऽविषयोग-स्मृति समन्वागतश्चाऽपि भवति २ आतङ्कसंघयोगासंपयुक्ते तस्य विपयोगस्मृतिसमन्यागतथापि भवति ३ परिजुष्ट कामभोग संपयोग संपयुक्ते तस्याऽविप्रयोगसमन्यागतश्चापि भवति ४ । आतस्य खल्ल रानश्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा -क्रन्दनता १ शोचना २ तेपनता-३ परिदेवनता ४ इलि ॥७॥ मूलम्-तंच अविश्य देवचिश्यपलतलं जयाणं ॥७१॥ छाया-तच्चाऽविरत-देशविर -प्रमत्तसंपतानाम् ॥७१।। : तमार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे खल-आध्यानस्य स्वरूपम् अमनोज्ञसंप्रयोगविप्रयोगस्मृत्यादिभेदेन तस्य चातुर्विध्यं प्रतिपादितम्, सम्मति किं स्वामिक मेत. का माहा गया है-(१) अमनोज वस्तु का संप्रयोग होने पर उसके वियोग का विचार करना (२) मनोज्ञ बस्तु सा दियोग होने पर उसके संयोग के लिए चिन्तन करना (३)क्षिसी प्रकार का रोग पैदा हो जाने पर उससे छुटकारा पाने की चिन्ता करना और (४) सेवित कामभोगों का संयोग होने पर उनका कहीं बियोग न हो जाय, ऐसा विचार करना । आत. ध्यान के चार लक्ष कहे गये है-(१)नादन काना-चीखना, (२) शोक करना (३) रुदन करना और (४) आंसू बहाना ॥७॥ 'तं च अविश्य देश' इत्यादि । सूत्रार्थ-सात मान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत को होता है ।।७१ । तत्त्वार्थदीपिका-पहले पार्तध्यान के स्वरूप और उसके चार भेदों કહેવામાં આવ્યા છે –- (૧) અમનેઝ વસ્તુને સંગ થવાથી તેના વિગ ને વિચાર કરો (૨) મનોજ્ઞ વરતુને વિગ થવાથી તેના સંગને માટે ચિન્તન કરવું (૩) કોઈ જાતને રોગ ઉત્પન્ન થવાથી તેમાંથી છુટકારે મેળવવાની ચિન્તા કરવી અને (૪) સેવિત કામગોનો સંગ થવાથી કયાંય તેને વિયોગ ન થઈ જાય એ વિચાર કરે આતધ્યાનને ચાર सक्षषु अपामा माव्या छ -- (१) ४न ४२७ - १२31 पा341 (२) ४ ४२३। (3) ३४न ४२ अने (४) मांसू १९ ॥ ७० ॥ . 'त च अविरय देसविरय' इत्यादि સૂત્રાર્થ–આર્તધ્યાન, અવિરત દેશવિરત અને પ્રમત્ત સંયતને થાય છે ૭૧ તત્વાર્થદીપિકા--- પહેલા આર્તધ્યાનના સ્વરૂપ અને તેના - ચાર Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीषिका-नियुक्ति टीका अ.स्पू.७१ आत्त ध्यानं क भवतीतिनिरूपणम् ५१,५ च्चतुर्विध मार्तध्यान भवतीति मतिपादयितुमाह-तं च-अविरय' इत्यादि । तच्च पूर्वोक्वं चधि मातध्यानम्-अविरत, देशविरस, प्रमत्तसंयवानां भवति, सत्राऽ. विरताः असंयत सम्यग्दृष्टयन्सा ग्राह्याः। देशविरतास्तु-संयतासंयताः अबसेयाः । प्रमन संयताः पञ्चदशदेश समादोपेका क्रियाऽनुष्ठायिनोऽवगन्तव्याः तत्राऽविरतदेशविरतानां चतुर्विध माध्यानं भवति, असंयमपरिणामोपेतत्वाल, प्रमत्तसंयवानान्तु-अप्राप्तप्रियवस्तुसंप्रयोगचिन्तारूपम्, चतुर्थनात ध्यानं वर्जयित्वा शेषमार्तध्यान त्रयं प्रमादोदयाद्रेकात् कदाचित् सम्भवति, कदाचिन्नापि सम्पत्तीति भावः ७१। तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व ताददू-आध्यानस्वरूपं सभेदं शरूपितम्, सम्प्रति का निरूपण किया गया, अब यह बतलाते है कि यह चार प्रकार का आर्तध्यान किस-किस को होता है ?--- पूर्वोक्त चार प्रकार का आत ध्यान अविरत, देशविरत और प्रवत्त संयत को होता है। यहां अविरत' शब्द से असंयत सम्पष्टि तक का ग्रहण करना चाहिए । एकदेश संपनी यहासंयत कहलाते हैं । प्रमाद से युक्त महाव्रतधारी साधु प्रमत्त संयत कहलाते हैं। इनमें से अविरत और देशविरत में चारों प्रकार का आतध्यान पाया जाता है, क्योंकि उनमें असंयम रूप परिणाम होते हैं । प्रमत्तसं. यतों में प्राप्त प्रियवस्तु सम्प्रयोग चिन्ता रूप अर्थात् काम्भोगों की अभिलाषा रूप चौथे आर्तध्यान को छोडकर शेष तीन आर्तध्यान प्रमाद के उद्रेक से कभी-कभी पाये जाते हैं, और कदाचित् नहीं भी होते हैं।७१। तत्वार्थनियुक्ति---परले आर्तध्यान के स्वरूप और भदों का कथन ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે એ બતાવીએ છીએ કે આ ચારે પ્રકારના આર્તધ્યાન કેને કેને થાય છે ? પૂર્વોકત ચાર પ્રકારના આ ધ્યાન અવિરત દેશવિરત અને પ્રમત સંયતને થાય છે. અહી અવિરત શબ્દથી અસંયત સમ્યક દ્રષ્ટિ સુધીનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. એક દેશ સંયમી સંયતાસંયત કહેવાય છે પ્રમાદથી યુકત મહાવ્રતધારી સાધુ પ્રમત્ત સંયત કહેવાય છે. આમાંથી અવિરત અને દેશવિરતમાં ચારે પ્રકારના આર્તધ્યાન જોવામાં આવે છે કારણકે તેમનાં અસંયમ રૂપ પરિણામ હોય છે. પ્રમત્તસંવતેમાં અપ્રાપ્ત પ્રિય વસ્તુ સાગ ચિન્તા રૂપ અર્થાત્ કામોની અભિલાષા ૨૫ થા આધ્યનને છેડીને શેષ ત્રણ આનંદથાન પ્રમાદના ઉદ્રેકથી કઈ કઈ વાર જોવા મળે છે અને કદાચિત્ ન પણ હોય છે ૭૧ તવાથનિર્યુકિત-પહેલા આર્ત ધ્યાનના સ્વરૂપ અને ભેદનું કથન કરવામાં Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्रे के खलु-आर्तध्यानस्य चतुर्विधस्याऽपि ध्याताशे भवन्ति केषां खलु आर्तध्यान भवतीति प्ररूषयितुमाह-'तं च अविश्य देसविरय पमत्त संजयाण' इति । तच्छ पूर्वोक्तस्वरूपं चतुर्विध मषि-आर्तध्यानम्, अविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानां भवति, तथाचाऽविरत सम्यग्दृष्ट्रीनाम् अविरत पदवाच्यानां चतुर्थगुणस्थानवतिनाम्, संयतासंयतानाश्च देशविरत पदवाच्यानां पश्चगुणस्थानवर्तिनां प्रमत्तसंय. तानाञ्च पष्ठगुणस्थानातिनां पूर्वोक्तमातध्यानं भाति, नत्वपमत्तसंयतादीनाम् । अप्रत्याख्यानावरणोदये सति विरतिलक्षणसंयमाभावाद् अविरतसम्यग्दृष्टिरुच्यते। अन-नन् -अल्पार्थना, याचोक्तम्झिया गया है. अब यह बतलाते हैं कि चारों प्रकार का आर्तध्यान किल-किल को होता है चारों प्रकार का अतिधान अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत को होता है । इस प्रकार पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान तक के लभी 'अविरत' शब्द ले कहे जाने वाले जीवों को पंचम गुणस्थान धर्ती संयतासंयतों को अर्थात् देशसंयतों को तथा छठे गुणस्थान में रहे हुए प्रमत्त संपतों को आर्तध्यान होता है। अप्रमत्त संयत आदि, जो षष्ठ गुणस्थान से उपर होते हैं, उनमें आर्तध्यान नहीं पाया जाता। जिस जीव को लम्बद्र्शन की प्राप्ति हो चुकी हो किन्तु अप्रत्या स्थान कषाय के उदय से देश संयम भी प्राप्त न हो वह अविरत सम्य. दृष्टि कहलाता है। यहां नब् का अल्प अर्थ में प्रयोग किया गया है। कहा भी हैઆવ્યું હવે એ બતાવીએ છીએ કે ચારે પ્રકારના આર્તધ્યાનકેને કોને થાય છે? ચારે પ્રકારના આર્તધ્યાન અવિરત, દેશવિરત અને પ્રમત્ત સંયતને થાય છે. આ રીતે પ્રથમ ગુણસ્થાનથી ચેથા ગુણસ્થાનક સુધીના બધા અવિરત શબદથી કહેવામાં આવનાર છેને પચમગુણસ્થાનવત સંયતા સંયતને અર્થાત્ દેશસંયને તથા છઠા ગુણસ્થાનમાં રહેલા પ્રમત્તસંયતેને આર્તધ્યાન થાય છે. અપ્રમત્ત સંયત આતી જે છઠા ગુરુસ્થાનથી ઉપર હોય છે, તેમનામાં આધ્યાન જોવામાં આવતું નથી. જે જીવને સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ ન હોય પરન્ત અપ્રત્યાખ્યાન કષાયના ઉદયથી દેશસંયમ પણ પ્રાપ્ત ન હોય તે અવિરત સમ્યદ્રષ્ટિ કહેવાય છે. અહી નો અ૫ અર્થમાં પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે. વળી કહયું પણ છે. જે કષાય જીવના અ૮૫ પ્રત્યાખ્યાનને પણ રોકે છે. તેમને અપ્રત્યાખ્યાન * કપાય કહે છે. આ રીતે અહીં નબુ અલ્પ અર્થમાં સમજાવું જોઈએ, ૧૨! Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ रु.७१ आतध्यानं क भवतीतिनिरूपणम् ५५७ आवृण्वन्ति प्रस्याख्यानं स्पलमपि येन जीवस्थ । तेनाऽप्रत्याख्यानावर णा स्तेलहिलोऽल्पार्थः ॥१॥ 'प्रत्याख्यानावरण सक्त्वावा तथा भवति सिद्धम् । नवब्राह्मणवचने तत् सहशः पुरुष एवेष्टः ॥२॥ इति, सम्यग्दर्शनं तावत्-त्रिविधं भवति, औपशामिक १ क्षयोपशामिक २ क्षायिक ३ भेदात्, तद् योगात्सल्यग्दृष्टि रुच्यते । देशविरवस्तु-संयतासंयतो व्यपदिश्यते, हिंसादिभ्यो देशतो-विरतत्वात् संयत उच्यते । स एवाऽन्यतः सावधयोगादनिवृत्तत्याद्- असंयतोऽप्युच्यते, अतएब-स संयताऽसंयतो भवति, जो कषाय जीव के अल्प प्रत्याख्यान को भी रोकते हैं, उनको अप्रत्याख्यान कहते हैं इस प्रकार यहाँ नञ् अल्प अर्थ में समझना चाहिए ॥१२॥ अथा जो प्रत्यारुपान न हो किन्तु उसके सदृश हो, वह अमस्याख्यान कहलाता है। जैसे अब्राह्मण कहने पर ब्राह्मण के सदृश किसी अन्य पुरुष का ही बोध होता है ॥२॥ सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का है-(१) औपशामिक (२) क्षायोपशमिक और (३) क्षायिक। इनमें से एक भी सम्यग्दर्शन जिसमें पाया जाय वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। संयतासंयत को देशविरत कहते हैं, वह एकदेश से अर्थात् आंशिक रूप से हिला आदि पापों से निवृत्त होता है, इस कारण उसे संचत कहते हैं और वह सूक्ष्म सावध से विरत होने के, कारण असंयत भी कहलाता है। इस प्रकार यह संयतासंपत हैं। અથવા જે પ્રત્યાખ્યાન ન હોય કિન્તુ તેના જેવું જ હોય, તે અપ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે. જેવી રીતે અબ્રાહ્મણ કહેવાથી બ્રહ્માણના જેવા કેઈ અન્ય પુરૂષ ને જ બંધ થાય છે કે ૨ | સમ્યગ્દર્શન ત્રણ પ્રકારનું છે – (૧) ઔપશમિક (૨) ક્ષાપશમિક અને (૩) ક્ષયિક આમાંથી એક પણ સમ્યગ્દર્શન જેનામાં જોવામાં આવે તે સમ્યગ્દષ્ટિ કહેવાય છે. - સંતાસંતયને દેશવિરત કહે છે, તે એક દેશથી અર્થાત આંશિક પણે હિંસા આદિ પાપોથી નિવૃત્ત થાય છે, આથી તેને સંયત કહે છે અને તે સૂક્ષ્મ સાવદ્યથી વિરત ન હોવાના કારણે અસંયત પણ કહેવાય છે. આવી રીતે તે સંયતાસંયત છે. સંયતા સંય જીવ અવિરત સમ્યગ્દષ્ટિના Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ तत्त्वार्थस्त्र स खलु-संयतासंयतोऽविरतसम्यग्दृप्टिस्थानाद् असंख्येयानि विशोधि स्थानानिगत्वाऽपत्याख्यानावरण कपायेषु क्षायोपशमं प्राप्तेिषु प्रत्याख्यानाव रणरूपायो. दयात् सकलमत्याख्यानाऽभावात् देशविरतो व्यपदिश्यते उक्तश्व 'तस्मादविरत सम्यग्ददृष्टि स्थानाद् विशोधिमुपगम्य । स्थानान्तराण्यने का न्यारोहति पूर्वविधिनैन ।।१।। 'क्षपयत्युपश्यति वा प्रत्याख्यानातः कपायास्तान् । स ततो येन भवेत् तस्य विरमणे बुद्धिरल्पेऽल्पा ॥२॥ 'तस्य तथैव विशोधि स्थानान्यारोहतोऽति संख्यानि । गच्छन्ति सर्वथाऽपि प्रकपतस्ते क्षयोपशमम् ।।३।। श्रावकधर्मों द्वादश भेदः संबायते ततस्तस्य । पञ्चनिचतुः संख्य व्रत गुणशिक्षामयः शुद्धः ॥४॥ -संयतासंयत जीव अधिरतसम्बरदृष्टि के स्थान से अल ख्यात अधिक -विशुद्धिस्थानों को प्राप्त होता है । असत्याख्यान कषाय का क्षयोपशम हो जाने पर भी प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने के कारण उसमें सफल प्रत्याख्यान नहीं होता। इस कारण उले देशविरत कहते हैं। कहा भी है___ अविरत लम्यग्दृष्टि के स्थान से अनेक (असंख्यात) विशुद्धिस्थानों पर पूर्वोक्त विधि ले बह आरोहण करता है। प्रत्यारूपानावरण काय का जम उपशम था क्षय करता है तब उसकी देशबिरति में अल्प वुद्धि होतो है ।।२।। जब वह पहले की भांति असंख्शाता विशुद्धिस्थानों पर आरो हण करता है, तब उसके उना भी क्षयोपशम हो जाता है ।। સ્થાનથી અસંખ્યાત અધિક વિશુદ્ધસ્થાનેને પ્રાપ્ત થાય છે. અપ્રત્યાખ્યાન કષાયને ક્ષયપામ થઈ જવાથી પણ પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાયનો ઉદય થવાના કારણે તેમાં સકલ પ્રત્યાખ્યાન થતું નથી. આ કારણે તેને દેશવિરત કહે છે. यु ५ छे -- અવિરત સમ્યગ્દષ્ટિના નથી અનેક (અસંખ્ય ત) વિશુદ્ધરથાને પર પૂર્વોકત વિધિથી તે અરે હણ કરે છે. પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાયને પારે ઉપશમ અથવા ક્ષય કરે છે. ત્યારે તેની દેશવિરતિમાં અ૯પ બુદ્ધિ હોય છે. મે ૨ જ્યારે તે અગાઉની જેમ અસંખ્યાત વિદ્ધિસ્થાન પર આરોહણ કરે છે ત્યારે તેને પણ ક્ષયે પશમ થઈ જાય છે કે ૩ છે Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.७१ आत्त ध्यान र' भवतीतिनिरूपणम् ५६९ सर्व मस्याख्यानं येनावृगवन्ति तदभिलपतोऽपि। तेन प्रत्याख्याना वरणास्ते निर्विशेषोक्ताः ॥५॥ इति, इदानी प्रमत्तसंयतो व्याख्यायते तस्य देशविरतस्य तस्मादपि देशविरति स्थानात्-असंख्येयानि विशोधिस्थानानि आरोहतो मायारूपवतीयऋषायेषु धकर्पण क्षयोपशमं प्राप्तेषु सर्व सावध योग प्रत्याख्यान विरति भवति तथाचोक्तम् 'देशवितोऽपि ततः स्थानाव सविशोधियुत्तम भाप्य । स्थानान्तराणि पूर्वविधिनैव संयात्यनेकानि । १॥ तष उस जी के धारह प्रकार का श्राशनशम उत्पन्न होता है, जिसमें अणुबन पांच, गुणवत तीन और शिक्षा व्रत चार होते हैं और वह श्रावणधर्म शुद्ध होता है । ४॥ .. .. . प्रत्याख्यान ही अभिलाषा करने पर भी जिला के उदय से प्रत्या. ख्यान न हो सके वह सामान्यत प्रत्यख्यानावरण कषाय काहे गए हैं ।५। अध प्रमत्तसंशत की व्याख्या करते है-जब देशचिरल श्रावक देशविरत स्थान से अलंख्यात विशुद्धिस्थानों पर आरूढ होता है और तीसरी माया कपाश का अधिकता के लाय क्षयोपशम करता है, तब सर्वसामा यो का प्रत्याख्यान रूप चिरतिउत्पन्न होनी है। कहा भी है देशविरत भी देशविरतिस्थान से विशिष्ट शुद्धि को प्राप्त हो कर पूर्वो वत विधि के अनुसार अनेक स्थानान्तर को प्राप्त होता है। वह प्रत्याख्यानावरण कषायों का उपशम अथवा क्षय करता ત્યારે તે જીવને બાર પ્રકારનો શ્રાવકધર્મ ઉત્પન્ન થાય છે જેમાં આગ વ્રત પાંચ ગુણવ્રત ત્રણ અને શિક્ષ વ્રત ચાર હોય છે અને તે ભાવકધર્મ શુદ્ધ હોય છે કે ૪ ૫ પ્રત્યાખ્યાનની અભિલાષા કરવા છતાં પણ જેના ઉદયથી શક્ય પ્રત્યાખ્યાન ન થઈ શકે તેને સામાન્યતઃ પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાય કહેવામાં આવ્યા છે. . પ . હવે પ્રમત્ત વતની વ્યાખ્યા કરીએ છીએ જ્યારે દેશવિરત શ્રાવક દેશવિરતિ સ્થાનથી અસંખ્યાત વિશુદ્ધિ સ્થાન પર આરૂઢ થાય છે અને ત્રીજા માયા કષાયની અધિકતાની સાથે ક્ષચોપશમ કરે છે, ત્યારે સર્વસાવદ્ય ગના પ્રત્યાખ્યાન રૂ૫ વિરતિ ઉત્પન્ન થાય છે. કહયું પણ છે-- - દેશવિરત પણ દેશવિરતિ સ્થાનથી વિશિષ્ટ શુદ્ધિને પ્રાપ્ત થઈને પૂત વિધિ અનુસાર અનેક સ્થાનાંતરોને પ્રાપ્ત થાય છે ત્યારે તેનામાં સર્વવિરંતિ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वाक्ष 'क्षपयत्युपशमयति वा प्रत्याख्यानातः कपायास्तान् । लवतोदयेन भवेत, तस्य दिरमणे सर्वतोऽपि मतिः ॥२॥ छेदोपस्थाप्यं चावृत्तं सामायिक चरित्रं दा। सवतो लभते प्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमात् ॥३॥ सस्य खलु-तथाभूतस्य संयतस्य सर्वतोविरमण मतियुक्तस्य पञ्चमहाव्रत समितिगुसिविशिष्टस्य कषायनिग्रहाव-इन्द्रियदमनाञ्च निरुद्धास्रवस्य निर्वेदादि वैराग्यमावनाभिः हिधरीकृतसं वेगस्य पूर्वोक्त द्वादश बाह्याभ्यन्तरतपोयोगात् सञ्चितकर्माणि निजरयतः शुत्रानुसारं यतमानस्य तदानी मोहनीयकर्मानुभावात् ल तथायूतः संयवः संक्लेशस्थानाद्वा-विशोधि स्थानाद्वाऽन्तर्मुहूर्ताव परावर्तते, तदनन्तरं संज्वळनकपायोदयात्- इन्द्रियधिकथा प्रमादाद् योग दुष्पणिधानात्कुशहै, लय उलमें सर्वविति की भावना उत्पन्न होती है। तत्प. श्चात् वह प्रत्याख्यानाचरण कषाय के क्षय या उपशम या क्षयोपशम छेदोपस्थापनीय अथवा सामायिक चारित्र को प्राप्त कर लेता है ॥२-३|| ____जो श्रमण सर्वविरति को प्राप्त कर चुका है, जो पांच महा व्रतों, समितियों और गुप्तियों से सम्पन्न है, जिसने कषायों और इन्द्रियों का निग्रह करके आस्रव का निरोध कर दिया है, निर्वेद आदि भावनाओं से जिलका संवेग स्थिर हो चुका है, जो पूर्वो. क्त वारह प्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर तप के द्वारा संचित कर्मों की निजंग करने में उद्यत है, सूत्र के अनुसार यतनाचार करता है, ऐला साधु जब संक्छे शस्थान से या विशुद्धि स्थान से अन्तर्मुहूर्त के बाद पलटता है, तब संज्वलन कषाय के ની ભાવના ઉત્પન્ન થાય છે ત્યારબાદ તે પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષયના ક્ષય અથવા ઉપશમ અથવા ઉપશમથી છેદેપરથાપનીય અથવા સામાયિક ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરી લે છે કે ૧ – ૩ | જે શ્રમણ સર્વવિરતિને પ્રાપ્ત કરી ચુક્યું છે, જે પાંચ મહાવ્રત સમિતિઓ અને ગુપ્તિઓથી સમ્પન છે, જેણે કષા અને ઈદ્રિને નિગ્રહ કરીને આ સ્ત્રીને નિરોધ કર્યો છે, નિર્વેદ અદિ ભાવનાઓથી જેને સંવેગ સ્થિર થઈ ગયેલ છે. જે પૂર્વોકત બાર પ્રકારના બાહ્ય અને આભ્યન્તર તપ દવારા સંચિત કર્મોની નિર્જરા કરવામાં ઉદ્યત છે. સૂત્ર અનુસ ૨ યતનાચાર કરે છે એવા સાધુ પારે સંકલેશ સ્થાનથી અથવા વિશુદ્ધ સ્થાન થી અતમુહૂર્ત બાદ બદલાય છે. ત્યારે સંજવલન કષાયના ઉદયથી ઇન્દ્રિય Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ . ७१ यत्तध्यानं के भक्तीतिनिरूपणम् ५२१छेषु कर्मस्वप्यनादराच्च संक्लेशाद्वायां स्थितः प्रमत्तसंयतो भवति । ( पष्ठसप्तमगुणस्थानयोः परस्परं परावर्तनं कुर्वन्तौ तत्र प्रत्येकत्रान्तर्मुहूर्त कालं यावत् स्थित्वा षष्ठ गुणस्थानात्परावृत्य सप्तमे गुणस्थाने गच्छति, तदाऽपमत संपतो भवति । सप्तमात्रावृत्य पुनः षष्ठे यदा समायाति तदा प्रमत्तसंयतो भवतीति भावः) । तथाचते त्रयोऽपि - आवेरतसम्यग्दृष्टि देशविरत - प्रमत्तसंयताः बर्त ध्यानिनो भवन्तीति भावः । चतुर्विधञ्चैतदार्तध्यानं कापोत नील कृष्णलेश्यानुसारि विज्ञेयम् ॥७१॥ जब उदय से, इन्द्रियविकथा प्रमाद से, योग के अप्रशस्त व्यापार से कुशल कर्मों में अनादर होने से, संश्वेश काल में प्रमत्तसंगत हो जाता है । तात्पर्य यह है कि छठे और सातवें गुणस्थान का परस्पर परिवर्तन होता रहता है । इनमें से किसी एक गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त्त काल तक रहकर दूसरे में चला जाता है, जैसे छठे से सातवें में और सातवें से छठे गुणस्थान में आता -जाना रहता है मुनि आत्मध्यान में लीन होता है और बाल्यक्रिया से निवृत्त होता है तब सप्तम गुणस्थान में होता है । जब धर्मोपदेश, गुरुचन्दन भिक्षाचर्यां आदि कोई भी बाह्य प्रवृत्ति करता है तब आत्मिक उपयोग से में आ जाता है । इस च्युन हो जाने के कारण छठे गुणस्थान प्रकार इन दोनों गुणस्थानों में परिवर्तन होता ही रहता है। , आशय यह है कि अविरत सम्बन्दृष्टि प्रमत्तसंयत में आर्त्तध्यान पाया जाता है। आध्यान कापोत, नील और कृष्णछेश्या से तक देशविरत और यह चारों प्रकार का अनुगत होता है ॥७१॥ વિકથા પ્રમાદથી ચેાગના અપ્રશસ્ત વ્યાપારથી કુશળ કર્માંમાં અનાદર થવાથી સ'કલેશકાળમાં પ્રમત્તસયત થઇ જાય છે. તા` એ છે કે દ્રુઠા અને સાતમાં ગુણસ્થાનાનું પરસ્પર પરિવર્ત્તન થતુ રહે છે. આમાંથી કાઇ એક ગુણસ્થાનમાં અન્તમુહૂત્ત કાળ સુધી રહીને બીજામાં ચાલ્યે જાય છે જેમ છટ્ઠામાંથી જતા રહે છે. સાતમામાં અને સાતમામાંથી છઠ્ઠા ગુરુસ્થાનમાં આવતા જ્યારે મુનિરાજ આત્મધ્યાનમાં લીન હેાય છે અને બાહ્ય ક્રિયાથી નિવૃત્ત થાય છે ત્યારે સપ્તમ ગુગુસ્થાનમાં હોય છે. જ્યારે ધર્મોપદેશ. ગુરૂવંદણા ભિક્ષાચર્યા આદિ કાઈ પણ ખહ્ય પ્રવૃત્તિ કરે છે ત્યારે આત્મિક ઉપયાગથી ભ્રષ્ટ થઈ જવાના કારણે છઠ્ઠા ગુસ્થાનમાં આવી જાય છે. આમ આ મને ગુણસ્થાનમાં પરિત્તન થતુ' જ રહે છે. - કહેવાનું એ છે કે અવિરતસમ્યગ્દષ્ટિ સુધી દેશવિરત અને પ્રમત્તસયતમાં આન્ત ધ્યાન તેવામાં આવે છે. આ ચારે પ્રકારના આત્ત ધ્યાન કાપેત નીલ અને કુષ્ણુલેસ્યાથી અનુગત હાય છે ॥ ७१ ॥ त० ६६ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तवा " मूलम् - रोज्झाणं चउन्विहं हिंसा - मोस सेय- संरक्खणानु संधि भैयो अचिरय देसविरयाणं ॥ ७२॥ छाया - रौद्रध्यानं चतुर्विधम्, हिंसा - मृपा - स्तेय संरक्षणानुबन्धि भेदवोऽवि रस- देशविश्वानाम् ॥७२॥ सत्यार्थदीपिका - पूर्व खलु चतुर्विधेषु ध्यानेषु प्रयमं चतुर्विध मध्यार्तध्यानं वरूपित, संपति - क्रमप्राप्तस्य द्वितीयस्य रौद्रध्यानस्य चातुर्विध्यं तत्स्वामित्वञ्च प्रतिपादयितुमाह- 'रोज्झाणं चव्यिहं' इत्यादि । रौद्रध्यानं खलु चतुर्विध भवति, हिंसा हेतुकत्वात् - यृपास्तेय संरक्षणानुबन्धिभेदतः तथाच - रौद्रध्यानस्य हिंसा हेतुकस्यात् - मृपाछेतुकत्वात् चौर्य हे नुकत्वात्-संरक्षण हेतुकत्वाच्च कार्ये कारणोपचारात् रौद्रध्यानमपि चतुर्विधं भवति । हिंसा मृषा स्तेय- संरक्षणानुबन्धि ५६६ 'रोझाणं चव्वि' इत्यादि । त्रार्थ - रौद्रध्यान चार प्रकार का है- (१) हिंसानुबन्धी (२) मृषावादानुबंधी और (४) संरक्षणानुबंधी यह ध्यान अविरत और देशविरति में ही पाया जाता है ||७२ ॥ तत्वार्थदीपिका - चार प्रकार के ध्यानों में से प्रथम आर्त्तध्यान के चार भेदों का निरूपण किया जा चुका है, अब क्रमप्राप्त दूसरे tara के भेदों और उनके स्वामियों का प्रतिपादन करते हैं रौद्रध्यान हिंसा हेतुक, मृषाहेतुक, चौर्यहेतुक और संरक्षणहेतुक होने से, कार्य में कारण का उपचार करके रौद्रध्यान को भी चार प्रकार का कहा गया है। हिंसा, मृत्रा, स्तेय और संरक्षण ये चारों ध्यान की उत्पत्ति के कारण हैं। भाव यह है कि रोझाणं चव्विहं त्याहि ॥ મૂત્રા-રૌદ્રધ્યાન ચાર अक्षरनु छे- (१) हिसानुबंधी (२) મૃષાવાદાનુ અધી (૩) સ્નેયાનુખ ધી અને (૪) સંરક્ષણાનુખ ધી. આ ધ્યાન અવિરત અને દેશવતમાં જ જોવા મળે છે, !! ૭૨ તત્ત્વાર્થદીપિકા-- ચાર પ્રકારના યાનેામાંથી પ્રથમ આખ્ત ધ્યાનના ચાર ભેદોનુ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યુ હવે કમપ્રાપ્ત ખીજા રૌદ્રધ્યાનના ભેદો અને સ્વામીઓનુ' પ્રતિપાદન કરીએ છીએ ―― રૌદ્રધ્યાન હિ સાહેતુક, માહેતુક ચૌય હેતુક અને સરક્ષણુહેતુક હાવાથી કાર્યમાં કારણના ઉપચાર કરીને રૌદ્ર ધ્યાનને પણ ચાર પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. હિંસા, મૃષા, સ્તેય અને સંરક્ષણુ આ ચારે રૌદ્રધ્યાનની ઉત્પત્તિના કારણ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७.७२ रौद्रध्यानस्य चातुर्विध्यनिरूपणम् चतुर्णां रौद्रध्यानोत्पत्ते निमित्तत्वात् हिंसानुध्यानरूपम् - मृषानुध्यानरूपम् - स्तेयानुध्यानरूपम् संरक्षणानुष्यानरूपञ्च रौद्रध्यानं चतुर्विधं भवतीतिभावः । तच्च रौद्रध्यानम् अविरतसम्यग्दृष्टेर्देशविरतस्य च संयतस्य भवति । अथाऽविरतस्य रौद्र ध्यान संभवेऽपि देश विरतस्य न तत्सम्भव इति चेत् १ उच्यते - देशविरतस्यापि हिंसा - मृषा - स्तेयाद्या वेशात् धनादिसंरक्षण तन्त्रश्वाच्च कदाचिद् रौद्रध्यानं सम्भवति तत्र - नारकादीनां रौद्रध्यानमकारणं भवति, सम्यग्दर्शनसामर्थ्यात् खलु संयतस्य रौद्रध्यानं न भवति, अपितु -अविरतस्य - देशविरतस्य चेव भवति ॥७२॥ तत्वार्थनियुक्तिः- पूर्वतायत्-आर्त- रौद्र धर्म-शुक्लध्यानभेदेन चतुर्विधस्य रौद्रध्यान चार प्रकार का है - हिंलानुध्यानरूप, सृषानुध्यानरूप स्तेयानुध्यानरूप और संरक्षगानुध्यानरूप । यह रौद्रध्यान अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थान तक ही होता है । शंका- अविरत के रौद्रध्यान हो सकता है मगर देशविरत के नहीं हो सकता । समाधान- देशविरत को भी हिंसा, युवा, स्तेय आदि का आवेश आ जाता है और धनादि के संरक्षण भी उसे करना होता है अतएव कदाचित् रौद्रध्यान होना संभव है । नारक आदि को अकारण ही रौद्रध्यान बना रहता हैं, मगर संयम के सामर्थ्य के कारण संघत पुरुष में रौद्रध्यान नहीं होना इस प्रकार अविरत और देशविर में ही रौद्रध्यान का होना है ॥ ७२ ॥ तत्वार्थनियुक्ति पहले बतलाया गया है कि आर्त्त, रौद्र, धर्म और - છે. ભાવ એ છે કે રૌદ્રધ્યાન ચાર પ્રકારના છે- હિંસાનુધ્યાનરૂપ, મૃષાનુધ્યાનરૂપ, સ્તેય નુયા રૂપ સ’રક્ષણાનુ ધ્યાનરૂપ આ રૌદ્રધ્યાન અવિરત સમ્યગ્દષ્ટિ અને દેશવિરત ગુણુસ્થાન સુધી જ હાય છે. શકા——અવિરતને રૌદ્રધ્યાન થઈ શકે છે પરન્તુ દેશવિરતને થઈ શકતુ નથી. સમાધાન- દેશિવરતને પણ હિંસા, મૃષા, સ્તેય આદિના આવેશ થઈ જાય છે તેમજ ધનાદિનું સંરક્ષણ પણ તેને કરવું પડે છે, આથી કાચિત્ રૌદ્રધ્યાન થવાની શકયતા રહેલી છે. નારકી આદિના જીવાને કાઈ કારણ વગર જ રૌદ્રાન રહેલુ હોય છે. પરન્તુ સયમના સામર્થ્યના કારણે સયત પુરૂષમાં રૌદ્રધ્યાન હેાતુ નથી આ રીતે અવિરત અને દેશવિરતમાં જ રૌદ્રધ્યાન હાય છે ॥ ७२ ॥ તત્ત્વાથ નિયુકિત-પહેલાં ખતાવવામાં આવ્યુ` કે આત્ત, રૌદ્ર, ધમ અને Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ ध्यानस्य प्रत्येकं चातुर्विध्ययोक्तत्वेन प्रथमोपात्तस्याऽऽतध्यानस्या-ऽमनोज संप्रयोग विप्रयोग स्मृत्यादि भेदत श्चातुर्विध्यं प्रतिपादितम्, सम्प्रति क्रमागतस्य द्वितीयस्य रौद्रध्यानस्य चातुर्विध्यं प्रतिपादयितुमाह-'रोद्दज्झाणं चउन्विहं हिला-लोल-लेष-लारकखणाणुचंधि भेषभो, अविण्य देसविरयाणं' इति । रौद्रध्यानं रोदयति परान् इति रुद्रः प्राण्युषघातादि परिणतो जीवः तस्य कर्म रौद्रम् हिंसाघति करतारू, तद्ध्यानं रौंद्रध्यानम् उक्तञ्च संछे इनहननमञ्जन मारणैश्च बन्धमहारदमनै दिनिकृन्तनैश्च । यो याति राममुपयाति नचातुकल्पां ध्यानं तु रौद्र मिति तत् प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥१॥ बच्चतुर्विध सवति, तबथा-हिस्साम्पास्तेयसंरक्षगानुबन्धि भेदतः तथाच-हिसाथ मृपार्थ स्तेयार्थ संरक्षणार्थञ्च रौद्रध्यानं भवति, तत्र-हिंसा मृषा रतेयसंरक्षणोपायेषु प्रवर्तमानरूप प्रचण्डक्रोधाविष्टस्य महामोहाभिभूतस्य तीव्रधबन्धसंक्लिष्टाऽध्यसायस्य नानामकारकदोपता सम्भवति । तथाचहिंसाशुक्लध्यान के भेद स्खे धान चार प्रकार का है। इनमें से आर्त ध्यान के भी अमनोजलप्रयोग स्मृति आदि चार भेद हैं । अब क्रमागत मितीय रौद्रध्यान के चार भेदों का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं रौद्रध्यान चार प्रकार का है-हिंसालुबंधी, मृषानुबंधी, स्तेयानु धन्धी और संरक्षगानुशन्धी । यह रौद्रध्यान अविरत और देशवि. रत में ही पाया जाता है । इस प्रकार रौद्रध्यानहिंसा के लिए मृषा के लिए स्तन के लिए और विषय संरक्षण के लिए होता है । जो पुरुष हिंसा, कृपावाद, स्तेय और लक्षण के उपार्यों में प्रवृत्त होता है, तीव्र क्रोध से युक्त होना है, महामोह ले ग्रस्त होता है और घध बन्धन आदि संबंधी संक्लिष्ट परिणामों से युक्त होता है, उसमें अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार हिंसा, असत्या, શુકલધ્યાનના ભેદથી ધ્યાન ચાર પ્રકારના છે. આમાંથી આર્તધ્યાનના પણ અમનેઝ સઋગ સ્મૃતિ આદિ ચાર ભેદ છે. હવે કેમ પ્રાપ્ત દ્વિતીય રૌદ્રધ્યાનના ચાર ભેદનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહીએ છીએ-- રૌદ્રધ્યાન ચાર પ્રકારના છે -- હિંસાતૃબંધી, ઋષાબંધી સરેયાનુંબંધી અને સંરક્ષણાનુંબંધી આ રૌદ્રધ્યાન અવિરત અને દેશવિરતમાં જ હોય છે. આ રીતે રૌદ્રધ્યાન હિંસાને માટે મૃષાને માટે તેને માટે અને વિષયસંરક્ષણને હોય છે. જે પુરૂષ હિંસા, મૃષાવાદ, તેય અને સંરક્ષણના ઉપયોગમાં પ્રવૃત્ત હોય છે. તીવ્ર ક્રોધથી યુકત હોય છે. મહામહથી પીડિત હોય છે. તેનામાં અનેક પ્રકારના દોષ ઉત્પન થઈ જાય છે. આ રીતે હિં જા અસત્ય ચારી Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - दीपिका-नियुक्ति टीका अ. सू.७२ रौद्रध्यानस्थ चातुर्विध्यनिरूपणम् ५२५ ऽनृतस्तेयवधवन्धनादिविषयसंरक्षणहेतुकत्वात् कार्ये कारणोपचारात् हिंसानुबन्धि रौद्रध्यानम्, मृषानुवन्धि रौद्रध्यानम् स्तेयाऽनुवन्धिरौद्रध्यानम्, विषयादि संरक्षणा. ऽनुबन्धिरूपं रौद्रध्यानं भवतीति भावः । एतच्चतुर्विधमपि रौ ध्यानम्-'अविरय देसविरयाण' अभिरत-देशविरतयो भवति, अविरत सम्यग्दृष्टेः देशविरतस्य च संयताऽसंयतस्य भवति, एतस्य च चतुर्विधस्य रौद्रध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि, उसन्नदोष-बहुदोषा-ऽज्ञानदोषाऽऽमरणान्तदोषरूपाणि बोध्यान । तत्र-'उलन इति प्रायः इत्यथै देशीशब्दः, तेन-उसन्न दोष इति मायो दोषवत्दा, दोषसम्म वत्वमित्यर्थः । तथाहि-हिंसामृषास्तेयसंरक्षणानां चतुर्णा भेहाना मन्यतमे प्रवर्तमानस्य बाहुल्येन दोषो भवति । एवम्-हिंसामृशादिषु चतुरि प्रवर्तमानस्या चौर्य और विषयों के संरक्षण के कारण होने ले, कार्य में कारण का उपचार करके अर्थात् कार्य को ही कारण मान कर के हिसानुबंधी रौद्र ध्यान, मृषानुबंधी रौद्रवान, स्तेयानुबंधी सौद्रधान और विष संरक्ष. णानुबंधी औद्रधान होता है। यह चारों प्रकार का रौद्रध्यान अविरत और देशविरल में ही पाया जाता है, अर्थात् पांचवें गुणस्थान से उपर यह नहीं होता। रौद्रधशन के चार लक्षण हैं-(९) उत्लन्नदोष (२) बहुदोष (३) अज्ञानदोष और (४) आमरणान्त दोष । ____ 'उसन' शब्द प्राय, अर्थक्षा वाचक और देशीभाषा का है। उसन्न दोष का अभिप्राय है प्रायः दोषवाल होना दोषों का संभव होना। हिंसा, मृषा, रलेप और संक्षम, इन चार सेदों में से किसी भी एक में जो प्रवृत्ति करता है, उसे बहुलता से दोष लगता है। इसी प्रकार અને વિયેના સક્ષણના કારણુ લેવાથી કાર્યમાં કારણેને ઉપચાર કરીને અર્થાત્ કાર્યને જ કારણ માની બેસી હિંસાનુંબંધી રૌદ્રધ્યાન, મૃષાનુબંધી સ્તેયાનુબંધી દ્રપાન અને વિષયસંરક્ષણાનુબંધી રૌદ્રધ્યાન હોય જ આ ચ જે પ્રકારના રોદ્રધાન અવિરત અને દેશવિરતમાં જ હોય છે. અર્થાત પાંચમાં ગુણસ્થાનથી ઉપર આ હેતાં નથી. शेद्रध्यानना यार सक्षण छे -- (१) सन्नोष (२) रोष (3) અજ્ઞાનદેષ અને (૪) આમરણતદેષ ઉન્ન શબ્દ પ્રાયઃ અર્થને વાચક અને દેશી ભાષાનો છે. ઉસન્નદોષનો माशय छ-प्राय: होषित यु-हाशन समावहिसा. भूषा, स्तेय અને સંરક્ષણ આ ચાર ભેદોમાંથી કંઈ પણ એક માં જે પ્રવૃત્તિ કરે છે. તેને બહુલતાથી દેષ લાગે છે. આવી જ રીતે જે હિંસા આદિ ચારમાં Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ तत्त्वार्थ ऽमिनिविष्टान्तःकरणस्य बहुदोपताऽज्ञानदोषताच भवति । आमरणान्तदोषस्तुमरणावस्थायामपि हिंसापास्तेयसंरक्षणकृतः स्वल्पोऽपि पश्चात्तापो यस्य न भवति तस्याऽवगन्तव्यः । थ.चे-तैलक्षणैः खलु हिंसादिविषयरोद्रध्यान ज्ञायते उक्तञ्च व्याख्यापज्ञप्तौ भगवतीमत्रे-'रोदज्झाणे चविहे पण्णते, तं जहाहिलाणुबंध,मोलाणुगंधी तेषाणुबंधी, सारक्खणाणुबंधी रौद्रध्यानं चतुर्विध मज्ञप्तम्,तधधा हिंसानुबन्धि, मृपानुवन्धि, स्तेयानुवन्धि, सरक्षणानुबन्धि इति ॥७२॥ मूलम्-धम्मज्झाणं चउठिवह, आणाअवायविवागसंठाणविचयमेयओ, अप्पलत्तसंजयस्स-उवसतं खीणमोहणा या७३। छाया-धर्मध्यानं चतुर्विधम्, आज्ञाऽपाय-विपाक-संस्थानविचयभेदता, अप्रमत्तसंयतस्य-उपशान्तक्षीणमोहयोश्च ॥७३॥ जो हिंसा आदि चार में प्रवृत्त होता है और जिसका चित्त अभिनिवेष ले युक्त होता है, उसमें बहुदोषता और अज्ञानदोषता भी होती है। आमरणान्त दोष उसे लमझना चाहिए जिसे मरण-अवस्था में भी हिंसा, असत्य, स्तेय और संरक्षण के लिए स्वल्प भी पश्चात्ताप न हो -जो अन्तिम श्वास तक इन शब्दों का सेवन करता रहे। इन चार लक्षणों से रौद्र ध्यान का पता चल जाता है। श्री भगवतीसत्र में कहा है-'सध्यान चार प्रकार का है-हिंसानुबंधी, मृषानुबंधी, स्तेयानुबंधी और संरक्षणानुबंधी ॥७२॥ _ 'धमरुज्झाणं चउब्धिह' इत्यादि सूत्रार्थ-धर्मध्यान चार प्रकार का है-(१) आज्ञा विचघ (२) अपाय विषय (३) दिपाशविचय और (४) संस्थानविचय । यह ध्यान अप भत्तसंपत, उपशान्त मोह और क्षीगमोह संयत्तों को होता है '१७३॥ પ્રવૃત્ત થાય છે અને જેનું મનડું અભિનિવેષથી યુકત હોય છે તેનામાં બહ દોષતા અને અજ્ઞાન દેષતા પણ હોય છે આમરણાન્ત દોષ તને સમજ જોઈએ જેને મરણ-અવસ્થામાં પણ હિંસા અસત્ય તેય અને સ રક્ષણ માટે થે ડે. પણ પ્રશ્ચાત્ત ૫ ન થાય જે અતિમ શ્વાસ સુધી આ દેશે નું સેવન કરતો રહે આ ચાર લક્ષણોથી રૌદ્રધ્યાનની જાણ થઈ જાય છે શ્રી ભગવતીસૂત્રમાં કહેવામાં આવ્યું છે , રૌદ્રધ્યાન ચાર પ્રકારના છેહિંસાનુબંધી, મૃષાનુબંધી, તેયાનુબંધી અને સંરક્ષણાનુબંધી છે ૭૨ છે 'धम्मज्झाण चउविह' त्या सूत्राथ:-धर्म ध्यान या२ २ना है- (१) माज्ञावियय (२) अपाय. વિચય (૩) વિપાકવિચય અને સંસ્થાનવિચય. આ ધ્યાન અપ્રમત્તસંયત, ઉપશાનતમેહ અને ક્ષીણમેહ સંય તેને હોય છે ! ૭૩ છે Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ सू.७३ धर्म ध्यानस्य चातुर्विध्यनिरूपणम् ५२७ तस्यार्थदीपिका -- पूर्वं तावद - आतरौद्रधर्मशुक्लध्यानभेदेन चतुर्विधेषु ध्यानेषु क्रमशः प्रत्येकं चतुर्विधतयाऽऽर्त्तध्यानं - रौद्रध्यानञ्च प्रतिपादितम्, सम्पति - क्रमप्राप्तस्य धर्मध्यानस्य चातुर्विध्यं प्रतिपादयितुमाह - 'धम्मज्झाणं वि' इत्यादि । धर्मध्यानं चतुर्विधम्, तद्यथा आज्ञाविचयः १ अपायचिचयः २ विपाकविचयः ३ संस्थानविचयः ४ आज्ञाविचयादिरूपप्रयोजन चातुर्विध्यात् चतुर्विधप्रयोजनकत्वाद् धर्मध्यान मपि चतुर्विधम्, धर्म:- वस्तुस्वभावरूपः, उक्तञ्च -- धम्मो वत्थु सहायो खमादि भावोग दसविहो धम्मो । चारितं खलु धम्मो जीवाण य रक्खणं धम्मो ॥१॥ धर्मो वस्तु स्वभावः क्षमादिभावश्च दशविधो धर्मः । चारित्र' खलु धर्मो जीवानाश्च रक्षणं धर्म ॥ १॥ इति । तत्वार्थदीपिका - आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान, के भेद से चार प्रकार के ध्यानों में से प्रत्येक के चार चार भेद होने से आर्त्त और रौद्रध्यान के भेदों का निरूपण किया जा चुका है, अब क्रमप्राप्त धर्मध्यान के चार भेदों का प्रतिपादन करने के लिए सूत्रकार कहते हैं धर्मध्यान चार प्रकार का है - (१) आज्ञाविचय (२) अपायविचय (३) विपाक विचय और (४) संस्थान विषय | आज्ञा आदि प्रयोजन चार प्रकार के हैं अतएव धर्मध्यान भी चार प्रकार का है । धर्म वस्तु का स्वभाव है। कहा भी है 'वस्तु का स्वभाव धर्म कहलाता है । क्षमा आदि दस प्रकार के भाव भी धर्म कहलाते हैं । चारित्र भी धर्म कहलाता है और जीवों का रक्षण करना भी धर्म कहलाता है ॥१॥ तत्त्वार्थ ही पिडा-भात्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान भने शुद्धધ્યાનના બેથી ચાર પ્રકારના ધ્યાનેામાંથી પ્રત્યેકના ચાર ચાર ભેદ હાવાથી આત્ત અને રૌદ્રધ્યાનના ભેદોનું નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યું. હવે ક્રમપ્રાસ ધમ ધ્યાનના ચાર ભેદોનુ પ્રતિપાદન કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે~~ धर्मध्यान थार प्रारना छे - ( १ ) आज्ञावियय ( २ ) अपायवियय (3) વિપાકવિચય અને (૪) સસ્થાનવિય અજ્ઞા આદિ પ્રત્યેાજન ચાર પ્રકારના છે આથી ધર્મધ્યાન પણ ચાર પ્રકારના છે. ધર્મ એ વસ્તુને સ્વભાવ છે. કહું પણુ છે. વસ્તુના સ્વભાવ ધમ કહેવાય છે. ક્ષમા આદિ દેશ પ્રકારના ભાવ પણ ધમ કહેવાય છે. ચારિત્ર પણ ધમ કહેવાય છે અને જીવાનુ રક્ષણ કરવું એ પણ ધમ કહેવાય છે ॥ १ ॥ 9 Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थको ५२८ - तस्य तद्विषयं वा ध्यानम्, आज्ञाविचयादिरूपप्रयोजनचातुर्विध्यात तुमचतुर्विधमयोजनकत्वाद् धर्मध्यानमपि चतुर्विधम्, तत्र-विच या चिन्तनम् आज्ञाया:-जिनोपदेशस्य विचय चिन्तनम् आज्ञाविचयः वर्तमानोपदेष्टुरमावाद मन्दबुद्धिस्यात् शानादरणादिकोदयात पदार्थानां मूक्ष्मत्वाच्च हेतुदृष्टान्ता भावे सति सर्वज्ञपणीतमागमं ममाणत्वेनाऽवधार्य-इदमित्थमेव दर्तते यथा भगवतातीर्थचना प्रतिपादितम् भगवान् खलु जिनो नाऽन्यथावादी' इत्येवं गहनपदार्थ श्रद्धानपूर्वकमर्थावधारणम् आज्ञाविचय उच्यते। यद्वा-स्वयं विदित पदार्थतस्य परं प्रतिपादयितुमिच्छन्ः स्वसिद्धान्ताऽविरुद्धतया तत्व समर्थनार्थ धर्मका ध्यान या धर्मविषय ध्यान धर्मध्याल है। उसके चार प्रशेजन है, अतएव प्रयोजन के मेले मध्यान के भी चार भेद है। - विचय अर्थात् चितन । आज्ञा का अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश का चिन्तन करना आज्ञाविचय है। वर्तमान काल में विशिष्ट उपदेष्टा का अभाव होने से, बुद्धि की मनता से, ज्ञानावरण कर्म के उदय ले घस्तुरूप की गहनता से हेतु और दृष्टान्त के अभाव में भी सर्वज्ञ प्रणित आगम को प्रमाण मानना और ऐल्ला समझना कि 'भगवान् तीर्थकर ने जो प्रतिपादन किया है वह सत्य एवं तथप ही है। वीतराग देव अन्यथावादि नहीं हो सकते। इस प्रकार की श्रद्धा रखते हुए अर्थ का निश्चय करना आज्ञाविचय धर्म धान कहलाता है। अथवा जिसने वस्तु के स्वरूप को स्वयं जान लिया है और जो दूसरों को उसे समझाना चाहता है, वह अपने सिद्धान्त ले अविरुद्ध तत्व का समर्थन ધર્મનું ધ્યાન અથવા ધર્મવિષક દયાન ધમયાન છે. તેના ચાર પ્રજન છે આથી પ્રજનના ભેદથી ધર્મધ્યાનના પણ ચાર ભેદ છે. વિચય અર્થાત ચિન્તન આજ્ઞાનું અર્થાત્ જિનેન્દ્ર ભગવાનના ઉપદેશનું. ચિન્તન કરવું આજ્ઞાવિચય છે. વર્તમાનકાળમાં વિશિષ્ટ ઉપદેષ્ટાને અભાવ હવાથી બુદ્ધિની મદતાથી, જ્ઞાનાવરણ કર્મના ઉદયથી અને વસ્તુસ્વરૂપની ગહનતાથી હતુ અને દષ્ટાન્તના અભાવમાં પણ સર્વજ્ઞપ્રણીત આગમને પ્રમાણ ભૂત માનવા અને એવું સમજવું કે, ભગવાન્ તીર્થકરે જે પ્રતિપાદન કર્યું છે તે સત્ય અને તથ્ય છે જ. વીતર ગદેવ અન્યથાવાદી હોઈ શકે નહીં, આ જાતની શ્રદ્ધા રાખતા થકા અર્થને નિશ્ચય કર આજ્ઞાવિય ધર્મધ્યાન કહેવાય છે અથવા જેણે વસ્તુના સ્વરૂપને સ્વયં પારખી લીધું છે અને જે બીજાઓને તે સમજાવવા ઈચ્છે છે તે પિતના સિધ્ધાનથી અવિધ તત્વનું Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ खू.७३ धर्म ध्यायस्य चातुर्विध्यनिरूपणर ५२९ तर्कनय-प्रमाणपरक स्मृन्याधान सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थस्य दाज्ञाविचय उच्यते । अपायविचयस्तावत्-अपायाः रागद्वेषादिजन्या अनर्थाः, तेषां विचयः तहो. षाऽनुचिन्तनम्, जास्यन्धवद् मिथ्यादृष्टयः सर्वज्ञमणीतमार्गाद् विमुखा मोक्षार्थिनः सम्पमार्गापरिज्ञानात् सुदुरमेव गच्छ तीति तद्गतापायचिन्तनरूपः यद्वा-मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः खल्लु इथे पाणिनः कथमपसरेयुरिति चिन्तनम् अपायविचयः । विषाकविचयस्तु-ज्ञानावरणादीनां कर्मणां द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव भवनिमित्तकफल'नुभवरू।। संस्थानविचयः संस्थानानां द्वीपसमुदाया. कृतीनां चिन्तनरूपः, इत्येतदर्थम् उत्तमक्षमादिलक्षणं धर्मध्यान चतुर्विध मर. के लिए तर्क, नय और प्रमाण पूर्वक सर्वज्ञ भगवान् की आज्ञा को प्रकाशित करता है। यह भी आज्ञाविचय ध्यान है। राग-द्वेष आदि से उत्पन्न होने वाले अनर्थ 'अपाय' कहलाते हैं। उनका चिन्तन करना अपायविचय है। जो मोक्षार्थी हैं किन्तु जन्मान्ध के समान मियादृष्टि है और सर्वज्ञवणीत लार्ग से विमुख हैं, वे समीचीन मार्ग स्खे अनभिज्ञ होने के कारण मक्ष रखे दूर हो जाते हैं। उनको जिन अनर्थों का सामना करना पड़ता है, उनका विचार करना अपायचिचय है। ज्ञानावरणीय आदि झमों का द्रव्य, क्षेत्रकाल, भाव और भव के निमित्त से जो फल प्राप्त होता है, उसका चिन्तन करना विपाकधिचय है। द्वीप, समुद्र, लोक आदि के आकार का चिन्तन करना संस्थान विचय धर्मधान है । यह चारों प्रकार का धर्मध्वान अप्रननसंयत में સમર્થન કરવા માટે તક નય અને પ્રમાણપૂર્વક સર્વજ્ઞ ભગવાનની આજ્ઞાને પ્રકાશિત કરે છે. આ પણ આજ્ઞાવિચય ધ્યાન છે રાગ-દ્વેષ આદિથી ઉત્પન થનારા અનર્થ “અપાય” કહેવાય છે તેમનું ચિંતન કરવુ અપાયવિચય છે જે સમક્ષ છે પરન્ત જન્માંધની માફક મિશ્ય દષ્ટિવાળા છે અને સર્વજ્ઞપ્રણીત માર્ગથી વિમુખ છે, તેઓ સમી ચીન માર્ગથી અનલિઝ હેવાથી મોક્ષથી આઘા ને આઘા જાય છે. તેમને જે અનર્થોને સામનો કરવો પડે છે. તેને વિચાર કરવો અપાયવિચય છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોને દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળભાવ અને ભવના નિમિત્તથી જે ફળ પ્રાપ્ત થાય છે તેનું ચિન્તન કરવું વિપાકવિચય છે - દ્વિપ, સમુદ્ર, લોક આદિના આકારનું ચિંતવન કરવું સંસ્થાન વિજય ધર્મધ્યાન છે. આ ચારે પ્રકારના ધર્મધ્યાન અપ્રમત્તસંયતેમાં સાક્ષાત હોય त०६७ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तस्वार्थस गन्तव्यम् । एवंविध चतुर्विधमपि धर्मध्यानमपमतसंयत्तस्य साक्षाद् भवति, किन्तु -अविरत सम्याष्टिदेशविरत परत्तसंपतानां मौमहत्या धर्मध्यान बोध्यम् । एत मुपशान्तरूपायथ्य क्षीणपोहापायाय चापि एतच्चतुर्विधं धर्मध्यानं भवति ॥७॥ तरवार्थनियुक्ति:--पूर्व तावदुक्तस्य ध्यानस्य आत-रौद्र-धर्म-शुक्ल भेदेन चतुर्विधस्योक्तत्वात् तन-क्रमशः प्रत्येकं चातुविध्यं प्रतिपादयितुम् आत्तस्य-रौद्रस्य च चातुर्विध्यं प्रतिपादितम् सम्पत्ति-क्रममाप्तस्य धर्मध्यानस्य चातुर्विध्यं प्रतिपादयति-धम्मज्झाणं चविहं, आणा अयाय विवाग संठाणविषय भेषभो, अपनत्तसंजाल पवसंखीणमोहाणं य' इति । धर्मध्यान-सर्वज्ञाऽऽज्ञाअनुचिन्तनम्, उक्तश्च । 'सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु-बन्धममोक्षामनागमनेषु चिन्ता। पश्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते ध्यानं तु धर्म मिति सम्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥१॥ साक्षात् होता है और अविरत लम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत में गौणरूप ले होता है। इसी प्रकार उपशान्त कपाय और क्षोणकषाय में भी चारों प्रकार का धर्मवान होता है ॥७३॥ सत्यार्थनियुक्ति-पहले ध्यान के चार भेद कहे गए है। उनमें से प्रत्येक के चार-चार भेदों का निरूपण करते हुए आतध्यान और रौद्रध्यान के चार-चार भेद कहे जा चुके हैं। अब क्रमप्राप्त धर्मध्यान के चार भेदों का निरूपण करते हैं धर्मध्यान चार प्रकार का है- (१) आज्ञाविचय (२) अपायविचय (३) विपाकविचघ और (४) संस्थानविचय । यह ध्यान अप्रमत्ससंयत उपशान्तमोह और क्षीणमोह संपतों को होता है । सर्वज्ञ की आज्ञा आदि का चिन्तन धर्मध्यान कहलाता है। कहा भी है-'सूत्रार्थसाधन છે અને અવિરતસમ્યગ્દષ્ટિ દેશવિરત તથા પ્રમત્તસંયતમાં ગીપણાથી હોય છે. આવી જ રીતે ઉપશાત કષાય અને ક્ષીણકષાયમાં પણ ચારે પ્રકારના ધર્મ ध्यान डाय छे. ॥ ७३ ॥ તવા નિર્યુક્તિ-- પહેલાં થાનના ચાર ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે. તેમાંથી પ્રત્યેકના ચાર ચાર ભેદનું નિરૂપણ કરતા થકા આર્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન ના ચાર ચાર ભેદ કહેવાઈ ગયા છે હવે ક્રમ પ્રાપ્ત ધર્મધ્યાનના ચાર ભેદોનું નિરૂપણ કરીએ છીએ-- ध्यान या२ ४२ना छे-(१) मासावियय (२) पायवियय (3) વિપાકવિચય અને (૪) સંસ્થનવિચય આ ધ્યાન અપ્રમત્તસંચત, ઉપશાન્તાહ અને ક્ષીણમેહ સંય તેને થાય છે. સર્વજ્ઞની આજ્ઞા બાદિનું ચિંતન ધર્મધ્યાન Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका न.७ . ७३ धर्मध्ध्यानस्य चातुर्विध्यनिरूपणम् ५३१ इति, तच्चतुर्विधं भवति, तद्यथा - आज्ञाऽपाय - विगकसंस्थानविचय मेदतः । तथा च आज्ञाश्चियाद्यर्थम् अपायदिचयार्थम् संस्थानविचवार्थञ्च धर्म ध्यानं भवति । तत्राऽऽज्ञा तावत् सर्वज्ञतीर्थकृत् प्रणीतागमरूपा, रास्पा विचयः - अनुचिन्तनम् तथाविधाज्ञायाः आगमरूपायाः पूर्वापर विशुद्धतयाऽतिनिपुणतया सकळजीवकाय हितकारितयाऽनवद्यतया महार्थतया महानुभावतया निपुणजन विज्ञेयतया द्रव्यपर्याय विस्तारयुक्ततयाऽनादि निधनतया चिचयः पर्यालोचनम् । उक्तञ्च नन्दी सूत्रे - ५८ | 'इच्चेहयं दुबालसंगं गणिपिडगं न कथाइ णासी' इत्यादि, 'इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकं न कदाऽपि नासीत्' इति, तत्र यदि महाव्रतधारण, बन्ध, मोक्ष और गलना - गमन का चिन्तन, पांचों इन्द्रियों के विषयों से उपशम और जीवदया को ध्यानवेत्ता पुरुष धर्म ध्यान कहते हैं । आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकवित्रय और संस्थानविचय के भेद से धर्मध्यान चार प्रकार का है । सर्वज्ञ तीर्थकर द्वारा उपदिष्ट आगम को आज्ञा कहते हैं, उसका चिह्नान करना आज्ञाविचय ध्यान है । तीर्थंकर की आज्ञा पूर्वापरविरोध से रहित है, अत्यन्त निपुण है समस्त जीवों का हित करने वाली है, निरवद्य है, महार्थ से युक्त है, महानुभाव है, कुशल पुरुषों द्वारा ही ज्ञेय है, द्रव्यों और पर्यायों के विस्तार से युक्त है और अनादिनिधन है, इस प्रकार चिन्तन करना आज्ञा विचय है । नन्दीसूत्र में कहा है- 'यह द्वादशांग गणिष्टिक कभी नहीं था, કહેવાય છે. વળી કહ્યુ પણ છે—સૂત્રાસાધન, મહાવ્રતધારણુ અન્ય, મેક્ષ અને ગમનાગમનનુ' ચિ'તન, પાંચે ઈન્દ્રિયાના વિષયાથી ઉપશમ અને જીવ— દયાને, ધ્યાનવેત્ત પુરૂષ ધ્યાન કહે છે. આજ્ઞાવિચય,અપાયવિચય, વિપાકવિચય અને સંસ્થાનવિચયના ભેદથી ધૈ ધ્યાન ચાર પ્રકારના છે. સત્ત તી ́કર દ્વારા ઉપાક્રિષ્ટ આગમ ને આજ્ઞા કહે છે, તેનુ ચિન્તન કરવુ. આજ્ઞાવિચય ધ્યાન છે. તીર્થંકર ની આજ્ઞા પૂર્વીપર વિધયી રહિત છે. અત્યન્ત નિપુણુ છે સમરત જીવાતુ હિત કરનારી છે, નિરવદ્ય છે મહાથી યુક્ત છે મહાનુભાવ છે. કુશળ પુરૂષા દ્વારા જ જ્ઞેય છે દ્રવ્યે અને પર્યંચાના વિસ્તાથી યુકત છે અને અનાદિ નિધન છે. આ જાતનુ ચિન્તન કરવું આજ્ઞા વિચય છે. નન્દીસૂત્રમાં કહ્યુ` છે—આ દ્વાદશાંગ ગણિપિટક કયારેય પશુ ન હેતુ એમ્ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ तत्यार्थस्त्रे प्रज्ञादुर्बल तथोपयुक्तेऽपि सुक्ष्मधिया केवलज्ञानरूपया विनिश्चिन्वन्तः सत्यवादिनः क्षीणरागद्वेष मोहाः सर्वज्ञाः खलु गद्रपेग यद्वरतु व्यवस्थितं भवति तद्वस्तु तेनैव रूपेण प्रतिपादयति न तद्वस्तु तदन्यथारूपेण प्रतिपादयति मृपाभाषणकारणाऽभावात् तस्मात्-सत्यमेवेदं शास्त्रम् आगमल पम् नाना दुःख जटिलात् संसारार्णवात् समुत्तारकं वर्तते इत्येव माज्ञारूपागरे रमृत्याधानम् आज्ञाश्चियरूपं प्रथमं धर्मध्यान मुच्यते १ अपायविवेक स्वात-द्वितीयं धर्मध्यान मुच्यते, आपायानां शारीरिक -मानसिक दुःखानां विनोऽनुचिन्तनम् इहाऽमु च राग-द्वेपाकुलचित्तवृत्तयः ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है, कभी नहीं होगा, ऐलानी नहीं है इत्यादि, यदि प्रज्ञा की दुर्बलता के कारण उपयोग लगाने पर भी कोई वास्तविक वस्तु को नहीं समझ पाता तो यही समझना चाहिए कि मेशा ज्ञान प्रावरणवाला है, इसी कारण मेरी समझ में नहीं आता। जिनेन्द्र मायान्के द्वारा वस्तुस्वयको जाना है, वे राग देष और मोह ले रहित हैं एवं सर्वज्ञ हैं । जो वस्तु जिस रूप में है, उसे वे उसीरूप में प्रतिपादन करते हैं, अन्यथा रूप में नहीं । उनमें मिथ्या भाषण क्षा कोई कारण विद्यमान नहीं हैं। अतएव यह आगम-- शास्त्र सत्य ही है और यह विविध प्रकार के दुःखों से व्याप्त संसार सागर से तारने वाला है । इस प्रकार आज्ञारूप आगम में स्मृत्या. ध्यान करना आज्ञाविचय नाम प्रथम धर्मध्यान है। - दूसरा धर्मशान अपाविचय है। अपायों का अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुखों का चिन्तन करना अपाच वय है। 'जिनका નથી, કયારેય પણ નથી, એમ પણ નથી, કયારે પણ હશે નહી એવું પણ નથી, ઈત્યાદિ જે પ્રજ્ઞાની દુર્બળતાના કારણે ઉપગ લગાવવાથી પણ કઈ વાસ્તવિક વસ્તુ ન સમજાય તે એમ જ સમજવું જોઈએ કે મારૂ જ્ઞાન આવરણ વાળું છે. આથી જ મારી સમજણમાં આવતું નથી જિનેન્દ્ર ભગવાને કેવળ જ્ઞાન દ્વારા વસ્તુ રૂપને જાણ્યું છે. તેઓ સત્યવક્તા છે. રાગદ્વેષ તથા મોહથી રહિત છે તેમજ સર્વજ્ઞ છે. જે વસ્તુ જે સવરૂપે છે. તેને તેઓ એ જ સ્વરૂપે પ્રતિપાદન કરે છે. અન્યથા રૂપે નહીં તેમનામાં મિથ્યાભાષણનું કઈ કારણ વિદ્યમાન નથી આથી આ આગમ-શ સ્ત્ર સત્ય જ છે અને આ વિવિધ પ્રકારના દુખેથી વ્યાપ્ત સંસારસાગરથી તારનાર છે. આ રીતે આજ્ઞારૂપ આગમમાં મૃત્યાધાન કરવું આજ્ઞા વિચય નામક પ્રથમ ધર્મધ્યાન છે _બીજું ધર્મસ્થાન અપાયવિચય છે. અપાયે અર્થાત શારીરિક અને માનસિક દુખનું ચિંતન કરવું અપાયવિચય છે. જેમનું ચિત્ત રાગ અને Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तावद् धर्मधान तय मनुष्यदेवयाऽनुचिन्तनम् माग दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ रु.७३ धर्मध्यानस्य चातुर्विध्यनिरूपणम् ५३३ खलु माणिनो मूलोत्तरप्रकृतिविभागकृतजन्मजराष्ट्र युसागरपरिभ्रमणश्रान्तान्तरात्मनः सांसारिकसुखप्रपञ्चेपु तृतर हतमानसाः शरीरेन्द्रियादिषु कर्मा स्रवद्वारप्रवाहेषु तिष्ठन्तो मिथ्यात्माऽज्ञानाऽविरतिपरिणतियुक्ता भवन्ति' इत्येवं विवेचनं तावद् अपायश्चियरूपं द्वितीयं धर्मध्यानं भवति २ । अथ तृतीयं तावद् धर्मध्यानं विपासविचमा सुच्यते, विविधो-विशिष्टो का पानो-विपासा, अनुमानो नरक-तिर्यङ् मनुष्यदे भवेषु कर्मणा रसानु मन्त्र उच्यते, तस्य खलु तथाविधरसानुभहरूपविपाकस्य विचयोऽनुचिन्तनम्-मार्गणं तन्समवहिन चित्तः सन् तत्रैव स्मृतिमाधाय दर्तमानो विपाकविचयध्यानवान् भवति । तथाहिज्ञानावरणादिकमष्टविधं कर्म प्रकृतिस्थित्यनुमावदेश भेदम् इष्टाऽनिष्ट चित्त राग और द्वेष ले व्याकुल है, ऐले प्राणी अपने किये कर्मों के अनुसार जन्म-जरा-मरण रूपी सागर में परिभ्रमण करते शान्त हो गए, सांसारिक सुखों में वृप्तिरहित चित्त बाले हैं, शरीर और इन्द्रिय आदि हों के आलबद्वारों में स्थित हैं और मिथ्यात्व, अविरति एवं अज्ञान की परिणति ले युक्न हैं। इस प्रकार का विचार करना अपायविचय नामक दूसरा धर्मध्यान है। तीसरा धर्मध्यान विपाक विचच है । विविध प्रकार का अश्वा विशिष्ट पास अर्थात् नरकति तिर्यचति, मनुष्यगति और देव. गति में होने वाले कर्म-रल का अनुभव विपाक कहलाता है। उस रसानुभव रूप विपास का विचय अर्थात् चिन्तन करना विपाकवि. चयध्यान है। जो काम-विषाक में ही चित लगा देता है और उसका चिन्तन करता है वह विमा कवि पध्यानवान् सहलाता है। વેષથી વ્યાકુળ છે, એવા પ્રણિ પિતાના કરેલાં કમો અનુસાર જન્મ– જરા મરણ રૂપી સાગરમાં પરિભ્રમણ કરતાં કરતા થ કી ગયા છે. સાંસારિક સુખ માં તૃતિરહિત ચિત્તવાળા છે. શરીર અને ઈન્દ્રિય આદિ કર્મોના આવકાર માં સ્થિત છે અને મિથ્યાત્વ અવિરતિ અને અજ્ઞાનની પરિણતિથી યુકત છેઆ પ્રમાણે વિચારવું અપાયરિચય નામક બીજુ ધર્મધ્યાન છે. ત્રીજું ધ્યાન વિવિધ વિપાકવિચય છે વિવિધ પ્રકારને અથવા વિશિષ્ટ પાક અર્થાત્ નરકગતિ તિર્યંચ ગતિ, મનુષ્યગતિ અને દેવગતિમાં થનાર કર્મ રસને અનુભવ વિપાક કહેવાય છે. તે રસાનુભવ રૂપ વિપાકને વિચય અર્થાત્ ચિન્તન કરવું વિપાકવિચય થાન છે. જે કર્મ વિપાકમાં જ ચિત્ત લગાવી દે છે - અને તેનું ચિંતન કરે છે તે વિપાક વિચયથાન કહેવાય છે. Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्रे ५३४ विपाकपरिणामं जघन्य-मतमोत्कृष्टस्थितिकं नानाप्रकारविपाकयुक्तं भवति, यथा-ज्ञानायरणाल दुर्मेधरतम् १ दर्शनावरणाच्च-चक्षुर्वेकल्यं, सामान्य ग्राहिबोधवैकल्यं, निद्राद् मनश्च २ वेदनीयम्, असद्वेद्य-सद्वेद्यभेदाद द्विविधम् । तत्राऽसद्वेद्याद् दुःखम् सद्वेधारमुखानुभवः ३ मोहनीयकर्मोदयात् विपरीतग्राहित्वं चारित्रनिवृत्तिश्च ४ आयुः कर्मोदयादनेक भवो ड्राश्च ५ नामकर्मोदयाद् शुभाऽशुम शरीरादिनिष्पत्तिः ६ गोत्रकर्मोदयाच्च नीचकुलोत्पत्तिः ७ अन्तरायोदयात्खलुअलामो भवति इत्येवं खलु निरुद्धचेतसः कर्मविपाकानुसरणे एव स्मृत्याधा. प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश इस प्रकार भेदवाले, तथा अनिष्ट परिणलन चाले, जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति वाले ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्म विविध प्रकार के विशक को उत्पन्न करते हैं, जैसे-ज्ञानावरण कर्म ले मन्दबुद्धिता एवं दर्शना वरण शर्म के उदय ले नेत्रहीन ना, दर्शनहीनता, और निद्रा आदि का उद्भव होता है । वेदनीय कर्म दो प्रकार का है-असातावेदनीय और सातावेदनीय । अतातावेदनीय से दुःख और सातावेदनीय से सुख का अनुभव होता है । मोहनीय कर्म के उदय से विरीत ग्रहण तथा चारित्र का अभाव होता है। आयुकर्म के उदय से अनेक भवों में जन्म लेना पड़ता है । नाम कर्म के उदय से अच्छेधुरे शरीर की रचना होती है। गोत्र-कर्म के उदय से उच्च-नीच कुलों में उत्पत्ति होती है । अन्तराय कर्म के उद्घ से लाभ आदि में विघ्न उत्पन्न होना है। चित्तको एकात्र करके इस प्रकार कर्मविपाक का चिन्तन करना विपाविचय लाम धर्मध्यान है। કૃતિ, સ્થિતિ અનુભાવ અને પ્રદેશ આ જાતના ભેરુ વાળા, ઈષ્ટ તથા અનિષ્ટ પરિણમનવાળા, જઘન્ય મધ્યમ અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા, જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકાર ના કર્મ, વિવિધ પ્રકારના વિપાકને ઉત્પન્ન કરે છે જેમકેજ્ઞાનાવરણ કર્મથી સદબુદ્ધિતા અને દશનાવરણ કર્મના ઉદયથી નેત્રહીનતા દર્શન હીનતા અને નિદ્રા વગેરેનો ઉદ્દભવ થાય છે. વેદનીય કર્મ બે પ્રકારના છે–અસાત વેદનીય અને સાતવેદનીય, અસાતવેદનીયથી દુખ અને સાતવેદનીય થી સુખને અનુ મવ થાય છે. મોહનીય કર્મના ઉદયથી વિપરીત ગ્રહણ તથા ચારિત્રને અભાવ થાય છે. આયુષ્યકર્મના ઉદયથી અનેક ભામાં જન્મ લેવો પડે છે નામકર્મના ઉદયથી સારા નરસા શરીરની રચના થાય છે ગોત્રકમના ઉદયથી લામ આદિમાં અન્તરાય ઉત્પન થાય છે. ચિત્તને એકાગ્ર કરીને આ રીતે કર્મવિપાકનું ચિન્તન કરવું વિપાકવિચય નામક ધર્મદેવાન છે. Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % A7 दीपिका-नियुक्ति टीका म.७ इ.७३ धर्मध्यानस्य चातुर्विध्यनिरूपणम् ५३५ नतो धर्मध्यानं भवति । अथ संस्थानविचशे नाम चतुर्थ धर्मध्यान मुच्यते, तत्र लोकस्य द्रव्याणाश्च संस्थानम् आशारविशेषः, तत्र लोका-चतुर्दशरज्जुपमाणो -धर्माधर्मादि पश्चास्तिकायात्मकः-अशेष हव्याधारथूलो वैशाख स्थान कटिब्यस्त करयुग्मपुरुषोपलक्षित आकाशलण्डरूपः, तख्य स्थान साबधोमुखमल्लका वर्तते । अधोलोकस्य संस्थानन्तु-स्थालगन् दोध्यम् । तिर्यग्लोकस्य संस्थानं पुन रूद्ध मधोमल्लकसमुद्गवद् वर्तते, खत्राषि-तिर्यग् लोको ज्योतिष्क बानध्यन्तर व्याप्तो भवति, असंख्येया द्वीपसमुद्रा वलयातयो धर्माधर्माकाशपुद्गळजीवा स्तिकायस्वरूपाः अनादिनिधनसनिवेशशाछिन आकाशप्रतिष्टि : क्षिति वलयद्वीप___ चौथा धर्मध्यान संस्थान विचर है। लोक का या द्रव्यों का आकार संस्थान कहलाता है। इनमें से लोक चौदह रज्जु परिमाण बाला है, धर्म-अधर्म आदि पांच अस्ति शायलय है समस्त द्रव्यों का आधार है और कमर पर दोनों हाथ रखकर तथा पांच फैलाकर खडे हुए पुरुष के आकार का है। यह लोक लस्पूर्ण आकाश फा एक खण्ड है। लोक तीन भागों में विभक्त है-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । इनमें से अधोलोक का आकार अधोमुख मल्लक (लिकोरा के समान है । मध्यलोक थाली के आकार का है और ऊर्ध्वलोक उस सिकोरे के आकार का है जिसका मुख ऊपर की ओर हो लिग लोक मनुष्यों, तिथंचों ज्योतिष्क देवों और वानव्यन्तर देयों से व्याप्त है। इसमें असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं और वे सय वलय की तरह गोलाकार हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और जीवास्तिज्ञाय स्वरूप है, अनादिनिधन सन्निवेश से युक्त हैं, आकाश पर आश्रिता हैं। इसी ચોથું ધર્મધ્યાન સંસ્થાના વિચય છે. લેકિન અથવા દ્રવ્યોનો આકાર સંસ્થાન કહેવાય છે. આમાંથી લેક ચૌદ રજજુ પરિમાણ વાળે છે. ધર્મ અધર્મ આદિ પાંચ અસ્તિકાયમય છે સમસ્ત દ્રોને આધાર છે અને કમર પર બંને હાથ રાખીને તથા પગ પસારીને ઉભા રહેલા પુરૂષના આકારને છે. આ લેક સપૂર્ણ આકાશને એક ભાગ છે લેક ત્રણ ભાગમાં વહેંચાય છે- અલક, મધ્યક અને ઉર્થલેક આમાંથી આવેકનો આકાર અધમુખ મલક (શરૂ) ના જેવો છે. મધ્યક થાળીના આક રે છે જેનું સુખ ઉપરની બાજુએ હોય તિલક મનુ, તિય ચે જાતિ કદેવો. અને વાનવ્યન્તર દેવાથી વ્ય ત છે એમાં અસંખ્યાત દ્વીપ અને સમુદ્ર છે અને તે સઘળા બંગડીની માફક ગેળાકાર છે. ધર્મ અધર્મ, આકાશ તેમજ જીવાસ્તિકાય સ્વરૂપ છે, અનાદિનિધન સન્નિવેશથી યુકત છે. આકાશ પર Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aantarwomedam तस्वायर सागरलरकविमानभावनादि संस्थानानि बोध्यानि, आत्माचो-पयोगलक्षण-अनादि निधनः शरीरात्-अर्थान्तभून:-अरूपी-का-योक्ताच स्वकृतकर्मणा स्व-स्वदेहपरिमिता, मुन्तौ विभागहीनाकारच भवति, । अबलोक स्तावत्-सौधर्मकल्पादयो द्वादशकल्पाः परिपूर्णपूर्णिखा माण्डलाकाराः, नव ग्रेवे एकाणि पश्चोत्तरमहाविमानानि -ईपरमारमारा च अधोलोकोऽपि भवनातिदेवनारकाधिवसतिः धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायो लोकाका गतिस्थिति हेतु भूतौ दत्तने, आकाश मनगाहलक्षणं वर्तते, पुद्गलद्रव्यं शरीरादिकार्य जनकं वर्तते इत्येव लोकद्रव्यसंस्थानम्बामाव्याऽनुसन्धा. प्रकार पृथ्वी, छीप, सागर, नरक, विमान एवं भवन आदि के संस्थान आकार समझ लेना चाहिए। आत्मा उपयोगमध है, अनादिनिधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी, हत्ती, भोक्ता और अपने कर्म के अनुसार प्राप्त देह के बराबर है। मुक्त दशा में अन्तिम शरीर से तीसरा भाग कम आकार वाला रहता है। ___ अचलोक में सौधर्म आदि बारह कल्प हैं जो पूर्णिमा के सम्पूर्ण चन्द्र मण्डल के आकार के हैं, नौ ग्रैवेयक विधान हैं पांच अनुत्तर महा. विमान हैं और ईषत्मारभार पृथवी (सिद्धशिला) है। अधोलोक नारकों और अपनपति देवों की निवास भूमि है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोक के आकार के हैं और गति तथा स्थिति के निमित्त कारण हैं। आकाश का लक्षण अवधार देना है। पुद्गल द्रव्य शरीर आदि का जनक है। इस प्रकार लोक, द्रव्य आदि के संस्थान-स्वभाव का આશ્રિત છેઆવી જ રીતે પૃથ્વી, દ્વી, સાગર, નરક, વિમાન તથા ભવન આદિના સંરથાન આકર સમજી લેવા જોઈએ આત્મા ઉપગમય છે, અનાદિ નિધન, શરીરથી ભિન્ન છે અરૂપી, કર્તા, ભકતા અને પિતાના કર્માનુસાર પ્રાપ્ત દેહની બરાબર છે. મુક્ત દશામાં અતિમ શરીરથી ત્રીજો ભાગ છે એટલા આકારવાળે રહે છે હર્ષલેકમાં સૌધર્મ આદિ બ ૨ કલ્પ છે જે પૂર્ણિમાના સપૂર્ણ ચંદ્ર મન્ડળના આકારના છે. નવ વયક વિમાન છે પાંચ અનુત્તર મહાવિમાન છે. અને ઈષપ્રા માર પૃથ્વી (સિદ્ધશિલા) છે અલક નારકી અને ભવનપતિ દેવોની નિવાસભૂમિ છે. ધમસ્તિકાય અને અધર્માસ્તિકાય લોકના આકારના છે અને ગતિ તથા સ્થિતિને નિમિત્ત કારણ છે. આકાશનું લક્ષણ અવગઈ આપવાનુ છે પુદગલ દ્રવ્ય શરીર આદિ કાનજનક છે. આ રીતે લોક દ્રવ્ય આદિના સંસ્થાના સ્વભાવનું અનુચિન્તન કરવું સંસ્થાન વિચય ધર્મધ્યાન . Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ २.७३ धर्मध्यानस्य चातुर्विध्यनिरूपणम् ५३७ नार्थ स्मृत्याधानं चतुर्य संस्थानविचयाख्यं ध्यान मुच्यते । इत्थश्च-धर्मध्यानेन पदार्थस्वरूपपरिज्ञानरूपस्तत्वाबोधो भवति, तत्वावबोधाच्च सत्क्रियानु ष्ठानं क्रियते, सक्रिशनुष्ठानाच्च मोक्ष-माप्तिर्भवति । एतच्च चतुर्विधमपि धर्मध्यानम् अप्रमत्तसंयतस्य भवति । धमत्तसं यतस्थानात् विशुद्धयमाना. ध्यवसायोऽपमत्तसंयतस्थानमासादयति, तस्मात्-विशुद्धायां धिमानस्याऽ. प्रमत्तसंयतस्य खल सस्य धर्मध्यानादि तपो योगः कर्माणि क्षपयतो विशोधिस्था. नान्तराणि समारोहतश्चाऽऽनों पध्यादिब्धयः मादुर्भवन्ति । उक्तञ्च व्याख्या प्रज्ञप्तौ श्रीभगवतीसूत्रे २५ शतके ७ उद्देशके ८०३ सूत्रे-'धम्मे झाणे च विहे पण्णत्ते, तं जहा, आणाधिए, अयायधिच ए, बिनागविचए संठाण विचए' धर्मधानं चतुधिं प्रज्ञप्तर तपथा-आज्ञाश्चियः, अपायविचयः, विपाकविचयः, संस्थानविचय इति ॥७३॥ अनुचिन्तन करना संस्थान विचय धर्मध्यान कहलाता है धर्मध्यान से पदार्थ के परिज्ञान रूप तत्वोध को प्राप्ति होती है, तत्वकोष से अत्. क्रिया का अनुष्ठान होना है और सतभिधा के अनुष्ठान ले मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह चारों प्रकार का धर्मधान अनन्त संयत होना है। प्रमत्तसंपत के स्थान ले जिसके अध्यवसाय विशुद्धि को प्राप्त होते हैं वह अप्रमत्तसंयत्तस्थान को प्राप्त करता है। इस प्रकार जो विशुद्धता में वत्त रहा है, धर्मपान आदि तपोयोग से करें का क्षय कर रहा है और अधिकाधिक विशुद्ध अध्यचलायों को प्रात कर रहा है, ऐसे अप्रमत्त संयत को आशीवित आदि लब्धियां उत्पन्न होती है। हमवतीस्त्र शतक २५ उद्देश१७ में कहा है-'धर्मध्यान चार कार का कहा गया है, यथा-आज्ञावित्रय, अाविषय, विपाविच और संस्थानविच |७३। કહેવાય છે. ધર્મધ્યાનથી પદાર્થના પરિજ્ઞાન રૂપ ત વબોધની પ્રાપ્તિ થાય છે, તત્વબેધથી સતક્રિયાનું અનુષ્ઠ.ને થાય છે અને રત્ કિયાના અનુષ્ઠાનથી મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ ચારે પ્રકાના ધર્મધ્યાન અપ્રમત્તસંયતને થાય છે પ્રમત્તસંયતના સ્થાનથી જેના અધ્યવસાય વિશુદ્ધિને પ્રાપ્ત થાય છે તે અપ્રમત્તસંતસ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે આ રીતે જે વિશુદ્ધતામાં વત્તી રહે હેય, ધર્મધ્યાન આદિ તપગથી કર્મોને ક્ષય કરી રહ્યો હોય અને અધિકાધિક વિશદ્ધ અથવસાચેને પ્રાપ્ત કરી રહ્યો હોય એવા અપ્રમત્તસંયતને આશીવિષ આદિ લબ્ધિઓ ઉત્પન્ન થાય છે. ભગવતીસૂત્ર શતક ૨૫ ઉદેશક છે, માં કહયું છે- ધર્મદેવન ચ ૨ પ્રકારના કહેવા માં આવ્યા છે યથા આજ્ઞા વિચય, અપાયરિચય, વિપાક વિચય અને સંસ્થાનવિચય છે છ૩ છે त० ६८ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररूपितम् सत्यादि । शुक्लध्यान , तच्च सद्ध्या तत्त्वार्थ ___ शूल-सुक्कझाणे घउठिवहे, पुहुत्तवियकसवियार-एगस. वियकअविवार-सुहुमकिरिय अनियहि-समुच्छिन्नकिरिय अपडिवाइ भेषओ ॥७॥ छाया-'शुक्लध्यानं चतुर्विधम्, पृथक्त्ववितर्कसविचारकत्वरितको विचारक्षम क्रियाऽनिवर्ति, समुच्छिन्नक्रियाऽपतिपातिभेदतः ॥७॥ सवार्थदीपिका---'पूर्व तावद धर्मध्यान चतुविधम्, ज्ञाविचयादि भेदता मरूपितम् सम्मति-शुक्लध्यान चतुर्विधतया प्ररूपयितुमाह-'सुक्कझाणे चउब्धिहे' इत्यादि । शुक्लध्यान शु-इति शुचं-शोक, क्ल इति क्कमयतिअपनयतीति शुलं- अवक्षयकारणम्, तच्च तद्ध्यान च शुक्लध्यानम् । उक्तश्च 'यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि संकल्परल्पनविषल्प विकारदोपैः। योगः सच बिभिरहो निभृतान्तरात्मा ध्यानोत्तम प्रवरशुक्ल मिदं वदन्ति ।१। 'सुझाणे चउब्धिहे' इत्यादि सूत्रार्थ-शुक्लध्यान चार प्रकार का है-(१) पृथक्त्ववितर्कसविचार (२)एकत्ववितर्क-अविचार (३) रक्षा क्रियानिधन, और (४) समुच्छि नक्रियाऽप्रतिपालि ।।७४॥ तत्वार्थदीपिका-पहले आज्ञाविचघ आदि के भेद से चार प्रकार का धर्मध्यान कहा गया है, अब शुक्लध्यान के चार भेद की प्ररूपणा करते हैं-शुक्लशब्द का अर्थ इस प्रहार है-'शु' अर्थात् शुच-शोक 'क्ल' अर्थात् दूर करने वाला । तात्पर्य यह है कि जिससे जन्म-मरण का दुःख दूर हो जाय उरले शुक्ल कहते हैं , ऐसा ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है। कहा भी है- जिसकी इन्द्रियाँ विषयों से विमुख हो 'सुक्छज्झाणे चउबिहे' या सूत्रार्थ-शुसध्यान. ५ २ ५४।२। -(१) पृथत्वविन सपिया२ (२) पवित-मविया (3) सूक्ष्मठियानिपत्ति मन (४) समुरिछन्नलिया. प्रतियात ॥ ७४ 11 તાથદીપિકા–પહેલા આજ્ઞાવિચય આદિના ભેદથી ચાર પ્રકારના ધર્મધ્યાન કહેવામાં આવ્યા છે, હવે શુકલધ્યાનના ચાર ભેદની પ્રરૂપણા शये छीग શુકલ શબ્દનો અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે- “ અર્થાત્ શુચ–શાક, ‘કલ” અર્થાત દૂર કરનાર તાત્પર્ય એ છે કે જેનાથી જન્મ મરણનું દુઃખ દૂર થઈ જાય તેને શુ-લ કહે છે આવું દાન શુકલધ્યાન કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે- જેની ઈન્દ્રિયે વિષાથી વિમુખ થઈ ચુકી છે, જેનામાંથી સંપ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.७४ शुक्लध्यानस्य चातुविध्यनिरूपणम् ५३९ चतुर्विध प्रज्ञप्तम् तद्यथा-पृथक्त्वसविचारादिभेदतः, तथा च-पृथक्त्ववितर्कसविचारस् १ एकत्ववितर्काऽविचारम् २ सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति ३ समुच्छिन्नक्रियाऽमतिपाति ४ चेत्येतचतुर्विधं शुक्लध्यान भवति । तत्र प्रथमं पृथक्त्व वितर्क सविचारम् पूर्वगतश्रुतज्ञानानुसारेण ध्येयविशेष गवोत्पादादिनानापर्यायाणा द्रव्यार्थिक पर्यायाथिकादि नानानयैरर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिसहित मनुचिन्तनम् अत्र पूर्वगताः शब्दा स्तदर्था वा ध्येया भवन्ति, किन्तु-ध्यातु स्तादृश सामर्थ्याभावात् स एकं द्रव्यं तद्गुणं पर्यायं वा परित्यज्येवरस्मिन् अर्थे द्रव्ये गुणे पर्याये वा गच्छति इदमेव परिवर्तन पृथक्त्व मुच्यते, ततः एकस्मात् अर्थादर्थान्तरं चुकी हैं, जिसमें से संकल्प, विकल्प, विचार और दोष निवृत्त हो चुके हैं और जिसमें अन्तरात्मा तीनों योगों से निवृत्त हो जाता है, उसे शुक्लध्यान कहते हैं। यह सभी ध्शनों में उत्तम है और श्रेष्ठ है।' शुक्लध्यान चार प्रकार का है-(१) पृथवत्या चित्तकसविचार (२) एकस्व वितर्क-अविचार (३) सूक्ष्म क्रियानिवर्ति और (४) समुच्छिन्नक्रि.. याप्रतिपाति । हनका स्वरूप इस प्रकार है (१) पूर्वगत श्रुत के अनुसार, ध्येय वस्तु की नाना पर्थीयों का, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक आदि अनेक लयों से, अर्थ व्यंजन (शब्द) और योग के संक्रमण के साथ चिन्लान करना पृथक्त्ववितर्कसविचार ध्यान कहलाता है। इस ध्यान में पूर्वगत शब्द था उसके अर्थ ध्येय होते हैं, किन्तु ध्यान में उतना लामयं न होने के कारण वह किसी एक द्रव्य, उसके गुम अधया पर्याय का परित्याग कर के दूसरे द्रव्य, વિકલ્પ વિકાર અને દેષ નિવૃત થઈ ગયા છે અને જેનાંમાં અન્તરાત્મા’ ત્રણે ગોથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તેને શુકલધ્યાન કહે છે. આ બધાં ધ્યાનમાં उत्तम. मन श्रेष्ठ छे. શુકલધ્યાન ચ ૨ પ્રકારના છે–(૧) પૃથકૃત્વ વિતર્ક સવિચાર (૨) એક વિતર્ક અવિચાર (૩) સૂમક્રિયાનિવર્તિ અને (૪) સમુચિછન્ન ક્રિયા અપ્રતિપતિ એમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે-(૧) પૂર્વગત શ્રુન અનુસાર દશેય વસ્તુના જદા જુદા પર્યાનું દ્રવ્યાર્થિક અને પર્યાયાર્થિક આદિ અનેક નથી, અથ વ્યંજન (શબ્દ) અને રોગના સંક્રમણની સાથે ચિન્તન કરવું પૃથકવિત સિવિચાર પાન કહેવાય છે. આ પ્લાનમાં પૂર્વગત શબ્દ અથવા તેના અર્થ દય હોય છે પરંતુ ધ્યાતામાં એટલું સામર્થ્ય ન હોવાના કારણે તે કાઈ એક દ્રવ્ય, તેના ગુણ અથવા પર્યાનું ચિત્તન કરવા લાગે છે. આ પરિવર્તન Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ५४० तत्त्वार्थसूत्र शब्दाच्छब्दान्तरं-योगायोगान्तरं गन्तु चिन्तनम्, तत्-विचार उच्यते । उक्तश्च द्रव्याहव्यान्तर याति, गुणाघाति गुणान्तरम्, पर्यायादन्यपर्याय, पृथक्त्वं भवत्यतः १॥ अर्थादान्तरे शनाच्छन्दान्तरे च संक्रमः । योगाद् योगान्तरे यत्र सचिचार तदुच्यते !|२|| इति तदेवम् पृथक्त्वहेतुऋविचरणात्मकविध रूपं यध्यान तत् -पृथक्त्वरितलविचार ध्यान मुच्यते । तच्च-'अपूर्वकरणे'-अनिवृत्ति करणे सक्षम पदार्थ उपशान्त कषायें चे.ते गुणस्थानचतुष्टये भवति । यत्र-एकमात्मद्रव्यं तत्पर्याय-स्तदगुणो वा पञ्जनाथयोगविषयक गुण या पर्याय का चिन्तन करने लगता है। इस परिवर्तन को पृथक्त्व कहते हैं। अतएव एक अर्श से अर्थान्तर, एक शब्द से शब्दान्तर एवं योग से योगान्तर में प्रवेश करके चितन किया जाता है। इसे विचार करते हैं। कहा भी है, एक इब्ध को छेडकर दूसरे द्रव्य को अवलम्बन करना है एक गुणले दूसरे गुण पर चला जाता है और एक पर्याध हा चिल्लल करते करते दूसरे पर्याय का चिन्न करने लगना पृथक्त्व कहलाता है। ॥१॥ जो ध्यान एक अर्थ ले दूसरे अर्थ में, एक शब्द को छोड़कर दूसरे शब्द में तथा एक योग ले दुसरे योग में जाया जाता है, वह सविचार ध्यान कहलाता है ॥२॥ इस प्रकार पृथक्त्व हेतुक, विचार-युक्त एवं वित्तकरूप जो छान है, वह पृथक्त्व सवितर्कविचार ध्यान कहो जाता है। यह ध्यान अपूर्वकरण, आनेवृत्त कर, सूक्ष्म साम्पराय और उपशान्त कषाय नामक चार गुणस्थानों में होना है। ને પૃથવ કહે છે આથી એક અર્થથી અર્થાન્તર એક શબ્દથી શબ્દાન્તર અને વેગથી ગાંતરમાં પ્રવેશ કરીને ચિન્તન કરવામાં આવે છે આને વિચાર કહે છે કહ્યું પણ છે– એક દ્રવ્યને છોડીને બીજા દ્રવ્યનું અવલમ્બન કરવું, એક ગુણથી બીજા ગુણ પર ચાલ્યા જવું અને એક પર્યાયનુ ચિત્તને કરતા કરતા બીજા પર્યાયનું ચિન્તન કરવા લાગવું પૃથકૃત્વ કહેવાય છે. [૧] - જે ધ્યાન એક અર્થથી બીજા અર્થમાં, એક શબ્દને છેડી બીજા શબ્દમાં તથા એક રોગથી બીજા ચોગમાં લાગી જાય છે તે સવિચાર ધ્યાન કહેવાય છે. જે ૨ | આ રીતે પ્રથકૃત્વ હતક, વિચાર યુક્ત અને વિતકરૂપે જે ધ્યાન છે તે પૃથÖવિતર્ક સવિચાર ધ્યાન કહેવાય છે. આ સ્થાન અપ કરણ, અનિવૃત્તિકરણ, સૂક્ષ્મસામ્પરાય અને ઉપશાતકષાય નામક ચાર યુ સ્થાનમાં હોય છે, Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ हृ.७४ शुक्लध्यानस्य चातुर्विध्यनिरूपणम् ५४१ EVER परावर्तन विचाररहित यथास्याचया - एकत्वेन चिन्त्यते तद्-एक त्व वितर्काsविचारनामकं द्वितीयं शुक्लध्यानं भवति । उक्तञ्च तल्लक्षणम् निजात्मद्रव्य मेकं वा पर्याय अथवा गुणम् (आश्रित्य ) । निथलं चिन्त्यते यत्र यद् व्यञ्जनार्थ योगेषु चिन्हनं तदविचारं स्मृतं सद्ध्यानकोविदैः ॥२। तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥ १ ॥ परावर्त्तविवर्जितम् । कायकी - - उच्छवासादिका यस्मिन् ध्याने तद- सूक्ष्मक्रियम्, न निवर्तये न व्यावर्तते यत्तत् अनिवति सूक्ष्मक्रिये च - तत् - अनिवर्त्तिचेति सूक्ष्मक्रियानिवर्ति नामकं शुक्लध्यानं तृतीय मुच्यते । समुच्छिन्ना - क्षीणा क्रिया कापादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मि स्वत्तथा न पतितुं शीलं यस्य तत् - अप्रतिपाति - अनुपति स्वभावम् समुच्छिन्नं 4 (२) जिस ध्यान में एक आत्मद्रव्य, उसका पर्याय या गुण, व्यंजन अर्थ और योग विषयक परिवर्तन के बिना, एक रूप में क्लिन किया जाता है, वह एकत्वबिलर्क- अविचार नामक दूसरा शुक्लध्यान है । उसका लक्षण इस प्रकार कहा गया है- 'एक निजात्म द्रव्य, पर्याय अथवा गुण को अवलम्बन करके निश्चल रूप से जो चिन्तन किया जाता है, उसे ज्ञानी जन 'एकत्व' कहते है ॥ १२ ॥ व्यंजन, अर्थ और योग में परिवर्तन हुए बिना जो चिन्तन होता है, उसे ध्यान में कुशल पुरुष 'अविचार' कहते हैं ॥२॥ (३) जिल शुक्लध्यान में उच्छवास आदि काधिक क्रिश सूक्ष्म रूप में रह जाती है, और जो अनिवर्ति होता है, यह सूक्ष्मक्रियानि aff ध्यान कहलाता है । (४) जिस ध्यान में, शैधेशीकरण में, योगों का सर्वथा निरोध हो (૨) જે ધ્યાનમાં એક આત્મદ્રવ્ય, તેના પર્યાય અથવા શુ વ્યંજન અથ અને ચેગ વિષયક પરવત્તન વિ, એક રૂપમાં ચિન્તન કરવામા આવે છે તે એકત્વવિતક અવિચાર નામક બીજુ` શુકલધ્યાન છે. તેનું લક્ષણ આ પ્રમાણે કહેવામાં આળ્યુ છે- એક નિજામદ્રવ્ય પર્યાય અથવા ગુણુને અવલમ્બન બનાવીને શ્ચિૠપણે જ ચિન્તન કરવામાં આવે છે તેને જ્ઞાનીજન ‘એકત્વ ? કહે છે. ૧ા વ્યજત, અર્થ અને ચેાગમાં પરિવત્ત ન થયા વગર જે ચિન્તન થાય છે તે ઘ્યાનને કુશળ પુરૂષ • અવિચાર हे छे॥ २ ॥ (३) हे शुद्धध्यान ઉચ્છવાસ આદિ કાયિક ક્રિયા સૂમરૂપમાં રહી જાય છે અને જે અનિવૃત્તિ હાય છે તે સૂક્ષ્મક્રિયાનિવૃતિ ઘ્યાન કહેવાય છે. (૪) જે ધ્યાનમાં, શૈલેશીકરણુમાં, ચેગેાના સર્વથા નિધ થઈ જવાના Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ च तद् अमतिपातिचेति समुच्छिन्नक्रियाऽपतिपाति नामकं चतुर्थ शुक्लध्यानं माति । उक्तञ्च व्याख्याप्रज्ञप्ती श्रीभगवतीसूत्र-२५-शतके ७ उद्देशके ८०३सूत्रे-'लुक्के झाणे च उबिहे पण्णत्ते, तं जहा-पुहुत्त वितक्के सवियारी? एमत्त विनय के अधिधारी २सुहमकिरिए अणियाही३ समुच्छिन्न किरिए अपडिशई 'इति, शुक्लध्यानं चतुर्विध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-पृथक्त्ववितः सविचारि, एकत्ववितर्कश्चाविचारि, सूक्ष्मक्रियानिवर्ति, समुच्छिक्रियाऽप्रतिपाति, इति ।७४। तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावद्-धर्मध्यानम् आज्ञाविचयादि भेदतश्चतुर्विधस्वेन प्रतिपादितम्, सम्पति-शुक्लध्यानं पृथक्त्ववितर्कसविचारादि भेदत. चतुर्विधरवेन प्रतिपादयितुमाह-'सुक्कज्झाणे चविहे' इत्यादि, । तत्शुक्लध्यानं चतुधिं भवति । अस्य शुक्लध्यानस्य ये चत्वारो भेदास्ते दीपिकायां जाने के कारण शापिकी आदि क्रियाएं सर्वथा निरूद्ध हो जाती हैं और जिसका कभी पतन नहीं होता वह समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति नामक चौथा शुक्लध्यान कहलाता है। ::भगवतीस्त्र शतन २५ उद्देशक ७ । सूत्र ८०३ में कहा है-शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा गया है-(१) पृथक्त्व वितर्क सविचार (२) एकत्व विचार अविचार (३) सूक्ष्मक्रियानिवत्ति और (४) समुच्छिन्न क्रियाअप्रतिपाती।७४। तत्वार्थनियुक्ति पहले आज्ञा विचय आदि के भेद से धर्मशान चार प्रसार का कहा गया है, अव शुक्ल शान के पृथक्त्व वितक सविचार आदि चार भेद बतलाते हैं शुक्लान चार प्रकार का है। चारों प्रकारों का सविस्तर निरू કારણે કાલિકી આદિ ક્રિયાઓ સર્વથા નિરૂદ્ધ થઈ જાય છે અને જેનું કયારેય પણ પતન થતું નથી તે સમુનિ કિયા અપ્રતિપાતી નામક ચેાથું શુકલથાન કહેવાય છે. ભગવતીસૂત્ર શતક ૨૫ ઉદેશક ૭, સૂત્ર ૮૦૩માં કહ્યું છે-શુકલધ્યાન यार प्राना ४६वामा माया छे (1) पृथपवित: सविया२ (२) .4વિત અવિચાર (૩) સૂફમક્રિયાનિવતિ અને (૪) સમુચિછન્નક્રિયા मप्रतिपाती ॥ ७४ ॥ તત્વાર્થનિર્યુક્તિ-પહેલા આજ્ઞાવિચય આદિના ભેદથી ધર્મધ્યાન ચાર પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે હવે શુકલ પાનના પૃથકૃત્વરિત સવિચાર આદિ ચાર ભેદ બતાવીએ છીએ– શુકલધ્યાન ચાર પ્રકારના છે ચરે પ્રકારનું વિગતવાર નિરૂપણ દીપિકા Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू०७४ शुक्लध्यानस्थ चातुविध्यनिरूपणम् ५४३ सविस्तरं वर्णिताः अवस्तातो द्रष्टव्याः। अस्य शुक्लध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि भवन्ति, तथाहि-विवेको व्युत्सगोंऽव्यथम् असंमोहश्च, तत्र विवेकः पृथक्करणम् स च पृथकारः देहादात्मनो बुद्धया विवेचनम्-१ व्युत्सर्गो निस्सङ्गतया देहोपधित्यागः -२ अन्यथम-देवाशुपसर्गजनितं भयं व्यथा, त्या रहितम् ३ असंमोहो-देवमायाअनितस्य मूढस्वस्य निषेधः-४ । शुक्लध्यानस्य चत्वारि-आलम्चनानि भवन्ति, क्षान्तिर्मुक्तिः आर्जवम्- मार्दवच । तम-शान्तिः परकृताऽपकारसहनम् १ मुक्ति निलो मता-२ आर्जवं-सरलता ३ मार्दवं-मृदुता ४ । शुक्लध्यानस्य चतस्रोऽ. नुप्रेक्षाः, अपायाऽनुप्रेक्षाऽशुभानुप्रेक्षाऽनन्तवृत्तिताऽत्प्रेक्षा-विपरिणापाऽनुप्रेक्षाश्च पण दीपिका टीका में किया जा चुका है, अतएव उनी में देख लेना चाहिए। शुक्लध्यान के चार लक्षण होते हैं-विवेक, व्युएलर्ग, अन्यथ और असंमोह । विवेक अर्थात् पृथक्करण, यहां देह ले आत्मा का पृथक्करण समझना चाहिए। व्युत्सर्ग का अर्थ निःसंग होकर देह और उपधि का त्याग करना है । देव आदि को उपलर्ग से उत्पन्न होने वाले भय का न होना अव्यध है और देवमाया जनित मूढमा न होना असंमोह है। शुक्लध्यान के चार आलम्पन होते हैं-शान्ति, मुक्ति, आर्जव और मार्दव । दूसरों के लिए हुए अपराध को सहन पर छेना शान्ति क्षमा है । मुक्ति का अर्थ निर्लोभता है । सरलता को आजब कहते हैं। मार्दन का अर्थ मृदुता-नम्रता-कोमलना है। शुक्लध्यान की चार अनुपेक्षाएं हैं-अपाशानुपेक्षा, अशुभानुप्रेक्षा अनन्तवृत्तितालुप्रेक्षा और विपरिणामानुपेक्षा। प्राणालिपार आदि आस्रव ટીકામાં કરવામાં આવી ગયું છે. આથી તેમાં જ જોઈ લેવા ભલામણ છે. શુકલધ્યાનના ચાર લક્ષણ છે- વિવેક, વ્યુત્સર્ગ, અર્થ અને અસંમેહ વિવેક અર્થાત્ પૂથકકરણ, અહીં દેહનું આત્માથી જુદા પડવું એને સમજવાનું છે. વ્યુત્સર્ગને અર્થ નિઃસંગ થઈ દેહ અને ઉપધિને ત્યાગ કરે એમથાય છે. દેવ વગેરેના ઉપસર્ગથી ઉત્પન્ન થનાર ભયનું ન હોવું અવ્યર્થ છે અને દેવમાયાજનિત મૂઢતા ન હોવી અસ મેહ છે શુકલધ્યાનના ચાર આલબન હેય છે– ક્ષતિ, મુક્તિ, આર્જવ અને માર્દવ બીજાના કરેલા અપરાધને સહન કરી લેવા ક્ષાતિ-ક્ષમા છે. મુકિતને અર્થ નિર્લોભતા છે. સરલત્વને આર્જવ કહે છે માર્દવને અર્થ મૃદુતા-નમ્રતાકમળતા છે. શુકલધ્યાનની ચાર અનુપ્રેક્ષાઓ છે-અપાયાનુપ્રેક્ષા, અશુભાનુપ્રેક્ષા, અનન્ત વૃત્તિતાનુપ્રેક્ષા, અને વિપરિણામાનુપ્રેક્ષા પ્રાણાતિપાત આદિ આસ્રવ દ્વારના Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४४ arariet अपायानां पापायाऽनुप्रेक्षा' प्राणादिपाठाद्यावद्वारजनितानामनयना मनुचिन्तनम् १ अशुभानुप्रेक्षा- संसारस्यैवाऽशु परूपानुचिन्तनम् २ अनन्त हचिताऽनुप्रेक्षा नन्वृद्धिता, तैलिकचक्रयोजितस्य हृपस्य मार्गाऽनवसानवत् कदाsत्यसमा तिशीकता, तस्या अनुप्रेक्षाऽनुचिन्तनम् ३ विपरिणामानुप्रेक्षा' उत्पाद व्यस्वभावानां पदार्थानां यो विपरिणामः प्रतिक्षणं नव नव पर्यायरूपः तस्यानुचिन्तनम् ४ ददुक्तम् औपपातिक ३० सुत्रे = 'सुक्कज्झाणे चउबिहे डोरे पण तं जहा - पुराविधक्के सविवारी १ एगनविक्के अविरि २ लुकुमसिरिए अप्पडिशई३ समुच्छिन्नफिरिए अलियट्ठी ४ 'सुत्रकस्म णं यागस्स बस्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा - विवेगे - १ विसगे २ अन्दहे ३ असंमोहे' ||४|| शुद्धस्स झाणस्त्र चत्तारिं आलवणा पण्णत्ता, तं जहा खंनी १ मुत्तीर अजवे ३ मदवे४ सुकषास्त णं झाणस्स चसारि अणुप्पे हाओ पण्णत्ताओ, तं जहा 'अवायाणुप्पेहा १ अभाणुप्पेदा २ अनंतबत्तियाणुप्पेहा ३ विपरिणामाच्णुवेा ४ से तं झाणे सू० ॥ ३० ॥ छाया - शुक्लध्वानं चतुर्विधं चतुष्यत्यवतारं नप्तम्, तद्यथा पृथक्त्व वितर्क सविचारि १ एकत्वत्रितर्फ अविचारि२ सूक्ष्मक्रियमतिपाति समुच्छिन्नक्रिय मनिद्वारों के कारण होने वाले अनर्थो का विचार करना अपायानुप्रेक्षा है । संसार को अशुभ रूप में चिन्तन करना अशुभानुपेक्षा है । जैसे कोल्ड के बैल के मार्ग का अस नहीं आता, उसी प्रकार रागी -द्वेषी जीव के भवभ्रमण का भी कभी भी अन्त नहीं आता, ऐसा विचार करना अनावृत्तिसानुपेक्षा है । प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय और श्री स्वभाववाला है, उसमें प्रति क्षत्र नवीन-नवीन पर्यायों का उत्पाद और पुरातन पर्याय का विसरा होता रहता है, ऐसा चिन्न करना विपरिणामानुप्रेक्षा है । औपपातिकनून के ३० वे सूत्र में कहा है- शुक्लध्यान चार કારણે થનારા અનĆના વિચાર કરવેશ અપાયાનુપ્રેક્ષા છે. સંસારનું અશુભરૂપમાં ચિન્તન કરવુ' અશુભાનુપ્રેક્ષા છે જેમ ઘાણીના બળદના માના અન્ત નથી આવતા તેવી જ રીતે રાગીદ્વેષી જીવના ભવભ્રમણને પણ કયારેય પણ અન્ત આવા નથી એવે વિચાર કરવે અનન્તવૃત્તિતાનુપ્રેક્ષા છે પ્રત્યેક પદાર્થ ઉત્પાદ, વ્યય અને ધ્રૌવ્ય સ્વભાવવાળા છે, તેમાં પ્રતિજ્જુ નવીન—નવીન પાંચાના ઉત્પાદ અને પુર તન પર્યાયને વિનાશ થતા રહે છે એવુ ચિન્તન કરવું વિપરિણામ નુપ્રેક્ષા છે. ઔપપાતિ } સૂત્રના ૩૦ માં સૂત્રમાં કહ્યું છે- શુકલધ્યું ન ચાર પ્રકારતા Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका म.७ .७५ च. शुक्लध्यानस्थ स्वाम्यादिप्ररूपणम् ५४५, वर्त्त ४ इवि || शुक्रस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि मज्ञप्तानि तद्यथा विवेकः १ व्युत्सर्गः २ अव्यथम् ३ असम्मोह : ४ शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चत्वार्यालम्बनानि ज्ञवानि, तथा क्षान्तिः १ मुक्तिः २ आर्जवम् ३ मार्दवम् । शुवलस्य ध्यानस्य चत्वारोऽनुप्रेक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अपायाऽनुप्रेक्षा १ अशुभानुपेक्षा २ अनन्तवृत्तिताऽनुप्रेक्षा ३ विपरिणामानुप्रेक्षा ४ इति । तदेवदध्यानम् || २०७४ || ... मूलम् - पढमा बे सुक्कझाणा पुव्वधरस्स, उवसंतखीण कसायाणं य ॥७५॥ छाया - प्रयमे द्वे शुक्ले ध्याने पूर्वपरस्य, उपशान्तक्षीणकपाययोश्च ॥७५॥ प्रकार का है और चार पदों में उसका अवतरण होता है, यथा(१) पृथक्त्वति सविचारी (२) एकत्वविन अविचारी (३) सूक्ष्म क्रिया - अप्रतिपाती और (४) समुच्छिन्नक्रिया अनिवर्ति शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गए हैं - विवेक, व्युत्सर्ग, अन्यथ और असंमोह । शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे हैं क्षमा, मुक्ति, आर्जव और मार्दव | शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं है-मपायानुपेक्षा, अशुभातुप्रेक्षा, अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा और चिपरिणामानुपेक्षा है ॥ ७४ ॥ 'पढमा वे सुकझाणा' इत्यादि ॥७५॥ सूत्रार्थ - प्रथम के दो शुक्लध्धान पूर्ववर को उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय को होते हैं ॥ ७५ ॥ છે અને ચાર પદોમાં તેનું અવતરણ થાય છે, યથા-(૧) પૃથતિક सवियार (२) त्ववित अवियार ( 3 ) सूक्ष्मडिया - अप्रतिपाती याने (४) सभुमिछन्नडिया अनिवर्ति શુકલધ્યાનનાં ચાર લક્ષણ કહેવામાં આવ્યા છે વિવેક, વ્યુત્સગ અન્યથ અને અસમાહ. શુ લધ્યાનમાં ચાર અ લેખન કહ્યા છે, ક્ષાંતિક્રુતિ, આવે અને માદવ. શુકલધ્ય નની ચાર અનુપ્રેક્ષ એ ?-અપાયાનુપ્રેક્ષા અશુભાનુપ્રેક્ષ, અનંતવૃત્તિતાનુપ્રેક્ષા અને વિપરિણામાનુપ્રેક્ષા ll૭૪ in 'पढमा बे सुक्रज्झाण' त्याहि સૂત્રા --પ્રથમના બે શુકલધ્યાન પૂર્વધરરે, ઉપશાંતકષાય અને ક્ષીણુ ܀ કષાયને થાય છે. ૫ ૭૫ ૫ त० ६९ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ तरबार्थ दीपिज्ञा-पूर्व तावद् यथाक्रम प्रत्येका आर्तरौद्रधर्मशुक्ल चतुर्विधमपि चातुर्विधयेन प्रतिपादितम्, सम्पति-चतुर्विधस्य शुक्लधधानस्य के स्वामिनः सन्ति ! काय कल्य तच्चतुर्विधमपि शुक्लध्यानं भवतीति प्ररूपयितुं प्रथम तावद् आदिमद्वयं, कस्य कस्य सम्भातीति प्रतिपादयति-पढमा वे सुक्कझाणा इत्यादि । पूर्वोक्तेषु चतुर्विधेषु शुक्लध्यानेषु प्रथमे-आये द्वे शुक्लेध्याने पृथक्त्व वितर्कसविचारम् एकत्ववितको विचारम् पूर्वधरस्थ, तथा उपशान्तक्षीणक्षपाययोश्च भवतः, ते द्वे ध्याने चतुर्दशपूर्वधरल्यैव भवतः नस्वकांदशाङ्गविदः श्रुतकेवलिनः । पूर्व यत्-उपशान्तशपाययों धर्मध्यानं प्रोक्तम्, तद्-अविशेषेण सामान्यतया मोक्तम्, किन्तु-तयो-३ शुक्लध्याने अपि भवतः न खलु-तयोश्चतुमकारकमपि शुक्लध्यानं भवतीति बोध्यम् । तथा च-श्रेण्यारोहणात् प्राक, तरवार्थदीपिका-पहले अनुभव से आती, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान के चार-चार भेद आहे गए हैं, अब यह निरूपण करते हैं कि चारों प्रकार के शुक्लध्यान शिह-किल को होते हैं ? किस का स्वामी कौन है? पूर्वोक्त चार प्रकार के शुक्लध्यानों में से प्रारंभ के दो. शुक्ल ध्यान-पृथक्त्ववितर्क विचार और एनत्ववितर्क विचार प्रायः पूर्वो के धारक मुनि को होते है लदा उपशान्तक.पाय और क्षीण कषाय वीतरागों को होते हैं। तात्पर्य यह है कि ये दोनों शुक्लध्यान प्रायः चौदह पूर्वो के ज्ञाता शुनकेशली को ही होते हैं, पहले उपशान्तकषाय और क्षीण कषायको जो धर्मध्यान कहा गया है, वह सामान्य रूप से कहा गया है, किन्तु उनको दो शुक्लध्यान भी होते हैं। उनको चारों प्रकारका शुक्लध्यान नहीं होता। श्रेणी पर आरूढ होने से पहले अर्थात् તત્ત્વાર્થદીપિક–પહેલા અનુકમથી આત, રૌદ્ર, ધર્મ અને શુકલધ્યાનનાં ચાર ભેદ કહેવામાં આવ્યા હવે એ નિરૂપણ કરીએ છીએ કે ચારે પ્રકારના શુકલધ્યાન કેને કેને થાય છે. કયા ધ્યાનનો સ્વામી કેણ છે? પૂર્વોકત ચાર પ્રકારનાં શુકલધ્યાનમાંથી પ્રારંભના બે શુકલધ્ય નપૃથકવવિ સવિચાર અને એકવિતર્ક અવિચ પ્રાયઃ પૂર્વેનાં ધારક મુનિને હોય છે તથા ઉપશાંત થાય અને શ્રી કષાય વીતરાગોને થાય છે. તાત્પર્યો એ છે તે આ બંને શુકલધ્યાન રાય ચૌદ પૂર્વેના તા થનકેવળીને જ થાય છે પહેલાં ઉપશાંત થાય અને ક્ષે કષાયને જે ધર્મધ્યાન કહેવામાં આવ્યા છે તે સામાન્ય રૂપથી કહેવામાં આવ્યા છે પરંતુ તેમને બે શુકલધ્યાન થાય Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ लू.७३ च.शुक्लध्यानस्य स्वाम्यादिप्ररूपणम् ५४७ अपूर्वकरणात्पूर्वमेव चतुर्थाद् गुणस्थानाद-सप्तमगुणस्थानं यावद् धर्मध्यान भवति, किन्तु-अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिभरणे, सूक्ष्मसम्पराथे, उपशान्तकषाये चेति गुणस्थानचतुष्टये पृथक्त्ववितर्कसविचारं नाम प्रथमं शुक्लध्यानं भवति क्षीणकषायगुणस्थानेतु-एकत्ववितर्काऽविचारं नाम द्वितीयं शुक्लध्यानं भवति उक्तश्व-निजात्म द्रव्यमेकंत्रा, पर्याय अथवा गुणम् । .. निश्चलं चिन्त्यते यत्र तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥१॥ इति भावः एवम्-उपशान्तमोहरू एकपायरन क्षीणमोहकषायस्य चाऽपि प्रथमद्वयंपृथक्त्ववितर्कसविचाररूपम्, एकवविवाऽविचाररूपश्च शुक्लध्यान भवतीति बोध्यम् ॥७४॥ ___तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावद् ध्यानं चतुर्दिधलपि-आतरौद्र धर्म शुक्लरूपं अपूर्वकरण नामक आठवे गुणस्थान से पूर्व, चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक धर्मध्यान होता है किन्तु अपूर्ण करण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तकषाय-इन चार गुणस्थानों में पृथक्त्व वितर्कविचार नामक प्रथम शुक्लध्यान होता है । क्षीण कषाय में एकस्ववितर्क-विचार नामक दूसरा शुक्लचाल होता है। कहा भी है-एक निजात्मद्रव्य का, पर्याध का अधक्षा गुण का निश्चल रूप से जिस ध्यान चिन्तन किया जाता है, उसे विद्वान् जन एकत्व कहते हैं ।। . . ___इस प्रकार ऐला समझना चाहिए कि उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय को प्रारंभ के दो-पृथक्त्ववितर्कलाविचार और एकत्ववि. तर्क-अविचार नामक दो शुक्लध्यान होते हैं ॥७॥ सत्यार्थनियुक्ति-पहले चारों धानों के चार-चार भेदों का , . છે-તેમને ચારે પ્રકારના શુકલધ્યાન થતાં નથી. શ્રેણી પર આરૂઢ થતાં પહેલા અર્થાત્, અપૂર્વકરણ નામક આઠમા ગુરુસ્થાન સુધી ધર્મધ્યાન થાય છે. પરંતુ અપૂર્વકરણ અનિવૃત્તિકરણ, સૂમસાંપરાય અને ઉપશાંતકષાય આ ચાર ગુણસ્થાનેમાં પૃથક વિતર્ક સવિચાર નામક પ્રથમ શુક્લધ્યાન હોય છે. ક્ષણિકષાયમાં એકવિતર્ક અવિચ ૨ નામક બીજુ શુકલધ્યાન પણ હોય છે કહ્યું પણ છે ” એક નિજાભદ્રવ્યનાં પર્યાયનું અથવા ગુણનું નિશ્ચલ રૂપથી જે ધ્યાનમાં ચિંતન કરવામાં આવે છે તેને વિદ્વાનજન એકત્ર કહે છે૧ આ રીતે એમ સમજવું જોઈએ કે ઉપશાંતકષાય અને ક્ષીણકષાય ના પ્રારંભના પ્રથકવિતર્ક સવિચાર અને એકત્વવિતર્ક અવિચાર નામક मे शुतध्यान डाय छे. ॥ ७५ ॥ તત્વાર્થનિયુક્તિ–પહેલા ચારે ધ્યાનેના ચાર ચાર ભેદનું નિરૂપણ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ सूत्रे ५४८ प्रत्येकं चतुर्विधं प्ररूषितम्, सम्प्रति चतुर्विधस्य शुक्लध्यानस्य कः कः स्वामी भवति, कस्य – कह पुरुवस्य एतच्चतुर्विधं शुक्लध्यानं भवतीति प्ररूपयितुं प्रथमं प्रथमयं शुक्लध्यानं रूपयति- 'पढमा वे सुक्का झाणा पुत्रवधरस्स उवसंत खीणकायाणं 'व' इति । प्रथमे पूर्वोक्तेषु चतुर्विधेषु शुक्लध्यानेषु आधे-द्वे शुक्लध्याने पृथक्त्वदिसविचारं 'एकविचारं च पूर्वस्य चतुर्दश पूर्वधारिणो भवतः । एवम् - उपशान्तमोहरूपायस्य, क्षीणमोहकषायस्य चाऽपि प्रथमद्वयं शुक्लध्यानं पृथक्त्ववितर्कस विचाररूपम्, एकस्ववितर्काविचाररूपञ्च भवति । तत्र - उपशान्ताः कषायाः मोहरूपा यस्य स उपशान्तकषायः एकादशगुणस्थानवर्ची खलु व्यपदिश्यते । एवं क्षीणाः कपाया मोहा यस्य स क्षीणकषायः, तयोरपि द्वयो:-पृथक्त्व वितर्क विचारकत्व वितर्काविचाररूपें निरूपण किया गया, अब शुक्लध्यान से चारों भेदों के स्वामियों का अर्थात् कौन-सा शुक्लध्यान किसको होता है, इस बात का कथन करते हैं । इसमें भी पहले प्रारंभ के दो शुक्लध्यानों के स्थामियों का निर्देश करते हैं - प्रथम के दो अर्थात् पृथक्त्ववितर्कसविचार और एकत्ववितर्क अविचार नामक दो शुक्लध्यान चतुर्दशपूर्वधारी को ही होते है, इसी प्रकार उपशान्तकपाय और क्षीणकषाय को भी होते हैं। जिसके समस्त कषाय उपशान्त हो चुके हों उसे उपशान्त कषाय कहते हैं और जिसके समस्त कषायों का क्षय हो चुका हो वह क्षीण कषाय कहलाता है। इनके भी पृथक ववितर्कविचार और एकस्ववितर्कअविचार नामक शुक्लध्यान होते हैं। पृथक्त्व का अर्थ अनेकत्व है, उसके साथ सविचार जो वितर्क કરવામાં આવ્યું. હવે શુકલધ્યાનના ચારે ભેડ્ડાના સ્વામીઓનું અર્થાત્ યુ શુકલધ્યાન કાને હાય છે એ વિષયનુ કથન કરીએ છીએ. તેમાં પણ પ્રથમ પ્રારંભના એ શુકલધ્યાનના સ્વામીઓના નિર્દેશ કરીએ છીએ પ્રથમના બે અર્થાત્ પૃથક્વક વિચાર અને એકવિતર્ક અવિચાર નામક એ શુકલધ્યાન ચૌદ પૂર્વ ધારીને જ હાય છે. એવી જ રીતે ઉપશાંતકષાય અને ક્ષીણકષાયને પગુ હાય છે. જેના સમસ્તકષાયે ઉપશાંત થઈ ગયાં છે તેને ઉપશાંતકષાય કહે છે અને જેના સમસ્તકષાયાના ક્ષય થઇ ચૂકયા હાય તે ક્ષીણુકષાય કહેવાય છે આમને પણ પૂથતિ સવિચાર અને એકત્વવિતર્ક અવિચાર નામક શુકલધ્યાન હોય છે. પૃથ્વનો અર્થ અનેકલ છે, તેની સાથે સવિચાર જેવતક છે. તે Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.७५ च.शुक्लध्यानस्य स्वास्यादिप्ररूपणम् ५४९ शुक्लध्याने-आये द्वे भवतः । तत्र-पृथक्त्वम् अनेकत्वम् तेन सह गमो वितर्कः सविचारं यत्र भवेत् तत्-पृथक्त्ववितकमविचारं नाष शुक्लध्यानम्, पृथक्त्वमेव वा वितर्कसहमत वितर्कपुरोगतं सविचारसहितं यत्र तत्-पृथक्त्ववितर्कसविचारम्, तच्च-परमाणुजीवादावे कद्रव्ये-उत्पदव्ययध्रौव्यादि पर्यायाsनेकतयाऽपि यत्-पत् तत् तत्पृथक्त्वेन तस्य चिन्तनं वितर्क यहचरितं सविचारं च यत् तत् पृथक्त्वमेव वा वितर्क सहगत वितर्कपरोगतं विचारसहित यत्र तत्-पृथक्त्व वितर्कमविचार शुक्मध्यानं प्रथम मुख्यते, विचारः पूर्वगत श्रुवाऽनुसारेणाऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः अर्थाद-व्यञ्जने व्यञ्जने व्यञ्जनाद् अर्थ संक्रान्तिः एवम्-मनोयोगात् काययोगसंक्रमणम्-वाग्योगसक्रमणं वा विचारः । एवं-काययोगाद् मनोयोग सङ्क्रमणम् धागयोगसंक्रमणं वा, एवंवागयोगात् मनोयोगसंक्रमणं काययोगसंक्रमण वा विचार उच्यते । यत्र योगसंक्रमण भवति तत्रैव निरोधो ध्यान सविचारं भवतीति भावः । है वह पृथक्त्ववितर्क सविचार नामक शुक्लध्यान कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जिस ध्यान में वित्तक अथवा श्रुन का आलम्बन लिया जाता है, जिसमें अर्थ, व्यंजन एवं योग का संक्रमण होता रहता है और साथ ही योग का भी परिवर्तन होता रहता है, वह पृथक्त्व वित्त विचार नामक शुक्लध्धान कहलाता है । विचार का अर्थ पूर्वगत श्रुत के अनुसार अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण होता है-अर्थ से व्यंजन में और व्यंजन से अर्थ में संक्रमण होता रहता है। कभी मनोयोग से काययोग में संक्रमण होता है, कभी वचन योग में यह संक्रमण विचार कहलाता है । इसी प्रकार कामयोग ले मनोयोग या वचनयोग में संक्रमण होना लशा वचनयोग से मनोयोग या काययोग में संक्रमण होना भी समझ लेना चाहिए । जहां योग का પૂથ–વિતર્કસવિચાર નામક શુકલધ્યાન કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે દયાનમાં વિત્તક અથવા મૃતનું આલંબન લેવામાં આવે છે જેમાં અર્થવ્યંજન તેમજ યે.ગનુ સંક્રમણ થતું રહે છે અને સાથે સાથે વેગ પણ પરિવર્તન થતું રહે છે તે પૃથકત્વવિતર્ક સવિચાર નામક શુકલધ્યાન કહેવાય છે. વિચારને અર્થ પૂર્વગત અનુસાર અર્થ વ્યંજન અને ગનું સંક્રમણ થ ય છે અર્થથી વ્યંજનમાં અને વ્યંજનથી અર્થમાં સંક્રમણ થતું રહે છે. કયારેક મનેગથી કાયવેગમાં સંક્રમણ થાય છે. કદી વચનગમાં આ સંક્રમણ વિચાર કહેવાય છે. એવી જ રીતે કાયોગથી મ ગ અથવા વચનગમાં સંક્રમણ થવું તથા વચનગથી મનગ તથા કાયોગમાં સંક્રમણ પણ સમજી લેવા જોઈએ જ્યાં રોગનું સંક્રમણ થાય છે ત્યાં જ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्रे अथ द्वितीयं शुक्लध्यानम्' एकम्बवितर्कम् अविचार मुच्यते, एकस्य भावः एकत्वम्, एकत्वगतो वितर्को विचाररहितो यत्र, तत् - एकत्ववितर्काविचारम् नामद्वितीयं शुक्लध्यानं भवति, एकः कचिद् योग त्रयाणामन्यतमः अर्थो व्यञ्जनं चैकमेव एकपर्याय चिन्तनम् - उत्पाद - व्यय धौव्यादि पर्यायाणामेकस्मिन्नेव पर्याये faceस्थत दीपशिखाराजिवद् निष्मकम्पं पूर्वगतश्रुतानुसारि च चित्तं निर्विचारं यद्भवति तदेकत्ववितर्कम विचारं व्यपदिश्यते । उक्तञ्च - 'क्षीणकषायस्थानं, तस्प्राप्य ततो विशुद्धलेश्यः सन् । एक वितर्कादिचारं ध्यानं ततोऽध्येति ॥ १॥ इति + ५५० संक्रमण होता है वहीं ध्यानसविचार होता है। दूसरा शुक्लध्यान एकत्ववितर्क- अविचार कहलाता है। एक का भाव एकस्व कहलाता है। जो एकत्वरूप हो ऐसा विर्क एकत्ववि तर्क है। वह विचाररहित होने से दूसरा शुक्लध्वान एकत्व वितर्कअविचार कहा गया है। इसमें तीनों योगों में से एक योग होता है। अर्थ और व्यंजन (शब्द) भी एक ही होता है। किसी एक पर्यायका चिन्तन होता है । इस प्रकार उत्पाद, व्यय और प्रौग्ध आदि पर्यायो में से किसी एक पर्याय में, वायुविहीन गृह में स्थित दीपक की शिखा के निष्कप चित्त होना एकत्ववितर्क - अविच र ध्यान कहलाता है । यह ध्यान भी प्रायः पूर्वगत श्रुत के आलम्बन से ही होता हैकहा भी है । atara सुनि क्षीणकषाय स्थान को प्राप्त करके विशुद्ध लेश्याबाला होकर hrefधतकीविचारध्यान ध्याता है ॥१॥ समान ધ્યાનસુવિચાર થાય છે ખીજી શુલધ્યાન એકત્લવિત વિચાર કહેવ ય છે. એક ના ભાવ એકત્વ કહેવાય છે જે એકરૂપ હોય એવા વિતક એકત્રિત છે. તે વિચાર રહિત હૈાત્રાથી ખીજું શુકલધ્યાન એકતિ—અવિચારી કહેવાયુ છે. આમાં ત્રણે ચાગેામાંથી એક ચેાગ હોય છે, અર્થ અને વ્યંજન (શઃ) પણ એક જ હૈય છે કાઇ એક પર્યાયનું ચિન્તન હેાય છે. આવી રીતે ઉત્પાદ વ્યય અને ધ્રૌવ્ય આદિ પર્યાયામાંથી કાઈ એક પર્યાયમાં વાયુરહિત ઘરમાં સ્થિત દીપાની વાટની જેમ, નિષ્કપ ચિત્ત હાથું એકવિતર્ક અવિચાર ધ્યાન કહેવાય છે. આ ધ્યાન પણ પ્રાયઃ પૂગત શ્રુતના આંખનથી જ થાય છે કહ્યુ પણ છે વીતરાગ મુનિ ક્ષીણુ કષાય સ્થાનને પ્રાપ્ત કરીને વિશુદ્ધ લેશ્માવાળા થઇને એકત્ર વિતર્કવિચાર ધ્યાન ધ્યાવે છે ૧૫ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - दीपिका-निर्युक्ति टीका म.७ खू.७६ अन्तिमद्वयं शु. कस्य भवतीतिरूपणम् ५५१ ___ तथाचाऽष्टाविंशतिमकारकमोहनीयकोपशमा दुपशान्तकषायवीतराग श्छमस्था छद्मनि-आवरणे सियसत्त्रात् छद्मस्थश्च उच्यते, मोहनीयस्य कृत्स्न क्षयात् स क्षीणकषायवीतरागः छद्मस्थश्च धर्मध्यान शुक्लाऽऽद्यद्वरधानविशेषात् यथाख्यातसंयमविशुद्धयाऽवशेषाणि कर्माणि क्षपयति । तत्र-द्विचरमसमये इति चरम समयद्वयावशिष्टे निद्रा-भचले क्षपयति, ततोऽस्य चरमसमये ज्ञानदर्शनावरणद्वयान्तरायरूप कर्मत्रिक क्षयात् केवलज्ञानदर्श नापजायते ॥७॥ मूलम्-चरमा बे केवलिस्त ॥७॥ छाया-'चरमे द्वे केवलिन:-॥७६॥ जिन्होंने अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म का उपशान कर दिया है वे उपशान्त कषाय वीतराग छमात्र कहलाते हैं। छह अर्थात् आवरण में जो स्थित हो वह छद्मस्थ कहा जाता है। मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर देने वाला क्षीण कषाय कहलाता है अगर ऐसा मुनि बारहवें गुणस्थान में हो तो ज्ञानावरणादि के उदय के कारण छमस्थ होता है। यह क्षीणकषाय वीतराग छद्रस्थ धर्मध्यान और शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों से तथा यथाख्यात संयम की विशुद्धता के प्रभाव से शेष घातिक कर्मों को युगपत् क्षय कर डालता है। वह द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला प्रकृतियों का क्षय कर के चरम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इन तीनों का क्षा करता है और केवल ज्ञान, केवल दर्शन और अनन्त धीर्य को प्राप्त कर लेता है ॥७५॥ જેઓએ અઠયાવીસ પ્રકારના મહનીય કર્મને ઉપશમ કરી દીધો છે તે ઉપશાતકષાય વીતરાગ વસ્થ કહેવાય છે. મેહનીય કર્મને સર્વથા ક્ષય કરનાર ક્ષીણકષાય કહેવાય છે. આવી રીતે છવ્ર અર્થાત્ આવરણમાં જે સ્થિત હોય તે છસ્થ કહેવાય છે. જે એ મુનિ બારમાં સ્થાને હોય તે જ્ઞાનાવરણાદિના ઉદયના કારણે છસ્થ હોય છે. આ ક્ષીણકષાય વીતરાગ છદ્મસ્થ ધર્મધ્યાન અને શુકલધ્યાનના પ્રથમના બે ભેદથી તથા યથાખ્યાત સંય. મની વિશુદ્ધતાના પ્રભાવથી શેષ ત્રણ ઘાતિ કર્મોને યુગપત ક્ષય કરી નાખે છે. તે દ્વિચરમ સમયમાં નિદ્રા અને પ્રચલા પ્રકૃતિઓનો ક્ષય કરીને ચરમ સમયમાં જ્ઞાનાવરણ દર્શનાવરણ અને અન્તરાય ત્રણેને ક્ષય કરે છે અને કેવળજ્ઞાન, કેવળદર્શન અને અનન્તવીર્યને પ્રાપ્ત કરી લે છે ! Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ . तस्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे-पृथक्त्ववितकरूपम्-एकस्ववितकरूपश्च प्रथम द्वयं शुक्लध्यानं चतुर्दश पूर्वधरस्य एकादश गुणस्थानवतिन उपशान्तकषायस्य क्षीणकषायस्य च भवतीति प्रतिपादितम्, सम्पति अन्तिमद्वयं शुक्लध्यानं सूक्ष्मक्रियाऽनिवृतिरूपं समुच्छिन्नक्रियापतिपाति रूपञ्च क्रमशः केवलिन एव त्रयोदश चतुर्दश गुणस्थानबर्तिलो भवति, न तु-छद्मस्थस्य । तत्र-सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्तिरूपं तृतीयं शुक्लयानं सयोगस्य वीतराग केवलिनो भवति तस्य त्रयोदश गुणस्थान पतित्वात् । सक्षमक्रिया-हायिकी उच्छवासादिका यत्र तत् सक्षमक्रियम् न निवर्तते-अव्युच्छिन्न क्रियाऽपतिपातिध्यानावाप्तेरित्यनिवर्ति, सूक्ष्म क्रियश्च तद् अनिवति चेतादृशं ध्यानं सूक्ष्म क्रियाऽनिवति व्यपदिश्यते तच्च-योग निरोधकाले 'चश्मा दे देवलित। सूत्रार्थ-अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली में पाये जाते हैं ॥७६।। तत्वार्थदीपिक्षा- पूर्वसूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि पृथक्त्व वितर्क तथा एकत्वचितर्क रूप दो शुक्लध्यान मायः चौदहपूर्षों के धा. रक ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान वर्ती उपशान्त कषाय और क्षीण, कषाय को होते हैं, अब यह प्रतिपादन करते है कि अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली को ही होते हैं सूक्ष्मनियानिनि नामक तीसरा शुक्लध्यान सयोग केवली को होता है । जो तेरहवें गुगस्थानी होते हैं । उच्छवास आदि शारीरिक किया जिस ध्यान में निरुद्ध नहीं होती और जो अप्रतिपाति होता है वह सक्षमक्रियानि ध्यान कहलाता है। यह ध्यान योगों का निरोध करते समय होता है। 'चरमा वे केवलिस्स' या સુવાર્થ– અન્તિમ બે શુકલધ્યાન કેવલીમાં હોય છે. પાછા તવાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે પૃથકુવવિતર્ક તથા એકત્રવિતર્ક રૂપ શુકલધ્યાન પ્રાયઃ ચૌદ પૂર્વેના ધારક-અગીયારમાં અને બારમાં ગુણસ્થાનવતી ઉપશાકષાય અને ક્ષીણુકષાયને હોય છે. હવે એ પ્રતિપાદન કરીએ છીએ કે અન્તિમ બે શુકલધ્યાન કેવળીને જ હોય છે સૂમક્રિયાનિવર્તિ નામક ત્રીજુ શુકલધ્યાન સોગ કેવળીને હોય છે, જે તેરમાં ગુણસ્થ નવત્તી હોય છે. ઉચ્છવાસ આદિ શારીરિક ક્રિયા જે ધ્યાનમાં નિરૂદ્ધ થતી નથી અને જે અપ્રતિપાતી હોય છે તે સૂક્ષ્મક્રિય નિવૃત્તિ ધ્યાન કહેવાય છે. આ ધ્યાન રોગને નિરોધ કરતી વેળાએ થાય છે. આ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका २.७ ६.७६ अन्तिमद्रयं शु. कस्य भवतीतिप्ररूपणम् ५५३ भवति । समुच्छिन्न क्रिषाऽपतिपातिरूपं चतुर्थ शुक्रुध्यानन्तु - अयोगिनो वीतराग harat भवति । तस्य चतुर्दश गुणस्थानवर्तित्वात् समुच्छिन्ना-विनष्टा सुक्ष्माsft क्रिया उच्छवासादिका यत्र तत् समुच्छ्न्निकिम् तच्च तत् अपविपाति अनु परतिशीकमिति समुच्छिन्न क्रियातिपातिनामकं चतुर्थ शुक्लध्यान मुच्यते ॥७६ तत्वार्थनियुक्ति:- पूर्व खावत् प्रथमद्वयं शुक्रुध्यानं प्रतिपादितम्, सम्पति चरमद्वयं शुक्लध्यानं प्रतिपादयितुमाह-चरण वे केवलिस' इति चरमे अन्तिमे द्वे शुक्लध्वाने सक्ष्म क्रियानिवर्ति- समुच्छिन्नक्रियापतिपातिरूपे केवलिनः क्रमः सयोगिक्षेत्र लिनः अयोगिकेवलिनश्च भवतः न तु छद्यस्थस्य तत्र - सयोगिवीतरागकेवलिन त्रयोदश गुणस्थानवर्तित्वात् सुक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति रूपं तृतीयं शुक्रानं भवति, अयोगि केवलन तु चतुर्दश गुणस्थावर्तिस्वात समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती नामक चौथा शुक्लध्यान अयोगी केवली को होता है, जो चौदहवें गुणस्थान में होते हैं। जिस ध्यान में उच्छवास आदि सूक्ष्म क्रिया भी निरुद्ध हो जाती है और जो अि पाती होता है, वह समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाली नामक चौथा शुक्लध्यान कहलाता है || ७६ || तच्चार्थनियुक्ति-दो प्रारंभ के शुक्लध्यानों का निरूपण किया जा चुका अब अन्तिम दो का निरूपण करते हैं अन्तिम दो शुक्लध्यान सूक्ष्मक्रियानिवर्ति और समुच्छिन क्रियाअप्रतिपाति क्रमशः योग केवली और अयोग केवली को होते हैं, छद्मस्थ को नहीं होते । इनमें से लोग केवली तेरहवें गुणस्थान में होते हैं. ः क्रियानिवर्ति नामक तीसरा शुक्लध्यान होता है और प्रयोग के थलो चौदहवें गुणस्थान में होते हैं, इस कारण સમુચ્છિન્ન ક્રિયાઅપ્રતિપાતી નામક ચેાથુ શુકલધ્યાન ઋચાગ કેવળીને થાય છે જેએ ચૌઢમાં ગુરુસ્થાનમાં હેાય છે. જે ધ્યાનમાં ઉચ્છવાસ આદિ સૂક્ષ્મ ક્રિયા પણ નિરૂદ્ધ થઈ જાય છે અને જે અપ્રતિપાતિ હાય છે, તે સમુચ્છિન્ન ક્રિયાપ્રતિપાતી નામક ચેાથુ' શુકલ પાન કહેવાય છે. ૫૭૬lu તત્ત્વાથ નિયુક્તિ--પ્રારંભના એ શુકલધ્યાને'નું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયુ,, હવે અતિમ એનું નિરૂપણ કરીએ છીએ- અન્તિમ એ શુકલધ્યાન સૂક્ષ્મક્રિયાનિવૃત્તિ અને સમુચ્છિન્ન ક્રિયાપ્ર તિપાતી ક્રમશ: સયેન્ગ કેવળી અને અયાગ કેનળી ને ડાય છે, છાસ્થને હાતા નથી આામાંથી ઋચાગી કેવળી તેરમા ગુણાનમાં હોય છે આથી તેમને મક્રિયાનિવા નામક ત્રીજુ શુકલધ્યાન હાય છે અને અચેગીકેવળી ચોકમાં ગુણુસ્થાનમાં હોવાના કારણે તેમને સમુચ્છિન્નક્રિયા–અપ્ર त० ७० Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ सूत्रे समुच्छिन्नक्रियामतिपातिल चतुर्थी शुवलयानं भवतीति भावः । तथाहिद्वितीय शुध्याय द्विवरमयेाः केवलो जघन्येान्तमुतम् एक्कष्टेन देशोनवर्षाणि विहन्य ततो वेदनीय नाम गोत्राख्यानां त्रयाणां कर्मणां धारणीयाsयुष्कर्सनोऽधिक स्थितिकाना माथुष्कर्म समीकरणार्थं समुद्यतं करोति ततोsa क्ष्पक्रियानिवर्ति बापकं तृतीयं ध्यायन् सक्षमकाय atra tarasarana frरुणद्धि, ताम्यस्याष्टम्भनीय योगान्तरस्याऽसद्भा वात् । तानसामर्थ्याच्च बदमोदरादिविवत्पृष्णात सङ्कचित देहविभागव पदेशो भवति । तत्राऽयं क्रमः - सक्षमनिवर्त्तिरूपं तृतीयं ध्यानं ध्यायन् Raat Garartner सनिव्याणि समये समये निरुन्धन् उन्हें मधुच्छन्नकिया- अप्रतिपाति बालक चौथा शुक्लध्यान होता है। द्वितीय शुक्र के द्विचरम समय में केवलज्ञान प्राप्त करके heat or हरी और कृष्ट देशोन करोड पूर्व तक विचरण करने के पश्चात् वेदनीय. नाम और गोत्र कार्य की स्थिति यदि आयु कर्म से अधिक जानते हैं तो पति को बराबर करने के लिए समुद्घात करते हैं । फिर वे सूक्ष्मक्रियानिवर्ति नामक तीसरा शुक्लध्यान आरंभ करते हुए अपने ही आलम्पन से सूक्ष्म काययोग का निरोध करते हैं क्योंकि उस समय न देने योग्य दूसरा कोई योग होता नहीं है। उस ध्यान के सामर्थ्य से सुख और उदर आदि के छिद्रों को पूरित कर देने के कारण आत्मप्रदेश संकुचित देह भागवर्ती हो जाते हैं । उसमें क्रम यो सूक्ष्मकिपानिवर्ति नामक तीसरे ध्यान को प्रारंभ करते हुए केवली भगवात् जन्य योग वाले संज्ञी पर्याप्त તિપાતી નામક ચેાથુ' શુકલધ્યાન હાય છે. ५५४ દ્વિતીય શુકલપ્રાનના દ્વિચરમ સમયમાં કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને જન્ય અન્તર્મુહૂત્ત અને ઉત્કૃષ્ટ દેશેાન કરેડ પૂત્ર સુધી વિચરણ કર્યાં ખાદ વેદનીય નામ અને ગાત્ર કર્મની સ્થિતિ જે માયુષ્ય ક`થી અધિક જાણે તેા તેમની સ્થિતિ સરખી કરવા માટે સમુદ્ઘ ત કરે છે. પછી તેઓ સુક્ષ્મક્રિયાનિવત્તી ન મક ત્રીજુ શુલધ્યાન આરભ १२ता पोताना - શ્મનથી સૂક્ષ્મકાયયેાગના નિર્દેશધ કરે છે કારણ કે તે સમયે અવલમ્મન રાખવા લાયક ખીલે કેાઈ ચૈાગ હાતા નથી, તે ધ્યાનના સામર્થ્યથી મુખ તેમ જ ઉત્તર આદિના છિદ્રોને પૂર્ણ કરી લેવાના કારણે આત્મપ્રદેશ સંકુ ચિત દેહભાગવત્તી થઈ જાય છે તેમાં ક્રમ આ પ્રમાણે છે. સૂક્ષ્મક્રિયા નિવૃત્તિ નામ ત્રીજા પાનના પ્રારંભ કરતા થકા કેમલ ભગવાન જઘન્ય ચેાગવાળા ની પર્યાપ્ત જીવને ચાગ્ય....મનદ્રવ્યાને પ્રત્યેક સમયમાં Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ सू. ७६ अन्तिमद्वयं शु करय भवतीतिप्ररूपणम् ५५५ असंख्यातसमयैः सम्पूर्ण मनोयोगं निरुद्ध, तत्ववाद पर्याप्त द्रोन्द्रियस्य वाग्योग पर्यायतोऽसंख्यातगुणहीनवाग्योगपर्यायान् प्रतिसमयं निरुन्धन् असंख्यात समयैः समस्तवायोगं निरुणद्धि । प्रथमसमयसमुत्पन्ना पर्याप्त निगोद जीवस्य जघन्य कायगतोऽसंख्यातगुणहीनकाययोगं प्रतिसमयं निरुन्धन् असंख्यात्सयें बदरकाययोगं च सर्वथा निरुर्णाद्ध वदेदं तृतीयं सूक्ष्मक्रियानिवर्ति नामकं ध्यानं भवति । ततः स भदोषग्राहि कर्मक्षपणार्थ aartaa गत्यन्तापकरूपं परमनिर्जराकारण चतुर्थं समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति नामकं यानं पतिपित्सु योगनिरोधार्ध सुपते । ततोऽसौ चतुर्थे समुच्छिन्नजीव के योग्य मनोद्रव्यों का प्रत्येक समय में विरोध करते हुए सम्पूर्ण मनोयोग का निरोध कर देते हैं । पखात् पर्याप्त वीन्द्रिय जीव के वचन योग से असंख्यात गुणहीन वचनयोग के पर्यायों को प्रतिम निरुद्ध करते हुए असंख्यात समयों में सम्पूर्ण वचनयोग का निरोध करते हैं । नन्तर प्रथम समय में उन अपर्याप्त निमोदिया जीव के जघन्य काययोग के पर्यायों से भसंख्यात गुणहीन काययोग का समयसमय निरोध करते हुए, असंख्पात सुमयों में बाहर काययोग को सर्वधा निरुद्ध कर देते हैं । उस समय यह तीसरा सूक्ष्मक्रियानिवत्ति नामक शुक्लधान होता है। तत्पश्चात् भोपा र्मोन क्षण करने के लिए देइया से अतीत, अत्यन्त निश्चल उत्कृष्ट निर्जरा के कारणभूत चौथे समुच्छिन्न क्रियाअप्रतिपाती नामक शुक्ला को प्राप्त करने के लिए चोग का सर्वथा કરી દે છે. તપાત નિરોધ કરતાં થકા સમ્પૂર્ણ મનાયેાગના નિરાધ પર્યાપ્ત દ્વીન્દ્રિય જીવતા વચનયેગી અસ ખ્યાતનુહીન વચનચેગના પાંચાને પ્રતિસમય નિરૂદ્ધ કરતા ચૂકા અસખ્યાત સમયેામાં સમ્પૂર્ણ વચનયેાગના નિરોધ કરી છે. તદ્દનન્તર પ્રથમ સમયમાં અપર્યાપ્ત નિગેન્ક્રિયા જીવના જઘન્ય કાયયેાગના પર્યાયેથી અસ ંખ્યાતગુણહીન કાયયેાગના સમય-સમયે નિરાધ કરતા થકા અસંખ્યાત સમયેામાં ભાદર કાયયેાગના સથા નિરોધ કરી તે છે તે સમયે આ ત્રીજુ સૂક્ષ્મક્રિયાનિવૃતિ નામક શુકલધ્યાન હોય છે. ત્યારગાઢ જીવે.પગ્રાહી ર્માંને ખપાવવા માટે લેશ્યાથી અતીત અત્યન્ત નિશ્ચલ, ઉત્કૃષ્ટ નિરાના કારણભૂત ચેાથા સમુચ્છિનક્રિયા અપ્રતિપાતી કરવા માટે ચેાગના સા નિરોધ કરવાના નામ શુકયાનને પ્રાપ્ત અર્થે ઉપક્રમ કરે છે. ચેથા શુકલધ્યાનમાં શ્વાસોચ્છવાસરૂપ સૂક્ષ્મ કાયયોગના Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्त्वार्थस्त्रे क्रियाऽप्रतिपाति ध्याने श्वासोच्छवासरूपं भूक्षमसपि काययोगं निरुध्याऽयोगिरवं भाष्य शैलेगीमवस्थां शैलपद् अविचलामवस्था प्रतिपद्यते ततोऽसौ मध्यमकालेन अ, इ, उ, ऋ ल, इत्येवं रूपं पञ्चहस्वाक्षरोच्चारणसमकालस्थितिकं चतुर्थ समुच्छिन्नक्रियाऽपतिपातिध्यान पनुभवति इत्येवकालानन्तरं मोक्षमाप्तिरवश्यम्भागत् इति ।।७६॥ ____ मूळस्-चउकिहे सुकज्झाणे जहा कम्यति एगकायजोगाजोगाणं ॥७७॥ छाया-चतुर्विधं शुक्लथ्यानं यथाक्रमं येककाययोगाऽयोगानाम् ॥७७॥ तरवार्थदीपियापूर्व तावत्-शुक्लध्यानं चतुर्विध प्रतिपादितम्, सम्पति तेषां चतुर्णा स्थानविशेषनिर्धारणार्थ मुच्यते-'चउबिहे सुलझाणे' इत्यादि निरोध करने के अर्थ उपनल करते हैं। चौथे शुक्लध्यान में श्वासोच्छवास रूप सूक्ष्म लाययोग छानिरोध करके अयोगी दशा प्राप्त करते हैं। इस दशा में वे पर्वत के गुलाम अविचल-अकम्प अवस्था को प्राप्त कर लेते है। इस समय उन्हें समुच्छिन्न क्रिया-अतिपाती ध्यान होता है। मध्यम रूप से अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पांच हस्व स्वरों के उच्चारण में जितना काल लगता है, उतने काल तक ही यह ध्यान रहता है। इसके पश्चात् नियम ले विदेह दशा-मुक्ति प्राप्त हो जाती है ।।७६॥ 'चउन्धिहे नुसज्ज्ञाणे' इत्यादि सूत्रार्थ-चार प्रकार का शुक्लध्धान अतुझन से तीनों योगों वालों को एक योग वाले को, कापयोगीको और अयोगी को होता है ॥७७ तत्वार्थदीपिका-पहले शुवलशान बार प्रकार का कहा गया है। अब उनके स्थान निशेष का निश्चय करने के लिए शहते हैंનિરોધ કરીને, અગી દશા પ્રાપ્ત કરે છે. આ દિશામાં તેઓ પર્વતની માફક અવિચલ-અકલ્પ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરી લે છે. તે સમયે તેઓને સમછિન્નકિયા-અપ્રતિપાતી ધ્યાન હોય છે મધ્યમ રૂપથી અ. ઈ ઉ, , લ, આ પાંચ હસ્ત્ર સ્વરેના ઉચ્ચારણમાં જેટલો સમય લાગે છે તેટલા કાળ સુધી જ આ થ ન ટકી રહે છે. આની પસ્ચાત નિયમથી વિદેહદશામુક્તિ પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. ૭૬ો 'चउबिहे सुबकनाणे' या સુત્રાથ–ચાર પ્રકારના શુકલધ્યાન અનુક્રમી ત્રણે ગાવાળાને એક રોગવાળાને કાયગીને અને અગીને હોય છે, ૭૮ તવાર્થદીપિકા--પહેલા શુકલધ્યાન ચાર પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. હવે તેમના સ્થાન વિશેષને નિશ્ચય કરવા માટે કહીએ છીએ-- Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. सू.७७ चतुर्विधशुवलध्यानस्य स्थाननिरूपणम् ५५७ चतुर्विधं खलु शुक्लध्यानम् पृथक्ताविकि-वितर्क सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति-समुच्छिन्नक्रियाऽनिवर्तिरूपं यथाक्रमं क्रमश स्त्रियोगे-कयोग- काययोगायोगानां भवति । तथा च कायवाङ्मनोयोगत्रय सहितस्य पृथक्त्ववितर्करूपं प्रथमं शुक्लध्यानम् एकयोगस्य योगसंक्रमणकाले कायादि योगान्यतमयोगसहितस्य एकल वितर्करूपं द्वितीये शुक्रुध्यानम् । कययोगस्य - काययोगसहितस्य निरुद्र मनोवाग्योगस्य क्रियातिपातिरूपं तृतीयं शुक्लध्यानम् । अयोगस्य योगरहितस्य तु समुच्छिनक्रियानिवर्तिरूप चतुर्थ शुक्लध्यानं भवतीति भावः | एवञ्च - मनोवाक्कायानामष्टमेनात्मप्रदेशपरिस्पन्दरम् आत्ममदेशचलनरूपं प्रथमं प्रवक्त्वविचारं नाम शुक्लध्यानं भवति । तथाविधत्रियोगेषु मध्ये पृक्वतिर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियानिवर्ति और समुच्छिन्न क्रिया - अप्रतिपाती नामक शुक्लव्धान क्रम से तीनों योगों वाले को, एक योग वाले को, काययोग वाले को और अयोगी को होता है। अर्थात् काययोग वचनयोग और मनोयोग से सहित मुनि को पृथक्त्व वितर्क नामक प्रथम शुक्लध्यान होता है । एक योग वाले को अर्थात् काययोग आदि में से किसी भी एक योग वाले को एकत्व वितर्क शुक्लध्यान होता है। जिसने पचनयोग और मनोयोग का सर्वथा निरोध कर दिया है और जिसमें सिर्फ काययोग ही शेष रह गया है, सूक्ष्मक्रिय - अनिवर्तिध्यान होता है और अयोगी को समुच्छिन्न क्रिअप्रतिपती नामक चौथा शुक्लध्यान होता है । इस प्रकार जत, पचन और काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों में चंचलता जिल ध्यान में रहती है, वह पृथक्त्व वितर्क विचार शुक्ल પૃથતિ, સૂક્-કિય નિત્તિ અને સમુચ્છિન્નક્રિયા—અપ્રતિપાતી નામક શુકધ્યાન કમથી ત્રણે ચેગવાળાને એક ચેાગવાળાને કાયચાગવાળાને અને અયોગીનેહુંય છે અર્થાત કાયયોગ વચનયોગ અને સનાયાગથી સહિત મુનિને પૃથ્રવિત નામક પ્રથમ શુ લધ્યાન હૈાય છે એક ચાગ વાળને અર્થાત્ કાયયોગ આદિમાંથી કેઇ પણ એક ચેગવાળાને એકત્વવિતક શુકલધ્યાન હૈાય છે. જેમણે વચનયેાગ અને મનેાચેગના સર્વથા નિરોધ કરેલ છે અને જેમનામાં માત્ર કાયયેાગ જ શેષ રહી જવા પામેલ છે તેને સૂક્ષ્મ ક્રિય-અનિવૃત્તિ ધ્યાન હોય છે અને અયોગીને સમુચ્છિન્નક્રિય—અપ્રતિ પાતી નામક ચેાથું શુકલધ્યાન હાય છે. આ રીતે મન, વચન અને કાયાના નિમિત્તથી આત્મપ્રદેશમાં ચ‘ચળતા જે ધ્યાનમાં રહે છે, તે પૃથકવિતર્ક સુવિચાર શુકલધ્યાન છે. ત્રણે ચેગા Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ तत्त्वार्थसूत्रे मनोवाकायानामन्यतमाऽवलम्बने ना-ऽऽत्मप्रदेशपरिस्पन्दनं द्वितीयम् एकत्व वितर्क विचारं नाम शुक्लथ्यानं भवति! काययोगमात्राऽवलम्बनेनात्मप्रदेश. चलनं तृतीयं छुक्ष्म क्रियाऽपत्तिपाति नाम शुक्लध्यानं भवति । एकमपि कायादियोगमवलम्ब्याऽऽत्मपदेशचलन चतुथै समुच्छिन्नक्रिपानिवर्ति नाम शुक्लध्यान भवतीति फलितम् ॥७॥ धान है। तीनों योगों में ले किसी एक योग वाले को एकत्व वितर्क शुक्लधरान होता है। जिसके वचनयोग और मनोयोग का सर्वथा निरोध हो चुका है और सिर्फ काययोग शेष रह गया हो, उसे तीसरा शुक्लध्शन सूक्षणक्रिय-अनिवर्ति होता है । चौथा शुक्लध्यान अयोगी को होता है। इस प्रकार शुक्लध्यान में मन वचन और काय योग के आलम्बन से आत्मादेशों में स्पन्दन होता रहता है वह पृथक्व चितर्क सविचार शुक्लध्यान कहलाता है। तीनों योगों में से किसी एक योग के आलम्बन ले आत्मपदेशों में जहां स्पन्दन होता रहता है, वह एकत्ल वितकअविचार ध्यान कहलाता है। काययोग मात्र के आलम्पन से आत्म प्रदेशों में हलन चलन होना तीसरा वृक्ष क्रिया-अप्रतिपाती नामक शुक्लध्यान है। जिस ध्यान में किसी भी योग का आलम्बन नहीं होता अतएव आत्मप्रदेशों का स्पन्दन्द भी नहीं होता वह समु च्छिन्नक्रिय-अप्रतिपानी शुक्लध्यान कहलाता है, यह फलितार्थ है॥७७|| માંથી કઈ એક પેગવાળાને એકવિતર્ક શુકલધ્યાન હોય છે. જેમના વચનગ અને મગ ને સર્વથા નિરોધ થઈ ચૂક્યો છે અને માત્ર કાયોગ જ શેષ રહી ગયો છે તેને ત્રીજું શુકલધ્યાન સૂઢમકિયા -અનિવત્તિ હોય છે. ચોથું શુકલધ્યાન અગીને હોય છે. આ રીતે જે શુલધ્યાનમાં મન વચન અને કાયાગના આલમ્બનથી આત્મપ્રદેશમાં સ્પન્દન થતું રહે છે તે પૃથફત્વ-વિતર્કસવિચાર શુકલધ્યાન કહેવાય છે. ત્રણે ગોમાંથી કઈ એક યેગના આલનથી ત્મપ્રદેશમાં જ્યાં સ્પાદન થતું રહે છે તે એકવિતક–અવિચ ર ધ્યાન કહેવાય છે કાય. માત્રના આલમ્બનથી આત્મપ્રદેશોમાં હલન-ચલન થતું ત્રીજું સૂમક્રિયા-અપ્રતિપાતી નામક શુકલધ્યાન છે. જે ધ્યાનમાં કોઈ પણ રોગનું આલમ્બન હેતું નથી જેથી આત્મપ્રદેશનું સ્પન્દન પણ થતું નથી તે સમુચ્છિન્નક્રિયા-અપ્રતિપાતી શુકલધ્યાન કહેવાય છે. આ ફલિતાર્થ છે ૭૭ - Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७.७७ चतुर्विधशुक्लध्यानस्य स्थाननिरूपणम् ५५९ ___ तथानियुक्तिः -पूर्व खलु चतुर्थ शुक्लध्यान प्ररूपितम्, तत्र-प्रथममुपशान्तकपायस्यै-कादशगुणस्थानदर्लिन चतुर्दश पूर्वधारिणो वति । द्वितीयं क्षीणरूपायस्य भवति । तृतीयसन्तु-सयोगि केलिनो भवति । चतुर्थ पुनः शुक्लध्यानम्-अयोगि के वलिनो भवतीति चाऽपि प्ररूपित, ॥ नम्पति-तेपा चतुर्णा बलु उपशान्तवापायादीनां स्वामिनां शब्दान्तरेण विशिष्य प्रतिपादनार्थमाह-'च उम्बि हे सुकमाणे लहारकाम्नलि-एम कायजोगा जोगाणं'इति चतुर्विधं खल पूर्वोक्तं शुक्लध्यान पृथक्त्वचितप्त विचार रूपन्. एकत्वरितकी विचाररूपम्, सूक्ष्म क्रियाऽतिपातिरूपम्, सपुच्छिन्नक्रिगाऽनिवर्तिरूपञ्च यथाक्रमम्-क्रमशः त्रियोगस्य-मनोदचा काययोगयुक्तरय, एकोगस्य-संक्रमणकाले मनोवचः कायाऽन्यतमयोगयुक्तस्य, काययोगस्य-निरुद्ध योगदयस्थ काययोगव्यापारवतः, अयोगस्य-कायादियोगरहितस्य च भवति । तत्र सनोव क. कायव्यापारवतः पृथवश्ववितर्कसविचार नाम शुक्लध्यानम्. कावादियोगा तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले शुक्लध्यान का निरूपण किया गया। यह भी बतलाया जा चुका है कि प्रथम दोशुक्रध्यान प्रायः चतुर्दश पूर्वधारक को होते हैं, और अन्तिम दो केवली को होते हैं। तीनोगों की अपेक्षा से भी उसके स्वामियों का उल्लेख करते है चार प्रकार का शुक्रपान अर्थात् पृयत्व निरर्क सविचार, एकस्ववित-अभिचार, किया प्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति कम से तीनों योगों वाले को, एक योग दाले को, माययोगी को और अयोगी को होते हैं। तात्पर्य यह है कि मन, वचन और काय के व्यापार वाले को पृथक्त्व वितर्क सचिचार शुलध्यान होता है, तीनों गोगों में से किसी एक योग वाले को एकत्व वितर्क-अविचार ध्यान होता है। इस ध्यान को करने वाले के काय आदि योगों में से किल्ली - તત્ત્વાર્થનિર્ચક્તિ-પહેલા શુકલધ્યાનનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. એ પણ બતાવવામાં આવ્યું કે પ્રથમના બે શુકલધ્યાન પ્રાય: ચૌદ પૂર્વ ધારકને હોય છે જ્યારે અન્તિમ બે કેવલીને હોય છે. ત્રણ ચોગેની અપેક્ષાએ પણ તેના સ્વામિઓનો ઉલ્લેખ કરીએ છીએ ચાર પ્રકારના શુકલધ્યાન અર્થાત્ પૃથવિધિત સવિચાર એકલવિતર્ક-અવિચાર, સુમક્રિયાપ્રતિપાતી અને સમુચ્છિન્ન ક્રિયાનિવન્તિકમથી ત્રણે ગોવાળાને, કાયયેગી ને અને અયોગીને હોય છે. આશય એ છે કે મન વચન અને કાયાના વ્યાપારવાળાઓને પૃફવિતકસવિચાર શુકલધ્યાન હોય છે, ત્રણે જેમાંથી કોઈ એક રોગવાળાને એકવિતા અવિચાર ધ્યાન હોય છે. આ દયાનને દયાવવાવાળાને કાય આદિ યોગામાંથી કોઈ એક યોગને વ્યાપાર હેય છે જેમ કે કયારેક વચનગ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० तरवार व्यतमयोगपत:- एमत्वविता विचार नाष शुक्लध्यानम् १ भवति यस्य. ध्यायिनः कायादियोगाला मन्यतमो योगो ज्यामियते यथा-कदाचिद्-वागयोगः कदाचित्-मनोयोगो वेति भावः २ कायैकयोगो देति भावः २ कार्यकयोग व्यापारवतस्तु-वृक्षप्रक्रियाऽप्रतिपातिनासकं कृतार्थ शुक्लध्यानं भवति ३ कायादियोगरहितस्य शैलेश्यवस्थाविशिष्टस्य मनोवाक काययोगत्रयरहितत्वात समुच्छिन्नक्रियाऽनिवर्ति रूप चतुर्श शुक्लध्यानं भवतीति भावः ४ ॥७७॥ मूल-ढमा दो एमालया विश्वासनियारावियारा ७८॥ छाया-'प्रथये द्वे, एकाश्रये लवितर्के सविचाराऽविचारे ॥७८॥ सस्वार्थदीपिज्ञा-प्रथमे आधे द्वे, पृथक्त्वनितकसविचारम्-एकत्ववितर्काविचारं चेति । एकाश्रये-एक आश्रयः .पूर्वधररूप: आलम्बनं ययो स्ते, एकस्वामिक इत्यर्थः । सवितर्क-वितर्केण पूर्वगतश्रुतसम्वन्धिना सर्वेण सहिते, तत्र-प्रथम सविचारम्, द्वितीयमविचारं भवति । अतएव-प्रथमं पृथक्त्ववितर्क सविचारम्, द्वितीयम्-एकत्वविताऽविचारं व्यपदिश्यते । अनयोयाख्या पूर्वगा इति ॥७८॥ लस्वार्थनियुक्ति-पूर्व तार-चतुर्विधस्यापि शुक्लध्यानस्य स्वाम्यादीनां एक योग का व्यापार होता है, जैसे की वचनयोगका और कभी मनोयोग का। सिर्फ एक काययोग वाले को सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती नामक तीसरा शुक्लध्यान होता है। जो शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो चुका है और तीनों से रहित हो गया है ऐसे अघोगी को समुच्छिन्न क्रिया-अप्रतिपाती ध्यान होता है ॥७७॥ 'पढमा दो एमालया इत्यादि ॥७॥ प्रथम के दो शुक्रधान एक आश्रय वाले हैं, सवितर्क हैं और सविचार अविचार हैं, अर्थात् पहलासविचार है, दूसरा विचार है॥७८॥ तत्त्वार्थदीपिका-प्रारंभ के दो शुक्लध्यान पृथक्त्यषितर्फ सविचार છે અને કયારેક મનેગને. માત્ર એક કાગવાળાને સૂફમકિય-અપ્રતિપાતી નાક ત્રીજું શુલધ્યાન હોય છે. જે શૈલેશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થઈ ચૂક્યા છે અને ત્રણે યુગોથી રહિત થઈ ગયા છે એવા અાગીને સમુચ્છિન્નક્રિય-અપ્રતિપાતી ધ્યાન હોય છે. ઓછા 'पढमा दो एगासया त्याह સૂત્રાર્થ–પ્રથમના બે શુકલધ્ય ન એક આશ્રયવાળા છે, સવિતર્ક છે. અને સવિચાર-અવિચાર છે, અર્થાત્ પહેલુ સવિચાર છે બીજુ અવિચાર છે. ૩૮ તસ્વાર્થદીપિકા–પ્રારભના બેશુકલધ્યાન પૃથકત્વ વિતર્ક સવિચાર અને Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका म.७ सू.७८ प्रथमहीतिथयो किञ्चित् विशेषकथनम् ५६१ मरूपणं कृतम्, सम्मति-मथमद्वितीयशुवकध्यानयोः किश्चिद् विशेषप्रतिपत्यर्थं पतिपादयति- पहना दो एमालया लविय का विधारादियारा' इति प्रथमे आदिमे हे शुक्लध्याने, सवितर्क वितण-श्रुतज्ञानेन सहिने भक्ता, एकद्रव्या. अये-एकस्वासिके च ते विनेये । परमाणुद्रव्य कमवलम्ब्य मात्मादि द्रव्यं चा, एकमालम्ब्य श्रुताऽनुपारेण निरुद्धचेतसः प्रथमद्वितीये शुक्लपणाने भक्तः पूर्वगतश्रुतानुसारिणी खल्ल पृथक्त्ववितर्कसविचारै-कत्ववितर्काऽविचारे और एक्त्वधितर्क-अधिचार एजही आश्रय झाले हैं अर्थात् प्रायः पूर्वधर ही इन दोनों का आश्रय है, दोनों का एक ही नामो होता है। दोनों वितर्क ति अर्थात् पूर्वगन शुभ के चलम्बन से होते हैं, किन्तु दोनों में जो अन्तर है वह यह है कि पहला सविचार और दूसरा अविचार है । गच्या इनकी पहले भी जा चुकी है ॥७८॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पले चारों प्रकार के शुक्र ध्यान के स्वामी आदि की प्ररूपणा की जा चुकी है। अब प्रथम और द्वितीय शुक्लध्यान में जो समानता और असमानता है, उसका प्रतिपादन करते हैं आदि के दो शुक्लध्यान लशित; अर्थात् शुलज्ञान सहित है एकस्वामिक हैं । एक परमाणु द्रव्य आहा आत्मा आदि द्रव्ध का अवलम्बन करके अत के अनुसार चित्त-निरोध करने वाले को प्रथम और द्वितीय शुक ध्यान होते हैं। इस पर पृश्व वितर्क - अदिचार नामक दोनों शुक्लध्यान प्रायः पूर्वगत श्रुनले अनुहारी એકત્વવિતર્ક-અવિચાર એક જ આશ્રયવાળા છે અર્થાત્ પ્રાયઃ પૂર્વધર જ આ બંનેના આશય છે, બંનેને એક જ સ્વ મિ હોય છે. બંને વિતક સહિત છે અર્થાત પૂર્વગન થનના અવલમ્બનવાળા હોય છે પરંતુ બંનેમાં જે ફરક છે તે એ છે કે પહેલું સવિચાર અને બીજુ અવિચાર છે. એમની વ્યાખ્યા તે અગાઉ કરી દેવામાં આવી છે. ૭૮ તત્ત્વાર્થનિર્યુકિત-અગાઉ ચારે પ્રકારના શુકલધ્યાનના સ્વામિ આદિની પ્રણ પણ કરવામાં આવી ગઈ છે હવે પ્રથમ અને દ્વિતીય શુકલધ્યાનમાં જે સમાનતા અને અસમાનતા છે તેનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ-- પ્રારંભના બે શુકલધ્યાન સવિતર્ક અર્થાત્ શ્રુતજ્ઞાન સહિત છે, એક પરમાણુ દ્રવ્ય અથવા આત્મા આદિ દ્રવ્યનું અવલખન કરીને શ્રત અનુસાર ચિત્ત-નિરાધ કરનારાને પ્રથમ અને દ્વિતીય શુકલધ્યાન હોય છે. આ રીતે પૃથકવિતક સુવિચાર નામક બને શુકલધ્યાન પ્રાયઃ પૂર્વગત શ્રતને અનુસાર હોય છે પરંતુ પ્રથમ શુકલધ્યાન સવિચાર અર્થાત્ અથ વગેરેના સંક્રમ. Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वास भवतः, किन्तु-प्रथम तावत्-पृथक्त्ववितकरूपं शुक्लध्यान सविचारम् अर्थादि संक्रान्तियुक्तं भवति द्रव्यमालस्य जायमान भपि द्रव्यं विहाय पर्यायमुपैति, पर्यायं वा त्यक्त्वा द्रव्यमाश्रय ते इत्येवं संक्रान्तियुक्तं भवति । द्वितीयं पुनरेकत्व वितरूपं शुक्लध्यान यमालम्ब्योपजायो तं परित्यज्य नाऽन्यत्र संक्रामति । अतएव-यत् अविचारं भवति, तस्याऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिरहितत्वात् ।।७८॥ भूलम्--वितो-लुए, विशारे-अस्थवंजगजोग संकंती।७९। छाया-वितर्क:-श्रुनुस्, विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ॥७९॥ तत्त्वार्थदीपिका- पूर्वसूत्रे-प्रथषद्वयस्य शुक्लध्यानस्य सवितर्कत्वम्, सहोते हैं । किन्तु प्रथम शुलध्यान विचार अर्थात् अर्थ आदि के संक्रमण से युक्त होता है । वह द्रव्य के आलम्बन से उत्पन्न होकर द्रव्य को छोड कर पर्याय का चिन्तन करने लगता है। कभी पर्याय को स्थान कर द्रव्य का चिन्तन करने लगता है। इस प्रकार का संक्रमण उसमें होता रहता है। मगर दूसरा एकत्वधितर्क ध्यान जिस विषय का आलम्बन लेकर उत्पन्न होता है, उस्ले त्याग कर अन्य विषय का चिन्तन नहीं करता। इस कारण वह अविचार कहलाता है। वह अर्थ व्यंजन और योग के संक्रमण से रहित होता है ॥७॥ 'चितक्के-लुए विचारे इत्यादि खन्नः ७३ सूत्रार्थ-वितर्क का अर्थ श्रुत है। अर्थ, व्यंजन और योग का उलट-फेर विचार कहलाता है ॥७॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्र में प्रारंभ के दो शुक्लघ्यानों को શુથી યુકત હોય છે તે દ્રવ્યના આલમ્બનથી ઉત્પન્ન થઈને, દ્રવ્યને છેડી દઈને, પર્યાયનું ચિંતન કરવા લાગે છે કયારેક પર્યાયને ત્યાગ કરીને દ્રવ્યનું ચિંતન કરવા લાગે છે. આ જાતનું સંક્રમણ તેનામાં થતું રહે છે પરંતુ બીજું એકત્વવિતર્ક ધ્યાન જે વિષયનું આલમ્બન લઈને ઉત્પન્ન થાય છે તેનો ત્યાગ કરીને અન્ય વિષયનું ચિન્તન કરતું નથી આથી તે અવિચાર કહેવાય છે. તે અર્થ વ્યંજન અને વેગના સંક્રમણથી રહિત હોય છે 'वितक्के सुप वियारे' त्याल સૂવાથ–-વિતર્કનો અર્થ, શ્રત છે અને વ્યંજન અને રોગ ને ઉલટ-ફેર વિચાર કહેવાય છે. પાછલા તત્વાર્થદીપિકા--પૂર્વ સૂત્રમાં પ્રારંભના બે શુકલધ્યાનેને સવિતર્ક કહ્યા છે, Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-निर्युक्ति टीका अ.७ ५.७९ वितर्कस्वरूपनिरुपणम् विचारस्वम्, अविचारत्वं चोक्तम्, तत्र-स्तावद् वितर्का-विचारो का ? इति जिज्ञासायामाह-'चिनो सुए, वियारे अथवंजणजोगसंकती' इति । वितर्कः श्रुतम्, वितयं ते-आलोच्यते येन पदार्थः स (कारणभूतः) वितर्कश्रुतज्ञान मुच्यते । विशेषेण तर्कणं वितर्कः श्रुतज्ञानम्, विचारस्तु-अर्थ व्यञ्जनयोगसंक्रान्ति रुच्यने, अर्थस्य परमार वादेध्येय वस्तुनो द्रव्यस्य-द्रव्यपर्यायस्य वा संक्रान्ति:परिवर्तनम् अर्थसंक्रान्तिः, द्रव्यमवलम्ब्य जायमानं ध्यानं द्रव्यं विहाय पर्यायमुपैति, पर्यायमाश्रित्य जायमानन्तु-पर्यायं परित्यज्य द्रव्यमुपैति । एवं व्यञ्जनस्य तद् वाचकशब्दस्य संक्रान्तिः-परिवर्तनं व्यञ्जनसंक्रान्तिः । एक तद् वाचक. सवितर्क कहा है. प्रथम शुक्लध्यान को लविचार और दूसरे को अविचार कहा है तो यह वितळ अथवा विचार क्या हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर उसका समाधान करते हैं वितर्क का अर्थ श्रुन है । अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण विचार कर लाता है। जिल के द्वारा पदार्थ की चितणा या आलो चना की जाय उसे पित्त-श्रुतज्ञान शहते हैं। अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण अर्थात् परिवर्तन विचार कहलाता है। अर्थ अर्थात् परमाणु आदि ध्येय वस्तु का-द्रव्य या पर्याय का परिवर्तन अर्थ संक्रान्ति । अर्थात् द्रव्य का चिन्तन करते-करते पर्याय का चिन्तन करने लगना और पर्याय का चिन्तन करते-करते द्रव्य का चिमन करने लगना, अर्थ संक्रमण है। व्यंजन अर्थात् शब्द का संक्रमण व्यंजन संकान्नि है। वस्तु के एक व्याचक शब्द को लेकर પ્રથમ શુકલધ્યાનને સવિચાર અને બીજાને અવિચાર કહ્યું છે તો આ વિતર્ક અથવા વિચાર શું છે ? એવી જિજ્ઞાસા થવાથી તેનું સમાધાન ४शय छोरी-- વિતકને અર્થ શ્રત છે. અર્થ વ્યંજન અને રોગનું સંક્રમણ વિચાર કહેવાય છે. જેની દ્વારા પદાર્થની વિતર્કણ અથવા આલોચના કરવામાં આવે તેને વિતર્ક-થતજ્ઞાન કહે છે. અર્થ. વ્યંજન અને વેગનું સંકમણ અર્થાત પરિવર્તન વિચાર કહેવાય છે. અર્થ અર્થાત્ પરમાણુ આદિ શ્રેય વસ્તુનું-દ્રવ્ય અથવા પર્યાયનું પરિવર્તન અર્થસંકતિ છે અર્થાત દ્રવ્ય ચિન્તન કરતાં કરતાં પર્યાયનું ચિન્તન કરવા લાગવું અને પર્યાયનું ચિન્તન કરતાં કરતાં દ્રવ્યનું ચિંતન કરવા લાગવું અર્થસંક્રમણ છે વ્યંજન અર્થાત શબ્દનું સંક્રમણ વ્યંજન સંક્રાન્તિ છે. વસ્તુના એક વાચક શબ્દને લઈને ધ્યાન Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ शब्दमुपादाय प्रवर्तमानं ध्यान शान्तरमाश्रयते तदपि वचनं परित्यज्याऽन्यद वचन मालम्ब के इति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । एवं-कायादियोगानां संक्रान्तिः परिवर्तनं योगसंक्रान्तिः । उच्य ते, यथा-काययोगमाश्रित्य जायमानं ध्यानं वचोयोग मालम्बते पोयोगं हाय मनोयोगमुपैति, मनोयोग परित्यज्य पुनः काययोग पादत्ते, इत्येवं योगसंक्रान्ति भति इत्येवं रीत्याऽर्थव्यजनयोग परिवर्तन विचार उच्यते। अथ परिवर्तनरूप संक्रान्ती सत्यां कथं ध्यानमेक विषयकं संभवनि, संक्रान्तौ तस्याऽनेकविषयत्वात् इति चेद ? उच्यते-ध्यान सन्तानस्यापि ध्यानपरेनन ग्रहणाद् दोषाऽमानः । तथा च-ध्यान धाराया अपि ध्यानत्वेन बहुत्या दुक्तदोपो न संभवति ॥७९ । ध्यान चालू हो, फिर वह दूसरे शब्द ना आश्रय ले ले, फिर उस शब्द को भी त्याग कर तीसरे शब्द का चिन्तन करने लगे, इस परि वर्तन को व्यंजन संझानिन करते हैं । इसी प्रकार काययोग आदि का परिवर्तन होणलंकान्ति कहलाता है, जैले काययोग का आलम्बन करके उत्पन्न होने वाला ध्यान बचनयोग का आवलम्पन करता है फिर पचन योग को त्याग कर मनोगोग का आश्रय लेना है, मनोयोग को त्याग कर पुनः काययोग का सहारा लेता है, इस प्रकार योग संक्रान्ति होती है। इस प्रकार अर्थ, व्यंजन और योग परिवर्तन विचार कहलाता है। शंका--संक्रमण अर्थात् परिवर्तन शेने पर भी ध्यान एक विष यक किस प्रकार कहा जा सकता है ! संक्रमण होने पर तो वह अनेक विषयक हो जाता है। समाधान-शान की सन्तान भी ध्यान कहलाती है। अर्थात् ચાલુ હોય, પછી તે બીજા શબ્દનો આશ્રય લઈ લે પછી તે શબ્દને પણ ત્યાગ કરીને ત્રીજ શબ્દનું ચિન્તન કરવા લાગે, આ પરિવર્તનને વ્યંજનસંક્રાતિ કહે છેઆવી જ રીતે કાયયેગ આદિનું પરિવર્તન ચાગસંક્રાન્તિ કહેવાય છે જેવી રીતે કાગનું આલઓન લઈને ઉત્પન્ન થનારું ધ્યાન વચનગનું અવલમ્બન કરે છે, પાછું વચનગને પણ ત્યાગ કરીને મને ગને આશ્રય લે છે. મને ગમે ત્યાગ કરીને પુનઃ કયાગને સહારે લે છે. આવી રીતે ચગસંક્રાનિત થાય છે આમ, અર્થ વ્યંજન અને રોગનું પરિવર્તન વિચાર કહેવાય છે. શંકા--સંક્રમણ અર્થાત પરિવર્તન થવાથી ધ્યાન એક-વિષયક કેવી રીતે કહી શકાય ? સંક્રમણ થવાથી તે તે અનેક વિષયક થઈ જાય છે સમાધાન-ધ્યાનનું સત્તાન પણ ધ્યાન કહેવાય છે. અર્થાત્ યેયમાં Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ रु.७२ वितर्क स्वरूपनिरूपणम् तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावन्- शुध्यानस्य सवितर्कत्य-सविचारत्वम् । अविचारत्वश्च यथाम, मुक्तम् वन-कस्तावद् वितका विचारो वा ? इत्याकाङ्क्षामाह 'वितक्के सुप, विचारे अत्यवंजण जोग संकंती' इति । वितर्कः श्रुत मुच्यते वितर्कणं विशेषेण ऊहनं वितर्कः श्रुतज्ञानम्, वितर्यते-आलोच्यते-पदार्थों येन स वितर्कः श्रुतज्ञानम्. संगविपर्ययरहितं निर्णयस्वरूप मित्यर्थः । विचारस्तुअर्थ व्यञ्चनयोगसंक्रान्ति रुच्यते, तत्राऽर्थः परमायादि द्रव्यं-पर्याव, व्यञ्जन तवाचकः शमः, योगा:-काय-वाङ्मनोरूपाः, संक्रमण परिवर्तनं संक्रान्तिः, अर्थवचनकायादियोगानां परिवर्तनं विचार उच्यते । तत्राऽर्थसंक्रान्तियथाआत्मादि द्रव्ययेक मालम्ब्य जायमानं ध्यानं तदपहाय पर्यायं संक्रामति । पर्याय ध्येय में परिवर्तन हो जाने पर भी ध्यान का प्रवाह यदि अविच्छिन्न रहता है तो वह भी ध्यान से कहलाता है, अतः पूर्वोक्त आशंका को कोई अवकाश नहीं ॥७९॥ तस्वार्थनियुक्ति-पहले शुक्लान के प्राथमिक दो भेदों को मवितर्क ला है। पहले योग्यविचार और घर रे को अविचार कहा है तो बितर्क और बिन्ार किले कहते हैं, ल आशंका का समाधान करते है--यहां वितई का अर्थ श्रुन्न है, जिसके द्वारा वस्तु की वितणा की जाय आलोचना किया जाय वह बिन अर्यात श्रुवज्ञान विचार का अभिप्राय है अर्थ, व्यंजन और योग हा संकषण । परमाणु आदि द्रव्य या पर्याय अर्थ कहलाता है, उसका पाचक शब्द व्यंजन कहलाता है और काय, वचन तथा मन का व्यापार योग कहलाता है। संक्रमण का मानलब है उलट-फेर होना । काययोग आदि के उलटफेर को विचार करते हैं। आत्मा आदि किसी एक द्रव्य का आलम्पन करके પરિવર્તન થઈ જવાંથી પણ દાનનો પ્રવાહ કદચ અવિચ્છિન્ન રહે તે પણ ધ્યાન જ કહેવાય છે, આથી પૂર્વોક્ત આશંકાને કોઈ સ્થાન નથી. છેલ્લા તત્ત્વાર્થનિર્યુક્તિ--પહેલા શુકલધ્યાનના પ્રાથમિક બે ભેદને સવિત કહેવામા આવ્યા છે. પહેલા તે વિચાર અને બીજાને અવિચાર કહેલ છે તે વિતર્ક અને વિચાર કોને કહે છે એ આશંકાનું સમાધાન કરીએ છીએ–અહી વિતનો અર્થ ત છે. જેના વડે વસ્તુની વિતર્કણા કરવામાં આવે. આલોચન કરવામાં આવે તે વિતર્ક અર્થાત્ શ્રુતજ્ઞાન વિચારને અભિપ્રાય છે અર્થ વ્યંજન અને યેગનું સંક્રમણ પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય અથવા પર્યાય અર્થ કહેવાય છે તેનો વાચક શબ્દ વ્યંજન કહેવાય છે અને કાય વચન તથા મનને વ્યાપાર યોગ કહેવાય છે. સંક્રમણનો અર્થ થાય છે ઉલટકર થવ. કાયાગ આદિની ફેર-બદલીને વિચાર કહે છે. આમ આદિ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હર્ષદ तस्वार्थ सूत्रे वाऽऽश्रित्य जायमानं यानं तं विहाय द्रव्यमुपैति । अथ वाचक शब्दव्यञ्जन संक्रान्तिर्यथा - एकं श्रुतशब्दमालम्ब्य जायमानं शब्दान्तर मालम्बते, तदपि परित्यज्य शब्दान्तरमुपादत्ते, योग संक्रान्तिर्यथा - काययोगोपयुक्तध्यानं वाग्योग संक्रामति, वाग्योगोपयुक्तध्यानञ्च - मनोयोगं संक्रामति, मनोयोगोपयुक्तध्यानञ्चकाययोगं संक्रामति, इत्येवं खलु- अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रमणं विचार उच्यते इति भावः । उक्तश्च -- 'उपपाठिह भंगाई' पज्जायाण जमेगदव्वंमि । नाणानचाणुसरणं पुण्वगयसुयाणुसारेणं ॥ १ ॥ 'विचार मत्थ वंजणजोगंतरओ तयं पदम सुक्कं । होह पुहुत्त विधक सविचार सरागभावस्स' ॥२॥ 'जं पुण निष्पक'प' नियायसरण पदवमिवचितं । उपायठ भंगाहयाण मे गम्मि पज्जाए || ३ || अविचारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं विद्य सुक्क । पुव्वगय सुयालंबण मेगन्त्त वियक्कमवियारं ||४|| होने वाला ध्यान उस द्रव्य को छोडकर पर्याय में चला जाता पर्याय का चिन्तन करते-करते द्रव्य का चिन्तन करने लगता है, यह अर्थ का संक्रमण कहलाता है । व्यंजन की संक्रान्ति का मतलब यह है कि श्रुत के किसी एक शब्द का चिन्तन करते-करते दूसरे शब्द का चिन्तन करने लगना । काययोग के अवलम्बन से होने वाला ध्यान कदाचित् वचनयोग का आश्रय लेना है, कदाचित् किसी अन्य योग का यह योग संक्रान्ति है । इस प्रकार अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण होना विचार कहा गया है। कहा भी है 'पूर्वगत श्रुत के अनुसार, अनेक नयों की अपेक्षा से एक द्रव्प કાઇ એક દ્રવ્યનુ આલમ્બન લઈને થનારૂ પ્રાન તે દ્રવ્યને છેડીને પર્યા યમાં ચાલ્યું જાય છે પર્યાયનુ ચિન્તન કરતા કરતા દ્રવ્યનું ચિન્તન કરવા લાગે છે આ અતું સંક્રમણ કહેવાય છે, વ્યંજનની સ`ક્રાન્તિને! અર્થ એવા થાય છે કે શ્રુતના કોઇ એક શબ્દનું ચિન્તન કરતા કરતા ખીજા શબ્દનુ ચિન્તન કરવા લાગવુ કાયયેાગના અવલમ્બનથી થનારૂ ધ્યાન કદાચિત વચનચેગને! આશ્રય લે છે, કદાચિત કેઇ એન્ય ચેાગના આ વેગસ ક્રાન્તિ છે આ રીતે અથ વ્યંજન અને ચેાગતુ સંક્રમણુ થવુ.-વિચાર કહેવામાં आव्यो छे, पशु - પૂર્વગત શ્રુત અનુસાર, અનેક નચાની અપેક્ષાથી એક દ્રવ્યના ઉત્પાદ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MES दीपिका-नियुक्ति टीका अ.७ खू.७९ वितक स्वरूपनिरूपणम् छाया---उत्पाद स्थिति मज्ञादि पर्यायाणां यदेक द्रव्ये । नाना नयानुसरणं पूर्वगतश्रुतानुसारेण ॥१॥ सविचार मर्थ व्यञ्जन योगान्तरतस्तथा प्रथमशुक्लम् । भवति पृथक्त्ववितर्कसविचारं सरागभावला ॥२॥ यत्पुनः सविस्पं निवातशरणप्रदीपमिव चित्तम् । उत्पाद स्थिति सङ्गादिकाना मेकस्सिपर्याये ॥३॥ अविचारमर्थ व्यञ्जन योगान्तर स्तथा द्वितीय शुक्लम् । पूर्वगत श्रुतावलम्बन मेकत्ववितर्कमविचारस् ४ ७९ । मूलम्-विउसग्गे दुविहे नसावयओ ॥८॥ छाया-व्युत्सों द्विविधः, द्रव्यभावभेदतः ॥८०॥ के उत्पाद, व्यय और घौध आदि पर्यायों का अर्थ व्य जन और योग के परिवर्तन के साथ चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्म-लविचार नामके प्रथम शुक्लध्यान कहलाता है। यह ध्यान छमस्थ में होता है। १-२ जो ध्यान वायुविहीन स्थान में रक्खे हुए दीपक के समान निष्प्रकम्प होता है और उत्पाद, व्यय तथा धौब्ध :आदि में से किसी एक पर्याय का ही चिन्तन करता है वह एकस्ववितर्क अविचार नामक दसरा शुक्लध्यान कहलाता है । यह ध्यान भी पूर्वत श्रुत के आश्रय से होता है किन्तु अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण से रहित होता है ॥३-४॥ ७९॥ 'विउसग्गे दुविहे' इत्यादि सू० ॥८॥ सूत्रार्थ--व्युत्सर्ग दो प्रकार का है--द्रव्य व्युत्सर्ग और भाव व्युत्सर्ग ।। ८०॥ વ્યય અને દ્રૌવ્ય આદિ પર્યાયોને અર્થ, વ્યંજન અને ગના પરિવર્તનની સાથે ચિન્તન કરવું પૃથકવિતક સવિચાર નામક પ્રથમ શુકલધ્યાન કહેવાય છે આ દયાન છઘઅવસ્થામાં થાય છે ૧ -રા ૨ ધ્યાન વાયુવિહીન સ્થાનમાં રાખવામાં આવેલા દીપકની માફક નિપ્રક૫ હેય છે અને ઉત્પાદ વ્યય તથા ધ્રૌવ્ય આદિમાંથી કોઈ એક પર્યાયનું જ ચિન્તન કરે છે. તે એકવિતર્ક–અવિષ્ય ૨ નામક બીજું શુકલ યાન કહે વાય છે. આ ધ્યાન પણ પૂર્વગત શ્રતના આશ્રયથી થાય છે. ૩-૪ કલા _ 'विउपग्गे दुविहे' त्या સવાથ–-વ્યત્સર્ગ બે પ્રકારના છે-દવ્યયુત્સર્ગ અને ભાવવ્યુત્સર્ગ ૮૦ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थस तत्वार्थदीपिका - पूर्वं तावत् - आभ्यन्तरतपसः प्रायश्चित्तादि भेदेन प‍ विधत्वप्रतिपादनात् स्त्र - यथाक्रमं प्रायश्चिचादयः मरुपिताः, सम्मति- क्रम प्रातस्य पश्चमाभ्यन्तरतपसो व्युत्सर्गरूपस्य द्रव्य भावभेदेन द्वैविध्यं प्ररूपवितुमाह- 'विलग दुबिहे' इत्यादि । व्युत्सर्गे व्युत्सर्जनं स द्विविधो, द्रव्यभावभेदतः, -द्रव्यत उपध्यादिममत्ववर्जन व्युत्सर्गः भावतः कपायत्यागो भावव्रुर्गः इत्येवं द्वित्रियो व्युत्सर्गः अथवा - व्युत्सर्ग इति कायोत्सर्गः कायममत्वत्यागः शपनाऽऽसनस्थानेषु काय चेष्टावर्जनम् । सोऽपि द्विविधः, इत्व. fist यावत्कथिवेति ॥८०॥ '' तत्वार्थनियुक्तिः पूर्व खलु प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वध्याय व्युत्सर्ग भेदेन पत्रिस्याऽऽभ्यन्तरतपसा यथाक्रमं प्रायश्चित्तादीनां सभेदं प्ररूपणं कृतम्, तत्वार्थदीपिका - - पहले आभ्यन्तर तप के छह भेदों का निरूपण किया गया था, उनमें से प्रायश्रित आदि का निरूपण हो चुका, अब क्रमप्राप्त पाचवें आभ्यन्तर तप व्युवर्ग के द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार बतलाते है- व्युत्लर्ग के दो भेद हैं-द्रव्यन्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग । उपधि आदि का त्याग द्रव्यव्युत्सर्ग कहलाता है और कषायों का त्याग भाव कहलाता है । व्युत्सर्ग को कायोत्सर्ग और कायममत्वत्याग भी कहते हैं जिसका आशय है शयन, आसन एवं स्थान में काय की चेष्टा का त्याग । उसके भी दो भेद हैं- इत्aरिक और यावत्कथिक ||८०|| तार्थनियुक्ति-- पहले प्रायश्चित्त विनय, वैयावृत्य स्ाध्याय और તા દીપિકા-પહેલા આભ્યન્તર તપના છ ભેટ્ઠાતુ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યુ હતુ તેમાંથી પ્રાયસ્ચિત્ત આદિનું નિરૂપણુ થઇ ગયું હવે ક્રમપ્રાપ્ત પાંચમાં આભ્યન્તર તપ જ્યુસના દ્રવ્ય અને ભાવના ભેથી એ પ્રકાર મતાवीध्ये छीथे બ્યુટ્સના એ ભેદ છે-દ્રવ્યન્મુત્સગ અને ભાવન્મુત્સગ ઉપધિ આદિના ત્યાગ દ્રવ્ય વ્યુત્સંગ કહેવાય છે અને કષાયાના ત્યાગ ભાળ્યુત્સગ કહેવાય છે. યુત્સગ ને-કાચાસ અને કાયમઅત્યાગ પણ કહે છે જેના આશય છે શયન આસન અને સ્થાનમાં કાયની ચેષ્ટાને ત્યાગ તેના પણ મે ભેદ છે--ઇરિક અને યાવકથિક ૫૮૦૫ તત્ત્વાર્થ નિયુકિત ---પહેલા પ્રાયશ્ચિત્ત, વિનય, વૈયાનૃત્ય, સ્વાધ્યાય અને Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ष.७ २.८० व्युत्तर्गतपसोद्वैविध्यनिरूपणम् ५६९ सम्पति-क्रममाप्तस्य पञ्चमारतरतपसो द्रव्य-भान भेदेन द्विविधस्य प्ररूपणे कर्तुमाह-विउमग्गे दुबिहे, दव्यभार भेषओ'-इति । व्युत्सगों विविधस्य कायव्यापारस्य प्रवचन विहितेन विविधोत्सर्ग स्यामः स-द्विविधो भवति, द्रव्यभावभेदतः । तत्र-द्रव्यतो बायोपधे व्युत्सर्ग-स्त्यागो द्रव्ययुन्सर्गः, बाह्योपधि ममत्वत्याग इत्यर्थः। भावतश्चाभ्यन्तरोपधेः क्रोधाविकषायरूपस्य व्यु-सर्गस्त्यागो भावव्युत्सर्गः स च मनोवाकार्यः क्रोधादिपायाणां कृतकारिताऽनुमतिभिश्च भावव्युत्सगों व्यपदिश्यने । उक्तञ्च व्यख्यानमौ श्रे भगवती सूत्रे २५- शतके ७ उद्देशके ८०२ सूत्रे -'विउमरगो दुविहे पणत्ते, त जहा-दवबिउसग्गे य-भाव विउसग्गेय व्युत्तों द्विविधः प्रज्ञप्तः, तबथा-द्रव्यव्युत्सर्गच, भावव्युन्सर्गश्चेति व्युत्प्सर्ग के भेद से आयलर तप के छह भेद कहे गए थे। उनमें से प्रायश्चित्त आदि का भेद प्रदर्शनपूर्वक निरूपण किया गया। अप क्रमप्राप्त पांचवें आभ्यन्तर तप व्युत्सर्ग के दो भेदों की प्ररूपणा करते हैं विविध प्रकार के शायिक व्यापार का आगमोक्त विधिसे त्याग करना व्युत्सर्ग है उसके दो भेद हैं-द्रव्यव्युत्तर्ग और भादव्युन्सर्ग। याह्य उपधि संबंधी ममत्व का त्याग करना द्रव्यव्युन्सर्ग है और आभ्यन्तर उपधि कषाय का त्याग करना भावव्युन्सर्ग है । मन, बचन काय से कृत, कारित और अनुमोदन ले कपायों का त्याग करना भावव्युन्सर्ग कहलाता है। अगवनी सूत्र शलभ २५, उद्देशक ७ में कहा गया है-द्रव्य और भाबके भेद से न्युम्ला, दो पकारका है। इस વ્યસર્ગના દધી અભ્યન્તર તપના છ ભેદ કહેવામાં આવ્યા હતા તેમાંથી પ્રાયશ્ચિત્ત આદિના ભેદ પ્રદર્શન પૂર્વક નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે કમ પ્રાપ્ત પાંચમાં આભ્યન્તર તપ વ્યુત્સર્ગના બે ભેદની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ– કવિધ પ્રકારના કાયિક વ્યાપારને આગોકત વિધિથી ત્યાગ કરવો યુત્સર્ગ છે તેના બે ભેદ છે-દ્રવ્યયુગ અને ભાવવ્યુત્સગ બાહ્ય ઉપષિ સંબંધી મમત્વનો ત્યાગ કર દ્રવ્યબુત્સર્ગ છે, અને આભ્યન્તર ઉપધિ કષાયનો ત્યાગ ભાવવ્યુત્સર્ગ છે મન વચન, કાયાથી તથા કૃતકારિત અને અનુમોદનથી કાચને ત્યાગ કર ભાવબુસર્ગ કહેવાય છે, ભગવતી સૂત્ર શતક ૨૫, ઉદ્દેશક માં કહ્યું છે-દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી વ્યુત્સર્ગ त० ७२ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ तथा च वायोपध्यादि ममस्व व्युत्सगों द्रव्य व्युत्सर्ग उच्यते आभ्यन्तर क्रोधादि कवाय व्युन्सर्गश्च भावव्युत्सर्ग उच्यते ॥८॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगदल्लम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा कलितललितकलापालापकमविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य -जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालचतिविरचियां श्री दीपिका-नियुक्ति व्याख्या द्वयोतस्थ तच्चार्यसूत्रस्या सप्तमो ध्याय समाप्तः॥७॥ प्रकार बाह्य उवधि का त्याग द्रव्यव्युत्सर्ग और क्रोध आदि आभ्यन्तर उपधि का त्याग भावव्युत्ल कहलाता है ॥८॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'तत्त्वार्थसूत्र' की दीपिका-नियुक्ति व्याख्या का . सातवां अध्याय समाप्त ॥७॥ બે પ્રકારના છે-આવી રીતે બાહ્ય ઉપધિને ત્યાગ દ્રવ્યવ્હલ્સ અને ક્રોધ આદિ આભ્યન્તર ઉપધિનો ત્યાગ ભાવવ્યુત્સર્ગ કહેવાય છે. ૫૮૦ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “તત્વાર્થસૂત્રની દીપિકા-નિર્યુક્તિ વ્યાખ્યાને સાતમે અધ્યાય સમાપ્તઃ પાળા Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.१ निरास्वरूपनिरूपणम् ५७१ अथाऽप्टमोध्यायः प्रारम्यते मूलम्-देसओ कस्सखओ निज्जरा ॥१॥ छाया--'देशतः कर्मक्षयो निर्जरा १ सत्वार्य दीपिका--जीवादि नक्तुत्वानां यथाक्रम मरूपणार्थ पूर्व जीवादि संवरतत्वपर्यन्त सप्ततत्वानां प्ररूपणं कृतम्, सम्मति-क्रमप्राप्त मष्टम निर्जरातत्वं प्ररूपयितु मष्टममध्याय मारभते-'देसओ क्षम्मक्खओ निजरा' इति । देशतो न तु-सर्वतः कर्मक्षयः कर्मणां ज्ञानावरणादि कर्मणां क्षयः, आत्मप्रदेशतो देशतः पृथग् भवनम् विपाकेन-कर्मफलभोगेन-तपसा चाऽनशनादिना देशतो विनाशः परिगटन जीवात्मनि वस्त्रे लिप्तस्य संश्लिष्टस्य कमसळस्य पृथग्भवनेन देशनो विध्वंसनं निर्जरा-उच्यते । तथा च जी वरूपे वस्त्रे कर्मरूपमलस्य ज्ञानरूप अष्टम अध्याय का प्रारंभ 'देसभी कम्पकलओ निजा' सूत्रार्थ-एक देश से कर्मक्षय होना निर्जरा है ॥१॥ तत्त्वार्थदीपिका-जीच आदि नौ तत्वों का निरूपण करते हुए जीव से लेकर संवर तत्व पर्यन्त लान तत्वों का निरूपण किया जा चुका अय क्रमप्राप्त आठवें निर्जरात की प्ररूपणा करने के लिए आठवां अध्याय का आरंभ करते हैं-- ज्ञानावरण आदि क्रमों का आत्मादेशों से पृधक होना अर्थात् विपाक (कर्मफल के भोग) से और तपस्या के एक देश से विनाश होना निजरा है। जैसे वस्त्र में लगा मैल धुलने पर हट जाता है उसी प्रकार कर्म आत्मप्रदेशों से अलग हो जाते हैं। जीव रूपी वस्त्र में, कमें रूपी मल આઠમા અધ્યાયને પ્રારંભ 'देसओ कम्मक्खओ निज्जरा' इत्यादि સવાથ– એક દેશથી કર્મક્ષય થ નિજર છે ! ૧ | તત્ત્વાર્થદીપિકા –જીવ આદિ નવ તત્વોનું નિરૂપણ કરતા થકા જીવથી લઈને સંવર તત્વ પર્યન્ત સાત તત્વોનું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયું, હવે ક્રમ પ્રાપ્ત આઠમાં નિર્જરા તત્વની પ્રરૂપણું કરવાને માટે આઠમાં અધ્યયનને પ્રારંભ કરીએ છીએ જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોનું આત્મ પ્રદેશથી છૂટા પડવું અર્થાત વિપાક (કર્મફળના ભેગ) થી અને તપસ્યાથી એક દેશથી વિકાસ થ નિર્જરા છે. જેમ વસ્ત્રમાં લાગેલે મેલ તેને ધોવાથી દૂર થઈ જાય છે તે જ રીતે કમ આત્મ પ્રદેશોથી જુદું થઈ જાય છે. જીવરૂપી વસ્ત્રમાં કર્મરૂપી મળને, જ્ઞાન Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ___ तत्त्वार्थ जलेनाऽनशनादि तपः संयमरूपक्षारद्रव्येण प्रक्षालनद्वारा निर्जरातत्त्वं व्यप दिश्यते, निर्जरणं-देशतः परिगटनं निर्जरेति व्युत्पत्तेः ॥१॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व वाबद् जीवादि संबरपर्यन्तसप्ततत्वानां प्ररूपणं कृतम्, सम्पति-क्रस मातस्याऽयमस्य निर्जरा तत्वस्य प्ररूपणं कर्तुष्टममध्याय मारमते-'देसओ समस्खओ निजा ' इति । देशको न तु-सर्वतः कर्मक्षयः कर्मणां ज्ञानाचरणदर्शनावरणादि कर्मणां विपाशान था देशतः क्षयो-विनाशः परिशटनस् आत्मप्रदेशेभ्यो विघटनं-पृथग्भवनं निर्जरोच्यते । 'निजेरणं परिशटनं निर्जरा'-इति व्युत्पत्तेः, तथा च-पार्जितानां कर्मणाम् आत्म संश्किटानां विपाकेन वेदनरूपकर्मफल मोगेन-तपसा चाऽनशनादिना द्वादशविधेनाऽऽ. सेव्यमानेन देशतः क्षयो विध्वंसनं निर्जरातत्त्वं पदिश्यते । एवञ्चाऽऽरमरूप वस्त्रे जतुकाष्ठवत्-संश्लिष्टस्य ज्ञानावरणादि कर्मरजोमलस्य ज्ञानरूपादि सलिका, ज्ञान रूपी जल से, अनशन आदि तप एवं संघम रूपी खार (सोडे) से प्रक्षालन द्वाश हट जाना निर्जरातत्त्व है ।१! ____ तत्वार्थनियुक्ति--पहले जीव से लेझर संवर पर्यन्त सात तत्वों का निरूपण किया गया अब क्रमानुसार आठवें निर्जरा तत्व का निरू. पण करने के लिए आठवां अध्याय प्रारंभ किया जाता है। विपाक को प्राप्त अथवा नहीं प्राप्त ज्ञानावरण आदि कर्मों का एक देश से क्षय होना--आत्मप्रदेशों से पृथक् हो जाना निर्जरा है। पूर्वोपार्जित और आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हुए कर्म विपाक के द्वारा अर्थात् फल भोग के द्वारा घार प्रचार के अनशन आदि तपों के द्वारा क्षय को प्राप्त हो जाते हैं, उन्ही को निर्जरा कहते हैं। इस प्रकार अस्मा रूपी बस्त्र द्ध और पानी की तरह परस्पर રૂપી જળથી અનશન આદિ તપ અને સંયમ રૂપી ખાર (સેડા) થી પ્રક્ષાલન દ્વારા દૂર કઈ જવું નિર્જરાતત્વ છે. ૫ ૧ | તત્વાર્થનિર્યુકિતઃ–પહેલા જીવથી લઈને સંવર પર્યન્ત સાત તત્વનું નિરૂપણ કરવામાં અાવ્યું, હવે ક્રમાનુસાર આઠમાં નિર્જરાતત્વનું નિરૂપણ કરવા માટે આઠમે અધ્યાય શરૂ કરવામાં આવે છે. વિપાકને પ્રાપ્ત થવા નહીં પ્રાપ્ત જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોને એકદેશથી ક્ષય થઇ આત્મદેશોથી પૃથક્ થવું નિર્જરા છે પૂર્વોપાર્જીત અને આત્મપ્રદેશની સાથે એકમેક થયેલા કર્મવિપાક દ્વારા અર્થાત ફળભાગ દ્વારા બાર પ્રકારના અનશન આદિ તપ દ્વારા ક્ષયને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે, તેને જ નિર્જરા કહે છે. આ રીતે આત્મારૂપી વસ્ત્રમાં, દૂધ અને પાણીની જેમ પરસ્પર બદ્ધ જ્ઞાના Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७३ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ ६.१ निरास्वरूपनिरूपणम् लेनाऽनशन गायश्चित्तादि तपः संयमरूप क्षारण परिशोधन द्वारा निष्कासनं निस्सरणं निर्जरेत्यवगन्तव्यम् । उत्तरायने ३०-अध्ययने ६ गाथायाश्चोक्तम् 'एवं तु संजयरलावि पावकम्मनिरालवे । अबकोड़ी संचिशं फम्भं तवसा निज्जरिज्जह ॥१॥ एचन्तु संयतस्याऽपि पापकर्मनिरास्रवे। भवकोटी सश्चितं कर्म तपसा निर्जीयते ॥१॥ मूलम्-ला दुविहा, विवागजा-अविवागजा य ॥२॥ छाया-सा विधा, विपाजाऽविपाकजा च ॥२॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वसूबे-देशतो ज्ञानावरणादि कर्मक्षयरूपं निर्जरात प्ररूपितम्, सम्मलि-तभेदं प्रतिपादयितुमाह-शा दुविहा' इत्यादि । सा खलु पूर्वोक्तस्वरूपा निर्जरा द्विविधा भवति, तथपा-विपाकनाऽविपाकजाचेति, तत्रवह ज्ञानावरणीय आदि कर्म रूपी रज-मल का, ज्ञानादि रूप जल ले एवं अनशन आदि तथा प्रायश्चित्त आदि तप रूपी सोडे से शोधन होकर हट जाना नर्जरा समझना चाहिए। उत्तराध्ययन के तीसवै अध्ययन की छठी मात्रा में कहा है-- ___ पापकर्मों का आन्नच रस्क जाने पर संघारी पुरुष के करोडों भवों में संचित कर्मो की तपस्या के द्वारा निर्जरा हो जाती है ॥१॥ 'मा दुविहा विवागजा' इत्यादि निर्जरा दो प्रकार की है-चिपानजा और अविषा राजा ॥२॥ तत्वार्थीपिना-पूर्व मन्त्र में ज्ञानावरण आदि का एक देश से क्षय होने रूप निराला का निरूपण किया गया है, अब उसके भेदों का प्ररूपण करते-- વરણીય આદિ કર્મ રૂપી જન્મેલને જ્ઞાનાદિ રૂપ જળથી અને અનશન આદિ તથા પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ તપ રૂપી સોડાથી શુદ્ધ થઈને દૂર થઈ જવું, નિરા સમજવું જોઈએ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ત્રીસમાં અધ્યયનની છઠી ગાથામાં કહેવામાં આવ્યું છે– પાપકર્મોનો આસવ રોકાઈ જવાથી સંયમી પુરૂષના કરડે ભમાં સંચિત કર્મોની તપસ્યા દ્વારા નિજર થઈ જાય છે. મેં ૧ છે 'सा दुविहा विवागजा' छत्यादि સૂત્રાર્થ નિર્જરા બે પ્રકારની છે-વિપાકજા અને અવિપાકજા રા તત્ત્વાર્થદીપિકા–પૂર્વસૂત્રમાં જ્ઞાનાવરણ આદિનું એક દેશથી ક્ષય થવા રૂપ નિર્જરા તત્વનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે, હવે તેના ભેદોનું પ્રરૂપણ ४ी छी Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र विपाका कर्मफलवेदनरूपो भोगः तस्माद् विपाकाद् जाता-निप्पन्नाजायमाना उत्प. द्यमाना निप्पद्यमाना वा निर्जरा देशतः पृथग्भव नरूपा विपाकजा व्यपदिश्यते १ । तथाविधकर्यफलमोगरूप विषाकं विनवाऽनशनप्रायश्चित्तादिना तपः संयमेन जाता देशतः पृथग्भवनरूपा निष्पन्ना जायमाना वा निर्जराऽविपाकजा व्यय दिश्यते २, तत्र-नारकतिर्यङ्मनुष्यदेव चतुर्गतिपु नाना जातिविशेष भ्रमि विर्णित संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमणं कुर्वतो जीवस्य शुभाशुभस्य कर्मणः क्रमेण परिणाकालमाप्तफलानु मदोदयावलिकास्रोतोऽनुमविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा भवति । किन्तु-यत्पुनः कर्मविपाककालापाप्तमेव-औपक्रमिक क्रियाविशेष सामदिनुदीर्ण हठादुदीर्योदयावलिका प्रवेश्य वेद्यते व ताप सन्धूपनादिनाऽऽम्र-पनसादिपावत् साऽविपाकजा निर्जराऽवगन्तव्या-इति भावः ॥२॥ निर्जरा के दो भेद है-विपाकजो और अविपाकजा। उदय में आए हुए कर्म के फल को भोगना विपाक कहलाता है, उससे होने वाली निर्जरा विपायजा निर्जरा कहलाती है। दूसरी अविपाकजा निर्जरा का अर्थ है-हर्म के फल को भोगे धिना ही अनशन-प्रायश्चित्त आदि तप. श्वर्ण के द्वारा होने नाली निर्जरा। नारक, तिर्यच, मनुष्य और देवमति रूप संसार-महासागर में अनादि काल से भ्रमण करते हुए जीव के, परिपाक को प्राप्त शुभ और अशुभ काम, उदयालिका में प्रविष्ट होकर और अपना फल देकर हट जाते हैं, उसे लविपाक निर्जहा कहते हैं। किन्तु स्थिनिकाल पूर्ण हुए विना ही किसी औपक्रमिक क्रियाविशेष के सामर्थ्य से जो कर्म हठात् उदय में ले लाया जाता है और उद्यावलिका में प्रविष्ट करा कर फल નિર્જરાના બે ભેદ છે-વિપાકજા અને અવિપાકજા ઉદયમાં આવેલા કર્મના ફળને ભેગવવા તે વિપક કહેવાય છે, તેનાથી થનારી નિર્જરા વિપાકજા નિર્જરા કહેવાય છે બજી અવિપાકજા નિર્જરા જે કર્મના ફળને ભગવ્યા વગર જ અનશન પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ તપશ્ચર્યા દ્વારા થનારી નિર્જરા છે. નારકી, તિર્ય ચ, મનુષ્ય અને દેવગતિ રૂપ સંસાર મહાસાગરમાં અનાદિ કાળથી ભ્રમણ કરતા થકા જીવને, પરિપાકને પ્રાપ્ત શુભ અને અશુભ કર્મ ઉદયાવલિકામાં પ્રવિષ્ટ થઈને અને એમનું ફળ પ્રદાન કરીને દૂર થઈ જાય તેને સવિપાક નિર્જરા કહે છે પરંતુ સ્થિતિકાળ પૂર્ણ થયા વગર જ કંઈ ઔપક્રમિક ક્રિયા વિશેષના સામર્થ્યથી જે કમ ઉદયમાં લાવવામાં આવે છે અને ઉદયાવલિકમાં પ્રવિષ્ટ કરાવીને ફૂળ ભેળવી લીધા બાદ તે આત્માથી Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका १.८ सू.२ निर्जरायाः वैविध्यनिरूपणम् ५७५ तत्वार्थनियुक्ति:--पूर्वसत्रे-कर्म क्षयरूपनिर्जरायाः स्वरूपं निरूपितम्, सम्पति-तस्या भेदद्वयं प्रतिपादियितुमाह-'ला दुविहा, विशगजा अविवागजा-य' इति । सा पूर्वोक्तस्वरूपा निर्जरा द्विविधा भवति, लघया-विपाकजाऽविपाकजाचेति । तत्र-विषचनं विषाकर, उदयराबलिकापवेश, ज्ञानावरणादि कर्मणां विशिष्टो नानाप्रकारको वा पाका कर्मफलानुभावो विपाका, अप्रशस्त शुभ. परिणामाना मुत्कटः, प्रशस्त शुभपरिणामाना मनुस्कटश्च कर्गबन्धफलभोग रूपो. ऽनुभवः, सर्वासां कर्मप्रकृतीनां फम्भोगो विपाकोदयोऽनुभाव उच्यते । विविध पाको विपाका, स खल-रिपाक स्तथा भवति, अन्यथा च भवति, यथा येना. ऽध्यवसायप्रकारेण यादृम्भावं बद्धं कर्म भवति तत्तथा तेनैव प्रशारेण विषच्यते भोगने के पश्चात् वह आत्मा ले पृथक हो जाता है, उसे अदिपाजा निर्जरा कहते हैं जैसे गर्मी पहुंचार आप को समय से पहले ही पका लिया जाता है, जली प्रकार स्थिति का परिपाक होने से पहले ही तपस्या आदि के द्वारा कर्म को विपासोन्ठख कर लेना अविपारुजा निर्जरा है ॥२॥ तत्वार्थनियुक्ति--पूर्वस्त्र में निर्जरा का स्वरूप प्रतिपादन किया गया, अब उसके दो भेदों का निरूपण करते हैं निर्जरा दो प्रकार की है-विशाकजा और अविपाकजा। ज्ञानावरण आदि कमों का नाला प्रकार को जो फलालु भक्ष है, वह विपाक कहलाता है। सभी कर्मप्रकृतियों का फलभोग-विषाकोदय अनुवाद कहा जाता है। विविध प्रकार के पाक को भी विपाक करते हैं। कर्म का सिपाक कभी उसी रूप में शेता है, जिस रूप में बांधा है और सभी अन्यधा भी પૃથફ થઈ જાય છે, તેને અવિપાકજા નિર્જરા કહે છે. જેમ ગરમી આપીને કેરીને સમય થતા પહેલા જ પકાવી લેવામાં આવે છે. તેવી જ રીતે સ્થિતિ ને પરિપાક થતાં અગાઉ જ તપસ્યા આદિ દ્વારા કર્મને વિપાકે—ખ કરી લેવા તે અવિપાકજા નિર્ભર છે | ૨ | તત્વાર્થનિયુકિત-પૂર્વસૂત્રમાં નિર્જરાનું સ્વરૂપ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ, હવે તેના બે ભેદનું નિરૂપણ કરીએ છીએ નિર્જરા બે પ્રકારની છે–વિપાકજા અને અવિપાકજા જ્ઞાનાકરણ આદિ કર્મો નો જુદા જુદા પ્રકારને જે ફલાનુભવ વિપાકેદય અનુભવ છે તે વિપાક કહેવાય છે બધી કમ પ્રકૃતિના ફળ ભેગને વિપાકે.દય અનુભાવ કહેવામાં આવે છે વિવિધ પ્રકારના પાકને પણ વિપાક કહે છે કમને વિપાક કઈવાર તે જ રૂપમાં હોય છે, કે જે રૂપે બાયું હોય અને ક્યારેક અન્યથા પણ હોય છે. Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ایا तत्त्वार्थसूत्र विपाकः वर्मफलवेदनरूपो मोगः तस्माद् विपाकाद् जाता-निष्पन्नाजायमाना उत्प. द्यमाना निष्पद्यमाना वा निर्जरा देशतः पृथग्भवनरूपा विपाकजा व्यपदिश्यते १ । तथाविधकर्मफलमोगरूपविपाकं विनवाऽनशनप्रायश्चित्तादिना तपः संयमेन जाता देशतः पृथग्भवनरूपा निष्पन्ना जायमाना वा निर्जराऽविपाकजा व्यपदिश्यते २, तत्र-नारकतिर्यमतुष्यदेव चतुर्गतिषु नाना जातिविशेष भ्रमि विघूर्णित संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमणं कुर्वतो जीवस्य शुभाशुभस्य कर्मणः क्रमेण परिपाकालमाप्तफलानुभदोदयावलिकास्रोतोऽनुमविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा भवति । किन्तु-यत्पुनः कर्मविपाककालामाप्तमेव-औपक्रमिकक्रियाविशेष सामर्शदनुदीर्ण हठादुदीर्योदयावलिका प्रवेश्य वेचते वह ताप सन्धूपनादिनाऽऽम्र-पानसादिपावत् साऽविपाकजा निर्जराऽवगन्तव्या-इति भावः ॥२॥ . निर्जरा के दो भेद हैं-विपाकजो और अविपाकजा। उदय में आए हुए कर्म के फल को भोगना विपाक कहलाता है, उससे होने वाली निर्जरा विपायजा निर्जरा कहलाती है। दूसरी अविपाशाजा निर्जरा का अर्थ है-धर्म के फल को भोगे बिना ही अनशन-प्रायश्चित्त आदि तपः श्चयों के द्वारा होने वाली निर्जरा। नारक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति रूप संसार-महासागर में अनादि काल से भ्रमण करते हुए जीव के, परिपाक को प्राप्त शुभ और अशुभ काम, दयापलिका में प्रविष्ट होकर और अपना फल देका हट जाते हैं, उसे लविपाक निर्जा कहते हैं । किन्तु स्थिति काल पूर्ण हुए विना ही किसी औपक्रमिक क्रियाविशेष के सामर्थ्य से जो कर्म हठात् उदय में ले लाया जाता है और उद्घालिका में प्रविष्ट करा कर फल નિરાના બે ભેદ છે–વિપાકજા અને અવિપાકજા ઉદયમાં આવેલા કર્મના ફળને ભેગવવા તે વિપક કહેવાય છે, તેનાથી થનારી નિર્જરા વિપાકના નિજ રા કહેવાય છે બીજી અવિપાકજા નિર્જ જે કર્મના ફળને ગળ્યા વગર જ અનશન પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ તપશ્ચર્યા દ્વારા થનારી નિર્જરા છે. નારકી, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિ રૂપ સંસાર મહાસાગરમાં અનાદિ કાળથી ભ્રમણ કરતા થકા જીવને, પરિપાકને પ્રાપ્ત શુભ અને અશુભ કર્મ ઉદયાવલિકામાં પ્રવિષ્ટ થઈને અને એમનું ફળ પ્રદાન કરીને દૂર થઈ જાય તેને સવિપાક નિર્જરા કહે છે પરંતુ સ્થિતિકાળ પૂર્ણ થયા વગર જ કેઈ પક્રમિક ક્રિયા વિશેષના સામર્થ્યથી જે કમ ઉદયમાં લાવવામાં આવે છે અને ઉદયાવલિકમાં પ્રવિષ્ટ કરાવીને ફળ ભેળવી લીધા બાદ તે આત્માથી Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका आ.८ ५.२ निर्जरायाः वैविध्यनिरूपणम् ५७५ तस्वार्थनियुक्ति:--पूर्वस्त्रे-कर्म क्षयरूपनिर्जरायाः स्वरूपं निरूपितम्, सम्पति-तस्या भेदद्वयं प्रतिपादियितुमाह-'ला दुचिहा, पिशगजा अविवा. गजा-य' इति । सा पूर्वोक्तस्वरूपा निर्जरा द्विविधा भवति, तथथा-विषाकजाsविषाकजाचेति । तत्र-विपचन विधाका, उदशावलिकामवेश, ज्ञानावरणादि कर्मणां विशिष्टो नानाप्रकारको वा पाका कर्मफलानुभावो विषाकः, अप्रशस्त शुभ. परिणामाना मुत्कटः, प्रशस्त शुभपरिणामाना मनुस्कटश्च कर्मबन्धफलोग रूपो. ऽनुभवः, सर्वासां कर्मप्रकृतीनां फलोगो विपाकोदयोऽनुभाव उच्यते । विविध पाको विपाकः, स खल्लु-विपाक स्तथा भवति, अध्यथा च भवति, यथा येना. ऽध्यवसायमकारेण यादग्मावं बद्धं कर्स भवति तत्तथा तेनैव प्रकारेण विषच्यते भोगने के पश्चात् वह आत्मा ले पृथत हो जाता है, उसे विपासना निर्जरा कहते हैं जैसे गर्मी पहुंचाक्षर आम को समय से पहले ही पका लिया जाता है, उसी प्रकार रितिका परिपाक होने से पहले ही तपस्या आदि के द्वारा कर्म को विपासोन्मुख कर लेना अविपाकजा निर्जरा है।।२।। तत्वार्थनियुक्ति--पूर्वसूत्र में निर्जरा का स्वरूप प्रतिपादन किया गया, अघ उसके दो भेदों का निरूपण करते हैं__ निर्जरा दो प्रकार की है-विपकजा और अविषाकजा । ज्ञानावरण आदि कर्मों का नाना प्रकार को जो फलानु भक्ष है, वह विषाक कहलाता है। सभी कर्मप्रकृतियों का फल भोग-विपाकोदय अनुमान कहा जाता है। विविध प्रकार के पाक को भी विपाक करते हैं। कर्म का विपाक कभी उसी रूप में होता है, जिस रूप में बांधा है और कभी अन्यधा भी પૃથફ થઈ જાય છે, તેને અવિપાકજા નિર્જરા કહે છે. જેમ ગરમી આપીને કેરીને સમય થતા પહેલા જ પકાવી લેવામાં આવે છે. તેવી જ રીતે સ્થિતિ ને પરિપાક થતાં અગાઉ જ તપસ્યા આદિ દ્વારા કર્મને વિપાકે મુખ કરી से ते भविया नि छ ॥ २ ॥ તત્વાર્થનિયુકિત–પૂર્વસૂત્રમાં નિર્જરાનું સ્વરૂપ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ, હવે તેના બે ભેદનું નિરૂપણ કરીએ છીએ નિર્જરા બે પ્રકારની છે–વિપાકજા અને અવિપાકજા જ્ઞાનાવરણ દિ કમે ને જુદા જુદા પ્રકારનો જે ફલાનુભવ વિપાકેય અનુભવ છે તે વિપાક કહેવાય છે બધી કર્મપ્રકૃતિના ફળ ભેગને વિપાકે દય અનુભાવ કહેવામાં આવે છે વિવિધ પ્રકારના પાકને પણ વિપાક કહે છે કર્મને વિપાક કેઈવાર તે જ રૂપમાં હોય છે, કે જે રૂપ બચ્યું હોય અને ક્યારેક અન્યથા પણ હોય છે. Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T ५७६ तत्त्वार्थ अन्यथा च-प्रकारान्तरेणापि च विषच्यते, सब विपाकः कर्मफलभोगो-रसो. ऽनुभावश्चोच्यते, स च तीव्र-मन्दादिभेदो भवति । तत्र-कदाचित् शुभपपि कर्मा ऽशुभविषाकतयऽनुभूयते, अशु पञ्च-शुभनिपातयाऽनुभृतं भवति, सर्वासां कर्मप्रकृतीनां फलभोगो विपाकोदयाऽनुमाश्चन्धाद् जीवस्याऽनुभवनमिच्छाऽनिच्छा पूर्वकं भवति । तथाहि-ज्ञानावरणशर्मपकृतिफलं ज्ञानाऽभाना, दर्शनावरणकर्मकृमविफलं दर्शन शक्त्युपरोधः इत्येव रीत्या सर्वकर्मणां स्वरबकार्यवन्धरूपाऽनुभूतिर्भवति । तत्र-ज्ञानाबरणाघष्टविधेषु कर्म किश्चित्कर्मपुद्गलेष्वेव विपच्यते, होता है। तत्पर्य यह है कि कोई कर्म जिस प्रकार के अध्यवसाय से जिल रूप में बांधा गया है, उसी रूप में भोपा जाता है और किसी कर्म का विपाक अन्यथा रूप में भी होता है, अर्थात् अपवर्तना, उद्वः तना आदि कारणों के द्वारा कर्मकेविषाक में तारतम्य भी हो जाता है। वह कर्म फल रस एवं अनुभाव भी कहलाता है। किसी कर्म का अनुभाव मन्द और किली का तीव्र होता है। कभी-कभी शुभ विपाक अशुभ विपाक के रूप में और अशुल विपाक शुभ विपाक के रूप में परिणत हो जोता है सभी कर्म प्रकृतियों का फल उनके नाम के अनुसार ही होता है, जैले ज्ञानावरण प्रकृति का फल ज्ञान को आवृत करता है और दर्शना वरण प्रकृति का फल दर्शन शक्ति पो आच्छादित करता है। इसी प्रकार अन्य सय कर्मप्रकृतियों के विषय में समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार ज्ञानावरण आदि आठ कर्म प्रकृतियों में से कोर कमप्रकृति पुदगल विपाकिनी होती है। उसका फल पुराल में ही होता है। તાત્પર્ય એ છે કે કોઈ કર્મ જે પ્રકારના અધ્યવસાયથી જે રૂપમાં બાંધવામાં આવ્યું છે તે જ રૂપમાં જોગવવામાં આવે છે અને કઈ કર્મને વિપાક અન્યથા રૂપમાં પણ હોય છે, અર્થાત્ અપવર્નના ઉદૃવત્તના આદિ કારણે દ્વારા કર્મના વિપાક માં તારતમ્ય પણ થઈ જાય છે. તે કર્મફળ રસ અને અનુભાવ પણ કહેવાય છે કે ઈ કમને અનુભાવ મન્દ અને કોઈને તીવ્ર હોય છે. ત્યારે કયારેક શુભ વિપાક અશુભ વિપાકના રૂપમાં અને અશુભ વિપાક શુભ વિપાકનાં રૂપમાં પરિજીત થઈ જાય છે. બધી કર્મપ્રકૃતિનું ફળ તેમના નામ પ્રમાણે હોય છે, જેમ કે જ્ઞાનાવરણ પ્રકૃતિનું ફળ જ્ઞાનને ઢાંકવાનું અને દર્શનાવરણ પ્રકૃતિનું ફળ દર્શન શકિતને આચ્છાદિત કરવાનું છે. આવી જ રીતે અન્ય સઘળી કર્મપ્રકૃતિની બાબતમાં પણ સમજવું. આવી જ રીતે જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મપ્રકૃનિમાંથી કોઈ કઈ કમ પ્રકૃતિ પુદ્ગલ વિપાકિની હોય છે. તેનું ફળ પુદ્ગલમાં જ થાય છે. કેઈ કર્મ પ્રકૃતિ ભવવિપાકિની હોય Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . ~- दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.२ निर्जराया: द्वैविध्यनिरूपणम् ५७७ तत्कर्म नानामकारेण पुद्गलान् परिणमयति, किश्चित्पुनः कर्म भवविपाकी, भवति तस्मित् भवे प्राप्त जन्मन आत्मनः शरीरविशेषावच्छिन्नस्य विपच्यते, किश्चित्कर्म क्षेत्रविपाकी भवति क्षेत्रान्तरे विषच्यते, किश्चित्कर्म तु जीवविपाकी भवति तज्जीवे एव परभवादावपि विषच्यते, इत्येवं चतुर्धा विपच्यते । तथाचोक्तम् 'संहननं संस्थानं वर्ण स्पर्श रस गन्ध नामानि । गङ्गोपाङ्गानि तथा शरीरनामानि सर्वाणि ॥१॥ 'अगुरु लघु पराघातो-पघात नामातपोद्योतनामानि । प्रत्येकशरीर स्थिर शुभ नामा नीतः सार्धम् ॥२॥ प्रकृतय एताः पुद्गलविपाका भवविपाकमुक्त मायुष्कम् । क्षेत्रफलमानुपूर्वी जीवविषाकाः प्रकृतयोऽन्याः ॥३॥इति।। कोई कर्म भवविपाकी होता है। वह अमुक भव में ही या भव के निमित्त से ही अपना फल प्रदान करता है। कोई शर्म क्षेत्रविपाकी होता है, जिसका फल क्षेत्र के निमित्त से ही होता है । कोई फर्म जीव विपाकी होता है। उसका फल आत्मा को ही भोगना पडता है अर्थात् आत्मिक गुणां पर उसका प्रभाव होता है। इस प्रकार चार प्रकारसे कर्म का विपाक होता है। कहा ली है____ संहनन, संस्थान, वर्ण, स्पर्श, रस, गन्ध, अंगोपांगनाम कर्म, शरीरनामकर्म, अगुरूलधुनास, पराघात, उपघात नामकर्म, आतप नाम: कर्म, उद्योत नामकर्म, प्रत्येक शरीर, स्थिर और शुभ नामकर्म, तथा उनकी विपरीत प्रकृतियां जैसे साधारण शरीर, अस्थिर और अशुभ नामकर्म, ये सब नामकर्म की प्रकृतियां पुद्गल विपाकी है। पार છે. તે અમુક ભવમાં જ અથવા ભવના નિમિત્તથી જ પિતાનું ફળ પ્રદાન કરે છે. કોઈ કર્મપ્રકતિ ક્ષેત્રવિપાકી હોય છે. તેનું ફળ ક્ષેત્રના નિમિત્તથી જ થાય છે. કેઈ કર્મપ્રકૃતિ જીવ વિપાકી હોય છે. તેનું ફળ આત્માને જ ભોગવવું પડે છે. અર્થાત આત્મિક ગુણો પર તેને પ્રભાવ હોય છે. આમ ચાર રીતે ४मन वि थाय छे. ४थु ५५ छ सहनन, संस्थान, वण, २५, २स. गन्ध, २मयां नाम भ, शरीर નામ કર્મ, અગુરૂ લઘુ નામ પરાઘાત, ઉપઘાત નામ કર્મ, આતપ નામ કમ ઉદ્યોતનામ કર્મ પ્રત્યેક શરીર, સ્થિર અને શુભનામ કર્મ તથા એમની વિપરીત પ્રકૃતિઓ જેમકે સાધારણ શરીર અસ્થિર અને અશુભ નામ કર્મ, આ બધી નામ કર્મની પ્રકૃતિએ પુદ્ગલ વિપાકી છે. ચાર પ્રકારનું આયુષ્ય કર્મ ભવવિપાકી છે. આનુપૂર્વી પ્રકૃતિ ક્ષેત્ર વિપાકી છે અને શેષ બધી પ્રવૃતિઓ જીવ વિપાકી છે. ૧૩ त० ७३ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ तस्वार्थ अथ कथं तावत्- अन्यथा कर्मवन्धः, तदन्यथा फलत्रिपाकरूपो रसो विपच्यते' इति । चेद ? अनोच्यते-जीरः कर्मफलविषाकमनुभवन् कर्महेतुकमेवाऽनाभोगपूर्वकं कर्म संक्रमं करोति, तथाचोत्पादव्यबधौव्यत्वात् परिणामी खल्वास्मा ज्ञानावरणादिकस्य कर्मणः फलविणाकं भुञ्जानो वेधमानः सन् मूलकम प्रकृतिभिन्नोत्तरप्रकृतीनां संक्रनं करोति यथा-ज्ञानावरणरूपमूलप्रकृतेः पञ्चविधालु मरिजालावरणश्रुतज्ञानावरणपोतरमकृतिषु परस्परं संक्रमो भवति । तत्रोहरप्रकृतीलामेवोत्तरप्रकृतिषु संक्रमो वोध्यः यथा-मतिज्ञानाप्रकार का आयुकर्म भव विपाकी है। आनुपूर्वी प्रकृति क्षेत्र विपाकी है और शेष सब प्रकृनियां जीव विपाकी हैं ॥१-३॥ : शंका-फर्म का बन्ध अन्य रूप में हो और उसका फव विपाक अन्ध रूप में यह कैसे हो सकता है ? । समाधान-जीव कर्म फल भोगता हुआ अनाभोग पूर्वक अर्थात् अनजान में ही कर्म का संक्रमण कर लेता है। उत्पाद, व्यय और धौव्य स्वरूप होने के कारण परिणतन शील आत्मा ज्ञानावरण आदि कर्मों का फल भोगता हुआ उनकी उत्तर प्रकृतियों में उलटफेर कर लेता है। इसी को संक्रमण कहते हैं । यह प्रकृतिसंक्रमण भूल प्रकृतियों का होता, अर्थात् एक मूल प्रकृति दूसरी मूल प्रकृति के रूप. में नहीं पलट सकती, जैसे ज्ञानाधरण, दर्शनावरण के रूप में संक्रान्त नहीं होती. और दर्शनावरण किसी दूसरी मूल प्रकृति के रूप में नहीं पलटती। एक मूल प्रकृति का उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। उदाहरणार्थ * શંકો–કર્મને અન્ય અન્ય રૂપમાં હોય અને તેને ફળવિપાક અન્ય રૂપમાં डाय मेम ४५-रीत . ? ‘-સમાધાન–જીવ કમફળ ભેગવતે થકે અનાગપૂર્વક અર્થાત અજાણપણે જ કર્મનું સંક્રમણ કરી લે છે. ઉત્પાદ વ્યય અને ધ્રૌવ્ય સ્વરૂપ હેવાના કારણે પરિણમનશીલ આત્મા જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોનું ફળ ભેગવતે થકે તેમની ઉત્તરપ્રકૃતિમાં ફેરબદલી કરી લે છે. આને જ સંક્રમણ કહે છે. આ પ્રકૃતિસંક્રમણ મૂળ પ્રકૃતિઓનું થતું નથી અથાત્ એક મૃળપ્રકૃતિ બીજી મૂળ પ્રકૃતિના રૂપમાં બદલાઈ શકતી નથી, જેમકે જ્ઞાનાવરણુ, દર્શનાવરણના રૂપમાં સંક્રાન્ત થતી નથી અને દર્શનાવરણ કેઈ બીજી મૂળ પ્રકૃતિના રૂપમાં ફેરવાતી નથી. એક મૂળ પ્રકૃતિનું ઉત્તરપ્રકૃતિમાં સંક્રમણું થાય છે. દા. ત. મતિ જ્ઞાના Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८सू.२ निर्जरायाः द्वैविध्यनिरूपणम् वरणं श्रुतज्ञानावरणं संक्रामति, श्रुतज्ञालाचरणं वा मतिज्ञानावरणं : संक्रामति । एवं श्रुतज्ञानावरणस्य खलु अवधिज्ञानावरणेन संक्रमो भवति, एवं-तस्यापि मनः पर्ययज्ञानावरणादिषु-अपि संक्रमो बोधयः। किन्तु-गविज्ञानावरणादिकं पञ्चविधं ज्ञानावरणं न दर्शनावरणमूलमतेरूप चक्षुदर्शनावरणादिषु 'संक्रामसि, नाऽपि मूळप्रकृतिषु संक्रमो भवति, नहि-शानावरणं दर्शनावरणे- संक्रामति, नापि-दर्शनावरणं ज्ञानावरणे वा संकामति' इत्येव मन्यत्रापि योजनीयम् । वन्ध विपाकनिमित्तानां भिन्न जातीयकत्वात् यथा-ज्ञानावरणस्य बन्धनिमित्त मदोषमति ज्ञानावरण श्रुतज्ञोलाधरण आदि ज्ञानावण की पांच उत्तर प्रकृतियां है, उनमें परस्पर संक्रमण हो सकता है अति ज्ञानावरण पलटकर श्रुतज्ञानावरण रूप में परिणत हो सकता है और श्रुतज्ञानावरण भति ज्ञानावरण के रूप में संक्रान्त हो सकता है। श्रुतज्ञानावरण प्रकृति अवधि ज्ञानावरण के रूप में अवधि ज्ञानाबरण मनापर्यव ज्ञानावरण के रूप में और मनापर्यच ज्ञानावरण केवल ज्ञानावरण के रूप में संक्रान्त हो सकती है । इली प्रकार अन्यान्य शलों की उत्तर प्रकृतियां भी परस्पर बदल जाती हैं। इस नियम में दो अपचान है। प्रथम यह की कर्म की प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता, जैले देवायु प्रकृति मनुष्यायु के रूप में या मनुष्यायु बदलकर अन्य किती आयु के रूप में नहीं बदलती। दूसरा अपवाद यह है कि दर्शन मोहनीय और चारिन मोहनीय प्रकृतियों में भी परस्पर संकषण नहीं होता है। दर्शन लोहनीय चारित्र मोहनीय के रूप में और चारित्र मोहनीय दर्शन लोहनीय के रूप में नहीं पलटती। વરણ શ્રુતજ્ઞાનાવરણ આદિ જ્ઞાનાવરણની પાંચ ઉત્તરપ્રકૃતિઓ છે તેમનામાં પરસ્પર સંક્રમણ થઈ શકે છે. મતિજ્ઞાનાવરણ બદલાઈને શ્રુતજ્ઞાનાવરણ રૂપમાં પરિણત થઈ શકે છે અને શ્રુતજ્ઞાનાવરણ મતિજ્ઞાનાવરણના રૂપમાં સંકાન્ત થઈ શકે છે. શ્રુતજ્ઞાનાવરણપ્રકૃતિ અવધિજ્ઞાનાવરણના રૂપમાં, અવધિજ્ઞાનાવરણ મન પર જ્ઞાનાવરણના રૂપમાં અને મન:પર્યવ જ્ઞાનાવરણ કેવળજ્ઞાનાવરણના રૂપમાં સંક્રાંતિ થઈ શકે છે. એવી જ રીતે અન્યાન્ય કર્મોની ઉત્તર પ્રકૃતિએ પણ પરસ્પર સજાતિય પ્રકૃતિ સાથે બદલાઈ જાય છે. આ નિયમમાં બે અપવાદ છે પ્રથમ એ છે કે આયુષ્ય કર્મની પ્રકૃતિમાં સંરક્ષણ થતું નથી. જેમકે દેવો. પ્રકૃતિ મનુષ્યાયના રૂપમાં અથવા મનુષ્પાયુ બદલઈને અન્ય કેઈ આયુષ્યના રૂપમાં પલટાતી નથી. બીજે અપવાદ એ છે કે દર્શન મેહનીય અને ચારિત્ર, . .. Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F - तत्त्वार्थी निहूनवादि, असद्वेदनीयादेवुःखशोकादि, ज्ञानावरणदर्शनावरणयोर्वन्धनिमित्तस्याऽभिन्नत्वेऽपि सदाशयविशेषाद् भिद्यते एव, विशेषग्राहि ज्ञानावरणं विशेषोपयोगमन्तर्धत्ते, दर्शनावरणन्तु-सामान्यमात्रग्राहित्वात् सामान्योपयोगमेवाऽन्तर्धत्ते, इत्येवं बन्धनिमित्तभेदात् विपाकनिमित्तभेदाच्च भिन्नासु ज्ञानावरणाधष्टविध. मूलप्रकृतिषु परस्परं संक्रमो न भवति । एवमुत्तरप्रकृतिष्वपि सजातीययोरपि दर्शनचरित्रमोहनीययोः परस्परं संक्रमो न भवति, नहि-दर्शनमोहचारित्रमोहे संक्रमति नापि-चारित्रमोहो दर्शनमोहे संक्रामति । एवं-सम्यक्त्वं सम्यगमिथ्यात्वे न संक्रामति, किन्तु-पूर्व मसत्यपि बन्धे सम्यमिथ्यात्वस्य सम्यक्त्वे संक्रमो भवत्येव । एवं-नारक, तिथंङ्, मनुष्य, देव भेदस्याऽऽयुष्कस्य परस्परं संक्रमो भवति । एतेषा मपि प्रत्येक जात्यन्तराऽनुबन्धविपाकनिमित्तानां विभिन्नजातीयकत्वात् स खल्ल-कर्मफलदिपाको गति नामाधनुसारेण - यह पहले ही कहा जा चुका है कि मूल प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता है। इसका कारण यह है कि उनके बन्ध के कारणों में मौलिक मेद होता है, जैसे ज्ञानावरण कर्म के बन्ध के कारण प्रदोष और निहनव आदि हैं, जब कि आसाता वेदनीय के बन्ध के कारण दुःखशोक आदि हैं - तात्पर्य यह है कि कर्म का फल भोग लेने के पश्चात् वह कर्म 'आत्मपदेशों से पृथक हो जाता है, अकर्म के रूप में परिणत हो जाता है, उसे विपाकजा निर्जरा कहते हैं । इस प्रकार संसार रूपी महा समुद्र में रहते हुए आत्मा के जो शुभ-अशुभ कर्म विपाक को प्राप्त हो जाते हैं-उद्यावलिका में प्रविष्ट होकर और अपना यथायोग्य મેહનીય પ્રકૃતિઓમાં પણ પરસ્પર સંક્રમણ થતું નથી. દર્શનમોહનીય ચારિત્રમેહનીયના રૂપમાં અને ચારિત્રમોહનીય દર્શનમોહનીયના રૂપમાં બદલાતી નથી. એ તે પહેલા જ કહેવામાં આવી ગયુ છે કે મૂળપ્રકૃતિઓમાં સંક્રમણ થતું નથી એનું કારણ એ છે કે તેમના બન્ધના કારણેમાં મૌલિક ભેદ હોય છે જેમકે જ્ઞાનાવરણ કર્મના બન્ધના કારણે પ્રદોષ અને નિહૂનવ આદિ છે, જ્યારે કે અસાતા વેદનીયના બંધના કારણે દુઃખ–શક આદિ છે. તાત્પર્ય એ છે કે કર્મનું ફળ ભોગવી લીધા બાદ તે કર્મ આત્મપ્રદેશથી પૂથ થઈ જાય છે. અકર્મના રૂપમાં પરિણુત થઈ જાય છે, તેને વિપાકજા નિર્જરા કહે છે. આ રીતે સંસાર રૂપી મહા સમુદ્રમાં વહેતા આત્માના જે શુભ અશુભકર્મ વિપાકને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે ઉદયાવલિકામાં પ્રવિષ્ટ થઈને અને પિતાનું યથાયોગ્ય ફળ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका - नियुक्ति टीका अ. ८ सू.२ निर्जरायाः दैविध्यनिरूपणम् ५८१ भवति यथा नामविपच्यते इति भावः तस्मात् खलु विपाकलक्षणा दनुभावाद् ज्ञानावरणादिकर्मणां या- निर्जरा निर्जरणम् आत्मप्रदेशेभ्यः परिशटनं क्षयः कर्मपरिणति विनाशोभवति सा विपाकजा निर्जरा व्यपदिश्यते । तथा च-संसारमहार्णवे परिप्लवमानस्याऽऽत्मनः शुभाशुभकर्मणो विपाककालमाप्तस्य यथायथमुदया वळिकापविष्टस्य फलोपभोगादुपजातस्थितिक्षये सति या निवृत्तिर्भवति साविपाकजा खच निर्जरा - इति फलितम् । यत्पुनः कर्माऽपातकालविपाकमीप क्रमिक क्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्ण सपदि बलादुदीर्योदयावलिकामनुप्रवेश्याssम्रपानसतिन्दुकादि फलपाकवद् वेद्यमानं सत् निर्जीर्णं भवति स खल - अविपाकजा निर्जरा उच्यते ॥२॥ मूलम् - तवो विवागोय निज्जराहेऊणो ॥ ३ ॥ छाया - ' तपो विपाकश्च निर्जराहेतवः ॥ ३ ॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्वं तावद् द्विविधा निर्जरा भवति, विपाकजाऽविपाकजा चेति प्ररूपितम्, सम्मति तस्याः खलु कर्मक्षयलक्षणाया निर्जराया हेतु प्रतिफल देकर स्थिति का क्षय होने पर आत्मा से अलग हो जाते वह विपाकजा निर्जरा है । जो कर्म स्थिति पूर्ण होने से पूर्व ही, तपश्चरण आदि के द्वारा उदयावलिका में ले आया जाता है और आम्र, पनस तिन्दुक आदि फलों के शीघ्र पाक की तरह भोग लिया जाता है, उसकी निर्जरा को अविपाकजा निर्जरा कहते हैं ॥२॥ 'तवो विवागोय' इत्यादि सू० ३ सूत्रार्थ - - तप और विपाक निर्जरा के कारण हैं || ३ || तत्वार्थदीपिका- पहले कहा गया है कि विपाकजा और अविपाकजा પ્રદાન કરીને સ્થિતિને ક્ષય થવાથી આમાંથી અલગ થઈ જાય છે, તે વિપાકજા નિરા કહેવાય છે. જે કમ સ્થિતિ પૂર્ણ થતાં અગાઉ જ તપશ્ચરણુ આદિ દ્વારા ઉદયાવલિકામાં લાવવામાં આવે છે અને આમ્રફળ, ફેસ સીતાફળ વગેરે ફળેાના શીધ્ર પિરપતાની જેમ, ભાગવી લેવામાં આવે છે, તેવી નિર્જરાને અવિપાકજા નિજરા કહે છે. 11 ર્ ॥ 'तवो विवागोय निज्जराहेऊणो' इत्यादि સૂત્રા — તપ અને વિપાક નિરાના કારણ છે ॥ ૩ ॥ તત્ત્વાથ દીપિકા પહેલા કહેવામાં આવ્યું કે વિપાકજા અને અવિપાકજા Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५८५ तस्वार्थ पादयितुमाह-'लको विधागोय निज्जगहेऊणो' इति । तपः शरीरेन्द्रिय तपन रूपं बाह्यमनशनादिकम्, आभ्यन्तरं प्रायश्चित्तादिकञ्च द्विविधं तपः । विपाकश्च-फबमोगरूपो निर्जराहेतुः कर्मक्षयलक्षणनिर्जरायाः वर्तते, तथा चाऽमशनादि षषधेन बाह्येन तफ्ला, प्रायश्चित्तादिना चाऽऽभ्यन्तरेण तपला शरीरेन्द्रियादि लन्तापनात् कर्मनिर्दहनाच्च ज्ञानाचरणादि कर्मक्षय लक्षणा निर्जरा भवति । एवं-विपाकेन च शुभाशुभकर्मफलसुखदुःखानुभवलक्षणेन पूर्वोक्तस्वरूपेण कर्मक्षयलक्षणा निर्जरा भवति । अतएव-बाह्याभ्यन्तर तपः कृतकर्मणः सुखदुःखरूपफल भोगविपाकश्च देशतो निर्जराहेतुः इति ।३। तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-कर्मक्षयलक्षणनिर्जरायाः स्वरूपं-भेदश्च मरूपितः, सम्प्रीत-तस्याः कारणं प्रतिपादयितुमाह-'तवो' इत्यादि । तपः शरीरेन्द्रियसन्तापनपं-कमनिर्वहनरूपञ्च बाह्यमाभ्यन्तरञ्चाऽनशनादिपडूविधं -के भेद ले निर्जशदो प्रकार की है, अब उसके कारणों का प्ररूपणकरते हैं. शरीर और इन्द्रियों को तपाना तप है । अनशनादि बाह्य और प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप हैं । यों तप के दो भेद हैं। कर्मफल का भोग विपाक कहलाता है । ये दोनों निजेरा के कारण हैं । इस प्रकार अनशन आदि वाह्य और प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप से. निर्जरा होती है । इसी प्रकार शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुःख रूप फल के उपभोग. रूप विपाक से भी निर्जरा होती है ॥३॥ , तत्वार्थनियुक्ति-पहले कर्मक्षय रूप निर्जरा के स्वरूप का और भेदों का निरूपण किया गया है, अब उसके कारणों का प्ररूपण करते हैं--- 'ના ભેદથી નિર્જરા બે પ્રકારની છે, હવે તેના કારણોની પ્રરૂDણું કરીએ છીએ 'શરીર અને ઈન્દ્રિઓને તપાવવા, એ તપ છે. અનશનાદિ બાહ્ય અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ આભ્યન્તર તપ છે. તપના આમ બે ભેદ છે. કર્મફળનું ભોગવવું વિપાક કહેવાય છે. આ બંને નિર્જરાના કારણ છે. આવી રીતે અનશન આદિ બાહ્ય અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ આભ્યન્તર તપથી નિર્જરા થાય છે એવી જ રીતે શુભાશુભ કર્મોની સુખ દુઃખ રૂપ ફળના ઉપગ રૂપ વિપાકથી પણ નિર્જરા થાય છે. ફા તાર્થનિયુક્તિ–પહેલા કર્મક્ષય રૂપ નિર્જરાના સ્વરૂપનું અને ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે તેના કારણોનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ - શરીર અને ઇન્દ્રિઓને તપાવવા રૂપ તપ બે પ્રકારના છે અનશન આદિ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८७.३ निर्जरायाः कारणनिरूपणम् प्रायश्चित्तादिषडूविक्षश्च तपः विपावश्च -शुभाशुभकर्मफळभोगरूपो रसोऽनु.. भावात्मको निर्जराहेतुः देशतः कर्मक्षयलक्षणाया निर्जरायाः कारणं वर्तते । एवं-कृतकर्मफलभोगरूपविपाकेन चोपर्युक्तस्वरूपा निर्जरा भवति अनशन मायश्चित्तादितः चिरसश्चितकर्मक्षयरूपां निर्जरां करोति शुभाशुभकृतय.मफल मोगरूपः सुखदुःखानुभवात्मको विपाकश्च तथाविध कर्मक्षयरूपां निर्जरां जरयति । अतएव-अनशनमायश्चिनादिकं द्वादशविधं तपः कर्मफलमोगरूपों विपाकश्च कर्भ क्षथलक्षणां निर्जरां प्रतिहेतु भवति । उत्तश्चोराराध्ययले ३० अध्ययने ६ गाथायास्-'एवं तु संजरला विपादकम्मनिरासवे । भवकोडी. संचियं कम्म तसा निजरिस्सई' ॥१॥ एवन्तु संरतस्यापि पापकर्मनिरास्त्रवे। भवकोटी सश्चितं कर्म तपसा निर्जीर्य ते ॥१॥ इति, उक्तञ्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ-.. भेद होता है, जैसे ज्ञानावरण कर्म के बन्ध के कारण प्रदोष और निहनव आदि हैं, जब की असाना वेदनीय के पंध के कारण दुःखशोक आदि हैं ___ शरीर एवं इन्द्रियों को लपाना रूप रूप दो प्रकार का है-अनशन आदि छह बाह्य रूप है और प्रायश्चित्त आदि छह आश्चन्तर तप हैं। शुभाशुभ कर्मों का फल भोगना विपाक कहलाता है। इन दोनों कारणों से निर्जरा शेती है। इस प्रकार कृत कर्मों के फल भोग रूप विपाक से फार्म क्षय रूप लिजरा होनी है। अनशन एवं प्रायश्चित्त आदि पारह प्रकार के रूप से भी चिरसंचित कर्मों की निर्जरा होती है उत्तराध्ययनसून के अध्ययन ३०, गाथा ६ में कहा है 'इस प्रकार संयमशील पुरुष जब पाप कर्मों के आस्रव का नियोध कर देता है तो कोटी कोटी भयों लंचित कर्मों का तपस्या के द्वारा क्षय कर देता है ॥१॥ છ બાહાતપ છે અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ આભ્યન્તર તપ છે. શુભાશુભ કર્મોનુ ફળ ભેગવવું વિપાક કહેવાય છે. આ બંને કારણથી નિર્જરા થાય છે આવી રીતે કૃત કર્મોના ફળ રૂપ વિપાકથીકર્મક્ષય રૂપ નિર્જરા થાય છે: અનશન અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ બાર પ્રકારના તપથી પણ ચિર સંચિત કર્મોની નિર્જરા થાય છે. ઉત્તરાધ્યાન સૂત્રના અધ્યયન ૩૦, ગાથા ૬ માં કહ્યું છે આ રીતે સંયમશીલ. પુરૂષ જ્યારે પાપકર્મોના આસ્રવને નિરોધ કરી દે છે તે કેટિ–કેટિ ભરે માં સંચિત કર્મોને તપસ્યા દ્વારા ક્ષય કરી દે છે 1 ૧ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ तत्वार्थ संत्रे 'कम्मा उदीरिया वेडपाय निज्जिण्णा' इति कर्माणि - उदीरितानि वेदितानिच निर्जीर्णानि भवन्ति इति ||३|| मूलम् - तवो दुविहो बाहिर अंतरभेया ॥४॥ छाया - तपो द्विविधम् वह्यभ्यन्तरभेदात् ||४|| तत्वार्थदीपिका - पूर्व निजरायास्तपो - विपाकथ कारणमिति प्रतिपादितम् सम्प्रतम् तपसो द्वैविध्यं प्रतिपादयितुमाह- 'तवो दुविहो' इत्यादि । तपो द्विविधं भवति वाह्याभ्यन्तरंच, तत्र वाह्यम् अनशनादिकम् आभ्यन्तरं प्रायश्चित्तादिक मिति द्विविधं तपः । तत्र वाह्यन्तपोऽनशनादि भेदात्पच्विधम् एव - माभ्यन्तर तपोऽपि प्रायश्चित्तादिभेदात्पविधमिति द्वादशविधं तपो भवति । द्वादशविधस्यास्य तपसः सविस्तरं भेदप्रभेदमतिपादिका व्याख्या पूर्वं सप्तमाध्याये - गताऽतस्तत्राऽवलोकनीया ॥ ४ ॥ व्याख्या प्रज्ञप्ति में भी कहा है-उदय में आए कर्म जब भोग लिये जाते हैं तो उनकी निर्जरा हो जाती है ॥६॥ 'तवो दुविहो वाहिरन्तर भेया' सूत्रार्थ-तप दो प्रकार का है-वाह्य और आभ्यन्तर ||४|| तत्वार्थदीपिका - पूर्व में कहा गया है कि तप और विपाक से निर्जरा होती है, अतएव यहां तप के दो भेदों का निरूपण करते हैं बाह्य और आभ्यन्तर भेद से तप दो प्रकार का है । बाह्य तप अनशन आदि के भेद से छह प्रकार का है । अभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त आदि है। उसके भी छ भेद हैं। इस प्रकार तप के बारह भेद होते है। बारहों प्रकार का तप का विस्तृत वर्णन भेद प्रभेद सहित सातवें अध्याय में किया जा चुका है। वहां देख लेना चाहिए || ४ || વ્યાખ્યાનપ્રજ્ઞપ્તિમાં પણ કહ્યું છે-ઉદયમાં આવેલા કર્મ જ્યારે ભાગવી લેવા માં આવે છે ત્યારે તેમની નિર્જરા થઇ જાય છે !! ૩ !! 'तवो दुविहो बाहिरमंतरभेया' - इत्यादि । સુત્રા—તપ એ પ્રકારના છે બાહ્ય અને આભ્યન્તર ! ૪ ૫ તત્ત્વાથ દીપિકા અગાઉ કહેવામાં આવ્યુ છે કે તપ અને વિપાકથી નિર્જરા થાય છે, આથી અહી' તપના બે ભેદેતુ' નિરૂપણ કરીએ છીએ બાહ્ય અને આભ્યન્તરના ભેથી તપ એ પ્રકારના છે બાહ્યતપ અનશન આદિના ભેદથી છ પ્રકારના છે આભ્યન્તર તપ પ્રાયશ્ચિત આફ્રિ છે તેના પણ છ લે છે. આવી રીતે તપના માર ભેદ થાય છે. ખારે પ્રકારના તપનું સવિસ્તર વર્ણન ભેદ પ્રભેદસહિત સાતમાં અધ્યાયમાં કરવામાં આવ્યું છે ત્યાં જોઈ લેવા ભલામણુ છે જા Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.५ अनशनतपसः द्वैविध्यनिरूपपाम् ५५ मूलम्-तत्थवाहिरए अणसणतवे दुविहे, इत्तरिए-जाव कहिए य ॥५॥ - छाया-तत्र वाह्यम्-अनशनतपो द्विविधम्, ईत्वरिक-यावत्कथिकञ्च ॥५॥ ।' तत्वार्थदीपिका-पूर्व तपसो बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशविधस्यापि निर्जराहेतुत्वं प्रतिपादितम्, सम्पति-पविधवाह्य तपसः प्रथमोपात्तस्याऽनशनरूपस्ये द्वैविध्यं प्रतिपादयितुमाह 'तत्थ बाहिरए' इत्यादि । तत्र-पूर्वोक्त पविध वाम तपसि बाह्यम्-बहिर्भवं खल्लु अनशनतपो द्विविधं भवति तद्यथा-इत्वरिकं, यावकथिकञ्च । तत्र अल्पकालिकम् इत्परिकं नामाऽनशन तपः। यावज्जीव पर्यन्त मनशन तपस्तु-यावत्कथिक मुच्यते, खत्र-एति गच्छति तच्छीलम् इत्वरिकम् अल्पकालिक मनशन मुच्यते, गमनशीलत्वात् । यावत्कथिकन्तु-यावद् यदवधिमनुष्योऽयम् इति मुख्य व्यवहाररूपा कथा प्रचलति, तत्र भवं यावत्कथिक जीवन 'तत्थ बाहिरए अणलणत' इत्यादि। सूत्रार्थ-बाह्यतप अनशन के भेद हैं-इत्वरिक और धावत्कथिक।५। तत्त्वार्थदीपिका-घारह प्रकार का तप निर्जरा के हेतु है, यह पहले कहा गया है, अब प्रथम बाह्य तप अनशन के दो भेदों का कथन करते हैं- पूर्वोक्त छह प्रकार के बाह्य तपों में से अनशन के दो भेद हैइत्वरिक और यावत्कथिक। घोडे समय के लिए जो अनशन किया जाता है वह इत्वरिक अनशन कहलाता है और जो अनशन जीवन पर्यन्त तक के लिए किया जाता है, उसे यावत्कधिक कहते हैं । अल्प कालिक -अनशन इत्वरिक है और जब तक 'यह मनुष्य है। ऐसा व्यवहार होता-रहे अर्थात् जो अनशन-जीवन-पर्यन्त रहे वह यावत्क 'तत्थ बाहिरए अणसणतवे' त्यादि । સૂત્રાર્થ – બાહ્ય તપ અનશનના ભેદ ઈ–રિક અને યાત્મથિક છે. પણ તજ્યાથદીપિકા-બાર પ્રકારના તપ નિર્જરાના હેતુ છે, એ પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે, હવે પ્રથમ બાહ્ય તપ: અનશનના બે ભેદનું કથન કરીએ છીએ પૂર્વોક્ત છ પ્રકારના બાહ્ય તપમાંથી અનશનના બે ભેદ છે ઈવરિક અને યાવત્રુથિક, શેડા વખત માટે જે અનશન કરવામાં આવે છે તે ઇત્વરિક અનશન કહેવાય છે અને જે અનશન જીવનપર્યન્ત માટે કરવામાં આવે છે, તેને યાત્મથિક કહે છે. અલ્પકાલીન અનશન ઈત્વરિત છે અને જ્યાં સુધી. આ મનુષ્ય છે? એ વ્યવહાર થતું રહે અર્થાત જે અનશન त०७४ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाणे पर्यन्त मनशनं भवति । तथा च-अल्पकालिकत्वाद् इत्वरिकम्, जीवनपर्यन्त 'ध्यापिस्वाद् यावत्कथिक मुच्यते ॥५॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तपसो निर्जरा हेतुत्वं पतिपादितम्, सम्पतिअनशनादिकस्य पइविधस्य वाह्यतपसः प्रथमोपात्तस्याऽनशनतपसो द्वैविध्यं प्रतिपादयितु माह-'तत्थ बाहिरए अणसणतवे दुविहे, इत्तरिए-जाव. फहिए य' इति । तत्र-द्वादशविधेषु तपासु वाह्यम् वहिर्भवम् अनशनरूपं पषमतपो द्विविधं भवति, इत्वरिक-यावत्कथिकञ्च । तत्राऽल्प कालिक मनशनः सप इत्वरिकं व्यपदिश्यते, एति-गच्छिति तच्छीलन इत्वरम् 'इण नश जिसः तिभ्याकरप्' इति वाच्छील्ये क्वरप् प्रत्ययः इत्वरमेव इत्वरिकमितिव्युत्पत्तेः। तद्यथा-श्रीमहावीर स्वामिनोऽन्तिमतीर्थकरस्य तीर्थे नमस्कार सहित भक्तादि प्रत्याख्यानकालादारभ्य चतुर्थभक्तषष्ठभक्तादिक्रमेण षण्मास पर्यन्त मनशन तपो चिक कहलाता है। इस प्रकार अल्पकालिक होने से इत्वरिक और जीवन व्यापी होने से यावत्कथिक अनशन कहलाता है ॥५|| , तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले बतलाया गया है कि तप निर्जरा का कारण है । अब अनशन आदि छह प्रकार के बाह्य तपों में प्रथम गिनाए अनशन तप के दो भेदों का कथन करते हैं पारह प्रकार के तपों में अनशन नामक प्रथम तप के दो भेद हैइत्वरिक और यावत्कथिक । जो अनशन मर्यादित काल के लिए किया जाता है यह इत्वरिक कहलाता है। . अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के तीर्थ में नवकारसी के प्रत्याख्यान काल से आरंभ करके चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त आदि के क्रम से छह मास तक का अनशन तप होता है। आदि तीर्थंकर श्री જીવનપર્યત રહે તે યાવત્રુથિક કહેવાય છે. આ રીતે અ૫કાલિન હોવાથી ઇત્વરિક અને જીવન વ્યાપી હોવાથી યાવસ્કથિક અનશન કહેવાય છે. પા • તવાથનિર્યુક્તિ-પહેલા બતાવવામાં આવ્યું છે કે તપ નિર્જરાનું કારણ છે. હવે અનશન આદિ છ પ્રકારના બાહ્યુતપમાં પ્રથમ ગણવેલા અનશન તપના બે ભેદનું કથન કરીએ છીએ બાર પ્રકારના તાપમાં અનશન નામક પ્રથમ તપના બે ભેદ છે-- ઈરિક અને યાત્કાયિક જે અનશન તપ મર્યાદિત કાળ સુધી કરવામાં આવે છે તે ત્વરિક કહેવાય છે. અન્તિમ તીર્થંકર શ્રી. મહાવીરસ્વામીના શાસન કાળમાં નવકારસીના પ્રત્યાખ્યાન કાળથી આરંભ કરીને ચતુર્થભક્ત ષષ્ઠભક્ત આદિના ક્રમથી છ માસ સુધીનું અનશન તપ થતું હતું. આદિતીર્થકર Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीकामा २.५ अनशनतपसः वैविध्यनिरूपणम् .. भवति । श्रीनाभेयतीर्थङ्करस्याऽऽदिनाथस्य तीर्थे च नमस्कारसहित भक्तादि प्रत्यख्यान कालादारभ्य चतुर्थ भक्तादि क्रमेण संवत्सरपर्यन्त मनशनंतपो भवति, तदन्येषां द्वाविंशति तीर्थकराणां तीर्थेतु नमस्कारसहित भक्तादि प्रत्याख्यानों दारभ्य चतुर्थभक्तादि क्रमेणाऽष्टमासपर्यन्तम् अनशनतपो विहितमागमे यावत्कथिकन्तु-यावद् यदवधिमनुष्योऽयम् इति मुख्य व्यवहाररूपा कथा पचलति तत्र भवं यावस्कथिकम् इति जीवनपर्यन्तमनशन तपो व्यपदिश्यते उक्तञ्चौपपातिकसूत्रे'से किं तं अणसणे ? अणसणे दुविहे पण्णत्ते, त जहा-इत्तरिएय, आवकहिए य' इति । अथ किन्तत् अनशनम् ? अनशनं द्विविधं प्राप्तम्। तद्यथा-इत्वरिकंच, यावत्कथिकञ्च, इति ।५। मूलम्-इत्तरिए अणेगविहे, चउत्थमत्त छटुभत्ताइ भेयओ॥६॥ छाया-'इत्वरिकम्-अनेकविधम्, चतुर्थभक्त-षष्ठभक्तादि भेदतः । ऋषभदेव के शासन में नवकारसी प्रत्याख्यान काल से आरंभ करके चतुर्थभक्त, षष्ठ भक्त आदि के क्रम से एक वर्ष तक का अनशन तेप होता था। मध्य के घाईस तीर्थंकरों के काल में नवकारसी के प्रत्याख्यान से लेकर चतुर्थभक्त आदि के क्रम से आठ मास तक के अनशन-तप का विधान था। जीवन पर्यन्त के लिए जो अनशन किया जाता है, वह यावत्कथिक अनशन कहलाता है। औपपातिक सूत्र में कहा है-अनशन तप कितने प्रकार का है? (उत्तर)-अनशन तप दो प्रकार का कहा गया है, यथा-इत्वरिक और यावत्कथिक ॥५॥ શ્રીનાષભદેવના શાસનમાં નવકારસી વ્યાખ્યાન કાળથી આરંભ કરીને ચતુર્થભકત - ષષ્ઠભકત વિગેરેના ક્રમથી એક વર્ષ સુધીનું અનશન તપ થાય છે. મધ્યના બાવીસ તીર્થકરના સમયમાં નવકારસીના પ્રત્યાખ્યાનથી લઈને ચતુર્થભક્ત આદિને ક્રમથી આઠમાસ સુધીના અનશન તપને ઉલ્લેખ જોવા મળે છે. જીવનપર્યત માટે જે અનશન કરવામાં આવે છે તે યાવસ્કથિક અનશન કહેવાય છે. પપાતિકસૂત્રમાં કહ્યું છે--અનશન તપ કેટલા પ્રકારના છે ?- ઉત્તરઅનશન તપ બે પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે જેવાકે-ઈવરિક અને सायि: ॥ . Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , लस्वार्थदीपिका-पूर्व तावद्-बाह्यपइविध तपासु-अनशन नामक प्रथमतपसो वैविध्य युक्तम्, तत्र-प्रथमोपात्तस्याऽनशनतपसश्चतुर्थभक्तादि भेदेनाऽनेक विधत्वं प्रतिपादयितुमाह-'इत्तरिए अणेगविहे' इत्वरिक नामाऽल्पकालिकम् अनेशनतपोऽनेकविधम् प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-चतुर्थभक्त पष्ठभक्तादि भेदतः, चतुर्थ भक्तम् १ षष्ठमक्तम् २ आदिना-अष्टमभक्तम् ३ दशमभक्तम् ४ द्वादशभक्तम् ५ चतुर्दशभक्तम् ६ पोडश भक्तम् ७ अर्धमासिकमक्तम् ८ मासिकमक्तम् ९ द्वैमासिकमक्तम् १० त्रैमासिकभक्तम् ११ चातुर्मासिकमक्तम् १२ पञ्चमासिक सस्तम्१३. पाण्मासिकमक्तं१४ चेति । एव मष्टमासपर्यन्तं-वर्प पर्यन्तञ्चोन्नेयम् । 'इत्तरिए अणेगविहे' इत्यादि '. सूत्रार्थ-इत्वरिक तप उपवास वेला आदि के भेद से अनेक प्रकार का हैं ॥६॥ -तत्वार्थदीपिका-पहले छह प्रकार के बाह्य तपश्चरणों में से अनशन नामक प्रथम तप के दो भेद कहे गए, अब प्रथम भेद इत्वरिक तप के चतुर्थभक्त आदि अनेक भेदों का निरूपण करते हैं· इत्वरिक अर्थात् अल्पकालिक अनशन तप अनेक प्रकार का कहा गया है, जैसे-चतुर्थभक्त, षष्ठ अक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, बादशभक्त, षोडशभक्त, अर्धमासिकभक्त, मासिकभक्त, द्वैमासिकभक्त, प्रेमासिकभक्त, चातुर्मालिकभक्त, पंचमासिकभक्त, पाण्मासिकमक्त, इसी प्रकार अष्टमास भक्त से लेकर वर्ष पर्यन्त का अनशन तप समझ लेना चाहिए। इनमें एक उपवास चतुर्थ भक्त कहलाता हैं, लगातार 'इत्तरिए अणेगविहे' त्यादि। સુવાર્થ-ઈરિક તપ ઉપવાસ છઠ આદિના ભેદથી અનેક પ્રકારનું છે. ૬ ‘તરવાર્થદીપિકા–પહેલા છ પ્રકારના બાહા તપશ્ચરણોમાંથી અનશન નામક પ્રથમ તપના બે ભેદ કહેવામાં આવ્યા હવે પ્રથમ ભેદ ઈ–રિક તપના ચતુર્થ , ભક્ત આદિ અનેક ભેદનું નિરૂપણ કરીએ છીએ ઈરિક અર્થાત્ અલ્પકાલિક અનશન તપ અનેક પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે જેમકે–ચતુર્થ ભક્ત, ષષ્ઠભકત, અષ્ઠમભકત દશમભકત દ્વાદશભકત, ચતુર્દશભક્ત ષોડશભકત અર્ધ માસિકભકત મસિકભકત, દ્વિમાસિકભકત ત્રિમાસિકભકત ચાતુર્માસિકભકત, પંચમાસિકભકત, ષામાસિકભકત એવી જ રીતે અષ્ટમાસિકભકતથી લઈને વર્ષ પર્યન્તનું અનશન તપ પણ સમજવું, આમાં એક ઉપવાસ ચતુર્થભકત કહેવાય છે, લગાતાર બે ઉપવાસને ષષ્ટભકત કહે Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका भ.८ स.६ इत्वरिकतपसोऽनेकविधत्वम् ५८९ तत्र-एकोपवासरूपं चतुर्थभक्तम् निरन्तरदिनद्वयोपवासरूपं षष्ठ पक्तम्, निरन्तरदिन प्रयोपवासरूप मष्टमभक्तम् । एवमग्नेऽपि स्वय मूहनीयम् ॥६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-प्रथमोपात्तस्राऽनशनतपस इत्वरिक यावत्कथिक भेदेन द्वैविध्यमुक्तम्, सम्पति-तत्रोपात्तस्य-'इत्वरिक' नाम्नोऽनशन तपसोऽनेकविधत्वं प्रतिपादयितुमाह-'इत्तरिए अणेविहे, चउत्थभत्त-छट्ठ भत्ताइ भेयओ' इति । इत्वरिकं नामाऽल्पकालिक मनशन तपः खलु-अनेकविधं भवति । तद्यथा-चतुर्थभक्तादि भेदतः, चतुर्थभक्तम् १ षष्ठभक्तम् २ आदिनाअष्टमभक्तम्-३ - दशमभक्तम्-४ द्वादशभक्तम् ५ चतुर्दशभक्तम्-६ षोडशभक्तम्-७ अर्धमासिकभक्तम्-८ मासिकभक्तम्-९ द्वैमासिकमक्तम् १० त्रैमासिक भक्तम्-११ चातुर्मासिकभक्तम्-१२ पाश्चमासिकभक्तम्-१३ पाण्मासिकभक्तम् .१४-इत्यादिरीत्या संवत्सरपर्यन्त मुन्नेयम् । तत्र-चतुर्थभक्तम् एकोपवासरूपम् दो उपवास को षष्ठ भक्त कहते हैं । तीन उपवास को अष्टम भक्त कहते हैं। आगे इसी प्रकार स्वयं समझ लेना चाहिए।। : तत्वार्थनियुक्ति-पहले अनशन तप के दो भेद कहे गए-इत्वरिक और-यावस्कथिक । अब इत्वरिक तप के अनेक भेदोंका विधान करते हैं . इत्वरिक अर्थात् अल्पकालिक तप अनेक प्रकार का है-चतुर्थ भक्त, षष्ठभक्त और आदि शब्द से अष्ठमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, चतुर्दशभक्त, षोडशभक्त, अर्धमासिकमक्त, मासिकभक्त, द्वैमा. सिक भक्त, शैमासिक भक्त, चातुर्मासिकभक्त, पांचमासिकभक्त, पाण्मासिकभक्त इस प्रकार एक वर्ष तक का इत्वरिक अनशन तप समझ लेना चाहिए। चतुर्थभक्त एक उपवास कहलाता है। लगातार दो दिन का उपછે, ત્રણ ઉપવાસને અષ્ટમભકત કહે છે. આગળ પણ આ જ પ્રમાણે-સ્વયં સમજી લેવા જોઈએ. દા - તત્ત્વાર્થનિર્યુકિત-પહેલા અનશન તપના બે ભેદ કહેવામાં આવ્યા-ઈવારિક અને યવકથિક હવે ઈવરિક તપના અનેક ભેદનું વિધાન કરીએ છીએ– * * * ઇરિક અર્થાત્ અલ્પકાલિક તપ અનેક પ્રકાના છે ચતુર્થભકત ષષ્ઠભકત ' અને આદિ શબદથી અષ્ટમભકત દશમભક્ત દ્વાદશભકત ચર્તુદશભકત, ષોડશ ભકત અર્ધમાસિકભત માસિકભકત, દૈમાસિકભકત, ત્રિમાસિકભત, ચતુમ''સિકભત પાંચમાસિકભકત ષામાસિકભક્ત–એવી રીતે એક વર્ષ સુધીના "ઈવારેક અનશન તપ સમજી લેવા જોઈએ. ચતુર્થ ભક્ત એક ઉપવાસ કહેવાય છે. લગાતાર બે દિવસના ઉપવાસ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० षष्ठभक्त निरन्तरदिन द्वयोपवासरूपम्, अष्टमभक्तं निरन्तर दिन त्रयोपवासरूपम् दशमभक्त निरन्तरदिन चतुष्टयोपवासरूपम्, द्वादशभक्तं निरन्तरदिन पञ्चको. पवासरूपम्, चतुर्दशभक्त निरन्तरदिनपटकोपवासरूपम्, पोडशभक्तं निरन्तर दिन सप्तकोपचासरूपम् , अर्धमासिकमक्तम् निरन्तर पञ्चदशदिवसोपवासरूपम्, मासिकमक्तम् निरन्तरं त्रिंशदिवसोपवासरूपम्, द्वैमासिकभक्तं निरन्तर पष्टिदिवसोपवासरूपम्, त्रैमासिकमक्तं निरन्तर नवतिदिवसोपत्रासरूपम्, चातुर्मासिकभक्तं निरन्तर विंशत्यधिक शतदिवसोपवासरूपम्, पाश्चमासिकमक्तं निरन्तर पञ्चाशदधिक शतदिवसोपवासरूपम्, पाण्मासिकमक्तं निरन्तराऽशीत्यधिकशतदिवसोपवासरूपमनशनतपोऽवगन्तव्यम् । एवं संवत्सरपर्यन्तं स्वय मांगमादित उह. नीयम् । उक्तश्चौपपातिकमूत्रे-३-मूत्रे-से किं तं इत्तरिए-? इत्तरिए अणेगवास षष्ठ भक्त, लगातार तीन दिन का उपवास अष्ठम भक्त, लगातार चार दिन का उपवास दशमभक्त, लगातार पांच दिन का उपवास द्वादशभक्त, लगातार छह दिन का उपवास चतुर्दशभक्त, लगातार सात दिन का उपवास षोडशभक्त, लगातार पन्द्रह दिनों का उपवास 'अर्धमासभक्त, और लगातार तीस दिनों का उपवास मासिकभक्त कहलाता है। निरन्तर साठ दिनों तक को उपवास द्वैमासिकभक्त, लगातार नव्वे दिनों का उपवास त्रैमासिकभक्त कहलाता है। लगातार एक सौ वीस दिनों का उपवास चातुर्मासिकभक्त कहलाता है, एक सौ पचास दिनों का उपवास पांचमासिकभक्त कहा जाता है और एकसौ अस्सी दिनों का उपवास पाण्मासिक भक्त कहलाता है। इसी प्रकार वसर पर्यन्त का तप आगम आदि से स्वयं समझ लेना चाहिए। ષષ્ઠભકત, લગાતાર ત્રણ દિવસના ઉપવાસ અષ્ટમભકત, ચાર દિવસના ઉપવાસ દશમભકત, લગાતાર પાંચ દિવસના ઉપવાસ દ્વાદશભક્ત લગાતાર છ દિવસના ઉપવાસ ચતુર્દશભકત લગાતાર સાત દિવસના ઉપવાસ ષોડશભક્ત લગાતાર પંદર દિવસના ઉપવાસ અર્ધમાસભકત અને લગાતાર ત્રીસ દિવસના ઉપવાસ માસિકભકત કહેવાય છે. નિરંતર સાઈઠ દિવસે સુધિના ઉપવાસ હૈમાસિકભકત, લગાતાર ને દિવસે સુધીના ઉપવાસ ત્રિમાસિકભકત. કહેવાય છે લગાતાર, એકવીસ દિવસેના ઉપવાસ ચાતુર્માસિભકત કહેવાય છે, એક પચાસ દિવસના ઉપવાસ પાંચમાસિકભકત કહેવાય છે અને એક એંશી દિવસના ઉપવાસ ષામાસિકભકત કહેવાય છે, આવિ જ રીતે સંવત્સર પર્યતનું તપ આગમ આદિથી સ્વયં સમજી લેવું જોઈએ. Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रिका-नियुक्ति टीका अ.८२.६ इत्वरिकतपसोऽनेकवि धस्वम ५९१ विहे पण्णत्तेत जहा-चउत्थभत्ते छट्ठभत्ते अट्ठमभत्ते-बारसभत्ते चउद्दसभते सोलसभत्ते अद्धमासियभत्ते मासियभत्ते दोमासियभत्ते-तेमासियभत्ते च उमासियभत्ते पञ्चमालियभत्ते छम्मासियभत्ते इति । अथ किं तत् इत्तरिकम्-३ इत्वरिक मनेकविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-चतुर्थ भक्तम् १ षष्ठभक्तम्-२ अष्टमभक्तम्-३ दशमभक्तम्-४ द्वादशभक्तम् ५ चतुर्दशभक्तम् ६ षोडशभक्तम्-७ अर्द्धमासिकभक्तम् ८ मासिकमक्तम्-९ द्वैमासिकमक्तम्-१० त्रैमासिकभक्तम्-११ चातुर्मासिकभक्तम् १२ पाश्चमासिकभक्तम् १३ पाण्मासिकभक्तम्-१४ इति ॥ ६॥ मूलम्-जावकहिए दविहे पाओवगमणे-भत्तपच्चक्खाणे य।। छाया-'यावत्कथिकं द्विविधम्, पादपोषगमनं भक्तपत्याख्यानञ्च ॥७॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावतू-प्रथमस्य-'इत्वरिक' नामकस्याऽनशनतपसो ऽनेकविधत्वं चतुर्थभक्तादि भेदेन प्रतिपादितम्, सम्प्रति-द्वितीयस्य यावत्कथि औपपातिक सूत्र के तिसरे सूत्र में कहा है'इत्वरिक तप किसे कहते हैं ? 'इत्वरिक तप अनेक प्रकार का है-जैसे-चतुर्थ भक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, चतुर्दशभक्त, षोडशभक्त, अर्धमासिक भक्त, मासिकभक्त, द्वैमासिकभक्त, त्रैमासिकभक्त, चातुर्मासिक भक्त, पांचमासिक भक्त, पाण्मासिक भक्त, इत्यादि ।।६।। 'जावकहिए दुविहे' इत्यादि सूत्रार्थ--यावस्कथित अनशन दो प्रकार का है-पादपोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान ॥७॥ तत्वार्थदीपिका-पहले इत्वरिक नामक अनशन तप के चतुर्थ પપાતિકસૂત્રના ત્રીજા સૂત્રમાં કહ્યું છેઈત્વરિક તપ કેને કહે છે ? ઈવરિક તપ અનેક પ્રકારના છે જેવા કે-ચતુર્થભકત અષ્ઠમભકત દશમભકત દ્વાદશભકત, ચતુર્દશભક્ત, ષોડશભકત, અર્ધમાસિકર્ભક્ત, માસિકભકત, કૈમાસિકભા ત્રિમાસિકભકત, ચાતુર્માસિકભકત પાંચમાસિકભકત ષામાસિકભકત ઈત્યાદિ દા 'जावकहिए दुविहे' या ! સૂત્રાર્થ–ચાકથિક અનશન બે પ્રકારના છે, પાદપવગમન અને ભકતપ્રત્યાખ્યાન ૭ તત્ત્વાર્થદીપિકા-પહેલા ઈવરિક નામક અનશન તપના ચતુર્થ ભક્ત આદિ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वास्त्र कस्याऽनशनतपसो द्वैविध्यं प्रतिपादयितमाह-'जाव कहिए' इत्यादि । यावत्क. थिकं ना जीवनपर्यन्तम् अनशनतपोद्विविधं भवति, पादपोपगमनम्-भक्त प्रत्याख्यानश्च । तत्र-पादपस्य वृक्षस्येवो-पगमनम् निश्चकतया स्पन्दरहितत्वेनाऽवस्थानम् छिन्नतरुशाखावत् चतुविधाहारपरित्यागेन प्रतिक्रियापरिवजनेन वृक्षबत्-निश्चलावस्थानम् पादपोपगमनं नामाऽनशन तप उच्यते । भक्त प्रत्याख्यानं ताचतु-भक्तस्य चतुर्विधस्याऽऽहारस्या-ऽशन-पान-खादिम-स्वादिमरूपस्य, त्रिविधस्य वा-पानकरहितस्य वाऽऽहारस्य प्रत्याख्यानं-वर्जनं भक्तमत्याख्यान मुच्यते । सूत्रे चकारेण 'इङ्गित' मरणमपि यावत्कथिकं तप: संगृह्यते, तथा चभक्त आदि अनेक भेदों का प्रतिपादन किया गया, अब दूसरे भेद यावत्कथिक अनशन तप के दो विकल्प यतलाते हैं-- • जीवनपर्यन्त किया जाने वाला अनशन तप यावत्कथिक कहलाता है। उसके दो भेद हैं-पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान [ पादप अर्थात् वृक्ष की भांति निश्चल होकर हलन-चलन को रोककर स्थित होना पादपोपगमन कहलाता है तात्पर्य यह है कि जैसे वृक्ष की कटी हुई शाखा निश्चल होकर पडी रहती है, उसी प्रकार सय तरह का आहार त्याग कर समस्त शारीरिक चेष्टाओं को त्यागकर, स्पन्दनहीन अवस्था में रहना पादोपगमन अनशन कहलाता है। ; ___ अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चार प्रकार के या पान को छोडकर तीन प्रकार के आहार का आजीवन त्याग करना भक्त प्रत्याख्यान अनशन कहलाता है। અનેક ભેદેનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું, હવે બીજા ભેદ યાવસ્કથિક અનશન તપના બે વિક૯પ બતાવીએ છીએ જીવનપર્યત કરવામાં આવતું અનશન તપ થાવસ્કચિક કહેવાય છે તેના બે ભેદ છે–પાદપિગમન બને ભકતપ્રત્યાખ્યાન પાદપ અર્થાત્ વૃક્ષની જેમ નિશ્ચલ થઈને હલન-ચલનને રોકીને સ્થિર થવું પાદપોપગમન કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જેમ વૃક્ષની કાપેલી ડાળી નિશ્ચલ થઈને પડી રહે છે, તેવી જ રીતે બધી જાતને આહાર ત્યજી દઈને સઘળી શારીરિક ચેષ્ટાઓના ત્યાગ કરીને સ્પંદનહીન અવસ્થામાં રહેવું પાદપપગમન અનશન કહેવાય છે. અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂ૫ ચાર પ્રકારના અથવા પાનને બાદ કરીને ત્રણ પ્રકારના આહારને આજીવન ત્યાગ કરો ભકતપ્રત્યાખ્યાન अनशन ४उपाय छे. , . . . Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ स्.७ यावत्कथिकानशनतपसो द्वैविध्यम् ५९३ यावत्कथिकं नामाऽनशनतपस्त्रिविधं भवति, पादपोपगमनम् १-इङ्गितमरणम २ 'भक्तप्रत्याख्यानं-३ च । तत्र-'इङ्गितं नाम' श्रुतविहित क्रियाविशेष स्तद्विशिष्ट -मरणम् इङ्गितमरण मुच्यते ॥७। :: तत्वार्थनियुक्तिः- पूर्व तावत्-अनशनं तपः इत्वरिक-यावस्कथिकभेदेन द्विविधं प्ररूपितम्, तमाऽपि-प्रथमोपात्त मित्वरिक नाम तपः प्रतिपादितम् । 'सम्पति-यावत्कथिक नाम द्वितीयन्तपः प्रतिपादयितुमाह-जावकहिए दुविहे .पाओवगमाणे-भत्तपच्चक्खाणेय इति । यावत्कथिक नाम जीवनपर्यन्त मनशन तपो द्विविधम्भवति, तद्यथा-पादपोपगमनम् भक्तप्रत्याख्यानश्च । तत्रपादपस्य वृक्षस्येवोपगमनं स्पन्दरहितत्वेन निश्चलतयाऽवस्थानम् पादपोंपगमनम्, सूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द ले इंगितमरण नामक यावत्कथिक अनशन का ग्रहण किया गया है। इस प्रकार यावझथिक अनशन- तीन प्रकार का है-(१) पादोपनयन (२) इंगितमरण और (३) भक्तप्रत्योंख्यान । यहां 'इंगित का अर्थ है-शास्त्र में विहित एक विशेष प्रकार की क्रिया, उससे विशिष्ट मरण इंगितमरण कहलाता है ॥७॥ तत्वार्थनियुक्ति--पहले इत्वरिक और थावत्कधिक के.भेद से अनशन तप दो प्रकार का कहा गया था, इनमें से प्रथम इत्वरिक तप को प्रतिपादन किया जा चुका । अब यावत्कथिक नामक दूसरे तप का :प्रतिपादन करते हैं जीवनपर्यन्त के लिए जिया जाने वाला अनशन तप दो प्रकार का है-पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान । पादप अर्थात् वृक्ष की भांति स्पन्दनहीन होकर निश्चल रूप में स्थित होना पादपोपगमन अन સૂત્રમાં પ્રયુકત-ચ શબ્દથી ઇગિત મરણ નામક યાવન્કર્થિક અનશનનું પણ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે, આ રીતે યાવત્રુથિક અનશન ત્રણે પ્રકારના छे-(१) पायागमन (२) गितम२भने (3) प्रत्याभ्यान. मही ઈંગિતને અર્થ થાય છે–શાસ્ત્રમાં વિહિત એક વિશેષ પ્રકારની ક્રિયા, તેનાથી વિશિષ્ટ મરણ ઈગિતમરણ કહેવાય છે. કેળા તત્વાર્થનિર્યુક્તિ–પહેલા ઈરિક અને ધાવસ્કથિકના ભેદથી અનશન તપ બે પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે, આમાંથી પ્રથમ ઈત્વરિક તપનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હવે થાકથિક નામક બીજા તપનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ જીવનપર્યન્ત માટે કરવામાં આવતું અનશન તપ બે પ્રકારનું છેપાઇપ ગમન અને ભરતપ્રત્યાખ્યાન પાદપ અર્થાત્ વૃક્ષની માફક સ્પન્દનહીને त०७५ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - तस्वार्थ 'चतुविधाऽऽहारपरित्यागेन शरीररय सेवा शुश्रूषादि क्रियावर्जनेन च वृक्षवनिचलतयाऽवस्थानरूपं पादपोपगमनं नाम प्रथमं यावत्कथिक मनधन तप उच्यते । भक्त प्रत्याख्यानञ्च अशनपानखादिमस्वादिमरूपस्य चतुर्विधस्याऽऽहारस्य त्रिविधस्य वा पानवर्जितस्याऽऽहारस्य प्रत्याख्यानवर्जनरूपं भक्त प्रत्याख्यान नाम द्वितीयं यावत्कथिकम् अनशनतए: उच्यते। तत्र-प्रथम तावत् पादपोषगमन नाम याचकथिक तपः शरीरचकनादिक्रियारहितं भवति द्वितीयन्तु-भक्तमत्याख्यान नाम यावत्यथिकं तपः शरीरचलनादि क्रिया सहितं भवतीति भावः, चकारेण-ङ्गितमरणमपि गम्यते । क्वचित्तु-यावक थिक तपस्त्रिविधं भवत्तीयुक्तम्, तत्र-'इङ्गितं नाम-श्रुतविहित क्रियाविशेषस्त शन है। इस अनशनतप में चारों प्रकार का आहार त्याग कर और शरीर की सेवा-शुश्रूषा आदि क्रियाओं को वर्जित करके वृक्ष की भांति निश्चल रूप से अवस्थित होकर रहा जाता है। इसी कारण इसे पादपोपगमन कहते हैं। अशन, पान, खादिम और स्वादिम, इन चारों प्रकार के आहार का या पान के सिवाय तीन प्रकार के आहार का त्याग करना भक्तप्रत्याख्यान नामक दूसरा यावस्कधिक अनशन तप कहलाना है। इनमें पादपोपगमन नामक प्रथम यावत्कथिक अनशन तप में शरीर को हीलाने-डुलाने का भी त्याग किया जाता है, किन्तु दूसरे भक्तप्रत्याख्यान तप में शरीर के हलन-चलन का त्याग नहीं होता। । सूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द से इंगितमरण का ग्रहण किया जाता થઈને નિશ્ચલ રૂપમાં સ્થિત થવું પાદપપગમન અનશન છે. આ અનશન તપમાં ચાર પ્રકારને આહાર ત્યાગીને અને શરીરની સેવા-શુશ્રષા આદિ ક્રિયાઓને પરિહાર કરીને વૃક્ષની માફક નિશ્ચલપણે અવસ્થિત થઈને રહે છે. આથી જ આને પાદપિપગમન કહે છે. , અશન, પાન. ખાદ્ય અને સ્વાદ એ ચારે પ્રકારના આહારને અથવા પાન સિવાય ત્રણ પ્રકારના આહારનો ત્યાગ કર ભકત પ્રત્યાખ્યાન નામક બીજું યાવસ્કથિક અનશન તય કહેવાય છે. આમાં પાદપેપગમન નામક પ્રથમ યાવત્રુથિક અનશન તપમાં શરીર ના હલન-ચલનને પણ ત્યાગ કરવામાં આવે છે પરંતુ બીજા ભકતપ્રત્યાખ્યાન તમાં શરીરના હલન ચલનને ત્યાગ થતું નથી. સૂત્રમાં પ્રયુક્ત “ચ” શબ્દથી ઇંગિત મરણનું ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, કારણ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. सू. यावत्कथिकानशनतक्सो वैविध्यम् १९५ द्विशिष्टं मरणम् इङ्गितमरण मुच्यते, अस्य नाम-इङ्गिनी' मरणमित्यप्युच्यते । अन्यद् द्वयन्तु-पादपोपगमनं भक्तमत्याख्यानश्च पूर्वोक्त समानमेवाऽवगन्तव्यम्, आगमेतु-यावत्कथिक नाम तपो द्विविधमेव दृश्यते । उक्तञ्चौपपातिके सूत्रे ३० सूत्रे-से किं तं जावकहिए ? जावकाहिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पाओवगमणेय-भत्तपच्चक्खाणेय' इति । अथ किं तत्-यावत्कथितं यावत्कर्थिक द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-पादपोपगमनम् भक्तप्रत्याख्यानञ्च, इति ॥७॥ • x मूलम्-पाओवगमणे दुविहे वाघाइमे-णिवाघाइमे या नियमा अप्पडिकम्मे ॥८॥ छाया-पादोपगमन द्विविधम् व्याधातिम-नियाघातिमं च नियमतोऽप्रतिकर्म ॥८॥ है क्योंकि कहीं-कहीं यावत्कणिक तकलन कार का भी कहा गया है। शास्त्र में प्रतिपादिन एक विशिष्ट प्रकार की क्रिया को 'इगित' कहते हैं, उससे युक्त मरण गित्तभरणा कहलाता है। शेष दो पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान पहले ही बतलाए जा चुके हैं। आगम में यावस्कथिक नामक तप दो ही प्रकार का देखा जाता है । औपपातिक सूत्र में कहा भी है-- 'यावत्कथिक अनशन के कितने भेद हैं ? 'यावत्कथिक के दो भेद है-पादपोपगमन और भक्तवत्याख्यान ७ 'पाओवगमणे दुविहे वाघाह मे इत्यादि सू० ८ - सूत्रार्थ-पादपोपगमन व दो प्रकार का है-वाघातिम- और निर्धांघातिम। दोनों प्रकार का यह तप निधन से प्रतिकर्मरहितसेवाशुश्रषा वर्जित होता है ॥८॥ કે કઈ-કઈ સ્થળે યાવત્રુથિક તપ ત્રણ પ્રકારના પણ કહેવામાં આવ્યા છે. શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદિત એક વિશિષ્ટ પ્રકારની ક્રિયાને “ઈંગિત કહે છે, તેનાથી યુકત મરણ ઈગિતમરણ કહેવાય છે. શેષ બે પાદપપગમન અને ભકતપ્રત્યા ખ્યાન પહેલા જ બતાવવામાં આવી ગયા છે. આગસમાં યાવસ્કથિક નામક તપ બે પ્રકારના જોવામાં આવે છે. પાકિસૂત્રમાં કહ્યું પણ છે યાવસ્કથિક અનશના કેટલા ભેદ છે ? 'यावपिनो से छे-पापागमन मने मतप्रत्याभ्यान ॥७॥ 'पाओवगमणे दुविहे त्यादि। સબાથ–પાદપિયગમન તપ બે પ્રકારના છે-વ્યાઘાતિમ અને નિર્યાધ્રાતિમ બંને પ્રકારના આ તપ નિયમથી પ્રતિકર્મ રહિત સેવાશુશ્રષાવજિત જ डाय छे ॥ ८ ॥ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . " तत्वार्थसूत्र : तत्वार्थदिपीका-पूर्व तावद-यावत्कयिक द्विविध, पादपोपगमनं-मक्तमस्यारहयान धेति प्रोक्तम्, तत्र-प्रथमं पादपोपगमनस्य द्वैविध्यं प्रतिपादयितुमाह'पाओषगमणे' इत्यादि । पादपोपगमन तावत् पूर्वोक्तस्वरूपं तपो द्विविध भवति, सद्यथा-व्याघातिमंच-नियांघातिम चेति । तत्र-व्याघातः सिंह-व्याघ्र धावानलादि कृतोपद्रवः, तेन-सहित व्याघातिमम्, तथा च-सिंहादि कृतोपद्रव सहितं पादपोपगमनं नाम यावत्कथिक तपो व्याघातिम मुच्यते । एवं-सिंह ध्याघ्र दावानलाधुपद्रवरूप व्याघातरहितं पादपोपगमन नियाघातिम मुच्यते एतदुभयमपि पादपोपगमन नियमात् नियमतः-अमतिकर्म शरीर चलनादिक्रिया रूप प्रतिकर्मवर्जितं भवति, एव मौषधोपचारादि रहितञ्च भवतीतिभावः ।।८॥ . तत्यार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-यावत्कथिकं च पादपोगमन-भक्तप्रत्याख्यान तत्वार्थदीपिका-पहले कहा गया था कि यावत्कथिक तप दो प्रकार का है-पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान । अब पादपोपगमन के भी दो भेदी का प्रतिपाद करते हैं': पूर्वोक्त पादपोपगमन तप के दो भेद हैं-व्याघातिम और निाघातिम । जिस तप में सिंह, वाघ, दावानल आदि का उपद्रव हो वह व्याघातिम कहलाता है और सिंह, व्याघ्र, दावानल आदि के उपद्रव रूप व्याधात से रहित पादपोपगमन तप नियाधातिम कहलाता है। ''यह दोनों ही प्रकार का पादपोपगमन तप नियम से अप्रतिकर्म ही। होता है अर्थात् न इसमें हलच-चलन किया जाता है, न औषधोपचार आदि किसी प्रकार की शारीरिक सेवा-शुश्रपा ही की जाती है ॥८॥ ' तत्वार्थनियुक्ति-यावत्काथिक अनशन के दो भेद-पादपोपगमन - તત્વાર્થદીપિકા-પહેલા કહેવામાં આવ્યું કે યાકથિક તપ બે પ્રકાર ના છે- પાદપપાગમન અને ભકતપ્રત્યાખ્યાન હવે પાદપપગમનના બે ભેદેનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ પૂર્વોક્ત પાદપિયગમન તપના બે ભેદ છે– વ્યાઘાતિમ અને નિવ્યઘાર્તિમ જે તપમાં સિંહ, વાઘ, દાવાનલ આદિના ઉપદ્રવ હોય તે વ્યાઘાતિમ કહેવાય છે અને સિંહ, વાઘ, દાવાનલ આદિના ઉપદ્રવરૂપ વ્યાઘાતથી રહિત પાદપપગમન તપ નિવ્યઘાતિમ કહેવાય છે. આ બંને જ પ્રકારના પાદપપગમન તપ નિયમથી અપ્રતિકર્મો જ હોય છે અર્થાત્ ન તે એમનામાં હલન ચલન કરવામાં આવે છે અથવા ન તે ઔષધોપચાર આદિ કઈ પ્રકારની શારીરિક સેવા શુશ્રુષા કરવામાં આવે છે . ૮ છે તત્વાર્થનિર્યુકિત-યાવસ્કથિક અનશનના બે ભેદ-પાદપિગમન અને Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ८ स.८ पादपोपगमनस्य वैविध्यनिरूपणम् ५९७ भेदेन द्विविध मित्युक्तम्, तत्र-सम्प्रति पादपोपगमनस्य द्वैविध्यं प्रतिपादयितुमाह 'पाभोवगमणे दुबिहे, वाघाहमे निवाघाइमेघ, नियमा अप्पडि कम्मे इति पादपोपगमनं नाम-पूर्वोक्त-स्वरूपं यावत्कथिकविशेषतपो द्विविधं भवति, तयथा-व्याघातिम, निल्घातिमं चेति । तत्र-व्याघातेन सिंहव्याघ्रभल्लक दावानलाधुपद्रवेण सहितं पादपोपगमनं व्याघातिम मुच्यते । एवं-सिंह व्याघ्र भल्लूक तरक्षुदावानलादिकतोपद्रवरहितं पादपोपगमनं नियाघातिम मुच्यते । एतदुभयमपि व्याघातिम-नियाघातिमं च पादपोपगमनं नियमात्-नियमतः अभतिकर्म शरीरचलनादिक्रियारूपप्रतिकर्मवर्जितं भवति, एव मौषधोपचार रहितश्च भवति । उक्तश्चौपपातिकमूत्रे ३० सूत्रे-से किं तं पाओवगमणे ? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-बाघाइमेय, निवाघाइमेय-नियमा अप्पडिकम्मे, से तं पाओवगमणे' इति । अथ किन्तत् पादपोपगमनम् ? और भक्तप्रत्याख्यान कहे गए हैं, अब पादपोपगमन के दो भेदों का प्रतिपादन करते हैं। पूर्वोक्त पादपोपगमन नामक यावत्कथिक अनशन तप दो प्रकार का है-व्याघातिम और निर्याघातिम । व्याघात अर्थात् विघ्न से -युक्त हो वह व्याघातिम और जो विनरहित हो वह निाघातिम कहलाता है । उपद्रव सिंह, व्याघ्र, भालू तरक्ष तथा दावानल आदि द्वारा होते हैं, यह व्याधातिम और निाघातिम-दोनों प्रकार के पादपोपगमन नियम से अप्रतिकर्म ही होते हैं अर्थात् शारीरिक हलन-चलन आदि क्रियो से रहित ही होते हैं और इनमें औषधो, पचार भी नहीं किया जाता । औपपातिक सूत्र में कहा है- - -, “प्रश्न-पादपोपगमन के कितने भेद है? ભક્ત પ્રત્યાખ્યાન કહેવામાં આવ્યા છે હવે પાદપેપગમનના બે ભેદનું પ્રતિ. પાદન કરીએ છીએ પૂર્વોક્ત પાદપિપગમન નામક યાવર્કથિક અનશન તપ બે પ્રકારના છેધ્યાઘાતિમ અને નિર્ચાઘાતિમ, વ્યાઘાત અર્થાત્ વિજ્ઞથી જે યુક્ત હોય તે વ્યાઘાતિમ અને જે વિધ્ર રહિત હોય તે નિર્ચાઘાતિમ કહેવાય છે. ઉપદ્રવ સિંહ, વાઘ, રીંછ, તરક્ષ તથા દાવાનલ આદિ દ્વારા થાય છે. આ વ્યાઘાતિમ -. અને નિવ્વઘાતિમ બંને પ્રકારના પાદપપગમન નિયમથી અપ્રતિકર્મ જ હોય છે અર્થાત્ શારીરિક હલન ચલન આદિ ક્રિયાથી રહિત જ હોય છે. અને * એમા ઔષધોપચાર પણ કરવામાં આવતું નથી. ઔપપાતિક સૂત્રમાં કહ્યું છે ? પ્રશ્ન-પાદપપગમનના કેટલા ભેદ છે. Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ ___. खास पादपोपशमनं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-पाघातिमंच, निर्व्याघातिम च, निरमार अपनिकम, तदेनत् पादपोपगमनम् इति ।।८॥ “ मूलम्-भत्तपच्चक्खाणे दुबिहे, वाघाइसे-निवाघाइमेय, नियमा सप्पडिकम्ले ।९।। . छाया-भक्तमत्याख्यान द्विविधम् व्याघातिम-निर्याघातिमं च नियमाद समतिकम ९॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावत्-पादपोएगमन व्याघातिम-नियावातिमभेदेन द्विविधमपि-प्रतिपादितम्-सम्प्रति द्वितीयं भक्तमत्याख्यान नाम तपः प्रतिपादयितुमाह-'मत्त पच्चक्खाणे' इत्यादि । भक्तप्रत्याख्यान नाम पूर्वोक्तस्वरूपं तपो द्विविध-व्याघातिम-निर्याघातिम-चति, स्त्र- व्याघातो विघ्न स्तेन सहितं व्याघातिम विनयुक्त मुच्यते । निनाघातिम निरहितश्वाच्यते, तथा चविघ्नसहितं भक्तमत्याख्यान व्याघातिम व्यपदिश्यते विनरहितञ्च मक्तमत्या__उत्तर-पादपोपशमन दो प्रकार का कहा गया है-व्याघातिम और नियाघातिन । यह दोनों ही प्रकार के पादोपगमन नियम से प्रति कर्मरहित ही होते हैं ।।८॥ 'भत्तपच्चक्खाणे दुविहे' इत्या० सूत्रार्थ-भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार को है-व्याघातिम और नियां घातिम । यह दोनों नियमतः सप्रतिकर्म होते हैं ॥९॥ तस्वार्थदीपिका--इससे पहले व्याघातिम और अव्याघातिम के भेद से दो प्रकार के पादपोपगमन तप का निरूपण किया गया अब - भक्तप्रत्याख्यान नामक दूसरे यावत्कथिक तप का निरूपण करते। पूर्वोक्त भक्तप्रत्याख्यान तप दो प्रकार का है-व्याघातिम और ઉત્તર-પાપા પગમન બે પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે–વ્યાઘાતિમ અને નિર્બોઘાતિમાં આ બંને જ પ્રકારના પાપ ગમન નિયમથી પ્રતિકર્મ રહિત જ હોય છે જે ૮ છે 'भत्तपश्चक्खाणे दुविहे' त्या ! સત્રાર્થ––ભકતપ્રત્યાખ્યાન બે પ્રકારના છે–વ્યાઘાતિમ અને નિર્વાઘાતિમ. આ બે ને નિયમિત પ્રતિકર્મ હોય છે ! ૯ છે તસ્વાર્થદીપિકા--આની અગાઉ વ્યાઘાતિમ અને અધ્યાઘાતિના ભેદ થી બે પ્રકારના પાદપપગમન તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે ભકતપ્રત્યાખ્યાન નામક બીજા યાવત્રુથિક તપનું નિરૂપણ કરીએ છીએ પૂર્વોકત ભકતપ્રત્યાખ્યાન તપના બે પ્રકારના છે–વ્યાઘાતિમ અને નિર્યાવાતિમ વ્યાઘાતને અર્થ છે વિઘ, જે એથી યુક્ત હોય તે ગ્યાઘાતિમ અર્થાત Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-मिर्युक्ति टीका १८ सू.९ भक्तप्रत्याख्यानस्थ द्वैविध्यनिरूपणम् ५९९ ख्यानं नियाघातिम व्यपदिश्यते। किन्तु-एतदुभयमपि व्याघाटिमं नियाघातिम च भक्तमत्याख्यान नियमात-नियमतः सप्रतिकर्म चलनादिक्रिया रूप पतिकर्म सहितं भवति, एवं-बाह्यौषधोपचारवैयावृत्यादि युक्तश्च भवति ॥९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तावत्-पादपोपगमनं व्याघातिम-निव्याघातिम भेदेन द्विविधं प्रतिपादितम्, सम्पति-भक्तपत्याख्यानमपि द्वैविध्येन प्रतिपादयितुमाह-भत्तपच्चक्खाणे' इत्यादि । भक्तपत्याख्यानं नाम पूर्वोक्तस्वरूपं तपो द्विविध भवति, तद्यथा-व्याघातिम, रिव्य घातिमं च। तत्र-व्याघातो विघ्न स्तेन सहितं भक्तप्रत्याख्यानं व्याघातिम मुच्यते, किन्तु-व्याघातरूप विघ्नरहितं भक्तप्रत्याख्यानं तपो नियांघातिम मुच्यते । तथा च-विघ्नयुक्तं भक्तमत्याख्यानं व्याघातिम व्यपदिश्यते, निरहित भक्तपत्याख्यानं नियाधातिम । व्याधात का अर्थ है विघ्न जो उससे युश्न हो वह व्याघातिम अर्थात् विघ्नयुक्त । जिसमें किसी प्रकारका विघ्न न आए वह नियाघातिम कहलाता है वह दोनों ही प्रकार का भक्तप्रत्याख्यान नियम से सप्रतिकर्म ही होता है अर्थात् इसमें चलना-फिरना आदि क्रिया वर्जित नहीं है । इसमें बाह्य औषध का उपचार भी किया जा सकता है और वैयावृत्य भी की-कचाई जा सकती है ॥९॥ ____तत्वार्थनियुक्ति-पहले व्याघातिम और नियाघातिम के भेद से पादपोपगमन के दो भेनों का प्रतिपादन किया गया, अव्य भक्तप्र. स्याख्यान के भी दो लेदों का अ.थना करते हैं पूर्वोक्त भक्तप्रत्याख्यान तप भी दो प्रकार का है-शाघातिम और निशितिम । जो भक्त प्रत्याख्यान व्याघात अर्थात् विघ्न से વિશ્વયુક્ત જેમાં કોઈ પ્રકારનું વિધ્ર ન આવે તે નિર્ચાઘાતિમ કહેવાય છે. આ બંને જ પ્રકારના ભકતપ્રત્યાખ્યાન નિયમથી સપ્રતિકર્મ જ હોય છે. અથત આમાં ચાલવું ફરવું આદિ ક્રિયા વર્જિત નથી. આમાં બાહ્ય ઔષધનો ઉપચાર પણ કરી શકાય છે અને વૈયાવૃત્ય પણ કરી કરાવાઈ શકે છે ! ૯ છે તસ્વાર્થનિર્યુક્તિ-–પહેલા વ્યાઘતિમ અને નિર્માઘાતિના ભેદથી પાદપપગમનના બે ભેદનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હવે ભકતપ્રત્યાખ્યાનના પણું બે ભેદેનું કથન કરીએ છીએ પૂર્વોક્ત ભકતપ્રત્યાખ્યાન તપ પણ બે પ્રકારના છે ત્યાઘાતિમ અને નિર્ણાઘાતિમ. જે ભકતપત્યાખ્યાન વ્યાઘાત અર્થાત્ વિઘથી Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० तत्त्वार्थ नियांघातिम व्यपदिश्यते । उक्तश्चौपपातिकमुत्रे-३० सूत्रे-'सेकिं तं भत्तपञ्चवखाणे ? भत्त पच्चवखाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-वाघाइमेय, निबाधाइमे य णियमा सप्पडिकम्मे' इति । अथ किं तत्-भक्त प्रत्याख्यानम् ? भक्तपत्याख्यानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-व्याघातिमं च, नियांघातिम च नियमतः सप्रतिकर्म इति ॥९॥ ___मूलम्-ओमोयरिया तवे दुविहे, दव्वोमोयरिया-भावो सोयरियाय ॥१०॥ - छाया-'अवमोदरिकातपो द्विविधम्, द्रव्यावमोदरिका-भावावमोदरिका च ॥१०॥ तत्वार्थदीपिका----'पूर्व तावत्-प्रथमोपात्तस्या-ऽनशनस्येत्वरिक-यावयुक्त हो वह व्याघातिम और जिसमें किसी प्रकार का विघ्न न हो वह नियाधातिम कहलाता है। औपपातिकसूत्र के ३०वें सूत्र में कहा है'भक्तप्रत्यख्यान के कितने भेद हैं ? भक्तप्रत्याख्यान के दो भेद हैं, यथा-व्याघातिम और नियाघातिम । यह दोनों प्रकार का भक्तप्रत्याख्यान नियम से प्रतिकर्म युक्त ही होता है ॥९॥ . 'ओमोयरिया तवे दुविहे' इत्यादि सूत्रार्थ-अवमोदरिका नामक तप दो प्रकार का है-द्रव्य-अवमोदरिका एवं भाव-अवमोदरिका ॥१०॥ तत्वार्थदीपिका-इत्वरिक और यावत्कथिक-दोनों प्रकार के अन ચકત હોય તે વ્યાઘાતિ અને જેમાં કઈ પ્રકારનું વિધ્ર ન હોય તે નિવ્યહાતિમ કહેવાય છે. પપાતિક સૂત્રના ૩૦ માં સૂત્રમાં કહ્યું છે ભકતપ્રત્યાખ્યાનના કેટલા ભેદ છે ? ભકતપ્રત્યાખ્યાનના બે ભેદ છે યથા વ્યાઘાતિમ અને નિવ્યઘાતિમ આ બંને પ્રકારના ભકતપ્રત્યાખ્યાન નિયમથી પ્રતિકર્મ ચુકત જ હોય છે, ૯ સૂત્રાર્થ—અવમેદારિક નામનું તપ બે પ્રકારનું છે. દ્રવ્ય, અવમોદારિકા અને ભાવ અવમદરિકા છે ૧૦ - તત્વાર્થદીપિકા-ઈરિક અને યાવસ્ફથિક બંને પ્રકારના અનશન તપનું - Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ८ सू.१० अवमोदरिकास्वरूपनिरूपणम् car कथिकभेदेन द्विविधस्य प्ररूपणं कृतम्, सम्मति - द्वितीयस्यावमोदरिका नामक बाह्यतपसः स्वरूपं रूपयितुमाह- 'लोमोपरिया सवे दुबिहे' इत्यादि । अवमोदरिका तपः - अवमम् - ऊनम् उदरं यस्मिन् भोजने तदवमोदरं तदस्त्यस्यां क्रिया-यम् इति - अमोरिका तपो विशेषरूपा क्रिया तद्रूपम् - अवमोदरिका नाम तपो द्विविधं भवति । द्रव्यारमोद रिकारूपं भावावमोदरिकरूपञ्च तत्र - आहारो- पध्यादि वाहावस्तुनोऽल्पीकरणं द्रव्यायमोदरिका, क्रोधादिकपाय रूपान्तरिक-वस्तुनोऽल्पीकरणं भावावयोदरि केटि ॥१०॥ -- तस्यार्थ नियुक्तिः पूर्वं तावद - प्रथमोपाचरया-नशनस्य बाह्य तपस इत्वरिक - यादक थिक मेदेन विविधस्य सविस्तरं प्ररूपणं कृतम्, सम्मति क्रमागतस्य द्वितीयापसो-मयोदरिका रूपस्य स्वरूपं निरूपयितुमाह- 'ओमोयशन तप का निरूपण किया जा चुका अब दूसरे बाह्य तप अथोरिका -( अनोदर) स्वरूप का प्रतिपादन करते है अवम अर्थात् ऊन (फल) उदर जिस भोजन में हो उसे अमोदर कहते हैं। जिस क्रिया में अधमोदर हो वह अवमोदरिका । यह एक प्रकार की तपश्चर्या है | इसके दो भेद है द्रव्य - अवमोदरिका और भाव - अवमोदरिका । आहार, उपधि आदि बाह्य वस्तुओं में कमी करना द्रव्य-अयमोदरिका है और क्रोधादि कषायों में कमी करना भाव - अवमोदरिया है ॥१०॥ و तत्वार्थनियुक्ति - इससे पूर्व प्रथम बाह्याप अनशन के यावत्कथिक और seats का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया, अब क्रमप्राप्त द्वितीय बाह्य तप अवमोदरिका के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैंનિરૂપણ કરવામાં આવી ગયું, હવે ખીજા ખાદ્ય તપ અવમેદરકા (ઉનાદર) ના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ, અવમ અર્થાત્ ઉન (આછું) ઉત્તર જે લેાજનમાં હૈાય તેને અવમેાદર કહે છે. જે ક્રિયામાં અવમેાદર ડાય તે અવમેરિકા આ એક પ્રકારની તપશ્ચર્યા છે. આના બે ભેદ છે દ્રવ્ય અવમેરિકા અને ભાવ અવમેારિકા આહાર ઉપધિ આદિ ખાદ્ય વસ્તુઓમાં ઘટાડા કરવા દ્રશ્ય અમેરિકા છે અને ધાદિ કષાયામાં ઘટાડા કરવા ભાવ અમૈાઇરિકા છે ! ૧૦ !! તત્ત્વાથ નિયુકિત-આની પહેલાં પ્રથમ ખાદ્યુતપ અનશનના યાવકૅથિક અને ઇત્વરિક ભેદ્યોતુ વિસ્તારપૂર્વક નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યુ છે, હવે ક્રમપ્રાપ્ત દ્વિતીય ખાદ્યુતપ અવમેદરિકાના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદૃન કરીએ છીએ त० ७६ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ शादाबमोदनापीकरण ? ओमोधा अर्थ कास तस्यासो रिया ये दुबिहे, दव्योमोरिया-भावोमोयरिया य' इति । अवमोदरिका आप--अवसथ् उनम् उदरं यस्मिन् भोजने तद्-अवमोदरंभोजनम्, तदस्त्यस्या झियायामिति अवमोदरिका तपो विशेषरूपा क्रिया उच्यते तद्रूपं तपोऽवमोदरिका आप उच्यते तत्खलु-अवमोदरिका तपो द्विविधं भवति+द्रव्यावमोदरिकारूपंधावाचमोदरिकारूपश्चेति, । तत्र-बाह्य वस्तुनोल्पीकरणं द्रव्यावमोदरिका, आन्तरिक वस्तुनोऽल्पीकरणं भावावमोरिका व्यपदिश्यते । उक्तञ्चौपपातिके ३० सूत्रे'कि तं ओमोयरिया ? ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता तं जहा-दव्योसोयरिया-भावोमोयरिया य' इति, अथ का सा-अवमोदरिका-? अवमोद. रिका द्विविधा प्रज्ञप्ता तद्यथा-द्रव्यावमोदरिका च भावावमोदरिका च १०॥ . मूलम्-दव्वोमोयरिया तवे दुविहे, उवगरणदव्वोमोयरिया, भत्तपाणदव्योमोयरिया य ॥११॥ छाया-द्रव्यावमोदरिका तपो द्विविधम्, उपकरणद्रव्यावमोदरिका भक्तपानद्रव्यावमोदरिका च' ॥११॥ जिस भोजन में उदर उन (कम) हो वह भोजन अवमोदर कहलाता है, वह जिस क्रिया में हो यह अवमोदरिका । अवमोदरिका एक प्रकार की तपश्चर्या है । इसके दो भेद हैं-द्रव्य-अघमोदरिका और भाव अवमोदरिका घाह्य वस्तुओं की अल्पता करना द्रव्य-अवमोदरिका हैं और कषायादि विकारभाव को अल्प करनो भाव-अवमोदरिका है। औपपातिकसूत्र के तीसवें सूत्र में कहा है प्रश्न-अवमोदरिको के कितने भेद हैं। उत्तर-अवमोदरिका दो प्रकार की है-द्रव्य-अवमोदरिका और भाव-अषमोदरिका॥१०॥ - 'दव्योमोयरिया तवे दुविहे' इत्यादि ॥११॥ જે ભોજનમાં ઉદર ઉન (ઓ) હેય તે ભેજન અવદર કહેવાય છે તે જે ક્રિયામાં હોય તે અમેરિકા. અવમોદરિકા એક પ્રકારની તપશ્ચર્યા છે એના બે ભેદ છે દ્રવ્ય અવમેરિકા અને ભાવ અવમદરિકા. બાહ્ય વસ્તુઓનું એાછાપરું કરવું દ્રવ્ય અવમદરિકા છે જ્યારે કષાયાદિ વિકારભાવને ઓછા કર એ ભાવ અવમોદારિક છે. પપાતિક સૂત્રના ત્રીસમા સૂત્રમાં કહેલ છે प्रश्न-माना टा लेह छ ? ઉત્તર-અવમદરિકા બે પ્રકારની છે દ્રવ્ય અવમેરિકા અને ભાવ અવમેરિકા કે ૧૦ ” .. 'दबोमोयरिया तवे दुविहे' या Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ८३.११ द्रव्यावमोदरिकायाः द्वैविध्यम् ६० ___ तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावद् अवमोदरिका रूपं तपो द्रव्यभावभेदरूपपरखें. विध्येन प्ररूपितम्, सम्पति-द्रव्यावमोदरिका तपसो द्वैविध्यं प्ररूपयितुमाह'दव्योमोयरिया तवे' इत्यादि । द्रव्यामोदरिका तपो द्विविधम् भवति । तद्यथा उपकरणद्रव्यावमोदरिका भक्तपानद्रव्यावनोदरिका च, तत्राऽल्पस्वपात्र सदोरंक मुखवत्रिकाधुपकारणरूप द्रव्य विषयकाऽबमोदरिकारूप तपो विशेषक्रिया 'उपकरण द्रव्यावमोदिका' उच्यते । अल्पभक्तपानादि द्रव्यविषयकावमोदरिकारूपतपश्चरणविशेषक्रिया 'भक्तपानद्रव्यावनोदरिका' व्यपदिश्यते ॥११॥ तवार्थनियुक्तिः-पूर्व खल्लु-बावं सपोऽवनोदरिकारूप द्रव्य-भाव भेदमाश्रित्य द्विविधतया प्रतिपादितम्, सम्मति-तत्र प्रथमोपात्तं द्रव्यावमोदरिका तपः सूत्रार्थ-द्रव्य-अवमोरिका तप दो प्रकार का है-उपकरणद्रव्यअवमोरिको और भक्तपान-द्रव्य-अयमोद्रिका ॥११॥ ___ तत्त्वार्थदीपिका-पहले अवनोदरिका तप के द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो भेद कहे गए, अब द्रव्य-अवमोदरिका तप के दो भेद की प्ररूपणा करते है-द्रव्य अवमोदरिका तप दो प्रकार का है-उपकरण द्रब्य-अवमोदरिकाऔर भक्तपान द्रव्यावमोदरिका । वस्त्र, पात्र, डोरा सहित मुखवस्त्रिका आदि उपकरणों का अल्पता को उपकरण द्रव्य-अवमोदरिका कहते हैं और भोजन-पान की अल्पता को भक्तपान-द्रव्यअवमोदरिका कहते हैं ॥११॥ तत्वार्थनियुक्ति--पहले अवमोदरिका बाह्य तप के द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो भेद बतलाए गए, अब द्रव्ध-अवमोद्रिका तप की प्ररूपणा करते हैं સૂત્રાર્થ-દ્રવ્ય અમેરિકા તપ બે પ્રકારનું છે –ઉપકરણદ્રવ્ય અવમોદરિકા અને ભક્ત પાન દ્રવ્ય અવમદરિકા છે ૧૧ છે તત્વાર્થદીપિકા-પહેલા અમેરિકા તપના દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાથી બે ભેદ કહેવામાં આવ્યા. હવે દ્રવ્ય અવમદરિકા તપના બે ભેદની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ– દ્રવ્ય અમેરિકા ત૫ બે પ્રકારના છે–ઉપકરણદ્રવ્ય અમેરિકા અને ભતપાનદ્રામેરિકા વસ, પાત્ર દેરા સહિત મુહપત્તિ આદિ ઉપકરણની અ૯પતાને ઉપકરણ દ્રવ્ય અવમોદરિકા કહે છે અને ભેજન પાનની અ૫તાને ભક્તપાન દ્રવ્ય અમેરિકા કહે છે કે ૧૧ | તરવાથનિર્યુક્તિ–પહેલાં અમેરિકા બાહ્ય તપના દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાથી બે ભેદ બતાવાયા, હવે દ્રવ્ય અમેરિકા તપની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वायसर्व भरूपयितुमाह-'दब्योमोयरिया तवे दुधिहे, उवारणदव्योमोयरिया-भत्त पाणदव्योमोयरिया य' इति । द्रव्यावमोदरिका तपः द्विविधं भवति, उपकरणद्रव्यावमोदरिका भक्तपानद्रव्याचमोदरिकाचेति । तत्र-वस्त्रपात्राद्युपकरणरूप द्रव्यविषयकाबमोदरिका तपा-उपकरणद्रव्यावमोदरिका तप उच्यते भक्तपानादिरूप द्रव्यविषयकाबमोदरिका तपो विशेष क्रियारूपं भक्तपानद्रव्यावमोदरिका तप उच्यते । उक्तश्चौपपातिके ३० सुत्रे-से कि तं व्यो. मोयरिया ३ व्योमोयरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवगरण ब्यो मोयरिया य-भत्तपाणब्योमोयरिया य-' इति अथ का सा द्रव्यावमोदरिका-१ द्रव्यावमोदरिका द्विविधा प्रज्ञप्ता तद्यथा-उपकरणद्रव्यावमोदरिका च, भक्तपानद्रव्यावमोदरिका च इति ॥११॥ मूलम्-उवगरणदवोसोयरिया तिविहा, एगवत्थ-एग‘पाए-चियत्तोवगरण साइज्जणथा लेदओ ॥१२॥ -:: छाया-'उपकरण द्रव्यावमोदरिका त्रिविधा, एकवस्त्र-एकपात्र-यक्तोपकरण स्वादनता भेदतः ॥१२॥ द्रव्य-अवमोदरिका तप के दो भेद हैं-उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका और भक्तपानद्रव्य-अवमोदरिका । वस्त्र-पान आदि उपकरणों संबंधी जनोदरी को उपकरणद्रव्य-अवनोदरिका तप कहते हैं और आहारपानी संबंधी ऊनोदी को भक्तपानद्रव्य-अवमोहिका कहते हैं। औपपातिकसूत्र के ३० वें सूत्र में कहा है प्रश्न-द्रव्य-अवमोरिका के कितने भेद हैं ? उत्तर-द्रव्य-अवमोदरिका के दो भेद है-उपकरण द्रव्य-अवमो. दरिका और भक्तपानद्रव्य-अवनोदरिका ॥११॥ 'उवगरण व्योमोयरिया' इत्यादि દ્રવ્ય અમેરિકા તપના બે ભેદ છે ઉપકરણ દ્રવ્ય અવમદરિકા અને ભક્તપાન દ્રવ્યાવમદનિકા વસ્ત્ર, પાત્ર આદિ ઉપકરણ સંબંધી ઉનેદરીને ઉપ કરણ દ્રવ્ય અમેરિકા તપ કહે છે અને આહાર પાણી સંબંધી ઉનાદરીને ભક્તપાનદ્રવ્ય અમેરિકા કહે છે પપાતિક સૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે प्रश्न--०५-सपमहरिन सा मे छ. ? ઉત્તર-દ્રવ્ય અમેરિકાના બે ભેદ છે ઉપકરણદ્રવ્ય અવમોદરિકા અને ભક્તપાન દ્રવ્ય અમેરિકા ! ૧૧ છે . उबगरण व्वोमोयरिया' त्यात Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८सू.१२ उपकरणद्रव्यावमोदरिकायस्पैविध्यर ६०५ - तत्वार्थदीपिका-पूर्व ताबद्-द्रव्यावमोदरिका द्विविधत्वेन प्ररूपिता, उपकरणद्रव्यावमोदरिका-भक्तपानद्रव्यावमोदिका चेति । तत्र-प्रथमोपात्ताया उपकरणद्रव्यावमोदरिकाया स्वैविध्यं प्रतिपादयितुमाह-'उवगरण व्यो. मोयरिया' इत्यादि उपकरणद्रव्यावमोदरिका वस्त्रपात्राशुपकरणरूप द्रव्य विषयकाऽवमोदरिका त्रिविधा भवति, तद्यथा-एकवस्त्र-एकपात्र-त्यकतोपकरण स्वादनता भेदतः । एकं वस्त्रम् एकं चोलपट्टरूप वस्त्रम्, न द्वितीयम् १ एक पात्रम् २ त्यक्तोपकरण स्वादनता ३ च, त्यक्ता उपकरणस्य-भाण्डोपकरणादेः स्वादनता आसक्तिर्यस्यामवमोदरिकायां तपो विशेषक्रियायां सा त्यक्तोपकरणस्वादनतो भाण्डामत्रोपकरणादिषु मूपिरित्यागता, इत्येवं रीत्या त्रिविधा खल उपकरण द्रव्यावमोदरिका भवति ॥१२॥ - सूत्रार्थ---उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका के तीन भेद हैं-एक वस्त्र, एक पात्र और स्थक्तोपकरण स्वादनता ।।१२।। तत्वार्थदीपिका--द्रव्य, अवमोदरिका के दो भेदों का प्ररूपण किया गया-उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका और भक्तपान द्रव्य-अवमोदरिका अब इनमें से पहले भेद उपकरण द्रव्य अवमोदरिका के तीन भेदों का प्रतिपादन करते हैं- उपकरण द्रब्य-अवमोदरिका तीन प्रकार की है-एक वस्त्र एक पात्र त्यवतोपरण स्वादनता। वस्त्र सिर्फ एक ही-चोलपट्ट और सदोरक मुख वस्त्रिका होना, दूसरा न होना एक वस्त्र-अवमोदरिका है। इसी प्रकार एक ही पात्र रखना एक पात्र अवमोदरिका है। भाण्ड, उपकरण आदि में मूर्छा का परित्याग करना त्यक्तोपकरण स्वादनता-अवमो. दरिका कहलाती है ॥१२॥ - સૂત્રાર્થ-ઉપકરણંદ્રગ્ય અવમોદરિકાના ત્રણ ભેદ છે એક વસ્ત્ર, એક પાત્ર અને ત્યકતપકરણસ્વાદનતા છે ૧૨ છે -તાવાર્થદીપિકા--દ્રવ્ય અવમેદરિકાના બે ભેદોનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું ઉપકરણ દ્રવ્ય અવમેદરિકા અને ભક્તપાનદ્રધ્ય અવમદરિકા હવે આ માંથી પહેલા ભેદ ઉપકરણ દ્રવ્યઅવમદરિકાના ત્રણ ભેદનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ ઉપકરણ દ્રવ્ય અમેરિકા ત્રણ પ્રકારની છે એક વસ્ત્ર, એકપાત્ર અને ત્યકતપકરણસ્વાદના વસ્ત્ર પાત્ર એક જ ધળી અને દેરા સહિતની સુખવસ્ત્રિકા બીજુ ન હોવું એક વસ્ત્ર અવદરિકા છે એવી જ રીતે એક જ પાત્ર રાખવું એક પાત્ર અવમેદરિકા છે. વાસણ, ઉપકરણ આદિમાં મહિને પરિત્યાગ કરે ત્યકતપકરણસ્વાદનતા અમેરિકા કહેવાય છે, ૧૨ છે Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाने तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व खलु-द्रव्यावमोदरिकाया द्वैविध्यं प्रोक्तम्, साम्प्रतं -तत्र प्रथमोपात्तोपकरणद्रव्याचमोदरिकाया विध्यं प्रतिपादयितु माह-'उव गरणदव्योलोयरिया लिविहा, एगवत्य एगपाए-चियत्तोवगरण साइज्जणया मेयओ' इति । उपकरणद्रव्यावमोदरिका-वस्त्रस्य पात्रादेरूपकरणद्रव्यख्य विषयेऽवमोदरिका तपः उपकरणद्रव्यावमोदरिकारूपमुच्यते, सा खलूपकरणद्रव्यामोदरिका त्रिविधा भवति । तद्यथा-एकं वस्त्रं सदोररुमुखस्त्रिका सहितम् एकं चोलपट्टरूपं वस्त्रम्, न द्वितीयं भवति । एवम्-एकं पात्रम्, त्यक्तोपकरणस्वादनता च, त्यक्ता-उपकरणस्य भाण्डामत्रोपकरणादेः स्वादनता मूच्छोऽऽ. सक्तिर्यस्यामवनोदरिकायां क्रियायां सा-त्यक्तीपकरणस्वादनता, भाण्डोपकरणादिषु सूर्छापरित्यागिता, इत्येवं त्रिविधा खल्लु-उपकरण द्रव्यावमोदरिका तपो विशेषक्रियाऽवगन्तव्या । उक्तश्चौपपातिके ३० सूत्रे-से किं तं उवकरण स्तत्वार्थनियुक्ति--पहले द्रव्य -अवमोदरिका के दो भेदों का कथन किया गया अब उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका के तीन भेदों का कथन करते हैं___ उपकरण द्रव्य-अवमोदरिका तीन प्रकार का है-वस्त्र-पात्र आदि उपकरण द्रव्यों के विषय में ऊनोदरी होना उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका कहलाती है। उसके तीन भेद इस प्रकार हैं (१) एक वस्त्र-डोरा सहित मुखवस्त्रिका के साथ एक चोलपट्ट ही रखना, दूसरो कोई वस्त्र न रखना (२) एकपात्र-एक से अधिक पात्र न रखना और (३) त्यक्तोपकरण स्वादनता भाण्ड, पात्र आदि उपकरणों पर मूर्छा-ममता न होना यह तीन प्रकार की उपकरण द्रव्य-अवमोदरिका समझनी चाहिए। औपपातिकसूत्र के तीसवें सूत्र में कहा है• તવાર્થનિકિત–પહેલાં દ્રવ્ય અવમદરિકાના બે ભેદનું કથન કરવા માં આવ્યું હવે ઉપકરણદ્રવ્ય અમેરિકાના ત્રણ ભેદનું કથન કરીએ છીએ ઉપકરણદ્રવ્ય અવમોદરિકા ત્રણ પ્રકારની છે વસ્ત્ર, પાત્ર આદિ ઉપકદ્રવ્યના વિષયમાં ઉદરી હેવી ઉપકરણ દ્રવ્ય અવમદરિકા કહેવાય છે. તેના ત્રણ ભેદ આ પ્રમાણે છે (૧) એક વસ્ત્ર દેશ સહિત મુખવસ્ત્રિકાની સાથે એક ચેળપટ જ રાખવો બીજું કઈ પણ વસ્ત્ર ન રાખવું (૨) પાત્ર એકથી અધિક પાત્ર ન રાખવા અને (૩) ત્યકતપકરણસ્વાદનતા વાસણ પાત્ર આદિ ઉપક પર મૂછ મમતા ન હેવી. આ ત્રણ પ્રકારની ઉપકરણદ્રવ્ય અમેદરિકા સમજવી જોઈએ પપાતિકસૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ८ सू.१३ भाद्रव्यावमोदरिकायाः अनेकविधत्वम् ६०७ व्योमोयरिया ? उवगरणव्योमोयरिया तिविहा पण्णता, तं जहाएगे वाथे एगे पाए चित्तोषगरणसाइज्जणया, से तं उक्षगरणव्योमोदरिया' इति, अथ का सा-उपकरणदव्यामोदरिका ? उपकरणद्रव्यावमोदरिका त्रिविधा प्रज्ञता, तद्यथा-एक दस्त्रम्, एकं पात्रम्, त्यक्तोपकरणस्वादनता, सा-एषा, उपकरणद्रव्यावसोदरिका, इति।।१२।। - मूलम्-भत्तपाणदव्योमोयरिया तवे अणेगविहे, अट्रकवलप्पमाणमेत्ताइ भेयओ ॥१३॥ , छाया-भक्तपानद्रव्यामोदारका तपेऽनेकविधम्, अष्टकवल प्रमाण मात्रादि भेदतः ॥१३॥ तत्वर्थीदीपिका- पूर्व तावत्-उपकरण द्रव्यावमोदरिका विध्येन पतिपादिता, सम्पति-भक्त पानद्रव्याबमोदरिका रूपयितु माह-भत्तपाणध्वो मोदरिया तवे' इत्यादि । भक्तपानद्रव्याचमोदरिका तपोऽनेकविधं भवति, तत्र प्रश्न-उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका किसे कहते हैं ? उत्तर-उपकरणद्रव्य-अवमोदरिक्षा तीन प्रकार की कही हैएकवस्त्र, एकपात्र और त्यक्तोपकरण स्वादनता ॥१२॥ 'भत्तपाण व्योमोयरिया' इत्यादि सूत्रार्थ-आठ कवल मात्र ही आहार करने आदि के भेद से भक्तपान द्रब्य-अवमोदरिका तप अनेक प्रकार का हैं ॥१३॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका के तीन भेद कहे गए हैं, अब भक्तपानद्रव्य-अवमोदरिका का निरूपण करते हैं भक्तपानद्रव्य-अवनोदरिका तप अनेक प्रकार का है। अशन, पान, खादिम और स्वादिम, यह चार प्रकार का आहार भक्त-पान પ્રશ્ન-ઉપકરણદ્રવ્ય અવમેદરિકા કોને કહે છે ? ઉત્તર-ઉપકરણદ્રવ્ય અવમદરિકા ત્રણ પ્રકારની કહેલી છે. એક વસ્ત્ર, એકપાત્ર અને ત્યકતપણુસ્વાદનતા છે ૧૨ છે 'भत्तपाण दव्वोमोयरिया' छत्यादि સૂત્રાર્થ-આઠ કવલ માત્ર જ આહાર કરવા આદિના ભેદથી ભક્તપાન દ્રવ્ય અવમેરિકા તપ અનેક પ્રકારના છે. ૫ ૧૩ છે તત્ત્વાર્થદીપિકા–પહેલાં ઉપકરણદ્રવ્ય અવમોદકિાના ત્રણ ભેદ કહેવામાં આવી ગયા છે હવે ભક્ત પાનદ્રવ્ય અવમોદકરિકાનું નિરૂપણ કરીએ છીએ ભક્ત પાનદ્રવ્ય અવમેદરિકા તપ અનેક પ્રકારના છે. અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાઘ, આ ચાર પ્રકારના આહાર ભક્તપાનદ્રવ્ય કહેવાય છે. આનાથી Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ तत्त्वार्थस्त्रे -भक्तपानद्रव्यम् अशनपानखादिम-स्वादिमरूपचतुविधाहारद्रव्यमुच्यते, वत्सम्बन्धि-अवनोदरिका तपा-अवमोदरिका नाम तपश्चरणक्रियाविशेषः तद्रपं तपः भक्तपानद्रव्यावमोदरिका तप उच्यते, तच्चाऽनेकविधं भवति, 'अष्टकवकपमाणमात्रादि भेदात् । तत्रापि-प्राधान्येन त्रिविधम्-उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्यभेदात् । तत्रो-स्कृष्टम् एककवलादारभ्याऽष्ट कवलाहारपर्यन्ताहाररूपम् १ मध्यमम्-नवमकवलादारभ्य पोडशकवलाहारपर्यन्ताहाररूपम् २ जघन्यस्-सप्तदशकवलादारभ्यैकत्रिंशत्कवलपर्यन्ताहाररूपम् ३ तत्रापि-एकादि कबलहानेस्तारतम्येनाऽस्याऽनेकविधत्व मपि भवति ॥इति॥१२॥ तत्वार्थनियुक्ति:-'पूर्व तावद्-द्विविधं तपः, तत्रापि-उपकरणद्रव्याव. मोदरिकातपस्त्रिविधं प्रतिपादितम् सम्भति-सक्तपानद्रव्यावमोदरिकालप: प्ररूपयितु माह-'भत्त पापणदव्योमोयरिया तवे अणेगविहे अडकवला. माणमेत्ताइ भेयओ' इति । भक्तपानद्रव्यावमोदरिका तपः-अशनपानरूपा. द्रव्य कहलाता है। इससे संबंध रखने वाली ऊनोदी को भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका तप कहते हैं। वह यद्यपि अनेक प्रकार की है, मगर स्थूल भेदों की अपेक्षा से तीन प्रकार की है-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । एक कवल से लेकर आठ कवल तक खाना उत्कृष्ट, नौ कवल से लगा कर सोलह कवल तक खाना मध्यम और सतरह कपल से लगाकर इकतीस कदल तक खाना जघन्य भक्तपानद्रव्यअवमोदरिका है। इसमें एक-दो कवलों की न्यूनाधिकता के कारण अनेक अवान्तर भेद निष्पन्न होते हैं, अतः अनेक प्रकार की है ॥१३॥ . तत्वार्थनियुक्ति-उपकरणद्रव्य-अचमोदरिका तप के तीन भेदों का निरूपण किया गया अब भक्तपानद्रव्य-अवमोदरिका तप की प्ररूपणा की जाती हैસંબંધ રાખનારી ઉદરીને ભક્તપાનદ્રવ્ય અમેરિકા તપ કહે છે. તે જે કે અનેક પ્રકારની છે પણ સ્થૂળભેદની અપેક્ષાથી ત્રણ પ્રકારની છે. ઉત્કૃષ્ટ, મધ્યમ અને જઘન્ય. એક કેળીયાથી લઈને આઠ કેળીયા સુધી ખાવું ઉત્કૃષ્ટ, નવ કેળીયાથી શરૂ કરીને સેળ કેળીયા સુધી ખાવું મધ્યમ અને સત્તર કેળીયાથી લઈને એકત્રીસ કેળીયા સુધી ખાવું જઘન્ય ભક્ત પાનદ્રવ્ય અવમદરિકા છે. આમાં એક બે કેળીયાની ન્યૂનાધિકતાને કારણે અનેક અવાન્તર ભેદ નિષ્પન્ન થાય છે આથી અનેક પ્રકારની છે કે ૧૩ છે તત્વાર્થનિર્યુકિત–ઉપકરણદ્રવ્ય અવમોદરિકા તપના ત્રણ ભેદોનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે ભક્ત પાનદ્રવ્ય અમેરિકા તપની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. सू.१३ भाद्रव्यावमोदरिकायाः अनेकविधत्वम् ६०९ हारद्रव्यसम्बन्धितपः भक्तपानद्रव्यामोदरिका तप उच्यते । तच्चाऽनेकविधं भवति, अकवलप्रमाणमात्रादि मेहता, कवलपरिमाणं चाऽत्रकुक्कुटाण्डप्रमित्तं बोध्यम् । माघान्यतोऽनलोदरिकातपः-उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्यावमोदरिकाभेदात् त्रिविधं भवति तत्पूर्व प्रदश्यते-द्वात्रिंशत्परिमितैः कवलैः पर्याप्तः पुरुषाहारो भवति । तत्रशकवलादारभ्याऽष्टकवलपरिमिताहारकरण मुत्कृष्टावमोदरिकातपः १ नव कलादारस्य घोडशनलपरिमिताहारकरणं मध्यमाऽवमोदरिकातपः २ सप्तदशकवलादारभ्यैकत्रिंशकवलपरिमिताहार करणं जघन्याबमोदरिकातप उच्यते ३। इत्थं त्रिविषमप्यत्रमोदारिकातपः प्रत्येक मेकादिकवलही नाहारभेदेनाऽनेकविधत्वं भजतीति अत्रेऽस्य ऽने विधत्वमुक्तम् । तथाऽन्यमकारेणाऽपि-अब भक्तपानद्रब्ध-अधमोतरिका तप अनेक प्रकार का है, यथा आठ कवल माम मामाद करना आदि। यहां कपल का परिमाण मुर्गी के अंडे के बराबर समझना चाहिए । प्रधान रूप से यह अनोदरिका तप तीन प्रकार का है-उस्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । पुरुष का परिपूर्ण आहार बत्तील पल-प्रमाण माना जाता है, इसमें से एक कवल से लेकर आठ कवल हक आहार करना उत्कृष्ट-अवमोद रिकानप है। नौ काल से लेकर लोलह कवल तक आहार करना मध्यस अवमौर्य तप है और सत्तर वाचाल से भारंभ करके इकत्तीस कपल तक खाना जघन्य अवसौदर्थ है। इस प्रकार अबलोदहिका तप यद्यपि तीन प्रकार का है तथापि एक-दो कपल कम या ज्यादा खाने से उसके अवान्तर भेद होते हैं। इली कारण सूत्र में उसे अनेक प्रकार का कहा है। ભક્ત પાનદ્રવ્ય અવમે દરિકા તપ અનેક પ્રકારના છે યથા આઠ કળીયા માત્ર આહાર કર વગેરે અહીં કેળીયાંનું પરિમાણ મરઘીના ઈડાની બરાબર સમજવું જોઈએ. પ્રધાન રૂપથી આ અમેરિકા તપ ત્રણ પ્રકારના છે ઉત્કૃષ્ટ, મધ્યમ અને જઘન્ય, પુરૂષને પરિપૂર્ણ આહાર બત્રીસ કેળીયા પ્રમાણ માનવામાં આવે છે. આમાંથી એક કેળીયાથી લઈને આઠ કેળીયા સુધી આહાર કર ઉત્કૃષ્ટ અવમદરિકા તપ છે. નવ કેળીયાથી લઈને સળ કેળીયા સુધી આહાર કર મધ્યમ અવમૌદર્ય તપ છે અને સત્તર કેળીયા થી આરંભ કરીને એકત્રીસ કેળીયા સુધી ખાવું જઘન્ય અવમૌદર્ય છે. આવી રીતે અમેરિકા તપ છે કે ત્રણ પ્રકારના છે તે પણ એક - બે કળીયા ઓછી કે વધારે ખાવાથી તેના અનેક અવાન્તર ભેદ થાય છે અને આથી જ સૂત્રમાં તેને અનેક પ્રકારની કહેવામાં આવેલ છે, ' ' त० ७७ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वायत्र मोदरिकातपसः पञ्चविधत्वेन शास्त्रोक्तवाद नेकविधत्वं भवति, तथाहि-अल्पाहाराबमोदरिका १ अपाविमोदरिका २ द्विभागप्राप्तावमोदरिका ३ मातावमोदरिका ४ किश्चिदुनाबमोदरिका ५ चेति । तत्राऽटकवलप्रमाणमात्रकवलाहारोऽल्पाहाररूपमवयोदरिका तपो भवति १ द्वादशकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रकवलाहारो. ऽपाविमोदरिकातपो भवति-२ एवम्--पोड शकुक्कुटाण्डक प्रमाणमात्रकवलाहारो द्विभागमाप्ताबमोदरिकातपो भवति-३ एवं-चतुर्विशति कुक्कुटाण्डकपमाणमात्रकवलाहारः प्राप्तावमोदरिकातपो भवति-४ एकत्रिंशस्कुक्कुटाण्डकपमाणमात्र कवलाहारः किश्चिदूनाबमोदरिका तपो भवति-५। तत्राऽष्टौ कुक्कुटाण्डकममाणमात्रान् कवलान् य आहरति तस्य पुरुषस्याऽल्पाहारनामकाऽवमोदरिका तपो भवति । द्वादश कुक्कुटाण्डकपमाणमात्रान् कवलान् य आहरति तस्य स आहारो -उपार्दाऽवमोदरिकातपो भवति । अन्य प्रकार से अधमोदरिका तप के शास्त्र में पांच भेद कहे गए हैं, इस कारण भी उसके अनेक भेद कहे जा सकते हैं। वे भेद इस प्रकार हैं (१) अल्पाहार अवमोदरिका (२) अपाध-अयमोंदरिका (३) विभाग प्राप्त-अवमोदरिका (४) प्राप्त-अवमोदरिका और (५) किंचिदून-अव. मोदरिका । आठ कवल मात्र आहार करना अल्पाहार-अवमोदरिका तप है, मुर्गी के अंडे के बराबर बारह कवल मान आहार करना अपार्ध-अवमोदरिका तप है, इसी प्रकार सोलह कवल मात्र आहार करना विभाग प्राप्त-अवमोदीका तप है, चौवीस कपल आहार करना प्रास-अवमोदरिका है और इकतीस कवल मुर्गी के अंडे के बराबर आहार करना किंचिदून-अवमोदरिका तप कहलाता है। અન્ય પ્રકારથી અમેરિકા તપના શાસ્ત્રમાં પાંચ ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે એ કારણને લઈને પણ તેના અનેક ભેદ કહી શકાય છે. આ ભેદ આ પ્રમાણે છે (૧) અલ્પાહાર અમેરિકા (૨) અપાઈ અમેરિકા (૩) દ્વિભાગ પ્રાપ્ત અમદરિકા (૪) પ્રાપ્ત અવમદરિકા અને (૫) કિંચિત ઉન અવમોદરિકા આઠ કેળીયા માત્ર આહાર કર અપાહાર અવમેદરિકા તપ છે મરઘીના ઇંડાની બરાબર બાર કેળીયા માત્ર આહાર કરે અપાઈ અવમદરિકા તપ છે, એજ પ્રકારે સેળ કેળીયા આહાર કર દ્વિભાગ પ્રાપ્ત અવમેદરિકા તપ છે, વીસ કેળીયા આહાર કરે પ્રાપ્ત અવમદરિકા તપ છે અને એકત્રીસ કેળીયા, મરઘીના ઈંડાની બરાબર આહાર કરે કિંચિદ્દન અવમેદરિકા તપ કહેવાય છે. Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अं.८.१३ भ.द्रव्यावमोदद्रिकायाः अनेकविधत्वम् ६९ षोडशकवला अर्द्धः पुरुषाहारः तस्मात् अर्थात् अपकृष्टा-न्यूना या-ऽवमोदरिका द्वादशकवलात्मकत्वात् सा-ऽपाद्धविमोदरिकाऽबसेया। एवं-पोडश कुक्कुटाण्डकपमाणमात्रान् कवलान् याहरति तस्य स आहारो द्विभागमाप्ताबमोदरिका तपो भवति । तथा च द्वात्रिंशकवलात्मक पर्याप्त पुरुषाहारस्य भागद्वये कृते सति प्राप्तान षोडशकवलान भुञानस्य पुरुषस्य द्वि मागशाप्तावमोदरिका तपो भवतीति भावः । एवं-चतुर्दिशति कुक्कुटाण्ड कपमाणमात्रान् कबलान् य आह इस प्रकार जो पुरुष मुगी के अण्डे जितने आठ कौर आहार करता है उसके अल्पाहार नामक ऊनोदी तप होता है। जो मुगी के अंडे के बराबर बारह कवल प्रमाण आहार करता है वह अपार्ध-अवमोदरिका तप बाला कहलाता है । सोलह कवल आहार पुरुष का अर्धा. हार गिना जाना है, उस आधे से भी कम अर्थात् बारह कवल का आहार करना अपार्ध-अघमोदरिका तप है। जो मुर्गी के अंडे के बराबर सोलह कवल आहार करता है, उसका आहार विभाग प्राप्त-अवमोदरिका है। उसे द्वितीय भाग (आधा) अवमोदरिका तप भी कहते हैं। तात्पर्य यह है कि बत्तीस कवल के पुरुष के पूर्ण आहार के बराबरघराबर के दो भाग किये जाएँ तो सोलह-सोलह हो सकते हैं। इस कारण सोलह कवल का आहार विभाग प्राप्त-अवमोदरिका तप समझना चाहिए। जो पुरुष मुगी के अण्डे के बराबर सोलह कवल का आहार करता है वह द्विभाग प्राप्त अवमोरिका तप बाला कहलाता है। આ પ્રમાણે જે પુરૂષ મરઘીના ઈડા જેટલા આઠ કેળીયાને આહાર કરે છે, તેનું અલ્પાહાર નામક ઉનેદરી તપ હોય છે જે મરઘીના ઈંડા બરાબર બાર કેળીયા પ્રમાણ આહાર કરે છે તે અપાઈ અમેરિકા તપવાળે - કહેવાય છે. સોળ કળીયાને આહાર પુરૂષને અડધે આહાર ગણાય છે. તે અડધાથી ઓછે અર્થાત્ બાર કેળીયા આહાર કરે અપાઈ અવમોદરિકા તપ છે. જે મરઘીના ઈંડા જેટલા સેળ કોળીયાને આહાર કરે છે તેને આહાર દ્વિભાગ પ્રાપ્ત અવમદરિકા તપ સમજ તેને દ્વિતીય ભાગ (અડધો) અવમોદરિકા તપ પણ કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે બત્રીસ કળીયા પુરૂષના પૂર્ણ આહારના સરખા સરખા બે ભાગ કરવામાં આવે તે સેળ સોળ થાય છે આ કારણે સેળ કેળીયાને આહાર દ્વિ ભાગ પ્રાપ્ત અવમેરિકા તપ સમજ જઈએ જે પુરૂષ મરઘીના ઈડાની બરાબર સેળ કેળીયાને આહાર કરે છે તે વિભાગ પ્રાપ્ત અવમોદરિકા તપવાળે કહેવાય છે. આવી જ રીતે Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्र रति तस्य स आहारः प्राप्तावमोदरिका-पादोनमात्रन्यूनतया प्राप्तेवाऽवमोरिका प्राप्तावमोदरिका व्यपदिश्यते । एवम्-एकत्रिंशत्कुक्कुटाण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् यः पुरुष आहरति तस्य आहारः किश्चिदूनाबमोदरिका कवलैक न्यूनाऽचमोदरिका तपस्या भवति, किन्तु-द्वात्रिंशत् कवलप्रमाणमात्रान् कवलान् य आहरति तस्य पुरुषस्य स आहारः प्रमाण प्राप्ताहारत्वात् अनमोदरिका तपो न भवति । अपितु-एकेनाऽपि कवलेन ऊनमाहारमाहरन् श्रमणो निन्थो न प्रकामरसभोजी भवतीति वक्तुं पार्यते। तथा च-जघन्याऽप्रमोदारिकारूपा तपस्यां कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थः प्रकामभोजीति न वक्तुं शक्यते, इत्येवं रीस्या भक्तपान द्रव्यावमोदरिका तपोऽनेकविधं भवतीति बोध्यम् ।उक्तश्चौपपातिक ३० सूत्रेसे कि तं भत्तपाणव्योमोयरिया-? भत्तपा, दमकोमोथरिथा-अणेग विहा पण्णत्ता, तं जहा-अनुचकुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहरमाणे अवडोमोयरिया-२ सोलल कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहरमाणे दुभागपत्तोमोयरिया-३ चउश्रीलं अमडियंडाप्पमाणमेत्ते कवले आहरमाणे पत्तोमोपरिया-४ एक्शन्सीसं कुक्कुडियंडग इसी प्रकार चौवीन कवल का आहार करने वाले को प्राप्त अवमोदरिका तप होता है। जो पुरुष इकतील जवल का आहार करता है, उसका तप किंचिदून (कुछाम) अनोदी तप कहलाता है। किन्तु जो पुरुष 'वत्तील कचल प्रमाण आहार करता है, उसका आहार प्रमाण प्राप्त (पूर्ण) होने से अवमोदरिका तप नहीं कहा जा सकता। जो श्रमण या श्रमणोपासक परिपूर्ण आहार से एक ही कम कम खाता है उसी के विषय में ऐसा कहा जा सकता है कि यह प्रभाबरत भोजी नहीं है। इस प्रकार भक्तपान हव्य-अक्षमोदरिका तप अनेक प्रकार का होता है। औपपातिक सूत्र में कहा है વીસ કેળીયાને આહાર કરનારને પ્રાપ્ત અવમેરિકા તપ હોય છે જે પુરૂષ એકત્રીસ કેળીયાને આહાર કરે છે તેનું તપ કિંચિદન (ડું ઓછું) ઉનેદરી તપ કહેવાય છે, પરંતુ જે પુરૂષ બત્રીસ કેળીયા પ્રમાણ આહાર કરે છે તેને આહાર પ્રમાણે પ્રાસ (પૂર્ણ) હેવાથી અવમદરિક તપ કહી શકાય નહીં. જે શ્રમણ અથવા શ્રમણોપાસક પરિપૂર્ણ આહારથી એક કોળી પણ ઓછું ખાય છે તેના જ સંબંધમાં એમ કહી શકાય કે આ પ્રકામ રસ ભેજી નથી. આવી રીતે ભક્ત પાનદ્રવ્ય અમેરિકા તપ અનેક પ્રકારના હોય છે. પાપાતિક સૂત્રમાં કહ્યું છે Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका श.८ इ.१३ भ.द्रव्यावमोदरिकायाः अनेकविधत्वम् ६१३ प्पमाणभेत्ते हवले आहारलाणे प्रमाणपसे, एतो एगेण बि घासणं ऊणयं आहारमाहारे मागे हमणे निग्गंथे जो पखालालमोहसि बत्तव्य सिथा, ले तं अत्तपाणदशेगोयरिया, ये तं व्योमोयरिया' इति अथ का सा भक्तपानद्रव्याचमोदरिका-? भक्तपानद्रव्यावनोदरिका-अनेक विधा प्रज्ञप्ता, तघया-अष्ट कुनकुटाण्ड कमवापमानान कबलान् भाहरन्-अल्ग. हारः-१ द्वादशकुक्कुटाण्डकपमाणमात्रान् कलान् बाहरन् अपार्दाऽवमोदरिका-२ षोडश कुमकुटाण्डकपमाणमात्रान् आहरन् द्विभागयाप्ताऽवमोदरिका-३ चतुर्विशति कुक्कुटाण्ड सप्रमाणमात्रा कबलान आहर प्राप्ताऽनमोदरिका-४, एकत्रिंशत् कुक्कुटाण्ड कमाणमात्रान् कवलान् आहरन् किञ्चिदूना ऽवमोदिका-५, द्वात्रिंशत्कुक्कुटाण्डकपमाणमात्रा कवला आहरन घमाणमाप्तः इस एकेनापि करलेन ऊनकर आहार माहरन् श्रमणो निग्रन्थो 'न भकामरस प्रश्न--भक्तपान द्रव्य-अवनोदहिका लए कितने प्रकार का है ? उत्तर- सातापान द्रव्ध-अवमोरिमा तर अनेक प्रकार का है, यथा मुर्गी के अंडे के बराबर आठ कवल मात्र आहार करना अल्पाहार है। मुर्गी के अंडे के बराबर बारह काकाल का आहार करना अपार्ध-अघमो. दरिका तप है, हली प्रकार सोलह सवाल का आहार करना विभागप्राप्तअवमोरिका है । चौवीस फायल का जो आहार करता है उल्लका तप प्राह-अश्लोदरिया कहलाता है। जो इकतील कवल आहार करता है उसे किंचिदून अमोरिका तप होता है। जो पूरा मुर्गा के अंडे के बराबर बत्तील कवल आहार करता है, उसका आहार प्रमाणप्राप्त कहलाता है। जो श्रमण निनन्या प्रमाणप्राप्त आहार (बन्तील) कयल से एक भी लदल हल आहार करता है, उसके विषय में यह नहीं कहा प्रश्न--सातपानद्रव्य महरि त५ मा १२॥ छ ! ઉત્તર--ભક્તમાનદ્રવ્ય અવમદરિકા તપ અનેક પ્રકારના છે જેમ કે મરઘીના ઈડ જેટલે આઠ કળીયા માત્ર આહાર કરે અલ્પાહાર છે. મરઘીના ઈંડા બરાબર બાર કેળીયા આહાર કર અપાઈ અવમદરિકા તપ છે, એવી જ રીતે સેળ કેળીયાને આહાર કર દ્વિભાગ પ્રાપ્ત અવમેદરિકા છે. ચોવીસ ઠળીયાને જે આહાર કરે છે તેનું કિંચિદન અવમેદરિકા તપ હોય છે. જે મરઘીનાં ઈંડા જેટલા પૂરા બત્રીસ કેળીયાને આહાર કરે છે તેને આહાર પ્રમાણપ્રાપ્ત કહેવાય છે. જે શ્રમણ નિગ્રંથ પ્રમાણ પ્રાપ્ત આહાર (બત્રીસ) કેળીયાથી એક પણ કેળીયે ઓછે આહાર કરે છે તેના વિષયમાં Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ भोजी' ति बकाव्यं स्यात् सा-एपा भक्तपानद्रव्याप्रमोदरिका, सा-एपा द्रव्याव मोदरिका' इति ॥१३॥ मूलम्-भावोसोयरिया तवे अणेगविहे, अप्पकोहाइ भेयओ।१४॥ छाया--भावाऽवमोदरिका तपोऽनेकविधम्, अलपक्रोधादि भेदतः ॥१४॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व तावद्-द्रव्याऽवमादरिका तपः प्ररूपितम्, सम्पतिभावाऽत्रमोदरिका तपः मरूपयितुमाह-'भायोलायरियातवे'-इत्यादि । भावा ऽवमोदरिका तपः-भावस्य क्रोधादि कषायरूपात्मपरिणामस्य प्रतनुकारकम् अवमादरिका नाम क्रियाविशेषरूपतपो भावावमोदरिका तपः-भावस्य क्रोधादि कपायरूपात्मपरिणामस्य प्रानुकारकम् अवमोदरका नाम क्रियाविशेषरूपं तपो भावावमोदरिका तप उच्यते । तच्चाऽने कविधं भवति, तद्यथा-अल्पक्रोधः अल्पमान: अल्पमाया अलपलोमः अरशद अल्पकलहः अल्पझझश्च, इत्येव भनेक विध भावाबमादरिकामो भवति । तत्रालाः पतनुः क्रोधः क्रोधमोहनोयोदय. जा सकता कि वह प्रफाम रल भोजी है। यह भक्तपाल द्रन्य-अवमो. दरिको तप है। इस प्रकार द्रव्यावमोदारका विवेचन पूर्ण हुआ॥१३॥ 'भावामोयरिया तवे' इत्यादि । सूत्रार्थ-अल्पत्रोध आदि के भेद से भाव-अवमोदरिका तप भी अनेक प्रकार का है ॥१४॥ तत्त्वार्थदीपिका-द्रव्य-अवमोदरिका तप की व्याख्या की गई, अब भाव-अवमोदरिका तप की प्ररूपणा करते हैं___ आत्मा के क्रोधादि विभाव-परिणामों को कम करना भाव-अवमोदरिका तप कहलाता है । उल्लके अनेक प्रकार हैं, जैसे क्रोध को कम करना, मान को कम करना, माया को कम करना, लोभ को कम करना, એવું ન કહી શકાય કે તે પ્રકામરસ ભેજી છે. આ ભક્ત પાનદ્રવ્ય અવમેદરિકા તપ છે. આ રીતે વ્યાવમદરિકાનું વિવેચન પૂર્ણ થયું. ૧૩ છે. 'भावोमोयरियतवे' या સૂવાથં–અ૫ક્રોધ આદિના ભેદથી ભાવ અમેરિકા તપ અનેક પ્રકારના છે ! ૧૪ છે તાર્થદીપિકા-દ્રવ્ય અમે દરિકા તપની વ્યાખ્યા કરવામાં આવી, હવે ભાવ અવમોદરિકા તપની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ આત્માને ક્રોધાદિ વિભાગ પરિણામેને ઘટાડે કરે ભાવ અમેરિકા તપ કહેવાય છે. તેના અનેક પ્રકાર છે. જેમકે કોઈ એ કરે, માન ઓછું કરવું, માયાને ઘટાડવી, લેભ એ છે કરે, વચનની ન્યૂનતા, કલહ Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ स्.१४ भावमोदरिकातपसः प्ररूपणम् ६१५ जन्योऽसहनरूपाऽक्षमा परिणति विशेष:-अल्पक्रोध: क्रोध कषायालासा-१ एवम् अल्पमानः जात्याघभिमानराहित्यम् मानाल्पता२ एवम् अल्पसाया सायाल्पता३ अल्पलोभो लोभाल्पता ४ अल्पशब्द: शब्दाल्पता, परिभिर भाषणम् ५ अल्एकलहः फलहाभावः ६ अल्झन्झः परस्पर भेदोत्पादकवचन व्यापाररूप झञ्झस्याऽ. भावोऽवगन्तव्यः ॥७॥ ॥१४॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्व खर-द्रव्यावसोदरिका तपः प्ररूपित्स्, सम्पतिभावावमोदरिकातपः मरूपयितुमाह-'माचोमोथरिया तवे अणेगबिहे, अप्प कोहाइ भेयओ'-इति । भावावनोदरिका तस:-भावस्य क्रोधादि कषायादेराभ्यन्तरस्य अक्षमादि परिणतरूपस्य प्रतनु विधायकम् अरमन रिकानाम तपो भावाऽचमोदरिका तपः, तच्चाऽनेकविधं भवति । अक्रोधादि भेदतः तद्यथा-- अल्एक्रोधमानमाया लोभशब्दकला झञ्झभेदतः। अत्राऽल्प शब्स्य द्वन्द्वादी वचन की न्यूनता, कलह और झंझ की न्यूनता शादि । क्रोध मोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाले असहन रूप असाता परिणाम को क्रोध कहते हैं, उसकी अल्पता क्रोध की अल्पता है। जाति आदि के अभिमान की न्यूनता मानाल्पता है। माया की कमी को मायाल्पता कहते है। लोभ के पतलेपन को लोभाल्पता या अल्पलोभ कहते हैं। परिमित भाषण को शब्दाल्पता कहते हैं । कलह का अभाव अल्पकलह कहलाता है। परस्पर में भेद उत्पन्न करने वाले वचनों का प्रयोग न करना अल्पझझ है ॥१४॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-द्रव्य-अवमोद रिका तप की व्याख्या की जा चुकी, अथ भाव अवलोरिका तप का निरूपण करते हैं___ अक्षमा-परिणतिरूप क्रोध आदि वैमाविक भादों की अल्पता को भाव-अवमोदरिका तप कहते हैं। उसके अनेक भेद है-अल्पक्रोध, अल्पઅને કજીયાની ન્યૂનતા આદિ ક્રોધ મોહની યના ઉદયથી ઉત્પન્ન થનારા અસહનરૂપ અક્ષમા પરિણામને કેધ કહે છે. તેની અ૯પતા કોધની અલ્પતા છે. જાતિ વગેરેના અભિમાનની ન્યૂનતા માન અ૯પતા છે માયાનું ઓછાપણું માયા પતા કહેવાય છે. લાભને પાતળો પાડે લેભ લેપતા અથવા અ૫લાભ કહે છે. પરિમિત ભાષણને શબ્દાલપતા કહે છે કલહનો અભાવ અલપકલહ કહેવાય છે. પરસ્પરમાં ભેદ ઉત્પન્ન કરનાર વચનનો પ્રાગ ન કરે અલ્પ ઝંઝ છે ૧૪ તત્વાર્થનિયંતિ–દ્રવ્ય અવમોદરિકા તપની વ્યાખ્યા કરવામાં આવી હવે ભાવ અવમેદરિકા તપનું નિરૂપણ કરીએ છીએ અક્ષમા પરિણતિ રૂપ ક્રોધ આદિ વૈભાવિક ભાવની અપતાને ભાવ અવમદરિકા તપ કહે છે. તેના અનેક ભેદ છે અલ્પફોધ, અપમાન, અપમાયા, Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र सद्भावाद तस्य प्रत्येकम मिसम्बन्धात, अल्पक्रोधः-१ अल्पशनः पतनु वाचकः तेनाऽल्पः कल्पः क्रोधः क्रोधमोहनीयकोदयशायः असहनरूपाऽ. क्षमा परिणतिविशेषः क्रोधाल्पत्वमित्येवम् अल्पक्रोधोनाम भावासोदरिका तपः १ एबम्-अल्पमानः जात्याधभिमानराहिल्या भागाल्पता २ अल्पसायामायाल्पत्यम्-३ अल्पलोमा लोमाल्पता ४ अल्पशब्दा-परिमितभाषण, शहा. ल्पता-५ अल्पकलह-कलहाभा-६ अल्पशश:--परस्पर भेदोत्पादकवचनव्यापाररूप झञ्झस्याऽभाव:-७ इत्येवं रीत्या भावावलोदरिका तपोऽनेकविधं भवति । उक्तचापपाति के ३० सूत्रे-'ले कि तं सादे घोरिया ३ भागोमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता, लं जहा अपशकोहे? अयमाणे २ अपनाए३ अप्प. माल अल्पमाया, अल्पलोभ, अल्पशब्द, अल्पसलह, अल्पाक्ष आदि। 'अल्प' शब्द मन्दता यान्यूनता का वाचक है। अतः अल्पक्रोध का अर्थ है-क्रोध मोहनीय कर्म के उदश ले उत्पन्न होने वाले पुरसहनरूप अक्षमा परिणति की न्यूनता या मन्हला यह भन्दता अल्पकोध नामक आवअवमोदरिका तप है। इसी प्रकार जाति आदि के अभिमान की अल्पता को अल्पनाम तप समझना चाहिए । माया की अल्पता अल्पमोया कहलाति है। लोभ की अल्पता अल्पलोम है। परिमिल भाषण को अल्पशब्द कहते हैं । फलह का अभाव अल्पसलह है । परस्पर में भेद उत्पन्न करने वाले का प्रयोग झंझ कहलाता है और उसका अभाव अल्पझंझा। इस प्रकार भाव अवमोहारिका तप अनेक प्रकार का है। औप. पातिक सूत्र में कहा है-भाव अबलोहरि का तप कितने प्रकार का है ? અલ્પલેભ અપશબ્દ, અ૫કલહ, અલપ ઝંઝ – આદિ “અલપ’ શબ્દ મન્દતા અથવા ન્યૂનતાનું વાચક છે આથી અ૫ક્રોધને અર્થ છે કોઈ મેહનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થનારા અસહનરૂપ અક્ષમાપરિણતિની ન્યૂનતા અથવા મન્દતા અ૫ ક્રોધ નામક ભાવ અમેરિકા તપ છે એવી જ રીતે જાતિ આદિના અભિમાનની અપતાને અપમાન તપ સમજવું જોઈએ માયાની અલ્પતા અપમાયા કહેવાય છે. લેભની અપતા અ૫ભ છે. પરિમિત ભાષણને અપશબ્દ કહે છે. કલહનો અભાવ અપકલહ છે. પરસ્પરમાં ભેદ ઉત્પન કરનાર વચના પ્રગને ઝંઝ કહેવાય છે અને તેનો અભાવ અ૯૫ઝંઝ છે—રીતે ભાવ અમેરિકા તપ અનેક પ્રકારના છે. Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ ७.१५ भिक्षाचर्यातपसः प्ररूपणम् लोहे४ अप्पस दे५ अप्पझंझे७ ले तं भावोगोयरिया से तं ओमोयरिया' इति । अथ का सा भावाबमोदरिका ? भायाऽवमोदरिकाऽनेकविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा -अल्पक्रोधः१ अल्पमान:२ अल्पमाया ३ अपलोभः ४ अल्पशब्दः५ अल्पकलहः६ अल्पझञ्झ७ सा-एषा भावाऽप्रमोदरिका, ला एषा अवमोदरिका इति ॥१४॥ । ___ मूल-सिदखायरिया तने अणेगविहे, दव्वाभिग्गहचराइ भेयओ ॥१५॥ छाया-मिक्षाची तपोऽनेकविधम्, द्रव्याभिग्रहचरादि भेदतः ॥१५॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व खलु-अवमोदरिका' नाम द्वितीयं बाह्य तपः सविस्तरं मरूपितम् सम्पति-तृतीयं भिक्षाचर्या तपः प्ररूपयितुमाह- 'भिक्खा यरिया तवे अधिहे, दवाभिमाहवाराह मेयओ' इति । भिक्षाचर्या तपः-'अनुलस्थाने अनुककाले अमुशवस्तु ग्रहोप्यामि' इत्येवं रीत्याऽभि उत्तर-साथ अवमोदरिका तप अनेक प्रकार का है-अलपक्रोध, अल्प-मान, अल्माया, अल्पलोभ, अल्पशब्द, अल्पझझ आदि । यह भाव-अवमोदरिका तप है ॥१४॥ 'लिवखायरिया तो अणे गविहे' इत्यादि, सूत्रार्थ द्रव्याभिग्रहचर आदि के भेद से भिक्षाचर्या तप भी अनेक प्रकार का है ॥१५॥ तत्वार्थदीपिका-इससे पहले अवमोदरिका नामका बाह्य तप का विस्तार पूर्वक प्ररूपण किया गया, अब भिक्षाचर्या नामक तीसरे तप की प्ररूपणा करते हैंद्रव्याभिग्रहचर आदि के भेद से भिक्षाचर्या तप के अनेक भेद પપાતિકસૂત્રના ત્રીસમાં સૂત્રમાં કહ્યું છે ભાવ અવમેરિકા તપ કેટલા પ્રકારના છે ? ઉત્તર-ભાવ અવમોદરિકા અનેક પ્રકારની છે. અલ્પકો सयभान, म५माया, मास, ५१. म५४, सઆદિ આ ભાવ અમેરિકા તપ છે. જે ૧૪ છે 'भिक्खायरिया तवे' त्यात સુવાર્થ–-દ્રથભિગ્રહ ચર આદિના ભેદથી ભિક્ષાચર્યા તપ અનેક પ્રકારના છે કે ૧૫ છે તત્ત્વાર્થદીપિકા--આની પહેલા અમેદરિકા નામક દ્વિતીય બાહ્યતાનું વિસ્તારપૂર્વક પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે ભિક્ષાચર્યા નામક ત્રીજા તપની પ્રરૂપણ કરીએ છીએ દ્રવ્યાભિગ્રહચર આદિના ભેદથી ભિક્ષાચ્ય તપના અનેક ભેદ છે, त० ७८ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ तत्त्वार्थसूत्रे ग्रहपूर्वकं भिक्षाटनविषयकं तपो भिक्षाचर्या तप उच्यते । तच्चाऽनेकविधं भवति तद्यथा - द्रव्याभिग्रहचरः - अमुक मेवाडशन पानं ग्रहीष्यामि' इत्येवं द्रव्याभि ग्रहेण चरतीति द्रव्याभिग्रहचर, उच्यते १ आदिना क्षेत्राभिग्रहचरः 'अमुकस्थाने ग्रहीष्यामि' इत्येवं क्षेत्राभित्रहेण चरतीति क्षेत्राभिग्रहचरः २ कालाभिग्रहचरः 'अककाले पूर्वाहणादावेव ग्रहीष्यामि न तु पराहणे नापि रात्रौ ' इत्येवं काळ विशेषाभिग्रहेण चरतीति कालाभिग्रहचरः ३ एवम् - भावाभिग्रहचरः ४ उत्क्षिप्रचरः ५ निक्षिप्तचरः ६ उत्क्षिप्त निक्षिप्तचरः ७ निक्षिप्तोत्क्षिप्तचरा८ वर्त्यमानचरः ९ है । 'अमुकस्थान में' अमुक काल में, अमुक वस्तु ग्रहण करूंगा' इस 'तरह अभिग्रह करके भिक्षाटन करना भिक्षाचर्यानप कहलाता है। उसके अनेक भेद हैं। वे इस प्रकार है (१) द्रव्याभिग्रहचर - अमुक अशन-पान ही ग्रहण करूंगा, इस प्रकार द्रव्य संबंधी अभिग्रह करके भिक्षाटन करने वाला । (२) क्षेत्राभिग्रहचर - 'अमुक स्थान पर ही ग्रहण करूंगा, इस तरह क्षेत्र संबन्धी अभिग्रह करके भिक्षाटन करने वाला । (३) कालाभिग्रहचर - अमुक काल में जैसे पूर्वाह्नण में, ही ग्रहण करूंगा, न अपराह्नण में, न मध्याह्न में, ऐसा अभिग्रह करके भिक्षा टन करने वाला | इसी प्रकार (४) भावाभिग्रहचर (५) उत्क्षिप्तचर (३) निक्षिप्तचर (७) उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचर (८) निक्षिप्तउत्क्षिप्तचर ( ९ ) वर्त्यमानचर (१०) संहि અમુક સ્થાને, અમુક કાળમાં, અમુક વસ્તુ ગ્રહણ કરીશ આ રીતે અભિગ્રહ કરીને ભિક્ષાટન કરવું ભિક્ષાચર્યો તપ કહેવાય છે. તેના અનેક ભેદ છે-તે આ પ્રકારે છે (૧) દ્રબ્યાભિગ્રહચર-અમુક અશન પાન જ ગ્રહણ કરીશ એ રીતે દ્રવ્ય સમાઁધી અભિગ્રહ કરીને ભિક્ષાટન કરનાર (२) क्षेत्रालियर - भु स्थणे ४ थथ अरीश भी अभा क्षेत्रસમધી અભિગ્રહ કરીને ભિક્ષાટન કરનાર. (૩) કાલાભિગ્રહચર~~અમુકકાળમાં જેમકે પૂર્વામાં જ ગ્રહણ કરીશ અપરામાં કે મધ્યાહ્નમાં નહી એવા અભિગ્રહ ધારીને ભિક્ષાટન કરનાર मेवी ४ रीते (४) लावालियर (4) उत्क्षिप्तथर (६) निक्षिप्तयर (७) उत्क्षिप्तनिक्षिप्तयर (८) निक्षितत्क्षिसयर (4) वर्त्य भानयर (१०) सहि Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीषिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.१५ भिक्षाचर्यातपसः प्ररूपणम् संहियमाणचरः१० उपनीतचरः११ अपनीतचर १२ उपनीतापनीतचर:-१३ अपनी तोपनीतचर:१४ संस्पृष्टचरः१५ असंसृष्टचरः१६ तज्जातसंसृष्टचरः१७ अज्ञातचरः१८ मौनचरः १९ दृष्टलाभिका२० अदृष्टलामिकः २१ पृष्टलाभिकः२२ अपृष्टः लाभिक:२३ मिक्षालाभिका२४ अभिक्षालाभिकः २५ अन्नरकायका२६ औपनिहितका २७ परिमितविण्डपातिकः २८ शुद्धैषणिकः २९ संख्यादत्तिकः इत्येवं रीत्याऽनेकविधं ताबद् भिक्षाचर्यातपो भवतीति बोध्यम् । तत्र भावाभिग्रहचरस्तु'अमुक प्रकारको दाता यदि दास्यति-तदा प्रहीष्यादि इत्येवंभावाभिग्रहेण चरतीति भावाभिग्रहचरोऽवगन्तव्या४ एवम् उत्क्षिप्त चरादिकमपि स्वयं ज्ञेयम् ।१५। तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्व ताबद् द्वितीयं बाह्यरूपम् अबमोदरिका तपः याणचर (११) उपनीतचर (१२) अपनीतचर (२३) उपनीतापनीतचर (१५) संसृष्टचर (१६) अलंसृष्टचर (१७) लज्जातसंस्पृष्टचर (१८) अज्ञा तचर (१९) मौनचर (२०) दृष्टलानिश (२२) अदृष्टलाभिक (२३) पृष्ट. लाभिक (२३) अपृष्टलाभिक (२४) भिक्षालाभिक (२५) अभिक्षालाभिक (२६) अन्नरलायक (२७) औपनिहतक (२८) परिमितपिण्डपातिक (२९) शुद्धषणिक (३०) संख्यादत्सिक, इस प्रकार भिक्षाची तप करने वाले अनेक प्रकार के हैं और इसी कारण इस तप के भी अनेक भेद होते हैं। _ 'अमुक प्रकार का दाता यदि देगा तो ग्रहण करूंगा इस प्रकार भाव संबन्धी अभिग्रह करके भिक्षाटन करने वाला भावाभिग्रहचर समझना चाहिए । इसी प्रकार उत्क्षिप्तचर आदि का अर्थ भी स्वयं ही समझ लेना चाहिए ॥१६॥ तत्यार्थनियुक्ति:-पहले अवमोदरिका नामक वित्तीय घाय तप का यभायर (११) अपनीतन्यर (१२) नीतयर (१3) नीतापनीतय३ (१४) भनीतापनीत-२२ (१५) ससृष्टयर (१६) मस सृष्टय२ (१७) तसतसस. टन्य२ (१८) आज्ञ तय२ (१८) मौनयर (२०) द्रष्टसालि (२१) अद्रष्टिसालिs (२२) सालि (23) मष्टमानित (२४) सिक्षातमि (२५) समिक्षा. લાભિક (૨૬) સનગ્લાયક (૨૭) ઔપનિહિતક (૨૮) પરિમિતપિડુપાતિક (૨) શુદ્ધિષણિક (૩૦) સંખ્યાદત્તિક, આ રીતે ભિક્ષાચર્યા તપ કરનારાઓ અનેક પ્રકારના છે અને આ કારણે જ આ તપના પણ અનેક ભેદ હોય છે. અમુક પ્રકારને દાતા જે આપશે તે જ ગ્રહણ કરીશ આ રીતે ભાવ સંબંધી અભિગ્રહ કરીને ભિક્ષાટન કરનાર ભાવાભિગ્રહચર સમજવું જોઈએ એવી જ રીતે ઉક્ષિપ્તચર વગેરેને અર્થ પણ સ્વયં સમજી લે છે ૧૫ તવાથનિયતિ–-પહેલાં અમેરિકા નામક દ્વિતીય બાહ્ય તપતું Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० तत्त्वार्थसूत्रे सविस्तरं प्ररूपितम्, सम्पति - क्रमप्राप्तस्य तृतीयस्य भिक्षाचर्चा नामक तपसः स्वरूपं सभेदं प्ररूपयितुमाह = 'मिक्खायरिया तवे अणेगविहे, दव्वाभिरग्गह प्राइभेदओ' इति भिक्षाचर्या तपः वृत्तिपरिसंख्यानरूपम् 'अमुकस्थाने अमुककाले अमुक वस्तु ग्रहीष्यामि' इत्यादिरीत्याऽभिग्रहपूर्वक भिक्षाटनरूपं तपश्वरणम् अनेकविधं भवति । तद्यथा - द्रव्याभिग्रहचरादि भेदतः, द्रव्याभि ग्रहचरः १ आदिना क्षेत्राभिग्रहचरः २ कालाभिग्रहचरः ३ भावाभिग्रहचरः ४ उत्क्षिप्तचरः ५ निक्षिप्तचरः ६ उत्क्षिप्त निक्षिप्तचरः ७ निक्षिप्तोत्क्षिप्तचरः ८ वर्त्यमानचरः ९ संह्रियमानचरः १० उपनीचर : ११ अपनीतचर : १२ उपनीतापनीतचरः १४ संसृष्टचरः १५ असंसृष्टचरः १६ तज्जातसंसृष्टचरः १७ अज्ञातचरः १८ मौनचरः १९ लाभिकः २० अदृष्टलाभिकः २१ पृष्टलाभिकः २२ अपृष्टसविस्तर प्ररूपण किया गया अब क्रमप्राप्त तीसरे भिक्षाचर्या नामक तप का भेदों सहित स्वरूप प्रदर्शित करते हैं भिक्षाच तप का दूसरा नाम वृत्तिपरिसंख्यात है । 'अमुक स्थान में' अमुक वस्तु ही ग्रहण करूंगा 'इत्यादि रूप से अभिद करके भिक्षाटन करना भिक्षाचर्या तप कहलाता है । यह तप द्रव्याभिग्रहचर आदि के भेद से अनेक प्रकार का है, यथा- (१) द्रव्याभिग्रइचर (२) क्षेत्राभि ग्रहचर (३) कालाभिग्रहचर (४) भावाभिग्रहचर (५) उत्क्षिप्तचर (६) निक्षिप्तचर (७) उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचर (८) निक्षिप्लउत्क्षिप्तचर (९) वर्त्यमानचर (१०) संह्रियमाणचार (११) उपनीतचर (१२) अपनीतचर (१३) उपनीतापनीतचर (१४) अपनीतोपनीतचर (१५) संसृष्टचर (१६) असंसृष्टवर (१७) तज्जातसंसृष्टचर (१८) अज्ञातचर (१९) मौनचर (२०) दृलाभिक (२१) अदृष्टाभिक (२२) पृष्टलाभिक વિસ્તર પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે ક્રમપ્રાપ્ત ત્રીજા શિક્ષાચર્યાં નામક તપ તું ભેદો સહિત સ્વરૂપ પ્રદર્શિત કરીએ છીએ ભિક્ષાચર્યા તપતુ ખીજુ નામ વૃત્તિપરિસંખ્યાત છે. અમુક સ્થાનમાં અમુક કાળમાં, અમુક વસ્તુ જ ગ્રહણુ કરીશ ઇત્યાદિ રૂપથી અભિગ્રડું કરીને ભિક્ષાટન કરવુ ભિક્ષાચર્યાં તપ કહેવાય છે. આ તપ દ્રવ્યાભિબ્રર્હચર આદિ ના ભેદથી અનેક પ્રકારના છે જેમકે-(૧) દ્રબ્યાભિગ્રહચર (૨) ક્ષેત્રાણિગ્રહ थर (3) असालियर (४ ) लावालियर ( 4 ) उत्क्षिप्सयर (६) निक्षिप्तथर (७) उत्क्षिप्तनिक्षिसयर (८) निक्षिप्त उत्क्षिप्तयर (4) वर्त्यमानयर (१०) (१९) असंसृष्टयर (१७) तन्तसंसृष्टयर (१८) अज्ञातयर (१८) भौनयर (२०) इष्टसालिङ (२१) अष्टसालिङ (२२) पृष्टसालिङ (२३) अष्टसालिङ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८सू.१५ भिक्षाचर्यातपसः प्ररूपणम् ६२१ लामिका २३ मिक्षालाभिक: २४ अभिक्षालाभिकः २५ अन्नग्लायक: २६ औषनिहितका २७ परिमितपिण्डरातिकः २८ शुद्वैषणिकः २९ संख्यादत्तिकः ३० इत्येवं रीत्याऽनेकविधं भिक्षाचर्या तपो भवति । तत्राश्रिताऽभिग्रहं वा य श्वरतिआसेवते, स द्रव्याभिप्रहचर उच्यते, भिक्षाचर्यायाः प्रस्तावेऽपि-धर्मधर्मिणोर. भेदविवक्षया द्रव्याभिग्रहचर इत्युक्तम् । द्रव्याभिग्रहश्च लेपकृतादि द्रव्यविषयोऽवगन्तव्यः भक्तपानादि द्रव्यविषयकोऽभिग्रहो द्रव्याभिग्रहो बोध्यः१ 'अमुहस्थाने ग्रहीष्यामि इत्येवं रीत्या क्षेत्रविशेषमभिगृह्य यश्चरति-विक्षामटति स क्षेत्राभिग्रहचर उच्यते, क्षेत्रविषयकोऽभिग्रहः क्षेत्रामिग्रहः २ 'पूर्वाहणे ग्रहीष्यामि(२३) अपृष्टलाभिक (२४) भिक्षालाभिक (२५) अभिक्षालामिक (२६) अन्नग्लायक (२७) भोपनिहितक (२८) परिमितपिण्डपातिक (२९) शुद्धै. षणिक (३०) संख्यादन्तिक, हर प्रकार भिक्षाचर्या तप अनेक प्रकार का है । इनका स्वरूप इस प्रकार है (१) द्रव्यालिग्रहचर-द्रव्य संबंधी अभिग्रह करके जो भिक्षाटन करता है, वह द्रव्याभिग्रहचर कहलाता है । भिक्षा का प्रकरण होने पर भी धर्म और धर्मी के अभेद की विवक्षा करके द्रव्याभिग्रहचर ऐसा कहा गया है। द्रव्याभिग्रह यहां लेपकृत आदि द्रव्यासंबंधी सम झना चाहिए। भोजन-पानी आदि द्रव्यों से संबंध रखने वाला अभि. ग्रह द्रव्याभिग्र शाहलाता है। (२) क्षेत्राभिप्रहचर-'अमुक स्थान परग्रहण करूगा इस प्रकार क्षेत्र संबंधी अभिग्रह करके जो भिक्षार्थ भ्रमण करता है वह क्षेत्राभिग्रहचर कालाला है। क्षेत्र संबंधी अभिग्रह क्षेत्राभिन्नाह है। (२४) लक्षासालि (२५) ममिक्षाकालि (२६) मनसाय (२७) मीपनि હિતક (૨૮) પરિમિતપિડપાતિક (૨૯) શુદ્ધિષણિક (૩૦) સંખ્યાત્તિક આ રીત ભિક્ષાચર્યા તપ અનેક પ્રકારના છે. એમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે (૧) વ્યાભિગ્રહચર-દ્રવ્યસંબંધી અભિગ્રહ ધારીને જે ભિક્ષાટન કરે છે, તે દિવ્યાભિ પ્રચર કહેવાય છે ભિક્ષાનું પ્રકરણ હોવા છતાં પણ ધર્મ અને ધર્મના અભેદની વિવક્ષા કરીને “ દ્રવ્યાભિગ્રહચર ” એમ કહેવામાં આપ્યું છે. દ્રવ્ય ભિગ્રહ અહીં લેપકૃત આદિ દ્રવ્યસંબંધી સમજ જોઈએ ભેજનું પાણી આદિ દ્રવ્યથી સંબ ધ રાખનાર અભિગ્રહ દ્રવ્યાભિગ્રહ કહેવાય છે. (૨) ક્ષેત્ર હિચર– અમુક સ્થાન પર ગ્રહણ કરીશ? આ રીતે ક્ષેત્ર સંબંધી અભિગ્રહ કરીને જે ભિક્ષા કાજે ભ્રમણ કરે છે તે ક્ષેત્રાભિગ્રહચર કહેવાય છે. ક્ષેત્ર સંબંધી અભિગ્રહ ક્ષેત્રાલિગ્રહ છે. Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરર सत्यार्थ प नापराहणे व रात्रौ च' इत्येवं कालविशेषमभिगृह्य चरति - मिक्षामदति यः स कालाभिग्रहचर उच्यते, कालविशेषकोऽभिः कालाभिग्रहः ३ 'अमुद्ध प्रकारको दाता शुद्धभावेन दास्यति तदा ग्रहीषामि इत्येनं दातुविशेषमभिगृद्य चर तीति भाषामिग्राचरः । यद्वा-गान हायनादि वृत्तपुरुषादि विषयोऽभिग्रहो भाना मित्रहोsवसेयः ४ उक्षित गृहस्थेन स्वार्थी पाकभाजनादुद्धृनमभिगृद्य चरति 'स्वार्थ' पाकपाचा उद्धृतं भोजनादिकं यदि दास्यति तदा ग्रहीष्यामि' इत्येवम् - उत्क्षिप्तभिग्रहचर उच्यते, उत्क्षिदिप कोऽभिग्रहः उत्क्षिप्ताभिग्रहः ५ (३) कालाभिग्रहचर - पूर्वाण में ही ग्रहण करूंगा, अपराह्ण या मध्याह में नहीं, ऐसा अभिग्रह करने वाला कालाभिग्रहचर कहलाता है | कालविषयक अभिग्रह कालाभिग्रह है । (४) याचाभिग्रहचर- 'अमुक प्रकार का दाता शुद्धभाव से देगा तो ग्रहण करूंगा इस तरह दाता संबंधी अभिग्रह करके भिक्षाटन करने वाला भावाभियचर कहलाता है अथवा गाने या हसने में प्रवृत पुरुष आदि के हाथ से ही आहार लूंगा, ऐसा अभिग्रह करना भावा मिग्रह समझना चाहिए । (५) उत्क्षिप्तचर – गृहस्थ ने अपने लिए पात्र में से निकाला हो वह उद्घृत कहलाता है । 'जो भोजनादिक अपने खुद के लिए इंडिया में से बाहर निकाला हो वही ग्रहण करूंगा ऐसा नियम ग्रहण करने बोला उत्क्षिप्तचर कहलाता है । क्षिप्स (बाहर निकाले ) आहार का नियम स्वीकार करना उत्क्षिप्ताभिग्रह समझना चाहिए । (૩) કાલાભિગ્રહચર-પૂર્વાણુમાં જ ગ્રહણુ કરીશ, અપરાણુ અથવા મધ્યાહ્નમાં નહી એવે! અભિગ્રહ રાખનાર કાલભિગ્રહચર કહેવાય છે. કાલ વિષયક અભિગ્રહ ાલાભિગ્રહ છે. (૪) ભાવાભિગ્રહુચર-અમુક પ્રકારના દાતા શુદ્ધ ભાવથી આપશે તે જ ગ્રહણુ કરીશ એ રીતે દાતા સબંધી અભિગ્રહ રાખીને ભિક્ષાટન કરનાર ભાવાભિમહુચર કહેવાય છે, અથવા ગાવા અગર હસવામાં પ્રવૃત્ત પુરૂષ આદિ ના હાથે જ આહાર લઇશ એવે! અભિગ્રહ કરવા ભાવાભિગ્રહ સમજવા. (૫) ઉત્ક્ષિસચર-ગૃહસ્થે પેાતાને માટે પાત્રમાંથી કાઢ્યું` હોય તે ઉધૃત કહેવાય છે. જે ભેજનાદિક પેાતાના જ માટે વાસણમાંથી બહાર કાઢ્યું" હાય તે જ ગ્રહણ કરીશ એવા નિયમ ગ્રહણ કરનાર ઉત્ક્ષિસચર કહેવાય છે. (બહાર કાઢેલ) આહારના નિયમ સ્વીકાર કરવા ઉક્ષિપ્ત અભિગ્રહ સમજવા જોઈએ. Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८७.१५ भिक्षाचर्यातपसः प्ररूपणम् ६२३ निक्षिप्तं पाकादि भाजनात् उद्धृत्याऽन्वभाजने स्थापितमशनादिभिगृह्य चरति इति निक्षिप्तचर उच्यते, निक्षिाविषयकोऽभिग्रहो निक्षिसाऽभिग्रहः ६ उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचरस-पाकभाजनादुरिक्षप्तं तदेवाऽन्यत्र स्थाने यत् निक्षिप्तं तद्-उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचर उच्यते ७ निक्षिप्तोत्क्षिप्तचर:-निक्षिप्तं पानभाजनाद् उद्धृत्यायन स्थापितं, तदेव उक्षिप्तं पुनहस्ते गृहीतं तदभिग्रहेण वरतीति निक्षिप्लोरिक्षप्तचर उच्यते ८ दस्यमानचरः वय॑मानं परिविष्यमाणमभिगृह्य चरतीति वत्यमानचर (६) निक्षिप्तचर-पनाने के पानी से निकालकर जो भोजन अन्य पात्र में रख दिया गया हो वह निक्षिप्त कहलाता है। ऐसे आहार को ही ग्रहण करने का नियम लेने वाला निक्षिप्तचर है। निक्षिप्त विषयक अभिग्रह निक्षिसाभिग्रह समझना चाहिए। (७) उत्क्षिप्त निक्षिप्तचर-पाक-पात्र में निकाल दिया गया हो और अन्य स्थान पर रखा हो वह आहार उरिक्षप्तनिक्षित क्षहलाता है। उसका अभिग्रह करके भिक्षाटन करने वाला उरिक्षप्तनिक्षिप्तचर है। (८) निक्षिप्नोत्क्षिप्तचर-पापान में से बाहर निकाला हो, अन्य स्थान पर रख दिया हो, उसीको फिर हाथ में लिया हो ऐसा आहार प्राप्त होगा तो ही ग्रहण करूंगा, ऐसा नियम अंगीकार करने वाला लिक्षि. प्तउत्क्षिप्तचर कहलाता है। (९) वय॑मानचर-यदि परोसा जाता हुआ आहार मिलेगा तो ही लूगा ऐला अभिग्रह करने वाला वयं धानचा कहलाता है। (૬) નિક્ષિપ્તચર-રાંધવાના પાત્રમાંથી કાઢીને જે ભેજના અન્ય પાત્રમાં રાખી દેવામાં આવ્યું હોય તે નિશ્ચિત કહેવાય છે. આવા આહારને જ ગ્રહણ કરવાનો નિયમ લેનાર નિક્ષિપ્તચર છે. નિક્ષિણવિષયક અભિગ્રહ નિક્ષિણાભિગ્રહ સમજે જોઈએ. (૭) ઉક્ષિસચર–પાક પાત્રમાંથી કાઢી નાખવામાં આવ્યું હોય અને અન્ય સ્થાન ઉપર રાખેલ હોય તે આહાર ઉક્લિનિશ્ચિત કહેવાય છે. તેને અભિગ્રહ રાખીને ભિક્ષાટન કરનાર ઉક્ષિતનિક્ષિસચર છે. (८) निक्षिप्तरिक्षयर--१४पात्रमाथी महा२ दिय हाय, मन्य સ્થાન પર રાખી દેવામાં આવ્યું છે તેને જ ફરી હાથમાં લેવામાં આવે હોય એ આહાર મળશે તે જ ગ્રહણ કરીશ એવો નિયમ અંગીકાર કરનાર નિશ્ચિત ઉક્ષિપ્તચર કહેવાય છે (૯) વર્લેમાનચર– પીરસવામાં આવી રહેલે આહાર મળશે તે જ લઈશ એ અભિગ્રહ કરનાર વર્ધમાનચર કહેવાય છે, Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ तत्त्वार्थसूत्रे उच्यते ९ एवं-संहियषाणच!-अत्युष्णं व्यञ्जन स्पादिकं शीतलीकरणाय स्थाल्या. दिषु प्रसारितं तत् पुन जने क्षिप्यमाणं संहियमाण पुच्यते तदभिप्रहेण चरतीति संहियमाणचरो बोध्यः १० उपनीतचर:-अन्येन केनचिद् गृहस्थाय प्रेषितं यत् तदुपनीत मुच्यते, बदमिग्रहेण चरतीति उपनीतवरः 'तदेवाहं ग्रहीप्यामि यदन्येन तदर्थ प्रेषितं भवेत्' इत्येवममिगह अपनीताभिग्रह इत्यर्थः११ अपनीत. चरः-अपनीतं गृहस्थेन कस्मैविन्यस्म दातुं निःसार्य बदन्यत्र स्थापितं तदभिग्रहेण चरतीति-अपनीचरः उच्यते, 'देशऽहं ग्रहीष्यामि यदन्यस्मैदानुनिस्सार्च स्थापितं स्यात्' इत्येवमभिग्रहोऽपनीताभिग्रह इत्यर्थः १२ उपनीतापनीतचर:'यदेवोपनीनम् अन्येन प्रेषितं, तदेव यदि अपनीतं स्थानान्तरे स्थापितं स्थात् तदेव ग्रहीष्याषि' इत्येवमभिग्रहेण चरतीति अपनीतापनीतवर उच्यते १३ (१०) संहियाणचर-अत्यन्त उष्ण आहार ठंडा करने के लिए थाली आदि में फैलाया गया हो, उस्ले पुनः पात्र में डाला जा रहा हो वह आहार संहिषमाण कहलाता है। ऐसा आहार ही लूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करने वाला तपस्वी संहियाणचर है। (११) उपनीतचर-जो भोजन किसी दूसरे ने गृहस्थ के लिए भेजा हो वह उपनीत कहलाता है और उनका अभिग्रह करने वाला उपनीतचर । मैं वही भोजन ग्रहण करूंगा जो दूसरे ने गृहस्थ के लिए भेजा हो ऐसी आखडी करना उपनीताभिग्रह है। (१२) अपनीतचर-गृहस्थने किसी को देने के लिए अन्यत्र रख दिया हो ऐसे आहार को ही ग्रहण करने का नियम स्वीकार करने वाला अपनीतचर कहलाता है । जो आहार दूसरे को देने के लिए (૧૦) સંહિયમાણુચર--અત્યન્ત ઉષ્ણ આહાર ટાઢે કરવા માટે થાળી વગેરેમાં પાથરવામાં આવ્યા હેય, તેને પુનઃ પાત્રમાં નાખવામાં આવી રહ્યો હોય તે આહાર સંહિયમાણ કહેવાય છે. આ જ આહાર લઈશ, એવી પ્રતિજ્ઞા કરનાર તપસ્વી સંહિયમાણુચર છે. (૧૧) ઉપનીતચર––જે ભેજનને કેઈ બીજાએ ગૃહસ્થને માટે મોકલ્યું હોય તે ઉપનીત કહેવાય છે અને તેને અભિગ્રહ કરનાર ઉપનીતચર છે. હું તે જ ભજન ગ્રહણ કરીશ જે બીજાએ ગૃહસ્થ માટે મોકલ્યું હોય એવી આખડી કરવી ઉનીતાભિગ્રહ છે. (૧૨) અપનીતચર--ગૃહસ્થ કેઈને આપવા માટે અન્યત્ર રાખવામાં આવેલ હોય એવા આહારને ગ્રહણ કરવાનો નિયમ સ્વીકાર કરવા વાળા અપનીતચર કહેવાય છે, જે આહાર બીજાને આપવા માટે કાઢીને અન્યત્ર Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ १.१५ भिक्षाचर्यातपसः प्ररूपणम् ६५ अपनीतोपनीतच!-अपनीतं कस्मैचिदन्यस्मै दातुं निस्सार्याऽन्यत्र स्थापितं, तदेवो-पनीतं यस्य गृहस्य समीपे प्रेषितं तस्य गृहस्थस्य गृहे पापितं तदपनीतोपनीत मुच्यते, तदभिन्नहेण चरतीति अपनीतोपनीतचर उच्यते १४ संसृष्टचर: संसृष्टेन शाज्ञादि पूरिन इस्तादिना दीयमान मशनादिकं संस्कृष्ट मुच्यते, तदभिग्रहेण चरतीति संसृष्टचरः उच्यते १५ असंसृष्टचर:-असंसृप्टेन शाकादिनानिकाल कर अन्यत्र रख दिया गया हो उस आहार सम्बन्धी अभिग्रह अपनीताभिग्रह समझना चाहिए। (१३) उपनीलालीलनद-जो आहार दूसरे ने भेजा हो वह यदि स्थानान्तर पर रख दिया गया हो तो ही उसे लूंगा ऐसा अभिग्रह करके अटक करने वाला तपस्वी उपनीलापनीतचर कहलाता है। (१४) अपनीतोपनीतचर-किसी को देने के लिए पात्र में निका. लकर बाहर रख दिया हो और उन्ल गृहस्थ के यहाँ भेज दिया गया हो वह अपनीतोपनीत कहलाता है । ऐले आहारको ग्रहण करने का अभिग्रह करने वाला अपनीतोपनीलचर है। (१५) संसृष्टचर-शाम-दाल आदि से भरे हुए (लिप्त) हाथ आदि से दिया जाने वाला आहार संमृष्ट कहा जाता है, उसका अभिग्रह धारण करके भिक्षार्थ बटन हरने वाला संसृष्टचर कहलाता है। રાખવામાં આવ્યું હોય, તે આહાર સંબંધી અભિગ્રહ અપનીતાભિગ્રહ સમજ જોઈએ. (૧૩) ઉપનીતાપની તચર--જે આહાર બીજાને મેક હોય તે જે સ્થાના સ્તર પર રાખવામાં આવ્યે હોય તે જ તેને લઈશ, એ અભિગ્રહ કરીને અટન કરનાર તપસ્વી ઉપનીતાપનીતચર કહેવાય છે. (१४) अपनातायनातया२--धन. २१५ भाटे पात्रमाथी ढीन બહાર રાખવામાં આવે છે અને તે ગૃહસ્થને ત્યાં મોકલી દેવામાં આવ્યું હોય તે અપની નીત કહેવાય છે. એવા આહારને ગ્રહણ કરવાનો અભિગ્રહ કરનાર અપની૫નીતચર છે. (૧૫) સંસષ્ટચર-શાક દાળ આદિથી ભરેલા (ખરડાયેલા) હાથ આદિ થી આપવામાં આવતે આહાર સંસષ્ટ કહેવામાં આવે છે. તેને એગ્રિડ ધારણ કરીને ભિક્ષાર્થે અટન કરનાર સંસૂર કહેવાય છે त० ७९ ૧ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ तत्त्वार्थस्त्र रिक्तेन इस्तादिना दीयमानं वस्तु 'अमृष्ट मुच्यते' तदभिग्रहेण चरतीतिअसंसृष्टचरो बोध्यः १६ तज्जात संसृष्टचर:-तरजातन परिवेष्यमाणद्रव्येण यत्संसृष्टं हस्तादि वेन-दीयमान वस्तु ग्रहीतु य श्चति स तज्जातसंसृष्टचर उच्यते १७ अज्ञातचर:-अज्ञातस् अज्ञात श्रमणनियमम्-अपरिचितं गृहस्थकुलं यश्वरति सोऽज्ञातचर:-उच्यते १८ मौनचर:-मौनं बाक्संयमनं तदभिग्रहेण चश्चरति स मौनचर उच्यते १९ दृष्टलाभिका-दृष्टस्यैव भक्तपानादेलामो दृष्टलाभः अथवा-दृष्टात् प्रथम दृष्टादेव दाह हाद्वा लामो ष्टलामः सोऽस्ति यस्य स दृष्टलाभिका २० (१६) असंसृष्टचर-जो हाथ, पान या चम्मच शाक आदि से अरा न हो वह असंसृष्ट कहलाता है। ऐसे हाथ आदि से ही लेने की प्रतिज्ञा करने वाले को असंसृष्टचर हामझना चाहिए। (१७) तज्जाला संसृष्टचर-जिल द्रव्य से हाथ आदि संसृष्ट है, उसी से वही वस्तु लेने का जो अभिग्रह धारण करता है वह तज्जातसंसृष्ट चर कहलाता है। ___ (१८) अज्ञातचर-अज्ञात अर्थात् अपरिचित गृहस्थ के घर से जो भिक्षा ले वह अज्ञाहचर कहलाता है। (१९) मौनचर- मौन धारण करके भिक्षाटन करने वाला। (२०) दृष्टलाभिक-प्रत्यक्ष दीखने वाले आहार-पानी का लाभ होना दृष्टलाम कहलाता है अथवा जो पहले पहल दिखाई दे ऐसे दाता या घर से आहारादि का लाभ होना दृष्टलाभ है। ऐसे आहार आदि को ही ग्रहण करने का नियम अंगीकार करने वाला दृष्टलाभिक है। (૧૬) અસંસષ્ટચર–જે હાથ, પત્ર અથવા ચમચા શાક આદિથી લદાયેલા ન હોય તે અસંસષ્ટ કહેવાય છે. આવા હાથ વગેરેથી જ આહાર લેવાની પ્રતિજ્ઞા કરનાર અસંસષ્ટચર સમજવું જોઈએ (૧૭) તજજાતસંસપ્ટર-જે દ્રવ્યથી હાથ વગેરે સંસષ્ટ છે તેનાથી તે વસ્તુ લેવાને જે અભિગ્રહ ધારણ કરે છે તે તજજાતસંસષ્ટચર કહેવાય છે A (૧૮) અજ્ઞાતચર-અજ્ઞાત અર્થાત્ અપરિચિત ગૃહસ્થના ઘેરથી જે ભિક્ષા લે તે અજ્ઞાતચર કહેવાય છે. (૧૯) મૌનચર-મૌન ધારણ કરીને ભિક્ષાટન કરનાર (૨૦) દ્રષ્ટલાભિક–પ્રત્યક્ષ જોઈ શકાય તેવા આહાર પાણીને લાભ ઘ દ્રષ્ટલાભ કહેવાય છે અથવા જે સૌ પ્રથમ જોવામાં આવે એવા દાતા અથવા ઘરેથી આહાર આદિને લાભ થ દ્રષ્ટલાભ છે. આવા આહાર વગેરેને જ ગ્રહણ કરવાના નિયમ અંગીકાર કરનાર દ્રષ્ટલાભિક કહેવાય છે. Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.१५ भिक्षाचर्यातपसः प्ररूपणम् अदृष्टलाभिका-अदृष्टस्याऽऽवरणादिनाऽऽच्छादितस्य दात्रादिभिः कृतोपयोगस्य भक्तादेाभः । यद्वाऽष्टात् पूर्व कदापि न दृष्टात् दायकाद् लाभोऽह. ष्टलाभः सोऽस्याऽस्तीति अष्टलाभिका२१ पृष्टलाभिका-भिक्षार्थ समुपस्थित यं श्रमणं 'भो ! श्रमण ? त्वं किमिच्छसि' इत्येवं कश्चिद्ग्रहस्थः पृच्छति स पृष्ट इत्युच्युते, तस्य श्रमणस्य तस्माद् गृहस्थाद् यो लाभो भवति स पृष्टलाभ उच्यते सोऽस्याऽस्तीति पृष्टलाभिको बोध्यः २२ अपृष्टलाभिक:-केनचित्गृहस्थेनाऽपृष्टस्यैव श्रमणस्य य स्तस्माद् गृहस्थाद् लाभः सोऽपृष्टलाभ उच्यते सोऽस्याऽस्तीति अपृष्टलाभिको बोध्यः २३ भिक्षालाभिका-कस्यचित् क्षेत्राद् गृहस्था द्वा याचित्वा गृहस्थेन समानीव तुच्छ बल्ल चणककोद्रयादिक निष्पादित आहारो भिक्षोच्यते, तस्याऽलामो-यस्याऽस्तौति स भिक्षालाभिक उच्यते २४ (२१) अदृष्टलाभि-अदृष्ट अर्थात् किसी चीज से आच्छादित आहार-पानी को जिसका उपयोग दाता आदि ने कर लिया हो, लेने की प्रतिज्ञा करने वाला अदृष्टलामिक कहलाता है । अथवा पहले कभी न देखे हुए दाता के हाथ से लेने का अभिग्रह करने वाला अदृष्टलाभिक कहलाता है। (२२) पृष्टलाभिक-भिक्षा के लिए उपस्थित श्रमण से-'हे श्रमण आपको क्या चाहिए ?' ऐल्ला पूछ कर दिये जाने वाले आहार को ही ग्रहण करने का नियम लेने वाला पृष्टलाभिक कहलाता है। (२३) अपृष्टलाभिक-जो गृहस्थ बिना पूछे आहार देगा, उसी को ग्रहण करूंगा-ऐसी प्रतिज्ञा करने वाला अपृष्टलाभिक कहलाता है। (२४) भिक्षालाभिक-किसी जगह अथवा गृहस्थ्य से याचना करके कोई गृहस्थतुच्छ बल्ल, चना या कोद्रव आदि लाया हो और उससे जो (૨૧) અદ્રષ્ટલાસિક-અદ્રષ્ટ અર્થાત્ કોઈ વસ્તુથી ઢાંકેલા આહાર પાણીને જેને ઉપગ દાતા વગેરેએ કરી લીધું હોય તે લેવાની પ્રતિજ્ઞા કરનાર અષ્ટલાસિક કહેવાય છે. અથવા પહેલા કદી પણ ન જેએલા દાતાના હાથથી લેવાનો અભિગ્રહ ધારણ કરનાર અદ્રષ્ટલાલિક કહેવાય છે, (૨૨ પૃષ્ણલાભિક–ભિક્ષા માટે ઉપસ્થિત શ્રમણને હે શ્રમણ આપે ને શું ખપે ? એવું પૂછીને આપવામાં આવનાર આહારને જ ગ્રહણ કરવાને નિયમ લેનાર પૃષ્ઠલાભિક કહેવાય છે. (૨૩) અપષ્ણલાભિક––જે ગૃહસ્થ વગર પૂછે આહાર આપશે તેનાથી જ ગ્રહણ કરીશ એવી પ્રતિજ્ઞા કરનાર અપૃષ્ણલાભિક કહેવાય છે (૨૪) ભિક્ષાલામિક-જગ્યાએથી અથવા ગૃહસ્થથી યાચના કરીને કોઇ ગૃહસ્થ તુચ્છ બલ્લ, ચણુ અથવા કેદરી આદિ લાવ્યા હોય અને Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६२८ तत्त्वार्थ स्त्र अभिक्षालाभिकः अयाचितलाभोऽमिक्षा तस्या अमिक्षया लामोऽस्याऽस्तीति अभिक्षालाभिकः उच्यते २५ अन्नग्लायक:-अन्नेनाऽऽहारेण विना ग्लायका, 'रात्रिनिष्पादित मन्नं गृहीष्यामि' इत्यभिग्रहं कृत्वा भिक्षाचरः पर्यु पितान्न भिक्षाचरः खलु अन्नग्लायक उच्यते २६ औपनिहितक:-औपनिहितं कथञ्चिद् गृहस्थेन स्वसमीपे समानीत मन्नादिकम्, तदमिग्रहेण चरतीति औपनिहितकचर उच्यते २७ परिमितपिण्डपातिकः-परिमितपिण्डस्व प्रमाणपरिच्छिन्नपिण्डस्य पासो लाभः परिमितपिण्डपातः सोऽयाऽस्तीति परिमितपिण्डपातिक आधाकर्मादिदोषरहितं भक्तपानादिकं 'यदि-एकरमाद् गृहाद पर्यावं लभ्यते तदा-ग्रही. तव्यम् इत्येव मभिग्रहवान् परिमितपिण्डपातिक उच्यते-२८ शुद्धैपणिक:-शुद्धेपणा भोजन तैयार किया हो वह भिक्षा कहलाता है। ऐसे भोजन को लेने की प्रतिज्ञा करने वाला भिक्षालाभिक है। (२५) अभिक्षालाभिक-याचना किये बिना ही लाभ होना अभिक्षा है। ऐसे आहारादि को ही लेने की प्रतिज्ञा करने वाला अभिक्षालाभिक है। (२६) अन्नग्लायक-आहार के बिना स्लानि पाने वाला अन्नग्लायक कहलाता है । जो वासी आहार को ही लेने का अभिग्रह करता है उसे अन्नग्लायक समझना चाहिए। (२७) औपनिहितक-किसी निमित्त से कोई गृहस्थ मेरे पास आहार ले आएगा तो लूंगा' ऐसी प्रतिज्ञा करने वाला तपस्वी औप निहितक कहलाता है। (२७) परिमितपिण्डपातिक-परिमित्त आहार का लाभ होना परिमितपिण्डपात है, उसका अभिग्रह करने वाला परिजितपिण्डपातिक कहलाता है। તેનાથી જે ભેજન તૈયાર કર્યું હોય તે ભિક્ષા કહેવાય છે. આવા ભોજન ને લેવાની પ્રતિજ્ઞા કરનાર ભિક્ષાલાભિક છે. (૨૫) અભિક્ષાલાભિક–યાચના કર્યા વગર જ લાભ થ અભિક્ષા છે. આવા આહારાદિને જ લેવાની પ્રતિજ્ઞા કરનાર અભિક્ષાલાસિક છે. (૨૬) અનગ્લાયક--આહાર વગર ગ્લાનિ પામનાર અન્ન લાયક " કહેવાય છે. જે વાસી આહારને જ લેવાને અભિગ્રહ ધારે છે તેને અનગ્લાયક સમજવું જોઈએ. (૨૭) ઔપનિહિતક--કોઈ નિમિત્તથી કે ગૃહસ્થ મારી પાસે આહાર લઈને આવશે તે જ લઈશ એવી પ્રતિજ્ઞા કરનાર તપસ્વી ઔપનિહિતક उपाय छे. Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.१५ भिक्षाचर्यातपस. प्ररूपणम् शङ्कादि दोपराहित्यम्, शुद्धस्य उद्गमादिदोषरहितस्य वा, एपणा साऽस्यास्तीति शुद्धैषणिकः सस्था-शुद्धमेव ग्रहीतव्यम् इत्यभिग्रहधारीति शुद्धषणिक उच्यते २९ संख्यादत्तिका-संख्या प्रधानदत्तिः संख्यादत्तिः तदभिग्रहेण चरतीति संख्या दत्तिका, दर्वी-कटोरकादितोऽविच्छिन्नधारया या भिक्षा पतति सा दत्ति रुच्यते एक क्षेप रूपा च भिक्षा दत्तिरित्येवं रीत्याऽनेकविधा मिक्षाचर्या भवतीतिभावः। उक्तञ्ची-पपातिके ३० सूत्रे-से कितं भिक्खायरिया? भिक्खायरिया अणे. गविहा पण्णता, तं जहा-दव्याभिरगहवर ए१ खेत्ताभिग्गहचरए२ कालाभिशहचरए३ भावाभिरगहचरए४ उक्खित्तचर ए ५ णिक्खित्तचरए ६ उक्वित्तनिक्खित्तचरए ७ णिक्खित्त उक्खित्तचरए ८ वहिज्जमाणचरए ९ साहरिजनाणचाए १० वणीयचरए ११ अवणीयचरए १२ उक्षणीय अवणीयचरए १३ अवणीय उवणीयचरए १४ संसहचरए १५ असंचरए १६ तज्जायसंसहचरए १७ अण्णायचरए १८ मोणचरए १९ दिहलाभिए २० अदिहलाभिए २१ पुट्ठलाभिए २२ अपुट्ठलाभिए २३ (२९) शुद्धैषणिक-शंका आदि दोषों से अथवा उद्गम आदि दोषों से रहित ही आहार आदि की गवेषणा करने वाला शुद्धषणिक कहलाता है। अर्थात् जिलने ऐला अभिग्रह धारण किया हो कि सर्वथा शुद्ध आहार ही ग्रहण करूंगा, उसे शुद्धषणिक समझना चाहिए। ___(३०) संख्यादत्तिक-दत्तियों की संख्या निश्चित करके आहार लेने वाला । विना धार टूटे एक बार में जितना आहार-पानी का लाभ हो वह एक दत्ती कहलाती है। इस प्रकार शिक्षा चर्या के अनेक भेद हैं। औपपातिक सूत्र के तीसवें सूत्र में कहा है (૨૮) પરિમિતપિડુપાતિક––પરિમિત આહારને લાભ થવે પરિમિત પિણ્ડપાત છે. તે અભિગ્રહ કરનાર પરિમિતપિડપાતિક કહેવાય છે. (૨૯) શુદ્ધષણિક––શંકા વગેરે દેથી અથવા ઉદ્દગમ આદિ દેથી ૨હિત જ આહાર આદિની ગવેષણ કરવાવાળે શુદ્વેષણિક કહેવાય છે અર્થાત જેણે આ અભિગ્ર ધારણ કર્યો હોય કે સર્વથા શુદ્ધ આહાર ગ્રહણ કરીશ, તેને શુદ્વેષણિક સમજવો જોઈએ. (૩૦) સંખ્યાદત્તિક-દત્તિઓની સંખ્યા નિશ્ચિત કરીને આહાર ગ્રહણ કરનાર સાતત્ય જળવાઈ રહે તેવી રીતે એકવારમાં જેટલા આહાર પાણીને લાભ થાય તે એક દત્તિ કહેવાય છે. આ રીતે મિક્ષચર્યાના અનેક ભેદ છે. ઔપાતિક સૂત્રના ત્રીસમાં सूत्रमा घुछ. ' Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ भिखालाभिए २४ अभिकखालाभिए २५ अण्णलाभिए २६ ओवणिहिए २७ परिमियपिंडचाइए २८ सुसणिए २९ संखादत्तिए ३० से तं भिक्खायरिया' इति । अथ का सा भिक्षा ३ मिक्षाचर्याऽनेकविधा मज्ञप्ता, तद्यथा - द्रव्यामिचरकः १ क्षेत्राभिग्रहचरकः २ कालाभिग्रहचरकः ३ भावाभि ग्रहचरकः ४ उत्क्षिप्तचरकः ५ निक्षिप्तचरकः ६ उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचरकः ७ निक्षिप्तो क्षिप्तचरकः ८ वर्त्यमानचरकः ९ संहिमाणचरकः १० उपनीतचरकः ११ अपनीत चरकः १२ उपनीतापनीतचरकः १३ अपनीतोपनीतचरकः १४ संसृष्टचरकः १५ असंसृष्टचरकः १६ तज्जातसंसृष्टचरकः १७ अज्ञातचरकः १८ मौनचरकः १९ दृष्टलामिक : २० अटलामिकः २१ पृष्टलाभिकः २२ अपृष्टलाभिकः २३ भिक्षाकाभिक:२४ अभिक्षालाभिकः २५ अन्नग्लायकः २६ औपनिहितकः २७ परिमितपिण्डपातिकः २८ शुद्धैषणिक : २९ सख्यादत्तिकः ३० सा- एषा भिक्षाचर्या, इति | १५ | abo प्रश्न- भिक्षाचर्या के कितने भेद हैं ? उत्तर- भिक्षाचर्या अनेक प्रकार की है, यथा - (१) द्रव्याभिग्रहचर (२) क्षेत्राभिग्रहचर (३) कालाभिग्रहचर (४) भावाभिग्रहचर (५) उत्क्षिप्तचर (६) निक्षिप्तचर (७) उत्क्षिप्त निक्षिप्तचर (८) निक्षिप्त ऊरिक्षसचर (९ ) वर्त्यमानचर (१०) संह्रियमाणचर (११) उपनीतचर (१२) अपनीतचर (१३) उपनीत- अपनीतचर (१४) अपनीत - उपनीतचर (१५) संसृष्टचर (१६) असंसृष्टचर (१७) तज्जातसंसृष्टचर (१८) अज्ञातचर (१९) मौनचर (२०) दृष्टलाभिक (२१) अदृष्टलाभिक (२२) पृष्टलाभिक (२३) अपृष्टलाभिक (२४) भिक्षालाभिक (२५) अभिक्षालाभिक (२६) अन्नroles (२७) औपनिहितक (२८) परिमितपिण्डपातिक (२९) शुद्धैषणिक और (३०) संख्यादत्तिक, यह सब भिक्षाचर्या है ||१५| પ્રશ્ન-ભિક્ષાચર્યાંના કેટલા ભેક છે. ઉત્તર–ભિક્ષ ચર્યાં અનેક પ્રકારની છે, જેવી કે (૧) દ્રબ્યાભિગ્રહુચર (२) क्षेत्र: लिडर (3) असालियर (४ ) भावाभिश्रडयर ( 4 ) उत्क्षिसयर (६) निक्षिप्तयर (७) उत्क्षिप्तनिक्षिप्तयर (4) निक्षिप्त उत्क्षिप्तयर (ङ)वर्त्य - भानयर (१०) स ंहियमानथर ( 11 ) उपनीतयर (१२) अयनीयर (13) अथनीत-अपनीतयर (१४) अपनीत उपनीतयर (१५) संसृष्टयर (१६) न्मसंसृष्टयर (१७) तन्मतसंसृष्टयर (१८) अज्ञातयर (१८) मौनयर (२०) इष्टसालिङ (२१) अदृष्टसाभिः (२२) पृष्टसालिङ (२३) संसृष्टसालिङ (२४) लक्षातालिक (२५) अलि सालिङ (२९) अन्नश्याय (२७) सोपनिडित (२८) परिमित पिएडयाति (२८) शुद्धैषथिए भने (३०) संध्यादृत्तिः મા બધી ભિક્ષાચર્યાં છે, ૫ ૧૫ ૫ Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८२.१६ रसपरित्यागतपसः प्ररूपणम् मूलम्-रसपरिच्चागतवे अर्णगविहै, निध्विइय पणीयरसपरिच्चायाइ भेयओ ॥१६॥ ___ छाया-'रसपरित्यागतपोऽनेकविधम् निकितिप्रणीतरसपरित्यागादि भेदतः॥१६॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व तावत्-तृतीयं भिक्षाचर्या लास बाह्यं तपोऽनेकविधं प्ररूपितम्, सम्पति-रसपरित्यागतप प्ररूपयितुलाह-'रसपरिच्चायतवे' इत्यादि । रसपरित्यागः- घृतादिर सपरित्यामरूपं तपो निर्विकृतिकाहारादिग्रहण रूपम् अनेकविधं भवतीतिभावः । तद्यथा-निर्विकृतिकः १ मणीतरसपरित्यागः २ आचामाम्लम् ३ आयाषसिक्थमोगी ४ अरसाहार. ५ विरसाहारः ६ अन्ताहार:७ पान्ताहारा ८ रुक्षाहारः ९ तुच्छाहारः १० इत्येवं रीत्या रसपरित्याग तपोऽनेक विधं भवतीतिभावः। तत्र-निविकृतिकाहार तारद् निर्गता घृतादिरूपा विकृतिय 'रसपरिच्चागतवे अणेगविहे' इत्यादि । सूत्रार्थ-निर्विकृति-प्रणीतरमपरित्याग आदि के भेद से रस परित्याग तप अनेक प्रकार का है ॥१६॥ तत्वार्थदीपिका-इससे पूर्व भिक्षाचर्या नामक तीसरे बाह्य तप का निरूपण किया गया अब रस परित्याग का विवेचन करते हैं घृत आदि पौष्टिक रसों का त्याग रसपरित्याग तप कहलाता है। विगय रहित आहार ग्रहण करने आदि के भेद से उल के अनेक भेद हैं । वे इस प्रकार हैं-(१) निर्विकृलिक (२) प्रणीतरलपरित्याग (३) आयंबिल (४) आयाम सिक्थ भोगी (५) अरसाहार (६) रिसाहार (७) अन्ताहार (८) प्रान्ताहार (९) रूक्षाहार (१०) तुच्छाहार, इत्यादि भेदों से रसपरित्याग तप अनेक प्रकार का है। (१) घृता आदि विगयों 'रसपरिच्चागतवे अणेगविहे' त्याह સવાથ– નિર્વિકૃતિ–પ્રતિરસારિત્યાગ આદિના ભેદથી રસપરિત્યાગ તપ અનેક પ્રકારના છે. જે ૧૬ | તત્વાર્થદીપિકા--આની પૂર્વે ભિક્ષાચર્યા નામક ત્રીજા બાહ્ય તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે રસપરિત્યાગતપનું વિવેચન કરીએ છીએ ઘી આદિ પૌષ્ટિક રસેને ત્યાગ રસપરિત્યાગ તપ કહેવાય છે. વિગય રહિત આહાર ગ્રહણ કરવા આદિના ભેદથી તેના અનેક ભેદ છે તે આ પ્રમાણે छे (१) निविकृति (२) प्रणीत २सपरित्याग (3) माय मिटा (४) मायाम सिस्था (4) A२साहार (6) विरसाहा२ (७) मन्ताहा२ (८) प्रान्ताहार (૯) રૂક્ષાહાર (૧૦) તુચ્છાહાર, ઈત્યાદિ ભેદોથી સપરિત્યાગ તપ અનેક Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ तत्त्वार्थसूत्रे स्मात् स निरिकृतिकस्तथाविध पाहारो निर्विकृतिकाहार उच्यते १ प्रणीतरमपरित्यागः-प्रणीतरस: मचुरत्वाद् द्रवीभून घृतदिन्दु सन्दोहोऽपूपादिः तस्य परित्यागः मणीतरसपरित्याग उच्यते २ एदम्-आचाम्लम् विकृतिवजितानामोदन मजित चणकादीनां रूक्षान्नादीनामचित्ते-उद के प्रक्षेपपूर्वक मेकासनस्र्थन सभोजन माचाम्लं नाम तपो भवतीतिभावः३ आयामसिक्यामोजी अस्त्रावण गतसिक्थ भोजने मुत्रे-गुण-गुणिनोरभेदोपचाराद' भोजीतिपदम् ४ एवम्-अरसाहार:-अरसः जीरकहिंग्वादिमिर संस्कृतोय आहारः सोऽरसाहारो भ-ति ५ एवंविरसाहारः विगतो रसो विरसः अति पुराणधान्यौदनादिकः एतद्रूप आहारो विरसाहारो भवति ६ अन्ताहारः अन्त-नीरमवस्तु. तस्याहारोऽन्ताहारः जघन्य धान्यकोद्रवादीना माहार उच्यते ७ प्रान्ताहारः प्रकणाऽन्तं प्रान्तं पाकपानादन्ने (विकृतियों) से रहित आहार निर्विकृतिक कहलाता है। (२) जिच माल. पुए आदि में से पिघला घी झर रहा हो, ऐसे पौष्टिक आहार का त्याग करना प्रणीतरसपरित्याग है । (३) विकृन हीन ओदन, भुने चने आदि रूखे अनी को अचित्त जल में भिगोकर, एक आसन पर बैठकर एक वार ही खाना आचारल या आयंबिल है । (४) ओसामण में मिले हुए सीथ खाना आयामसिक्थ भोजी है । सूत्र में गुण और गुणी में अभेद का उपचार करके 'भोजी' शब्द का प्रयोग किया गया है । (५) जीरा हींग आदि से दिना छोंका आहार अरसाहार कहलाता है। (६) विरस अर्थात् अत्यन्न पुराने धान्य ओदन आदि का आहार विरसाहार कहलाता है । (७) अन्ताहार अर्थात् घटिया धान्य कोद्रय आदि का आहार (८) प्रान्ताहार अर्थात् अतीव नीरस और घटिया आहार, पकाने પ્રકારના છે. (૧) ઘી આદિ વિગ (વિકૃતીઓ) થી રહિત આહાર નિવિકૃતિક કહેવાય છે. (૨) જે માલપુડા આદિમાંથી પિઘળેલું ઘી ઝરી રહ્યું હોય એવા પૌષ્ટિક આહારને ત્યાગ કરવો પ્રણતરસ પરિત્યાગ છે. (૩) વિકૃતહીન દન શેકેલા ચણા આદિ સુકા અનાજને અચેત પાણીમાં પલાળીને એક આસને બેસીને એક જ વાર ખાવું આચારૂ અથવા આયંબિલ છે. (૪) ઓસામણમાં ભેગા થયેલા સીથ ખાવું આયામસિકથભેગી છે, સૂત્રમાં ગુણ અને ગુણમાં અભેદને ઉપચાર કરીને “ ભેજી ” શબ્દને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે. (૫) જીરૂ, હીંગ, વગેરેથી વઘાર્યા વગરનો આહાર અરસાહાર કહેવાય છે (૬) વિરસ અર્થાત્ અત્યન્ત જુના ચોખા વગેરેને આહાર વિરસાહાર કહેવાય છે () અન્નાહાર અર્થાત્ જાડું ધાન્ય કેદરી આદિનો આહાર (૮) પ્રાન્તાહાર અર્થાત્ અતીવ નીરસ અને ઘટિયે આહાર, રાંધવાના વાસણમાથી અને કાઢી Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका ५.८ सू.१६ रसपरित्यागतपसः प्ररूपणम् ६३३ निष्कासिते सति उत्पानसंश्लिष्टं दादिना धर्पणेन निस्सारित मन्नं वल्लचणकादि निष्पादित अश्लतमिश्रितं, पर्युषितं वाऽन्न प्रान्तं तद्रूप आहार प्रान्ताहार उच्यते ८ रूक्षाहारम्-रुक्षम् अस्निग्धपन्नं तद्रूप आहारो रूक्षाहारः ९ तुच्छाहार:-तुच्छोऽल्पोऽसारश्च श्यामाकादिनिष्पादितो य आहारः स तुच्छाहारः १० इत्येवं रस परित्यागो बोध्यः॥१६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व खल्ल षडविधेषु अनशनादि बाह्य तपासु भिक्षाचर्श तपः सरितारं प्रहपितम्, सम्मति-क्रममाप्तं चतुर्थ रसपरित्यागरूपं तपः मरूपयितुमाह-रसएञ्चिाशन अणेगविहे, निविदय पणीय रमपरिच्चायाइ भेदओ' इति रसपरित्याग तुम-घृताऽपूपादि सरसाहारस्म परित्यागरूपं तपस्तावद् अनेकविधम्, तपा-निकृितिक प्रणीतर सपरित्यागादि भेदतः। के पात्र में ले अन्न निकाल लेने पर उनमें जो शेष चिपटा रहता है और जिसे चम्मच आदि से खरोंच कर निकाला जाता है यह प्रान्ताहार कहलाता है। अथवा चना आदि बना हुआ अम्ललक मिश्रित ठंडा आहार प्रान्ताहार हा जाता है। (२) रूखे अर्थात् चिकनाई से रहित आहार को रूक्षाहार कहते हैं । (१८) तुच्छ अर्थात् अल्प अथवा असार सावां आदि का बना आहार तुच्छाहार कहलाता है। इस प्रकार अनेक तरह का रसपरित्याग तपसमझना चाहिए ॥१६॥ तत्वार्थनियुक्ति-छह कार के अनशन आदि बाह्य तपों में से भिक्षाचर्या लपविता पूर्वक प्ररूपण किया गया, अब क्रमप्राप्त चौथे रसपरित्याग लपका प्ररूपण करते है निर्विकृतिक, प्रणीत रापरित्याग आदि के भेद ले रसपरित्याग तप के अनेक भेद है। इस बार है (१) निर्विकृतिक (२) प्रणीतरलपरित्याग લીધા બાદ તેમાં જે શેષ ટેલું રહે છે અને જેને ચમચા આદિથી ઉખાડી ને કાઢવામાં આવે છે તે માતાહાર કહેવાય છે અથવા ચણું વગેરેથી બનેલ અમ્લતકમિશ્રિત ઠંડે આહાર પ્રાન્તાહાર કહેવાય છે. સુકા અર્થાત્ ચિકણા પણથી રહિત આહારને રૂક્ષાહાર કહે છે. (૧૦) તુચ્છ અર્થાત્ અલ્પ અથવા અસાર સામા વગેરેને બનેલે આહાર તુચ્છાદાર કહેવાય છે. આમ અનેક પ્રકારના રસપરિત્યાગ તપ સમજવા જોઈએ છે ૧૬ છે તત્ત્વાર્થ નિકિત-છ પ્રકારના અનશન આદિ બાહ્ય તપોમાંથી ભિક્ષાચ તપનું વિસ્તારપૂર્વક પ્રરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે કમપ્રાપ્ત ચોથા રસ પરિત્યાગ તપનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ નિવકતિક, પ્રણીતરસ પરિત્યાગ આદિના ભેદથી રસપરિત્યાગ તપના અનેક ભેદ છે. તે આ પ્રમાણે છે (૧) નિર્વિકૃતિક (૨) પ્રણીતરસપરિત્યાગ त० ८० Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ निर्विकृतिका १ प्रणीतरसपरित्यागः २ आदिना-आचामाम्लम् ३ आयामसिक्य भोजी ४ अरसाहारः ५ विरसाहारः ६ अन्ता-(स्त्या) हारः ७ प्रान्ताहारः ८ रुक्षाहारः ९ तुच्छाहारः १० इत्येवं रीत्या रसपरित्यागतपोऽनेकविधं भवति । तत्र-निर्विकृतिक तावद् निर्गता धृतादिरूपा विद्वतिर्यस्मान् स निर्विकृतिका आहार उच्यते, तथा च धृतादि स्निग्ध पदार्थवनिताहारग्रहणं निर्विकृतिकं नाम रसपरित्यागतपो भवति ३ प्रणीतरसपरित्यागः-प्रणीतरसः प्रचुरद्रवघृतबिन्दु सन्दोहोऽपूपादि रतस्य परित्यागः प्रणीतरसपरित्यागः तद्रूपं तपः प्रणीत. रसपरित्याग तप उच्यते २ आचासाम्लम्-स्नेहादि विकाररहिताना मोदनभर्जितचणकादीनां रूक्षान्नानाम् अचित्ते जले प्रक्षेपेण एकासनस्थतयोपविश्य सकृभोजनं खलु आचामाग्लं नाम तप उच्यते-तथाचोक्तम्-- (३) ओचाम्ल (४) आयामसिक्य भोजी (५) अरसाहार (६) विरसाहार (७) अन्ताहार (८) प्रान्ताहार (९) रक्षाहार (१०) तुच्छाहार। इस प्रकार रसपरित्याग तप अनेक प्रकार का है। घृत आदि विकृतियों से रहित आहार निर्विकृतिक कहलाता है। अतएव वृत आदि स्निग्ध पदार्थों से रहित आहार ग्रहण करना निर्विकृतिक नामक रसपरित्याग तप है। बहुलता के कारण जिसमें से घी टपकता हो ऐसे मालपुआ आदि को प्राणीतरस कहते हैं, उसका त्याग करना प्राणीतरसत्याग नामक तप है। स्निग्यता एवं विगय रहित ओदन (भात) तथा भुने चने आदि रूखे अन्न को अचित्त जल में भिगो कर एक आसन पर बैठ कर एक वार ही भोजन करना आचाम्ल या आयंविल लप कहलाता है। कहा भी है विकृतिरहित ओदन को तथा भुने हुए चने आदि रूखे अन्न को अचित्त जल में डालकर एक स्थान पर बैठकर एक बार खाना आयंबिल तप है।। (3) माया (४) मापात्रसिथना (५) सरसाहार (6) विरसाहार (७) અન્નાહાર (૮) પ્રાન્તાહીર (૯) રૂક્ષાહાર (૧૦) તુચ્છ હાર આમ રસપરિત્યાગ તપ અનેક પ્રકારના છે. ઘી વગેરે વિકૃતિઓથી રહિત આહાર ગ્રહણ કર નિર્વિતિક નામક રસપરિત્યાગ તપ છે વધુ પ્રમાણમાં હોવાના કારણે જેમાંથી ઘી ટપકતું હોય એવા માલપુડાં આદિને પ્રણીતરસ કહે છે તેને ત્યાગ કર પ્રણીત રસત્યાગ નામક તપ છે. રિનગ્ધતા અને વિગય ઓદન (ભાત) તથા શેકેલા ચણે આદિ સુકા અનનને અચેત પાણીમાં પળાલીને એક આસને બેસીને એક જ વાર ભેજન કરવું આચામ્સ અથવા આયંબિલ તપ કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે. વિકૃતિરહિત એદનને તથા શેકેલા ચણા વગેરે સુકા અનાજને અચિત્ત પાણીમાં નાખીને એક સ્થાનકે બેસીને એકવાર ખાવું આયંબિલ તપ છે૧૪ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ सू.१६ रसपरित्यागतपसः प्ररूपणम् ६३६ 'विगइ रहियस्त ओयण, भन्जिय चणगाइलुक्खअन्नस्स । खित्ताजले अचित्त, खाणं आयंबिलं जाण ॥१॥ इति . 'विकृति रहितस्य ओदन भर्जितचणकादि रूक्षान्नस्य । क्षिप्त्वा जले अचित्ते भोजन भाचामाम्लं जानीहि ॥१॥ इति आयामसिक्यभोजीनाम तपस्तु-मण्डरूपावलाणगतसिक्थरूपौदनकण भक्षणमुच्यते धर्म-धर्मिणोरभेदात् तझोक्ताऽपि तथाविधतपसा व्यपदिश्यते४ अरसाहारतपः-अरखो जीरक-हिंग्यादिभिरसंस्कृतआहारोऽरसाहार उच्यते, तथाविधाऽरसाहारतपो भवति ५ विरसाहारनपा-विस्तो रसो विरसः पुराणधान्यौदना. दिराहारो-विरसाहार उच्यते तथाविध विरसाहारतपो भवति ६ अन्त्याहारतपःअन्ते-पर्यवसाने भवम् अन्त्यं जघन्य धान्यं क द्रवादि तद्रूप पाहारोऽन्त्याहार उच्यते तथाविधान्त्याहार तपो भवति ७ मान्ताहारतपः प्रकर्षेण अन्तं प्रान्तम पाकपात्रादेन्ने लिसारिते तल्पात्रश्लिष्ट दयादिना घर्षणेन निस्सारित मन्नं वल्लचणकादि निष्पादित मम्लता मिश्रितं पयुषितं वाऽन्नं मान्त मुच्यते तद्रप आहारः प्रान्ताहार: तथाविध मान्ताहारतपो भवति ८ रूक्षाहारतपः-रूक्षाहारम अस्निग्धमन्नं तद्रूप आहारो रूक्षाहार उच्यते तथाविध रूक्षाहारतपो भवति९ तुच्छा. मांड यो ओसामण में चावल आदि के जो दाने (सीथ) रह जाते हैं उन्हें धर्म और धर्मी के अभद ने आयामालिक्थ भोजी नामक तप कहते हैं। जीरा हींग आदि से विना छोका आहार अरस आहार कहलाता है। पुराने धान्य आदि का आहार करना विरलाहार है। क्रोद्रव आदि घटिया धान्य अन्त कहलाता है, उसको खाना अन्ताहार या अन्या कहलाता है। पकाने के पात्र में ले योजन निकाल लेने पर में जो शेष लगा रहता है, उसे चम्मच आदि से खुरच कर निकाला जाता है वह प्रान्ताहार कहलाता है अबधा खट्टे छाछ से मिश्रित चना आदि या ठंडा भोजन प्रान्ताहार कहलाता है। उसे ही खाने का नियम એસામણમાં ચોખા વગેરેના જે દાણા (સીથ) રહી જાય છે તેમને ધમકી અને ધમીના અભેદથી આપાત્ર સિકથજી નામક તપ કહે છે. જીરા તથા હીંગ વગેરેથી વઘાર્યા વગરને આહાર અરસ આહાર કહેવાય છે જુના ધાન્ય વગેરેને આહાર કર વિરસાહાર છે. કેરી વગેરે જાડું ધાન્ય અન્ત કહેવાય છે તેને ખાવું અત્યાહાર કહેવાય છે, રાંધવાના વાસણમાંથી ભેજન કાઢી લીધા બાદ તે પાત્રમાં જે શેષ ચૅટી રહેલું હોય તેને ચમચા, તાવેથા - આદિથી Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थस्त्र हारतपा-तुच्छोऽल्पोऽपारश्च श्यामाकादिनिष्पादित आहार स्तुच्छाहार उच्यते तथाविधतुच्छाहारतपो भवतीति १० रीत्या रसपरित्यागतपोऽनेकविधं भवतीति बोध्यम् उक्तश्चौपपातिके ३० मुत्रे-से किं तं रसपरिच्चाए ३ रसपरिच्चाए अणेगविहे पण्णत्त, तं जहा-निधिहए १ पणीचरलपरिच्चाए २ आयंपिलए ३ आयामलित्यभोई ४ अरसहारे ५ विरसाहारे ६ अंताहारे ७ प्रताहारे ८ लूहाहारे ९ तुच्छाहारे १० से तं रसपरिच्चाए' इति । अथ काँऽसौ रसपरित्यागः ? रसपरित्यागोऽने सविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-निर्विकृतिका? प्रणीतरसपरित्यागः २ आचामाम्लम्३ आयामसिक्यमोजी ४ अरसाहारः ५-६ विरसाहारः अन्त्याहारः ७ प्रान्ताहारः ८ रूक्षाहार: ९ तुच्छाहारः१० इति ॥१६॥ . मूलम्-कायकिलेसतवे अणेपिहे, ठाणटियाइ यओ।१७। ' छाया-'कायक्लेशतपोऽनेकविधाम्, स्थानस्थितिकादि भेदतः ॥१७॥ अंगीकार करना प्रान्ताहार तप है। रूखा-सूखा आहार रूक्षाहार कहलाता है' , जो आहार तुच्छ अर्थात् अल्प या अन्सार हो-श्यामाक आदि का बना हो वह आहार तुच्छाहार कहलाता है। इत्यादि प्रकार से ररूपरित्याग तप के अनेक भेद होते हैं। औपपातिकसत्र के तील सूत्र में कहा है प्रश्न-रसपरित्याग तप के हितले भेद हैं ? उत्तर-रलपरित्याग तप अनेक प्रकार का है, अथा-(१) निर्विकृतिक (२) प्रणीतरसपरित्याग (३) आयंबिल (४) आचालित्रय मोजी (५) -अरसाहार (6) बिरसाहार (७) अन्ताहार (८) प्रान्ताहार (९)रुक्षाहार ओर (१०) तुच्छाहार ॥१६!! - ઉખાડીને કાઢી લેવામાં આવે છે તે પ્રાન્તાહાર કહેવાય છે અથવા ખાટી છાશ -થી મિશ્રિત ચણું વગેરે અથવા ટાઢું ભોજન પ્રાન્તાહાર કહેવાય ખાવાને નિયમ અંગીકાર કરે પ્રાન્તાહાર તપ છે. રૂખે "" "" રક્ષાહાર કહેવાય છે. જે આહાર તરછ અર્થ અથ ' રયામા વગેરેને બનેલું હોય તે તરછાડા કે ઈ રસપરિત્યાગતના અનેક ભેદ હોય છે. પણ પ્રશ્ન–રસપરિત્યાગ તપના કેટલા ને ઉત્તર–રસપરિત્યાગ તપ અનેક પ્રક (२) प्रणीतरसपरित्या (3) माय मिद (. खार (6) विश्साहा२ (७) मन्त४२ (८) । તુકાહાર ૧ ૧૬ | Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. शु.१७ कायक्लैश तपसः स्वरूपनिरुपणम् 637 ___ तत्वार्थदीपिका---पूर्व तावद् यथाक्रम मशनादिरस परित्याग पर्यन्तं बाह्य तपः सविस्तरं मरूपित, समाति-क्रमागतस्य कायक्लेशरूप पञ्चम बाह्य तपसः स्वरूपं भेदांश्च प्ररूपयितुमाह-शायकिलेलतवे' इत्यादि / कायक्लेशतपः कायस्य क्लेशो यस्य-यस्थिन्वा स कायक्लेशः तद्रूपं तपः-कायक्लेश तष उच्यते धर्म-धार्मिणोरभेदोपचारात् तच्च-कायक्लेश तपोऽनेकविधं भवति / तद्यथास्थानस्थितिकादि भेदतः, स्थानस्थितिकः 1 आदिना-उत्कुटुकासनिकः 2 प्रतिमास्थायी 3 वीरासनिकः 4 नैषधिका 5 दण्डायतिका 6 कुटशायी 7 आतापकः 8 अमावृतकः 9 अकण्ड्यकः 10 अनिष्टीवकः 11 सर्वशानपरिकर्म विभूषा विषमुक्तः 12 इत्येवरीत्या कायक लेशतपोऽनेकविध भवति / तत्र-स्थान 'कायकिलेसतो अणेगविहे' इत्यादि। सूत्रार्थ-स्थान स्थितिक आदि के भेद से कायक्लेश तप के अनेक भेद हैं // 17 // तत्वार्थदीपिका--पहले अनशन से लगा कर रख परित्याग पर्यन्त बाह्य तप का सविस्तर व्याख्यान किया गया, अब क्रमागत कायक्लेश नामक पांच बाह्य तप के स्वरूप और लेदों का मरूपण करते हैं जिस तप से या जिल्स तप को करने पर काय के क्लेश होता है, वह काय च्लेश तप कहलाता है। यहां भी धर्म और धी में अभेद का उपचार किया गया है। कायक्लेश तप अनेक प्रकार का है, जैसे (1) स्थान स्थितिज्ञ (2) उस्कृष्ट कामानिक (3) प्रलिमास्थायी (4) वीरालनिक (5) नैवधिक (6) दण्डात्तिक (7) लकुट शायी (8) आतापक (9) अप्राकृतझ (10) अऋण्डू एक (11) अनिष्ठीयक और (12) सर्वगात्र 'कायकिलेसत अणेगविहे' त्यात સૂવાથ–થાન સ્થિતિક આદિના ભેદથી કાયકલેશ તપના અનેક ભેદ છે 17 તત્વાર્થદીપિકા-પહેલાં અનશનથી માંડીને રસપરિત્યાગ પર્યન્ત બાહ્ય તપનું સવિસ્તર વર્ણન કરવામાં આવ્યું હવે કમાગત કાયકલેશ નામક પાંચમાં બાહ્ય તપને રવરૂપ અને ભેદનું પ્રરૂપણ કરીએ છીએ જે તપથી અથવા જે તપ કરવાથી કાયાને કલેશ થાય છે તે કાયકલેશ તપ કહેવાય છે. અહીં પણ ધર્મ અને ધમમાં અભેદને ઉપચાર કરવામાં मा०ये। छ. ४।२४सेश त५ मने 4.2 // छ (1) स्थानस्थिति (2) अge. सनि: (3) प्रतिमाथायी (4) वीसनि (5) नैषधि (6) १९यति: (7) टशायी (8) माता५४ (6) प्रात(१०) 1554 (11) मनिही4s