SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ . ६ अनुप्रेक्षास्वरूपनिरूपणम् १७३ शोणितमांसमज्जामेदोऽधिशुकाणि संजायन्ते सर्वश्चेतत्-कामादिशुक्रान्तमशुचिः भूतमे वर्तते, एवमशुचि मलमूत्रफ पत्तादीनामाश्रयत्वादपि शरीरमशुचिवर्तते, इत्येवं भावयतः शरीरे निदो जायते, निविणश्व-शारीरिकजन्मप्रहाणाय मवर्तते इत्यशुचित्वानुमेक्षा ६ अथास्त्रमानुचिन्तनरूपा-आस्रानुप्रेक्षा, यथा-इन्द्रियकषा. यादीन् आस्रवान् अशुपापरूपाकुशलकर्मागमद्वारपुण्यरूपदशविधधर्मनिर्गमद्वारभूवान् बहुविधोषयुक्तान् अत्यन्ततीव्रवेगशालियो जीवस्याऽवधकारकान् अनुचिन्तयेत् । तत्र स्पर्शनेन्द्रियवशीकवा बहनो जीवा परस्त्रीलम्पटाः सन्तः सघ अशुचि ही हैं। रस भोग से रुधिर, मांस, मज्जा, भेद, अस्थि और शुक्र (वीर्य) की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार कफ से लगाकर शुक्र पर्यन्त सब अशुचि ही हैं। इन अशुचि मल मूत्र कफ पित्त आदि का आधार होने से भी शरीर अशुचि है। - इस प्रकार विचार करने से शरीर के प्रति विरक्ति भाव की उत्पत्ति होती है और शरीर के प्रति पिरक्ति होने पर मनुष्य शरीर की उत्पत्ति को ही रोक देने में प्रवृत होता है अर्थात् सदा के लिए अशरीर (युक्त) घनने का प्रयत्न करता है । यह अशुचित्व अनुप्रेक्षा है । (७) आत्रवानुप्रेक्षा-आस्रव का चिन्तन करना आनधानुप्रेक्षा है। यथा-ये इन्द्रिय और कषाय आदि आस्त्रच पाप रूप अकुशल कर्मों के आगमन के द्वार हैं। ये अनेक प्रकार के दोषों से युक्त हैं, इस प्रकार का विचार करना चाहिए । स्पर्शनेन्द्रिय के वशीसोडी, मांस, Harm. मेह, मयि मने शु (वीय)नी उत्पत्ति थाय छे. આમ કફથી માંડીને શુક્ર સુધી બધું અશુચિ જ છે. આ અશુચિ મળ, મૂત્ર, કફ, પિત્ત આદિને આધાર હોવાથી પણ શરીર અશુચિ છે. આ રીતે વિચારવાથી શરીર પ્રતિ વિરતિની ઉત્પત્તિ થાય છે અને શરીર પર વિરકિતભાવ જાગવાથી મનુષ્ય શરીરની ઉત્પત્તિને જ અટકાવી દેવામાં પ્રવૃત્ત થાય છે અર્થાત્ સદા માટે અશરીર (મુક્ત) બનવા પ્રયત્ન કરે છે. આ અશુચિત્વ અનુપ્રેક્ષા છે. (७) मावानुप्रेक्षा-या सत्रनु यिन्तन ४२ पासवानुप्रेक्षा छे. યથા– આ ઈન્દ્રિય અને કષાય આદિ આસવ પાપ રૂપ અકુશળ કર્મોના આગમનના દ્વાર છે. તેઓ અનેક પ્રકારના દેથી યુક્ત છે અને અત્યંત તીવ્ર વેગશાલી જીવને પાપ ઉત્પન્ન કરનારા છે, એ જાતને વિચાર કરે
SR No.010523
Book TitleTattvartha Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages895
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy