Book Title: Tattvartha Sutra Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 807
________________ - - - दीपिका-निर्युक्ति टीका म.७ खू.७६ अन्तिमद्वयं शु. कस्य भवतीतिरूपणम् ५५१ ___ तथाचाऽष्टाविंशतिमकारकमोहनीयकोपशमा दुपशान्तकषायवीतराग श्छमस्था छद्मनि-आवरणे सियसत्त्रात् छद्मस्थश्च उच्यते, मोहनीयस्य कृत्स्न क्षयात् स क्षीणकषायवीतरागः छद्मस्थश्च धर्मध्यान शुक्लाऽऽद्यद्वरधानविशेषात् यथाख्यातसंयमविशुद्धयाऽवशेषाणि कर्माणि क्षपयति । तत्र-द्विचरमसमये इति चरम समयद्वयावशिष्टे निद्रा-भचले क्षपयति, ततोऽस्य चरमसमये ज्ञानदर्शनावरणद्वयान्तरायरूप कर्मत्रिक क्षयात् केवलज्ञानदर्श नापजायते ॥७॥ मूलम्-चरमा बे केवलिस्त ॥७॥ छाया-'चरमे द्वे केवलिन:-॥७६॥ जिन्होंने अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म का उपशान कर दिया है वे उपशान्त कषाय वीतराग छमात्र कहलाते हैं। छह अर्थात् आवरण में जो स्थित हो वह छद्मस्थ कहा जाता है। मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर देने वाला क्षीण कषाय कहलाता है अगर ऐसा मुनि बारहवें गुणस्थान में हो तो ज्ञानावरणादि के उदय के कारण छमस्थ होता है। यह क्षीणकषाय वीतराग छद्रस्थ धर्मध्यान और शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों से तथा यथाख्यात संयम की विशुद्धता के प्रभाव से शेष घातिक कर्मों को युगपत् क्षय कर डालता है। वह द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला प्रकृतियों का क्षय कर के चरम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इन तीनों का क्षा करता है और केवल ज्ञान, केवल दर्शन और अनन्त धीर्य को प्राप्त कर लेता है ॥७५॥ જેઓએ અઠયાવીસ પ્રકારના મહનીય કર્મને ઉપશમ કરી દીધો છે તે ઉપશાતકષાય વીતરાગ વસ્થ કહેવાય છે. મેહનીય કર્મને સર્વથા ક્ષય કરનાર ક્ષીણકષાય કહેવાય છે. આવી રીતે છવ્ર અર્થાત્ આવરણમાં જે સ્થિત હોય તે છસ્થ કહેવાય છે. જે એ મુનિ બારમાં સ્થાને હોય તે જ્ઞાનાવરણાદિના ઉદયના કારણે છસ્થ હોય છે. આ ક્ષીણકષાય વીતરાગ છદ્મસ્થ ધર્મધ્યાન અને શુકલધ્યાનના પ્રથમના બે ભેદથી તથા યથાખ્યાત સંય. મની વિશુદ્ધતાના પ્રભાવથી શેષ ત્રણ ઘાતિ કર્મોને યુગપત ક્ષય કરી નાખે છે. તે દ્વિચરમ સમયમાં નિદ્રા અને પ્રચલા પ્રકૃતિઓનો ક્ષય કરીને ચરમ સમયમાં જ્ઞાનાવરણ દર્શનાવરણ અને અન્તરાય ત્રણેને ક્ષય કરે છે અને કેવળજ્ઞાન, કેવળદર્શન અને અનન્તવીર્યને પ્રાપ્ત કરી લે છે !

Loading...

Page Navigation
1 ... 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895