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दीषिका-नियुक्ति टीका अ.७ सू.६२ आभ्यन्तरतपसोभेदनिरूपणम् ५६५
मूलम्-अब्सितरए तवे छबिहे, पायच्छित्त-विणय-चेयाबच्च-सज्झाय-झाण-विउलगभेयओ ॥२॥
छाया-आभ्यन्तरं तपः षड्विधम् , पायश्चित्त-विनय--वैयावृत्य स्वाध्यायध्यानव्युत्सर्गभेदतः ॥६२॥
तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व ताबद्-बाह्याऽभ्यन्तरभेदेन तपसो द्वैविध्यस्योक्त त्वात् तत्र पूर्वमने पक्धि बाह्य रूपः घरूपितम् , सम्पति-पविधमेवाऽभ्यन्तरं तपः प्रतिपादयितुम्ह-लितए लवे छविहे' इत्यादि । तथा च-प्रायश्चित्तम् , विनया, पैयाहत्यम् , स्वाध्यायः, ध्यानम् , व्युत्सर्गः इत्येवं पइविध
इस प्रकार छह प्रकार के बाह्य तप से संस्कार के प्रति आसक्ति का त्यागोता, शारीरिक लघुना आती है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्ती होती है, संयम की रक्षा होनी है और ज्ञानावरण आदि दानों की निर्जरा होती है ॥६॥
'अभिरए तवे छब्धिहे' इत्यादि
सार्थ-मास्यन्तर लप के छह भेद है-(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैधावत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्लगें ॥२॥
तत्त्वार्थदीपिका--पहले बाह्य और आभ्यन्तर ये तप के दो भेद कहे थे, इसमें ले पूर्वस्न बाह्य तप के छह भेदों का निरूपण किया गया अब आभ्यन्तर तप के छह भेदों का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं
(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैधावत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युल्लचं, यह छह प्रकार का यन्तर तप हैं। ये प्रायश्चित्त થાય છે, શારીરિક લઘુના આવે છે, ઈન્દ્રિયો પર વિજય પ્રાપ્ત થાય છે. સંયમનું રક્ષણ થાય છે અને જ્ઞાનાવરણ વગેરે આઠ કર્મોની નિરા થાય છે. ૬૧
अभितरए तवे छबिहे' त्यहि
सत्राथ:-मास्यन्त२ तयना छ ले छ-(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (3) यावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान म२ (६) व्युत्सम ॥१२॥
તયાથદીપિકા–પહેલા બાહ્ય અને આભ્યન્તર એમ તપના બે ભેદ કહેવામાં આવ્યા હતા. આમાંથી પૂર્વસૂત્રમાં બાહ્ય તપના ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું હવે આભ્યન્તર તપના છ ભેદનું પ્રતિપાદન કરવા માટે ४ही छीमे
(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (3) वैयावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान અને (૬) વ્યુત્સર્ગ, આ છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપ છે. આ પ્રાયશ્ચિત્ત વગેરે
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