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दीपिका-नियुक्ति टीका २.९६.१ मोक्षतत्वनिरपणम् रश्मिवद् - भव्यजनकुमुदवनोद्वोधनाय · भू-गगनमण्डछे विहरति ततश्चक्तविधिना-ऽऽयुष्ककर्मपरिसमाशौ सत्यां वेदनीयनामगोत्रकर्मणामपि 'क्षयो भवति, इति सकलकर्मक्षये सति स्वात्मन्यबस्थानलक्षणो मोक्षो भवतीति भावः। तत्र-पञ्चविध ज्ञानादरणस्य नवविध दर्शनावरणस्या-पुष्टाविंशति प्रकार मोहनीयकर्मणो द्विविधवेदनीयस्य त्रिणवतिविधनामकर्मण श्चतुविधायुष्यकर्मणो द्विविध गोत्रकर्मणः पञ्चविधान्तरायकर्मणश्च सकलकर्मरूपस्याऽष्ट - चत्वारिंशदधिकशतसंख्यकम काररय १४८ क्षयोऽवगन्तव्यः। खनाऽविस्तसम्य. ग्दृष्टि-देशरिति-एकत्तामात्तस्थानानामन्यतमगुणस्थाने सह सोहनीयकर्मरह जाते हैं। ऐसी स्थिति में आयुशर्म के संस्कारवश वह चन्द्रमा के समान भव्यजीव रूपी कुमुदचनों को विकलित-उद्बोधित करने के लिए भूमण्डल में विचरते हैं । तदनन्तर उक्त विधि के अनुसार आयु कम की समाप्ति होने पर लाथ ही वेदनीय, नाम, और गोत्र फर्म का भी क्षय हो जाता है। इस तरह सकल कों का क्षय होने पर अपनी -आत्मा में ही अवस्थित हो जाना रूप मोक्ष होता है। . ... यह पांच प्रकार के ज्ञानावरण का नौ प्रकार के दर्शनावरण का, .(१) अट्टाईल प्रकार के मोहनीय का, (२) दो प्रकार के वेदनीय का (३) तेरानवे प्रकार के नामकर्म का (४) चार प्रकार के आयुक्रम का, दो प्रकार के गोत्रकर्म का और पांच प्रकार के अन्तराय कर्म का, इस प्रकार सघ को मिलाकर एक सौ अडतालीस (१४८) कर्मप्रकृतियों का क्षय समझना चाहिए। इनमें से अविरत:लघरष्टि, देशाविरतं, प्रम-અને- આયુષ્ય કર્મો શેષ રહી જાય છે. આવી સ્થિતિમાં આયુષ્યકમને સરકારે વશ તે ચન્દ્રમાની જેમ ભવ્યજીવ રૂપી કુમુદવનેને વિકસિત દૂધિત કરવાને , માટે ભૂમંડળમાં વિચરે છે. તદનન્તર ઉકત-વિધિ અનુસાર આયુષ્યકમની - સમાપ્તિ થવાની સાથે જ વેદનીય, નામ અને શેત્ર કમેને પણ ક્ષય થઈ જાય छे. शत. १४॥ नि। क्षय थqाथी पातानु" मात्मामा अवस्थित थे rat'३५ भाक्ष थाय छे. ..'.', ही 42 रन ज्ञानानु नप न शनाप२एन। (१) 'भयावी अंना मोडनायने। (२) में प्रारना वहनीया (3) प्राना 'નામકર્મને, ચાર પ્રકારના આયુષ્યકમના—બે પ્રકારનાં ગોત્ર કર્મને અને પાંચ પ્રકારના અંતરાય કમને એ રીતે બધા , મળીને એક અડતાળીશ (१,४८), प्रकृतियानो क्षय समन्. . . . BIHथा . पिरत