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कसायपाहुडसुत्त जानेको प्रकृतिसंक्रम कहते हैं। जैसे सातावेदनीयका असातावेदनीयरूपसे परिणत हो जाना । विवक्षित कर्मकी जितनी स्थिति पड़ी थी, परिणामोंके वशसे उसके हीनाधिक होनेको या अन्य प्रकृतिकी स्थितिरूपसे परिणत हो जाने को स्थितिसंक्रम कहते है। सातावेदनीय आदि जिन प्रकृतियों में जिस जातिके सुखादि देनेकी शक्ति थी, उसके हीनाधिक होने या अन्य प्रकृतिके अनुभागरूपसे परिणत होनेको अनुभागसक्रम कहते हैं । विवक्षित समयमे आये हुए कर्मपरमाणुओंमेसे विभाजनके अनुसार जिस कर्म-प्रकृतिको जितने प्रदेश मिले थे, उनके अन्य प्रकृति-गत प्रदेशोंके रूपसे संक्रान्त होनेको प्रदेशसंक्रमण कहते है। इस अधिकारमें मोहकर्मके उक्त चारों प्रकारके संक्रमका अनेक अनुयोगद्वारोंसे बहुत विस्तृत विवेचन किया गया है।
६ वेदक-अधिकार--इस अधिकारमें मोहनीय कर्मके वेदन अर्थात् फलानुभवनका वर्णन किया गया है । कर्म अपना फल उदयसे भी देते हैं और उदीरणासे भी देते हैं। स्थितिके अनुसार निश्चित समय पर कर्म के फल देनेको उदय कहते हैं। तथा उपाय-विशेपसे असमयमें ही निश्चित समयके पूर्व फलके देनेको उदीरणा कहते हैं । जैसे डालमें लगे हुए श्रामका समय पर पक कर स्वय गिरना उदय है । तथा पकनेके पूर्व ही उसे तोड़कर पाल आदिमें रखकर समयके भी बहुत पहले उसका पका लेना उदीरणा है। ये दोनों ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेद से चार-चार प्रकारके होते है । इन सवका प्रकृत अधिकारमें अनेक अनुयोगद्वारोंसे बहुत विस्तार-पूर्वक वर्णन किया गया है।।
७ उपयोग-अधिकार—जीवके क्रोध, मान, मायादि रूप परिणामोंके होनेको उपयोग कहते हैं । इस अधिकारमे क्रोधादि चारों कपायोंके उपयोगका वर्णन किया गया है
और बतलाया गया है कि एक जीवके एक कषायका उदय कितने काल तक रहता है, किस गतिके जीवके कौनसी कपाय वार-बार उदयमे आती है, एक भवमे एक कपायका उदय कितने वार होता है और एक कपायका उदय कितने भवों तक रहता है ? जितने जीव वर्तमान समयमें जिस कपायसे उपयुक्त है, क्या वे उतने ही पहले उसी कषायसे उपयुक्त थे और क्या आगे भी उपयुक्त रहेंगे ? इत्यादि रूपसे कषाय-विषयक अनेक ज्ञातव्य वातोंका बहुत ही वैज्ञानिक विवेचन इस उपयोग-अधिकारमें किया गया है ।
८ चतु:स्थान-अधिकार--घातिया कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिकी अपेक्षा लता, दारु, अस्थि और शैलरूप चार स्थानोंका विभाग किया जाता है, उन्हे क्रमश. एकरथान द्विस्थान, त्रिस्थान और चतु.स्थान कहते हैं । इस अधिकारमे क्रोधादि चारों कपायोंके उक्त चारों स्थानोंका वर्णन किया गया है, इसलिए इस अधिकारका नाम चतु स्थान है। इसमें बतलाया गया है कि क्रोध चार प्रकारका होता है-पापाण-रेखाके समान, पृथ्वी-रेखा के समान, वालु-रेखाके समान और जल-रेखाके समान । जैसे-जल में खींची हुई रेखा तुरन्त मिट जाती है और वालु, पृथ्वी और पापाणमें खींची गई रेखाएँ उत्तरोत्तर अधिक-अधिक समयमें मिटती हैं, इसी प्रकारसे क्रोधके भी चार प्रकारके स्थान है, जो हीनाधिक कालके द्वारा उपशमको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकारसे मान, माया और लोभके भी चार-चार स्थानोंका वर्णन इस अधिकारमें किया गया है। इसके अतिरिक्त चारों कपायोंके सोलह स्थानों से कौन सा स्थान क्सि स्थानसे अधिक होता है, और कौन किससे हीन होता है, कौन स्थान सर्वघाती है और कौन स्थान देशघाती है ? क्या सभी गतियोंमें सभी स्थान होते हैं, या कहीं कुछ अन्तर है ? किस स्थानका अनुभवन करते हुए किस स्थानका बन्ध होता है, और किस किस स्थानका वन्ध नहीं करते हुए किस स्थानका बन्ध नहीं होता, इत्यादि अनेक सैद्धान्तिक गहन वातोंका निरूपण इस अधिकारमें किया गया है।