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कसायपाहुडसुत
या विभाजन राग और द्वेषमें किया है। मोटे तौर पर क्रोध और मानको द्वेपरूप माना गया है, क्योंकि, इनके करनेसे दूसरों को दुःख होता है । तथा माया और लोभको रागरूप माना गया है, क्योंकि इन्हें करके मनुष्य अपने भीतर सुख, आनन्द या हर्षका अनुभव करता है । प्रस्तुत ग्रन्थ पन्द्रह अधिकारों में विभक्त है और उनमें राग-द्वेष- मोहका तथा कपायों की बन्ध, उदय और सत्त्व आदि विविध दशाओं का विस्तृत व्याख्यान किया गया है। उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
१ पेजदोसविभक्ति – इस अधिकारमें कषायका अनेक दृष्टियोंसे राग-द्वेषमें विभाग कर यह बतलाया गया है कि राग-द्वेष और कषाय क्या वस्तु हैं, इनके कितने भेद हैं, वे किसके होते हैं,. कब होते हैं और होने पर वे कितनी देर तक रहते हैं । इनका अन्तरकाल क्या है और इनके धारण करनेवाले जीव किस प्रकारके हीनाधिक परिमाण में पाये जाते हैं । विभक्ति महाधिकार — इस अधिकार में वस्तुतः प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक ये छह अवान्तर अधिकार है ।
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प्रकृतिविभक्ति - योग के निमित्तसे आत्मा के भीतर आनेवाले पुद्गल कर्मोमें जो ज्ञान-दर्शनादि गुणोंके रोकने या श्रावरण करनेका स्वभाव पड़ता है, उसे प्रकृति कहते हैं । विभक्ति शब्दका अर्थ विभाग है । आठ कर्मों में से प्रस्तुत ग्रन्थमें केवल एक मोहनीय कर्मका ही वर्णन किया गया है । मोहनीय कर्मके मूल भेद दो और उत्तरभेद अट्ठाईस बतलाये गये हैं, उनका एक-एक रूपसे तथा अट्ठाईस, सत्ताईस आदि प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानों की अपेक्षा इस अधिकार में विस्तृत विवेचन किया गया है ।
२ स्थितिविभक्ति-आने वाले कर्म आत्मा के भीतर जितने समय तक विद्यमान रहते हैं, उनकी काल-मर्यादाको स्थिति कहते हैं । प्रस्तुत अधिकार में मोहनीय कर्मके अट्ठाईस भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन अनेक अनुयोगद्वारोंसे किया गया है।
३ अनुभागविभक्ति - कर्मों के फल देनेकी शक्तिको अनुभाग कहते हैं । फल देनेकी तीव्रता और मन्दताकी अपेक्षा अनुभाग लता, दारु (काष्ठ) अस्थि (हड्डी) और शैल के रूपसे चार प्रकारका होता है | लता नाम बेल का है । जिस प्रकार लता बहुत कोमल होती है, उससे काष्ठ अधिक कठोर होता है, काष्ठसे हड्डी और भी कठोर होती है और पत्थरकी शिला सबसे
† मोहकर्मके मूलमें दो भेद हैं- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैमिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति । चारित्रमोहनीयकर्मके भी दो भेद है - कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय। कषायवेदनीयके १६ भेद है - प्रनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ श्रौर संज्वलनक्रोध, मान, माया, लोभ । नोकषायवेदनीयके ε भेद है - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद श्रौर नपु सकवेद । इस प्रकार सर्व मिलाकर चारित्रमोहनीयकर्मके २५ भेद होते है और दोनो के भेद मिलाकर मोहकर्मके २८ भेद हो जाते हैं । इनमेंसे श्रनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार प्रकृतिया श्रौर दर्शनमोहकी तीन प्रकृतिया, ये सात प्रकृतिया आत्माके सम्यग्दर्शन गुरगका घात करती हैं और इन सातोंके प्रभाव होनेपर आत्माका उक्त गुण प्रकट होता है । इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणकपाय देशसयमकी, प्रत्याख्यानावररणकपाय सकलसयमकी श्रीर संज्वलनकपाय यथास्यातसयमकी घातक हैं । नवो नोकषाय उत्पन्न हुए चारित्रके भीतर प्रतीचार, मल या दोष उत्पन्न करते रहते है । जब श्रात्माके भीतरसे कपाय और नोकपायका प्रभाव हो जाता है, तब श्रात्मामें वीतरागतारूप शान्त दशा प्रकट हो जाती है ।