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प्रस्तावना आत्माके साथ बधे रहेंगे। कर्मोंके फल देनेकी शक्तिको अनुभाग कहते हैं । कर्म-परमाणुओंमें आनेके साथ ही तीव्र या मन्द फल देनेकी शक्ति भी पड़ जाती है, इसीको अनुभागबन्ध कहते हैं । आनेवाले कर्म-परमाणुओंके नियत परिमाणमे आत्मासे संबद्ध होनेको प्रदेशबन्ध कहते है। इन चारों प्रकारोंके बन्धोंमेसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योग है और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्धका कारण कपाय है । अर्थात् आत्माके भीतर आने वाले कर्म-परमाणुओंमें अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना और उनका हीनाधिक सख्यामें बन्ध होना ये दो काम योग पर निर्भर हैं। तथा उन्हीं कर्म-परमाणुओं का आत्माके साथ कम या अधिक काल तक ठहरे रहना और तीव्र या मन्द फल देनेकी शक्तिका पड़ना ये दो काम कषायके आश्रित है।
प्रकृतिबन्ध-उपर्युक्त चारों प्रकारके वन्धोंमेंसे प्रकृतिबन्यके आठ भेद हैं-१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयु, ६ नाम,७ गोत्र और ८ अन्तराय। ज्ञानावरणकर्म आत्माके ज्ञानगुणका आवरण करता है, अर्थात् उसके ज्ञानगुणको ढक देता है, या प्रगट नहीं होने देता । इस कर्मके निमित्तसे ही कोई अल्प-ज्ञानी और कोई विशेप-ज्ञानी देखा जाता है । दर्शनावरणकर्म दर्शनगुणका अर्थात् देखनेकी शक्तिका आवरण करता है। वेदनीयकर्म आत्माको सुख या दुःख का वेदन कराता है । आत्मामें राग, द्वष और मोह को उत्पन्न करनेवाले कर्मको मोहनीय कहते हैं। इस कर्मके उदयसे प्रथम तो आत्माको यथार्थ सुखके मार्गका भान ही नहीं होता । दूसरे यदि सत्यार्थ मार्गका भान भी हो जाय, तो उसपर वह चलने नहीं देता । मनुष्य, पशु ओर जीव-जन्तु आदि प्राणियोंके शरीरमें नियत काल तक रोक कर रखने वाले कर्मको आयुकर्म कहते हैं। आयुकर्मके उदयको जन्म और उसके विच्छेदको मरण कहते हैं। नाना प्रकारके भले-बुरे शरीर, उनके विविध अग और उपांगों आदिकी रचना करनेवाले कर्मको नामकर्म कहते हैं। अच्छे या बुरे संस्कारों वाले कुल, वंश आदिमें उत्पन्न करनेवाले कर्मको गोत्रकर्म कहते हैं । इच्छित या मनोऽभिलपित वस्तुकी प्राप्तिमें विघ्न करने वाले कर्मको अन्तराय कहते हैं। इन आठ कर्मोंमेंसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म कहलाते हैं, क्योंकि ये चारों ही आत्माके ज्ञानदर्शनादि अनुजीवी गुणोंका घात करते हैं। शेष चार अघातिया कर्म कहलाते हैं, क्योंकि वे आत्माके गुणोंका घात करनेमे असमर्थ हैं। घातिया कर्मों में भी दो विभाग हैं-देशघाती और सर्वघाती । जो कर्म आत्माके गुणका एक देश घात करता है, वह देशघाती कहलाता है और जो आत्म-गुणका पूर्णरूपसे घात करता है, वह सर्वघाती कहलाता है। अघातिया कर्मोमें भी दो भेद हैं-पुण्यकर्म और पापकर्म। चारों घातियाकर्म पापरूप ही होते हैं । अघातिया कर्मों में साता वेदनीय, शुभ आयु, नामकर्मकी शुभ प्रकृतियां और उच्चगोत्र पुण्यकर्म है,
और शेष प्रकृतियां पापकर्म है। • उपर्युक्त आठ कर्मों में जो मोहनीय कर्म है, वह राग, द्वेष और मोहका जनक होनेसे सर्व कर्मोंका नायक माना गया है, इसलिए सबसे पहले उसके दूर करनेका ही महर्षियोंने उपदेश दिया है । मोहनीय कर्मके दो भेद हैं-एक दर्शन मोहनीय और दूसरा चारित्र मोहनीय । दर्शनमोहनीय कर्म जीवको आत्मस्वरूपका यथार्थ दर्शन नहीं होने देता, उसे संसारकी मायामें मोहित करके रखता है, इसलिए उसे राग, द्वेष और मोहकी त्रिपुटीमे 'मोह' नामसे पुकारते हैं। दूसरा भेद जो चारित्रमोहनीयकर्म है, उसके उदयसे जीव सांसारिक वस्तुओंमेसे किसीको भला जान कर उसमें राग करता है और किसीको बुरा जानकर उससे द्वेष करता है । क्रोध, मान, माया
और लोभ रूप जो चारों कपाय लोकमें प्रसिद्ध है, वे इसी कर्मके उदयसे होती हैं । इन चारों कपायोको राग और उपमे विभाजित किया गया है। चूर्णिकारने विभिन्न नयोकी अपेक्षा कपा