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प्रस्तावना
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श्रदृष्ट नामक गुण उत्पन्न होता है । यह तब तक श्रात्मामें बना रहता है जब तक कि हमारे भले या बुरे कार्यका फल हमें नहीं मिल जाता है ।
सांख्य लोगों का कहना है कि हमारे भले-बुरे कार्योंका संस्कार प्रकृति पर पड़ता है और इस प्रकृति-गत संस्कार से सुख-दुःख मिला करते हैं ।
बौद्धों का कहना है कि हमारे भले-बुरे कार्योंसे चित्तमें वासनारूप एक संस्कार पड़ता है जो कि आगामी कालमें सुख-दुःखका कारण होता है ।
इस प्रकार विभिन्न दार्शनिकोंका इस विषय में प्रायः एक मत है कि हमारे भले-बुरे कार्योंसे आत्मामें एक संस्कार उत्पन्न होता है और यही हमारे सुख-दुःख, जीवन-मरण और संसार-परिभ्रमणका कारण है । परन्तु जैन दर्शनकी यह विशेषता है कि जहां वह भले-बुरे कार्योंके प्रेरक विचारोंसे आत्मामें संस्कार मानता है, वहां वह उस सरकार के साथ ही एक विशेष जातिके सूक्ष्म पुद्गलों का आत्मासे सम्बन्ध होना भी मानता है ।
इसी बातको श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने अपने प्रवचनसार में इस प्रकार कहा हैपरिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । तं पविसदि कम्मरयं गाणावरणादिभावेहिं ॥ ६५ ॥
जब राग-द्वेषसे युक्त आत्मा शुभ या अशुभ कार्य में परिणत होता है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि रूपसे परिणत होकर आत्मामें प्रवेश करती है ।
कहनेका साराँश यह है कि किसी भी भले या बुरे कार्यको करने के लिए आत्मा के जो अच्छे या बुरे भाव होते हैं, उनका निमित्त पाकर सूक्ष्म पुद्गल कर्मरूपसे परिणत होकर आत्मासे बँध जाते है और कालान्तर में वे सुख या दुःखरूप फल देते है ।
कर्मबन्धसे जीव संसार-चक्रमें किस प्रकार परिभ्रमण करता है, इसका विवेचन श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने पंचास्तिकाय में इस प्रकार किया है
जो खलु संसारत्थो जीवो ततो दु होदि परिणामो | परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ गदिमधिगस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते ।
तेहिंदु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२६ ॥
जो जीव संसार में स्थित हैं, उसके राग-द्वेषरूप परिणाम उत्पन्न होते हैं । उन रागद्वेषरूप परिणार्मोके निमित्तसे नये कर्म बंधते हैं । कर्मों के उदयसे देव -मनुष्यादि गतियोंमें जन्म लेना पड़ता है । गतियोंमें जन्म लेने पर देह प्राप्त होता है । देहकी प्राप्तिसे इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । इन्द्रियोंसे विषयों का ग्रहण होता है । विषयोंके ग्रहणसे राग और द्वे परूप परिणाम होते हैं । इस प्रकार संसार-चक्रमें परिभ्रमण करते हुए जीवके राग-द्वेषरूप भावोंसे कर्म-बन्ध और कर्म - बन्धसे राग-द्वेषरूप भाव होते रहते हैं ।
उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि संसारके परिभ्रमणका कारण कर्मबन्ध है और कर्मबन्धका कारण राग-द्वेष है। राग-द्वेषका ही दूसरा नाम कषाय है । राग-द्वेषका भी मुल कारण मोह या अज्ञान है । आत्माके वास्तविक स्वरूपकी जानकारी या विपरीत जानकारीका नाम मोह है । इस प्रकार राग-द्वेष और मोह ही ससार - परिभ्रमण के कारण हैं और इनके कारण ही जीव नाना प्रकारके कष्टोंको भोगा करता है ।