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कसायपाहुडसुत्त इसके अतिरिक्त उक्त अधिकारों पर रचे हुए यतिवृपभके चूर्णिसूत्रों के आधार पर प्रायः शेष सर्व ही गाथाओंकी रचना की है। यदि सीधे शब्दोंमें कहा जाय तो यह कह सकते हैं कि सचूर्णि कसायपाहुडके सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमलब्धि नामक तीन अधिकारोंका लब्धिसारमें तथा क्षपणाधिकारका क्षपणासारमें सार खींच करके रख दिया है और इस प्रकार उनका उक्त ग्रन्थ अपने नामको ही सार्थक कर रहा है।
इसी प्रकार कसायपाहुडके क्षपणाधिकारके गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रोंके आधार पर माधवचन्द्र त्रैविद्यने अपने संस्कृत क्षपणासारकी रचना की है । यह ग्रन्थ प्रायः चूणिसूत्रोंके छायात्मक संस्कृत गद्य में यथासंभव और यथावश्यक पल्लवित एवं परिवर्धित करते हुए लिखा गया है। अभी कुछ दिनों पूर्व ही इसकी प्रतियां जयपुरके तेरहपंथी बड़ा मन्दिरके शास्त्रभंडारसे उपलब्ध हुई हैं । ग्रन्थके सामने न होनेसे इच्छा होते हुए भी हम उसके यहां पर तुलनात्मक उद्धरण देनेसे वंचित हैं।
.. कसायपाहुडकी मूल गाथाओं और उसके चूर्णिसूत्रोंका श्रीचन्द्रर्षि महत्तरने अपने पंचसंग्रहमें यथास्थान भरपूर उपयोग किया है, इसे उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया है । पंचसग्रहका प्रारम्भ करते हुए उन्होंने स्वयं ही लिखा है
'सयगादि पंच गंथा जहारिहं जेण एत्थ संखित्ता ।' इसकी टीका करते हुए आ० मलयगिरिने ही लिखा है'पञ्चानां शतक-सप्ततिका-कषायप्राभूत-सत्कर्म-कर्मप्रकृविलक्षणानां ग्रन्थानां'
अर्थात् मैंने अपने इस पंचसंग्रहमें शतक-सप्ततिका-कषायप्राभूत सत्कर्मप्राभृत और कर्मप्रकृति नामक पांच ग्रन्थोंका संक्षेपसे यथायोग्य वर्णन किया है।
इस उल्लेखसे कसायपाहुडका महत्त्व और प्राचीनत्व दोनों ही स्पष्टरूपसे सिद्ध हैं।
विषय-परिचय
संसार-परिभ्रमणका कारण
यह तो सभी आस्तिक मतवाले मानते हैं कि यह जीव अनादिकालसे संसारमें भटक रहा है और जन्म-मरणके चक्कर लगाते हुए नाना प्रकारके शारीरिक और मानसिक कष्टोंको भोग रहा है । परन्तु प्रश्न यह है कि जीवके इस ससार-परिभ्रमणका कारण क्या है ? सभी आस्तिककवादियोंने इस प्रश्न के उत्तर देनेके प्रयास किया है। कोई ससार-परिभ्रमणका कारण अष्टको मानता है, तो कोई अपूर्व, दैव, वासना, योग्यता आदिको बतलाता है। कोई इसका कारण पुरातन कर्मोंको कहता है, तो कोई यह सब ईश्वर-कृत मानकर उक्त प्रश्नका समाधान करता है । पर विचारकोंने काफी ऊहापोहके वाद यह स्थिर किया कि जब ईश्वर जगत्का कर्ता ही सिद्ध नहीं होता तब उसे संसार-परिभ्रमणका कारण भी नहीं माना जा सकता, और न उसे सुख-दु.खका दाता ही मान सकते है । तब फिर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ये अदृष्ट, देव, कर्म आदि क्या वस्तु है ? संक्षेपमें यहां पर उनका कुछ विचार किया जाता है।
नैयायिक वैशेषिक लोग प्रप्टको आत्माका गुण मानते हैं। उनका कहना है कि हमारे किसी भी भले या बुरे कार्यका संस्कार हमारी आत्मा पर पड़ता है और उससे अात्माम