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कसायपाहुडसुत्त कर्मका स्वरूप और कर्मवन्धके कारण
कर्म शब्दका अर्थ क्रिया है, अर्थात् जीव (प्राणी)के द्वारा की जानेवाली क्रियाको कर्म कहते हैं । कर्म शब्दका ऐसा व्युत्पत्ति-फलित अर्थ होनेपर भी जैन-मान्यताके अनुसार इतना विशेष जानना आवश्यक है कि संसारी जीवके प्रति समय जो मन, वचन और कायकी परिस्पन्द (हलन-चलन) रूप क्रिया होती है, उसे योग कहते है और योगके निमित्तसे वे सूक्ष्म पुद्गल जिन्हें कि कर्म-परमाणु कहते है आत्माकी ओर आकृष्ट होते हैं और आत्माके राग-द्वेपरूप कपायका निमित्त पाकर आत्मासे संबद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार कर्म-परमाणुओको आत्माके भीतर लानेका कार्य योग करता है और उसका आत्म-प्रदेशोंके साथ बन्ध करानेका कार्य कपाय अर्थात् आत्माके राग-द्वेषरूप भाव करते हैं । जैन-परिभाषाके अनुसार मन-वचन-कायकी चचलतासे कर्मरूप सूक्ष्म परमाणुओंका आत्माके भीतर आना आस्रव कहलाता है और रागद्वेषरूप कषायोंके द्वारा उनका आत्म-प्रदेशोंके साथ संबद्ध होना बन्ध कहलाता है । उपयुक्त विवेचनका सार यह है कि आत्माकी योगशक्ति और कषायं ये दोनों ही कर्म-बन्धके कारण हैं ।
यदि आत्मासे कषाय दूर हो जाय, तो योगके रहने तक कर्म-परमाणुओंका आगमन तो अवश्य होगा,किन्तु कषायके न होनेके कारण वे आत्माके भीतर ठहर नहीं सकेंगे। दृष्टान्तके तौर पर योगको वायुकी, कषायको गोंदकी, आत्माको दीवारकी और कर्म-परमाणुओंको धूलिकी उपमा दी जा सकती है । यदि दीवार पर गोंदका लेप लगा हो, तो वायुके द्वारा उड़नेवाली धूलि दीवार पर आकर चिपक जाती है। यदि दीवार निर्लेप और सूखी हो, तो वायुके द्वारा उड़ कर आनेवाली धूलि दीवारपर न चिपक कर तुरन्त झड़ जाती है। यहाँ धूलिका हीनाधिक परिमाणमें उड़कर आना वायुके वेग पर निर्भर है । यदि वायुका वेग तीव्र होगा, तो धूलि भी अधिक भारी परिमाणमें उड़ती है और यदि वायुका वेग मन्द होगा, तो धूलि भी कम परिमाणमें उड़ती है । । इसी प्रकार दीवार पर धूलिका कम या अधिक दिनों तक चिपके रहना उस पर लगे गोंदके लेप
आदिकी चिपकानेवाली शक्तिकी हीनाधिकता पर निर्भर है । यदि दीवार केवल पानीसे गीली है, तो उसपर लगी धूलि जल्दी झड़ जाती है और यदि तेल या गोंदका लेप दीवारपर लगा हो, तो बहुत दिनों में झड़ती है। यही बात योग और कषायके बारेमें जानना चाहिए। योगशक्तिकी तीव्रता और मन्दताके अनुसार आकृष्ट होनेवाले कर्म-परमाणुओंका परिमाण भी हीनाधिक होता है । यदि योगशक्ति उत्कृष्ट होती है तो कर्मपरमाणु भी अधिक संख्यामें आत्माकी ओर श्राकृष्ट होते हैं और यदि योगशक्ति मध्यम या जघन्य होती है तो कर्मपरमाणु भी तदनुसार उत्तरोत्तर अल्प परिमाणमें आत्माकी ओर आकृष्ट होते हैं। इसी प्रकार कषाय यदि तीव्र होती है तो कर्म-परमाणु आत्माके साथ अधिक दिनों तक बंधे रहते हैं और फल भी तीव्र देते है । और यदि कषाय मन्द होती हैं, तो परमाणु कम समय तक आत्मासे वधे रहते है और फल भी कम देते हैं । यद्यपि इसमें कुछ अपवाद है, तथापि यह एक साधारण नियम है । कर्मवन्धके भेद
इस प्रकार योग और कषायके निमित्तसे आत्माके साथ कर्म-परमाणुओका जो बन्ध होता है वह चार प्रकारका होता है--प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्ध ।
प्रकृतिनाम स्वभावका है । आनेवाले कर्मपरमाणुओंके भीतर जो आत्माके ज्ञान-दर्शनादिक गुणों' के घातनेका स्वभाव पड़ता है, उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। स्थिति नाम कालकी मर्यादाका है । कर्म-परमाणुओंके आने के साथ ही उनकी स्थिति भी बन्ध जाती है, कि ये अमुक समय तक