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प्रस्तावना अधिक कठोर होती है, उसी प्रकारसे कर्मों के भीतर भी हीनाधिकरूपसे चार प्रकारके फल देनेकी शक्ति पाई जाती है। अनुभागविभक्तिमें मोहकमके अनुभागका उक्त चारों प्रकारोंसे वर्णन किया गया है।
प्रदेशविभक्ति- एक समयमें आत्माके भीतर आनेवाले कर्म-परमाणुओंका तत्काल सर्व कर्मीमें विभाजन हो जाता है । उसमेंसे जितने कर्म-प्रदेश मोहनीयकर्मके हिस्से में आते हैं, उनका भी विभाग उसके उत्तर भेद-प्रभेदों में होता है। मोहकर्मके इस प्रकारके प्रदेश-सत्त्वका वर्णन इस प्रदेशविभक्तिनामक अधिकार में अनेक अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा किया गया है।
क्षीणाक्षीणाधिकार-किस स्थितिमें अवस्थित कर्म-प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्पण, संक्रमण और उदयके योग्य एवं अयोग्य होते हैं, इस बातका विवेचन क्षीणाक्षीण अधिकारमें किया गया है। कर्मोंकी स्थिति और अनुभागके बढ़नेको उत्कर्पण, घटनेको अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूपसे परिवर्तित होनेको संक्रमण कहते हैं । सत्तामें अवस्थित कर्मका समय पाकर फलप्रदान करनेको उदय कहते हैं । जो कर्म-प्रदेश उत्कर्पण, अपकर्पण, संक्रमण और उदयके योग्य होते हैं, उन्हें क्षीणस्थितिक कहते हैं, तथा जो कर्म-प्रदेश उत्कर्पण, अपकर्पण, संक्रमण और उदयके योग्य नहीं होते हैं उन्हें अक्षीणस्थितिक कहते हैं । प्रस्तुत अधिकारमें इन दोनों प्रकारके कर्मोंका वर्णन किया गया है।
स्थित्यन्तिक-अनेक प्रकारकी स्थितियोंको प्राप्त होनेवाले कर्म-परमाणुओंको स्थितिक या स्थित्यन्तिक कहते हैं । ये स्थिति-प्राप्त कर्म-प्रदेश उत्कृष्टस्थिति, निपेकस्थिति. यथानिषेकस्थिति और उदयस्थितिके भेदसे चार प्रकारके होते हैं । जो कर्म बंधने के समयसे लेकर उस कर्मकी जितनी स्थिति है, उतने समय तक सत्तामे रहकर अपनी स्थितिके अन्तिम समयमें उदयको प्राप्त होता है, उसे उत्कृष्टस्थितिप्राप्त कर्म कहते है । जो कर्मप्रदेश बन्धके समय जिस स्थितिमें निक्षिप्त किया गया है, तदनन्तर उसका उत्कर्षण या अपकर्पण होनेपर भी उसी स्थितिको प्राप्त होकर जो उदय-कालमें दिखाई देता है, उसे निपेकस्थितिप्राप्त-कर्म कहते हैं । बन्धके समय जो कर्म जिस स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है यदि वह उत्कर्पण और अपकर्षण न होकर उसी स्थिति के रहते हुए उदयमे आता है, तो उसे यथानिषेकस्थिति-प्राप्त कर्म कहते हैं। जो कर्म जिस किसी स्थितिको प्राप्त होकर उदयमें आता है, उसे उदय स्थिति-प्राप्त कर्म कहते हैं । प्रकृत अधिकारमें इन चारों ही प्रकारोंके कर्मोंका वर्णन किया गया है।
____ उपर्युक्त छह अधिकारोंमेंसे प्रारम्भके दो अधिकारोंका वर्णन स्थितिविभक्ति नामक दूसरे अधिकारमें किया गया है और शेष चारों अधिकारोंका अन्तर्भाव अनुभागविभक्तिमें किया गया है । अतएव दूसरे अधिकारका नाम स्थितिविभक्ति और तीसरे अधिकारका नाम अनुभागविभक्ति जानना चाहिए।
४ वन्ध-अधिकार-जीवके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योगके निमित्तसे पुद्गल-परमाणुओंका कर्मरूपसे परिणत होकर जीवके प्रदेशोंके साथ एक क्षेत्ररूपले बंधनेको बन्ध केहते हैं । बन्ध के चार भेद पहले बतलाये जा चुके हैं। प्रकृत अधिकारमे उनका वर्णन किया गया है।
५ संक्रम-अधिकार-बंधे हुए कर्मोंका यथासभव अपने अवान्तर भेदोंमें संक्रान्त या परिवर्तित होनेको सक्रम कहते है। बन्धके समान संक्रम के भी चार भेद हैं-१प्रकृतिसक्रम २ स्थितिसंक्रम, ३ अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम । एक कर्म-प्रकृतिके दूसरी प्रकतिरूप हो