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बौद्ध-दर्शनम् सम्बद्ध कर दिये जाने पर, पहले घट से निकलकर [ दूसरे से ] सम्बद्ध होता है या बिना निकले ही हुए ? अगर निकलकर दूसरे से सम्बद्ध होता है तो [सामान्य को ] द्रव्य कहें ( क्योंकि द्रव्य में ही गुण और क्रिया—गमनादि-होती है ) । यदि बिना आये ही सम्बद्ध होता है, तब सम्बन्ध ही नहीं हो सकता ( सम्बन्ध के लिए सन्निकर्ष आवश्यक है )। ।
किं च विनष्टे घटे सामान्यमवतिष्ठते, विनश्यति, स्थानान्तरं गच्छति वा? प्रथमे निराधारत्वापत्तिः। द्वितीये नित्यत्ववाचोयुक्त्ययुक्तिः । तृतीये द्रव्यत्वप्रसक्तिः--इत्यादि दूषणग्रहग्रस्तत्वात्सामान्यमप्रामाणिकम् । तदुक्तम्
६. अन्यत्र वर्तमानस्य ततोऽन्यस्थानजन्मनि।।
तस्मादचलतः स्थानाद् वृत्तिरित्यतियुक्तता ॥ [ अब फिर बता कि ] घट के नष्ट हो जाने पर, यह सामान्य वहीं अवस्थित रहता है या नष्ट हो जाता है या दूसरी जगह चला जाता है ? अगर वहीं रहता है तो बिना आधार के ही रहेगा कैसे ? अगर नष्ट हो जाता है तो उसे नित्य कहने की बात अयुक्त हो जाती है (नित्य का कभी विनाश नहीं होता, सामान्य को न्याय-वैशेषिक में नित्य माना गया है ) । यदि तीसरा विकल्प ( स्थानान्तरण ) लेते हैं तो यह द्रव्य हो जायगा ( गुण
और क्रिया के चलते )। इस तरह के दोषों के ग्रह से ग्रस्त होने के कारण सामान्य को अप्रामाणिक कहते हैं। यह कहा भी है-[ सामान्य ] दूसरी जगह वर्तमान है ( एक घट में घटत्व है ) और उससे भिन्न स्थान में [ घट के ] उत्पन्न होने पर प्रथम स्थान से अचल [सामान्य का दूसरे घट में ] जाना (वृत्ति)-इससे बढ़कर और युक्ति क्या हो सकती है !' ७. यत्रासौ वर्तते भावस्तेन सम्बध्यते न तु।
तद्देशिनं च व्याप्नोति किमप्येतन्महाद्भुतम् ॥ ८. न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् । जहाति पूर्व नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥ इति ।
अनुवृत्तप्रत्ययः किमालम्बन इति चेत्-अङ्ग, अन्यापोहालम्बन एवेति सन्तोष्टव्यमायुष्मता, इत्यलमतिप्रसङ्गेन । ___ “जहाँ पर वह भाव है उस स्थान से तो उसका सम्बन्ध नहीं है, लेकिन उस स्थान में रहने वाले पदार्थ को व्याप्त करता है-क्या ही वह विचित्र दृश्य है ? ( उदाहरणार्थ, घटरूपी भाव जिस भूतल में है उस भूतल से घटत्व का सम्बन्ध नहीं है । भूतल-देश में वर्तमान घट को लेकिन घटत्व व्याप्त कर लेता है। जब घट को घटत्व व्याप्त करता है तो उसके आधार भूतल से तो उसका सम्बन्ध होना ही चाहिए, लेकिन ऐसा क्यों नहीं है ? ) [ सामान्य ] न तो जाता है, न वह वहाँ था ही, न वह बाद में टुकड़े होकर ही रहता है, न यह अपने पहले आधार को ही छोड़ता-कठिनाइयों की परम्परा विचित्र है !"