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सर्वदर्शनसंग्रहे
शिष्यों में अविश्वास उत्पन्न करने के लिए 'सब कुछ शून्य है' ऐसा कहा । (२) दसरे शिष्यों को जो विज्ञानरूपी ग्रहों से ग्रस्त थे, यह कहा कि विज्ञान ही एकमात्र सत् है। ( ३ ) तीसरे शिष्यों को जो दोनों ( बाह्य-आन्तर ) को सता में आस्था रखे हुए थे, यह कहा कि विज्ञेय ( बाह्य ) पदार्थ अनुमान का विषय है।
विशेष-वैभाषिकों का पुराना नाम सर्वास्तिवादी है, क्योंकि ये सबों की सत्ता स्वीकार करते हैं । बाद में जब कनिष्क के समय बौद्धों की चतुर्थ संगीति हुई तो उसमें इस सम्प्रदाय के मूलग्रन्थ आर्य कात्यायनीपुत्र के द्वारा रचित 'ज्ञानप्रस्थानशास्त्र' पर एक विराट टीका बनी जो 'विभाषा' कहलाई। इसी ग्रन्थ को सबसे अधिक मान्य मानने के कारण सम्प्रदाय का नाम वैभाषिक पड़ गया। यशोमित्र ने स्फुटार्था में लिखा है-विभाषया दिव्यन्ति चरन्ति वा वैभाषिकाः । विभाषां वा वदन्ति वैभाषिकाः । उस्थादिप्रक्षेपात् ठक् (पृष्ठ १२)। ___ अशोक के समय जब द्वितीय संगीति हुई थी उसी समय सर्वास्तिवाद अपने प्रिय सिद्धान्तों की रक्षा के लिए स्थविरवाद ( थेरवाद ) से पृथक् हो गया था । कनिष्क के समय तक सर्वास्तिवादी फिर विभक्त हो गये-एक गन्धार के सर्वास्तिवादी, दूसरे कश्मीर के । लेकिन चतुर्थ संगीति में ये एक कर दिये गये, जिसका नाम 'कश्मीर वैभाषिक' पड़ा। सर्वास्तिवादियों का मूल साहित्य संस्कृत में था, परन्तु आज वे ग्रन्थ लुप्त हैं, केवल चीनी
और तिब्बती अनुवादों पर ही सन्तोष करना पड़ता है। डा० तकाकुसु ने इनका विस्तृत परिचय दिया है।
सस्तिवाद और स्थविरवाद में सूत्र ( सुत्तपिटक ) और विनय (विनयपिटक ) में विशेष अन्तर नहीं। उनका अन्तर अभिधर्म को लेकर है । सूत्र में वैभाषिकों के ग्रन्थ हैंदीर्घागम ( तुल० स्थविरवादी-दीर्घनिकाय ), मध्यमागम ( मज्झिमनिकाय ), संयुक्तागम ( संजुत्त निकाय ), अङ्गोत्तरागम ( अंगुत्तरनिकाय ) और क्षुद्रकागम ( खुद्दकनिकाय )। इस प्रकार नाम-क्रम में तो समता है ही, विषयवस्तु भी दोनों के समान ही हैं। इनके विनय पांच हैं, जो स्थविरवादियों के विनयपिटक से तुलनीय हैं
सर्वास्तिवादी ( तिब्बती )-स्थविरवादी ( पाली )
महावग्ग (विनयपिटक )
पातिमोक्ख ३. विनय विभाग
सुत्त विभङ्ग ४. विनय क्षुद्रक वस्तु चुल्लवग्ग ५. विनय उत्तर ग्रन्थ परिवार
इन ग्रन्थों का मूल संस्कृत से तिब्बती अनुवाद कई शताब्दियों में हुआ है। यही दशा अन्य ग्रन्थों के तिब्बती और चीनी अनुवादों की है।
१. विनय-वस्तु २. प्रातिमोक्ष-सूत्र