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सर्वदर्शनखबहेअभाव निषेधात्मक प्रमाणों से जाना जाता है तथा यह सप्तम पदार्थ माना गया है। अभाव उस पदार्थ को कहते हैं जो समवाय-सम्बन्ध से रहित होकर समवाय से भिन्न हो । [स्मरणीय है कि द्रव्य गुण, कर्म, सामान्य और विशेष में समवाय-सम्बन्ध रहता है । प्रथम विशेषण ( असमवायत्वे सति ) के द्वारा इन सभी पदार्थों से अभाव के पार्थक्य या व्यावर्तन. का प्रदर्शन हुआ है। द्रव्यों का समवाय-सम्बन्ध अपने पर आश्रित गुणादि के साथ होता है । गुण और कर्म अपने आश्रय द्रव्य के साथ या अपने पर आश्रित सामान्य के साथ समवाय-सम्बन्ध रखते हैं । सामान्य का भी अपने आश्रयस्वरूप द्रव्य, गुण और कर्म के साथ समवाय-सम्बन्ध रहता है । विशेष भी किसी से पीछे नहीं । वे आश्रयस्वरूप नित्य द्रव्यों के साथ ही समवाय-सम्बन्ध रखते हैं । और तो और, अनित्य द्रव्य तक अपने-अपने अवयवों से समवेत रहते ही हैं । समवाय का तो समवाय इसलिए नहीं होता है कि अनवस्था-दोष होगा । 'असमवायत्वे सति' कहने से और पदार्थों की व्याकृति तो हो गई किन्तु समवाय की व्यावृत्ति केसे हो? इसलिए साफ कहते हैं कि अभाव समवाय नहीं है ( असमवायः ) । यदि ऐसा नहीं कहें, तो समवाय-पदार्थ में अतिव्याप्ति होगी अर्थात् अभाव का लक्षण समवाय को भी व्याप्त कर लेगा।]
संक्षेप में अभाव दो प्रकार का होता है-संसर्गाभाव और अन्योन्याभाव । [ संसर्ग का अर्थ है सम्बन्ध । संसर्ग को प्रतियोगी ( विरोधी ) मानकर जो निषेध किया जाता है उसे संसर्गाभाव कहते हैं-एक वस्तु में दूसरी वस्तु के सम्बन्ध का निषेध संसर्गाभाव है। प्रागभाव का जो उदाहरण देते हैं कि घटोत्पत्ति के पहले यहाँ घट नहीं था, तो यहाँ मिट्टी के पिंड में घट के सम्बन्ध का ही निषेध होता है। इसी प्रकार प्रध्वंसाभाव के उदाहरण में कहते हैं कि घटनाश के बाद यहां घट नहीं है । यहाँ मिट्टी के टुकड़ों में घट के सम्बन्ध का निषेध किया जाता है। अत्यन्ताभाव के उदाहरण में कहते हैं कि भूतल में घट नहीं है-इसमें भूतल में ही घट के सम्बन्ध का निषेध होता है। प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव क्रमशः विनाशशील और उत्पत्तिशील होने के कारण अनित्य हैं। अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव नित्य हैं-उत्पत्ति-विनाश से रहित हैं। संसर्गाभाव जहाँ एक वस्तु में दूसरी वस्तु के सम्बन्ध का निषेध करता है, वहाँ अन्योन्याभाव एक वस्तु को दूसरी वस्तु मानने का निषेध करता है। पहले का उदाहरण है-क में ख नहीं है। दूसरे का उदाहरण है-क ख नहीं है।]
संसर्गाभाव तीन तरह का है-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव तथा अत्यन्ताभाव । उनमें प्रागभाव अनित्य तथा सबसे अधिक अनादि होता है। [अनादितम का अर्थ है वैसा अनादि जिसका आदि हो ही नहीं। यों तो किसी पुराने मन्दिर को देखकर यह कह देते हैं कि यह अनादि काल का है। यहां पर यद्यपि मन्दिर अनादि नहीं है, कभी-न-कभी उसका आरम्भ हुना ही होगा, पर मान न होने के कारण उसे अनादि कहा करते हैं। प्रागभाव बेसा