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पातञ्जल-दर्शनम्
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में नहीं हो सकीं तो उनसे योगी योग का साधक नहीं बन सकता ।। ५९ ।। ' ( विष्णु
पुराण; ६।७।४३-४४ ) ।
( २३ क. धारणा और ध्यान )
नाभिचक्रहृदय पुण्डरोकनासाग्रादावाध्यात्मिके हिरण्यगर्भवासवप्रजापतिप्रभृतिके बाह्ये वा देशे चित्तस्य विषयान्तरपरिहारेण स्थिरीकरणं धारणा । तदाह - 'देशबन्धश्चित्तस्य धारणा' ( पा० यो० सू० ३।१ ) इति । पौराणिकाश्च
६०. प्राणायामेन पवनं प्रत्याहारेण चेन्द्रियम् । वशीकृत्य ततः कुर्याच्चित्तस्थानं शुभाश्रये ॥
( वि० पु० ६।७।४५ ) इति ।
नाभिचक्र, हृदय - कमल, नासिका का अग्रभाग आदि शरीर के भीतर के ( आध्यात्मिक ) स्थानों में अथवा हिरण्यगर्भ ( विष्णु ), इन्द्र, प्रजापति आदि [ की मूर्तियों में अर्थात् ] बाह्य स्थानों में अपने चित्त को, दूसरे विषयों से उसे बचाते हुए, दृढ़ ( स्थिर ) कर देना धारणा है। इसे कहा है- 'चित्त को एक स्थान पर दृढ़ करना धारणा है' ( यो० सू० ३।१ ) । पौराणिक लोग भी कहते हैं- 'प्राणायाम के द्वारा वायु को और प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने के बाद किसी अच्छे आधार ( नाभि आदि ) में चित्त को स्थिर करना चाहिए ।' ( विष्णुपुराण, ६।७।४५ ) ।
तस्मिन्देशे ध्येयावलम्बनस्य प्रत्ययस्य विसदृशप्रत्ययप्रहाणेन प्रवाहो ध्यानम् । तदुक्तं - 'तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्' ( पात० यो० सू० ३।२ ) इति अन्यैरप्युक्तम्
६१. तद्रूपप्रत्ययैकाचा सन्ततिश्चान्यनिःस्पृहा । तद्ध्यानं प्रथमंरङ्गः षड्भिनिष्पाद्यते नृप ।
( वि० पु० ६।७।८९ ) इति ।
प्रसङ्गाच्चरममङ्कं प्रागेव प्रत्यपीपदाम ।
उक्त स्थानों में विद्यमान ध्येय ( प्रसन्नमुख, चतुर्भुज, विष्णु आदि) के आकार में परिणत ज्ञान (प्रत्यय) का, असदृश ज्ञानों का त्यागपूर्वक, प्रवाहित होना ध्यान है । स्मरणीय है कि प्रत्याहार में चित्त का स्थिरीकरण होता है और ध्यान में स्थिर किये गये चित्त को उसी दिशा में प्रवाहित होने दिया जाता है । ] इसे कहा गया है - 'उसमें ( धारणा होने पर ) ज्ञान का एक प्रकार का बना रहना ध्यान है' ( यो० सू० ३१२ ) ।
१. तुल० - हृत्पुण्डरीके नाभ्यां वा मूर्ध्नि पर्वतमस्तके | एवमादिप्रदेशेषु धारणा चित्तबन्धनम् ॥