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सर्वदर्शनसंग्रहेवाक्येनादित्यस्य मधुत्वं परिकल्प्यते, तथा तेजोऽबन्नात्मिका प्रकृतिरेवाजेति । अतोऽजामेकामित्यादिका श्रुतिरपि न प्रधानप्रतिपादिका। __चूंकि तेज, जल और अन्न प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए यद्यपि इन्हें 'न जन्म लेने वाला' कहकर यौगिक संज्ञा (वृत्ति ) के रूप में 'अजा' नहीं कह सकते, तथापि रूढ़ि-संज्ञा के रूप में उस प्रकृति को अजा ( बकरी ) इसलिए कहते हैं कि आसानी से समझ में आ जाये। [ उपर्युक्त श्रुति में 'अजा' शब्द आया है । अजा के दो प्रकार के अर्थ हो सकते हैं। एक तो रूढ़िवृत्ति ( Convention ) से बकरी के अर्थ में, दूसरा योगरूढ़ि से 'न जन्म लेनेवाली प्रकृति' के अर्थ में, जो पुरुष के अलावे दूसरा तत्त्व है । ( सांख्य में )। शांकर दर्शन में 'अजा' को केवल रूढ़ि-अर्थ में ही लेते हैं, जिससे 'बकरी' अर्थ ही निष्पन्न होता है। बकरी के अर्थ में अजा-शब्द रूपक के द्वारा प्रमेय का आसानी से बोध कराता है। 'यह ब्राह्मण सूर्य है' जैसे इस रूपक-वाक्य में ब्राह्मण में वर्तमान तेजस्विता का प्रतिपादन करना अभीष्ट है तथा सूर्य के रूपक से प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार अजा ( बकरी ) का बहुत से एक तरह के बच्चे उत्पन्न करने का रूपक लेने से यह ज्ञात होता है कि तेज, जल
और अन्न से बनी हुई भूतप्रकृति भी बहुत से सरूप विकारोंको उत्पन्न करती है । ] जैसे'वह आदित्य देवताओं के मधु है' ( छां० ३।१।१ ) इसमें तथा अन्य वाक्यों में आदित्य के मधु ( मोहक-देवमोहक ) होने की कल्पना की गयी है, वैसे ही तेज, जल और अन्न से निर्मित प्रकृति ही अजा है। [ अग्नि में दी गयी आहुति आदित्य के पास उपस्थित होती है। इस नियम से अग्नि में दिये गये सोम, घृत, दूध आदि द्रव्यों को आहुति किरणों के द्वारा रस के रूप में आदित्य के पास पहुँचती है । जैसे मधुकर फूलों से रस लेकर मधु का संचय करते हैं, वैसे हो मन्त्ररूपी मधुकर वेदों में कहे गये कर्मरूपी फलों से, द्रव्यों से निष्पन्न अमृत, किरणों के द्वारा सूर्यमण्डल में ले आते हैं । इस आदित्यामृत को देखकर देवता तृप्त होते हैं। यही कारण है कि आदित्य को मधु कहा गया है ] ।
इसलिए 'अजामेकाम्' ( श्वे० ४।५) इत्यादि श्रुति भी प्रधान (प्रकृति ) का प्रतिपादन करनेवाली नहीं है।
विशेष-'अजा' का अर्थ अजन्मा न लेकर बकरी ( छाग ) लेने से शंकर को मौका मिल जाता है कि प्रकृति को एक पृथक् तत्त्व स्वीकार न करके दृश्यमान जगत में व्यावहारिक वस्तु मान लेंगे। यदि प्रकृति अजा ( अजन्मा ) होती, तो ब्रह्म की तरह ही इसकी स्वतन्त्र सत्ता माननी पड़ती। इस प्रकार सांख्य-दर्शन में प्रकृति की सिद्धि के लिए दी गई श्रुति का दूसरा अर्थ लेकर श्रुति-प्रमाण से भी प्रकृति की सिद्धि नहीं होने दी गई। शांकरदर्शन में प्रकृति संसार को कहते हैं, जो पारमार्थिक दृष्टि से मिथ्या है।
(१ ख. सांस्य-वर्शन के दृष्टान्त का खण्डन ) यववादि निदर्शनं पूर्ववाविना क्षीरादिकमचेतनं चेतनानधिष्ठितमेव