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सर्वदर्शनसंग्रहे
हो, अपने निषय का आवरणरूप हो, अपने ही द्वारा निवृत्त हो सकता हो तथा अपने ही स्थान से सम्बद्ध ( स्वदेशगत ) हो । ( प्रतिज्ञा )
( २ ) क्योंकि वह अप्रकाशित पदार्थ का प्रकाशक है । ( हेतु )
( ३ ) जैसे अन्धकार में पहले-पहल उत्पन्न दीपक की प्रभा होतो है । ( उदाहरण )
[ प्रतिज्ञा के वाक्य में वस्त्वन्तर के चार विशेषण दिये गये हैं । सबों में 'स्व' शब्द लगा है जिससे प्रमाणज्ञान का बोध होता है । वह वस्त्वन्तर वास्तव में अविद्या ही है । उसके बिना कोई भी वैसा नहीं बन सकता । इस अनुमान से अविद्या की सिद्धि होती है, क्योंकि 'अयं घट:' इस प्रमाणज्ञान के स्थान में प्रमाणज्ञान के पहले अविद्या रहती है । किन्तु, चूंकि वह भी प्रमाणज्ञान की अपेक्षा रहती है इसलिए वस्त्वन्तर कहलाती है । प्रमाणज्ञान के आश्रय अर्थात् आत्मा में रहने से स्वदेशगत कहलाती है । प्रमाणज्ञान से ही उसका विनाश होता है इसीलिए वह स्वनिवर्त्य है । प्रमाणज्ञान का विषय अर्थात् घट का आवरण करती है इसीलिए स्वविषयावरण है । अविद्या प्रमाणज्ञान के प्रागभाव से भिन्न रूप में स्वीकृत की जाती है इसीलिए स्वप्रागभावव्यतिरिक्त है । इन विशेषणों से विभूषित वस्त्वन्तर यदि अविद्या के अलावे कोई दूसरी हो तो बतलावें ! इस साध्यांश के किसी टुकड़े को छोड़ देने पर अविद्या की सिद्धि में बाधा पहुँचेगी । उसका निरूपण अब करते हैं । ]
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( १ ) यदि केवल 'वस्तु के पश्चात् ' ( वस्तुपूर्वकम् ) इतना कहते तो [ प्रमाणज्ञान का आश्रय स्वरूप ] आत्मारूपी वस्तु के बाद होने के कारण [ वह आत्मा अविद्या से ] पृथक् पदार्थ हो जायगी । इसीलिए वस्त्वन्तर शब्द का प्रयोग किया गया है । [ 'वस्त्वन्तर' का प्रयोग करने से आत्मा प्रमाणज्ञान से पृथक् वस्तु सिद्ध नहीं होती क्योंकि वस्त्वन्तर = अपने से या स्वाश्रय से भिन्न । ]
( २ ) अब यदि इसी प्रकार केवल वस्त्वन्तर को विषय ( साध्य ) के रूप में रखें तो [ प्रमाणज्ञान के विषय जो घट आदि वस्तुएं हैं वे अविद्या की अपेक्षा ] भिन्न पदार्थ यँ । इसीलिए स्वदेशगत शब्द लगाया गया है । [ अपने प्रमाणज्ञान का आधार आत्मा है, उसमें स्थित घटादि नहीं । ]
( ३ ) अदृष्ट ( धर्म और अधर्म ) आदि ( = सुखादि आत्मगत ) पदार्थों की व्यावृत्ति ( Exclusion ) के लिए स्वनिवर्त्य शब्द प्रवृत्त हुआ है । [ स्वदेशगत कहने से तो आत्मा के अन्दर के सारे पदार्थ - धर्म, अधर्म, सुख, दुःख, इच्छा आदि - भी चले आयेंगे । इसीलिए स्वनिवर्त्य लगाया गया है कि अविद्या से केवल प्रमाणज्ञान के द्वारा निवर्त्य वस्तु काही बोध हो । ]
उत्तरज्ञाननिवत्यं प्रथमज्ञानं निवर्तयितुं स्वविषयावरणेति । प्रागभावं प्रतिक्षेप्तुं स्वप्रागभावव्यतिरिक्तेति । स्वप्रागभावव्यतिरिक्तपूर्वकमित्युक्ते विषयेणार्थान्तरता । तदर्थं विषयावरणेति । तादृशमन्धकारं व्यासेधुं