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सर्वदर्शनसंग्रहे
ब्रह्महत्यां प्रमुच्येत तस्मिन्स्नात्वा महोदधौ ।
इत्यादिस्मृतिविहितब्रह्मचर्याङ्गसहित दूरतरदेशगमनसाध्यब्रह्महनननिवृत्तिफलक- सेतुस्नानप्रशंसार्थत्वात् । यस्य हि दर्शनमात्रेणैव दुरितोपशमः किमुत स्नानेन ? अन्यथा दूरगमनानर्थक्यं प्रसजेत् । तत्र खरादीनामप्यनर्थनिवृत्ति रापतेत् । अन्धस्य न स्याच्च ।
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'उस स्थान पर समुद्र में स्नान करने से व्यक्ति ब्रह्महत्या से छूट जाता है - इस प्रकार स्मृतियों में विहित, ब्रह्मचर्यरूपी अंग के साथ अधिक दूरस्थ देश में जाने से सम्पन्न होनेवाले सेतु स्नान की प्रशंसा की गई है जिस ( सेतु स्नान ) से ब्रह्महत्या की निवृत्ति के रूप में फल मिलता है । जिसे केवल देखने से ही पापों का शमन होता है, स्नान की तो बात ही क्या ? यदि ऐसा नहीं होता तो दूर जाने का परिश्रम व्यर्थ हो जाता । दूसरे [ सेतु के पास रहनेवाले ] गधे आदि जानवरों के अनर्थों की भी निवृत्ति हो जाती । [ वे तो आसानी से सेतु देख सकते हैं, स्नान भी कर सकते हैं । फल तो उसे ही मिलता है जो दूर से श्रद्धापूर्वक कष्ट सहते हुए तीर्थयात्रा करके वहाँ पहुँचता है । ] अन्त में यह भी आपत्ति होगी कि अन्धों को तो उक फल नहीं मिलेगा [ क्योंकि उन्हें आँख ही नहीं कि दर्शन कर सकें । ]
ननु -
५६. अग्निचित्कपिला राजा सती भिक्षुर्महोदधिः दृष्टमात्रा: पुनन्त्येते तस्मात्पश्येत नित्यशः ॥
इति क्वचिद्दर्शनक्रियाया अपि विधानं दरीदृश्यत इति चेत् — मैवं वोचः । तत्राप्यनयैवानुपपत्त्या अग्निचिदाद्यर्घपरिचर्यादावेव तात्पर्यावधारणात् ।
शंका -- निम्नलिखित वाक्य में तो दर्शन-क्रिया का भी विधान देखते हैं - ' अग्नि का चयन करनेवाला यजमान, कपिला गौ, राजा, सती स्त्री, भिक्षुक ( परमहंस ) और महासागर, ये दिखलाई पड़ते ही पवित्र कर देते हैं । अतः इन्हें प्रतिदिन देखना चाहिए ।। ५६ ।। ' [ इसका अभिप्राय है कि कहीं-कहीं दर्शन क्रिया का भी विधान होता है । ]
समाधान - - ऐसा मन कहो । वहाँ पर भी इसी की असिद्धि दिखाकर अग्निचेता ( यजमान ) आदि योग्य पदार्थों की परिचर्या करने का ही तात्पर्य निरूपित किया जाना है ।
यच्चोक्तं विषयदोषदर्शनात् रागो दन्दह्यत इति । तत्र विषयदोषदर्शनेन विरोधभूतानभिरतिसंज्ञक वैराग्यैकप्रादुर्भावाद्रागनिवृत्तौ तददर्शनमात्रमिति न व्यभिचारः ।