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सर्वदर्शनसंग्रहेअद्वैतभङ्गप्रसङ्गात् । न द्वितीयः। असम्भवात्' इति । तत्र । अविद्यापरिकल्पितभेदनिवत्तिपरत्वेन तत्त्वमस्यादितादात्म्यवादप्रामाण्योपपत्तेः । तौ च पर्यनुपयोगपरिहारावग्राहिषातां मनीषिभिः ।
५९. न द्वयोरस्ति तादात्म्यं च चैकस्याद्वयत्वतः।
अप्रामाण्यं श्रुतेरवं नारोपध्वंसमात्रतः ॥ इति । इसी तर्क के द्वारा इसका उत्तर भी हो गया, जो विरोधियों ने ऐसी शंका की है'[ आत्मा और ब्रह्म का तादात्म्य कहने से आप क्या समझते हैं ? ] दो पदार्थों का तादात्म्य ( Identity ) या एक ही पदार्थ का ? दो पदार्थों का तादात्म्य नहीं मान सकते क्योंकि [ 'दो' कहने से- भले ही वह एकाकार ही क्यों न हो जाय ] अद्वैत-सिद्धान्त का ही खण्डन हो जायगा । दूसरी ओर एक वस्तु का तादात्म्य हो ही नहीं सकता।'
समाधान-ऐसी बात नहीं है। अविद्या के द्वारा कल्पित भेद की निवृत्ति हो जाने का सिद्धान्त मानने से, 'तत्त्वमसि' आदि के द्वारा तादात्म्य-शब्द की सिद्धि हो सकती है।
विद्वानों ने उक्त पर्यनुपयोग ( प्रश्न, Query ) तथा परिहार ( Excuse ) दोनों का वर्णन किया है-'अद्वय-तत्त्व होने के कारण न तो दो में ही तादात्म्य हो सकता और न एक में ही । केवल आरोप और उसके ध्वंस से श्रुति को अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता ॥ ५९॥'
(२६. प्रथम सूत्र का उपसंहार और अनुबन्ध ) ततश्च तत्त्वमसीति तत्त्वंपदार्थश्रवणमननभावनाबलभुवा साक्षात्कारेणानाद्यविद्यानिवृत्तौ सच्चिदानन्दकरसब्रह्माविर्भावः सम्पत्स्यत इति ब्रह्मणो जिज्ञास्यत्वं प्रथमसूत्रोक्तं युक्तम् । ६०. अज्ञातं विषयो ब्रह्म ज्ञातं तच्च प्रयोजनम् ।।
मुमुक्षुरधिकारी स्यात्सम्बन्धः शक्तितः श्रुतेः ॥ इति । उसके बाद, 'तत्त्वमसि' वाक्य में तत् ( ब्रह्म ) और त्वम् ( जीवात्मा ) पदों से अर्थ का श्रवण, मनन और भावना ( Meditation ) के कारण सुप्रतिष्ठित साक्षात्कार से, अनादि काल से चली आनेवाली अविद्या की निवृत्ति हो जाती है । तब एकमात्र सत् ( Truth ), चित् ( Consciousness ) और आनन्द ( Bliss ) के द्वारा आस्वादित ब्रह्म का आविर्भाव ( साक्षात्कार ) सम्पन्न हो जायगा-इस प्रथम सूत्र में जो ब्रह्म को जिज्ञासा का विषय माना गया है, वह युक्तियुक्ति है।
__ अनबन्ध-'जिज्ञासा का विषय ब्रह्म अज्ञात है उसे ज्ञान करना है, यही प्रयोजन है । मोक्ष की इच्छा रखनेवाला व्यक्ति अधिकारी है और श्रुति की [ पदार्थबोधिका ] शक्ति से सम्बन्ध है ।। ६० ॥'