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सर्वदर्शनसंग्रहे
( २५. आत्मज्ञान से अविद्या-नाश-राजपुत्र का दृष्टान्त ) यदि वस्तुतः सर्वोपद्रवरहितमात्मतत्त्वं तहि कथंकारं देहादिरूपं कारागारं कारंकारं पुनः पुनस्तत्र प्रविशति । तदतिफल्गु । अविद्याया अनादित्वेन दत्तोत्तरत्वात् । अतो निवृत्त्युपाय एवान्वेषणीयः प्रेक्षावता । न तु विस्मयः कर्तव्यः। ततश्च तत्त्वमस्यादिविद्यया तदविद्यानिवृत्तौ निरतिशयानन्दात्मलाभरूपपरमपुरुषार्थः सेत्स्यति । तथा चापस्तम्बस्मृतिःआत्मलाभान्न परं विद्यत इति ।
शंका-यदि आत्म-तत्त्व वास्तव में सभी उपद्रवों से रहित है तो वह किसलिए शरीरादि के रूप में कारागार को उत्पत्ति बार-बार करके उसमें प्रवेश करता रहता है ?
उत्तर-यह पूछना बिल्कुल व्यर्थ है । जिस समय हमने अविद्या को अनादि मान लिया उसी क्षण इसका उत्तर दे दिया गया । अब आपको [ शङ्काओं के फेरे में न पड़कर ] उस अविद्या को निवृत्ति का मार्ग खोजना चाहिए, आप बुद्धिमान हैं न ? विस्मय ( व्यर्थ की शंका, आश्चर्य ) नहीं करना चाहिए ।
तो 'तत्त्वमसि' ( छां० उ० ६१८१७ ) आदि के ज्ञान ( विद्या ) से युक्त अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर निरतिशय ( Most exalted ) आनन्द ( Bliss ) से युक्त आत्मसाक्षात्कार ( Self-realisation ) के रूप में परम पुरुषार्थ ( Summum bonum ) की सिद्धि हो जायगी। इसे आपस्तम्ब-स्मृति में कहा गया है-आत्म-लाभ ( साक्षात्कार, आत्मा और ब्रह्म की एकता ) से बढ़कर कोई वस्तु नहीं।
नन्वसौ नित्यलब्धः। न हि स्वयमेव स्वस्यालब्धो भवति । सत्यम् । किं त्वनादिमायासम्बन्धात्क्षीरोदकवत्समुदाचारवृत्तितां न लभते । तथा च यथा शबरादिभिर्बाल्यात्स्वसुतैः सह वधितो राजपुत्रस्तज्जातीयमात्मानमवगच्छन्बन्धुभिर्य एवंभूतो राजा स त्वमसीति बोधिते स्वरूपे लब्धस्वरूप इव भवति तथा वेश्यास्थानीययाऽनाद्यविद्यया स्वभावान्तरं नीत आत्मा मातृस्थानीयया तत्त्वमसीत्यादिकया श्रुत्या स्वभावं नीयते ।
शंका -वह आत्मा तो नित्यरूप से ( Eternally ) लब्ध ही है । [ आप 'आत्मलाभ होने पर' क्यों कहते हैं ? ] कोई चोज अपने-आप अपने ही लिए अलभ्य नहीं होती (= आत्मा के लिए ही आत्मा क्या दुर्लभ है ? वह तो आत्मा ही है। ) समाधान-सच कहते हो लेकिन वह ( आत्मा ) अनादि माया के सम्बन्ध से दूध और पानी के समान इस तरह घुली-मिली है कि दोनों की स्पष्ट वृत्तियों ( रूपों) की प्रतीति होती ही नहीं । बुद्धि-आदि माया के कार्य हैं किन्तु आत्मा उन्हें अपना समझती है, उनसे पृथक् होकर
१. तुलनीय-बौद्ध-दर्शन, पृ० ७७ ।