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सर्वदर्शनसंग्रहे
तत्रेदं भवान्पृष्टो व्याचष्टाम् । कतिपयपुरुषकतिपयकाला बाधितत्वं हेतुविशेषणं क्रियते सर्वथा बालवैधुर्यम् वा ? न प्रथमः ।
५३. यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः कुशलं रनुमातृभिः । अभियुक्त तरंरन्यै रन्यथैवोपपाद्यते ॥
( वाक्यपदीय० १३४ ) इति न्यायेन त्रिचतुरप्रतिपत्तृप्रतिपादितस्यापि प्रतिपत्त्रन्तरेण प्रकारान्तरमुररीकृत्य प्रतिपादनात् ।
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हेतु ( भास
अर्थ है ? कुछ
प्रकार से बाध
उक्त
इस विषय में हम आपसे जो पूछते हैं, उसका उत्तर दीजिये । मानत्व ) का विशेषण ( अबाधित ) जो आपने दिया है, उसका क्या व्यक्तियों के लिए या कुछ निश्चित समय में बाध न होना ? या सब रहित होना ?
अनुमान प्रयत्न
कुशल हैं एवं
पहला विकल तो नहीं होगा क्योंकि यह नियम है - 'जिस वस्तु का पूर्वक भी किया गया हो किन्तु दूसरे लोगों के द्वारा, जो अनुमान करने में अधिक योग्य प्रतिवादी ( अभियुक्त = Discutient ) हैं, वह वस्तु दूसरे ही रूप में सिद्ध की जाती है ।' ( वाक्यपदीय, १1३४ ) – इस नियम से जिस वस्तु का प्रतिपादन तीनचार ( कतिपय ) प्रतिपादकों ने भले ही किया हो किन्तु दूसरे प्रतिपादकों के द्वारा दूसरे प्रकार से उसकी सिद्धि हो सकती है । [ तात्पर्य यह हुआ कि कुछ समय में और कुछ व्यक्तियों के लिए अबाधित न होने से काम नहीं बनता । दूसरे समय में और कुछ व्यक्तियों के लिए तो उसका बाध सम्भव । ज्ञानियों की दृष्टि से आत्मा पर अध्यस्त प्रपञ्च का बाध हो सकता है । इसे आगम प्रमाण से ही जानते हैं । ]
नापि चरमः । सर्वथा बाधवैधुर्यस्यासर्वज्ञदुर्ज्ञेयत्वात् । यद्येवं हन्त, तहि ज्ञानात्मनोऽपि सत्यत्वं नावगम्यत इति चेत् — मैवं मंस्थाः । ' तत्सत्यं स आत्मा' ( छा० ६।८।७ ) इत्यागमसंवादगतेः । न च प्रपञ्चेऽप्ययं न्याय इति मन्तव्यम् । तादृशस्यागमस्यानुपलम्भात् । प्रत्युताद्वितीयत्वं श्रावयन्त्याः श्रुतेः प्रपञ्च मिथ्यात्व एव पक्षपातात् ।
दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं, क्योंकि हम लोग सर्वज्ञ नहीं हैं इसलिए किसी का सब तरह से बाधरहित होना हमलोग जान नहीं सकते ।
[ अब पूर्वपक्षी अपना खण्डन देखकर घबरा जाते हैं और वेदान्तियों से पूछते हैं कि ] यदि ऐसी बात है तब तो ज्ञानस्वरूप आत्मा की सत्यता भी नहीं ही जानी जा सकती है ? [ ज्ञानस्वरूप आत्मा किसी भी अवस्था में बाधित नहीं होगी, इसका पता हम असर्वज्ञों को कैसे हो सकता है ? ] हम कहेंगे कि ऐसा मत समझो । आगम के संवाद ( समन्वय ) से उसकी प्रामाणिकता मालूम होती है - 'वह सत्य है, वह आत्मा है' ( छा० ६ |८|७ ) |