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सर्वदर्शनसंग्रहे
प्रकाशक नहीं हैं अतः उन दोनों में सम्बन्ध नहीं होगा, ऐसी शंका न करें। प्रकाश का अर्थ अन्धकार का नाशक ही यहाँ पर लिया गया है। इस रूप में दोनों ( पक्ष-प्रमाणज्ञान, दृष्टान्त प्रभा) में एकता तो है ही ।'
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नरेन्द्रगिरि श्रीचरण ने तो ऐसे कहा है- 'अप्रकाशित पदार्थ को प्रकाश में लाने का व्यवहार हेतु का अर्थ है जो प्रकाश और ज्ञान दोनों में अनुगत ( Common ) है । इसलिए असिद्धि आदि की कल्पना न करें ।
( २१. शब्द - प्रमाण से अविद्या की सिद्धि )
श्रुतेश्व | 'भूयश्वान्ते विश्वमायानिवृत्तिः' (श्वे० १।१० ) इत्यादिका श्रुतिः ।
५२. तरत्यविद्यां विततां हृदि यस्मिन्निवेशिते ।
योगी मायाममेयाय तस्मै विद्यात्मने नमः ॥ इति च । एतेन तत्प्रत्युक्तं यदुक्तं भास्करेण क्षपणकचरणं प्रमाणशरणे, 'भेदाभेदवादिनां भावरूपमज्ञानं नास्ति किं तु ज्ञानाभाव' इति ।
[ अविद्या की सिद्धि के लिए ] श्रुति -प्रमाण भी है । 'पुनः अन्त में संसार रूपी माया ( या सारी माया ) की निवृत्ति हो जाती है' ( श्वे० १1१० ) - इस तरह की श्रुति है । यह भी [ स्मृति-वाक्य के रूप में ] है - 'हृदय में जिस ( ब्रह्म ) के निविष्ट कर दिये जाने पर योगी फैली हुई अविद्या या माया को पार कर जाते हैं वैसे अमेय ( अज्ञेय ) ज्ञानस्वरूप ब्रह्म को नमस्कार है ।'
इन तकों से ही भास्कराचार्य की उस उक्ति का खण्डन हो गया जिसे उन्होंने बौद्धसम्मत प्रमाणों का विवेचन करते हुए ( ? ) स्पष्ट किया है कि भेदाभेद-वादियों के यहाँ अज्ञान भावरूप नहीं है, किन्तु ज्ञानाभाव है ।
तथा च भास्करप्रणीतशारीरकमीमांसाभाष्यग्रन्थः । यदेव पररूपादर्शनं सैवाविद्येति । भावरूपाज्ञानानभ्युपगमे जीवेश्वरादिविभागानुपपत्तेः । न च भाविकः परमात्मनोंऽशो जीव इति वाच्यम् । 'निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्' ( श्वे ० ६ । १९ ) इत्यादिश्रुतिविरोधात् ।
भास्कराचार्य के द्वारा रचित शारीरक-मीमांसा ( ब्रह्मसूत्र ) के भाष्य का यही कथन है । पररूप का जो दिखलाई न पड़ना है, वही अविद्या है ।
पर अब हमारा ( अद्वैतवेदान्तियों का ) यह कहना है कि भावरूप अज्ञान यदि स्वीकार नहीं करें तो जीव और ईश्वर के विभाग की सिद्धि नहीं होगी । लेकिन आप ऐसा न समझ लें कि सचमुच ( भाविक = real, सत्य ) जीव परमात्मा का अंश ही है क्योंकि वैसा मानने से इस श्रुत-वाक्य का विरोध होगा - ' [ वह ब्रह्म ] कलाओं या अंशों से