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सर्वदर्शनसंग्रहे
आप ही अपने रूप का विश्लेषण करता है [ प्रमाणों के आधार पर नहीं । ] अतएव
यह त्याज्य मत 1
तो इस प्रकार ज्ञाता, ज्ञेय आदि का यह प्रपञ्च, जो प्रत्यगात्मा ( जीवात्मा ) में प्रतीत होता है, अनादि अविद्या से युक्त है । अब अधिक क्या बढ़ायें ?
विशेष - यह आश्चर्य है कि सायण-माधव ने एक अवैदिक सम्प्रदाय - शेवों का वर्णन तो अपने दर्शनसंग्रह में किया है, पर उस सम्प्रदाय से अन्यूनतर महत्त्ववाले शाक्तसम्प्रदाय का केवल उल्लेख करके ही छोड़ दिया । वास्तव में शाक्त-सम्प्रदाय और तान्त्रिक मत एक दिन अपने यौवन के आकाश में थे। दोनों के अपने-अपने सिद्धान्त थे । नाना प्रकार की क्रियाओं और विधियों से ये मत अत्यन्त चमत्कारपूर्ण थे । प्रत्येक प्रतीक का एक अर्थ था जिन्हें हम आज भ्रमवश भूल बैठे हैं । यहाँ उनका विवेचन समोचीन नहीं है । शैवों की तरह शाक्तों के भी आगम हैं जिन्होंने कुछ विदेशी पण्डितों को भी आकृष्ट किया है | दुःख है कि आज आगम के ज्ञाता तो दूर उन पर विश्वास करनेवालों का भी अभाव हो गया है ।
( २३. संसार अविद्या -कल्पित है - शंका-समाधान )
ननु किमर्थं प्रमातृत्वादीनामाविद्यकत्वं निगद्यते । ब्रह्मज्ञानेन निवर्तनाय जीवस्य ब्रह्मभावाय वा ? न प्रथमः । शास्त्रप्रामाण्यादेव सत्यस्यापि ज्ञानेन निवृत्तेरुपपत्तेः । उपलम्भाच्च । तथा हि
सेतुं दृष्ट्वा विमुच्येत ब्रह्मा ब्रह्महत्यया । इत्यादिना पापं सनीस्त्रस्यते । विषयदोषदर्शनेन रागो दन्दह्यते । तार्यध्यानेन विषं शम्यते । एवं कर्तृत्वादिबन्धः पारमार्थिकोऽपि तत्त्वज्ञानेन निवर्त्येत ।
शंका - ज्ञाता होना आदि भावों को आप अविद्याकल्पित ( मिथ्या ) क्यों मानते हैं ? क्या इसलिए कि ब्रह्मज्ञान से उसकी निवृत्ति हो सके ? [ स्मरणीय है कि मिथ्या वस्तु की ही निवृत्ति ज्ञान से होती है, सच्ची वस्तु की नहीं । इसलिए प्रपञ्च को सम्भवतः सत्य नहीं मानते होंगे । ] या इसलिए मानते हैं कि जीव को ब्रह्मत्व की प्राप्ति हो ? [ यदि जीव में ज्ञातृत्व आदि धर्म सत्य होते तो जीव को विशेषसहित मानना पड़ता और वेसी स्थिति में निर्विशेष ब्रह्म के साथ तादात्म्य नहीं हो सकता । यों शुद्ध जीव और ब्रह्म का तादात्म्य हो जाता है । ]
इनमें पहला विकल तो ठीक नहीं है क्योंकि शास्त्रों के प्रमाण से ही यह सिद्ध है कि ज्ञान से [ न केवल मिथ्या वस्तु की, प्रत्युत ] सत्य पदार्थ की भी निवृत्ति होती है [ मुण्डकोपनिषद् ( ३।२।९ ) के इस वाक्य में बतलाया हैं कि ब्रह्मज्ञान से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है - 'ब्रह्म वेद ब्रह्मेव भवति' । अब यह ब्रह्मत्व तभी होता है जब जीव की उपाधियों