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शांकर-दर्शनम्
( External qualifications ) का नाश हो जाय ।' तो जीव की मन-बुद्धि आदि उपाधियों की निवृत्ति होने पर भी प्रमारूप ब्रह्मज्ञान से उनकी ( सत्य उपाधियों की ) निवृत्ति हो सकती । उपाधिनाश के पहले जीव ब्रह्मत्व पा नहीं सकता | ] दूसरी बात यह है कि ऐसी बातों की प्राप्ति भी होती है, जैसे- 'ब्राह्मण का हत्यारा व्यक्ति [ रामचन्द्र के रामेश्वर ] पुल को देखकर ब्रह्महत्या से विमुक्त हो जाता है।' इन पापों के त्रस्त होने का वर्णन है । विषयों में दोष देख लेने से राग ( अनुरक्ति, आसक्ति, attachment ) का दहन ( नाश ) होता है, और गरुड़जी ( तार्क्ष्य ) के ध्यान से विष उतर जाता है । [ ये सारे कार्य सत्य ( Real ) हैं, मिथ्या नहीं । इनकी निवृत्ति तो ज्ञान से ही होती है । ]
तो इसी प्रकार कर्तृत्व, ज्ञातृत्वादि बन्धन [ जो जीवों में लगे हैं यदि वे ] सत्य भी हों (माने जायें) तो क्या आपत्ति है ? तत्त्वज्ञान से उनकी निवृत्ति हो जायगी । [ इसलिए ब्रह्मज्ञान से निवृत्ति होने के लिए बन्धों ( Bondage ) को मिथ्या मानने की आवश्यकता नहीं । सत्य मानने पर भी कार्य में अन्तर नहीं पड़ेगा । ]
न चरमः । औपाधिकस्य जीवभावस्योपाधिनिवृत्त्या निवृत्तौ ब्रह्मभावसम्भवात् । तस्माद् बन्धस्याविद्यकत्ववाचोयुक्तिः सावद्येति चेत्-नैतदनवद्यम् । सत्यस्यात्मवज्ज्ञाननिवर्त्यत्वानुपपत्तेः । बन्धस्य मिथ्यात्वमन्तरेण शास्त्राप्रमाण्यादपि तदसिद्धेश्व । शास्त्रमपि -
लोकावगतसामर्थ्यः शब्दो वेदेऽपि बोधकः ।
लोकावलोकितां पदर्शाक्त पदार्थयोग्यतां चोररीकृत्य
इति न्यायेन प्रचरतीति ।
ज्ञातृत्व
= आपका कहना गलत
दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं, क्योंकि आधियों की निवृत्ति के बाद औपाधिक जीवत्व की निवृत्ति होने पर तो ब्रह्मत्व की प्राप्ति सम्भव ही है । इसलिए बन्ध ( कर्तृत्व, आदि सम्बन्ध भाव ) को अविद्या- कल्पित कहने की बात दोषों से भरी हुई है । समाधान - आपका दोषारोपण भी दोषरहित नहीं है ( है । जिस प्रकार [ सत्य ] आत्मा की निवृत्ति ज्ञान से होती है उस तरह [ मन आदि पदार्थों को ] सत्य मानने से उनकी निवृत्ति ज्ञान के द्वारा नहीं हो सकती । [ उपाधियों को मिथ्या सिद्ध करने के ही अभिप्राय से शास्त्र उपाधि की निवृत्ति का प्रतिपादन करते हैं । यही कहते हैं । ] बन्धों ( Qualifications ) को बिना मिथ्या माने, शास्त्रों के प्रमाण से भी उसकी असिद्धि ही होती है । [ जहाँ पर शास्त्रों में युक्ति से विरुद्ध अर्थ की प्रतीति हो वहां युक्तिसंगत अर्थ को ही शास्त्र का तात्पर्य मानना चाहिए । ]
१. तुल० -- आत्मोपनिषद् ( १1१६ ) -
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घटे नष्टे यथा व्योम व्योमैव भवति स्वयम् । तथैवोपाधिविलये ब्रह्मेव ब्रह्मवित्स्वयम् ॥