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शकरदर्शनम्
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इन्द्रियों को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । अनुमिति का साधक लिंग - परामर्श अनुमान है । शाब्दज्ञान का साधक शब्द भी प्रमाण है । सो ये प्रमाण हेतु से तो युक्त हैं क्योंकि अप्रकाशित अर्थ का प्रकाशन करते हैं किन्तु साध्य यहाँ नहीं है, क्योंकि उक्त वस्त्वन्तर के बाद ये नहीं होते । व्यभिचार की शंका का निवारण करते हैं कि प्रमाण उक्त वस्तु के प्रकाशक नहीं हैं। प्रमाणों से उत्पन्न ज्ञान ही वस्तुओं का प्रकाशन कर सकता है । ]
इसे देवताधिकरण में कल्पतरु के रचयिता ( अमलानन्द ) कहा है- 'अनुमानादि प्रमाणों के द्वारा असता को निवृत्ति करते हैं । ( अर्थात् वस्तु की सत्ता को लेकर विवाद करनेवाले व्यक्ति में सन्देह मिटा देते हैं कि यह असत् है । सत्ता को सिद्धि फिर ज्ञान से होती है । )
ननु साधनविकलो दृष्टान्त इति चेन्न । प्रकाशशब्देन तमो विरोध्याकारस्य विवक्षितत्वात् । तदुक्तं विवरणविवरणे सहजसर्वज्ञविष्णुभट्टोपाध्याय: - ' न चात्र पक्षदृष्टान्तयोरेकप्रकाशरूपानन्वयः शङ्कनीयः । तमोविरोध्याकारो हि प्रकाशशब्दवाच्यः । तेनाकारेणैक्यमुभयत्रास्ति' इति ।
नरेन्द्रगिरिश्रीचरणैस्त्वित्थमुक्तम् --- 'अप्रकाशितप्रकाशव्यवहारहेतुत्वं हेत्वर्थः । तस्य चोभयत्रानुगतत्वान्नासिद्धयादिरिति । '
अब यदि कोई कहे कि आपका दृष्टान्त ( प्रभा ) साधन से रहित है [ क्योंकि प्रभा स्वयं तो अर्थ का प्रकाशन नहीं करती । अर्थ- प्रकाशन ज्ञान ही करता है । अर्थ- प्रकाशन = अर्थ का स्फुरित होना । प्रभा केवल अन्धकार हटाकर इन्द्रियों की सहायता करती है । तो, अर्थ- प्रकाशन न होने के कारण प्रभा साधन रहित है - वह दृष्टान्त नहीं बन सकती । यदि आप ज्ञानस्फुरण के सहायकों को भी प्रकाशकों की श्रेणी में लेते हैं तो इन्द्रियों का क्या अपराध है ? उन्हें भी प्रकाशक मानें । ] तो हम कहेंगे कि ऐसी बात नहीं है, क्योंकि 'प्रकाश' शब्द का अर्थ [ हम अर्थस्कुरण न लेकर ] केवल अन्धकार के विरोधी रूप में लेते हैं । [ अन्तःकरण की वृत्ति आन्तरिक अन्धकार दूर करती है, प्रभा बाहरी अन्धकार दूर करती है । विषय का स्फुरण तो दूसरे रूप में होता है जो हम देख ही चुके हैंबुद्धितत्स्थचिदाभासौ द्वावपि व्याप्नुतो घटम् । तत्राज्ञानं धिया नश्येदाभासेन
घटः स्फुरेत् ॥
( पञ्चदशी ७/९१ )
इन्द्रियों की बात आपने उठायी है । वे अन्तःकरण को मार्ग दिखाकर सहायता करनी हैं, अन्धकार को दूर नहीं करतीं । इसलिए वे प्रकाशक नहीं हैं । ]
इसे विवरण का विवरण ( टीका ) करते हुए जन्मजात सर्वज्ञ श्री विष्णुभट्ट उपाध्याय ने कहा है – 'यहाँ ( उक्त अनुमान में ), पक्ष और दृष्टान्त दोनों एक प्रकार से