________________
७३८
सर्वदर्शनसंग्रहे
वेदान्ती उत्तर देते हैं कि ठीक कहते हो, किन्तु [ अधिकरण और अभाव में ] भेद सिद्ध हो जाय तब तो ? और भेद की सिद्धि होगी प्रमाण से ही ( = अभाव-विषयक प्रत्यक्षादि से ) । वह प्रमाण भी तभी काम दे सकता है जब प्रतियोगी (घट ) के अभाव के आधार ( भूतल ) से उसे भिन्न तत्त्व माने । [ परन्तु यह होता नहीं। भेदसिद्धि के बाद प्रमाण भिन्नासिद्धि-विषयक होता है और वैसा होने पर ही प्रमाण भेद की सिद्धि करता है-इस प्रकार अन्योन्याश्रय-दोष से तो वह ग्रस्त है । अत: अभाव भिन्न तत्त्व के रूप में सिद्ध नहीं होता।] ____ अब पुनः शंका होगी कि घट से युक्त भूतल में भी घटाभाव का ज्ञान और घटाभाव का व्यवहार होने लगेगा। [ यदि आप अभाव को भावात्मक मानते हैं तो ये दशाएं होंगी ही। ] हमारा उत्तर है कि प्रतियोगी के साथ जिस अधिकरण ( आधार ) का अनुभव हो रहा है उसमें तो ये ज्ञान और व्यवहार नहीं हो सकते। [ जहाँ प्रतियोगी (विरोधी) साक्षात् रहे वहाँ ये भले ही नहीं रहें किन्तु जब प्रतियोगी का स्मरण होने पर अधिकरण का अनुभव हो रहा हो तब तो इनका ग्रहण होगा ही ( = ज्ञान और व्यवहार दोनों होगा ) इसे ही आगे बतला रहे हैं-] ___ प्रतियोगिस्मरणे सत्यनुभूयमानेऽधिकरणे तु स्याताम् । एवमप्युपपत्तो न तत्त्वान्तरविषयत्वं कल्प्यम। काऽनुपपत्तिरिति चेद् बाधकाभावस्तावदुक्त एव । बाधकं तु कल्पनागौरवमेव । तथा हि-तत्त्वान्तरत्वं तावदेकं कल्प्यम् । तस्यापरोक्षत्वायेन्द्रियसन्निकर्षः कल्प्यः ।
किनु प्रतियोगी का स्मरण करने पर जिस अधिकरण का अनुभव किया जाता है उसमें तो वे दोनों ( ज्ञान + व्यवहार ) हो ही सकते हैं। इस प्रकार भी [ अभाव का ज्ञान होने पर जो 'नहीं है' का व्यवहार होता है उसकी ] सिद्धि हो जाने पर अभाव को किसी दुमरे तत्त्व में नहीं लेना चाहिए। अब यदि पूछे कि इसमें अनुपपत्ति क्या है [ जो आप ऐसा कह रहे हैं ? ] 1 अरे, हमने तो पहले ही कह दिया है कि बाधक न होने के कारण ही ऐसा हुआ है। कल्पना का गौरव (एक के बदले कई बातों को मानना ) ही यहां पर बाधक है । [ बाधक से बचने के लिए ही हम अविद्या के द्वारा उक्त प्रत्यक्ष की सिद्धि करते हैं। यदि ऐसा न करें तो एक के बदले कई चीजों को मानना पड़ेगा।]
देखिये-पहले तो एक भिन्न तत्व ( अभाव ) की कल्पना करनी पड़ेगी। उसके अपरोक्षत्व ( प्रत्यक्ष मानने ) के लिए इन्द्रियसन्निकर्ष की कल्पना करनी पड़ेगी। ____ स च संयोगादिर्न भवतीति संयुक्तविशेषणत्वादिः कल्प्य इत्यतो वरमुक्तलक्षणस्याधिकरणस्य व्यवहारविषयेऽङ्गीकारः। सति चैवं ज्ञानाभावेनापि प्रतियोगिस्मृतौ सत्यामनुभूयमानमधिकरणं ज्ञातैव । स च न, केवलमन्तःकरणम् । जडत्वात् । नापि केवल आत्मैव । अपरिणामित्वाद्