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शांकर-दर्शनम्
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गृह्यत इति परिशेषादुक्तलक्षणा अविद्येव ' अज्ञः' इति प्रतिभासस्य विषय इति स्थितम् ।
जब तक V ज्ञा ( जानना ) धातु के साथ उच्चरित नञ् को कहीं पर भी उक्त ( अनिर्वचनीय ) लक्षण ( Mark ) वाली अविद्या का विषय सिद्ध नहीं कर देते, तब तक सन्देह की स्थापना नहीं कर सकते । [ जो लोग उक्त सन्देह को प्रस्तुत करते हैं उन्हें अविद्या माननी पड़ती है तथा नव् को अविद्या के अर्थ में लेना पड़ता है । यह तथ्य है । ] चूंकि यह मानना बहुत आवश्यक है - इसलिए वही अविद्या ज्ञा-धातु के साथ उच्चरित नव् stafar -विषयक ही बोधित करती है । [ अविद्या का अर्थ शीघ्र ही बुद्धिग्राह्य हो जाता है । ] ज्ञानाभाव के रूप में उक्त प्रत्यक्ष को माननेवाली कोटि लुप्त हो जाती है, तो, अब सन्देह का अवकाश ही कहाँ पर है ?
तो, इस प्रकार लक्षणा मानने का कारण ( अनुपपत्ति की सम्भावना ) न रहने से, अनुभव का अभाव [ जिसे आप लक्षणा से सिद्ध करने जा रहे थे ], वह भी प्रत्यक्ष- रूप में आत्मा में गृहीत नहीं हो रहा है । अब शेष बची है अविद्या, जिसका लक्षण ऊपर [ अनिर्वचनीय के रूप में ] दिया गया है । वह अविद्या ही 'अज्ञ' इस शब्द में प्रतीति का विषय है । यह सिद्ध हुआ ।
( १९. दूसरी विधि से 'अहमज्ञः' के द्वारा अविद्या की सिद्धि )
अस्तु वा ज्ञानाभावप्रतिभासः । अयमभावश्व प्रतियोगी यत्र निषिध्यते न ततः तत्त्वान्तरमन्यदधिकरणभावात् । मा भूदन्यभावत्वमन्याभावत्वं तु स्यात् । ननु तदपि विरुद्धम् । सत्यं सति भेदे । स च प्रमाणात् । तच्च सति प्रतियोग्य भावाधिक रणतस्तत्त्वान्तरे । ननु घटवति भूतले घटाभावमितिव्यवहृती स्यातामिति चेत् मा भूतामेते प्रतियोगिना सहानुभूय-. मानेऽधिकरणे ।
अच्छा, मान लिया कि [ 'अहमज्ञः' में ] ज्ञानाभाव का ही प्रत्यक्ष हो रहा है । लेकिन यह अभाव तो उस तत्त्व से भिन्न तत्त्व नहीं जिसमें प्रतियोगी का निषेध किया जाता है अर्थात् वह तत्त्व आधार ( अधिकरण ) स्वरूप से भिन्न नहीं है । [ इस प्रकार अभाव को आधारात्मक सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है । ]
[ नेयायिक लोग फिर शंका करते हैं कि भूतल की अपेक्षा घटाभाव ] एक भाव ( Positive entity ) के रूप में भिन्न भले ही न रहे किन्तु अभाव के रूप में तो भिन्न अवश्य ही है । [ इस प्रकार अभाव की सत्ता अधिकरण से पृथक् रूप में है, अतः 'अहमज्ञः' में नञ् का अर्थ अभाव ही है | ] वे आगे कहते हैं कि यह भी तो आपके ( वेदान्तियों के ) सिद्धान्त से विरुद्ध हो गया [ क्योंकि आप 'अहमज्ञः' में भावरूप अज्ञान का प्रत्यक्ष मानते हैं और इधर अधिकरण से अभाव को पृथक् सिद्ध कर दिया गया है । ]
४७ स० सं०