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शांकर-दर्शनम्
७३५ सम्बन्धस्तावदनुभवत्वज्ञानत्वयोरेकव्यक्तिसमावेशो व्याप्यव्यापकभावो वा विद्यत एव । अनुपपत्ति तु न पश्यामः। नन्वनुभवाभावे प्रत्यक्षस्य प्रमेयलाभस्तेनैव तस्यार्थवत्ता सिध्यति । सत्यम् । प्रयोजनमेतन्नानुपपत्तिः। अन्योन्याश्रयात् ।
यहां पर सम्बन्ध यही है कि अनुभव होना और ज्ञान होना, दोनों का समावेश एक ही [ घट- प्रत्यक्षरूपी ] व्यक्ति में होता है तथा दोनों के बीज व्याप्य ( अनुभव होना ) और व्यापक ( ज्ञान होना ) का सम्बन्ध भी है ही। इसमें असिद्धि की आशंका हम नहीं देखते । [ अर्थ यह है कि 'गंगा में घोष' कहने से गंगा-शब्द का शक्यार्थ ( वाच्यार्थ ) जो गंगा है उसका सम्बन्ध लक्ष्यार्थ ( तट ) के साथ आश्रय के माध्यम से है। गंगा और तीर में संयोग विद्यमान है । यह विवरण तभी होगा जब पदार्थ को जाति मानें । यदि व्यक्ति मानेंगे तो मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ में ( = प्रवाह और तट में ) सीधे ही संयोग-सम्बन्ध मानना पड़ेगा उसी प्रकार यहाँ ज्ञा-धातु के वाच्यार्थ ( ज्ञान ) और लक्ष्यार्थ ( विशेष अनुभव ) में सामानाधिकरण्य-सम्बन्ध है । घट-प्रत्यक्ष की एक ही व्यक्ति ( Individual form ) में वे दोनों हैं । व्याप्य-व्यापक का सम्बन्ध तो है ही। किन्तु जिस तरह गंगाशब्द के शक्यार्थ ( प्रवाह ) में घोष की स्थिति असम्भव है वैसी बात यहां नहीं है-ज्ञान और अनुभव दोनों सहयोगी हैं।] ___अब शंका होती है कि अनुभव ( लक्ष्यार्थ) के अभाव में [प्रत्यक्ष के द्वारा कुछ भी बोधित न हो सकने के कारण ] प्रत्यक्ष की सफलता के लिए प्रमेय का प्रदर्शन अवश्य करें क्योंकि इसी (प्रमेय ) से उस प्रत्यक्ष की सार्थकता सिद्ध होती है। [ प्रमेय अनुभवविशेष के अभाव के रूप में कहा जा सकता है यदि लक्षणा स्वीकार कर लें। अतः लक्षणा तो आप को माननी ही पड़ेगी।]
वेदान्ती उत्तर देते हैं कि तुम सच कहते हो। पर प्रयोजन लक्षणा को अनुपपन्न होने से नहीं बचा सकता क्योंकि अन्योन्याश्रय-दोष हो जायगा। [प्रत्यक्ष की सफलता से लक्षणा की और लक्षणा से प्रत्यक्ष को सफलता की सिद्धि होती है । अब लक्षणा के मूल में जो असिद्धि है उसे दूसरे रूप में प्रकट करते हैं। ]
नन्वहमज्ञ इत्यत्र नञ् आत्मनि ज्ञान मात्राभावं न ब्रूते । ज्ञानवति तस्मिन् तदभावात् । नाप्यनुभवाभावम् । ज्ञानोक्तस्तदनभिधायकत्वात् । नरर्थक्यं च न युक्तमित्यनयवानुपपत्त्या लक्षणेति चेत्-उक्तलक्षणवाविद्या तदर्थोऽस्तु।
सन्देह इति चेन्न । असमत्वात्कोटिद्वयस्य । अन्यत्र हि प्रतियोगिनिवतिर्नअर्थः । अत्र तुप्रतियोगिव्याप्यनिवृत्तिरिति । ___अब फिर शंका होती है कि 'अहमज्ञः' इस अनुभव में नञ् ( Negation, अभाव ) आत्मा में ज्ञान-सामान्य का अभाव प्रकट नहीं करता क्योंकि आत्मा ज्ञानयुक्त है, उसमें