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शांकर-दर्शनम्
का बोध कराने के लिए वह प्रमाण नहीं है--इसे हम आगे कहेंगे । [ इस स्थान तक यह सिद्ध किया जा रहा था कि अनुपलब्धि से भी 'अहमज्ञः' का बोध नहीं होता । फलतः 'अहमज्ञः' प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है। ]
( १८ ख. 'अहमज्ञः' का प्रत्यक्ष अनुभव और नैयायिक-खण्डन ) प्रत्यक्षाभाववादे तु प्रत्यक्षेण तावद्धमिप्रतियोगिज्ञानयोः सतोरात्मनि ज्ञानमात्राभावग्रहणं न ब्रूयात् । घटवति भूतले घटाभावस्येव ज्ञानमात्राभावस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात्। तयोरसतोस्तु सुतराम् । कारणाभावात् । अतोऽपि योग्यानुपलब्ध्या वा फललिङ्गाद्यभावेन वात्मनि ज्ञानमात्राभावग्रहणं दुर्लभमिति परमतेऽप्ययं न्यायः समानः। तदेवमात्मनि प्रत्यक्षेण वान्येन वा ज्ञानमात्राभावस्य ग्रहणमशक्यमिति स्थितम् ।
[नैयायिक आदि अनुपलब्धि को पृथक् प्रमाण नहीं मानते। उनके अनुसार अभाव प्रत्यक्ष है । परन्तु 'अहमज्ञः' इस प्रत्यक्ष को वे हमारी तरह ही ( देखिए-१८ क० का आरम्भ ) नहीं मानते, प्रत्युत ज्ञानाभाव के रूप में मानते हैं। उनकी परीक्षा करें-]
प्रत्यक्ष को अभाव माननेवाले सिद्धान्त में [ दो पक्ष हैं-'अहमज्ञः' में क्या ज्ञानसामान्य का अभाव प्रत्यक्षीकृत हो रहा है या ज्ञान विशेष का अभाव ? पहला विकल्प लेते हैं कि ] प्रत्यक्ष के द्वारा तो धर्मी (= ज्ञानाभाव का धर्मी आत्मा) और प्रतियोगी ( = ज्ञानाभाव का प्रतियोगी ज्ञान ) का ज्ञान यदि सत् के रूप में सिद्ध है, तो आत्मा में ज्ञान-सामान्य का अभाव गृहीत होता है, ऐसा न कहें। कारण यह है कि जैसे घटयुक्त भूतल में घटाभाव का ग्रहण करते ( = 'भूतले घटो नास्ति' वाक्य में ), उस तरह [ आत्मा में ] ज्ञान-सामान्य के अभाव का ग्रहण करना असम्भव है । [ 'भूतले घटो नास्ति' में घटाभाव का प्रत्यक्ष होता है। यहां भूतल घटाभाव का धर्मी है क्योकि घटाभाव-धर्म उसी का है। घटाभाव का प्रतियोगी घट है क्योंकि इसी का अभाव है। प्रत्यक्ष के द्वारा दोनों की सत्ता जानते हैं । तब घटाभाव का प्रत्यक्ष होता है। अब इसी उदाहरण का विनियोग ( Application ) प्रस्तुत 'अहमज्ञः' पर करें । दूसरे शब्दों में 'मयि ज्ञानं नास्ति' कहें । तो, ज्ञानाभाव का प्रत्यक्ष हो रहा है जिसका धर्मी है 'अहम्' ( आत्मा ) और प्रतियोगी है 'ज्ञान' । स्मरणीय है कि यहाँ ज्ञान से ज्ञानसामान्य का अर्थ ले रहे हैं। यदि धर्मी और प्रतियोगी दोनों का ज्ञान विद्यमान हो ( दोनों का प्रत्यक्ष हो चुका हो-आत्मा का और ज्ञान का) तो भी यह ग्रहण करना असम्भव है कि आत्मा में ज्ञानसामान्य का अभाव है। ज्ञान का प्रत्यक्ष हो जाने पर उसके अभाव का प्रत्यक्ष कैसे ? ]
दूसरी ओर, यदि ये दोनों ( धर्मी का ज्ञान और प्रतियोगी का ज्ञान ) विद्यमान नहीं रहे तब तो [ 'अहमज्ञः' में ज्ञानाभाव का प्रत्यक्ष मानना ] और भी असम्भव है क्योंकि