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सर्वदर्शनसंग्रहेसांख्यवाले कह सकते हैं कि ] यदि हम प्रधान को [ प्रत्येक पुरुष में ] भिन्न-भिन्न न भी माने फिर भी प्रत्येक पुरुष में अविवेकज्ञान (विवेकज्ञान का अभाव ) के रूप में जो अविद्या है उसके होने पर निर्भर करनेवाले बन्धन ( Bondage ) की तथा न होने पर निर्भर करनेवाले मोक्ष ( Release ) की सिद्धि तो हो ही जाती है। हे महाराज ! तब आप प्रकृति को लेकर अपना सिर क्यों पीट रहे हैं, उसे छोड़ दीजिये । [ प्रकृति को बिना माने ही ] अविद्या के होने और न होने से ही उन दोनों ( बन्धन-मोक्ष ) की सिद्धि हो जायगी। [प्रकृति से जो काम होता है उसे अविद्या के द्वारा ही सिद्ध करना शंकराचार्य का लक्ष्य है। हां, अविद्या की अपेक्षा जहां पर प्रकृति में गुणों का आधिक्य है, उन गुणों का खण्डन कर देते हैं । जैसे प्रकृति पुरुष के मोक्ष के लिए कार्यरूप में परिणत होती है, अविद्या नहीं । इसलिए प्रकृति के इस कार्य का खण्डन ही कर दिया गया। ]
विशेष-यहाँ प्रकृति और अविद्या की तुलना दो विभिन्न दर्शनों के दृष्टिकोणों से करनी आवश्यक है । प्रकृति सांख्य-योग में स्वीकृत है, अविद्या वेदान्त ( अद्वैत ) में । इस रूप-रेखा से कुछ स्पष्टीकरण सम्भव हैप्रकृति
अविद्या (१) प्रकृति एक स्वतन्त्र तत्त्व है। (१) अविद्या एक स्वतन्त्र तत्त्व नहीं, ब्रह्म
की शक्ति है। (२) प्रकृति त्रिगुणात्मक है ।
(२) अविद्या भी त्रिगुणात्मक है। (३) प्रकृति अचेतन है।
(३) अविद्या भी अचेतन है। ( ४ ) प्रकृति भावात्मक ( Positive ) है। ( ४ ) अविद्या या आवरण और विक्षेप
शक्तियोंवाली माया भावात्मक ही है। (५ ) प्रकृति संसार के प्रपंचों को उत्पन्न | (५) अविद्या भी संसार के प्रपंचों को करती है।
उत्पन्न करती है। ( ६ ) प्रकृति के कार्य सत् ( Real ) हैं। | ( ६ ) अविद्या के कार्य व्यावहारिक दृष्टि
| से सत् भले ही हों, पारमार्थिक दृष्टि से
मिथ्या हैं। (७) पुरुष को मोक्ष दिलाने के लिए | (७) अविद्या बन्धन में डालनेवाले कार्यों
प्रकृति इतने कार्य उत्पन्न करती है। को उत्पन्न करती है।
(परिणत होती है )। (८) प्रकृति कार्य पूरा करके स्वयं निवृत्त । (८) जीव को अविद्या के नाश के लिए हो जाती है।
प्रयत्न करना पड़ता है। (९) प्रकृति के कार्यों का पुरुष साक्षी है। ( ९ ) अविद्या के कार्यों का ब्रह्म या जीव
साक्षी नहीं होता।