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सर्वदर्शनसंग्रहे
वह ( रजतस्मरण ) अनुभव के स्थान में ( जहाँ पर चांदी देखी थी और जिसका स्मरण कर रहे हैं वहीं ) प्रवृत्ति को उत्पन्न कर सकता है । [ स्मरण अनुभव पर ही निर्भर करता
। जिस स्थान का, जिस रूप का और जिस वस्तु का अनुभव होगा — उसके अनुरूप ही स्मरण भी हो सकेगा । जिस स्थान पर चाँदी देखी थी, प्रवृत्ति उसी स्थान की ओर होगीअन्यत्र नहीं । सामने को सीपी पर प्रवृत्ति सिद्ध नहीं होती । ]
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नापि भेदाग्रहो व्यवहारकारणम् । ग्रहणनिबन्धनत्वाच्चेत नव्यवहारस्य । ननु न वयमेकैकस्य कारणत्वं ब्रूमहे येनैवमुपालभ्येमहि । किं त्वगृहीतविवेकस्य ज्ञानद्वयस्य प्राप्तसमीचीनपुरः स्थितरजतज्ञानसारूप्यस्येत्यनुक्तोपालम्भोऽयमिति चेत्-तदप्ययुक्तम् । विकल्पासहत्वात् । तथा हिसमीचीन रजतावभाससारूप्यं भासमानं प्रवर्तकं सत्तामात्रेण वा ?
आप यह भी नहीं कह सकते [ जैसा ऊपर कहा है ] कि भेद का ग्रहण न करना ही [ 'इदं रजतम्' आदि विशिष्ट ] व्यवहारों का कारण है | चेतन के सारे व्यवहार ग्रहण ( ज्ञान, प्रतीति ) पर चलते हैं [ और आप कहते हैं कि ग्रहण न होने से व्यवहार चलता है ? ]
[ अपनी रक्षा के लिए कदाचित आप कहेंगे - ] हम लोग एक-एक को लेकर तो ( केवल 'इदम् ' के ग्रहण को या केवल रजत के स्मरण को ) कारण नहीं मान रहे हैं कि आप ( वेदान्ती ) हमें इस तरह खरी-खोटी सुना रहे हैं। बल्कि हम तो उन दोनों ज्ञानों को जिसमें भेद की प्रतीति नहीं होती तथा जिसमें सच्चे और सन्निहित रजत के ज्ञान के साथ समरूपता है, उन्हें ही [ कारण मानते हैं ] अतः हमारा मत उलाहना ( उपालम्भ ) देने योग्य नहीं है |
हम (वेदान्ती ) कहेंगे कि यह भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि नीचे दिये विकल्पों को सहने की शक्ति इसमें नहीं है । वे विकल्प हैं - [ आप कहते हैं कि उक्त दोनों ज्ञानों में ( ग्रहण + स्मरण या दो ग्रहण ही ) सच्चे रजत के ज्ञान से सादृश्य है उसी सादृश्य से व्यक्ति प्रवृत्त होता है तो ] वह सच्चे रजत की प्रतीति से सादृश्य होना क्या केवल ज्ञान रहने से ही प्रवृत्ति का कारण होता है या वस्तुतः विद्यमान रहकर प्रवृत्ति उत्पन्न करता है ? अब प्रथम विकल्प में दो विकल्प करते हैं । ]
आद्ये विकल्पे भेदाग्रहापरपर्यायस्य सारूप्यस्य समीचीनसन्निभे इमे ज्ञाने इति विशेषाकारेण गृह्यमाणस्य प्रवृत्तिकारणत्वं कि वानयोरेव स्वरूपतो विषयतश्च मिथो भेदाग्रहो विद्यत इति सामान्याकारेण गृह्यमाणस्य सारूप्यस्य ?
पहले विकल्प में [ दो विकल्प हैं - ] ( १ ) सारूप्य को दूसरे शब्दों में 'भेद का ग्रहण न करना' भी कहते है । 'ये दोनों ज्ञान सच्ची चाँदी के ज्ञान के समान हैं' - इस