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सर्वदर्शनसंग्रहे
अब प्रश्न हो सकता है कि सीपी के सिर पर ( स्थान में) विभावित ( Apprehended ) रजत को तो हम केवल उसो स्थान पर ही सत्य मानेंगे (= जहां आरोप होगा, चांदी केवल वहीं पर वास्तविक होगी, अन्यत्र तो नहीं ) फिर 'यह रजत नहीं है इसमें निषेध का क्या उत्तर होगा ? ( कौन-चांदी सच्ची है-आरोपित या निषिद्ध ? )
ऐसी बात नहीं है । प्रातिभासिक दृष्टि से सत्यता ( Apparent Reality ) होने पर भी उसमें व्यावहारिक सत्यता ( Practicai Reality ) का अभाव है इसीलिए सोपाधिक स्थानों में प्रतियोगी होने की सम्भावना रहती है। [ सीपी के स्थान पर ही 'नेदं रजतम्' में निषेध की प्रतीति होती है यद्यपि रजत वहां पर रजत-निषेध का प्रतियोगी नहीं है। वहाँ पर वास्तव में चाँदी रहे तब तो रजत प्रतियोगी होगा-रजत की अवस्थिति तो अविद्या के परिणाम के कारण कुछ देर के लिए है। निषेध उसे कहते हैं जिसमें यह प्रतीति हो कि यह कभी ऐसा नहीं होता-काल का प्रभाव भी निषेध पर नहीं पड़ता । हाँ, जब रजत को व्यावहारिक दृष्टि से ( उपाधि के साथ-व्यावहारिक रजत के रूप में ) देखेंगे तो उस विशेष सत्ता ( व्यावहारिक सत्ता ) के विचार से रजत निषेध का प्रतियोगी हो सकता है अर्थात् रजत का निषेध सम्भव है किन्तु व्यवहार-दशा में ही। प्रातिमासिक-दशा में वह सम्भव नहीं। ] . इसे पंचपादिका के विवरण ( रच०-श्रीप्रकाशात्मयति ) में कहा गया है-'सत्ता तीन प्रकार की है। ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता ( Transcendental Reality ) रहती है । माया की उपाधि से युक्त आकाशादि पदार्थों की सत्ता सार्थक क्रियाओं के सम्पादन ( व्यवहार ) में ही है। [ इसे ही व्यावहारिक सत्ता कहते हैं।] अविद्या की उपाधि से युक्त (प्रातिभासिक ) सत्ता [ सीपी में प्रतीत ] रजत आदि की है। अन्यत्राप्युक्तम्
४६. कालत्रये ज्ञातृकाले प्रतीतिसमये तथा।
बाधाभावात्पदार्थानां सत्त्वत्रविध्यमिष्यते ॥ ४७. तात्त्विकं ब्रह्मणः सत्त्वं व्योमादेव्यावहारिकम् ।
रूप्यादेरर्थजातस्य प्रातिभासिकमिष्यते ॥ इति । दूसरी जगह भी कहा गया है-'तीनों कालों (भूत, वर्तमान और भविष्य ) में, व्यवहार-दशा में तथा प्रतीति के समय भी पदार्थों के ज्ञान का प्रतिरोध ( Rejection ) न हो इसलिए उसकी तीन प्रकार की सत्ताएं मानी जाती हैं ।। ४६ ॥ ब्रह्म की सत्ता तात्त्विक ( पारमार्थिक ) है, आकाशादि की व्यावहारिक तथा रजत आदि पदार्थों की प्रातिभासिक सत्ता मानी जाती है ॥ ४७ ॥' ..
४८. लौकिकेन प्रमाणेन यदबाध्यं लौकिकेऽवधौ।
तत्प्रातिभासिकं सत्त्वं बाध्यं सत्येव मातरि ॥