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सर्वदर्शनसंग्रहे
[ अविद्या ] रजतविषयक परिणाम ( वृत्ति) के संस्कार के साथ मिलकर रजतज्ञान के आभास ( वृत्ति ) के रूप में परिणत होती है । [ दो प्रकार की अविद्या है - ( १ ) 'इदम् ' अंश से युक्त चैतन्य में रहनेवाली अविद्या रजत के उद्बोधित संस्कार की सहायता से रजत के आकार में परिणत होती । ( २ ) वृत्ति से अवच्छिन्न चैतन्य में रहनेवाली अविद्या रजत का ग्रहण करनेवाली वृत्ति के संस्कार के साथ रहकर वृत्तिरूप में परिणत होती है । अब इन दोनों परिणामों की अगली विधियों पर प्रकाश डालते हैं । स्मरणीय है कि ये दोनों परिणाम ही क्रमशः अर्थाध्यास और ज्ञानाव्यास कहलाते हैं । ]
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तौ च रजतवृत्तिपरिणामौ स्वाधिष्ठानेन साक्षिचैतन्येनाव्यवधानेन भास्येते । तथा च सवृत्तिकाया अविद्यायाः साक्षिभास्यत्वाभ्युपगमे वृत्त्यन्तरवेद्यत्वाभावान्नानवस्था ।
यद्यप्यन्तःकरण वृत्तिरविद्यावृत्तिश्चेति द्वे इमे ज्ञाने, तथापि विषयाधीनं फलम् । ज्ञातो घट इति विषयावच्छिन्नतया फलप्रतीतेः । तद्विषयश्च सत्यमिथ्याभूतयोरिदमंश रजतांशयोरन्योन्यात्मकतया एकत्वमापन्नः । तस्माद्विषयावच्छिन्नफलस्याप्येकत्वाज्ज्ञानं क्यमुपचर्यते ।
ये दोनों - रजत परिणाम और वृत्तिपरिणाम -- अपने-अपने अधिष्ठान ( आधार ) स्वरूप साक्षिचैतन्य ( प्रमाण के चैतन्य ) के द्वारा, बिना किसी तरह की रुकावट के प्रतीत होते हैं । इस प्रकार वृत्ति से युक्त अविद्या को साक्षी ( द्रष्टा, प्रमाता ) के द्वारा प्रतीत होनेवाली सिद्ध कर देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह दूसरी वृत्ति के द्वारा ज्ञ ेय नहीं है, अतः अनवस्था दोष नहीं लगता । [ अनवस्था की सम्भावना इसलिए थी कि जैसे विषय के आकार से युक्त अन्तःकरण की वृत्ति से विषय की प्रतीति होती है वैसे ही उक्त वृत्ति का अवभास ( प्रतीति ) भी तो उसी वृत्ति का आकार वाली अन्त:करण की दूसरी वृत्ति से ही होगा - इस तरह हम बढ़ते चले जायेंगे । किन्तु अविद्या अकेले ही वृत्ति के साथ साक्षी के द्वारा प्रतीत होती है । इसलिए दूसरी वृत्ति से ज्ञेय होने का प्रश्न उठता ही नहीं । ]
अधीन ही रहता है ?
af अन्तःकरण की वृत्ति ( 'इदम्' के आकार में ) तथा अविद्या की वृत्ति ( रजत के आकार में ) के रूप में ये दो ज्ञान हैं फिर भी फल तो विषय के जब हम कहते हैं कि 'घट का ज्ञान हो गया' तो विषय (घट) से सम्बद्ध होकर ही फल की प्रतीत हो रही है । [ यदि वृत्ति को ही ज्ञान कहते हैं तो दो वृत्तियों से ज्ञानों का aar प्रकट होता ही है । किन्तु 'इदं रजतम्' में 'एक ज्ञान' का व्यवहार, फल की एकता
के कारण औपचारिक रूप से होता है। ज्ञान वृत्ति के रूप में है । उसका फल है विषय का
है— जेसा विषय होगा वास्तविक ( Real )
अवभास ( प्रतीति ) । यह फल विषय के अनुसार ही प्राप्त होता वैसी ही प्रतीति होगी । तो यहाँ पर विषय क्या है ? उसका विषय