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शांकर-दर्शनम्
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ऐसा भी नहीं कह सकते कि संस्कार ( Impression ) से रजत- ज्ञान की उत्पत्ति होती है क्योंकि वेसी दशा में उसे स्मृति के रूप में मानना पड़ेगा । अब यदि कहें कि इन्द्रिय-दोष की सहायता से ऐसा होता है यह भी उचित नहीं क्योंकि यह ( इन्द्रियदोष ) स्वतन्त्रता से ज्ञान का कारण नहीं बन सकता । [ किसी व्यक्ति में जो दोष | वह उस को दूषित कर सकता है, बिना व्यक्ति के नहीं । वैसे ही द्वारा ही किसी कार्य का कारण हो सकेगा - स्वतन्त्र
व्यक्ति के साथ रहकर ही दूसरे इन्द्रियों का दोष भी इन्द्रियों के रूप से नहीं 1 ]
ग्रहण ( इन्द्रियजन्य ) और स्मरण ( संस्कारजन्य ) के अतिरिक्त ज्ञान का कोई प्रकार ( जैसे - दोषजन्य आदि ) होना सम्भव ही नहीं । इसलिए किसी भी तरह इदमंश और रजत के तादात्म्य के विषय में एकात्मक ( Singular ) ज्ञान होना सम्भव ही नहीं है । रजत के तादात्म्य के विषय एकात्मक ( Singular ) ज्ञान होना सम्भव ही नहीं है । अनेकात्मक ज्ञान भी नहीं हो सकता क्योंकि वह अख्यातिवाद ( दे० ऊपर ) के दोषों को ले आयेगा |
उच्यते - प्रथमं दोषकलुषितेन चक्षुषेदन्तामात्रविषयान्तः - करणवृत्तिरुत्पद्यते । अनन्तरं तथा वृत्त्या चैतन्यावरणाभिभवे सति तच्चैतन्यमभिव्यज्यते । पश्चादिदमंशचैतन्यनिष्ठा अविद्या रागादिदोषकलुषिता कलधौताकारेण परिणमते । इदमाकारान्तःकरणपरिणामावच्छिन्नचैतन्यनिष्ठा कलधौतगोचरपरिणामसंस्कारसचिवा कलधौतज्ञानाभा साकारेण परि
णमते ।
इसका उत्तर दिया जाता है । पहले दोष से दूषित नेत्र के द्वारा केवल 'इदभाव' के विषय में ही अन्तःकरण की वृत्ति उत्पन्न होती है [ क्योंकि उस समय दोषवश सामने की चीज को सीपी के रूप में समझ नहीं पाते ] । उसके बाद वह वृत्ति चेतन्य के आवरण ( इदभाव से युक्त चेतन्य के प्रकाशन को रोकनेवाला आवरण ) को हटा देती है तथा वह चैतन्य अभिव्यक्त हो जाता है । [ इदम् के रूप में चेतन्य की अभिव्यक्ति होती है । शुक्ति अंश के रूप में चैतन्य व्यक्त नहीं होता क्योंकि दोषवश उस चेतन्य के आवरण का निस्सारण नहीं हुआ है । जिस चैतन्य का आवरण नष्ट होता है उसी चेतन्य की अभिव्यक्ति होती है । स्मरणीय है कि 'इदम्' अंश से युक्त चैतन्य का सीपी रूप में प्रतीत न होना तथा इसीलिए सीपी के आकार की वृत्ति ( ज्ञान ) पर अवभासिस ( Reflected ) न होना ही अविद्या है । ]
इसके बाद इदमंश के चैतन्य में अवस्थित अविद्या जो रागादि दोषों के कारण दूषित हो गई है, वह रजत के आकार में परिणत हो जाती है । 'इदम्' के आकार में स्थित अन्तःकरण ( बुद्धि ) के परिणाम से अवच्छिन्न ( बघे हुए ) चैतन्य में रहनेवाली