________________
शांकर-दर्शनम्
७२१
नहीं हुई, न सही । जो रजत पास में नहीं है, घर की पेटी आदि में है उसकी सिद्धि तो तात्पर्य के द्वारा हो सकती है - प्रतिषेध रहे तो भी क्या आपत्ति है ? उनका पक्ष है - ] अन्यथाख्याति का सिद्धान्त माननेवालों के अनुसार रजत की सत्ता दूसरे स्थान में तो माननी ही चाहिए । यदि ऐसा नहीं करेंगे तो वह प्रतिषेध का प्रतियोगी नहीं हो सकेगा । कोई भी ऐसा बुद्धिमान व्यक्ति नहीं होगा जो 'खरहे की सींग' ( असम्भव वस्तु ) का प्रतिषेध करने में समर्थ हो । [ इस प्रकार जो रजत पास में नहीं है उसकी सत्ता दूसरी | यह तभी सम्भव जगह है। एक वस्तु की प्रतीति दूसरे रूप में हो, यही अन्यथाख्याति है जब दूसरा पदार्थ ( रजत ) सत् हो, अत्यन्त असत् नहीं क्योंकि उसकी प्रतीति हो नहीं सकती। ]
इसे कहा है – ' व्यावर्त्य ( प्रतियोगी - घटाभाव ) का [ भूतल में ] परमार्थतः ( भाविकी ) अभावयुक्त होना ही विशेष्य होना है । उसी प्रकार [ घट के ] अभाव के रूप में जो पारमार्थिक वस्तु हो जायं तो वही उसका विशेषण होना ( प्रतियोगिता ) है ।' ( न्यायकुसुमांजलि, ३।२ ) ।
[ व्याख्या -खरहे की सींग आत्यन्तिक रूप से असत् है, सीपी में रजत की प्रतीति आभासित है | अतः ये अवास्तविक हैं, पारमार्थिक नहीं । इस श्लोक में यह बतलाया गया है कि अवास्तविक पदार्थ में न तो विशेष्य बनने की शक्ति है न विशेषण ( प्रतियोगी ) । सम्बन्ध के दो दल होते हैं - प्रतियोगी ( विशेषण ) और अनुयोगी ( विशेष्य ) । जब हम कहते हैं कि भूतल घट से युक्त है ( घटवत् भूतलम् ) तो स्पष्टतः 'घट' विशेषण ( प्रतियोगी ) है और 'भूतल' विशेष्य ( अनुयोगी ) । 'घटवत्' कहने पर घटाभाव की व्यावृत्ति ( Exclusion ) भूतल से होती है अतः घटाभाव व्यावर्त्य हुआ । अब व्यावर्तक की खोज करें । व्यावर्त्य का विरोध ही व्यावर्तक होता है। तो, घटाभाव का व्यावर्तक होगा-घटाभाव का अभाव ( अर्थात घट ) । व्यावर्त्य ( घटाभाव ) अभाव से युक्त होना या घट से युक्त होना भूतल में पारमार्थिक रूप से सिद्ध है, अतः भूतल विशेष्य है । दूसरी ओर, अभाव के अभाव के रूप में होना अर्थात् घट के रूप में होना दिखलाई पड़ता है जो पारमार्थिक ( Real ) वस्तु का गुण है । अतः घटरूपता प्रतियोगिता ( विशेषणता ) है अर्थात् घट विशेषण है । इससे सिद्ध होता है कि 'नेदं रजतम्' में पारमार्थिक रजत ही प्रतिषेध का प्रतियोगी (विशेषण) हो सकता है, स्वाभाविक रजत नहीं । ]
-
इसलिए, नैयायिकों के अनुसार, उस ( रजत ) की सत्ता दूसरे स्थान पर माननी पड़ेगी । [ शंकर - मतवाले कहते हैं कि ] यह उक्ति प्रमाण मार्ग में नहीं आती क्योंकि जैन अविद्यमान संसर्ग का निषेध ( जैसे – रूप और रस के संसर्ग का निषेध, 'रूपं न रससंयुक्तम्' में कल्पित संसर्ग का निषेध ) किया जाता है वैसे ही कलित रजत को भी निषेध का प्रतियोगी ( विशेषण ) बनाया जा सकता है । [ ऐसी बात नहीं कि केवल सत् वस्तु ४६ स० सं०