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सर्वदर्शनसंग्रहे[ अब वेदान्ती उतर देते हैं कि ] उक्त कथन असिद्ध है कारण यह है कि निम्न विकलों को यह सह नहीं सकता। यह जो बाधक ज्ञान है वह क्या सीधे ही ज्ञान के आकार का बोध कराता है या तात्पर्य के द्वारा ? पहला विकल तो ग्राह्य नहीं हो सकता क्योंकि 'यह रजत नहीं है' प ( बाधक ) प्रतीनि केवल रजत के भेद से ही सम्बन्ध रखती है । यदि उसे रजत के ज्ञान के अभेद ( स्वरूप ) के विषय में मानेंगे तो हमारे अनुभव के विरुद्ध होगा। ____ अब यदि आप कहें कि 'यह रजत नहीं है' यह वाक्य जो रजत के पुरोवर्ती ( सामने ) होने का निषेध करता है, वही ज्ञान के आकार का बोध कराता है (= तात्पर्य से इसका बोध हो, ) तो हम कहेंगे कि यह व्यर्थ हैं। बाधक ज्ञान प्राप्त वस्तु का निषेध करता है [ अप्रसक्त वस्तु का विधान नहीं । ] बाधक ज्ञान की सत्ता वहीं ( सामने का स्थान ) पर है अतः प्रतिषेध की सिद्धि हो जाती है। [ यहाँ पर दोष के कारण कल्पित प्रतीयमान रजत प्रप्त है । उसका प्रतिषेध समक्ष ही है। अतः इस प्रतिषेध के वास्तविक होने के कारण आन्तर (विज्ञानरूप ) रजत की सिद्धि तात्पर्य से नहीं होती। सन्निहित न होने पर भी नहीं ही होती है।]
[ रनत को आप विज्ञानवादियों ने 'बहिरिन्द्रिय के सन्निकर्ष के बिना ही प्रत्यक्ष है' ऐसा हेतु रेकर विज्ञानाकार सिद्ध करने की चेष्टा की है । वह सव्यभिचार हेतु है क्योंकि इसकी वृत्ति [ व्यभिचारपूर्वक ] उस भावात्मक अज्ञान में हैं जो विज्ञानाकार नहीं है, [ संसार का मूलकारण होने से ] बाहर अवस्थित है तथा [ बाह्येन्द्रिय, सन्निकर्ष के बिना भी ] 'मैं उज्ञ हूँ' के रूप में जिसका प्रत्यक्ष होता है । [ ऊपर के विज्ञानवादियों के अनुमान में साध्य-विज्ञानाकारत्व-था। उसका अभाव भावात्मक अज्ञान में है। उक्त अनुमान के हेतु की वृत्त इसमें भी है। साध्याभाव में वृति रहने से हेतु सव्यभिचार है। ]
(१५ ख. नैयायिकों को अन्यथाख्याति का खण्डन ) नन्वन्ययाख्यातिवादिमतानुसारेण रजतस्य देशान्तरसत्त्वेन भाव्यम् । अन्यथा तस्य प्रतिषेधप्रतियोगित्वानुपपत्तेः । न हि कश्चित्प्रेक्षावाञ्शशविषाणं प्रतिद्धप्रभवति । तदुक्तम्
४२. व्यावाभाववत्तव भाविकी हि विशेष्यता। अभावाविरहात्मत्वं वस्तुनः प्रतियोगिता ॥
(न्या० कु० ३।२) इति । तथा च तस्य देशान्तरसत्त्वमाश्रणीयमिति चेत्--तदपि न प्रमाणपद्धतिमध्यास्ते । असतः संसर्गस्येव कलधौतस्य निषेधप्रतियोगित्वोपपत्तेः ।
[बौद्धों की सहायता के लिए नैयायिक लोग आ धमके । 'वह रजत नहीं हैं। इसमें प्रतिषेध ही स्पष्ट है । तात्पर्य ( अर्थ ) से आन्तरिक विज्ञान के आकार में रजत की सिद्धि