Book Title: Sarva Darshan Sangraha
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 764
________________ ७२७ शांकर-दर्शनम् वैदिकेऽवधौ । ४९. वैदिकेन प्रमाणेन यद्वाध्यं तद्व्यावहारिकं सत्वं बाध्यं मात्रा सहैव तत् ॥ इति च । लौकिक अवधि ( व्यवहार- दशा ) में जो वस्तु लौकिक प्रमाणों ( प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ) से बाधित ( Rejected ) हो जाय उसे प्रातिभासिक सत्व ( पदार्थ, सत्ता ) कहते हैं - इस सत्त्व से बाधित होने पर भी ज्ञाता ( अनुभव करनेवाला ) रहता ही है ॥ ४८ ॥ वैदिक अवधि ( परमार्थ - दशा ) में जो वस्तु वैदिक प्रमाण ( आगम ) से बाधित हो जाय, उसे ( आकाश, पशु, पक्षी आदि को ) व्यावहारिक सत्त्व कहते हैं - इस सत्त्व के बाधित होने के समय ज्ञाता का भी साथ-साथ ही बाध ( Rejection ) हो जाता है ॥ ४९ ॥' [ आकाशादि पदार्थों की सत्ता व्यावहारिक है क्योंकि व्यवहार-दशा में तो इनका बाध नहीं होता किन्तु 'तत्त्वमसि' आदि श्रुतियों से जब आत्मा की एकता का साक्षात्कार करते हैं उस समय उसका बाध हो जाता है-उस दशा तो द्वैत (Duality ) का तनिक भी आभास नहीं मिलता । यहाँ तक कि ज्ञाता का प्रतीति का ज्ञातृत्व भी उस समय प्रतीत नहीं होता, उसका भी बाध हो जाता है । बाध = अभाव, न कि निषेव्य के रूप में प्रतोति । ] ततः ख्यातिबाधान्यथानुपपत्या भ्रान्तिगोचरस्य मायामयस्य रजतादेः सदसद्विलक्षणत्वलक्षणमनिर्वचनीयत्वं सिद्धम् । तदवोचच्चित्सुखाचार्यः - ५०. प्रत्येकं सदसत्त्वाभ्यां विचारपदवीं न यत् । गाहते तदनिर्वाच्यमाहुर्वेदान्तवादिनः ।। ( चित्सुखी, पृ० ७९ ) इति । सकता है । [ सीपी इसलिए ख्याति ( प्रतीति ) के बाघ की सिद्धि किसी भी दूसरे उपाय से न हो सकने के कारण, भ्रान्ति का विषय जो यह मायामय ( Illusory ) रजत आदि है इसे सत् तथा असत् से विलक्षण ( भिन्न ) रूप में अनिर्वचनीय ही सिद्ध किया जा में प्रतीत रजत इसलिए सत् नहीं है कि 'नेदं रजतम्' (निषेध) की सिद्धि नहीं होगी । व्यावहारिक दशा में तो उसका बाध सम्भव है न ? असत् भी नहीं है क्योंकि वैसा होने से इस प्रतीति ( प्रातिभासिक ही सही ) का क्या उत्तर होगा ? इसे ख्याति का विषय और बाध का विषय दोनों तभी मान सकते जब अनिर्वचनीय ( Indescernible ) मानेंअनिर्वचनीय सत् और असत् से विलक्षण होता है । इसीलिए इसे माया का परिणाम या मायामय माना है । ] इसे चित्सुखाचार्य ने कहा है - 'सत् या असत् इनमें प्रत्येक के द्वारा [ या समूह के द्वारा भी ] जो विचार के योग्य न हो सके उसे वेदान्ती लोग अनिर्वचनीय कहते हैं। ॥ ५० ॥ ( चि० पृ० ७९ ) ।

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