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सर्वदर्शनसंग्रहे
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है कि माया कर्ता की इच्छा का अनुसरण करती है और अविद्या उसका अनुसरण नहीं करती । जिस प्रकार माया के स्थानों में मणि ( Magiclantern समझें ), मन्त्र, औषध आदि का प्रयोग [ स्वन्तत्र रूप में ] होता है, वैसे ही अविद्या ( Ignorance ) के स्थानों में भी दो चन्द्रमा के भ्रन या केश के भ्रम या मकड़जाल होने के भ्रम के कारण रूप में, अंगुली से आँखों को स्तब्ध करना आदि हम पाते हैं जिसे कर्ता अपनी इच्छापूर्वक करता है । [ अंगुली यदि आँखों के नीचे के भाग में घुसा दी जाय तो हमें एक ही जगह दो चीजें दिखलाई देने लगेंगी --- यहाँ देखते हैं कि कर्ता अपनी इच्छां से ही तो अविद्या उत्पन्न कर रहा है । फिर यह कैसे कहते हैं कि माया ही इच्छा से उत्पन्न की जाती है; अविद्या नहीं ? ]
इसीलिए श्रुति, स्मृति तथा भाष्यग्रन्थों में जहां-तहाँ माया और अविद्या को अभिन्न ( एकरूप ) मानते हुए व्यवहार किया गया है। कहीं-कहीं, माया में माया और अविद्या के भेद को पूर्णपक्षी इसलिए ले रहा है कि माया वह ऐन्द्रजालिकों का इन्द्रजाल ( Magic ) समझता है और अविद्या से सीपी-चाँदी आदि का भ्रम । शंकर दोनों को एकरूप ही मानते हैं ।
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विक्षेप की प्रधानता के कारण या अविद्या में आवरण की प्रमुखता देखकर, माया और अविद्या में जो भेद करते हैं उससे इस व्यवहार का विरोध नहीं होता । [ बात यह है कि अज्ञान की दो शक्तियाँ हैं- आवरण ( ढँक देना Concealment ) तथा विक्षेप ( रूप - परिवर्तन Distortion ) । सीपी-चांदी के दृष्टान्त में आवरण-शक्ति सीपी के स्व। यह तो साधारूप को ढंक देती है, विक्षेप-शक्ति उसे चांदी के रूप में विकृत कर देती रण अज्ञान की बात है । अनादि अज्ञान के द्वारा ब्रह्म के स्वरूप का, सत् होने पर भी, आवरण कर दिया जाता है और जगत् का प्रदर्शन, असत् ( परमार्थतः, नहीं तो मिथ्या ) होने पर भी किया जाता है । अविद्या = आवरण-प्रधान । माया = विक्षेप-प्रधान । यह केवल लोक-प्रसिद्धि की बात है । वास्तव में दोनों एक हैं । ]
इसे कहा गया है - विक्षेप-शक्ति से युक्त अज्ञान जो ईश्वर की इच्छा के अधीन है वह माया है । जो अज्ञान तत्त्व को ढँक दे ( आवरण-शक्ति से युक्त हो ) अथवा स्वतन्त्रता की अपेक्षा करे वह अविद्या है ।'
( १८ क. अविद्या की सत्ता के लिए प्रमाण )
नन्व विद्यासद्भावे किं प्रमाणम् ? 'अहमज्ञो मामन्यं च न जानामीति' प्रत्यक्ष प्रतिभास एव । ननु ज्ञानाभावविषयोऽयं नाभिप्रेतमर्थं गमयतीति चेत् — न तावदनुपलब्धिवादिनश्चोद्यमेतत् । परोक्षप्रतिभासहेतुत्वात्तस्याः । अयमपि परोक्षप्रतिमास एवेति चेत्-न तावल्लिङ्ग शब्दानुपपद्यमानार्थ