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शांकर-दर्शनम्
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प्रकार सामान्य आकार में गृहीत सारूय प्रवृत्ति उत्पन्न करता है । ( २ ) इन दोनों ज्ञानों में ही स्वरूप और विषय को लेकर भेदाग्रह ( सारूप्य ) है - इस प्रकार विशेष आकार में गृहीत सारूप्य प्रवृत्ति उत्पन्न करता है । [ चूंकि ज्ञान दो प्रकार का होता है इसलिए ज्ञात सादृश्यवाले विकल्प के दो खण्ड हो रहे हैं । वैशेषिक आदि कहते हैं कि जिस धर्म के कारण सादृश्य होता है उस धर्म और सादृश्य में तादात्म्य है, वह धर्म ही सादृश्य है । उस धर्म का यह रूप है - मुख ( उपमेव ) और चन्द्र ( उपमान ) में सौन्दर्य (धर्म) समान है । यह कभी विशेधाकार में ज्ञात होता है । कभी-कभी सामान्य रूप में हो – जैसे यह धर्म अमुक पदार्थ में है । प्रस्तुत प्रसङ्ग में देखते हैं कि भेदाग्रह समान धर्म 1 जैसे सच्ची चाँदी के ज्ञान में भेद का ग्रहण नहीं होता वैसे ही ज्ञानद्वय से युक्त प्रतीति में भेद ग्रहण नहीं हो पाता । इस रूप में भेदाग्रह का ज्ञान प्रवृत करता है या इन दोनों ज्ञानों के पारस्परिक भेद का ग्रहण नहीं होने से ही हम प्रवृत्त होते हैं ? संक्षेप में यह कहें कि सच्चे रजत के ज्ञान से तुलना करने पर भेदाग्रह ज्ञान प्रवर्तक होता है या अपने ही दोनों ज्ञानों में भेदाग्रह होने से प्रवृत्ति होती है ? ]
नाद्यः । समीचीनज्ञानवत्तत्सन्निभज्ञानस्य तदुचितव्यवहारप्रवर्तकत्वानुपपत्तेः । न खलु गोसन्निभो गवय इत्यवभासोगवार्थिनं गवये प्रवर्तयति । न द्वितीयः । व्याहतत्वात् । न खल्वनाकलितभेदस्यानयोरिति, अनयोरिति ग्रहे भेदाग्रह इति च प्रतिपत्तिर्भवति । अतः परिशेषात्सत्तामात्रेण भेदारहरूपस्य सारूप्यस्य व्यवहारकारणत्वमङ्गीकर्तव्यम् ।
इनमें पहला विकल्प ठीक नहीं है क्योंकि जैसे समीचीन ज्ञान ( सच्ची चीन का ज्ञान ) [ अपने उचित व्यवहार की ओर लोगों को प्रवृत्त करता है उसी तरह से समीचीन ज्ञान ] की तुलना करनेवाला ( Similar ) ज्ञान ( 'इदं रजतम्' का ) उस सम्यक् ज्ञान की तरह व्यवहारों में लोगों को प्रवृत्त नहीं कर सकता । 'गौ के समान गवय होता है' यह प्रतीति गौ चाहनेवाले व्यक्ति को गवय की ओर प्रवृत्त नहीं करती । [ विद्यमान वस्तु के साथ अविद्यमान वस्तु के सादृश्य का ज्ञान होने से भी अविद्यमान वस्तु की ओर प्रवृत्ति नहीं होती । ]
दूसरा विकल्प इसलिए ठीक नहीं कि इसमें व्याघात ( प्रतिरोध ) होता है । जिनमें भेद का ग्रहण ही नहीं किया गया है ( = ग्रहण और स्मरण में ), उसमें 'इन दोनों में' इत तरह की प्रतीति नहीं हो सकती और न 'अनयो:' ( इन दोनों में ) - ऐसा लेने से भेदाग्रह की ही प्रतीति हो सकती । [ एक ओर कह रहे हैं कि भेद का ग्रहण नहीं होता अर्थात् जाम एक है, दूसरी ओर द्विवचन शब्द का प्रयोग भी कर रहे हैं । यह व्याघात' नहीं तो
क्या है ? ]
१. Self-contradiction ( व्याघात ) | ४५ स० सं०
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