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सर्वदर्शनसंग्रहे
दोष हो और उसका परिहार ( निराकरण ) भी एक ही समान हो तो वैसे पदार्थ के विवेचन में किसी एक पर लांछन लगाना ठीक नहीं है ।'
तथापि मामकस्यानुमानस्य किं दूषणं दत्तमासीत् ? यद्यनुमानदूषणं विना न परितुष्यति, हन्त, कालात्ययापदिष्टता । कृष्णवर्त्मानुष्णत्वानुमानवत् । एतावन्तं कालं यदिदं रजतमित्यभादसौ शुक्तिरिति प्रत्यक्षेण प्राचीन प्रत्ययस्यायथार्थत्वं प्रवेदयता यथार्थत्वानुमानस्यापहृतविषयत्वाद् बाध्यत्वसम्भवात् ।
आपने क्या दोष लगाया ?
फिर भी हमारे ( मीमांसकों के ) द्वारा दिये गये अनुमान में वेदान्ती कहते हैं कि ] अच्छी बात, महोदय, यदि अनुमान में दोष दिखाये बिना आप सन्तुष्ट नहीं हो रहे हैं तो सुनिये- - आपके अनुमान में कालात्ययापदिष्ट या बाधित हेत्वाभास है । वह वैसा ही अनुमान है जैसे अग्नि को अनुष्ण सिद्ध करने के लिए अनुमान दिया जाय । [ अग्नि अनुष्ण है क्योंकि यह द्रव्य है जैसे जल । यह अनुमान प्रत्यक्ष प्रमाण से ही बाधित होता है । ]
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इस समय तक जो पदार्थ रजत के रूप में प्रतीत होता रहा है वह सीपी है - इस तरह प्रत्यक्ष प्रमाण ही प्राचीन प्रतीति की अयथार्थता सिद्ध करता है । यथार्थता सिद्ध करने वाले अनुमान का विषय अपहृत हो जाता है । ( चाँदी सीपी बन जाती है ) । इसलिए वह बाध्य तो है ही ।
यच्चोक्तं स्वगोचरव्यभिचारे सर्वानाश्वासप्रसङ्ग इति । तदसाम्प्रतम् । संविदां क्वचित्संवादिव्यवहारजनकत्वेऽपि न सर्वत्र तच्छङ्कया प्रवृत्त्युच्छेद इति, तथा तावकेऽपि मते तथा मामकेऽप्यसौ पन्था न वारित इति समानयोगक्षेमत्वात् ।
तौतातितमतमवलम्ब्य विधिविवेकं व्याकुर्वाणं राचार्यवाचस्पतिमिश्रबोधकत्वेन स्वतः प्रामाण्यं न व्यभिचारेणेति न्यायकणिकायां प्रत्यपादि । तस्मादविश्वासशङ्का अनवकाशं लभते ।
आपने यह कहा कि यदि [ ज्ञान में ] अपने विषय का व्यभिचार मानें ( विषय के यथार्थ न होने पर भी उसका ज्ञान स्वीकार करें और विषय से व्यभिचरित होनेवाला ज्ञान मानें तो सभी व्यक्तियों की प्रवृत्ति ( आश्वासन, विश्वास ) रुक जायगी । पर ऐसी बात ) नहीं है | ज्ञान से कहीं-कहीं संवादी ( व्यभिचरित, यथार्थ के साथ अयथार्थ ) व्यवहार की उत्पत्ति होती है, फिर भी सब जगह वैसा ही होने की शंका से प्रवृत्ति का बिल्कुल नाश
१. विवादास्पद प्रतीतियाँ यथार्थ हैं, क्योंकि वे प्रतीतियाँ हैं, जैसे दण्डी की प्रतीति । देखिये अनु० १२क का अन्त ।