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शांकर-वर्सनम्
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कामना कभी नहीं कर सकते । [ सुखी सुखों में तारतम्य लगा हुआ है। नौकरी पाने का सुख राज्य पाने के सुख से छोटा है । राज्यसुख स्वर्गसुख के सामने कुछ भी नहीं । इससे लगता है कि स्वर्ग का सुख भी किसी की अपेक्षा छोटा ही है । सुख के समान दूसरा सुख भी मिलता है । इसीलिए विद्वान् लोग निरतिशय तथा निरुपम आनन्द की कामना करते हैं जिसमें तनिक भी दुःख की सम्भावना नहीं रहे । ]
जो कुछ भी [ उस परमानन्द का ] विरोधी दुःखसमूह है उसे छोड़ने की कामना की जाती है । वह दुःखसमूह और कुछ नहीं, यह संसार ही है जिसका दूसरा नाम अविद्या भी है । कारण यह है कि अविद्या ही कर्तृत्व आदि सभी अनर्थों को उत्पन्न करती है । [ अविद्या के कारण ही प्राणी अर्थ में अनर्थ और अनर्थ में अर्थ की कल्पना करता है । वह वास्तव में किसी वस्तु का उत्पादक नहीं है, अविद्या के चलते ही वस्तुओं को उत्पत्ति केवल प्रतीत होती है परन्तु पुरुष अपने को ही कर्ता समझने लगता है । यह सब अविद्या के कारण होता है । ]
समित्येकीकरणे वर्तते । सम्भेदादौ तथा चोपलम्भात् । तथा चात्मानं देहेनैकीकृत्य स्वर्गनरकमार्गयोः सरति येन पुरुषः स संसारोऽविद्याशब्दार्थः । तन्निवृत्तिः फलं फलवतामभिमतम् । तथा कथितम्अविद्यास्तमयो मोक्षः सा च बन्ध उदाहृत । इति ।
[ संसार - शब्द में 'सम्' उपसर्ग एकीकरण ( Unification ) अर्थ में है जैसे सम्भेद [ सङ्गम ] आदि शब्दों में पाया जाता है । इस प्रकार आत्मा को देह से एक मानकर स्वर्ग और नरक के मार्गों पर पुरुष जिसके द्वारा चलता है ( सरति ) वही संसार की निवृत्ति हो [ आत्मजिज्ञासा का ] फल है, ऐसा फलवादी ( वेदान्ती ) लोग मानते हैं । जेसा कहा भी है- 'अविद्या का अस्तंगत होना मोक्ष है और अविद्या हो बन्धन मानी गयी है ।'
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विशेष – इन दो परिच्छेदों में पूर्वपक्षियों ने ब्रह्मजिज्ञासा का सम्भावित ( Possible ) प्रयोजन उद्धृत किया है जो वेदान्तियों को ही मान्यता है । अब पूर्वपक्षी यह दिखलायेंगे कि वास्तव में यह प्रयोजन है ही नहीं । उसके प्रदर्शन के बाद कहीं इस लम्बे पूर्वपक्ष का अन्त होगा ।
तच्च काशकुशावलम्बनकल्पम् । आत्मयाथात्म्यानुभवेन सह वर्तमानस्य संसारस्य रूपरसवद्विरोधाभावेन निवर्त्यनिवर्तकभावात् । ननु सहानुवर्तमानो बोधः संसारं मा बाधिष्ट । सहावर्तमानस्तु बोधः प्रकाशस्तमोवद्वाधिष्यत इति चेत् - तदेतद्रिक्तं वचः । अहमनुभवादन्यस्यात्मज्ञानस्य मूषिकविषाणायमानत्वात् ।