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सर्वदर्शनसंग्रहे( ११ ग. ग्रहण और स्मरण का विश्लेषण ) ननु रजतगोचरेकविशिष्टज्ञानानङ्गीकारे विशिष्टव्यवहारो न सिध्येत् । अतस्तत्सिद्धयेऽपि विपर्ययोऽङ्गीकार्य इति चेन्न। इदं रजतमिति ग्रहणस्मरणाभिधस्य बोधद्वयस्य व्यवहारकारणत्वाङ्गीकारात् । यद्यवमिदं शुक्तिकाशकलं तद्रजतमित्यतोऽपि विशिष्टव्यवहारः स्यादिति । तन्न। ____ अब ये वेदान्ती कह सकते हैं कि जब तक आप रजत के विषय में यह विशिष्ट (प्रत्यक्ष ) ज्ञान नहीं स्वीकार करते, तब तक [ 'इदं रजतम्' के रूप में आपका ] यह विशिष्ट व्यवहार सिद्ध नहीं होने का है । [ अभिप्राय यह है कि उक्त वाक्य का प्रयोग तभी सफल होगा जब उसका प्रयोग करनेवाले व्यक्ति को किसी-न-किसी रूप में रजत का प्रत्यक्ष हो रहा है । बिना रजत-प्रत्यक्ष के कौन मूर्ख 'इदं रजतम्' कहेगा ? किन्तु वस्तुतः तो रजत वहाँ है नहीं ] इसलिए उसकी सिद्धि के लिए भी विपर्यय (मिथ्याज्ञान, भ्रम ) आपको मानना ही पड़ेगा।
हमारा उत्तर है कि ऐसी बात नहीं । उक्त व्यवहार ('इदं रजतम्' वाक्य का व्यवहार ) का कारण हम 'इदं रजतम्' में विद्यमान ग्रहण ( प्रत्यक्ष–'इदं' शब्द में ) तथा स्मरण ( 'रजतम्' में ) इन दो ज्ञानों को मानते हैं।
[अब वेदान्ती एक आपत्ति इस उत्तर पर भी करते हैं-] यदि ऐसी बात होती [कि दो प्रकार के ज्ञानों से 'इदं रजतम्' का व्यवहार चलता है ] तो 'यह सीपी का टुकड़ा है, वह चाँदी है' इस तरह के वाक्यों से भी विशिष्ट व्यवहार होने लगता। [ स्थिति यह है कि जहां वास्तव में दो ज्ञान होते हैं जैसे सीपी का ज्ञान सीपी के रूप में और उसके आधार पर ही चाँदी का स्मरण, वहाँ ज्ञानों के पार्थक्य के कारण 'इदं रजतम्' के रूप में विशिष्ट व्यवहार नहीं हो सकता क्योंकि इस वाक्य से ज्ञान की एकता प्रकट होती है । यदि दो ज्ञानों को उक्त व्यवहार का कारण मानते हैं तो 'इदं रजतम्' तथा 'इदं शुक्तिकाशकलं, तद्रजतम्' इन दोनों व्यवहारों में कोई अन्तरं नहीं रह जायेगा ! पर स्वयं विचार करें, कितना अन्तर दोनों में है ?]
मीमांसक कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है । [ इसका कारण आगे के लम्बे वाक्य में दे रहे हैं।]
तत्रेदमिति पुरोवतिद्रव्यमात्रग्रहणस्य दोषदूषितचक्षुर्जन्यत्वेनानाकलितशुक्तित्वादिविशेषितस्य सामान्यमात्रग्रहणरूपत्वाद्, रजतमिति ज्ञानस्यासंनिहितविषयस्य संयोगलिङ्गाद्यप्रसूततया सदशावबोधितसंस्कारमात्रप्रभवत्वेन परिशेषप्राप्तस्मृतिभावस्य दोषहेतुकतया गृहीत-तत्तांशप्रमोषाद् ग्रहणमात्रत्वोपपत्तेः।