________________
शांकर-वर्शनम्
६९१
उस (वाक्य) में 'इदम्' शब्द सामने में विद्यमान केवल द्रव्य का ही ग्रहण करता है ( कौन द्रव्य है - यह पता नहीं, केवल 'कुछ द्रव्य है' यही ग्रहण हुआ है ) । दोषयुक्त आँखों से उसका प्रत्यक्ष होने के कारण उक्त ज्ञान ( द्रव्य ग्रहण ) में शुक्तित्व आदि विशेषणों ( Particulars ) का ग्रहण नहीं हो सका ( = यह नहीं जान सके कि जिस द्रव्य को देखा है वह सीपी है ) । अत: [ 'इदम्' के द्वारा सीपी का ] ग्रहण सामान्य रूप से किया गया है ।"
'रजतम्' शब्द [ का प्रयोग सूचित करता है कि उसके ] ज्ञान का विषय ( चाँदी ) समक्ष में नहीं है । यह ( रजतज्ञान ) न तो संप्रयोग ( विषयेन्द्रियसंनिकर्ष अर्थात् प्रत्यक्ष ) से उत्पन्न हो सकता है, न लिंग ( साधन अर्थात् अनुमान ) से और न किसी दूसरे प्रमाण से ही । सदृश वस्तु को देखने से जो संस्कार जगा है, उसी से यह ( रजतज्ञान ) उत्पन्न हुआ है इसलिए परिशेष ( अन्त में बचे हुए होने ) के कारण उसे हम स्मरणात्मक ज्ञान मानते हैं । [ स्मृति का कारण यह है कि रजत के सदृश वस्तु को देखने से रजत का जो संस्कार मानस पटल पर बैठा है वह जागृत हो जाता है । केवल इसी से रजत का ज्ञान उत्पन्न होता है । ] दोष के कारण, उस शब्द में जो रजत का तत्त्वांश लिया गया है उसे त्याग देना ( प्रमोष ) पड़ता है जिससे उसकी ( रजतज्ञान की ) सिद्धि केवल ग्रहण ( Apprehesion ) के रूप में ही हो सकती है । [ रजतज्ञान से कोई काम नहीं लिया जा सकता क्योंकि यह ज्ञान दोष से युक्त है । अत: उसकी उपयोगिता केवल ग्रहण के अर्थ में ही है। ज्ञान हुआ है पर उपयोग नहीं । ]
तदप्युक्तम् --
२०. नन्वत्र रजताभासः कथमेष घटिष्यते । उच्यते शुक्तिशकलं गृहीतं भेदवजितम् ॥ २१. शुक्तिकाया विशेषा ये रजताद्भदहेतवः ।
ते न ज्ञाता अभिभवाज्ज्ञाता सामान्यरूपता ॥ २२. अनन्तरं च रजतस्मतिर्जाता तयाऽपि च ।
मनोदोषात्तदित्यंशपरामर्शविवर्जितम् ॥ २३. रजतं विषयीकृत्य नैव शुक्तेविवेचितम् । स्मृत्यातो रजताभास उपपन्नो भविष्यति ।।
( प्रक० प० ४।२६–२९ ) इसे भी [ शालिकनाथ ने ] कहा है- प्रश्न - [ यह तो कहिये कि [ रजत के अभाव में ] यह रजतज्ञान उत्पन्न होना कैसे सम्भव है ? उत्तर - बतलाते हैं, सीपी के
१. तुलना करें - निरुक्त - १११, 'अदः इति सत्त्वानामुपदेश:' ( 'यह, वह' आदि शब्दों से वस्तुओं का सामान्यरूप में ग्रहण होता है ।